Thursday 17 December 2015

मानसिक मंदन

मनुष्य की भौतिक उपलब्धियों में भिन्नताएँ विचारणीय है। तीव्र बुद्धि के न्यूटन ने जहाँ अपने आविष्कारों से अमरत्व प्राप्त किया वहीँ कुछ ऐसे मद व्यक्ति भी हमें मिल जाएँगे जो अपने प्राथमिक आवश्यकताओं के पूर्ति नहीँ कर सकते। विभिनन क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियों के आधार पर हम उनकी योग्यताओं का आकलन करते है। इन योग्यताओं के बारे में सामान्य जन की धारणा यह है कि व्यक्तियों की यह विलक्षण तथा जन्म-जात विशेषताएँ है जो उनकी उपलब्धियों को प्रभावित करती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के संस्थापक सर फ्रांसिस गाल्टन मानव सृजनन विज्ञान में अधिक इच्छुक थे। उनका विश्वास था कि अधिकतर मानव भिन्नताएँ जन्मजात होती है तथा इन भिन्नताओं के लिए उत्तरदायी विशेषताएं एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में शारीरिक वंशानुत्क्रम के रूप में स्थान्तरित हो जाती है। गाल्टन ने इस तथ्य पर बल दिया कि कोई भी दो व्यक्ति एकदूसरे के समान नहीं है। किसी में बौद्धिक योग्यता की मात्रा अधिक पाई जाती है तो किसी में कमा बौद्धिक योग्यत्ता (मानसिक योग्यता) के आधार पर जब व्यक्तियों का श्रेणीकरण किया जाता है तो निम्नस्तर प्राप्त करने वाले व्यक्तिव को ही मानसिक मंदत्ता के वर्ग में रखा जाता है।
मानसिक मंदता एक प्रकार का मानसिक रोग है जो निम्म बौद्धिक योग्यता की ओंर संकेत करता है। मानसिक मंदता एक प्रकार की मानसिक रुग्णता है। यह एक ऐसी मानसिक दशा है जिससे बौद्धिक क्षमता एक सीमित मात्रा में पाई जाती है ।मनोवैज्ञानिक साहित्य के अवलोकन से यह विदित होता है कि मानसिक मंदता के लिए क्षीणमन्दयकता, मंद्बुद्धिता, जड़ता,मानसिक अप सामान्यता,अल्पमानसिकता आदि शब्दों को पर्यायवाची के रूप म प्रयोग किया जाता है।
मानसिक इतिहास का इतिहास नया नहीँ है, वरन मानव इतिहास जैसा ही पुराना है। मानसिक रोगी सभी काल में पाये जाते रहे है, परन्तु उनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण पहले अमानवीय रहा है। परन्तु अब लोगे के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया है और लोगों ने मानसिक मन्द व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया है । 1799 में सर्वप्रथम जीन इटराड ने मानसिक मदन का अध्ययन प्रारंभ किया । इंगलैड में 1840 तथा 1847 में अमेरिका में मानसिक रूप से मंद बालकों के लिए विद्यालयों के स्थापना की गई। डारविन के विकासवाद सिद्धांत से प्रभावित होकर उनके रिश्ते के भाई सर फ्रांसिस गाल्टन ने आनुवंशिकता के प्रमाण का अध्ययन किया। यही नहीं बुंट ने 1879 में अपनी प्रयोगशाला में उपकरण के माध्यम से बुद्धि का मापन किया। उनके प्रभावों से प्रभावित होकर गाल्टन, पियर्सन, कैटेले, बिने, थोर्नडाइक, टरमन आदि मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अल्फ्रेड बिने ( 1908 ) में सर्वप्रथम मानसिक आयु प्रत्यय का प्रयोग किया और यह मत प्रकट किया कि वास्तविक आयु में वृद्धि के साथ-साथ मानसिक आयु में भी वृद्धि होती है। बुद्धि लब्धि का सम्प्रत्ययीकरण टरमन और उनके सहयोगियों द्वारा हुआ। स्टर्न ( 1911 ) ने मानसिक लब्धि संप्रत्यय को प्रस्तुत किया।
मानसिक मंदन के लक्षण
न्यून बौद्धिक क्षमता-ऐसे व्यक्तियों में मस्तिष्क का विकास अपूर्ण रहता है तथा बुद्धि के विकास की गति मंद पड़ जाती है जिससे मानसिक मंदन पाया जाता है।
2. न्यून शरीरिक विकास-यदि सामान्य बालक की तुलना मानसिक मंद बालकों से की जाय तो मानसिक मंद बालको का कद अपेक्षाकृत छोटा, पैर छोटा, होंठ भद्दे तथा सिर बड़ा होता है। इनकी संज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक योग्यताएँ देर से विकसित होती है। यही नहीं, भाषा संबंधी त्रुटियाँ भी इनमें पाई जाती है। "
3. जीवन की समस्याओ के समाधान में असफलता-मंद बालकों में अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को समझने और उनके समाधान की योग्यता पाई जाती है। ऐसे बालको में व्यवहार कुशलता का अभाव पाया जाता है।
4. अनुपयुक्त समायोजन-मानसिक मंद व्यक्तियों में मानसिक एवं शारीरिक न्यूनता पाई जाती है इसलिए इनके व्यवहार में विचित्रता पाई जाती है जो सामान्य व्यक्तियों के व्यवहार से पूर्णत: भिन्न होती है। इनमें व्यवहार कुशलता तथा सामाजिक परिस्थिति को समझने की योग्यत्ता का अभाव पाया जाता है इसलिए इनका समायोजन ठीक नहीं होता है ।
5. सामाजिक गुणों को अनुपयुक्ता-मानसिक मंद व्यक्तियों में कल्पनाशीलता, तर्कशीलता, व्यवहार कुशलता, आत्मसंयम, आत्म विश्ववास, आत्मरक्षा जैसे सदगुणों का अभाव पाया जाता है। परिणामस्वरूप वे सामाजिक और असामाजिक कार्यों में अन्तर नहीं कर पाते है जिससे उनके व्यवहारों से समाजविरोधी कार्यों की अभिव्यक्ति होती है।
6. असामान्य मस्तिष्क संरचना-मानसिक मद व्यक्तियों में ज़लशीर्षता तथा लघुशीर्षता पाई जाती है, जिसमे उनकी मस्तिष्क संरचना का उपयुक्त विकास नहीं हो पता है और उनमें मानसिक मंदन पाया जता है।
7. जीविकोपार्जन में असमर्थता-चूँकि मानसिक मंद व्यक्तियों को अपनी देनिक जीवनचर्या के लिए ही नहीं, वरन व्यक्तिगत स्वच्छता के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है इसलिए ऐसे व्यक्तियों में निर्भरता बहुत अधिक पाई जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने लिए जीविकोपार्जन नहीँ कर सकते हैँ। .
8. अन्य जीवनकाल-मानसिक में बालक कभी दीर्घायु नहीं होते। कम बालक ही किशोरावस्था प्राप्त कर पाते है। जीवनकाल और मानसिक मंदन की तीव्रता में अनुसंधानकर्ताओं ने यह परिणाम प्राप्त किया है कि मानसिक मंदन जितना ही तीव्र होगा, जीवनकाल के कम होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
9. शैक्षिक अयोग्यता-मानसिक मंद बालकों का बौद्धिक स्तर औसत से नीचे होते है इसलिए उसे औपचारिक या अनौपचारिक प्रशिक्षण के द्वारा प्रशिक्षित करके उन्हें किसी प्रकार शिक्षित नहीं किया जा सकता है।
10. असमान्य शारीरिक अंग-सामान्य तथा मानसिक मंद बालकों की तुलना करने पर शारीरिक अंगों में असामान्यत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। सामान्य व्यक्तियों की तुलना में मानसिक मंद बालकों के शारीर के अपेक्षाकृत असामन्य होते है।
11. प्रेरणा एवं संवेग की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति-मानसिक मंद बालकों में अपने प्राथमिक आवश्यकताओं तथा भूख प्यास के प्रति ही कोई चिन्तास नहीं पाई जाती है। यही नहीं, इनमें किसी प्रकार के संवेग तथा प्रेम, घृणा, दुख, प्रसन्नता आदि की अभिव्यक्ति भी प्रदर्शित नहीँ होती है। इनका जीवन आवेगहीन, उद्देश्यहीन, आवश्यकताहीन, प्रेरणाहिन एवं संवेगहीन होता है।
12. शरीरिक विकार की अधिकता-मानसिक मंद बालकों में अनेक प्रकार के शारीरिक विकार पाए जाते है जैसे चपरासी सम्बन्धी विकार, मस्तिष्क के उत्तकों एवं कोशिकाओं के अपक्षय आदि, इन्ही विकारों के कारण मानसिक मंदन पाया जाता है | इन विकारों की मात्रा जितनी ही अधिक होगी,मानसिक मंदन भी उतना ही अधिक होगा|
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मानसिक शक्तियों

