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Saturday 30 May 2015

वास्तु अनुसार कैसे बनाएँ अपना रसोई घर

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हमारे घर में किचन किस दिशा में स्थित है, वह कौन सा कोण बना रहा है और वह वास्तु के अनुरूप है कि नहीं। क्या कारण है कि घर में सबकुछ है पर शांति नहीं, संतोष नहीं। वैसे आप को बता दें कि घर की खुशहाली किचन से ही होकर निकलती है, सो आज हम आपको बताते हैं कैसी होनी चाहिए आपके किचन का वास्तु:
हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग वास्तु शास्त्र पूर्ण रूप से प्रकृति की लाभकारी ऊर्जा पर आधारित वैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों पर आधारित है। प्राकृतिक ऊर्जा एवं पंचतत्वों के प्रभाव का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही हमारे ऋषि-मुनियों ने वास्तु शास्त्र के सूत्रों की रचना मानव जाति के कल्याण की मूलभूत भावना से की थी, जिनका लाभ मनुष्य आज हजारो वर्षों के बाद भी आसानी से प्राप्त कर सकता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार पाकशाला (रसोईघर/ किचन) का प्रावधान, अत्यन्त सूक्ष्म परीक्षणों के पश्चात ही घर की दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा में किया गया। पूर्व से प्राप्य अवरक्त तथा दक्षिण से प्राप्य पराबैंगनी किरणों का उचित सामंजस्य, दक्षिण-पूर्व स्थित रसोई में न सिर्फ वहां प्रात:काल से लेकर मध्याह्न (भोजन बनाने का समय) तक स्वास्थ्यप्रद प्रकाश एवं ऊर्जा प्रदान करता है बल्कि पाकशाला में आसानी से फैल सकने वाले कीटाणुओं, वायरस, सीलन एवं दुर्गन्ध से भी रक्षा करता है। पूर्व एवं उत्तर दिशा की खिड़कियों से तैलीय गन्ध एवं धुंआ भी बगैर घर के अन्य भागों को प्रभावित किये आसानी से बाहर निकल जाते हैं।
वस्तुत: किचन दक्षिण-पूर्व के अलावा कुछ अन्य दिशाओं में भी आसानी से बनाया जा सकता है एवं वहां ऊर्जा के उचित प्रवाह के माध्यम से सम्पूर्ण लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) के अलावा मध्य दक्षिण एवं वायव्य के किचन भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाते हैं बशर्ते वहां की अन्य व्यवस्था वास्तु नियमों के अनुसार की गई हो। रसोईघर आपके घर का पावर हाऊस है, जहां गृहिणी का अधिकांश समय बीतता है एवं वहाँ बने भोजन को परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करते हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके तन तथा मन पर पड़ता है एवं वास्तु अनुरूप रसोईघर में बने भोजन से तन एवं मन स्वस्थ तथा प्रसन्न रहते हैं, तो धन भी भला पीछे कैसे रह सकता है?
आग्नेय कोण: इस कोण में रसोईघर होना काफी शुभ माना जाता है। इससे घर की महिलाएं प्रसन्न रहती हैं और सभी तरह के सुखों का घर में वास होता है।
नैत्रत्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामिनी उत्साहित एंव उर्जायुक्त रहती है।
वायव्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामी आशिक मिजाज होता है। मालिक की बदनामी का भी भय रहता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से रूबरू होना पड़ सकता है।
ईशान कोण: इस कोण में रसोईघर होने से पारिवारिक सदस्यों को कोई खास सफलता नहीं मिलती है और घर में क्लेश रहने की संभावना बनी रहती है।
कौन सी दिशा सही है रसोईघर के लिए:
रसोईघर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दिशा दक्षिण-पूर्व होती है। अत: इस दिशा में रसोई घर के निर्माण से घर में शान्ति और समृद्धि बनी रहती है
रसोई वास्तु के अनुसार: किचन की ऊँचाई 10 से 11 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए। यदि 4-5 फीट में किचन की ऊँचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कभी भी किचन से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। किचन के बाजू में बोर, कुआँ, बाथरूम बनवाना अवाइड करें, सिर्फ वाशिंग स्पेस दे सकते हैं।
रसोई को घर के आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण) में बनाना चाहिए क्योंकि इसे ही अग्नि का स्थान माना गया है। यहां रसोई होने से अग्नि देव नित्य प्रदीप्त रहते हैं और घर का संतुलन बना रहता है। किंतु, इससे यह भी देखा गया है कि अक्सर दिन में तीन या उससे अधिक बार भोजन बनता है यानी खर्च बना ही रहता है। ऐसे में एकदम अग्निकोण को छोड़कर पूर्व की ओर रसोई बनाएं। यदि पूर्व की रसोई बनी हुई हो तो चूल्हे को थोड़ा पूर्व की ओर खिसका दें। चूल्हा इस तरह लगाएं कि सिलेंडर भी उसके एकदम नीचे रहे। रसोई तैयार करते समय मुख की स्थिति पूर्व में रहनी चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि यदि रसोई के दक्षिण में एग्जॉस्ट फैन हो तो व्यय की संभावना रहती है। ऐसे में पूर्व की दीवार पर एग्जॉस्ट फैन लगाना चाहिए। रसोई बन जाने के बाद भोजन कभी घर के ब्रह्मस्थान पर बैठकर नहीं करें। न ही वहां पर झूठा डालें।
