Saturday 9 July 2016

प्रेत बाधा (गरुड़ पुराण मीमांसा)

छोटे-छोटे नवजात शिशु से लेकर मौत की तरफ बढ़ रहे बड़े बूढ़े सभी भूतों के बारे में सुनते तो है परन्तु इनके पौराणिक उधम को जानते नहीं और भुत प्रेत के रहस्य से हमेशा आतंकित रहते हैं | लेकिन गरुड़ पुराण ने उस सरे भय को दूर करते हुए प्रतोयोगिनी से संबंधित रहस्यों को जीवित मनुष्यों के कर्म फल के साथ जोड़कर सम्पूर्ण अदृश्य जगत का जो वैज्ञानिक आधार तैयार किया है उस सबकी विस्तृत जानकारी पाएंगे आप इस लेख में |
वैदिक ग्रन्थ गरुड़ पुराण में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है और शोक संतप्त परिवार को इसके सुनने से राहत और तसल्ली मिलती है कि उनके द्वारा दिवंगत आत्मा का सही ढंग से क्रियाकर्म हो रहा है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी धुंधकारी के प्रेत बन जाने का वर्णन आता है। प्रेत की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं मनुष्य है।
अनेक देशों की लोकप्रिय संस्कृतियों में प्रेतों का मुख्य स्थान है। सभी देशों की संस्कृतियों में प्रेतों से संबंधित लोक कथाएं तथा लिखित सामग्री पाई जाती हैं। जिसमें ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और चीनी, जापानी एवं अफ्रीकन संस्कृति प्रमुख है! मिस्र के पिरामिड भी भूतों के स्मारक है। इन स्मारकों को सिर्फ बाहर से ही देखने की अनुमति है अन्दर जाने की नहीं।
हिन्दू धर्म में ‘‘प्रेत योनि’’ इस्लाम में ‘‘जिन्नात’’ आदि का वर्णन प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व जीव अथवा प्रेत के रूप में होता है।
प्रेत का पौराणिक आधार:
गरुड़ पुराण में विभिन्न नरकों में जीव के पडऩे का वृतान्त है। मरने के बाद इसमें मनुष्य की क्या गति होती है उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है प्रेत योनि से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा पितरों के दारुण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
कर्मफल अवस्था: गरूड़ पुराण धर्म, शुद्ध और सत्य आचरण पर बल देता है, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, कर्तव्य-अकर्तव्य तथा इनके शुभ-अशुभ फलों पर विचार करता है। वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त कर देता है।
पहली अवस्था: समस्त अच्छे बुरे कर्मो का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है।
दूसरी अवस्था: मृत्यु के उपरान्त मनुष्य विभिन्न चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्मानुसार जन्म लेता है।
तीसरी अवस्था: कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नर्क में जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में इन तीन प्रकार की अवस्थाओं का खुलकर विवेचन हुआ है। जिस प्रकार चौरासी लाख योनियां है, उसी प्रकार असंख्य नर्क भी हैं जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। ‘गरूड़ पुराण’ ने इसी स्वर्ग नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इसी कारण भयभीत व्यक्ति अधिक दान पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है।
प्रेत योनी किसे प्राप्त होती हैं ?
‘प्रेत कल्प’ में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और संबंधियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताडि़त करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है। जो व्यक्ति दूसरों की संपत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राहमण अथवा मंदिर की संपत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का घात करता है, माता, बहन, पुत्र-पुत्री, स्त्री, पुत्रवधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है। उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीते जी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषिहानि, संतानमृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है। अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है जो धर्म का आचरण और नियमों का पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे अकाल मृत्यु में धकेल देते हैं।
गरुड़ पुराण में प्रेत योनि और नर्क में पडऩे से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक उपाय दान, यज्ञ, सत्संग, नाम संकीर्तन, स्वाध्याय, पिंडदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं।
सर्वाधिक प्रसिद्ध इस प्रेत कल्प के अतिरिक्त इस पुराण में आत्मज्ञान के महत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसके लिए अपने मन और इंद्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकांड पर सर्वाधिक बल देने के उपरांत गरुड़ पुराण में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकांड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है।
जीवों का सूक्ष्म विवेचन:
इस पृथ्वी पर चार प्रकार की आत्माएं पाई जाती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अच्छाई और बुराई के भाव से परे होते हैं। ऐसे जीवों को पुन: जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। वे इस जन्ममृत्यु के बंधन से परे हो जाते हैं। इन्हें असली संत और असली महात्मा कहते हैं। उनके लिए अच्छाई और बुराई कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिए सब बराबर हैं। उनको सबसे प्रेम होता है किसी के प्रति घृणा नहीं होती है। इसी तरह कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अच्छाई और बुराई के प्रति समतुल्य होते हैं यानी दोनों को समान भाव से देखते हैं वे भी इस जनम मृत्यु के बंधनों से मुकत हो जाते हैं। लेकिन तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं जो साधारण प्रकार के होते हैं, जिनमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी होती है। दोनों का मिश्रण होता है उनका व्यक्तित्व ऐसे साधारण प्रकार के लोग अपनी मृत्यु होने के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ को उपलब्ध हो जाते हैं, किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रेत भी गर्भ प्राप्ति की प्रतीक्षा करते हैं:
चौथे प्रकार के लोग असाधारण प्रकार के लोग हैं, जो या तो बहुत अच्छे लोग होते हैं या बहुत बुरे लोग होते हैं। अच्छाई में भी पराकाष्ठा और बुराई में भी पराकाष्ठा। ऐसे लोगों को दूसरा गर्भ प्राप्त करना कठिन हो जाता है। ये जीव भटकते रहते हैं। प्रतीक्षा करते रहते हैं कि उनके अनुरूप कोई गर्भ मिले तभी वह उसमें प्रवेश करें। जो अच्छाई की दिशा में उत्कर्ष पर होते हैं वे प्रतीक्षा करते हैं कि उनके अनुरूप ही योनी मिले। जो बुराई की पराकाष्ठा पर होते हैं वे भी प्रतीक्षा करते हैं। जिन्हें बुरे पूर्वाग्रह वाले प्रेत कहते हैं और मृत्यु के बाद उन्हें गर्भ प्राप्त करने में कभी-कभी बहुत ज्यादा समय लग जाता है। ये जीव जो अगले गर्भ की प्रतीक्षा करते रहते हैं, ये ही मनुष्य के शरीर में प्रेत का रूप लेकर प्रवेश करती हैं और उन्हें कई तरह की पीड़ाओं से ग्रसित करती हैं।
जिस व्यक्ति के जीव में अपने प्रति लगाव होता है, उस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर उतना ही विकसित होता है। शरीर में आपका सूक्ष्म शरीर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यही सबकुछ संचालित करता है। जब जीव का मनोबल व संकल्प शक्तिशाली होता है तब सूक्ष्म शरीर विकसित होता है, फैलता है और शरीर में पूरी तरह व्याप्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर का सबसे बड़ा गुण है, यही स्वरूप उस ब्रह्मा का भी है।
ज्योतिष के अनुसार वे लोग प्रेतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में राहु से पापाक्रांत प्रमुख ग्रहों के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है।
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनी प्राप्ति के कारण:
* कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं।
* कुंडली में बनने वाले कुछ प्रेत बाधा दोष इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रहों की स्थिति हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर प्रेत-पिशाच या नकारात्मक जीवों का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि या मंगल में से कोई भी ग्रह राहु से आक्रांत होकर सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी प्रेत बाधा या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. उक्त योगों की दशा-अंतर्दशा और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान होगा। इस कष्ट से मुक्ति के लिए पितृ शांति कराना चाहिए।
4. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव में हों तो भी प्रेत बाधा बनते हैं।
5. प्रेत-बाधा अक्सर उन लोगों को कष्ट देता है जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
6. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और प्रेत बाधा देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को ज्यादा कष्टकारी माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। प्रेत बाधा दोष राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है।
प्रेतबाधा दोष जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है उसमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं और उनके अनुसार बुरे कर्म करने लगते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। स्वयं ही अपना तथा अपनों का नुकसान कर बैठते हैं।
7. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई उसका विनाश करने में लगा हुआ है और किसी भी इलाज पर उसे भरोसा नहीं होता।
8. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी प्रेतबाधा का प्रभाव आसानी से होने की संभावनाएं बनती हैं।
इस प्रकार परेशानियों से मुक्ति हेतु नारायण बलि, नागबलि, रुद्राभिषेक अर्थात पितृ शांति विद्वान आचार्य से किसी नदी के तट पर देवता के मंदिर प्रांगण में कराना चाहिए।
स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किवदंति खास कारणों से प्रचारित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- 222 में ‘‘उद्धृत नारायण बलि प्रकरण निर्णय’’ में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तट पर कराई जा सकती है। अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य, इस विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे, जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि प्रेत बाधा दूर करने एवं परिजन को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए की जाती है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि असमायिक मृत्यु जैसे कि एक्सीडेंट, बीमारी, आत्महत्या या हत्या, पानी में डूबने से या जलने से साथ ही प्रसव के दौरान इत्यादि से होने वाली मृत्यु के कारण कोई भी जीव सद्गति को प्राप्त न कर प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है। जीव को प्रेतयोनि में नाना प्रकार के कष्ट को भोगने पड़ते हैं जिसके कारण वह अपने परिवार के प्रियजनों को भी कष्ट देता रहता है, जिसके कारण उस परिवार के वंशज विभिन्न प्रकार के कष्ट जिसमें शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अशांति अथवा गृह-क्लेशों से गुजरते रहते हैं। अपने पितृों को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने एवं स्वयं् पर आये प्रेत-बाधा दोष को दूर करने के लिए अमलेश्वर धाम पर संपन्न होने वाले नारायण नागबलि के विधिवत पूजा में सम्मिलत होकर अपने कष्टों का निवारण करना चाहिए। यही एक मात्र स्थान है जो इस पूजन विधि के लिए सबसे उपयुक्त है।

कृष्ण की राधा......लघु कथा



तीनों लोकों में राधा की स्तुति से देवर्षि नारद खीझ गए थे। उनकी शिकायत थी कि वह तो कृष्ण से अथाह प्रेम करते हैं फिर उनका नाम कोई क्यों नहीं लेता, हर भक्त ‘राधे-राधे’ क्यों करता रहता है। वह अपनी यह व्यथा लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे। उस समय श्रीकृष्ण रुक्मिणी से विवाह कर द्वारिकापुरी में निवास कर रहे थे।
नारदजी ने देखा कि श्रीकृष्ण भयंकर सिर दर्द से कराह रहे हैं। देवर्षि के हृदय में भी टीस उठी। उन्होंने पूछा, ‘भगवन! क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार है। मेरे हृदय के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए तो मैं अपना रक्त दान कर सकता हूं।’ श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘नारदजी, मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत यानी अपने पांव धोकर पिला दे, तो मेरा दर्द शांत हो सकता है।’
नारद ने मन में सोचा, ‘भक्त का चरणामृत, वह भी भगवान के श्रीमुख में। ऐसा करने वाला तो घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार हो?’ श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वह रुक्मिणी के पास जाकर सारा हाल सुनाएं तो संभवत: रुक्मिणी इसके लिए तैयार हो जाएं। नारदजी रुक्मिणी के पास गए। उन्होंने रुक्मिणी को सारा वृत्तांत सुनाया तो रुक्मिणी बोलीं, ‘नहीं, नहीं! देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।’
नारद ने लौटकर रुक्मिणी की बात श्रीकृष्ण के पास रख दी। अब श्रीकृष्ण ने उन्हें राधा के पास भेजा। राधा ने जैसे ही सुना, रोते हुये तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने दोनों पैर डुबोए। फिर वह नारद से बोली, ‘देवर्षि, इसे तत्काल कृष्णा के पास ले जाइए। मैं जानती हूं कि उसे अपने पांव धोकर पिलाने से मुझे ‘रौरव’ नामक नरक में भी ठौर नहीं मिलेगा। पर अपने कान्हा के लिए तो मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।’ इतना सुनकर देवर्षि वहां रुक नहीं पाए। आंखों से आंसु की नदी बह पड़ी। इतना प्रेम? अब देवर्षि समझ गए कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम के स्तुतिगान क्यों हो रहे हैं। अपनी वीणा उठाई और निकल पड़े।

अंतर दो यात्राओं का.....

