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Tuesday 19 May 2015

जानें कैसा होगा आपका लाइफ पार्टनर



हर लड़की की इच्छा होती है कि उसका होने वाला पति अमीर हो, आकर्षक हो और प्यार करने वाला हो। हर युवक की इच्छा वाइफ के मामले में होती है कि वह सुंदर हो, पढ़ी-लिखी हो, घर-परिवार को लेकर चलने वाली हो। आइए जानते हैं कुछ ऐसे प्लेनेट कॉम्बिनेशन ‍जो बताते हैं कि कैसा होगा आपका लाइफ पार्टनर :

- यदि मेष लग्न हो और सातवें भाव में शुक्र हुआ तो लाइफ पार्टनर सुंदर होगा, वहीं वह फाइनेंशियली साउंड भी होगा।

- वृषभ लग्न हो और सप्तम भाव में मंगल हो व चंद्र लग्न में हो तो वह जीवनसाथी उग्र स्वभाव का होगा लेकिन धन के मामलों में सौभाग्यशाली होगा।

- मिथुन लग्न हो और सप्तम भाव का मालिक भी सातवें भाव में ही बैठा हो तो ऐसी पत्रिका ‍जिसकी होगी वह ज्ञानी, न्यायप्रिय, मधुरभाषी, परोपकारी, धर्म-कर्म को मानने वाला या वाली होगी।

- कर्क लग्न वालों के लिए शनि सप्तम भाव में या सप्तमेश उच्च का होकर चतुर्थ भाव में हो तो वह साँवला या साँवली होगी, लेकिन जीवनसाथी सुंदर होगा या होगी व शनि उच्च का हुआ तो विवाह सुख उत्तम मिलेगा।

- सिंह लग्न हो और सप्तमेश सप्तम में हो या उच्च का हो तो वह साधारण रंग-रूप की होगी पर उसका पति या पत्नी पराक्रमी होगें लेकिन भाग्य में रुकावटें आएँगी।

- कन्या लग्न हो और सप्तम भाव में गुरु हो तो पति या पत्नी सुंदर मिलता है। स्नेही व उत्तम संतान सुख मिलेगा। ऐसी स्थिति वाला प्रोफेसर, जज, गजेटेट ऑफिसर भी हो सकता है। लाइफ पार्टनर सम्माननीय होगा।

- तुला लग्न हो और सप्तम भाव में मेष का मंगल हो तो वह उग्र स्वभाव, साहसिक, परिवार से अलग रहने वाली होगा। लाइफ पार्टनर की पारिवारिक स्थिति मध्यम होगी व नौकरी या व्यापार में बाधा होगी।

- वृश्चिक लग्न हो और सप्तम भाव में शुक्र हो तो स्वराशि का होने से उसे सुसराल से धन मिलेगा। पति पत्नी से लाभ पाने वाला और पत्नी पति से लाभ पाने वाली होगी।

- धनु लग्न हो और सप्तम भाव में बुध हो तो लाइफ पार्टनर समझदार, विद्वान, विवेकी, पढ़ी-लिखा होगा। अगर पत्रिका लड़के की है तो लड़की सर्विस में हो सकती है।

- मकर लग्न हो और चंद्रमा सप्तम भाव में हो तो ऐसा युवा सुंदर, सॉफ्ट स्पोकन, शांतिप्रिय होगा। लाइफ पार्टनर बेहद खूबसूरत होगा।

- कुंभ लग्न हो और सप्तम भाव में सूर्य हो तो वह साहसिक, महत्वाकांक्षी, तेजस्वी स्वभाव की होगी व हुकूमत करने वाली होगी। परिवार से भी अलग हो सकती है।

- मीन लग्न हो और सप्तम में उच्च का बुध हो तो वह युवा प्रतिष्ठित होगा, ऐसी प्लेनेट कंडीशन वाली वाली युवती पढ़ी-लिखी, समझदार, माता-पिता, भूमि-भवन से लाभ पाने वाली होगी। परिवार में सम्माननीय होगी।

यदि इन प्लेनेट कॉम्बिनेशन पर अशुभ प्रभाव हुआ तो फल में परिवर्तन आ सकता है। उसी प्रकार अन्य ग्रहों की स्थिति भी देखी जानी चाहिए। उसी प्रकार सप्तमेश सप्तम में ही हो, लेकिन वक्री या अस्त हो तब भी फल में अंतर आ जाएगा।

ज्योतिष में अंगूठे का महत्व

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एस्ट्रोलॉजी या पॉमेस्ट्री में जहाँ रेखाओं का महत्व होता है, वहीं अँगूठे का भी अपना अलग महत्व होता है। अँगूठे से उस व्यक्ति के नेचर और क्वॉलिटी के बारे में जाना जा सकता है। इसका सीधा संबंध मस्तिष्क से होता है। अँगूठे को देखकर व्यक्ति के विचारों को भी जाना जा सकता है। 



एक्सपर्ट्स के अनुसार यदि चारों अँगुलियाँ कट भी जाएँ तो इतना नुकसान नहीं होता, जितना अकेला अँगूठा कट जाने पर। कभी-कभी अधिक रक्त स्त्राव के कारण मौत भी हो सकती है या पागल भी हो सकता है। 

लम्बे अँगूठे वाले व्यक्ति प्रोग्रेसिव विचारों वाले होते हैं। इसके विपरीत छोटे अँगूठे वाला व्यक्ति अविकसित पर्सनेलिटी का परिचायक होता है। लम्बे अँगूठे वाले व्यक्ति प्रैक्टिकल अप्रोच वाले आत्मविश्वास से भरपूर होते हैं। ये लोग निर्णय इमोशनल न होकर अपनी विवेकशीलता के साथ करते हैं। लम्बे अँगूठे के साथ लम्बी अँगुलियाँ फैली हुई हो तो वह व्यक्ति मैथ्स सबजेक्ट में पारंगत होता है। ऐसे लोग इंजीनियर या शिल्पी भी हो सकते हैं।

जिनके अँगूठे छोटे होते हैं, उनकी भावनाएँ और प्रतिक्रियाएँ आप आसानी से जान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति अधिकतर आर्टिस्टिक होते हैं। अत्यन्त छोटा अँगूठा ठिगने व्यक्ति को छोड़कर हो तो वह अच्छे वक्ता के लक्षण उत्पन्न कर देता है। ऐसे व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति के भी हो सकते हैं। 

अपनी सामान्य स्थिति से अधिक ऊपर जुड़े हुए अँगूठे व्यक्तियों के अज्ञान और मूर्खता की निशानी होते हैं। यदि अँगूठा कलाई के पास से शुभ हो तो व्यक्ति में मानवीय गुण अधिक पाए जाते हैं। तर्जनी और अँगूठे में जितनी दूरी होती है व्यक्ति उतना ही अधिक विशाल ह्रदय और गुणों से भरपूर होता है। 

लचीला और पीछे की तरफ सहज मुड़ने वाला हो तो ऐसा व्यक्ति अपने आपको ढालने में प्रवीण होता है। इन लोगों में सामाजिक आवश्यकताओं को समझने की शक्ति होती है। यदि किसी का अँगूठा सख्त हो तो उस व्यक्ति के लक्षण ठीक लचीले अँगूठे वाले के विपरीत होते हैं। 

ऐसे व्यक्ति की इच्छा शक्ति दृढ़ होती है, लेकिन संदेहशील होने के कारण मित्र नहीं बना पाते, यदि हो तो जल्दी मित्रता खत्म कर लेते हैं। ऐसे लोग आर्थिक मामलों में सफल होते हैं।

