Monday 19 October 2015

मूलांक 6 वालों का जीवन

जन्म तारीख 6 1 5 2 4
परिचय-यदि किसी स्त्री पुरूष का किसी भी अंग्रेजी महीने की 6-15-24 तारीख को जन्म हुआ है, तो उनका जन्म तारीख मूलांक 6 होता है । जब किसी को अपनी जन्म तारीख ज्ञात न हो, तो यदि नाम अक्षरों का मूल्यांकन करने के उपरान्त मूलांक 6 आता है, तो उनका मूलांक भी 6 होता है । अंत: ये 6 अंक के प्रभावाधीन आते हैं। मूलांक 6 वालों को अंक तंग 6 प्रभावित करती है । मूलांक 6 स्वामी ग्रह शुक्र हो जो प्रेम एवं शक्ति का प्रतीक माना गया है । 1-2-3 अंक प्रारमिभक अंक माने गये है । 1+2+3=6 अथवा 1-2-3 अंक के जोड़ से 6 अंक बनता है । इस लिए अंक 6 की अपनी अलग अलग ही विशेषता है। इस अंक में अंक 1,2 और 3 की विशेषताएं भी समाई हुई है । मूलांक 6 के स्वामी ग्रह शुक्र को दैत्य गुरू को पदवी भी मिली है। अंक 6 मुख्यत: भोग का कारक है। मूलांक 6 वाले व्यक्ति बहुत लोकप्रिय देखे गए है ।
स्वभाव एवं व्यक्तित्व- मूलांक 6 वाले व्यक्तियों से मिलनसारिता तथा आकर्षण शक्ति प्रचुर मात्रा में होती से | ये बहुत लोकप्रिय होते है । मूलांक 6 वाले व्यक्ति कोमल, प्यारे तथा शान्तिप्रिय होते है। प्रेम-प्यार तो इनके प्राण होते है। ये विश्वसनीय होते है तथा कम ही विश्वासघात करते हैं । इनके मस्तिक में विचारों को बहुत उपज होती है, तरह-तरह की स्कीमें और विचार बनते रहते हैं, परन्तु इन विचारों, स्कीमों अथवा योजनाओं को कार्यरूप दे पाना, कई बार इनके वश की बात नहीं होती। इनकी स्मरण शक्ति तो उत्तम होती है परन्तु इनकी आत्मिक शक्ति कुछ कम ही होती है। इसी लिए वे अपने विचारों, स्कीमों आदि को कार्यरूप देने में असमर्थ होते हैँ। ये सुरक्षा की कामना करते है क्योकि ये सुरक्षा की सदैव कमी अनुभव करते रहते है। मूलांक 6 वाली स्त्रियाँ में तो यह भावना प्रबल होती है । इनके शब्द सुन्दर एवं वाणी मधुर होती है। इनका ह्रदय कोमल तथा सदैव प्रेम के गीत अलापता रहता है । ये प्रेम प्यार को पूरा भोगने को कामना करते हैं । ये व्यक्ति दूसरों का पूर्ण मान-सम्मान एवं सत्कार करते है । जिधर भी जाते है, इसी की प्रफुल्लता बिखेर देते है । ये व्यक्ति अनजान व्यक्तियों के बीच कुछ समय तक अलग सा अनुभव करते हैं, परन्तु शीघ्र ही उनके साथ घुल-मिल भी जाते है । मूलांक 6 वाले व्यक्ति मिलनसार होते है और इसी कारण ये बड़े लीकिप्रिय हो जाते है । इन व्यक्तियों के साथ रहने वाले इन्हें बहुत पसन्द करते हैं ।अन्य व्यक्ति इनमें भरपूर स्नेह एवं सत्कार भी करते है । इनकी अधिक रूचि अन्य सुन्दर व्यक्तियों एवं वस्तुओं में अधिक होती है। मूलांक 6 वाले चित्रकला, संगीत और साहित्य में बहुत रूचि रखते है। मूलांक 6 वाले व्यक्ति अतिथियों का बहुत मान-सम्मान अथवा सत्कार करते है । प्रत्येक वस्तु को सुचारू रूप से सजाना इनका नित्यकर्म होता है । यहाँ तक कि वे स्वयं को बनाने संवारने पर भी घंटो लगा देते हैँ। मूलांक 6 वाली स्त्रियाँ तो स्वयं को सजाने, श्रृंगार करने में कई-कई घंटे लगा देती है। ये व्यक्ति अपने घर में सोफे तथा अन्य फर्नीचर भी पूरा सजा कर रखते है । वस्त्र रखने वाली अलमारियों मेँ सुन्दर एवं महंगे वस्त्रों को एक प्रकार से प्रदर्शनी सी लगा देते है। मूलांक 6 वाले स्वभाव के कुछ हठी भी होते है। अपनी बात को सही और ठीक ठहराना इनका स्वभाव होता है। मूलांक 6 वाली स्त्रियों में यह भावना प्रबल होती है । ये व्यक्ति अपनी बात पर भी अड़े रहते है और हर तरह से अपनी बात अथवा मांग मनवाकर ही दम लेते है । यह भावना तो मूलांक 6 वालीं आत्यधिक मात्रा मेँ पायी जाती है ।
मूलांक 6 वालों में इर्षा की भावना अन्यो को अपेक्षा अधिक होती है। इन्हें सचमुच ईंष्यालु कहा जा सकता है । ये किसी प्रकार का विरोध भी सहन नहीँ करते और न ही विरोधयों को ये सहन करते हैं । मूलांक 6 वाले व्यक्ति तो बस शान्ति एवं, प्रेम से रहना पसन्द करते है । ये बडे परिश्रमी भी होते हैं तथा लम्बे समय तक कार्यरत रहते है, परन्तु अधिक बिलासिता की ओर रूचि इनको हानि पहुँचाती है। जैसे पहले बताया जा चुका है कि मूलांक 6 का प्रतिनधि ग्रह शुक होता है। ये ग्रह सुन्दरता, भोग तथा विलास का परिचारक है। अत: मूल अंक 6 वाले व्यक्ति सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व के होते है । विपरीत लिग अथवा स्त्री को प्रभावित करने में इनमें विशेष शक्ति होती है। ये मूलांक 6 वालों का प्रधान गुणा होता है । अत: जीवन में कई सुन्दर स्त्रियों से इनका सम्पर्क रहता है। मूलांक 6 वालों को नाचने-गाने तथा संगीत में इनको रूचि विशेष होती है। अपने आपको सुन्दर रूप में ढालने लगे रहते हैं। सुन्दरता से सम्बन्धित वस्तुओं अथवा प्रसाधनों पर अधिक व्यय करते है |जिस स्थान पर रहते भी है, उसे भी सुन्दर स्वच्छ बनाने में प्रयासरत रहते हैं ।
विद्या- उद्यम एवं प्रेरणा से ये उत्तम विद्या प्राप्त कर लेते हैं । चूँकि इनकी आत्मिक शक्ति कुछ कम होती है तथा विचारों को कार्यरूप भी दे आना इनके वश की बात नहीँ होती, अत: विद्या प्राप्ति हेतु बडे प्रयत्न करने पड़ते हैं, ये काफी समय आराम, अन्याय एवं गप्पबाजी में व्यय करते है तथा विद्या की ओर लापरवाह हो जाते से । इस लिए ये असफल अथवा फेल भी हो जाते है और कई बार तो विद्या अधूरी भी छोड़ देते है । यदि वे आराम एवं आलस्य का त्याग कर दे तो अच्छी विद्या प्राप्त कर सकते है । संगीत एवं चित्रकला में ये अधिक रूचि लेते है ।
प्रेम विवाह एवं सन्तानं-मुलान्तक 6 वाले व्यक्ति सत्य अथवा सहीं अर्थों में प्रेम-प्यार करते है । जीवन में इनके प्रेम सम्बन्ध तो होते हीँ है ओर वे होते भी है बिना किसी कपट के । ये प्रेम को गम्भीरता से लेते है । कभी-कभी ये प्रेम में आदर्श भी दूँढने लग जाते है । ये प्रेमभाव में जीवन को नीरस ही समझते है। इनके जीवन में ऐसे पल भी आते हैं । जब ये बिरह की चक्की में भी खूब पिसते हैं परन्तु फिर भी आशा का दामन नहीं छोड़ते । मूलांक 6 वालों का मूलांक 3-6-9-2 की और विशेष झुकाव होता है ।
यात्रा- मूलांक 6 वाले कम ही यात्राएं करते हैं । ये तो एक जगह रहकर जीवन का आनंद लेना चाहते है यहाँ का वातावरण आनन्दमय एवं सुखद हो। लम्बी यात्राएं कम ही होती है । छोटी-छोटी यात्राएं तो प्राय होती ही रहती हैं । यात्रायों में इन्हें लाभ कम होता है | विदेश जाते-जाते कई बार ये रह जाते है । फिर भी अच्छा साथी न मित्र इन्हें यात्रा, पिकनिक पार्टी तथा विदेश में ही मिलता है । विदेश यात्रा एवं विदेश रहने से इन्हें कोई विशेष लाभ नहीँ होता तथा धन-दौलत-सम्पत्ति एवं सन्तान से सम्बरिधत परेशानी झेलनी पड़ती है ।
स्वास्थ्य-मूलांक 6 वालों की शरीरिक शक्ति तो उत्तम होती है, परन्तु आत्मिक शक्ति कुछ कम ही होती है । प्राय: ये स्वस्थ ही रहते है । फिर भी मानसिक चिन्तस्ना इनको बनी रहती है। मूलांक 6 वालों को गला, नाक, फेफड़े एवं मूत्र विकारों की सम्भावना रहती है। पथरी, गुर्दे के रोग, शुगर तथा शुक्रग्रणु रोग भी इन्हें प्रभावित कर सकते हैं । अनियमित रक्त-संसार, दिल का धड़कना, मूलांक 6 वालों के लिए कई बार आम समस्या बन जाती है। धूम्रपान करना एवं शराब का सेवन इनके लिए बहुत हानिपृद है । यह भी देखा गया है। कि प्राय: मूनांक 6 वालों का मन इनकी ओर आकर्षित होता रहता है। इनको घातक रोग एडस तथा चर्मरोग व गुप्त रोगों की आशंका बनी रहती है। अधिक भोग और विलासता स्वास्थ्य हानि का कारण बनते है। ये सर्दी-जुकाम आदि से भी पीडित रहते है। रोगी अथवा स्वास्थ्य क्षीण होने को सम्भावना होती है|
आर्थिक स्थिति-मूलांक 6 वालों का व्यवसाय का क्षेत्र बडा विशाल होता है । ये कार्य करने के सचमुच समर्थ होते है । मजदूरी करते हुए मूलांक 6 वाले कम ही मिलते है । अत: इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी ही होती है । यह देखा गया है कि इनकी आर्थिक स्थिति में एकरूपता नहीं होती। आय से व्यय अधिक होता रहता है । मूलांक 6 वालों का रहन-सहन का तौर-तरीका, सुन्दर वस्तुओं का संग्रह कीमती पोशाक आदि का शौक अदि इनको व्ययशील बनाता है । इस लिए व्यय अधिक होता ही रहता है तथा आर्थिक स्थिति प्रभावित होती रहती है ।
व्यवसाय एवं कार्य रूचि-मूलांक 6 वाले व्यक्ति सौदर्य को विशेष महत्व देते है, ये संगीत एवं चित्रकला में भी अधिक रूचि लेते है । ये प्रत्येक कार्य सुरूचि पूर्ण ढंग से करना पसन्द करते हैं । मूलांक 6 वाले व्यक्ति पेटिंग, संगीत, चित्रकला, नाटक, ड्रामा मण्डली, रेडियों व टी.वी, ऐक्टर, एक्ट्रेस में नेता-अभिनेता, लेखक,केमिस्ट, मेर्टनिटी य, रेडिमेड गज्जारमेँटूस, स्वास्थ्य विभाग, डाक्टर, नर्स, मैटर्न, नर्सिंग सुपरहैंट, रवागती क्लर्क, बार्डन, क्लर्क,पत्रकार, अबुर्कीटैकट, डेजाइनर, संगीतकार, गीतकार, फोटोग्राफर एवं कहानीकार अदि में सफल होते है। ये जन-सम्प्रर्क अधिकारी भी बना जाते है।विंलासता सम्बन्धी वस्तुएं खरीदने-बेचने,ऐसी वस्तुओं के व्यापारी, लोहे के कार्य है सोने के कार्य, उधार, दुकानेदार, शराब, पान, एवं दर्जी की दुकान भी वे करते है। मूलांक 6 वाले सेल्समैन, एजेन्ट, दलाल, बोली देने वाले सफल होते है। ये दूसरों की नौकरी करने वाले,घूम-घूम कर वस्तुएं बेचने वाले भी होते है । ' ये इंजीनियर, प्रजैक्ट अधिकारी भी बन जाते है । मशीनरी तथा मशीनरी से सम्बन्धित वस्तुए, उपकरता भी बेचते हैं और लाभ प्राप्त करते हैं । मनियारी की दुकान और खान-पान की वस्तुएं, होटल, रेस्टोरेंट से लाभ पाते हैं । इनकी विज्ञान एवं कला में अधिक रूचि होती है। ये मंत्री व्यापारी तथा कुशल मैनेजर होते है। .

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Sunday 18 October 2015

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Saturday 17 October 2015

भारतीय संस्कृति में दीपदान व्रत का महत्व

भारतीय संस्कृति में दीपदान व्रत की विशेष महिमा बताई गई है। जिस प्रकार घर में दीपक जलाने पर घर का अंधकार दूर हो जाता है उसी प्रकार भगवान के मंदिर में दीपदान करने वाले को भी अनंत पुण्यफल प्राप्त होते हैं। दीपदान व्रत कभी भी किसी भी दिन से आरंभ किया जा सकता है। अग्निदेव ने एक बार दीपदान के संबंध में महर्षि वशिष्ठ जी से कहा कि दीपदान व्रत योग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। जो मनुष्य देवमंदिर अथवा ब्राह्मण के घर में एक वर्ष तक दीपदान करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। चातुर्मास्य में दीपदान करने वाला विष्णुभगवान के धाम, कार्तिक मास में दीपदान करने वाला स्वर्गलोक तथा श्रावण मास में दीपदान करने वाला भगवान शिव के लोक को प्राप्त कर लेता है। चैत्र मास में मां भगवती के मंदिर में दीप जलाने से निश्चय ही मां जगदंबा के नित्य धाम को प्राप्त कर वहां अनंत भोगों को भोगता है। दीपदान से दीर्घ आयु और नेत्र ज्योति की प्राप्ति होती है। दीपदान से धन और पुत्रादि की भी प्राप्ति होती है। दीपदान करने वाला सौभाग्य युक्त होकर स्वर्ग लोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है। दीपदान करते समय निम्न मंत्र का उच्चारण अवश्य करें। ‘‘¬ अग्निज्योतिज्र्र्याेितरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिज्र्याेतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ¬ चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।। साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया। दीपं गृहाण देवेश त्रौलोक्यतिमिरापहम्।। भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने। त्राहि मां निरयाद् घोराद् दीप ज्योतिर्नमो{स्तुते।। ¬ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । ¬ श्रीमन्नारायणाय नमः। दीपं दर्शयामि। या पिफर जिस देवता का मंदिर हो उस देवता का नाम उच्चारण करके ही दीप समर्पित करें। विदर्भ राजकुमारी ललिता दीपदान के ही पुण्य से राजा चारु धर्मा की पत्नी हुई और उसकी सौ रानियों में प्रमुख हुई। उस साध्वी ने एक बार विष्णु मंदिर में सहस्र दीपों का दान किया। इस पर उसकी सपत्नियों ने उससे दीपदान का माहात्म्य पूछा। उनके पूछने पर उसने इस प्रकार कहा- बहुत पहले की बात है, सौवीरराज के यहां मैलेय नामक पुरोहित थे। उन्होंने देविका नदी के तट पर भगवान श्रीविष्णु का मंदिर बनवाया। कार्तिक मास में उन्होंने दीपदान किया। बिलाव के डर से भागती हुई एक चुहिया ने अकस्मात अपने मुख के अग्रभाग से उस दीपक की बत्ती को बढ़ा दिया। बत्ती के बढ़ने से वह बुझता हुआ दीपक प्रज्वलित हो उठा। मृत्यु के पश्चात वही चुहिया राजकुमारी हुई और राजा चारुधर्मा की सौ रानियों में पटरानी हुई। इस प्रकार मेरे द्वारा बिना सोचे-समझे जो विष्णु मंदिर के दीपक की बाती बढ़ा दी गई; उसी पुण्य का मैं फल भोग रही हूं। इसी से मुझे अपने पूर्व जन्म की स्मृति भी है। इसलिए मैं हमेशा दीपदान किया करती हूं। एकादशी को दीपदान करने वाला स्वर्गलोक में विमान पर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है। मंदिर का दीपक हरण करने वाला गूंगा अथवा मूर्ख हो जाता है। वह निश्चय ही ‘अंधतामिस्त्र’ नाम के नरक में गिरता है जिसे पार करना दुष्कर है। अग्निदेव कहते हैं- ‘ललिता की सौतें उसके द्वारा कहे हुए इस उपाख्यान को सुनकर दीपदान व्रत के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त हो गईं। इसलिए दीपदान सभी व्रतों से विशेष फलदायक है। धनतेरस के दिन यमुनास्नान करके यमराज और धन्वन्तरि का पूजन-दर्शन कर दीपदान करने से मनुष्य की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती और मनुष्य स्वस्थ जीवन को प्राप्त होता है। नरक चतुर्दशी के दिन प्रदोष काल में चार बत्तियों वाला दीपक जलाने से पापों की निवृत्ति होती है तथा नरक नहीं जाना पड़ता। दीपावली के दिन महालक्ष्मी के निमित्त किए गए दीपदान से महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं एवं घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है, जो प्रत्येक पूर्णमासी को अखंड दीपक घर में जलाता है, भगवान सत्यनारायण की कृपा से संपूर्ण भोगों को प्राप्त कर लेता है।

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग

मात्र जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाने वाले भगवान शंकर का एक प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग सौराष्ट्र स्थित सोमनाथ में अवस्थित है। श्रावण माह में आशुतोष शिव की पूजा तुरंत फलदायी मानी जाती है। शिव भक्त कांवरिये विशेष रूप से हरिद्वार से जल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। इतिहास साक्षी है सोमनाथ मंदिर कई बार बना और कई बार उसका विध्वंस हुआ लेकिन त्रिकालदर्शी शिव वहां किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रहे। यह सोमनाथ पाटण, प्रभास, प्रभासपाटण व वेरावल के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां कार्तिक पूर्णिमा एवं महा शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला लगता है। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शनों का विशेष महत्व है। यह शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग भी माना जाता है। कहते हैं इसके दर्शन मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होता है और अभीष्ट फल प्राप्त करता है। सोमनाथ की परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा करने के तुल्य पुण्य मिलता है। यह स्थान पाशुपत मत के शैवों का केंद्र स्थल भी है। इसके पास ही भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर भी है, यहां पर श्रीकृष्ण के चरण में जरा नामक व्याध का बाण लगा था। यह स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से भी भरपूर है। यहां आने वाले यात्री मंदिर के प्रांगण में बैठकर इस सौंदर्य को अपनी आंखों से भरपूर निहारते हैं और अपने कैमरे में समेटने का अथक प्रयास करते हैं। सोमनाथ मंदिर का महत्व अनादि काल से है। इस संदर्भ में एक कथा का वर्णन पुराणों में इस प्रकार मिलता है- दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा से हुआ लेकिन चंद्रमा केवल रोहिणी से ही प्रेम करते थे। इस कारण अन्य 26 दक्ष कन्याएं बहुत उदास रहती थीं। उनके शिकायत करने पर दक्षराज ने चंद्रमा को बहुत समझाया लेकिन उनका व्यवहार नहीं बदला। अंत में दक्ष ने चंद्रमा को ‘क्षयी’ होने का शाप दे दिया। इस तरह चंद्रमा क्षयग्रस्त होकर धीरे-धीरे क्षीण होने लगे। उनका सुधावर्षण का कार्य रुक गया। चारों और त्राहि मच गई। चंद्रमा के आग्रह पर सभी देवताओं ने ब्रह्मा जी से सलाह ली। ब्रह्मा जी ने चंद्रमा को समस्त देवमंडली के साथ सोमनाथ क्षेत्र में जाकर महामृत्युंजय मंत्र से भगवान शिव की आराधना करने की सलाह दी। चंद्रमा ने यहां लगातार 6 महीने तक शिव की घोर तपस्या की। आशुतोष भगवान शिव ने प्रसन्न होकर मरणासन्न चंद्रमा का समस्त रोग हर लिया और उन्हें अमर होने का वरदान दिया। भगवान शिव ने उन्हें आश्वस्त किया कि शाप के फलस्वरूप कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होती जाएगी लेकिन शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से एक-एक कला बढ़ती जाएगी और प्रत्येक पूर्णिमा को तुम पूर्णचंद्र हो जाओगे। चंद्रमा शिव के वचनों से गदगद हो गए और शिव से हमेशा के लिए वहीं बसने का आग्रह किया। चंद्र देव एवं अन्य देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान शंकर भवानी सहित यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करने लगे। सोमनाथ के आसपास का संपूर्ण प्रभास क्षेत्र पावन है। यहां बहने वाली पूतसलिला सरस्वती के दर्शन मात्र से संपूर्ण पाप व कष्ट दूर हो जाते हैं। सोमनाथ मंदिर रत्न जड़ित था। इसे आततायियों ने कई बार तोड़ा। महमूद गजनवी ने जब मंदिर का विध्वंस किया तो उससे शिवलिंग नहीं टूटा। तब उसके पास भीषण अग्नि प्रज्ज्वलित की गई। मंदिर के अमूल्य हीरे जवाहरात लूट लिए गए। उसके बाद राजा भीमदेव ने सिद्धराज जय सिंह की मदद से मंदिर का निर्माण किया। उसके बाद पुनः अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब ने मंदिर को तहस नहस कर डाला। अब जो नवीन मंदिर बना है वह पुराने मंदिर के भग्नावशेष को हटाकर बनाया गया है। यह मंदिर समुद्र के किनारे है। भारत के स्वाधीन होने पर सरदार पटेल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅराजेंद्र प्रसाद ने ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। वर्तमान मंदिर चालुक्य वास्तु शैली में बना है जिसमें गुजरात के राजमिस्त्री की कड़ी मेहनत व शिल्प कौशल स्पष्ट दिखाई देता है। मंदिर के अलग-अलग भाग हैं। शिखर, गर्भगृह, सभा मंडप एवं नृत्य मंडप। मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रखकर इसका निर्माण इस प्रकार किया गया है कि इसके व अंटार्टिका के बीच में कोई भूमि नहीं है। अहल्याबाई मंदिर: सोमनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर अहल्याबाई होलकर का बनवाया सोमनाथ मंदिर है। यहां भूमि के नीचे सोमनाथ लिंग है। नगर के अन्य मंदिर: अहल्याबाई मंदिर के पास ही महाकाली का मंदिर है। इसके अलावा गणेश मंदिर, भद्रकाली तथा भगवान दैत्यसूदन (विष्णु) के मंदिर भी हैं। नगर-द्वार के पास गौरीकुंड नामक सरोवर के समीप प्राचीन शिवलिंग है। ्राची त्रिवेणी: यह स्थान नगर से लगभग एक मील की दूरी पर है। यहां जाते समय राह में ब्रह्मकुंड नामक बावली मिलती है। उसके पास ब्रह्म कमंडलु नामक कूप और ब्रह्मेश्वर शिव मंदिर है। यहां पर आदि प्रभास और जल प्रभास दो कुंड हैं। नगर के पूर्व में हिरण्या, सरस्वती और कपिला नदियां मिलती हैं और प्राची त्रिवेणी बनाती हैं। प्राची त्रिवेणी संगम से कुछ ही दूरी पर सूर्य मंदिर स्थित है। उससे आगे एक गुफा में हिंगलाज भवानी तथा सिद्धनाथ महादेव के मंदिर हैं। उसके पास ही एक वृक्ष के नीचे बलदेव जी का मंदिर है। कहा जाता है कि बलदेव जी यहां से शेष रूप धारण कर पाताल गए थे। यहां महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य की बैठक भी है। यहीं त्रिवेणी माता, महाकालेश्वर, श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा भीमेश्वर के मंदिर भी हैं। इसे देहोत्सर्ग तीर्थ भी कहा जाता है। यादव स्थली: देहोत्सर्ग तीर्थ से आगे हिरण्या नदी के किनारे यादव स्थली है। यहीं परस्पर युद्ध करके यादवगण नष्ट हुए थे। बाण तीर्थ: यह स्थान वेरावल स्टेशन से सोमनाथ आते समय समुद्र के किनारे स्थित है। बाण तीर्थ से पश्चिम समुद्र के किनारे चंद्रभागा तीर्थ है। यहां बालू में कपिलेश्वर महादेव का स्थान है। भालक तीर्थ: कुछ लोग बाण तीर्थ को ही भालक तीर्थ कहते हैं लेकिन बाण तीर्थ से डेढ़ मील पश्चिम भालुपुर ग्राम में भालक तीर्थ है। यहां एक भालकुंड सरोवर है। उसके पास पद्मकुंड है। एक पीपल के वृक्ष के नीचे भालेश्वर शिव का स्थान है। इसे मोक्ष-पीपल कहते हैं। बताया जाता है कि यहीं पीपल के नीचे बैठे श्रीकृष्ण के चरण में जरा नामक व्याध ने बाण मारा था। चरण में लगा बाण निकालकर भालकुंड में फेंका गया। कैसे जाएं: सोमनाथ का निकटतम हवाई अड्डा केशोड़ है। यहां से सोमनाथ के लिए लगातार टैक्सियां और बसें चलती रहती हैं। पश्चिमी रेलवे की राजकोट-वेरावल और खिजड़िया-वेरावल रेलवे लाइनों से वेरावल जाया जा सकता है। वेरावल समुद्र तट पर बंदरगाह है। यहां सप्ताह में एक बार जहाज आता है। सोमनाथ सड़क मार्ग से भी वेरावल, मुंबई, अहमदाबाद, भाव नगर, जूनागढ़, पोरबंदर आदि सभी शहरों से जुड़ा हुआ है। कहां ठहरें: सोमनाथ के आसपास बड़े होटल नहीं हैं। विश्राम गृह एवं यात्री निवास सस्ती दर पर उपलब्ध हो जाते हैं।

ग्रहों की दशा अंतर्दशा का फल

ग्रहों की अपनी दशा एवं अंतर्दशा में स्वाभाविक फल नहीं मिलता: लघुपाराशरी के श्लोक 29 में एक सामान्य नियम का निर्देश दिया गया है कि सभी ग्रह अपनी दशा एवं अपनी ही अंतर्दशा के समय में अपना आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल नहीं देते।1 तात्पर्य यह है कि किसी ग्रह की दशा में उसकी अंतर्दशा के समय में उस ग्रह का स्वाभाविक फल नहीं मिलता। कारण यह है कि फल यौगिक होता है। जैसे हाइड्रोजन एवं आॅक्सीजन के मिलने से जल बनता है, उसी प्रकार संबंधी या सधर्मी के मिलने से फल बनता है। इसलिए एक ही ग्रह की दशा में उसी की अंतर्दशा में उस ग्रह के स्वाभाविक फल का निषेध किया गया है। महर्षि पराशर ने अपने बृहत्पाराशर होराशास्त्र में इस ओर संकेत देते हुए कहा है- ”स्वदशायां स्वभुक्तौ च नराण्यं मरणं न हि।“ अर्थात अपनी दशा एवं अपनी ही भुक्ति में मारक ग्रह व्यक्ति को नहीं मारता। अनुच्छेद 51 में ग्रहों के आत्मभावानुरूप या स्वाभाविक फल का निर्णय करने के मुख्य आधारों एवं परिणामों की विस्तार से चर्चा की गई है, जिनके आधार पर ग्रह के आत्मभावानुरूप या स्वाभाविक फल का निर्धारण या निर्णय किया जा सकता है। इस प्रसंग में एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि ग्रह की दशा में उसी अंतर्दशा के समय में उसका स्वाभाविक फल नहीं मिलता तो उस समय में कैसा या क्या फल मिलता है? इस प्रश्न का उत्तर होरा ग्रंथों में दिया गया है-”सर्वैषा फलं चैवस्पाके“ अर्थात सभी ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में उनका साधारण एवं योगफल मिलता है। ग्रहों के सामान्य फल की जानकारी उनके 40 आधारों पर तथा योगफल की जानकारी उनके 22 आधारों पर अनुच्छेद 50 के अनुसार प्राप्त की जा सकती है। लघुपाराशरी की विषय-वस्तु में दशाफल उसका मुख्य प्रतिपाद्य है और लघुपाराशरीकार ने दशाफल का प्रतिपादन नियम एवं उपनियमों के आधार पर इस प्रकार से किया है कि उसमें सर्वत्र नियमितता एवं तर्कसंगति दिखलाई देती है क्योंकि सामान्य होरा ग्रंथों में सामान्य एवं योगफल के आधार पर दशाफल बतलाया गया है जो भिन्न-भिन्न आधारों पर भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होने के कारण अनेक प्रकार की कठिनाइयां पैदा करता है। वैसी कठिनाई इस ग्रंथ के दशाफल में नहीं है। हां ग्रह का स्वाभाविक फल निर्धारित करने की प्रक्रिया अवश्य लंबी है और इसीलिए इस ग्रंथ के प्रारंभिक तीन अध्यायों में ग्रहों के स्वाभाविक फल के निर्णयार्थ आधारभूत सिद्धांतों की विवेचना की गई है। कौन-सा ग्रह शुभ, पापी, सम या मिश्रित होगा इसकी विवेचना संज्ञाध्याय में और कौन-सा ग्रह कारक या मारक होगा इसकी विवेचना योगाध्याय एवं आयुर्दायाध्याय में की गई है। इस प्रकार इन तीनों अध्यायों में प्रतिपादित आधारभूत सिद्धांतों के अनुसार ग्रह का स्वाभाविक फल निश्चित हो जाने पर वह फल मनुष्य को उसके जीवनकाल में कब-कब मिलेगा इस प्रश्न पर यहां प्रकाश डाला जा रहा है। ग्रहों की दशा में उनके संबंधी या सधर्मी की अंतर्दशा में स्वाभाविक फल मिलता है। दशाधीश ग्रह का जो आत्मभावानुरूप (स्वाभाविक) शुभ या अशुभ फल है वह मनुष्य को उसके जीवन काल में कब मिलेगा इस प्रश्न का समाधान करते हुए लघुपाराशरीकार ने बतलाया है कि सभी ग्रह अपनी दशा में अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा के समय में अपना आत्मभावानुरूपी फल देते हैं।2 कुछ टीकाकारों ने आत्म संबंधी पद का अर्थ अपनी कल्पनानुसार इस प्रकार किया है -”आत्म संबंधी ग्रह वे होते हैं जो परस्पर मित्र होते हैं अथवा दोनों उच्चस्थ या नीचस्थ होते हैं। यथा सूर्य-चंद्र, सूर्य-गुरु, सूर्य-मंगल, मुगल-गुरु, बुध-शुक्र तथा शुक्र-शनि परस्पर मित्र हैं। क्योंकि वे आत्म संबंधी हैं। इनमें से शनि और शुक्र अभिन्न मित्र हैं। इसलिए कुंडलियों में जहां-जहां शनि केंद्रेश होता है, वहां-वहां शुक्र भी केंद्रेश होता है और शनि यदि त्रिकोणेश हो तो शुक्र भी त्रिकोणेश होता है।3 किंतु लघुपाराशरी में मित्र ग्रहों, उच्चस्थ या नीचस्थ गहों को संबंधी नहीं माना गया है। यहां संबंध या आत्म संबंध का अभिप्राय स्थान, दृष्टि, एकांतर एवं युति संबंधों से है।4 यदि इस ग्रंथ के किसी भी प्रसंग में इस ग्रंथ की विशेष संज्ञाओं को छोड़कर अन्य होरा ग्रंथों की संज्ञाओं के आधार पर उनका विचार एवं निर्णय किया जाएगा तो ग्रहों के शुभत्व, पापत्व, समत्व, मिश्रित, कारकत्व एवं मारकत्व के निरूपण एवं निर्णय में अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो जाएंगी। अतः आत्म संबंधी का अर्थ मित्र ग्रह, उच्चस्थ ग्रह या नीचस्थ ग्रह मानना तर्कहीन कल्पना मात्र है क्योंकि इस विषय में लघु पाराशरीकार ने योगाध्याय में नियम एवं उदाहरणों द्वारा बतलाया है कि उक्त चार प्रकार के संबंधों में से आपस में किसी भी प्रकार का संबंध रखने वाले ग्रह परस्पर आत्म संबंधी होते हैं।5 इस विषय में यही मत महर्षि पराशर का भी है।6 इसलिए किसी भी ग्रह की दशा में उसके संबंधी ग्रह की अंतर्दशा के समय में उस ग्रह का स्वाभाविक फल मिलता है। यदि दशाधीश ग्रह का किसी भी ग्रह से संबंध न हो तो उसके सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा के समय में उसका स्वाभाविक फल मिलता है। सधर्मी ग्रह का अभिप्राय है समान गुण-धर्म वाला ग्रह। अर्थात जिन ग्रहों का गुण-धर्म समान हो वे सधर्मी कहलाते हैं यथा-केंद्रेश-केंद्रेश, त्रिकोणेश-त्रिकोणेश, त्रिषडायाधीश -त्रिषडायाधीश, द्विद्र्वादशेश-द्विद्र्वादशेश आपस में सधर्मी होते हैं। इसी प्रकार मारक एवं कारक ग्रह भी आपस में सधर्मी होते हैं। यहां धर्म का अर्थ है धारणाद्धर्म इत्याहु अर्थात जिसे धारण किया जाए उस गुण को धर्म कहते हैं यथा त्रिकोणेश होने के कारण शुभता एवं त्रिषडायाधीश होने के कारण अशुभता आदि। भावाधीश होने से ग्रहों के गुणधर्मों में अंतर आता है क्योंकि एक ही ग्रह भिन्न-भिन्न भावों का स्वामी होकर शुभत्व, पापत्व, समत्व, कारकत्व या मारकत्व धर्म धारण कर लेता है। इसलिए समान गुण-धर्म को धारण करने वाले ग्रह परस्पर सधर्मी होते हैं और दशाधीश ग्रह का आत्मभावानुरूपी (स्वाभाविक) फल उसके सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में मिलता है। जैसा कि कहा गया है ”प्राप्ते सम्बन्धिवर्गे ना सधर्मीणि समागते। स्वाधिकारफलं केऽपि दर्शयन्ति दिशान्ति च।। इति संदृश्यते लोके तथा ग्रहगणा अपि। सम्बन्ध्यन्तर्दशास्वेव दिशन्ति स्वदशाफलम्।।“ अंतर्दशाफल: अनुच्छेद 14 में बतलाया गया है कि ग्रह आपसी संबंध के आधार पर मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है।ं संबंधी तथा असंबंधी। ये दोनों गुण-धर्मों के आधार पर चार-चार प्रकार के होते हैं-संबंधी-सधर्मी, संबंधी-विरुद्धधर्मी, संबंधी-उभयधर्मी तथा संबंधी अनुभयधर्मी और असंबंधी-सधर्मी, असंबंधी - विरुद्धधर्मी, असंबंधी-उभयधर्मी एवं असंबंधी-अनुभयधर्मी। जो ग्रह चतुर्विध संबंधों में किसी प्रकार के संबंध से परस्पर संबंधित हों, वे संबंधी तथा जो परस्पर संबंधित न हों, वे असंबंधी कहलाते हैं। समान गुण-धर्मों वाले ग्रह सधर्मी होते हैं। शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के गुण धर्मों वाले ग्रह उभयधर्मी और न तो शुभ और न ही अशुभ गुण-धर्मों वाले ग्रह अनुभयधर्मी होते हैं। सधर्मी ग्रह: केंद्रेशों का केंद्रेश, त्रिकोणेशों का त्रिकोणेश, त्रिषडायाधीशों का त्रिषडायाधीश या अष्टमेश, कारकों का कारक तथा मारकों का मारक या द्विद्र्वादशेश सधर्मी होता है। विरुद्धधर्मी ग्रह: त्रिकोणेश का त्रिषडायाधीश, योगकारक का मारक, अष्टमेश या लाभेश विरुद्धधर्मी होता है। उभयधर्मी ग्रह: चतुर्थेश, सप्तमेश एवं दशमेश उभयधर्मी होते हैं। अनुभयधर्मी ग्रह: द्वितीय या द्वादश में स्वराशि में स्थित सूर्य एवं चंद्रमा तथा अकेले राहु या केतु अनुभयधर्मी होते हैं। इन आठ प्रकार के ग्रहों में से संबंधी- सधर्मी, संबंधी-विरुद्धधर्मी, संबंधी -उभयधर्मी, संबंधी-अनुभयधर्मी एवं असंबंधी-सधर्मी इन पांचों की अंतर्दशा में दशाधीश का आत्मभावानुरूपी फल मिलता है। इन पांचों में अंतर्दशाधीश या तो संबंधी है अथवा सधर्मी और श्लोक संख्या 30 के अनुसार दशाधीश अपने संबंधी या सधर्मी की अंतर्दशा में अपना आत्मभावानुरूप फल देता है।7 उदाहरण: संबंधी -सधर्मी  प्रायः योगकारक ग्रहों की दशा एवं अंतर्दशा में उनसे संबंध न रखने वाले त्रिकोणेश की प्रत्यंतर दशा में राजयोग घटित होता है।8 योगकारक ग्रह के संबंधी त्रिकोणेश की दशा और योगकारक की भुक्ति में कभी-कभी योगजफल मिलता है।9 संबंधी-विरुद्धधर्मी  स्वभाव से पापी ग्रह भी योगकारक ग्रह से संबंध होने के कारण योगकारक की दशा और अपनी अंतर्दशा में योगजफल देते हैं। 10 यदि योगकारक ग्रह की दशा में मारक ग्रह की अंतर्दशा में राजयोग का प्रारंभ हो तो मारक ग्रह की अंतर्दशा उसका प्रारंभ कर उसे क्रमशः बढ़ाती है।11 संबंधी-उभयधर्मी केंद्रेश अपनी दशा एवं अपने संबंधी त्रिकोणेश की भुक्ति में शुभफल देता है। संबंधी-अनुभयधर्मी: यदि राहु एवं केतु केंद्र या त्रिकोण में स्थित हों तो अन्यतर के स्वामी से संबंध होने पर योगकारक होते हैं।13 असंबंधी-सधर्मी: योगकारक ग्रह की दशा और उनके असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में योगकारी ग्रहों का फल समान होता है।14 असंबंधी-अनुभयधर्मी: नवम या दशम भाव में स्थित राहु या केतु संबंध न होने पर योगकारक ग्रह की भुक्ति में योगकारक होता है।15 असंबंधी-विरुद्धधर्मी यदि दशाधीश पाप ग्रह हो तो उसके असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा पाप फलदायक होती है। 16 यदि दशाधीश पाप ग्रह हो तो उसके असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतर्दशाएं अत्यधिक पाप फलदायक होती हैं।17 असंबंधी-उभयधर्मी: दशाधीश के विरुद्ध फलदायी अन्य ग्रहों की भुक्तियों में उनके गुणधर्मों के आधार पर दशाफल निर्धारित करना चाहिए।18 अपवाद: जिस प्रकार कोई भी सिद्धांत या वाद, चाहे वह दर्शन का हो या विज्ञान का, अपवाद से अछूता नहीं रहता, उसी प्रकार लघुपाराशरी के दशा-सिद्धांत में कुछ अपवादों का समावेश है। शास्त्र का स्वभाव है कि वह सिद्धांतों के साथ-साथ उसके अपवादों का भी प्रतिपादन करता है। शास्त्र एक अनुशासन है और इस अनुशासन की दो प्रमुख विशेषताएं होती हैं- पहली यह कि यह अनुशासन नियमों एवं आधारभूत सिद्धांतों को समन्वय के सूत्र में बांधता है तथा दूसरी यह कि यह किसी भी नियम या सिद्धांत को व्यर्थ नहीं होने देता। इसलिए सभी शास्त्रों में नियम, वाद एवं सिद्धांतों के साथ-साथ अपवाद अवश्य मिलते हैं। लघुपाराशरी के 42 श्लोकों में पहला श्लोक मंगलाचरण और दूसरा प्रस्तावना का है। 37 श्लोकों में नियम एवं सिद्धांत तथा 3 श्लोकों में अपवादों का वर्णन और विवेचन किया गया है। अपवाद उन नियमों को कहा जाता है जो किसी वाद या सिद्धांतों की सीमा में न आते हों और जो वाद या सिद्धांतों के समान तथ्यपूर्ण एवं उपयोगी हों। इसलिए अपवाद के नियम सदैव सिद्धांतों की सीमा से परे होते हैं। लघुपाराशरी में निम्नलिखित 3 अपवाद मिलते हैं, जिनका दशाफल के विचार प्रसंग में सदैव ध्यान रखना चाहिए।  मारक ग्रह स्वयं से संबंध होने पर भी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में नहीं मारता। किंतु संबंध न होने पर भी पाप ग्रह की दशा में मारता है। 19 शनि एवं शुक्र एक दूसरे की दशा में और अपनी भुक्ति में व्यत्यय से एक-दूसरे का शुभ एवं अशुभ फल विशेष रूप से देते हैं। 20  दशमेश एवं लग्नेश एक-दूसरे के भाव में स्थित हों तो राजयोग होता है और इसमें उत्पन्न व्यक्ति विख्यात एवं विजयी होता है।

वास्तुशास्त्र में जल स्थान

वास्तु शास्त्र में जिस पद पर जल के देव का या जल के सहयोगी अन्य देवों का स्थान होता है उसी स्थान पर जल का स्थान शुभ माना गया है। जल के सहयोगी देव हैं - पर्जन्य, आपः, आपवत्स, वरुण, दिति, अदिति, इंद्र, सोम, भल्लाट इत्यादि। इनके पदों पर निर्मित जलाशय शुभ फलदायक होता है। इन पदों का निर्धारण 81 या 64 पदानुसार करना चाहिए। टोडरमल ने अपने वास्तु सौख्यम नामक ग्रंथ में पूर्व में जल स्थान के निर्माण को पुत्रहानिकारक बताया है। उनके अनुसार पूर्व में इंद्र के पद पर जल का स्थान श्रेयस्कर है। पूर्व आग्नेय के मध्य में शुभ नहीं है। अग्नि कोण में यदि जल की स्थापना की जाए तो वह अग्नि भय को देने वाला होगा। दक्षिण में यदि जलाशय हो तो शत्रु भय कारक होता है। नैर्ऋत्य में स्त्री विवाद को उत्पन्न करता है। पश्चिम में स्त्रियों में क्रूरता बढ़ाता है। वायव्य में जलाशय गृहस्वामी को निर्धन बनाता है। उत्तर में जलाशय हो तो धन वृद्धिकारक तथा ईशान में हो तो संतानवृद्धि कारक होता है। ‘‘प्राच्यादिस्थे सलिले सुतहानिः शिरवीभयं रिपुभयं च। स्त्रीकलहः स्त्रीदैष्ट्यं नैस्वयं वित्तात्मजविवृद्धिः ।।’’ (वास्तुसौख्यम) हमारे पूर्व मुनियों ने भी जलाशय के निर्माण के लिए पूर्व और उत्तर की दिशा को शुभ माना है। टोडरमल लिखते हैं- ‘‘गृहात्प्रवासः पयसः पूर्वोत्तर गतिः शुभः। कथितो मुनिभिः पूर्वेरशुभस्त्वन्य दिग्गतः।।‘’ -वास्तु सौख्य राजा भोज के समरांगण सूत्रधार में जल की स्थापना का वर्णन इस प्रकार है। ‘‘पर्जन्य नामा यश्चायं वृष्टिमानम्बुदाधिपः’’ पर्जन्य के स्थान पर कूप का निर्माण उत्तम होता है क्योंकि पर्जन्य भी जल का ही स्वामी है। समरांगण सूत्रधार भल्लाट के पद पर भी जल का निर्माण शुभ होता है। भल्लाट से तात्पर्य यहां चंद्र से है। वेदों में चंद्र को रसाधिपति कहा गया है। रस का दूसरा नाम ही जल है। अदिति के पद पर भी स्थापना श्रेष्ठ है। यह अदिति वस्तुतः समुद्र की कन्या एवं क्षीर सागर में शयन करने वाले विष्णु की पत्नी हंै जिन्हें लक्ष्मी कहते हैं। लक्ष्मी का वर्णन कमलासना के रूप में भी मिलता है। लक्ष्मी का संबंध पूर्णरूप से जल के साथ होने से इन्हें जलप्रिया भी कहा जाता है। दिति कस्थान पर भी कूप निर्माण स्वास्थ्य लाभदायक कहा गया है क्योंकि दिति जल स्वरूप शिव का निवास स्थान है। यही कारण है कि शिव को जल अत्यधिक प्रिय है- ‘‘जलधारा प्रियः शिवः’’ दिति का वर्णन वास्तु शास्त्र में शिव के रूप में किया गया है। ‘‘दितिरत्रोच्यते शर्वः शूलभद्र वृषभध्वजः’’ आपः व आपवत्स के स्थान पर भी जलाशय की स्थापना शुभफलदायी है क्योंकि आपः हिमालय है और आपवत्स उसकी पुत्री उमा/पार्वती है। इन दोनों का ही जल के साथ प्राकृतिक संबंध है। यही कारण है कि समरांगण सूत्रधार के रचनाकार इन स्थानों पर जलाशय के निर्माण का निर्देश देते हुए कहते हैं। ‘‘आपवत्स पदे हंसक्रौंच सारसनादिताः। स्युः फुल्लाब्जवनाः स्वच्छ इंग रूम भवन का वह स्थान है जहां पारिवारिक, सामाजिक, व्यापारिक, आर्थिक क्षेत्र से जुड़े लोग आकर बैठते हैं, आपस में बातचीत करते हैं। वास्तुशास्त्र में भवन का उत्तर का क्षेत्र ड्राॅइंग रूम बनाने के लिए प्रशस्त माना गया है। उत्तर दिशा का स्वामी ग्रह बुध तथा देवता कुबेर है। बुध बाणी से संबंधित ग्रह है तथा कुबेर धन का देवता है। वाणी को प्रिय को प्रिय, मधुर एवं संतुलित बनाने में बुध हमारी सहायता करता है। वाणी यदि मीठी और संतुलित हो तो वह व्यक्ति पर प्रभाव डालती है और दो व्यक्तियों में जुड़ाव पैदा करती है। यह जुड़ाव व्यक्तियों से विचारों के आदान-प्रदान को बढ़ाता है। विचारों के आदान-प्रदान से ज्ञान का क्षेत्र बढ़ता है। ज्ञान का क्षेत्र बढ़ने से जानकारी ज्यादा होती है और कर्म क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। यदि व्यक्ति अपने कर्म क्षेत्र में सफल होता है तो उसे संतुष्टि मिलती है। वाणी का काम कम्यूनिकेशन का है। इसी कम्यूनिकेशन से संपर्क सूत्र बनते हैं और इन संकर्प सूत्रों से व्यक्ति अपने काम आसानी से कर सकता है। अतः उत्तर दिशा में ड्राॅइंग रूम बनाने से सलिलासलिलाशयाः।।’’ वरुण तो स्वयं जल के अधिपति हैं एवं उनका निवास वास्तु शास्त्र में पश्चिम में माना गया है। इसलिए इस स्थान पर भी जलाशय के निर्माण को सुखद कहा गया है। ‘‘वरुणस्य पदे कुर्याद् वापीपान गृहाणि च ।’’ -समरांगण सूत्रधार आचार्य वराहमिहिर ने अपनी वृहत्संहिता में वास्तुशास्त्र के वर्णन प्रसंग में अपने मत को रखते हुए दिशाओं के अनुसार फलों का उल्लेख किया है। अग्निकोण में जलाशय भयकारक और पुत्रनाशक होता है, नैर्ऋत्य कोण में हो तो धन का नाश होता है तथा वायव्य कोण में हो तो स्त्री की हानि होती है। इन तीनों दिशाओं को छोड़कर शेष में जलाशय शुभ है। इस प्रसंग में मुहूर्त चिंतामणिकार श्रीराम दैवज्ञ अपने ग्रंथ में नौ दिशाओं का वर्णन करते हुए लिखते हैं: कूपे वास्तोर्मघ्ये देशे अर्थनाशः स्त्वैशान्यादौ पुष्टि रैश्वर्य वृद्धि। सूनोर्नाशः स्त्री विनाशके मृतिश्च सम्पत्पीड़ा शत्रुतः स्याच्च सौख्यम्।। - -मुहूर्त चिंतामणि अर्थात वास्तु के बीचोबीच कूप बनाने से धन नाश, ईशान कोण में पुष्टि, पूर्व में ऐश्वर्य की वृद्धि, अग्निकोण में पुत्रनाश, दक्षिण दिशा में स्त्री का विनाश, नैर्ऋत्य कोण में मृत्यु, पश्चिम दिशा में संपत्ति लाभ, वायव्य कोण में शत्रु से पीड़ा, और उत्तर दिशा में कूप बनाने से सौख्य होता है। विश्वकर्मा कहते हैं कि नैऋ्र्रत्य, दक्षिण, अग्नि और वायव्य दिशा को त्यागकर शेष सभी दिशाओं में जलाशय बनाना चाहिए।

मूलांक 5 वालों का जीवन

परिचय- यदि किसी स्त्री पुरुष का किसी भी अंग्रेजी महीने की 5-14-23 तारीख को जन्म हुआ है, तो उनका जन्म तारीख मूलांक 5 होता है । जब किसी व्यक्ति को अपनी जन्म तारीख ज्ञात न हो, तो यदि नाम अक्षरों का मूल्यांकन करने के उपरन्त मूलांक 5 आता है, तो उनका मूलांक भी 5 होता है । इस अंक का अधिपति बुध ग्रह होता है तथा इन व्यक्तियों पर बुध ग्रह अथवा अंक 5 तरंग का विशेष प्रभाव होता है ।
मूलांक 5 का स्वामी ग्रह बुध है जो बुद्धि एवं ज्ञान का सूचक है । अंक 5, पाँच-ज्ञानेद्रियों का भी प्रतीक है। प्रत्येंक मनुष्य पांच तत्वों से ही निर्मित है । अत: संसार के प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि एवं ज्ञान का इस पांच अंक अथवा संख्या तक ही सीमित होना माना गया है। इससे उपर ज्ञान अथवा बुद्धि प्राप्त कर सकना मनुष्य के वश की बात नहीँ है । बुध ग्रह शीघ्र गति ग्रह है । ज्योतिर्विदों ने इसे युवराज की संज्ञा भी दी है । इसको बालग्रह बुध भी कहा जाता है। ये प्रत्येक ग्रह के साथ समय अनुसार मिल जाता है। जैसे कहा है कि ये प्रत्येक के साथ उचित समय पर संबंध बना लेता है । कारोबार तो ये अपने गोल दायरे मेँ सभी को बान्ध लेता है । इसकी फांस लेने की शक्ति अथाह है । यदि चाहे तो शुभ ग्रह के साथ मिलकर व्यक्ति को तरक्की के शिखर पर खडा कर देता है, परन्तु यदि उलटी गिनती प्रारम्भ कर दे तो मिट्टी में मिला देता है । बुध ग्रह के सूचक अंक 5 का भी यही प्रभाव होता है । पांच का अंक 9 मूल अंकों के मध्य में आता है।
स्वभाव एव व्यवितत्व-मूलांक 5 वाले व्यक्तियों की दृष्टि व्यापारियों जैसी होती है तथा वे बातें भी व्यापारियों जैसी ही करते है । ये बैठे हुए भी अपने किसी न किसी अंग को काम में लगाए रहते है तथा ये छोटे-छोटे डग भरते हैं । परन्तु चलते जल्दी-जल्दी है । अत: ये तुरन्त पहचाने जा सकते है । मूलांक 5 वाले व्यक्ति फुर्तीले,जल्दबाज,मिलनसार, बुद्धिमान, अधिक मित्रों वाले तथा स्वभाव के होते हैं । ये बड़े ज्ञानी एवं चतुर होते है। ये बचपन से बुढापे तक चतुर एवं होशियार रहते हैं: इनकी दिमागी शचिंत अति उत्तम होती है परन्तु इनके विचार परिवर्तनशील होते है । यहाँ तक कि घर में पडी व जो तथा सेवा, नौकरी एवं व्यापार में भी परिवर्तन करते रहते है। अपने विचार शीघ्र बदल लेते है तथा इनकी विचारधारा अधिक धनोपार्जन पर केन्द्रित रहती है । अत: आदर्श उनके लिए द्वितीया स्तर का होता है । मूलांक पांच वाले कई भाषाओं के ज्ञात एव बुद्धिजीवी होते है । ये धन बहुत कमाते हैं तथा धार्मिक कार्यों पर ही व्यय करते है। इनकी अपने गुरू एवं धर्म में घ्रगाढ़ आस्था होती है। इनमें विवेचना करने और जांच पड़ताल करने की उत्तम शक्ति होती है । ये निपुण गणितज्ञ होते है तथा मिनटों में सारा हिसाब-किताब लगा देते है अथवा ठीक कर देते है ।इनका बाहरी और भीतरी व्यक्तित्व इतना अलग सा होता है कि लोग आमतौर पर धोखा खा जाते है। ऐसे व्यक्तित्व के कारण लोग इनसे सम्बन्ध बनाने को बडे आतुर रहते हैं । परन्तु इनका सही अनुमान लगाने में प्राय: धोखा खा जाते है । इनकी सूझ-बूंझ उत्तम होती है तथा ये तथा ये तर्क-बुद्धि के स्वामी होते है।शारीरिक श्रम की अपेक्षा, मुलांक 5 वाले व्यक्ति मानसिक श्रम अधिक करते है। ये बिलकुल -तर्क बुद्धि नवीन विचार और उत्तम सूझ-बूझ के स्वामी होते हैं । ये साहसी तथा आत्म विश्वासी होते हैं । वे स्वयं कम ही झुकते हैं, परन्तु सामने वाले को झुकाने की पूर्ण शक्ति रखते हैं । यदि कोई इनको ललकारे अथवा चुनौती दे तो ये सहन नहीँ करते तथा तुरन्त उचित उत्तर देते हैं । इनका स्वभाव चिन्तनसील होता है । तथा ये हर समय क्रुछ-न-कुछ सोचते रहते हैं । किसी बात अथवा समस्या पर तुरन्त निर्णाय लेना इनकी विशेषता होती है।मूलांक पांच वाले व्यक्ति जल्दबाज, तथा प्रत्येक कार्य को फुर्ती से निपटाने के इच्छुक होते हैं । ये अधिकतर किसी बात अथवा पर देर तक शंका या चिंता अथवा पश्चाताप नहीं करते एवं शीघ्र ही भूल जाते है । 5 मूलांक वाले व्यक्ति किसी व्यक्ति की बुराई अथवा किसी व्यक्ति द्धारा दी गई किसी प्रकार की चोट को भी भूल जाते से तथा क्षमा भी कर देते है। क्योंकि ये सुक्ष्म बुद्धि के स्वामी होते है । अथ: ये जल्दी बिगड़ भी जाते हैं,परन्तु यदि धन या इनके लाभ की बात प्रारंभ हो जाए, ये तुरन्त शांत हो जाते है तथा उस व्यक्ति के साथ बड़ा भद्र व्यवहार करते हैं अत: मूलांक 5 वालों का भौतिक इच्छाओं के प्रति विशेष झुकाव होता है । .
विद्या-जिन व्यक्तियों का मूलांक 5 होता है व कई भाषाओं के ज्ञाता होते है। वे बुद्धिमान होते है अत: अचछी विद्या प्राप्त करते हैँ। यदि किसी कारण इनकी विद्या कम भी हो तो फिर भी ये बुद्धिमान एवं चतुर ही कहलाते है। विज्ञान, गणित, मनोविज्ञान तथा फिलासफी मुख्य विषय होते है। मूलांक 5 वाले धार्मिक ग्रंथों तथा गुप्त विद्या का अध्ययन भी करते है। ये तर्क बुद्धि बिलक्षता सूझ-बूझ के धनी होते है।
यात्रा- मूलांक 5 वाले यात्राएं बहुत करते हैं । अधिकांश यात्राएं व्यवसाय से संबंधित होती हैं देश-विदेश में ये बहुत घूमते से । विदेश की भी इन्हें यात्रा करनी पड़ती है । यात्रा करने पर इन्हें अत्यन्त अधिक लाभ होता है। जितनी अधिक यात्राएं करेगे उतना ही अधिक लाभ पाएंगे । घूमना-फिरना इनको सफलता प्रदान करता है ।
स्वास्थ्य-मूलांक पांच वाले व्यक्ति दिमागी शक्ति का अधिक प्रयोग करते हैँ। अत: इसी कारण ही इन्हें समस्त रोग लगते है। रोग कोई भी हो उसका कारण दिमागी शक्ति का अधिक उपयोग भी होता है । अधिकतर तंतु प्रणाली और त्वचा प्रभावित होती है। मूलांक 5 वालों को मिरगी, दिमाग-बुझ रोग, चितभ्रम, वाणी दोष, सिर चकराना, सिरदर्द, स्मरण शवित्त नष्ट होना, छोटी-छोटी बातें भूल जाना, स्पर्शशक्ति का हीन होना, घाव व नजला जुकाम जुकाम हो जाना, आँखों की दृष्टि कमजोर हो जाना आदि विकार हो जाते है । अनिद्र लकवा, कन्धों, हाथों तथा भुजाओं में दर्द अथवा पीडा की समस्या भी हो जाती है । मानसिक तनाव तथा बदहजमी तो आम हो जाती है।
आर्थक स्थिति- मूलांक 5 वालों का उद्देश्य सांसारिक सुखों की प्राप्ति तथा भोग साधन जुटाने का होता है । अत: इनके लिए धन अति महत्वपूर्ण होता है। इनके आय के साधन भी प्राय: अधिक होते है। ये अपनी बुद्धि से धनी बनते हैं और धनवान कहलाते है । इनकी आर्थिक स्थिति उतम होती है । ये कईं बार शीघ्र लाभ देने, व्यापार, सदृटा, लाटरी की ओर आकर्षित होकर अपनी उत्तम आर्थिक स्थिति को खराब भी कर लेते है । सामान्य इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी ही रहती है|
व्यवसाय एवं कार्य रूचि-मूलांक 5 वाले बुद्धि जीवी होते है तथा ये दिमागी कार्यों को करके आसानी से आजिविका कमा लेते है शरीरिक श्रम की अपेक्षा ये मानसिक श्रम अधिक करते हैं । एक के बाद एक आजीविका का साधन बदलते रहतें हैं, बुध ग्रह व्यापार का कारक है । अत: मूलांक 5 वाले व्यक्ति इसी प्रभाव के कारण मिट्टी से भी धन अजित कर लेते है। जहाँ भी बुद्धि' एवं गणित का साथ सो, वहाँ ये अवश्य सफल होते हैं । मूलांक 5 वाले व्यक्ति जज, क्लर्क निरीक्षक, स्टैनों, एकाउटैंट, आडिटर, लेखक, वहभाषी तथा पोस्टल विभाग में सफल रहते है । रेल अधिकारी, पब्लिक रिलेशन अधिकारी, जन सम्पर्क विभाग, गिक्षाविद,स्पोर्टस, एजेन्ट, टूरिजम, अध्यापक, सम्पादक, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, पत्रकारिता, वर्कशाप, चालक, आटोमोबाइल पार्टसृ, वकील, मैनेजर, प्रबन्धक, डाक्टर, मनोवैज्ञानिक आदि सफल रहते हैं।
Pt.P.S.Tripathi
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श्री शनि अर्चना

प्रतिदिन मंदिर जाना तथा देव विग्रहों का दर्शन करना धर्म में प्रवेश का सबसे सुगम और बहुप्रचलित मार्ग है । जो लोग प्रतिदिन मंदिर जाते हैं, उनकी रुचि दिन-प्रतिदिन धार्मिक कार्यों में बढती जाती है । इस प्रकार के अधिकांश भक्त कुछ समय बाद घर में ही देव विग्रह स्थापित करके उसकी पूजा-आराधना करने लगते हैं । प्रारंभ में वे सामान्य रूप से पूजा करते हैं । फिर शनै:-शनै: पूजा-आराधना में लगने वाला उनका समय बढ़ता जाता है । अब भक्त पूजा करते समय देव विग्रह अथवा चित्र को विभिन्न वस्तुएं अर्पित करते हैं और उन सेवाओं से संबंधित मंत्रों का स्तवन भी करते हैं । उनकी यह पूजा षोडशोपचार आराधना कहलाती है । अधिकांश व्यक्ति जीवन भर इसी प्रकार आराधना करते रहते हैं । परंतु सच्चे ह्रदय से पूजा-आराधना करने वाले व्यक्तियों के जब ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं तो । उन्हें संसार की प्रत्येक वस्तु में अपने आराध्यदेव के अंश रूप में दर्शन होने लगते हैं। वे हर समय न केवल अपने आराध्यदेव को अपने निकट महसूस करते हैं, अपितु भावलोक में उनके दर्शन भी करने लगते हैं । ,ऐसे में भक्त को पूजा करते समय न तो किसी वस्तु की आवश्यकता रहती है और न ही अपने आराध्यदेव के विग्रह की । इस प्रकार की आराधना को मानसिक उपासना कहा जाता है । वास्तव में यहीं है- भक्ति का चरम रूप । वैदिक काल में लगभग सभी व्यक्ति मानसिक उपासना करते थे और आप भी यह मानसिक उपासना करेंगे । परंतु जिस प्रकार विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के पूर्व परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी पड़ती हैं, ठीक उसी प्रकार मानसिक उपासना की मंजिल पर पहुंचने के लिए प्रारंभ सामान्य (पंचोपचार) पूजा से ही करना होगा ।
पंचोपचार पूजा
प्रत्येक शनिवार को शनिदेव के निमित्त सरसों के तेल और कुछ पैसों का दान लगभग सभी व्यक्ति करते हैं तथा ग्रह-पीड़ा निवारण हेतु शनिवार का व्रत भी अधिकांश पीडित व्यक्तियों ट्ठारा किया जाता है । परंतु इस प्रकार का दान और व्रत करते समय अधिकांश व्यक्तियों के हदय में शनिदेव के प्रति भय का भाव होता है । वे शनिदेव को अपने निकट बुलाने के स्थान पर उनसे दूर रहने की प्रार्थना करते हैं ।यहीं करण है कि लौकिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण, ज्योतिष के दृष्टिकोण से अत्यंत प्रभावशाली और ज्यादातर व्यक्तियों द्वारा किए जाने के बावजूद ये दोनों कार्य वास्तव में शनिदेव की पूजा नहीं, बल्कि उनकी क्रूर दृष्टि से बचने के लिए किए जाने वाले प्रयास मात्र हैं । यहीं एक अंतर और भी है । अन्य देवों की आराधना में व्यक्ति मंदिर में जाकर देव दर्शन करते हैं, परंतु शनिदेव के मंदिर अधिक नहीं हैं । इसलिए शनिदेव की आराधना का प्रथम चरण घर में उनका विग्रह अथवा चित्र रखकर उनको पूजा करना ।इसके अलावा शनिभक्त पीपल के पेड़ की जड़ के निकट चबूतरे पर शनिदेव की पूर्ति रखकर पूजा- आराधना प्रारंभ कर देते है | वे घर में शनिदेव का चित्र, लोहे की छोटी मूर्ति अथवा टिन की चादर को कटवाकर शनिदेव को पुरुषाकार आकृति बनवाकर भी उनकी पुजा आराधना करते हैं । शनिदेव की टिन अथवा लोहे की "मूर्ति के संपूर्ण शरीर पर सरसों के तेल में काजल घोलकर चढाया जाता है । जिस प्रकार हनुमानजी के संपूर्ण शरीर पर चोला चढाया जाता है, ठीक उसी प्रकार शनिदेव के संपूर्ण शरीर पर यह काला चोला चढाया जाता है ।
यहीं विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि हनुमानजी पर देशी घी में सिंदूर घोलकर चोले के रूप में चढ़ाया जाता है, जबकि शनिदेव के विग्रह पर सरसों के तेल में काजल घोलकर चढाएं । कुछ व्यक्ति टिन की चादर को पुरुषाकार रूप में कटवाने के बाद किसी पेंटर से काले रंग में पेंट कराकर और सफेद रंग से उस पर " मुंह, आँख, नाक एवं कान आदि बनवा लेते हैं । आप शनिदेव का कागज पर छपा चित्र तस्वीर के रूप में मढ़वाकर पूजा कों अथवा कोई पूर्ति रखकर-उसके आकार व सजावट से कोई अंतर नहीं पड़ता । परम कृपालु शनिदेव तो भक्त के भावों को देखते हैं । मूर्ति और उपादानों की भव्यता, मात्रा तथा मूल्य से पूजा आराधना द्वारा प्राप्त होने वाले फलों पर कोई अंतर नहीं पड़ता ।घर में शनिदेव का चित्र अथवा विग्रह रखकर की जाने वाली सामान्य पूजा को पंचोपचार पूजा कहा जाता है । इस पूजा में विग्रह अथवा चित्र को मात्र पांच वस्तुएं अर्पित की जाती हैं । शनिदेव की मूर्ति अथवा चित्र के निकट भूमि पर स्नान समर्पण के रूप में कुछ बूंदें जल चढ़ाने के बाद चंदन अथवा सिंदूर का तिलक लगाते हैं । इसके पश्चात शनिदेव को पुष्प माला और पुष्प अर्पित किए जाते हैं तथा धूप-दीप जलाकर आरती उतारते हैं | आरती से पहले नैवेद्य भी अर्पित किया जाता है। आरती के बाद इस नैवेद्य को प्रसाद के रूप में भक्तो में बांट दिया जाता है| शनिदेव क्रो प्राय: गुड़ और भुने हुए चनों अथवा बताशों का नैवेद्य अर्पित किया जाता है । अन्य देवों के विपरीत लोहे के दीपक में सरसों का तेल भरकर शनिदेव के सम्मुख दीप जलाया जाता है और आरती भी इसी दीप से उतारी जाती है|
दशोपचार पूजा
कुछ समय पंचोपचार पूजा करने के पश्चात अधिकांश भक्त शनिदेव की दशोपचार पूजा प्रारंभ कर देते हैं । दशोपचार पूजा करते समय स्नान के लिए जल समर्पित करने से पूर्व पर जल की कुछ बूंदें टपकाकर शनिदेव के पैर पखारने, अधर्य प्रदान करने और आचमन हेतु जल प्रदान करने के कार्य भी किए जाते हैं । इस प्रकार चार बार जल की कुछ बूंदें मूर्ति अथवा चित्र के निकट टपकाई जाती हैं । स्नान के पश्चात शनिदेव को वस्त्र के रूप में काले धागे अथवा कलावे का एक टुकडा अर्पित किया जाता है । इसके बाद पुष्पमाला अर्पण, धुप-दीप जलाने, भोग लगाने और आरती के सभी कार्य पंचोपचार पूजा के समान ही किए जाते हैं । अधिकांश भक्त दशोपचार पूजा के हस स्तर तक पहुंचकर वस्तुएं अर्पित करते समय उनसे संबंधित मंत्रों का स्तवन भी करते हैं । इन प्रक्रियाओं में भी उन्हीं मंत्रों का स्तवन किया जाता है जिनका स्तवन षोडशोपचार आराधना और मानसिक उपासना करते समय किया जाता है ।
षोडशोपचार आराधना
मंदिरों में पुजारी दोनों समय देव विग्रहों की षोडशोपचार आराधना करते हैं । घर पर मूर्ति अथवा चित्र रखकर पूजा करने वाले अधिकांश व्यक्ति भी प्राय: जीवन भर इसी प्रकार पूजा करते रहते हैं और इसी को भक्ति की अंतिम मंजिल मानते है । लेकिन मूर्ति पूजा की पराकाष्ठा होते हुए भी मानसिक उपासना का मात्र पूर्वाभ्यास है-समर्पण के मंत्रों का स्तवन करते हुए पूर्ण विधि-विधान के साथ की जाने वाली यह षोडशोपचार आराधना । इस आराधना में उपास्य देव का आह्वाहन करने के बाद आसन समर्पण से लेकर प्रदक्षिणा तक सोलह वस्तुएं अर्पित की जाती हैं । इसके अलावा आराध्यदेव के ध्यान से पहले कुछ अन्य कृत्य और गणेशजी का पूजन किया जाता है । यद्यपि पंचोपचार और दशोपचार पूजा के समान षोडशोपचार आराधना में शनिदेव की मूर्ति एवं सभी लौकिक उपादानों का उपयोग किया जाता है, सीधे ही विग्रह की पूजा प्रारंभ नहीं की जाती । सभी धार्मिक कार्यों में अनिवार्यतः किए जाने वाले स्वस्तिवाचन, भ्रूतशुद्धि, शांतिपाठ और गणेशजी के ध्यान-पूजन के बाद शनिदेव का ध्यान किया जाता है । जब भावलोक में हम उन्हें अपने निकट महसूस करने लगते हैं, तब आह्वान और आसन-समर्पण के मंत्रों का स्तवन किया जाता है ।
शनिदेव से सिंहासन पर बैठने की प्रार्थना करने के बाद पद्य समर्पण से आरती तक के सभी दस कार्य तो किए ही जाते हैं, कुछ अन्य सेवाएं भी अर्पित की जाती हैं । धुप, दीप और नैवेद्य समर्पण के पश्चात ताम्बुल एबं पुन्गिफुल के साथ दक्षिणा भी समर्पित की जाती है । आरती के बाद प्रदक्षिणा और क्षमा याचना भी की जाती है । पूजा के अंत में कुछ भक्त शनिदेव के चालीसों, भजनों, विनतियों और आरतियों का गायन करते हैं, जबकि अधिकांश आराधक शनैशचर सहस्त्रनाम अथवा शनि अष्टोतर शतनाम का पाठ और उनके किसी मंत्र का जप करते हैं । आराधना के मुख्य भाग के सोलह संस्कारों का क्रम इस प्रकार है- ध्यान एवं आह्वान, आसन, पद्य, अर्थ, आचमन, स्नान अर्थात् अभिषेक, वस्त्र, श्रृंगग्रर की वस्तुएं एवं आभूषण, गन्ध-चंदन, केशर, कुंकुंमादि एवं अक्षत, पुष्प समर्पणा, अंग पूजा एवं अर्चना, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, दक्षिणा, नीरांज़न, जल-आरती आदि, प्रदक्षिणा तथा पुष्पांजलि, नमस्कार, स्तुति, राजोपचार, जप, क्षमापन, विशेषार्व्य और समर्पण ।

Pt.P.S.Tripathi
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Friday 16 October 2015

Mounted curves of planets in hand

The mount of Jupiter is situated at the base of the index finger. Being prominent, the mount demonstrates that the subject will have the desire to dominate others to organize and lead. When the head line is long, the above qualities are applicable. If mount of Jupiter is badly formed, weak and large it gives pride. A single vertical line on it leads to success and is very favourable. If two lines are marked, there excessive ambition confuses the purpose and hence the native is unsuccessful. The sign of cross on the mount of jupiter is auspicious. It indicates fortune and happy married life. A line in a crescent curve gives excellent learning particularly in occultism.
On the base of the middle finger, the mount of Saturn is found. Seclusion from society, prudence, interest in the study of occultism and faith in the destiny and fatalism are the characteristics of the mount of Saturn. Frivolous ways and carelessness in life are indicated to some extent if this mount is leaning towards mount of Jupiter. A vertical line on it, not touching the line of heart indicates great luck. Two parallel vertical lines indicate success late and a laborious life. A number of vertical lines give ill luck. A black mole shows evil possibilities and adverse effects, which can be traced on the line of head and heart. A clear mark of cross shows tendency to make evil use of occult sciences, extreme possibilities of accidents. A star leads to paralysis or incurable diseases. If it is very strongly marked in both hands and with other signs, death penalty is indicated.
The study of the mount of Sun is also very important for prediction. The mount of Sun is situated at the base of ring finger. The human desire to earn name and fame, publicity is indicated by the mount of Sun when it is developed prominently. If the mount of Sun is large the temperament of the person is expansive and generally such people live a luxurious life and are generous in their nature. Being an effective planet the Sun is more powerful than others. Like the mount of Sun, line of Sun also indicates success, brilliance and fate etc., therefore the line of the Sun is called the line of success. The result of line of Sun depends on the category of the hand on which, this line is situated. If other lines are equally strong in the hand, the line of Sun gives success and demonstrates the superior fate of the subject along with distinguished leadership. If there are many lines on the mount of Sun, artistic and scientific instincts are indicated. If there is a deep and straight vertical line wealth or fame or both are achieved. One line gives success in career only.
The Mount of Mercury is situated on the base of little finger. On a good hand this mount administers thoughts, quickness of brain and relation of subject with commerce and science, but on a bad hand nervousness, mental excitability and lack of understanding etc. are bestowed. If there is a well marked and long line of head, the mount of Mercury denotes the success and mental power. The weak and bad aspects in life are indicated if the line of head is weak and irregular. A single vertical line on this mount indicates unexpected gains. If it is very deep, the native has good scientific attitude. More than three parallel lines show an aptitude for medical or chemical studies.
The same lines in a woman's hands show that the subject will be attached to and often marry a medical/chemistry man, she will prove an excellent nurse. On the same mount many mixed lines indicate shrewdness or scientific attitude dangerously directed. Many mixed lines near the line of heart give desired generosity in the spending of money. Many short vertical lines in a woman’s hand indicate chattering habits.
There are two positions pertaining to the mount of Mars; the first related with the physical characteristics is on the upper part of head line and next indicating the mental characteristics is situated between the line of Head and the line of Heart and opposite to the first position. A vertical single line on this mount shows courage. Several lines show rather confused and violent temperament, brutality in love, a very bad omen for the general success of the subject. The bronchitis and diseases of the larynx are possible. Horizontal lines indicate the attack by enemies; for each line an enemy; their length and depth indicate their power.
On the base of the hands where the line of head ends, the mount of Luna or Moon may be found. The mount of Moon is related with faculties of imaginative nature, therefore the mount of Moon indicates poetry, romance, emotional temperament, travel etc. If it is flat on the hand, the mount of Moon becomes negative in the sphere of love, duty and social life. The persons having well marked mount of luna have strong and decided views. A single vertical line on it indicates evil. A line going downwards on the mount with a short line crossing it indicates tendency of chronic rheumatism or gout. Many confused lines on the mount point towards insomnia or nightmares. Horizontal lines starting from the percussion - voyages, if crossed by each other or broken or islanded unpleasant or dangerous voyages may result.
The mount of Venus is found on the base of the thumb and the inner portion of the life line. Companionship and the desire of love along with the leaning towards beauty etc. are denoted by well formed mount of Venus when it is not too large. Being high or large, the mount of Venus becomes positive and in the case of being small or flat it is treated as negative. Well developed mount indicates good health and small mount shows bad health and less passion. In the case of normal hand, well shaped mount denotes attraction towards opposite sex.
Strong and deep horizontal lines from second phalanx of the thumb to the line of life indicate overpowering influence of the opposite sex upon a portion of the subject’s life. If any of these lines are islanded- the love affair in question will have been of a guilty nature. A black mole in this mount shows venereal disease.
Prediction in accordance with the mounts of planets with reference to the lines is affected when there is inclination of the mounts towards one another . In this situation mixed results are indicated by the leaning mounts. On account of inclination of Sun towards Mercury, the business will be influenced by arts, similarly in other instances of inclination of mounts, this principle should be adopted that the qualities of a mount are blended with the mount of the planet bent towards it or vice versa.

Radix no. and health diseases

Astro-numerology can tell about the good and bad times of future, present and past. If we think with subtle intuition, we know that everything is being done and guided by some external force and we are bound to do it. Numerology, which is a part of astrology is the science that describes the influence of the heavenly bodies upon mundane affairs and upon man and life. Numerology can only indicate what is likely to happen but astrologically we can know the kind of the happening.
Number 1 :
Number 1 belongs to Sun. The persons born on 1, 10, 19, 28 are mainly ruled by Sun. Sun governs the back, heart, arteries, head, liver, stomach and retentive faculties. Illness related to these are high blood pressure, palpitation and heart attack. These people have great vitality of life. That is why they do not feel the work load. They spoil their inner vitality with too much zeal. Intoxicants (wine or cigarette) and medicine addiction should be avoided by them, otherwise they may suffer due to liver, kidney and lungs problems. They are fond of food which produces high calories and take intoxicating drinks, which is not good for them. They need rest and sleep. They should avoid cool places and be careful about eyes and throat problems. They should take honey, dry fruits, orange, apple, clove, ginger, barley, kesar, ashtvarg, ashwagandha and nutmegs. These are extremely beneficial for them. October, December and January are not good months for them. They have to be cautious in the 10th, 19th, 28th, 37th and 55th years when there may be changes in there lives. They should avoid rigidity and dictatorial nature.
Number 2 :
This number is governed by Moon. Those who are born on 2, 11, 20 and 29 are ruled by Moon. The diseases of Moon are consumption, rheumatism, vertigo, colic, palsy, apoplexy, smallpox, dropsy, piles, tumour, cough and cold, eye disease and toothache. Living style and atmosphere have extreme effects on such persons. Seasonal fruits, cabbage, cucumber, carrot, radish and linseed are extremely beneficial for them. They should avoid cool, dark and dirty places. January, February and July are the harmful months. 1st, 4th, 10th, 11th, 20th, 25th, 29th, 43rd, 47th, 52nd, 66th, are years of life which need caution and care.
Number 3 :
The natives who are born on 3, 12, 21 and 30 have number 3 and are governed by Jupiter. It is considered a hot, sanguine, airy, beneficial, masculine and social planet. Jupiter governs the liver, lungs, veins and all the viscera. Those persons who are influenced by Jupiter should avoid ego and be guided by self intuition which is found in them in plenty. Skin diseases, joint pain, gastritis, cough, diabetes, paralysis and heart failure may happen to them. They should avoid fatty meals. Apple, grapes, pomegranate, pineapple, almonds, mint, cherry and cloves etc. are beneficial for them. February, June, September and December months and, 3, 12, 21,30, 39, 48, 57 and 65 are eventful years for them. They should work independently. The interference causes mental tension to them.
Number 4 :
Number 4 is associated with Rahu and governs the numbers 4, 13, 22 and 31. This is a shadow planet and is known for ups and downs and also wonderful deeds. The people governed by 4 are happy, they don't feel it, otherwise they are always worried about the diseases. They do not appear to be healthy, but the inner vitality keeps them going. They do not die even after major accidents or massive blows. Cold, influenza, lung problem, piles, constipation, tumour, anaemia, urinary and kidney trouble especially hit them. To avoid these problems, they should remain peaceful, intoxicants and spicy fatty foods should be avoided. Electro treatment is beneficial for them.Taking precautions may save them from nervous strains and unnecessary disappointments. Green vegetables and vegetarian foods are beneficial for them. January, February, July, August and September are not good months for them. 4, 13, 22, 31, 40, 49 and 58 years are eventful.
Number 5:
One who is born on 5, 14, 23 is influenced by number 5, whose ruling planet is Mercury. Mercury governs speech, memory, nostrils, hands and the nerve system. Sleeplessness, diabetes, depression, stammering, apoplexy, dumbness, tumour in the nose or head, nervousness, cough, hoarseness, gout in hands and feet and vertigo are the main diseases that may affect these people. The timely meals, sleep and rest is essential for them. Carrot, radish, coconut, ajwain, mint, green vegetables, pulses, trifala and barley have capacity to keep them healthy. June, September and December are not good months for them. 14th, 23rd, 41st and 50th years may give changes. They should be careful during these years.
Number 6 :
Numbers 6, 15 and 24 are ruled by Venus. Those who are born on these dates are the stars of destiny. They easily come in the grip of diseases related to lung, throat, nose and head. They should guard themselves against heart trouble. The luxurious life, loving attitude for artistic and beautiful things, journey and inclination towards females can cause severe diseases related to urinary system. If they keep control over themselves they can avoid dropsy, cancer and diseases related to infections. Green vegetables, cucumber, apple, pomegranate, almonds, salad and rice are beneficial for them. They should avoid non-vegetarian food. 6th, 15th, 24th, 33rd, 42nd, 51st and 60th are the eventful years for them. May, October and November are not good months.
Number 7 :
A person born on dates 7th, 16th or 25th has association with number 7 and is ruled by Ketu. This number stands for subconscious and magical will. Too many friendships, ill temper, vociferousness and mental tension will cause many diseases in the natives. They can be easily affected by the atmosphere of their dwelling place. Bronchitis, cough and cold, nasal congestion, bad eye sight, tonsillitis, psycho-hysteria, lung problems, skin and chronic diseases can affect them easily. They should avoid intoxicants and carbon-dioxide producing things. Sleep, fresh air and water, simple food, fruit juice, apple, grapes, cucumber, cabbage, chiku and linseed are good for them. January, February, July and August are not good for them. 16th, 25th, 34th, 43rd, 52nd and 61st years are eventful for them.
Number 8 :
Those persons who are born on dates governed 8th, 17th, 26th are ruled by Saturn. The native by Saturn is always self made, economical and thrifty. They are infected by many chronic diseases like epilepsy, toothache, jaundice, deafness, leprosy, dropsy, diptheria, glandular swelling on neck, blood infections, joint pains, constipation, paralysis and anaemia. They should avoid intoxicants. Early rising, exercises and breathing fresh air are essential for them. December, January, February and July are the months of trouble for them. 8th, 17th, 26th, 35th, 44th, 53rd and 62nd are eventful years.
Number 9 :
Those people who are born on 9th, 18th and 27th are ruled by Mars. They are extremely sensitive. Mars is connected with the head, face, kidneys, knees, groin, bladder, organs of reproduction, heart throb and circulation. The diseases of this planet are of the inflammatory kind like tumors, small pox, measles, headache, fevers of all kinds, sexual diseases and high blood pressure. Accidents and blood shedding is the part of their life. They should avoid impulsiveness, mental anxiety and Hippocratism. Garlic, onion, ginger, green chillies and coconut water are extremely beneficial for them. April, May, October, November are the months to be careful. 9th, 18th, 27th, 36th, 45th and 63rd are the years of events.