अगर आपके घर का रसोईघर वास्तु के नियमानुसार नहीं है एवं उसके प्रतिकूल परिणाम आपको प्राप्त हो रहे हैं एवं किचन की स्थिति या घर बदलना सम्भव नहीं है, तो डरने या घबड़ाने की जरूरत नहीं है। वास्तु की सहायता से आप आसानी से अधिकांश वास्तु-दोष बिना किसी तोड़-फोड़ के सुधार सकते हैं। निम्नलिखित बातों का ध्यान अवश्य रखें:
* किचन के ईशान में सिंक तो ठीक है, परन्तु वहां जूठे बर्तन न तो रखें या धुलाई करें।
* किचन के ईशान से सटाकर चूल्हा कदापि न रखें, वहां गैस सिलिन्डर भी न रखें।
* घर में प्रवेश करते वक्त एवं घर से बाहर जाते समय परिवार के सदस्यों को चूल्हे के दर्शन न हो, ऐसी व्यवस्था अवश्य करें। ड्राइंग टेबल पर भोजन करते समय भी चूल्हा नहीं दिखना चाहिये।
* भोजन बनाने की व्यवस्था सीढिय़ों के नीचे कदापि न करें। वहाँ अत्यन्त नकारात्मक ऊर्जा रहती हैं।
* किचन में दवाइयाँ कदापि न रखें। वहां पूजा/ मन्दिर भी न रखें।
* किचन के दक्षिण-पूर्व में एक छोटा सा पीला, नारंगी या हरा बल्ब लगायें, शुभ परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
* किचन के वायव्य कोण में परदा हरगिज न लगायें। यह छोटी सी भूल अत्यन्त प्रतिकूल परिणाम दे सकती है। किचन में झाड़ू न रखें।
* रसोईघर की दीवार, देहरी, खिड़कियाँ, अलमारियाँ, विद्युत उपकरण, भोजन पकाने के प्लेटफार्म, बर्तन इत्यादि टूटी-फूटी अवस्था में न रखें। उन्हें तुरंत ठीक करवायें या बदलने की व्यवस्था करें। मुड़े हुए कांटे चम्मच, चाकू आदि भी तुरंत हटा दें। अपने रसोईघर को पूर्ण रूप से साफ अवश्य करें, ताकि आपका पावर हाऊस सदैव पावर फुल बना रहे।
* नित्य प्रात:काल अपने रसोईघर के ईशान की खिड़की से थोड़ा सा जल बाहर प्रवाहित करके सूर्य देवता का एवं आग्नेय में कपूर जला कर अग्नि देवता का ध्यान करके उनकी कृपादृष्टि हेतु प्रार्थना करें। परिवार में सौहार्द एवं समरसता की वृद्धि होने लगेगी और रसोईघर की रौनक सारे घर में रौनक लाकर सुख एवं समृद्धि के दरवाजे खोलने लगेगी।
* किचन में सूर्य की रोशनी सबसे ज्यादा आए। इस बात का हमेशा ध्यान रखें। किचन की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे सकारात्मक व पॉजिटिव एनर्जी आती है।
* किचन में लॉफ्ट, अलमारी दक्षिण या पश्चिम दीवार में ही होना चाहिए।
* पानी फिल्टर ईशान कोण में लगाएँ।
* किचन में कोई भी पावर प्वाइंट जैसे मिक्सर, ग्रांडर, माइक्रोवेव, ओवन को प्लेटफार्म में दक्षिण की तरफ लगाना चाहिए। फ्रिज हमेशा वायव्य कोण में रखें।
* भोजन कभी वायव्य कोण में बैठकर या खड़े-खड़े भी नहीं करें। इससे अधिक खाने की आदत हो जाती है। इसी तरह नैऋत्य कोण में बैठकर भोजन नहीं करें। यह राक्षस कोना है और इससे पेटू हो जाने की आशंका रहती है।
* भोजन बनाकर खाने से पूर्व एकाध कौर आग की ज्वाला में अर्पित कर दें।
अगर आपके घर में किचन ईशान या नैऋत्य (ये दिशाएं किचन हेतु वर्जित है) दिशा में हैं जिसका स्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है, तो उसे पिरामिड यंत्रों की सहायता से आसानी से सुधारा जा सकता है। अगर किसी कारणवश पूर्व दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाना सम्भव न हो तो जिस दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाते हैं, वहां चूल्हे के पास तीन पिरामिड लगाकर इस दोष को दूर किया जा सकता है। अगर सिंक एवं चूल्हा पास-पास रखे हों और उन्हें अलग जगह हटाना सम्भव न हो तो मध्य में एक छोटा सा पार्टीशन करके या सिंक पर एक पिरामिड लगाकर इस दोष से मुक्ति पा सकते हैं।
किचन के अगल-बगल या ऊपर-नीचे टायलेट अथवा पूजाघर हो या किचन के दरवाजे के ठीक सामने अन्य कमरों के दरवाजे पड़ते हों, तो सिंक पर पिरामिड लगाकर यह दोष सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है। अगर रसोईघर में बीम या दुच्छती हो, तो पिरामिड यंत्रों से उनकी नकारात्मकता को दूर किया जा सकता है। रसोई घर में रंगों का आयोजन बहुत हल्का होना चाहिए। वास्तु अनुसार ही रंगों का चयन हो तो रसोई समृद्धशाली बनती है। हल्का हरा, हल्का नींबू जैसा रंग, हल्का संतरी या हल्का गुलाबी।
इस तरह के कुछ सरल उपाए के द्वारा आप अपने घर कि स्त्रियो कि सेहत ठीक रखे व सेहतमंद भोजन करे|

