Saturday, 19 March 2016

हस्तरेखा और विवाह मिलाप

हस्त रेखा के नियम और संयोग विवाह मिलाप करने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। संपूर्ण हाथ का अध्ययन, पर्वत, चिह्न एवं रेखाओं का विष्लेषण वर एवं कन्या के विवाह मिलाप में सहायक होते हैं। इसके माध्यम से उन दोनों के शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक व्यक्तित्व पर विचार करके उनके व्यावहारिक और व्यावसायिक योग्यताएं, उनके स्वास्थ्य एवं आयु गणना पर विचार किया जा सकता है। एक सुखमय एवं सुखद वैवाहिक जीवन के लिये निम्न तथ्यों पर विचार आवष्यक है- 1. वर-कन्या के स्वभाव एवं चरित्र अनुकूलता। 2. व्यावसायिक योग्यता एवं स्थिरता 3. अनुकूल शारीरिक आकर्षण एवं क्षमता 4. वर-कन्या में उत्तम संतान योग 5. तलाक स्थिति के योग न होना 6. उत्तम स्वास्थ्य के योग 7. वर कन्या के उत्तम आयु योग इन तथ्यों का विस्तार में विवेचन वर कन्या के सफल वैवाहिक जीवन का मार्गदर्षन देते हैं। 1. वर-कन्या के स्वभाव एवं चरित्र अनुकूलता प्रत्येक व्यक्ति में सकारात्मक एवं नकारात्मक गुण होते हैं। वर-कन्या में नकारात्मक गुणों की अधिकता होने के कारण वैवाहिक जीवन असफल हो सकता है। अतः आवष्यक है कि दोनों के स्वभाव का विष्लेषण किया जाये और उनके मानसिक अनुकूलता का निर्णय किया जाये। जितने अधिक अच्छे संयोग, उतना ही उत्तम मिलाप। अच्छे संयोग 1. आदर्ष एवं उत्तम विकसित हृदय रेखा। 2. उत्तम विकसित जीवन रेखा। 3. शुक्र वलय का केवल प्रारंभ एवं अंत में बनना। 4. हृदय रेखा का बृहस्पति पर्वत पर समाप्त होना। 5. उत्तम विकसित शुक्र पर्वत एवं बृहस्पति पर्वत। 6. जीवन रेखा एवं मस्तिष्क रेखा के बीच सामान्य दूरी। 7. उत्तम विकसित विवाह रेखा नकारात्मक संयोग 1. छोटी एवं हल्की हृदय रेखा 2. मंगल पर्वत का अत्यधिक विकसित होना तथा मंगल पर्वत पर दोषपूर्ण चिह्न। 3. कम विकसित चंद्र, शुक्र एवं बृहस्पति पर्वत। 4. जंजीरदार हृदय रेखा 5. असामान्य जीवन रेखा 6. दोषपूर्ण विवाह रेखा वर-कन्या के हाथों में सकारात्मक संयोग भावनात्मक, मार्मिक एवं महत्वाकांक्षी स्वभाव को दर्षाते हैं। दोनों स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त मन के होते हैं। दूसरी ओर नकारात्मक संयोग प्रबल एवं अहंकारी स्वभाव को दर्षाते हैं। वे जीवन के प्रति उदासीन एवं निराषावादी दृष्टिकोण रखते हैं। अतः यह आवष्यक है कि वर-कन्या के अनुकूल गुणों को संतुलित करके विवाह मिलान उचित है। 2. वर-कन्या की व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता उत्तम स्वभाव एवं मनोवैज्ञानिक विषेषताओं के साथ इस भौतिक संसार में सुखी रहने के लिये व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता भी आवष्यक है। कई बार पति-पत्नी में मतभेद आर्थिक अस्थिरता के कारण उत्पन्न हो जाते हैं। अतः विवाह मिलान इस प्रकार किया जाना चाहिये कि वर-कन्या के जीवन में आर्थिक स्थिति अनुकूल रहे तथा कभी जीवन में आर्थिक समस्याओं का सामना भी करना पड़े तो दोनों में फिर से आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति हो। अनुकूल गुण 1. उत्तम विकसित भाग्य रेखा एवं सूर्य रेखा। 2. उत्तम बृहस्पति एवं सूर्य पर्वत 3. विस्तृत हथेली 4. बृहस्पति पर्वत पर समाप्त होती एक भाग्य रेखा। 5. हथेली एवं रेखाओं पर शुभ चिह्न 6. उत्तम मस्तिष्क एवं जीवन रेखा अनुकूलता एवं यौन संबंध जान सकते हैं। उत्तम अनुकूलता द्वारा वे अपने रोमांटिक इच्छाओं को बढ़ा सकते हैं, अच्छे संबंध बना सकते हैं और एक सुखी वैवाहिक जीवन का आनंद ले सकते हैं। दूसरी ओर शारीरिक और यौन अयोग्यता या यौन संबंध में निर्दयी स्वभाव वैवाहिक जीवन में दरार डाल देती है। अतः बहुत निपूणता से यह विवाह मिलान करना आवष्यक है। अनुकूल गुण 1. उत्तम विकसित हृदय रेखा 2. उत्तम विकसित षुक्र एवं चंद्र पर्वत 3. उत्तम विकसित अंगूठे का तीसरा पर्व 4. उत्तम उभार लिये मंगल पर्वत 5. गहरी व गुलाबी विवाह रेखा चित्र संख्या 1.2 नकारात्मक संयोग चित्र संख्या 2.1 अनुकुल गुण नकारात्मक गुण 1. टूटी हुई अथवा जंजीरदार भाग्य रेखा। 2. कम विकसित बुध एवं बृहस्पति पर्वत। 3. कमजोर भाग्य एवं सूर्य रेखा 4. भाग्य रेखा पर नकारात्मक चिह्न 5. भाग्य रेखा से निकलती निचली रेखायें 6. कमजोर जीवन रेखा चित्र 2.2 नकारात्मक गुण वर-कन्या के वैवाहिक जीवन में व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता के लिये ऊपर दिये गये संयोगों का मिलान आवष्यक है। 3. उत्तम शारीरिक अनुकूलता हथेली के विष्लेषण द्वारा वर-कन्या के विवाह उपरांत उत्तम शारीरिक चित्र 3.1 अनुकूल गुण नकारात्मक गुण 1. हृदय रेखा पर काले चिह्न 2. बुध रेखा या यकृत रेखा का समाप्ति पर द्विषाखित होना नपुंसक योग बनाता है। 3. मस्तिष्क रेखा एवं जीवन रेखा में अत्यधिक दूरी 4. हाथ का निचला क्षेत्र अत्यधिक विकसित 5. मंगल प्रधान व्यक्तित्व और दोश्पूर्ण मंगल पर्वत 6. अत्यधिक विकसित शुक्र पर्वत एवं मंगल पर्वत के कारण अलग करता है। 3. विवाह रेखा को काटती हुई रेखा तलाक देती है। 4. विवाह रेखा का प्रारम्भ एवं अन्त में द्विमुखी होना कुछ समय के लिये अलग करता है। चित्र 3.2 नाकारात्मक गुण 4. वर-कन्या में उत्तम संतान योग विवाह के पवित्र रिश्ते में बंधने के उपरान्त वर-कन्या सन्तान के इच्छुक हो जाते हैं। ऐसे में दोनों के हाथों में सन्तान होने के योग आवश्यक होते हैं। कन्या के हाथ में संतान योग अत्यधिक शुभ होने चाहिए क्योंकि एक स्त्री संतान को नौ महीने तक गर्भ धारण करके एक स्वस्थ्य बालक को जन्म देना होता है। अनुकूल गुण 1. अंगूठे के आधार पर परिवार मुद्रिका 2. विवाह रेखा के ऊपर पाई जाने वाली सीधी रेखाएं 3. उत्तम विकसित बुध की उंगली 4. उत्तम विकसित शुक्र पर्वत 5. उत्तम विकसित अंगूठे का तीसरा पर्वत 6. उत्तम विकसित हृदय रेखा नकारात्मक गुण 1. छोटी हृदय रेखा 2. कम उभरा हुआ शुक्र पर्वत एवं गुरु पर्वत 3. विवाह रेखा के ऊपर क्राॅस 4. जिस स्थान पर मस्तिष्क रेखा बुध रेखा को काटती है वहां तारा होना 5.तलाक स्थिति के योग न हो तलाक विवाह के सम्बन्ध का कानूनी भंग है जब दोनों जीवनसाथी साथ रहकर एक स्वस्थ सम्बन्ध नहीं निभा पाते हैं। अतः विवाह मिलाप करते समय वर-कन्या के हाथ में इस बात की जाँच अवश्य की जाये कि उनके स्वस्थ सम्बन्ध बनेंगे या नहीं क्योंकि तलाक एक दर्दनाक घटना है। तलाक अथवा कुछ समय के लिए अलग होने के योग 1. विवाह रेखा का अंत में द्विशाखित होना कुछ समय के लिये अलग करता है। 2. शुक्र पर्वत पर जाल अथवा काटती हुई रेखाएं शारीरिक कम के कारण अलग करता है। 3. विवाह रेखा को काटती हुई रेखा तलाक देती है। 4. विवाह रेखा का प्रारम्भ एवं अन्त में द्विमुखी होना कुछ समय के लिये अलग करता है। 6. विवाह योग्य वर-कन्या का उत्तम स्वास्थ्य व्यक्ति प्रायः अपने दैनिक जीवन में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का सामना करता है। इन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कुछ कारण हैं दुर्बल गठन, जीवन शक्ति की कमी, नेत्र समस्याएं, दुर्बल पाचन शक्ति इत्यादि। ये समस्याएं व्यक्ति को मानसिक रूप से भी कमजोर बनाती हैं और उसके वैवाहिक जीवन की ऊर्जा और उत्तेजना कम हो जाती है। ऐसे में अनेक वैवाहिक सम्बन्ध खराब हो जाते हैं। अतः वर-कन्या के वैवाहिक जीवन का मिलाप करते वक्त इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि उन दोनों का उत्तम स्वास्थ्य एवं अच्छा शारीरिक गठन है। अनुकूल योग 1. उत्तम विकसित जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा 2. बुध रेखा का न होना और होना तो उत्तम विकसित होना। 3. उत्तम विकसित मंगल रेखा 4. जीवन रेखा से ऊपर की ओर निकलती रेखायें 5. जीवन रेखा एवं मस्तिष्क रेखा का प्रारम्भ में उत्तम विकसित होना 6. उत्तम भाग्य रेखा 7. स्वस्थ नाखून नकारात्मक गुण 1. कमजोर जीवन रेखा 2. टूटी हुई बुध रेखा 3. कमजोर मस्तिष्क एवं हृदय रेखा 4. प्रारम्भ से जंजीरदार मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा 5. जीवन रेखा से नीचे की ओर जाती रेखाए 6. कमजोर नाखून 7. वर-कन्या की पूर्ण आयु विवाह योग्य वर-कन्या के लिये एक उत्तम एवं पूर्ण आयु वैवाहिक जीवन को लम्बे समय तक निभाने के लिए आवश्यक है। यदि दोनों के भाग्य में पूर्ण आयु का योग न हो तो एक लम्बे समय तक वैवाहिक सुख नहीं प्राप्त कर सकते। अनुकूल गुण 1. पूर्ण गोलाई लिये हुये एक अच्छी एवं लम्बी जीवन रेखा 2. उत्तम विकसित बुध रेखा 3. पूर्ण मणिबन्ध 4. उत्तम मस्तिष्क व हृदय रेखा 5. पूर्ण विकसित बुध की रेखा 6. उत्तम विकसित मंगल रेखा नकारात्मक योग 1. जीवन रेखा का दोनों हाथों में कम आयु में टूटना 2. जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा का प्रारम्भ में जुड़ना तथा जीवन रेखा का टूटना 3. बुध की रेखा का कम आयु में जीवन रेखा से मिलना तथा जीवन रेखा का टूटना 4. विवाह रेखा का टूटना विवाह योग्य वर-कन्या का विवाह-मिलान एक सफल सम्बन्ध तथा एक स्वस्थ एवं सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन की ओर संकेत करता है। हाथों पर पाये जाने वाले संयोग एवं संकेत विवाह मिलाप करने में सहायक हैं तथा वर-कन्या को आपस में अनुकूल बनाते हुये विवाह एवं जीवन को सफल यात्रा की ओर ले जाते हैं।

कुछ उपायों से बदली जा सकती है हस्तरेखा

हस्तरेखाओं से यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति को किस दिशा में प्रयास करना चााहिए कि उसकी आय के स्रोत सदैव खुले रहें, वह प्रगतिशील रहे और उसके कार्यों में कोई बाधा न आए। किंतु कई बार व्यक्ति ऐसा पेशा, व्यापार या नौकरी अपना लेता है जिससे वह अत्यंत मेहनत करने के पश्चात भी जीवन स्तर की सुधार नहीं पाता है। यहां हथेलियों में पाए जाने वाले अपूर्ण या दुष्प्रभाव वाले चिह्नों को शुभ चिह्नों में बदलने के उपायों का वर्णन प्रस्तुत है। - प्रशासनिक क्षेत्र में जाने या नौकरी में पदोन्नति के लिए आवश्यक है कि सूर्य पर्वत उभरा हुआ हो तथा उस पर गहरी रेखा हो जो मस्तिष्क रेखा से मिल रही हो। किंतु यदि इसका अभाव हो तो इस क्षेत्र में उन्नति के लिए निम्न उपाय करने चाहिए। - जल में सिंदूर या कुमकुम मिलाकर सूर्य को चढ़ाएं। उगते हुए सूर्य के दर्शन अवश्य करें। और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। यदि विवाह रेखा दोषपूर्ण हो अपूर्ण या इसकी संख्या दो से अधिक हो और इस कारण विवाह में विलंब रहा हो तो केले के वृक्ष की परिक्रमा करें या बंदरों को केला खिलाएं अथवा हाथों की आठों अंगुलियों के नाखून काट कर कर्पूर के माध्यम से उन्हें जला लें और उसमें हल्दी मिला कर दोनों हाथों की मुठ्ठियों में जो से भींच लें। यह प्रयोग गुरुवार को गोधूलि बेला में। सूर्य की साक्षी में करें और मुठ्ठियाँ तब तक भींचे रखें जब तक कि अंधेरा न हो जाए। फिर वह राख फेंक दें। यदि शनि पर्वत या शनि रेखा के कारण कोई कार्य बिगड़ रहा हो तो शनिवार की रात किसी स्थान पर किसी भी तेल की ग्यारह बिंदिया लगाकर उस पर काला आसन बिछाकर पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके बैठें और अंधेरे में शनि मंत्र का जप करें। यदि समस्या न्यायालय से संबंधित हो तो आसन के नीचे लोहे का सिक्का भी रख लें। सिक्के को साथ में न्यायालय भी ले जाएं। यदि हस्तरेखाएं स्पष्ट न हों, पर्वतों के उभार सही नहीं हों तो घर में पिरामिड या स्फटिक श्री यंत्र की स्थापना और पूजन करें, लाभ होगा। नियमित मौन रखने से भी हस्त रेखाओं में शीघ्र अनुकूल बदलाव आते हैं। जीवन रेखा को गहरा और वृहद बनाने तथा दोषपूर्ण स्थिति मिटाने के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप है। प्राणायम और योगासान से हृदय रेखा प्रभावित होती है। यदि हृदय रेखा जालीदार, टूटी हुई और छोटी हो तो सुबह शाम प्राणायाम करें, अत्यंत लाभ होगा।

धन आने में रुकावट....जाने हाथ की रेखाओं से....

