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Monday 18 May 2015

राशि अनुरूप करें लक्ष्मी मंत्र का जाप

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राशि के अनुरूप मंत्र जाप ------

व्यक्ति यदि अपनी राशि के अनुकूल मंत्र का जाप करे तो लाभकारी होता है। इन मंत्रों का कोई विशेष विधान नहीं है लेकिन सामान्य सहज भाव से स्नान के पश्चात अपने पूजा घर या घर में शुद्ध स्थान का चयन कर प्रतिदिन धूप-दीप के पश्चात ऊन या कुशासन पर बैठें एवं अपनी शक्ति अनुरूप एक, तीन या पाँच माला का जाप करें। विशेषकर उन लोगों के लिए जो माँ की आराधना में अधिक समय नहीं दे सकते और जो लोग कठिन मंत्रों का जाप नहीं कर सकते।

निश्चित ही इसका प्रभाव होगा, जिससे धन, यश और समृद्धि की वृद्धि होगी।

राशि - लक्ष्मी मंत्र

मेष - ॐ ऐं क्लीं सौं:

वृषभ - ॐ ऐं क्लीं श्रीं

मिथुन - ॐ क्लीं ऐं सौं:

कर्क - ॐ ऐं क्लीं श्रीं

सिंह - ॐ ह्रीं श्रीं सौं:

कन्या - ॐ श्रीं ऐं सौं:

तुला - ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं

वृश्चिक - ॐ ऐं क्लीं सौं:

धनु - ॐ ह्रीं क्लीं सौं:

मकर - ॐ ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं सौं:

कुंभ - ॐ ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं

मीन - ॐ ह्रीं क्लीं सौं:

माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा

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नौ रूपों को पूजने का पर्व नवरात्रि--जगदम्बा माता के रूप---

शरणागतदीनार्तपरित्राण परायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि! नारायणि नमोऽस्तु ते।
- शरण में आए हुए प्राणियों एवं दीन-दुःखी जीवों की रक्षा के लिए सर्वदा रत, सबके कष्ट को दूर करने वाली हे देवि! हे देवि! आपको नमस्कार है।

पौराणिक कहावतों के अनुसार जय-विजय नामक दो देवदूत भगवान के द्वारपाल थे। एक बार की बात है। दैत्यों की शक्ति वृद्धि के कारण देवता उन दैत्यों से परास्त होकर शक्ति लोक में जगदम्बा माता शक्ति का आवाहन कर रहे थे। जगदम्बा उनके आवाहन पर उनके पास जा रही थीं। किन्तु द्वारपालों ने उन्हें अन्दर जाने से मना कर दिया। सप्तर्षि आदि ऋषि-मुनि जो आवाहन कर्म में भाग लेने जा रहे थे। उन्होंने बताया कि इन्हें जाने दो। इन्हीं की पूजा अन्दर हो रही है। किन्तु द्वारपाल नहीं माने।

उन्होंने बताया कि हम अपने स्वामी के आज्ञापालक हैं। दूसरे किसी की आज्ञा पालन नहीं कर सकते। हमें आदेश है कि किसी को भी बिना अनुमति के अन्दर न आने दिया जाए। यदि इसी देवी की पूजा अन्दर हो रही है। तो हम भी इन्हें प्रणाम करते हैं। इन्हें अपना शीश झुकाते हैं। किन्तु अन्दर नहीं जाने देंगे।

यह सुनकर माता अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। उन्होंने नौ विग्रह साकार रूप धारण कर लिए और शाप दिया कि तुम अभी दैत्य हो जाओ। सभी देवी-देवता भयभीत हो गए। सबने मिलकर देवी की प्रार्थना की। देवी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम्हें मेरे नौ रूपों ने शाप दिया है। अतः तुम वर्तमान शरीर को मिलाकर नौ शरीर धारण करोगे। किन्तु तुम्हारा नौवाँ शरीर दैत्य का नहीं अपितु मूल रूप होगा।