Pt.P.S Tripathi
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हिन्दू धर्म में माघ पूर्णिमा का महत्व

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जानिए की क्या हैं माघ पूर्णिमा और माघ पूर्णिमा का महत्व..???
हिन्दू धर्म में धार्मिक दृष्टि से माघ मास को विशेष स्थान प्राप्त है। भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास और दसवां सौरमास माघ कहलाता है।मघा नक्षत्र से युक्त होने के कारण इस महीने का नाम का माघ नाम पडा। ऐसी मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने वाले पापमुक्त होकर स्वर्ग लोक जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि माघी पूर्णिमा पर स्वंय भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करतें है अत: इस पावन समय गंगाजल का स्पर्शमात्र भी स्वर्ग की प्राप्ति देता है | इसके सन्दर्भ में यह भी कहा जाता है कि इस तिथि में भगवान नारायण क्षीर सागर में विराजते हैं तथा गंगा जी क्षीर सागर का ही रूप है|
प्रयाग में प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। हजारों भक्त गंगा-यमुना के संगम स्थल पर माघ मास में पूरे तीस दिनों तक (पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक) कल्पवास करते है। ऐसी मान्यता है कि इस मास में जरूरतमंदों को सर्दी से बचने योग्य वस्तुओं, जैसे- ऊनी वस्त्र, कंबल और आग तापने के लिए लकडी आदि का दान करने से अनंत पुण्य फल की प्राप्ति होती है।इस मास की प्रत्येक तिथि पवित्र है..
इस वर्ष 03 फरवरी 2015 को मंगलवार के दिन माघ पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाएगा. यह उत्तर भारत में माघ महीने के समापन का प्रतीक हैं. ऐसी मान्यता है कि माघ पूर्णिमा के पावन अवसर पर महाकुंभ में स्नान करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।इस दिन चन्द्रमा भी अपनी सोलह कलाओं से शोभायमान होते हैं। इस दिन पूर्ण चन्द्रमा अमृत वर्षा करते हैं जिनके अंश वृक्षों, नदियों, जलाशयों और वनस्पतियों पर पड़ते हैं। अत: इनमें आरोग्यदायक गुण उत्पन्न होते हैं। धार्मिक मान्यता है कि माघ पूर्णिमा में स्नान-दान करने से सूर्य और चन्द्रमा युक्त दोषों से मुक्ति मिलती है। मकर राशि में सूर्य का प्रवेश और कर्क राशि में चंद्रमा का प्रवेश होने से माघी पूर्णिमा को पुण्य योग बनता है तथा सभी तीर्थों के राजा (देवता) पूरे माह प्रयाग तथा अन्य तीर्थों में विद्यमान रहने से अंतिम दिन को जप-तप व संयम द्वारा सात्विकता को प्राप्त किया जा सकता है। संगम में माघ पूर्णिमा का स्नान एक प्रमुख स्नान है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज रहता है जो पाप का शमन करता है।
निर्णय सिंधु में कहा गया है कि माघ मास के दौरान मनुष्य को कम से कम एक बार पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए। भले पूरे माह स्नान के योग न बन सकें लेकिन माघ पूर्णिमा के स्नान से स्वर्गलोक का उत्तराधिकारी बना जा सकता है। इस बात का उदाहरण इस श्लोक से मिलता है-----
॥ मासपर्यन्त स्नानासम्भवे तु त्रयहमेकाहं वा स्नायात्‌ ॥ -
अर्थात् जो लोग लंबे समय तक स्वर्गलोक का आनंद लेना चाहते हैं, उन्हें माघ मास में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर अवश्य तीर्थ स्नान करना चाहिए।
हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार महाकुंभ में माघ पूर्णिमा का स्नान इसलिए भी अति महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इस तिथि पर चंद्रमा अपने पूर्ण यौवन पर होता है। साधु-संतों का कहना है कि पूर्णिमा पर चंद्रमा की किरणें पूरी लौकिकता के साथ पृथ्वी पर पड़ती हैं। स्नान के बाद मानव शरीर पर उन किरणों के पड़ने से शांति की अनुभूति होती है और इसीलिए पूर्णिमा का स्नान महत्वपूर्ण है।माघ स्नान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। माघ में ठंड खत्म होने की ओर रहती है तथा इसके साथ ही स्‍प्रिंग की शुरुआत होती है। ऋतु के बदलाव का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर नहीं पड़े इसलिए प्रतिदिन सुबह स्नान करने से शरीर को मजबूती मिलती है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख है कि माघी पूर्णिमा पर भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करते हैं अत: इस पावन समय गंगाजल का स्पर्शमात्र भी स्वर्ग की प्राप्ति देता है। इसी प्रकार पुराणों में मान्यता है कि भगवान विष्णु व्रत, उपवास, दान से भी उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना अधिक प्रसन्न माघ स्नान करने से होते हैं.महाभारत में एक जगह इस बात का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इन दिनों में अनेक तीर्थों का समागम होता है। वहीं पद्मपुराण में कहा गया है कि अन्य मास में जप, तप और दान से भगवान विष्णु उतने प्रसन्न नहीं होते जितने कि वे माघ मास में स्नान करने से होते हैं। यही वजह है कि प्राचीन ग्रंथों में नारायण को पाने का आसान रास्ता माघ पूर्णिमा के पुण्य स्नान को बताया गया है।भृगु ऋषि के सुझाव पर व्याघ्रमुख वाले विद्याधर और गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त इन्द्र भी माघ स्नान के सत्व द्वारा ही श्राप से मुक्त हुए थे। पद्म पुराण के अनुसार माघ-स्नान से मनुष्य के शरीर में स्थित उपाताप जलकर भस्म हो जाते हैं।
इस दिन किए गए यज्ञ, तप तथा दान का विशेष महत्व होता है. भगवान विष्णु की पूजा कि जाती है, भोजन, वस्त्र, गुड, कपास, घी, लड्डु, फल, अन्न आदि का दान करना पुण्यदायक माना जाता है. माघ पूर्णिमा में प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व किसी पवित्र नदी या घर पर ही स्नान करके भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिए. माघ मास में काले तिलों से हवन और पितरों का तर्पण करना चाहिए तिल के दान का इस माह में विशेष महत्त्व माना गया है.
मत्स्य पुराण के अनुसार-
पुराणं ब्रह्म वैवर्तं यो दद्यान्माघर्मासि च,
पौर्णमास्यां शुभदिने ब्रह्मलोके महीयते।
