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Wednesday 3 June 2015

कैसे रोके बच्चों के भटकाव को-


आज के आधुनिक युग में जहाॅ सभी प्रकार की सुख-सुविधाएॅ जुटाने का प्रयास हर जातक करता है, वहीं पर उन सुविधाओं के उपयोग से आज की युवा पीढ़ी भटकाव की दिषा में अग्रसर होती जा रही है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं की सुविधाएॅ अपने बच्चों को उपयेाग हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएॅ बच्चों को गलत दिषा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्षन करते रहे हैं वे भी ठीक अपनी दिषा, अपने अध्ययन तथा लक्ष्य से भटकर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। कई बार माता-पिता इन सभी बातों से पूर्णतः अंज्ञान रहते हैं और कई बार जानते हुए भी कोई हल निकालने में असमर्थ होते हैं। स्कूल षिक्षा तक बहुत अच्छा प्रदर्षन करने वाला अचानक अपने एजुकेषन में गिरावट ले आता है तथा इससे कैरियर में तो प्रभाव पड़ता ही है साथ ही मनोबल भी प्रभावित होता हैं अतः यदि आपके भी उच्च षिक्षा या कैरियर बनाने की उम्र में पढ़ाई प्रभावित हो रही हो या षिक्षा में गिरावट दिखाई दे रही हो तो सर्वप्रथम व्यवहार तथा अपने दैनिक रूटिन पर नजर डालें। इसमें क्या अंतर आया है, उसका निरीक्षण करने के साथ ही अपनी कुंडली किसी विद्धान ज्योतिष से दिखा कर यह पता करें कि क्या कुंडली में राहु या शुक्र प्रभावकारी है। यदि कुंडली में राहु या शुक्र दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्यस्थान में हो साथ ही इनकी दषा, अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा चल रही हो तो गणित या फिजिक्स जैसे विषय की पढ़ाई प्रभावित होती है साथ ही ऐसे लोगों के जीवन में कल्पनाषक्ति प्रधान हो जाती है। पहली उम्र का असर उस के साथ ही राहु शुक्र का प्रभावकारी होना एजुकेषन या कैरियर में बाधक हो सकता है। यदि इस प्रकार की बाधा दिखाइ्र दे तो शांति के लिए भृगुरा पूजन साथ कुंडली के अनुरूप आवष्यक उपाय आजमाने से कैरियर की बाधाएॅ समाप्त होकर अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है।




मंगल के दोषों को दूर करें रक्तदान द्वारा -

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अनेक रोगों से पीडित व्यक्तियों के शरीर को बार-बार रक्त की आवश्यकता रहती है जिसके कारण उनको खून चढाना अनिवार्य हो जाता है। समय पर खून ना प्राप्त होने की स्थिति में उनका जीवन खतरे में रहता है। ऐसे लोगों को जिन्हें समय पर रक्त मिल जाए और उनका जीवन सुरक्षित हो तो उनके तथा उनके अपनो द्वारा जो दुआ दी जाती है वह दानकर्ता के जीवन में सुख का संचार कर सकती है। अतः कलयुग का सबसे पुण्यदायी कार्य रक्तदान करना माना जा सकता है क्योंकि इस समय घटनाएॅ दुर्घटनाएॅ तथा सर्जरी के निरंतर बढ़ते काल में रक्तदान सबसे प्रभावी और प्रासंगिक दान कहा जा सकता है। रक्तदान करना ना सिर्फ दान के लिए अपितु अपने ग्रहों की शांति के लिए भी आवश्यक है। अगर हम रक्तदान और ज्योतिषीय गणना को देखें तो किसी भी जातक की कुंडली में अगर मंगल या केतु लग्र, द्वितीय, तृतीय, एकादश अथवा द्वादश स्थान में हों या इन स्थानों के स्वामी होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर बैठ जाए तो ऐसे लोगों तो चोट-मोच तथा दुर्घटना की आशंका रहती है। अगर ऐसे लोग रक्तदान कर अपना रक्त पहले ही निकाल दें तो आकस्मिक चोट से रक्त बहने की स्थिति नहीं निर्मित होगी अर्थात रक्तदान द्वारा मंगल के दोषों की निवृत्ति होती है। साथ ही अगर किसी की कुंडली में शनि तथा केतु का योग किसी भी स्थान में हो अथवा मंगल और शनि की युति बने तो ऐसे लोगों को अचानक सर्जरी की आवश्यकता आ पड़ती है अतः ऐसे लोगों की कुंडली का विश्लेषण कराया जा कर इनकी दशाओं और अंतरदशाओं के पूर्व रक्तदान करने से सर्जरी से बचा जा सकता है। किसी गर्भवती महिला की कुंडली में यदि मंगल तृतीय, चतुर्थ, पंचम भाव या इन भाव का स्वामी होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो ऐसी स्थिति में अगर संतान के जन्म के समय ज्यादा रक्त बहने या रक्तबहाव ना रूकने की स्थिति बन जाती है ऐसी स्थिति में मंगल की शांति करने से भी रक्त बहना रूकता है अतः मंगल और रक्त का संबंध है। रक्त का सीधा संबंध पृथ्वी व जल तत्व से है तथा ग्रहों में इसका रिश्ता मंगल से है जो कि लाल रंग का प्रतिनिधि कहा जाता है। बार-बार दुर्घटनाओं में रक्त बहने जैसी समस्याएं सामने हों, उनके लिए मंगल के सभी दोषों का परिहार रक्तदान से हो जाता है। व्यक्ति के जीवन में जितना रुधिर शरीर से निकलना लिखा होगा, उतना निकलेगा ही। चाहे वह दुर्घटना से निकलकर बह जाए या और किसी कारण से। ऐसे में रक्तदान कर लिए जाने मात्र से इस होनी को टाला जा सकता है और जीवन में दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
जिन लोगों को मांगलिक दोष है और इस वजह से दाम्पत्य सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा है, घर में कलह है, शादी नहीं हो पा रही है, उनके लिए मंगल को प्रसन्न करने के लिए रक्तदान से बड़ा कोई पुण्य है ही नहीं। रक्तदान कर लिए जाने से भी मंगल दोष का परिहार हो सकता है। शेष सभी प्रकार के दान उपयोग के बाद नष्ट हो जाते हैं, सिर्फ रक्तदान ही एकमात्र ऐसा दान है जो किसी के जीवन को बचा सकता है अतः यह दान महादान कहा जाता है।

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मांगलिक दोष एवं उसका आध्यात्मिक निदान-

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विवाह के अवसर पर वर एवं वधू की कुण्डली मिलान करते समय अष्टकूट के साथ-साथ मांगलिक दोष पर भी विचार किया जाता है। इसे शास्त्रों में कुज दोष या भौम दोष का नाम भी दिया गया है। इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है, ताकि इसका भय दूर हो सके। भारतीय ज्योतिष के अनुसार यदि मंगल प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो तो मंगल दोष माना जाता है। विद्वानों ने राशि से भी उक्त स्थानों पर मंगल के होने पर यह दोष बताया है। किसी भी पत्रिका में यह योग हो तो उस कुण्डली को मंगली कहा जाता है। वर-वधू में से किसी एक की कुण्डली के इन भावों में मंगल हो तथा दूसरे की पत्रिका में नहीं तो ऐसी परिस्थिति को वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है तथा ज्योतिषी उन दोनों का विवाह न करने की सलाह दे देते हैं। यदि वर-वधू दोनों की कुण्डली में उक्त दोष हो तो दोष समाप्त समझा जाता है। यह दोष तब और प्रबल हो जाता है जब जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ अन्य क्रूर ग्रह (शनि, राहू, केतु) बैठे हों। बृहत् पाराशर के अनुसार विकलरू पाप संयुतरू अर्थात पापी ग्रह से युक्त ग्रह विकल अवस्था का होगा तथा दोष कारक होगा। अतः शनि या राहु की युति से मांगलिक दोष में अभिवृद्धि हो जाती है।
मांगलिक दोष की निवृत्ति हेतु मंगल तथा अन्य ग्रहों की शांति एवं सफल वैवाहिक जीवन हेतु लडको का अर्क विवाह एवं कन्याओं हेतु कुंभ विवाह कराना चाहिए। साथ ही पावर्ती-मंगल स्त्रोत का पाठ करना चाहिए। वैवाहिक जीवन के कष्ट को दूर करने के लिए मंगल का व्रत करने से मंगल दोष की निवृत्ति होती है।