अचानक देखता हूँ कि मेरी एक्सप्रेस गाड़ी जहाँ नहीं रुकनी थी वहाँ रुक गयी है। उधर से आने वाली मेल देर से चल रही है। उसे जाने देना होगा। कुछ ही देर बाद वह गाड़ी धड़ाधड़ दौड़ती हुई आयी और निकलती चली गयी लेकिन उसी अवधि में प्लेटफार्म के उस ओर आतंक और हताशा का सम्मिलित स्वर उठा। कुछ लोग इधर-उधर भागे फिर कोई बच्चा बिलख-बिलख कर रोने लगा।
मेरी गाड़ी भी विपरीत दिशा में चल पड़ी थी। उधर से दौड़ते आते कुछ यात्री उसमें चढ़ गए। एक कह रहा था, ‘‘च...च....च्च बुरा हुआ, धड़ और सिर दोनों अलग हो गए।’’
‘‘किसके?’’ मैंने व्यस्त होकर पूछा।
‘‘एक लडक़ा था, सात-आठ वर्ष का।’’
‘‘ओह, किसका था?’’
‘‘साहब, ये चाय बेचने वाले बच्चे हैं। चलती ट्रेन में चढ़ते-उतरते हैं। दो भाई थे, एक तो उतर गया। दूसरे का बैलेंस बिगड़ गया और गिर पड़ा।’’
‘‘उसके माँ-बाप?’’
हँसा वह व्यक्ति, ‘‘माँ-बाप? इनका बाप भी चाय बेचता था। चालीस-पचास रुपये तक कमा लेता था पर सब शराब में उड़ा देता था। अब तो टोटल अलकोहलिक हो गया है। न जाने कहाँ पड़ा रहता है। छ: बच्चे हैं- दो लडक़े, चार लड़कियाँ। ये दोनों भाई किसी तरह सबका पेट भर रहे थे अब...’’
एक्सप्रेस गाड़ी तीव्र गति से दौड़ती हुई मुझे मेरी यात्रा के अगले पड़ाव की ओर ले जा रहा थी। मौत की गाड़ी उस बच्चे को भी इस लोक से उस लोक की यात्रा पर ले गयी थी जहां उसे हर दुख और चिंता से मुक्ति मिल गई होगी। पर कितना अन्तर था उन दो यात्राओं में!
साभार- विष्णु प्रभाकर
(कौन जीता, कौन हारा - लघु-कथा संग्रह से)

चन्द्र कुंडली से काल की गणना

किसी भी सूक्ष्म घटना जैसे शुभ समाचार की प्राप्ति,परीक्षा में सफलता,विवाह तय होना,किसी से मुलाकात में लाभ-हानि का जोड़-तोड़ एक्सीडेंट होना,चुनाव का टिकेट मिलना,रास्ता चलते किसी से विवाद हो जाना इत्यादि सारी घटनाओं का जब गणना किया जाये तो चन्द्र गोचर के आधार पर ही किया जाता है | अत: सभी सूक्ष्म काल की गणनाओं के लिए चन्द्रमा का गोचर देखना अतिमहत्वपूर्ण होता है |
दक्षिण भारत को छोडक़र पूरे भारत में प्रत्येक जन्मपत्री में दो लग्न बनाये जाते हैं। एक जन्म लग्न और दूसरा चन्द्र लग्न। जन्म लग्न को देह समझा जाये तो चन्द्र लग्न मन है। बिना मन के देह का कोई अस्तित्व नहीं होता और बिना देह के मन का कोई स्थान नहीं है। देह और मन हर प्राणी के लिए आवश्यक है इसीलिये लग्न और चन्द्र दोनों की स्थिति देखना ज्योतिष शास्त्र में बहुत ही महत्वपूर्ण है। सूर्य लग्न का अपना महत्व है। वह आत्मा की स्थिति को दर्शाता है। मन और देह दोनों का विनाश हो जाता है परन्तु आत्मा अमर है।
चन्द्र ग्रहों में सबसे छोटा ग्रह है। परन्तु इसकी गति ग्रहों में सबसे अधिक है। शनि एक राशि को पार करने के लिए ढाई वर्ष लेता है, बृहस्पति लगभग एक वर्ष, राहू लगभग 14 महीने और चन्द्रमा सवा दो दिन - कितना अंतर है। चन्द्रमा की तीव्र गति और इसके प्रभावशाली होने के कारण किस समय क्या घटना होगी, चन्द्र से ही पता चलता है। विंशोत्तरी दशा, योगिनी दशा, अष्टोतरी दशा आदि यह सभी दशाएं चन्द्र की गति से ही बनती है। चन्द्र जिस नक्षत्र के स्वामी से ही दशा का आरम्भ होता है। अश्विनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक की दशा केतु से आरम्भ होती है क्योंकि अश्विनी नक्षत्र का स्वामी केतु है। इस प्रकार जब चन्द्र भरणी नक्षत्र में हो तो व्यक्ति शुक्र दशा से अपना जीवन आरम्भ करता है क्योंकि भरणी नक्षत्र का स्वामी शुक्र है। अशुभ और शुभ समय को देखने के लिए दशा, अन्तर्दशा और प्रत्यंतर दशा देखी जाती है। यह सब चन्द्र से ही निकाली जाती है।
ग्रहों की स्थिति निरंतर हर समय बदलती रहती है। ग्रहों की बदलती स्थिति का प्रभाव विशेषकर चन्द्र कुंडली से ही देखा जाता है। जैसे शनि चलत में चन्द्र से तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में हो तो शुभ फल देता है और दुसरे भावों में हानिकारक होता है। बृहस्पति चलत में चन्द्र लग्न से दूसरे, पाँचवे, सातवें, नौवें और ग्यारहवें भाव में शुभ फल देता है और दूसरे भावों में इसका फल शुभ नहीं होता। इसी प्रकार सब ग्रहों का चलत में शुभ या अशुभ फल देखना के लिए चन्द्र लग्न ही देखा जाता है। कई योग ऐसे होते हैं तो चन्द्र की स्थिति से बनते हैं और उनका फल बहुत प्रभावित होता है।
चन्द्र से अगर शुभ ग्रह छ:, सात और आठ राशि में हो तो यह एक बहुत ही शुभ स्थिति है। शुभ ग्रह शुक्र, बुध और बृहस्पति माने जाते हैं। यह योग मनुष्य जीवन सुखी, ऐश्वर्या वस्तुओं से भरपूर, शत्रुओं पर विजयी, स्वास्थ्य, लम्बी आयु कई प्रकार से सुखी बनाता है।
जब चन्द्र से कोई भी शुभ ग्रह जैसे शुक्र, बृहस्पति और बुध दसवें भाव में हो तो व्यक्ति दीर्घायु, धनवान और परिवार सहित हर प्रकार से सुखी होता है।चन्द्र से कोई भी ग्रह जब दूसरे या बारहवें भाव में न हो तो वह अशुभ होता है। अगर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि चन्द्र पर न हो तो वह बहुत ही अशुभ होता है।
इस प्रकार से चन्द्र की स्थिति से अनेक योग बनते हैं और वह चन्द्र लग्न से ही बहुत ही आसानी के साथ देखे जा सकते हैं।
चन्द्र का प्रभाव पृथ्वी, उस पर रहने वाले प्राणियों और पृथ्वी के दूसरे पदार्थों पर बहुत ही प्रभावशाली होता है। चन्द्र के कारण ही समुद्र मैं ज्वारभाटा उत्पन्न होता है। समुद्र पर पूर्णिमा और अमावस्या को 24 घंटे में एक बार चन्द्र का प्रभाव देखने को मिलता है। किस प्रकार से चन्द्र सागर के पानी को ऊपर ले जाता है और फिर नीचे ले आता है। तिथि बदलने के साथ-साथ सागर का उतार चढ़ाव भी बदलता रहता है।
प्रत्येक व्यक्ति में 60 प्रतिशत से अधिक पानी होता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है चन्द्र के बदलने का व्यक्ति पर कितना प्रभाव पड़ता होगा। चन्द्र के बदलने के साथ-साथ किसी पागल व्यक्ति की स्थिति को देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है।
चन्द्र साँस की नाड़ी और शरीर में खून का कारक है। चन्द्र की अशुभ स्थिति से व्यक्ति को इस कारक के रोग हो सकते हैं। वायु की तीनों राशियाँ मिथुन, तुला और कुम्भ इन पर अशुभ ग्रहों की दृष्टि, राहु और केतु का चन्द्र संपर्क, बुध और चन्द्र की स्थिति यह सब देखने के पश्चात ही निर्णय लिया जा सकता है।
चन्द्र माता का कारक है। चन्द्र और सूर्य दोनों राजयोग के कारक होते हैं। इनकी स्थिति शुभ होने से अच्छे पद की प्राप्ति होती है। चन्द्र जब धनी बनाने पर आये तो इसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता।
चन्द्र खाने-पीने के विषय में बहुत प्रभावशाली है। अगर चन्द्र की स्थिति खराब हो जाये तो व्यक्ति कई नशीली वस्तुओं का सेवन करने लगता है। जातक पारिजात के आठवें अध्याय के 100वे श्लोक में लिखा है चन्द्र उच्च का वृष राशि का हो तो व व्यक्ति मीठे पदार्थ खाने का इच्छुक होता है। जातक पारिजात के अध्याय 6, श्लोक 81 में लिखा है कि चन्द्र खाने-पीने की आदतों पर प्रभाव डालता है। इसी प्रकार बृहत् पराशर होरा के अध्याय 57 श्लोक 48में लिखा है कि अगर चन्द्र की स्थिति निर्बल हो तो शनि की अंतरदशा में व्यक्ति को समय से खाना नहीं मिलता।