श्रृंगार एवं प्रेम
यह मानसिक शक्ति कपाल के पीछे की ओर निचले भाग मे जहाँ गर्दन का प्रारम्भ होता है,स्थित होती है| इसका उभार उस भाग के साधारण विकास को देखकर अनुभव किया जा सकता है | यदि मन की यह शक्ति बहुत अधिक विकसित हो तो व्यक्ति काम वासना तथा विलासिता का दीवाना हो जाता है और लम्पट एवं व्यम्भिचारी बन जाता सामान्य रूप से बलवती होने पर यह मानसिक शक्ति,स्फूर्ति एवं प्रेरणा प्रदान करती है | इस प्रकार के व्यक्ति अपने विपरीत सैक्स के प्राणियों मे लोकप्रिय होने के लिए सब कुछ करने तथा उन्हें सब कुछ भेट करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते हैं । इनके जीवन मे प्रेम को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । प्रेम ही इनका जीवन और कार्यक्षेत्र होता है ।
सन्तान प्रेम
मन की यह शक्ति ऊपर वर्णन की गई प्रथम शक्ति के ठीक ऊपर होती है और मस्तक के पीछे के भाग का सबसे अंश इससे प्रभावित होता है । इस क्षेत्र का विकास पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के मस्तक में अधिक देखा जाता है । यह शक्ति वात्सल्य अर्थात सन्तान के प्रति बहुत स्नेह करने के लिए प्रेरित करती है, इसलिए नारी पूरुष की अपेक्षा सन्तान के प्रति अधिक स्नेहशील एवं वात्सल्यमयी होती है । इसी शक्ति के प्रभाव से माता-पिता अपने अबोध, छोटे, शक्तिहीन बच्चों का लालन-पालन करने तथा उन्हें सब प्रकार की सुविधा प्रदान करने के लिए प्रेरित होते है ।
ध्यान केन्द्रीकरण
मनुष्य के ध्यान को किसी भी बिन्दू पर केन्द्रित करने वाली मन की शक्ति मस्तक के पीछे की ओर सर्वाधिक उन्नत भाग के बिलकुल ऊपर दूसरी शक्ति अर्थात वात्सल्य एवं स्नेह की शक्ति के ऊपर स्थित होती है| इस प्रकार के व्यक्ति साधारणतया बुद्धिजीवी होते हैं । शारीरिक कार्य काने मे वे कम ही आत्मनिर्भर होते हैं । वे शारीरिक श्रम करने से कतराते है । अपने मित्रों का चुनाव प्राय: सुशिक्षित,सभ्य, बुद्धिजीवी एवं सुसंस्कृत लोगो में से करते है । आनी महत्ता का प्रदर्शन शब्दों से नहीं बल्कि अपने कार्यों से करते है ।
स्नेह एवं मिलनसारिता
मन की यह शक्ति सन्तान प्रेम अर्थात वात्सल्य की शक्ति के बगल मे कुछ ऊपर की ओर अवस्थित है । वैसे तो यह मानसिक शक्ति पुरुषों और स्त्रियों दोनों में विद्यमान होती हैं, परन्तु प्राय: ऐसा देख गया है कि पुरुषों को अपेक्षा स्त्रियों में यह अधिक विकसित होती है । ऐसे व्यक्तियो को मित्रो एवं-सगे सम्बन्धियों की संगति विशेष रुप से प्रिय होती है और वे उनसे बार-बार मिलने की चेष्टा करते है ।
झगड़ालू शक्ति
झगड़ालू शक्ति को इंद्रिय कान के पीछे लगभग डेढ़ इंच की दूरी पर स्थित होती है । ध्यान से देखने या हाथ से टटोलने पर ज्ञात होगा कि कानों के बीच में तथा पीछे मस्तक का एक भाग अन्य स्थानों की अपेक्षा चौड़ा होता है । यह मानसिक शक्ति मनुष्य में झगड़ालु प्रवृति तथा कलहप्रियता की भावना को जाग्रत करती है । इस प्रकार के लोग वाद-विवाद और तर्क-विर्तक करने को सदा तत्पर रहते हैं । ऐसे व्यक्तियों की जबान जितनी तेज होती है, उनका शरीर भी उतना ही हुष्ट-पुष्ट और सबल होता है। शरीरिक भ्रम खेलों में इनकी विशेष रूचि रहती है ।
विध्वंशक शक्ति
विध्वंसात्मक शक्ति की ग्रंथि कान के ठीक ऊपर और कुछ-कुछ उसके आस-पास विद्यमान होती है । इस ग्रंथि के विकसित रूप का अनुमान इस स्थान पर मस्तक की चौडाई से लगाया जा सकता हैं। ऐसे व्यक्ति के मन मे किसी व्यक्ति के प्रति दया, ममता, सहानुभूति आदि के भाव नहीं होते । निर्मम से निर्मम हत्या करते समय भी उसका हुदय विचलित नहीं होगा ।
यह सौभाग्य से परोपकारिता शक्ति के अत्यधिक विकसित होने के फलस्वरुप यह विध्वंसक शक्ति प्रभावित होकर दुर्बल पड़ जाए तो व्यक्ति की विध्वंसात्मक प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश लग जाता है ।
गोपनीयता
गोपनीयता को मानसिक शक्ति मस्तक के पार्शव भाग के मध्य में विध्वंसक शक्ति के केन्द्र के ठीक ऊपर स्थित है तथा उसके बदुत आगे बढी हुई है। जब ये दोनों शक्तियां पूर्णतया विकसित होती हैं, तो मस्तक के पार्श्व भाग का नीचे का एवं मध्य का भाग साधारणतया भरा हुआ दिखाई देता है । इस शक्ति का मुख्य कार्य अन्य शक्तियों पर अंकुश लगाकर उन्हें नियंत्रित करना है । यदि यह शक्ति का विकसित हो, तो मनुष्य को गोयनीयता की शक्ति का हास हो जता है । ऐसे व्यक्ति अपना भेद भी दुसरे के सामने खोल देते है ।
प्राप्ति की लालसा
प्राप्ति की लालसा की मानसिक शक्ति का केन्द्र गोपनीयता की शक्ति के क्षेत्र में होता है । यह शक्ति मनुष्य को अधिकाधिक भौतिक संपत्ति अर्जित करने और उसका संचय करने के लिए प्रेरित करती है । मनुष्य मे यह मानसिक शक्ति अत्यधिक बलवती हो और विवेक शक्ति दुर्बल हो, तो वह धन-प्राप्ति की अपनी लालसा को वैधानिक एवं नैतिक सीमाओं में बांधकर नहीं रखता, अपितु जल्दी से जल्दी तथा अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए चोरी-डकैती जैसे अनैतिक उपायों का भी सहारा लेने से भी नहीं चुकता है|
सृजन-शक्ति
मनुष्य को सृजन-शक्ति जो रचना या निर्माण करने के लिए प्रेरित करती है, कनपटी के नोचे के भाग में प्राप्ति की लालसा के बिलकुल सामने उससे कुछ नीचे की ओर ही होती है। इसकी स्थिति का संबंध मस्तिष्क की आकृति से भी है। यदि मस्तिष्क का आधार संकीर्ण होता है तो इस ग्रन्थि का स्थान सामान्य से कुछ ऊपर होता है|मन की इस स्थिति का कार्य मनुष्य के अन्दर निहित रचना अर्थात निर्माण की इच्छा एवं प्रवृत्ति को जाग्रत करना है। जो लोग यंत्रों सम्बन्धी कार्यों को सीखने प्रज्ञा उनका निर्माण करने ने विशेष रुचि लेते हैं, उनमे यह शक्ति विकसित रूप मे देखि जा सकती है|
आत्म सम्मान
मनुष्य के जीवन मे आत्म-सम्मान का विशेष महत्व होता है । इसी के द्वारा वह जीवन मे सर्वोच्च स्थान प्राप्त करता है । इसलिए मनुष्य के शरीर मे इस शक्ति की ग्रन्थि को उच्च स्थान प्राप्त है अर्थात् यह ग्रन्धि मस्तक के पिछले भाग की चोटी पर जहाँ शिखर (चोटी) होती है ।जब यह भाग बड़ा होता है तो इस शक्ति का क्षेत्र कान से बहुत ऊपर तथा पीछे की ओर विकसित होता है। यह शक्ति स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में अधिक विकसित होती है ।
प्रशंसा की चाह
प्रशंसा की चाह को ग्रन्थि आत्म-सम्मान की ग्रन्थि के दोनों पाश्वों में सिरे के ऊपर की ओंर पिछले भाग मे होती है । जब यह पर्याप्त उन्नत और विकसित होती है तो उस भाग के असाधारण रूप से उन्नत होने के साथ-साथ उसकी चौड़ाई भी बढ़ जाती है । देखा गया है, कि ग्रंथि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक बलवती होती है । ऐसे व्यक्ति की चेष्टा रहती है कि वह ऐसा कार्य करे जिसकी लोग प्रशंसा करे और जिसके लिए अधिक से अधिक आदर प्राप्त हो। यही कारण है, कि वह अपने मित्रों एवं परिजनों पर सदा ऐसा प्रभाव डालने का प्रयत्न करता है कि वह उनकी दृष्टि में सम्मान का पात्र बने ।
सर्तकता
मन की यह शक्ति मस्तिष्क के पिछले भाग के दोनों पाशर्वों के ऊपर की ओर विद्यमान होती है। यह ग्रंथि विकसित हो, या अविकसित दोनों आवस्थाओं में उसके उभार की मोटाई मे एक इंच तक का अन्तर पड़ जाता है । यह मानसिक शक्ति मनुष्य को इस बात के लिए प्रेरित करती है, कि वह अगला कदम उठाने से पहले प्रत्येक बात को भली-भांति सोच-समझ ले ।
यह शक्ति मनुष्य को बुद्धिमान, विवेकशील, सदा सर्तक और कभी-कभी भोरु भी बना देती है । यही शक्ति व्यक्ति को झगड़ालू प्रवृत्ति पर अंकुश लगाती है ।
परोपंकारिता
परोपकारिता की मानसिक शक्ति मस्तक के सामने वाले क्षेत्र में ऊपर की ओंर स्थित है, जिसका आभास उस भाग की ऊंचाई से मिलता है। मन की यह शक्ति मनुष्य में परोपकारिता की भावना को जन्म देती है । ऐसे मनुष्य की हार्दिक इच्छा होती है, की वह दुखी और विपत्तिग्रस्त लोगो की सहायता करे। वह जन साधारण को चाहे उसके साथ उसका व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक संबंध हो या न हो, सुखी देखने की इच्छा रखता है ।
श्रद्धा
श्रद्धा की मानसिक शक्ति मस्तक के उपरी भाग के मध्य में परोपकारिता की मानसिक शक्ति के ठीक पीछे की ओर विधमान है। यदि मनुष्य में परोपकारिता के साथ-साथ श्रद्धा की शक्ति भी पूर्ण रूप से विकसित हो, तो मस्तक का यह भाग इतना उन्नत हो जाता है, कि इसे सरलता से पहचाना जा सकता है । मन की इस शक्ति का मुख्य कार्य श्रद्धा की भावना को जन्म देना है । यही कारण है, कि इस शक्ति से मुक्त व्यक्ति जिस मनुष्य एवं वस्तु को अपने से श्रेष्ठ समझता है, उसी के प्रति वह श्रद्धा रखने लगता है ।
दृढता
दृढता का परिचय देने वाली मानसिक शक्ति मस्तक की चोटी पर आत्म सम्मान की शक्ति के ठीक सामने होती है। इसके कारण मस्तक का वह आसपास के भाग से ऊंचा दिखता है ।
यह शक्ति मनुष्य को विभिन्न प्रकार की विघ्न-बाधाओं से झूझने के लिए दृढ़ता प्रदान करती है । जिस कार्य को करने का वह मन में संकल्प कर लेता है, उससे वह विचलित नहीं होता । उसे प्रत्येक स्तिथि में पूरा करके रहता है । कोई भी लालच, रिश्वत या अन्य प्रभाव उसे सच्चाई तौर ईमानदारी के मार्ग से नहीं हटा सकता । वह वही कार्य करती है जिसे उचित समझे ।
अन्त:करण की शुद्धता
अन्त: करण की शुद्धता नाम की मानसिक शक्ति दृढ़ता को शक्ति दोनों ओर सतर्कता से ऊपर तथा सामने की ओर एवं प्रशंसा की चाह नामक शक्ति के भी सम्मुख और आशा के पीछे की ओर स्थित है । यह शक्ति मनुष्य मे न्याय तथा औचित्य की भावना को जन्म देती है । नैतिक तथा न्याय को दृष्टि से सर्वथा उचित बातो को स्वीकार करने एवं उन्हे समर्थन देने के स्मिट प्रेरित करती है । ऐसा व्यक्ति नाना प्रकार कठिनाइयों एवं बाघाओं के मध्य में भी अपने सिद्धान्त पर निष्ठापूर्वक अडिग रहता है । -
आशा
आशा की मानसिक शक्ति श्रद्धा की शक्ति के दोनों ओर विद्यमान है, तथा मस्तक के सामने के कुछ भाग के नीचे को ओर फैली हुई है । मन की इस शक्ति का उदृदेश्य मनुष्य के मन में किसी कार्य अथवा इच्छा की पूर्ति होने की भावना जाग्रत करना है ।इसके फलस्वरूप व्यक्ति के मन में यह विश्वास जमने लगता है, कि उसे उसके उदृदेश्य में सफलता प्राप्त हो जायेगी । अन्य शक्तियों का सहयोग पाकर आशा की शक्ति और भी अधिक बलवती हो जाती है ।
विस्मय
विस्मय की मानसिक शक्ति का स्थान मस्तक के शिखर के निकट तथा कनपटी के ठीक उपर है। यह शक्ति जितनी अधिक विकसित होगी, मनुष्य का ललाट उतना ही प्रशस्त तया उन्नत होता है । यह शक्ति अपने धारणकर्ता के अन्दर विस्मय की भावना उत्पन्न करती है । संसार में ऐसे व्यक्ति को जो भी वस्तु उसे असाधारण प्रतीत होती है, उसे वह विस्मय एवं उत्सुकता से देखता है । उसे चमत्कार मानकर उस पर विश्वास करने लगता है । ऐसे लोग भूत-प्रेत, जादू-टोनों आदि पर विशेष रूप से विश्वास करते है ।
आदर्शवादिता
मन की इस शक्ति अर्थात आदर्शवादिता का स्थान विस्मय की शक्ति के निचे तथा कनपटियों तौर प्राप्ति की लालसा की शक्ति के कुछ ऊपर होता है । ऐसा व्यक्ति एक महान कलाकार होता है । उसके साहित्य,चित्र, शिल्प, संगीत आदि मे उसके आदर्श रुप के दर्शन किये जाते है । वह प्राकृतिक सरिता,निर्झरों, उपत्यकाओं, पक्षियों के क्लरव तथा फूल पौधों को एक नया सुन्दर रूप प्रदान करता है| रमणीयता उसका प्रमुख गुण है । वह एक सफल कवि, चित्रकार तथा शिल्पकार होता है ।
विनोदप्रियता
विनोदप्रियता को मानसिक शक्ति ललाट के उपरी तया पाशर्व भागों में आदर्शवादिता के ठीक सामने अवस्थित है, उपरी क्षेत्र मे ललाट की जो चौडाई होती है, उसे देखकर इसे शक्ति के विकास का अनुमान लगाया जा सक्ता है । यदि विनोदप्रिबता की शक्ति के साथ गोपनीयता का भी सहयोग हो जाये, तो उसका विनोद द्वि-अर्यक हो जाता जब इस शक्ति के साथ झाहालु शक्ति संयुक्त हो जाती है, तो यह ऐसे तीखे व्यंग्य बाग छोडने लगता है कि उसका शिकार तिलमिला जाता है ।
अनुकरणीयता
अनुकरणीता अथवा अनुकरण करने की शक्ति मस्तक के उपरी भाग मे दोनों नेत्रों की सीध में परोपकारिता की शक्ति के दोनो ओंर होती है। जब यह शक्ति अधिक विकसित होती है तो ललाट का वह भाग वृत्त्कार रूप मे उभरा दुआ दिखाई देता है । इस शक्ति की प्रेरणा से ही मन मे अनुकरण की भावना जाग्रत होती है और मनुष्य उस कार्यं का अनुकरण करने के लिये प्रेरित हो जाता है, जो उसके मन को भा जाती है अथवा जिसका अनुकरण करने से उसे धन, मान, प्रतिष्ठा आदि पाने की आशा होती है ।
वैयक्तिकता
वैयक्तिकता की शक्ति नाक के ऊपर दोनों भृकुटीयों के मध्य मे अवस्थित है। इसके अघिक विकसित होने पर भृकूटियो के मध्य की चौडाई और ललाट के उस क्षेत्र ने वृद्वि हो जाती है। जब यह शक्ति अर्द्धविकसित अथवा अविकसित रह जाती है, तो वह क्षेत्र दब सा जाता है तथा वहां स्पष्ट स्प से गड्ढा दिखाई देने लगता है । जब यह शक्ति अपने पूर्व विकास पर होती है, तो वह किसी भी वस्तु की सूक्ष्मतम विशेषताओं को ढूंढ़ निकालता है ।
स्वरुप
स्वरुप मन की वह शक्ति है, जिसका निवास नेत्रों के भीतरी कोनों के पास होता है और जो पुतलियों को किनारों की ओर दबाती है । इस स्थिति के परिणाम स्वरुप दोनों नेत्रों के मध्य में पर्याप्त दूरी बन जाती है । इस शक्ति का मुख्य कार्य स्पर्श एवं दृष्टि की ज्ञानेन्द्रियों में समन्वय स्थापित करना है ।
आकार
आकार का ज्ञान कराने वाली मानसिक शक्ति नासिका के दोनों पाशर्वो के विपरीत अवस्थित है। यह सरलता से परिलक्षित नहीं होती है। क्योंकि सामने को दरार से बहुधा छिपा लेती है। मनुष्य विभिन्न शरीरों के आकारों को देखने की क्षमता प्राप्त करता है, वह इसी शक्ति को देन है ।
भार
भार का ज्ञान कराने वाली मानसिक शक्ति भृकुटि की पहाड़ी के अंतर्गत नासिका के मूल भाग में निवास करती है। जब यह शक्ति समुचित रूप से विकसित होती है, तो मनुष्य में सन्तुलन स्थापित करने की अदृभुत शक्ति की क्षमता आ जाती है । वह अपना कार्य बड़े सन्तुलित रूप से करता है । चलते समय उसके पैर बड़े सधे हुए ढंग से सैनिको की भांति पडते है, हाथों को अंगुलियाँ हलकी और तीव्र गति से चलती है। उसके सम्पूर्ण चाल-ढाल मे उल्लेखनीय शालीनता रहती है ।
व्यवस्था
व्यवस्था मन की यह शक्ति है जिसका स्थान भृकुटि की पहाडी के अंतर्ग्रत आंख की पुतली के ठीक ऊपर है । इसकी ही प्रेरणा से मंनुष्य चाहता है कि प्रत्येक वास्तु अपने स्थान पर सफाई से सजी संवारी रखी हुई मिले । वह स्वयं भी सभी वस्तुओं को सजाकर रखता है । स्स बात का ध्यान वह सर्वत्र रखता है ।
स्थानीयता
स्थानीयता की मानसिक शक्ति व्यक्तिकता की शक्ति के दोनो पाश्वों में होती है और इसका विस्तार विनिद्प्रियता की शक्ति के क्षेत्र तक होता है। इस शक्ति के विकास को दो स्थानों पर स्पष्ट स्य से देख जा सक्ता है । वे स्थान है, नासिका के मूल के प्रत्येक पार्श्व के निकट से आरम्भ होकर ऊपर की ओर तिस्वे जाकर तथा बाहर की ओर ललाट के मध्य भाग तक की ऊचाई पर । पशुओं एवं पक्षियों मे इस शक्ति का अच्छा विकास होता है। यही कारण है कि कुत्ते या कबूतर को अपने घर से काफी दूरी पर छोड़ दिये जाने पर भी यह अपने घर पहुच जाता है ।
संख्या बोध
संख्या बोध का मानसिक शक्ति का निवास नेत्र के बाहय कोण में होता है। जब इस शक्ति का विकास बहुत अघिक होता है तो भृकुटि के सामने के सिरे बाहर की ओर दब जाते है । जिन व्यक्तियों में मन की इस शक्ति का समुचित विकास होता है, वे संख्याओं का शीघ्रता से और जल्दी-जल्दी जोड,घटा,गुणा,भाग कर लेते हैं ।ऐसे लोगो को इस प्रकार के साधारण प्रश्न हल करने में कागज पेन्सिल आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। कुछ लोगों में इस शक्ति का असाधारण विकास देखा गया है । वे कई अंको का गुणा-भाग मौखिक रुप से कर सकते हैं ।
रंग-प्रियता
रंग-प्रियता की मानसिक शक्ति भृकुटि की कमानी के मध्य ने होती है। इस शक्ति के पूर्व विकास का बोध अच्छी सुघड़ बाहर क्या ऊपरी ओर खिंची हुई, कमानीदार भ्रिकूटी से होता है । उस समय उसका बाहरी भाग नासिका के निकट वाले भाग के अपेक्षा उन्नत दिखाई देता है। रंगप्रियता की यह शक्ति पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अघिक पायी जाती है। ईरान, पूर्वी द्वीप समूह, चीन, जापान जैसे पूर्वीय देशों के लोगों में अधिक लोकप्रियता होती है ।
सम्भावित सम्बन्ध
मन की यह शक्ति, ललाट के मध्य मे वैय्क्तिकता तथा स्थानीयता की शक्तियों से ऊपर की ओर स्थित है । जिस व्यक्ति में इस शक्ति का सम्यक विकास होता है, वह किसी एक विषय मे पारंगत तो नहीं होता, परन्तु प्राय प्रत्येक वस्तु के विषय मे थोडा-थोड़ा ज्ञान रखता है । इसकी विशेषता यह है कि मनुष्य किसी पल विषय का अध्ययन करने लगता है |इस शक्ति का स्वामी अन्य लोगों को सदैव कार्यरत देखना चाहता है । इसकी जिज्ञासा-वृत्ति बहुत बलवती होती है |
समय बोध
समय बोध की मानसिक शक्ति भृकुटि के ऊपर तथा संभावित सम्बन्ध की शक्ति के दोनों पाश्वों में अवस्थित होती है । मन की इस शक्ति को धारण करने वाला व्यक्ति तारीखों को भली-भीति स्मरण रख सकता है । तिथियों के सम्बन्ध में उसकी स्मरण-शक्ति इतनी विशद और सटीक होती है कि वह वर्षों पुरानी बात को विवरण के साथ याद रखता है । जो अपने भावी कार्यक्रमों को काफी पहले से निर्धारित पर लेते हैं, कि अमुक-अमुक तिथि को अमुक-अमुक कार्यं करना है, उनकी मानसिक शक्ति विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होती है ।
स्वर बोध
स्वर बोध की शक्ति ललाट के नीचे के क्षेत्र में भृकुटि के अन्तिम भाग से प्रारम्भ होकर कनपटी तक फैली हुई है। जिन लोगों के मस्तिष्क आधार पर संकरे होते हैं, उनमे यह ग्रन्थि कुछ ऊंचाई पर होती है। ऐसा व्यक्ति यदि संगीत को व्यवसाय के रुप ने अपनाता है तो वह प्रख्यात संगीतकार बन जाता है ।
भाषा
भाषा, मन की वह शक्ति है, जो नेत्र के ऊपर एवं पिछले भाग में स्थित है । जब यह शक्ति अधिक विकसित होती है, तो नेत्र सामने की ओर उभर जाते है तथा कभी-कभी नेत्रो का निचे का भाग थोडा दब जाता है । यदि भृकुटि में स्थित शक्तियां भली-भांति विकसित हो, तो उस व्यक्ति के नेत्र गड्ढों में धंस जाते है ।
तुलना
तुलना को मानसिक शक्ति ललाट के ऊपरी भाग के मध्य में होती है । इसके ऊपर परोपकारिता, निचे सम्भावित संबंध तथा दोनों ओर कार्य-करण सम्बन्ध की मानसिक शक्तियाँ होती है । असमान वस्तुओं एवं परिस्थितियों की तुलना करना इस शक्ति का कार्य है। यह विभिन्न शक्तियों द्ररा सम्प्रन्न किये गये कार्यों के परिणामों की जाँच-पड़ताल करती है । फिर समस्त परिणामों का तुलनात्मक अध्ययन करती है ।
लाथीकारण
कार्य-कारण सम्बन्ध शक्ति ललाट के ऊपरी भाग मे तुलना कीं॰शक्ति के दोनों ओंर स्थिर होती है। किसी ने इस शक्ति का विकास अघिक होता है और किसी में कम जिस व्यक्ति में इसका विकास सम्यक रूप से होता है, उसके लालट का वह भाग वृताकार दिखाई देता है । जिन व्यक्तियों की यह शक्ति पूर्णतया विकसित होती है, उनमें तर्क सम्बन्धी योग्यता असाधारण होती है । वे प्रख्यात तार्किक एवं महान शास्त्री होते है। वे जिस वस्तु की जिस रुप में देखते है, उसके उस रूप को देखकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते। वे यह जानने का प्रयत्न करते है कि उसे यह रूप कैसे प्राप्त दुआ ।
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कार्य संतुष्टि