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Saturday 30 May 2015

कैन्सर ज्योतिष्य कारण और निदान

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ज्योतीषीय कारण की खोज में लोग कैन्सर महारोग का निदान और निवारण प्राप्त कर लाभान्वित होते हैं। प्राचीन और सर्वमान्य भारतीय दर्शन जीवन के हर पहलू पर व्यवस्था देते हुए जिंदगी में निरोगी काया को मनुष्य का प्रथम सुख बताते हुए कहती है ''पहला सुख निरोगी काया" और माना गया है यथा नाम यथा गुण अतएव कैंसर भी निरोग से दूर भागता। आइये ज्योतिष कारण निवारण पद्धति से कैंसर निदान के उपाय खोजे।
आगे पढ़ते हुए कैन्सर कारण और निदान अपने ज्योतीषीय अनुभव और विश्वास पर आधारित टिप्पणी जरूर करें।
यह बिल्कुल सत्य है कि निरोगी शरीर ही प्रथम सुख है और बाकी सभी सुख निरोगी शरीर पर ही निर्भर करते हैं। आजकल के दौड़ धूप के युग मेंं पूर्णत: निरोगी रहना अधिकांश व्यक्तियों के लिये एक स्वप्न के समान ही है. निरोगी शरीर का अर्थ है का शरीर रोग से रहित होना। रोग दो प्रकार के होते है एक- साध्य रोग जो कि उचित उपचार, आहार, व्यवहार से ठीक हो जाते हैं दूसरे असाध्य रोग जो कि उपचार के बाद भी व्यक्तिओं का पीछा नहीं छोड़ते है।
इस आलेख में कैंसर रोग के ज्योतिषीय पहलू का विवेचन करते है, आयुर्वेद के अनुसार त्वचा की छठी परत जिसे आयुर्वेद में रोहिणी कहते है जिसका संस्कृत मेंं अर्थ है ''कोशिकाओं की रचना। जब ये कोशिकायें क्षतिग्रस्त होती हैं तो शरीर के उस हिस्से में एक ग्रन्थि बन जाती है इस ग्रन्थि को असामान्य शोथ भी कहते है। तब यह ग्रन्थि कैंसर का रूप ले लेती हैं।
ज्योतिष पूर्वजन्म के किये हुए कर्मों का आधार है अर्थात हम ज्योतिष द्वारा ज्ञात कर सकते हैं कि हमारे पूर्वजन्म के किये हुए कर्मों का परिणाम हमें इस जन्म में किस प्रकार प्राप्त होगा। ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार कोई भी रोग पूर्व जन्मकृत कर्मों का ही फल होता है। ग्रह उन फलों के संकेतक हैं, ज्योतिष विज्ञान कैंसर सहित सभी रोगों की पहचान मेंं सहायक होता है। पहचान के साथ-साथ यह भी मालूम किया जा सकता है कि कैंसर रोग किस अवस्था मेंं होगा तथा उसके कारण मृत्यु आयेगी या नहीं, यह सभी ज्योतिष विधि द्वारा जाना जा सकता है। कैंसर रोग की पहचान निम्न ज्योतिषीय योग होने पर बड़ी आसानी से की जा सकती है:-
1.. राहु को विष माना गया है यदि राहु का किसी भाव या भावेश से संबंध हो एवं इसका लग्न या रोग भाव से भी सम्बन्ध हो तो शरीर में विष की मात्रा बढ़ जाती है।
2. षष्टेश लग्न, अष्टम या दशम भाव मेंं स्थित होकर राहु से दृष्ट हो तो कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
3. बारहवें भाव मेंं शनि-मंगल या शनि-राहु, शनि-केतु की युति हो तो जातक को कैंसर रोग देती है।
4. राहु की त्रिक भाव या त्रिकेश पर दृष्टि हो भी कैंसर रोग की संभावना बढ़ाती है।
5. षष्टम भाव तथा षष्ठेश पीडि़त या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थित हो।
6. बुध ग्रह त्वचा का कारक है अत: बुध अगर क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो तथा राहु से दृष्ट हो तो जातक को कैंसर रोग होता है।
7. बुध ग्रह की पीडि़त या हीनबली या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थिति भी कैंसर को जन्म देती है।
बृहत पाराशरहोरा शास्त् के अनुसार षष्ठ पर क्रूर ग्रह का प्रभाव स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होता है यथा ''रोग स्थाने गते पापे, तदीशी पाप रोग कारक: अत: जातक रोगी होगा और यदि षष्ठ भाव मेंं राहु व शनि हो तो असाध्य रोग से पीडि़त हो सकता है।
विश्व भर मेंं हर आठ मेंं से एक व्यक्ति की मृत्यु कैंसर के कारण होती है। कैंसर से मरने वालों की संख्या एड्स, टीबी और मलेरिया से मरने वाले कुल मरीजों से अधिक है। दुनिया भर मेंं हृदय रोगों के बाद कैंसर ही मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। तंबाकू चबाना, सिगरेट, सैच्युरेटेड फैट से भरपूर आहार लेना, शराबखोरी, शारीरिक श्रम का अभाव जैसी अस्वास्थकर आदतें लोगों को कैंसर की ओर धकेल रही हैं। कैंसर के सौ से भी अधिक प्रकार हैं। हरेक प्रकार दूसरे से अलग होता है, सभी के कारण, लक्षण और उपचार भी अलग-अलग होते हैं।
कैन्सर अब एक सामान्य रोग हो गया है। हर दस व्यक्तियों मेंं से एक को कैंसर होने की संभावना है। कैन्सर किसी भी उम्र मेंं हो सकता है। परन्तु यदि रोग का निदान व उपचार प्रारम्भिक अवस्थाओं मेंं किया जावें तो इस रोग का पूर्ण उपचार संभव है।
कैन्सर का सर्वोतम उपचार बचाव है। यदि मनुष्य अपनी जीवन-शैली मेंं कुछ परिवर्तन करने को तैयार हो तो 60 प्रतशित मामलो मेंं कैन्सर होने से पूर्णत: रोका जा सकता है।
कैंसर के कुछ प्रारम्भिक लक्षण:-
शरीर मेंं किसी भी अंग मेंं घाव या नासूर, जो न भरे। लम्बे समय से शरीर के किसी भी अंग मेंं दर्दरहित गांठ या सूजन। स्तनों मेंं गांठ होना या रिसाव होना मल, मूत्र, उल्टी और थूंक मेंं खून आना। आवाज मेंं बदलाव, निगलने मेंं दिक्कत, मल-मूत्र की सामान्य आदत मेंं परिवर्तन, लम्बे समय तक लगातार खांसी। पहले से बनी गांठ, मस्सों व तिल का अचानक तेजी से बढना और रंग मेंं परिवर्तन या पुरानी गांठ के आस-पास नयी गांठो का उभरना। बिना कारण वजन घटना, कमजोरी आना या खून की कमी। औरतों मेंं स्तन मेंं गांठ, योनी से अस्वाभाविक खून बहना, दो माहवारियों के बीच व यौन सम्बन्धों के तुरन्त बाद तथा 40-45 वर्ष की उम्र मेंं महावारी बन्द हो जाने के बाद खून बहना आदि कैंसर के प्रारंभिक लक्षण हैं।
कैन्सर होने के संभावित कारण:-
धूम्रपान-सिगरेट या बीड़ी के सेवन से मुंह, गले, फेंफडे, पेट और मूत्राशय का कैंसर होता है। तम्बाकू, पान, सुपारी, पान मसालों, एवं गुटकों के सेवन से मुंह, जीभ खाने की नली, पेट, गले, गुर्दे और अग्नाशय (पेनक्रियाज) का कैन्सर होता है। शराब के सेवन से श्वांस नली, भोजन नली, और तालु मेंं कैंसर होता है। धीमी आंच व धूंए में पका भोजन (स्मोक्ड) और अधिक नमक लगा कर संरक्षित भोजन, तले हुए भोजन और कम प्राकृतिक रेशों वाला भोजन(रिफाइन्ड) सेवन करने से बडी आंतो का कैन्सर होता है।
कुछ रसायन और दवाईयों से पेट, यकृत(लीवर) मूत्राशय के कैंसर होता है। लगातार और बार-बार घाव पैदा करने वाली परिस्थितियों से त्वचा, जीभ, होंठ, गुर्दे, पित्ताशय, मूत्राशय का कैन्सर होता है। कम उम्र मेंं यौन सम्बन्ध और अनेक पुरूषों से यौन सम्बन्ध द्वारा बच्चेदानी के मुंह का कैंसर होता है।
कुछ आम तौर पर पाये जाने वाले कैन्सर:-
पुरूष:- मूंह, गला, फेंफडे, भोजन नली, पेट और पुरूष ग्रन्थी (प्रोस्टेट)।
महिला:- बच्चेदानी का मुंह, स्तन, मुंह, गला, ओवरी।
कैंसर से बचाव के उपाय:-
धूम्रपान, तम्बाकु, सुपारी, चना, पान, मसाला, गुटका, शराब आदि का सेवन न करें। विटामिन युक्त और रेशे वाला (हरी सब्जी, फल, अनाज, दालें) पौष्टिक भोजन खायें। कीटनाशक एवं खाद्य संरक्षण रसायणों से युक्त भोजन धोकर खायें। अधिक तलें, भुने, बार-बार गर्म किये तेल मेंं बने और अधिक नमक मेंं सरंक्षित भोजन न खायें।
अपना वजन सामान्य रखें। नियमित व्यायाम करें नियमित जीवन बितायें। साफ-सुथरे, प्रदूषण रहित वातावरण की रचना करने मेंं योगदान दें।
प्रारम्भिक अवस्था मेंं कैंसर के निदान के लिए निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान दें:-
मूंह मेंं सफेद दाग या बार-बार होने वाला घाव। शरीर मेंं किसी भी अंग या हिस्से मेंं गांठ होने पर तुरन्त जांच करवायें। महिलायें माहवारी के बाद हर महीने स्तनों की जांच स्वयं करें। दो माहवारी के बीच या माहवारी बन्द होने के बाद रक्त स्त्राव होना खतरे की निशानी है पैप टैस्ट करवायें।
शरीर मेंं या स्वास्थ्य मेंं किसी भी असामान्य परिवर्तन को अधिक समय तक न पनपने दें। नियमित रूप से जांच कराते रहें और अपने चिकित्सक से तुरन्त सम्पर्क करें।
याद रहे- प्रारम्भिक अवस्था मेंं निदान होने पर ही सम्पूर्ण उपचार सम्भव है।
कैन्सर से जुड़े भ्रम:- कैंसर एक ऐसा रोग है जिसमेंं तरह-तरह की भ्रांतियां और डर जुड़े हुए हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारत मेंं कैंसर को नियंत्रित करने के लिए जागरुकता की कमी मुख्य रुप से जिम्मेदार है। कैंसर होने की स्थिति में जातक की जन्म पत्री किसी विद्वान ज्योतिषी से दिखा कर उपयुक्त ग्रहों की शांति करवाना, महामृत्युंजय जाप कराना और निरंतर योग्य चिकित्सक की निगरानी में रहना चाहिए।
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वास्तु अनुसार कैसे बनाएँ अपना रसोई घर

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हमारे घर में किचन किस दिशा में स्थित है, वह कौन सा कोण बना रहा है और वह वास्तु के अनुरूप है कि नहीं। क्या कारण है कि घर में सबकुछ है पर शांति नहीं, संतोष नहीं। वैसे आप को बता दें कि घर की खुशहाली किचन से ही होकर निकलती है, सो आज हम आपको बताते हैं कैसी होनी चाहिए आपके किचन का वास्तु:
हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग वास्तु शास्त्र पूर्ण रूप से प्रकृति की लाभकारी ऊर्जा पर आधारित वैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों पर आधारित है। प्राकृतिक ऊर्जा एवं पंचतत्वों के प्रभाव का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही हमारे ऋषि-मुनियों ने वास्तु शास्त्र के सूत्रों की रचना मानव जाति के कल्याण की मूलभूत भावना से की थी, जिनका लाभ मनुष्य आज हजारो वर्षों के बाद भी आसानी से प्राप्त कर सकता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार पाकशाला (रसोईघर/ किचन) का प्रावधान, अत्यन्त सूक्ष्म परीक्षणों के पश्चात ही घर की दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा में किया गया। पूर्व से प्राप्य अवरक्त तथा दक्षिण से प्राप्य पराबैंगनी किरणों का उचित सामंजस्य, दक्षिण-पूर्व स्थित रसोई में न सिर्फ वहां प्रात:काल से लेकर मध्याह्न (भोजन बनाने का समय) तक स्वास्थ्यप्रद प्रकाश एवं ऊर्जा प्रदान करता है बल्कि पाकशाला में आसानी से फैल सकने वाले कीटाणुओं, वायरस, सीलन एवं दुर्गन्ध से भी रक्षा करता है। पूर्व एवं उत्तर दिशा की खिड़कियों से तैलीय गन्ध एवं धुंआ भी बगैर घर के अन्य भागों को प्रभावित किये आसानी से बाहर निकल जाते हैं।
वस्तुत: किचन दक्षिण-पूर्व के अलावा कुछ अन्य दिशाओं में भी आसानी से बनाया जा सकता है एवं वहां ऊर्जा के उचित प्रवाह के माध्यम से सम्पूर्ण लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) के अलावा मध्य दक्षिण एवं वायव्य के किचन भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाते हैं बशर्ते वहां की अन्य व्यवस्था वास्तु नियमों के अनुसार की गई हो। रसोईघर आपके घर का पावर हाऊस है, जहां गृहिणी का अधिकांश समय बीतता है एवं वहाँ बने भोजन को परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करते हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके तन तथा मन पर पड़ता है एवं वास्तु अनुरूप रसोईघर में बने भोजन से तन एवं मन स्वस्थ तथा प्रसन्न रहते हैं, तो धन भी भला पीछे कैसे रह सकता है?
आग्नेय कोण: इस कोण में रसोईघर होना काफी शुभ माना जाता है। इससे घर की महिलाएं प्रसन्न रहती हैं और सभी तरह के सुखों का घर में वास होता है।
नैत्रत्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामिनी उत्साहित एंव उर्जायुक्त रहती है।
वायव्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामी आशिक मिजाज होता है। मालिक की बदनामी का भी भय रहता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से रूबरू होना पड़ सकता है।
ईशान कोण: इस कोण में रसोईघर होने से पारिवारिक सदस्यों को कोई खास सफलता नहीं मिलती है और घर में क्लेश रहने की संभावना बनी रहती है।
कौन सी दिशा सही है रसोईघर के लिए:
रसोईघर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दिशा दक्षिण-पूर्व होती है। अत: इस दिशा में रसोई घर के निर्माण से घर में शान्ति और समृद्धि बनी रहती है
रसोई वास्तु के अनुसार: किचन की ऊँचाई 10 से 11 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए। यदि 4-5 फीट में किचन की ऊँचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कभी भी किचन से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। किचन के बाजू में बोर, कुआँ, बाथरूम बनवाना अवाइड करें, सिर्फ वाशिंग स्पेस दे सकते हैं।
रसोई को घर के आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण) में बनाना चाहिए क्योंकि इसे ही अग्नि का स्थान माना गया है। यहां रसोई होने से अग्नि देव नित्य प्रदीप्त रहते हैं और घर का संतुलन बना रहता है। किंतु, इससे यह भी देखा गया है कि अक्सर दिन में तीन या उससे अधिक बार भोजन बनता है यानी खर्च बना ही रहता है। ऐसे में एकदम अग्निकोण को छोड़कर पूर्व की ओर रसोई बनाएं। यदि पूर्व की रसोई बनी हुई हो तो चूल्हे को थोड़ा पूर्व की ओर खिसका दें। चूल्हा इस तरह लगाएं कि सिलेंडर भी उसके एकदम नीचे रहे। रसोई तैयार करते समय मुख की स्थिति पूर्व में रहनी चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि यदि रसोई के दक्षिण में एग्जॉस्ट फैन हो तो व्यय की संभावना रहती है। ऐसे में पूर्व की दीवार पर एग्जॉस्ट फैन लगाना चाहिए। रसोई बन जाने के बाद भोजन कभी घर के ब्रह्मस्थान पर बैठकर नहीं करें। न ही वहां पर झूठा डालें।
अगर आपके घर का रसोईघर वास्तु के नियमानुसार नहीं है एवं उसके प्रतिकूल परिणाम आपको प्राप्त हो रहे हैं एवं किचन की स्थिति या घर बदलना सम्भव नहीं है, तो डरने या घबड़ाने की जरूरत नहीं है। वास्तु की सहायता से आप आसानी से अधिकांश वास्तु-दोष बिना किसी तोड़-फोड़ के सुधार सकते हैं। निम्नलिखित बातों का ध्यान अवश्य रखें:
* किचन के ईशान में सिंक तो ठीक है, परन्तु वहां जूठे बर्तन न तो रखें या धुलाई करें।
* किचन के ईशान से सटाकर चूल्हा कदापि न रखें, वहां गैस सिलिन्डर भी न रखें।
* घर में प्रवेश करते वक्त एवं घर से बाहर जाते समय परिवार के सदस्यों को चूल्हे के दर्शन न हो, ऐसी व्यवस्था अवश्य करें। ड्राइंग टेबल पर भोजन करते समय भी चूल्हा नहीं दिखना चाहिये।
* भोजन बनाने की व्यवस्था सीढिय़ों के नीचे कदापि न करें। वहाँ अत्यन्त नकारात्मक ऊर्जा रहती हैं।
* किचन में दवाइयाँ कदापि न रखें। वहां पूजा/ मन्दिर भी न रखें।
* किचन के दक्षिण-पूर्व में एक छोटा सा पीला, नारंगी या हरा बल्ब लगायें, शुभ परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
* किचन के वायव्य कोण में परदा हरगिज न लगायें। यह छोटी सी भूल अत्यन्त प्रतिकूल परिणाम दे सकती है। किचन में झाड़ू न रखें।
* रसोईघर की दीवार, देहरी, खिड़कियाँ, अलमारियाँ, विद्युत उपकरण, भोजन पकाने के प्लेटफार्म, बर्तन इत्यादि टूटी-फूटी अवस्था में न रखें। उन्हें तुरंत ठीक करवायें या बदलने की व्यवस्था करें। मुड़े हुए कांटे चम्मच, चाकू आदि भी तुरंत हटा दें। अपने रसोईघर को पूर्ण रूप से साफ अवश्य करें, ताकि आपका पावर हाऊस सदैव पावर फुल बना रहे।
* नित्य प्रात:काल अपने रसोईघर के ईशान की खिड़की से थोड़ा सा जल बाहर प्रवाहित करके सूर्य देवता का एवं आग्नेय में कपूर जला कर अग्नि देवता का ध्यान करके उनकी कृपादृष्टि हेतु प्रार्थना करें। परिवार में सौहार्द एवं समरसता की वृद्धि होने लगेगी और रसोईघर की रौनक सारे घर में रौनक लाकर सुख एवं समृद्धि के दरवाजे खोलने लगेगी।
* किचन में सूर्य की रोशनी सबसे ज्यादा आए। इस बात का हमेशा ध्यान रखें। किचन की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे सकारात्मक व पॉजिटिव एनर्जी आती है।
* किचन में लॉफ्ट, अलमारी दक्षिण या पश्चिम दीवार में ही होना चाहिए।
* पानी फिल्टर ईशान कोण में लगाएँ।
* किचन में कोई भी पावर प्वाइंट जैसे मिक्सर, ग्रांडर, माइक्रोवेव, ओवन को प्लेटफार्म में दक्षिण की तरफ लगाना चाहिए। फ्रिज हमेशा वायव्य कोण में रखें।
* भोजन कभी वायव्य कोण में बैठकर या खड़े-खड़े भी नहीं करें। इससे अधिक खाने की आदत हो जाती है। इसी तरह नैऋत्य कोण में बैठकर भोजन नहीं करें। यह राक्षस कोना है और इससे पेटू हो जाने की आशंका रहती है।
* भोजन बनाकर खाने से पूर्व एकाध कौर आग की ज्वाला में अर्पित कर दें।
अगर आपके घर में किचन ईशान या नैऋत्य (ये दिशाएं किचन हेतु वर्जित है) दिशा में हैं जिसका स्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है, तो उसे पिरामिड यंत्रों की सहायता से आसानी से सुधारा जा सकता है। अगर किसी कारणवश पूर्व दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाना सम्भव न हो तो जिस दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाते हैं, वहां चूल्हे के पास तीन पिरामिड लगाकर इस दोष को दूर किया जा सकता है। अगर सिंक एवं चूल्हा पास-पास रखे हों और उन्हें अलग जगह हटाना सम्भव न हो तो मध्य में एक छोटा सा पार्टीशन करके या सिंक पर एक पिरामिड लगाकर इस दोष से मुक्ति पा सकते हैं।
किचन के अगल-बगल या ऊपर-नीचे टायलेट अथवा पूजाघर हो या किचन के दरवाजे के ठीक सामने अन्य कमरों के दरवाजे पड़ते हों, तो सिंक पर पिरामिड लगाकर यह दोष सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है। अगर रसोईघर में बीम या दुच्छती हो, तो पिरामिड यंत्रों से उनकी नकारात्मकता को दूर किया जा सकता है। रसोई घर में रंगों का आयोजन बहुत हल्का होना चाहिए। वास्तु अनुसार ही रंगों का चयन हो तो रसोई समृद्धशाली बनती है। हल्का हरा, हल्का नींबू जैसा रंग, हल्का संतरी या हल्का गुलाबी।
इस तरह के कुछ सरल उपाए के द्वारा आप अपने घर कि स्त्रियो कि सेहत ठीक रखे व सेहतमंद भोजन करे|

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जीवन में आकस्मिक हानि से बचाव हेतु पितृतर्पण -


जीवन में आकस्मिक हानि से बचाव हेतु पितृतर्पण -
व्यक्ति के जीवन में कई बार आकस्मिक हानि प्राप्त हेाती है साथ ही कई बार योग्यता तथा सामथ्र्य होने के बावजूद जीवन में वह सफलता प्राप्त नहीं होती, जिसकी योग्यता होती है। इस प्रकार का कारण ज्योतिषषास्त्र द्वारा किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, अष्टम, नवम भाव में से किसी भाव में राहु के होने पर जातक के जीवन में आकस्मिक हानि का योग बनता है। अगर राहु के साथ सूर्य, शनि के होने पर यह प्रभाव जातक के स्वयं के जीवन के अलावा यह दुष्प्रभाव उसके परिवार पर भी दिखाई देता है। अगर प्रथम भाव में राहु के साथ सूर्य या शनि की युति बने तो व्यक्ति अषांत, गुप्त चिंता, स्वास्थ्य एवं पारिवारिक परेषानियों के कारण चिंतित रहता है। दूसरे भाव में इस प्रकार की स्थिति निर्मित होेने पर परिवार में वैमनस्य एवं आर्थिक उलझनें बनने का कोई ना कोई कारण बनता रहता है। तीसरे स्थान पर होने पर व्यक्ति हीन मनोबल का होने के कारण असफलता प्राप्त करता है। चतुर्थ स्थान में होने पर घरेलू सुख, मकान, वाहन तथा माता से संबंधित कष्ट पाता है। पंचम स्थान में होने पर उच्च षिक्षा में कमी तथा बाधा दिखाई देती है तथा संतान से संबंधित बाधा तथा दुख का कारण बनता है। अष्टम में होने पर आकस्मिक हानि, विवाद तथा न्यायालयीन विवाद, उन्नति तथा धनलाभ में बाधा देता है। बार-बार कार्य में बाधा आना या नौकरी छूटना, सामाजिक अपयष अष्टम राहु के कारण दिखाई देता है। नवम स्थान में होने पर भाग्योन्नति तथा हर प्रकार के सुखों में कमी का कारण बनता है। सामान्यतः चंद्रमा के साथ राहु का दोष होने पर माता, बहन या पत्नी से संबंधित पक्ष में कष्ट दिखाई देता है वहीं शनि के साथ राहु दोष होेने पर पारिवारिक विषेषकर पैतृक दोष का कारण बनता है। सूर्य के आक्रांत होेने पर आत्मा प्रभावित हेाता है, जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा सोच दूषित होती है। बुध के साथ राहु होने पर जडत्व दोष बनता है, जिसमें विकास तथा बुद्धि प्रभावित होती है। मंगल के साथ होने पर संतान से संबंधित पक्ष से कष्ट तथा गुरू के साथ होने पर षिक्षा तथा सामाजिक प्रतिष्ठा संबंधित परेषानी दिखाई देती है। शुक्र के आक्रांत होेने पर सुख प्राप्ति के रास्ते में बाधा आती है। इस प्रकार के दोष जातक की कुंडली में बनने पर जातक के जीवन में स्वास्थ्य की हानि, सुख में कमी,आर्थिक संकट, आय में बाधा, संतान से कष्ट अथवा वंषवृद्धि में बाधा, विवाह में विलंब तथा वैवाहिक जीवन में परेषानी, गुप्तरोग, उन्नति में कमी तथा अनावष्यक तनाव दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार का दोष दिखाई दे तो अपनी कुंडली की विवेचना कराकर उसे पितृतर्पण, देवतर्पण, दानादि कर्म करना चाहिए। इस प्रकार के कार्य हेतु हिंदु धर्म में पितृपक्ष का विधान किया गया है, जिसमें तर्पण, दान एवं भोज द्वारा ग्रहदोषों के कष्ट से बचा जा सकता है।
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हिन्दू धर्म में माघ पूर्णिमा का महत्व

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जानिए की क्या हैं माघ पूर्णिमा और माघ पूर्णिमा का महत्व..???
हिन्दू धर्म में धार्मिक दृष्टि से माघ मास को विशेष स्थान प्राप्त है। भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास और दसवां सौरमास माघ कहलाता है।मघा नक्षत्र से युक्त होने के कारण इस महीने का नाम का माघ नाम पडा। ऐसी मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने वाले पापमुक्त होकर स्वर्ग लोक जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि माघी पूर्णिमा पर स्वंय भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करतें है अत: इस पावन समय गंगाजल का स्पर्शमात्र भी स्वर्ग की प्राप्ति देता है | इसके सन्दर्भ में यह भी कहा जाता है कि इस तिथि में भगवान नारायण क्षीर सागर में विराजते हैं तथा गंगा जी क्षीर सागर का ही रूप है|
प्रयाग में प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। हजारों भक्त गंगा-यमुना के संगम स्थल पर माघ मास में पूरे तीस दिनों तक (पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक) कल्पवास करते है। ऐसी मान्यता है कि इस मास में जरूरतमंदों को सर्दी से बचने योग्य वस्तुओं, जैसे- ऊनी वस्त्र, कंबल और आग तापने के लिए लकडी आदि का दान करने से अनंत पुण्य फल की प्राप्ति होती है।इस मास की प्रत्येक तिथि पवित्र है..
इस वर्ष 03 फरवरी 2015 को मंगलवार के दिन माघ पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाएगा. यह उत्तर भारत में माघ महीने के समापन का प्रतीक हैं. ऐसी मान्यता है कि माघ पूर्णिमा के पावन अवसर पर महाकुंभ में स्नान करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।इस दिन चन्द्रमा भी अपनी सोलह कलाओं से शोभायमान होते हैं। इस दिन पूर्ण चन्द्रमा अमृत वर्षा करते हैं जिनके अंश वृक्षों, नदियों, जलाशयों और वनस्पतियों पर पड़ते हैं। अत: इनमें आरोग्यदायक गुण उत्पन्न होते हैं। धार्मिक मान्यता है कि माघ पूर्णिमा में स्नान-दान करने से सूर्य और चन्द्रमा युक्त दोषों से मुक्ति मिलती है। मकर राशि में सूर्य का प्रवेश और कर्क राशि में चंद्रमा का प्रवेश होने से माघी पूर्णिमा को पुण्य योग बनता है तथा सभी तीर्थों के राजा (देवता) पूरे माह प्रयाग तथा अन्य तीर्थों में विद्यमान रहने से अंतिम दिन को जप-तप व संयम द्वारा सात्विकता को प्राप्त किया जा सकता है। संगम में माघ पूर्णिमा का स्नान एक प्रमुख स्नान है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज रहता है जो पाप का शमन करता है।
निर्णय सिंधु में कहा गया है कि माघ मास के दौरान मनुष्य को कम से कम एक बार पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए। भले पूरे माह स्नान के योग न बन सकें लेकिन माघ पूर्णिमा के स्नान से स्वर्गलोक का उत्तराधिकारी बना जा सकता है। इस बात का उदाहरण इस श्लोक से मिलता है-----
॥ मासपर्यन्त स्नानासम्भवे तु त्रयहमेकाहं वा स्नायात्‌ ॥ -
अर्थात् जो लोग लंबे समय तक स्वर्गलोक का आनंद लेना चाहते हैं, उन्हें माघ मास में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर अवश्य तीर्थ स्नान करना चाहिए।
हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार महाकुंभ में माघ पूर्णिमा का स्नान इसलिए भी अति महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इस तिथि पर चंद्रमा अपने पूर्ण यौवन पर होता है। साधु-संतों का कहना है कि पूर्णिमा पर चंद्रमा की किरणें पूरी लौकिकता के साथ पृथ्वी पर पड़ती हैं। स्नान के बाद मानव शरीर पर उन किरणों के पड़ने से शांति की अनुभूति होती है और इसीलिए पूर्णिमा का स्नान महत्वपूर्ण है।माघ स्नान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। माघ में ठंड खत्म होने की ओर रहती है तथा इसके साथ ही स्‍प्रिंग की शुरुआत होती है। ऋतु के बदलाव का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर नहीं पड़े इसलिए प्रतिदिन सुबह स्नान करने से शरीर को मजबूती मिलती है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख है कि माघी पूर्णिमा पर भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करते हैं अत: इस पावन समय गंगाजल का स्पर्शमात्र भी स्वर्ग की प्राप्ति देता है। इसी प्रकार पुराणों में मान्यता है कि भगवान विष्णु व्रत, उपवास, दान से भी उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना अधिक प्रसन्न माघ स्नान करने से होते हैं.महाभारत में एक जगह इस बात का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इन दिनों में अनेक तीर्थों का समागम होता है। वहीं पद्मपुराण में कहा गया है कि अन्य मास में जप, तप और दान से भगवान विष्णु उतने प्रसन्न नहीं होते जितने कि वे माघ मास में स्नान करने से होते हैं। यही वजह है कि प्राचीन ग्रंथों में नारायण को पाने का आसान रास्ता माघ पूर्णिमा के पुण्य स्नान को बताया गया है।भृगु ऋषि के सुझाव पर व्याघ्रमुख वाले विद्याधर और गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त इन्द्र भी माघ स्नान के सत्व द्वारा ही श्राप से मुक्त हुए थे। पद्म पुराण के अनुसार माघ-स्नान से मनुष्य के शरीर में स्थित उपाताप जलकर भस्म हो जाते हैं।
इस दिन किए गए यज्ञ, तप तथा दान का विशेष महत्व होता है. भगवान विष्णु की पूजा कि जाती है, भोजन, वस्त्र, गुड, कपास, घी, लड्डु, फल, अन्न आदि का दान करना पुण्यदायक माना जाता है. माघ पूर्णिमा में प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व किसी पवित्र नदी या घर पर ही स्नान करके भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिए. माघ मास में काले तिलों से हवन और पितरों का तर्पण करना चाहिए तिल के दान का इस माह में विशेष महत्त्व माना गया है.
मत्स्य पुराण के अनुसार-
पुराणं ब्रह्म वैवर्तं यो दद्यान्माघर्मासि च,
पौर्णमास्यां शुभदिने ब्रह्मलोके महीयते।
मत्स्य पुराण का कथन है कि माघ मास की पूर्णिमा में जो व्यक्ति ब्राह्मण को दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।यह त्यौहार बहुत हीं पवित्र त्यौहार माना जाता हैं.इस दिन किए गए यज्ञ, तप तथा दान का विशेष महत्व होता है. स्नान आदि से निवृत होकर भगवान विष्णु की पूजा कि जाती है, गरीबो को भोजन, वस्त्र, गुड, कपास, घी, लड्डु, फल, अन्न आदि का दान करना पुण्यदायक होता है.
माघ पूर्णिमा को माघी पूर्णिमा के नाम से भी संबोधित किया जाता है. माघशुक्ल पक्ष की अष्टमी भीमाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है। इस तिथि को भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया था। उन्हीं की पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। माघी पूर्णिमा को एक मास का कल्पवास पूर्ण हो जाता है। इस दिन सत्यनारायण कथा और दान-पुण्य को अति फलदायी माना गया है।
माघ माह में स्नान, दान, धर्म-कर्म का विशेष महत्व होता है. इस माह की प्रत्येक तीथि फलदायक मानी गई है. शास्त्रों के अनुसार माघ के महीने में किसी भी नदी के जल में स्नान को गंगा स्नान करने के समान माना गया है. माघ माह में स्नान का सबसे अधिक महत्व प्रयाग के संगम तीर्थ का होता है...इस अवसर पर गंगा में स्नान करने से पाप एंव संताप का नाश होता है तथा मन एवं आत्मा को शुद्वता प्राप्त होती है. इस दिन किया गया महास्नान समस्त रोगों को शांत करने वाला है. इस समय ""ऊँ नमो भगवते नन्दपुत्राय ।। ऊँ नमो भगवते गोविन्दाय ।। ऊँ कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम: ।। मंत्र ध्यान के बाद भगवान कृष्ण या विष्णु की आरती करें। प्रसाद बांटे और ग्रहण करें। पूजा, आरती में हुई गलती के लिए क्षमा प्रार्थना करें।
माघ पूर्णिमा के अवसर पर भगवान सत्यनारायण जी कि कथा की जाती है भगवान विष्णु की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाता है. सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, शहद केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है, इसके साथ ही साथ आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर चूरमे का प्रसाद बनाया जाता है और इस का भोग लगता है.
माघ पूर्णिमा में प्रात: स्नान, यथाशक्ति दान तथा सहस्त्र नाम अथवा किसी स्तोत्र द्वारा भगवान विष्णु की आराधना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। निष्काम भाव से माघ-स्नान मोक्ष दिलाता है। माघ-स्नान से समस्त पाप-ताप-शाप नष्ट हो जाते हैं।
इस दिन सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज रहता है जो पाप का शमन करता है। यह भी मान्यता है कि जो तारों के छुपने से पूर्व स्नान करते हैं, उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है। तारों के छुपने के बाद किन्तु सूर्योदय से पूर्व के स्नान से मध्यम फल मिलता है। किन्तु जो सूर्योदय के बाद स्नान करते हैं, वे उत्तम फल की प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। माघ मास को बत्तीसी पूर्णिमा व्रत भी कहते हैं। पूर्णिमा को भगवान विष्णु की पूजा की जाती है जो सौभाग्य व पुत्र प्राप्ति के लिए होती है।
हिन्दू पंचांग के मुताबिक ग्यारहवें महीने यानी माघ में स्नान, दान, धर्म-कर्म का विशेष महत्व है। इस दिन को पुण्य योग भी कहा जाता है। इस स्नान के करने से सूर्य और चंद्रमा युक्त दोषों से मुक्ति मिलती है।
ऐसा माना जाता हैं जो व्यक्ति माघ पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करता हैं उसके सारे पाप धूल जाते हैं. इस अवसर पर गंगा में स्नान करने से मनुष्य के समस्त पाप एंव संताप मिट जातें है.इसे मन एवं आत्मा को शुद्व करने वाला माना गया है. इस दिन लोग उपवास रखते हैं ,दान देते हैं. पितृ तर्पण भी माघ पूर्णिमा के दिन किया जाता हैं. माघ पूर्णिमा अल्लहाबाद में संगम पर आयोजित हैं. माघ पूर्णिमा का दिन मृत पुर्वजो के लिए पुण्य स्नान करने का आख़िरी दिन हैं.
इस दिन यदि रविवार, व्यतिपात योग और श्रवण नक्षत्र हो तो ‘अर्धोदय योग’ होता है जिसमें स्नान-दान का फल भी मेरू समान हो जाता है। माघ शुक्ल पंचमी को विद्या, बुद्धि, ज्ञान और वाणी की अधिष्ठïात्री देवी भगवती सरस्वती की पूजा होती है। ब्रह्मï वैवर्त पुराण के अनुसार इनका जन्म श्रीकृष्ण के कण्ठ से हुआ। ऋग्वेद में उनकी महिमा का गान हुआ है। अत: यह दिन उनके आविर्भाव दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अचला सप्तमी का व्रत आता है। इसका महात्म्य भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिïर को बताया था कि इस दिन स्नान-दान, पितरों के तर्पण व सूर्य पूजा से तथा वस्त्रादि दान करने से व्यक्ति बैकुण्ठ में जाता है। इस व्रत को करने से वर्ष भर रविवार व्रत करने का पुण्य प्राप्त होता है। इसके बाद शुक्ल अष्टमी को भीमाष्टïमी के नाम से जाना जाता है। इसी तिथि को भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण-त्याग किया था। इस दिन उनके निमित्त स्नान-दान तथा माधव पूजा से सब पाप नष्टï होते हैं।
माघ पूर्णिमा के दिन गंगा ,यमुना,सरस्वती ,कावेरी, कृष्णा आदि नदियों के किनारे जबरदस्त पूजा की जाती हैं.अनेक पवित्र पर्वों के समन्वय की वजह से श्रद्धालुओं के लिए माघ मास को अति पुण्य फलदयी माना जाता है।
इस दिन करें यह विशेष उपाय----शैव मत को मानने वाले व्यक्ति भगवान शंकर की पूजा करते हैं, उन्हें शिव को विशेष मंत्र से शहद स्नान कराना। शाम को स्नान के बाद सफेद वस्त्र पहन चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर शिवलिंग को अक्षत से बने अष्टदल कमल पर स्थापित करें।शिवलिंग को एक पात्र में गंगा जल व दूध मिले पवित्र जल से स्नान कराएं।
इसके बाद शहद की धारा शिवलिंग पर नीचे लिखे मंत्र बोलते हुए पाप नाश व समृद्धि की कामना से करें -
“दिव्यै: पुष्पै: समुद्भूतं सर्वगुणसमन्वितम्। मधुरं मधुनामाढ्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।”
शहद स्नान के बाद शुद्ध जल से स्नान व शिव की पंचोपचार पूजा यानी चंदन, फूल, बिल्वपत्र व मिठाई का भोग लगाकर करें। धूप, दीप व कर्पूर से शिव आरती करें। जाने-अनजाने गलत कामों की क्षमा मांगे।

Friday 29 May 2015

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........
अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक (Name Number), मूलांक (Root Number) और भाग्यांक (Destiny Number) इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है.
अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. अंक ज्योतिष से ज्योतिष की अन्य विधाओं की तरह भविष्य और सभी प्रकार के ज्योंतिषीय प्रश्नों का उत्तर ज्ञात किया जा सकता है. विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषय में भी अंक ज्योतिष और उसके उपाय काफी मददगार साबित होते हैं.
अंक ज्योंतिष अपने नाम के अनुसार अंक पर आधारित है. अंक शास्त्र के अनुसार सृष्टि के सभी गोचर और अगोचर तत्वों का अपना एक निश्चत अंक होता है. अंकों के बीच जब ताल मेल नहीं होता है तब वे अशुभ या विपरीत परिणाम देते हैं. अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक, मूलांक और भाग्यांक इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है. अगर वर और वधू के अंक आपस में मेल खाते हैं तो विवाह हो सकता है. अगर अंक मेल नहीं खाते हैं तो इसका उपाय करना होता है ताकि अंकों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित हो सके.
वैदिक ज्योतिष (Vedic Astrology) एवं उसके समानांतर चलने वाली ज्योतिष विधाओं में वर वधु के वैवाहिक जीवन का आंकलन करने के लिए जिस प्रकार से कुण्डली से गुण मिलाया जाता ठीक उसी प्रकार अंकशास्त्र में अंकों को मिलाकर (Numerology Marriage compatibility) वर वधू के वैवाहिक जीवन का आंकलन किया जाता है.
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मंगल पर्वत से बदलेगी किस्मत


हस्तरेखा में मंगल पर्वत को दो स्थान दिए गए हैं अत: माना जा सकता है कि मंगल कितना शक्तिशाली और प्रमुख पर्वत है। मंगल पर्वत को हथेली में दो स्थानों पर माना जाता है- एक ऊपर और दूसरा नीचे। एक उच्च का पर्वत होता है और दूसरा नीच का होता है। उच्च मंगल पर्वत हृदय रेखा जहां से शुरू होती उसके ऊपर स्थित होता है जबकि नीच का मंगल जहां से जीवन रेखा शुरू होती है वहां से कुछ ऊपर होता है। ऊपर के मंगल का ज्यादा उन्नत और उभरा होना व्यक्ति में आक्रामकता एवं साहस को बढ़ावा देता है क्योंकि वह सेनापति है, ऐसे जातक स्वभाव से जुझारू होते हैं तथा विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत से काम लेते हैं तथा सफलता प्राप्त करने के लिए बार-बार प्रयत्न करते रहते हैं और अपने रास्ते में आने वाली बाधाओं तथा मुश्किलों के कारण आसानी से विचलित नहींं होते। इस स्थान पर किसी वृत्त, दाग या तिल का होना इसे और ज्यादा पुष्ट करता है। उसे दुर्घटना द्वारा चोट भी लग सकती है और उसका कोई अंग भंग हो सकता है। ऊपर का मंगल यदि बुध पर्वत की ओर खिसका हो तो जातक का स्वभाव उग्र होता है। वह हमेशा अपने को एक कुशल योद्धा समझता है और जिसके कारण जातक के शरीर की चीर-फाड़ हो सकती है तथा अत्याधिक मात्रा में रक्त भी बह सकता है। मंगल पर्वत से निकलकर कोई रेखा यदि जीवनरेखा तक आये तो वह रेखा को जीवनरेखा जहां काट रही हो, उस समय तथा उम्र में किसी दुर्घटना अथवा लड़ाई में अपने शरीर का कोई अंग भी गंवा सकता है। इसके अतिरिक्त मंगल पर्वत पर कोई क्रास का निशान या द्वीप होना जातक को सिरदर्द, थकान, गुस्सा जैसी समस्याएं दे सकता है। यह पर्वत अविकसित हो तो जातक डिप्रेशन का मरीज होता है। यदि मगंल के उस पर्वत से कोई रेखा चंद्र पर्वत तक जाये तो ऐसा जातक निर्णय लेने में विलंब तथा लगातार अनियमित कार्य करने का आदी होता है। यह मंगल पर्वत यदि चंद्र पर्वत से दबा हो तो उसे सफलता ना मिलने के कारण चिड़चिड़ापन भी होता है। इस पर्वत पर कोई अशुभ चिह्न व्यक्ति को आर्थिक मुसीबतों और पारिवारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उसकी वाणी प्रभावित होती है।
नीचे का मंगल क्षेत्र भी इसी प्रकार से उन्नत होने पर जातक अति आत्म विश्वास से युक्त होता है। वह किसी भी कार्य को चुनौती देकर स्वीकार करता है। इस स्थिति का मंगल अंगुठे की तरफ खिसका हो तो जातक कूटनीति करने वाला होता है। फलत: वह नित नवीन परेशानियों एवं उलझनों से घिरा रहता है। मंगल का अनेक रेखाओं से दबा होना और उस स्थान पर जाल का चिह्न रक्त प्रवाह को असामान्य करता है। यदि नीचे का मंगल शुक्र की ओर झुका हुआ हो तो शुक्र और मंगल से प्रभावित होने के फलस्वरूप वह उग्र स्वभाव का हो जाता है। इस स्थिति में उसमें काम के प्रति आसक्ति बनी रहती है और वह काम पिपासा को शांत करने हेतु किसी भी हद तक जा सकता है। यदि इन दोनों पर्वतों पर द्वीप या क्रास का निशान मिले तो जातक को उसका प्यार न मिले तो वह दुखी होकर एडीक्षन का आदी हो सकता है। मंगल पर्वत का उन्नत होना तथा जाल रहित होना व्यक्ति में अच्छे आत्मविष्वास का घोतक होता है। उस पर किसी ग्रह का शुभ चिह्न ऊध्र्व रेखाएं या कोई अन्य शुभ चिह्न हो तो यह बहुत ही योगकारक ग्रह बन कर व्यक्ति को सफलता के शिखर पर पहुंचा देता है। इसकी स्थिति, शुभाशुभ चिह्नों की प्रतिक्रिया, अन्य पर्वतों से सामंजस्य एवं हाथ के आकार प्रकार, उंगलियों की बनावट और उन पर स्थित चिह्नों को भी इसके साथ जोड़ कर सही स्थिति का पता लगाया जा सकता है तथा समस्याओं का समाधान किया जा सकता है मंगल आम तौर पर ऐसे क्षेत्रों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें साहस, शारीरिक बल, मानसिक क्षमता आदि की आवश्यकता पड़ती है जैसे कि पुलिस की नौकरी, सेना की नौकरी, अर्ध-सैनिक बलों की नौकरी, अग्नि-शमन सेवाएं, खेलों में शारीरिक बल तथा क्षमता की परख करने वाले खेल जैसे कि कुश्ती, दंगल, टैनिस, फुटबाल, मुक्केबाजी तथा ऐसे ही अन्य कई खेल जो बहुत सी शारीरिक उर्जा तथा क्षमता की मांग करते हैं। इसके अतिरिक्त मंगल ऐसे क्षेत्रों तथा व्यक्तियों के भी कारक होते हैं जिनमें हथियारों अथवा औजारों का प्रयोग होता है जैसे हथियारों के बल पर प्रभाव जमाने वाले गिरोह, शल्य चिकित्सा करने वाले चिकित्सक तथा दंत चिकित्सक जो चिकित्सा के लिए धातु से बने औजारों का प्रयोग करते हैं, मशीनों को ठीक करने वाले मैकेनिक जो औजारों का प्रयोग करते हैं तथा ऐसे ही अन्य क्षेत्र एवं इनमे काम करने वाले लोग। इसके अतिरिक्त मंगल भाइयों के कारक भी होते हैं तथा विशेष रूप से छोटे भाइयों के। मंगल पुरूषों की कुंडली में दोस्तों के कारक भी होते हैं तथा विशेष रूप से उन दोस्तों के जो जातक के बहुत अच्छे मित्र हों तथा जिन्हें भाइयों के समान ही समझा जा सके। क्योंकि मंगल रक्त के सीधे कारक माने जाते हैं। मंगल के प्रबल प्रभाव वाले जातक शारीरिक रूप से बलवान तथा साहसी होते हैं। अत: मंगल पर्वत का विकसित होना जातक के उत्साह एवं उमंग का प्रतीक होता है और इससे जातक के लगनशील होने का पता चलता है। साथ ही नीचे के मंगल का शुक्र के बराबर उन्नत होना जीवन में समृद्धि देता है। मंगल पर्वत और मंगल रेखा का विकसित होना जीवन में अच्छी उर्जा तथा सफलता का कारण होता है। वहीं उपर के मंगल का बुध की ओर झुका होना अच्छे स्वास्थ्य और समझ को बताता है। मंगल पर्वत का स्थान सपाट होता है वह कायर और डरपोक होते हैं। मंगल पर्वत पर किसी भी प्रकार का क्रास का चिंह होना और जीवन रेखा कट कर कोई रेखा बाहर तक जाकर दूसरे मंगल पर्वत तक जाये तो यह कारावास या समाज से निष्कासित होने को दर्शाता है।
मंगल पर्वत को विकसित करने तथा उर्जा, उत्साह तथा साकारात्मकता बढ़ाने हेतु अनामिका उंगली जिसपर मंगल से संबंधित रत्न मूंगा धारण करना चाहिए इसके अलावा मंगल पर्वत के लिए निम्न मुद्रा का अभ्यास करना भी लाभ देता है।
उपाय:
उपाए (१):
* सिद्धासन,पदमासन या सुखासन में बैठ जाएँ।
* दोनों हाँथ घुटनों पर रख लें हथेलियाँ उपर की तरफ रहें।
* अनामिका अंगुली (रिंग फिंगर) को मोडकर अंगूठे की जड़ में लगा लें एवं उपर से अंगूठे से दबा लें।
* बाकी की तीनों अंगुली सीधी रखें। अनामिका अंगुली पृथ्वी एवं अंगूठा अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है, इन तत्वों के मिलन से शरीर में तुरंत उर्जा उत्पन्न हो जाती है।

उपाए (२):
* पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएँ, रीढ़ की हड्डी सीधी रखें।
* अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रख लें, हथेलियाँ ऊपर की तरफ रहें।
* हाथ की सबसे छोटी अंगुली (कनिष्ठा) एवं इसके बगल वाली अंगुली (अनामिका) के पोर को अंगूठे के पोर से लगा दें। इससे प्राणशक्ति बढती है इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से मन की बैचेनी और कठोरता को दूर होती है एवं एकाग्रता बढ़ती है।
उपाए (३):
* सुखासन या अन्य किसी आसान में बैठ जाएँ, दोनों हाथ घुटनों पर, हथेलियाँ उपर की तरफ एवं रीढ़ की हड्डी सीधी रखें।
* मध्यमा (बीच की अंगुली)एवं अनामिका अंगुली के उपरी पोर को अंगूठे के उपरी पोर से स्पर्श कराके हल्का सा दबाएं। तर्जनी अंगुली एवं कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली सीधी रहे इस मुद्रा के प्रभाव से साधक में सहनशीलता, स्थिरता और तेज का संचार होता है।
नोट: आसनों की जानकारी के लिए अगले अंक में पढ़ें।


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संकल्प शक्ति से बदलें मन के भाव



स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।। 27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:।। 28।।

और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच मेंं स्थित करके तथा नासिका मेंं विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।
इस सूत्र मेंं कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र मेंं, काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र मेंं काम-क्रोध से मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
इतना जानना पर्याप्त नहींं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म मेंं प्रवेश मिल जाएगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? विधि क्या है?
कृष्ण ने कहीं तीन बातें। एक, दोनों आंखों के ऊपर भू-मध्य मेंं, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करें। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले, इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य मेंं, श्वास हो जाए सम, जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है। इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहींं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पडऩा बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहींं है। इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमेंं जोड़ती हैं।
सात इंद्रियां हैं। साधारणत: पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणत: उनकी बात नहींं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है। जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहींं था। कुछ, जिन्हें समझ मेंं और गहरी बात आई थी, उन्होंने छ: इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों मेंं विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं।
हमारे कान मेंं दो इंद्रियां हैं, एक नहींं। कान सुनता भी है, और कान मेंं वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान मेंं छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब सड़क पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण से नहींं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान मेंं दो इंद्रियों का निवास है।
छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था, वह है अंत:करण, हृदय। साधारणत: हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने मेंं एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहींं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है।
प्राचीन ग्रंथों में सात इंद्रियों का जिक्र है। ये सात इंद्रियां हमेंं बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमेंं से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है।
जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमेंं से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र मेंं कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य मेंं, माथे के बीच मेंं ध्यान को केंद्रित कर।
माथे के बीच मेंं जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, उसका नाम है, आज्ञा-चक्र। वह संकल्प का और इच्छाशक्ति का केंद्र है। जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन मेंं संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा-चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन-धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह ध्यान कर सकता है।
इस चक्र पर ध्यान करने से क्या होगा? एक बात और खयाल मेंं ले लें, तो समझ मेंं आ सकेगी। आपके घर मेंं आग लग गई हो। अभी कोई खबर देने आ जाए कि घर मेंं आग लग गई। आप भागेंगे। रास्ते पर कोई नमस्कार करेगा, आपकी आंख बराबर देखेगी, फिर भी, फिर भी आप नहींं देख पाएंगे। और कल वह आदमी मिलेगा और कहेगा कि कल क्या हो गया था, बदहवास भागे जाते थे? नमस्कार की, उत्तर भी न दिया! आप कहेंगे, मुझे कुछ होश नहींं। मैं देख नहींं पाया। वह आदमी कहेगा, आंख आपकी बिलकुल मुझे देख रही थी। मैं बिलकुल आंख के सामने था। आप कहेंगे, जरूर आप आंख के सामने रहे होंगे। लेकिन मेरा ध्यान आंख पर नहींं था। शरीर की भी वही इंद्रिय काम करती है, जिस पर ध्यान हो, नहींं तो काम नहींं करती। शरीर की इंद्रियों को भी सक्रिय करना हो, तो ध्यान से ही सक्रिय होती हैं वे, अन्यथा सक्रिय नहींं होतीं। आंख तभी देखती है, जब भीतर ध्यान आंख से जुड़ता है, अटेंशन आंख से जुड़ती है। कान तभी सुनते हैं, जब ध्यान कान से जुड़ता है। शरीर की इंद्रियां भी ध्यान के बिना चेतना तक खबर नहींं पहुंचा पातीं। ठीक ऐसे ही भीतर के जो सात चक्र हैं, वे भी तभी सक्रिय होते हैं, जब ध्यान उनसे जुड़ता है।
संकल्प का चक्र है आज्ञा। अर्जुन से वे कह रहे हैं, तू उस पर ध्यान कर। कर्मयोगी के लिए वही उचित है। कर्म का चक्र है वह, विराट ऊर्जा का, उस पर तू ध्यान कर। लेकिन ध्यान तभी घटित होगा, जब बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास सम स्थिति मेंं हों।
आपको खयाल मेंं नहींं होगा कि सम स्थिति कब होती है। आपको पता होता है कि श्वास भीतर गई, तो आपको पता होता है। श्वास बाहर गई, तो आपको पता होता है। लेकिन एक क्षण ऐसा आता है, जब श्वास भीतर होती है, बाहर नहींं जा रही, एक रुका हुआ क्षण। एक क्षण ऐसा भी होता है, जब श्वास बाहर चली गई और अभी भीतर नहींं आ रही, एक छोटा-सा अंतराल। उस अंतराल मेंं चेतना बिलकुल ठहरी हुई होती है। उसी अंतराल मेंं अगर ध्यान ठीक से किया गया, तो आज्ञा-चक्र शुरू हो जाता है, सक्रिय हो जाता है।
और जब ऊर्जा आज्ञा-चक्र को सक्रिय कर दे, तो आज्ञा-चक्र की हालत वैसी हो जाती है, जैसे कभी आपने सूर्यमुखी के फूल देखे हों सुबह, सूरज नहींं निकला, लटके रहते हैं जमीन की तरफ, उदास, मुर्झाए हुए, पंखुडिय़ां बंद, जमीन की तरफ लटके हुए। फिर सूर्य निकला और सूर्यमुखी का फूल उठना शुरू हुआ, खिलना शुरू हुआ, पंखुडिय़ां फैलने लगीं, मुस्कुराहट छा गई, नृत्य फूल पर आ गया। रौनक, ताजगी। फूल जैसे जिंदा हो गया, उठकर खड़ा हो गया।
जिस चक्र पर ध्यान नहींं है, वह चक्र उलटे फूल की तरह मुर्झाया हुआ पड़ा रहता है। जैसे ही ध्यान आता है, जैसे सूर्य ने फूल पर चमत्कार किया हो, ऐसे ही ध्यान की किरणें चक्र के फूल को ऊपर उठा देती हैं। और एक बार किसी चक्र का फूल ऊपर उठ जाए, तो आपके जीवन मेंं एक नई इंद्रिय सक्रिय हो गई। आपने भीतर की दुनिया से संबंध जोडऩा शुरू कर दिया।
अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने मेंं आसानी होगी। जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही, जैसा कि क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा-चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहींं होगा कि आज्ञा-चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहींं है, वह किसी चीज को अपने मेंं समा सकता है, हमला नहींं कर सकता, जैसे कि स्त्रियां। स्त्री का पूरा बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है। उसे गर्भ ग्रहण करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने मेंं समाकर और बड़ी करनी है। इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो यह एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहींं होगी और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान-रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमेंं पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी।
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था है ध्यान करने के लिए। अर्जुन के लिए इसलिए कृष्ण ने यह सूत्र को कहा।
और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती है, न बाहर, न भीतर, बीच मेंं ठहरी होती है। न तो आप ले रहे होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहींं होती, ठहरी होती है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत मेंं होते हैं, जैसी हालत मेंं मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत मेंं जन्म के समय होते हैं।
अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच मेंं न्यूट्रल गियर है, जहां सम है, जहां न भीतर, न बाहर, न अस्तित्व है जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण मेंं आपका रूपांतरण होता है।
इसलिए कृष्ण दो बातों पर जोर देते हैं, श्वास हो सम अर्जुन, और ध्यान तेरा भू-मध्य पर, आज्ञा-चक्र पर हो, तो फूल ऊपर उठ जाएगा, चक्र खुल जाएगा। और जैसे ही वह चक्र खुलेगा, वैसे ही तू अचानक पाएगा कि वह सारी शक्ति जो पहले काम बनती थी, क्रोध बनती थी, वह सारी की सारी शक्ति आज्ञा-चक्र पी गया। वह सारी शक्ति संकल्प बन गई।
इसलिए ध्यान रखें, अगर आप बहुत क्रोधी हैं या बहुत कामी हैं, तो एक लिहाज से दुर्भाग्य है, लेकिन एक लिहाज से सौभाग्य भी है। क्योंकि इस जगत मेंं जो बहुत कामी हैं और बहुत क्रोधी हैं, वे ही बड़े संकल्पवान हो सकते हैं। दुर्भाग्य है कि काम और क्रोध आपको परेशान करेंगे। सौभाग्य है कि अगर आप ध्यान कर लें, तो आपके पास जितना संकल्प होगा, उतना उन लोगों के पास नहींं होगा, जिनके पास न काम है, न क्रोध है।
इसलिए इस जगत मेंं जिन लोगों ने बहुत महान शक्ति पाई, वे वे ही लोग हैं, जो बहुत कामी थे। यह बहुत हैरानी की बात है। इस जगत मेंं जो लोग बहुत महान ऊर्जा को उपलब्ध हुए, वे वे ही लोग हैं, जो अतिकामी थे। साधारण रूप से कामी नहींं थे, बहुत कामी थे। लेकिन जब शक्ति बदली, तो यही बड़ी शक्ति जो काम मेंं प्रकट होती थी, संकल्प बन गई।
अर्जुन अगर रूपांतरित हो जाए, तो जैसा महाक्षत्रिय है वह बाहर के जगत मेंं, ऐसा ही भीतर के जगत मेंं महावीर हो जाएगा। इतनी ही ऊर्जा जो क्रोध और काम मेंं बहती है, संकल्प को मिल जाए, तो संकल्प महान होगा।
इस जगत मेंं वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं, इस जगत मेंं अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति पास मेंं है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ मेंं है। काम-क्रोध बिलकुल न हो, तो बहुत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पास मेंं नहींं है, रूपांतरित क्या होगा!
इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे वह आपके खयाल मेंं आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी। यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा। शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग मेंं उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल मेंं आ सकता है।


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