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Tuesday 16 June 2015

बार-बार कर्म का बदलाव और आय में बाधा का ज्योतिष उपाय


आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहे तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी व्यक्ति के पास कितनी धन संपत्ति होगी तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा आय का योग तथा नियमित साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है।
कुंडली में दूसरे स्थान से धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अत: इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेश कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अत: चतुर्थेश या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है।
पंचमभाव से धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अत: पंचमेश या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है। दूसरे भाव या भावेश के साथ कर्मभाव या लाभभाव तथा भावेश के साथ मैत्री संबंध होने से जीवन में धन की स्थिति तथा अवसर निरंतर अच्छी बनी रहती है।
जन्म कुंडली के अलावा नवांश में भी इन्हीं भाव तथा भावेश की स्थिति अनुकूल होना भी आवष्यक होता है। अत: जीवन में इन पांचों भाव एवं भावेश के उत्तम स्थिति तथा मैत्री संबंध बनने से व्यक्ति के जीवन में अस्थिर या अस्थिर संपत्ति की निरंतरता तथा साधन बने रहते हैं। इन सभी स्थानों के स्वामियों में से जो भाव या भावेश प्रबल होता है, धन के निरंतर आवक का साधन भी उसी से निर्धारित होता है।
अत: जीवन में धन तथा सुख समृद्धि निरंतर बनी रहे इसके लिए इन स्थानों के भाव या भावेश को प्रबल करने, उनके विपरीत असर को कम करने का उपाय कर जीवन में सुख तथा धन की स्थिति को बेहतर किया जा सकता है।
आर्थिक स्थिति को लगातार बेहतर बनाने के लिए प्रत्येक जातक को निरंतर एवं तीव्र पुण्यों की आवश्यकता पड़ती है, जिसके लिए जीव सेवा करनी चाहिए। अपनी हैसियत के अनुसार सूक्ष्म जीवों के लिए आहार निकालना चाहिए। अपने ईश्वर का नाम जप करना चाहिए।


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Monday 15 June 2015

धृष्टराजजी के 100 पुत्र थे....कैसे??

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धृष्टराजजी के 100 पुत्र थे....कैसे ?महाभारत कथा मे धर्तराष्ट की पत्नी गांधारी को महर्षि वेद व्यास के आश्र्वाद से एक सो एक [101] बच्चे पेदा हुए .अब यह कथा हमारे धर्म ग्रंथो मे लिखी है ओर इसकी सच्चाई का पता लगाने का भी कोई तरीका नही है हमारे बड़े बुजुर्ग कहते आये है तो हमे भी लगता है की हो भी सकता है क्योकि आज विज्ञान के समय मे किसी ओरत के सो बच्चे किसी भी हालत मे पेदा नही कर सकती यह असम्भव हैइसमे हेरानी की बात क्या है की धार्तराष्ट्र को 100 पुत्र थे? श्री मान जी गंधारी से ही 100 पुत्र हुये थे और वो पुत्र एक साथ ही हुये थे. ऐसे समाचर तो आज भी कई मिल जाते है की फला व्यक्ति या स्त्री को 50 पुत्र है या जुदवे होते है.? गंधारी को महाभारत कथा के अनुसार व्यास जी के कृपा से 101 बच्चे हुये थे. जिसमे 100 पुत्र और एक बच्ची हुई थी. गंधारी ने 101 बार बच्चे का जन्म नही दिया था बालिक उनके 2 साल गर्भावती होने के बाद भी जब किसी बच्चे का जन्म नही हुआ और फिर गर्भपाती हुआ तो व्यास जी ने उन्हे अपने शक्ति से जीवन प्रदान किया था. और वो गर्भपात ही 101 टुकड़े मे गंधारी ने ही किया था. इस प्रकार गंधारी से ही 100 पुत्र और 1 पुत्री अर्थात 101 बच्चे थे. यह भारत ऋषि, मुनि,स्वधू संतो और भगवानो का देश है. यहौ चटकर आज भी होते ही रहते हैं. पहले विस्वाश करना सीखे और जब मानेगे प्रेम करेगे तो वो प्रभु दूर आज भी नही.? पहले की कही एक एक बात 100% सत्य है......