क्या है शक्ति



सारा आस्तिक जगत यह स्वीकार करता है कि अवश्य किसी सार्वभौम अलक्ष्य सत्ता कोई महामहती शक्ति इस प्रपन्च में सब कार्यों को चला रही है। जिस समय हम घट घट आदि भेदों की उपेक्षा कर इस प्रपंच पर द्रिष्टि डालते है तो हमारे ह्रदय में इस जगत का एक भावापन्न अगाध अप्रमेय स्वरूप अंकित हो जाता है। जल कणों से ही जल बनता है,सहस्त्रश: एक भावापन्न जल कणों को ही जल कहा जाता है,और ऐसे ऐसे कोटिश: जल जब एकत्रित होते है तब हम उसे समुद्र कहते है। उस समय यह एकभावापन्न जलराशि मनुष्य के लिये अगाध अप्रमेय अचिन्त्य जैसी हो जाती है। यही तुलना जगत की है,अनन्त भेद का नाम जगत या प्रपंच है जिसका फ़िर टुकडा न हो सके,इस प्रकार के अनन्त टुकडों से और भेदों से यह सारा प्रपंच बना है। और तब यह अगाध अनन्त अप्रमेय और अचिन्त्य जैसा हो गया है। इतना दुर्बोध रहते भी हम यह तो देख ही रहे है कि प्रत्येक पल में इस अगाध अचिन्त्य विश्व का भी प्रत्येक लघु अवयव अपने एक रूप को छोड कर दूसरे विचित्र रूप को धारण करता रहता है। यह गति रोकने से रुकती नही है। कभी कभी तो यह हाल होता है कि विश्व की किसी छोटी से छोटी गति को भी रोकने वाला स्वयं उस गति के प्रवाह में बहने लगता है,इस विश्व की गति को कोई समझकर भी नही समझ पाता। कोई कोई सुनकर देखकर भी नही समझने पाते। यह सारा जगत किसी चतुष्पात यानी चारो तरफ़ समान निवास करने वाले महाशक्तिमान का एक चरण भाग है,"पादोऽस्य विश्वा भूतानि"। जिसके मान लिये हुये एक तुकडे का भी जब बडे बडे बुद्धिमान लोग जैसे शिव सनकादि पता नही पा सकते,तब फ़िर उस सर्वांशी सर्वेशान सर्वश्य वशी सच्चिदानन्द भगवान का पता अल्पाल्पज्ञ जीव कैसे पा सकता है। हमारी शक्ति भी उतने ही नाप तौल की होती है जितने हम होते है,इस उदाहरण से ही यदि काम लें तो कह सकते है कि उस विश्वातीत सर्वेश्वर भगवान की शक्ति भी वैसी है जैसा वह है। वह विश्वातीत है तो यह भी अप्रमेया है,वह सर्वेश्वर है तो यह भी सर्वेश्वरी है,वह सब को वश में कर लेने वाला है,तो यह भी विश्वमोहिनी है,यदि उनकी महिमा मन वचनों से अतीत है तो फ़िर भगवती की भी लीला अपरम्पार है। ऐसी दशा में हम उस अचिन्त्य शक्तिमान और उसकी शक्ति को,जो दोनो मिलकर इस अचिन्त्य जगत को चला रहे है,कैसे और किस रूप में दुनिया के आगे प्रकाशित करें। हमारी सामर्थ्य नही है,चलो छुट्टी मिली सोना चाहते ही थे बिछौना मिल गया। किन्तु यह हमारा कल्याण हमें चैन से बैठने नहीं देता। यह हमारे ह्रदय में बैठा बैठा ही साल में एक बार तो हमें उठा ही देता है,कहता है कब तक औंघते रहोगे,एक दिन तो चलना ही है,इस धर्मशाला में कितने दिन सो सकोगे,और कहीं ठिकाना नही हो तो फ़िर कल्याण के घर ही चलकर चलकर सो जाओ,वहाँ अगर जाकर सो गये तो फ़िर कोई जगाने वाला नही है। तो क्या जबरदस्ती कल्याण के घर चलना होता? अच्छी बात है,हम तो ऐसे पोस्ती है कि - "अनाहूता न यास्यामो गृहे मृत्योर्हररपि"। किन्तु मेरे मित्र कल्याण ! तुम्हारे घर का का तो हमें पता ही नही,कैसे पहुंचेंगे ? कया कहा ? यह लकडी थाम लो ? इसके सहारे फुंच जाओगे ! बहुत से अंधे आज भी अपना काम चला रहे हैं। अंधों की लकडी है। लकडी के द्वारा वे अपने घर का मार्ग तै कर लेते है। "सर्वस्य लोचनं शास्त्रम" - अज्ञानियों को अपना ध्येय प्राप्त करने के लिये नेत्र शास्त्र ही है। उस परात्पर भगवान की शक्ति का निरूपण करने के लिये शास्त्र ही नेत्र ज्योति है,हमे उसके लिये शास्त्र ही शरण हैं।