धन आगमन में रुकावटों का कारण होता है मनुष्य का हाथ अर्थात हाथों की लकीरें और हाथांे में स्थित निर्धनता के योग। आइये जानें इन रुकावटों का क्या संबंध है हाथों से: - भाग्य रेखा देर से शुरू हो रही हो, भाग्य रेखा मोटी और मस्तिष्क रेखा पर रुक गयी हो तथा हाथ में बहुत ही कम रेखाएं हों तो जीवन में कठिन संघर्ष करना पड़ता है, साथ ही कामकाज गति नहीं पकड़ पाता। - हाथ बहुत भारी न हो, सख्त हो और शनि ग्रह दबा हुआ हो तो अनियमित रोजगार, जीवन में संघर्ष और प्रत्येक काम रुक-रुक कर चलने के संकेत हैं। - शुक्र ग्रह का उठा हुआ होना, शनि ग्रह का दबा हुआ होना, गुरु की उंगली का छोटा होना और भाग्यरेखा का दूषित होना काम-काज में व्यवधान, अनियमित रोजगार और आर्थिक हानि होने के प्रबल संकेत हैं। - दोनों हाथों में जीवन रेखा सीधी हो, भाग्य रेखा दूषित हो और शनि ग्रह अत्यंत खराब हो तो आर्थिक नुकसान और रोजगार अनियमित रहने के संकेत हैं। - हृदय रेखा से कोई रेखा निकल कर या हृदय रेखा की शाखा मस्तिष्क रेखा को काट रही हो, साथ ही गुरु की उंगली छोटी हो तो ऐसे व्यक्तियों के धनागमन के मार्ग में बाधाएं आती हैं। - जीवन रेखा और मस्तिष्क रेखा बहुत आगे तक जाकर जुड़ रही हों, साथ ही शनि, सूर्य तथा बुध ग्रह भी दबे हुए हों तो ऐसे जातकों के रोजगार गति नहीं पकड़ पाते, कोई भी व्यवसाय नियमित नहीं चल पाता। - हाथ सख्त हो और पतला हो, गुरु की उंगली छोटी हो और उंगलियों में छिद्र हों तो ये दोषपूर्ण योग हैं। इनके कारण धन के संघर्ष, अस्थिर व्यवसाय एवं आर्थिक रुकावटें बनी रहती हैं। - चमसाकार हाथ में भाग्य रेखा दोषपूर्ण हो, उंगलियों में छेद हों और शनि ग्रह की स्थिति अत्यंत कमजोर हो तो पूरा जीवन संघर्षमय रहेगा, खासकर नौकरी एवं व्यवसाय में रुकावटें आती रहेंगी। - अत्यंत चैड़ी भाग्य रेखा से छोटी-छोटी शाखाएं निकलकर नीचे की ओर जा रही हों तो यह दिवाला योग का प्रबल संकेत है। - शनि ग्रह और बुध ग्रह अत्यंत कमजोर हों, शनि की उंगली भी ठीक न हो तो धनप्राप्ति के मार्ग में रुकावट आती है। - मंगल रेखा, जीवन रेखा और भाग्य रेखा को यदि कई आड़ी-तिरछी रेखाएं काट रही हों तो सभी कामों में रुकावट आती हैं, खासकर आर्थिक क्षेत्र में बाधाएं आती हैं। - दूषित भाग्य रेखा से अधोगामी रेखाएं निकल रहीं हों और शुक्र से निकलने वाली रेखाएं जीवन रेखा को काट रही हों तो आर्थिक हानि होती है और व्यवसाय में रुकावटें आती हैं।

हिन्दू मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार

अनादि काल से ही हिंदू धर्म में अनेक प्रकार की मान्यताओं का समावेश रहा है। विचारों की प्रखरता एवं विद्वानों के निरंतर चिंतन से मान्यताओं व आस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। क्या इन मान्यताओं व आस्थाओं का कुछ वैज्ञानिक आधार भी है? यह प्रश्न बारंबार बुद्धिजीवी पाठकों के मन को कचोटता है। धर्मग्रंथों को उद्धृत करके‘ ‘बाबावाक्य प्रमाणम्’ कहने का युग अब समाप्त हो गया है। धार्मिक मान्यताओं पर सम्यक् चिंतन करना आज के युग की अत्यंत आवश्यक पुकार हो चुकी है। प्रश्न: माला का प्रयोग क्यों करते हैं? उत्तर: माला एक पवित्र वस्तु है जो‘ शुचि संज्ञक’ वस्तुओं से बनाई जाती है। इसमें 108 मनके होते हैं जिससे साधक को अनुष्ठान संबंधी जप- मंत्र की संख्या का ध्यान रहता है। अंगिरा स्मृति में कहा है- ‘‘असंख्या तु यज्जप्तं, तत्सर्वं निष्फलं भवेत्।’’ अर्थात बिना माला के संख्याहीन जप जो होते हैं, वे सब निष्फल होते हैं। विविध प्रकार की मालाओं से विविध प्रकार के लाभ होते हैं। अंगुष्ठ और अंगुली के संघर्ष से एक विलक्षण विद्युत उत्पन्न होगी, जो धमनी के तार द्वारा सीधी हृदय चक्र को प्रभावित करेगी, डोलता हुआ मन इससे निश्चल हो जायेगा। प्रश्न: माला जप मध्यमांगुली से क्यों? उत्तर: मध्यमा अंगुली की धमनी का हृत्प्रदेश से सीधा संबंध है। हृदयस्थल में ही आत्मा का निवास है। आत्मा का माला से सीधा संबंध जोड़ने के लिये माला का मनका मध्यमा अंगुली की सहायता से फिराया जाता है। प्रश्न: माला में 108 दाने क्यों? उत्तर: माला का क्रम नक्षत्रों के हिसाब से रखा गया है। भारतीय ऋषियों ने कुल 27 नक्षत्रों की खोज की। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। 27 ग् 4 = 108 । अतः कुल मिलाकर 108 की संख्या तय की गई है। यह संख्या परम पवित्र व सिद्धिदायक मानी गई। तत्पश्चात् हिंदू धर्म के धर्माचार्यों, जगद्गुरुओं के आगे भी ‘श्री 108’ की संख्याएं सम्मान में लगाई जाने लगीं। प्रश्न: माला कंठी गले में क्यांे? उत्तर: मौलाना भी अपने गले में तस्बी लटकाते हैं। ईसाई पादरी भी ईशु मसीह का क्राॅस गले में लटकाते हैं। अतः अपने इष्ट वस्तुओं को गले में धारण करने की धार्मिक परंपरा हिंदुओं में भी है। ओष्ठ व जिह्ना को हिलाकर उपांशु जप करने वाले साधकों की कंठ धमनियों को अधिक प्ररिश्रम करना पड़ता है। यह साधक कहीं गलगण्ड, कंठमाला आदि रोगों से पीड़ित न हो जाय, उस खतरे से बचने के लिये तुलसी, रुद्राक्ष आदि दिव्य औषधियों की माला धारण की जाती है। हिंदू सनातन धर्म में केवल मंत्र संख्या जानने तक ही माला का महत्त्व सीमित है। महर्षियों ने इसके आगे खोज की तथा विभिन्न रत्न औषधि व दिव्यवृक्षों के महत्त्व, उपादेयता को जानकर उनकी मालाएं धारण करने की व्यवस्थाएं इस प्रकार से दी हैं। ‘तन्त्रसार’ के अनुसार 1. कमलाक्ष (कमलगट्टे) की माला शत्रु का नाश करती है, कुश ग्रन्थि से बनी माला पाप दूर करती है। 2. जीयापीता (जीवपुत्र) की माला, संतानगोपाल आदि मंत्रों के साथ जपने से पुत्र लाभ देती है। 3. मूंगे (प्रवाल) की माला धन देती है। 4. रुद्राक्ष की माला महामृत्युंजय मंत्र के साथ जपने से रोगों का नाश करके दीर्घायु देती है। 5. विघ्न-निवृत्ति हेतु, शत्रु-नाश में हरिद्रा की माला। 6. मारण व तामसी कार्यों में सर्प के हड्डी की माला, आकर्षण एवं विद्या हेतु स्फटिक माला। 7. श्री कृष्ण व विष्णु की प्रसन्नता हेतु तुलसी एवं शंख की माला प्रशस्त है। 8. वैसे व्याघ्रनख, चांदी, सोने, तांबे के सिक्के से सन्निवेश डोरा बच्चों को नजर-टोकार एवं बहुत सी संक्रामक बीमारियों से बचाता है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार

तीसरा संस्कार ‘सीमन्तोन्नयन’ है। गर्भिणी स्त्री के मन को सन्तुष्ट और अरोग रखने तथा गर्भ की स्थिति को स्थायी एवं उत्तरोत्तर उत्कृष्ट बनते जाने की शुभाकांक्षा-सहित यह संस्कार किया जाता है। समय-पुंसवन वत् प्रथमगर्भे षष्ठेऽष्टमेवा मासे अर्थात् प्रथम गर्भ स्थिति से 6 ठे या आठवें महीने यह संस्कार किया जाता है। कोई इसे प्रथम गर्भ का ही संस्कार मानते हैं, कोई इसे अन्य गर्भों में कर्तव्य मानते हैं, परन्तु उनके मत में 6 ठे या 8 वें महीने का नियम नहीं है। ‘सीमन्तोन्नयन’ शब्द का अर्थ है ‘स्त्रियों के सिर की मांग’। यह एक साधारण प्रथा है कि सौभाग्यवती स्त्रियां ही मांग भरती है। यह उनकी प्रसन्नता, संतुष्टि आदि का सूचक है। यहां पति अपने हाथ से पत्नी के बाल संवार कर मांग में सिंदूर दान करता है। चरक में लिखा हैः- ‘सा यद्यदिच्छेत्ततदस्य दद्यादन्यत्र गर्भापघातकरेभ्यो भावेभ्यः’। अर्थात् गर्भवती स्त्री, गर्भविनष्ट करने वाली वस्तुओं को छोड़कर जो भी कुछ मांगे वह देना चाहिए। ‘‘सौमनस्यं गर्भधारकारणम्।’’ लब्धदौहृदा तु वीर्यवन्तं चिरायुषं च पुत्रं प्रसूते। गर्भवती स्त्री को प्रसन्न रखना चाहिए। उसकी इच्छा पूरी होने से सन्तान वीर्यवती और दीर्घायु होती है। संकल्प सीमन्तोन्नयन संस्कार के दिन यजमान पत्नीसहित मंगल द्रव्ययुत जल से स्नान कर चीरेदार दो शुद्ध वस्त्र धारण कर शुभासन पर बैठकर आचमन प्राणायाम कर निम्नलिखित संकल्प पढ़ेः- (देष-काल का कीर्तन कर) अस्याः मम भार्यायाः गर्भा- तदा चास्य चेतना प्रव्यक्ता भवति। ततष्च प्रभृति स्पन्दते, अभिलाषं पंचेन्द्रियार्थेषु करोति। मातजं चास्य हृदयं तद्रसहारिणीभिः धमनीभिः मातृहृदयेनाभिसम्बद्धं भवति। तस्मात्तयोस्ताभिः श्रद्धा सम्पद्यते। तथा च दौहृद्यां ‘नारी दोहृदिनी’ त्याचक्षते। अर्थात् गर्भस्थ जीव को चेतना (इच्छा) चैथे महीने में स्पष्ट होने लगती है। उस समय गर्भ का स्पन्दन आरम्भ होता है। पांचों इन्द्रियों के विषय में वह इच्छा करने लगता है। इस गर्भ का हृदय माता के बीज-भाग के हृदय के साथ जुड़ा होता है। इसलिए दोनों में एक समान इच्छा होती है और अब दो हृदयों के कारण स्त्री को दो हृदिनी कहने लगते हैं। सा प्राप्तदौहृदा पुत्रं जनयेत् गुणान्वितम्। अलब्धादौहृदा गर्भं लभेतात्मनि वा भयम्।। अर्थात् दोहृद पूरा न होने पर गर्भ या माता के जीवन को भय रहता है। आठवें महीने में अष्टमेऽस्थिरी भवति ओजः। तत्र जातष्चेन्न जीवेन्निरोजस्त्वात्। नैर्ऋतभागत्वाच्च वयवेभ्यस्तेजोवृद्धयर्थं क्षेत्रगर्भयोः संस्कारार्थं गर्भसमद्भवैनो निबर्हणपुरस्सरं श्रीपरमेष्वरप्रीत्यर्थं सीमन्तोन्नयनाख्यं संस्कारकर्म करिष्ये। तत्र निर्विघ्नार्थं गणपतिपूजनं, स्वस्तिपुष्याहवाचनं मातृकानवग्रहादिपूजनं यथाषक्ति सांकल्पिकं नान्दीश्राद्धं होमं च करिष्ये। सामान्य विधि संकल्प पढ़ने के पश्चात् स्वस्तिवाचनादि सामान्य विधि प्रकरण में उक्त रीति से सम्पन्न करे और अन्त में कुषकण्डिका समेत विस्तृत होम विधि करे। विशेष विधि तत्र विषेषः पात्रासदने। आज्यभागान्तरं तुण्डलतिलमुद्गानां क्रमेण पृथगासादनम्। उपकल्पनीयानि मृदुपीठं, युग्मान्योदुम्बरफलानि एकस्तबक निबद्धानि, त्रयोदर्भपिंजूलाः,त्रयेणी शलली, वीरतरुषंकुः, शरेषीका आष्वत्त्थो वा शंकुः पूर्णं चात्रं, वीणागाथिनौ चेति। आज्यमधिश्रित्य चरुस्थाल्यां मुद्गान् प्रक्षिप्याधिश्रित्य ईषच्छृतेषु मुद्गेषु तिलतण्डुलप्रक्षेपं कृत्वा पर्यग्निकरणं कुर्यात्। आठवें महीने में अभी ओज अस्थिर होता है। इस मास में उत्पन्न सन्तान प्रायः जीती नहीं। ओज का दूसरा नाम वीर्य है। यह ओज आठवें मास में अस्थिर रहता है- कभी माता में कभी सन्तान में जाता-आता रहता है। इसलिए इस महीने को ‘नगण्य’ (गिनती में न लाने योग्य) कहते हैं। इस ओज को बढ़ाने के लिए माता को प्रसन्न रखना आवष्यक है। इन्हीं कारणों से गर्भवती पत्नी को विषेषतः प्रसन्न रखने के लिए और उसमें प्रसन्न रहने की धारणा को पुष्ट करने के लिए इस संस्कार का समय गर्भ का चैथा व आठवां मास नियत है। इन मासों में जब चन्द्रमा पुनर्वसु, पुष्य आदि पुल्लिंग नक्षत्रों से युक्त हो तब इस संस्कार को करें। इस संस्कार की कुषकण्डिका में विषेष बात यह है कि दूसरी सब वस्तुओं के साथ आज्य के पश्चात् चावल, तिल, मूंग को क्रमषः अलग-अलग रखें और कोमलासन सहित पटड़ा (भद्रपीठ), एक गुच्छे में बन्धे गूलर फलों के जोड़े, कुषाओं की तीन पिंजूलि, तीन स्थान पर श्वेत सेही का एक कांटा, अर्जुन या पीपल की एक खूंटी, पीले सूत से भरा तकुआ और दो वीणावादक। घृत को पकने के पश्चात् चरु (सामग्री) पात्र में मूंग डालकर उनको पकायें, कुछ पक जाने पर उनमें तिल-चावल मिलायंे और घृत की भांति इसमें भी जलते हुए तृण को घूमाकर रखें। (पर्यग्निकरण) कुशकण्डिका के पश्चात् होम विधि प्रारम्भ करंे। होम विधि में स्विष्टकृति आहुति के पश्चात् पूर्वसिद्ध स्थालीपाक (खिचड़ी) की आहुति निम्न मन्त्र से देंः- ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं निर्वपामि ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि। फिर महा व्याहृति आदि प्राजापत्य आहुति पर्यन्त आहुतियां शेष स्थालीपाक से दे। पश्चात् बर्हिहोम पर्यन्त होमविधि सम्पूर्ण करें। सीमन्तोन्नयन इसके पश्चात् स्नाता एवं शुद्ध वस्त्रा, गर्भिणी पत्नी को, अग्नि के पष्चिम भाग में, एकान्त में अथवा संस्कार भूमि पर ही एक ओर पटड़े पर कोमल आसन बिछाकर बिठायें और उसके पीछे बैठकर तेरह-तेरह कुओं की तीन पिंजुली, तीन स्थान में श्वेत सेही का एक कांटा, पीला सूत लिपटे लोहे का तकुवा और तीक्ष्ण अग्रभाग समेत बिलस्त भर काठ की एक घूंटी’ और बिल्व इन पांचों से एक साथ पत्नी के सिर का विनयन करें अर्थात् फल स्वच्छ कर, पट्टी निकाल पीछे की ओर सुन्दर जूड़ा बांधे। मांग करते समय निम्न मन्त्रभाग का पाठ करेंः- ऊँ भूर्विनयामि। ऊँ भुवर्विनयामि। ऊँ स्व र्विनयामि। पश्चात् निम्न मन्त्र का पाठ करता हुआ बाल संवारने की पांचों वस्तुओं को जूड़े में ही बांध देंः- ऊँ अयमूर्जावतो वृक्ष ऊर्जीव फलिनी भव पष्चात् वीणावादक निम्नलिखित मन्त्र का गान करेंः- ऊँ सोम एव ते राजेमा मानुषीः प्रजाः। अविमुक्तचक्र आसीरंस्तीरे तुभ्यम्......... पश्चात् अन्य वामदेव्य गान आदि गान करें। अब अभ्यागत ब्राह्मणादि का दक्षिणा भोजनादि से सत्कार कर, आषीर्वाद ग्रहण कर, देवगणों का विसर्जन करें। तदन्तर स्रुवा मूल द्वारा कुण्ड में से भस्म लेकर विधि पूर्वक भस्म धारण और आरती आदि करें।