कार्य संतुष्टि
कार्यं संतुष्टि एक जटिल संप्रत्यय है जो बहुत हद तक मनोवृति तथा मनोबल से संबंध और मिलता-जुलता है। किन्तु सही अर्थ में कार्यं संतुष्टि अपने निश्चित स्वरूप के कारण एक ओर मनोवृति से भिन्न है तो दूसरी ओर मनोबल से । औद्योगिक मनोवैज्ञानिक ने कार्य संतुष्टि को दो अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया है। हम यहाँ इन दोनों अर्थों में इस जटिल संप्रत्यय की व्याख्या करने का प्रयास करगे ।
1. सीमित अर्ध
सीमित अर्थ में कार्य संतुष्टि का तात्पर्य व्यवसाय कारक से है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि कर्मचारी के व्यवसाय से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न कारकों के प्रति उसकी मनोवृति को कार्यं संतुष्टि कहतें है। व्यवस्था से सम्बन्धित कई विशिष्ट कारक है जिनमें पारिश्रमिक, पर्यवेक्षण, कार्य परिस्थिति, पदोन्नति के अवसर, नियोक्ता के व्यवहार आदि मुख्य है। इन विशिष्ट कारक के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति जिस हद तक अनुकूल होती है उसी हद तक कार्य संतुष्टि भी सम्भावित्त होती है। किन्तु यह परिभाषा कार्य संतुष्टि के जटिल स्वरूप को स्पष्ट करने में पूरी तरह सफल नहीं है क्योंकि कार्य संतुष्टि का संबंध व्यवसाय कारकों के अतिरिक्त अन्य कारकों से भी है । अत: केवल व्यवसाय कारकों के संदर्भ में ही कार्यं संतुष्टि को परिभाषित करना  युक्तिसंगत नहीं है।
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट संबंध होने के कारण कभी-कभी इन शब्दों का समुचित प्रयोग नहीं हो पाता। अत: इन दोनों संप्रत्ययों के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देना अनावश्यक है।
1. कार्य संतुष्टि का तात्पर्य कार्य परिस्थितियों, पर्यवेक्षण तथा अपने समूह जीवन के प्रति कर्मचारी की मनोवृत्तियों से है जबकि औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य कार्यं समूह के कर्मचारियों के बीच एकता की भावना, भाईचारा तथा एकात्मता की भावना से है।
2 कार्य संतुष्टि के तीन मुख्य निर्धारक होते है जिन्हें व्यवसाय कारक,वैयक्तिक कारक तथा समूह कारक कहते हैँ। दूसरी ओंर, औद्योगिक मनोबल के चार निर्धारक होते है जिनमें सामूहिक एकता, लक्ष्य की आवश्यकता लक्ष्य के प्रति दृष्टव्य प्राप्ति तथा लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास के लिए किये जाने वाले सार्थक कार्यों म वैयक्तिक सहभागिता है।
3 कार्यं संतुष्टि मेँ वैयक्तिक लक्ष्य प्रधान होता है- जबकि मनोबल में सामूहिक लक्ष्य की प्रधानता होती है। कर्मचारी को कार्य संतुष्टि तभी होती है जब उसके वैयक्तिक लक्ष्यों जिनके निर्धारण में उसके व्यक्तिगत कारणों की भूमिका प्रमुख होती है, की प्राप्ति हो जाए। किन्तु मनोबल के बने रहने या उन्नत बनने में वैयक्तिक लक्ष्य की प्राप्ति गौण रहती है और सामूहिक लक्ष्य की प्राप्ति एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में सामने आती है।
4 कार्य संतुष्टि में संज्ञानात्मक कारक की प्रधानता होती है जबकि मनोबल में भावात्मक कारक प्रधान होते है। यदि कर्मचारी के अपने कार्य, प्रबंधन आदि से संबंधित संज्ञान अनुकूल होते है तो कार्य संतुष्टि बढ़ जाती है। दूसरी और, मनोबल का उच्च या नीच होना सामूहिक लक्ष्य के भावात्मक कारकों पर निर्भर करता है।
5 कार्यं संतुष्टि के लिए लक्ष्य की वांछनीयता में विश्वास उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना मनोबल के लिए है। सामूहिक लक्ष्यों की वांछनीयता में कर्मचारियों का विशवास. जिस हद तक होगा उनका मनोबल उसी हद तक उन्नत बन जाएगा। यह बात कार्यं संतुष्टि पर लागू नहीं होती। उपर्युक्त अन्तरों के होते हुए भी कार्यं संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट सम्बन्ध होता है तथा कार्य संतुष्टि मनोबल को बढाने में सहायक हो सकती है। सामान्यत: कार्यं संतुष्टि के बढ़ने से मनोबल ऊँचा हो जाता है तथा कार्य असंतुष्टि के बढ़ने से निम्न हो जाता है। अत:  यह कहा जा सकता है की मनोबल से भिन्न होने पर भी कार्य संतुष्टि मनोबल को प्रभावित करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण अंग है। कार्य संतुष्टि या व्यवसाय संतुष्टि के सम्बन्ध में एक मुख्य प्रश्न यह उठता है कि किन परिस्थितियों में कर्मचारी की कार्यं संतुष्टि बढ़ती या घटती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं संतुष्टि बढ़ती है और किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं असंतुष्टि बढती है। कार्यं संतुष्टि या असंतुष्टि को प्रभावित करने वाले ऐसे कारकों को निर्धारक कहा जाएगा. हैरेल ने कार्य संतुष्टि को निर्धारित करने वाले इन कारकों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा है:-
( क ) वैयक्तिक कारक
(ख) व्यवसाय कारक  तथा
(ग ) प्रबंधन कारक
हम यहीं इन तीनो प्रकार के कारकों अथवा चरों की अलग-अलग व्याख्या करेंगे यह बात उल्लेखनीय है कि यहाँ कार्य संतुष्टि की व्याख्या आश्रित चर के रूप में तथा उक्त तीन प्रकार के कारकों की व्याख्या स्वतंत्र चर के रूप में करेंगे
(क) वैयक्तिक कारक - कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारको के अंतर्गत वे कारक आते है जिनका संबंध कर्मचारी से होता है। कर्मचारी में ही कुछ ऐसे तत्त्व होते है जो उसकी कार्य संतुष्टि को निर्धारित करते हैं। इसीलिए समान कार्यं परिस्थिति तथा
प्रबंधन के होते हुए भी भिन्न-भिन्न कर्मचारियों की कार्य संतुष्टि इन व्यक्तिगत तत्वों के कारण भिन्न हो सकती है। इन व्यक्तिगत कारकों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण है।

