Friday, 8 April 2016

भगवान शिव के 19 अवतार

महाशिवरात्रि का पावन पर्व हर साल फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। कहते है इसी दिन भगवान शिव लिंग रूप में प्रकट हुए थे। शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए थे। महाशिवरात्रि के इस पावन अवसर पर हम आपको बता रहे हैं भगवान शिव के 19 अवतारों के बारे में-
1. वीरभद्र अवतार:-
भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।
2. पिप्पलाद अवतार:-
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोडक़र चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया।
श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
3. नंदी अवतार:-
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।
4. भैरव अवतार:-
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
5. अश्वत्थामा:-
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार थे। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मेें अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। शिवमहापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
6. शरभावतार:-
भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार- हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव ने शरभावतार लिया और वे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई। यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।
7. गृहपति अवतार :-
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं, पितामह ब्रह्मïा ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।
8. ऋषि दुर्वासा:-
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
9. हनुमान:-
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया।
सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।
10. वृषभ अवतार:-
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए। विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।
11. यतिनाथ अवतार:-
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी, जिसके कारण भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।
12. कृष्णदर्शन अवतार:-
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।
13. अवधूत अवतार:-
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।
14. भिक्षुवर्य अवतार:-
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का स्ह्वह्म्द्गनिर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक का पालन-पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।
15. सुरेश्वर अवतार:-
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जप करने लगा।
शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।
16. किरात अवतार:-
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया, उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव कीमाया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगे। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।
17. सुनटनर्तक अवतार:-
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।
18. ब्रह्मचारी अवतार:-
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।
19. यक्ष अवतार:-
यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।

अतृप्त इच्छाओं से बनते हैं प्रेत


मनुष्य धरती पर स्थूल शरीर समेत रहते हैं, भुत सूक्ष्म शरीर से अंतरिक्ष में है | तुलनात्मक दृष्टी से उनको सामर्थ्ये और साधन जीवित मनुष्यों की तुलना में कम होते है इसलिए वे डराने के अतिरिक्ति और कोई बड़ी हानि नहीं पहुँचा सकते | डर के कारण कई बार घबराहट,चिंता, असंतुलन जैसी कठिनाई उत्पन्न हो जाती है | भुतोंमाद में यह भीरुता और मानसिक दुर्बलता ही रोग बनकर सामने आती है | वे जिसमे कुछ अपेक्षा करते हैं उनसे संपर्क बनाते है और अपनी अत्रिप्तिजन्य उद्विन्गता के समाधान में सहायता चाहते हैं | प्राय: डर का मुख्य कारण होता है |      
कोई कहे सब अंधविश्वास है, तो कोई कहे बेहद खौफनाक है। भूतों के बारे में सुनते तो सभी हैं परन्तु इनके पौराणिक उद्गम को जानते नहीं और भूत-प्रेत के रहस्य से हमेशा आतंकित रहते हैं। लेकिन गरुड़ पुराण ने उस सारे भय को दूर करते हुए प्रेतयोनि से संबंधित रहस्यों को जीवित मनुष्यों के कर्म फल के साथ जोडक़र सम्पूर्ण अदृश्य जगत का वैज्ञानिक आधार तैयार किया है। वैदिक ग्रन्थ ‘‘गरुड़ पुराण’’ में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है। हिन्दू धर्म में ‘‘प्रेत योनि’’ इस्लाम में ‘‘जिन्नात’’ आदि का वर्णन भूत प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व आत्मा अथवा भूत प्रेत के रूप में होता है। 
भूत कभी भी और कहीं भी हो सकते हैं। चाहे वह विराना हो या भीड़ भार वाला मेट्रो स्टेशन। यहां हम जिस मेट्रो स्टेशन की बात कर रहे हैं वह किसी दूसरे देश का नहीं बल्कि भारत का ही एक मेट्रो स्टेशन है। इस स्टेशन पर भूतों का ऐसा साया है कि कई लोग ट्रैक पर कूद कर जान दे चुके हैं।
यह मेट्रो स्टेशन कोलकाता में स्थित है। इस स्टेशन का नाम है रवीन्द्र सरोवर। इस मेट्रो स्टेशन के बारे में कहा जाता है कि यहां पर भूतों का साया है। रात 10:30 बजे यहां से आखिरी मेट्रो गुजरती है। उस समय कई मुसाफिर और मेट्रो के ड्राइवरों ने भी इस चीज का अनुभव किया है कि मेट्रो ट्रैक के बीच अचानक कोई धुंधला साया प्रकट होता है और पल में ही गायब हो जाता है।
कोलकाता का यह मेट्रो स्टेशन यहां का सुसाइड प्वाइंट माना जाता है। कारण यह है कि यहां पर कई लोगों ने ट्रैक पर कूद कर आत्महत्या की है। वैसे भूत प्रेतों में विश्वास नहीं करने वाले लोग यह मानते हैं कि यह मेट्रो स्टेशन टॉलीगंज टर्मिनल के बाद पड़ता है जहां अधिकांश मुसाफिर उतर जाते हैं। इसलिए यहां अधिक भीड़ नहीं रहती है। यही कारण हो सकता है कि इस मेट्रो को सुसाइड प्वाइंट और भूतहा कहा जाता है। 
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनि के कारण:
ज्योतिष के अनुसार वे लोग भूतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में चंद्रमा और राहु के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाते हैं।
कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं। कुंडली में बनने वाले कुछ भूत-प्रेत बाधा योग इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रह स्थित हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर भूत-प्रेत-पिशाच या गंदी आत्माओं का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि-राहु-केतु या मंगल में से कोई भी ग्रह सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी भूत प्रेत बाधा या पिशाच या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. यदि किसी की कुंडली में शनि-मंगल-राहु की युति हो तो उसे भी ऊपरी बाधा प्रेत पिशाच या भूत बाधा तंग करती है।
4. उक्त योगों में दशा अंतर्दशा में भी ये ग्रह आते हों और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान हंै। इस कष्ट से मुक्ति के लिए तांत्रिक, ओझा, मोलवी या इस विषय के जानकार ही सहायता करते हैं।
5. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र-राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव से मुक्त न हो।
6. भूत प्रेत अक्सर उन लोगों को अपना शिकार बना लेते हैं जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
7. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और पिशाच योग के बराबर अशुभ फल देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को महत्वपूर्ण माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। पिशाच योग राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है। पिशाच योग जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है वह प्रेत बाधा का शिकार आसानी से हो जाता है। इनमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। कभी-कभी स्वयं ही अपना नुकसान कर बैठते हैं।
8. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई ऊपरी शक्तियां उसका विनाश करने में लगी हुई हैं और किसी भी इलाज से उसको कभी फायदा नहीं होता।
9. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी ऊपरी बाधा का प्रभाव जल्द होने की संभावनाएं बनती हैं। जो मनुष्य जितनी अधिक वासनाएँ ओर आकांक्षाएँ अपने साथ लेकर मरता है उसके भूत होने की सम्भावना उतनी ही अधिक रहती है। 
आकांक्षाओं का उद्वेग मरने के बाद भी प्राणी को चैन नहीं लेने देता और वह सूक्ष्म शरीरधारी होते हुए भी यह प्रयत्न करता है कि अपने असन्तोष को दूर करने के लिए कोई उपाय, साधन एवं मार्ग प्राप्त करे। साँसारिक कृत्य का उपयोग शरीर द्वारा ही हो सकते हैं। मृत्यु के उपरान्त शरीर रहता नहीं। ऐसी दशा में उस अतृप्त प्राणी की उद्विग्नता उसे कोई शरीर गढऩे की प्रेरणा करती है। अपने साथ लिपटे हुए सूक्ष्म साधनों से ही वह अपनी कुछ आकृति गढ़ पाता है जो पूर्व जन्म के शरीर से मिलती जुलती किन्तु अनगढ़ होती है। अनगढ़ इसलिए कि भौतिक पदार्थों का अभीष्ट अनुदान प्राप्त कर लेना, मात्र उसकी अपनी इच्छा पर ही निर्भर नहीं रहता। ‘भूत’ अपनी इच्छा पूर्ति के लिए किसी दूसरे के शरीर को भी माध्यम बना सकते हैं। उसके शरीर से अपनी वासनाओं की पूर्ति कर सकते हैं अथवा जो स्वयं करना चाहते थे वह दूसरों के शरीर से करा सकते हैं। कुछ कहने या सुनने की इच्छा हो तो वह भी अपने वंशवर्ती व्यक्ति द्वारा किसी कदर पूरी करते देखे गये हंै। इसके लिए उन्हें किसी को माध्यम बनाना पड़ता है। हर व्यक्ति माध्यम नहीं बन सकता। उसके लिए दुर्बल मन:स्थिति को आदेश पालन के लिए उपयुक्त मनोभूमि का व्यक्ति होना चाहिए। प्रेतों के लिए सवारी का काम ऐसे ही लोग दे सकते हैं। मनस्वी लोगों की तीक्ष्ण इच्छा शक्ति उनका आधिपत्य स्वीकार नहीं करतीं। 
भूतों के अस्तित्व से किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है। वे भी मनुष्यों की तरह ही जीवनयापन करते हैं। मनुष्य धरती पर स्थूल शरीर समेत रहते हैं, भूत सूक्ष्म शरीर से अन्तरिक्ष में रहते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से उनको सामथ्र्य और साधन जीवित मनुष्यों की तुलना में कम होते हैं इसलिए वे डराने के अतिरिक्त और कोई बड़ी हानि नहीं पहुँचा सकते। डर के कारण कई बार घबराहट, चिन्ता, असन्तुलन जैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है। भूतोन्माद में यह भीरुता और मानसिक दुर्बलता ही रोग बनकर सामने आती है। वे जिससे कुछ अपेक्षा करते हैं उनसे संपर्क बनाते हैं और अपनी अतृप्तिजन्य उद्विग्नता के समाधान में सहायता चाहते हैं। प्राय: डर का मुख्य कारण होता है। इन सबसे बचने के लिए हनुमान-चालीसा बहुत ज्यादा कारगर है, जिसके नाम से ही भूत-प्रेत भाग जाते हैं।