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Friday, 18 March 2016

देवी पाठ विधि

जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम गं्रथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ ह।ै 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। 'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है। प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु। उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगााणां शतद्वयम्॥ मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के। विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥ एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥ तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥ अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं। दुर्गा सप्तशती को सिद्ध कैसे करें- सामान्य विधि : नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं। वाकार विधि : यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है। संपुट पाठ विधि : किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है। सार्ध नवचण्डी विधि : इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है। शतचण्डी विधि : मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है। इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।

गणेश साधना से ग्रह शांति

बुद्धि के विशेष प्रतिनिधि होने से गणपति का महत्व काफी बढ़ जाता है। विभिन्न धार्मिक क्षेत्रों में गणपति के विषय में विस्तृत वर्णन किया गया है। तंत्रशास्त्रों में भी इनकी महिमा का वर्णन है। सनातन संस्कृति के अनुयायी बिना गणेश पूजन किये कोई शुभ व मांगलिक कार्य आरंभ नहीं करते। निश्चित ही वह अति विशिष्ट ही होगा जिसने तैंतीस करोड़ देवताओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। गणेश महात्म्य : त्रिपुरासुर के वध के लिए जिसकी स्वयं महेश यानि भगवान शिव करते हैं, महिषासुर के नाश के लिए जिसकी तपस्या स्वयं आदि शक्ति भगवती करती हैं, वह गणाध्यक्ष विनायक कोई भी कार्य संपादन का एक मात्र अधिष्ठाता होगा ही। प्रभु श्री विष्णु, रामावतार में विवाह प्रसंग के समय बड़े मनोभाव से भगवान गणेश की पूजा करते हैं तो माता पार्वती एवं बाबा भोले नाथ ने भी अपने विवाह से पहले श्री गणेश की सर्वप्रथम पूजा-अर्चना की। मानव में सात चक्र होते हैं जिसमें सबसे प्रथम है- मूलाधार चक्र। इस मूलाधार चक्र को भी गणेश चक्र के नाम से खयाति प्राप्त है। मूलाधार चक्र को शक्ति व ज्ञान की गति का अधिष्ठान बताया गया है। ऐसा ही विलक्षण दर्शन गणेश के चरित्र से प्राप्त होता है। इसलिए अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक परंब्रह्म, असाधारण प्रतिभावान यह गणपति ही हैं, विष्णु महाकैटभ के संहार और ब्रह्मा सृष्टि के कार्य सिद्धि लिए गणेश उपासना यूं ही नहीं करते। वस्तुतः प्राचीन उपासना क्रम में पंच देवोपासना का निर्देश मिलता है। इस उपासना भेद में भी श्री गणेश को अपना स्थान प्राप्त हुआ है। प्रातःकाल गणेश जी को श्वेत दूर्वा अर्पित करके घर से बाहर जायें। इससे आपको कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। घर के मुखय द्वार के ऊपर गणेश जी का चित्र या प्रतिमा इस प्रकार लगाएं कि उनका मुंह घर के भीतर की ओर रहे। इससे धन लाभ होगा। गणपति को दूर्वा और मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाकर श्री लक्ष्मी के चित्र के सामने शुद्ध घी का दीपक जलाएं कभी धनाभाव नहीं होगा। दुकान या व्ववसाय स्थल के उद्घाटन के समय चांदी की एक कटोरी में धनिया डालकर उसमें चांदी के लक्ष्मी गणेश की मूर्ति रख दें। फिर इस कटोरी को पूर्व दिशा में स्थापित करें। दुकान खोलते ही पांच अगरबत्ती से पूजन करने से व्यवसाय में उन्नति होती है। नित्य श्री गणेश जी की पूजा करके उनके मंत्र 'श्री गं गणपतये नमः' का जप करने से सभी प्रकार की परीक्षा में सफलता प्राप्त होती है। छात्रों को जो विषय कठिन लगता हो उस विषय की पुस्तक में गणेश जी का चित्र तथा दूर्वा रखने से वह विषय सरल लगने लगेगा। बुधवार का व्रत रखकर बुध स्तोत्र का पाठ करने से, गणेश जी को मूंग के लड्डू चढ़ाने से आजीविका की प्राप्ति शीघ्र होती है। रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र में श्वेत आक की जड़ लाकर उससे श्री गणेश जी की प्रतिमा बनायें। फिर उस पर सिंदूर और देशी घी के मिश्रण का लेप करके एक जनेऊ पहनाकर पूजा घर में स्थापित कर दें। तत्पश्चात इसके समक्ष श्री गणेश मंत्र की 11 माला का जप करें। आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। बुधवार के दिन श्री गणेश का पूजन करके गाय को घास खिलाने से सास के प्रति बहू का कटु व्यवहार दूर होता है। बुधवार के दिन श्री गणेश साधना करने से बुध ग्रह के दोष दूर होते हैं। गणेश चतुर्थी के दिन से श्री गणेश स्तोत्र का पाठ शुरू करके भगवान से प्रार्थना करने पर पिता-पुत्र के संबंधों में मधुरता आती है। एक सुपारी पर मौली लपेटकर उसे गणपति के रूप में स्थापित कर तत्पश्चात उसका पूजन करके घर से बाहर जायें। कार्यों में सफलता प्राप्त होगी। भगवान गणेश को नित्य प्रातःकाल लड्डू का भोग लगाने से धन लाभ का मार्ग प्रशस्त होता है।भगवान गणपति जी को बेसन के लड्डू का भोग लगाकर व्यवसाय स्थल पर जायें और कोई मीठा फल किसी मंदिर में चढ़ाएं। इससे धन-धान्य व सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।धनतेरस से दीपावली तक लगातार तीन दिन सायंकाल श्री गणेश स्तोत्र का पाठ करके गाय को हरा चारा (सब्जी-साग आदि) खिलायें। बाधायें -रूकावटें दूर होंगी। परीक्षा देने से पूर्व श्री गणेश मंत्र का 108 बार जप करें और गणपति को सफेद दूर्वा चढ़ायें। परीक्षा में निश्चय ही सफलता मिलेगी। घर में गणेश जी के प्रतिमा के सामने नित्य पूजन करने से धन मान और सुख की प्राप्ति होती है। प्रातः काल गणपति जी मंत्र का 21 दिनों में सवा लाख बार जप करने से सभी मनोकामना पूर्ण होंगी। इसीलिए गणपत्यऽथर्वशीर्ष में कहा गया है कि श्री गणेश भगवान आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव हो। आप ही अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्र हो। समस्त देवता, पंचतत्व, नवग्रह आदि सब कुछ आपका स्वरूप हैं। गणेश पुराण में वर्णित गणेशाष्टक को सिद्धि प्रदायक कहा गया है। निश्चित ही ऋद्धि-सिद्धि की सहजता से उपलब्धि गणेश तत्व से ही संभव है। ऋिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति कामनापूर्ति, संकटनाश, प्रेम प्राप्ति, मधुर दांपत्य जीवन, विघ्ननाश, आरोग्य आदि कोई भी ऐसी कामना नहीं है जो कि गणेशकृपा से पूर्ण न हो।