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खरगोश की दिमाग की चालाकी

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किसी घने वन में एक बहुत बड़ा शेर रहता था। वह रोज शिकार पर निकलता और एक ही नहीं, दो नहीं कई-कई जानवरों का काम तमाम देता। जंगल के जानवर डरने लगे कि अगर शेर इसी तरह शिकार करता रहा तो एक दिन ऐसा आयेगा कि जंगल में कोई भी जानवर नहीं बचेगा।
सारे जंगल में सनसनी फैल गई। शेर को रोकने के लिये कोई न कोई उपाय करना ज़रूरी था। एक दिन जंगल के सारे जानवर इकट्ठा हुए और इस प्रश्न पर विचार करने लगे। अन्त में उन्होंने तय किया कि वे सब शेर के पास जाकर उनसे इस बारे में बात करें।
दूसरे दिन जानवरों के एकदल शेर के पास पहुंचा। उनके अपनी ओर आते देख शेर घबरा गया और उसने गरजकर पूछा, ‘‘क्या बात है ? तुम सब यहां क्यों आ रहे हो ?’’
जानवर दल के नेता ने कहा, ‘‘महाराज, हम आपके पास निवेदन करने आये हैं। आप राजा हैं और हम आपकी प्रजा। जब आप शिकार करने निकलते हैं तो बहुत जानवर मार डालते हैं। आप सबको खा भी नहीं पाते। इस तरह से हमारी संख्या कम होती जा रही है। अगर ऐसा ही होता रहा तो कुछ ही दिनों में जंगल में आपके सिवाय और कोई भी नहीं बचेगा। प्रजा के बिना राजा भी कैसे रह सकता है ? यदि हम सभी मर जायेंगे तो आप भी राजा नहीं रहेंगे। हम चाहते हैं कि आप सदा हमारे राजा बने रहें। आपसे हमारी विनती है कि आप अपने घर पर ही रहा करें। हर रोज स्वयं आपके खाने के लिए एक जानवर भेज दिया करेंगे। इस तरह से राजा और प्रजा दोनों ही चैन से रह सकेंगे।’’
शेर को लगा कि जानवरों की बात में सच्चाई है। उसने पलभर सोचा, फिर बोला अच्छी बात नहीं है। मैं तुम्हारे सुझाव को मान लेता हूं। लेकिन याद रखना, अगर किसी भी दिन तुमने मेरे खाने के लिये पूरा भोजन नहीं भेजा तो मैं जितने जानवर चाहूंगा, मार डालूंगा।’’
जानवरों के पास तो और कोई चारा नहीं। इसलिये उन्होंने शेर की शर्त मान ली और अपने-अपने घर चले गये।
उस दिन से हर रोज शेर के खाने के लिये एक जानवर भेजा जाने लगा। इसके लिये जंगल में रहने वाले सब जानवरों में से एक-एक जानवर, बारी-बारी से चुना जाता था। कुछ दिन बाद खरगोशों की बारी भी आ गई। शेर के भोजन के लिये एक नन्हें से खरगोश को चुना गया। वह खरगोश जितना छोटा था, उतना ही चतुर भी था। उसने सोचा, बेकार में शेर के हाथों मरना मूर्खता है अपनी जान बचाने का कोई न कोई उपाय अवश्य करना चाहिये, और हो सके तो कोई ऐसी तरकीब ढूंढ़नी चाहिये जिसे सभी को इस मुसीबत से सदा के लिए छुटकारा मिल जाये। आखिर उसने एक तरकीब सोच ही निकाली।
खरगोश धीरे-धीरे आराम से शेर के घर की ओर चल पड़ा। जब वह शेर के पास पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी।
भूख के मारे शेर का बुरा हाल हो रहा था। जब उसने सिर्फ एक छोटे से खरगोश को अपनी ओर आते देखा तो गुस्से से बौखला उठा और गरजकर बोला, ‘‘किसने तुम्हें भेजा है ? एक तो पिद्दी जैसे हो, दूसरे इतनी देर से आ रहे हो। जिन बेवकूफों ने तुम्हें भेजा है मैं उन सबको ठीक करूंगा। एक-एक का काम तमाम न किया तो मेरा नाम भी शेर नहीं।’’
नन्हे खरोगश ने आदर से ज़मीन तक झुककर, ‘‘महाराज, अगर आप कृपा करके मेरी बात सुन लें तो मुझे या और जानवरों को दोष नहीं देंगे। वे तो जानते थे कि एक छोटा सा खरगोश आपके भोजन के लिए पूरा नहीं पड़ेगा, ‘इसलिए उन्होंने छह खरगोश भेजे थे। लेकिन रास्ते में हमें एक और शेर मिल गया। उसने पांच खरगोशों को मारकर खा लिया।’’
यह सुनते ही शेर दहाड़कर बोला, ‘‘क्या कहा ? दूसरा शेर ? कौन है वह ? तुमने उसे कहां देखा ?’’
‘‘महाराज, वह तो बहुत ही बड़ा शेर है’’, खरगोश ने कहा, ‘‘वह ज़मीन के अन्दर बनी एक बड़ी गुफा में से निकला था। वह तो मुझे ही मारने जा रहा था। पर मैंने उससे कहा, ‘सरकार, आपको पता नहीं कि आपने क्या अन्धेर कर दिया है। हम सब अपने महाराज के भोजन के लिये जा रहे थे, लेकिन आपने उनका सारा खाना खा लिया है। हमारे महाराज ऐसी बातें सहन नहीं करेंगे। वे ज़रूर ही यहाँ आकर आपको मार डालेंगे।’
‘‘इस पर उसने पूछा, ‘कौन है तुम्हारा राजा ?’ मैंने जवाब दिया, ‘हमारा राजा जंगल का सबसे बड़ा शेर है।’
‘‘महाराज, ‘मेरे ऐसा कहते ही वह गुस्से से लाल-पीला होकर बोला बेवकूफ इस जंगल का राजा सिर्फ मैं हूं। यहां सब जानवर मेरी प्रजा हैं। मैं उनके साथ जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूं। जिस मूर्ख को तुम अपना राजा कहते हो उस चोर को मेरे सामने हाजिर करो। मैं उसे बताऊंगा कि असली राजा कौन है।’ महाराज इतना कहकर उस शेर ने आपको लिवाने के लिए मुझे यहां भेज दिया।’’
खरगोश की बात सुनकर शेर को बड़ा गुस्सा आया और वह बार-बार गरजने लगा। उसकी भयानक गरज से सारा जंगल दहलने लगा।
‘‘मुझे फौरन उस मूर्ख का पता बताओ’’, शेर ने दहाड़कर कहा, ‘‘जब तक मैं उसे जान से न मार दूँगा मुझे चैन नहीं मिलेगा।’’
‘‘बहुत अच्छा महाराज,’’ खरगोश ने कहा ‘‘मौत ही उस दुष्ट की सजा है। अगर मैं और बड़ा और मजबूत होता तो मैं खुद ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर देता।’’
‘‘चलो, ‘रास्ता दिखाओ,’’ शेर ने कहा, ‘‘फौरन बताओ किधर चलना है ?’’
‘‘इधर आइये महाराज, इधर, ‘‘खगगोश रास्ता दिखाते हुआ शेर को एक कुएँ के पास ले गया और बोला, ‘‘महाराज, वह दुष्ट शेर ज़मीन के नीचे किले में रहता है। जरा सावधान रहियेगा। किले में छुपा दुश्मन खतरनाक होता है।’’
‘‘मैं उससे निपट लूँगा,’’ शेर ने कहा, ‘‘तुम यह बताओ कि वह है कहाँ ?’’
‘‘पहले जब मैंने उसे देखा था तब तो वह यहीं बाहर खड़ा था। लगता है आपको आता देखकर वह किले में घुस गया। आइये मैं आपको दिखाता हूँ।’’
खरगोश ने कुएं के नजदीक आकर शेर से अन्दर झांकने के लिये कहा। शेर ने कुएं के अन्दर झांका तो उसे कुएं के पानी में अपनी परछाईं दिखाई दी।
परछाईं को देखकर शेर ज़ोर से दहाड़ा। कुएं के अन्दर से आती हुई अपने ही दहाड़ने की गूंज सुनकर उसने समझा कि दूसरा शेर भी दहाड़ रहा है। दुश्मन को तुरंत मार डालने के इरादे से वह फौरन कुएं में कूद पड़ा।
कूदते ही पहले तो वह कुएं की दीवार से टकराया फिर धड़ाम से पानी में गिरा और डूबकर मर गया। इस तरह चतुराई से शेर से छुट्टी पाकर नन्हा खरगोश घर लौटा। उसने जंगल के जानवरों को शेर के मारे जाने की कहानी सुनाई। दुश्मन के मारे जाने की खबर से सारे जंगल में खुशी फैल गई। जंगल के सभी जानवर खरगोश की जय-जयकार करने लगे।