मत्स्य पुराण का कथन है कि माघ मास की पूर्णिमा में जो व्यक्ति ब्राह्मण को दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।यह त्यौहार बहुत हीं पवित्र त्यौहार माना जाता हैं.इस दिन किए गए यज्ञ, तप तथा दान का विशेष महत्व होता है. स्नान आदि से निवृत होकर भगवान विष्णु की पूजा कि जाती है, गरीबो को भोजन, वस्त्र, गुड, कपास, घी, लड्डु, फल, अन्न आदि का दान करना पुण्यदायक होता है.
माघ पूर्णिमा को माघी पूर्णिमा के नाम से भी संबोधित किया जाता है. माघशुक्ल पक्ष की अष्टमी भीमाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है। इस तिथि को भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया था। उन्हीं की पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। माघी पूर्णिमा को एक मास का कल्पवास पूर्ण हो जाता है। इस दिन सत्यनारायण कथा और दान-पुण्य को अति फलदायी माना गया है।
माघ माह में स्नान, दान, धर्म-कर्म का विशेष महत्व होता है. इस माह की प्रत्येक तीथि फलदायक मानी गई है. शास्त्रों के अनुसार माघ के महीने में किसी भी नदी के जल में स्नान को गंगा स्नान करने के समान माना गया है. माघ माह में स्नान का सबसे अधिक महत्व प्रयाग के संगम तीर्थ का होता है...इस अवसर पर गंगा में स्नान करने से पाप एंव संताप का नाश होता है तथा मन एवं आत्मा को शुद्वता प्राप्त होती है. इस दिन किया गया महास्नान समस्त रोगों को शांत करने वाला है. इस समय ""ऊँ नमो भगवते नन्दपुत्राय ।। ऊँ नमो भगवते गोविन्दाय ।। ऊँ कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम: ।। मंत्र ध्यान के बाद भगवान कृष्ण या विष्णु की आरती करें। प्रसाद बांटे और ग्रहण करें। पूजा, आरती में हुई गलती के लिए क्षमा प्रार्थना करें।
माघ पूर्णिमा के अवसर पर भगवान सत्यनारायण जी कि कथा की जाती है भगवान विष्णु की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाता है. सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, शहद केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है, इसके साथ ही साथ आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर चूरमे का प्रसाद बनाया जाता है और इस का भोग लगता है.
माघ पूर्णिमा में प्रात: स्नान, यथाशक्ति दान तथा सहस्त्र नाम अथवा किसी स्तोत्र द्वारा भगवान विष्णु की आराधना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। निष्काम भाव से माघ-स्नान मोक्ष दिलाता है। माघ-स्नान से समस्त पाप-ताप-शाप नष्ट हो जाते हैं।
इस दिन सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज रहता है जो पाप का शमन करता है। यह भी मान्यता है कि जो तारों के छुपने से पूर्व स्नान करते हैं, उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है। तारों के छुपने के बाद किन्तु सूर्योदय से पूर्व के स्नान से मध्यम फल मिलता है। किन्तु जो सूर्योदय के बाद स्नान करते हैं, वे उत्तम फल की प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। माघ मास को बत्तीसी पूर्णिमा व्रत भी कहते हैं। पूर्णिमा को भगवान विष्णु की पूजा की जाती है जो सौभाग्य व पुत्र प्राप्ति के लिए होती है।
हिन्दू पंचांग के मुताबिक ग्यारहवें महीने यानी माघ में स्नान, दान, धर्म-कर्म का विशेष महत्व है। इस दिन को पुण्य योग भी कहा जाता है। इस स्नान के करने से सूर्य और चंद्रमा युक्त दोषों से मुक्ति मिलती है।
ऐसा माना जाता हैं जो व्यक्ति माघ पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करता हैं उसके सारे पाप धूल जाते हैं. इस अवसर पर गंगा में स्नान करने से मनुष्य के समस्त पाप एंव संताप मिट जातें है.इसे मन एवं आत्मा को शुद्व करने वाला माना गया है. इस दिन लोग उपवास रखते हैं ,दान देते हैं. पितृ तर्पण भी माघ पूर्णिमा के दिन किया जाता हैं. माघ पूर्णिमा अल्लहाबाद में संगम पर आयोजित हैं. माघ पूर्णिमा का दिन मृत पुर्वजो के लिए पुण्य स्नान करने का आख़िरी दिन हैं.
इस दिन यदि रविवार, व्यतिपात योग और श्रवण नक्षत्र हो तो ‘अर्धोदय योग’ होता है जिसमें स्नान-दान का फल भी मेरू समान हो जाता है। माघ शुक्ल पंचमी को विद्या, बुद्धि, ज्ञान और वाणी की अधिष्ठïात्री देवी भगवती सरस्वती की पूजा होती है। ब्रह्मï वैवर्त पुराण के अनुसार इनका जन्म श्रीकृष्ण के कण्ठ से हुआ। ऋग्वेद में उनकी महिमा का गान हुआ है। अत: यह दिन उनके आविर्भाव दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अचला सप्तमी का व्रत आता है। इसका महात्म्य भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिïर को बताया था कि इस दिन स्नान-दान, पितरों के तर्पण व सूर्य पूजा से तथा वस्त्रादि दान करने से व्यक्ति बैकुण्ठ में जाता है। इस व्रत को करने से वर्ष भर रविवार व्रत करने का पुण्य प्राप्त होता है। इसके बाद शुक्ल अष्टमी को भीमाष्टïमी के नाम से जाना जाता है। इसी तिथि को भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण-त्याग किया था। इस दिन उनके निमित्त स्नान-दान तथा माधव पूजा से सब पाप नष्टï होते हैं।
माघ पूर्णिमा के दिन गंगा ,यमुना,सरस्वती ,कावेरी, कृष्णा आदि नदियों के किनारे जबरदस्त पूजा की जाती हैं.अनेक पवित्र पर्वों के समन्वय की वजह से श्रद्धालुओं के लिए माघ मास को अति पुण्य फलदयी माना जाता है।
इस दिन करें यह विशेष उपाय----शैव मत को मानने वाले व्यक्ति भगवान शंकर की पूजा करते हैं, उन्हें शिव को विशेष मंत्र से शहद स्नान कराना। शाम को स्नान के बाद सफेद वस्त्र पहन चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर शिवलिंग को अक्षत से बने अष्टदल कमल पर स्थापित करें।शिवलिंग को एक पात्र में गंगा जल व दूध मिले पवित्र जल से स्नान कराएं।
इसके बाद शहद की धारा शिवलिंग पर नीचे लिखे मंत्र बोलते हुए पाप नाश व समृद्धि की कामना से करें -
“दिव्यै: पुष्पै: समुद्भूतं सर्वगुणसमन्वितम्। मधुरं मधुनामाढ्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।”
शहद स्नान के बाद शुद्ध जल से स्नान व शिव की पंचोपचार पूजा यानी चंदन, फूल, बिल्वपत्र व मिठाई का भोग लगाकर करें। धूप, दीप व कर्पूर से शिव आरती करें। जाने-अनजाने गलत कामों की क्षमा मांगे।