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Thursday, 7 April 2016

तापापानी गर्म पानी के कुण्ड

अम्बिकापुर-रामानुजगंज मार्ग पर अम्बिकापुर से लगभग 80 किमी. दूर राजमार्ग से दो फलांग पश्चिम दिशा मे एक गर्म जल स्त्रोत है। इस स्थान से आठ से दस गर्म जल के कुन्ड है। इस गर्म जल के कुन्डो को सरगुजिया बोली मे तातापानी कहते है। ताता का अर्थ है- गर्म। इन गर्म जलकुंडो मे स्थानीय लोग एवं पर्यटक चावल ओर आलु को कपडे मे बांध कर पका लेते है तथा पिकनिक का आनंद उठाते है। इन कुन्डों के जल से हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी गन्ध आती है। एसी मान्यता है कि इन जल कुंडो मे स्नान करने व पानी पीने से अनेक चर्म रोग ठीक हो जाते है। इन दुर्लभ जल कुंडो को देखने के लिये वर्ष भर पर्यटक आते रहते है।
तातापनी में दशकों से मकरसक्रांति के अवसर पर तातापानी में मेला लगता आ रहा है। शुरूआती वर्षो में यह किसी बड़े गांव का सप्ताह में लगने वाला एक दिन का हॉट बाजार जैसा मेला हुआ करता था लेकिन कालांतर में यह मेला प्रसिद्घि पा चुका है और छत्तीसगढ़ के साथ ही झारखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश से भी लोग यहां के सक्रांति मेला में पहुंचते हैं। मेले को अब तातापानी महोत्सव का नाम दिया गया है। पहले यहां का सक्रांति मेला दो दिन का लगता था लेकिन अब महोत्सव को तीन दिन का आयोजित किया जाता है। जहां बाहर से आने वाले परिवारों के सदस्य सुरक्षित और विकसित रूप से तैयार स्थलों मे गर्मपानी से स्नान कर प्राकृति का सही आनंद ले सकते हैं। इन स्थलों को हॉट वाटर रिजार्ट के रूप में विकसित किया गया है। तीन दिवसीय तातापानी महोत्सव का आयोजन 13 से 15 जनवरी तक किया जाता है।
तीन दिवसीय तातापानी महोत्सव में हर रोज शाम को रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति दी जाती है जिसमें देश के नामचिन कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं।
तातापानी गर्म जल स्रोत वर्षों से अपने गर्म जल के विशेष गुणों के कारण प्रसिद्ध है। तातापानी के गर्म जल में नहाने से चर्मरोग दूर हो जाते हैं। इस खूबी के कारण यहां चर्मरोग पीडि़त बड़ी संख्या में पहुंचते हैं एवं गर्म जल से नहाते हैं। दरअसल तातापानी क्षेत्र प्राकृतिक सल्फर का बड़ा भंडार है। दशकों पूर्व यहां सल्फर निकालने के लिए बोर करने की कोशिश भी की गई थी, लेकिन गहराई में उच्चताप क्षमता वाले बोर उपकरणों के खराब हो जाने के कारण इसपर काम नहीं हो पाया। सल्फर के बड़े भंडार से होकर उच्च दबाव के प्राकृतिक जल के बाहर आने के कारण यहां का पानी गर्म है एवं प्राकृतिक सल्फर के कारण ही चर्मरोग ठीक होते हैं। यहां बाद में शिवमंदिर का भी निर्माण कराया गया जो संक्राति मेले में श्रद्धालुओं से भरा रहता है।
छत्तीसगढ़ के एक मात्र गर्म जल स्त्रोत तातापानी को पर्यटन नक्शे पर स्थापित करने बलरामपुर जिला प्रशासन ने अभिनव पहल की शुरूआत की है। प्रशासन यहां हॉट वाटर रिजार्ट और आयुर्वेद के पंचकर्म की सुविधा तथा स्पा खोलने के तैयारी में है। पर्यटन विभाग से सैद्घांतिक रूप से सहमति भी मिल चुकी है। कोशिश की जा रही है कि ऐसे भव्य मंदिर का निर्माण कराया जाए,जहां शिव जी की जटा से गर्मजल अविरल प्रवाहित होते रहे।



मकर संक्रांति पुण्यतिथि

जिस दिन सूर्य एक राशि से दुसरे राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन को संक्रांति कहते है | मकर संक्रांति त्योहार माघ मास की प्रतिपदा को मनाया जाता है | इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है | सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन दान-पुण्य और देव अनुष्ठान की बहुत महिमा है | इस दिन किया गया दान अगले जन्मों में सौ गुणा पुण्यफलदायी होकर मिलता है |
त्यौहार किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता की झलक दिखाते हैं एवं सामजिक एकीकरण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। भारत देश में पर्वों और त्योहारों को बहुत श्रद्धा, आस्था और उल्लास के साथ मनाया जाता है। मकर संक्रांति का पर्व जिसे सम्पूर्ण भारत में अत्यंत जोश और उत्साह से मनाया जाता है। मत्स्य पुराण और स्कंद पुराण में मकर संक्रांति के बारे में विशिष्ट उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण में व्रत विधि और स्कंद पुराण में संक्रांति पर किए जाने वाले दान को लेकर व्याख्या प्रस्तुत की गई है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि इसे मकर संक्रांति क्यों कहा जाता है? मकर संक्रांति का सूर्य के राशियों में भ्रमण से गहरा संबंध है। वैज्ञानिक स्तर पर यह पर्व एक महान खगोलीय घटना है और आध्यात्मिक स्तर पर मकर संक्रांति सूर्यदेव के उत्तरायण में प्रवेश की वजह से बहुत महत्वपूर्ण बदलाव का सूचक है। सूर्य 6 माह दक्षिणायन में रहता है और 6 माह उत्तरायण में रहता है।मकर राशि में सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के अंतिम तीन चरण, श्रवण नक्षत्र के चारों चरण और धनिष्ठा नक्षत्र के दो चरणों में भ्रमण करते हैं।
हम जानते हैं कि ग्रहों एवं नक्षत्रों का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। इन ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति आकाशमंडल में सदैव एक समान नहीं रहती है। हमारी पृथ्वी भी सदैव अपना स्थान बदलती रहती है। यहाँ स्थान परिवर्तन से तात्पर्य पृथ्वी का अपने अक्ष एवं कक्ष-पथ पर भ्रमण से है। पृथ्वी की गोलाकार आकृति एवं अक्ष पर भ्रमण के कारण दिन-रात होते है। पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सम्मुख पड़ता है वहाँ दिन होता है एवं जो भाग सूर्य के सम्मुख नहीं पड़ता है, वहाँ रात होती है। पृथ्वी की यह गति दैनिक गति कहलाती है। किंतु पृथ्वी की वार्षिक गति भी होती है और यह एक वर्ष में सूर्य की एक बार परिक्रमा करती है। पृथ्वी की इस वार्षिक गति के कारण इसके विभिन्न भागों में विभिन्न समयों पर विभिन्न ऋतुएँ होती है जिसे ऋतु परिवर्तन कहते हैं। पृथ्वी की इस वार्षिक गति के सहारे ही गणना करके वर्ष और मास आदि की गणना की जाती है। इस काल गणना में एक गणना अयन के संबंध में भी की जाती है। इस क्रम में सूर्य की स्थिति भी उत्तरायण एवं दक्षिणायन होती रहती है। जब सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर होती है तो उसे उत्तरायण एवं जब उत्तर से दक्षिण होती है तो उसे दक्षिणायण कहा जाता है।
जिस दिन सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन को संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति त्यौहार माघ मास की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन दान-पुण्य और देव -अनुष्ठान की बहुत महिमा है। इस दिन किया गया दान अगले जन्मों में सौ गुना पुण्यफलदायी होकर मिलता है। मकर संक्रांति को तिल और गेहूं का दान करना चाहिए, तिल मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। और अपने वजन के बराबर गेहूं का तुलादान करना श्रेष्ठ फलदायी होता है। इसी दिन पितरों को तिल मिश्रित जल से तर्पण करना चाहिए इससे उन्हें असीम शान्ति और मुक्ति मिलती है तथा वे प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद स्वरुप पारिवारिक सौहार्द, उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु और आर्थिक समृद्धि प्रदान करते हैं। मकर संक्रांति को सूर्य पूजा का विशेष महत्व है। सूर्य हमें तेज, बल, ऊर्जा और निरोगी शरीर देते हैं। अत: इनकी उपासना करने वाले व्यक्ति को आत्मविश्वास, ऊर्जा और एकाग्रता प्राप्त होती है तथा यश, प्रतिष्ठा और आकर्षक व्यक्तित्व भी मिलता है।
जन्म कुंडली में निर्बल सूर्य व्यक्ति को आत्महीनता, सिरदर्द, बालों से सम्बंधित परेशानी, कन्धा, गर्दन और पैरों की समस्या, शरीर में कैल्शियम की कमी व रक्त सम्बन्धी विकारों से पीडि़त करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को नित्य सूर्य को सिन्दूर मिश्रित जल से अर्घ्य देना चाहिए व आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। यदि आप भी इनमे से किसी समस्या से जूझ रहे हैं तो मकर संक्रांति के विशेष पर्व को आप भी सूर्य अनुष्ठान पूर्ण करके अपनी इन समस्याओं से सदैव के लिए छुटकारा पा सकते हैं।
उत्तरायण में सूर्य के प्रवेश का अर्थ कितना गहन है और आध्यात्मिक व धार्मिक क्षेत्र के लिए कितना पुण्यशाली है, इसका अंदाज सिर्फ भीष्म पितामह के उदाहरण से लगाया जा सकता है। महाभारत युग की प्रामाणिक आस्थाओं के अनुसार सर्वविदित है कि उस युग के महान नायक भीष्म पितामह शरीर से क्षत-विक्षत होने के बावजूद मृत्यु शैया पर लेटकर प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश का इंतजार कर रहे थे।
मकर संक्रांति से कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा उनसे मिली थीं। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
महाभारत काल के महान योद्धा भीष्म पितामह ने भी अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था।
इस त्यौहार को अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। मकर संक्रांति को तमिलनाडु में पोंगल के रूप में तो आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व केरला में यह पर्व केवल संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।
इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी व सभी असुरों के सिरों को मंदार पर्वत में दबा दिया था। इस प्रकार यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है।
यशोदा जी ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था तब सूर्य देवता उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी। कहा जाता है तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ।
ज्योतिषीय मान्यता है कि सूर्य का पुत्र शनि है। पिता पुत्र के रिश्ते के बावजूद इन दोनों के रिश्ते में बड़ी कड़वाहट है। सूर्य इस दिन एक माह के लिए शनि के घर जाते है। कहा जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं। शनिदेव चूंकि मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। इसका आशय है आपसी रिश्ते सुधारने के लिए सूर्य और शनि एक माह तक एक दुसरे के सतत संपर्क में रहते है। तिल शनि का कारक और गुड़ सूर्य का कारक पदार्थ है। तिल का स्वाद कड़वा होता है, जबकि गुड़ का स्वाद बहुत मीठा। गुड़ से मिलकर तिल भी अपना कडवापन त्याग कर स्वादिष्ट हो जाता है। इन दोनों पदार्थ के तालमेल से तिल का लड्डू बनाकर खाने-खिलाने की परम्परा का आशय मुंह में मीठास लाने के साथ-साथ हमारे सामजिक रिश्तों में भी मिठास घोलना है।

जब वरुण ने अपने पुत्र की कठोर परीक्षा ली

एक बार वरुण के पुत्र भृगु के मन में परमात्मा को जानने की अभिलाषा जाग्रत हुई। उनके पिता वरुण ब्रह्म निष्ठ योगी थे। अत: भृगु ने पिता से ही अपनी जिज्ञासा शांत करने का विचार किया। वे अपने पिता के पास जाकर बोले- ‘भगवन्! मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूं। आप कृपा कर मुझे ब्रह्म तत्व समझाइए’। वरुण बोले- ‘जिससे सभी का पालन-पोषण होता है, वही ब्रह्म है।’
भृगु ने सोचा- अन्न ही ब्रह्म है जो सबका पालन करता है। अत: उन्होंने अन्न उपजाया, अन्न को समझा, यह क्या है, यह कहां से आता है। पिता के पास गए और कहा - ‘प्रभु!’ अन्न को समझा, लेकिन शांति नहीं मिली।’ वरुण बोले- ‘तुम तप द्वारा ब्रह्म-तत्व को समझने का प्रयास करो।’
भृगु ने तप प्रारंभ कर दिया, इससे शरीर तो तेजस्वी हो गया किंतु फिर भी शांति प्राप्त नहीं हुई। पुन: वे पिता के पास गए और अपनी जिज्ञासा दोहराई - ‘ब्रह्म तत्व का रहस्य बताइए।’ पिता ने कहा- ‘तू तप कर।’ भृगु ने मन को संयम में रखने व पवित्र करने की साधना की किंतु शांति इस बार भी दूर ही रही।
वर्षों तक तपस्या के बाद भृगु को अद्भुत ज्ञान एवं मानसिक शक्ति प्राप्त हुई। जब पिता को विश्वास हो गया कि पुत्र ब्रह्म विद्या के ज्ञान का अधिकारी हो गया है, तब उन्होंने भृगु को ब्रह्मतत्व का ज्ञान दिया, जिससे भृगु की आत्मा प्रकाशित हो उठी।
तैतरीय उपनिषद के इस प्रसंग से प्रेरणा मिलती है कि सच्चे गुरु बिना पात्रता का विचार किए किसी शिष्य को ज्ञान नहीं देता। ज्ञान प्राप्त करने का सच्च अधिकारी वही है, उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद उसका दुरुपयोग न करे, और हमेशा गुरू का ऋणी रहे अर्थात कभी भी गुरू की अवहेलना न करे।