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जन्म-मरण



जन्म-मरण मन की चंचलता और आसक्ति का फल है। दुःख-क्लेश का मूल है, मन की चंचलता और आसक्ति। गीता में अर्जुन कहता है श्रीकृष्ण सेः
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
ʹहे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए इसको वश में करना वायु की भाँति अति दुष्कर मानता हूँ।ʹ
तब श्री कृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
ʹहे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास से अर्थात् स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से मन वश में होता है।ʹ (गीताः 6.34.35)
ज्यों-ज्यों मन शांत होता जायेगा, त्यों-त्यों उसमें परमात्मा का सुख उभरता जायेगा। ज्यों-ज्यों मन अनासक्त होगा, त्यों-त्यों मन परमात्म-प्रेम में पावन होता जायेगा।
आलस्य को भगाने के लिए परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता के विचार सहायक हैं। ऐसे ही कामुकता को दूर करने के लिए ब्रह्मचर्य के विचार, मातृभावना, पवित्रता एवं संयम के विचार, विकारों के परिणाम के विचार करना मददरूप बनता है। क्रोध को भगाना हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति, सज्जनता, उदारता एवं आत्मभाव के विचार सहायक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, निराशा-हताशा, आलस्य आदि आत्मसुख को लूटने वाले विकार हैं।
विकारों की जगह पर निर्विकारता ले आओ। आपका जीवन सुखमय हो जायेगा, आनंदमय हो जायेगा, मधुमय हो जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अगर तुम्हें इसी जीवन में अपने जीवनदाता स्वभाव को पाना है, सारे दुःखों से सदा के लिए छूटना तो...
जितात्मनः प्रशांतस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।
जिसने अपने-आप पर विजय कर ली है, वह शीत-उष्ण अर्थात् अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहने वाला शरीर के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता वरन् शरीर पर उसका प्रभाव बढ़ जाता है। दुःख और सुख मन को होता है। दुःख-सुख में जो सम रहता है, वह मन के प्रभाव से दबता नहीं और वह मन का स्वामी होने में सफल हो जाता है। मान-अपमान की गाँठ बुद्धि को होती है, यह समझकर जो उससे परे हो जाता है, उसे मान-अपमान प्रभावित नहीं कर सकते। जैसे, भगवान का प्रभाव प्रकृति पर पड़ता है वैसे ही इस जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न हो जाये। अगर मन पर अपना प्रभाव पड़ा तो वासनाएँ शांत होने लगेंगी और अपने चित्त में परमात्मा से दूरी की जो भ्रांति है, वह दूर हो जायेगी। फिर अपने ही मन में परमात्मा का सुख, परमात्मा का वैभव, परमात्मा का आनंद और परमात्मा का माधुर्य उभरने लगेगा। जैसे, बादल के हटने पर सूर्य दिखता है अथवा तो शीतकाल में आकाश स्वच्छ होता है, वैसे ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक प्रभावों से ज्यों-ज्यों अपने को दूर करता जायेगा, त्यों-त्यों अपना साफ-सुथरा आत्मसुख, आत्मवैभव प्रगट होता जायेगा।
धनबल, जनबल, बाहुबल और बुद्धिबल इन सारे बलों को जहाँ से बल मिलता है वह है आत्मवैभव। अगर आत्मवैभव मिल गया तो बाकी के वैभव तुम्हारे दास होने लगेंगे, बाकी के वैभव फिर तुम्हें आसक्त नहीं कर पायेंगे।
जैसे, व्यक्ति दूसरों को सुधारने के लिए तत्पर होता है, शत्रु का दोष बड़ी तत्परता से खोज निकालता है, ऐसे ही अपनी कमजोरियाँ खोज निकाले तो वह महापुरुष बन जायेगा।
बुद्ध के सत्संग में सत्संगी आते थे, बुद्धिमान, संयमी भिक्षु भी आते थे और आम आदमी भी आते थे। बुद्ध ने सत्संग पूरा किया। आम आदमी तो चल दिये लेकिन एक किशोर और कुछ साधक भिक्षु बैठे रहे। उस किशोर ने बुद्ध से प्रश्न कियाः "भन्ते ! सबसे छोटा आदमी कौन है ?"
वह किशोर बड़ा धीर-गम्भीर, शांत, चंचलतारहित चित्तवाला लग रहा था। बुद्ध ने उसका प्रश्न सुना और वे गंभीर हो गये। बच्चे का प्रश्न बढ़िया था। बुद्ध तनिक देर के लिए अपने-आपमें आ गये, फिर बोलेः
"सबसे छोटा आदमी वह है जो केवल अपने लिये ही सोचता है, जो केवल अपने स्वार्थ में ही मशगूल रहता है। जो केवल अपने लिये ही जीता है, वह सबसे छोटा व्यक्ति है।"
ज्यों-ज्यों सोच का दायरा, विचार का दायरा व्यापक होता जायेगा, त्यों-त्यों व्यक्ति बड़ा होता जायेगा। दूसरों के दुःख हरने में और दूसरों के चित्त में सुख भरने में, दूसरों की अशांति हरने में एवं शांति भरने में जितना-जितना चित्त मशगूल होगा उतना-उतना चित्त चैतन्य के साथ तदाकार होता जायेगा और दूसरों का दुःख हरने का सामर्थ्य आता है दुःखहारी श्रीहरि में गोता मारने से। जरा-जरा बात में, जरा सी शारीरिक सुविधा-असुविधा से प्रभावित मत हो, मानसिक सुख-दुःख से प्रभावित मत हो और बुद्धिगत मान-अपमान से भी प्रभावित मत हो, क्योंकि असुविधाएँ तुम्हं, डराकर डरपोक बना देंगी और सुविधाएँ तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देंगी। सुख तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देगा और दुःख तुम्हारे अंतःकरण को अशुद्ध कर देगा।
भगवान कहते हैं- जितात्मनः प्रशांतस्य। आप प्रशांत रहो। अशांत नहीं, शांत नहीं वरन् प्रशांत रहो अर्थात् सुव्यस्थित शांत रहो। शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक चाहे कोई भी प्रतिकूलता आये या अनुकूलता, आप प्रशांतात्मा रहो, जितात्मा रहो। ज्यों-ज्यों आप जितात्मा होंगे, त्यों-त्यों आपका जीवन सशक्त होगा, निखरेगा और आप सफलता के उन शिखरों पर पहुँच जायेंगे, जहाँ पहुँचना साधारण आदमी के लिए असाध्य है, दुर्लभ है। श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी को किः शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः। शीत और उष्ण ये दो शब्द कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने तमाम शारीरिक सुविधा-असुविधाओं से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है। ʹसुख-दुःखʹ ये दो शब्द कहकर मानसिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है और मान-अपमान ये दो शब्द कहकर बौद्धिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है ताकि आपका अपना दिव्य स्वभाव प्रगट हो सके।
अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आयें तो तुम उनमें फँसो मत, नहीं तो वे तुम्हें ले डूबेंगी। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक तीनों ही प्रभावी से अगर थोड़े-से सावधान हो गये तो योगी का योग सफल होने लगेगा, तपी का तप सफलता की सुवास बिखरेगा, ध्यानी का ध्यान सफल होने लगेगा, भक्त की भक्ति सफल होने लगेगी और जपी का जप भी आत्मरस प्रगटने में सफल हो जायेगा।
जो दुनिया की ʹतू-तू... मैं-मैंʹ से प्रभावित नहीं होता, जो दुनियादारों की निंदा-स्तुति से प्रभावित नहीं होता और जो दुनिया के सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता, वह दुनिया को हिलाने में अवश्य सफल हो जाता है।
सुविधा-असुविधा, यह इन्द्रियों का धोखा है, सुख-दुःख, यह मन की वृत्तियों का धोखा है और मान-अपमान यह बुद्धिवृत्ति का धोखा है। इन तीनों से बच जाओ तो संसार आपके लिए नंदनवन हो जायेगा। अगर इन तीन प्रभावों से आप ऊपर उठ गये तो आपका चित्त कहीं जाकर नहीं, कुछ पाकर नहीं, कुछ छोड़कर नहीं, मरने के बाद नहीं वरन् आप जहाँ हो वहीं के वहीं और उसी समय चैतन्य का सुख पा लेगा।
सरदार वल्लभभाई पटेल, लौह पुरुष एक बार रेल के दूसरे दर्जे में यात्रा कर रहे थे। कम्पार्टमेन्ट में भीड़-भाड़ नहीं थी, वरन् वे अकेले थे। इतने में स्टेशन पर गाड़ी रूकी और एक अंग्रेज माई आयी। उसने देखा कि ʹइनके पास तो खूब सामान-वामान है।ʹ
"यह सामान देकर तुम चले जाओ, नहीं तो मैं शोर मचाऊँगी। राज्य हमारा है और तुम इण्डियनʹ आदमी हो। मैं तुम्हारी बुरी तरह पिटाई करवाऊँगी।ʹ
जो आदमी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता, वह परिस्थतियों को प्रभावित कर देता है. सरदार वल्लभभाई पटेल को युक्ति लड़ाने में देर नहीं लगी। उन्होंने माई की बात सुनी तो सही किन्तु ऐसा स्वांग किया कि मानो वे बहरे हों। वे इशारे से बोलेः "तुम क्या बोलती हो, वह मैं नहीं सुन पा रहा हूँ। तुम जो बोलना चाहती हो, वह लिखकर दे दो।"
उस अंग्रेज माई ने समझा कि ʹयह बहरा है, सुनता नहीं हैʹ अतः उसने लिखकर दे दिया। जब चिट्ठी सरदार के हाथ में आ गयी तो वे खूब जोर से हँसने लगे। अब माई बेचारी क्या करे ? उसने तो धमकी देनी चाही थी किन्तु अपने हस्ताक्षर वाली चिट्ठी देकर खुद ही फँस गयी।
ऐसे ही प्रकृति माई से हस्ताक्षर करवा लो तो फिर वह क्या शोर मचायेगी ? क्या पिटाई करवायेगी और क्या तुम्हें जन्म-मरण के चक्कर में डालेगी ? इस प्रकृति माई की यही तीन बाते हैं- शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान। इनसे अपने को अप्रभावित रखो तो विजय तुम्हारी है। किन्तु गलती यह करते हैं कि हम साधन भी करते हैं और असाधन भी साथ में रखते हैं। हम सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं। हम सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं। भले बने बिना भलाई खूब करते हैं और बुराई भी साथ में रखते हैं। भय भी साथ में रखते हैं और निर्भय होना भी चाहते हैं। आसक्ति साथ में रखकर अनासक्त होना चाहते हैं, इसीलिए परमात्मा का पथ लंबा हो जाता है।
अतः अपने स्वभाव में जागो। ʹस्वʹ भाव अर्थात् स्व का भाव। परभाव नहीं। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि परभाव हैं क्योंकि ये शरीर, मन और बुद्धि के हैं, हमारे नहीं। सर्दी आयी तब भी हम थे, गर्मी आयी तब भी हम हैं। सुख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम हैं। अपमान आया तब भी हम थे और मान आया तब भी हम हैं। हम पहले भी थे, अब भी हैं और बाद में भी रहेंगे। अतः सदा रहने वाले अपने इसी ʹस्वʹ भाव में जागो।
शरीर की अनुकूलता और प्रतिकूलता, मन के सुखाकार और दुःखाकार भाव, बुद्धि के रागाकार और द्वेषाकार भाव इनको आप सत्य मत मानिये। ये तो आऩे जाने वाले हैं, बनने-मिटने वाले हैं, बदलने वाले हैं लेकिन अपने स्वभाव को जान लीजिये तो काम बन जायेगा। जितना-जितना आदमी जाने-अनजाने ʹस्वʹ के भाव में होता है उतना-उतना वह परिस्थितियों के प्रभाव से अप्रभावित रहता है और जितना वह अप्रभावित रहता है उतना ही उसका प्रभाव परिस्थितियों पर पड़ता है।