शक्ति का स्वरूप----

भगवान की शक्ति भगवान से पृथक नही है। वह भी भगवान ही है,ये सच्चिदानन्द भगवान जिस समय (सृष्टि के पूर्व) तिरोहितधर्म सुप्त-शक्ति अतएव अन्त:क्रीड व्यापक रहते है उस समय उनकी यह शक्ति-महारानी भी उनके स्वरूप में मिली हुयी जागती हुयी भी सोती रहती है। एक और व्यापक रहती है,और जब वे भगवान जगत-रूप से अनन्त रूप धारण करते है तब यह शक्ति-महारानी भी अपने अनन्त रूप बना लेती हैं। भगवान ने जगत रूप अपनी क्रीडा के व्यवहारों को यथावस्थित चलाने के लिये विरुद्धाविरुद्ध अनेक रूप धारण किये है,तो शक्ति भी इसी प्रकार से विरुद्धाविरुद्ध विविध प्रकार से प्रकत हुयी। अतएव भगवान के अनन्त रूप है,तो उनकी शक्तियां भी अनन्त हैं। उनमें विरुद्ध शक्तियां भी सप्रयोजन है,जिस कार्य की अपेक्षा है उसको करने के लिये तदनुकूल शक्ति का भी निर्माण किया गया है। विरुद्ध शक्ति के प्रादुर्भाव से कार्य को अनुकूल कर लिया जाता है,जड को किंवा चेतन जब किसी पदार्थ की किसी दूसरे पदार्थ में अति आशक्ति होकर क्रीडा होने लगती है,और इस क्रीडा से दोष होने की सम्भावना होने लगती है,किंवा दोष उत्पन्न होते है तब भगवान उसी समय उससे विरुद्ध शक्ति को उत्पन्न कर उन आते हुये दोषों को दूर कर पदार्थों का समीकरण करते रहते हैं। इस तरह वे कर्मज कालज और स्वभावज दोषों का निवर्तन करते हैं। और मोहिनी माया से आते हुये दोषों को अपनी चिच्छाशक्ति से दूर करते हैं। देश दोष तो भगवान में आ ही नही सकता है। क्योंकि भगवान अपने आत्मा में ही सर्वदा निवास करते हैं। यह अक्षर ब्रह्मरूप भगवदात्मा सर्व धर्मों से अस्पृष्ट ही रहता है,इस तरह भगवान सर्वजगत रूप रहने पर भी उच्चावच सर्व प्रकार की लीलाओं को काते रहने पर भी अपने स्वरूप में- लीला में पांचों प्रकार के दोषों का सम्बन्ध न होने देने के लिये विविध अनन्त शक्तियों का आविर्भाव करते हैं। इन अनन्त शक्तियों में तीन शक्तियां प्रधान है। सर्वभवनसामर्थ्य,मोहिनी और क्रिया। ये प्रधान किंवा अप्रधान सब प्रकार की शक्तियां शास्त्रों माया शब्द से कही गयी है,अतएव कभी कभी विद्वानों को भी माया का अर्थ समझने में भूल हो जाती है। वास्तव में देखा जाय तो सर्वभवनसामर्थ्यरूप माया का ही सब खेल है,सारा जगत जड या चेतन सब का सब इस सर्वभनसामर्थरूप माया के द्वारा ही बनाया गया है। इसे एक मशीन की तरह से समझिये। सुनारों के पास जो एक ढालने का सांचा होता है,वे लोग सांचे का स्पर्श करके अनेक पदार्थ तैयार कर लेते हैं। सुवर्ण भी उस सांचे का स्पर्श पाकर अनेक रूपों में प्रकट हो जाता है। इसी प्रकार भगवान भी उस सर्वभवनसामर्थ्य (सबकुछ होने की ताकत) रूप अपनी माया शक्ति का स्पर्श कर जब प्रकट होता है तब उस भगवान को ही अल्पबुद्धि लोग जगत कहने लगते है। और कितने ही उसे भगवान से अलग समझते है। सबसे बडी यह शक्ति है। उत्कर्ष-अपकर्ष समता-विषमता भला-बुरा सत्य-असत्य जो कुछ दिखाई देता है,वह सब कुछ इसी माया महाशक्ति का ही सामर्थ्य है। माया के सहारे सृष्टि का निर्माण होना यह पौराणवर्णन है,श्रौत नही। श्रुति में तो माया के स्पर्श बिना ही भगवान अपने आप को जगत रूप में प्रकाशित करता है-"स आत्मानँस्वयमकुरुत",और श्रीमद्भागवतादि पुराणों में तो इस प्रकार वर्णन है- "स एवेदं ससर्जाग्रे भगवानात्ममायया। दसद्रूपया चासौ गुणमयागुणो विभु:"। सबसे पहले इस सर्वसमर्थ भगवान ने अपनी उच्च नीच स्वरूपा अतएव गुनम्यी मायाशक्ति से इस जगत को पैदा किया। भगवान निर्दोष और अप्राकृत अनन्त गुण वाले है,अतएव अपने स्पर्श से उसे गुणमयी और तत्तादृश आकृतिवाली बना देते है,भगवान के स्पर्श से ही वह बुनमयी हुयी और अब वह जगत की प्रक्रुति (अवानतरमूल) हुयी,अतएव उसमें आने के बाद वे गुण प्राकृत कहलाने लगे। स्पर्श परस्पर होता है,जैसे भगवान का स्वर्श माया को हुआ,इसी प्रकार माया का स्पर्श भगवान को भी हुआ ही। किन्तु भगवदगुण तो माया में आये,पर भगवान में माया के गुण नहीं आये। भगवान तो निर्गुण के निर्गुण ही रहे। इसीलिये मूल में ’विभु:’ पद दिया गया है। भगवान में वैसी सामर्थ्य है। कमलपत्रों में ही सामर्थ्य है कि वह जल का स्पर्श होने पर भी उससे निर्लेप रहे,लेकिन जल उसके गुण यानी सुगन्ध को ले जाये। इसी प्रकार भगवान भी उस अपनी माया शक्ति में प्रवेश करते हैं। अपने सच्चिदानन्दादि गुणों को माया में से होकर निकालते है,तथापि उसके धर्म भगवान का अभिभव नही कर सकते। यह भगवान का विभुत्व है।

मूलांक से जाने अपना कैरिअर

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मूलांक यानी आपकी डेट ऑफ बर्थ या जन्मदिन। यदि होरोस्कोप न हो तो केवल इसके द्वारा भी आप अपनी वर्किंग फील्ड के बारे में जान सकते है और मनचाही सफलता हासिल कर सकते हैं-----

* यदि आप मूलांक 1 को रिप्रेजेंट करते है तो आपको डिजाइनर, टीम लीडर, फिल्म मेकिंग या नवीन इन्वेंशन के क्षेत्र में जाना चाहिए।

* यदि आपका मूलांक 2 है तो आपको किसी भी रचनात्मक काम को करना चाहिए जैसे डाँसिंग, राइटिंग, पोएट्री या रिसर्च के कार्य कर सकते हैं।

* यदि आपका मूलांक 3 है तो आपके लिए एक्टिंग, टीचिंग, जर्नलिज्म, काउंसलिंग आदि बेहतर ऑप्शन है।

* यदि आपका मूलांक 4 है तो आपको इंजीनियर, बिल्डर, प्रोग्रामर, मशीनों से रिलेटेड काम करना चाहिए।

* यदि आपका मूलांक 5 है तो आपको प्रकाशन, विज्ञापन,लेखन आदि क्षेत्र में काम करना चाहिए।

* यदि आप मूलांक 6 को रिप्रेजेंट करते है तो आप सोशल वर्क, मेडिकल, आयुर्वेद,कुकिंग आदि फील्ड में काम कर सकते हैं।

* यदि आपका मूलांक 7 है तो आपको वैज्ञानिक, दार्शनिक, जासूस, मिस्ट्री नॉवेल राइटर होना चाहिए।

* यदि आपका मूलांक 8 है तो आपको बैंकिंग, मैनेजर, किसी संस्था का डायरेक्टर या मशीनों का काम करना चाहिए।

* यदि आपका मूलांक 9 है तो आप खिलाड़ी, फिजिशियन, वकील,सैनिक आदि हो सकते हैं।

बेहतर होगा कि आप अपने मूलांक को सूट करता हुआ करियर चुने। यदि ऐसा न कर पाए तो मेहनत बहुत अधिक करनी होगी, तभी सफलता मिल पाएगी।

शास्त्रों में गरु पुष्य नक्षत्र का महत्व

शास्त्रों में गुरु पुष्य नक्षत्र के लिए चित्र परिणाम

गुरु-पुष्य नक्षत्र का महत्व शास्त्रों में सबसे अधिक है । इस समय में किया गया दान और पुण्य कई गुना अधिक फल देता है। आइए देखे विभिन्न मूलांक वाले लोगों को इस शुभ योग में क्या खरीदना चाहिए और क्या दान करना चाहिए। विशेषकर तब जब हमारे युवा इस दिन किसी परीक्षा या इंटरव्यू के लिए जाना चाहते हो।

* मूलांक 1 : सूर्य का अंक है. सूर्य अभी मेष में उच्च के है। अतः ये जातक सफेद और नारंगी वस्त्र पहने, इन्हीं रंगों की वस्तुओं का दान करे और माणिक रत्न पहने।

* मूलांक 2 : यह चन्द्र का अंक है। चन्द्र इस दिन कर्क राशि में है। अतः ये जातक सफेद ड्रेस पहने, चावल का और दूध का दान करे और मोती रत्न धारण करें।

* मूलांक 3 : यह गुरु का अंक है। गुरु अभी कुंभ में है अतः इन जातकों को पुखराज या सुनहला धारण करना चाहिए, हल्के पीले वस्त्र पहने और चने की दाल और गुड का दान करना चाहिए।

मूलांक 4 : यह राहू का अंक है। राहू अभी धनु में मैं है अतः इन जातकों को गहरे रंग के वस्त्रों से बचना चाहिए, गहरे नीले वस्त्र का दान करना चाहिए और राहू की जडी धारण करना चाहिए।

* मूलांक 5 : यह बुध का अंक है और बुध अभी सूर्य के साथ है। अत: इन जातकों को हरे वस्त्र धारण करना चाहिए, गाय को चारा खिलाना चाहिए और पन्ना पहनने के लिए भी यह दिन शुभ है।

* मूलांक 6 : यह शुक्र का अंक है। शुक्र अभी अपनी राशि वृषभ में है अतः इन जाताकों को सफ़ेद ड्रेस पहननी चाहिए, साबूदाना दान करना चाहिए और हीरा धारण करना चाहिए।

* मूलांक 7 : यह केतु का अंक है। केतु अभी मिथुन में है। स्लेटी और काले वस्त्र न पहने, हलके रंगों का प्रयोग करे। केतु की जडी धारण करे और कुत्ते को मीठी रोटी खिलाएँ।

* मूलांक 8 : यह शनि का अंक है। शनि अभी कन्या में है अतः इन जातकों को गहरे रंगों से बचना चाहिए, काली वस्तुओं का व तेल का दान करना चाहिए। नौकरों को कुछ खाद्य सामग्री दान दें।

* मूलांक 9 : यह मंगल का अंक है। मंगल अभी कर्क में नीच के है। अतः इन जातकों को लाल रंग का प्रयोग करना चाहिए, मूंगा पहन सकते हैं और चुकंदर, मसूर की दाल का दान करें। रक्त दान भी बेहतर उपाय है।

विशेष : अपने मूलांक के अनुसार इष्ट का ध्यान करना और दान करना सफलता के प्रतिशत को निश्चित ही बढ़ाएगा।
ज्योतिष शास्त्र में ग्रह, नक्षत्र, वार, करण, तिथि, मास आदि अनेक महत्त्वपूर्ण घटक हैं जो अपने प्रभाव व युति के कारण शुभ व अशुभ समय का निर्माण करते हैं। जिसके कारण मानव इच्छित कार्यों में उच्च सफलता प्राप्त करता है। चाहे वह जीवन का कोई भी क्षेत्र हो।

गुरुवार के दिन यदि पुष्य नक्षत्र हो वह बहुत ही शुभ होता है। इस दिन व नक्षत्र के योग से गुरु पुष्य योग का निर्माण होता है, जो अत्यन्त शुभ व किसी कार्य में 99.5 प्रतिशत सफलता दिलाने वाला कहा गया है।

'गुरू' ग्रह ज्ञान व सफलता का प्रतीक है इसलिए इस योग में उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, कला, साहित्य, नाट्य, वाद्य या किसी विषय में शोध प्रारम्भ करना, शैक्षणिक व आध्यात्मिक गुरु चुनना, तंत्र, मंत्र व दीक्षा लेना, विदेश यात्रा, व्यापार, धार्मिक कार्यों का आयोजन आदि कार्य करना शुभ होता है।

किन्तु मुहूर्त की सूक्ष्मता पर इसमें विचार किया जाए तो इस दिन बनने वाले योग में भी चंद्रबल, तारा बल, गुरु-शुक्रादि ग्रहों का उदय-अस्त, ग्रहणकाल, पितृपक्ष व अधिक मास आदि तथ्यों का भी विचार किया जाता है। इसलिए नूतन गृह निर्माण व प्रवेश तथा विवाह आदि कार्यों में सभी तथ्यों पर विचार कर ही करना लाभकारी रहेगा।

इस गुरु-पुष्य नक्षत्र अर्थात्‌ जिन जातकों की कुण्डली में गुरु प्रतिकूल है या उच्च का होकर भी प्रभावहीन है अर्थात्‌ अपना फल नहीं दे रहा उन्हें इस अवसर पर पीले रंग की दालें, हल्दी, सोना, आदि वस्तुओं दान देना चाहिए।

इसके अतिरिक्त कोई भी जातक इस दिन अपने कल्याण हेतु व गुरु की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए धर्मस्थलों में या गरीबों को विविध प्रकार की खाद्य सामग्री, वस्त्रादि भेंट कर सकते हैं। कोई धार्मिक अनुष्ठान जैसे भगवान विष्णु व उनके अवतारों की पूजा-पाठ हवनादि कर ब्राह्मणों को प्रसन्न कर अपने सौभाग्य में वृद्धि सकते हैं।

दुर्भाग्य व दरिद्रता का नाश करने वाला, मनोवांछित फल देने वाला तथा धार्मिक कार्यों को संपन्न करने वाला, यह गुरु-पुष्य योग अत्यधिक पवित्र एवं शुभ है।
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गुरु-पुष्य अत्यंत ही शुभ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन खरीदी गई वस्तु के साथ लक्ष्मी, सुख, सौभाग्य, समृद्धि और हर्ष लेकर आती है। इस पवित्र संयोग को विष्णु-लक्ष्मी का विशेष आशीर्वाद प्राप्त है। इस योग में सारा दिन मंगलकारी रहता है लेकिन फिर भी शुभ मुहूर्त देखकर ही वस्तुएँ खरीदी जाएँ तो अत्यंत शुभ फल की प्राप्ति होती है। प्रश्न यह उठता है कि इस मुहूर्त में खरीदा क्या जाए? प्रस्तुत है, राशियों के अनुसार विशेष जानकारी :

मेष : इस राशि का स्वामी मंगल है। यह पराक्रम का कारक है। इस राशि वालों को अपने लिए रत्न मूँगा खरीदना शुभ रहता है। मेष राशि वाले लाल रत्नों के गहने भी खरीद सकते हैं। सामर्थ्य अनुसार लाल रंग की वस्तुएँ भी खरीदी जा सकती है। गुरु के शुभ संयोग के कारण साथ में पीले फूल अवश्य खरीदें और नृसिंह भगवान को चढ़ाएँ।

वृषभ : इस राशि का स्वामी शुक्र है। यह सौन्दर्य, प्रेम और गुप्त भावनाओं का कारक है। अत: इस राशि वालों को शुभ मुहूर्त में हीरा अवश्य खरीदना चाहिए। हीरा खरीदने के साथ ही धारण भी इसी दिन करें। अगर हीरा (डायमंड) खरीदने की क्षमता नहीं हो तो चमकते सफेद रंग, सिल्वर कलर के परिधान खरीदना अत्यंत मंगलकारी होगा। ‍गुरु के शुभ संयोग के कारण साथ में मौसमी पीले फल खरीदें और जिस हाथ में हीरा धारण किया है उस हाथ से गुरु को भेंट करें।

मिथुन : इस राशि का स्वामी बुध है। यह वाणी का कारक है। इस राशि वालों को इस दिन शैक्षणिक सामग्री खरीदना चाहिए। क्षमता हो तो पन्ना रत्न खरीद कर धारण करें। अगर नहीं खरीद सकते हैं तो हरे रंग से मुद्रित दुर्गा चालीसा के पाँच छोटे संस्करणों का देवी मंदिर में वितरण करें। गुरु के शुभ संयोग की वजह से पीली ध्वजा सजाकर मंदिर में अर्पित करें।

कर्क : इस राशि का स्वामी चन्द्र है। यह मन का कारक है। इस राशि वालों को मोती के आभूषण अवश्य खरीदना चाहिए। हो सके तो सफेद फूल शिव मंदिर में चढ़ाएँ। इस दिन घर के किसी बुजुर्ग को सफेद रंग की मिठाई खिलाएँ। वाहन खरीदना हो तो कर्क राशि वालों के लिए इससे बेहतर कोई मुहूर्त नहीं है। गुरु के शुभ संयोग में पीले रंग का एक रूमाल खरीदना भी लाभकारी होगा।

सिंह : इस राशि का स्वामी सूर्य है। यह आत्मा का कारक है। इस राशि वालों को स्वर्णाभूषण अवश्य खरीदना चाहिए। हो सके तो प्रात: सूर्य को मिश्री व कुँकू मिलाकर जल चढ़ाएँ। इस दिन मंगल मुहूर्त में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीद सकते हैं। विशेषकर फ्रिज या माइक्रोवेव। युवा वर्ग मोबाइल हैंडसेट बदलने पर विचार कर सकते हैं। गुरु के शुभ संयोग में संतरा खरीद कर गरीब बस्तियों में बाँटना अत्यंत प्रगतिकारक रहेगा।

कन्या : इस राशि का फल मिथुन राशि के अनुसार देखें।

तुला : इस राशि का फल वृषभ राशि के अनुसार देखें।

वृश्चिक : इस राशि का फल मेष राशि के अनुसार देखें।

धनु : इस राशि का स्वामी गुरु है। यह जीवन में शुभ कार्यों का कारक है। यह व्यक्तित्व में गंभीरता प्रदान करता है। इस राशि वालों को इस दिन पीले वस्त्र ही धारण करने चाहिए। पुखराज रत्न खरीदना चाहिए। हो सके तो आटे में हल्दी मिलाकर दीपक बनाएँ और हनुमान मंदिर में जलाएँ। मंदिर ना हो तो पीपल के पेड़ को बिना स्पर्श किए दीपक रखें। जीवन की बाधाएँ दूर होगी। इस दिन सोना, पीले परिधान, पीले फूल, पीले फल तथा पीली मिठाई खरीदें। गुरु के शुभ संयोग में केसर का तिलक लगाएँ तथा जुबान पर शुभ मुहूर्त में केसर रखें।

मकर : इस राशि का स्वामी शनि है। इस राशि वालों को तेल की बनी वस्तुएँ, मोटरबाइक, कार, रेफ्रिजरेटर, कूलर, एसी तथा मोबाइल जैसी हर इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ खरीदना मंगलकारी रहेगा। इस दिन हनुमान मंदिर में सिंदूर का चोला चढ़वाना विशेष फलदायक रहेगा। गुरु के शुभ संयोग के कारण मकर राशि वाले अपने गुरु को श्रीफल तथा पीले फूल भेंट करें। हो सके तो वृद्धाश्रम में पीले फल दान करें।

कुंभ : अगर क्षमता हो तो इस राशि वालों को शहर में प्याऊ खुलवाना चाहिए। यह आने वाले समय के लिए अत्यंत शुभ फलदायी रहेगा। अगर यह क्षमता नहीं हो तो मिट्टी के मटके, सुराही या पानी रखने के अन्य पात्र खरीद कर दान देना चाहिए। पक्षियों के लिए सकोरे लगवाना, पक्षियों को पीला अनाज चुगवाना भी फलदायक रहेगा। नीलम रत्न खरीदना शुभ होगा लेकिन नीलम संभव नहीं हो तो ब्लू टोपाज अवश्य खरीदें।

मीन : इस राशि का फल धनु राशि के अनुसार देखें।

Monday 18 May 2015

जानिये आज 18/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से "शनि जयंति "





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जानिये आज के सवाल जवाब(1) 18/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से







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जानिये आज का राशिफल 18/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से





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जानिये आज का पंचांग 18/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से





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कुंडली में शनि ग्रह क्या है जानें

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अक्सर लोग शनि ग्रह का नाम सुनते ही डर जाते हैं, या फिर अगर किसी को कह दिया जाए कि उसकी कुंडली में शनि की साढे साती या ढैय्या चल रही है... तो उसकी हालत खराब दिखाई देती है.... ऐसे में शनि ग्रह से प्रभावित लोगों को डरने की जरुरत नहीं.... अगर आपकी कुंडली में सम्सया है तो उसका समाधान भी साथ ही मौजूद हैं... जरुरत है तो किसी विद्वान ज्योतिषी से सही सलाह लेकर उसके उपाय करने की.... यूं तो शनि ग्रह अच्छे बुरे कर्मों का फल देने वाला देवता है... और इसके प्रभाव से देवता तक नही बचे.... लेकिन जब शनि प्रस्न्न हो तो रंक को राजा बना देता है, इसी के विपरीत अगर शनिदेव रुष्ट हो जाएं तो राजा भी रंक हो जाते हैं.... कुंडली में शुभ स्थिति में बैठा शनि बडे बडे कारखानो या वाहनों का मालिक बना देता है.... शनिदेव जितना जल्दी नाराज होने वाले देवता हैं तो उनकी पूजा अर्चना करने वाले पर शनिदेव जल्द ही प्रसन्न हो जाते हैं...

नवग्रहों के मध्य शनि पृथ्वी से सबसे ज्यादा दूरी पर स्थित है... शनि एक राशि पर ढाई साल तक भ्रमण करता है... परंतु शनि का संपूर्ण राशि चक्र का भ्रमण 29 साल 5 महीने 17 दिन और पांच घंटे में तय होता है.. गोचर वश शनि जब किसी राशि में प्रवेश करता है तो अपने से बारहवी राशि में ढाई साल कष्टकारी होता है... दूसरी एवं बारहवीं राशि पर लगभग साढे सात सालों तक शनि के कारण प्रभावित चक्र प्रक्रिया को शनि की साढे साती कहते हैं... शनि की साढे साती के प्रभाव से जातक को शारिरिक कष्ट, मानसिक तनाव, ग्रह क्लेश, धन संबंधी हानि और बनते कामों में बाधा आना शुरु हो जाता है... गोचरवश शनि जब चंद्र राशि से चौथे या आठवें स्थान पर बैठा होता है तो यह स्थिति शनि की ढैय्या कहलाती है... शनि की ढैय्या के फलस्वरुप जातक को रोग, भारी धन की हानि, भाई बंधुओं से मनमुटाव, विदेश में परेशानी और अपमान का सामना करना पडता है...

कुंडली में शनि का असर है तो भी डरने की जरुरत नहीं

पूजा अर्चना से जल्द ही प्रसन्न होते हैं शनिदेव

ज्योतिषी की सलाह से नीलम पहनने से हो सकता है फायदा

शनिवार को सूर्यास्त के बाद की जाती है शनि की पूजा

तेल का दीपक जलाना और भगवान शिव की पूजा करना फायदेमंद

पीपल के पेड पर कच्ची लस्सी में काले तिल डालकर चढाना चाहिए

कुंडली में शनि ग्रह की खराब स्थिति के अनुसार ज्योतिषी नीलम नाम का रत्न धारण करने की सलाह देते हैं.... लेकिन सभी को नीलम माफिक आ जाए, ये भी संभव नहीं है... किसी को भी नीलम धारण करवाने की बाकायदा एक पूरी विधी होती है.... क्योंकि नीलम का असर तीन चार घंटों में ही दिखाई देना शुरु हो जाता है... चाहे अच्छा असर हो या बुरा.... इसलिए नीलम धारण करने से पहले किसी विद्वान ज्योतिषी की सलाह जरुर लें....

शनि सदैव अनिष्टकारी ही हो, एसा भी नही है... यदि किसी जातक के नवमांश कुंडली में शनि वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर या कुंभ में शुभ स्थिति में हो तो शनि की दशा व्यवसाय एवं कैरियर की दृष्टि से विशेष शुभदायी रहती है... शनि प्राय दुख कष्ट देकर दुष्ट कर्मों का भुगतान करवाता है... इस स्थिति में जातक को अपने भी पराए हो जाते हैं... यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में शनि कष्टकरार फल प्रदान कर रहा है तो शनि पूजन विधि पूर्वक करने से लाभ मिलता है... शनि पूजन की विधिवत पूजा सायं सूर्यास्त के बाद करनी चाहिए... हर शनिवार को शनि मंत्र का संकल्प पूर्वक शुद्द मन से पाठ करें और शनिवासरी अमावस्या हो तो उस दिन शाम सूर्यास्त के बाद शनि पूजन मंत्र जाप और स्त्रोत पाठ करना विशेष लाभकारी साबित होता है... शनि की साढे साती और ढेय्या से कष्ट भोग रहे जातकों के लिए रोजाना सुबह के समय भगवान शिव की पूजा, पीपल के पेड के समीप कच्ची लस्सी में काले तिल डालकर वृक्ष के मूल में चढाना तथा शाम के समय तेल का दीपक जलाकर श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करने से शनि अरिष्ठ की शांति होती है...

-शनि का बीज मंत्र...

ऊं प्रां प्रीं प्रौं सं शनये नमः

-शनि का नमस्कार मंत्र

नीलांजन समाभासं रवि पुत्र यमाग्रजम,

छायामार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्......

-शनि का वैदिक मंत्र ऊं शन्नो देवी रभिष्टाय आपो भवंतू पीतये शं योरभिस्त्रवंतु ना शं नमै...


शनिदेव पर तेल चढ़ाने के पीछे हैं कई कथाएं…-----------
शनिदेव के नाम आते ही अक्सर लोग डर जाते हैं... क्योंकि शनिदेव न्याय के देवता हैं और हमारे अच्छे बुरे कर्मों का फल भी तुरंत देते हैं... उनके गुस्से से बचने के लिए उनकी पूजा अर्चना करना ही सबसे बेहतर उपाय है...और पूजा अचर्ना की सबसे अच्छी विधि है शनिदेव पर तेल चढ़ाना... पुराणों में शनिवार के दिन शनि पर तेल चढ़ाने के पीछे कई भिन्न-भिन्न कथाएं हैं... जिन का धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों महत्व है। शनिदेव से जुड़ी सभी कथाएं रामायण काल और विशेष रूप से भगवान हनुमान से जुड़ी हैं। अलग-अलग कथाओं में शनि को तेल चढ़ाने की चर्चा है लेकिन सार सभी का यही है।

एक कथा ये भी है कि शनि नीले रंग का क्रूर माना जाने वाला ग्रह है, जिसका स्वभाव कुछ उद्दण्ड था। अपने स्वभाव के चलते उसने श्री हनुमानजी को तंग करना शुरू कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना तब हनुमानजी ने उसको सबक सिखाया। हनुमान की मार से पीड़ित शनि ने उनसे क्षमा याचना की तो करुणावश हनुमानजी ने उनको घावों पर लगाने के लिए तेल दिया। शनि महाराज ने वचन दिया जो हनुमान का पूजन करेगा तथा शनिवार को मुझपर तेल चढ़ाएगा उसका मैं कल्याण करुंगा।धार्मिक महत्व के साथ ही इसका वैज्ञानिक आधार भी है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि शनिवार को तेल लगाने या मालिश करने से सुख प्राप्त होता है। उक्त वाक्य और शनि को तेल चढ़ाने का सीधा संबंध है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को त्वचा, दांत, कान, हड्डियों और घुटनों में स्थान दिया गया है। उस दिन त्वचा रुखी, दांत, कान कमजोर तथा हड्डियों और घुटनों में विकार उत्पन्न होता है। तेल की मालिश से इन सभी अंगों को आराम मिलता है। अत: शनि को तेल अर्पण का मतलब यही है कि अपने इन उपरोक्त अंगों की तेल मालिश द्वारा रक्षा करो।दांतों पर सरसो का तेल और नमक की मालिश। कानों में सरसो तेल की बूंद डालें। त्वचा, हड्डी, घुटनों पर सरसो के तेल की मालिश करनी चाहिए। शनि का इन सभी अंगों में वास माना गया है, इसलिए तेल चढ़ाने से वे हमारे इन अंगों की रक्षा करते हैं और उनमें शक्ति का संचार भी करते हैं

जाने गायत्री मंत्र की सम्पूर्ण ज्ञान


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समस्त विद्याओं की भण्डागार-गायत्री महाशक्ति 
ॐ र्भूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् 
गायत्री संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की आदि जननी है । वेदों को समस्त प्रकार की विद्याओं का भण्डार माना जाता है, वे वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं । गायत्री को 'वेदमाता' कहा गया है । चारों वेद गायत्री के पुत्र हैं । ब्रह्माजी ने अपने एक-एक मुख से गायत्री के एक-एक चरण की व्याख्या करके चार वेदों को प्रकट किया । 

'ॐ भूर्भवः स्वः' से-ऋग्वेद
'तत्सवितुर्वरेण्यं' से-यर्जुवेद
'भर्गोदेवस्य धीमहि' से-सामवेद और 
'धियो योनः प्रचोदयात्' से अथर्ववेद की रचना हुई । 

इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि का निर्माण हुआ । इन्हीं ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु, संगीत आदि ८४ कलाओं का आविष्कार हुआ । इस प्रकार गायत्री, संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की जननी ठहरती है । जिस प्रकार बीज के भीतर वृक्ष तथा वीर्य की एक बूंद के भीतर पूरा मनुष्य सन्निहित होता है, उसी प्रकार गायत्री के २४ अक्षरों में संसार का समस्त ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है । यह सब गायत्री का ही अर्थ विस्तार है । 

मंत्रों में शक्ति होती है । मंत्रों के अक्षर शक्ति बीज कहलाते हैं । उनका शब्द गुन्थन ऐसा होता है कि उनके विधिवत् उच्चारण एवं प्रयोग से अदृश्य आकाश मण्डल में शक्तिशाली विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं, और मनःशक्ति तरंगों द्वारा नाना प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं । साधारणतः सभी विशिष्ट मंत्रों में यही बात होती है । उनके शब्दों में शक्ति तो होती है, पर उन शब्दों का कोई विशेष महत्वपूर्ण अर्थ नहीं होता । पर गायत्री मंत्र में यह बात नहीं है । इसके एक-एक अक्षर में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञानों के रहस्यमय तत्त्व छिपे हुए हैं । 'तत्-सवितुः - वरेण्यं-' आदि के स्थूल अर्थ तो सभी को मालूम है एवं पुस्तकों में छपे हुए हैं । यह अर्थ भी शिक्षाप्रद हैं । परन्तु इनके अतिरिक्त ६४ कलाओं, ६ शास्त्रों, ६ दर्शनों एवं ८४ विद्याओं के रहस्य प्रकाशित करने वाले अर्थ भी गायत्री के हैं । उन अर्थों का भेद कोई-कोई अधिकारी पुरुष ही जानते हैं । वे न तो छपे हुए हैं और न सबके लिये प्रकट हैं । 

इन २४ अक्षरों में आर्युवेद शास्त्र भरा हुआ है । ऐसी-ऐसी दिव्य औषधियों और रसायनों के बनाने की विधियाँ इन अक्षरों में संकेत रूप से मौजूद हैं जिनके द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों से निवृत्त हो सकता है, अजर-अमर तक बन सकता है । इन २४ अक्षरों में सोना बनाने की विधा का संकेत है । इन अक्षरों में अनेकों प्रकार के आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि हथियार बनाने के विधान मौजूद हैं । अनेक दिव्य शक्तियों पर अधिकार करने की विधियों के विज्ञान भरे हुए हैं । ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने, लोक-लोकान्तरों के प्राणियों से सम्बन्ध स्थापित करने, ग्रहों की गतिविधि तथा प्रभाव को जानने, अतीत तथा भविष्य से परिचित होने, अदृश्य एवं अविज्ञात तत्त्वोंको हस्तामलकवत् देखने आदि अनेकों प्रकार के विज्ञान मौजूद हैं । जिकी थोड़ी सी भी जानकारी मनुष्य प्राप्त करले तो वह भूलोक में रहते हुए भी देवताओं के समान दिव्य शक्तियों से सुसम्पन्न बन सकता है । प्राचीन काल में ऐसी अनेक विद्याएँ हमारे पूर्वजों को मालूम थीं जो आज लुप्त प्रायः हो गई हैं । उन विद्याओं के कारण हम एक समय जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं स्वर्ग-सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे । आज हम उनसे वञ्चित होकर दीन-हीन बने हुए हैं । 

‍आवश्यकता इस बात की है कि गायत्री महामन्त्र में सन्निहित उन लुप्तप्राय महाविद्याओं को खोज निकाला जाय, जो हमें फिर से स्वर्ग- सम्पदाओं का स्वामी बना सके । यह विषय सर्वसाधारण का नहीं है । हर एक का इस क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं है । अधिकारी सत्पात्र ही इस क्षेत्र में कुछ अनुसंधान कर सकते हैं और उपलब्ध प्रतिफलों से जनसामान्य को लाभान्वित करा सकते हैं । 

गायत्री के दोनों ही प्रयोग हैं । वह योग भी है और तन्त्र भी । उससे आत्म-दर्शन और ब्रह्मप्राप्ति भी होती है तथा सांसारिक उपार्जन-संहार भी । गायत्री-योग दक्षिण मार्ग है- उस मार्ग से हमारे आत्म-कल्याण का उद्देश्य पूरा होता है । 

‍दक्षिण मार्ग का आधार यह है कि- विश्वव्यापी ईश्वरीय शक्तियों को आध्यात्मिक चुम्बकत्व से खींच कर अपने में धारण किया जाय, सतोगुण को बढ़ाया जाय और अन्तर्जगत् में अवस्थित पञ्चकोष, सप्त प्राण, चेतना चतुष्टय, षटचक्र एवं अनेक उपचक्रों, मातृकाओं, ग्रन्थियों, भ्रमरों, कमलों, उपत्यिकाओं को जागृत करके आनन्ददायिनी = अलौकिक शक्तियों का आविर्भाव किया जाय । 
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गायत्री-तन्त्र वाम मार्ग है- उससे सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं और किसी का नाश भी किया जा सकता है । वाम मार्ग का आधार यह है कि-'' दूसरे प्राणियों के शरीरों में निवास करने वाली शक्ति को इधर से उधर हस्तान्तरित करके एक जगह विशेष मात्रा में शक्ति संचित कर ली जाय और उस शक्ति का मनमाना उपयोग किया जाय ।'' 

तन्त्र का विषय गोपनीय है, इसलिए गायत्री तन्त्र के ग्रन्थों में ऐसी अनेकों साधनाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें धन, सन्तान, स्त्री, यश, आरोग्य, पदप्राप्ति, रोग-निवारण, शत्रु नाश, पाप-नाश, वशीकरण आदि लाभों का वर्णन है और संकेत रूप से उन साधनाओं का एक अंश बताया गया है । परन्तु यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिये कि इन संक्षिप्त संकेतों के पीछे एक भारी कर्मकाण्ड एवं विधिविधान है । वह पुस्तकों में नहीं वरन् अनुभवी साधना सम्पन्न व्यक्तियों से प्राप्त होता है, जिन्हें सद्गुरु कहते हैं । 

गायत्री की २४ शक्ति

गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं । तत्त्वज्ञानियों ने इन अक्षरों में बीज रूप में विद्यमान उन शक्तियों को पहचाना जिन्हें चौबीस अवतार, चौबीस ऋषि, चौबीस शक्तियाँ तथा चौबीस सिद्धियाँ कहा जाता है । देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि इसी उपासना के सहारे उच्च पदासीन हुए हैं । 'अणोरणीयान महतो महीयान' यही महाशक्ति है । छोटे से छोटा चौबीस अक्षर का कलेवर, उसमें ज्ञान और विज्ञान का सम्पूर्ण भाण्डागार भरा हुआ है । सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं, जो गायत्री में न हो । उसकी उच्चस्तरीय साधनाएँ कठिन और विशिष्ट भी हैं, पर साथ ही सरल भी इतनी है कि उन्हें हर स्थिति में बड़ी सरलता और सुविधाओं के साथ सम्पन्न कर सकता है । इसी से उसे सार्वजनीन और सार्वभौम माना गया । नर-नारी, बाल-वृद्ध बिना किसी जाति व सम्प्रदाय भेद के उसकी आराधना प्रसन्नता पूर्वक कर सकते हैं और अपनी श्रद्धा के अनुरूप लाभ उठा सकते हैं । 

'गायत्री संहिता' में गायत्री के २४ अक्षरों की शाब्दिक संरचना रहस्ययुक्त बतायी गयी है और उन्हें ढूँढ़ निकालने के लिए विज्ञजनों को प्रोत्साहित किया गया है । शब्दार्थ की दृष्टि से गायत्री की भाव-प्रक्रिया में कोई रहस्य नहीं है । सद्बुद्धि की प्रार्थना उसका प्रकट भावार्थ एवं प्रयोजन है । यह सीधी-सादी सी बात है जो अन्यान्य वेदमंत्रों तथा आप्त वचनों में अनेकानेक स्थानों पर व्यक्त हुई है । अक्षरों का रहस्य इतना ही है कि साधक को सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए पे्रेरित करते हैं । इस प्रेरणा को जो जितना ग्रहण कर लेता है वह उसी अनुपात से सिद्ध पुरुष बन जाता है । कहा गया है- 
चतुविंशतिवर्णेर्या गायत्री गुम्फिता श्रुतौ । 
रहस्ययुक्तं तत्रापि दिव्यै रहस्यवादिभिः॥ गायत्री संहिता -८५ 
अर्थात्-वेदों में जो गायत्री चौबीस अक्षरों में गूँथी हुई है, विद्वान् लोग इन चौबीस अक्षरों के गूँथने में बड़े-बड़े रहस्यों को छिपा बतलाते हैं । 

गायत्री की २४ शक्तियों की उपासना करने के लिए शारदा तिलकतंत्र का मार्गदर्शन इस प्रकार है । 
ततः षडङ्गान्यभ्र्यचेत्केसरेषु यथाविधि । 
प्रह्लादिनी प्रभां पश्चान्नित्यां विश्वम्भरां पुनः॥ 
विलासिनी प्रभवत्यौ जयां शांतिं यजेत्पुनः । 
कान्तिं दुर्गा सरस्वत्यौ विश्वरूपां ततः परम्॥ 
विशालसंज्ञितामीशां व्यापिनीं विमलां यजेत् । 
तमोऽपहारिणींसूक्ष्मां विश्वयोनिं जयावहाम्॥ 
पद्मालयां परांशोभां पद्मरूपां ततोऽर्चयेत् । 
ब्राह्माद्याः सारुणा बाह्यं पूजयेत् प्रोक्तलक्षणाः॥ -शारदा० २१ ।२३ से २६ 
अर्थात्-पूजन उपचारों से षडंग पूजन के बाद प्रह्लादिनी, प्रभा, नित्या तथा विश्वम्भरा का यजन (पूजन) करें । पुनः विलासिनी, प्रभावती, जया और शान्ति का अर्चन करना चाहिए । इसके बाद कान्ति, दुर्गा, सरस्वती और विश्वरूपा का पूजन करें । पुनः विशाल संज्ञा वाली-ईशा (विशालेशा), 'व्यापिनी' और 'विमला' का यजन करना चाहिए । इसके अनन्तर 'तमो', 'पहारिणी', 'सूक्ष्मा', 'विश्वयोनि', 'जयावहा', 'पद्मालया', 'पराशोभा' तथा पद्मरूपा आदि का यजन करें । 'ब्राह्मी' 'सारुणा' का बाद में पूजन करना चाहिए ।