Friday 29 May 2015

जाने संख्या 108 का महतवपूर्ण महत्व

संख्या 108 का महत्व.................

संख्या 108 का महत्व.................

संख्या 108 का महत्व: 108 का रहस्य ! (The Mystery of 108) वेदान्त में एक मात्रकविहीन सार्वभौमिक ध्रुवांक 108 का उल्लेख मिलता है जिसका हजारों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों (वैज्ञानिकों) ने अविष्कार किया था l मेरी सुविधा के लिए मैं मान लेता हूँ कि, 108 = ॐ (जो पूर्णता का द्योतक है)
प्रकृति में 108 की विविध अभिव्यंजना :

1. सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1 ॐ 150,000,000 km/1,391,000 km = 108 (पृथ्वी और सूर्य के बीच 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं)

2. सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 = 1 ॐ 1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 ॐ सूर्य के व्यास पर 108 पृथ्वियां सजाई सा सकती हैं .

3. पृथ्वी और चन्द्र के बीच की दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1 ॐ 384403 km/3474.20 km = 108 = 1 ॐ पृथ्वी और चन्द्र के बीच १०८ चन्द्रमा आ सकते हैं .

4. मनुष्य की उम्र 108 वर्षों (1ॐ वर्ष) में पूर्णता प्राप्त करती है . वैदिक ज्योतिष के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन काल में विभिन्न ग्रहों की 108 वर्षों की अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना पड़ता है .

5. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 ॐ श्वास लेकर एक दिन पूरा करता है . 1 मिनट में 15 श्वास >> 12 घंटों में 10800 श्वास >> दिनभर में 100 ॐ श्वास, वैसे ही रातभर में 100 ॐ श्वास

6. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त में 4 ॐ ह्रदय की धड़कन पूरी करता है . 1 मिनट में 72 धड़कन >> 6 मिनट में 432 धडकनें >> 1 मुहूर्त में 4 ॐ धडकनें ( 6 मिनट = 1 मुहूर्त)

7. सभी 9 ग्रह (वैदिक ज्योतिष में परिभाषित) भचक्र एक चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 ॐ

8. सभी 9 ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते समय 27 नक्षत्रों को पार करते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं और 27 x 4 = 108 = 1 ॐ

9. एक सौर दिन 200 ॐ विपल समय में पूरा होता है. (1 विपल = 2.5 सेकेण्ड) 1 सौर दिन (24 घंटे) = 1 अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600 विपल = 200 x 108 = 200 ॐ विपल *** 108 का आध्यात्मिक अर्थ *** 1 सूचित करता है ब्रह्म की अद्वितीयता/एकत्व/पूर्णता को 0 सूचित करता है वह शून्य की अवस्था को जो विश्व की अनुपस्थिति में उत्पन्न हुई होती 8 सूचित करता है उस विश्व की अनंतता को जिसका अविर्भाव उस शून्य में ब्रह्म की अनंत अभिव्यक्तियों से हुआ है . अतः ब्रह्म, शून्यता और अनंत विश्व के संयोग को ही 108 द्वारा सूचित किया गया है . जिस प्रकार ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यंजना प्रणव ( अ उ म् ) है और नादीय अभिव्यंजना ॐ की ध्वनि है उसी प्रकार ब्रह्म की गाणितिक अभिव्यंजना 108 है .!!

हिंदू देवताओं, 108 नाम हैं गौड़ीय वैष्णव , 108 रहे हैं गोपियों के वृंदावन . अक्सर एक 108 मनके की गिनती के साथ इन नामों का गायन, माला , धार्मिक समारोह के दौरान पवित्र और अक्सर किया जाता है. गायन namajapa कहा जाता है. तदनुसार, एक जप माला आमतौर पर एक के 108 repetitions के लिए मोती है मंत्र . सूर्य का व्यास और चंद्रमा का व्यास द्वारा विभाजित पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी से विभाजित पृथ्वी से सूर्य की दूरी 108 के लगभग बराबर है. उदाहरण के लिए, गूगल खोज 149,600,000 किलोमीटर और 1,391,000 किलोमीटर के रूप में "सूर्य का व्यास" के रूप में "सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी" प्रदान करता है. ऊपर गोलाई से 108 को approximated किया जा सकता है, १०७.५४८५२६२४०११५: तो, हम के रूप में अनुपात मिलता है. इसके अलावा, गूगल खोज 384,400 किमी और 3 474.8 किलोमीटर के रूप में "चंद्रमा का व्यास" के रूप में "चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी" प्रदान करता है. जो 111 approximated जब 3 से 108 के पास है 110.6250719465869,: तो, हम के रूप में अनुपात मिलता है. सूर्य और पृथ्वी: सूर्य का व्यास पृथ्वी से 108 गुना व्यास है.
संख्या 108 का महत्व मंत्र गिनती के भारतीय उपमहाद्वीप माला या सेट 108 मनकों से है. 108 एक बहुत लंबे समय के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में एक पवित्र नंबर दिया गया है. यह संख्या कई अलग अलग तरीकों से समझाया गया है. प्राचीन भारतीयों उत्कृष्ट गणितज्ञों थे और 108 (1 उदा शक्ति 1 एक्स 2 बिजली 2 एक्स 3 शक्ति 3 = 108) विशेष numerological महत्व है सोचा था. एक सटीक गणितीय आपरेशन के उत्पाद हो सकता है 1 की शक्तियां, 2, और गणित में 3: 1 के लिए 1 शक्ति = 1, 2 से 2 शक्ति = 4 (2x2), 3 से 3 शक्ति = 27 (3x3x3). 1x4x27 = 108 संस्कृत वर्णमाला: संस्कृत वर्णमाला में 54 पत्र हैं. प्रत्येक पुरुष और स्त्री, शिव और शक्ति है. 54 गुना 2 108 है.

श्री यंत्र: श्री यंत्र पर तीन लाइनों काटना जहां marmas कर रहे हैं, और 54 ऐसे चौराहों हैं. प्रत्येक चौराहों पुरुष और स्त्री, शिव और शक्ति गुण हैं. 54 एक्स 2 108 बराबर होती है. इस प्रकार, श्री यंत्र के साथ ही मानव शरीर को परिभाषित है कि 108 अंक हैं.

