Friday, 29 May 2015

व्यसन का प्रमुख कारण तनाव

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जीवन के सुख साधन प्राप्ति हेतु व्यक्ति हर संभव प्रयास करता है। किंतु कभी अवसर की कमी तो कभी प्रयास में चूक या कोई अन्य कारण से इच्छित सफलता प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होने से व्यक्ति कई बार असफलता प्राप्त होती है। इस असफलता के कारण तनाव कई बार इतना ज्यादा हो जाता है कि उसे तनाव से बाहर आने के लिए व्यसन का सहारा लेना पड़ता है और यह व्यसन शौक या तनाव दूर करने से शुरू होते हुए व्यसन या लत की सीमा तक चला जाता है। इसक ज्योतिष कारण व्यक्ति के कुंडली से जाना जाता है। किसी व्यक्ति का तृतीयेष अगर छठवे, आठवें या द्वादष स्थान पर होने से व्यक्ति कमजोर मानसिकता का होता है, जिसके कारण उसके प्रयास में कमी या असफलता से डिप्रेषन आने की संभावना बनती है। अगर यह डिपे्रषन ज्यादा हो जाये तथा उसके अष्टम या द्वादष भाव में सौम्य ग्रह राहु से पापाक्रांत हो तो उस ग्रह दषाओं के अंतरदषा या प्रत्यंतरदषा में शुरू हुई व्यसन की आदत लत बन जाती है। लगातार व्यसन मनःस्थिति को और कमजोर करता है अतः यह व्यसन समाप्त होने की संभावना कम होती है। अतः व्यसन से बाहर आने के लिए मनोबल बढ़ाने के साथ राहु की शांति तथा मंगल का व्रत मंगल स्तोत्र का पाठ करना जीवन में व्यसन मुक्ति के साथ सफलता का कारक होता है।

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सामाजिक अपराध का ज्योतिष कारण

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज का एक सदस्य है और समाज के अन्य सदस्यों के प्रति प्रतिक्रिया करता है, जिसके फलस्वरूप समाज के सदस्य उसके प्रति प्रक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रया उस समय प्रकट होती है जब समूह के सदस्यों के जीवन मूल्य तथा आदर्ष ऊॅचे हों, उनमें आत्मबोध तथा मानसिक परिपक्वता पाई जाए साथ ही वे दोषमुक्त जीवन व्यतीत करते हों। परिणाम स्वरूप एक स्वस्थ समाज का निमार्ण होगा तथा समाज में नागरिकों का योगदान भी साकारात्मक होगा। सामाजिक विकास में सहभागी होने के लिए ज्योतिष विषलेषण से व्यक्ति की स्थिति का आकलन कर उचित उपाय अपनाने से जीवन मूल्य में सुधार लाया जा सकता है साथ ही लगातार होने वाले अपराध, हिंसा से समाज को मुक्त कराने में भी उपयोगी कदम