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Thursday, 17 March 2016

भवन निर्माण कार्य एवं मुहूर्त

प्रत्येक प्रकार के औद्योगिक या रिहायशी उपयोग के भवनों के निर्माण का कार्य मिट्टी की खुदाई तथा नींव रखने जैसे अनेक चरणों से गुजरते हुए पूर्णता की स्थिति तक पहुंचता है। सहज पूर्णता के लिए व्यक्ति को शुभ तिथि, पक्ष, लग्न एवं वार आदि की यदि समुचित जानकारी हो तो कार्य सरल हो जाता है। इन सब पहलुओं पक्षों के बारे में विस्तृत और सरल जानकारी प्राप्त करने के लिए यह लेख उपयोगी है। निर्माणाधीन रिहायशी मकान या भवन सभी परिवारजनों के लिए तथा व्यावसायिक या औद्योगिक भवन कंपनी के हिस्सेदारों, निदेद्गाकों तथा ग्राहकों और अंद्गाभागियों सभी के लिए शांति, समृद्धि, उन्नति, स्वास्थ्य, धन और प्रसन्नतादायक हो, इसके लिए खुदाई का शुभ मुहूर्त सुनिश्चित करना और शिलान्यास करना अति महत्वपूर्ण है। भवन-निर्माण प्रारंभ करने हेतु शुभ और अशुभ माह और उनके परिणाम- इसके लिए निम्नलिखित अवधि सर्वोत्तम मानी जाती हैं - महीने की 14 तारीख से आगामी महीने की 13 तारीख तक : वैशाख, श्रावण और फाल्गुन ये महीने अच्छे और शुभ तथा परिवार के लिए हितकारी, लाभदायक और धनप्रद रहते हैं। यह वास्तु राज वल्लभ (श्लोक 1/7) द्वारा भी अभिमत है। सुप्रसिद्ध ज्योतिषी और विद्वान योगेश्वर आचार्य के अनुसार कोई भी निर्माण कार्य आषाढ़ (जून-जुलाई), चैत्र (मार्च-अप्रैल), आश्विन (सितंबर-अक्तूबर), कार्तिक (अक्तूबर-नवंबर), माघ (जनवरी-फरवरी), ज्येष्ठ (मई-जून) या भाद्रपद (अगस्त-सितंबर) में प्रारंभ नहीं करना चाहिए। इस दृष्टि से ये मास अशुभ माने जाते हैं और असंखय समस्याओं और मुसीबतों का कारण बनते हैं। स्थानीय रीति-रिवाजों का अनुसरण करना अधिक अच्छा होता है। पक्ष : मिट्टी की खुदाई, शिलान्यास इत्यादि सभी अच्छी चीजें शुक्लपक्ष में ही प्रारंभ होनी चाहिए, जब चंद्रमा बढ़ता है। कृष्णपक्ष में जब चंद्रमा घटता है तब ये कार्य शुभ नहीं माने जाते। तिथि : द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा शुभ मानी गई हैं। कई विद्वानों के अनुसार पूर्णिमा (पूर्ण चंद्रदिवस) को भी कोई कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए। कोई भी कार्य 1, 4, 8, 9 और 14 तिथियों तथा अमावस्या को प्रारंभ नहीं करना चाहिए, क्योंकि निम्नलिखित कुप्रभाव सुनिश्चित है- प्रतिपदा (1) - निर्धनता। चतुर्थी (4) - धन हानि। अष्टमी (8) - उन्नति में बाधा नवमी (9) - फसल में हानि और दुःख। चतुर्दशी (14) - महिलाओं के लिए हानिकारक व निराशा। कुछ विद्वानों का सुझाव है कि अपरिहार्य परिस्थितियों में कृष्ण पक्ष की द्वितीया (2), तृतीया (3), पंचमी (5) ठीक-ठाक माने जाते हैं। लग्नोदय : वृषभ, मिथुन, वृश्चिक, कुंभ - शुभ। मेष, कर्क, तुला, मकर - मध्यम। सिंह, कन्या, धनु, मीन - इन लग्नों से बचना चाहिए। दिवस : सोमवार - प्रसन्नता और समृद्धि दायक। बुधवार - प्रसन्नतादायक। बृहस्पतिवार - दीर्घ आयु, प्रसन्नता और सुसंतानदायक। शुक्रवार - मन की शांति, उन्नति और समृद्धि देने वाला होता है। रविवार, मंगलवार और शनिवार से बचना चाहिए, क्योंकि इनके परिणाम अच्छे नहीं होते हैं। परंतु राजस्थान में सभी शुभ कार्यों हेतु शनिवार (स्थिर वार) शुभ माना गया है। नक्षत्र : रोहिणी, मृगशिरा उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, श्रवण भी कुछ विद्वानों के द्वारा शुभ माने गये हैं। दक्षिण भारत में कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा, पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद से बचने की सलाह दी जाती है। योग : प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, ध्रुव, सिद्ध, शिव, साध्य, शुभ, इंद्र, ब्रह्मा शुभ माने जाते हैं। लेकिन दक्षिण भारत में विशेषकर तमिलभाषी प्रदेश में मात्र तीन योग ही माने जाते हैं। अमृत योग - अति उत्तम सिद्ध योग - शुभ। मृत्यु योग - बहुत बुरा। इससे हर हालत में बचना चाहिए। करण : बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज शुभ माने जाते हैं। अन्य : इन चीजों के अतिरिक्त आय, व्यय के अंश भी देखने चाहिए। अग्नि नक्षत्र (भरणी चतुर्थ चरण से रोहिणी द्वितीय चरण तक) पूर्णतः वर्जित हैं। जिस वर्ष माघ माह में महाकुंभ मेला (उत्तर में, इलाहाबाद में) (12 वर्ष में एक बार) और कुंभ कोणम (तमिलनाडु के तंजोर जिले में) आता है, उससे बचना चाहिए। निर्माण - कार्य प्रारंभ करने के लिए मलमास निषिद्ध है। शुभ होरा भी देखना चाहिए और निर्माण के समय, अच्छे या बुरे, शकुनों पर भी ध्यान देना चाहिए। भूमि-चयन दोष का भी ध्यान रखना चाहिए और इससे बचना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ बिंदु ध्यान रखने योग्य हैं- प्रायः किसी भी कार्य में शनिवार निषिद्ध है। परंतु निर्माण आरंभ करने हेतु स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न, शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि, श्रावण मास में शुभ योग के साथ शनिवार सर्वोत्तम, शुभ व सौभाग्यशाली माना जाता है। यह मालिक और उसके परिवारजनों के लिए गाड़ी, धन-लाभ और समृद्धि दायक होगा। जब तक उपर्युक्त भाग्यशाली तालमेल न हो तब तक प्राय सिंह लग्न से बचना चाहिए। मिट्टी की खुदाई प्रारंभ करने, शिलान्यास करने, निर्माण प्रारंभ करने और गृह प्रवेश या भवन का प्रतिष्ठान करने के लिए शुभ मुहूर्त अति आवश्यक है। बिना उचित मुहूर्त के प्रारंभ किया गया भवन निर्माण कार्य आगे नहीं बढ़ता। अनेक प्रकार की बाधाएं अकस्मात् आ जाती हैं और कार्य आधा-अधूरा छोड़ना पड़ता है, जिससे मानसिक संताप, आर्थिक हानि और अन्य कई समस्याएं होती हैं। इसलिए हम यदि अच्छे मुहूर्त यानी वास्तु-पुरुष की जागृत-अवस्था में कार्य प्रारंभ करें तो वास्तु या अन्य किसी दोष का निवारण स्वतः ही हो जाता है। जब किसी महीने में वास्तु-पुरुष चौबीस घंटे सो रहे हों तो कोई भी निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए।

Monday, 14 March 2016

विवाह विलंब में महत्वपूर्ण ग्रह शनि

सप्तम भावस्थ प्रत्येक ग्रह अपने स्वभावानुसार जातक-जातका के जीवन मंे अलग-अलग फल प्रदान करता है। वैसे तो जन्मकुंडली का प्रत्येक भाव का अपना विशिष्ट महत्व है, किंतु सप्तम भाव जन्मांग का केंद्रवर्ती भाव है, जिसके एक ओर शत्रु भाव और दूसरी ओर मृत्यु भाव स्थित है। जीवन के दो निर्मम सत्यों के मध्य यह रागानुराग वाला भाव सदैव जाग्रत व सक्रिय रहता है। पराशर ऋषि के अनुसार इस भाव से जीवन साथी, विवाह, यौना चरण और संपत्ति का विचार करना चाहिए। सप्तम भावस्थ शनि के फल: आमयेन बल हीनतां गतो हीनवृत्रिजनचित्त संस्थितिः। कामिनीभवनधान्यदुःखितः कामिनीभवनगे शनैश्चरै।। अर्थात सप्तम भाव में शनि हो, तो जातक आपरोग से निर्बल, नीचवृत्ति, निम्न लोगों की संगति, पत्नी व धान्य से दुखी रहता है। विवाह के संदर्भ में शनि की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि आकाश मंडल के नवग्रहों में शनि अत्यंत मंदगति से भ्रमण करने वाला ग्रह है। वैसे सप्तम भाव में शनि बली होता है, किंतु सिद्धांत व अनुभव के अनुसार केंद्रस्थ क्रूर ग्रह अशुभ फल ही प्रदान करते हैं। जातक का जीवन रहस्यमय होता है। हजारों जन्म पत्रियों के अध्ययन, मनन, चिंतन से यह बात सामने आई है कि सप्तम भावस्थ शनि के प्रभाव से कन्या का विवाह आयु के 32 वें वर्ष से 39 वें वर्ष के मध्य ही हो पाया। कहीं-कहीं तो कन्या की आयु 42, 43 भी पार कर जाती है। जन्म-पत्री में विष कन्या योग, पुनर्विवाह योग, वन्ध्यत्व योग, चरित्रहनन योग, अल्पायु योग, वैधव्य योग, तलाक योग, कैंसर योग या दुर्घटना योग आदि का ज्ञान शनि की स्थिति से ही प्राप्त होता है। मेरे विचार में पूर्व जन्म-कृत दोष के आधार पर ही जातक-जातका की जन्मकुंडली में शनि सप्तम भावस्थ होता है। इस तरह शनि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का ज्ञान करा ही देता है एवं दंडस्वरूप इस जन्म में विवाह-विलंब व विवाह प्रतिबंध योग, संन्यास-योग तक देता है। शनि सप्तम भाव में यदि अन्य ग्रहों के दूषित प्रभाव में अधिक हो, ता जातक अपने से उम्र में बड़ी विवाहिता विधवा या पति से संबंध विच्छेद कर लेने वाली पत्नी से रागानुराग का प्रगाढ़ संबंध रखेगा। ऐसे जातक का दृष्टिकोण पत्नी के प्रति पूज्य व सम्मानजनक न होकर भोगवादी होगा। शनि सप्तम भाव में सूर्य से युति बनाए, तो विवाह बाधा आती है और विवाह होने पर दोनों के बीच अंतर्कलह, विचारों में अंतर होता है। शनि व चंद्र सप्तमस्थ हों, तो यह स्थिति घातक होती है। जातक स्वेच्छाचारी और अन्य स्त्री की ओर आसक्त होता है। पत्नी से उसका मोह टूट जाता है। शनि और राहु सप्तमस्थ हों, तो जातक दुखी होता है और इस स्थिति से द्विभार्या-योग निर्मित होता है। वह स्त्री जाति से अपमानित होता है। शनि, मंगल व केतु जातक को अविवेकी और पशुवत् बनाते हैं। और यदि शुक्र भी सह-संस्थित हो, तो पति पत्नी दोनों का चारित्रिक पतन हो जाता है। जातक पूर्णतया स्वेच्छाचारी हो जाता है। आशय यह कि सप्तम भावस्थ शनि के साथ राहु, केतु, सूर्य, मंगल और शुक्र का संयोग हो, तो जातक का जीवन यंत्रणाओं के चक्रव्यूह में उलझ ही जाता है। सप्तमस्थ शनि के तुला, मकर या कुंभ राशिगत होने से शश योग निर्मित होता है। और जातक उच्च पद प्रतिष्ठित होकर भी चारित्रिक दोष से बच नहीं पाता। सप्तम भावस्थ शनि किसी भी प्रकार से शुभ फल नहीं देता। विवाह विलंब में शनि की विशिष्ट भूमिका: ू शनि व सूर्य की युति यदि लग्न या सप्तम में हो, तो विवाह में बाधा आती है। विलंब होता है और यदि अन्य क्रूर ग्रहों का प्रभाव भी हो, तो विवाह नहीं होता। ू सप्तम में शनि व लग्न में सूर्य हो, तो विवाह में विलंब होता है। ू कन्या की जन्मपत्री में शनि, सूर्य या चंद्र से युत या दृष्ट होकर लग्न या सप्तम में संस्थित हो, तो विवाह नहीं होगा। ू शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तम में हो, तो विवाह टूट जाएगा अथवा विवाह में विलंब होगा। ू शनि व चंद्र की युति सप्तम में हो या नवमांश चक्र में या यदि दोनों सप्तमस्थ हों, तो विवाह में बाधा आएगी। ू शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तमेश हो और दोनों परस्पर दृष्टि-निक्षेप करें, तो विवाह में विलंब होगा। यह योग कर्क व मकर लग्न की जन्मकुंडली में संभव है। ू शनि लग्नस्थ और सूर्य सप्तमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। ू शनि की दृष्टि सूर्य या चंद्र पर हो एवं शुक्र भी प्रभावित हो, तो विवाह विलंब से होगा। ू शनि लग्न से द्वादश हो व सूर्य द्वितीयेश हो तो, लग्न निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। ू इसी तरह शनि षष्ठस्थ और सूर्य अष्टमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। ू लग्न सप्तम भाव या सप्तमेश पापकर्तरि योग के मध्य आते हैं तो विवाह में विलंब बहुत होगा। ू शनि सप्तम में राहु के साथ अथवा लग्न में राहु के साथ हो और पति-पत्नी स्थान पर संयुक्त दृष्टि पड़े, तो विवाह वृद्धावस्था में होगा। अन्य क्रूर ग्रह भी साथ हांे, तो विवाह नहीं होगा। ू शनि व राहु कि युति हो, सप्तमेश व शुक्र निर्बल हों तथा दोनों पर उन दोनों ग्रहों की दृष्टि हो, तो विवाह 50 वर्ष की आयु में होता है। ू सप्तमेश नीच का हो और शुक्र अष्टम में हो, तो उस स्थिति में भी विवाह वृद्धावस्था में होता है। यदि संयोग से इस अवस्था के पहले हो भी जाए तो पत्नी साथ छोड़ देती है। समाधान ू शनिवार का व्रत विधि-विधान पूर्वक रखें। शनि मंदिर में शनिदेव का तेल से अभिषेक करें व शनि से संबंधित वस्तुएं अर्पित करें। ू अक्षय तृतीया के दिन सौभाग्याकांक्षिणी कन्याओं को व्रत रखना चाहिए। रोहिणी नक्षत्र व सोमवार को अक्षय तृतीया पड़े, तो महा शुभ फलदायक मानी जाती है। इस दिन का दान व पुण्य अत्यंत फलप्रद होते हैं। यदि अक्षय तृतीया शनिवार को पड़े, तो जिन कन्याओं की कुंडली में शनि दोष हो, उन्हें इस दिन शनि स्तोत्र और श्री सूक्त का पाठ 11 बार करना चाहिए, विवाह बाधा दूर होगी। यह पर्व बैसाख शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन प्रतीक के रूप में गुड्डे-गुड़ियों का विवाह किया जाता है ताकि कुंआरी कन्याओं का विवाह निर्विघ्न संपन्न हो सके। ू शनिवार को छाया दान करना चाहिए। ू दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ नित्य करें। ू शनिदेव के गुरु शिव हैं। अतः शिव की उपासना से प्रतिकूल शनि अनुकूल होते हैं, प्रसन्न होते हैं। शिव को प्रसन्न करने हेतु 16 सोमवार व्रत विधान से करें व निम्न मंत्र का जप (11 माला) करें: ‘‘नमः शिवाय’’ मंत्र का जप शिवजी के मंदिर में या घर में शिव की तस्वीर के समक्ष करें। ू हनुमान जी की पूजा उपासना से भी शनिदेव प्रसन्न व अनुकूल होते हैं क्योंकि हनुमान जी ने रावण की कैद से शनि को मुक्त किया था। शनिदेव ने हनुमान जी को वरदान दिया था कि जो आपकी उपासना करेगा, उस पर मैं प्रसन्न होऊंगा। ू सूर्य उपासना भी शनि के कोप को शांत करती है क्योंकि सूर्य शनि के पिता हैं। अतः सूर्य को सूर्य मंत्र या सूर्य-गायत्री मंत्र के साथ नित्य प्रातः जल का अघ्र्य दें। ू शनि व सूर्य की युति सप्तम भाव में हो, तो आदित्य-हृदय स्तोत्र का पाठ करें। ू जिनका जन्म शनिवार, अमावस्या, शनीचरी अमावस्या को या शनि के नक्षत्र में हुआ हो, उन्हें शनि के 10 निम्नलिखित नामों का जप 21 बार नित्य प्रातः व सायं करना चाहिए, विवाह बाधाएं दूर होंगी। कोणस्थः पिंगलो बभू्रः कृष्णो रौद्रान्तको यमः। सौरि शनैश्चरो मंदः पिप्पलादेव संस्तुतः।। ू हरितालिका व्रतानुष्ठान: जिनके जन्मांग में शनि व मंगल की युति हो, उन्हें यह व्रतानुष्ठान अवश्य करना चाहिए। इस दिन कन्याएं ‘‘पार्वती मंगल स्तोत्र’’ का पाठ रात्रि जागरण के समय 21 बार करें। साथ ही शनि के निम्नलिखित पौराणिक मंत्र का जप जितना संभव हो, करें विवाह शीघ्र होगा। ‘‘नीलांजन समाभासं, रविपुत्रं यामाग्रजं। छायामार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।’’ ू शनिवार को पीपल के वृक्ष को मीठा जल चढ़ाएं व 7 बार परिक्रमा करें। ू शनिवार को काली गाय व कौओं को मीठी रोटी और बंदरों को लड्डू खिलाएं। ू सुपात्र, दीन-दुखी, अपाहिज भिखारी को काले वस्त्र, उड़द, तेल और दैनिक जीवन में काम आने वाले बरतन दान दें। ू शुक्रवार की रात को काले गुड़ के घोल में चने भिगाएं। शनिवार की प्रातः उन्हें काले कपड़े में बांधकर सात बार सिर से उतार कर बहते जल में बहाएं। ू बिच्छू की बूटी अथवा शमी की जड़ श्रवण नक्षत्र में शनिवार को प्राप्त करें व काले रंग के धागे में दायें हाथ में बांधें। ू शनि मंत्र की सिद्धि हेतु सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण के दिन शनि मंत्र का जप करें। फिर मंत्र को अष्टगंधयुक्त काली स्याही से कागज पर लिख कर किसी ताबीज में बंद कर काले धागे में गले में पहनें। ू व्रतों की साधना कठिन लगे, तो शनि पीड़ित लोगों को शनि चालीसा, ‘‘शनि स्तवराज’’ अथवा राजा दशरथ द्वारा रचित ‘‘शनि पीड़ा हरण स्तोत्र’’ का पाठ नित्य करना चाहिए। ू बहुत पुराने काले गुड़ के घोल म उड़द और आटे को गूंधकर थोड़े से काले तिल मिलाएं और 23 शनिवार तक प्रति शनिवार आटे की 23 गोलियां बनाएं। गोलियां बनाते समय निम्नलिखित मंत्र जपें। अनुष्ठान पूरा हो जाने के बाद इन मीठी गोलियों को बहते जल में प्रवाहित करें। ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’’ ू विवाह में आने वाली बाधा को दूर करने हेतु शनि के दस नामों के साथ जातक को शनि पत्नी के नामों का पाठ करना चाहिए। ‘‘ध्वजिनी धामिनी चैव कंकाली कलह प्रिया। कंटकी कलही चाऽपि महिषी, तुरंगमा अजा।। नामानि शनिमार्यायाः नित्यंजपति यः पुमान तस्य दुःखनि तश्यन्ति सुखमसौभाग्यमेधते। शनि मंत्र: (1) ¬ ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय। ;2द्ध ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः ;3द्ध ¬ शं शनैश्चराय नमः जप संख्या 23 हजार ;4द्ध ¬ नमो भगवते शनैश्चराय सूर्य पुत्राय नम ¬। पौराणिक मंत्र (जप संख्या 92 हजार) ¬ शन्नोदेवीरभिष्टयआपो भवंतु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तुनः ¬ शनैश्चराय नमः ;महामंत्राद्ध शनि प्रतिमा के समक्ष शनि पीड़ानुसार उक्त किसी एक मंत्रा का 23 हजार बार जप करें। शनि का दान: लोहा, उड़द दाल, काला वस्त्र, काली गाय, काली भैंस, कृष्ण वर्ण पुष्प, नीलम, तिल कटैला, नीली दक्षिणा आदि। यदि किसी भी प्रकार विवाह नहीं हो पा रहा हो, तो इस अनुभूत उपाय को अपनाएं। कार्तिक मास की देव-उठनी एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) के दिन तुलसी और शालिग्राम का विवाह किया जाता है, यह शास्त्र में वर्णित है। कहीं-कहीं यह विवाह बड़ी धूम-धाम से किया जाता है। इस दिन कन्याएं सौभाग्य कामना हेतु व्रत लें। तुलसी-शालिग्राम के विवाह के पूर्व गौरी गणपति का आह्वान और षोडशोपचार पूजन कर कुंआरी कन्याओं को चाहिए कि तुलसी माता को हल्दी और तेल चढ़ाएं। माता एवं शालिग्राम जी को कंकण बांध, मौर बांध, विवाह गांठ बांधें व तुलसी माता का सोलह शृंगार करें। पंचफल एवं मिष्टान्न से तुलसी माता की विधिवत् गोद भराई करें। पंडित के द्वारा विवाह मंत्रोच्चारण के साथ पूर्ण विवाह की रस्म निभाएं। ल् आकार की हल्दी में सात बार कच्चा धागा लपेट कर, एक सुपारी और सवा रुपया सहित लेकर बायें हाथ की मुट्ठी में कन्या रखे व दायें हाथ में 108 भीगे हरे चने रखे। सोलह शृंगारित तुलसी माता सहित शालिग्राम की परिक्रमा मंत्र सहित 108 बार करे एवं हर परिक्रमा में एक चना तुलसी माता की जड़ में अर्पण करती चले। माता तुम जैसी हरी-भरी हो, हमें भी हरा-भरा कर दो, हमें एक से दो कर दो की मनोकामना के साथ परिक्रमा करें। इसके बाद बायें हाथ में पकड़ी हल्दी, सुपारी और रुपया तुलसी की जड़ में दबा दे। सौभाग्य कामना से हल्दी में लपेटा गया कच्चा सूत कन्या को दाहिने हाथ में बंधाना चाहिए। उस दिन कन्या सिर्फ जल ग्रहण कर। चबाने वाली चीजें न खाएं। शृंगार की वस्तुएं कन्या स्वयं पहने, जो तुलसी को अपर्ण की थीं। विवाह संस्कार में हल्दी-रस्म के समय ल् आकार की जो हल्दी तुलसी की जड़ में दबाई गई थी, उसे सर्वप्रथम गणेश जी को अर्पण करें और सिर्फ कन्या को ही लगाई जाए। इसे ‘‘सौभाग्य कामना हल्दी’’ कहते हैं। अंततः शनि पीड़ित व्यक्ति को शनि उपासना करनी चाहिए किंतु जिनका शनि शुभ है एवं शनि दशा, अंतर्दशा, साढ़ेसाती, ढैया आदि नहीं चल रहे हों उन्हें भी शनिदेव की आराधना उपासना करते रहनी चाहिए। सुंदर, सुनहरे भविष्य हेतु शनि की आराधना उपासना-मंत्र पाठ अवश्य करें।