जाति-आधारित संरचना में बदलाव

भारत का संविधान जाति को अशक्तता या भेदभाव के स्रोत के रूप मेंं देखता है और असमानता की इस रूढ़ि को जड़ से मिटाने के लिए संविधान मेंं कुछ व्यवस्थाएँ भी की गई हैं. यह परिकल्पना की गई है कि भारत के सामाजिक जीवन मेंं जाति व्यवस्था एक अपवाद है, जो धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी.दूसरे शब्दों मेंं, संविधान भारतीय नागरिक को एक जाति-विहीन नागरिक के रूप मेंं स्वीकार करता है और किसी भी प्रकार के जातिसूचक संबंधों को स्वीकार नहीं करता. यद्यपि संविधान मेंं जाति के आधार पर असमानता को मिटाने का संकल्प स्पष्ट है,लेकिन भारत के सामाजिक जीवन मेंं जातिगत समूहों की हैसियत के बारे मेंं संविधान मेंं स्थिति स्पष्ट नहीं है. परंतु जाति के आधार पर गणना के निर्णय से जातिगत समूहों –विशेषकर अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) जैसे निम्न वर्गों को- कानूनी मान्यता मिल जाएगी और इससे कानूनी तौर पर जातिगत आधार पर राजनैतिक गतिविधियों को बल मिलेगा. इसका अर्थ यह होगा कि भारत कानूनी तौर पर एक जातिगत समाज बन जाएगा. भारत का संभ्रांत वर्ग इस निहितार्थ से सकते मेंं है और इसके परिणामस्वरूप होने वाले व्यापक सामाजिक कायाकल्प और उससे कानूनी तौर पर मिलने वाली जातिगत समाज की सामाजिक स्वीकृति से बेहद आशंकित है.
यह दृष्टि भी नई नहीं है कि भारतीय समाज एक जातिगत समाज है. दलित और अन्य जाति-विरोधी सामाजिक आंदोलनों की यह मान्यता रही है कि भारतीय समाज के मूल मेंं जातिगत व्यवस्था है. ब्रिटिश काल मेंं फुले और अम्बेडकर ने मुखर रूप मेंं यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि भारतीय समाज मेंं जाति के आधार पर ही हैसियत,सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का निर्धारण होता है. आपात् काल के बाद नई पीढ़ी के दलित लेखकों, आलोचकों, विद्वानों और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने न केवल इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत एक जातिमूलक समाज है, बल्कि जाति की नई अवधारणा भी की थी. उन्होंने समाज मेंं विभाजन करने वाली संभ्रांत वर्ग की एक इकाई वाली जातिमूलक अवधारणा की न केवल आलोचना की, बल्कि उसे सिरे से नकार भी दिया और हिंसा के दैनंदिन के अनुभवों के स्रोत और गतिशीलता की पहचान के लिए जाति की नई अवधारणा को जन्म दिया. वस्तुत: जाति को राष्ट्रीय वर्ग के रूप मेंं मान्यता दिलाने के लिए जबर्दस्त दबाव की शुरूआत उस समय हुई जब 1970 और 1980 के दशकों मेंं दलितों के सामूहिक नरसंहार के संदर्भ मेंं समकालीन दलित आंदोलन का उदय हुआ. दलितों पर होने वाले अत्याचारों के संदर्भ मेंं ही कॉन्ग्रेस सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 बनाए. इन अधिनियमों से जाति के कानूनी दृष्टिकोण मेंं महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ. जहाँ एक ओर अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 ने ‘‘अस्पृश्यता’’ को जातिमूलक न मानकर अशक्तता का एक कारण माना, वहीं अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम,1989 ने ‘‘जाति’’ को अत्याचार और जाति संबंधी अत्याचार का मूल कारण मानते हुए राष्ट्रीय अपराध माना. 1991 से 1993 के दौरान मंडल आंदोलन के समय जनता के दबाव मेंं आकर उच्चतम न्यायालय ने भी जाति को राष्ट्रीय इकाई (इंद्रा साहनी बनाम भारतीय संघ, 1992) के रूप मेंं कानूनी मंजूरी दे दी. इसलिए जनगणना 2011 मेंं जाति-आधारित गणना की माँग दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) ने की है. ये वर्ग समकालीन समाज मेंं सामाजिक समूह के रूप मेंं उभरकर संगठित हो गए हैं और अब एक शक्तिशाली वर्ग के रूप मेंं काम कर रहे हैं.
भारत का संभ्रांत वर्ग भारत को एक समरसता पूर्ण और तटस्थ इकाई के रूप मेंं देखने का आग्रह बनाए रखना चाहता है जिसमेंं किसी प्रकार का वर्गभेद न हो. भारतीय नागरिकों (मेरी जाति हिंदुस्तानी) का यह विशेष वर्ग है. यह वर्ग अंग्रेज़ी मेंं शिक्षित शहरी लोगों का एक छोटा-सा वर्ग है, जिसमेंं मुख्यत: ऊँची जाति के बुद्धिजीवी और कुछ राजनीतिज्ञ शामिल हैं. यह वर्ग जाति को विभाजक तत्व और एक बुराई के रूप मेंं देखता है.इस वर्ग मेंं कुछ उदार विचारधारा के बुद्धिजीवियों के साथ-साथ वामपंथी बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जो यह मानते हैं कि जाति के आधार पर जनगणना से भारत के सार्थक और पूर्ण लोकतांत्रिक समाज के रूप मेंं विकसित होने मेंं अवरोध उत्पन्न होगा. वे यह मानते हैं कि जाति व्यवस्था पर की जाने वाली बहस अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के आरक्षण या अन्य नीतिगत मामलों तक ही सीमित है.ये दोनों संभ्रांत वर्ग अपने-आपको जातिविहीन (अर्थात् सच्चे भारतीय) और दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लोगों को जातिपरक लोग ही मानते हैं. वे यह नहीं मानते कि विभिन्न जातियों की मान्यता और देश मेंं विभिन्न सामाजिक वर्गों का अस्तित्व अपने-आप मेंं ही एक महत्वपूर्ण निर्णय है.
हमेंं जाति की महत्वपूर्ण अवधारणाओं के संबंध मेंं दलितों की आलोचना पर ध्यान देना चाहिए. दलितों के साहित्यिक लेखक, कार्यकर्ता और अकादमीय विद्वान् रोज़मर्रे के भेदभाव, हिंसा के विभिन्न प्रकार के क्रूर रूपों और अमानवीयता और असमानता को जाति व्यवस्था का मूल स्रोत मानते हैं.
साथ ही ये लेखक अपने अनुभव के आधार पर जाति की भूमिका को उजागर करते हुए कहते हैं कि हैसियत, जातिगत अहंकार, सामाजिक मान-सम्मान और सत्ता का मूल आधार जाति ही है और इस धारणा को निरस्त कर देते हैं कि धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के नागरिक जातिविहीन हैं. वे जाति के इस ऐकांतिक और प्रभावी दृष्टिकोण को भी चुनौती देते हैं कि सामाजिक विभाजन का एकमात्र साधन जाति ही है और नीची जाति के लोगों की पहचान केवल जाति से ही है.अकादमीय पंडित इस बात पर हैरत मेंं पड़ जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन मेंं और चुनावी मैदान मेंं जाति की पहचान को ज़ोर देकर रेखांकित किया जाता है. जाति के रेखांकन के इन नए तरीकों से यह सवाल उठता है कि भारत मेंं सामाजिक परिवर्तन को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए कदाचित् जाति की अवधारणा ही एकमात्र महत्वपूर्ण साधन है और साथ ही मूल बिंदु भी है.
भारत की जनगणना भारत की पहचान को दर्शाने का मूलभूत साधन है. केंद्र सरकार का यह दावा है कि भारत की जनगणना से व्यापक जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक आँकड़े प्राप्त होते हैं और ‘‘यह गाँव, कस्बे और वार्ड के स्तर पर प्राथमिक आँकड़े प्राप्त करने का एकमात्र स्रोत है’’. ये आंकड़े संसद, विधानसभा, पंचायत और अन्य स्थानीय निकायों के स्तर पर चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन / आरक्षण के आधार हैं. परंतु 1931 के बाद से इन महत्वपूर्ण आँकड़ों मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. जनगणना के वर्गों मेंं केवल धार्मिक समुदायों, भाषिक समूहों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी और पुरुष-स्त्री अनुपात का ही समावेश है. अपवाद के रूप मेंं जाति का रिकॉर्ड अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान के लिए रखा जाता है. जनता के अन्य वर्गों के संदर्भ मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. इस प्रकार भारतीय जनगणना सच्चे अर्थों मेंं ‘‘भारतीय’’ ही रहती है.
राष्ट्रीय जनगणना के प्रतीकात्मक और राजनैतिक महत्व को देखते हुए और राष्ट्रीय जनगणना मेंं जाति के आँकड़ों के अभाव को देखते हुए सन् 2001 मेंं जाति के समावेश की माँग उठाई गई. तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया. इस बार दलित समाज के लोग भारतीय जनगणना के समरसता पूर्ण और एकपक्षीय दृष्टिकोण को चुनौती देने के लिए कटिबद्ध हैं और यह तर्क देते हैं कि भारत मेंं विविध सामाजिक वर्गों के अस्तित्व को मान्यता दी जाए. जनगणना मेंं राष्ट्रीय वर्गों को समग्र रूप मेंं दर्शाया गया है और भारत को एक जातिगत समाज के रूप मेंं फिर से परिभाषित करना राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. दलित और अन्य कुचले हुए जातिगत समूह भारत जैसे आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र की संस्थाओं से जुडऩे का महत्व अब समझने लगे हैं. इसलिए जाति के आधार पर जनगणना की माँग का उनके लिए रणनीतिक महत्व है. वे निश्चय ही भूमि वितरण कार्यक्रम के रूप मेंं या फिर जनगणना की नई रूपावली के रूप मेंं क्रांति के लिए भी सन्नद्ध हैं. लेकिन वे न तो अब व्यापक सामाजिक कायाकल्प की परियोजनाओं की प्रतीक्षा कर सकते हैं और न ही ठीक अभी संपूर्ण जनगणना प्रक्रिया को पूरी तरह से पुनर्निर्मित करने मेंं सक्षम हैं.
जनगणना मेंं न केवल अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की बल्कि ‘‘हर परिवार के प्रत्येक सदस्य की जाति’’ की गणना से भारत जातिगत समाज बन जाएगा और इससे अनेक नए सवाल उठेंगे. जनगणना से कुछ जातिगत समूहों की विशेषाधिकार की हैसियत और उनकी संख्या का भी साफ़-साफ़ पता चल जाएगा. व्यापक जातिगत आँकड़ों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के प्रत्येक वर्ग के लिए आरक्षण के प्रतिशत की माँग भी बढ़ सकती है और आरक्षण की वर्तमान 50 प्रतिशत की सीमा को भी चुनौती दी जा सकती है.
नए जातिगत समूह आरक्षण और कल्याण योजनाओं से कहीं अधिक की माँग कर सकते हैं और भूमि, संपत्ति और सत्ता के पुनर्वितरण की नई माँग कर सकते हैं. कई मायावतियाँ हो सकती हैं जो संख्या के खेल मेंं निपुण हैं और राष्ट्रीय चुनाव के दृश्य को पूरी तरह से बदलने मेंं सक्षम हैं. जाति के आधार पर गणना से एक ऐसी सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू होगी जिससे अकादमीय क्षेत्र से अलग सार्थक जन-संवाद के माध्यम से जाति का गैर-अनिवार्यीकरण और राजनीतिकरण मथकर ऊपर आ जाएगा. इस प्रक्रिया से जातिगत तनाव भी बढ़ सकता है और नए शासक वर्ग (अन्य पिछड़े वर्गों को मिलाकर) का उदय हो सकता है और भारत के संभ्रांत वर्ग से जुड़े वर्तमान शासक वर्ग का पूरी तरह खात्मा हो सकता है. लोकतंत्रीकरण की इस प्रक्रिया मेंं बहुत-से अंतर्विरोध और विस्मयपूर्ण बातें होंगी और भारत का संभ्रांत वर्ग अभी इस कायाकल्प के लिए तैयार नहीं है.
सरकार मेंं आरक्षण और शिक्षण संस्थाओं, नौकरी मेंं आरक्षण दो अलग अलग मुद्दे हैं। पंचायत मेंं अथवा संसद मेंं महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए जो आरक्षण दिया गया है तथा इस दिशा मेंं जो प्रयास किए जा रहे हैं वो उचित हैं। वह इसलिए कि सरकार का तो काम ही होता है कि वह लोगों का प्रतिनिधित्व करे। इसलिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अगर लिंग, समुदाय या क्षेत्र आधारित आरक्षण दिया जाता है तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। पर यही बात नौकरी या शिक्षण संस्थाओं मेंं दिए जाने वाले आरक्षण के बारे मेंं नहीं कही जा सकती।
इंजीनियरिंग या मेंडिकल आदि उच्च शिक्षण संस्थाओं तथा नौकरी मेंं चयन का आधार खुली प्रतिस्पर्धा मेंं समान मानकों पर प्रदर्शन होता है। इसके अलावा और किसी भी आधार पर अगर वहां चयन किया जाएगा तो उसका प्रदर्शन और कार्यकुशलता पर विपरीत असर तो पड़ेगा ही। शुरू मेंं जरूर ऐसा लग सकता है कि कुछ वंचित समुदायों को आगे बढ़ाने मेंं हमने सफलता हासिक की है, पर दीर्घावधि मेंं तो इसके दुष्परिणाम ही होते हैं। इससे समाज बंटता है तथा सामाजिक विभाजन और मजबूत होते हैं। भारत मेंं आरक्षण व्यवस्था की जो भी थोड़ी बहुत समीक्षा हुई है, उसके निष्कर्ष यही हैं। वर्तमान आरक्षण व्यवस्था के दुष्परिणाम समझने के लिए हमेंं कुछ साल पीछे जाना होगा।
इंजीनियरिंग और मेंडिकल कॉलेजों मेंं 2006के दौरान ‘‘यूथ फॉर इक्वैलिटी’’ के बैनर तले कई माह तक चले आंदोलन को याद कर सकते हैं जिसमेंं कई छात्रों ने आत्मदाह भी किया था। जिसके बाद इस संगठन ने कई शिक्षण संस्थाओं मेंं चुनाव भी लड़ा था।
यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था। इसके विपरीत आज जिस तरह से कभी जाट तो कभी किसी अन्य समुदाय को राजनीतिक हानि-लाभ को ध्यान मेंं रखकर आरक्षण दिए जाने की बात की जाती है। योग्यता और कार्यकुशलता को पूरी तरह ताख पर रख दिया गया है। जिसने समुदायों मेंं पारस्परिक वैमनस्य बढ़ाकर सामाजिक एकता को भी चोट पहुंचाई है। अमरीका आदि देशों मेंं भी 'विविधता' को बढ़ावा देने की नीति बनाकर 'अफरमेंटिव एक्शन' के तहत अश्वेत लोगों को नौकरी तथा विशेष रूप से सरकारी ठेकों आदि मेंं प्राथमिकता दी गई थी, वहां भी उसके दूरगामी नकारात्मक असर को देखकर अब उन सबको धीरे धीरे कम किया जा रहा है।
आज तक का अनुभव तो यही कहता है कि नौकरियों अथवा दाखिले मेंं किसी तरह के आरक्षण के बजाए समाज के वंचित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें समर्थनकारी कार्यों के माध्यम से सक्षम बनाने की पहल की जानी चाहिए। उन्हें बेहतर कोचिंग जाने के लिए पैसे दें। अन्य कोई भी समर्थनकारी सहायता चाहे वह सांस्कृतिक-सामाजिक पूंजी के रूप मेंं हो अथवा आर्थिक पूंजी के रूप मेंं हो, दी जा सकती है। पर प्रवेश और नौकरी के लिए तो खुली प्रतिस्पर्धा ही पैमाना होना चाहिए। कई बार सरकारी ठेकों मेंं कुछ समुदायों के लिए आरक्षण की बात भी की जाती है। इसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। इसके बजाए यह हो सकता है कि कुछ समुदायों के लिए ठेके की राशि मेंं 10 या 15 प्रतिशत की रियायत दी जा सकती है, जिससे उन पर आर्थिक बोझ कम आए। पर ठेके की नीलामी तो खुली प्रतिस्पर्धा से ही होनी चाहिए। दीर्घावधि मेंं समाज की एकता और कुशलता दोनों के लिए यही बेहतर है।

भगवत प्रार्थना

महार्षि मार्कण्डेय जी कहते है - भगवन्! आप अंतर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु, परमाराध्य और शुद्ध स्वरूप है। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेद मार्ग के प्रवर्तक हैं। मैंन आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायण को नमस्कार करता हूँ। प्रभो! वेद में आपका साक्षात्कार करने वाला वह शान पूर्ण रूप से विद्यमान है, जो आपके स्वरूप का रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करने का यत्न करते रहने पर भी मोह में पड़ जाते है। आप भी एसे ही लीला विहारी है कि विभिन्न मत वाले आपके सम्बंध में जैसा सोचते-विचरते है, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव में आप देह आदि समस्त उपाधियों में छिपे हुये विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ।
अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन स्वरूप जगत है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुये त्याग पूर्वक भोगते रहो। आसक्त मत हो जाओ, क्योंकि धन-भोज्य-पदार्थ किसका है? अर्थात किसी का भी नहीं है।
हमारे लिये मित्र देवता कल्याणप्रद हो। वरुण कल्याणप्रद हों। चक्षु और सूर्य मंडल के अधिष्ठाता हमारे लिये कल्याणकारी हों, इन्द्र, वृहस्पति हमारे लिये शांती प्रदान करने वाले हो। त्रिविक्रम रूप से विशाल डगों वाले विष्णु हमारे लिये कल्याणकारी हों। ब्रह्म के लिये नमस्कार है। हे वायुदेव! तुम्हारे लिये नमस्कार है, तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा, ऋत के अधिष्ठाता तुम्हे, सत्यनाम सर्वेश्वर, सर्व शक्तिमान परमेंश्वर मेरी रक्षा करे, वह वक्ता की अर्थात आचार्य की रक्षा करे, रक्षा करे, मेरी रक्षा करे और मेरे आचार्य की। भगवान शांतिस्वरूप हैं, शांतिस्वरूप है, शांतिस्वरूप हैं।
जो तेजोमय किरणों के पुंज हैं, मित्र, वरुण तथा अग्नि आदि देवताओं एवं समस्त विश्व के प्राणियों के नेत्र हैं और स्थावर और जंगम सबके अन्तर्यामी आत्मा है, वे भगवान सूर्य आकाश, पृथ्वी, और अंतरिक्ष लोक को अपने प्रकाश से पूर्ण करते हुये आश्चर्य रूप उदित हो रहे हैं।
मैं आदित्य-स्वरूप वाले सूर्य मंडल रथ महान पुरुष को, जो अंधकार से सर्वथा परे, पूर्ण प्रकाश देने वाले और परमात्मा है, उनको जानता हूँ, उन्हीं को जानकर मनुष्य मृत्यु को लाँघ सकता है। मनुष्य के लिये मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा कोई अन्य मार्ग नहीं है।

भारत का ज्ञान शक्ति के रूप में बदलना

विश्व के परिदृश्य पर सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के एक खिलाड़ी के रूप मेंं भारत के उदय के कारण नयी आशाओं और आकांक्षाओं को बल मिला है. आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ अब भारत ज्ञान शक्ति के रूप मेंं, नवोन्मेंष और सृजनात्मक विचारों के केंद्र के रूप मेंं भी उभरने लगा है. लेकिन यही हमारा अभीष्ट मार्ग और मंजिल नहीं है. इसमेंं संदेह नहीं कि भारत के पास इस मंजिल तक पहुँचने के साधन तो हैं, लेकिन जब तक बुनियादी संस्थागत परिवर्तन नहीं होते तब तक इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध शैक्षणिक और अनुसंधान केंद्रों का भारतीय परिदृश्य ज्ञान शक्ति के रूप मेंं भारत को उभरने देने मेंं साफ़ तौर पर रुकावटें पैदा कर रहा है.  इसका प्रमुख कारण अनुसंधान संबंधी इसका बुनियादी ढाँचा और खास तौर पर इसका वर्तमान संस्थागत विन्यास है. ऐतिहासिक तौर पर भारतीय सिगनल व दूरसंचार उद्यम का जन्म पं. नेहरू के उस दृष्टिकोण का परिणाम है, जिसकी देश के विकास मेंं महत्वपूर्ण भूमिका समझी जाती है और जिसकी शुरूआत आज़ादी के बाद एक उछाल की तरह अचानक हुई थी. पं. नेहरू के संरक्षण मेंं मेंघनाथ साहा, विक्रम साराभाई, होमी भाभा और सी.वी. रमन जैसे उस पीढ़ी के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने तेज़ी से देशी वैज्ञानिक समुदाय को तैयार करने और तकनीकी आत्मनिर्भरता और सुविधा को हासिल करने के लिए उच्च प्राथमिकता के आधार पर वैज्ञानिक अनुसंधान को विकसित करने पर ज़ोर दिया था. इसलिए सोवियत संघ के मॉडल के आधार पर विशिष्ट विषयों से संबद्ध कुछ राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को सीमित संसाधन उपलब्ध करा दिये गये थे. संस्थागत टैम्पलेट का यह विकल्प अपनाने के कारण आज हमारी ये संस्थाएँ बहुत दरिद्र हो गयी हैं. इसी आरंभिक ऐतिहासिक दरार के कारण ही विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान को न तो पर्याप्त सहायता और समर्थन मिल सका और न ही संरचनात्मक बदलाव लाये जा सके जो विश्वविद्यालयों को जीवंत बनाने और पुन: आकार देने के लिए आवश्यक थे. इस बीच विश्वविद्यालय प्रणाली के बाहर विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र मेंं अधिकाधिक अनुसंधान संस्थान खुलते चले गये. अनुसंधान को शिक्षण से अलग करने के कारण सबसे अधिक नुक्सान विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध अंत:स्नातकीय शिक्षा को हुआ, जिसमेंं बुनियादी सुधार लाने की आवश्यकता है. शिक्षाशास्त्र को अनुसंधान से अलग करने के कारण ही दोनों ही गतिविधियों को भारी नुक्सान हुआ. पश्च-माध्यमिक शिक्षा मेंं महत्वपूर्ण चिंतन कौशल को विकसित न करने के कारण ही अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम मेंं वह चमक नहीं रही और इसने ही विश्वविद्यालयों के संकाय सदस्यों को विद्वान् न बन पाने के कारण अनेक प्रोत्साहनों से वंचित कर दिया और कुंठाग्रस्त और हताश शिक्षाशास्त्रियों की एक पीढ़ी को भी जन्म दे दिया. दूसरी ओर अधिकांश अनुसंधान केंद्र फलने-फूलने लगे और उनमेंं से कुछ संस्थान तो विश्व स्तर के हो गये. इसके उदाहरण हैं, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामैंटल रिसर्च (टीएफ़आईआर), इंटर युनिवर्सिटी सैंटर फ़ॉर ऐस्ट्रोनॉमी ऐंड ऐस्ट्रोफज़ि़िक्स ( आईयूसीएए), राष्ट्रीय जीववैज्ञानिक केंद्र (एनसीबीएस) और भारतीय विज्ञान संस्थान ( आईआईएस). परंतु नवोन्मेंष मेंं विश्व स्तर पर अग्रणी रहने के लिए भारत को अनुसंधान उद्यमों को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
भारत मेंं एक बार फिर से अनुसंधान और शिक्षण को तत्काल ही परस्पर जोडऩा होगा. संरचनात्मक परिवर्तनों को विश्वविद्यालय प्रणाली मेंं लाने की आवश्यकता है. आवश्यकता इस बात की है कि वे अनुसंधान संस्थानों मेंं सहयोगियों के बीच सहयोग को बढ़ावा दें और ऐसा करने के लिए उन्हें निधि भी प्रदान करें. यह कार्य भारत सरकार के विज्ञान व इंजीनियरी अनुसंधान परिषदों (एसईआरसी) मेंं उपलब्ध निधि को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अवसंरचना कार्यक्रम मेंं सुधार लाने के लिए वितरण करके किया जा सकता है. एसईआरसी इस प्रकार के मात्र सहयोगपरक कार्यों के लिए अनुदान कार्यक्रम आबंटित कर सकती है. अनुसंधान और शैक्षिक महाविद्यालयों के बीच वैज्ञानिक सहयोग को सक्रिय रूप मेंं बढ़ावा देने का लाभ यह होगा कि इससे एक ऐसी सरणी तैयार हो जाएगी जिससे अंत:स्नातक अनुसंधान के काम मेंं जुट जाएँगे. इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विश्वविद्यालयों को कम से कम सभी ऑनर्स डिग्री पाठ्यक्रमों मेंं अंत:स्नातकों के लिए अनुसंधान परियोजनाओं की आवश्यकता होगी. अनुसंधान के चक्र की स्थापना के लिए आवश्यक होगा कि अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम की अवधि बढ़ाकर चार साल कर दी जाए. अनुसंधान विज्ञान के अंत:स्नातकों के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग है और प्रत्येक विद्यार्थी इसका स्वाद भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा व अनुसंधान संस्थानों (आईआईएसईआर) मेंं ही चख लेता है. परंतु इसका कोई सादृश्य मानविकी और समाज विज्ञान मेंं नहीं मिलता. दूसरा आवश्यक और संबंधित मुद्दा है, अंत:स्नातकों की शिक्षा मेंं व्यापकता मेंं कमी. इसे व्यापक बनाने के लिए एक ऐसा व्यापक मूलभूत पाठ्यक्रम बनाना आवश्यक है जिसमेंं मात्रापरक तर्कप्रणाली, महत्वपूर्ण चिंतन, लेखन कौशल और बुनियादी गणित की क्षमता को विशिष्ट विज्ञान, इंजीनियरी या मैडिकल कॉलेजों के साथ-साथ सभी संस्थाओं के डिग्री कॉलेजों मेंं अंत:स्नातकों की शिक्षा का एक अंग बनाया जाना चाहिए.
ऑनलाइन शिक्षण और प्रशिक्षण के क्षेत्र मेंं आयी वर्तमान क्रांति की सहायता से शिक्षा संस्कृति मेंं बुनियादी परिवर्तन लाया जा सकता है. जिन्हें दुनिया मेंं कहीं भी स्ट्रीमलाइन किया जा सकता है और सामग्री को नि:शुल्क या मामूली शुल्क देकर प्राप्त किया जा सकता है. जिस पैमाने पर इन पाठ्यक्रमों को वितरित किया जा सकता है, वह आश्चर्यजनक है. व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) ने विशेषकर भारत जैसे देश मेंं पाठ्यसामग्री वितरित करने के लिए एक विशेष विकल्प की पेशकश की है, क्योंकि भारत की जनसांख्यिकी और शिक्षित किये जाने वाले युवा छात्रों की मात्र संख्या ही इतनी है कि यह अपने-आपमेंं एक चुनौती पैदा करती है. पश्च माध्यमिक शिक्षा मेंं व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) के उपयोग से लाइव और क्रमिक विषयवस्तुओं के साथ मिश्रित कक्षाओं की सुविधाओं का पूरक पाठ्यक्रम की तरह से उपयोग करते हुए वर्तमान अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रमों को अद्यतन किया जा सकता है. चूँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इससे अपने-आप मेंं अनुसंधान के क्षेत्र मेंं कैरियर मेंं उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी, इसलिए इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि इस क्रांति का कितना प्रभाव पड़ेगा.  व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसीएस) के माध्यम से पाठ्यक्रमों के वितरण, पाठ्यक्रम और शिक्षण को मानकीकृत किया जा सकता है.
विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान की गतिविधियों को बढा़वा देने के लिए एक और सरणी है, विज्ञान के विद्यार्थियों को तथाकथित नागरिक विज्ञान संबंधी परियोजनाओं से जोडऩा. शैक्षिक उपक्रमों मेंं विदेशी सहयोग भारत के लिए नया नहीं है. उदाहरण के लिए विशिष्ट आईआईटी संस्थाओं की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ही की गयी है. शायद अनुसंधान विश्वविद्यालयों के साथ संबंधों के नवीयन से वैसी ही मदद मिलती है, लेकिन इससे वर्तमान आईआईटी के संकाय सदस्यों की अनुसंधान परियोजनाओं को बढ़ावा देने मेंं भी मदद मिलेगी.
निर्णायक और साहसिक नीति संबंधी हस्तक्षेपों से भारत अपनी शैक्षणिक संस्कृति को इस पीढ़ी के अंदर भी ला सकेगा और अपनी अनूठी जनसांख्यिकी का लाभ भी उठा सकेगा. जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं और ऊर्जा, पानी और भोजन जैसे दुर्लभ संसाधनों की बढ़ती माँग की चुनौतियों के नये और नवोन्मेंषकारी समाधान ढूँढने के लिए भारत सिगनल व दूरसंचार से उम्मीदें बाँधे हुए है. सिगनल व दूरसंचार ने समाधान दिये भी हैं और जब तक हम इन स्थितियों को अनुकूल बना नहीं लेते तब तक हमारे पास आशावादी बने रहने की हर वजह मौजूद है. भारत उच्च शिक्षा के क्षेत्र मेंं भारी चुनौतियों का सामना कर रहा है. सन् 2007 मेंं प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत के लगभग आधे ज़िलों मेंं उच्च शिक्षा मेंं नामांकन ’’बहुत ही कम’’ है और दो तिहाई भारतीय विश्वविद्यालय और 90 प्रतिशत भारतीय कॉलेज गुणवत्ता की दृष्टि से औसत से भी बहुत नीचे हैं. इसमेंं हैरानी की कोई बात नहीं है कि शिक्षा की माँगों को पूरा करने मेंं शासन की विफलता के कारण ही भारत के संभ्रांत और मध्यम वर्ग के विद्यार्थी भारत मेंं और भारत के बाहर भी सरकारी संस्थाओं को छोडक़र निजी संस्थाओं की ओर रुख करने लगे हैं. सरकारी संस्थाओं से यह पलायन भारतीयों की शिक्षा संबंधी माँगों को पूरा करने मेंं शासन की क्षमता को निरंतर कमज़ोर कर रहा है और इस समस्या को और भयावह बनाता जा रहा है. दुर्भाग्यवश निजी संस्थाओं मेंं संकीर्ण व्यावसायिक मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और आंतरिक प्रशासन कमज़ोर होने लगा है और शासकीय नियमों मेंं शिथिलता आने लगी है.
बड़े पैमाने पर मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसी) चलाकर न केवल भारत की उच्च शिक्षा संबंधी चुनौतियों का पूरी तरह से सामना किया जा सकता है, बल्कि उच्च शिक्षा मेंं भारत की पहुँच और गुणवत्ता को कुछ हद तक बढ़ाया भी जा सकता है. पिछले दो वर्षों के दौरान एमओओसी ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है. एमओओसी के समर्थक सामाजिक, आर्थिक या राष्ट्रीय पृष्ठभूमि की परवाह किये बिना सभी को शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराने की संभावित क्रांति की बात करने लगे हैं. लेकिन कुछ लोग इस बात को लेकर सतर्कता बरतने की बात करते हैं कि इससे उच्च शिक्षा संबंधी स्थानीय संस्थाओं का महत्व घटने लगेगा और भौतिक (फज़िक़िल) विश्वविद्यालयों मेंं विशिष्ट संभ्रांत वर्ग के छात्रों को व्यक्तिनिष्ठ शिक्षा की सुविधा प्रदान करके शैक्षणिक असमानता को और भी बढ़ावा मिलेगा, जबकि अधिकांश छात्र वर्चुअल शिक्षा तक सीमित रह जाएँगे, जिससे शिक्षा की लागत मेंं तो कमी आ जाएगी, लेकिन गुणवत्ता मेंं भी गिरावट आ जाएगी.
भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं एमओओसी के संभावित प्रभाव को समझने के लिए और इस बात पर विचार करने के लिए कि एमओओसी किस तरह से प्रभावी और समान परिणाम हासिल कर सकता है, हमेंं पहले एमओओसी के भागीदारों को अच्छी तरह से समझना होगा. इस समस्या के समाधान के लिए पैन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय ने उन तमाम विद्यार्थियों का सर्वेक्षण कराया था जिन्होंने कम से कम कोर्सेरा के एमओओसी (जो विश्व का सबसे बड़ा एमओओसी प्रदाता है) के किसी एक पाठ्यक्रम मेंं नामांकन करवाया हो.
कोर्सेरा द्वारा संचालित एमओओसी लेने वाले विद्यार्थियों मेंं अमेंरिका के बाद भारतीय विद्यार्थियों की संख्या दूसरे नंबर पर (अर्थात् 10 प्रतिशत) है. उपयोगकर्ताओं के उनके आईपी पतों के आधार पर किये गये भू-देशीय विश्लेषण से पता चलता है कि इस उपयोगकर्ताओं मेंं से अधिकांश उपयोगकर्ता भारत के शहरी इलाकों तक ही सीमित हैं. इनमेंं से 61 प्रतिशत उपयोगकर्ता भारत के पाँच बड़े शहरों मेंं से किसी एक शहर मेंं बसे हुए हैं और 16प्रतिशत उपयोगकर्ता अगले पाँच बड़े शहरों मेंं बसे हुए हैं. मुंबई और बैंगलोर मेंं उपयोगकर्ताओं की तादाद सबसे ज़्यादा है. भारत के कुल कोर्सेरा विद्यार्थियों मेंं से 18-18प्रतिशत इन दोनों शहरों से हैं और इनमेंं से अधिकांश पूर्णकालिक नौकरी कर रहे हैं (और शेष विद्यार्थी या तो स्व-नियोजित हैं या अंशकालीन नौकरी कर रहे हैं). और यह ठीक उसी तरह है जैसे हाल ही मेंं सैल फ़ोन, नया मीडिया और अन्य प्रौद्योगिकी अपनाने वाले उपयोगकर्ताओं की स्थिति है. इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि गणित, मानविकी और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बाद विद्यार्थी सबसे अधिक व्यवसाय, अर्थशास्त्र और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों को ही लेना पसंद करते हैं. यह तथ्य कि एमओओसी के उपयोगकर्ताओं मेंं सबसे अधिक संख्या भारतीयों की है, इस बात की ओर इंगित करता है कि अच्छी किस्म की शिक्षा की भारत मेंं बेहद माँग है, जिसे अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है. लेकिन यदि हम चाहते हैं कि एमओओसी भारत की उच्च शिक्षा की चुनौतियों को पूरा करने के लिए अर्थक्षम और सही मार्ग प्रदान करे तो हमेंं बहुत-से काम करने होंगे.  
सर्वप्रथम हमेंं बुनियादी प्रौद्योगिकीय ढाँचा तैयार करना होगा, जिसमेंं कंप्यूटरों, मोबाइल उपकरणों और उच्च-गति वाले इंटरनैट की सुविधाओं को और विकसित करना होगा ताकि भारत के अधिकाधिक लोगों तक ऑन-लाइन शिक्षा की पहुँच बढ़ायी जा सके. जब तक प्रौद्योगिकीय बाधाएँ दूर नहीं होंगी तब तक केवल संभ्रांत वर्ग के कुछेक विद्यार्थी ही शिक्षा के इस विकल्प का चुनाव कर सकेंगे और इससे भारत मेंं शिक्षा के अवसरों मेंं असमानता की स्थिति और भी बिगड़ती जाएगी.
एमओओसी प्रदाताओं को कम से कम लागत वाली, व्यापक कवरेज वाली और अपने स्वामित्व वाली मोबाइल फ़ोन की भारतीय क्रांति से अपने-आपको जोडऩा होगा. भारत जैसे देश मेंं जहाँ ब्रॉडबैंड कवरेज बहुत सीमित है, एमओओसी की पहुँच को सुगम बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है. एमओओसी प्रदाताओं को मोबाइल की दुनिया मेंं प्रवेश करने के लिए बैंकिंग उद्योग के मुकाबले ज़्यादा बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि उनकी वीडियो की विषय-वस्तु, प्रश्नोत्तरी और असाइनमैंट के लिए स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत पड़ती है, जबकि मोबाइल बैंकिंग के कुछ काम मात्र एसएमएस सेवाओं के ज़रिये ही निपटाये जा सकते हैं. लेकिन 3जी और 4जी के इंटरनैट के कारण अब स्मार्टफ़ोन और टेबलैट की सुविधा भारत मेंं बढ़ती जा रही है और जैसे-जैसे उनके दाम कम होते जाएँगे, उनकी सुविधाओं का भी तेज़ी से विस्तार होता जाएगा.
दूसरी बात यह है कि दुनिया के कुछ सबसे बढय़िा विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित अधिकांश एमओओसी बहुत ही चुनौतीपूर्ण और माँग वाले पाठ्यक्रम हैं, जो विद्यार्थियों को उच्च-कौशल वाले क्षेत्रों मेंं व्यावसायिक प्लेसमैंट के लिए तैयार करते हैं. भारत की असमान शैक्षणिक माँगों की पूर्ति के लिए विविधीकरण की नीति को बढ़ावा देने मेंं मदद कर सकते हैं. अंतत: शैक्षणिक माँगों को समझने और उन्हें पूरा करने के लिए भारत मेंं निवेश करना होगा. भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं पूर्ति और भारी माँग के बीच असंतुलन और किफ़ायती व अच्छी किस्म की शिक्षा की आवश्यकता को देखते हुए, भारतीय विद्यार्थियों के लिए उनकी विशेष रुचि के आधार पर भारतीय भाषाओं की विषयवस्तु को डिज़ाइन करना चाहिए और उसे उपलब्ध कराना चाहिए. अगर इन पाठ्यक्रमों की पहुँच को सुगम बनाने के मार्ग मेंं आने वाली प्रौद्योगिकीय, शैक्षणिक और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर कर दिया जाए तो लाखों भारतीय विद्यार्थी अच्छे स्तर की उच्च शिक्षा सहजता से प्राप्त कर सकेंगे और इससे नाटकीय रूप मेंं भारत मेंं और विश्व-भर मेंं भी उच्च शिक्षा के परिदृश्य को बदला जा सकेगा.