अतः तुम्हें मात्र 7 शरीर ही दैत्य के धारण करने पड़ेंगे। इस शरीर से लेकर नौ शरीर तक तुम्हें मैं अपने प्रत्येक रूप का यंत्र प्रदान कर रही हूँ, जिससे तुम्हें समस्त सांसारिक सुख व यश प्राप्त होगा तथा मेरे अलावा तुम्हारा कोई वध भी नहीं कर सकेगा। यह सुनकर दोनों द्वारपाल बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने स्तुति करते हुए कहा कि- 'हे! माता आपका शाप तो हमारे लिए बहुत बड़ा वरदान हो गया। ऐसा शाप तो सम्भवतः किसी महान तपस्वी या देवी-देवता को भी प्राप्त नहीं हो सकता है।'

माता ने पूछा कि- तुम यह कैसे कह रहे हो?

उन्होंने बताया कि इस समय जो यंत्र आपके हाथ की हथेली पर दिखाई दे रहा है। वह यह बता रहा है कि आपसे बड़ा यह आपका यंत्र अब सदा ही हमारे साथ रहेगा तथा आप तो आवाहन-पूजन एवं बहुत बड़े यज्ञ-तपस्या से दर्शन देंगी। किन्तु यंत्र रूप में तो सदा आप हमारे साथ रहेंगी। किंतु हे! माता हमें एक वरदान और चाहिए।

माता ने वर माँगने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि- 'हे भगवती! हम तो पूजा-पाठ एवं यज्ञ-तप आदि वेद-विधि से कर नहीं पाएँगे। फिर यह यंत्र कैसे सिद्ध होगा?

माता ने वरदान दिया- जाओ! आज से मेरे यह सारे यंत्र स्वयं सिद्ध हुए। मात्र इसे जागृत करना होगा। जो तुम इन्हें मेरे आवाहन मात्र से पूर्ण कर सकते हो। और तब से देवी के नौ यंत्र स्वयं सिद्ध हो गए।

क्रम से यह नौ यंत्र निम्न प्रकार हैं। जिसे स्वयं भगवान शिव ने भी अनुमोदित किया है-

आदौसंवत्सरेऽमायां संक्रमणे चाशुभे रवौ। निशाकरौ तंत्र कार्यार्थमष्टम्यां सर्वोत्तमम्‌।
यंत्र मंत्र तंत्रार्थं देवि विनवाधा निवारणम्‌। अभिप्शितमवाप्त्यर्थं अमोघ नवरात्र वर्तते॥

अर्थात् संवत्सर के प्रारंभ, होली के दिन, अमावस्या अर्थात् दीपावली के दिन, सूर्य-चन्द्र संक्रमण अर्थात् ग्रहण में एवं नवरात्र में विशेषतः अष्टमी के दिन तुम्हारे नौ यंत्र सहज ही जागृत हो जाते हैं।
जिसे धारण करने वाले के लिए कुछ भी पाना दुर्लभ नहीं होता है।

'सुदीर्घश्चहयग्रीवो कर्कोकुम्भश्चचित्रकं। कात्यायनी संवर्तको जातो कालिका यामिनी तथा॥'

ये ही नौ माता दुर्गा के नौ यंत्र हैं। ये स्वयं सिद्ध यंत्र हैं। इन्हें सिद्ध नहीं करना नहीं पड़ता। इन्हें मात्र धारण ही करना पड़ता है। ये क्रमशः प्रथम रूप या दिन से नववें दिन के यंत्र हैं।

वास्तुदोष को दूर करें : नकारात्मक ऊर्जा दूर करें


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आपको मालूम होना चाहिए कि मकान के प्रवेश द्वार के सामने कोई रोड, गली या टी जक्शन हो, तो ये गंभीर वास्तुदोष उत्पन्न करते हैं, खासकर उन भवनों में जो दक्षिण व पश्चिम मुखी होते हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसे मकान में निवास करने वाले लोगों को प्रत्येक काम में असफलता ही हाथ लगती है।

वास्तुदोष से मुक्ति के लिए यह उपाय करें :-

- आप अपने मकान के बाहर उस नकारात्मक टी की तरफ मुँह किए 6 इंच का एक अष्टकोण आकार का मिरर लटका दें। ऐसा करने से दक्षिण एवं पश्चिम दिशाओं की टी का सम्पूर्ण वास्तुदोष ठीक हो जाता है।