9 बार 12: इन नंबरों के दोनों कई परंपराओं में आध्यात्मिक महत्व के लिए कहा गया है. 9 बार 12 108 है. इसके अलावा, 1 प्लस 8 9 बराबर होती है. 9 बार 12 108 के बराबर होती है. हार्ट चक्र: चक्रों ऊर्जा लाइनों के चौराहों हैं, और हृदय चक्र के लिए फार्म converging 108 ऊर्जा लाइनों की कुल वहाँ के लिए कहा जाता है. उनमें से एक, सुषुम्ना मुकुट चक्र की ओर जाता है, और आत्मज्ञान के लिए पथ होने के लिए कहा है. Marmas: उन्हें फार्म converging कम ऊर्जा लाइनों को छोड़कर marmas या marmastanas ऊर्जा चौराहों की तरह, चक्र कहा जाता है. सूक्ष्म शरीर में 108 marmas वहाँ के लिए कहा जाता है. समय: कुछ भविष्य से संबंधित वर्तमान, और 36 से संबंधित अतीत, 36 से संबंधित 36 के साथ, 108 भावनाओं रहे हैं कहते हैं.

ज्योतिष: वहाँ 12 तारामंडल हैं, और 9 चाप क्षेत्रों namshas या chandrakalas बुलाया. 9 बार 12 108 के बराबर होती है. चंद्र चाँद है, और Kalas एक पूरे के भीतर मतभेद हैं.

ग्रहों और मकान: ज्योतिष में, 12 घरों और 9 ग्रहों कर रहे हैं. 12 बार 9 108 बराबर होती है. कृष्ण की गोपियों: कृष्णा परंपरा में, 108 गोपियों या कृष्ण की नौकरानी सेवकों वहाँ के लिए कहा गया. 1, 0, और 8: 1 भगवान के लिए खड़ा है या उच्चतर सत्य, साधना में खालीपन या पूर्णता के लिए 0 खड़ा है, और अनंत या अनंत काल के लिए 8 खड़ा है. न्यूमेरिकल पैमाने: 108 में से 1, और 108 के 8, एक साथ जोड़ा जब संख्यात्मक पैमाने पर, यानी 1, 2, 3 की संख्या है, जो 9 के बराबर होती है ... 0 एक नंबर नहीं है जहां 10, आदि,. छोटे डिवीजनों: ऐसे छमाही में के रूप में संख्या 108 बांटा गया है, कुछ malas 54, 36, 27, या 9 मोती है ताकि तीसरी, तिमाही, या बारहवें,. इस्लाम: संख्या 108 भगवान का उल्लेख करने के लिए इस्लाम में प्रयोग किया जाता है. जैन: जैन धर्म में, 108 क्रमश: 12, 8, 36, 25, और 27 गुण सहित पवित्र लोगों की पांच श्रेणियों, के संयुक्त गुण हैं.

सिख: सिख परंपरा बल्कि मोतियों से ऊन की एक स्ट्रिंग, में बंधे 108 समुद्री मील की माला है. चीनी: चीनी बौद्ध और Taoists सु चू कहा जाता है जो एक 108 मनका माला, उपयोग और तीन विभाजित मोती, इसलिए माला 36 प्रत्येक के तीन भागों में बांटा गया है है. आत्मा के चरणों: आत्मा, मानव आत्मा या केंद्र की यात्रा पर 108 चरणों के माध्यम से चला जाता है कि ने कहा. मेरु: यह एक बड़ा मनका, नहीं 108 का हिस्सा है. यह अन्य मोती के अनुक्रम में बंधा नहीं है. यह Quiding मनका, माला की शुरुआत और अंत का प्रतीक है कि एक है.

नृत्य: भारतीय परंपराओं में नृत्य के 108 रूप हैं.

पाइथागोरस: नौ सभी नंबरों की सीमा है, अन्य सभी मौजूदा और उसी से आ रही है. यानी: 0 से 9 सभी एक संख्या की एक अनंत राशि अप करने की जरूरत है

. हम Muktikopanishad में निहित सूची के अनुसार 108 उपनिषदों नीचे सूचीबद्ध किया है. हम जो उनमें से प्रत्येक के सदस्य बनने के लिए विशेष रूप से वेद के अनुसार चार श्रेणियों में उन्हें व्यवस्था की है.

-------- 108 संख्या का महत्व 1 .जन्म पत्रिका में 12 राशियों के 12 घर होते हैं और इन घरों में 9 ग्रहों को स्थापित करते हैं | इस तरह से हर ग्रह 12 जगह स्थापित हो सकता है या फिर 12x9 =108 विभिन्न तरह से जन्म पत्रिका में ग्रह पाए जा सकते हैं |

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........
अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक (Name Number), मूलांक (Root Number) और भाग्यांक (Destiny Number) इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है.
अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. अंक ज्योतिष से ज्योतिष की अन्य विधाओं की तरह भविष्य और सभी प्रकार के ज्योंतिषीय प्रश्नों का उत्तर ज्ञात किया जा सकता है. विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषय में भी अंक ज्योतिष और उसके उपाय काफी मददगार साबित होते हैं.
अंक ज्योंतिष अपने नाम के अनुसार अंक पर आधारित है. अंक शास्त्र के अनुसार सृष्टि के सभी गोचर और अगोचर तत्वों का अपना एक निश्चत अंक होता है. अंकों के बीच जब ताल मेल नहीं होता है तब वे अशुभ या विपरीत परिणाम देते हैं. अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक, मूलांक और भाग्यांक इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है. अगर वर और वधू के अंक आपस में मेल खाते हैं तो विवाह हो सकता है. अगर अंक मेल नहीं खाते हैं तो इसका उपाय करना होता है ताकि अंकों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित हो सके.
वैदिक ज्योतिष (Vedic Astrology) एवं उसके समानांतर चलने वाली ज्योतिष विधाओं में वर वधु के वैवाहिक जीवन का आंकलन करने के लिए जिस प्रकार से कुण्डली से गुण मिलाया जाता ठीक उसी प्रकार अंकशास्त्र में अंकों को मिलाकर (Numerology Marriage compatibility) वर वधू के वैवाहिक जीवन का आंकलन किया जाता है.
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बेहतर कैरिअर के योग और ज्योतिष

बेहतर कैरियर प्राप्ति के योग -
आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसे अच्छा कैरियर प्राप्त हो तथा उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ रहें तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी जातक के पास नियमित कैरियर के प्रयास में सफलता तथा आय का साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है। कुंडली में दूसरे स्थान से उच्च षिक्षा तथा धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अतः इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो षिक्षा, धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेष कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अतः चतुर्थेष या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है। पंचमभाव से अध्ययन, सामाजिक स्थिति के साथ धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अतः पंचमेष या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है। दूसरे भाव या भावेष के साथ कर्मभाव या लाभभाव तथा भावेष के साथ मैत्री संबंध होने से जीवन में धन की स्थिति तथा अवसर निरंतर अच्छी बनी रहती है। जन्म कुंडली के अलावा नवांष में भी इन्हीं भाव तथा भावेष की स्थिति अनुकूल होना भी आवष्यक होता है।  अतः जीवन में इन पाॅचों भाव एवं भावेष के उत्तम स्थिति तथा मैत्री संबंध बनने से व्यक्ति के जीवन में अस्थिर या अस्थिर संपत्ति की निरंतरता तथा साधन बने रहते हैं। इन सभी स्थानों के स्वामियों में से जो भाव या भावेष प्रबल होता है, धन के निरंतर आवक का साधन भी उसी से निर्धारित होता है। अतः जीवन में धन तथा सुख समृद्धि निरंतर बनी रहे इसके लिए इन स्थानों के भाव या भावेष को प्रबल करने, उनके विपरीत असर को कम करने का उपाय कर जीवन में सुख तथा धन की स्थिति को बेहतर किया जा सकता है। आर्थिक स्थिति को लगातार बेहतर बनाने के लिए प्रत्येक जातक को निरंतर एवं तीव्र पुण्यों की आवष्यकता पड़ती है, जिसके लिए जीव सेवा करनी चाहिए। सूक्ष्म जीवों के लिए आहार निकालना चाहिए। अपने ईष्वर का नाम जप करना चाहिए। कैरियर को बेहतर बनाने के लिए शनिवार का व्रत करें।

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कालसर्प दोष का ज्योतिषीय


ज्योतिषीय आधार पर कालसर्प दो शब्दों से मिलकर बना है ‘‘काल’’ और ‘‘सर्प’’ । काल का अर्थ समय और सर्प का अर्थ सांप अर्थात् समय रूपी सांप। ज्योतिषीय मान्यता है कि जब सभी ग्रह राहु एवं केतु के मध्य आ जाते हैं या एक ओर हो जाते हैं तो कालसर्प येाग बनता है। मान्यता है कि जिस जातक की कुंडली में कालसर्प दोष बनता है, उसके जीवन में काफी उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है। कालसर्प योग में सभी ग्रह अर्धवृत्त के अंदर होता है। ऋग्वेद के अनुसार राहु और केतु ग्रह नहीं है बल्कि असुर हैं। अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्र दोनों आमने सामने होते हैं उस समय राहु अपना काम करता है जिससे सूर्य ग्रहण होता है उसी प्रकार पूर्णिमा के दिन केतु अपना काम करता है और चंद्रग्रहण लगता है। वैदिक परंपरा में विष्णु को सूर्य कहा गया है जो कि दीर्धवृत्त के समान है। राहु केतु दो संपात बिंदु हैं जो इस दीर्घवृत्त को दो भागों में बांटते हैं। इन दो बिंदुओं के बीच ग्रहों की उपस्थिति होने पर कालसर्प बनता है। जो व्यक्ति के पतन का कारण बनता है।
ज्योतिषीय मान्यता है कि राहु और केतु छायाग्रह हैं जो सदैव एक दूसरे से सातवेंभाव पर होते हैं जब सभी ग्रह क्रमवार से इन दोनों ग्रहों के बीच आ जाते हैं तो कालसर्प दोष बनता है। राहु केतु शनि के समान क्रूर ग्रह माने जाते हैं और शनि के समान विचार रखने वाले होते हैं। राहु जिनकी कुंडली में अनुकूल फल देने वाला होता है, उन्हें कालसर्प दोष में महान उपलब्धियां हासिल होती हैं। इस दोष में जातक से परिश्रम करवाता है और उसके अंदर की कमियां को दूर करने की प्रेरणा देता है जिससे व्यक्ति जुझारू, संघर्षषील और साहसी बनता हैं इस योग के प्रभाव में अपनी क्षमताओं का पूरा प्रयोग और निरंतर आगे बढ़ने हेतु सदा परिश्रम करने से कालसर्प दोष योग बन सकता है। कालसर्प योग में स्वराषि एवं उच्च राषि में स्थित गुरू, उच्च राषि का राहु, गजकेषरी योग, चतुर्थ केंद्र विषेष लाभ प्रदान करता है। अकर्मण्य होने तथा उसके परिणामस्वरूप निराष होकर प्रयास छोड़ने से कालसर्प दोष बन जाता है किंतु लगनषील तथा परिश्रमी बनकर प्रयास करने से कालसर्प दोष ना रहकर योग बन जाता है। कालसर्प दोष में परिश्रमी तथा लगनषील बनने के साथ पितृदोष निवारण उपाय तथा राहु शांति कराना भी उचित होता है।
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बच्चों में तनाव का कारन परीक्षा के डर

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परीक्षा के डर से उत्पन्न तनाव -
परीक्षा के समय ज्यादा से ज्यादा अंक लाने की होड़, साथी बच्चों से तुलना, लक्ष्य का पूर्व निर्धारित कर उसके अनुरूप प्रदर्षन तथा इसी प्रकार के कई कारण से परीक्षा के पहले बच्चों के मन में तनाव का कारण बनता है। परीक्षा में अच्छे अंक की प्राप्ति के लिए किया गया तनाव अधिकांषतः नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है क्योंकि तनाव के कारण स्मरणषक्ति कम होती है, जिसके कारण पूर्व में तैयार विषय भी याद नहीं रह जाता, घबराहट के कारण स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है, साथ ही अनिद्रा, सिरदर्द तथा स्टेसहार्मोन के कारण एकाग्रता की कमी से परीक्षा का परिणाम भी विपरीत आता है, जोकि डिप्रेषन का कारण बनता है। अतः परीक्षा के डर के कारण उत्पन्न तनाव को दूर करने हेतु ज्योतिषीय तथ्य का सहारा लिया जा सकता है। जब भी परीक्षा से पहले तनाव के कारण सिरदर्द या अनिद्रा की स्थिति बने तो तृतीयेष ग्रह को शांत करने का उपाय आजमाते हुए चंद्रमा तथा राहु की स्थिति तथा दषाओं एवं अंतरदषाओं का निरीक्षण कर उक्त ग्रहों के लिए उचित मंत्र जाप, दान द्वारा मनःस्थिति पर नियंत्रण किया जा सकता है। साथ ही ऐसे में जातक को चाहिए कि हनुमान जी के दर्षन कर हनुमान चालीसा का पाठ कर एकाग्रता बढ़ाते हुए शांत मन से पढ़ाई करनी चाहिए साथ ही मन को प्रसन्न करने का उचित उपाय आजमाने से तनाव से मुक्त हुआ जा सकता है।
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जाने बहुला संकष्टी श्री गणेष व्रत