2. आयु -कर्मचीरियों की आयु का प्रभाव भी उसकी कार्य संतुष्टि पर पड़ता है। मोर्स  के अध्ययन से पता चलता है कि कम आयु के कर्मचारियों की अपेक्षा अधिक आयु के कर्मचारियों में व्यवसाय संतुष्टि अधिक होती हैं। इसका कारण यह है कि अधिक आयु के कर्मचारियों के कार्यं अवसर इतने सीमित हो जाते है कि वे अपने कार्य से सहज ही संतुष्ट रहने लगते है। इसके विपरीत कम आयु के कर्मचारियों के समक्ष कार्यं अवसर अधिक होते है अर्थात् भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए दरवाजे खुले रहते हैँ। इसलिए वे अपने वर्तमान व्यवसाय से असंतुष्ट रहते है। इसके अलावा अधिक आयु वाले कर्मचारी पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व अधिक होता है जिससे उनकी संतुष्टि वर्तमान व्यवसाय से अधिक रहती है। दूसरी ओर कम आयु के कर्मचारियों पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व नहीं होने के कारण या कम होने के करण उनकी कार्य संतुष्टि घट जाती है। लेकिन सिन्हा ( 1973) के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उनके अनुसार कार्य संतुष्टि तथा आयु के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं होता। वास्तविकता यह है कि इन दोनों चरों के बीच कईं मध्यवर्तीय चर सक्रिय रहते है। जिनके कारण दोनों के बीच वास्तविक संबंध को निर्धारित कर पाना कठिन हो जाता है।
3. परिवार मैं आश्रितों की संख्या -कार्य संतुष्टि तथा असंतुष्टि पर कर्मचारी के परिवार में आश्रितों की संख्या का भी प्रभाव पड़ता है। किसी कर्मचारी की कार्य संतुष्टि. अन्य बातों के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसे अपने परिवार में कितने आश्रितों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। मोर्स के अध्ययन से पता चलता है कि कार्य संतुष्टि तथा कार्य-असंतुष्टि के बीच नकारात्मक सहसम्बन्ध होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आश्रितों की संख्या अधिक होने पर कार्य संतुष्टि घटती है। सम्भवत्त: इसका कारण यह है कि आश्रितों की संख्या बढ़ने से आर्थिक कठिनाई बढती है जिससे कार्यं संतुष्टि घटती है। लेक्लि सिन्हा के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उन्होंने अपने अध्ययन में कार्य संतुष्टि पर आश्रितों की संख्या का कोई सार्थक प्रभाव नहीं देखा। वास्तविकता यह है कि कार्यं संतुष्टि तथा आश्रितों की संख्या के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता बल्कि इन दोनो के बीच का मध्यवर्ती चर यथा सामाजिक-आर्थिक स्थिति, आय, जीवन स्तर आदि सक्रिय रहते है जिनके कारण दोनों के बीच संबंध जटिल बन जाता । 4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा  के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन  ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा  के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन  ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
7. आकांक्षा-स्तर -कार्यं संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारकों में कर्मचारियों की आकाक्षा का स्तर भी एक महत्वपूर्ण कारक है। जब कर्मचारी की आकांक्षा के स्तर तथा उसके व्यवसाय के बीच स्थानान्तरण नहीं होता तब उसे निराशा का अनुभव होता है और परिणामत: अपने व्यवसाय के प्रति उसकी असंतुष्टि बढ़ जाती है। मोर्स के अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है। इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि कर्मचारी की कार्य संतुष्टि मूलत: इस बात पर निर्भर करती है की व्यक्ति की आकांक्षा क्या है और वर्तमान व्यवसाय से उसकी आकांक्षा की संतुष्टि कहाँ तक हो रही है |