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Wednesday 10 June 2015

‘दर्शन’

‘दर्शन’ ......'दर्शन' शब्द पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'दृशिर् प्रेक्षणे' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। इसीलिए पाणिनी ने धात्वर्थ में ‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन मीमांसा दर्शन आदि-आदि।
दर्शन ग्रन्थों को दर्शनशास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से निष्पन्न होने के कारण दर्शन का अनुशासन या उपदेश करने के कारण ही दर्शन-शास्त्र कहलाने का अधिकारी है। दर्शन अर्थात् साक्षात्कृत धर्मा ऋषियों के उपदेशक ग्रन्थों का नाम ही दर्शन शास्त्र है।

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Wednesday 3 June 2015

आत्महत्या - एक पलायनवादी सोच:

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आत्महत्या जानबूझ कर मौत को गले लगाने के कार्य को कहते हैं। आत्महत्या अक्सर निराशा के कारण की जाती है। युवावस्था में कॅरियर, रिश्ते, व्यक्तिगत समस्याएं जैसे लव अफेयर, असफल विवाह, पढ़ाई उसके उपरांत बेरोजगारी और भविष्य के प्रति अनिश्चितता जिससे डिप्रेशन, एंग्जाइटी, सायकोसिस, पर्सनालिटी डिसऑर्डर की स्थिति बन जाती है। इन सब परिस्थितियों से वह जैसे तैसे निकलता है तो परिवार की जरूरत से ज्यादा अपेक्षाओं के बोझ तले दब जाता है। फिर अर्थहीन प्रतिस्पर्धा और सामाजिक स्थिति को बनाये रखना, परिवार का टूटना, अकेलापन धीर धीरे आत्महत्या की तरफ प्रेरित करता है। जब कोई आत्महत्या के बारे में ज्यादा बात करने लगे या कई बार आत्महत्या करने की कोशिश करे और ऐसा व्यक्ति बहुत ज्यादा दुखी रहने लगे तथा अनिद्रा का शिकार हो जाए तो ये अवस्थाएं आत्महत्या के खतरों को दर्षाती हैं। कोई व्यक्ति आत्महत्या जैसी गंभीर मानसिक स्थिति तक पहुंच गया हो ऐसी मानसिकता को आम तौर पर आसानी से नहीं जाना जा सकता किंतु उस व्यक्ति की कुंडली का विष्लेषण कर उसकी मानसिकता और पलायन वादी सोच को समझा जा सकता है। जैसे कि किसी व्यक्ति की कुंडली में अगर उसका तृतीयेष छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो या ये ग्रह राहु जैसे ग्रहों से पापाक्रांत हो तो ऐसे ग्रहों की स्थिति बेहद निराषा पैदा कर सकती है साथ ही अगर मारकेष मारक हो जाए और ऐसे ग्रहों की दषाओं में व्यक्ति आत्महत्या हेतु प्रेरित हो सकता है। अतः इन दषाओं में अगर किसी व्यक्ति को डिप्रेषन दिखाई दे तो उनके ग्रह दषाओं की जानकारी प्राप्त कर ग्रह शांति कराना, अकेलापन दूर करने के प्रयास करना तथा मनःस्थिति को समझते हुए उस व्यक्ति की प्रतिकूल परिस्थिति का मूल्यांकन करते हुए उसे आवष्यक सहयोग प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए।


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मंगल के दोषों को दूर करें रक्तदान द्वारा -