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बहुला संकष्टी श्री गणेष व्रत -
भाद्रपद कृष्ण-पक्ष की तृतीया को भगवान गणेष की संकष्टहरण के रूप में पूजे जाते हैं। अमरकोष नामक ग्रंथ में उल्लेख है कि बहुला संकष्टी का व्रत करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है। कहा जाता है किसी विषिष्ट कर्म में किसी प्रकार के विध्न को हरने हेतु गणेष की अर्चन एवं पूजन किया जाता है। अभिष्ट फल की प्राप्ति हेतु गणेष का व्रत किया जाता है इसमें प्रसन्न मन से पवित्र होकर पूजन सामग्रियों को एकत्रित कर भगवान के मूल मंत्र उॅ गं गणपतये नमः का उच्चारण करते हुए सारी सामग्रियों का चढ़ाकर भगवान के आठ नामों का उच्चारण करे हुए भगवान का वंदन करना चाहिए। भगवान षिव के गुहा के आगे जिनका आविर्भाव हुआ है और जो समस्त देवताओं के द्वारा अग्रपूज्य हैं उन्हें गणपति को विद्या, भाग्य, संतान आदि की अभिलाषा से भगवान का पूजन करने से अभिष्ठ फल की प्राप्ति होती है। भगवान गणेष को मोदक और दूर्वा अति प्रिय हैं अतः हरित वर्ण का दूर्वा जिसमें अमृत तत्व का वास होता है, उसे भगवान वैनायकी पर चढ़ाने पर से जीवन के सभी विध्न समाप्त होकर जीवन में सुखो का वास होता है और अभिष्ट कामना की पूर्ति होती है।

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किस्मत खराब होने का ज्योतिष सच -

किस्मत खराब होने का ज्योतिष सच -
पुरूषार्थ का महत्व भाग्य से अधिक है साथ ही अधिकांष लोगो की मान्यता होती है कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं होती जितना कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है किंतु जीवन की कई अवस्थाओं पर नजर डाले तो भाग्य की धारणा से इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय शास्त्र में कर्म को तीन श्रेणियों में बांटा गया है जोकि क्रमषः संचित कर्म, क्रियामाण कर्म और प्रारब्ध है। जो वर्तमान में कर्म किया जाता है वहीं क्रियामाण कर्म कहा जाता है जिसका कोई फल अभी हमें प्राप्त नहीं है अर्थात् वहीं कर्म भविष्य में संचित कर्म बनता है। इन्हीं संचित कर्म में से जिसका फल हमें प्राप्त हो जाता है वह चाहें अच्छा हो या बुरा प्रारब्ध कहा जा सकता है। अब देखें कि संचित कर्म का विचार - वह कर्म जिसका परिणाम हमें वर्तमान में नहीं प्राप्त होता माना जाता है कि वह किसी भी जनम में प्राप्त हो सकता है जिसका उल्लेख आप वंषषास्त्र से कर सकते हैं क्योंकि जन्म के समय किसी भी प्रकार के कर्म के बिना भी जीव उच्च-नीच, अमीर-गरीब, स्वस्थ या अस्वस्थ होने के तौर पर प्राप्त करता है जिसका वर्णन ज्योतिष शास्त्र में जातक के जन्मकुंडली के पंचम या पंचमेष के आधार पर किया जा सकता है। कर्म का दूसरा भाग है प्रारब्ध। प्रारब्ध को अपने इसी जन्म में भोगना हेाता है अर्थात इसे उत्पति कर्म भी कहा जा सकता है जोकि व्यक्ति के जींस तय कर देते हैं कि उसका प्रारब्ध क्या होगा अर्थात् गर्भधारण के समय ही उसका प्रारब्ध निर्धारित हो जाता है। प्रयत्न के बिना ही पैदा होते ही जो कुछ प्राप्त होता है या अप्राप्त रह जाता है वह प्रारब्ध होता है। कुंडली में प्रारब्ध केा नवम भाव या नवमेष से देखा जा सकता है। अब कर्म के तीसरे स्वरूप क्रियामाण को देखें। क्रियामाण अर्थात् जो वर्तमान में कर्म चल रहा है मतलब इसे हम पुरूषार्थ कह सकते हैं। भारतीय मान्यता है कि इंसान के 12 वर्ष अर्थात् कालपुरूष के भाग्य के एक चक्र के पूरा होने के उपरांत क्रियामाण का दौर शुरू हो जाता है जोकि जीवन के अंत तक चलता है। अब व्यक्ति की षिक्षा उसकी रूचि सामाजिक स्थिति पारिवारिक तथा निजी परिस्थिति पसंद नापसंद, प्रयास तथा उसमें सकाकरात्मक या नाकारात्मक सोच से व्यक्ति का क्रियामाण उसके जीवन को प्रतिकूल या अनुकूल स्थिति हेतु प्रभावित करता है अतः पुरूषार्थ या क्रियामाण कर्म ही संचित होकर प्रारब्ध बनता है अतः जीवन के सिर्फ कर्म के आधार पर नहीं वरन् कर्म और भाग्य के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है जोकि कुंडली के पंचम, नवम और दषम स्थान से देखा जाता है इसमें प्रयास का स्तर, मनोभाव या सहयोग कि स्थिति देखना भी आवष्यक होता है जोकि कुंडली के अन्य भाव से निर्धारित होता है अतः मानव जीवन में भाग्य का भी अहम हिस्सा होता है।

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