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Wednesday 16 December 2015

औद्योगिक मनोबल

औद्योगिक समस्याओं में मनोबल की समस्या कर्मचारी तथा उद्योगपति दोनों के
दृष्टिकोण अत्यन्त जटिल तथा महत्त्वपूर्ण है। उच्च अथवा उन्मत औद्योगिक मनोबल से जहाँ कर्मचारी तथा उद्योगपति को लाभ पहुंचता है वहीँ निम्न औद्योगिक मनोबल से उन्हें निश्चित हानि पहुँचती है। इसीलिए प्रबंधन की ओंर से हमेशा इस बात का प्रयास किया जाता है कि कर्मचारी-मनोबल उन्नत बना रहे।
साधारण अर्थ में मनोबल का तात्पर्य किसी समूह के सदस्यों के बीच एकता, भाईचारा एवं आत्मीयता के भाव से है । इस दृष्टिकोण से औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य किसी उद्योग के कर्मचारियों के बीच एकता, सौजन्य तथा भाईचारे से है किन्तु इस कथन से औद्योगिक मनोबल का स्वरूप समुचित रूप से स्पष्ट नाते हो पाता। इस संबंध में ब्लम तथा नेलर के द्वारा दी गयी परिभाषा समग्र तथा संतोषजनक मानी जाती है। उनेके अनुसार, - सामूहिक उद्देश्य तथा उस उद्देश्य की वांछनीयता में विश्वास रखते हुए उसकी पूर्ति का प्रयास कर स्वयं को समूह के द्वारा स्वीकृत कर लिए जाने तथा उस समूह का सदस्य होने की भावना को औद्योगिक मनोबल कहा जाता हैं?"
इस परिभाषा के विश्लेषण से औद्योगिक मनोबल के संबंध में निम्नलिखित बाते स्पष्ट होती है -
(1) औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य किसी उद्योग के कर्मचारी या कर्मचारियों के एक निहित भाव से है। स्पष्टत: मनोबल का संबंध मुख्य रूप से कर्मचारी की भावात्मक प्रक्रिया से है।
(11) औद्योगिक मनोबल से इस बात का बोध होता है कि कर्मचारी का अपने कार्यसमूह द्वारा स्वीकृति के प्रति कैसा भाव है | यदि कर्मचारी को इस बात का बोध होता है कि उसके समूह द्वारा उसे स्वीकृति प्राप्त है तो समझा जाता है कि उसका मनोबल ऊँचा है । यदि उसे इस बात का बोध होता है कि उसके समूह द्वारा उसकी स्वीकृति संदिग्ध है तो समझा जाता है कि मनोबल नीचा है।
3) औद्योगिक मनोबल का संबंध समूह के प्रति निष्ठा के भाव से है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि किसी कर्मचारी में अपने समूह में होने का भाव है या नहीँ, और यदि है तो उसमें निष्ठा की मात्रा किस सीमा तक है।
4) औद्योगिक मनोबल का एक लक्ष्य सामूहिक लक्ष्य तथा लक्ष्यों के प्रति कर्मचारी की मनोवृति है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कर्मचारी अपने सामूहिक लक्ष्य या लक्ष्यों के प्रति केसी मनोवृति रखता है। मनोवृति की दिशा तथा मात्रा से उच्च अथवा निम्न मनोबल का संकेत मिलता है।
5) मनोवृति का संबंध सामूहिक लक्ष्य तथा लक्ष्यों की वांछनीयता से भी है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कर्मचारी अपने समूह के लक्ष्य या लक्ष्यों को कहॉ तक वांछनीय मानते है और उनमें उनका विश्वास किस सीमा तक है। इस विश्वास की सबलता या दुर्बलता से उच्च या निम्न मनोबल का पता चलता है।
औद्योगिक मनोबल के मापदण्ड का तात्पर्य उन भावों से है जिनके आधार पर इस बात की जानकारी मिलती है कि किसी उद्योग या संगठन के कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा है या निम्न है। ऐसे मापों को या मापदण्डों को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :-
(क) वस्तुनिष्ठ माप तथा
(ख) आत्मनिष्ठ माप
(क) वस्तुनिष्ठ माप
वस्तुनिष्ठ माप का तात्पर्य उन मापों या मापदपडों से है जिनका निरीक्षण बाह्य रूप से किया जा सकता है। यहाँ कर्मचारियों के व्यवहारों तथा कार्य निष्पादन के निरीक्षण से
इस बात का प्रमाण मिलता है कि उनका मनोबल ऊंचा है या निम्न है। ऐसे मापदण्डों के निम्नलिखित प्रकार है-
1.हड़ताल-कर्मचारियों के द्वारा की जाने वाली हड़तालों से उनके मनोबल के संबंध में निश्चित जानकारी मिलती है। सामान्यत: हड़ताल से निम्न मनोबल का संकेत मिलता है जिस उद्योग में कर्मचारी प्राय:  हड़ताल पर रहते हो वहां कर्मचारियों का मनोबल निश्चित रूप से निम्न होता है। इसके विपरीत जिन उद्योगो के कर्मचारी हड़ताल नहीं करते वे स्पष्ट रूप से अपने उच्च मनोबल का परिचय देते है। गीज तथा रटर ने भी कुछ इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैँ।
2. कार्य से अनुपस्थिति-औद्योगिक मनोबल का एक मापदण्ड कार्य से कर्मचारियों की अनुपस्थिति है। यदि कर्मचारी अपने कार्य से प्राय: अनुपस्थित रहते हो तो इसका स्पष्ट अर्थ यह होगा कि उनका मनोबल निम्न है। दूसरी ओर यदि कर्मचारियों मेँ अनुपस्थिति की बारंबारता नगण्य हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है। स्पष्टत: मनोबल तथा अनुपस्थिति के बीच नकारात्मक सहसंबंघ पाया जाता है।
3. श्रमिक परिवर्तन -मनोबल की पहचान किसी उद्योग में श्रमिक परिवर्तन से भी होती है। किसी उद्योग के कर्मचारियों में श्रमिक परिवर्तन अधिक होने से निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। दूसरी ओर श्रमिक परिवर्तन में कमी से कर्मचारियों के उच्च मनोबल का संकेत मिलता है। अत: श्रमिक परिवर्तन तथा औद्योगिक मनोबल के बीच भी नकारात्मक सहसंबंध पाया जाता है।
4. उत्पादन-उत्पादन के संतोषजनक अथवा असंतोषजनक होने के अनेक कारण हो सकते है । इनमें औद्योगिक मनोबल एक महत्त्वपूर्ण कारण है। उत्पादन जहाँ उच्च मनोबल से बढ़ता है वही निम्न मनोबल से घटता है। हॉथर्न अध्ययन से भी इस विचार का समर्थन होता है। अत: यदि किसी उद्योग का उत्पादन संतोषजनक हो तो समझा जाएगा कि कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा है । इसके विपरीत यदि उत्पादन संतोषजनक नहीँ हो तो समझा जाएगा कि कर्मचारियों का मनोबल गिर गया है।
5. शिकायते -कर्मचारियों के द्वारा अधिकारियों के समक्ष की जाने वाली शिकायतों से भी उच्च तथा निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। यदि किसी उद्योग के अधिकांश कर्मचारी अधिकरियों के समक्ष बार-बार विभिन्न प्रकार की शिकायतों को लेकर आते हो तो इसका अर्थ यह होगा कि उनका मनोबल गिर चुका है। दूसरी ओर यदि कर्मचारी शिकायत करने की आवश्यकता महसूस नहीं करते हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है ।
स्पष्ट है कि कईं बाहा मापों अथवा वस्तुनिष्ठ के उपर पर निम्न अथवा उच्च मनोबल की पहचान होने का दावा किया जाता है। किन्तु यह दावा अधिकांश परिस्थितियों में संदिग्ध ही रहता हे। ब्लम तथा नेलर ने इस संदर्भ में कहा है कि बाह्य मापों के आधार पर मनोबल की सही स्थिति का पता लगाना बहुत कठिन है क्योंकि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि कोई बाह्य माप सही अर्थों में उच्च या निम्न मनोबल को ही इंगित काता है । जैसे, हड़ताल की स्थिति में कर्मचारियों का मनोबल निम्न ही हो
यह आवश्यक नहीं। कभी-कभी मनोबल उच्च होते हुए भी व्यावसायिक शर्तों के अन्तर्गत हड़ताल की जाती है। इसी तरह निम्न मनोबल वाले कर्मचारी हड़ताल पर जाएँ ही यह भी आवश्यक नहीं क्योंकि कभी-कभी वे अधिकारियों के भय और अपनी बाध्यता के कारण निम्न मनोबल के होते हुए भी हड़ताल पर नहीँ जाते। यहीं कठिनाई दूसरे बाह्य मापदण्डों के साथ भी हो सकती है। अत: मनोबल की सही स्थिति की जानकारी के लिए आत्मनिष्ठ मापदण्डों का उपयोग भी आवश्यक है।
(ख) आत्मनिष्ठ मापदण्ड
आत्मनिष्ठ मापदण्ड का तात्पर्य कर्मचारियों के दिए गए विभिन्न प्रतिवेदनों से है। इन मापों या मापदण्डों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. एकता का भाव -जब एक कार्य समूह के सदस्यों में एकता का भाव होता है तो समझा जाता है कि औधोगिक मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत जिस हद तक एकता के भाव में कमी होती है उसी हद तक कर्मचारियों में मनोबल की कमी की धारणा बनती है |
2. सामूहिक लक्ष्य कै प्रति मनोवृति -यदि कर्मचारियों की मनोवृति अपने समूह लक्ष्य के प्रति अनुकूल होती है तो समझा जाता है की उनका मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत जब कर्मचारी में अपने समूह लक्ष्य के प्रति धनात्मक मनोवृति का अभाव होता है तो उसके निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। अत: जहाँ धनात्मक मनोवृति उच्च मनोबल की सूचक है वहीँ ऋणात्मक मनोवृति निम्न मनोबल को इंगित करतीं है।
3. अहम् सन्निहितता का भाव- जब किसी कार्य समूह के कर्मचारियों में अपने समूह-लक्ष्य में अपने अहन्के सग्निहित होने का भाव हो तो यह समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है । समूह लक्ष्य में अहम् के सन्नि हित होने का अर्ध है उस लक्ष्य के प्राप्ति से संतुष्टि महसूस करना और उसकी प्राप्ति को दिशा में असफलता से असंतुष्टि का हैंत्मा। इसके विपरीत, अपने समूह-लक्ष्य में अहमू के सन्निहित नहीँ होने की स्थिति में निम्न मनोबल का संकेत मिलता है।
4. 'हम' का भाव -उच्च मनोबल की पहचान 'हम' का भाव है जबकि निम्न मनोबल की पहचान 'मैं' का भाव है। यदि किसी कार्य-समूह के सदस्यों में 'हम' का भाव है अर्थात् उनमें आपस में अटूट सम्बन्ध है तो यह समझना चाहिए किं उनका मनोबल ऊँचा है। और यदि कर्मचारियों में 'मैं' भाव की प्रधानता हो अर्थात् उनमें वैक्तिकता की भावना अधिक हो तो यह समझा जाएगा कि वे निम्न मनोबल के शिकार हो चुके है।
5. नेतृत्व के प्रति निष्ठा -किंसी उद्योग में नैतृत्व के प्रति यदि कर्मचारियों में पर्याप्त निष्ठा उपलब्ध हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत नैतृत्व के प्रति निष्ठा का अभाव कर्मचारियों के निम्म मनोबल का परिचायक होता है। यह बात प्रजातांत्रिक तथा सत्तावादी दोनों प्रकार के नेतृत्व पर लागू होती है।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि उच्च तथा निम्न मनोबल की पहचान कई आत्मनिष्ठ मापदण्डो' अथवा अतिरिक्त मापों से संभव होती हैं | यदि कर्मचारी अपने आत्मनिरीक्षण प्रतिवेदन, देने में तटस्थता तथा ईमानदारी बरते तो ये सभी आन्तरिक माप अत्यन्त विश्वसनीय प्रमाणित होगे और उनके आधार पर मनोबल की सही स्थिति को यथार्थ रूप से समझना संभव हो जाएगा। किन्तु यदि कर्मचारी कई कारणों से सही बात को छिपा कर गलत प्रतिवेदन प्रस्तुत करे तब उस स्थिति में मनोबल की सही जानकारी नहीं मिल पाएगी। अत: औद्योगिक मनोबल उच्च है अथवा निम्न है इसकी सही जानकारी के लिए बाह्य मापी के साथ आन्तरिक पापों का उपभोग सहायक म/घो' के रूप में' किया जाना अधिक वांछनीय प्रतीत होता है |



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कर्मचारी चयन का महत्त्व


औद्योगिक संगठनों में कर्मचारी चयन अथवा व्यावसायिक चयन मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि औद्योगिक मनोविज्ञान के उद्देश्य की प्राप्ति एक बडी सीमा तक सही कर्मचारी चयन पर निर्भर करती हे। इसी बात को ध्यान में रखकर वाड़टलै ने कहा है कि, कर्मचारी को उपर्युक्त कार्य पर लगाना उद्योग में वैयक्तिक कुशलता एव समायोजन को बढाने से प्रथम तथा संभवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है | कर्मचारी चयन अथवा व्यावसायिक वयन का महत्त्व उपयुक्त उक्ति से स्पष्ट हो जाता है
 वैयक्तिक कुशलता के लिए -कर्मचारी चयन वस्तुत्त: किसी कर्मचारी की व्यक्तिगत कुशलता के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। सही कर्मचारी चयन के होने पर व्यक्ति की अपनी योंग्यताएँ समुचित रूप से विकसित होती है जिससे उसकी कार्यकुशलता में भी वृद्धि होती है। इसके विपरीत व्यवसाय से व्यक्ति के गलत नियोजन की स्थिति में उसकी योग्यताएँ समुचित रूप से विकसित नहीं हो पाती न ही उसकी कार्यकुशलता समुचित बन जाती है। अत: वैयक्तिक कुशलता को समुचित बनाने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मचारी का नियोजन सही हो।
 वैयक्तिक समायोजन के लिए-कर्मचारी चयन का सही होना न केवल व्यक्ति की कार्य कुशलता के दृष्टिकोणा से महत्त्वपूर्ण है बल्कि उसके वैयक्तिक समायोजन के  दृष्टिकोण से भी है। जब सही कार्यं के लिए किसी सही व्यक्ति का चयन किया जाता है तो वह अपने उद्योग में समायोजित होता है। यह बात उल्लेखनीय है कि उद्योग एक सामाजिक संगठन है जिसमेँ अन्य सामाजिक-मकानो की तरह सामाजिक पारस्परिक क्रिया होती है। जो कर्मचारी किसी कार्य में सही रूप से नियोजित होते है वे उद्योग में पारस्परिक संबंधो को समुचित रूप से निभाने में सफल होते है। किन्तु गलत कार्य में नियोजित होने पर कर्मचारी में अन्तवैक्तिक संबंध दोषपूर्ण हो जाता है| जिसके कारण वह नाना प्रकार के कुशोमायोजन के लक्षणों से पीडित हो जाता है। इस दृष्टिकोण से भी यह आवश्यक है कि व्यावसायिक चयन को यथासम्भव सफल बनाने का प्रयास किया जाए।
 उत्पादन के लिए- कर्मचारी चयन तथा उत्पादन के बीच घनिष्ट संबंध होता है। अध्ययनों से पता चलता है कि जब कर्मचारियों का कार्यनियोजन सही तौर पर होता है तब उत्पादन संतोषप्रद होता है क्योंकि कर्मचारी में कार्यं के प्रति संतुष्टि तथा अनुकूल मनोवृति होती है जिससे कार्य करने में रुचि मिलती है और आनंद का अनुभव होता है। दूसरी ओर गलत कार्य नियोजन की स्थिति में कर्मचारी अपने कार्य से असंतुष्ट होता है, कार्यं में रुचि नहीं मिलती, अत: कार्यं के प्रति उदासीनता बद जाती है और कार्यं कुशलता घट जाती है। अत संतोषजनक उत्पादन के लिए यह अनावश्यक है कि कार्य में व्यक्ति का सही नियोजन हो।
बेहतर आय के लिए- कर्मचारी की आय के दृष्टिकोण से भी व्यवसायिक चयन की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। सही कार्य के लिए सही व्यक्ति के चयन होने पर उसे अपने कार्यं से संतुष्टि का अनुभव होता है इसलिए वह अधिक मेहनत के साथ काम करता है जिससे उत्पादकता बढ़ जाती है और उसके बदले उसे प्रबंधन की ओर से अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाता है। ऐसे कर्मचारियों को प्रबंधन की ओर से अधिक समय की भी व्यवस्था होती है, उजरती-विधि की स्थिति में बढ़ते हुए उत्पादन के साथ उसकी आय बढती है। लेकिन गलत कार्य नियोजन की स्थिति मेँ जाय घट जाती है क्योंकि अपने कार्य से असंतुष्ट कर्मचारी नीरसता का अनुभव करता है और उत्पादन घट जाता है जिसके करण उसे उजरती विधि में भी कम आय होती है और अधिसमय की संभावना भी नगण्य बन जाती है। अत: आय के दृष्टिकोण से भी कर्मचारी चयन का सही होना अनावश्यक है। नियोजित नहीँ हो पाता तो वह अपने कार्य से असंतुष्ट रहा करता है, कार्यं के प्रति उदासीन बन जाता है, नीरसता एवं प्रतिक्रियात्मक अवरोध की मात्रा बढ़ जाती है तथा ध्यान भंग अधिक होता है जिससे दुर्घटना करने की प्रवृति बढ़ जाती है। दुर्घटना से कर्मचारी तथा उद्योग दोनों को हानि होती है। अत दुर्घटना प्रवृत्ति को घटाने के लिए भी यह आवश्यक है कि कार्यं में कर्मचारी का नियोजन सही हो।
 प्रोन्नति के लिए -कर्मचारी चयन का महत्त्व कर्मचारी की प्रोन्नति केक दृष्टिकोण से भी कम नहीं है। जब सही कार्य के लिए सही व्यक्ति का चयन किया जाता है तो ऐसी स्थिति में उसे कार्य संतुष्टि प्राप्त होती है जिससे उसकी वैयक्तिक कुशलता बढ़ जाती है और उत्पादकता काफी संतोषप्रद होती है। वह अपने कार्य से पूरी तरह समायोजित होता है। ऐसे कर्मचारियों के प्रति प्रबंधन की मनोवृति अनुकूल होती है और पुरस्कार के रूप में उनकी पदोन्नति दी जाती है। इसके साथ- साथ प्रबंधन की ओर से ऐसे कर्मचारियों को प्रशंसा के रूप में पुरस्कार मिलता है तथा उसकी तृप्ति में उनका सम्मान बढ़ जाता है। दूसरी ओर जो कर्मचारी अपने कार्य से सही तौर पर नियोजित नहीँ हो पाते वे कार्य असंतुष्टि का अनुभव करते है जिससे उत्पादन घट जाता है। फलत: प्रबंधन की दृष्टि में उनका सम्मान घट जाता है, निदा के रूप में दण्ड मिलता है तथा प्रोन्नति की संभावना क्षीण हो जाती है। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि कर्मचारी चयन का सही होना बहुत आवश्यक है।
 बेहतर पारिवारिक समायोजन के लिए- आज से बहुत पहले इस वास्तविकता की ओर संकेत किया था कि कर्मचारी अपने उद्योग के भीतर जो अनुभव करता है उसे वह परिवार तक ढोकर ले जाता हैं। उनका यह विचार आज भी संगत प्रतीत होता गलत कर्मचारी चयन की स्थिति में जब कर्मचारी अपने कार्य, अपने अपने अधिकारियो के साथ समायोजित नही हो पाता और कुसमायोज़न के लक्षणों का शिकार बन जाता है, वह अपने परिवार के अदर पति-पत्नी या बच्चों के साथ भी समायोजित नहीं हो पाता। इस प्रकार उसका परिवार ही नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर जो कर्मचारी अपने कार्य में समायोजित होते है वह न केवल अपने सहकर्मियों अधिकारियों के साथ बेहतर समायोजन स्थापित कर पाते है बल्कि उनका जीवन भी सफल तथा सुखद होता है।
 मानसिक स्वास्थ्य के लिए-मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी व्यावसायिक चयन काफी महत्त्वपूर्ण है। सही व्यावसायिक चयन स्थिति में कर्मचारी मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है क्योंकि वह अपने कार्यं से संतुष्ट रहता है, कार्यं में रुचि रखता है तथा कार्यं करते समय आनंद का अनुभव करता है | उसका संबंध सहकर्मियों तथा मैनेजरों के साथ संतोषजनक रहता है। उसके संबंध परिवार तथा समाज के विभिन्न वर्गों के साथ भी संतोषजनक रहता है। इस तरह वह उधोग के भीतर या बाहर मानसिक द्वंदों चिन्ताओं, कुषठाओं आदि से मुक्त रहता है| मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। ऐसे स्वस्थ कर्मचारियों से ही स्वस्थ वातावरण का निर्माण होता है। इसके विपरीत गलत कर्मचारी चयन की ' कर्मचारीगण मानसिक रूप से अस्वस्थ होते है जिसके कारणा संगठनात्मक प्रदूषित हो जाता है। यह बात उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में भी मनोवैज्ञानिकों अथवा संगठनात्मक मनोवैज्ञानिकों का सबसे कर्त्तव्य किसी संगठन के वातावरण को स्वस्थ बनता है जिसके बिना उद्योग के लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
  
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मानसिक स्वास्थ्य-विज्ञान

आधुनिक भारत की प्रगति का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने पर इस तथ्य पर प्रकाश
पड़ता है कि भारत ने जहाँ एक ओर वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास में प्रगति कर अपने को विकासशील देशों की वेणी में खड़ा कर दिया है, वहीं देश की भौतिक प्रगति ने मानव जीवन के समक्ष अनेक समस्याएँ एवं जटिलताएँ उत्पन्न कर दी है। भौतिकवाद के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य बदल गया है, मानव मूल्य परिवर्तित हो गये है, स्वस्थ जीवन का दर्शन का अभाव हो गया है, धन संपदा के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण में अस्थिरता आईं है तथा जनसंख्या में अपार वृद्धि हुई है जिसके कारण उनका व्यक्तित्व विघटित हो गया है,उनमें तनाव और कुण्डा अधिक मात्रा में पायी जाने लगी है, उनका मानसिंक संतुलन भंग हो गया है। उनका सामाजिक समायोजन अप्रभावी हो गया है तथा वे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गये है मानसिक अस्वस्थता के कारण व्यक्ति ने ना तो समाज में उपयुक्त अन्तर्किंया कर सकता है और न उपयुक्त समायोजन ही स्थापित कर सकता है। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य व्यक्तित्व विघटन को रोकता है। अस्तु व्यक्ति के लिए उत्तम मानसिक स्वास्थ्य का ज्ञान ही आवश्यक नहीं वरन उन कारणो की रोकथाम भी आवश्यक है जो मानसिक कुस्वास्थ्य के लिए उत्तरदायी है जिससे व्यक्ति समाज में प्रभावपूर्ण समायोजन स्थापित कर सके और अपना जीवनयापन सुचारु रूप से कर सके। परन्तु मानसिक स्वास्थ्य के बारे म प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से अवगत कराना होगा। जिसके द्वारा मानसिक रोगों की रोकथाम तथा उनका उपचार किया जाता हैं। स्वस्थ शरीर का तात्पर्य केवल शारीरिक दोषों से युक्त होना ही नहीँ है वरन मानसिक रोगों एवं दोषों से मुक्ति से भी है। इसीलिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में मनोंचिंकित्सा का भी समावेश किया गया है ताकि मानसिक रोग उत्पन करने वाले कारणों को ज्ञात किया जा सके और उनका उपचार किया जा सके।
मानसिक आरोग्य-विज्ञान के पक्ष मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की प्रस्तुत की गई परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि मानसिक आरोग्य विज्ञान के निम्नलिखित तीन पक्ष है-
1. निरोधात्मक उपाय
मानसिक आरोग्य विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष असामान्य परिस्थितियों को उत्पन्न करने वाले कारकों को नियंत्रित करना मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि करने वाले आवश्यक एवं वांछित दशाओं के उत्पन्न करना है ताकि व्यक्ति सुचारु रूप से अपना जीवन-यापन कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमेँ इस व्यक्ति का प्रयास करना होगा कि व्यक्ति की जैविक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक परिस्थितियों उसके अनुकूल हो जिससे वह व्यक्ति केवल बाह्य समायोजन ही नहीं, वरन् आन्तरिक समायोजन भी स्थापित कर सके और समाज में एक रचनात्मक व्यक्ति की भूमिका निर्वाह कर एक योग्य नागरिक बन सके। मानसिक रोगों की रोकथाम के लिए जैविक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक उपायों का प्रयोग किया जा सकता है जिनका वर्णन अधोलिखित है-
(1)जैवकीय निरोधात्मक उपाय- अगर शारीरिक स्वास्थ्य उत्तम तथा संतोषजनक होगा तो मस्तिष्क का विकास भी पूर्णरूप से होगा, और मानसिक विकृतियों का आभाव पाया जायेगा और व्यक्ति कठिनाइयों तथा अपनी जटिल परिस्थितियों का सामना ठीक से कर सकेगा। अध्ययनों में यह परिणाम प्राप्त किया गया है कि कुछ शारीरिक रोगो तथा सिफलिस और ब्रेन दूँयूमर में मानसिक लक्षण अधिक पाये जाते हैँ। अत: ऐसे रोगो के रोकथाम के लिए प्रयास करना चाहिए। इन शारीरिक रोगों के अतिरिक्त कुछ जैविका कारण भी होते है|
जो मानसिक रोगों के जनक होते है यथा गर्भ या जन्य के समय अनुपयुक्त जैविक परिस्थिति का होना माता-पिता की अस्वस्थता आदि। अत: इस प्रकार गर्भवती माता को उपयुक्त देखभाल समय-समय पर परीक्षण संवेगात्मक परिस्थिति से बचाव करना चाहिए। साथ-ही-साथ प्रतिकूल आनुवांशिक संरचना वाले माता-पिता का कानूनी तौर पर वनध्याकरण होना चाहिये ताकि मानसिक रोगी बच्चों का जन्म न हो सके। अस्तु इस दिशा म मनोवैज्ञानिकों एवं मनोचिकित्सकों को यह प्रयास करना चाहिए कि मानसिक रोगों पर जैविक प्रभावों के रोकथाम के लिए प्रयास करें
2) मनोवैज्ञानिक निरोधात्मक उपाय -व्यक्तियों में मानसिक आरोग्यता लाने का उत्तरदात्वि केवल माता-पिता पर ही नहीं, वरन शिक्षकों तथा समाज के लोगों का भी है, इस दिशा में माता-पिता तथा शिक्षकों को इस बात का प्रयास करना चाहिए कि वे बालकों में ऐसी योग्यता विकसित करे , जिससे वे भावी जीवन में आने वाली कठिनाइयों एवं समस्याओँ का निराकरण कर सके और सामाजिक वातावरण में उपयुक्त समायोजन स्थापित कर सके। उन्हें चाहिए कि वे बच्चों में ऐसे जीवन मूल्यों को विकसित करें जिससे बच्चे बड़े होकर समाज को एक रचनात्मक दिशा प्रदान कर सके। बालको में ऐसी अभिवृतियों का निर्माण करना चाहिए जिससे वे पर्यावरण सबंधी दबावपूर्ण, परिस्थितियों का सामना कर सके। व्यक्ति का जीवनदर्शन दोषपूर्ण होने पर उनमें अपनी कठिनाइयों से निपटने के क्षमता का हास पाया जायेगा इन उपायों का प्रयोग करके मानसिक अस्वास्थ्य की जटिल समस्या का समाधान किया जा सकता है। मानसिक रोगों की रोकथाम के लिए मनोवैज्ञानिक निरोध के रूप म उचित जीवन दर्शन विकसित करने का प्रयास, सामाजिक योग्यताओं को विकसित करने का प्रयास, संवेगात्मक नियन्त्रण का प्रयास एवं उपयुक्त शिक्षा आदि का व्यवस्था करनी चाहिये।
मानसिक रोगो की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपायों प्रयोग किया जा सकता है :-
( अ ) स्वस्थ व्यक्तित्व के विकास के लिए प्रवास करना चाहिये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि माता-पिता एवं बच्चों के बीच सहानुभूतिपूर्ण संबंध हो। सामाजिक जीवन के निर्वाह के लिए उपयुक्त प्रशिक्षण दिया जाये, उनकी स्वतन्त्रता पर अनावश्यक प्रतिबन्ध न लगाये जाय. जीवन की यथार्थताओं का अनुभव उन्हें निकट से करने दिया जाय तथा उसे समूह अथवा परिवार का एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति समझा जाये।
(ब ) मूलभूत यौग्यत्ताओं के विकसित करने में सहायक होना चाहिए: इस दिशा में इस बात का प्रयास करना चाहिये कि बच्चों को सवेगात्मक नियन्त्रण स्थापित करने में कठिनाई न हो, व्यक्ति में अत्यधिक भावुकता न पाई जाय, ऋणात्मक संवेगों यथा क्रोध है भय,चिंता आदि का सामना करने की योग्यता विकसित करनी चाहिये, समस्यापूर्ण संवेगों का सामना करने की क्षमता विकसित होनी चाहिये तथा धनात्मक संवेगों यथा प्रेम एवं विनोद को प्रोत्साहित करना चाहिये।
( स) सामाजिक क्षमताओं को विकसित करना चाहिये, इसके लिए पारम्परिक अधिकारों आवश्यकताओं एवं उत्तर्दयित्यों का बोध कराना चाहिये तथा व्यक्ति में अपने को और दूसरों को समझने की योग्यता होनी चाहिये,
( द ) अखण्ड व्यक्तित्व को विकसित करने में सहायक होना चाहिए।
( ई ) सफल वैवाहिक समायोजन होना चाहिये ताकि पति-पत्नी एकदूसरे के प्रति ही नहीं वरन् परिवार के सदस्यों के प्रति अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत रह सके।
मानसिक रूथ से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण
1. नियमितता-ऐसे व्यक्तियों की दिनचर्या उसका लिबास,उसका जीवन आदि नियमित होता है और वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानकों के अनुकूल होता है। ऐसे व्यक्ति केवल अपने व्यावसायिक कार्यों में ही नियमितता नहीँ प्रदर्शित करते है वरन जीवन के हर क्षेत्र में इनके व्यवहार में नियमितता पाई जाती है।
2. परिपक्वता -मानसिक रूप से स्वस्थ्य व्यक्तियों में सामाजिक परिपक्वता पाई जाती है। उनके कार्यों एवं व्यवहार पर उनके सामाजिक तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। ऐसे व्यक्ति समाजोयुवत व्यवहार एवं आचरण प्रदर्शित करते हैं।
3. जीवन लक्ष्य -सभी व्यक्तियों के अपने जीवन लक्ष्य तथा जीवन में उनकी अपनी कुछ आकाक्षाएँ होती है, जो व्यक्ति अपने परिवार एवं समाज की आवश्यकताओं के प्रतिकूल जीवन लक्ष्य निर्धारित कर लेते है, वह अपने जीवन लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रहते है परन्तु मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने परिवार, संस्कृति एवं समाज की मान्यताओं एवं आदर्शी को ध्यान में रखकर जीवन लक्ष्य निर्धारित करते है और उन्हें पूरा करके आदर्श नागरिक बनाते हैं।
4. उपयुक्त समायोजन -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में उपयुक्त समायोजन के गुण पाये जाते है, ऐसे व्यक्ति साधारण एवं जटिल परिस्थितियों में भलीभांति समायोजन स्थापित कर लेते है और परिस्थितियों की जटिलताओं से हतोत्साहित नहीँ होते हैँ।
5. आत्म मूल्यांकन -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने गुण,अवगुणों का सहीं मूल्याकन करते है वह अपनी वास्तविकताओं को समझते है, तथा वे न तो अपना मूल्यांकन ही करते है और न अतिमूल्याकन ही।
6. आत्म विश्वास-मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी नहीं पाई जाती है ऐसे व्यक्ति जिन कार्यों को करते है आत्म विशवास से करते हैँ। इनमें अधीरता नहीं पाई जाती है तथा जटिल परिस्थितियों में सामना करते समय आत्मविश्वास बनाये रखते हैँ।
7. संवेगात्पक स्थिरता -समी व्यक्ति संवेगात्मक परिस्थितियों में संतुलित व्यवहार नहीं कर पाते हैं। परिणामस्वरूप उनकी संवेगात्मक अभिव्यक्तियों अनिश्चित रहंती है जबकि मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने संवेगों को नियंत्रित रखते है । सामाजिक परिस्थितियों में न तो वह अत्यधिक प्रेम प्रदर्शित करते है और न अत्यधिक क्रोध ।
8. सन्तोष -मानसिंक रूप से स्वस्थ व्यवित्तर्या के पास जो कुछ होता है उसी में यह संर्ताष करते है जिस व्यवसाय में रहते है, उसमें संतोष अनुभव करते है और जो कुछ उसे उपलब्ध है, उसे ही ईश्वर का प्रसाद मानते है।
9. अतिशयता का आभाव -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने व्यवहार,आकांक्षा, संभाव, संवेग आदि के सन्दर्भ में अतिशयता पूर्ण व्यवहार नहीं करते है। इनका व्यवहार सर्वदा संतुलित रहता है न तो उनकी आकाक्षा बहुत उच्च होनी है और न वह अत्यधिक सम्मान प्राप्त करने की ही इच्छा करते हैं।
10. सामाजिक संपर्क -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति सामाजिक परिस्थितियों में धैर्य नहीँ खाते है तथा परिचित एवं अपरिचित व्यक्तियों से बातचीत में अपना विवेक-आत्मविश्वास एवं संतुलन बनाये रखते हैँ।
11. संवेदनशीलता -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों में अत्यधिक संवेदनशीलता नहीँ पाई जाती है। जबकि मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति अत्यधिक संवेदनशील होते है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति अत्यधिक गंभीर दृष्टिकोण नहीं अपनाते है। उनमें हास्याबोध पाया जाता है इसलिये वह इस तरह की घटनाओं को अधिक महत्व नहीं देते हैं।
12. आत्म सम्मान -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति जहाँ अपने आत्म संम्मान की रक्षा का प्रयास करता है वहीं वह किसी ऐसे व्यवहार को भी नहीं करता है जिससे दूसरों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचे। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति स्वयं भी संतुष्ट रहते है और अपने सदव्यवहार से दूसरों को भी संतुष्ट रखते हैँ।
13. उपयुक्त सामाजिक व्यवहार -मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति परिवार तथा समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ उपयुक्त अन्तर्किंया करते है और सामाजिक नियमों का पालन करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज विरोधी कार्य न तो करते है और न दूसरा को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते है।
14) पारिवारिक अंतक्रिया-मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति परिवार के सदस्यों के साथ उपयुक्त व्यवहार करने है वे ऐसा व्यवहार नहीं करते है जिससे परिवार के सदस्यों का या उनका जीवन कष्टमय या कलापूर्ण हो।
15.संतुलित व्यक्तित्व-मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों का व्यक्ति संतुलित होता है उनका स्वभाव व चरित्र, विवेक तथा अर्जित विन्यास इस प्रकार होते है कि वह वातावरण के साथ अपूर्व अनुकूल स्थापित कर लेते हैं।
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बाल अपराध के कारण