रखे दिला का ख्याल:ज्योतिष्य निदान से

ह्रदय,अर्थात दिल शरीर का सबसे मूल्यवान अंग है | इसकी धड़कन की स्तिथि देखकर ही हम किसी के रोगी या निरोगी होने की पुष्टि करते हैं | यह ह्रदय ही सारे शरीर में शुद्ध ऑक्सीजन युक्त रक्त को पहुंचाने की जिम्मेदारी निर्वहन करता है | इसके लिए उसे पर्याप्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है | जब यह शक्ति कम हो जाती है या उसकी आपूर्ति में गतिरोध आने लगता है,तो उनकी परेशानियाँ खड़ी होने लगती है |
दय असंख्य पतली-पतली नसों एवं मांसपेशियों से युक्त एक गोल लम्बवत खोखला मांस पिण्ड होता है। इसके अन्दर चार खण्ड (पार्ट) होते हैं और प्रत्येक खण्ड में एक ऑटोमैटिक वाल्व लगा रहता है। इससे पीछे से आया हुआ रक्त उस खण्ड में इकठ्ठा होकर आगे तो जाता है, परन्तु वापस आने से पहले वाल्व बन्द हो जाता है, जिससे वह रक्त शरीर के सभी भागों में चला जाता है। ऐसा हृदय के चारों भागों में चलता रहता है। जब इन ऑटोमैटिक वाल्वों में खराबी आ जाती है, तो रक्त पूरी मात्रा में आगे नहीं जा पाता और कुछ वापस आ जाता है, इससे रक्त सारे शरीर को पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है और कई तरह की परेशानियाँ खड़ी होती हैं। हृदय पर अतिरिक्त बोझ पडऩे लगता है। जिससे उसमें अचानक तीव्र दर्द उठता है, जो असहनीय होता है। यह दर्द सीने के बीच के हिस्से में होता हुआ बायीं बाजू, गले व जबड़े की तरफ जाता है। इस स्थिति को ही दिल का दौरा कहते हैं।
हृदय रोग के कारण:
ज्यादा चर्बीयुक्त आहार प्रतिदिन लेने से वह चर्बी नसों में इक_ी होती जाती है और धमनियों को जाम कर देती हैं इससे रक्त संचार धीमा हो जाता है, जिससे हृदय में अतिरिक्त दबाव बढ़ जाता है और शरीर में रक्त प्रवाह की कमी हो जाती है। इस स्थिति में जब हम तेज-तेज चलते हैं, सीढिय़ां चढ़ते है या कोई वजन उठाते है, तब हमें ज्यादा ऑक्सिजन की जरूरत पड़ती हैै और हमारा हृदय उस बढ़ी हुई जरूरत को पूरी नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में हृदयघात होता है।
हृदय रोग से सम्बन्धित बीमारियाँ:
1.उच्च रक्तचाप: रक्त वहिनियों में अत्याधिक मात्रा में वसा जमा हो जाने के कारण उच्च रक्तचाप की बीमारी होती है। उच्च रक्तचाप के लगातार बने रहने से हृदय में अतिरिक्त दबाव बना रहता हैै, जिससे हृदय रोग होने की सम्भावना ज्यादा रहती है। अगर समय रहते दवाओं के माध्यम से ब्लड प्रेशर को सामान्य कर लिया जाये, तो हृदय रोग होने की सम्भावना घट जाती है।
2. गुर्दे की बीमारियाँ: गुर्दे की कई प्रकार की बीमारियों की वजह से खून की सफाई का कार्य बाधित होता है और हृदय में दूषित खून के बार-बार जाने से उसकी मांसपेशियाँ कमजोर पडऩे लगती है, जो हृदय रोग का कारण बनती हैैं।
3. मधुमेह: जब डायबिटीज के कारण खून में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है और लम्बे समय तक बराबर बनी रहती है, तो धीरे-धीरे यही हृदय रोग का कारण बनती है।
4. मोटापे की अधिकता: जब अनियमित खान-पान से या कई प्रकार की हारमोनल बीमारियों से व्यक्ति का मोटापा बढ़ जाता है तब भी हृदय रोग सामान्य से ज्यादा होने की सम्भावना रहती है।
5. पेट में कीड़े (कृमि) होने पर: जब आमाशय में दूषित खान-पान की वजह से कृमि पड़ जाते हैं और समय से इलाज न मिलने की वजह से पर्याप्त बड़े हो जाते है, तब वे वहां रहते हुए आपका खाना भी खाते हैं तथा दूषित मल भी विसर्जित करते हैं और वही खून हृदय में बार-बार जाता है जो हृदय रोग का कारण बनता है इसलिये वर्ष में एक बार कीड़े मारने की दवा अवश्य खानी चाहिये ।
6. खान-पान: तनावमुक्त रहते हुए, शाकाहारी भोजन को पूर्णत: अपने जीवन में अपनाकर काफी हद तक हृदय रोग से बचा जा सकता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखें।
७. तनाव, धूम्रपान एवं शराब: आधुनिक जीवन में पाये जाने वाले स्ट्रेस यानि तनाव, रक्तचाप बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. धूम्रपान करने से बचें क्योंकि धुम्रपान शरीर में मौजूद विटामिन एवं खनिज तत्वों का नाश करता है. तम्बाकू से हृदय गति और रक्तचाप तो बढ़ता ही है, साथ ही रक्त संचार प्रणाली में गतिरोध भी बढ़ जाता है.
८. शारीरिक निष्क्रियता एवं सिंड्रोम एक्स: नियमित व्यायाम के साथ उपयुक्त पोषक आहार लेने से हृदय की मांसपेशियों में मजबूती आती है. इसलिए नियमित रूप से व्यायाम करने की आदत डालें.
सावधानियां:
1- शरीर की आवश्यकता के अनुसार ही कम चिकनाईयुक्त आहार लेना चाहिए। 40 वर्ष की उम्र के बाद आवश्यकता से अधिक खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है। नसों में अत्यधिक चर्बी के जमाव को रोकने के लिए चोकरयुक्त आटे की रोटियाँ, ज्यादा मात्रा में हरी सब्जियाँ, सलाद, चना, फल आदि का उपयोग करें।
2- खाने में लाल मिर्च, तीखे मसाला आदि एक निर्धारित मात्रा में ही सब्जी में डालें तथा ज्यादा तली चीजें, तेल युक्त अचार आदि बहुत कम मात्रा में लें। एक बार में ज्यादा खाना न खाकर आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा कई बार खाना खायें।
3- सूर्योदय के पहले उठना, धीरे-धीरे टहलना, स्नान आदि करके हल्के योग एवं ध्यान आदि प्रतिदिन करना चाहिये।
4- मांसाहार, अण्डे, शराब व धूम्रपान, तम्बाकू आदि से पूर्णत: अपने आपको बचायें। ये हृदय एवं शरीर के लिये अत्यन्त घातक हैं इसलिये इनका भूल कर भी सेवन न करें।
5- मानसिक तनाव को दूर रखें। इससे हृदय में दबाव पड़ता है। सदा ही प्रसन्न रहने की कोशिश करें, क्रोध बिल्कुल न करें, सदा हंसते रहें।
हृदय रोग के लक्षण:
ज्यादा तेज चलने, सीढिय़ाँ चढऩे या साइकिल आदि चलाने से सांस फूलना, कमजोरी व थकान लगना, पसीना अधिक आना, सीने में दर्द होना, मिचली आना, पैरों में सूजन हो जाना, दिल की धडक़न बढऩा, घबराहट होना, रात में नींद कम आना व अचानक खुलने पर नींद न आना आदि होने से समझ लें कि आपको हृदय रोग पकड़ रहा है। दर्द, जलन, दबाब, भारीपन महसूस करना, पेट का ऊपरी हिस्सा, गर्दन, जबड़ा तथा बाहों पर फिर कंधों के भीतर होना. छाती में बेचैनी, चंचल चित होना, चक्कर आना, सांस का छोटा होना, घबराहट, बेचैनी, ठंड, तेजी से पसीना छूटना, हृदय की गति तेज या अनियमित होना इसके लक्षण हैं। इसलिये समय रहते तुरन्त चिकित्सक से सम्पर्क करें। ऐलोपैथी में अनेकों दवायें खून पतला करने की एवं हृदय को ताकत देने की हैं और जब यह दवायें काम नहीं करती हैं तो आपरेशन ही अन्तिम विकल्प बचता है।
हृदय रोग निवारक आयुर्वेदिक औषधियाँ:
जैसे ही हमें चिकित्सकों से यह पता चले की हम हृदय रोग की चपेट में आ चुके हैं तो किसी योग्य आयुर्वेदिक डाक्टर या वैद्य द्वारा निर्देशित दवाओं का सेवन चालू कर दें। आज भी आयुर्वेद में इतनी क्षमता है कि वह हृदय रोग को ठीक कर सकता है। आयुर्वेद रोग को दबाता नहीं, अपितु उसे समूल नष्ट करता है।
ज्योतिषीय निदान:
हृदय मानव शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है । हृदय की बनावट कार्य प्राणी या वाल्वों में रक्त संचार की रुकावट या शिराओं संचार व्यवस्था में गड़बड़ी होने से हृदय के कार्य करने में रुकावट पैदा होती है फलस्वरूप हृदय रोग उत्पन्न हो जाते हैं । धूम्रपान, शराब का सेवन करना, चिंता, शोक, उच्च रक्त चाप, चर्बी का बढऩा, मानसिक तनाव, अपुष्ट भोजन, वात-रोग, गठिया, भय, वंशानुगत कारणों, प्रमेह आदि कारणों से हृदय रोग होते हैं। हृदय रोग कई प्रकार के होते हैं जैसे जन्म से हृदय में छेद होना, हृदय शूल, खून के थक्के जमने से हृदय घात होना, वाल्व में खराबी आना, उच्च/निम्न रक्त चाप आदि। ज्योतिष की दृष्टि से हृदय रोग को प्रभावित करने वाले कारक कुंडली में चतुर्थ स्थान, हृदय का स्थान है। पंचम भाव/पंचमेश मनोस्थति को दर्शाता है। छठा भाव रोग का कारक है। सूर्य ऊर्जा का प्रतीक है। बुध स्नायु-मंडल पर प्रभाव रखता है। चन्द्रमा रक्त और मन का प्रतीक है। मंगल रक्ताणु और रक्त-परिभ्रमण पर प्रभाव रखता है। हृदय रोग सम्बन्धी योग कुंडली में पंचम भाव में पाप ग्रह बैठा हो और पंचम भाव पाप ग्रहों से घिरा हुआ हो, से होता है। पंचम भाव का स्वामी पाप ग्रह के साथ बैठा हो अथवा पाप गृह से आक्रांत हो, तब यह रोग होता है। पंचम भाव का स्वामी नीच राशि अथवा शत्रु राशि में स्थित हो या अष्ठम भाव में बैठा हो तथा यदि पंचमेश बारहवे घर में हो या बारहवे भाव के स्वामी के साथ 6, 8या 12वे स्थान पर हो तो हृदय रोग होता है। सूर्य छठे भाव का स्वामी हो कर चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों के साथ बैठा हो, चतुर्थ भाव में मंगल के साथ शनि या गुरु स्थित हो और पाप ग्रहों द्वारा दृष्ट हो, सूर्य और शनि चतुर्थ भाव में साथ बैठे हों, सूर्य कुम्भ राशि में बैठा हो, सूर्य वृश्चिक राशि में बैठा हो और पाप ग्रहों से प्रभावित हो, ऐसी स्थिति में भी हृदयघात की संभावना बनती है। सूर्य, मंगल, गुरु चतुर्थ स्थान पर स्थित हो, चतुर्थ स्थान में शनि हो तथा सूर्य एवं छठे भाव के स्वामी पाप ग्रहों के साथ हों, चतुर्थ भाव में केतु और मंगल स्थित हों तब हृदय से संबंधित अन्य बीमारियां हो सकती हैं। यदि शनि, मंगल और वृहस्पति चतुर्थ भाव में हो तो जातक हृदय रोगी होता है। यदि तृतीयेश, राहु या केतु के साथ हो जातक हृदय रोग के कारण मूच्र्छा या कोमा में जाता रहता है। हृदय-शूल होने के कारक चतुर्थ भाव, चतुर्थ भाव के स्वामी और सूर्य की स्थिति होते हैं। चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो और लग्नेश निर्बल और पाप ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो, द्वादश भाव में राहु हो तो गैस वायु से हृदय प्रदेश में दर्द होता है। पाप ग्रहों के साथ सूर्य वृश्चिक राशि में हों तब भी यही स्थिति बनती है। यदि पंचमेश और सप्तमेश छठे स्थान पर हो तथा पंचम अथवा सप्तम स्थान पर पाप ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो जातक हृदय-शूल से पीडि़त होता है तब घबराहट और बेचैनी के साथ हृदय कम्पन होता है। जब गुरु या शनि षष्ठेश होकर चतुर्थ स्थान पर बैठें हों और पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो यह रोग होने की अधिक संभावना होती है।