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अनेक रोगों से पीडित व्यक्तियों के शरीर को बार-बार रक्त की आवश्यकता रहती है जिसके कारण उनको खून चढाना अनिवार्य हो जाता है। समय पर खून ना प्राप्त होने की स्थिति में उनका जीवन खतरे में रहता है। ऐसे लोगों को जिन्हें समय पर रक्त मिल जाए और उनका जीवन सुरक्षित हो तो उनके तथा उनके अपनो द्वारा जो दुआ दी जाती है वह दानकर्ता के जीवन में सुख का संचार कर सकती है। अतः कलयुग का सबसे पुण्यदायी कार्य रक्तदान करना माना जा सकता है क्योंकि इस समय घटनाएॅ दुर्घटनाएॅ तथा सर्जरी के निरंतर बढ़ते काल में रक्तदान सबसे प्रभावी और प्रासंगिक दान कहा जा सकता है। रक्तदान करना ना सिर्फ दान के लिए अपितु अपने ग्रहों की शांति के लिए भी आवश्यक है। अगर हम रक्तदान और ज्योतिषीय गणना को देखें तो किसी भी जातक की कुंडली में अगर मंगल या केतु लग्र, द्वितीय, तृतीय, एकादश अथवा द्वादश स्थान में हों या इन स्थानों के स्वामी होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर बैठ जाए तो ऐसे लोगों तो चोट-मोच तथा दुर्घटना की आशंका रहती है। अगर ऐसे लोग रक्तदान कर अपना रक्त पहले ही निकाल दें तो आकस्मिक चोट से रक्त बहने की स्थिति नहीं निर्मित होगी अर्थात रक्तदान द्वारा मंगल के दोषों की निवृत्ति होती है। साथ ही अगर किसी की कुंडली में शनि तथा केतु का योग किसी भी स्थान में हो अथवा मंगल और शनि की युति बने तो ऐसे लोगों को अचानक सर्जरी की आवश्यकता आ पड़ती है अतः ऐसे लोगों की कुंडली का विश्लेषण कराया जा कर इनकी दशाओं और अंतरदशाओं के पूर्व रक्तदान करने से सर्जरी से बचा जा सकता है। किसी गर्भवती महिला की कुंडली में यदि मंगल तृतीय, चतुर्थ, पंचम भाव या इन भाव का स्वामी होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो ऐसी स्थिति में अगर संतान के जन्म के समय ज्यादा रक्त बहने या रक्तबहाव ना रूकने की स्थिति बन जाती है ऐसी स्थिति में मंगल की शांति करने से भी रक्त बहना रूकता है अतः मंगल और रक्त का संबंध है। रक्त का सीधा संबंध पृथ्वी व जल तत्व से है तथा ग्रहों में इसका रिश्ता मंगल से है जो कि लाल रंग का प्रतिनिधि कहा जाता है। बार-बार दुर्घटनाओं में रक्त बहने जैसी समस्याएं सामने हों, उनके लिए मंगल के सभी दोषों का परिहार रक्तदान से हो जाता है। व्यक्ति के जीवन में जितना रुधिर शरीर से निकलना लिखा होगा, उतना निकलेगा ही। चाहे वह दुर्घटना से निकलकर बह जाए या और किसी कारण से। ऐसे में रक्तदान कर लिए जाने मात्र से इस होनी को टाला जा सकता है और जीवन में दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
जिन लोगों को मांगलिक दोष है और इस वजह से दाम्पत्य सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा है, घर में कलह है, शादी नहीं हो पा रही है, उनके लिए मंगल को प्रसन्न करने के लिए रक्तदान से बड़ा कोई पुण्य है ही नहीं। रक्तदान कर लिए जाने से भी मंगल दोष का परिहार हो सकता है। शेष सभी प्रकार के दान उपयोग के बाद नष्ट हो जाते हैं, सिर्फ रक्तदान ही एकमात्र ऐसा दान है जो किसी के जीवन को बचा सकता है अतः यह दान महादान कहा जाता है।

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मैं सभी का करता हूं पर मेरे समय में कोई साथ नहीं देता-ज्योतिषीय कारण-



कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्होंने हमेशा दुसरो का भला किया, परिवार वालों के लिए खून-पसीना एक किया पर जब उन्हें जरूरत पड़ी तो उनके अपनो ने उनका साथ नहीं दिया। कई बार ऐसा देखने में आता है कि सब कुछ करने के बाद कई बार माता-पिता स्वयं उस बेटे को ज्यादा तवजो देते हैं जो किसी का साथ नहीं देता और उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते जो परिवार के सभी सदस्यों का मान रखता हो। कई लोगों के साथ ऐसा होता तो अक्सर है पर क्यों होता है? आखिर लोग इतने कृतघ्न क्यों हो जाते हैं? आखिर इसके पीछे कैसी मानसिकता काम करती है? क्या वे समझते हैं, उनका हक सिर्फ लेना है, और दुसरे का कर्तव्य उन्हें  देने का है? आईये जाने इसका ज्योतिषीय कारण क्या है? तीसरा यानि परिवार का स्थान तथा भाग्य स्थान का स्वामी अगर छठवें, आठवे या बारहवें स्थान पर हो तो ऐसा जातक मोह तथा असुरक्षा के कारण परिवार को साथ रखने तथा सुखी एवं खुष रखने के फेर में उनके लिए अपना सर्वस्व दे देता है किंतु इसी ग्रह दोषों के कारण उसके हिस्से में कुछ नहीं आता। यदि छठवे, आठवें या बारहवे भाव का स्वामी तीसरे या भाग्य स्थान में आ जाए तो ऐसे व्यक्ति के अपने लोग ही उससे शत्रुता या कानूनी विवाद करते रहते हैं। अतः ऐसी स्थिति किसी के भी जीवन हो तो ऐसे जातक को अपनी कुंडली का विष्लेषण कराकर अपने ग्रह दषाओं को अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए साथ ही रिष्तों में मधुरता तथा महत्व दूसरों की तरफ से भी उतना ही प्राप्त करना जितना आप दूसरों को प्रदान कर रहे हैं, उसके लिए उपयुक्त ग्रहों की शांति, मंत्रजाप तथा दान करना चाहिए। जिसमें विषेषकर तीसरे स्थान अर्थात बुध तथा भाग्य स्थान यानि गुरू के मंत्रों का जाप, पीली वस्तुओं का दान तथा जगद्गुरू श्रीकृष्ण की पूजा करने से दुख के स्थान पर सुख की प्राप्ति होगी।


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कुंडली से जाने समय का सदुपयोग कैसे करें और जीवन में पायी इच्छित सफलता-