वर्ष 2016: भारत में बदलाव की दरकार

भारत के सारे क्षेत्र प्रशासनिक से लेकर शैक्षिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का राज है। इसे ज्योतिष से देखा जाये तो लग्नस्थ राहू चारित्रिक पवित्रता का अभाव, भाग्येश और दशमेश शनि तीसरे स्थान में सूर्य के साथ होने से भाग्य और पुरुषार्थ की कमी, तृतीयेश चंद्रमा अपने स्थान से बारहवे होने से स्वभाव में सुचिता की कमी है। जरूरी है कि समाज में लोगों को संयुक्त होकर सूर्य को प्रबल बनाने के लिए सामूहिक रूप भ्रष्टाचार का विरोध करने एवं भ्रष्ट आचरण का सामूहिक बहिस्कार करने के साथ यज्ञ एवं हवन करना चाहिए। सामूहिक रूप से आदित्य-हृदय स्त्रोत का पाठ करने से समाज में सुचिता आयेगी और इस तरह की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। इसी प्रकार भारत की कुंडली में लग्रस्थ राहु कुंडली मारकर बैठा है, उसके लिए सभी को आगे बढक़र भौतिकता से परे देशहित एवं समाज कल्याण के लिए सोचना होगा। वृश्चिक लग्र की कुंडली में लग्रस्थ शनि तृतीयेश और चतुर्थेश होकर लग्र में अपने न्यायकारी दृढ़ता के साथ दंडाधिकारी की महती भूमिका में बैठा है और उसी के अनुरूप द्वितीयेश और पंचमेश गुरू कर्क का होकर भाग्यस्थ है अर्थात समाज और समाजिकता हेतु ऊंचे मापदंड स्थापित करने हेतु प्रतिबद्व दिखता है। हालांकि यह भी सच है कि दशम भाव का कारण सूर्य राहु से पापाक्रांत होकर पंचमस्थ है अर्थात सत्तापक्ष कितनी भी विपरीत परिस्थिति और विरोधाभास के बावजूद अपना अंह और मद छोड़ नहीं सकता। किंतु मेरा मानना है कि ग्रहों के गोचरों का प्रभाव समय के कालखंड पर पड़ता है तो जब से शनि और गुरू गोचर में है, तब से ही न्याय और ऊंचे मापदंड स्थापित करता रहा है और अभी जब शनि और गुरू इस स्थिति में हैं तब तक तो ये सिलसिला जारी रहेगा। भ्रष्टाचार के कारण हमारे सामाजिक जीवन के अस्तित्व में ही छिपे हैं और नेतागण महज चिल्लाते रहते हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, हमारे आते ही भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा किंतु मजे कि बात तो यह है कि जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढिय़ाँ पार करनी पड़ती हैं वर्ष 2016का मूल अंक 9 है, जिसका अधिपति मंगल है। जिसके कारण सारे विश्व में अस्थिरता की स्थिति रहेगी। इसके साथ ही पूरी दुनिया में आर्थिक अस्थिरता की स्थिति भी रहेगी। वर्ष 2016में शनि अष्ठम स्थान में बैठा हुआ है, जिसस विश्व के किन्हीं देशों में खाद्यान्न में जहरीला तत्व उत्पन्न हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं जनहानि करेंगी।
हिन्दुस्तान की कुंडली के अनुसार 2016में गुरु राहू का योग प्रथमार्थ में देश की आर्थिक स्थिति कमजोर होगी। जनता और राजनेताओं के बीच दूरी बढ़ेगी। सामाजिक असहिष्णुता और धार्मिक उन्माद हो सकता है गुरू पञ्चम भाव में राहु से आक्रांत होने से हिन्दुस्तान को समाज और धर्म का विवाद उत्पन्न कर रहा है। जिसके कारण देश में अंदरूनी विवाद उत्पन्न होंगे। प्रशासनिक भाव पर शनि की दृष्टि होने से प्रधानमंत्री कई जगह विवश दिखेंगे। भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आएंगे। धर्म संबंधी विवादित बयानों से सत्ता पक्ष परेशान रहेगा। आतंकवाद , जातीय हिंसा, आंतरिक विरोध भी परेशान रखेगा। परंतु सकारात्मक बात यह रहेगी कि देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ेगा। अर्थव्यस्था मजबूत होगी। वित्तीय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन आएंगे जिससे आम आदमी लाभान्वित होगा।
आज की अनेक बड़ी समस्याओं के मूल मेंं यही वजह है कि समाज मेंं सार्थक सामाजिक बदलाव के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष के बारे मेंं स्पष्ट सोच बनाना और इसका प्रसार करना मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है। प्रगति के तमाम दावों व बाहरी चमक-दमक के बावजूद समाज मेंं दुख-दर्द कम नहीं हुआ है। कुछ सीमित संदर्भे मेंं तरक्की नजर आती है तो इससे अधिक व्यापक संदर्भे मेंं दुख-दर्द बढ़े हुए नजर आते हैं। इसमेंं भी बड़ी बात है कि बढ़ते पर्यावरणीय विनाश, जल, जंगल, जमीन जैसे आधारभूत संसाधनों की गंभीर क्षति के कारण भविष्य मेंं समस्याएं उत्तरोत्तर बढ़ते जाने की आशंका है। टूटते-बिखरते सामाजिक ताने-बाने को देखें या हिंसा व महाविनाशक हथियारों मेंं अपार वृद्धि, तेजी से विलुप्त होती प्रजातियां या जलवायु बदलाव, विज्ञान के युग मेंं भी बढ़ती कट्टरता व अंधविास या तकनीक का दुरुपयोग, सभी बिंदुओं पर वर्तमान स्थिति चिंताजनक है और इनके भविष्य मेंं और चिंताजनक बनने की आशंकाएं हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि समाज मेंं बड़े स्तर पर व्याप्त दुख-दर्द व उसके कारणों को कम करने के लिए व भविष्य मेंं इससे भी गंभीर समस्याओं की संभावनाओं को दूर करने के लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत है। सुलझे विचारों व उनसे जुड़े कार्य की क्रान्ति से है जिनके आधार पर अधिकांश लोग समाज के सबसे जरूरी सरोकारों से जुड़ सकते हैं। ये कार्य निश्चय ही समता, पर्यावरण रक्षा, शान्ति, भाईचारा व जीवों की रक्षा से जुड़े हैं पर इनको मौजूदा समय की जरूरतों के संदर्भ मेंं स्थापित करने और उनमेंं आपसी सामंजस्य की चुनौती सामने है। व्यापक सामाजिक बदलाव का यह कार्यक्रम निश्चय ही ऐसा होना चाहिए जिसमेंं विभिन्न तरह के जरूरतमंद लोगों को अपनी समस्याओं का समाधान नजर आए, पर विचार व प्रतिबद्धता मेंं इससे एक कदम आगे जाने की जरूरत है। केवल अपनी समस्याओं से आगे बढक़र दूसरों की समस्याओं, अपने से अधिक जरूरतमंदों की समस्याओं व पूरी धरती के सब जीवों के दुख-दर्द के संदर्भ मेंं एक व्यापक प्रतिबद्धता स्थापित करने की जरूरत है। ऐसा होने पर सोचने-समझने मेंं, विभिन्न मुद्दों के प्रति नजरिए मेंं बड़ा बदलाव आ जाता है व समाज मेंं ऐसा बदलाव लाना बहुत जरूरी है। इस तरह के व्यापक सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया समाज मेंं चलती रहनी चाहिए। वह चाहे मुख्य रूप से एक अभियान के रूप मेंं चले या थोड़े-बहुत बदलाव के साथ कई अभियानों मेंं, पर यह प्रक्रिया व्यापक स्तर पर चलती रहनी चाहिए। इस व्यापक चिंतन-मंथन से ही समाज को कई स्तरों पर सही राह मिलेगी व तरह-तरह के भटकाव की संभावना कम होगी। सत्ता की राजनीति ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव से बड़ी नहीं हो सकती है। उसको व्यापक सामाजिक बदलाव के एक हिस्से या एक पक्ष के रूप मेंं ही जगह मिलनी चाहिए। हाल के समय के तथाकथित वैकल्पिक राजनीति के प्रयास इस कारण आधे-अधूरे रहे हैं क्योंकि उन्हें ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव की छाया नहीं मिली है, सहारा नहीं मिला है। इस कारण यह छिटपुट प्रयास बहुत कम समय मेंं ही तरह-तरह के भटकाव का शिकार होते चले गए। दूसरी ओर यह कहना भी अनुचित है कि व्यापक सार्थक बदलाव का अभियान अपने आप मेंं पूर्ण है। उसे सत्ता प्राप्त करने की राजनीति से जुडऩा ही नहीं चाहिए।
भारत ने 90 के दशक मेंं आर्थिक सुधार शुरू किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्त मंत्री थे। सुधारों से उम्मीद थी कि लोगों के आर्थिक हालात सुधरेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान न देने की वजह से गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और लैंगिक विषमता जैसी सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं। अब यह देश के विकास को प्रभावित कर रहा है। दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की तो की है, लेकिन एक तिहाई आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। भारत इस अवधि मेंं ऐसा देश बन गया है जहां दुनिया भर के एक तिहाई गरीब रहते हैं।
भारत और भ्रष्टाचार की समस्या:
भ्रष्टाचार देश की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर मेंं रिश्तखोरी का स्तर काफी ऊंचा है। भारत मेंं 70 फीसदी लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार की स्थिति और बिगड़ी है। 2जी टेलीकॉम, कॉमनवेल्थ गेम्स और कोयला घोटालों से हुए नुकसान को इसमेंं शामिल नहीं किया गया है जो हजारों करोड़ के हैं। भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था के विकास पर बहुत ही बुरा असर हो रहा है।
गरीबी और बेरोजगारी:
नए रोजगार बनाने और गरीबी को रोकने मेंं सरकार की विफलता की वजह से देहातों से लोगों का शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इसकी वजह से शहरों के ढांचागत संरचना पर दबाव पैदा हो रहा है। आधुनिकता के कारण परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवा लोगों ने शहरों का रुख किया है, जिनका नितांत अभाव है। नतीजे मेंं पैदा हुई सामाजिक तनाव और कुंठा की वजह से हिंसक प्रवृति बढ़ रही है। हालांकि बलात्कार और छेड़ छाड़ से संबंधित कानूनों मेंं सख्ती लाई गई है और सरकार ने महिला पुलिसकर्मियों की बहाली की दिशा मेंं कदम उठाए हैं, पूरे भारत मेंं महिलाओं के खिलाफ हिंसा मेंं कमी नहीं आई है।
समाज की बेरुखी:
पिछले महीनों मेंं भारत के आर्थिक विकास मेंं तेजी से आई कमी का कारण वैश्विक आर्थिक संकट बताया जा रहा है, लेकिन विकास दर को बनाए रखने मेंं विफलता की वजह प्रतिभाओं का इस्तेमाल न करना और कुशल कारीगरों की कमी भी है। भारत मुख्य रूप से गांवों मेंं रहने वाली अपनी आबादी की क्षमताओं का इस्तेमाल करने और उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं देने मेंं नाकाम रहा है। उसे समझना होगा कि उसका आर्थिक स्वास्थ्य व्यापक रूप से उपलब्ध प्रतिभाओं के बेहतर इस्तेमाल पर ही निर्भर है।
आज व्यक्ति जीवन मेंं सामाजिक रूप से व्यापक बदलाव चाहता है। साक्षरता से ग्रामीण जनजीवन मेंं रचनात्मक, सामाजिक बदलाव संभव है। साक्षरता के जरिये व्यक्ति अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठा सकता है। हमेंं साक्षरता के जरिये लोगों के निर्णय लेने की क्षमता का बेहतर विकास करना जरूरी है। निर्णय लेने की क्षमता लोगों मेंं नये आत्मविश्वास का संचार करती है।
निवास व्यवस्था और स्थानांतरण:
परंपरागत रूप मेंं भारत मेंं सामाजिक सुरक्षा का आधार यही रहा है कि औरतें अपनी संतानों के साथ, विशेषकर पुरुष संतानों के साथ ही रहती रही हैं। जनगणना के अनुसार रोजग़ार की वजह से पुरुषों के स्थानांतरण के कारण और शादी के कारण महिलाओं के स्थानांतरण के कारण भारत मेंं अधिकांश उम्रदराज़ लोग अकेले रहने लगे हैं। राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दो दौरों के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल एक दशक मेंं ही अकेले रहने वाली उम्रदराज़ औरतों या पतियों के साथ रहने वाली औरतों का अनुपात 9 प्रतिशत से बढक़र 19 प्रतिशत हो गया। यद्यपि इसका आशय सामाजिक अलगाव के बजाय आर्थिक स्वाधीनता भी हो सकता है, लेकिन इसकी संभावना बहुत ही कम है, क्योंकि इस समूह मेंं ज़्यादातर विधवाएँ और गरीब शहरी महिलाएँ ही हैं। इसी कारण प्रचलित सहायता प्रणाली के बजाय मज़बूत पेंशन प्रणाली की ज़्यादा आवश्यकता है। रोजग़ार के लिए जो बच्चे शहरों मेंं चले जाते हैं, वे शहरों मेंं निवास के भारी खर्च और भीड़-भाड़ वाले शहरी आवास के कारण अपने माँ-बाप को साथ नहीं ले जा पाते और इसका कारण यह भी होता है कि शहर मेंं अकेले रहने के कारण वे अधिक आज़ादी से अपनी ज़िंदगी जीना पसंद करते हैं। पुराने ढर्रे के घरों मेंं अब लोग रहना पसंद नहीं करते और घर मेंं रहते हुए बड़े-बूढ़ों की सेवा करना भी अधिक महँगा पड़ता है। बिखरते ’’भारतीय परिवारों’’ पर शोक मनाने के बजाय अब समय आ गया है कि हम अकेले रहने वाले बड़े-बूढ़ों की देखभाल के बारे मेंं नये ढंग से खास तौर पर उनकी सेहत की देखभाल को लेकर अधिक सृजनात्मक रूप मेंं सोचें।