आयुनिर्णय का निर्धारण

आयु-निर्णय: भारतीय ज्योतिष में ‘आयुनिर्णय’ को आत्मतत्व एवं जीवन के घटनाचक्र के ज्ञान को शरीर माना गया है। जैसे आत्मा के बिना शरीर अनुपयोगी एवं व्यर्थ होता है - ठीक उसी प्रकार आयु के ज्ञान के बिना जीवन के घटनाचक्र का ज्ञान अनुपयोगी एवं व्यर्थ है। वस्तुतः जब तक आयु है, तभी तक जीवन की सत्ता है और तभी तक जीवन के घटनाचक्र में गतिशीलता है। आयु की समाप्ति के साथ ही जीवन एवं उसका घटनाचक्र दोनों ही स्तब्ध हो जाते हैं और अपने पूर्ण-विराम पर पहुंच जाते हैं। जीवन के घटनाक्रम की जानकारी में आयु की इस सापेक्षता को ध्यान में रखकर हमारे आचार्यों ने फलादेश करने से पहले आयु की भलीभांति परीक्षा करने का निर्देश दिया है।1 ‘‘आयुः पूर्वं परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिशेत्। अनायुषां तु मत्र्यानां लक्षणैः किं प्रयोजनम्।।’’ प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए जीव को जितना समय मिलता है वह उसकी आयु कहलाती है। यह समय जन्म से लेकर मृत्यु तक की कालावधि होती है और वह प्रारब्ध कर्मों के प्रभाववश कभी छोटी तथा कभी बड़ी होती रहती है। जीवन एवं मृत्यु एक गूढ़ पहेली या ऐसी जटिल गुत्थी हैं, जिसका समाधान आज तक ज्ञान एवं विज्ञान की किसी विद्या द्वारा नहीं हो पाया है। चाहे धीर एवं गंभीर चिंतन करने वाले दार्शनिक हों या प्रयोग एवं प्रविधि के विशेषज्ञ, वैज्ञानिक हों अथवा अरबों-खरबों डालर खर्च कर मेडीकल विज्ञान में शोध एवं विकास करने वाले चिकित्सा शास्त्री हों- सभी जीवन एवं मृत्यु के रहस्य के सामने विस्मित, स्तब्ध एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता के भाव से खड़े दिखलाई पड़ते हैं। इस विषय में एक नोबल पुरस्कार विजेता जैनिटिक इंजीनियर का कहना है कि - ‘‘रोग की चिकित्सा तो किसी न किसी प्रकार से संभव है किंतु मृत्यु की चिकित्सा को छोड़िए उसका पूर्वानुमान करना ही टेढ़ी खीर है।’’ यह टेढ़ी खीर तब है जब भारतीय चिंतनधारा के दो प्रमुख वादों-कर्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद को अस्वीकार कर दिया जाता है। यदि इन दोनों को स्वीकार कर लिया जाए तो जीवन-मृत्यु के रहस्य को जाना एवं पहचाना जा सकता है। यही कारण है कि वैदिक दर्शन के उक्त दोनों वादों और उनके सिद्धांतों के आधार पर ज्योतिष शास्त्र के प्रणेता पराशर एवं जैमिनी जैसे ऋषियों तथा मय यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर एवं मंत्रेश्वर आदि आचार्यों ने आयुनिर्णय के आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन कर जीवन एवं मृत्यु के रहस्य को अनावृत करने का सार्थक प्रयास किया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मनीषियों का कहना है कि हमें जन्मकाल का ज्ञान होता है। यदि किसी प्रकार मृत्युकाल का ज्ञान हो जाए तो आयु का ठीक-ठीक प्रकार से ज्ञान/निर्धारण हो सकता है। एतदर्थ हमारे ऋषियों एवं आचार्यों ने योग एवं दशा इन दो प्रविधियों का विकास किया। ज्योतिष शास्त्र में आयु का निर्णय योग एवं दशा-इन दो के आधार पर किया जाता है। विविध योगों के द्वारा निर्णीत आयु को योगायु तथा मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा के आधार पर निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं।2 योगायु योगायु का निर्णय मुख्यतया निम्नलिखित छः3 प्रकार के योगों से होता है। 1. सद्योरिष्ट योग, 2. बालारिष्ट योग, 3. अल्पायु योग, 4. मध्यमायु योग, 5. दीर्घायु योग, 6. अमितायु योग इन छः प्रकार के योगों में से अल्पायु, मध्यमायु एवं दीर्घायु-ये तीनों योग आयु का निर्णय करने के लिए मारकेश ग्रहों की दशा की सापेक्षता रखते हैं जबकि सद्योरिष्ट, बालारिष्ट एवं अमितायु योग मारकेश ग्रहों की दशा की अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट योगों में मृत्युकाल का निर्णय गोचर के अनुसार किया जाता है। अमितायु योग में आयु का विचार ही नहीं किया जाता क्योंकि इस योग में ‘‘जीवेम शरदः शतम्’’ इस जिजीविषा की पूर्ति हो जाती है। यही कारण है कि अधिकतम आचार्यों ने 12 वर्षों तक आयु का निर्णय करने का निषेध किया है।4 अल्पायु, मध्यमायु एवं दीर्घायु योगों में आयु की न्यूनतम एवं अधिकतम अवधियों में काफी अंतर रहता है। यथा-अल्पायु योग में आयु की अवधि 13 वर्ष से 32 वर्ष तक, मध्यमायु में 33 वर्ष से 65 वर्ष तक और दीर्घायु योग में अवधि 66 वर्ष से 100 वर्ष तक होती है। आयु की अवधि में 20 से 35 वष का अंतर होने के कारण आयु का स्पष्टीकरण तथा मारकेश ग्रह की दशा के आधार पर निर्धारण किया जाता है। आयु का स्पष्टीकरण: अल्पायु आदि योगों से मनुष्य की आयु की स्थूल जानकारी मिलने के कारण महर्षि पराशर एवं उनके बाद में मय, यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर एवं कल्याण वर्मा आदि आचार्यों ने सूक्ष्मता के लिए आयु का स्पष्टीकरण करने की अनेक विधियों का प्रतिपादन एवं उपयोग किया है जिनमें प्रमुख हैं - 1. अंशायु, 2. निसर्गायु 3. पिंडायु एवं 4. लग्नायु । इन रीतियों में से किस व्यक्ति की आयु का स्पष्टीकरण किस रीति से किया जाए? इस प्रश्न का समाधान करते हुए महर्षि पराशर ने बतलाया है कि - ‘‘जातक की जन्म कुंडली में लग्नेश, चंद्रमा एवं सूर्य इन तीनों में यदि लग्नेश बली हो तो अंशायु द्वारा, यदि चंद्रमा बली हो तो निसर्गायु द्वारा और यदि सूर्य बली हो तो पिंडायु की रीति से आयु का स्पष्टीकरण करना चाहिए।5 यदि इन तीनों में दो का बल समान हो तो दोनों का आयुर्दाय निकालकर आधा कर लेना चाहिए और यदि इन तीनों का बल समान हो तो तीनों रीतियों से आयुर्दाय निकाल कर उसके योग का तृतीयांश कर लेना चाहिए।6 प्राचीन आचार्यों में केवल वृहत्पाराशर होराशास्त्र में योगायु का निर्णय निम्नलिखित सात प्रकार के योगों से किया जाता है।7 1. बालारिष्ट योग, 2. योगारिष्ट, 3. अल्पायु योग, 4. मध्यमायु योग, 5. दीर्घायु योग, 6. दिव्यायु योग, 7. अमितायु योग बालारिष्ट योग में जातक की अधिकतम आयु 8 वर्ष, योगारिष्ट में अधिकतम आयु 20 वर्ष, अल्पायु योग में अधिकतम आयु 30 वर्ष, मध्यमायु योग में अधिकतम आयु 64 वर्ष, दीर्घायु योग में अधिकतम आयु 100 वर्ष, दिव्यायु योग में अधिकतम आयु 1000 वर्ष और अमितायु योग में अधिकतम आयु की कोई सीमा नहीं बतलायी गयी।8 समस्त जातक ग्रंथों के परिप्रेक्ष्य में व्यावहारिक एवं सामयिक दृष्टि से विचार किया जाए तो बालारिष्ट एवं योगारिष्ट के स्थान पर सधोरिष्ट एवं बालारिष्ट को आधार मानना बहुसम्मत पक्ष है क्योंकि होरा शास्त्र के आचार्यों ने प्रायः ऐसा ही वर्गीकरण किया है। इसी प्रकार दिव्यायु एवं अमितायु योग जो अपवाद योग हैं को एक ही वर्ग में रखना व्यावहारिक है क्योंकि जन-जीवन में इनका बहुधा उपयोग नहीं हो पाता। अतः समसामयिक दृष्टि से योगों का उक्त छः वर्गों में वर्गीकरण करना अधिक व्यावहारिक है। इस वर्गीकरण में सद्योरिष्ट योग में जातक की अधिकतम आयु 1 वर्ष, बालारिष्ट योग में अधिकतम आयु 12 वर्ष, अल्पायु योग में अधिकतम आयु 32 वर्ष, मध्यमायु योग में अधिकतम आयु 64 वर्ष, दीर्घायु योग में अधिकतम आयु 100 वर्ष तथा अमितायु योग में अधिकतम आयु की सीमा निर्धारित नहीं है।9 इस योग में आयु की न्यूनतम सीमा 100 वर्ष मानी जा सकती है। सत्याचार्य ऐसे विद्वान हैं जिन्होंने आयुदार्य के स्पष्टीकरण के लिए केवल लग्नायु की रीति को ही प्रामाणिक माना है। एकरूपता ही प्रमाण है आयु-निर्णय के प्रसंग में विविध योगों एवं स्पष्टीकरण की रीति से निर्णीत आयु में एकरूपता होने पर उसे प्रामाणिक माना जाता है। यदि योगों के द्वारा और स्पष्टीकरण के द्वारा निर्णीत आयु के मान में एकरूपता न हो तो मारकेश ग्रहों की दशा के आधार पर आयु का निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार योग एवं स्पष्टीकरण से मृत्यु का संभावना काल और मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा से मृत्युकाल का निर्धारण होता है। आयु का निर्णय करते समय यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि यहां संवाद अर्थात एकरूपता को ही प्रमाण माना जाता है। तात्पर्य यह है कि विविध रीतियों से प्राप्त आयु के परिणाम में एकरूपता ही उसे प्रामाणिक सिद्ध करती है। मृत्यु का ज्ञान एक रहस्य या गूढ़ पहेली है जिसका हल खोजने के लिए जैमिनी एवं पराशर जैसे ऋषियों ने तथा मय, यवन, मणित्थ, शक्ति, जीवशर्मा, सत्याचार्य, वराहमिहिर, कल्याण वर्मा एवं मंत्रेश्वर जैसे मनीषी आचार्यों ने अनेक उपयोगी एवं सुमान्य रीतियों का आविष्कार एवं विकास किया है। इन रीतियों की विविधता के कारण कभी-कभी परिणाम में विविधता दिखलाई पड़ती है। ऐसी स्थिति में यदि एकरूपता संभव न हो तो बहुसम्मत पक्ष को ही प्रामाणिक मानना चाहिए। आयुनिर्णय की दार्शनिक पृष्ठभूमि योगायु एवं अंशायु आदि के स्पष्टीकरण का आधार जन्मकालीन ग्रह स्थिति होती है जो जन्मांतरों के संचित कर्मों के फल की सूचक होती है। ज्योतिष शास्त्र में संचित प्रारब्ध एवं क्रियमाण कर्मों के फल को जानने के लिए तीन पद्धतियां विकसित की गयी हैं जिन्हें योग, दशा एवं गोचर कहते हैं। इस शास्त्र में संचित कर्मों के फल की जानकारी जन्मकालीन ग्रह स्थिति या ग्रह योगों के द्वारा की जाती है जबकि प्रारब्ध कर्मों का फल ग्रहदशा द्वारा तथा क्रियमाण कर्मों का फल गोचर द्वारा किया जाता है। जन्मांतरों में किये गये विविध कर्मों के संकलित भंडार को संचित कहते हैं। कर्मों की विविधता के कारण संचित के फलों में विविधता होती है और इसी विविधता के कारण समस्त संचित कर्मों के फलों को एक साथ भोगा नहीं जा सकता। क्योंकि कर्मों की विविधता के परिणामस्वरूप मिलने वाले फल भी परस्पर विरोधी होते हैं अतः इनको एक के बाद एक के क्रम से भोगना पड़ता है। वर्तमान जीवन में हमको संचित कर्मों में से जितने कर्मों का फल भोगना है; केवल उतने ही कर्मों के फल को प्रारब्ध कहते हैं। इन प्रारब्ध कर्मों के फल का ज्ञान दशा के द्वारा होता है। इस जीवन में जो कर्म हम कर रहे हैं या जिन कर्मों को भविष्य में किया जाएगा वे सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं और उनके फल का विचार गोचर की रीति से किया जाता है। आयुर्दाय के प्रसंग में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि योगों के द्वारा निर्णीत आयु में तथा अंशायु आदि के द्वारा स्पष्टीकरण के परिणाम में एकरूपता क्यों नहीं होती जबकि आयु निर्णय में एकरूपता को प्रमाण माना जाता है। इसका कारण यह है कि योगायु एवं अंशायु आदि का आधार संचित कर्म हैं क्योंकि इन दोनों का विचार जन्मकालीन ग्रह स्थिति के आधार पर होता है जो संचित कर्म की सूचक होती है। चूंकि संचित कर्म परस्पर विरोधी होते हैं इसलिए योगायु एवं अंशायु आदि के परिणामों में एकरूपता नहीं होती। जैसे काली मिट्टी से काला घड़ा, लाल मिट्टी से लाल घड़ा, पीली मिट्टी से पीला घड़ा या सफेद धागों से सफेद कपड़ा और रंगीन धागों से रंगीन कपड़ा बनता है उसी प्रकार संचित कर्मों की विविधता के कारण योगायु एवं अंशायु आदि के परिणामों में स्वाभाविक रूप से विविधता होती है। मनुष्य की आयु संचित कर्मों की अपेक्षा प्रारब्ध कर्मों पर ज्यादा आधारित होती है। क्योंकि प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने की समयावधि को आयु कहते हैं अतः उसका विचार एवं निर्णय मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा द्वारा किया जाता है। इस प्रकार निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं। दशायु के बारे में विचार करने से पूर्व इसकी पूर्वोक्त योगों के साथ सापेक्षता एवं निरपेक्षता के बारे में कुछेक महत्वपूर्ण बातों पर विचार कर लेना आवश्यक है। पहले कहा जा चुका है कि सद्योरिष्ट, बालारिष्ट एवं अमितायु योग मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा की सापेक्षता नहीं रखते। वस्तुतः सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट ये दोनों योग ऐसे हैं जो न केवल जातक के पूर्वार्जित कर्मों के फल की सूचना देते हैं अपितु वे उनके माता-पिता के द्वारा किये गये अनुचित कर्मों की भी सूचना देते हैं। इसलिए इन योगों का विचार जन्मकुंडली के साथ-साथ आधान कुंडली से भी किया जाता है। किसी बालक की जन्म के बाद तुरंत या बचपन में मृत्यु का जितना महत्वपूर्ण कारण उसके पूर्वार्जित कर्मों का फल है उतना ही महत्वपूर्ण कारण उसके माता-पिता का अनुचित आचरण है। मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा माता-पिता के अनुचित आचरण पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डालती इसलिए सद्योरिष्ट एवं बालारिष्ट योगों में ग्रह दशा की सापेक्षता नहीं होती। अमितायु योग में जीवन की न्यूनतम कालावधि एक सौ वर्ष से अधिक होती है जो हमारी सौ साल तक जिएं जैसी जिजीविषा को संतुष्ट कर देती है। इस प्रकार इस योग के प्रभाववश जिजीविषा की पूर्ति एवं संतुष्टि हो जाने के कारण इस योग में भी मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का विचार नहीं किया जाता। अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु योगों में से कतिपय योग ऐसे भी होते हैं जिनमें मृत्यु के सम्भावित वर्ष का उल्लेख रहता है किंतु अधिकांश योगों में केवल इतना बतलाया जाता है कि अमुक योग में मनुष्य की आयु मध्य या दीर्घ होगी। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु की जो न्यूनतम एवं अधिकतम अवधियां बतलायी गयी हैं उनमें बीसों वर्षों का अंतर होता है, अतः इन योगों में उत्पन्न व्यक्तियों की आयु या मृत्यु की जानकारी के लिए मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का विचार अनिवार्य भी है और अपरिहार्य भी। दशायु: होराग्रंथों में प्रतिपादित योगों के द्वारा आयु की स्थूल जानकारी करने के बाद सूक्ष्म रूप से उसका ज्ञान करने के लिए मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा का आश्रय लिया जाता है। मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा द्वारा निर्णीत आयु को दशायु कहते हैं। दशा द्वारा आयु का निर्णय करने से पहले योगों द्वारा अल्पायु, मध्यायु एवं दीर्घायु का विधिवत निश्चय कर लेना चाहिए और फिर मारकेश ग्रहों की दशा-अंतर्दशा के आघार पर मृत्यु का पूर्वानुमान करना चाहिए।

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Thursday, 10 March 2016

महत्वाकांक्षी कल्पना

यह सत्य कथा है एक ऐसी कल्पना की जिसे बचपन से कल्पना लोक में विचरने का बहुत शौक था। अपने खिलौनों से खेलते हुए वह अपने कल्पना लोक में चली जाती और फिर घंटों उसी आनंद में डूबी रहती। उसके माता-पिता ने भी शायद इसीलिए उसका नाम कल्पना रखा होगा। कल्पना को बचपन में ही उसके मामा-मामी ने गोद ले लिया था क्योंकि उनकी कोई अपनी संतान नहीं थी। मामा-मामी के लाड़ प्यार में कल्पना बड़ी हुई। बचपन से ही उसे पेंटिंग का बहुत शौक था और वह कुछ न कुछ अपनी कल्पना से पन्नों पर उकेरती रहती थी और फिर उन्हें अपने कमरे में लगा देती। कल्पना के नये माता-पिता एक रूढ़िवादी परिवार से संबंधित थे और वे यही चाहते थे कि कल्पना भी उनके परिवार की परंपराओं का गंभीरता से पालन करे। वहां आस पास की परंपराओं के अनुसार आमतौर पर लड़कियों को काॅलेज में बहुत ज्यादा नहीं पढ़ाया जाता था पर कल्पना की जिद के आगे उनकी एक न चली और उसे उन्होंने वहीं के पोस्ट ग्रैजुएट काॅलेज में प्रवेश करा दिया। कल्पना सुंदर तो थी, साथ में उसकी कला क्षेत्र में रूचि ने उसे शीघ्र ही काॅलेज में बहुत लोकप्रिय बना दिया। यौवन की दहलीज पर खड़ी कल्पना भी अपनी लोकप्रियता से इतनी खुश थी कि अधिक से अधिक समय काॅलेज में बिताने लगी और उसे अपने युवा साथी का साथ भी अधिक अच्छा लगने लगा। लेकिन कल्पना की प्रेम की राह इतनी आसान नहीं थी। जैसे ही उसके माता-पिता को इस बात का पता चला उन्होंने फौरन उसे काॅलेज से निकाल कर वापिस उसके जन्मकालीन माता-पिता के पास भेज दिया। इससे कल्पना को बहुत बड़ा मानसिक आघात पहुंचा। वह अपने माता-पिता को कभी माफ नहीं कर पाई। जिन्होंने उसे अपना समझ कर पाला पोसा उन्हीं माता-पिता ने अपनी जिंदगी से तिनके की तरह निकाल फेंका। कल्पना को कई दिन तक हाॅस्पिटल में रहना पड़ा तभी वह आघात से उबर पाई। वइ इस आघात से उबर कर बाहर आई ही थी कि कुछ समय बाद एकाएक कल्पना का विवाह विवेक से कर दिया गया। विवेक एक सुशिक्षित परिवार से थे और सी. ए. कर बैंक में आॅफिसर के पद पर कार्यरत थे। विवाह के बाद कल्पना को अपने सास-ससुर से एडजस्ट करने में काफी मुश्किलंे आईं। कल्पना बहुत महत्त्वाकांक्षी थी और उसे खुला जीवन पसंद था। वह ऊंचे आकाश में अपनी कल्पना के संसार में उड़ना चाहती थी पर ससुराल का माहौल बिल्कुल अलग था। वे लोग काफी रूढ़िवादी और पुरानी परंपराओं को मानने वाले थे। सास ससुर की उपस्थिति व उनके हस्तक्षेप से कल्पना को अपना जीवन एक जेल की तरह लगता था और उसे लगता था कि वह इस पिंजरे में कैद एक पक्षी की तरह है जिसके पर काट दिये गये हैं इसलिए वह सबसे कटी-कटी रहती और अपनी सासु मां को खुश नहीं कर पाती थी। विवेक बैंक के काम से अक्सर लेट ही आते और आकर अपनी मां की बुराई सुनना पसंद नहीं करते थे। इसलिए अपनी कुंठा और मानसिक वेदना के चलते कल्पना ने कई बार स्वयं को समाप्त करने की कोशिश भी की पर समय को अभी कई करवटें और लेनी थी। इसी बीच कल्पना के दो बच्चे हो गये और समय का सदुपयोग करने के लिए कल्पना ने बी.एड और पीएच.डी भी कर ली और अपना अधिक से अधिक समय पेंटिंग को देने लगी। इससे उसको बहुत सुकून मिलता और वह यह कोशिश भी करने लगी कि वह पेन्टिंग को अपने व्यवसाय के रूप में अपना ले। लेकिन चाहकर भी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पाई। विवेक अपने काम में इतने मशगूल थे कि धीरे-धीरे एक के बाद एक प्रमोशन की सीढ़ियां चढ़ते रहे और अपने बैंक के उच्चतम पद सी. एमडी. तक पहुंच गये। कल्पना अपने पति की सफलता से बहुत खुश थी परंतु मानसिक रूप से अपने को उनसे जुड़ा नहीं पाती थी। इतना पैसा, मान-सम्मान होने के बाद भी उसके अंदर कुछ टूटता रहता था। विवेक ने सी. एम. डी. के पद पर पहुंच कर अपने दोनों सालों को अपने कुछ कामों में मिला लिया था। इस पद पर पहुंचने के लिए उसकी कबिलियत के अलावा उसे और भी बहुत कुछ करना पड़ा था और इस पद पर बने रहने के लिए भी बहुत से नैतिक अनैतिक कामों को अंजाम देना पड़ता था। कल्पना को इसका कुछ इल्म नहीं था, न ही विवेक उससे इस बारे में कुछ चर्चा करते थे और अचानक वह हुआ जिसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। अचानक एक दिन उनके घर सीबी. आई का छापा पड़ा। विवेक घर पर नहीं थे। वह अकेली थी। उन्होंने आकर उसका फोन ले लिया और पूरे घर को उथल-पुथल कर सारा कैश, ज्वेलरी, फाइलें आदि ले गये। सभी लाॅकर सील कर दिये गये, सभी बैंक अकाउंट भी सी. बीआई ने सील कर दिये और उधर विवेक को रिश्वतखोरी के इल्जाम में धर लिया गया। कल्पना की दुनिया ही बदल गई उसके दोनों भाइयों को भी पुलिस पकड़ कर ले गई। कल्पना को पनाह देने वाला कोई भी न रहा। न जन्मकालीन माता-पिता न परवरिश करने वाले माता-पिता। सभी को अपने भविष्य की चिंता सता रही थी। ऐसे में जब कल्पना के पास कोई पैसा नहीं था और वह मानसिक और शारीरिक रूप से भी थक चुकी थी तो उसे सहारा दिया उसकी बचपन की सहेली मृदुला ने। उसने ऐसे विकट समय में उसका पूरा साथ दिया और परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत दी। कल्पना ने विवेक को बचाने के लिए रात दिन एक कर दिया और वास्तव में अपने पत्नी धर्म का पालन करते हुए बड़े से बड़े वकील कर विवेक और अपने भाइयों को बेल पर छुड़वा लिया। आज कल्पना अपने पति के साथ फिर से अपनी बिखरी हुई जिंदगी को संवारने में जुटी है और इसी कोशिश में है कि शीघ्र ही वे इस केस से बरी हो जाएं और कुछ ऐसा कार्य शुरू करें कि सुकून की जिंदगी जी सकें। आइये देखें क्या कहते हैं कल्पना और विवेक की कुंडलियों के सितारे? क्या अभी कोई इम्तहान बाकी है या फिर उनके अच्छे दिन आने वाले हैं?े कल्पना की कुंडली में लग्न भाव में नैसर्गिक पाप ग्रह राहु स्थित है तथा लग्न पाप कर्तरी योग से ग्रसित है। लग्नेश चंद्रमा भी अपनी नीच राशि में स्थित है। तीव्र पापकर्तरी योग होने से इनकी मानसिक शांति, आत्मविश्वास, आत्मबल तथा स्वतंत्रता को बार-बार चोट पहुंची व जीवन बहुत संपत्ति व सुविधा संपन्न होने के बावजूद भी नीरस लगने लगा तथा क्षुब्ध व उदास मन के कारण इनकी सदैव अपने घर में भी जेल जैसे जीवन की ही स्थिति बनी रही। लग्न में पापकर्तरी योग होने के अलावा राहु, केतु व शनि जैसे पाप ग्रहों का प्रभाव भी है। साथ ही लग्नेश भी नीच राशिस्थ है। न केवल आत्मबल, शारीरिक शक्ति व व्यक्तित्व का घर लग्न पीड़ित है अपितु मन का कारक राशि कर्क भी पीड़ित है और मन का कारक चंद्र लग्नेश होकर नीचराशिस्थ होने से दोहरा नुकसान कर रहा है। ऐसी स्थिति के चलते ऐसा लगता है कि उनको मानसिक शांति आसानी से सुलभ न होगी क्योंकि रिजर्व मेंटल एनर्जी का कारक गुरु भी अशुभ भाव में स्थित है। यदि वैवाहिक सुख या सोलमेट का विचार करें तो पति का कारक गुरु अशुभ भाव में स्थित है व सप्तम भाव पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव है। इसके अतिरिक्त भावात् भावम् के सिद्धांतानुसार यदि अध्ययन करें तो पाएंगे की सप्तम से सप्तम अर्थात् लग्न की स्थिति अत्यधिक अशुभ होने के कारण सप्तम भाव में स्वगृही शनि भी वैवाहिक जीवन में सामंजस्य उत्पन्न नहीं कर पाया। इनके पति की कुंडली में भी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ योग न होने के कारण इन्हें पति की ओर से भी विशेष स्नेह व आत्मीयता प्राप्त न हो सकी और लगभग ऐसी स्थिति हो गई की ये दोनों चाहकर भी पूर्णरूपेण एक दूसरे के न हो सके। विवेक की कुंडली में नवांश में उच्चराशिस्थ शनि होने के चलते यह कह सकते हैं कि इनका तलाक नहीं होगा व वैवाहिक जीवन में स्थिरता बनी रहेगी। कल्पना की जन्मपत्री में स्वगृही शुक्र माता के घर अर्थात् चतुर्थ भाव में होने से मालव्य योग का निर्माण होने व चतुर्थ भाव पर गुरु की दृष्टि होने से इन्हें इनके मामा ने गोद लेकर बड़े नाजों से पाला। चतुर्थ भाव में शुक्र की श्रेष्ठतम स्थिति से जातक को जीवन में सुख, संपत्ति, समृद्धि, सुविधा, वाहन, गृह सुख इत्यादि किसी भी चीज की कमी नहीं रहती। ऐसे लोग कई बार गोद ले लिए जाते हैं तथा अच्छी शिक्षा व अमीरी की भी प्राप्ति होती है और विवाहोपरांत पति की निरंतर उन्नति भी होती है क्योंकि चतुर्थ भाव सप्तम भाव से दशम होता है। कल्पना की कुंडली में द्वितीयेश द्वितीयस्थ, तृतीयेश तृतीयस्थ व चतुर्थेश चतुर्थस्थ है। ऐसा योग अखंड लक्ष्मी योग समझा जाता है। चतुर्थ भाव से शिक्षा का विचार होता है। इस भाव में शुक्र अपनी मूल त्रिकोण राशि में स्थित होने से कल्पना की पेंटिंग व कला के क्षेत्र में रूचि बनी और बहुत से व्यक्ति इसकी कला से प्रभावित भी हुए परंतु कार्य क्षेत्र का स्वामी एवं पंचम भाव का प्रतिनिधि ग्रह मंगल बारहवें भाव में स्थित होने से तथा शिक्षा का कारक भाग्येश गुरु अष्टमस्थ होने से वह अपने ज्ञान व कला को व्यावसायिक रूप देने में असफल रही और कोशिश करने पर भी अपना करियर नहीं बना पाई। इनकी महत्वाकांक्षा अतृप्त रह गई तथा जीवन में व्यावसायिक दृष्टि से उच्चस्तरीय सफलताओं में बाधाएं आती रहीं और अति महत्वाकांक्षी होते हुए भी इन्हें साधारण जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ा। कल्पना की कुंडली में चार ग्रह स्वगृही हैं तथा इनके पति की कुंडली में भी तीन ग्रह स्वगृही हैं। परंतु इनके पति की कुंडली में एक भी शुभ ग्रह केंद्र में नहीं है तथा राहु, केतु केंद्रस्थ हैं। इसी कारण इन्हें अनैतिक कार्यों से परहेज नहीं है और ग्रहों की ऐसी स्थिति के चलते ही इन्हें कानूनी पचड़े में भी पड़ना पड़ा। विवेक को बुध की दशा में राहु की अंतर्दशा आने के बाद जेल की हवा भी खानी पड़ी। उस समय गोचर के शनि का द्वादश भाव में स्थित मंगल के साथ परस्पर दृष्टि योग भी चल रहा था। चतुर्थ व द्वादश भाव में पाप ग्रहों के प्रभाव से जेल योग होता है। आगे का समय कल्पना के व्यावसायिक जीवन के लिए श्रेष्ठ है। जिस तरह शनि की साढ़ेसाती ने उसके जीवन में इतनी उथल-पुथल कर दी वहीं शनि अब उसके भाग्योदय में सहायक होगा और वह अपनी पहचान कला क्षेत्र के माध्यम से बनाने में अवश्य सफल होगी।

Astakavarga

Planets of a horoscope do not and cannot act in isolation. In fact they influence one another in a variety of ways viz. conjuction , aspects , argala , ashtakavarga etc. A planet can give his result only in as much measure as the other planets would co-operate with it. In other words the native , at all times , experiences the resultant effect of all planets. The extent to which planets influence one another is a matter of qualitative judgement except in case of ashtakavarga which puts the planetary interplay into a well defined system. The books on astrology contain information about the effects of planets in different houses or signs. It is quite common to see astrologers engaged in lengthy discussions on this issue , each one trying to justify his(her) viewpoint on the basis of own study/experience. However, the fact remains that planets of a horoscope do not and cannot act in isolation. In fact they influence one another in a variety of ways viz. conjuction , aspects , argala , ashtakavarga etc. A planet can give his result only in as much measure as the other planets would co-operate with it. In other words the native , at all times , experiences the resultant effect of all planets. The extent to which planets influence one another is a matter of qualitative judgement except in case of ashtakavarga which puts the planetary interplay into a well defined system. The Classics have specified the houses of Bhinnashtakavarga(BAV) of each planet which are influenced by all planets by way of contribution of “bindus” ( benefic influence) and “rekhas “ -malefic influence. For example,in Sun’s BAV, he contributes one bindu (point) each in the first ,second , fourth , seventh. eighth , ninth , tenth and eleventh house from his own position while Moon contributes points in third ,sixth , tenth and eleventh house from her own position and so on. The Ascendant also contributes points in the specified houses of each BAV . By summing up the scores in all BAVs one gets Sarvashtakavarga (SAV) which shows the overall strengths of houses and planets. Such a “democratic approach “ is not seen in any other branch of astrology. In the classical system mentioned above each planet , irrespective of own strength , is treated as capable of exerting uniform influence by contributing one point each in the specified houses. The author feels this simplistic approach is not accurate. A stronger planet is capable of exerting greater influence, commensurate with own strength, and this should reflect in his contribution to the specified houses of ashtakavarga.

Some Bhavas from parents followed in their children's horoscope

Introduction: The personality of every human being evolves from infancy to old age beginning from the birth. Astrology unravels the pattern of such an evolution through the 12 bhavas of the horoscope. Starting from Lagna , various aspects of one’s life unfold in each of the twelve bhavas. Lagna signifies birth of the physical body and all its attributes like colour, stature, health, honour, etc . It is usually said that everything about a person is signified by Lagna. The second house not only signifies food, nourishment or the wealth that supports growth and sustenance of the body but also speech and family of the native. Although third bhava indicates physical prowess and courage ,etc connected to the bodily aspects, it also signifies one’s younger co-borns. The fourth being ‘sukha sthana’ connected to general happiness of the native, it also signifies the mother of the native and Gruha ,Vaahana soukya, and so on. The word ‘Bhava’ means many things depending on the contextual use. Its generally recognized connotations are feeling, emotion, innate property, the state of being, inclination or disposition of mind, quality of existence, etc . As such , in Astrology , it connotes the various states of being , rather the different portfolios of our life. In a horoscope, Lagna marks the commencement of one’s life and succeeding Bhavas sequentially signify all other aspects of life one by one as they unfold in one’s lifetime. Not only that. Each house possesses a link to all other houses in a particular area of life. Also, many new physical realms manifest in each of the succeeding houses based on the preceding ones. Details of different portfolios of life allocated to each bhava are available in almost all the classics on astrology. But, there are some differences in these allocations. Here, it is pertinent to point out that there is no information available in any extant literature on the subject to explain the rationale behind allotting a particular karakatwa to a particular bhava. However, it is generally observed that the allotment follows a natural pattern of interlink acceptable to our day-to-day pattern of living. Almost all these rulerships (except a few controversies) are time-tested , accepted and widely followed since thousands of years across the globe . This article of mine is an effort to understand and sort out one such exceptional controversy related to the bhavas ruled by our parents. The 12 Bhavas and our Relationships : As already hinted, there is a link between the various bhavas of a horoscope in each and every area of our life. The lagna bhava signifies the self. Second bhava signifies the family in which one is born and also the one he would acquire after growing of age. Third bhava governs one’s co-borns especially the younger ones and father-in –law ( being 9th to 7th ). The fourth rules mother .The fifth rules one’s siblings and paternal grandfather ( being 9th to 9th ). The sixth signifies one’s enemies and maternal uncle/aunt ( being 3rd to 4th ).The seventh rules one’s spouse and also all partners in business. The eighth rules the family of spouse. The ninth house signifies one’s father. The tenth signifies mother-in-law (being 4th to 7th ) and the husband of mother ( being 7th to 4th ). Eleventh signifies neighbours and elder co-borns The twelfth signifies paternal grand mother (being 4th to 9th ). Based on similar analogies, other left out relationships can also be deduced from the various houses of the horoscope. But, as already stated ,out of the above , there exists a basic controversy regarding the bhavas ruled by our parents. In Vedic Astrology, 4th house is ascribed to one’s mother in a vast majority of Astrological classics . But , so far as the house of father is concerned there is a wide variation. While some classics prefer 9th Bhava , some others prescribe 10th as the house of father. Even in western Astrology , there is a difference of opinion on the houses related to one’s parents. Astrological Classics and Bhavas related to parents : In all the widely followed Vedic Classics such as Brihat Parashara Hora, Brihat Jataka, Jataka Parijatha, Phaladeepika, Shambu Hora Prakasha, Uttara Kalamruta, Jatakabharanam, Hora Makarand, Bhavartha Ratnakara, Maansagari, etc 4th house is unanimously allocated to one’s Mother. To signify mother , the words like janani, Amba, ambu and Mathru have been used .In Saravali, the word ‘Bandhava’ has been used which is a common term for all relatives and in Daivagna Vallabha, both Janitri and Janaka are used for 4th house , meaning both parents relate to the same house. In Brihat Jataka, 4th house is called as ‘Bandhu’( meaning Relatives) and ‘Griha’(meaning house or residence). As regards the bhava signified by one’s father , there is no such commonality. Brihat Parashara Hora, Shambu Hora Prakasha, Jatakabharanam, Maansagari, Jatak alankara, etc assign 10th bhava to father (Janaka, Pithru). Phaladeepika, Uttara Kalamruta, Bhavartha Ratnakar, etc assign 9th Bhava to one’s father. Besides, almost all the Astrological classics available in vernacular languages of South India including the Nadi Texts in Tamil and a vast majority of modern day practitioners of the science even in North India, consider 9th Bhava as the house signified by one’s father. But, Jatak Parijata by Vaidhyanatha allots both 5th and 9th houses to father. A perusal of some of the famous works in western Astrology ( both by a few pioneers and modern authors ) reveals a complexity existing on the issue. The opinions of some authors is tabulated in the chart given for easy reference : Thus, in western Astrology , the following five different opinions are seen : 1.4th house rules mother and 10th house rules father. 2.4th house rules Father and 10th house rules Mother. 3.4th house rules one of the parents , 4.4th house rules one of the parents , usually the one who has least influence over the native and 10th house rules the other parent . 5.4th house rules both the parents. Here, it is significant to observe that 9th house is not considered at all either for father or mother in western Astrology. And in Vedic Astrology , 4th house is never considered exclusively for father although the house is assigned to both parents in a texts like Daivajna Vallabha ( uses the words ‘Janitri Janaka’), etc. The Bhava for Mother : 4th or 10th ? As could be seen from the facts stated above , there exists a good conformity in fixing the Bhava ruled by one’s Mother. Although there is some deviation, both the systems Vedic and Western, broadly agree in assigning 4th House to the Mother. The basis for assigning this lordship is again the rulership of planet Moon in the natural Zodiac. The planet Moon signifies Mother and it is the lord of Cancer, the 4th house of the natural Zodiac. The rulerships of planets are assigned based on their Geocentric placement in the cosmos and any discussion on its validity is beyond the scope of this article. Here, it should be noted that 4th house also signifies the living place and domestic environment. In all parts of the globe, undoubtedly it is the Mother who influences the child first and hence, mother signifies domesticity also, although in later years changes do occur depending on the individual tendencies of the child and its parents. As the allotment of 4th house to mother and its related considerations like domesticity, etc abide by the basic empirical rules adopted in Astrology, it is acceptable to us. But, the opinions listed at Sl. 2 to Sl. 5 above are at variance with the majority opinion which do merit a closer examination. The claim that 4th house rules father is not falling ‘in line’ with the general scheme of the empirical rules adopted in Astrology. That is, Sun ,the planet signifying father, is the ruler of 5th house in natural Zodiac and is not connected to 4th house. Hence, it is not acceptable. However, there is some substance in the claim that the 4th house rules the parent of the opposite sex as that of the native. But, it is always the mother who wields a special domestic influence on the child and the father in most cases “ has much to do with influencing the choice of profession or calling” More over, mother is the first family link to the child and through the mother only the child starts knowing the very world around it. Hence, 4th house ruling domesticity also should be the domain of Mother only. The contention that 4th house is ruled by both the parents seems apparently acceptable because of the other associated significations of the house such as Comforts (sukha ), Domesticity ( homeliness), etc over which both the parents are certainly influential. As Sri Dane Rudhyar writes: “The mother may dominate the home (4th house) , but the father may form the Psychological home: the soul ”(The Astrological Houses) .But, mother’s influence precedes that of the father in the present birth and hence, we must give extra credit to the mother. For the same reason, the other claim that 4th house rules the least influential parent is unacceptable . Besides, it is an irrefutable truth that both parents influence the child in its formative years in one way or the other and neither of them could be weighed less. As such, in my opinion, assigning 4th house to the mother is quite logical and convincing . Father: 5th , 9th or 10th Bhava ? Once the bhava ruled by mother is fixed as the 4th, 10th bhava being the 7th from 4th (mother’s husband ) naturally becomes the house of father. This logic followed by some scholars has an inherent flaw in it. Is it absolutely necessary that one’s mother’s husband should always be one’s father ? The answer is an obvious ‘no’. Hence, 10th house for father is unacceptable on this premise. There is another reason also adduced to assigning 10th house to father. In olden days sons invariably followed father’s profession . Those days, it used to be a family tradition of following a particular profession. But, in modern times , this is lo longer applicable. The availability of multiple avenues in modern society has changed the age-old tradition of many a family and sons treading in the footsteps of fathers is no longer universally applicable, although in some isolated families the old tradition is still continued. Thus, assigning 10th house to father in today’s world is unacceptable for it is not universal in its application. Now, let us examine the next option of 5th house as the bhava ruled by father. The planet Sun ruling the 5th house of the natural zodiac is taken as the Karaka for father and Pitrus and hence, some assign 5th house itself to father. But, 5th house proper is widely considered as the house of children by a vast majority of the practitioners of the Science . 5th house is also regarded as the house signifying one’s poorva punya. According to vedic lore, we get either good or bad children based on our poorva punya only . If punya is more, we get children worthy of the name and if our sins are more , we get such children who would make us suffer and reap our karmaphala through them. However, there surely exists a link between lagna as the self, 5th house as his child and 9th house ( being the 5th to 5th ) as his father . Possibly, due to this link only, the custom of naming children after the names of one’s parents / grand parents is still prevailing in our countryside. Hence, considering 5th house as the house of children is more apt. Then, the 9th house is the final option . Counting the 9th as the 1st, we find that the 5th therefrom indicates the native. Some persons advocate the 4th house and the 10th house for father. It is incorrect. Always take the 9th house for father”. This argument, in my opinion , is totally irrefutable and thoroughly convincing. Also, some of the other significations of 9th house such as Bhagya (luck), Dharma , etc are inter-connected to the role of one’s father and Pitrus. According to Hindu Shastras, our present birth in a particular family lineage is based on the karmic results that operated at the end moments of our previous life.. Some factors like our unfulfilled aspirations in that life , our eligibility to get them fulfilled in this life or otherwise , etc are said to create an ambient suitable for the same in the present life as a result of which we take birth to a particular parents . This , in other words , is called as luck or Bhagya. In fact, our very life is under the control of our prarabda. 9th house signifies the influence of this prarabda. Thus, 9th house is rightly called as ‘Dharma, Pithru, Bhagya sthana’. Conclusion : It is evident from the foregoing discussion that 4th house is the house of Mother and 9th house is the house of father. Although 5th and 10th houses do have some links to the parents in general, they cannot be considered for either father or mother . Both 5th and 10th houses have other stronger significations i.e., Putra and Karma Sthanas respectively.