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समय की शक्ति अद्भुत है। खोया हुआ मान, स्वास्थ्य, भूली हुई विद्या, छिना हुआ धन फिर आ सकता है, परंतु बीता हुआ समय कदापि नहीं लौट सकता। धन से भी महत्वपूर्ण है, समय की संपदा। इसलिए समय को व्यर्थ न जाने दीजिए। जो वर्तमान काल का लाभ उठाता है, वह अपने भविष्य का निर्माण करता है। ईश्वर ने समय रूपी धन में कोई पक्षपात नहीं किया है, यह धन सबके लिए समान है। प्रकृति हमें समय पालन का उपदेश देती है। सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी की गति, ऋतुओं का परिवर्तन, ये सभी हमें समय पालन और नियमबद्धता सिखाते हैं। समय ही महानता के उच्चतम शिखर तक चढ़ने का सोपान है और सूर्य जैसे ग्रहों के अनुरूप नियम तथा नियमित रह कर समय का सदुपयोग करने से ही सफलता प्राप्त हो सकती है अतः किसी की कुंडली में एकादष स्थान से उसके समय के मूल्य को आंका जा सकता है। जिस भी व्यक्ति की कुंडली में एकादष स्थान का स्वामी उच्च, शुभ तथा अनुकूल स्थान पर हो अथवा शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो ऐसा जातक अपने कार्य में नियमित होता है तथा यदि उसका तीसरा स्थान भी शुभ हो तो ऐसे जातक की एकाग्रता भी अच्छी होती है यदि इसके साथ ही भाग्य स्थान भी अनुकूल हो तो ऐसे जातक को सफलता प्राप्ति में आसानी होती है अतः यदि आपका भाग्य अनुकूल हो साथ ही तीसरा स्थान एकाग्रता भी दे रहा हो तो एकादष स्थान को अनुकूल करने से आपको अवष्य ही सफलता प्राप्त हो सकती है। यदि आप अपने समय का सदुपयोग ना कर पा रहे हों तो एकादष स्थान के स्वामी ग्रह तथा उस स्थान पर उपस्थित ग्रह की स्थिति तथा उस स्थान से संबंधित ग्रह की दषा और अंतरदषा की जानकारी प्राप्त कर उससे संबंधित ग्रह शांति, मंत्रजाप तथा दान से आप अपने जीवन में समय का सदुपयोग कर अपने जीवन में सफलता प्राप्ति का रास्ता आसान कर सकते हैं। साथ ही कालपुरूष की कुंडली के अनुसार शनि की शांति, मंत्रजाप तथा काली वस्तुओं के दान करने चाहिए।


Monday 1 June 2015

कुंडली में सप्तम भाव का महत्व



ज्योतिषशास्त्र के अनुसार भाग्य बलवान होने से जीवन में मुश्किलें कम आती हैं, व्यक्ति को अपने कर्मों का फल जल्दी प्राप्त होता है. भाग्य का साथ मिले तो व्यक्ति को जीवन का हर सुख प्राप्त होता. यही कारण है कि लागों में सबसे ज्यादा इसी बात को लेकर उत्सुकता रहती है कि उसका भाग्य कैसा होगा. कुण्डली के भाग्य भाव में सातवें घर का स्वामी बैठा होने पर व्यक्ति का भाग्य कितना साथ देता है यहां इसकी चर्चा की जा रही है.

मेष लग्न में सप्तम भाव का स्वामी (The lord of the seventh house in aries ascendant)
मेष लग्न की कुण्डली में सातवें घर में तुला राशि होती है जिसका स्वामी शुक्र ग्रह होता है. शुक्र मेष लग्न में दूसरे घर का भी स्वामी होता है अत: दो मारक भावों का स्वामी होने के कारण पूर्ण मारकेश होता है. मेष लग्न में भग्य स्थान का स्वामी गुरू होता है जो शुक्र के शत्रु ग्रह की राशि होती है.

शत्रु ग्रह की राशि में बैठा शुक्र भाग्य को कमज़ोर बनाता है. परंतु, शुक्र यदि 3020' से 6040' तथा 200 से 23020 तक होंगे तब भाग्य का सहयोग आपको मिलता रहेगा. भाग्य भाव में शुक्र के साथ बुध भी हो तो यह भाग्य को बहुत ही कमज़ोर बना देता है.
मेष लग्न वालों की कुण्डली में सप्तमेश भाग्य भाव में बैठा हो तो व्यक्ति को जीवनसाथी के साथ मिलकर कार्य करना चाहिए. जीवनसाथी से सहयोग एवं सलाह लेकर कार्य करना भी फायदेमंद होता है.
वृष लग्न में सप्तम भाव का स्वामी (The lord of the seventh house in Taurus ascendant)
वृष लग्न की कुण्डली में सप्तमेश मंगल होता है. वृष लग्न में भाग्य स्थान में बैठा मंगल अपनी उच्च राशि में होता है फिर भी यह व्यक्ति के भाग्य में बाधक होता है. विशेषतौर पर विवाह के पश्चात भाग्य में अधिक अवरोध आता है. लेकिन, मंगल कुण्डली में यदि 100 से 13020' तक हो तो शुभ फल देता है. मंगल यदि नवम भाव में नीच गुरू के साथ हो तो यह भाग्य को अधिक कमज़ोर बनाता है.

कर्क लग्न में सप्तम भाव का स्वामी (The lord of the seventh house in Cancer ascendant)
कर्क लग्न की कुण्डली में शनि सप्तम भाव के स्वामी होते हैं. कर्क लग्न में शनि अष्टमेश भी होते हैं अत: नवम भाव में सम राशि में होने पर भी भाग्योदय में सहायक नहीं होते हैं. हालांकि कुण्डली में 13020' के बीच में होने पर शानि भाग्य को बलवान बना सकते हैं. अन्य स्थितियों में शनि से अधिक शुभ फल की उम्मीद करना फायदेमंद नहीं होगा.

सिंह लग्न में सप्तम भाव का स्वामी (The lord of the seventh house in Leo ascendant)
सिंह लग्न की कुण्डली में सातवें घर में कुम्भ राशि होती है इसलिए सिंह लग्न में शनि को सप्तमेश माना जाता है. भाग्य स्थान में शनि होने पर व्यक्ति के भाग्य में रूकावट आती रहती है विशेषतौर पर विवाह के पश्चात शनि भाग्योदय में सहायता नहीं करते हैं. इसका कारण यह है कि सिंह लग्न स्थिर लग्न है और स्थिर लग्न में नवम भाव बाधक होता है. बाधक भाव में नीच शनि होने की वजह से भाग्य कमज़ोर हो जाता है. जन्म कुण्डली में शनि यदि 23020' पर हो तो भाग्य को कुछ बल मिल सकता है.

कन्या लग्न में सप्तम भाव का स्वामी (The lord of the seventh house in Virgo ascendant)
गुरू कन्या लग्न में सप्तमेश होते हैं. कन्या लग्न की कुण्डली में गुरू भाग्य भाव में स्थित हो तो शुभ फल देते हैं यानी भाग्य को बल मिलता है. हालांकि नवम भाव में गुरू अपने शत्रु राशि में होते हैं तथा कन्या लग्न में गुरू को केन्द्रधिपति दोष लगता है. कन्या लग्न की कुण्डली में गुरू बुध के साथ भाग्य भाव में होने पर भाग्य बहुत बलवान हो जाता है. इसके विपरीत मंगल के साथ गुरू होने पर भाग्य में बाधा आती है.

तुला लग्न में सप्तम भाव का स्वामी (The lord of the seventh house in Libra ascendant)
तुला लग्न में सप्तमेश मंगल होता है. मंगल तुला लग्न में दूसरे घर का भी स्वामी होता है अत: दोनों मारक भावों का स्वामी होने के कारण भाग्योदय में मंगल बाधक होता है. तुला लग्न में नवम नवम भाव में मंगल शत्रु राशि में भी होता है अत: दोनों ही तरह से मंगल को भाग्य में अवरोध कहा जाता है. मंगल के साथ यदि अन्य कोई ग्रह हो तो शत्रुओं के कारण भाग्य में बाधा आती रहती है. ज्योतिषशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार तुला लग्न में भाग्य भाव में बैठा मंगल भाग्य में बाधक होते हुए भी कुछ स्थितियों में शुभ फल दे सकता है जैसे कुण्डली में मंगल 3020' से 6040' तक तथा 100 से 13020' तक हो.