वास्तुनियम से बनाएं अपना घर और सुखी जीवन जियें

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- उत्तर दिशा जल तत्व की प्रतीक है। इसके स्वामी कुबेर हैं। यह दिशा स्त्रियों के लिए अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है। इस दिशा में घर की स्त्रियों के लिए रहने की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए।
- उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र अर्थात्‌ ईशान कोण जल का प्रतीक है। इसके अधिपति यम देवता हैं। भवन का यह भाग ब्राह्मणों, बालकों तथा अतिथियों के लिए शुभ होता है।
- पूर्वी दिशा अग्नि तत्व का प्रतीक है। इसके अधिपति इंद्रदेव हैं। यह दिशा पुरुषों के शयन तथा अध्ययन आदि के लिए श्रेष्ठ है।

- दक्षिणी-पूर्वी दिशा यानी आग्नेय कोण अग्नि तत्व की प्रतीक है। इसका अधिपति अग्नि देव को माना गया है। यह दिशा रसोईघर, व्यायामशाला या ईंधन के संग्रह करने के स्थान के लिए अत्यंत शुभ होती है।
- दक्षिणी दिशा पृथ्वी का प्रतीक है। इसके अधिपति यमदेव हैं। यह दिशा स्त्रियों के लिए अत्यंत अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है।
- दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र यानी नैऋत्य कोण पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। यह क्षेत्र अनंत देव या मेरूत देव के अधीन होता है। यहाँ शस्त्रागार तथा गोपनीय वस्तुओं के संग्रह के लिए व्यवस्था करनी चाहिए।

- पश्चिमी दिशा वायु तत्व की प्रतीक है। इसके अधिपति देव वरुण हैं। यह दिशा पुरुषों के लिए बहुत ही अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है। इस दिशा में पुरुषों को वास नहीं करना चाहिए।
- उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र यानी वायव्य कोण वायु तत्व प्रधान है। इसके अधिपति वायुदेव हैं। यह सर्वेंट हाउस के लिए तथा स्थायी तौर पर निवास करने वालों के लिए उपयुक्त स्थान है।
- आग्नेय, दक्षिणी-पूर्वी कोण में नालियों की व्यवस्था करने से भू-स्वामी को अनेक कष्टों को झेलना पड़ता है। गृहस्वामी की धन-सम्पत्ति का नाश होता है तथा उसे मृत्युभय बना रहता है।

नै कोण में जल-प्रवाह की नालियां भू-स्वामी पर अशुभ प्रभाव डालती हैं। इस कोण में जल-प्रवाह, नालियों का निर्माण करने से भू-स्वामी पर अनेक विपत्तियाँ आती हैं।
- दक्षिण दिशा में निकास नालियाँ भूस्वामी के लिए अशुभ तथा अनिष्टकारी होती हैं। गृहस्वामी को निर्धनता, राजभय तथा रोगों आदि समस्याओं से जूझना पड़ता है।
- उत्तर दिशा में निकास नालियाँ हों तो यह स्थिति भूस्वामी के लिए बहुत ही शुभ तथा राज्य लाभ देने वाली होती है।

- ईशान, उत्तर-पूर्व कोण में जल प्रवाह की नालियाँ भूस्वामी के लिए श्रेष्ठ तथा कल्याणकारी होती हैं। गृहस्वामी को धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है तथा आरोग्य लाभ होता है।
- शयनकक्ष में पलंग को दक्षिणी दीवार से लगाकर रखें। सोते समय सिरहाना उत्तर में या पूर्व में कदापि न रखें। सिरहाना उत्तर में या पूर्व में होने पर गृहस्वामी को शांति तथा समृद्धि की प्राप्ति नहीं होती है।

वास्तुशास्त्र घर को व्यवस्थित रखने की कला का नाम है। इसके सिद्धांत, नियम और फार्मूले किसी मंत्र से कम शक्तिशाली नहीं हैं। आप वास्तु के अनमोल मंत्र अपनाइए और सदा सुखी रहिए।

वास्तु ज्योतिष के अनुरूप कैसे बनायें बाथरूम और शयन कक्ष

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वास्तु ज्योतिष से कैसे बनायें बाथरूम और शयन कक्ष

बाथरूम यह मकान के नैऋत्य; पश्चिम-दक्षिण कोण में एवं दिशा के मध्य अथवा नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य में होना उत्तम है। वास्तु के अनुसार, पानी का बहाव उत्तर-पूर्व में रखें।

जिन घरों में बाथरूम में गीजर आदि की व्यवस्था है, उनके लिए यह और जरूरी है कि वे अपना बाथरूम आग्नेय कोण में ही रखें, क्योंकि गीजर का संबंध अग्नि से है। चूँकि बाथरूम व शौचालय का परस्पर संबंध है तथा दोनों पास-पास स्थित होते हैं। शौचालय के लिए वायव्य कोण तथा दक्षिण दिशा के मध्य या नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य स्थान को सर्वोपरि रखना चाहिए।

शौचालय में सीट इस प्रकार हो कि उस पर बैठते समय आपका मुख दक्षिण या उत्तर की ओर होना चाहिए। अगर शौचालय में एग्जास्ट फैन है, तो उसे उत्तरी या पूर्वी दीवार में रखने का निर्धारण कर लें। पानी का बहाव उत्तर-पूर्व रखें।

वैसे तो वास्तु शास्त्र-स्नान कमरा व शौचालय का अलग-अलग स्थान निर्धारित करता है,पर आजकल जगह की कमी के कारण दोनों को एक साथ रखने का रिवाज-सा चल पड़ा है।

लेकिन ध्यान रखें कि अगर बाथरूम व लैट्रिन, दोनों एक साथ रखने की जरूरत हो तो मकान के दक्षिण-पश्चिम भाग में अथवा वायव्य कोण में ही बनवाएँ या फिर आग्नेय कोण में शौचालय बनवाकर उसके साथ पूर्व की ओर बाथरूम समायोजित कर लें। स्नान गृह व शौचालय नैऋत्य व ईशान कोण में कदापि न रखें।


पश्चिम दिशा में रखें शयनकक्ष-----

बैडरूम कई प्रकार के होते हैं। एक कमरा होता है- गृह स्वामी के सोने का एक कमरा होता है परिवार के दूसरे सदस्यों के सोने का। लेकिन जिस कमरे में गृह स्वामी सोता है, वह मुख्य कक्ष होता है।

अतः यह सुनिश्चित करें कि गृह स्वामी का मुख्य कक्ष; शयन कक्ष, भवन में दक्षिण या पश्चिम दिशा में स्थित हो। सोते समय गृह स्वामी का सिर दक्षिण में और पैर उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए।

इसके पीछे एक वैज्ञानिक धारणा भी है। पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव और सिर के रूप में मनुष्य का उत्तरी ध्रुव और मनुष्य के पैरों का दक्षिणी ध्रुव भी ऊर्जा की दूसरी धारा सूर्य करता है। इस तरह चुम्बकीय तरंगों के प्रवेश में बाधा उत्पन्न नहीं होती है। सोने वाले को गहरी नींद आती है। उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है। घर के दूसरे लोग भी स्वस्थ रहते हैं। घर में अनावश्यक विवाद नहीं होते हैं।

यदि सिरहाना दक्षिण दिशा में रखना संभव न हो, तो पश्चिम दिशा में रखा जा सकता है। स्टडी; अध्ययन कक्ष वास्तु शास्त्र के अनुसार आपका स्टडी रूम वायव्य, नैऋत्य कोण और पश्चिम दिशा के मध्य होना उत्तम माना गया है।

ईशान कोण में पूर्व दिशा में पूजा स्थल के साथ अध्ययन कक्ष शामिल करें, अत्यंत प्रभावकारी सिद्ध होगा। आपकी बुद्धि का विकास होता है। कोई भी बात जल्दी आपके मस्तिष्क में फिट हो सकती है। मस्तिष्क पर अनावश्यक दबाव नहीं रहता।