Diseases known by plamistry

God has gifted mankind with several methods for knowing the future. The scholars in ancient India has given them form of Shastra (treatise) For example astrology, numerology, omen book, swarodaya (analysis of breath), Ramala shastra, vastu shastra, horary (prashna shastra), electional astrology etc. and one of these is Palmistry (samudrik shastra). Palmistry is an integral part of samudrik shastra only. In samudrik shastra we talk about whole body of human being and we predict about the future of native with an interpretation of his personality and behaviour whereas in Palmistry the basis of prediction is only the lines of palm. It is established that our palm contains sensitive points to control our whole body. The science of acupressure is also based on the same fact only in which the concept goes to cure various body parts with the application of pressure on these points. The left part of our brain regulates our right hand whereas left hand is controlled by right part of brain. Medical science proclaims that left part controls our speech, writing skills and scientific calculation whereas right part controls our musical and artistic abilities and for this reason only man-(symbol of science) is advised to wear stones in right hand for controlling left part of brain and similarly woman - (the symbol of art) is recommended to wear stones in left hand for controlling right side of brain. In astrology the natal chart is cast for the time against the first cry (first breath) made by the new born infant. Similarly in hoary astrology the horoscope is cast for the time of emergence of question in the mind of the querist. In the study of omen (Shakun shastra) & Swara Vigyan the omen and Swara is analyzed before initiating any task. But in palmistry the lines are there in the hand of infant even before he takes birth. It means that God has written the fate of native before his birth. Here question arises that when does He write it? According to medical science the major lines appear in the hand of child in his 3rd month in pregnancy. The minute lines (micro prints or finger prints) get developed with the completion of 6 months. According to medical science the detailed knowledge of lines of hand are embedded in 21st chromosome and hence palm lines develop completely on the basis of our hereditary system. Therefore, the destiny is written on that day itself when fusion of sperms and ova take place. The remaining time gets spent in making it completely visible. On the basis of this knowledge only our Rishis had generated a system of designing a Muhurat for conceiving for a healthy and intelligent child. In this Muhurat the healthy sperms fuse with healthy ova for the birth of a healthy baby. According to the research of medical science some kind of disorder in 21st chromosome results into the mental abnormalities in children so also their life line and mind line gets converted into one. According to medical science it is believed that mind line and lifeline get converted into one when there is some tension in the mind of mother before conception. This proves that time of conception and state of mind of parents and situation at that time can bring changes in the lines of palm. This is true because hereditary facts create lines. Therefore the proper nourishing during pregnancy can change the health and destiny of native. In palmistry specific area on the palm is connected to a specific area of brain and a planet. For example the area below index finger is known as mount of Jupiter because it is connected to the knowledge area of brain. The area below middle finger is known as Saturn’s area as it is associated with the action area of our mind. Little finger is associated with the scientific calculation therefore the area below it is that of mount of Mercury. Ring finger is associated with two nerves whereas all other fingers are associated with one single nerve. The maximum area of brain is regulated by it. Therefore, this finger is most important and that is why it is known as finger of Sun. It is this importance of ring finger because of which majority of stones are worn in this finger only and that is why it is known as ring finger. In addition to that all other important works are done through this finger only like recitation of a mantra on rosary, putting mark on forehead (tilak) and other worshipping ceremonies. Various lines have been given importance on the basis of their impact. The heart line represents the mentality of a person whereas mind line denotes the ability to think and to take decisions. Life line represents health and destiny line indicates the destiny which results from the harmony between the thoughts and actions of man. In nut shell palm is a mirror of our nature, health and future. Knowledge of palmistry can help us know all this in detail.

मूलांक 4 वालों का जीवन

परिचय-यदि किसी स्त्री पुरूष का किसी भी अंग्रेजी महीने की 4-13-22-31 तारीख को जन्म हुआ है, तो उनका जाम तारीख मूलांक 4 होता है । जब किसी को अपनी जन्म तारीख ज्ञात न हो, तो यदि नाम अक्षरों का मूल्यांकन करने के उपरान्त मूलांक 4 जाता है, तो इनका मूलांक भी चार होता है । इस अंक का स्वामी राहु माना जाता है । अत: जिन स्त्री पुरूषों का मूलांक चार होता है, इनके समूचे जीवन को चार अंक तरंग प्रभावित करती हैं ।विद्धनों का मत है कि अंक चार का अधिपति युरेनश अथवा हर्बल ग्रह है । इस ग्रह को सूर्य की प्रदाक्षिता करने से लगभग 8,4,3 वर्ष लगते है । यह ग्रह शनि से भी अली है। अत: यह एक राशि में 7 वर्ष रहता है । परन्तु भारतीय बहुमत राहु को अंक चार का अधिपति मानते है । ये दोनों ग्रह आकस्मिक घटनाओ तथा नईं राहें बनाने के प्रतीक है । जिन स्त्री, पुरूषों पर इनका विशेष प्रभाव होता है, इनकी चित-वृति चंचल हुआ करती है।
स्वभाव एवं व्यक्तित्व-मूलांक चार वाले व्यक्ति साहसी,व्यवहार-कुशल और चकित कर देने वाली घटनाएं करने में निपुण होते है । ये घमण्डी, अंहकारी, हठी तथा उपद्रवी भी होते हैं । वे घर,बाहर तथा राजनीति आदि हर प्रकार की जानकारी रखते है। ये मनमौजी होते है । यदि इनके मन पर किसी तरह का दुष्प्रभाव पड़ जाए तो फिर धीरे-धीरे ठीक होता है।
पश्चिम ये बहुत करते है परन्तु इनके पल्ले कम ही पड़ता है । इनका जीवन अँधेरे का जीवन नहीं होता । ये बेशक कितना भी छुपे रहे, फिर भी लोग अथवा जनता इन्हें बाहर ले ही आती है । मूलांक चार वाले सभा-सोसाइटी में मुख्य भूमिका निभाते है। ऐसी संस्थाओ से इनका पूर्ण योगदान होता है। ये भरोसे, आश्वासनों एवं भाषणों आदि में कम विश्वास रखते हैं, बरन् कामों को कार्यक्रम देना अधिक पसन्द करते है । भाषण नहीं, ये राशन के पक्ष में होते है। मूलांक चार वाले व्यक्ति आलस, आराम व चाय का नहीं बल्कि काम का साथ देते हैं । इनकों काम करने वाले व्यक्ति पसन्द होते है । ये आलसी व्यक्तियों को पसन्द नहीं करते। यह स्वयं काम करते है और अन्य को भी काम करते रहना देखना चाहते है। अपने इस स्वभाव के कारण, उद्योगों से जहाँ कर्मचारियों की संख्या बहुत होती है, बड़े ही लोकप्रिय होते हैं । यदि ये इनके बीच न हों तो ये लोग इनकी बडी कमी अनुभव करते है। धार्मिक एवं सामाजिक
संस्थों में ये अत्यधिक रूचि लेते है । ये समय के बहुत पाबन्द होते है। इनमें प्रगति एवं विकास करने की भावना बहुत होती है । ये चकित कर देने वाले कार्य करते है । तथा असंभव को करना इनका आमोद सा सोता है। ये व्यक्ति सदैव संर्घषरत्त रहते है। इनके विचार अलग प्रकार के होते हैं तथा किसी के साथ कम ही मिलते अथवा मेल खाते हैं । इनकी विचारधारा अनोखी होती है। ये जमाने से बहुत आगे की सोचते है । मूलांक चार वाले भविष्य के लिए त्तत्पर तथा वर्त्तमान को कई बार आँखों से ओझल ही कर देते हैं । इस तरह इनके विरोधी भी बहुत बन जाते हैं । परन्तु मूलांक चार वाले अपनी धुन के पक्के होते हैं और सबका डट कर विरोध करते है। मूलांक चार वालों में गोपनियता का गुण विशेष रूप से होता हैं । मन की बात मन में छुपा कर रखते हैं । बाहरी व्यक्ति तो यथा, स्वयं इनके घर वाले तथा पत्नी, पति आदि तक इनके रहस्य को नहीं समझ सकते। किस समय क्या कर डालें अथवा क्या योजना बना डाले, इनका कोई अनुमान नहीं लग सकता है। अत: इनका व्यक्तित्व अति रहस्मय होता है।मूलांक चार वाले स्त्री, पुरूषों का व्यक्तित्व रहस्मय होने के कारण, इनके आंतरिक भावों को जानकारी प्राप्त कर लेना कोई सरल काम नहीं होता । भेद अथवा राज की बातें ये राज ही रखते है । इनका भेद कोई नहीँ ले सकता। इनके व्यक्तित्व से प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि राज की बात है, राज ही रहने दो। मूलांक चार वालों की चित-वृति चंचल रहा करती है। इसकी अन्य लोगों से संघर्ष करने की भी प्रवृत्ति होती है | अन्य लोगों की विचारधारा के विरुद्ध इनके विचार होते है | इस कारण इनके शत्रुओं की सख्या भी कुछ अधिक ही होती है । ये रूढिवादी नहीँ होते । ये लोग सुधारक, पुरानी प्रथा की जगह नईं-नई प्रथा स्थापित करने वाले होते है । राजनैतिक क्षेत्र में भी ये पुरानी प्रथाओं को हटाकर नई-नई प्रथाएं लाने का भरसक प्रयत्न करते रहते है। जैसे पहले बताया गया है कि ये आकस्मिक घटनाएं पैदा करने के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं । अत: मूलांक चार वाले स्त्री पुरूषों के जीवन में भी आकस्मिक घटनाएँ विशेष रूप से घटती है । शुभ घटना हो या कोई लाभ कार्य तो भी आकस्मिक रूप मेँ ही होता है । इनका जीवन तो भी आकस्मिक रूप में ही होते है । इनका जीवन उथल-पुथल ओर संघर्षों से परिपूर्ण होता है । उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर तो वह पहुँच जाते हैं । परन्तु दुसरे ही पल इनकी समस्त उन्नति मिट्टी में मिल जाती है मूलांक चार वाले व्यक्ति नई-नई राहें निकालने के इच्छुक होते हैं तथा कई बार तो प्रारम्भिक ढांचा हीँ बदल लेते हैं । ये कईं आडम्बर करते है एवं उचित समय पर दिखावा करना भी पसन्द करतें हैं । इनके शब्द एवं व्यावहारिक कार्य चकित कर देने वाले होते हैं । के 'जीओ और जीने दो' हैं इनका विशेष गुण होता है।
प्राय: यह भी देखा गया है कि मूलांक चार वालों में व्यवहार कुशलता कुछ कम भी होती है । किसी समय किसी को क्या कहना है, उसका वे ध्यान ही नहीं रखते । सामने वाले को जो कहना होता है, स्पष्ट शब्दों में सत्य कह देते हैं, इसके लिए इन्हें कोई भलां-बुरा कहता रहे । मूलांक चार वाले व्यक्ति व्यर्थ की चापलूसी तथा प्रशंसा से भी चिढ जाते हैं । इन्हें जिद्द्दी तथा हठधर्मी कहा जा सकता है। मूलांक चार वाले स्त्री पुरूष शांतचित्त रहें, कम ही देखा गया है । निरन्तर क्रियाशील रहना इनका स्वभाव बन जाता है। इनमें निर्ताय लेने की क्षमता का अभाव सोता है । किसी भी समस्या के समाधान हेतु वे बहुत सोच विचार करते है, पर फिर भी किसी समस्या का समाधान ढूंढ नहीँ पाते, इसमें तो सन्देह नहीं होता कि इनकी सोचने को शक्ति निर्बल नहीं होती । मूलांक चार वालों के दिमाग में प्लैनो अथवा विचारों की भरमार रहती है ।मूलांक चार वाली स्त्रियाँ आगुआ तथा हर प्रकार की जानकारी रखने वाली होती है । ये घर की जिम्मेदारी अपने उपर ले लेती हैं और कभी-कभी ऐसा करके अपना स्वास्थ्य भी खो बैठती हैं । जिन स्त्रियों का मूलांक चार होता है, इनमें मूलांक चार वाली सभी विशेषता सामान रूप में पाई जाती है।
विद्या-मूलांक चार वाले व्यक्ति उत्तम विद्या प्राप्त करते हैं ।कभी-कभी इनका स्वभाव ही विद्या में रूकावट बन जाता है । ये अन्य बल, बिधुत एवं विचित्र विषयों से अधिक रूचि रखते है। गुप्त विद्या इनकी विशेष रूचि सोती है। स्कूल-कॉलेज से अगुआ बनकर ये मार्ग दर्शन भी करते हैं ।
प्रेम विवाह एवं सन्तान-- मूलांक चार वाले व्यक्ति यदि उचित समझे तो बड़े से छोटे, धनी से लेकर निर्धन और अन्य पुरूष स्त्रियों से घुलमिल जाते है । स्त्रियों की ओर इनका विशेष झुकाव होता है जो मूलांक चार वाले रित्रयों का पुरूषों की ओर विशेष झुकाव होता है । प्रेम संबंध अधिक देर नहीं रहते । ये अपने प्रेमीं-प्रेमिका के साथ अच्छा व्यव्हार करते हैं परन्तु कई अन्य कारणों के कारण सम्बन्ध स्थाई कम ही रहतें है। मूलांक चार वालों का स्वाभाविक तौर पर इनका आक्रर्षता मूलांक 1 -2 -4-7 -8 वाले पुरूषों अथवा स्त्रियों की अधिक होता है । कई बार प्रेम विवाह की सम्भावना भी बन जाती है ।मूलांक चार वाले व्यक्तियों के परिवार मेँ अशान्ति ही रहती है । इनका प्रेम विवाह होने की भी सम्भावना होती है । कई परिस्थितियों में जीवन साथी का साथ भी घूट जाता है तथा एकांती जीवन व्यतीत करना पड़ता है । यदि ऐसा नहीं भी होता तो प्राय: पत्नी रोगी रहती है । परिवार के सदस्यों का सनेह भी कम ही मिलता है । घरेलू बात्तावरण में प्राय: कलह वना रहता है । यद्यपि ये एक शानदार महल जैसे घर का तथा उसमें पूरी सुख- सुविधा का स्वप्न देखते हैं, जो साकार भी हो जाता है । किन्तु ये पुन: सपाट मैदान में खडे दिखाई देते है । मूलांक चार के फरवरी 19 से मार्च और अक्तुबर 21 से नवम्बर 20 के बीच जन्मे तथा मूलांक 1 -2-4-7 वाले अच्छे जीवन साथी बन सकते हैं। मूलांक चार वालों के एक लड़का अवश्य होता, प्राय: लड़कों से लड़कियां अधिक होती है। सन्तान का सुख प्राप्त नहीं होता। सन्तान पक्ष से प्राय: हानि ही की संभावना रहती है। मूलांक चार वालों को सन्तान से किसी प्रकार को अपेक्षा नहीँ रखनी चाहिए। व्यावहारिक जीवन में देखा गया है कि मूलांक चार वाले व्यक्तियों का अपने पिता के साथ झगडा भी होता है, और कभी-कभी तो पिता का साथ ही नहीँ मिलता ।
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Thursday 15 October 2015

