Thursday 7 April 2016

संवैधानिक बदलाव

आज भारत मेंं सार्वजनिक हित के मामलों को तभी महत्व मिलता है जब उच्चतम न्यायालय इस पर ज़ोर डालता है. सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के हितधारकों के प्रतिनिधि न्यायपालिका मेंं सक्रिय होकर याचिका दाखिल करते हैं. किसी भी विषय पर होने वाले वाद-विवाद से भारतीय न्यायपालिका को महत्व मिलता है और वह सक्रिय भी बनी रहती है. एक ऐसे युग मेंं जहाँ अधिकांश संस्थाओं पर राजनीति हावी होने लगी है, न्यायपालिका ही एकमात्र संस्था बची है जिस पर नागरिकों का विश्वास अभी भी कायम है और उन्हें लगता है कि वहाँ उनकी सुनवाई ठीक तरह से हो सकती है.
कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से एक रुपया चलता है, जो गांव तक पहुंचते पहुंचते 10 पैसे रह जाता है. अगर तीन बड़े घोटालों यानी कॉमनवेल्थ, टूजी टेलीफोनी और कोयला घोटाले की बात करें, तो इनमेंं कई हजार अरब रुपये के वारे न्यारे हो चुके हैं. भ्रष्टाचार तो आम भारतीयों के लिए ‘‘रोजमर्रा’’ की बात हो चुकी है. भारत के पूर्व गृह सचिव मधुकर गुप्ता डॉयचे वेले से कहते हैं, ‘‘भ्रष्टाचार अगर सिर्फ ऊपरी स्तर पर हो, तो अलग बात है लेकिन यह लोगों की सोच मेंं शामिल हो गया है कि अगर पैसा नहीं दिया जाएगा, तो काम नहीं होगा.’’ राजनीति बनाम अफसरशाही
चाहे बड़ी योजनाओं की बात हो, खेलों की या फिर बच्चों के मिडडे मील की, सिर्फ 73 फीसदी साक्षर भारत मेंं हर जगह से भ्रष्टाचार की बदबू आती दिखती है. लालफीताशाही और अफससरशाही को भी इसका जिम्मेंदार माना जाता है. नाम लिखने भर से साक्षर कहलाने वाले लोग हक से अनजान थाना, पुलिस और कचहरी मेंं बेबस हो जाते हैं. यहां बिचौलियों की भूमिका शुरू होती है, जो किसी आसान काम को भी मुश्किल बनाने मेंं माहिर होते हैं. भारत के सरकारी दफ्तरों मेंं कहावत है कि अगर आपकी फाइल पर ‘‘वजन’’ (रिश्वत) न रखा गया हो, तो यह उड़ जाती है.
कैसे बदले भारत अमेंरिका और यूरोप की नजरों मेंं भले भारत आईटी और कंप्यूटर सम्राट हो लेकिन हकीकत मेंं यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों मेंं रहती है, जिन्हें न तो पक्की सडक़ें मिलती हैं और न चौबीसों घंटे बिजली. लोकतंत्र के ‘‘लोक’’ को रातों रात मजबूत नहीं किया जा सकता है. शुरुआत कहां से हो, सवाल यहां शुरू होकर यहीं ठहर जाता है. गुप्ता की राय है कि तकनीक बदलाव से पारदर्शिता आ सकती है, ‘‘तकनीक से तंत्र मेंं तेजी और जवाबदेही लाई जाए और तेज फैसले लेने की सलाहियत और उसके आधार पर इसे लागू करने के मामले मेंं जवाबदेही तय होनी चाहिए.’’ सुधार के रास्ते राजनीति के गलियारे से ही गुजरते हैं और उन्हें साफ करना जरूरी है, ‘‘आज के खेल के नियम बदलने के लिए पहले आपको उसी खेल मेंं विजयी होना होगा, तब आप उसे बदल सकते हैं. यह अपने आप मेंं टेढ़ी खीर है. और यही भारत मेंं वैकल्पिक राजनीति करने की चुनौती भी है.’’
भारत की न्यायपालिका कीचड़ मेंं कमल की तरह है लेकिन विकास इतनी तेजी से हो रहे हैं कि संस्थाएं अगर समय समय पर सुधार न करें तो उनमेंं गिरावट आती ही है. मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व मेंं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों और दूसरे बड़े न्यायिक अधिकारियों ने समस्या को ठीक ही पहचाना है. बुनियादी ढांचों को दुरुस्त करना, आबादी के हिसाब से न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना, और सूचना प्रौद्योगिकी का व्यापक इस्तेमाल. अब इसके अमल मेंं तेजी लाने की जरूरत है. और इसकी जिम्मेंदारी मुख्य रूप से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की है जो न्यायिक संस्था के मुखिया है.
आम लोगों के लिहाज से भारत मेंं न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने की जरूरत है. मुख्य न्यायाधीश ने लोवर कोर्ट मेंं पांच और अपील कोर्ट मेंं दो साल मेंं मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा है. इसे और जल्दी करने से लोगों का खर्च भी घटेगा और न्यायिक प्रक्रिया मेंं लोगों का विश्वास भी बढ़ेगा. इसके अलावा प्रक्रियाओं को आसान करने की जरूरत है ताकि अदालत की सलाह, हस्तक्षेप या फैसला चाह रहे लोग बिना वजह परेशान न हों और न ही उनपर अनाप शनाप आर्थिक और मानसिक बोझ पड़े.
भारत की आबादी तेजी से बढ़ रही है. साथ ही तेज आर्थिक विकास भी हो रहा है और सरकार के प्रयास सफल हुए तो विकास मेंं और तेजी आएगी. आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां अपने साथ विवाद और अपराध भी लाती है. दोनों ही चुनौतियों से भारत को आने वाले समय मेंं निपटना होगा. न्यायिक व्यवस्था के लिए इसका मतलब अधिक अदालतें और अधिक जज भी हैं. संभवत: समय आ गया है कि भारत सुप्रीम कोर्ट की छतरी के नीचे एक-एक राष्ट्रीय प्रशासनिक, वित्तीय, आपराधिक और सामाजिक अदालत बनाने के बारे मेंं सोचे. इससे सुप्रीम कोर्ट पर बोझ कम होगा और देश की सर्वोच्च अदालत न्याय व्यवस्था के फौरी और दूरगामी विकास पर ध्यान दे पाएगी. आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल जरूर ही न्यायालयों के काम को आसान बनाएगी. हर दफ्तर की तरह न्यायालयों को भी दूरसंचार के आधुनिक तकनीकों से लैस किया जाना चाहिए. आईटी के क्षेत्र मेंं दुनिया भर मेंं डंका पीट रहे देश के अपने चोटी के दफ्तरों मेंं अत्याधुनिक तकनीक न हो, यह कोई अच्छी बात नहीं. इसे प्राथमिकता के साथ लागू किया जाना चाहिए.
भ्रष्टाचार के खात्में पर संसद मेंं दिसंबर 1963 को हुई बहस मेंं डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत मेंं जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास मेंं कहीं नहीं हुआ। जज कुरियन जोसेफ ने माना कि वह कॉलेजियम प्रणाली विफल हो गई, जहां दिशा-निर्देशों की अनदेखी कर चहेते और नाकाबिल जजों का चयन होता है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भरूचा ने 15 वर्ष पहले कहा था कि हाईकोर्ट के 20 फीसदी जज भ्रष्ट हैं वहीं, पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने चीफ जस्टिस सहित 50 फीसदी जजों को भ्रष्ट करार दिया। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट के आठ पूर्व चीफ जस्टिसों को भ्रष्ट बताते हुए हलफनामा ही दायर कर दिया परंतु सुप्रीम कोर्ट और सरकार प्रभावी कार्यवाही (इसका एक कारण जजों को हटाने के लिए महाभियोग की जटिल प्रक्रिया भी है) करने मेंं विफल रही, क्योंकि गलत जजों की नियुक्ति मेंं दोनों शामिल थे। काटजू के अनुसार आईबी की प्रतिकूल रिपोर्ट के बावजूद तमिलनाडु मेंं डीएमके के भ्रष्ट नेता को जमानत देने वाले व्यक्ति को यूपीए सरकार द्वारा हाईकोर्ट का जज बनवाकर सुप्रीमकोर्ट के तीन पूर्व प्रधान न्यायाधीशों से अनुचित सेवा-विस्तार दिलवा दिया गया। जज चेलमेंश्वर ने माना कि सिर्फ स्वतंत्र और सक्षम न्यायपालिका ही समाज मेंं भरोसा कायम रखने का काम कर सकती है परंतु देश की अदालतों मेंं लंबित 3.5 करोड़ से अधिक मुकदमों का बढ़ता ढेर जजों की दक्षता का प्रमाण तो नहीं देते। जज कुरियन जोसेफ ने कहा कि न्यायिक प्रणाली लाइलाज नहीं हुई है। उन्होंने इसे दुरुस्त करने के लिए ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका का सुझाव दिया, जिसका प्रयोग रूस मेंं कम्युनिस्ट व्यवस्था मेंं पारदर्शिता और पुनर्निर्माण के लिए मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई के तहत अधिकांश सूचनाओं से अपने को अलग रखा है तो फिर ग्लासनोस्त कैसे आएगा एनजेएसी मामले मेंं छह महीने के भीतर सुनवाई कर निर्णय देने वाले जज, आम जनता के मामलों को सालों-साल क्यों लटकाते हैं? कातिलों के लिए आधी रात मेंं सुनवाई करने वाले जजों को 4 लाख गरीब अनपढ़ कैदियों को जेल से निकालने के लिए समय क्यों नहीं है? मी लार्ड्स को अब हम लोग (वी द पीपुल) से भी जुडऩा पड़ेगा वरना संविधान की संकल्पना को गांधी के अनुसार बदलना पड़ेगा, जिन्होंने कहा था कि अदालतें न हों तो हिंदुस्तान मेंं गरीबों को बेहतर न्याय मिल सकता है। इसके लिए कुछ जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुए ठोस निर्णय लेने होंगे जैसे -
न्यायाधीशों की संख्या मेंं वृद्धि
मुकदमों के समयबद्ध निस्तारण के लिए जरूरत इस बात की है कि न्यायाधीशों की मुकदमें निपटाने की दर के आधार पर अधीनस्थ न्यायालयों मेंं न्यायाधीशों की संख्या में इजाफा किया जाए। इसके लिए जनसंख्या के अनुपात मेंं न्यायाधीशों की संख्या के आधार को छोडऩा होगा।
जजों की नियुक्ति को प्राथमिकता दी जाए
विभिन्न उच्च न्यायालयों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान न्याय प्रणाली के कारण मुकदमों के अंबार लगे हुए हैं। वर्तमान प्रणाली इन्हें रोक भी नहीं पा रही है। मुकदमों के इस अंबार को रोकने और इनके समयबद्ध निस्तारण के लिए अधिक संख्या मेंं जजों की नियुक्तियां की जाएं।
अधीनस्थ न्यायालयों के जजों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़े
समुचित रूप से प्रशिक्षित न्यायाधीशों की कमी के मद्देनजर अधीनस्थ अदालतों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु को बढ़ाकर 62 वर्ष कर दिया जाना चाहिए। इससे मुकदमों के ढेर को कम करने मेंं सहायता मिलेगी।
यातायात/ पुलिस चालान मामलों के लिए हो विशेष कोर्ट
अधीनस्थ न्यायालयों मेंं नए दायर हो रहे मामलों मेंं यातायात या पुलिस चालान सम्बन्धी मामले 38.7 फीसदी होते हैं। लंबित मामलों मेंं भी इनकी संख्या 37.4 प्रतिशत है। इन मामलों के निस्तारण के लिए नियमित न्यायालयों से इतर सुबह और शाम को संचालित होने वाले विशेष न्यायालय शुरू किए जाएं। नए विधि स्नातकों को अल्पकाल के लिए इन नए न्यायालयों का पीठासीन अधिकारी बनाया जा सकता है।
ये न्यायालय जुर्माने आदि से संबंधित मामलों को ही निपटाएं। जहां जेल जैसी सजा के मामले हों, उन्हें नियमित न्यायालय मेंं निपटाया जाए। इसके अलावा जुर्माने को जमा कराने के लिए ऑनलाइन भुगतान की सुविधा होनी चाहिए। न्यायालय परिसर मेंं जुर्माना जमा करवाने के लिए अलग काउंटर लगाए जाने चाहिए।
अतिरिक्त न्यायालयों के लिए आधारभूत सुविधाएं
अतिरिक्त न्यायालयों के लिए पर्याप्त स्टाफ और आधारभूत ढांचागत सुविधाओं के उचित प्रबंध किए जाएं ताकि इन न्यायालयों को कार्यशील बनाया जा सके।
उच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा जरूरी
विधि आयोग का वर्तमान कार्य, वर्ष 2012 तक की स्थिति पर आधारित रहा है। लेकिन, भविष्य मेंं कितनी अधीनस्थ अदालतों और उनके न्यायाधीशों की आवश्यकता होगी, इसका अनुमान लगा पाना कठिन है। इसके लिए उच्च न्यायालयों को चाहिए कि समय-समय पर न्यायाधीशों की संख्या, उनकी निस्तारण दर और मुकदमों के लंबित होने की स्थिति का आकलन करते रहें और आवश्यक कदम उठाते रहें।
अदालतों का काम नीतियां तैयार करना नहीं, सिर्फ यह देखना है कि काम कानून के मुताबिक हो रहा है या नहीं। उत्पादन और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों के बीच संतुलन बनाना मूलत: राजनीतिक कार्य है, जिसमेंं उनकी विशेषज्ञता नहीं है। खराब नीतियों के लिए राजनेता मतदाताओं के सामने जवाबदेह होते हैं। लेकिन प्रशासन को पंगु बनाने, ईमानदार कंपनियों का दीवाला निकालने और आर्थिक विकास को धीमा करके गरीबी बढ़ाने के लिए अदालतों की किसी के आगे कोई जवाबदेही नहीं होती।
इसीलिए कोर्ट का एक्टिविज्म कुछेक बेहद गंभीर मामलों तक ही सीमित रहना चाहिए। पुराना न्यायिक नुस्खा है कि भले ही कई अपराधी छूट जाएं, पर एक भी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए। बावजूद इसके, जुडिशल एक्टिविज्म का शिकार ज्यादातर बेकसूर उद्यमी और ऑफिसर ही हो रहे हैं। भारत मेंं कुशासन की जड़ मेंं सिर्फ धूर्त राजनेता और उद्योगपति ही नहीं, अच्छी नीयत से बनाए गए बुरे कानून भी हैं। अदालतों मेंं लंबे खिंचते मुकदमें हर क्षेत्र मेंं कानून तोडऩे वालों को बढ़ावा देते हैं। लेकिन इसका इलाज तीव्र न्याय है। यह नहीं है अदालतें खुद ही नीतियां बनाने मेंं जुट जाएं।

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