1. जैविक कारक
बाल अपराध की उत्पत्ति में वंशानुक्रम तथा शारीरिक दोनों ही प्रकार के जैविक कारकों
का योगदान होता है।सीजर लोम्बोसो तथा सिरिल बर्ट नै बाल अपराध की उत्पत्ति में वंशानुक्रम  को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है। लोम्ब्रोसो के अनुसार अपराधी जन्मजात होते है और उनकी कुछ निश्चित शारीरिक व मानसिक विशेषताएँ होती हैँ। बर्ट के विचार भी इसी प्रकार के है। शारीरिक कारकों का बालक के व्यक्तित्व एवं व्यवहार पर गहरा प्रभाव पडता है। यदि शारीरिक विकास असामान्य हो तो बालक के व्यवहार में भी असामान्यता उत्पन्न हो सकती है। शरीर का असन्तुलित विकास, शारीरिक दोष, टी बी, दृष्टिदोष, आदि कारक अपराध को बढावा देते हैँ।
2. सामाजिक कारक-बाल अपराध को बढावा देने वाले सामाजिक कारकों में सर्व प्रमुख है परिवार की दशाएँ। इसके अतिरिक्त विद्यालय तथा समाज की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण से अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है। यदि परिवार का वातावरणा स्वस्थ न हो तो बालक के व्यक्तित्व पर इसका बुरा असर पड़ता है। परिवार में संरक्षक की मृत्यु, माता-पिता के बीच तलाक, धन अर्जित करने वाले व्यक्ति का शराबी हो जाना आदि ऐसी भग्न परिवार की स्थितियों है , जिनमें नियन्त्रण के अभाव के कारण बालक स्वतंत्र और उच्छखल हो जाते है और उनके अन्दर अपराध प्रवृत्ति बढती है। माता-पिता के अशिक्षित होने से बालको को समुचित मार्ग दर्शन नहीँ मिल पाता। परिवार में यदि माँ-पिता, भाई-बहन या किसी अन्य सदस्य का अनैतिक चरित्र होता है तो उसका भी कुप्रभाव बालकों पर पड़ता है और उनमें आपराधिक प्रवृतियाँ बढती है। माता-पिता द्वारा अपने बालकों के बीच पक्षपात करने से तिरस्कृत बालक के अन्दर विद्रोह की भावना जन्म लेती है जिससे वह आक्रामक हो सकता है। जिन निम्न सामाजिक आर्थिक स्थिति के कारण जब परिवार में बालको की आवश्यकताएँ सामान्य रूप से पूरो नहीं हो पाती तो बालक चोरो आदि की प्रदृत्ति विकसित कर लेते है। विद्यालय में बालक अपने दिन का अधिकांश समय व्यतीत करता है अत: वहीं के वातावरण का प्रभाव बालक के ऊपर विस्तृत रूप से पडता है। विद्यालय का दूषित भौतिक वातावरण, दूषित, पाठ्यक्रम. शिक्षकों का दुर्व्यवहार, मनोरंजनो के साधनों का अभाव आदि ऐसे अस्वस्थ कारक है जो बालको के अन्दर अपराध प्रवृति उत्पन्न करती है| समाज का दूषित वातावरण भी बालकों को अपराधी बनाने में सहायक होता है। शराब, वेशयावृत्तिद, जुआ, बेमेल विवाह आदि दूषित वातावरण एवं कुप्रथाओं के प्रभाव से भी बालको में अपराध प्रवृत विकसित होती है। समाज का गिरा चरित्र, दूषित वातावरण, दूषित साहित्य, दूषित राजनीति, खराब प्रभाव डालनेवाले चलचित्र, पास पडोस का दूषित वातावरण, मनोरंजन के अत्यधिक साधन होना अथवा अत्यन्त सीमित साधन होना, बुरे साथी, सामाजिक क्रुप्रथाएँ आदि ऐसे सामाजिक कारक है जो बालकों में अपराध के बढावा देते है।
3. मनोवैज्ञानिक कारक-बहुत से ऐसे मनौवैज्ञानिक कारक है जो बालक की अपराध प्रवृति को उत्पन्न करने और विकसित करने मे सहायक होते है। लगभग एक प्रतिशत बाल अपराधियों में अपराध का कारणा मस्तिष्क क्षति पाई गई है। पाच प्रतिशत बाल अपराध का कारण निम्न बुद्धि स्तर पाया गया है। निम्न बुद्धि के कारण बालक अपने व्यवहार के परिणाम को जान सकने में असमर्थ होता है और अपने अज्ञान के कारण ही अपराधी गैंग का शिकार हो जाता है जो उस पर प्रभुत्व जमाते है, उसका शोषण करते है और निरन्तर उसे अपराध कार्यों में लगाये रखते है।
मनस्ताप एवं मनोविक्षिष्टि भी बाल अपराध व्यवहार के साथ सम्बद्ध पाई गई हैं। लगभग तीन से पॉच प्रतिशत बालअपराधी मनस्तापीय विकारों से ग्रस्त होते है। लगभग इतना ही प्रतिशत मनोंविक्षिप्ति से ग्रस्त बाल अपराधियों का है। बाल अपराधियों का व्यक्तित्व मनोविकारी होता है। ये आवेगी अनियत्रित तथा शर्म एवं अपराध भावना से युक्त होते है। चूंकि इनमें नियन्त्रण का अभाव होता है। ये बिना किसी योजना के, मात्र क्षणिक आवेश में कोई आपराधिक कृत्य कर डालते है जैसे बिना आवश्यकता के कुछ धन चुरा लेना या वे केई कार चुरा लेते है और थोडी दूर तक ले जाकर उसे छोड़ देते है। इनके आवेगी कृत्य कभी-कभी हिसक भी हो जाते है और व्यक्ति अथवा सम्पत्ति को हानि पहुँचाते है। इस प्रकार अनेक जैविक,सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक कारण अपराध की उत्पत्ति एवं उसके विकास में सहायक होते है |