उठाया जा सकता है। समाज और संस्कृति व्यक्ति के व्यवहार का प्रतिमान होता है, जिसमें आवष्यक नियंत्रण किया जाना संभव हो सकता है। सामाजिक तौर पर व्यवहार को नियंत्रण करने के लिए प्राथमिक स्तर पर विद्यालय जिसमें स्कूल में बच्चों के आदर्ष उनके षिक्षक होते हैं। षिक्षकों के आचरण व व्यवहार, रहन-सहन का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, उनके सौहार्दपूण व्यवहार से साकारात्मक और विपरीत व्यवहार से असुरक्षा, हीनता की भावना उत्पन्न होती है, जिसको देखने के लिए ज्योतिषीय दृष्टि है कि किसी बच्चे की कुंडली में गुरू की स्थिति के साथ उसका द्वितीय तथा पंचम भाव या भावेष की स्थिति उसके गुरू तथा स्कूल षिक्षा से संबंधित क्षेत्र को दर्षाता है ये सभी अनुकूल होने पर सामाजिक विकास में सहायक होते हैं किंतु प्रतिकूल होने पर षिक्षा तथा षिक्षकों के प्रति असंतोष व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार तथा उसके प्रतिक्रिया स्वरूप सामाजिक विकास में सहायक या बाधक हो सकता है। उसके उपरांत बच्चों के विकास में आसपडोस का बहुत प्रभाव पड़ता है, अक्सर अभिभावक अपने बच्चों को आसपड़ोस में खेलने से मना करते हैं कि पड़ोस के बच्चों का व्यवहार प्रतिकूल होने से उनके बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, जिसके ज्योतिष दृष्टि है कि पड़ोस को जातक की कुंडली में तीसरे स्थान से देखा जाता है अगर तीसरा स्थान अनुकूल हो तो पड़ोस का वातावरण अनुकूल होगा, जिससे जातक का व्यवहार भी बेहतर होगा क्योंकि तीसरा स्थान मनोबल का भी होगा अतः मनोबल उच्च होगा। उसी प्रकार समुदाय और संस्कृति का प्रभाव देखने के लिए चूॅकि सकुदाय या जाति, रीतिरिवाज, नगरीय या ग्रामीण वातावरण का प्रभाव भी विकास में सहायक होता है, जिसे ज्योतिष गणना में पंचम तथा द्वितीय स्थान से देखा जाता है। पंचम स्थान उच्च या अनुकूल होने से जातक का सामाजिक परिवेष अच्छा होगा जिससे उसके सामाजिक विकास की स्थिति बेहतर होने से उस जातक के सामाजिक विकास में सहायक बनने की संभवना बेहतर होगी। इस प्रकार उक्त स्थिति को ज्योतिषीय उपाय से अनुकूल या प्रतिकूल बनाया जाकर समाज और राष्ट्र उत्थान में योगदान दिया जा सकता है।
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शुक्र ग्रह के अस्त होने पर विवाहादि कार्य क्यूं वर्जित किए जाते हैं ?