- आपके मकान में कमरे की खिड़की, दरवाजा या बॉलकनी ऐसी दिशा में खुले, जिस ओर कोई खंडहरनुमा मकान स्थित हो। या वहाँ कोई उजाड़ जमीन या प्लाट पड़ा हो या फिर बरसों से बंद पड़ा मकान हो, श्मशान या कब्रिस्तान स्थित हो, तो यह अत्यंत अशुभ है। ऐसे मकान में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए किसी शीशे की प्लेट में कुछ छोटे-छोटे फिटकरी के टुकड़े आदि खिड़की या दरवाजे या बालकनी के पास रख दें तथा उन्हें हर महीने नियम से बदलते रहें, तो वास्तुदोष से मुक्ति मिलती है।

- यदि मकान के किसी कमरे में सोने पर तरह-तरह के भयावह सपने आते रहते हों, इसके कारण आपको रात में नींद नहीं आती
हो, बुरे सपने देखने के बाद छोटे बच्चे सो नहीं पाते और रतजगा करने लगते हैं अथवा रोते रहते हैं, इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए कमरे में एक जीरो वॉट का पीले रंग का नाइट लैम्प या बल्ब जलाए रखें। यह उस कमरे में बाहर से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा को मार भगाता है।

- कभी-कभी बच्चों को मकान के किसी कमरे में अकेले जाने से डर लगता है, उस कमरे में सोने के नाम से ही उनके रोंगटे खड़े
हो जाते हैं, ऐसे में बेड या पलंग के सिरहाने के पास वाले दोनों किनारों में ताँबे के तार से बने स्प्रिंगनुमा छल्ले डाल दें। ये छल्ले
नकारात्मकता को दूर करते हैं। छल्लों को कोने पर डालने से और तेजी से लाभ प्राप्त होगा।

- यदि किसी मकान की छत पर पूर्व, उत्तर या पूर्वोत्तर दिशाओं में कमरा, स्टोर या सर्वेन्ट रूम आदि बने हों तथा ये तीनों दिशाएँ दक्षिण-पश्चिम के नैऋत्य कोण से ऊँची बन गई हों, तो ऐसा मकान गृह स्वामी को कभी सुख नहीं देता। गृह स्वामी हमेशा परेशान व दुखी रहता है।

ऐसा गृह स्वामी अपने जीवन में नौकरियाँ बदलते रहता है अथवा व्यापार में भाग्य आजमाते रहता है। इस समस्या से मुक्ति व वास्तुदोष से छुटकारा पाने के लिए मकान के दक्षिण-पश्चिम कोने में छत पर एक पतला-सा लोहे का पाइप एवं उस पर पीली या लाल रंग की झंडी लटका दें। इससे दक्षिण-पश्चिम का कोना सबसे ऊँचा हो जाता है।


घर में विविध तस्वीरें लगाना, मूर्तियाँ रखना हमारा शौक होता है। मगर यह करते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए अन्यथा घर की सुख-शांति नष्ट होते देर नहीं लगती।

1. स्नेह-शांति व सुख का प्रतीक (प्रदर्शन) करने वाली मूर्तियाँ या तस्वीरें लगाएँ। क्रोध, वैराग्य, भयकारी, वीभत्स, दुख की भावना वाली वस्तुएँ न रखें।

2. युद्ध प्रसंग, रामायण या महाभारत के युद्ध के चित्र, राक्षसों की मूर्तियाँ, तलवार लिए योद्धा आदि घर में न रखें।

3. करुण रस से ओतप्रोत स्त्री, रोता बच्चा, अकाल, सूखे पेड़ आदि की तस्वीरें कतई न लगाएँ।

4. बंदर, सर्प, गिद्ध, कबूतर, बाघ, कौआ, गरुड़, उल्लू, भालू, सियार, सुअर आदि की तस्वीरें या मूर्ति कतई न रखें।

5. ऐतिहासिक-पौरा‍णिक घटनाओं को दिखाने वाली तस्वीरें न लगाएँ।

6. घोड़ा, ऊँट या हिरण घर में लगाया जा सकता है।

7. घर में स्थान-स्थान पर भगवान की मूर्तियाँ या चित्र न लगाएँ। इनसे लाभ की बजाय हानि होती हैं।