मंत्र सार

मननात त्रायत इति मंत्र:, मनन त्राण धर्माणों मंत्रा:।
मन को शक्ति प्रदान कर के समस्त भयों से रक्षा करने वाले शब्दों को ‘मंत्र’ कहते हैं। ‘म’ शब्द से मन को एकाग्र करना, ‘त्र’ शब्द से त्राण (रक्षा) करना जिसका धर्म है, वे मंत्र कहे जाते हैं। मंत्र ही समस्त जातकों को मंत्रणा प्रदान करता है। मंत्र ही मन को समृद्ध एवं शांत बनाता है। मंत्र के अभिमंत्रण से किसी भी व्यक्ति, वस्तु, या स्थान को सुरक्षित रखा जा सकता है। वर्णमाला के ‘अ’ से ले कर ‘क्ष’ तक 50 अक्षरों को मातृका कहा गया है। मातृका शब्द का अर्थ माता, अथवा जननी होता है। अत: समस्त वाङ्मय की यह जननी है। संसार का व्यवहार शब्दों के द्वारा होता है। इसलिए शब्द शक्ति सर्वोपरि मानी गयी है। ऋग्वेद के अनुसार मंत्र की पराश्रव्य ध्वनि वायु मंडल को बहुत प्रभावित करती है। मंत्र शक्ति क्रियात्मक ध्वनि तरंगों का पुंज है। मंत्र की तरंगें मस्तिष्क तथा ब्रह्मांडीय वातावरण को प्रभावित करती हैं।
मंत्रों की 3 जातियां मानी गयी हैं- पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक। जिन मंत्रों के अंत में वषट्, या फट् का उपयोग होता है, वे पुरुषसंज्ञक हैं। स्वाहा, अथवा वौषट होने पर स्त्री संज्ञक तथा हुं एवं नम: अंत वाले मंत्र को नपुसंक संज्ञक माना गया है। वशीकरण, उच्चाटन एवं स्तंभन में पुरुष मंत्र, क्षुद्र कर्म एवं रोगों के नाश के लिए स्त्री संज्ञक मंत्र एवं अभिचार में नपुंसक मंत्रों का प्रयोग सिद्धप्रद होते हैं।
1 अक्षर के मंत्र को ‘पिंड’ संज्ञा, 2 अक्षर को कर्तरी, 3 से 9 अक्षरों तक के मंत्र को ‘बीज’ मंत्र, 10 अक्षर से 20 अक्षर तक को ‘मंत्र’, 20 से अधिक अक्षर के मंत्रों को संज्ञा ‘माला’ माना गया है। इन्हीं नाद शक्तियों के पृथक-पृथक प्रभाव से मंत्र के जपकर्ता को लाभ होता है। जिस तरह किसी बीज में सूक्ष्म रूप से वृक्ष का सर्वांग छिपा होता है, जिसे प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता है, उसी प्रकार छोटे से मंत्र में उसके अनेक गुण प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखे जा सकते हैं।
अभीष्ट सिद्धि के लिए समस्त मंत्रों को बतायी गयी संख्या में जप, पाठ आदि करना लाभप्रद होता है। यदि किसी मंत्र के प्रति जातक को संशय, भ्रांति हो, तो मंत्र के शुरुआत में ‘ह्रीं श्रीं क्लीं’ लगा कर जप-पाठ आदि करना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी भी मंत्र के आदि एवं अंत में व्याहृति लगा कर जप-पाठ आदि करना सिद्धिदायक होता है। जिन मंत्रों का जप किसी विशेष कार्यसिद्धि के लिए होता है, उनके लिए न्यास, विनियोग, संकल्प, उत्कीलन, शापोद्धार आदि आवश्यक होते हैं, यद्यपि निष्काम भावना के जप में न ही विशेष नियम-संयम का प्रावधान है, न ही संकल्पादि की आवश्यकता; अर्थात निष्काम भावना से यथाशक्ति यथासंख्यात्मक जप-पाठ किया जाता है। समस्त मंत्रों के उद्भवकर्ता शिव को मंत्रों का जनक माना जाता है। अत: किसी भी मंत्र का जप रुद्राक्ष की माला पर करें, तो बेहतर परिणाम सम्मुख आएंगे। ज्योतिष के प्रांगण में भी मंत्रों का महत्व सर्वोपरि है। जब किसी जातक की कुंडली में किसी ऐसे ग्रह की कमजोरी देखी जाती है, जिस ग्रह का रत्न धारण नहीं हो सकता है, तो ऐसी स्थिति में मंत्र जप ही लाभ प्रदान करता है।
औषधि, मणि, या मंत्र तब कार्य करते हैं, जब ग्रह-नक्षत्र आदि शुभ होते हैं। अशुभ काल में सभी निष्फल हो जाते हैं; अर्थात, यदि समय सही चल रहा हो, तो मंत्र अवश्य शुभ फल देते हैं।
मंत्र चिकित्सा अनेक असाध्य रोगों के लिए भी उचित मानी गयी है। जिन रोगों का निदान दुर्लभ होता है, अथवा विषघटी, गंडमूल, विष कन्या तथा अनेक प्रकार के दोषों का उपाय, अन्य उपायों की अपेक्षा, मंत्र द्वारा उत्तम माना गया है।
दीपावली, दशहरा, शिव रात्रि, नव रात्रि, सूर्य एवं चंद्र ग्रहण आदि विशिष्ट पर्वों में मंत्र जप का महत्व एवं फल अधिक होता है। मंत्र शक्ति की वृद्धि के लिए मंत्र का पुरश्चरण (नियमित एवं निश्चित संख्यात्मक जप) करना चाहिए; अर्थात् जब तक कोई जातक अमुक मंत्र का निश्चित पुरश्चरण नहीं करता है, तब तक वह मंत्र उसे पूर्ण फलीभूत नहीं होता है। अत: किसी मंत्र का पुरश्चरण कर लेने से उसमें असीमित शक्ति जाग्रत हो जाती है।
प्रत्येक अक्षर, अथवा शब्द का जन्म तो होता है, परंतु उसका विलय नहीं होता है। इसी लिए शब्द को ब्रह्म माना गया है। यदि यही अक्षर शुद्ध सात्विक तथा धर्म एवं आध्यात्म से जुड़े हों, तो ये अक्षर, अथवा शब्द ‘मंत्र’ बन कर, ब्रह्मांड में अमरता प्राप्त कर के, युगो-युगों पर्यंत अपना प्रभाव संपूर्ण विश्व को प्रदान करते रहते हैं।
शब्द के इसी प्रभाव के कारण मंत्रों को सर्वोपरि माना गया है। श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक किया गया मंत्र जप, अथवा मंत्र पाठ जातक को निश्चय ही लाभ देता है।

द्विविवाह करने के ज्योतिष्य योग



अधिकतर ज्योतिषी जन्म कुंडली मेलापक करते समय समग्र विषय पर विचार न करके विवाह के लिए सलाह दे देते हैं। गुण मिलाकर सलाह दे देने से वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं रहता, गुण के साथ-साथ ग्रहों का मिलान करना भी आवश्यक है। ग्रह मिलान करते समय अच्छा स्वास्थ्य, शालीन प्रभाव, अच्छा भाग्य, समुचित शिक्षा, पतिव्रता योग, संतान सुख, आयु, रोग, दारिद्र, विषकन्या योग, व्यभचारिणी योग एवं विधवा योग इत्यादि विषय पर विचार करना अति आवश्यक है। साथ-साथ भोग उपभोग, रति सुख, क्रय शक्ति इत्यादि विषय भी विचारणीय है क्योंकि दाम्पत्य जीवन के लिए ये विषय महत्वपूर्ण हैं। कई स्थान पर ये देखने में आया है, कि उपरोक्त विषयों की कमी के कारण दाम्पत्य जीवन में दरार उत्पन्न होती है जिसके कारण तलाक हो जाते हैं। बहुविवाह योग कई कारणों से होते हें। शास्त्रानुसार बहुविवाह के वारे में महर्षि यज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है- नष्ट मृते प्रव्रज्यिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते।। अर्थात् विवाह के बाद पति यदि विदेश चला जाए और बारह वर्ष तक लौटकर न आए, अल्प समय में मृत्यु के वाद, सन्यासी हो जाने पर, पति के नपुंसक होने या पति के दुराचारी होने पर, कन्या का विवाह किसी अन्य पुरुष के साथ किया जा सकता है। परंतु आजकल जिस प्रकार बहुविवाह हो रहा है वह एक खेल की तरह बन गया है, कारण यह युग गंधर्व विवाह (प्रेम विवाह) की ओर चला गया है। कई लोग ज्योतिषाचार्य के पास जाकर आज के लोग विवाह का मुहूर्त पूछते हैं कि फेरे कब लिए जाएं? परंतु, युग का प्रभाव इतना है कि फेरे लेने का सही समय बैंड बाजा और नाच गानों में व्यतीत हो जाता है। लोग सोचते हैं कि जब कुंडली अच्छी तरह से मिली हो, तो मुहूर्त की क्या उपादेयता है। लेकिन जीवन के जोडऩे का समय अगर विषाक्त हो जाएगा तब क्या मधुर दाम्पत्य जीवन व्यतीत होगा? अनेक संबंध क्यों होते हैं?
विदेश में अनेक संबंध और अनेक विवाह होते हैं इसका प्रभाव उन देश में स्वीकार नहीं किया गया है इसका क्या कारण और कौन से ग्रहों का प्रभाव है? देखने में आया है कि शुक्र प्रेमाकर्षण एवं काम वासना का कारक, चंद्र मन एवं स्त्री का कारक है। इसलिए विदेशी व्यक्ति अधिकतम गौरवर्ण होते हैं और उन देशों में चंद्र शुक्र के कारण अनेक संबंध और अनेक विवाह होते हैं। हमारा ज्योतिष शास्त्र यह कहता है कि चंद्र और शुक्र का संबंध सप्तमेश के साथ हो एवं पाप ग्रहों की दृष्टि या युति हो, तो अनेक संबंध होते हैं। चंद्र, शुक्र का विचार अति आवश्यक है, प्रेम विवाह का कारण शुक्र होता है। कारण कि शुक्र विलास, वासना, रतिसुख, प्रणय, आवेग, ऐन्द्रिकआनन्द, वैभव और संपूर्ण दाम्पत्य सुख का प्रतिनिधि ग्रह है। शुक्र यदि मंगल से संबंध करता हो या मंगल की राशि में होकर पापाक्रांत हो, तो इसका परिणामस्वरूप व्यक्ति की वासना में प्रखर उत्तेजना का समावेश होता है। शुक्र मंगल के संबंध को अतिकामातुर योग कहा गया है। कारण शुक्र रति-क्रीड़ा एवं मंगल उत्तेजना का कारक है। इन दोनों का संबंध विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण उत्पन्न करके यौन संबंध की ओर ले जाता है। अगर शुक्र एवं चंद्र पर राहु की दृष्टि हो एवं कर्क राशिगत मंगल का संबंध हो जाए तो व्यक्ति विवाहित स्त्री से संबंध रखता है। एक महिला ज्योतिषी लेखिका के अनुसार यदि लग्नेश सप्तम में हो और सप्तमेश लग्न में हो, तो व्यक्ति का चारित्रिक पतन प्रदर्शित होता है। मंगल, शुक्र एवं राहु ये तीन ग्रह प्रचुर यौन संबंध एवं मिथ्या विवाह का योग होता है। वह अपनी प्रेमिकाओं के उन्मुक्त भोग का निमंत्रण देता है। यदि किसी कन्या की कुंडली में सप्तम स्थान पर राहु, शुक्र एवं मंगल हो, तो अल्प उम्र में यौन आनंद को उपभोग करके जीवन को नष्ट करती है। मेरे विवचार से सप्तमाधिपति या शुक्र अथवा ये दोनों द्विस्वभाव राशिगत हों या द्विस्वभाव नवमांश में हो तो भी एक से अधिक विवाह या संबंध होते हैं। अगर सप्तम भाव और सप्तमेश पर राहु का प्रभाव हो तो ये योग बन जाता है। मेरे अनुभव से विचार करते समय लग्न कुंडली, चंद्र कुंडली, सूर्य कुंडली एवं शुक्र कुंडली में विचार करने से उचित फलित होता है। इन सब कुंडली में यदि सप्तमेश के साथ मंगल का संबंध हो तो अनेक संबंधों का योग होता है। अगर ऐसे योग के साथ-साथ यदि शुक्र 6, 8, 12वें भाव पर चला जाए और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो जाये तो इसका वर्णन वहीं कर सकता है, जो जिसकी कुंडली में ये योग हो यहां प्रमाण होगा। फिर भी एक प्रत्यक्ष उदाहरण एक जातक की कुंडली में मिलता है। इसमें विचार करना है कि लग्न कुंडली: सप्तमेश सूर्य मंगल के साथ है। और सूर्य मंगल पर केतु की दृष्टि है। चंद्र कुंडली: सप्तमेश बुध मंगल के साथ है और उस पर भी केतु की दृष्टि है। सूर्य कुंडली: सप्तमेश बुध के साथ मंगल का होना। शुक्र कुंडली: सप्तमेश चंद्र पर मंगल की दृष्टि का होना एवं लग्नेश शनि पर भी मंगल की दृष्टि होना एवं शुक्र स्वयं लग्न कुंडली से द्वादश भाव पर है और उस पर शनि की भी दृष्टि है। अब लग्न कुंडली के आधार पर पंचमेश, बुध और सप्तमेश सूर्य का एक साथ होना एवं मंगल की युति के कारण व्यक्ति चरित्रहीन एवं अनेक यौनसंबंध बनाता है, यह एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह व्यक्ति कई बार यौन संबंध के कारण समाज से कलंकित हुआ और विवाहित स्त्री को भी अपने पास रखता है। भीषण त्वचा रोग के कारण इसका शुक्राणु नष्ट हो गया तथा डॉ. तथा फिजीशियन के माध्यम से जीवनदान मिला है। डाक्टर का कहना है कि इसको कभी भी संतान की प्राप्ति नहीं होगी और ज्योतिष का भी यह सूत्र है कि पंचमेश और सप्तमेश की युति, संतानहीनता का योग है। तात्पर्य यह है कि शुक्र, चंद्र का विचार आवश्यक है। बहु-विवाह क्यों होते हैं: हस्तरेखा द्वारा भी इस येाग का आकलन किया जा सकता है। हस्तरेखा में बुध पर्वत और कनिष्ठका उंगली के नीचे विवाह रेखा होती है। यदि विवाह रेखा शाखाओं में विभाजित हो, इसमें अंकुश या द्वीप हो, तो एकाधिक विवाह की संभावना होती है। यदि हृदय रेखा कटी-फटी हो, शुक्र पर्वत दवा हुआ हो, अंगूठा पतला और झुकता न हो, एवं उंगलियां पतली और गांठ जैसी हो, विवाह रेखा पर अंकुश या शाखाऐं हों, तो पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी होती है। अंकुश जितने होंगे उतनी ही पत्नी होती है। जन्म कुंडली में भी विचारणीय यह है कि: यदि सप्तमेश अशुभ ग्रह के साथ छठे, आठवे एवं बारहवें भाव में बैठा हो, एवं सप्तम स्थान पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो दो विवाह का योग होता है। साथ में कन्या की कुंडली से भी यही विचार करना उचित होगा। मंगल छठे, आठवे एवं बारहवें भाव में हो सप्तमेश द्वितीय स्थान पर हो और सप्तम स्थान पर राहु व सूर्य की दृष्टि हो, तो तलाक के बाद दूसरा विवाह होता है। यदि कन्या की कुंडली में छठे भाव में मंगल, सप्तम भाव में राहु, और अष्टम में शनि हो, सप्तमेश निर्बल हो तो विधवा योग होता है। दो या तीन विवाह के बाद दाम्पत्य जीवन सुखी रहता है। पत्नी स्थान और पत्नी से आठवां स्थान, आयु स्थान (द्वितीय स्थान) से विचार करना आवश्यक है। अत: सप्तमेश और द्वितीयेश यदि शुक्र के साथ हो या पाप ग्रहों से इनका संबंध हो, एवं छठे, आठवे एवं बारहवें भाव का स्वामी यदि सप्तम स्थान पर हो, तो वैवाहिक जीवन अंधकारमय होता है। सप्तम भाव का कारक एवं गुरू का, शुक्र यदि चंद्र से छठे या आठवें भाव में हो और शुक्र नीच का हो, तो भी बहु विवाह का योग होता हैं। सप्तमांश एवं त्रिशांश कुंडली में यदि शुक्र, मंगल का संबंध हो एवं वर कन्या की राशि शत्रु एवं ष?ाष्टक........ हो, साथ-साथ जन्म लग्न का स्वामी भी ष?ाष्टक........... हो, तो किसी एक की मृत्यु के बाद पुन: विवाह होता है। लग्न और अष्टम स्थान के स्वामी जिसका बलवान होंगे वही जीवित रहेगा। चंद्र कुंडली में लग्नेश, सप्तमेश का किसी भी प्रकार का संबंध हों, और चंद्र या शुक्र से मंगल का युति संबंध हो, तो अनेक स्त्रियों से संबंध रहता है। यदि सप्तमेश शुक्र द्विस्वभावगत राशि का हो और द्विस्वभावराशिस्थ राहु की दृष्टि सप्तम, सप्तमेश, शुक्र या चंद्र पर हो, तो अनेक बार तलाक होता है। नवमांश कुंडली में यदि बृहस्पति स्वनवमांश (धनु और मीन) का हो तो और पाप कर्तरी योग में हो तथा सूर्य की दृष्टि सप्तम स्थान पर हो, तो पति के तलाक के बाद पुन: विवाह होता है।

गोचर का शुभाशुभ फल

कुण्डली में तीन तत्व मिलते हैं, 1. भाव, 2. राशि, 3. ग्रह। जातक दशान्तर्दशा का अध्ययन करना चाहता है तो हम यह मान कर चलते हैं, कि जातक भाव व राशि के तत्वों को जानता है। दशान्तर्दशा ग्रहों की होती है। इसलिए हम दशान्तर्दशा का ही मुख्यत: अध्ययन करेंगे।
ग्रह शुभाशुभ:
सामान्यतया ग्रह दो प्रकार के फल देते हैं शुभ या अशुभ। जो ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ फल देते हैं उन्हें शुभ ग्रह कहते हैं और जो ग्रह नैसर्गिक रूप से अशुभ फल देते हंै उन्हें अशुभ ग्रह कहते हैं। हमें शुभ व अशुभ को भी समझना होगा। शुभ वह है जिससे मन प्रसन्न होता है। अशुभ वह है जिससे मन दु:खी होता है। मानो मैं अपनी लडक़ी का विवाह कर रहा हूँ। इसमें मेरा व्यय हो रहा है, परन्तु मैं प्रसन्न हूँ। मुझे व्यय करने के बाद भी खुशी प्राप्त हो रही है, इसलिये यह समय मेरे लिए शुभ है।
दूसरी ओर मेरे पिता जी की मृत्यु हो गई परन्तु इन्स्योरेन्स से दस लाख रुपये मिले। धन आ रहा है परन्तु मन दु:खी है इसलिये यह समय अशुभ है। पाराशरी नियमों के अनुसार ग्रह का शुभ या अशुभ होना मन की प्रसन्नता या दु:खी होने पर निर्भर करता है। ग्रहों में गुरु व शुक्र नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह है। पक्ष बल में बली चन्द्रमा व शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट बुध भी शुभ होता है।चंद्रमा शुक्ल पक्ष की एकादशी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक पूर्ण बली रहता है। इस चंद्रमा को शुभ ग्रह माना जाता है। कृष्ण पक्ष की एकादशी से शुक्ल पक्ष की पंचमी तक चन्द्रमा निर्बल रहता है। इस निर्बल चंद्रमा को अशुभ चंद्रमा कहते हैं। शुक्ल पक्ष की षष्ठी से दशमी तक तथा कृष्ण पक्ष की षष्ठी से दशमी तक चंद्रमा मध्यम बली रहता है। इसे मध्यम बली चंद्रमा कहते हैं तथा यह मिश्रित फल देता है। नीच चंद्रमा अर्थात् वृश्चिक राशि में चंद्रमा अशुभ नहीं कहलाता है।
सूर्य, मंगल, शनि, राहु, एवं केतु ये पांचों ग्रह उत्तरोत्तर बली पाप ग्रह कहलाते हैं। इनके अलावा निर्बल चंद्रमा तथा अशुभ युक्त या दृष्ट बुध भी अशुभ ग्रहों की श्रेणी में आते हैं।
ग्रहों की अवस्थाएँ:
महर्षि पाराशर ने ग्रहों की मात्रात्मक फल देने की क्षमता का अनुमान लगाने के लिये विभिन्न अवस्थाएं बतलाई हैं। मुख्यत: ये हैं:
1.दीप्तादि अवस्थाएँ
2.बालादि अवस्थाएँ
3.जग्रितादि अवस्थाएँ
दीप्तादि अवस्थाएँ:
यह नौ अवस्थाएं होती हैं। ग्रह जब अपनी 1. उच्च राशि में स्थित होता है तो दीप्त 2. स्वराशि में स्थित हो तो स्वस्थ 3. अतिमित्र की राशि में स्थित हो तो मुदित 4. मित्र की राशि में स्थित हो तो शान्त 5. सम ग्रह की राशि में स्थित हो तो दीन 6. शत्रु ग्रह की राशि में स्थित हो तो दु:खी 7. पाप ग्रह के साथ हो तो विकल 8. अति पाप ग्रह की राशि में स्थित हो तो खल एवं 9. सूर्य के साथ स्थित हो तो कोपी होता है।
* दीप्त ग्रह की दशान्तदशा में राज्य लाभ, अधिकार प्राप्त, धन, वाहन, स्त्री, पुत्रादि का लाभ व आदर सत्कार व राज्य सम्मान प्राप्त होता है।
* स्वस्थ अर्थात स्वक्षेत्री ग्रह की दशान्तर्दशा से स्वास्थ्य लाभ, धन, सुख, विद्या, यश, स्त्री, वाहन, भूमि आदि का लाभ होता है।
* मुदिवस्था(अधिमित्र की राशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में वस्त्र, आभूषण, पुत्र, धन, वाहन आदि का लाभ होता है।
* शंतावस्था (मित्रराशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में सुख, धर्म, भूमि, पुत्र, स्त्री, वाहन, सम्मान प्राप्त होता है।
* दीनावस्था (सम ग्रह की राशि) में स्थित ग्रह की दशान्तर्दशा में स्थान परिवर्तन, बंधुओं से विरोध, निन्दित, हीन स्वभाव, मित्र साथ छोड़ देते हैं, रोग आदि होने की सम्भावना होती है।
* दुखावस्था(शत्रुक्षेत्री) ग्रह की दशान्तर्दशा में जातक को कष्ट प्राप्त होते हैं। विदेश यात्रा, चोरी, अग्नि या रोगादि से धन हानि होती है।
* विकलावस्था (पापयुक्त ग्रह) की दशान्तर्दशा में मन में हीन भावना, मित्रों की मृत्यु, परिवार जनों की मृत्यु, स्त्री, पुत्र, वाहन, भूमि, वस्त्रादि की हानि होती है।
* अति पाप ग्रह की राशि में स्थित, ग्रह की दशान्तर्दशा में कलह, वियोग (बन्धु,माता या पिता आदि की मृत्यु) शत्रुओं से पराजय, धन, भूमि, वाहन की हानि होती है।
* कोपीअवस्था (सूर्य से अस्त) ग्रह की दशान्तर्दशा में अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। विद्या, धन, भूमि, वाहन, पुत्र, स्त्री, बन्धुओं से पीड़ा होती है।
बालादि अवस्थाएँ:
दीप्तादि अवस्था में ग्रह की राशि में स्थिति के अनुसार फल मिलेगा। बालादि अवस्था में हम ग्रह के अंशों के अनुसार फल कथन करते हैं। 60 -60 अंश की यह अवस्था होती है। विषम राशियों में यदि ग्रह के अंश-
* 00 -60 तक को बालावस्था, 60 से 120 अंश तक को कुमार अवस्था, 120 से 180 अंश तक युवावस्था, 180 से 240 अंश तक वृद्धावस्था, 240 से 300 अंश तक मृतावस्था होती है।
* इसी प्रकार सम राशियों में ग्रह यदि 00 -60 अंश तक को मृतावस्था, 60 से 120 अंश तक को वृद्धावस्था, 120 से 180 अंश तक को युवावस्था, 180 से 240 अंश तक को कुमारावस्था, 240 से 300 अंश तक को बालावस्था कहते है। बालावस्था में ग्रह का चैथाई फल, कुमारावस्था में आधा, युवावस्था मे पूरा, वृद्ध ावस्था में मामूली तथा मृतावस्था में शून्य फल प्राप्त होता है।
जागृतादि अवस्थाएँ:
* 100 -100 अंश की यह अवस्था होती है। विषम राशियों में 0 से 100 अंश तक जाग्रत 100 से 200 तक स्वप्न एवं 200 से 300 तक सुषुप्त अवस्था होती है।
* सम राशियों में 0 से 100 अंश तक सुषुप्त, 100 से 200 अंश तक स्वप्न एवं 200 से 300 तक जागृत अवस्था होती है।
जागृत अवस्था में पूर्ण फल, स्वप्न में मध्यम तथा सुषुप्ति अवस्था में शून्य फल मिलता है।
* इस प्रकार ग्रह का मात्रात्मक फल का विचार बृहत् पाराशर होरा शास्त्र में मिलता है। महर्षि पाराशर ने ग्रह का मात्रात्मक बल का विचार ग्रह भाव बल (षष्ठ बल) आदि से तथा षष्ठ वर्गीय बल से भी किया है। लिखने का अर्थ केवल इतना ही है कि ग्रह के बल का भी उतना ही महत्व है जितना किसी अन्य बल का। इसलिए फल कथन से पहले ग्रह की अवस्था तथा अंशों का ध्यान रखकर मात्रात्मक फल का अनुमान करना चाहिये क्योंकि दशान्तर्दशा के द्वारा दोनों तत्वों का समावेश करके फल कथन करना चाहिये।
गुणात्मक बल: ग्रह शुभ फल देगा या अशुभ फल इसको गुणात्मक बल कहते हैं। गुणात्मक बल दो तरह से देखा जा सकता है।
ग्रह का नैसर्गिक शुभ या अशुभ फल: हम अच्छी तरह से नैसर्गिक शुभ व अशुभ ग्रहों को जानते हैं। बृहस्पति, शुक्र, पक्ष बली चंद्रमा तथा शुभ युक्त या दृष्ट बुध नैसर्गिक शुभ ग्रह हैं।
तात्कालिक शुभ या अशुभ फल: प्रत्येक कुण्डली में कुछ भाव शुभ व कुछ अशुभ तथा कुछ सम होते हैं। शुभ भाव के स्वामी शुभ फल देते हैं। अशुभ भाव का स्वामी अशुभ फल देता है। सम भाव का स्वामी भाव में स्थित ग्रह या युति या दृष्टि या अपनी दूसरी राशि के अनुसार अपना फल देता है। इस नियम का प्रयोग हम विंशोत्तरी दशा में करते हैं। नैसर्गिक शुभ तथा अशुभ हम अन्य दशाओं में करते हैं।
‘फलदीपिका’ में भी महर्षि मन्त्रेश्वर ने दशान्तर्दशा के लिए पहले ग्रहों के नैसर्गिक शुभाशुभ फल का कथन किया है। बाद के श्लोकों में विंशोत्तरी दशा के लिए भावाधिपति के आधार पर फल कथन किया है। इसलिए सबसे पहले सूर्यादि ग्रहों का संक्षेप में नैसर्गिक फल के अनुसार उनकी दशाओं का अध्ययन करेंगे।

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Friday 8 July 2016

संकल्प शक्ति से बदले मन का भाव

मन को वश में करना अत्यंत कठिन है और यदि मन तीसरे स्थान के स्वामी बुध या चन्द्रमा होकर प्रतिकूल स्तिथि में हो तो यह और भी मुश्किल हो जाता है | मन को वश में करने के लिए चन्द्रमा अथवा बुध की शांति करने के साथ संकल्प शक्ति को बढ़ाने के लिए आज्ञा चक्र अथवा मस्तक के तीसरे भाव में स्थित चन्द्रमा पर ध्यान लगाकर ऐसा किया जा सकता है |
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:।।
...और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच मेंं स्थित करके तथा नासिका मेंं विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।
इस सूत्र मेंं कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र मेंं, काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र मेंं काम-क्रोध से मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
इतना जानना पर्याप्त नहींं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म मेंं प्रवेश मिल जाएगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? विधि क्या है?
कृष्ण ने कहीं तीन बातें। एक, दोनों आंखों के ऊपर भू-मध्य मेंं, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करें। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले, इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य मेंं, श्वास हो जाए सम, जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है। इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहींं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पडऩा बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहींं है। इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमेंं जोड़ती हैं।
सात इंद्रियां हैं। साधारणत: पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणत: उनकी बात नहींं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है। जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहींं था। कुछ, जिन्हें समझ मेंं और गहरी बात आई थी, उन्होंने छ: इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों मेंं विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं।
हमारे कान मेंं दो इंद्रियां हैं, एक नहींं। कान सुनता भी है, और कान मेंं वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान मेंं छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब सडक़ पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण से नहींं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान मेंं दो इंद्रियों का निवास है।
छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था, वह है अंत:करण, हृदय। साधारणत: हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने मेंं एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहींं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है।
प्राचीन ग्रंथों में सात इंद्रियों का जिक्र है। ये सात इंद्रियां हमेंं बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमेंं से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है।
जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमेंं से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र मेंं कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य मेंं, माथे के बीच मेंं ध्यान को केंद्रित कर।
माथे के बीच मेंं जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, उसका नाम है, आज्ञा-चक्र। वह संकल्प का और इच्छाशक्ति का केंद्र है। जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन मेंं संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा-चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन-धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह ध्यान कर सकता है।
इस चक्र पर ध्यान करने से क्या होगा? एक बात और खयाल मेंं ले लें, तो समझ मेंं आ सकेगी। आपके घर मेंं आग लग गई हो। अभी कोई खबर देने आ जाए कि घर मेंं आग लग गई। आप भागेंगे। रास्ते पर कोई नमस्कार करेगा, आपकी आंख बराबर देखेगी, फिर भी, फिर भी आप नहींं देख पाएंगे। और कल वह आदमी मिलेगा और कहेगा कि कल क्या हो गया था, बदहवास भागे जाते थे? नमस्कार की, उत्तर भी न दिया! आप कहेंगे, मुझे कुछ होश नहींं। मैं देख नहींं पाया। वह आदमी कहेगा, आंख आपकी बिलकुल मुझे देख रही थी। मैं बिलकुल आंख के सामने था। आप कहेंगे, जरूर आप आंख के सामने रहे होंगे। लेकिन मेरा ध्यान आंख पर नहींं था। शरीर की भी वही इंद्रिय काम करती है, जिस पर ध्यान हो, नहींं तो काम नहींं करती। शरीर की इंद्रियों को भी सक्रिय करना हो, तो ध्यान से ही सक्रिय होती हैं वे, अन्यथा सक्रिय नहींं होतीं। आंख तभी देखती है, जब भीतर ध्यान आंख से जुड़ता है, अटेंशन आंख से जुड़ती है। कान तभी सुनते हैं, जब ध्यान कान से जुड़ता है। शरीर की इंद्रियां भी ध्यान के बिना चेतना तक खबर नहींं पहुंचा पातीं। ठीक ऐसे ही भीतर के जो सात चक्र हैं, वे भी तभी सक्रिय होते हैं, जब ध्यान उनसे जुड़ता है।
संकल्प का चक्र है आज्ञा। अर्जुन से वे कह रहे हैं, तू उस पर ध्यान कर। कर्मयोगी के लिए वही उचित है। कर्म का चक्र है वह, विराट ऊर्जा का, उस पर तू ध्यान कर। लेकिन ध्यान तभी घटित होगा, जब बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास सम स्थिति मेंं हों।
आपको खयाल मेंं नहींं होगा कि सम स्थिति कब होती है। आपको पता होता है कि श्वास भीतर गई, तो आपको पता होता है। श्वास बाहर गई, तो आपको पता होता है। लेकिन एक क्षण ऐसा आता है, जब श्वास भीतर होती है, बाहर नहींं जा रही, एक रुका हुआ क्षण। एक क्षण ऐसा भी होता है, जब श्वास बाहर चली गई और अभी भीतर नहींं आ रही, एक छोटा-सा अंतराल। उस अंतराल मेंं चेतना बिलकुल ठहरी हुई होती है। उसी अंतराल मेंं अगर ध्यान ठीक से किया गया, तो आज्ञा-चक्र शुरू हो जाता है, सक्रिय हो जाता है।
और जब ऊर्जा आज्ञा-चक्र को सक्रिय कर दे, तो आज्ञा-चक्र की हालत वैसी हो जाती है, जैसे कभी आपने सूर्यमुखी के फूल देखे हों सुबह, सूरज नहींं निकला, लटके रहते हैं जमीन की तरफ, उदास, मुर्झाए हुए, पंखुडिय़ां बंद, जमीन की तरफ लटके हुए। फिर सूर्य निकला और सूर्यमुखी का फूल उठना शुरू हुआ, खिलना शुरू हुआ, पंखुडिय़ां फैलने लगीं, मुस्कुराहट छा गई, नृत्य फूल पर आ गया। रौनक, ताजगी। फूल जैसे जिंदा हो गया, उठकर खड़ा हो गया।
जिस चक्र पर ध्यान नहींं है, वह चक्र उलटे फूल की तरह मुर्झाया हुआ पड़ा रहता है। जैसे ही ध्यान आता है, जैसे सूर्य ने फूल पर चमत्कार किया हो, ऐसे ही ध्यान की किरणें चक्र के फूल को ऊपर उठा देती हैं। और एक बार किसी चक्र का फूल ऊपर उठ जाए, तो आपके जीवन मेंं एक नई इंद्रिय सक्रिय हो गई। आपने भीतर की दुनिया से संबंध जोडऩा शुरू कर दिया।
अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने मेंं आसानी होगी। जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही, जैसा कि क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा-चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहींं होगा कि आज्ञा-चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहींं है, वह किसी चीज को अपने मेंं समा सकता है, हमला नहींं कर सकता, जैसे कि स्त्रियां। स्त्री का पूरा बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है। उसे गर्भ ग्रहण करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने मेंं समाकर और बड़ी करनी है। इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो यह एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहींं होगी और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान-रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमेंं पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी।
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था है ध्यान करने के लिए। अर्जुन के लिए इसलिए कृष्ण ने यह सूत्र को कहा।
और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती है, न बाहर, न भीतर, बीच मेंं ठहरी होती है। न तो आप ले रहे होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहींं होती, ठहरी होती है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत मेंं होते हैं, जैसी हालत मेंं मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत मेंं जन्म के समय होते हैं।
अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच मेंं न्यूट्रल गियर है, जहां सम है, जहां न भीतर, न बाहर, न अस्तित्व है जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण मेंं आपका रूपांतरण होता है।
इसलिए कृष्ण दो बातों पर जोर देते हैं, श्वास हो सम अर्जुन, और ध्यान तेरा भू-मध्य पर, आज्ञा-चक्र पर हो, तो फूल ऊपर उठ जाएगा, चक्र खुल जाएगा। और जैसे ही वह चक्र खुलेगा, वैसे ही तू अचानक पाएगा कि वह सारी शक्ति जो पहले काम बनती थी, क्रोध बनती थी, वह सारी की सारी शक्ति आज्ञा-चक्र पी गया। वह सारी शक्ति संकल्प बन गई।
इसलिए ध्यान रखें, अगर आप बहुत क्रोधी हैं या बहुत कामी हैं, तो एक लिहाज से दुर्भाग्य है, लेकिन एक लिहाज से सौभाग्य भी है। क्योंकि इस जगत मेंं जो बहुत कामी हैं और बहुत क्रोधी हैं, वे ही बड़े संकल्पवान हो सकते हैं। दुर्भाग्य है कि काम और क्रोध आपको परेशान करेंगे। सौभाग्य है कि अगर आप ध्यान कर लें, तो आपके पास जितना संकल्प होगा, उतना उन लोगों के पास नहींं होगा, जिनके पास न काम है, न क्रोध है।
इसलिए इस जगत मेंं जिन लोगों ने बहुत महान शक्ति पाई, वे वे ही लोग हैं, जो बहुत कामी थे। यह बहुत हैरानी की बात है। इस जगत मेंं जो लोग बहुत महान ऊर्जा को उपलब्ध हुए, वे वे ही लोग हैं, जो अतिकामी थे। साधारण रूप से कामी नहींं थे, बहुत कामी थे। लेकिन जब शक्ति बदली, तो यही बड़ी शक्ति जो काम मेंं प्रकट होती थी, संकल्प बन गई।
अर्जुन अगर रूपांतरित हो जाए, तो जैसा महाक्षत्रिय है वह बाहर के जगत मेंं, ऐसा ही भीतर के जगत मेंं महावीर हो जाएगा। इतनी ही ऊर्जा जो क्रोध और काम मेंं बहती है, संकल्प को मिल जाए, तो संकल्प महान होगा।
इस जगत मेंं वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं, इस जगत मेंं अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति पास मेंं है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ मेंं है। काम-क्रोध बिलकुल न हो, तो बहुत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पास मेंं नहींं है, रूपांतरित क्या होगा!
इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे वह आपके खयाल मेंं आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी। यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा। शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग मेंं उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल मेंं आ सकता है।

मादक पदार्थों के सेवन से परेशान...क्या करे जाने ज्योतिष्य द्वारा

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जातक की कुंडली से यह पता चल जाता है की वह मादक पदार्थो का सेवन करता है या नहीं। इससे उसे ठीक करने में भी मदद मिलती है। अच्छी दशा आने पर वह खुद अपना इलाज कराता है और जीवन में सफल रहता है। खाने-पीने वाली वस्तुओं का सम्बन्ध चन्द्रमा से है और राहू के नक्षत्र- आद्रा, स्वाती, शतभिषा में दोनों की उपस्थिति, दूसरे भाव के स्वामी की नीच राशी में मौजूदगी और खुद राहू का साथ बैठना जातक द्वारा मादक पदार्थो के सेवन का स्पष्ट संकेत कराता है। अपनी नीच राशी वृश्चिक में चन्द्रमा अक्सर जातक को मादक पदार्थो का सेवन कराता है। क्रूर गृह शनि, राहू पीडि़त बुध और क्षीण चन्द्रमा इसमें इजाफा करते है।
कलियुग में राहु का प्रभाव बहुत है अगर राहु अच्छा हुआ तो जातक आर.एस. या आई.पी.एस., कलेक्टर राजनैता बनता है। इसकी शक्ति असीम है। सामान्य रूप से राहु के द्वारा मुद्रण कार्य फोटोग्राफी नीले रंग की वस्तुएं, चर्बी, हड्डी जनित रोगों से पीडि़त करता है। राहु के प्रभाव से जातक आलसी तथा मानसिक रूप से सदैव दु:खी रहता है। यह सभी ग्रहों में बलवान माना जाता है तथा वृष और तुला लग्न में यह योगकारक रहता है।
ग्रहों से निकलने वाली विभिन्न किरणों के विविध प्रभाव के कारण प्राणी के स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर में अनेक भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होते रहते है। इनमें कुछ प्रभाव क्षणिक होते है। जो ग्रहों के अपने कक्ष्या में निरंतर संचरण के कारण बनते मिटते रहते है। किन्तु कुछ ग्रह अपना स्थाई प्रभाव छोड़ देते है। जैसे रोग व्याधि आदि ग्रह नक्षत्रो के संचरण के अनुरूप आते है। तथा समाप्त हो जाते है। प्राय: इनका सदा ही स्थाई कुप्रभाव देखने में नहीं आया है। किन्तु चोट-चपेट एवं दुर्घटना आदि में अँग भंग या विकलांगता स्थाई हो जाते है।
ऐसे ग्रहों में मंगल, राहू, केतु एवं शनि के अतिरिक्त सूर्य भी गणना में आता है। राहू अन्तरंग रोग या धीमा ज़हर या मदिरापान आदि व्यसन देता है। मंगल शस्त्राघात या ह्त्या आदि देता है। केतु गर्भाशय, आँत, एवं गुदा संबंधी रोग देता है। शनि मानसिक संताप, बौद्धिक ह्रास, रक्त-क्षय, राज्यक्षमा आदि देता है। सूर्य कुष्ट, नेत्र रोग एवं प्रजनन संबंधी रोग देता है। वैसे तों अशुभ स्थान पर बैठने से गुरु राजकीय दंड, अपमान, कलंक, कारावास आदि देता है। किन्तु यह अशुभ स्थिति में ही संभव है।
हालाँकि वृश्चिक पर वृहस्पति की द्रष्टि इसमे कुछ कमी करती है और जातक बदनाम होने से बच जाता है। जिस जातक की कुंडली में एक या दो ग्रह नीच राशी में होते है और चन्द्रमा पीडि़त होकर शत्रु ग्रह में दूषित होता है उसमे मादक पदार्थो के सेवन की इच्छा प्रबल होती है। द्वितीय भाव जिसे भोजन, कुटुंब, वाणी आदि का भाव भी कहा जाता है, के स्वामी की स्थति से भी उसके द्वारा मादक पदार्थो के सेवन का ब्यौरा मिल जाता है। कलयुग में राहू शनि मंगल व् क्षीण चन्द्रमा ग्रहों की मानसिक चिन्ताओ को उजागर करने में आगे रहते है। शुक्र की अपनी नीच राशी कन्या में मौजूदगी मादक पदार्थो के सेवन का प्रमुख कारण बनती है। नीच गृह लोगो को नशा कराते है, जिससे जातक अपने साथ ही साथ अपने परिवार को भी अपमानित कराता है।
मेष, सिंह, कुम्भ एवं वृश्चिक लग्न वालो के लिये यदि राहू छठे, आठवें या बारहवें बैठे तों व्यक्ति निश्चित रूप से मदिरा सेवी होता है। वृषभ, कर्क, तुला एवं मकर लग्न वालो की कुंडली में यदि मंगल पांचवें स्थित हो तों यौन रोग या अल्प मृत्यु या नपुंसकता होती है। किन्तु इन्ही लग्नो में यदि मंगल सातवें बैठा हो तों वह व्यभिचारी या परस्त्रीगामी होता है। किसी भी लग्न में यदि केंद्र में राहू-मंगल युति बनती है तों पूरा परिवार ही इस व्यक्ति के कारण धन एवं यश की हानि भुगतता है। नित्य नए उपद्रव खड़े होते है। किसी भी लग्न में यदि मंगल एवं शनि केंद्र में हो तों वह व्यक्ति हो सकता है धनाधिप हो, किन्तु राजकीय दंड एवं सामाजिक बहिष्कार का भागी होता है। किन्तु यदि दशम भाव में मंगल उच्च का होकर शनि के साथ हो तों वह व्यक्ति बलपूर्वक समाज या शासन में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करता है। ऐसा व्यक्ति जघन्य हत्यारा भी हो सकता है यदि लग्न में सूर्य हो।
किसी भी लग्न में यदि शनि एवं राहू केंद्र में हो तों वह भयंकर गुदा, भगंदर, अर्बुद एवं कर्कट रोग से युक्त होगा। और ऐसी अवस्था में यदि किसी भी केंद्र में मेष राशि का राहू-शनि योग हो तों वह व्यक्ति असाध्य रक्त रोग से युक्त होता है। आज का एड्स रोग इसी ग्रह युति का परिणाम है। देश विदेश के 47 एड्स रोगियों के सर्वेक्षण से यह तथ्य पुष्ट हुआ है।
जन्म के समय यदि चन्द्र-मंगल सप्तम एवं सूर्य राहू अष्टम में हो तों वह शिशु विद्रूप- अर्थात लकवा या पक्षाघात से ग्रस्त हो जाता है। यदि चन्द्र मंगल लग्न तथा सूर्य-राहू अष्टम में हो तों बालक विक्षिप्त होता है। यदि सूर्य-शनि-मंगल-राहु किस के जन्म नक्षत्र में एकत्र हो जाय तों उस व्यक्ति की रक्षा भगवान कैसे करेगें यह वही जाने।
* यदि सिंह, वृश्चिक, कुम्भ या मेष राशि में सातवें सूर्य-मंगल युति हो तों विवाह की कोई संभावना नहीं बनती है।
* राहू के साथ चन्द्र दूसरे और पांचवे घर में होने जातक सट्टा खेलने का बड़ा शोकिन होता है। राहू के साथ बुध कही भी हो किसी भी भाव में हो, सट्टा,लोटरी, जुहा, आदि एबो की तरफ जातक का धयान जायगा।यदि बुध अस्त हो तो जातक जुए में लूट जाता है।राहू के साथ मंगल हो तो यक्ति मारधाड़ में विश्वास रखता है। और आतिशबाजी का शोकिन हो जाता है। राहू के साथ गुरु होने पैर राहू ठीक हो जाता है। और शंनी के साथ होने पर राहू बहूत खऱाब हो जाता है। और इनकी दशा, महादशा में सबकुछ चोपट हो जाता है। अत राहू से पीडि़त जातको के लिए राहू का जाप करवाना चाहिए।जो जातक पागल हो गया हो उसे चन्दन की माला पहनाये। तथा राहू के बीज मंत्र का जप गोमेद या सफ़ेद चन्दन की माला से करे भूरे रंग के कुते को बूंदी के लड्डू बुधवार या शनिवार को खिलाये।इसके साथ ही बंदरो को चना, गुड, और भूरे रंग की गाय को चारा खिलाये। जब राहू लग्न में हो या गोचर में नीच का होकर अशुभ फल दे रहा हो यो ऐसे जातको को अपने वजन के बराबर जो का तुलादान शनिवार या पूर्णिमा को करना चाहिए।
* लग्न में नीच का वृहस्पति जातक को अफीम का शौकीन बनता है। द्वादश भाव के स्वामी का शत्रु या नीच राशी में होना जातक को नशेडी बनता है। कमजोर लग्न भी मित्र ग्रहों से सहयोग न मिलाने से नशे की तरफ बदता है लग्न पर पाप ग्रहों की द्रष्टि भी मादक पदार्थो का सेवन करती है। पेट, जीभ और स्नायु केन्द्रों पर बुध का अधिकार होता है। बुध को मिश्रित रस भी पसंद है। शुक्र का वीर्य, काफ, जल, नेत्र और कमंगो पर अधिकार है। अत: इन दोनों के द्वितीय भाव से सम्बंधित होने से पीडि़त होने से और द्रष्टि होने से जातक द्वारा मादक पदार्थो का सेवन करने और नहीं करने का पता चलता है। मंगल, शनि, राहू और क्षीण चन्द्रमा की द्रष्टि उत्तेजना बढाती है। जो जातक को नशेडी बनने पर मजबूर कर देती है।
* राहु धरातल वाला ग्रह नहीं होने से छाया ग्रह कहा जाता है। लेकिन राहू की प्रतिष्ठा अन्य ग्रहों की भांति ही है। शनि की भांति लोग राहु से भी भयभीत रहते है। दक्षिण भारत में तो लोग राहुकाल में कोई भी कार्य नहीं करते है। राहू को अन्धकार युक्त ग्रह कहा गया है राहू के नक्षत्र आद्रा,स्वाति, और सात्भिसा है। राहु को कन्या राशी का अधिपत्य प्राप्त है। कुछ ज्योतिषी राहु को मिथुन राशी में उच्च का एवं धनु राशी में नीच का मानते है। राहू का वर्ण नीलमेघ के समान है। सरीर में इसे पेट और पिंडलियों में स्थान मिला है गोमेद इसकी मणि, पूर्णिमा इसका दिन, व अभ्रक इसकी धातु है। राहू रोग कारक ग्रह है। काला जादू, हिप्नोटीज्म में रूचि यही ग्रह देता है। अचानक घटने वाली घटनायो के योग राहू के कारण ही होते है।
* कुंडली में पंचम भाव के स्वामी पर नीच या पीडि़त शनि, राहू की द्रष्टि मादक पदार्थो का सेवन कराती है। सूर्य की नीच राशी तुला में ये स्पष्ट लिखा है की जातक शराब बनाने और बचने वाला होता है। कर्क राशी में मंगल नीच का होता है। अत: वह चंचल मन वाला और जुआ खेलने में विशेष रूचि रखता है। बुध की नीच राशी मीन है। यह जातक को चिंतित रखता है और उस की स्मरण शक्ति भी खऱाब होती है। कन्या में शुक्र पीडि़त होकर मद्यपान की और ले जाता है। शनि मेष में नीच होता है। वह जातक से जालसाजी, फरेब करने के साथ ही नशा भी करता है। राहू वृश्चिक में नीच का होता है, वह जातक को शराब के आलावा कोकीन, अफीम, हिरोइन आदि का भी टेस्ट कराना चाहता है।

रहस्यमयी और अलौकिक निधिवन

भारत में कई ऐसी जगह है जो अपने दामन में कई रहस्यों को समेटे हुए है ऐसी ही एक जगह है वृंदावन स्थित निधि-वन, जिसके बारे में मान्यता है की यहाँ आज भी हर रात कृष्ण गोपियों संग रास रचाते है। यही कारण है की सुबह खुलने वाले निधिवन को संध्या आरती के पश्चात बंद कर दिया जाता है। उसके बाद वहां कोई नहीं रहता है, यहाँ तक की निधिवन में दिन में रहने वाले पशु-पक्षी भी संध्या होते ही निधि वन को छोडक़र चले जाते हैं।
वैसे तो शाम होते ही निधि वन बंद हो जाता है और सब लोग यहाँ से चले जाते है। लेकिन फिर भी यदि कोई छुपकर रासलीला देखने की कोशिश करता है तो पागल हो जाता है। ऐसा ही एक वाकया करीब 10 वर्ष पूर्व हुआ था जब जयपुर से आया एक कृष्ण भक्त रास लीला देखने के लिए निधिवन में छुपकर बैठ गया। जब सुबह निधि वन के गेट खुले तो वो बेहोश अवस्था में मिला, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका था। ऐसे अनेकों किस्से यहाँ के लोग बताते है। ऐसे ही एक अन्य व्यक्ति थे पागल बाबा, जिनकी समाधि भी निधि वन में बनी हुई है। उनके बारे में भी कहा जाता है की उन्होंने भी एक बार निधि वन में छुपकर रास लीला देखने की कोशिश की थी। जिससे की वो पागल ही गए थे। चुंकी वो कृष्ण के अनन्य भक्त थे इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात मंदिर कमेटी ने निधि वन में ही उनकी समाधि बनवा दी।
निधि वन के अंदर ही है ‘रंग महल’ जिसके बारे में मान्यता है की रोज रात यहाँ पर राधा और कन्हैया आते है। रंग महल में राधा और कन्हैया के लिए रखे गए चंदन की पलंग को शाम सात बजे के पहले सजा दिया जाता है। पलंग के बगल में एक लोटा पानी, राधाजी के श्रृंगार का सामान और दातुन संग पान रख दिया जाता है। सुबह पांच बजे जब ‘रंग महल’ का पट खुलता है तो बिस्तर अस्त-व्यस्त, लोटे का पानी खाली, दातुन कुची हुई और पान खाया हुआ मिलता है। रंगमहल में भक्त केवल श्रृंगार का सामान ही चढ़ाते है और प्रसाद स्वरुप उन्हें भी श्रृंगार का सामान मिलता है।
निधि वन के पेड़ भी बड़े अजीब हैं, जहाँ हर पेड़ की शाखाएं ऊपर की और बढ़ती हैं वही निधि वन के पेड़ों की शाखाएं नीचे की ओर बढ़ती है। हालात यह है की रास्ता बनाने के लिए इन पेड़ों को डंडों के सहारे रोक गया है।
निधि वन की एक अन्य खासियत यहाँ के तुलसी के पेड़ है। निधि वन में तुलसी का हर पेड़ जोड़े में है। इसके पीछे यह मान्यता है कि जब राधा संग कृष्ण वन में रास रचाते हैं तब यही जोड़ेदार पेड़ गोपियां बन जाती हैं। जैसे ही सुबह होती है तो सब फिर तुलसी के पेड़ में बदल जाती हैं। साथ ही एक अन्य मान्यता यह भी है की इस वन में लगे जोड़े की वन तुलसी की कोई भी एक डंडी नहीं ले जा सकता है। लोग बताते हैं कि जो लोग भी ले गए वो किसी न किसी आपदा का शिकार हो गए। इसलिए कोई भी इन्हें नहीं छूता।