वृश्चिक लग्न में सप्तम भाव के स्वामी (The lord of the seventh house in scorpio ascendant)
शुक्र वृश्चिक लग्न में सप्तमेश होते हैं. शुभ ग्रह होने के बावजूद भी भाग्य स्थान में बैठने पर शुक्र भाग्य को बलवान बनाने में अक्षम होते हैं क्योंकि, स्थिर लग्न में नवम भाव बाधाक भाव होता है. बाधक भाव में शुक्र होने के कारण शुक्र का शुभ प्रभाव कम हो जाता है. इस स्थिति में यदि शुक्र की बुध के साथ युति हो तो भाग्य में अधिक बाधाएं आएंगी. कुण्डली में यदि शुक्र 100 से 13020' तक हो तो शुक्र भाग्य को बल प्रदान कर सकता है.

धनु लग्न में सप्तम भाव के स्वामी (The lord of the seventh house in sagittarius ascendant)
धनु लग्न में बुध सातवें घर का स्वामी होता है. धनु लग्न में नवम भाव में सिंह राशि होती है जो बुध की मित्र राशि है. मित्र राशि में बुध केन्द्राधिपति दोष के बावजूद शुभ फल देगा. इससे विवाह के पश्चात व्यक्ति का भाग्य अधिक उन्नत होगा. बुध शुक्र युति होने पर भाग्य में अवरोध आ सकता है.

मकर लग्न में सप्तम भाव के स्वामी (The lord of the seventh house in Capricorn ascendant)
मकर लग्न में सप्तम भाव में कर्क राशि होती है. कर्क राशि का स्वामी चन्द्र होता है. मकर लग्न की कुण्डली में बुध नवम भाव में शत्रु राशि में होता है फिर भी यह शुभ फल देता है. इस लग्न में चन्द्र केन्द्राधिपति दोष से पीड़ित होने के बावजूद व्यक्ति के भाग्य को मजबूत बनाता है. मकर लग्न में सूर्य यदि भाग्य स्थान में होगा तो भाग्योदय में बाधा आ सकती है.

कुम्भ लग्न में सप्तम भाव के स्वामी (The lord of the seventh house in Aquarius ascendant)
कुम्भ लग्न की कुण्डली में सातवें घर में सिंह राशि होती है अत: कुम्भ में सूर्य को सप्तमेश कहा गया है. सप्तमेश सूर्य कुम्भ लग्न में नवम भाव में होने पर वह अपनी नीच राशि तुला में होता है. इसके अलावा स्थिर लग्न में नवम भाव बाधक स्थान होता है. इन दोनों कारणों से कुम्भ लग्न में सप्तमेश सू्र्य भाग्य भाव में बैठकर भाग्य को बलवान बनाने में अक्षम होता है. सूर्य के साथ चन्द्र यदि भाग्य भाव में बैठा हो तो यह अधिक बाधक होता है. कुण्डली में सूर्य यदि 200 से 23020' हो तो भाग्य का सहयोग मिलने की संभावना रहती है.

मीन लग्न में सप्तम भाव के स्वामी (The lord of the seventh house in Pisces ascendant)
मीन लग्न की कुण्डली में कन्या राशि सातवें घर में होती है. इस राशि का स्वामी बुध होता है. मीन लग्न में भाग्य स्थान में वृश्चिक राशि होती है. वृश्चिक में बुध नीच का होता है, इसलिए भाग्य भाव में बैठा बुध भाग्य को बलवान नहीं बना पाता है. दूसरी बात यह है कि मीन लग्न में बुध को केन्द्राधिपति दोष लगता है इसलिए भी बुध का भाग्य भाव में होना व्यक्ति के लिए कम शुभ फलदायी होता है. बुध यदि जन्म कुण्डली में 6040 से 100 तक हो तब बुध भाग्योदय में सहायक हो सकता है.

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ज्योतिष का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण


ग्रहों और राशियों को भी स्त्री और पुरूष वर्गों में बांटा गया है। मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ को पुरूष राशि और वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियों को स्त्री राशि कहा गया है। इसी प्रकार चंद्रमा और शुक्र जहां स्त्री स्वभाव ग्रह है वहीं सूर्य, मंगल और गुरू पुरूष ग्रह हैं। स्त्री जातकों में स्त्री राशि और स्त्री ग्रहों का प्रभाव अधिक होने पर स्त्रैण गुण अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में होंगे।
ऐसा देखा गया कि जिन मामलों में पुरूष जातकों की तुलना में स्त्री जातकों का विश्लेषण किया जाता है, उनमें स्त्री जातकों के लिए अलग नियम दिए गए हैं। शेष योगायोगों के मामले में स्त्री और पुरूष जातकों को कमोबेश एक ही प्रकार से फलादेश दिए जाते हैं। जिस स्त्री की कुण्डली में पुरूष राशियों और पुरूष ग्रहों की भूमिका अधिक होती है, उनका जीवन में कमोबेश पुरूषों की तरह होता है। भारी आवाज, बड़े डील-डौल, उत्साह के साथ आगे बढ़कर काम करने वाली महिलाओं को देखकर ही समझा जा सकता है कि उनकी कुंडली में पुरूष राशियों और सूर्य, मंगल और गुरू जैसे ग्रहों का प्रभाव अधिक है।
बृहस्पति देता है सांसारिक सुख
पुरूष कुंडली में जहां शुक्र सांसारिकता और दैहिक सुख के लिए देखा जाता है वहीं स्त्री जातक के लिए गुरू महत्वपूर्ण है। स्त्री जातक के लिए उसके पति का प्रगति करना सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। जिस स्त्री जातक की कुंडली में वृहस्पति शुभ स्थान और शुभ प्रभाव में होता है, उसे सामाजिक मान प्रतिष्ठा और सांसारिक सुख सहजता से मिलते हैं। वृहस्पति खराब होने पर स्त्री जातक को अपमान और उपेक्षा झेलनी पड़ सकती है। ?से में अधिकांश स्त्री जातकों को गुरू का रत्न पुखराज पहनने की सलाह दी जाती है। पुखराज रत्न सोने की अंगूठी में पहनने से गुरू का प्रभाव बढ़ जाता है। जिन जातकों के गुरू मारक या बाधकस्थानाधिपति होता है, उनके अलावा सभी स्त्री जातकों को बेधड़क पुखराज पहनाया जा सकता है।
मंगल भाता है महिलाओं को सामान्य तौर पर ऋतुस्त्राव के दौरान स्त्रियों के रक्त की हानि होती है। ज्योतिष में इसे मंगल के ह्रास के रूप में देखा जाता है। मंगल के इस नुकसान की भरपाई के लिए सुहागिनों को लाल बिंदी लगाने, लाल चूडियां पहनने, लाल साड़ी एवं लाल रंग का सिंदूर लगाने की सलाह दी जाती है। लाल रंग को धारण करने से मंगल का तेज महिलाओं को फिर से प्राप्त हो सकता है।
हालांकि लोकमान्यता में अधिकांशतया इसे सुहाग से जोड़ा जाता है, लेकिन ज्योतिषीय दृष्टिकोण से यह मंगल के नुकसान की भरपाई है। सामाजिक मान्यताओं में वैधव्य का दोष स्त्रियों को दिया जाता है। स्त्री के मांगलिक हो और उसका पति मांगलिक न हो तो ?सा माना जाता है कि स्त्री हावी रहेगी और दांपत्य जीवन में तनाव रहेगा। अगर मंगल और शनि आठवें स्थान पर हो तो उसे चूंदड़ी मंगल कहा जाता है। ?सी स्थिति में मंगल वैधव्य के योग बनाता है। विधुर की तुलना में विधवा को पुरूष प्रधान समाज में अधिक समस्याओं को सामना करना पड़ सकता है। इसे देखते हुए कुंडली मिलान के समय पुरूष की तुलना में स्त्री के मंगल पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
बुध और शनि की भूमिका
बुध और शनि ग्रहों को नपुंसक ग्रह बताया गया है। पुरूष कुण्डली में जहां शनि पीड़ादायी ग्रह है वहीं स्त्री जातक के लिए बुध पीड़ादायी ग्रह सिद्ध होता है। बुध के प्रभाव में एक ही रूटीन में लंबे समय तक बने रहना और एक जैसी क्रियाओं को लगातार दोहराते रहना पुरूष के लिए आसान है, पर स्त्री जातकों के लिए यह पीड़ादायी सिद्ध होता है। ?से में महिलाओं को अपनी दिनचर्या, कपड़े, रहने का तौर तरीका लगातार बदलते रहने की सलाह दी जाती है। इससे उनकी जिंदगी में दुख और तकलीफ का असर कम होता है। परिधान की बात की जाए तो महिलाओं को परिधानों का रंग भी लगातार बदलना चाहिए।
चंद्रमा देता है रचनात्मकता
जिस स्त्री जातक की कुंडली में चंद्रमा अच्छी स्थिति में होता है, वे हंसमुख और रचनात्मक होती हैं। हर काम में सक्रिय रहती हैं और उनमें नया काम करने की ललक होती है। राहू, केतू, बुध और शनि के कारण चंद्रमा पीडित हो तो स्त्री कर्कशा, रूदन करने वाली या कलहप्रिय होती है। ?सी स्त्रियों को रोजाना सुबह खाली पेट मिश्री के साथ मक्खन खाने की सलाह दी जाती है। चंद्रमा पीडित होने पर शरीर में खनिज तत्वों और कैल्शियम की कमी हो जाती है। मक्खन में उपलब्ध खनिज तत्व एवं कैल्शियम जातक के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को फिर से दुरूस्त करता है और जातक हंसने खिलखिलाने लगता है।
स्त्री और अंग लक्षण
शारीरिक चिह्नों के आधार पर स्त्री को पुरूष के लक्षण अलग-अलग बताए गए हैं। पुरूष की कुंडली में जहां शंख, पद्म एवं चक्र जैसे चिह्न शरीर के दाएं अंग में शुभ बताए गए हैं, वहीं स्त्री जातक की कुंडली में ये चिह्न बाएं अंग में शुभ माने गए हैं। स्त्री जातक के ललाट, आंख, गाल, कंधे, हाथ, वक्ष, उदर एवं पांव के बाएं भागों में तिल को शुभ माना गया है। अंगों की स्फुरण के मामले में भी स्त्री के बाएं अंगों में स्फुरण को शुभ बताया गया है। हस्तरेखा शास्त्र में ?सा माना जाता है कि पुरूष का बायां हाथ उसे अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मिला है, जबकि दायां हाथ इस जीवन के भाग्य और कर्म का लेखा जोखा रखता है, इसके उलट स्त्री जातक के बाएं हाथ को अधिक तरजीह दी जाती रही है। बदलते जमाने के अनुसार अब कुछ ज्योतिषी कामकाजी या खुद निर्णय लेने वाली स्त्रियों के दाएं हाथ का निरीक्षण भी करने लगे हैं।

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किस्मत खोलनी है तो बदल दें घर का मुख्य द्वार

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किस्मत खोलनी है तो बदल दें घर का मुख्य द्वार
घर के मुख्य द्वार में एक छोटा सा भी बदलाव आपकी दुनिया बदल सकता है। शास्त्र के अनुसार मुख्य द्वार का संबंध घर में रहने वाले लोगों की सामाजिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति से होता है। घर का मुख्य द्वार वास्तु दोषों से मुक्त हो तो घर में सुख-समृद्धि, रिद्धी.सिद्धि रहती है। सभी प्रकार के मंगल कायों में वृद्धि होती है और परिवार के लोगों में आपसी समंजस्य बना रहता है। इसलिए घर का मुख्य द्वार वास्तु दोष से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है। यदि इसमें कोई दोष हो, तो इसे तुरंत वास्तु उपायों के द्वारा ठीक कर लेना चाहिए।
- मुख्य द्वार के सामने कोई पेड़, दीवार, खंभा, कीचड़, हैंडपम्प या मंदिर की छाया नहीं होनी चाहिए।
- घर के मुख्य द्वार की चौड़ाई उसकी ऊंचाई से आधी होनी चाहिए।
- घर का मुख्य दरवाजा छोटा और पीछे का दरवाजा बड़ा होना आर्थिक परेशानी का ध्योतक है।
- घर का मुख्य द्वार घर के बीचों-बीच न होकर दाएं या बाएं ओर स्थित होना चाहिए। यह परिवार में कलह आर्थिक परेशानी और रोग का ध्योतक है। उदाहरण के लिए, पूर्व में स्थित द्वार पूर्व में मध्य में न होकर उत्तर पूर्व की ओर या दक्षिण पूर्व की ओर होना चाहिए।
- मुख्य द्वार खोलते ही सामने सीढ़ी नहीं होनी चाहिए।
- दरवाजा हमेशा अंदर की ओर खुलना चाहिए और दरवाजा खोलते और बंद करते समय किसी प्रकार की चरमराहट की आवाज नहीं होनी चाहिए।
- घर के तीन द्वार एक सीध में नहीं होने चाहिए। मुख्य द्वार घर के अन्य सभी दरवाजों से बड़ा होना चाहिए।
- घर के मुख्य द्वार के सामने कोई वृक्ष भी नहीं होना चाहिए। इससे द्वार वेध होता है।
- मुख्य द्वार में वस्तु दोष होने पर घर के द्वार पर घंटियों की झालर लगाएं, जिससे घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं होगा।
- मुख्य द्वार पर क्रिस्टल बॉल लटकाएं।
- मुख्य द्वार पर लाल रंग का फीता बांधें। द्वार के बाहरी ओर दीवार पर पाकुआ दर्पण स्थापित करें।
- यदि घर का द्वार खोलते ही सामने सीढ़ी हो, तो सीढ़ी पर पर्दा लगा दें।
- यदि घर में तुलसी के पौधा लगाएं और संध्या काल में नित्य उसके सामने घी के दीपक जलाएं तो दोषों का नाश होता है।
- घर के आसपास हरी दूब उगाई गई हो तो प्रतिदिन गणेश जी की प्रतिमा पर थोड़ी हरी दूब चढ़ाने से वास्तु दोष दूर होता है।

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