8. उन्हीं तस्वीरों या मूर्तियों को चुनें जो देखने पर मन को शांति और सुख प्रदान करें।

9. हंस की तस्वीर से घर में समृद्धि आती है।

जानिये आपके कुंडली में तीसरा स्थान क्या है और योग

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तृतीय स्थान संबंधी योग----
स्थिति अनुसार भाव की क्षमता का आकलन----

तृतीय स्थान से हम भाई-बहनों से संबंधों का विचार करते हैं। तृतीय भाव से कान, व्यक्ति की अभिरुचि, छोटे-मोटे प्रवास, मन की स्थिति, लेखन, साहित्य में रुचि, आर्थिक स्थिति, पराक्रम आदि का अंदाज लगाते हैं।

तृतीय स्थान का स्वामी तृतीयेश कहलाता है। इसकी विभिन्न भाव में स्थिति के अनुसार इस भाव की क्षमता का आकलन किया जाता है।

1. तृतीयेश लग्न में हो तो महत्वाकांक्षा व आत्मविश्वास प्रबल रहता है। भाई-बहनों का सुख श्रेष्ठ होता है।
2. तृतीयेश द्वितीय में हो तो संयुक्त परिवार रहता है, भाई-बहनों में स्नेह बना रहता है।
3. तृतीयेश यदि तृतीय भाव में ही हो तो इस भाव से संबंधित सारे सुख पुष्ट हो जाते हैं। लेखन से यश मिलता है।
4. तृतीयेश चतुर्थ में हो तो मनमाफिक घर-वाहन सुख मिलता है।
5. तृतीयेश पंचम में हो तो संतति कर्तव्यदक्ष होती है, भाई-बहनों से संबंध पुष्ट रहते हैं व कला में प्रगति होती है।
6. तृतीयेश षष्ठ में हो तो शरीर में अस्वस्थता बनी रहती है। परिवार सुख में कमी आती है।
7. तृतीयेश सप्तम में हो तो जमीन-जायदाद के मुकदमों में जीत, जीवनसाथी से सुख व पार्टनरशिप में परिवारजनों से लाभ होता है।
8. तृतीयेश अष्टम में हो तो परिवार से, भाई-बहनों से बैर होता है। वैवाहिक जीवन भी तनावपूर्ण रहता है।
9. तृतीयेश नवम में हो तो आध्यात्मिक प्रवास व प्रगति के योग आते हैं, लेखन के क्षेत्र में नाम चमकता है।
10. तृतीयेश दशम में हो तो दो-तीन मार्गों से आय होती रहती है। उच्च अधिकार के मार्ग प्रशस्त होते हैं।
11. तृतीयेश ग्यारहवें में हो तो स्व परिश्रम से धनार्जन होता है, मित्र परिवार से लाभ सहयोग मिलता है।
12. तृतीयेश व्यय में हो तो आर्थिक स्थिति साधारण रहती है, परिवार से वैमनस्य बना रहता है। वाद-विवाद से नुकसान होता है।

ज्योतिष द्वारा जानें पित्रदोष के उपाय


जन्म कुंडली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम व दशम भावों में से किसी एक भाव पर सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि का योग हो तो जातक को पितृ दोष होता है। यह योग कुंडली के जिस भाव में होता है उसके ही अशुभ फल घटित होते हैं। जैसे प्रथम भाव में सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि आदि अशुभ योग हो तो वह व्यक्ति अशांत, गुप्त चिंता, दाम्पत्य एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ होती हैं।

दूसरे भाव में यह योग बने तो परिवार में वैमनस्य व आर्थिक उलझनें हों, चतुर्थ भाव में पितृ योग के कारण भूमि, मकान, माता-पिता एवं गृह सुख में कमी या कष्ट होते हैं। पंचम भाव में उच्च विद्या में विघ्न व संतान सुख में कमी होने के संकेत हैं। सप्तम में यह योग वैवाहिक सुख में नवम में भाग्योन्नति में बाधाएँ तथा दशम भाव में पितृ दोष हो तो सर्विस या कार्य व्यवसाय संबंधी परेशानियाँ होती हैं। प्रत्येक भावानुसार फल का विचार होता है। सूर्य यदि नीच में होकर राहु या शनि के साथ पड़ा हो तो पितृदोष ज्यादा होता है।