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व्यक्तित्व में सुधार कैसे

मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त करने के अनेक पहलुओं पर विचार करके उनमें सुधार लाने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है । जिन में से व्यक्तित्व का सुधार अत्यंत महत्वपूर्ण है जैसा कि हम जानते है व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू है ।
1बाहरी स्वरूप
2 आन्तरिक स्वरूप या मानसिक व्यक्तित्व
1बाहरी स्वरूप : बाहरी व्यक्तित्व व्यक्ति के शारीरिक ढाचे उसके रूप रंग उसके अंगों के आकार व प्रकार से बना होता है और वह सभी का जैसा होता है वैसा ही दिखाई देता है बाहरी स्वरूप में सामान्य व्यक्तियो की भांति अधिकतर लोग दिखाई देते है लेकिन कुछ व्यक्तियों में शारीरिक विकास होता है जो की या तो जन्मजात होता है या किसी घटना या दुर्घटना के कारण हो जाता है शारीरिक विकास मनुष्य की कार्य क्षमता पर प्रभाव डालता है ।
2 आन्तरिक स्वरूप या मानसिक व्यक्तित्व : मानसिक व्यक्तित्व किसी भी व्यक्ति की मस्तिष्क की कार्य प्रणाली पक्ष आधारित होता है अर्थात किसी व्यक्ति का मस्तिष्क किस प्रकार कार्य करता है उसके विचार, उसकी भावनाएं, उसकी सोच, उसकी समझने की शक्ति सब कुछ मस्तिष्क की कार्यप्रणाली पर निर्भर होता है अत: व्यक्तित्व में सुधार के लिए हमें दो प्रकार से सचेत होना पड़ता है ।
1भौतिक या शारीरिक
2मानसिक या मनोवैज्ञानिक
उपरोक्त दोनों प्रकार के पहलूओं में सुधार लाने के लिए अनेकानेक प्रक्रियाएं की जाती है जिनका वर्णन निम्न प्रकार है ।
1.भौतिक या शारीरिक सुधार : शरीर माध्यम अर्थात शरीर निश्चय रूप से सभी धर्मो का मुख्य साधन है शारीरिक प्रक्रिया में निम्न प्रकार से सुधार लाये जा सकते हैं ।
1.शरीर की देखभाल या रखरखाव -इसके अन्तर्गत शरीर कं अंगों के निरन्तर देखभाल से हमारा शरीर और उसकी दिखावट ठीक रहती है । सारा दिन कार्य करने के उपरान्त शरीर में थकावट भी होती है और अगले दिन काम लिए शारीरिक क्षमता को बनाये रखना होता है इसके लिए बालों की देखभाल कटिंग, तेल या क्रीम लगाना कंघी करना शामिल है उसके अतिरिक्त आखों को स्वच्छ रखना गुलाब जल सुरमा अथवा काजल आदि का प्रयोग किया जाता है हाथों और पैरों के नाखुन समय-समय पर काटते रहना चाहिए चेहरे की चमक बनाये रखने के लिए क्रीम आदि का प्रयोग कते रहना चाहिए इसी प्रकार शरीर के बाहय अंगों को ठीक प्रकार देखभाल से शारीरिक सुधार होता है । शारीरिक व बाहरी सुधार के लिए निम्न क्रियाएं करनी चाहिए
(क)चिकित्सा : यदि किसी व्यक्ति को किसी प्रकार का रोग या विकार है तो इसे अपने को ठीक रखने के लिए जल्द से जल्द चिकित्सा करानी चाहिए क्योंकि कोई भी रोग या विकार यदि समय रहते नियंत्रित नहीं जिया जाए तो भयंकर रूप ले लेता है ।अपनी शरीर की आवश्यकताओं को समयनुसार समझना भी कार्य के अनुसार समय-समय पर शारीरिक निरीक्षण करवाते रहना । शरीर के सभी अगो को अपेक्षित प्रकार से संचालित रखना क्योकि कुछ कार्यों में केवल कुछ ही अंगों पर अधिक दबाव रहता है और बाकी अंग निष्क्रिय रहते है अत: निष्क्रिय अंगों का संचालित कर व कार्यशील अंगो को आराम देकर शारीरिक स्वरूप बढाया जा राकता है । कार्य के वातावरण से हानिकारक तत्वों को सीमित करना । कार्य में होने वाले प्रदूषण व् कार्य से उत्पन्न जोखिमों से निपटने के लिए सुरक्षात्मक उपकरण रखना । कार्य के जोखिम के अनुसार उचित प्रशिक्षण प्राप्त करना । शारीरिक योग्यता को बताने के लिए योग्य प्रशिक्षकों से शिक्षण प्राप्त करना । उपकरणों के प्रयोग से पहले उनकी अपेक्षित जाच जिनसे की प्रयोग करते समय दुर्घटना का कारण न बने । अभिभावकों, प्रशिक्षकों की आज्ञा का पालन करना ।  आपातकालीन सहायता के लिए (फर्स्ट एड) प्राथमिक चिकित्सा का प्रबंध रखना।रहना चाहिए विशेषकर आधुनिक युग में जो जि प्रतिस्पर्धा से ओत-प्रोत है । यदि हम कार्य करने में पीछे रह जाते है तो तेजी से भागते हुए समय को पकड़ना कठिन है ।
(ख).खेल खिलाडी की भावना : जिस प्रकार खेल में हार व जीत दोनो ही दशाओं में खिलाडियों का मनोबल बना रहता है कि उसकी आज की हार कल की जीत है ठीक उसी प्रकार मनुष्य को कार्य अपनी पूर्ण क्षमता से करना चाहिए । यदि आज असफल हुए तो कल सफलता भी प्राप्त होगी । सन्देश है कि जिदगी में असफलता के उपरान्त भी मायुसी नही जानी चाहिए और सफलता की स्थिति में अत्याधिक प्रफुल्लता भी हानिकारक हो सकती है ।
(ग) चिंता छोड़ो सुख से जियो- सुप्रसिद्ध लेखक खेल कारनेगी ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट रूप से कहा है जि हमें व्यर्थ की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि कल की रोटी सुखी है और जो आगे आने वाला कल है वह बिल्कुल अनिश्चित है कुछ भी किसी पल हो सकता है इसलिए हमें आज के दिन सब कूछ ठीकठाक करना चाहिए बिना वजह से चिंता करने से व्यक्ति जलता है क्योकि चिंता चिंता समान है । व्यर्थ की चिंता न करने से हमारी शारीरिक क्षमता बनी रहती है ।
(घ) सामान्य ज्ञान- मानसिक सुधार हेतु सामान्य ज्ञान अर्थात् हमारे आस पास क्या हो रहा है चाहे वह राजनैतिक क्षेत्र हो अथवा आर्थिक या वैज्ञानिक इन सभी के ज्ञान से हम जिदगी में मात नहीं खा राकते एक अच्छे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति सामान्य ज्ञान के कारण अंधेरे में नहीं रहता ।
(ड़) व्यावसायिक ज्ञान : व्यक्ति को जीने के लिए कुछ ना कुछ कार्य करना पड़ता है चाहे नौकरी या व्यवसाय । अपने व्यवसाय का पूर्ण ज्ञान आवश्यक है इससे किसी भी प्रकार की चिंता अथवा नुकसान से बचा जा सकता है व्यावसायिक ज्ञान से व्यक्ति के अन्दर आत्मविश्वास जगता है और उसे व्यवसाय करने में भी किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है ।
छ. शिक्षण तथा प्रशिक्षण : मानसिक सुधारो में शिक्षा अथवा प्रशिक्षण का होना अनिवार्य है कोई भी व्यक्ति जब शिक्षण प्राप्त करता है तो वह अपना भला बुरा सोच लेता है, दुनिया के सारे समाचार पढ़ कर ज्ञान लेता है । शिक्षित व्यक्ति के व्यवहार में तुलनात्मक दृष्टि से बहुत अन्तर पाया जाता है यही कारण है की आधुनिक युग में शिक्षण तथा प्रशिक्षण की सुविधाओ का बहुत विस्तार हुआ है और अनेक व्यक्ति उसका लाभ जता सकते है ।
क्रोध पर काबू रखें : अग्रेजी का एक शब्द है डेनजर, जिसमें से यदि पहले शब्द डे को हटा दे तो वह एंगर, अर्थात क्रोध बन जाता है इसका तात्पर्य है की क्रोध बहुत बडा खतरा है यह पाप का मूल है । क्रोधित व्यक्ति सब कुछ भूलकर विनाश की और अग्रसर होता है । एक अच्छे व्यक्ति के लिए यह आवश्यक कि आने वाले क्रोध पर नियन्त्रण रखा जाये ताकि हानि से बचा जा सकें और दूसरे व्यक्तियों को भी परेशानी न हो इसलिए व्यक्ति को सदा शान्त भाव रखना चाहिए क्रोध हमेशा अपने आप को नुकसान देता है दूसरों को नहीं इसलिए हमें चाहिए कि हम क्रोध ना करें अन्यथा क्रोध आने पर उसे नियन्त्रण में रखा जा सके | इसके लिए विषय परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, ध्यान परिवर्तन, ठण्डे पानी का प्रयोग अथवा ज्ञान सम्बन्धी पुस्तकों या अध्ययन योगाभ्यास तथा चित्तन आवश्यक है |
इर्षा तथा घृणा को टाले : दूसरों को देखकर जलना अथवा उसके प्रति इर्षा करना व्यक्ति के भौतिक सिद्धांतों के विपरीत है । यह सच है की दूसरे कीं थाली में घी अधिक लगता है किसी की उन्नति या प्रगति से दूसरा व्यक्ति अधिकतर चिंता ओर उससे ईष्यों करने लगता है इंष्यएँ एक मानसिक भावना और इसक दो भिन्न-भिन्न पहलु है । एक तो यदि ईष्यर्र उन्नति अथवा किसी शुभ कार्य के लिए की जाये तो उससे व्यक्ति को शाक्ति मिलती है और यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अग्रसर होता है । दूसरे यदि कोई व्यक्ति दूसरे की उन्नति को देखकर जलता है अथवा वह मन ही मन है कुंढता है तो उससे खून जलता है और शक्ति का हास होता है घृणा ईष्यपै का अन्तिम चरण है यह अत्यन्त घातक है घृणा के भयानक परिणामों में शामिल है युद्ध तथा आतंकवाद जिसके कारण मानवता की बहुत क्षति हुई है ।
ट. आत्म विश्वास जगाएं : आत्मविश्वास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध व्यक्ति के मानसिक स्थिति से है आत्मविश्वास से तात्पर्य ऐसी मनोस्थिति से है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति अपने ऊपर पूर्ण विश्वास रखकर किसी भी कार्यं को करता है बिना आत्म विश्वास के व्यक्ति या तो कोई कार्य नहीं कर पाता और यदि करने लगता है तो वापस हो जाता है आत्मविश्वास जगाने के लिए यह आवश्कता है की व्यक्ति ओरो के सन्मुख वार्तालाप करें अपने साथियो अथबा सहयोगियों के साथ विचार विमर्श करें, महापुरुषों के उपदेश सुने और सुनाये तथा ऐसे ही अनेक नाम है जिनके अन्तर्गत ज्ञान प्राप्त करना भी शामिल है । आत्म विश्वास उत्पन्न होने पर व्यक्ति किसी भी स्थिति में घबराता नहीं है तथा अटूट विश्वास के साथ कार्य करता है ।
वैश्वीकरण : यह एक नवीनतम अवधारणा है जिसके अन्तर्गत हम अपने घर पर बैठकर समूचे विश्व की यात्रा कर सकते है और सभी प्रकार की सूचनायें संकलित कर सकते है आज दिन हम केवल भारतवर्ष ही नहीं बल्कि विश्व के विकसित और विकासशील देशो से सम्बन्ध स्थापित कर सकते है । उनसे व्यवसाय कर सकते है रोजगार प्राप्त कर सकते है और विपरण भी कर सकते |आधुनिक युग ने व्यक्तित्व का विकास और सुधार वैश्वीकरण के बिना अधुरा है |


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