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Wednesday 14 October 2015

ग्रहों की महादशा में रोग

सूर्य-महादशा .
साधारणत: रोग का प्रकार , तीव्रता, होना या न होना सूर्य की स्थिति, युति एवं दृष्टि पर निर्भर होता है। गोचर में मंगल जब-जब सूर्य से युति करे या दृष्टि डाले, तो साधारणत: जातक को ज्वर होते देखा गया है। सूर्य नीच हो, पापी ग्रहों से दृष्ट हो, तो चोर, राजा एवं ज्वर से भय होता है। मनोविकार, वात-विकार,नेत्ररोग, पिता को कष्ट, ह्रदयरोग नेत्ररोग आदि ऐसे रोग हैं, जो दशा में उत्पन्न हो सकते है, शर्त है कि सूर्य की स्थिति रोगकारक हो।
चन्द्रमा-महादशा
इसकी महादशा में साघारणत: सर्दी, जुकाम, मानसिक कष्ट, माता को कष्ट, ज्वर उन्माद आहि रोग होते हैं। चन्द्रमा षष्ठ में हो तो अग्नि, राजा से भय मूत्रकृच्छ, अष्टमस्थ चन्द्र से जलभय या जलोदर द्वादशस्थ चन्द्र से मानसिक विकार, नीच चन्द्र से अग्निभय, बहन को कष्ट हैं किसी स्त्री को (परिवार/संबन्ध) अनिष्ट आदि फल प्राप्त होता है।
मंगल महादशा
इसकी दशा में सामान्यता रक्तविकार,चोट, झगडा, दण्ड, चेचक पेट सम्बन्धी बीमारी होती है। विशेष परिस्थितियों में, नीच मंगल चोर का अग्निभय, शत्रु राशि मंगल से नेत्र, गुदा, प्रमाद, रोग, सप्तम मंगल से मूत्र बीमारी, अष्टमस्थ मंगल से फोड़ा, मंगल क्रूर देष्काण से विषमभय, वक्री मंगल से सर्प-दंष एवं पंचमस्थ मंगल से मतिभ्रम होता है।
राहू-महादशा
सामान्यतया उदर-विकार, अभिचार रोग, मानसिक रोग आदि बिमारियों चलती रहती हैं। लग्नस्थ राहु में सिरदर्द| द्वितीयस्थ में कुत्ता से भय मानसिक विकास चतुर्थस्थ से मनोव्यथा, पंचमस्थ से भ्रम, षष्ठस्थ से प्रमेह, गुल्म क्षयरोग, सप्तम है सर्पभय, अष्टम से दुर्घटना, पाइल द्वादस्थ से नेत्रपीड़ा, चोर-भय, मानसिक वास चुषामस्थ से अग्निभय, नीचस्थ से विषमय एल पापराशि से क्षय एव खाँसी रोग पैदा होता हैं।
गुरू-महादशा
यह सामान्यतया गुल्म, उदर-विकार एव रथूलता देता है। नीचस्थ है त्वचा रोग , मानसिक कष्ट, षष्ठस्थ से पीलिया, वात, मधुमेह, पाइल रोग, अस्त गुरु से ज्वर, आम रोग,स्वगृही गुरु ६, ८, १२ में हो, तो केंसर जैसे महारोग तक दे सकता है।
शनि-महादशा
सामान्यतया वात-विकार, चोट, गैस, किसी सम्बन्धी (जरा आयु मे) का अनिष्ट साढे साती हो तो व्यय, मानसिक क्लेष एवं व्यग्रता रहती है।शत्रु-राशिस्थ शनि से राजा एव चोर से भय, लग्नस्थ से सिरदर्द, कमजोरी, तृतीयस्थ से मानसिक रोग, षष्ठस्थ से वात-विकार, विष, सप्तमस्थ से मूत्ररोग एवं द्वादस्थ से अग्निभय आदि होता है। …
बुध-महादशा
सामान्यतया अनिर्णय की स्थिति,ज्वर,चर्मरोग,स्नायुरोग एवं भ्रमता पैदा होती है। रोगकारक हो जाने यर अनेक रोग देता है। नीचस्थ बुध मानसिक विकार तृतीयस्थ से गुल्म, पंचमस्थ से चिंता,षष्ठस्थ से वाणी-विकार, नेत्र, कान, चर्मरोग, आँत रोग, अष्टमस्थ से पीलिया एव द्वादशस्थ से मनोविकार विकलता जैसे रोग उत्पन्न होते है।
केतु-महादशा
सामान्यतया भ्रम, भय, चंचलता, अग्नि एवं राजा से भय पैदा होता है। यह गुप्तरोग का कारण है। लग्न में ज्वर, हैजा, द्वितीय में मानसिक रोग, पंचम में बुद्धिभ्रम, षष्ठ में अग्नि, चोरी, दुर्घटना, सप्तम में मूत्रविकार, अष्टम में श्वास एवं क्षयरोग, द्वादश भाव से नेत्रविकार होता है। यह ग्रह अचानक रोग देता है। यह कैसर तक दे सकता है।
शुक्र-महादशा
सामान्यतया स्त्री सम्बन्धी रोग, काम वीर्य से सम्बन्धित रोग उत्पन्न करता है। यह श्वेत कुष्ठ, नेत्ररोग, मूत्ररोग, मधुमेह एव शिरोरोग भी देता है। अवरोही शुक्र दशा में हृदयरोग, नीचगत से मानसिक रोग, चित विकलता, सप्तमस्थ से प्रमेह नेत्ररोग, षष्ठस्थ से शस्त्र चीर एव शत्रु राशि गत से संग्रहरणी एवं नेत्र रोग होता है।



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Tuesday 13 October 2015

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Monday 12 October 2015

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Saturday 10 October 2015

ह्रदय-रेखा की गहराई और रंग

यदि हृदय-रेखा एक डंडे की भाँति सारी हथेली पर आर-पार हो व शीर्ष-रेखा भी ऐसी ही हो, तथा दोनों रेखा गहरी और लाल हों एवं मंगल-क्षेत्र बहुत उन्नत हो तो ऐसा व्यक्ति हिंसक होता है और दूसरे के प्राण भी ले सकता है ।यदि ह्रदय-रेखा पीलापन लिए हुए और चौड़ी हो, और प्रभाव-रेखा शुक-क्षेत्र से आकर बुध-क्षेत्र या मंज्जाल के प्रथम क्षेत्र पर रुके तो विषय-वासना अधिक होती है । यदि शुक्र मेखला कीदो रेखा हो, या टूटी हो तो अत्यधिक इर्षा के कारण ऐसे व्यक्ति में हिंसात्मक प्रवृत्ति भी हो सकती है ।यदि हृदय-रेखा अत्यधिक गहरी हो, शुक्र-मेखला बहुत स्पष्ट हो और चन्द्रक्षित्र विस्मृत और उन्नत हो या उस पर बारीक-बारीक बहुत-सी रेखा हों तो अत्यन्त ईष्ठर्या के कारण ऐसे जातक की विचार-शक्ति कुंठित हो जाती है और वह ऐसे काम कर बैठताहै जिनसे विपत्ति में फँसता है । यदि हृदय-रेखा दुर्बल और अस्पष्ट हो और शीर्ष-रेखा भी दुर्बल तथा क्षीणा हो तो ऐसा जातक विस्वास करने योग्य नहीं । वैवाहिक जीवन में भी उचित रास्ते से डिगा जाता है । यदि हृदय-रेखा श्रृंखलाकार हो या अस्पष्ट हो और शीर्ष-रेखा भी ऐसे ही हो, शुक-क्षेत्र उन्नत और विस्मृत हो या उस पर आड़ी काटने वाली बहुत-सी रेखा हो तो ऐसे पुरुष सदैव अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध करने के इच्छुक रहते है या उनके अनेकों सम्बन्ध हो चुके होते है । स्त्रियों के सम्बन्ध में भी यहीं समझना चाहिये ।
भाग्य-रेखा ह्रदय-रेखा को जहाँ काटे, हृदय-रेखा का वह भाग यदि श्रृंखलाकार हो तो समझना चाहिए कि ह्रद्रोग अथवा दुखान्त प्रेमाधिक्य के कारण जातक के भाग्योदय तथा वृति में विघ्न पड गया ।
हृदय-रेखा के उद्गम-स्यान तथा प्रारम्भ में निकली हुई शाखा
भारतीय मतानुसार तो यह रेखा कनिष्ठिका के मूल से (छोटी ऊँगली के नीचे बुध-क्षेत्र के बायी बगल से) निकलकर तर्जनी-मूल (गुरु-क्षेत्र) की ओर जाती है । किन्तु पाश्चात्य मतानुसार बिलकुल उलटा, कनिष्ठिका मूल में इसका अन्त और दाहिनी ओर (गुरु-क्षेत्र किंवा शनि-क्षेत्र पर) इसका प्रारम्भ माना जाता है ।
(१) पाश्चात्य मतानुसार यदि तर्जनी के तृतीय पर्व से (पोरवे के अन्दर से) यह प्रारम्भ हो तो जीवन में सफलता नहीं मिलती । जब हथेली की रेखायें उंगली के अन्दर से प्रारम्भ हो या ऊँगली के अन्दर पहुँच जावें तो गुण नहीं प्रत्युत अवगुण समझना चाहिए । इसका कारण यह है कि जिस ग्रह-क्षेत्र के ऊपर उगली है उस ग्रह का प्रभाव, रेखा पर इतना अधिक हो जाता है कि वह 'अति' मात्रा अवगुण हो जाती है । 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' सीमा से बाहर कोई वस्तु अच्छी नहीं होती । यदि उँगलियाँ अति लम्बी हों तो भी अच्छा नहीं, ग्रह-क्षेत्र अति उन्नत हो तो उनका अनिष्ट प्रभाव होता है । अति सौन्दर्य-प्रिय में अति कामुकता आ जाती है । अति धार्मिक सांसारिक जीविका-उपार्जन के साधनों में चतुर नहीं होते । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए ।
(२) यदि बृहस्पति के क्षेत्र के अन्दर-ऊपर की और से हृदय-रेखा प्रारम्भ हो और प्रारम्भ में कोई शाखा न हो तो ऐसे व्यक्ति आदर्श-प्रेमी होते है । उनमें कामुकताजन्य वासना की प्रधानता नहीं होती । (यह लक्षण है, अन्य लक्षणों से यह देख लेना चाहिए कि सम्पूर्ण प्रकृति किस प्रकार की होगी । ) इस प्रकार की हृदय-रेखा वालों के प्रेम में आदर्शवादिता अधिक होती है ।
(३) किन्तु यदि यहीं रेखा बृहस्पति-क्षेत्र के मध्य से प्रारम्भ हो और आरम्भ में एक ही शाखा हो तो भी गभीर और दृढ़ प्रेम-प्रकृति का जातक होता है । ऐसे व्यक्ति में प्रेमाधिक्य और आदर्शवाद दोनो समान रूप से रहते है ।
(४) यदि हृदय-रेखा बृहस्पति के क्षेत्र को अर्धवृत्त की तरह आधी ओर से घेर ले तो ऐसे व्यक्ति में प्रेमाधिक्य के कारण इर्षा की मात्रा तीव्र होगी । बहुत से पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि ऐसी ह्रदय-रेखा यह प्रकट करती है कि जातक दार्शनिक और गुप्त विद्याओं का विशेष प्रेमी है
(५) यदि हृदय-रेखा गुरु क्षेत्र और शनि-क्षेत्र के बीच के भाग से प्रारम्भ हो तो यह भी स्थिर प्रेम प्रकट करती है । ऐसे व्यक्ति न तो प्रेम के तूफान में बहते है न किसी किनारे ही बैठे रहते है । उनके प्रेम में विशेष उल्लास और तन्मयता नही होती, न निराशा और विरह उन्हें अधिक पीडित करते है ।
(६) यदि यही रेखा तर्जनी और मध्यमा के बीच के भाग से प्रारम्भ हो तो ऐसा जातक आजीवन कठिन परिश्रम करने वाला होता है । कठिनाइयों का सामना करने में ही उसका जीवन जाता है । प्रेम की भावना हृदय में दबी रहती है ।