किसी कुंडली में लग्नेश ग्रह यदि कोण (6,8 या 12) वें भाव में स्थित हो तथा राहु लग्न भाव में हो तब भी पितृदोष होता है। पितृयोग कारक ग्रह पर यदि त्रिक (6, 8,12) भावेश एवं भावों के स्वामी की दृष्टि अथवा युति का संबंध भी हो जाए, तो अचानक वाहनादि के कारण दुर्घटना का भय, प्रेत बाधा, ज्वर, नेत्र रोग, तरक्की में रुकावट या बनते कार्यों में विघ्न, अपयश, धन हानि आदि अनिष्ट फल होते हैं। ऐसी स्थिति में रविवार की संक्रांति को लाल वस्तुओं का दान कर तथा पितरों का तर्पण करने से पितृ आदि दोषों की शांति होती है।

चंद्र राहु, चंद्र केतु, चंद्र बुध, चंद्र, शनि आदि योग भी पितृ दोष की भाँति मातृ दोष कहलाते हैं। इनमें चंद्र-राहु एवं सूर्य-राहु योगों को ग्रहण योग तथा बुध-राहु को जड़त्व योग कहते हैं।

इन योगों के प्रभावस्वरूप भी भावेश की स्थिति अनुसार ही अशुभ फल प्रकट होते हैं। सामान्यतः चन्द्र-राहु आदि योगों के प्रभाव से माता अथवा पत्नी को कष्ट, मानसिक तनाव,आर्थिक परेशानियाँ, गुप्त रोग, भाई-बंधुओं से विरोध, अपने भी परायों जैसे व्यवहार रखें आदि फल घटित होते हैं।

दशम भाव का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो इसका राहु से दृष्टि या योग आदि का संबंध हो तो भी पितृदोष होता है। यदि आठवें या बारहवें भाव में गुरु-राहु का योग और पंचम भाव में सूर्य-शनि या मंगल आदि कू्र ग्रहों की स्थिति हो तो पितृ दोष के कारण संतान कष्ट या संतान सुख में कमी रहती है।

अष्टमेश पंचम भाव में तथा दशमेष अष्टम भाव में हो तो भी पितृदोष के कारण धन हानि अथवा संतान के कारण कष्ट होते हैं। यदि पंचमेश संतान कारक ग्रह राहु के साथ त्रिक भावों में हो तथा पंचम में शनि आदि कू्र ग्रह हो तो भी संतान सुख में कमी होती है।

इस प्रकार राहु अथवा शनि के साथ मिलकर अनेक अनिष्टकारी योग बनते हैं, जो पितृ दोष की भाँति ही अशुभ फल प्रदान करते हैं। बृहत्पाराशर होरा शास्त्र में कुंडली में इस प्रकार के शापित योग कहे गए हैं। इनमें पितृ दोष श्राप, भ्रातृ श्राप,मातृ श्राप, प्रेम श्राप आदि योग प्रमुख हैं। अशुभ पितृदोषों योगों के प्रभाव स्वरूप जातक के स्वास्थ्य की हानि, सुख में कमी, आर्थिक संकट, आय में बरकत न होना, संतान कष्ट अथवा वंशवृद्धि में बाधा, विवाह में विलम्ब्, गुप्त रोग, लाभ व उन्नति में बाधाएं तनाव आदि अशुभ फल प्रकट होते हैं।

यदि किसी जातक की जन्म कुंडली सूर्य-राहू, सूर्य-शनि आदि योगों के कारण पितृ दोष हो, तो उसके लिए नारायण बलि, नाग पूजा अपने दिवंगत पितरों का श्राद्ध, पितृ तर्पण, ब्रह्म भोज, दानादि कर्म करवाने चाहिए। पितृदोष निवारण के लिए अपने घर की दक्षिण दिशा की दीवार पर अपने दिवंगत पूर्वजों के फोटो लगाकर उन पर हार चढ़ाकर सम्मानित करना चाहिए तथा उनकी मृत्यु तिथि पर ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र एवं दक्षिणा सहित दान, पितृ तर्पण एवं श्राद्ध कर्म करने चाहिए।