असुरों के गुरू शुक्र ग्रह के अस्त होने पर विवाहादि कार्य क्यूं वर्जित किए जाते हैं ?
"यत्पिण्डे च ब्राह्मंडे" अर्थात जो कुछ भी इस भौतिक शरीर में मौजूद है, वही इस ब्राह्मंड में भी विधमान है। ये वाक्य कोई परिकल्पना नहीं है, अपितु एक शाश्वत सत्य है। वेद, पुराण इत्यादि समस्त शास्त्रों की रचना और उनमें छिपे इस सृ्ष्टि के अनन्त रहस्यों का मूल केवल एक यही वाक्य है। किन्तु इस प्रकार के किसी श्लोक के माध्यम से जब बात ज्योतिष जैसे गूढ शास्त्र को समझने या किसी दूसरे व्यक्ति को समझाने की आती है तो जटिलता सदैव एक सीढ़ी ऊपर खड़ी दिखाई देती है। इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें अपने दृष्टिकोण के स्तर को ऊंचा उठाना पडेगा। इतना ही नहीं संदेह के आवरण को सरका कर इस तथ्य मे विश्वास दिखाना पड़ेगा कि शास्त्र ज्ञान का अथाह भंडार है तो फिर चाहे कोई भी क्षेत्र हो या उस क्षेत्र से जुड़े किसी भी विषय पर चर्चा हो तो इस दुनिया के लिए इसमें विखरे ज्ञान को समेटना ही अपने आपमें एक चुनौती बन जाएगा। शुक्र ग्रह जिसे कि असुर जाति का गुरूपद प्राप्त है, तो फिर उन्हे लोकजीवन में मांगलिक कार्यों का मसीहा क्यूं माना जाता है और क्यूं शुक्र अस्त के समय विवाह इत्यादि कार्य वर्जित किए जाते हैं।"
सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि बृ्हस्पति को देवताओं का तथा शुक्र को असुरों का गुरू कहने का क्या तात्पर्य है। यत्पिंडे च ब्राह्मंडे का ये सिद्धान्त ये कहता है कि जो कुछ आपके भीतर है, वही इस अनन्त ब्राह्मंड में विधमान है अर्थात ये जो ग्रह, नक्षत्र, तारे, लोक-परलोक, भिन्न भिन्न योनियां है, उन सब का एक प्रतिरूप हम सब के अन्दर ही मौजूद है। ज्योतिष में बृ्हस्पति तथा शुक्र के जिस गुरूतत्व (देव और असुरों के गुरू होने) का वर्णन किया गया है, यहां एक स्थूल एवं बाह्य वास्तविक स्वरूप न होकर उसके प्रतिरूप (शरीर में मौजूद) की बात की जाती है।
शास्त्रों में मुख्यतय: तीन प्रकार की योनियां बताई गई हैं-----
1.देव योनि
2. असुर योनि
3. मनुष्य योनि।
वैदिक ज्योतिष अनुसार "बृ्हस्पति" धर्म और मोक्ष का तथा "शुक्र" अर्थ और काम (वासना) का प्रतिनिधित्व करता है। जैसा कि सर्वविदित है कि प्रत्येक मनुष्य में देव और आसुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृ्तियां समान रूप में निवास करती हैं। अब जिस व्यक्ति में जो प्रवृ्ति ज्यादा प्रबल मात्रा में होगी, उसी तरह का उसका जीवन होगा। अर्थात अगर किसी का धर्म पक्ष (नीति/अनीति का ज्ञान,सात्विकता,सदाचार इत्यादि गुण) प्रबल है और जो मोक्ष प्राप्ति को अपना लक्ष्य मानकर चल रहा है तो ऎसा व्यक्ति देव श्रेणी में आता है। यहां बृ्हस्पति उसके लिए गुरू (मार्गदर्शक) की भूमिका का निर्वहन करता है। किन्तु अगर व्यक्ति का भौतिक पक्ष ज्यादा प्रबल हुआ तो वो असुर श्रेणी का जीव हुआ। यहां "शुक्र" उसके लिए गुरू (मार्गदर्शक) की भूमिका निभाता है।
अगर जीव में धर्म पक्ष (बृ्हस्पति) अति प्रबल हुआ तो उसकी भौतिक तौर पर उन्नति संभव नहीं है। क्योंकि भौतिकता गुरू के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। वो आपको सांसारिक ज्ञान दे सकता है, दिव्य आन्तरिक ज्ञान दे सकता है, आपको जन्म-मरण से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखा सकता है, किन्तु भौतिक जीवन की उपलब्धियां नहीं प्रदान कर सकता। क्यों कि भौतिकता तो एक प्रकार से ज्ञान और मुक्ति की राह में एक बडी बाधा ही मानी जाती है।
अगर कहीं किसी व्यक्ति में शुक्र का प्रभाव अधिक हुआ तो भौतिकता ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह जाता है। अगर ऎसा व्यक्ति धर्म, पूजा पाठ, दान पुण्य इत्यादि का भी आश्रय लेगा तो उसमें भी उसका उदेश्य सिर्फ यश/ धन/संपदा/वासना इत्यादि जैसी कोई भौतिक कामना की पूर्ती ही होगा। क्योंकि वो इस भौतिक जीवन के अतिरिक्त कुछ ओर सोच ही नहीं पाता। उसे यदि धन और ज्ञान में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाए तो वो सदैव धन का ही चुनाव करेगा। इसी को हमारी संस्कृ्ति और शास्त्रों में "आसुरी प्रवृ्ति" कहा गया है। अब इन भौतिक कामनाओं की पूर्ती हेतु जो मार्गदर्शक (गुरू) का कार्य करता है वो है शुक्र। इसीलिए शुक्र ग्रह को असुरों का गुरू कहा जाता है। क्यों कि एक गुरू का कार्य होता है, अपनी शरण में आए हुए का मार्गदर्शन करना जिसे कि शुक्र ग्रह बखूबी अंजाम देता है। किन्तु जो जीव इन दोनों से इतर मध्यमार्ग का चुनाव करता है अर्थात अपने जीवन में धर्म पक्ष और भौतिक पक्ष का सामंजस्य बना कर चलता है -वो है "मनुष्य"। क्योंकि जब ईश्वर ने हमें इस धरती पर उत्पन किया है तो जीवित रहने तथा अपने पारिवारिक/ सामाजिक उत्तरदायित्वों के भली भांती निर्वहण के लिए "अर्थ्" और "काम" भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि जीवन बंधन से मुक्ति के लिए "धर्म"।
इस प्रकार से ये देव, असुर और मनुष्य ये तीनों ही योनियां हम सब में निवास करती हैं। अब जिस व्यक्ति ने ज्ञान और धर्म का रास्ता चुन लिया, वो देव योनि का। जो सिर्फ भौतिक संसाधनों की पूर्ती में ही निमग्न है, वो "असुर योनि" और जो इन दोनों मार्गों के मध्य का मार्ग चुनता है-- वो "मनुष्य योनि" में जी रहा है।
ज्योतिष का ये एक मूलभूत नियम है कि ग्रह जब सूर्य के अति निकट आ जाता है तो उसे अस्त मान लिया जाता है अर्थात वो अपना प्रभाव देने के नैसर्गिक गुण को खो देता है।शुक्र अस्त के समय वो कार्य वर्जित किए जाते हैं,जिनका उदेश्य भौतिक इच्छाओं (विवाह, धन कमाने का साधन जैसे नवीन रोजगार प्रारंभ इत्यादि) की पूर्ति होता है तथा बृ्हस्पति अस्त के समय सिर्फ वो कार्य वर्जित माने जाते हैं, जिनमे भौतिक प्राप्तियों के अतिरिक्त कोई अन्य कामना निहित रहती है। परन्तु विवाह जैसे मांगलिक कार्य में इन दोनों का ही विशेष महत्व है। चूंकि भारतीय संस्कृ्ति में विवाह दैहिक, भौतिक एवं दैविक अर्थात शारीरिक, सम्पति-परक तथा आध्यात्मिक इन तीनों ही कामनाओं की पूर्ती का द्वार माना गया है। इसलिए विशेष रूप से विवाह जैसे अति महत्वपूर्ण कार्य हेतु बृ्हस्पति और शुक्र इन दोनों ही ग्रहों के अस्त काल को त्याज्य कहा गया है। इन कार्यों की सफलता हेतु जिनका कि हमें गुरूतुल्य मार्गदर्शन चाहिए होता है, वे ग्रह जब स्वयं ही निस्तेज है तो फिर कार्य सिद्धि कैसे संभव होगी अर्थात इहलौकिक और पारलौकिक, दोनों में ही असफलता।
आशा करता हूं कि यदि अपने पूर्वाग्रहों का परित्याग कर चुके हों तो इस विषय में कोई शंका उत्पन हुई होगी तो उसका निवारण हो चुका होगा। किन्तु अगर फिर भी किसी के मन में कोई भी प्रश्न शेष रह गया हो अथवा किसी अन्य प्रकार की शंका/जिज्ञासा हो तो आप उसे निसंकोच यहां व्यक्त कर सकते हैं। एक बात जो कि विशेष तौर पर यहां सभी से कहना चाहूंगा कि आप ज्योतिष, आध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान इत्यादि किसी भी विषय आधारित आपके मन में कोई विचार हो तो अवश्य व्यक्त करें।

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जाने हलषष्ठी व्रत की मान्यतायें


हलषष्ठी व्रत

हलषष्ठी व्रत ::::
हिन्दु कैलेण्डर के अनुसार प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह में कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को यह व्रत किया जाता है. इस दिन भगवान कृष्ण के बडे़ भाई बलराम जी की जन्म हुआ था. इसे हर षष्ठ और ललही षष्ठ के नाम से भी जाना जाता है. हल और मूसल बलराम जी के मुख्य शस्त्र थे. इसलिए इसे हल षष्ठी के नाम से जाना जाता है. किन्हीं-किन्हीं प्राँतों में यह व्रत ललिता व्रत के नाम से भी जाना जाता है. व्रत करने का विधान सभी जगह एक सा है.
यह व्रत पुत्रवती स्त्रियाँ रखती हैं. जो स्त्रियाँ व्रत रखती हैं वह हल से जोता और बोया गया भोजन नहीं करती हैं.
व्रत की विधि
इस दिन सुबह उठकर महुए की दातुन करने का विधान है. इस दिन हल से बोया गया भोजन नहीं किया जाता है. इसलिए व्रत रखने वाली स्त्रियाँ केवल नीवार के चावल का सेवन करती हैं. इस दिन गाय के दूध का भी उपयोग नहीं किया जाता है. इस दिन सुबह उठकर व्रत रखने वाली स्त्रियाँ घर के एक हिस्से को लीपकर एक जल कुण्ड बनाती हैं. जिसमें बैर, पलाश, गूलर, कुश की टहनियाँ गाड़कर ललही की पूजा की जाती है. पूजन में सतनजा अर्थात गेहूँ, चना, धान, मक्का, अरहर, ज्वार तथा बाजरे आदि का भुना हुआ लावा चढा़या जाता है. पूजन में हल्दी से रंगा हुआ कपडा़ और सुहाग सामग्री चढा़ई जाती है.
सारा पूजन समाप्त होने के उपरान्त निम्न मंत्र से प्रार्थना की जाती है :
गंगाद्वारे पर कुशावर्तें विल्वके नील पर्वतेI
स्नात्वा कनखले देवि हरं लब्धवती पतिमI
ललिते सुभगे देवि सुख सौभाग्य दायनि,
अनन्तं देहि सौभाग्यं मह्यं तुभ्यं नमो नम:
उपरोक्त श्लोक का अर्थ है कि हे देवी ! आपने गंगा द्वार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति रुप में प्राप्त किया है. सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बरबार नमस्कार है. आप मुझे अचल सौभाग्य दें.
हल षष्ठी की कथा
प्राचीन समय में एक ग्वालिन थी. उस ग्वालिन का प्रसव काल निकट था. प्रसव पीडा से वह व्याकुल थी. दूसरी ओर उसे गाय का दूध-दही बेचने का ख्याल सता रहा था. वह सोच रही थी कि बच्चा पैदा होने के बाद वह दूध-दही नहीं बेच पाएगी. उसका दूध-दही ऎसे ही पडा़ रह जाएगा. मन में यह विचार आते ही वह झट से उठ खडी़ हुई और सिर पर गोरस(दूध-दही) की मटकी रखकर बेचने चली पडी़. कुछ दूरी चलने पर उसे प्रसव पीडा़ होने लगी. पीडा़ के कारण वह एक बनबेरी की ओट में बैठ गई. वहाँ उसने एक बालक को जन्म दिया. नादानी में उस ग्वालिन ने नवजात शिशु को वहीं छोड. दिया और स्वयं दूध-दही बेचने पास के गाँवों में चली गई. उस दिन हलषष्ठी भी थी. वह ग्वालिन गाय तथा भैंस का मिश्रित दूध लेकर आई थी लेकिन उसने केवल भैंस का दूध बताकर औरतों को ठगा.
उधर जिस बनबेरी के नीचे उसने अपने बच्चे को छोडा़ था, वहाँ एक किसान हल जोत रहा था. अचानक उसके बैल भड़क गए और वह नवजात बच हल लगने से मर गया. यह देखकर किसान बहुत दुखी हुआ. उसने धैर्य रखते हुए बनबेरी के काँटों से बच्चे के पेट पर टाँका लगाकर वहीं छोड़ दिया. कुछ समय में ग्वालिन वहाँ आई. उसने बच्चे की दशा देखी और समझ गई यह उसके झूठ बोलने का फल है. उसके मन में विचार आने लगा कि हल षष्ठी के दिन उसने झूठ बोलकर अच्छा नहीं किया है. उसे पश्चाताप होने लगा. वह सोचने लगी कि उसने गाय-भैंस का मिश्रित दूध ग्रामीण महिलाओं को बेचकर उनका धर्म नष्ट किया है. इसलिए उसके साथ ऎसा हुआ है.
ग्वालिन सोचने लगी कि उसे गाँव में जाकर सभी को सच बता देना चाहिए. ऎसा सोचकर वह वापिस उन्हीं गलियों में गई जहाँ उसने दूध बेचा था. वह गली – गली में घूमकर कहने लगी कि उसने मिश्रित दूध-दही बेचा है. यह सुनकर ग्रामीण स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ उसे आशीर्वाद दिया. ग्वालिन बहुत सी महिलाओं का आशीष लेकर दुबारा बनबेरी में आई तो उसका पुत्र उसे जीवित मिला. तब उसने निश्चय किया कि अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए वह कभी झूठ नहीं बोलेगी अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलना ब्रह्म हत्या के समान निकृष्ट है.

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उन्नति हेतु केतु को करें शांत

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निरंतर चलायमान रहने अर्थात् किसी जातक को अपने जीवन में निरंतर उन्नति करने हेतु प्रेरित करने तथा बदलाव हेतु तैयार तथा प्रयासरत रहने हेतु जो ग्रह सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है, उसमें एक महत्वपूर्ण ग्रह है केतु। ज्योतिष शास्त्र में राहु की ही भांति केतु भी एक छायाग्रह है तथा यह अग्नितत्व का प्रतिनिधित्व करता है। इसका स्वभाग मंगल ग्रह की तरह प्रबल और क्रूर माना जाता है। केतु ग्रह विषेषकर आध्यात्म, पराषक्ति, अनुसंधान, मानवीय इतिहास तथा इससे जुड़े सामाजिक संस्थाएॅ, अनाथाश्रम, धार्मिक शास्त्र आदि से संबंधित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। केतु ग्रह की उत्तम स्थिति या ग्रह दषाएॅ या अंतरदषाओं में जातक को उन्नति या बदलाव हेतु प्रेरित करता है। केतु की दषा में परिवर्तन हेतु प्रयास होता है। पराक्रम तथा साहस दिखाई देता है। राहु जहाॅ आलस्य तथा कल्पनाओं का संसार बनाता है वहीं पर केतु के प्रभाव से लगातार प्रयास तथा साहस से परिवर्तन या बेहतर स्थिति का प्रयास करने की मन-स्थिति बनती है। केतु की अनुकूल स्थिति जहाॅ जातक के जीवन में उन्नति तथा साकारात्मक प्रयास हेतु प्रेरित करता है वहीं पर यदि केतु प्रतिकूल स्थिति या नीच अथवा विपरीत प्रभाव में हो तो जातक के जीवन में गंभीर रोग, दुर्घटना के कारण हानि,सर्जरी, आक्रमण से नुकसान, मानसिक रोग, आध्यात्मिक हानि का कारण बनता है। केतु के शुभ प्रभाव में वृद्धि तथा अषुभ प्रभाव को कम करने हेतु केतु की शांति करानी चाहिए जिसमें विषेषकर गणपति भगवान की उपासना, पूजा, केतु के मंत्रों का जाप, दान तथा बटुक भैरव मंत्रों का जाप करना चाहिए जिससे केतु का शुभ प्रभाव दिखाई देगा तथा जीवन में निरंतर उन्नति बनेगी।

जाने अंक और प्रेम


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मूंलाक 1 के जातकों के लिए अंक 4 मित्र अंक हैं तथा सम अंक 2, 3, 7, 9 हैं इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु अंक 1 के शत्रु 5 व 6 है इस मूंलाक के जातकों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूलांक2 के जातकों के लिए मित्र अंक 7, सम अंक 1, 3, 4, 6 है इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं शत्रु अंक 5 व 8 हैं इन्हें प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूलांक 3 के जातकों के लिए मित्र अंक 6, 9 सम अंक 1, 2, 5, 7 हैं इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं। शत्रु अंक 4 व 8 हैं।
मूंलाक 4 के जातकों के लिए मित्र अंक 1, व सम अंक 2, 6, 7, 9 है इन्हें प्रेम प्रस्ताव रख सकते हें तथा अंक 3 व 5 अंक शत्रु हैं इन्हों के सम्मुख प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 5 के जातकों के लिये मित्र अंक 3, 9, सम अंक 1, 6, 7, 8 वालों को प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं शत्रु अंक 2 व 4 है इन मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 6 के जातकों के लिये मित्र अंक 3, 9 सम अंक 2, 4, 5, 6 वालों को प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु 1 और 8 अकों के मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 7 के जातकों के लिये मित्र अंक 2, 6 तथा सम अंक 3, 4, 5, 8 वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु शत्रु अंक 1 और 9 के मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 8 के जातकों के लिये मित्र अंक 4 सम अंक 2, 5, 7, 9 के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु शत्रु अंक 3, 6 के मूंलाक वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।
मूंलाक 9 के जातकों के लिये मित्र अंक 3, 6 हैं सम अंक 2, 4, 5, 8 हैं इन अंकों के जातकों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव रख सकते हैं परन्तु शत्रु अंक 1 और 7 अकों वालों के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव न रखें।


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आपके मन के प्रश्न और ज्योतिष

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जीवन के रहस्य को सुलझाने के लिये प्राचीन काल से ही ऋषि मुनि तपस्वी साधु सन्त अपने अपने मत से जीवन के प्रकार को समझने और समझाने की कोशिश करते आये है.इन कोशिशो मे कई प्रकार के साधन प्रयोग मे लाये जाते रहे है और किसी भी साधन का प्रयोग समय से किया जाना ही मिलता है हमेशा के लिये कोई भी साधन कारगर नही हो पाया है,आज जो है वह कल नही रहता है और कल जो आता है वह परसो नही रहता है तथा कल जो था वह आज नही है,इस प्रकार से आज के बारे मे तो केवल इतना ही पता होता है कि अभी क्या चल रहा है लेकिन अगले ही पल क्या होने वाला है किसी को पता नही होता है। हजारो ईमेल आते है लोगो के हजारो सवाल रोजाना के होते है और जो भी सवाल होता है वह अक्सर जीवन मे चलने वाली परेशानी के कारणो से ही जुडा होता है.जब मन मे भ्रम पैदा हो जाते है और उन भ्रमो का कोई समाधान नही होता है तो व्यक्ति एक ऐसे कारण की तलाश मे निकलता है कि वह किस प्रकार से अपने भ्रम को निकाल सकता है,शरीर का कष्ट होता है डाक्टर भी अपने अनुभव के आधार पर ही रोग के बारे मे निश्चित करता है,और जब वह निश्चित हो जाता है तो रोग को दूर करने के दवाइयों के बारे मे अपने दिमाग का प्रयोग करता है.लेकिन रोग के बारे मे ही अगर डाक्टर के दिमाग मे ही भ्रम रह जाये तो रोग ठीक होने की बजाय कोई दूसरा रोग ही दवाइयों के प्रयोग के कारण पैदा हो सकता है.जैसे सिर दर्द हुआ तो सीधे से माना जाता है कि कोई गर्म सर्द चीज का प्रयोग कर लिया है या किसी प्रकार की बडी सोच को सामने लाकर अधिक सोच लिया है या कोई आंखो पर जोर देने वाली वस्तु को लगातार देखा गया है,लेकिन वही सिर दर्द पेट मे गैस बनने से भी हो सकता है,सिर मे किसी पुरानी चोट मे लगने के कारण भी हो सकता है,रोजाना की जिन्दगी मे किसी प्रकार की जद्दोजहद के कारण भी पैदा हो सकता है आदि बाते भी जानी जा सकती है.उसी प्रकार से ही ज्योतिष के अन्दर भी कई बाते एक साथ जानी जाती है कि व्यक्ति अपनी शंका को लेकर सामने आया है और वह अपनी शंका को जानना चाहता है लेकिन अपने प्रश्न को करने के बाद तो सभी शंका का समाधान दुनियावी रीति रिवाज से बता सकते है लेकिन जो मन के अन्दर बात चल रही है और पूंछने वाला अगर क्या जानना चाहता है वह अगर ज्योतिष से पता कर लिया जाये तो उसका समाधान भी बहुत जल्दी मिल सकता है,किसी के द्वारा प्रश्न को बताये जाने से उसे कई प्रकार से सोचा जा सकता है,और सोचने के बाद ज्योतिष से हटकर भी उत्तर दिया जा सकता है लेकिन प्रश्न को मानसिक रूप से समझने के बाद केवल उसके समाधान का विचार ही ज्योतिषी के दिमाग मे चलेगा और वह अपने समाधान को प्रश्न कर्ता के सामने प्रश्न के बाद मे रख सकता है। ज्योतिष का एक प्रकार और देखा जाता है कि समय का बताना अलग बात है और समय के अनुसार व्यक्ति को गलत समय से बचाना अलग बात है,अगर ज्योतिषी के अन्दर क्षमता है तो वह समय को बचाने के सटीक उपाय देगा और जातक अगर अमल करता है तो वह जरूर ही आने वाली या चलने वाली समस्या से मुक्ति को प्राप्त कर लेगा।
इस प्रश्न शास्त्र को दो प्रकार के रूपो मे देखा जाता है एक तो जो कह कर पूंछे जाते है और दूसरे जो मूक होते है इस प्रकार से वाचिक यानी वचन के द्वारा बताये गये है और दूसरे जो अपने मन मे तो प्रश्न को लेकर चल रहा है लेकिन कह नही रहा है,अथवा कहने वाले को सकुचाहट है कि वह इस प्रकार के प्रश्न कैसे कहे.मूक प्रश्न का उत्तर देना एक चमत्कारिक बात भी मानी जाती है और ज्योतिषी की गरिमा भी बढती है साथ ही प्रश्न कर्ता के साथ भी बहुत भला होता है.वैसे तो मूक प्रश्न के बारे मे बताना और समझना एक बहुत बडी बात मानी जाती है लेकिन ध्यान और मनन के बाद अगर इस विषय के बारे मे सीखा जाये और समझकर जीवन मे उपयोग मे लाया जाये तो वह बहुत ही सरल सा लगने लगता है.पांचवी शताब्दी के बाद से जितने भी ग्रंथ इस प्रकरण के प्रति मिले है बहुत ही कठिन और जटिल माने गये है लेकिन उस समय मे और आज के समय मे जमीन आसमान का फ़र्क भी देखने को मिलता है.
जब हम किसी प्रकार के कारण को समझने की कोशिश करते है तो हमारे अन्दर एक ही बात सामने आती है,यह क्यों हुआ कैसे हुआ और इसका परिणाम क्या होगा.इस बात मे कैसे हुआ इसका तो जबाब लिया जा सकता है जाना जा सकता है लेकिन क्यों हुआ इसका परिणाम जानने के लिये जातक के पीछे के कर्मो मे जाना पडेगा,इसके बाद क्या होगा इस बात को भी कई नजरियों से देखना पडेगा। भारत के अन्दर कई भाषाये है और सभी भाषाओ की जानकारी हर किसी को नही है सौ मे से अगर एक को कई भाषायें आती भी होंगी तो वह केवल एक विषय के बारे मे भी नही समझ सकता है कारण वह एक स्थान पर अगर कई भाषाओं का प्रयोग करने लग जाता है तो भाषा को समझने वाला कभी भी सही रूप मे नही समझ पायेगा कारण उसकी शब्दावली विचित्र हो जायेगी,यह बात वे लोग अच्छी तरह से जानते होंगे जो हिन्दी के साथ अंग्रेजी को सुनते आ रहे है।
प्रश्न शास्त्र ज्योतिष विद्या का एक महत्वपूर्ण अंग है यह तत्काल फ़ल बताने वाला शास्त्र है इसमे हमे तत्काल लगन और एवं ग्रह स्थिति के आधार पर व्यक्ति के दिमाग मे पैदा होने वाले प्रश्न और उसके शुभाशुभ फ़ल का विचार करने लगते है,इसके आधार पर कई तरह के ग्रंथ मिलते है और केरल का प्रश्न शास्त्र आपने देखा हो नही देखा हो लेकिन टीवी मे चन्द्रकांता नामक सीरियल मे रमल नामक शास्त्र का फ़ल कथन जरूर आपने देखा होगा!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

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