Mythology about Nakshtras and Navamansa

Nakshatras : According to mythology Nakshatras are the daughters of Daksha Prajapati. They were 27 in number and were married to Moon. The list of Nakshatras is available in Taittiriya Samhita (A.V 19.7) and also in the Shatapatha Brahmana. Each Nakshatra has one of the navagrahas as Lord and is totally governed by them. The order for the first 9 nakshatras are Ketu, Shukra(Venus), Surya(Sun), Chandra(Moon), Mangala(Mars), Rahu, Guru(Jupiter), Shani(Saturn) and Budha(Mercury). This cycle gets repeated two more times to cover all the 27 nakshatras. Based on this the Vimsottari Dasa System has been built. In Vedic Astrology the Zodiac comprises 360 degrees. By making a 30 degree division we get the 12 Rasis. By making a 13 degree 20 minutes division we get the 27 Nakshatras. In fact the first division was by means of Nakshatras only for which we find references in Rig-Veda also. Moon takes 27 days and 7¾ hours to make one round of the fixed Zodiac. Based on this the division of 130 20’ was made. Now we get a shortfall of 7¾ hour in the lunar transit which was made up of an extra Nakshatra called Abhijit. For the purpose of some special charts like Sarvobhadra Chakra etc we consider 28 Nakshatras and for all other purposes we take only 27 Nakshatras. The span from 2760 40’ to 2800 54’ 13” that is to say the last pada of Uttarashada is known as Abhijit. Details about each Nakshatra like, Symbol, Gotra, Gana, Lord, Deity, Type, Yoni, Guna, Goal, Sex, Body Part, Caste etc. etc. can be seen in any Standard beginner’s book. In most of the Panchanga’s also these details are given. I am not going into the details of these in this article. In the Gola Shastra we find a further sub-division of this arc of 13 degrees 20 minutes into 4 parts of 3 degrees 20 minutes each. These are called padas that is legs or feet. Why this was done? The arc of 13 degrees 20 minutes were found to be insufficient for the ancient astrologers and get a better and specific characteristic features of ruler-ship of the stars the further sub-division was made. Thus each Rasi was allotted 9 padas each in the running order of the Nakshatra. Nakshatras and their nature have volumes and volumes of information and it is not possible to present here all of them. Like-wise Nakshatras have deep relationships with various divisional charts, especially the Navamsa called as D-9 chart and Nakshatramsa Chart called as D-27 chart. Navamsa : Bhagavat Gita says that the first symptom of fall in Dharma is when the women of the family become corrupt and thus get polluted. Dharma is denoted by the 9th house. Hence one ninth division is called Navamsa to stress the point that it is a Dharmamsa. That is why Navamsa gains importance while matching charts for marriage. This is the chart which gives out the inherent abilities of the native though in a hidden form. Rasi chart is existence at the physical level. Moon chart shows your mental abilities. Navamsa chart shows the soul’s development through previous lives which are going to bear fruit in the current life. The importance given to this chart by Parasara, Jaimini, Varahamihira, Kalyana Varma and many more astrologers including respected B.V.Raman point out that the strength of the planets are to be judged taking into account both Rasi and Navamsa chart together. How Navamsa chart is constructed? Each Rasi of 300 is divided into 9 equal parts. So each part will be 30 20’. For Fiery Rasis (Mesha, Simha, Dhanus) Navamsa starts from Mesha. For earthy signs (Vrishabha, Kanya, Makara) Navamsa starts from Makara. For Airy signs (Mithuna, Thula, Kumbha) the beginning is from Thula and for the watery signs (Karka, Vrischika and Meena) the order starts from Karka. An Example will clarify this point: Suppose a planet say Mercury is in 150 25’ at Kanya. Kanya is earthy sign. Hence starting point for Navamsa will be Makara. 150 25’ is in the 5th part of the rasi by dividing it with 9. Hence counting 5 from Makara we come to Vrishabha. In the Navamsa chart Mercury will be placed in Vrishabha. Suppose Mars is in Karka 240 10’ then it falls in the 8th part of the rasi. Karka being a watery sign counting is to begin from Karka itself. 8th from Karka is Kumbha where Mars will be placed in Navamsa chart. This is the way Navamsa chart is to be constructed. Relationship of Nakshatra padas and Navamsa I have already mentioned that each Nakshatra is divided into 4 padas and the pada has a characteristic of the sign of the zodiac which starts from Mesha. If you take 3 nakshatras you get 12 padas (3 x 4) which can be equated to the 12 rasis. However each rasi has been assigned only 2¼ Nakshatras or 9 padas only. So counting from Mesha the 9th sign falls in Dhanus. So the next Nakshatra pada should automatically start from Makara. Count 9 signs from Makara to end up in Kanya. The next Nakshatra pada should start from Thula. Similarly counting from Thula the 9th sign falls in Mithuna and naturally the next Nakshatra pada will begin from Karka. So the order of beginning is Mesha, Makara, Thula and Karka which tallies with the basic principle laid down in scriptures and as explained above. To make matters simple I will conclude that the signs of padas and the Navamsa signs are the same. Now let us examine the sample calculation made above according to this new rule: Mercury is in 150 25’ in Kanya. The Nakshatra is Hasta-2nd pada. Count the padas from Ashwini to Hasta – 2nd. Ashiwini to Uttaraphalguni it is 12 Nakshatras or 12 x 4 = 48 pada. Add 2 padas of hasta and the total pada is 50. For the 12 rasis we are allotting 12 padas. Hence 4 x 12 = 48 padas gets allotted to all the 12 rasis. 2 padas remain – starting from Mesha the 2nd rasi will be Vrishabha which gets the 50th pada. So Mercury will be in Vrishabha in the Navamsa Chart which tallies with our principle stated earlier. Let us take the 2nd example also. Mars is in Karka 240 10’. The Nakshatra is Aslesha – 3rd pada. From Ashwini till pushyam 8 Nakshatras or 32 padas are there. Adding the 3 padas of Aslesha we get 35 padas. Staring from Mesha allot each pada and you will end up in Kumbha as the 35th pada. This is what we have arrived at earlier. To complete this calculation you should compute the Nakshatra and the pada in which the planet is placed using the longitude of the planet.

Mangal Dosh

Astrology reading and making of birth charts came into practice much later than the Vedic times. By that time chart making had become a general practice; not only had a lot of time elapsed but the culture, society and human values had changed. All over the world human societies were dependent on agriculture and manpower was used in all activities.
It is an irony of fate that all the shastras or texts were written by men which favour him to the maximum as compared to women. The bias of men can easily be seen in all these texts when one starts looking at them minutely. The same is true for ‘mangal dosha’ or ‘Mars evil’ in astrology. Mars is the most potent planet of the zodiac after the Sun and every astrologer worth his salt, will praise the quality of Mars if it is present in the lagna of his male client. He may say that this person is very strong, courageous, energetic, forceful, dynamic, fearless, can conquer his enemies easily, may become commander –in-chief etc. etc.. However if the same Mars is present in a girl’s chart the astrologer gets depressed himself and makes sure that his client remains depressed for the rest of his life. His total reversal will be seen as he uses words like arrogance, stubborn, aggressive, negative, intolerant, dominating, housebreaker and god-forbid her husband may die due to this harmful Mars. Alas one wonders what has happened to Mars all of a sudden.

According to the prevalent understanding of mangal dosha, the placement of Mars can create havoc if placed in the following houses – 12th, 1st, 4th, 7th and 8th. According to South Indian system of astrology mangal dosha extends to two more houses 2nd and 5th. Mangal dosha is calculated from lagna, Moon and Venus. Acording to this calculation more than 80% people are born ‘manglik’. In other words, if five people are present in a group then four of them are bound to be manglik. It is very difficult to find non-manglik persons according to this calculation.

Lagna represents the physical aspect of human being; Moon denotes the mental makeup of a person and Venus decides the sexual aspect of a human being. The 12th house is considered bad for the placement of Mars because it deals with bed comforts or loss of energy. It is believed that if Mars is present in the 12th house in a woman’s chart especially then her sexual desires may be much more than what her husband can cope with. Therefore a girl born with Mars in the 12th house is generally discarded without giving much importance to the other aspects of her chart.

Lagna or 1st house represents self. If Mars is present in this house especially vis-a-vis to the girl then we had explained what would be the outcome. The 4th house deals with family, comfort and peace of mind. If Mars is placed in the 4th house in a girls chart then sure shot she is going to be a house-breaker sooner or later therefore she is rejected for the happiness of the groom’s family.

The 7th house represents spouse or partner and the placement of Mars in this house can make the girl very demanding from her husband which he cannot easily fulfil. God forbid placement of Mars in the 8th house is a sure shot passport for the death of her husband. The 8th house is considered death house in astrology and Mars being a violent planet one imagines destruction only if it is present in the girls chart.

Our understanding and interpretation of Mars is very different to the prevalent concept. Man and woman are equally important and not lacking in any quality. According to Shivasutra in every man 50% of woman is present and in the same way in every woman 50% man is present. That is why any woman can show her fierce side as and when required and the same way every man has a softer side to him and can exhibit a motherly instinct. No culture no society no country can progress by ignoring or condemning 50% of its population and with changing times women are playing a very important role all over the world and so also in India. If India’s economy is progressing it is because of the large contribution of women power. In Vedic times women were given equal importance and that is why that society and knowledge evolved to the maximum.

Times are changing and so is the awareness of womenfolk especially in India. Astrology is nothing but the understanding, reading and study of time alone. Therefore it is the duty of savant astrologers to adapt to the changing times. According to our understanding if Mars is present in the 12th house of a girl’s chart then instead of creating problems on the sexual level she may be very useful in teaching her husband the inner concept of sex. The deeper understanding of sex is to enjoy it to the hilt and then drop it and move forward. The energy which was going waste or lying dormant can be used for spiritual development. When Mars is present in the 1st house in the woman’s horoscope then she can be a go-getter and solve the problems of a household just as a man does. The job of Mars in the first house is to give ample energy and force to the person so the person can fulfil their tasks with ease. Mars as a planet does not differentiate between girl and boy.

When Mars is placed in the 4th house of a girl’s chart then instead of destroying the peace of the house or fighting with her mother-in-law she will have better ideas to make the house heaven with her positive energy. When Mars is placed in the 7th house in a girl’s chart then in spite of focusing her energy on sex and destruction she can provide total support to her husband which gives freedom to both of them to bring happiness and harmony in the family. There is no truth in it that when Mars is present in the 8th house in a girl’s chart then she brings death to her husband. Birth and death are controlled by the Almighty and man’s role is insignificant in this scheme of the cosmos. The 8th house is also known for its secret power and hidden knowledge and treasure and placement of Mars in this house always contributes in those fields.

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