संवैधानिक बदलाव

आज भारत मेंं सार्वजनिक हित के मामलों को तभी महत्व मिलता है जब उच्चतम न्यायालय इस पर ज़ोर डालता है. सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के हितधारकों के प्रतिनिधि न्यायपालिका मेंं सक्रिय होकर याचिका दाखिल करते हैं. किसी भी विषय पर होने वाले वाद-विवाद से भारतीय न्यायपालिका को महत्व मिलता है और वह सक्रिय भी बनी रहती है. एक ऐसे युग मेंं जहाँ अधिकांश संस्थाओं पर राजनीति हावी होने लगी है, न्यायपालिका ही एकमात्र संस्था बची है जिस पर नागरिकों का विश्वास अभी भी कायम है और उन्हें लगता है कि वहाँ उनकी सुनवाई ठीक तरह से हो सकती है.
कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से एक रुपया चलता है, जो गांव तक पहुंचते पहुंचते 10 पैसे रह जाता है. अगर तीन बड़े घोटालों यानी कॉमनवेल्थ, टूजी टेलीफोनी और कोयला घोटाले की बात करें, तो इनमेंं कई हजार अरब रुपये के वारे न्यारे हो चुके हैं. भ्रष्टाचार तो आम भारतीयों के लिए ‘‘रोजमर्रा’’ की बात हो चुकी है. भारत के पूर्व गृह सचिव मधुकर गुप्ता डॉयचे वेले से कहते हैं, ‘‘भ्रष्टाचार अगर सिर्फ ऊपरी स्तर पर हो, तो अलग बात है लेकिन यह लोगों की सोच मेंं शामिल हो गया है कि अगर पैसा नहीं दिया जाएगा, तो काम नहीं होगा.’’ राजनीति बनाम अफसरशाही
चाहे बड़ी योजनाओं की बात हो, खेलों की या फिर बच्चों के मिडडे मील की, सिर्फ 73 फीसदी साक्षर भारत मेंं हर जगह से भ्रष्टाचार की बदबू आती दिखती है. लालफीताशाही और अफससरशाही को भी इसका जिम्मेंदार माना जाता है. नाम लिखने भर से साक्षर कहलाने वाले लोग हक से अनजान थाना, पुलिस और कचहरी मेंं बेबस हो जाते हैं. यहां बिचौलियों की भूमिका शुरू होती है, जो किसी आसान काम को भी मुश्किल बनाने मेंं माहिर होते हैं. भारत के सरकारी दफ्तरों मेंं कहावत है कि अगर आपकी फाइल पर ‘‘वजन’’ (रिश्वत) न रखा गया हो, तो यह उड़ जाती है.
कैसे बदले भारत अमेंरिका और यूरोप की नजरों मेंं भले भारत आईटी और कंप्यूटर सम्राट हो लेकिन हकीकत मेंं यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों मेंं रहती है, जिन्हें न तो पक्की सडक़ें मिलती हैं और न चौबीसों घंटे बिजली. लोकतंत्र के ‘‘लोक’’ को रातों रात मजबूत नहीं किया जा सकता है. शुरुआत कहां से हो, सवाल यहां शुरू होकर यहीं ठहर जाता है. गुप्ता की राय है कि तकनीक बदलाव से पारदर्शिता आ सकती है, ‘‘तकनीक से तंत्र मेंं तेजी और जवाबदेही लाई जाए और तेज फैसले लेने की सलाहियत और उसके आधार पर इसे लागू करने के मामले मेंं जवाबदेही तय होनी चाहिए.’’ सुधार के रास्ते राजनीति के गलियारे से ही गुजरते हैं और उन्हें साफ करना जरूरी है, ‘‘आज के खेल के नियम बदलने के लिए पहले आपको उसी खेल मेंं विजयी होना होगा, तब आप उसे बदल सकते हैं. यह अपने आप मेंं टेढ़ी खीर है. और यही भारत मेंं वैकल्पिक राजनीति करने की चुनौती भी है.’’
भारत की न्यायपालिका कीचड़ मेंं कमल की तरह है लेकिन विकास इतनी तेजी से हो रहे हैं कि संस्थाएं अगर समय समय पर सुधार न करें तो उनमेंं गिरावट आती ही है. मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व मेंं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों और दूसरे बड़े न्यायिक अधिकारियों ने समस्या को ठीक ही पहचाना है. बुनियादी ढांचों को दुरुस्त करना, आबादी के हिसाब से न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना, और सूचना प्रौद्योगिकी का व्यापक इस्तेमाल. अब इसके अमल मेंं तेजी लाने की जरूरत है. और इसकी जिम्मेंदारी मुख्य रूप से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की है जो न्यायिक संस्था के मुखिया है.
आम लोगों के लिहाज से भारत मेंं न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने की जरूरत है. मुख्य न्यायाधीश ने लोवर कोर्ट मेंं पांच और अपील कोर्ट मेंं दो साल मेंं मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा है. इसे और जल्दी करने से लोगों का खर्च भी घटेगा और न्यायिक प्रक्रिया मेंं लोगों का विश्वास भी बढ़ेगा. इसके अलावा प्रक्रियाओं को आसान करने की जरूरत है ताकि अदालत की सलाह, हस्तक्षेप या फैसला चाह रहे लोग बिना वजह परेशान न हों और न ही उनपर अनाप शनाप आर्थिक और मानसिक बोझ पड़े.
भारत की आबादी तेजी से बढ़ रही है. साथ ही तेज आर्थिक विकास भी हो रहा है और सरकार के प्रयास सफल हुए तो विकास मेंं और तेजी आएगी. आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां अपने साथ विवाद और अपराध भी लाती है. दोनों ही चुनौतियों से भारत को आने वाले समय मेंं निपटना होगा. न्यायिक व्यवस्था के लिए इसका मतलब अधिक अदालतें और अधिक जज भी हैं. संभवत: समय आ गया है कि भारत सुप्रीम कोर्ट की छतरी के नीचे एक-एक राष्ट्रीय प्रशासनिक, वित्तीय, आपराधिक और सामाजिक अदालत बनाने के बारे मेंं सोचे. इससे सुप्रीम कोर्ट पर बोझ कम होगा और देश की सर्वोच्च अदालत न्याय व्यवस्था के फौरी और दूरगामी विकास पर ध्यान दे पाएगी. आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल जरूर ही न्यायालयों के काम को आसान बनाएगी. हर दफ्तर की तरह न्यायालयों को भी दूरसंचार के आधुनिक तकनीकों से लैस किया जाना चाहिए. आईटी के क्षेत्र मेंं दुनिया भर मेंं डंका पीट रहे देश के अपने चोटी के दफ्तरों मेंं अत्याधुनिक तकनीक न हो, यह कोई अच्छी बात नहीं. इसे प्राथमिकता के साथ लागू किया जाना चाहिए.
भ्रष्टाचार के खात्में पर संसद मेंं दिसंबर 1963 को हुई बहस मेंं डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत मेंं जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास मेंं कहीं नहीं हुआ। जज कुरियन जोसेफ ने माना कि वह कॉलेजियम प्रणाली विफल हो गई, जहां दिशा-निर्देशों की अनदेखी कर चहेते और नाकाबिल जजों का चयन होता है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भरूचा ने 15 वर्ष पहले कहा था कि हाईकोर्ट के 20 फीसदी जज भ्रष्ट हैं वहीं, पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने चीफ जस्टिस सहित 50 फीसदी जजों को भ्रष्ट करार दिया। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट के आठ पूर्व चीफ जस्टिसों को भ्रष्ट बताते हुए हलफनामा ही दायर कर दिया परंतु सुप्रीम कोर्ट और सरकार प्रभावी कार्यवाही (इसका एक कारण जजों को हटाने के लिए महाभियोग की जटिल प्रक्रिया भी है) करने मेंं विफल रही, क्योंकि गलत जजों की नियुक्ति मेंं दोनों शामिल थे। काटजू के अनुसार आईबी की प्रतिकूल रिपोर्ट के बावजूद तमिलनाडु मेंं डीएमके के भ्रष्ट नेता को जमानत देने वाले व्यक्ति को यूपीए सरकार द्वारा हाईकोर्ट का जज बनवाकर सुप्रीमकोर्ट के तीन पूर्व प्रधान न्यायाधीशों से अनुचित सेवा-विस्तार दिलवा दिया गया। जज चेलमेंश्वर ने माना कि सिर्फ स्वतंत्र और सक्षम न्यायपालिका ही समाज मेंं भरोसा कायम रखने का काम कर सकती है परंतु देश की अदालतों मेंं लंबित 3.5 करोड़ से अधिक मुकदमों का बढ़ता ढेर जजों की दक्षता का प्रमाण तो नहीं देते। जज कुरियन जोसेफ ने कहा कि न्यायिक प्रणाली लाइलाज नहीं हुई है। उन्होंने इसे दुरुस्त करने के लिए ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका का सुझाव दिया, जिसका प्रयोग रूस मेंं कम्युनिस्ट व्यवस्था मेंं पारदर्शिता और पुनर्निर्माण के लिए मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई के तहत अधिकांश सूचनाओं से अपने को अलग रखा है तो फिर ग्लासनोस्त कैसे आएगा एनजेएसी मामले मेंं छह महीने के भीतर सुनवाई कर निर्णय देने वाले जज, आम जनता के मामलों को सालों-साल क्यों लटकाते हैं? कातिलों के लिए आधी रात मेंं सुनवाई करने वाले जजों को 4 लाख गरीब अनपढ़ कैदियों को जेल से निकालने के लिए समय क्यों नहीं है? मी लार्ड्स को अब हम लोग (वी द पीपुल) से भी जुडऩा पड़ेगा वरना संविधान की संकल्पना को गांधी के अनुसार बदलना पड़ेगा, जिन्होंने कहा था कि अदालतें न हों तो हिंदुस्तान मेंं गरीबों को बेहतर न्याय मिल सकता है। इसके लिए कुछ जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुए ठोस निर्णय लेने होंगे जैसे -
न्यायाधीशों की संख्या मेंं वृद्धि
मुकदमों के समयबद्ध निस्तारण के लिए जरूरत इस बात की है कि न्यायाधीशों की मुकदमें निपटाने की दर के आधार पर अधीनस्थ न्यायालयों मेंं न्यायाधीशों की संख्या में इजाफा किया जाए। इसके लिए जनसंख्या के अनुपात मेंं न्यायाधीशों की संख्या के आधार को छोडऩा होगा।
जजों की नियुक्ति को प्राथमिकता दी जाए
विभिन्न उच्च न्यायालयों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान न्याय प्रणाली के कारण मुकदमों के अंबार लगे हुए हैं। वर्तमान प्रणाली इन्हें रोक भी नहीं पा रही है। मुकदमों के इस अंबार को रोकने और इनके समयबद्ध निस्तारण के लिए अधिक संख्या मेंं जजों की नियुक्तियां की जाएं।
अधीनस्थ न्यायालयों के जजों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़े
समुचित रूप से प्रशिक्षित न्यायाधीशों की कमी के मद्देनजर अधीनस्थ अदालतों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु को बढ़ाकर 62 वर्ष कर दिया जाना चाहिए। इससे मुकदमों के ढेर को कम करने मेंं सहायता मिलेगी।
यातायात/ पुलिस चालान मामलों के लिए हो विशेष कोर्ट
अधीनस्थ न्यायालयों मेंं नए दायर हो रहे मामलों मेंं यातायात या पुलिस चालान सम्बन्धी मामले 38.7 फीसदी होते हैं। लंबित मामलों मेंं भी इनकी संख्या 37.4 प्रतिशत है। इन मामलों के निस्तारण के लिए नियमित न्यायालयों से इतर सुबह और शाम को संचालित होने वाले विशेष न्यायालय शुरू किए जाएं। नए विधि स्नातकों को अल्पकाल के लिए इन नए न्यायालयों का पीठासीन अधिकारी बनाया जा सकता है।
ये न्यायालय जुर्माने आदि से संबंधित मामलों को ही निपटाएं। जहां जेल जैसी सजा के मामले हों, उन्हें नियमित न्यायालय मेंं निपटाया जाए। इसके अलावा जुर्माने को जमा कराने के लिए ऑनलाइन भुगतान की सुविधा होनी चाहिए। न्यायालय परिसर मेंं जुर्माना जमा करवाने के लिए अलग काउंटर लगाए जाने चाहिए।
अतिरिक्त न्यायालयों के लिए आधारभूत सुविधाएं
अतिरिक्त न्यायालयों के लिए पर्याप्त स्टाफ और आधारभूत ढांचागत सुविधाओं के उचित प्रबंध किए जाएं ताकि इन न्यायालयों को कार्यशील बनाया जा सके।
उच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा जरूरी
विधि आयोग का वर्तमान कार्य, वर्ष 2012 तक की स्थिति पर आधारित रहा है। लेकिन, भविष्य मेंं कितनी अधीनस्थ अदालतों और उनके न्यायाधीशों की आवश्यकता होगी, इसका अनुमान लगा पाना कठिन है। इसके लिए उच्च न्यायालयों को चाहिए कि समय-समय पर न्यायाधीशों की संख्या, उनकी निस्तारण दर और मुकदमों के लंबित होने की स्थिति का आकलन करते रहें और आवश्यक कदम उठाते रहें।
अदालतों का काम नीतियां तैयार करना नहीं, सिर्फ यह देखना है कि काम कानून के मुताबिक हो रहा है या नहीं। उत्पादन और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों के बीच संतुलन बनाना मूलत: राजनीतिक कार्य है, जिसमेंं उनकी विशेषज्ञता नहीं है। खराब नीतियों के लिए राजनेता मतदाताओं के सामने जवाबदेह होते हैं। लेकिन प्रशासन को पंगु बनाने, ईमानदार कंपनियों का दीवाला निकालने और आर्थिक विकास को धीमा करके गरीबी बढ़ाने के लिए अदालतों की किसी के आगे कोई जवाबदेही नहीं होती।
इसीलिए कोर्ट का एक्टिविज्म कुछेक बेहद गंभीर मामलों तक ही सीमित रहना चाहिए। पुराना न्यायिक नुस्खा है कि भले ही कई अपराधी छूट जाएं, पर एक भी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए। बावजूद इसके, जुडिशल एक्टिविज्म का शिकार ज्यादातर बेकसूर उद्यमी और ऑफिसर ही हो रहे हैं। भारत मेंं कुशासन की जड़ मेंं सिर्फ धूर्त राजनेता और उद्योगपति ही नहीं, अच्छी नीयत से बनाए गए बुरे कानून भी हैं। अदालतों मेंं लंबे खिंचते मुकदमें हर क्षेत्र मेंं कानून तोडऩे वालों को बढ़ावा देते हैं। लेकिन इसका इलाज तीव्र न्याय है। यह नहीं है अदालतें खुद ही नीतियां बनाने मेंं जुट जाएं।