जीवित माता-पिता एवं भाई-बहनों का भी आदर-सत्कार करना चाहिए। हर अमावस को अपने पितरों का ध्यान करते हुए पीपल पर कच्ची लस्सी, गंगाजल, थोड़े काले तिल, चीनी, चावल, जल, पुष्पादि चढ़ाते हुए ॐ पितृभ्यः नमः मंत्र तथा पितृ सूक्त का पाठ करना शुभ होगा।

हर संक्रांति, अमावस एवं रविवार को सूर्य देव को ताम्र बर्तन में लाल चंदन गंगाजल, शुद्ध जल डालकर बीज मंत्र पढ़ते हुए तीन बार अर्घ्य दें। श्राद्ध के अतिरिक्त इन दिनों गायों को चारा तथा कौए, कुत्तों को दाना एवं असहाय एवं भूखे लोगों को भोजन कराना चाहिए।

भक्तों को संकट से उबारती हैं माँ

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भक्तों को संकट से उबारती हैं माँ: सच्चे मन से पुकारिए

जब-जब भी भक्तों ने अपने हृदय से मातेश्वरी का स्मरण किया है, तो समय साक्षी है कि माँ जगदम्बा तत्काल किसी भी रूप में अपने भक्तों का संकट दूर कर उसे अपार स्नेह और वात्सल्य प्रदान करती हैं लेकिन कोई छल-कपट या दंभ से माँ को चुनौती देता है तो उस पर अपार कोप ढाती हैं।

माँ तो बस प्रेम की भूखी हैं। अतः पाखण्ड न करके केवल प्रेम से, सच्चे हृदय से माँ का सुमिरन करो। माँ तुम्हारे सब दुख दूर कर तुम्हें मोक्ष प्रदान करेंगी। नवरात्र उपासना के दौरान जहाँ विधि-विधान से अनुष्ठान हो रहे थे। वहीं ज्ञानी पंडितों द्वारा लोगों को आदि शक्ति की उपासना का महत्व भी बताया गया।

कहा जाता है कि माता जानकी जी ने गौरी माँ की उपासना से ही श्रीराम को प्राप्त किया तथा माँ सीता की भक्ति से हनुमान जी आठों सिद्धियों और नौ निधियों को देने वाले बन गए। अतः नवरात्रि उपासना यदि श्री हनुमान की अध्यक्षता में की जाती है तो माता भगवती तुरंत फलदायी हो जाती हैं।

भगवती दुर्गा के आगे-आगे विजय ध्वज लेकर चलने वाले हनुमान जी ही होते हैं। अतः श्री हनुमान सदैव माँ की सेवा में तत्पर रहते हैं।
नवरात्रि में पाँचवाँ दिन स्कंदमाता का होता है। यह भगवान स्कंद कुमार कार्तिकेय के नाम से भी जाने जाते हैं। भगवान स्कंद अर्थात् कार्तिकेय की माता होने के कारण माँ दुर्गा के इस पाँचवें स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है। इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में स्थित रहता है, इनकी वाणी शुभ है। कमल के आसन पर ये विराजमान हैं, इसलिए इन्हें पदासना देवी भी कहते हैं। इनका वाहक सिंह है।

दुर्गा शक्तियों में से छठवें दिन कात्यायन देवी का पूजन किया जाता है। माँ कात्यायनी अमोद फलदायिनी हैं। दुर्गा पूजा के छठवें दिन इस स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है।

आदि शक्ति दुर्गा का सप्तम स्वरूप कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इनके तीन नेत्र, साँसों से अग्नि निकलती है, हाथों में ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा से भगवती कालिका अपने भक्तों को निर्भयता का वरदान देती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र, मध्य ललाट में स्थिर कर साधना करनी चाहिए।

माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति महागौरी है। नवरात्र के आठवें दिन इनकी पूजा का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष घुल जाते है। उसके पूर्व संचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं आते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।

माँ दुर्गाजी की नवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मावैवर्त्त पुराण में श्रीकृष्ण जन्मखंड में ये सिद्धियाँ अठारह बताई गई हैं। माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं।