Friday 25 December 2015

नये साल में करें ज्योतिष अनुसार व्यक्तित्व में करें सुधार

मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त करने के अनेक पहलुओं पर विचार करके उनमें सुधार लाने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। जिन में से व्यक्तित्व का सुधार अत्यंत महत्वपूर्ण है जैसा कि हम जानते है व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू है ।
1. बाहरी स्वरूप
2. आन्तरिक स्वरूप या मानसिक व्यक्तित्व
बाहरी स्वरूप:
बाहरी व्यक्तित्व व्यक्ति के शारीरिक ढाचे उसके रूप रंग उसके अंगों के आकार व प्रकार से बना होता है और वह सभी का जैसा होता है वैसा ही दिखाई देता है बाहरी स्वरूप में सामान्य व्यक्तियो की भांति अधिकतर लोग दिखाई देते है लेकिन कुछ व्यक्तियों में शारीरिक विकास होता है जो की या तो जन्मजात होता है या किसी घटना या दुर्घटना के कारण हो जाता है शारीरिक विकास मनुष्य की कार्य क्षमता पर प्रभाव डालता है। ज्योतिष में व्यक्ति के शारीरिक गठन, लक्षण तथा रंग-रूप का विचार नवमांश, कारकांश एवं लग्न के स्वामी से किया जात है. वरन्दा लग्न को व्यक्ति के रूप-रंग के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. इस ज्योतिषीय विधि में बताया गया है कि अगर केतु और शनि लग्न में हो, नवमांश लग्न, कारकांश या वरन्दा लग्न में हो तो व्यक्ति की त्वचा का रंग लालिमा लिये होता है. सरकुलर चेहरा चंद्रप्रधान होता है। ऐसे चेहरे वाले लोग कल्पनाशील, घरेलू, आलसी और ऊर्जा की कमी महसूस करने वाले होते हैं।
शनि की युति शुक्र या राहु से होने पर व्यक्ति दिखने में सांवला होता है। उन लोगों की त्वचा निली आभा लिये होती है जिनकी कुण्डली में शनि के साथ बुध की युति बनती है. अगर आपकी कुण्डली में मंगल व शनि की युति लग्न, नवमांश लग्न, कारकांश या वरन्दा लग्न में बन रही है तो आपकी त्वचा का रंग लाल और पीली आभा लिए होगी। वहीं गुरू के साथ शनि की युति होने से आप अत्यंत गोरे हो सकते हैं। चन्द्र के साथ शनि की युति होने से भी आपकी त्वचा निखरी होती है। मेष लग्न के जातक देखने में दुबले-पतले, वृषभ लग्न के जातकों का छोटा कद, लेकिन आकर्षक व्यक्तित्व होता है। मिथुन लग्न के जातक मध्यम कद के होते हैं। कर्क लग्न के जातक पतले तथा मध्यम कद के होते हैं। सिंह लग्न के जातक मध्यम कद एवं संतुलित व्यक्तित्व के व्यक्ति होते हैं। इनका शारीरिक गठन संतुलन लिये हुए होता है। कन्या लग्न में उत्पन्न जातक मध्यम कद के होते हैं। आपका व्यक्तित्व ?सा होता है कि कोई भी सहजता से आपकी ओर आकर्षित हो जाता है। तुला लग्न का स्वामी शुक्र होने के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व में शुक्र का प्रभाव दिखाई देता हैं। इनका बड़ा चेहरा, सुन्दर और विशाल आँखें, घुंघराले बाल, मध्यम कद और सामान्य शरीर होता है। इनके चेहरे पर एक विशेष आकर्षण होता है, जिस कारण लोग इनकी ओर खींचे चले जाते हैं। इनके व्यक्तित्व पर मंगल का प्रभाव अधिक देखने को मिलता है। ये लम्बे और पतले होते हैं। इनके व्यक्तित्व में गुरू का प्रभाव देखने को मिलता है इनकी छाती पुष्ठ और ऊंची है और बड़ा शरीर होने के साथ-साथ कद सामान्य होता है। ये थोड़े मोटे होते हैं मकर लग्न वाले व्यक्तित्व पर शनि का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इनकी आँखें गहरी और सुन्दर होती है। इनका कद लम्बा परन्तु शरीर से ये पतले होते हैं। इनमें झुककर चलने की आदत होती है, ये लोग अपनी आँखें नीची करके चलते हैं। इनका सिर बड़ा और नाक लम्बी होती है। कुंभ लग्न के व्यक्तित्व पर शनि का प्रभाव दिखाई पड़ता है। ऐसे व्यक्ति लम्बे, पतले, सुन्दर और आकर्षित दिखते हैं। कमर थोड़ी-सी झुकी हुई या हल्का सा झुककर चलन इनकी आदत में शुमार होता है। इनकी आँखें गहरी होती हैं और नीचे की ओर देखकर ही चलते हैं। मीन लग्न वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व गुरू के समान होता है। मध्यम ऊंचाई, गोल और सुन्दर आँखें और थोड़े मोटे होते हैं। चेहरे पर एक तेज होता है।
आन्तरिक स्वरूप या मानसिक व्यक्तित्व:
मानसिक व्यक्तित्व किसी भी व्यक्ति की मस्तिष्क की कार्य प्रणाली पक्ष आधारित होता है अर्थात किसी व्यक्ति का मस्तिष्क किस प्रकार कार्य करता है उसके विचार, उसकी भावनाएं, उसकी सोच, उसकी समझने की शक्ति सब कुछ मस्तिष्क की कार्यप्रणाली पर निर्भर होता है अत: व्यक्तित्व में सुधार के लिए हमें दो प्रकार से सचेत होना पड़ता है ।
मेष लग्न चर लग्न है अर्थात् चलायमान। ये एक जगह टिककर नहीं बैठ सकते हैं निरन्तर क्रियाशील रहना इनके स्वभाव में होता है। लग्न के स्वामी मंगल होने की वजह से सेनापति की भांति अनुशासनप्रिय होते हैं। इन्हें किसी भी कार्य में बैठे रहना पसंद नहीं होता है। अग्नि तत्त्व होने से आपको क्रोध बहुत अधिक आता है लेकिन जितनी शीघ्रता से क्रोध आता है उतनी शीघ्रता से उतर भी जाता है। मेष लग्न के जातक दिल के साफ होते हैं तथा जो भी कहना होता है उसे सामने ही बोल देते हैं।
वृषभ लग्न के जातकों स्थिर लग्न होने से इनका स्वभाव स्थिरता लिये हुए होता है। ये जो भी कार्य करते हैं उसे पूरा करके ही हटते हैं। शुक्र के प्रभाव होने से अपने कार्यस्थल पर आप हर आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हैं। आप अपने पहनावे पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं।
लग्न के स्वामी बुध होने की वजह से कठिन से कठिन काम को भी आप अपनी बुद्धि कौशल से आसान बना लेते हैं।द्विस्वभाव लग्न होने से आपके स्वभाव में भी दोहरापन (वास्तव में लचीलापन) होता है। समय के अनुसार अपने व्यवहार को बदल लेना अथवा हर परिस्थिति में स्वयं को ढाल लेना, वातावरण को अपने अनुसार ढाल लेना या स्वयं वातावरण के अनुसार ढल जाना आपके स्वभाव की विशेषता होती है।आप खाली नहीं बैठ सकते हैं। हर समय व्यस्त रहना कुछ नया करने की इच्छा आपमें रहती है। आपका हँसमुख स्वभाव आपको हर जगह लोकप्रिय बनाता है।
कर्क लग्न जोकि एक जलतत्त्व है इसलिए जिस प्रकार जल अपने लिए रास्ता बना ही लेता है उसी प्रकार कर्क लग्न के व्यक्ति भी अपना कार्य निकाल ही लेते हैं। चर लग्न है इसलिए लगातार कार्य करना आपका स्वभाव होता है।आप अत्यधिक भावनात्मक होते हैं इसलिए आपके निर्णय कई बार गलत भी हो जाते हैं। आपके स्वभाव में कई बार जिद्दीपन आ जाता है।
सिंह लग्न के जातक अत्यंत तेजस्वी एवं आत्मविश्वासी होते हैं। अग्नि की ही भांति ऊर्जावान होते हैं किसी भी कार्य को करने से पीछे नहीं हटते हैं जो कार्य प्रारंभ करते हैं उसे पूरा करके ही बैठते हैं। नीतियाँ बनाना एवं उन पर कार्य करना इन्हें पसंद होता है। अनुशासनहीनता इन्हें बर्दाश्त नहीं होती है। जो नियम ये बनाते हैं, उन पर स्वयं भी कार्य करते हैं और दूसरों से करवाते भी है। अपना मान सम्मान इन्हें बहुत प्रिय होता है।
लग्न पर बुध का प्रभाव होने से आप अत्यंत बुद्धिमान होते हैं।आपका मस्तिष्क अत्यंत रचनात्मक होता है। नित नये विचारों को जन्म देना एवं उस पर कार्य करना आपका स्वभाव है। पृथ्वी तत्त्व होने से जिस प्रकार पृथ्वी सभी को धारण करती है उसी प्रकार आपके अन्दर भी सहनशीलता कूट-कूट कर भरी होती है। आप जब तक सहा जाये, सहते हैं और यही हर बात को सहन करने की आपकी आदत गंभीर रोगों को जन्म देती है। वायु प्रकृति होने से आप स्वयं को हर परिस्थिति में ढाल लेते हैं। कितनी भी कठिन समस्या हो आप अपना मानसिक संतुलन बनाये रखते हैं तथा समस्याओं से घबराते नहीं है। आप सबको साथ लेकर चलने का प्रयास करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को खुश रखने का प्रयास करते हैं जो किसी के लिए भी संभव नहीं है।
तुला लग्न का स्वामी शुक्र होने के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व में शुक्र का प्रभाव दिखाई देता हैं। इनका स्वभाव सौम्यता लिये होता है क्योंकि उनको स्वभाव में सब कुछ संतुलित करके चलने की आदत विद्यमान होती है। परन्तु कभी-कभी ये जितने सौम्य होते हैं, जरूरत पड़ने पर उतने ही कठोर भी बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति व्यवहार पसंद होते हैं और सबको साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति होने के कारण सबके साथ एक समान व्यवहार करते हैं।
ऐसे व्यक्ति को भोग विलास की वस्तुओं का उपभोग करना और खरीदना ज्यादा पसंद होता है। नई टेक्नोलॉजी इन्हें पसंद होती है। ये व्यक्ति नये चिन्तन व परीक्षण करने वाले (क्रियटिव) होते हैं और संगीत,गायन, नृत्य, एक्टिंग आदि चीजें पसंद करते हैं और ये गुण भी इनमें विद्यमान रहते हैं।
वृश्चिक लग्न वाले स्वभाव में उग्रता होने के कारण नेतृत्व शक्ति अच्छी होती है परन्तु स्थिर स्वभाव होने के कारण जीवन में स्थिरता रहती है। हर काम को टिक कर करते हैं। जल तत्त्व होने के कारण जिस तरह जल कभी बहुत शान्त और कभी उसमें उग्रता आने पर सब-कुछ तहस-नहस कर देता है ये चंचल मस्तिष्क वाले तथा अधिक भावुक प्रकृति के होते हैं, जिस कारण इन्हें छोटी-छोटी बातों का बुरा लग जाता है।
इनके व्यक्तित्व में गुरू का प्रभाव देखने को मिलता है,जिस कारण ये लोग आस्तिक और दर्शन शास्त्र में रूचि रखते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी बातों में गंभीरता लिये होते हैं। धनी, सम्मानित और समाज में प्रतिष्ठित होते हैं। ये लोग अच्छे सलाहकार साबित होते हैंइन लोगों की वित्त प्रबंधन/सलाह अच्छी होती है। ये लोग पैसों का हिसाब-किताब भलीभांति रख पाते हैं। ऐसे व्यक्तियों में लगातार अपने लक्ष्य की ओर केन्द्रित रहते हैं और जब तक उसको प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक शान्ति से नहीं बैठते हैं। धन संयम/प्रबंधन (वर्तमान में वित्तीय प्रबंधक या सलाहकार) की कला से ओतप्रोत रहते हैं।
मेहनती होते हैं, इसलिए बिना रूके निरन्तर कार्य करते रहते हैं, जिस कारण इनके किये हुए कार्यो में गलतियों की संभावना कम रहती है।इनको न्याय पसंद होता है और कभी किसी के साथ धोखा नहीं करते। ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी असफलता मिलने पर निराश हो जाते हैं इन्हें अपना एकाधिकार पसंद होता है इसलिये ऐसे व्यक्तियों के ज्यादा मित्रगण नहीं होते क्योंकि ये किसी पर विश्वास नहीं कर पाते हैं।
कुंभ लग्न के व्यक्तित्व पर शनि का प्रभाव दिखाई पड़ता है। ऐसे व्यक्ति में सबसे अलग व्यवहार और संयमशील होने की आदत होती है। कभी-कभी इनका स्वाभिमान अहंकार में परिवर्तित होने लगता है। ऐसे व्यक्तियों की साहित्य में रूचि होती है और अच्छे साहित्यकार के रूप में भी सामने आते हैं। ये लोग थोड़े शर्मीले होते हैं इसलिए भीड़ में आकर अपनी बात नहीं कह पाते।
गुरू के समान आदर और सम्मान पाने वाले होते हैं। बहुत जल्दी लोगों के बीच में अपनी जगह बना लेते हैं।ऐसे व्यक्ति अच्छे वक्ता, गुरू और सलाहकार साबित होते हैं। थोड़े से पारम्परिक होते हैं अत: आसानी से अपनी जड़ों से दूर नहीं जा पाते।
इन्हें आसानी से गुस्सा नहीं आता परन्तु जब आता है तो कोई भी नहीं बचा पाता। ऐसे व्यक्ति गंभीर होते हैं और सभी बातें भूल सकते हैं परन्तु अपनी परम्परा और सिद्धान्तों को नहीं भूल सकते। धर्म के विरूद्ध जाकर ना तो कुछ करते है और ना ही करने देते हैं, महत्वकांक्षी होते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी उम्र से बड़ी-बड़ी अर्थात् परिपक्व बातें करते हैं और इन्हें सुनना अच्छा लगता है। इनकी कार्यप्रणाली सादी और सरल होती है परन्तु ये लोक अक्सर ज्ञान बाँटते हुए दिखाई देते हैं।
1. भौतिक या शारीरिक
2. मानसिक या मनोवैज्ञानिक
उपरोक्त दोनों प्रकार के पहलूओं में सुधार लाने के लिए अनेकानेक प्रक्रियाएं की जाती है जिनका वर्णन निम्न प्रकार है। शरीर माध्यम अर्थात शरीर निश्चय रूप से सभी धर्मो का मुख्य साधन है शारीरिक प्रक्रिया में निम्न प्रकार से सुधार लाये जा सकते हैं।
1.शरीर की देखभाल या रखरखाव- इसके अन्तर्गत शरीर कं अंगों के निरन्तर देखभाल से हमारा शरीर और उसकी दिखावट ठीक रहती है । सारा दिन कार्य करने के उपरान्त शरीर में थकावट भी होती है और अगले दिन कामलिए शारीरिक क्षमता को बनाये रखना होता है इसके लिए बालों की देखभाल कटिंग, तेल या क्रीम लगाना कंघी करना शामिल है उसके अतिरिक्त आखों को स्वच्छ रखना गुलाब जल सुरमा अथवा काजल आदि का प्रयोग किया जाता है हाथों और पैरों के नाखुन समय-समय पर काटते रहना चाहिए चेहरे की चमक बनाये रखने के लिए क्रीम आदि का प्रयोग कते रहना चाहिए इसी प्रकार शरीर के बाहय अंगों को ठीक प्रकार देखभाल से शारीरिक सुधार होता है । शारीरिक व बाहरी सुधार के लिए निम्न क्रियाएं करनी चाहिए मेष लग्न के जातक तेज मसालेदार भोजन करने की वजह से आपको पित्त संबंधी समस्याएँ अधिक रहती है। आपको अपने खान-पान में कम मसाले वाला भोजन उपयोग करना चाहिए और पानी अधिक से अधिक पीना चाहिए।
* वृषभ लग्न के जातकों का मसाले वाला तीखा भोजन करने की वजह से आपको पेट संबंधी समस्या भी रहती है। आपको गैस से संबंधित रोग हो सकते हैं।
* मिथुन लग्न के जातक आप मिश्रित प्रकृति होने के कारण आपको रोग भी मिश्रित अर्थात् कई प्रकार के ही होते हैं। आपको खान-पान में विशेष रूप से घर से बाहर के खाने का परहेज करना चाहिए।
* कर्क ठण्डी वस्तुओं के अत्यधिक सेवन से आपको कफ संबंधी समस्या अधिक होती है अत: आपको गर्म वस्तुओं का सेवन भी करना चाहिए।
* सिंह लग्न के जातक अत्यधिक क्रोध करना एवं तीखा राजसी भोजना अधिक करना आपकी सेहत के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। अपने खान-पान पर एवं क्रोध पर नियंत्रण रखें। कन्या लग्न में उत्पन्न जातकउसी प्रकार आपके अन्दर भी सहनशीलता कूट-कूट कर भरी होती है। आप जब तक सहा जाये, सहते हैं और यही हर बात को सहन करने की आपकी आदत गंभीर रोगों को जन्म देती है।
* तुला लग्न का स्वामी इन्हें वात संबंधी पेरशानी अधिक रहती है। ऐसे व्यक्तियों को चटपटा खाना पसंद होता है। परन्तु इन्हें तीखा नहीं खाना चाहिये अन्यथा शरीर में पित प्रकृति बढ़ जाने से परेशानी उठानी पड़ सकती है।
* वृश्चिक लग्न वाले आपको पित्त से संबंधित परेशानी हो सकती है। पानी का सेवन अधिक करें। अपने राजसी एवं एैश्वर्यशाली जीवनशैली पर नियंत्रण रखें। अति किसी भी चीज की हानिकारक होती है।
* धनु लग्न वाले इनकी कफ विकृत्ति होने के कारण इन पर मौसम के परिवर्तन का बहुत जल्दी प्रभाव पड़ता है, जिसके लिए इन्हें सादा पानी और आयुर्वेदिक दवाइयों का अधिक प्रयोग करना चाहिए।
* मकर लग्न वाले काम के साथ आपको अपने खाने-पीने पर भी ध्यान देना चाहिए। लंबे समय तक भूखे ना रहकर बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा खाना चाहिए।
* कुंभ लग्न के व्यक्तित्व पर शनि का प्रभाव दिखाई पड़ता है। ऐसे व्यक्ति चिड़चिड़े होते हैं और बदन दर्द, दमा से पीडि़त होते हैं।
* मीन लग्न वाले व्यक्ति मोटापे ज्यादा खाने के कारण बदहजमी के मरीज होते हैं।
* मेष लग्न के लिए एलर्जी, त्वचा रोग, सफेद दाग, स्पीच डिसऑर्डर, नर्वस सिस्टम की तकलीफ आदि रोग संभावित हो सकते हैं।
* वृषभ लग्न के लिए हार्मोनल प्रॉब्लम, मूत्र विकार, कफ की अधिकता, पेट व लीवर की तकलीफ और कानों की तकलीफ सामान्य रोग है।
* मिथुन लग्न के लिए रक्तचाप (लो या हाई), चोट-चपेट का भय, फोड़े-फुँसी, ह्रदय की तकलीफ संभावित होती है।
* कर्क लग्न के लिए पेट के रोग, लीवर की खराबी, मति भ्रष्ट होना, कफजन्य रोग होने की संभावना होती है।
* सिंह लग्न के लिए मानसिक तनाव से उत्पन्न परेशानियाँ, चोट-चपेट का भय, ब्रेन में तकलीफ, एलर्जी, वाणी के दोष आदि परेशानी देते हैं।
* कन्या लग्न के लिए सिरदर्द, कफ की तकलीफ, ज्वर, इन्फेक्शन, शरीर के दर्द और वजन बढ़ाने की समस्या रहती है।
* तुला लग्न के लिए कान की तकलीफ, कफजन्य रोग, सिर दर्द, पेट की तकलीफ, पैरों में दर्द आदि बने रहते हैं।
* वृश्चिक लग्न के लिए रक्तचाप, थॉयराइड, एलर्जी, फोड़े-फुँसी, सिर दर्द आदि की समस्या हो सकती हैं।
* धनु लग्न के लिए मूत्र विकार, हार्मोनल प्रॉब्लम, मधुमेह, कफजन्य रोग व एलर्जी की संभावना होती है।
* मकर लग्न के लिए पेट की तकलीफ, वोकल-कॉड की तकलीफ, दुर्घटना भय, पैरों में तकलीफ, रक्तचाप, नर्वस सिस्टम से संबंधित परेशानियाँ हो सकती हैं।
* कुंभ लग्न के लिए कफजन्य रोग, दाँत और कानों की समस्या, पेट के विकार, वजन बढऩा, ज्वर आदि की संभावना हो सकती है।
* मीन लग्न के लिए आँखों की समस्या, सिर दर्द, मानसिक समस्या, कमर दर्द, आलस्य आदि की समस्या बनी रह सकती है।
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नहीं बदल सकता स्वाभाव और चरित्र

महाभारत की एक छोटी सी कथा है। पांडव वन में वेश बदलकर रह रहे थे। वे ब्राह्मण के रूप में रह रहे थे। एक दिन मार्ग में उन्हें कुछ ब्राह्मण मिले। वे द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में जा रहे हैं। पाण्डव भी उनके साथ चल पड़े। स्वयंवर में एक धनुष को झुकाकर बाण से लक्ष्य भेद करना था। वहां आए सभी राजा लक्ष्य भेद करना तो दूर धनुष को ही झुका नहीं सके। अंतत: अर्जुन ने उसमें भाग लिया। अर्जुन ने धनुष भी झुका लिया और लक्ष्य को भी भेद दिया। शर्त के अनुसार द्रौपदी का स्वयंवर अर्जुन के साथ हो गया। पाण्डव द्रौपदी को साथ ले कर कुटिया में आ गए। द्रुपद को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन जैसे वीर युवक के साथ करना चाहता था। द्रुपद ने पाण्डवों की वास्तविकता पता लगाने का एक उपाय किया। एक दिन राजभवन में भोज का आयोजन रखा। उसमें पाण्डवों को द्रौपदी और कुंती के साथ बुलाया गया। उन्होंने राजमहल को कई वस्तुओं से सजाया।
एक कक्ष में फल फूल, आसन, गाय, रस्सियां और बीज जैसी किसानों के उपयोग की सामग्री रखवाई। एक अन्य कक्ष में युद्ध में काम आने वाली सामग्री रखी गई। इस तरह सुसज्जित राजमहल में पाण्डवों को भोज कराया गया। भोजन के बाद सभी अपनी पसंद की वस्तुएं आदि देखने लगे। ब्राह्मण वेशधारी पाण्डव सबसे पहले उसी कक्ष में गए जहां अस्त्र-शस्त्र रखे थे। राजा द्रुपद उनकी सभी क्रियाओं को बड़ी सूक्ष्मता से देख रहे थे। वे समझ गए कि ये पांचों ब्राह्मण नहीं हैं। जरूर ये क्षत्रिय ही हैं। अवसर मिलते ही उन्होंने युधिष्ठिर से बात की और पूछ ही लिया सच बताएं आप ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय। आपने ब्राह्मण के समान वस्त्र जरूर पहन रखे हैं पर आप हैं क्षत्रिय। युधिष्ठिर हमेशा सच बोलते थे। उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वे सचमुच क्षत्रिय ही हैं और स्वयंवर की शर्त पूरी करने वाला व्यक्ति और कोई नहीं स्वयं अर्जुन ही है। यह जानकर द्रुपद खुश हो गया। वह जो चाहता था वही हुआ।
कई बार ऐसा होता है कि लोग अपने काम और रहन-सहन से हटकर वेश बना लेते हैं, अपनी पहचान छुपा लेते हैं लेकिन कपड़े और आभूषणों से कभी आपका स्वभाव और चरित्र नहीं बदल सकता। न ही आपका धर्म प्रभावित हो सकता है। वह तो आपके व्यवहार में है और जब भी वक्त आता है आपका धर्म, स्वभाव और चरित्र कपड़ों के आवरण से बाहर आकर हकीकत बता देता है।
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जलवायु संकट


पिछले ग्यारह हजार तीन सौ सालों की तुलना में आज पृथ्वी सबसे गर्म है। उत्तरी ध्रुव के आर्कटिक सागर में इस बार 1970 के बाद सबसे कम बर्फ जमी है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से बाहर दुनिया का सबसे बड़ा बर्फ भंडार, तिब्बत में ही है। इसी नाते तिब्बत को ‘दुनिया की छत’ कहा जाता है। इस नाते आप तिब्बत को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कह सकते हैं। यह तीसरा धु्रव, पिछले पांच दशक में डेढ़ डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की नई चुनौती के सामने विचार की मुद्रा में है। नतीजे में इस तीसरे धु्रव ने अपना अस्सी प्रतिशत बर्फ भंडार खो दिया है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा चिंतित हैं कि 2050 तक तिब्बत के ग्लेशियर नहीं बचेंगे। नदियां सूखेंगी और बिजली-पानी का संकट बढ़ेगा। तिब्बत का क्या होगा?
वैज्ञानिकों की चिंता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार जितनी तेज होगी, हवा में उत्सर्जित कार्बन का भंडार उतनी ही तेज रफ्तार से बढ़ता जाएगा। जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के लिहाज से यह सिर्फ तीसरे धु्रव नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की तैयारी बैठकों को लेकर आ रही रिपोर्टें बता रही हैं कि मौसमी आग और जलवायु पर उसके दुष्प्रभावों को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। इसे कम करने के लिए तैयारी बैठकें लगातार चल रही हैं। हम लोग 1992 से अपनी पृथ्वी चिंता में दुबले हुए जा रहे है। विश्व नेता कई बार मिले। सरकारों के प्रतिनिधी वार्ताकारों ने अपने आपको खपाएं रखा। बर्लिन, क्योटो, ब्यूनसआर्यस, माराकेस, नई दिल्ली, मिलान, फिर ब्यूनसआर्यस, मांट्रीयल, नेरौबी, बाली, कोपेनगहेगन, दोहा और लीमा मतलब कहां-कहां नहीं जमावड़ा लगा। सिलसिला सा बना हुआ है। विश्व नेता, उनके प्रतिनिधी मिलते है, दलीले देते है, गुस्सा होते है और एक-दूसरे के ललकारते हुए कहते है कि वह एक्शन ले, समझौता करें, वायदे के साथ पृथ्वी को बचाने का प्रोटोकॉल अपनाएं।
इन तमाम कोशिशों का अंत नतीजा अभी तक सिर्फ दो सप्ताह की बैठक बाद बने 1992 का संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन कॉनवेंशन फ्रेमवर्क और 1997 का कयोटो प्रोटोकॉल है। मतलब कुछ भी नहीं। यों मानने को माना जाता है कि पृथ्वी के गरमाने को रोकने के आंदोलन में कयोटो प्रोटोकॉल मोड़ निर्णायक था। लेकिन तथ्य यह भी है कि कयोटो में सालों की मेहनत के बाद 1997 में जो संधि हुई वह 2005 में जा कर अमल में आई और उसके परिणाम निराशाजनक थे।
क्योटो संधि इसलिए व्यर्थ हुई क्योंकि जिन्हं वायदों पर अमल करना था उन मुख्य देशों ने वैसा नहीं किया। अपनी बात से मुकरे। अमेरिका और चीन बड़े जिम्मेवार देश थे तो भारत भी समस्या को बढ़वाने और उलझवाने में पीछे नहीं था। कुछ प्रगति हुई भी, योरोपीय देशों ने अपनी वाहवाही बनाई, क्योटो के वायदे अनुसार अपना अमल बताया तो उसके पीछे हकीकत सोवियत साम्राज्य के बिखरने बाद कबाड़ हुए कारखानों के बंद होने की थी।
लगातार हर साल पिछले बीस सालों से दुनिया के देशों के प्रतिनिधी बंद कमरों में बंद होते है, सौदेबाजी करते है और उत्सर्जन रोकने, खुदाई घटाने की वायदेबाजी सोचते है। लेकिन असल दुनिया लगातार यही मंत्र जाप कर रही है कि ‘ड्रील बेबी ड्रील’! मतलब निकालों कोयला-तेल और उड़ाओं धुंआ! तभी अमेरिका के शेल फील्ड और गल्फ की खाड़ी पर आर्कटिक के ग्लेशियर कुर्बान हुए जा रहे है।
नतीजा सामने है। इस दशक का हर वर्ष 1998के पहले के हर वर्ष के मुकाबले अधिक गर्म हुआ है। 2015 इतिहास में दर्ज अभी तक के रिकार्ड का सर्वाधिक गर्म वर्ष घोषित हुआ है। कोई आश्चर्य नहीं जो दिल्ली में अभी भी हम ठंड महसूस नहीं कर रहे है और चेन्नई में बारिश का कहर बरपा। खतरा गंभीर है और घड़ी की सुई बढ़ रही है। जलवायु विशेषज्ञों की भविष्यवाणी है कि सिर्फ तीस वर्ष बचे है, सिर्फ तीस। अपने को हम संभाले। कार्बन उत्सर्जन रोके अन्यथा बढ़ी गर्मी ऐसी झुलसाएगी कि तब बच नहीं सकेगें। उस नाते संयुक्त राष्ट्र के क्रिश्चियन फिग्यूरेस का यह कहा सही है कि जलवायु इमरजेंसी है इसलिए भागना बंद करें।
दुनिया के सभी देश बुनियादी तौर पर खुद की चिंता करने वाले है। हम एक ही वक्त स्वार्थी है और झगडालु भी। पेरिस में जितने देशों की भागीदारी है उन सभी में हर देश कार्बन उत्सर्जन को उतना ही रोकने को तैयार होंगा जिससे उनकी आर्थिकी को नुकसान न हो। और हां, हर देश यह भी चाह रहा है कि दूसरा देश, सामने वाला जरूर यह वायदा करें कि वह जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अपना कार्बन उत्सर्जन बांधेगा। इसी के चलते पिछले तमाम अधिवेशन हल्के वायदों और बिना ठोस एक्शन के खत्म हुए थे। बावजूद इसके पेरिस की मौजूदा सीओपी21 इसलिए आखिरी अवसर है क्योंकि 2011 में वार्ताकारों में सहमति बनी थी कि कुछ भी हो 2015 के आखिर तक सौदा होगा। तभी दुनिया के लगभग सभी देशों के प्रतिनिधियों को यह करार करना ही है कि वे भविष्य के अपने उत्सर्जन को रोकने और जलवायु को गर्म होने से रोकने के लक्ष्य में कहां तक जा सकते है। क्या यह मुमकिन होगा? क्या महाखलनायक माने जाने वाले चीन, भारत और अमेरिका झुकेगे?
जोखिम बढ़ रही है, लगातार बढ़ती जा रही है। वक्त का तकाजा है कि जलवायु कूटनीति सिरे चढ़े। यह वैश्विक समस्या है। अस्तित्व का खतरा है तो जबरदस्त आर्थिक असर का खतरा भी लिए हुए है। यह हर कोई मान रहा है कि ऐसे परिवर्तन जरूरी है जिनसे जलवायु का बदलना रूके और अंतत: ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन पूरी तरह रूक ही जाए। इसके लिए आर्थिकियों का ट्रांसफोरमेशन भी जरूरी है!
सो यह विश्व व्यवस्था का कुल झमेला है। वैश्वीकरण के जिस मुकाम पर आज हमारी दुनिया है। भूमंडलीकरण के बाद की जो नई विश्व व्यवस्था है उसमें एक साथ इतनी तरह के चैलेंज बने है कि एक तरफ दुनिया में जहा एकजुटता बन रही है, साझापन बन रहा है तो वही यह सहमति भी नहीं होती कि कैसे आगे बढ़ा जाए? फिर मसला आतंक के काले झंड़ेे का हो, सशस्त्र संघर्ष का हो, आर्थिकियों के बेदम होने का हो या जलवायु परिवर्तन का मुद्दा हो। ये सब हम इंसानों की बनाई समस्याएं है। पर इंसान को यह इमरजेंसी भी समझ नहीं आ रही है कि पृथ्वी को, इस ग्रह को सूखाने, आग का गोला बनने देने के कैसे दुष्परिणाम होंगे!
इसलिए पेरिस में जमा राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों के लिए गतिरोध तोडऩे और कार्रवाई करने का वक्त है। यदि हवाई हमले और बम फेंकने के फैसले क्षण भर में लिए जा सकते है, युद्व की घोषणा तुरंत हो सकती है तो ऐसा करने वाले नेता उतने ही साहसी, व्यवहारिक निर्णय जलवायु परिवर्तन मसले पर क्यों नहीं कर सकते जिन पर अरबों लोगों याकि पूरी मानव जाति का भविष्य दांव पर है।
सच पूछिए तो अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा खासकर गरीब देशों में जिस तरह की परियोजनाओं को धन मुहैया कराया जा रहा है, यदि कार्बन उत्सर्जन कम करने में उनके योगदान का आकलन किया जाए, तो मालूम हो जाएगा कि उसकी चिंता कितनी जुबानी है और कितनी जमीनी। यों तिब्बत को अपना कहने वाला चीन भी बढ़ती मौसमी आग और बदलते मौसम से चिंतित है, पर क्या वाकई? तिब्बत को परमाणु कचराघर और पनबिजली परियोजनाओं का घर बनाने की खबरों से तो यह नहीं लगता कि चीन को तिब्बत या तिब्बत के बहाने खुद के या दुनिया के पर्यावरण की कोई चिंता है।
भारत ने भी कार्बन उत्सर्जन में तीस से पैंतीस फीसद तक स्वैच्छिक कटौती की घोषणा की है। इसके लिए गांधी जयंती का दिन चुना गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जीवन शैली में बेहतर बदलाव के लिए चेतना पैदा करने से लेकर स्वच्छ ऊर्जा और वन विकास के सुझाव पेश किए हैं। निस्संदेह, इसकी प्रशंसा होनी चाहिए; मगर क्या इन घोषणाओं पर आगे बढऩे के रास्ते सुगम बनाने की वाकई कोई हमारी सोच है?
उपभोग बढ़ेगा और छोटी पूंजी का व्यापार गिरेगा। गौर कीजिए कि इस डर से पहले हम में से कई मॉल संस्कृति से डरे, तो अधिकतर ने इसे गले लगाया; गर्व से कहा कि यह उत्तर बिहार का पहला मॉल है। अब डराने के लिए नया ई-बाजार है। यह ई-बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलाएगा, कोरियर सेवा और पैकिंग उद्योग और पैकिंग कचरे को बढ़ाएगा। ई-बाजार अभी बड़े शहरों का बाजार है, जल्द ही छोटे शहर-कस्बे और गांव में भी जाएगा। तनख्वाह के बजाय, पैकेज कमाने वाले हाथों का सारा जोर नए-नए तकनीकी घरेलू सामान और उपभोग पर केंद्रित होने को तैयार है। जो छूट पर मिलेज् खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीड़ बढ़ाएगी और जाहिर है कि बाद में कचरा। सोचिए! क्या हमारी नई जीवन शैली के कारण पेट्रोल, गैस और बिजली की खपत बढ़ी नहीं है? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चल कर क्या हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं?
हमारी सरकारें पवन और सौर ऊर्जा के बजाय, पनबिजली और परमाणु बिजली संयंत्रों की वकालत करने वालों के चक्कर में फंसती जा रही हैं। वे इसे ‘क्लीन एनर्जी-ग्रीन एनर्जी’ के रूप में प्रोत्साहित कर रहे हैं। हमें यह भी सोचने की फुरसत नहीं कि बायो-डीजल उत्पादन का विचार, भारत की आबोहवा, मिट््टी व किसानी के कितना अनुकूल है और कितना प्रतिकूल? हकीकत यह है कि अभी भारत स्वच्छ ऊर्जा की असल परिभाषा पर ठीक से गौर भी नहीं कर पाया है। हमें समझने की जरूरत है कि स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बन डाइऑक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकलें। इन दो मानदंडों को सामने रख कर सही आकलन संभव है। पर हमारी अधिकतम निर्भरता अब भी कोयले पर ही है।
ठीक है कि पानी, परमाणु और कोयले की तुलना में सूरज, हवा, पानी और ज्वालामुखियों में मौजूद ऊर्जा को बिजली में तब्दील करने में कुछ कम पानी चाहिए, पर पनबिजली और उसके भारतीय कुप्रबंधन की अपनी अन्य सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियां हैं। ऐसे में सौर और पवन ऊर्जा के प्रोत्साहन के लिए हमने क्या किया। कुछ नहीं, तो उपकरणों की लागत कम करने की दिशा में शोध तथा तकनीकी और अर्थिक मदद तो संभव थी। समाज की जेब तक इनकी पहुंच बनाने का काम तो करना ही चाहिए था। अलग मंत्रालय बना कर भी हम कितना कर पाए? सब जानते हैं कि ज्वालामुखियों से भू-ऊर्जा का विकल्प तेजी से बढ़ते मौसमी तापमान को कम करने में अंतत: मददगार ही होने वाला है। भारत के द्वीप-समूहों में धरती के भीतर ज्वालामुखी के कितने ही स्रोत हैं। जानकारी होने के बावजूद हमने इस दिशा में क्या किया?
हम इसके लिए पैसे का रोना रोते हैं। हमारे यहां कितने फुटपाथों का फर्श बदलने के लिए कुछ समय बाद जान-बूझ कर पत्थर और टाइल्स को तोड़ दिया जाता है। क्या दिल्ली के मोहल्लों में ठीक-ठाक सीमेंट-सडक़ों को तोड़ कर फिर वैसा ही मसाला दोबारा चढ़ा दिया जाना फिजूलखर्ची नहीं है। ऐसे जाने कितने मदों में पैसे की बरबादी है। क्यों नहीं पैसे की इस बरबादी को रोक कर, सही जगह लगाने की व्यवस्था बनती; ताकि लोग उचित विकल्प को अपनाने को प्रोत्साहित हों। जरूरी है कि हम तय करें कि अब किन कॉलोनियों को सार्वजनिक भौतिक विकास मद में सिर्फ रखरखाव की मामूली राशि ही देने की जरूरत है।
उक्त तथ्य तो विचार का एक क्षेत्र विशेष मात्र हैं। जलवायु परिवर्तन के मसले को लेकर दुनिया का कोई भी देश अथवा समुदाय यदि वाकई गंभीर है, तो उसे एक बात अच्छी तरह दिमाग में बैठा लेनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन, सिर्फ मौसम या पर्यावरण विज्ञान के विचार का विषय नहीं है। मौसम को नकारात्मक बदलाव के लिए मजबूर करने में हमारे उद्योग, अर्थनीति, राजनीति, तकनीक, कुप्रबंधन, लालच, बदलते सामाजिक ताने-बाने, सर्वोदय की जगह व्यक्तियोदय की मानसिकता, और जीवनशैली से लेकर भ्रष्टाचार तक का योगदान है। इसके दुष्प्रभाव भी हमारे उद्योग, पानी, फसल, जेब, जैव विविधता, सेहत, और सामाजिक सामंजस्य को झेलने पड़ेंगे। हम झेल भी रहे हैं, लेकिन सीख नहीं रहे।
यह जलवायु परिवर्तन और उसकी चेतावनी के अनुसार स्वयं को न बदलने का नतीजा है कि आज तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में नकदी फसलों को लेकर मौत पसरी है। नए राज्य के रूप में तेलंगाना ने 1,269 आत्महत्याओं का आंकड़ा पार कर लिया है। सूखे के कारण आर्थिक नुकसान बेइंतहा हैं। पिछले तीन सप्ताह के दौरान आंध्र के अकेले अनंतपुर के हिस्से में बाईस किसानों ने आत्महत्या की। जिन सिंचाई और उन्नत बीज आधारित योजनाओं के कारण, ओडि़शा का नबरंगपुर कभी मक्का के अंतरराष्ट्रीय बीज बिक्री का केंद्र बना, आज वही गिरावट के दौर में है।
भारत का कपास दुनिया में मशहूर है। फिर भी कपास-किसानों की मौत के किस्से आम हैं। कभी भारत का अनाज का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब का हाल किसी से छिपा नहीं है। इसने पहली हरित क्रांति के दूरगामी असर की पोल खोल दी है। इसकी एक के बाद, दूसरी फसल पिट रही है। बासमती, बढि?ा चावल है; फिर भी पंजाब के परमल चावल की तुलना में, बासमती की मांग कम है। इधर पूरे भारत में दालों की पैदावार घट रही है। महंगाई पर रार बढ़ रही है। यह रार और बढेÞगी; क्योंकि मौसम बदल रहा है। उन्नत बीज, कीटों का प्रहार झेलने में नाकाम साबित हो रहे हैं और देसी बीजों को बचाने की कोई जद््दोजहद सामने आ नहीं रही। यह तटस्थता कल को औद्योगिक उत्पादन भी गिराएगी। नतीजा? स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का यह दौर, मानव सभ्यता में छीना-झपटी और वैमनस्य का नया दौर लाने वाला साबित होगा।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर को हमें प्रकृति द्वारा मानव कृत्यों के नियमन के कदम के तौर पर लेना चहिए। हम नमामि गंगा में योगदान दें, न दें; हम एकादश के आत्म नियमन सिद्धांतों को मानें, न मानें; पर यह कभी न भूलें कि प्रकृति अपने सिद्धांतों को मानती भी है और दुनिया के हर जीव से उनका नियमन कराने की क्षमता भी रखती है। जिन जीवों को यह जलवायु परिवर्तन मुफीद होगा, उनकी जीवन क्षमता बढ़ेगी।
कई विषाणुओं द्वारा कई तरह के रसायनों और परिस्थितियों के बरक्स प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेने के कारण, डेंगू जैसी बीमारियां एक नई महामारी बन कर उभरेंगी। आइए, मोहनदास करमचंद गांधी नामक उस महान दूरदर्शी की इस पंक्ति को बार-बार दोहराएं- ‘पृथ्वी हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लालच एक व्यक्ति का भी नहीं।’
जलवायु परिवर्तन में नियंत्रण के लिए पेरिस मे बारह दिनी जलवायु सम्मेलन शुरू हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्य देश इसमें भागीदारी कर रहें हैं। इस बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने पर वैश्विक सहमति बनने की उम्मीद इसलिए है क्योंकि अमेरिका, चीन और भारत जैसे औद्योगिक देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने पर रजामंदी पहले ही जता दी है। साथ ही माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने पर्यावरण परियोजनाओं के समर्थन के लिए एक अरब डॉलर की राशि राष्ट्रमण्डल द्वारा शुरू की गई हरित वित्त संस्था को देने की घोषणा की है। तैयार हो रही इस पृष्ठभूमि से लगता है पेरिस का जलवायु सम्मेलन दुनिया के लिए फलदायी सिद्ध होने जा रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जलवायु में हो रहे परिवर्तन को नियंत्रित करने की दृष्टि से ‘अमेरिका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक तिहाई कमी लाने की घोषणा पहले ही कर दी है। चीन और भारत ने भी लगभग इतनी ही मात्रा में इन गैसों को कम करने का वादा अंतरराष्ट्रिय मंचों से किया है। ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि धरती के भविष्य को इस खतरे से बढ़ी दूसरी कोई चुनौती नहीं है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ये देश कोयला आधारित बिजली का उत्पादन कम करेंगे। अमेरिका में कोयले से कुल खपत की 37 फीसदी बिजली पैदा की जाती है। कोयले से बिजली उत्पादन में अमेरिका विष्व में दूसरे स्थान पर है। पर्यावरण हित से जुड़े इन लक्ष्यों की पूर्ति 2030 तक की जाएगी।
पिछले साल पेरु के शहर लीमा में 196देश वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए राष्ट्रिय संकल्पों के साथ, आम सहमति के मसौदे पर राजी हुए थे। इस सहमति को पेरिस में शुरू हुए अंतरराष्ट्रिय जलवायु सम्मेलन की सफलता में अहम् कड़ी माना जा रहा है। दुनिया के तीन प्रमुख देशों ने ग्रीन हाउस गैसों में उत्सर्जन कटौती की जो घोषणा की है, उससे यह अनुमान लगाना सहज है कि पेरिस सम्मेलन में सार्थक परिणाम निकलने वाले हैं। यदि इन घोषणा पर अमल हो जाता है तो अकेले अमेरिका में 32 प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन 2030 तक कम हो जाएगा। अमेरिका के 600 कोयला बिजली घरों से ये गैसें दिन रात निकलकर वायुमंडल को दूशित कर रही हैं। अमेरिका की सड?ो पर इस समय 25 करोड़ 30 लाख कारें दौड़ रही हैं। यदि इनमें से 16करोड़ 60 लाख कारें हटा ली जाती हैं तो कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्पादन 87 करोड़ टन कम हो जाएगा।
पेरू में वैश्विक जलवायु परिवर्तन अनुबंध की दिशा में इस पहल को अन्य देशों के लिए भी एक अभिप्रेरणा के रूप में लेना चाहिए। क्योंकि भारत एवं चीन समेत अन्य विकासशील देशों की सलाह मानते हुए मसौदे में एक अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया था। इस पैरे में उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े कॉर्बन उत्सर्जन कटौती के प्रावधानों को आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाएगा,जो हानि और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित होगा। अनेक छोटे द्विपीय देशों ने भी इस सिद्धांत को लागू करने के अनुरोध पर जोर दिया था। लिहाजा अब धन देने की क्षमता के आधार पर देश कॉर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करेंगे। माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने छोटे द्वीपीय 53 देशों वाले राष्ट्रमण्डल का नेतृत्व करते हुए ही 1 अरब डॉलर की राशि देने की घोषणा की है।
पेरू से पहले के मसौदे के परिप्रेक्ष्य में भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे धनी देशों की बनिस्बत उनके जैसी अर्थव्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा। यह आशंका बाद में ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ के एक खुलासे से सही भी साबित हो गई थी। मसौदे में विकासशील देशों को हिदायत दी गई थी कि वे वर्ष 2050 तक प्रति व्यक्ति 1.44 टन कॉर्बन से अधिक उत्सर्जन नहीं करने के लिए सहमत हों, जबकि विकसित देशों के लिए यह सीमा महज 2.67 टन तय की गई थी। इस पर्दाफाष के बाद कॉर्बन उत्सर्जन की सीमा तय करने को लेकर चला आ रहा गतिरोध पेरू में संकल्प पारित होने के साथ टूट गया था। नए प्रारूप में तय किया गया है कि जो देश जितना कॉर्बन उत्सर्जन करेगा, उसी अनुपात में उसे नियंत्रण के उपाय करने होंगे। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में फिलहाल चीन शीर्श पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे पायदान पर है। अब इस नए प्रारूप को ‘जलवायु कार्रवाई का लीमा आह्वान’ नाम दिया गया है। पर्यावरण सुधार के इतिहास में इसे एक ऐतिहासिक समझौते के रुप में देखा जा रहा है। क्योंकि इस समझौते से 2050 तक कॉर्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत तक की कमी लाने की उम्मीद जगी है।
यह पहला अवसर था, जब उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुके चीन, भारत, ब्राजील और उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं अपने कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार हुईं थीं। सहमति के अनुसार संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देश अपने कॉर्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को पेरिस सम्मेलन में पेश करेंगे। यह सहमति इसलिए बन पाई थी, क्योंकि एक तो संयुक्त राष्ट्र के विषेश दूत टॉड स्टर्न ने उन मुद्दों को पहले समझा, जिन मुद्दों पर विकसित देश समझौता न करने के लिए बाधा बन रहे थे। इनमें प्रमुख रुप से एक बाधा तो यह थी कि विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्रों को हरित प्रौद्योगिकी की स्थापना संबंधी तकनीक और आर्थिक मदद दें। दूसरे, विकसित देश सभी देशों पर एक ही सशर्त आचार संहिता थोपना चाहते थे, जबकि विकासशील देश इस शर्त के विरोध में थे। दरअसल विकासशील देशों का तर्क था कि विकसित देश अपना औद्योगिक – प्रौद्योगिक प्रभुत्व व आर्थिक समृद्धि बनाए रखने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा का प्रयोग कर रहे हैं। इसके अलावा ये देश व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी ऊर्जा का बेतहाशा दुरुपयोग करते हैं। इसलिए खर्च के अनुपात में ऊर्जा कटौती की पहल भी इन्हींं देशों को करनी चाहिए। विकासशील देशों की यह चिंता वाजिब थी, क्योंकि वे यदि किसी प्रावधान के चलते ऊर्जा के प्रयोग पर अकुंष लगा देंगे तो उनकी समृद्ध होती अर्थव्यवस्था की बुनियाद ही दरक जाएगी। भारत और चीन के लिए यह चिंता महत्वपूर्ण थी, क्योंकि ये दोनों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देश हैं। इसलिए ये विकसित देशों की हितकारी इकतरफा शर्तां के खिलाफ थे।
अब पेरिस में समझौते का स्पष्ट और बाध्यकारी प्रारूप सामने आएगा। लिहाजा अनेक सवालों के जवाब फिलहाल अनुत्तरित बने हुए हैं। पेरु मसौदे में इस सवाल का कोई उत्तर नहीं है कि जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए वित्तीय स्त्रोत कैसे हासिल होंगे और धनराशि संकलन की प्रक्रिया क्या होगी? हालांकि अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने पेरू में जो बयान दिया था, उससे यह अनुमान लगा था कि अमेरिका जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकट को देखते हुए नरम रुख अपनाने को तैयार हो सकता है। क्योंकि केरी ने तभी कह दिया था कि ‘गर्म होती धरती को बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन पर समझौते के लिए अब ज्यादा विकल्पों की तलाश एक भूल होगी, लिहाजा इसे तत्काल लागू करना जरुरी है।’ अमेरिका को यह दलील देने की जरूरत नहीं थी, यदि वह और दुनिया के अन्य अमीर देश संयुक्त राष्ट्र की 1992 में हुई जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहली संधि के प्रस्तावों को मानने के लिए तैयार हो गए होते ? इसके बाद 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल में भी यह सहमति बनी थी कि कॉर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण सभी देशों का कर्तव्य है, साथ ही उन देशों की ज्यादा जवाबदेही बनती है जो ग्रीन हाउस गैसों का अधिकतम उत्सर्जन करते हैं। लेकिन विकसित देशों ने इस प्रस्ताव को तब नजरअंदाज कर दिया था, किंतु अब सही दिशा में आते दिख रहे हैं।
दरअसल जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। क्योकि इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है। भविष्य में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एशिया के किसानों को कृषि को अनुकूल बनाने के लिए प्रति वर्ष करीब पांच अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। हमारे सामने जो चुनौतियां आज विद्यमान हैं वह प्रकृति जन्य नहीं, वरन मानव की स्व प्रदत्त हैं। वस्तुत: इसके वाबजूद धन्य है यह नेचर जिसने उसी मानव के हाथ में स्वयं को सवांरने का अवसर भी दे दिया है लेकिन दुनिया के मनुष्य हैं कि समस्यायें तो उत्पन्न कर लेते हैं और जब समाधान की बात आती है तो विश्वभर के देश आपस में बातें तो बहुत करते हैं लेकिन व्यवहारिक धरातल पर भारत जैसे कुछ ही देश गंभीरतापूर्वक आगे आते हैं। भारत में मौसम का मिजाज तमाम पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए नई राह पर चल रहा है। इससे कहीं बेमौसम बरसात हो रही है तो कहीं भारी बर्फबारी। बदलते मौसम ने देश में कई मौसमी बीमारियों को भी बड़े पैमाने पर न्योता दे दिया है। उसके इस मिजाज ने मौसम विज्ञानियों को भी चिंता में डाल दिया है। इस सदी में यह पहला मौका है जब किसी साल मौसम के मिजाज में इतना ज्यादा बदलाव देखने को मिल रहा है. भारत ही नहीं, ग्लोबल वार्मिंग का असर अब दुनिया के कई देशों में स्पष्ट नजर आने लगा है. भारत में इसके इतने गहरे असर का यह पहला मौका है। उनके मुताबिक, इसी वजह से पिछले एक दशक में भारी बर्फबारी, सूखा, बाढ़, गरमी के मौसम में ठंड और ठंड के मौसम में गरमी जैसी घटनाएं बढ़ी हैं मौसम के इस तेजी से बदलते मिजाज की वजह से देश की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंच रहा है।

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वर्ष 2015 में भारत की राजनीती

अंग्रेजी वर्ष 2015 को भारत के राजनीति में आया एक मोड़ मानूंगा जबकि की बिहार के चुनाव परिणाम ने एक सबक सबों को दिया की आप बहुत दिनों तक बहुतों को धोखे में नहीं रख सकते हैं। मैंने कभी यह नहीं माना की नरेन्द्र मोदी की जीत उनकी ही थी वल्कि वह कांग्रेस की हार अधिक थी। भारत की जनता इतनी मूर्ख नहीं कि वह राहुल बनाम मोदी में किसको चुने और यह उनका प्रारब्ध ही था जबकि वह भारतीय जनता पार्टी की सबसे दयनीय स्थिति में प्रधानमंत्री के पद के लिए इस प्रकार चुन लिए गए या उन्होंने अपने को चुनवा लिया जो की सांघिक संघटनों में अनुश्रुत था। कोई व्यक्ति अपने लिए पद का निर्णय ले यह सांघिक परम्पराओं में कभी हो ही नहीं सकता और यही हुआ। यदि यह संघ के मंजे लोंगों का निर्णय होता तो मोदी तीसरी बार मुख्यमंत्री नहीं, केंद्र में भेज दिए गए होते, पार्टी के ही पद पर ही सही और वे बंगारू लक्ष्मण जैसों से अछे अध्यक्ष हो ही सकते थे संभव: गडकरी से भी अच्छा।
पर होना कुछ और था-
भारतीय राजनीति का कोर्पोरेटीकरण, जो कि कभी भी दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायियों को स्वीकारणीय नहीं होना था, एक कमरे में बना जनसंघ, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के राष्ट्रीय से राजमाता सिंधिया के दिनों में क्षेत्रीय और फिर वाजपयी-आडवानी के समय में राष्ट्रीय बनी पर उन दोनों के ही गलती या कहें सांघिक परम्पराओं की अनुपालना न करने से नया नेतृत्व नहीं आ पाया और एक बार एक सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रीय दल ने एक क्षेत्रीय नेता को देश के सामने मोदी के रूप में खडा कर दिया जिसके पास अपने राज्य का तो अनुभव था पर देश का नहीं और ट्रंप कार्ड उसकी अपनी पिछड़ी जाति का होना था जिस तथाकथित गरीब के पीछे एक धनी प्रांत के बड़े लोग थे। कहा जाता है की चुनावी प्रचार में 16000 करोड़ रुपये का इंधन फूंका गया। चुनाव एमपी नही पीएम का हो गया, किसी राष्ट्रपति प्रणाली की तरह जो सांघिक एकात्म खांचे में बैठता तो जरूर है पर किसी क्षेत्रीय नेता को सामने करना एक विरोधाभास भी ला देता है।
सिद्धांतों की कसौटी पर मोड, जीत गया पर संघ के अनेक आदर्श हांर गए। ऐसा नही की मेरे जैसे कुछ लोग जो इसके विपरीत सोचते हों वे भाजपा के विरोधी हों या उसके विरोधी के जीत की आश लगाये हों पर मन न माने तो आप क्या करेंगे- नोटा दबा सकते, घर में बैठ सकते, पर जो जश्न मना उसमे शरीक भी नहीं हो सकते। कमल खिल गया, संसद की कतारों में भर गया, पर जब उन सांसदों की पृष्ठभूमि पर ध्यान गया अधिकाश कल तक कमल को कोसने वाले दलबदलू, अपराधी, वंश परम्पराओं में आये, बहुकोटीपति से भरा केशरिया बाना जिसने पहले ही अपने एक तिहाई रंग को कुर्बान कर दिया था अब स्पष्टत: उस दल का रूप था जिसके विरोध में वह बना था।
केवल एक बात पूरी हुई की हिन्दू के नाम पर जीता भी जा सकता हैज्मैंने 1967 से अब तक के चुनावों को देखा है, सरकारी सेवा के समय की चुनावी अलिप्तता को छोड़ सदैव इसी जनसांघिक विचारधारा का रहा हूँ जैसा अनुमान था और आंकड़े थे भाजपा बिहार में हार गया, पहले बिहार के उपचुनावों, वाराणसी के निकायों में और अब गुजरात के गाँव में भी हारा है, बिहार में लोग सोचते हैं की महागठबंधन ने भाजपा को हराया है , मुझे लगता है की भाजपा के कार्यकत्र्ताओं ने भाजपा को हराया है- करीब 30 वर्ष के सरकारी सेवा के बाद मुझमें चुनावी सक्रियता थी पर मैं भाजपा के साथ नहीं था, न ही इसके विरोधियों के साथ था, मैं कार्यकर्ताओं के साथ था, मैंने उनकी वेदना को निकट से खास कर मिथिला में देखा , जो मेरे बिछुड़े अनेक साथी 1975-77 के बाद से लगातार भाजपा के साथ थे वे मन रहे थे की भाजपा का उम्मीदवार हार जाये- तो भाजपा को हारना ही था, वह हार गयी, मैंने उनकी एक बागी सभा में भी कहा था की हिम्मत करें खड़े हों जीतने के बाद जम्मू की 1977 की कहानी दोहरावें- पर मैं भावुक था, वे राजनीती के खिलाड़ी, वे जानते थे की भाजपा का उम्मीदवार कैसे हारेंगे.. भाजपा का उम्मीदवार हारा, भाजपा का कार्यकर्ता जीता, जो भाजपा हारी जो भाजपा थी ही नहीं।
आखिर इस हार का जिम्मेवार कौन है, स्वयम प्रधानमंत्री जिसे हिन्दू में किसी ने ‘सी एम आफ इंडिया’ लिखा था, सी एमम को पी एम बनाने का मैं इसीलिये विरोधी था.. मैं नरेन्द्र मोदी का व्यक्तिगत विरिधी नहीं हूँ, मैं उन प्रक्रियाओं का विरोधी हूँ जिससे वे आगे गए, वे स्वस्थ नहीं थे।
मेरी बातें बहुत सारे लोंगों को जंचेगी नहीं पर मेरा यह सुविचारित मत है की हमें देश के बारे में एकात्म भाव से सोचना चाहिए और बिहार की जनता ने जो ठोकर दी है वह आत्मालोचना के लिए पर्याप्त होनी चाहिए- साम, दाम, दंड, भेद से राजनीति चलती है पर राष्ट्रनीति इससे ऊपर है, राष्ट्र क्या अब भी दलबदल, धनपति, जातिपाति की गणना भाजपा को करनी है तो इसकी विरोधी में क्या दुर्गुण थे, यही सब ना.. इस मामले में बिहार के चुनाव ने बता दिया है की सोच सच्ची करें तभी जनता साथ रहेगी। प्रश्न चुनाव हरने या जीतने का हो सकता है पर इसके मायने अधिक हैं- यदि उस पर विचार हुवा तभी यात्रा जारी रहेगी- कंटकाकीर्ण स्वयं स्वीकृत मार्ग पर चलने वाले को जीत या हार में समभावी होना चाहिए तभी परम वैभव की कल्पना का चित्र हम मन से जन तक के मन में उकेर सकेंगे।
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क्या यह असहिष्णुता नहीं


क्या यह दृश्य अब भी आपको दिखाई देता कि, रेलवे स्टेशन पर एक आदमी अब भी डस्टबिन से लोगों की फेंकी हुई सामग्री बीनकर अपना पेट भरता नजर आता है। क्या आपने दिल्ली से चलकर देश की अलग-अलग दिशा में जाने वाली ट्रेनों का हाल देखा है। नहीं, तो एक बार जाकर देखिए, बचे हुए समोसों-कचौरियों पर बच्चे कैसे टूटते हैं। क्या आपको पता है, देश में गरीबी का क्या हाल है और 27 रुपये या 32 रुपये में एक आदमी अपना दिन कैसे निकाल सकता है? क्या आप देश में बच्चों के भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, जिसके 48फीसदी बच्चे किसी न किसी तरह के कुपोषण के शिकार हैं, जिनका जिक्र हमारे पूर्व प्रधानमंत्री ने ‘‘राष्ट्रीय शर्म’’ के रूप में किया? क्या आपको नौकरी के लिए चप्पल घिसते नौजवान नजर आते हैं? क्या आपको देश में हजारों किसानों की आत्महत्याएं सहिष्णु या असहिष्णु के सवाल की तरह चिंतनीय नहीं लगतीं? देश में सहिष्णुता है, नहीं है, खत्म हो रही है? अनुपम खेर से लेकर आमिर खान तक की बहस जाने किस नतीजे पर पहुंचेगी? पहुंचेगी भी या नहीं! लेकिन इस देश में कुछ और भी शब्द हैं जो समाज के असहिष्णु हो जाने सरीखे ही भयंकर और खतरनाक हैं। बावजूद इसके बीते सालों में ये शब्द कभी-कभी ही वैचारिक पटल पर गंभीरता से उठाए गए। भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, किसान आत्महत्या, भ्रष्टाचार- यूपीए से लेकर एनडीए तक इन शब्दों के प्रभाव से भली-भांति वाकिफ होते हुए भी, सुधारने के लिए क्या गंभीर कोशिश कर पाए हैं, देश की मौजूदा हालत देखकर समझ आता है, क्योंकि समस्याएं तो जस की तस हैं।
परंपरा के किसी घिसे-पिटे संस्करण के विरुद्ध, अंधविश्वास के किसी सतही स्वरूप के खिलाफ अगर आपने कुछ कहा तो किसी की भी भावना आहत हो सकती है और मौत की धमकी देने से लेकर उस पर अमल तक किया जा सकता है। असहिष्णुता और सार्थक संवाद की कम होती जा रही संभावना के खिलाफ विरोध अब केवल कुछ मु_ी भर लेखकों, फिल्मकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों तक ही सीमित नहीं रह गया है। देश में व्याप्त स्थिति पर चिंता जताने वालों में पूर्व नौसेनाध्यक्ष एडमिरल रामदास, पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में जीनियस माने जाने वाले कंडक्टर जुबिन मेहता, शीर्ष फिल्म अभिनेता शाहरुख खान, चोटी के सरोदवादक अमजद अली खान, उद्योग जगत के एनआर नारायणमूर्ति, किरण शॉ मजूमदार, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन, प्रसिद्ध वैज्ञानिक पीएम भार्गव और भारतीय मूल के ब्रिटिश अर्थशास्त्री लॉर्ड मेघनाद देसाई के नाम भी जुड़ गए हैं। सदाचार की बातें करते हुए किसी व्यक्ति की भावना आहत न हो और हिंसा न भडक़े, इसके लिए व्यक्ति की अभिव्यक्ति में सतर्क संतुलन स्थापित होना नितांत आवश्यक है किन्तु अपने विचार व्यक्त करने से ही असहिष्णुता की चिंगारी फैल जाये और सब मिलकर गलत साबित करने लगे ये तो घर के अंदर वार्तालाप से लेकर सामूहिक बयानबाजी, पान के ठेले पर चर्चा से लेकर मिडिया तक दिखाई देती है। 1947 में भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था क्योंकि मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र चाहती थी। विभाजन के बाद बहुत बड़ी तादाद में हिन्दू सीमा पार से भारत आए और मुसलमान पाकिस्तान गए। लेकिन इसके बावजूद मुसलमानों की अधिकांश आबादी ने भारत में रहना ही तय किया। क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में चला राष्ट्रीय आंदोलन सभी धर्मों के लोगों को साथ लेकर स्वाधीन भारत के निर्माण में यकीन रखता था और उसने कभी भी सिद्धांत रूप में मुस्लिम लीग के इस दावे को नहीं माना था कि सिर्फ वही भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि और प्रवक्ता है।
इसलिए धर्म के आधार पर देश का बंटवारा होने के बावजूद भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने का फैसला लिया गया। राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व ने अपने लंबे राजनीतिक अनुभव के आधार पर निष्कर्ष निकाला था कि एक ऐसा देश जिसमें अनेक धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं और क्षेत्रों के लोग रहते हों, केवल लोकतांत्रिक, संघीय और धर्मनिरपेक्ष रूप में ही अपनी एकता और अखंडता को सुरक्षित रख सकता है। भारत के संविधान में भी अपने धर्म के पालन और प्रचार की स्वतंत्रता दी गई है और यह प्रत्येक भारतीय का बुनियादी अधिकार है। भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश में इस स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता।
क्योंकि लोकतंत्र में वोटों का महत्व है, इसलिए हर धर्म के बीच ऐसे संगठन बन जाते हैं जो यह प्रचारित करते हैं कि उस धर्म के सभी मानने वालों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित एक जैसे हैं और उन्हें वही संगठन पूरा कर सकता है। ये संगठन अंतत: सांप्रदायिक प्रचार पर उतर आते हैं जिसकी बुनियाद एक धार्मिक समुदाय को दूसरे के खिलाफ ख?ा करने की राजनीति पर टिकी होती है। लेकिन ऐसे सांप्रदायिक संगठन भी भारत में अपने विरोधी समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता छीनने की बात नहीं करते। यहां सुब्रहमण्यन स्वामी जैसे राजनीतिक नेता मुसलमानों से वोट का अधिकार छीनने जैसी सांप्रदायिक मांग तो उठा सकते हैं, लेकिन उनकी धार्मिक स्वतंत्रता छीनने की मांग उठाने की उनकी भी हिम्मत नहीं पड़ती, क्योंकि आम हिन्दू के लिए इससे बुरी बात कोई नहीं हो सकती कि किसी से उसका धर्म पालन करने का अधिकार छीन लिया जाए। भारत में रहने वाले ईसाई और मुसलमान भी यहां सदियों से रहते आए हैं और उनमें भी दूसरे धर्म को मानने वालों को अपने धर्म में लाने का वैसा जोश नहीं है जैसा दूसरे देशों में पाया जाता है। अधिकांश भारतीय धर्म को निजी चीज समझते हैं और इस बात में यकीन रखते हैं कि हम अपने धर्म का पालन करें और दूसरों को उनके धर्म का पालन करने दें।
भारतीय राजनीति के लिए भी इसके फलितार्थ हैं। ‘घर वापसी’ अभियान गैर-हिंदुओं को हिन्दू बनाना भी टांय-टांय-फिस्स हो गया क्योंकि यह भारतीय समाज की मानसिकता के विरुद्ध है। यह इस बात का संकेत है कि सांप्रदायिक राजनीति चाहे वह किसी भी समुदाय की क्यों न हो, भारतीय समाज में अधिक देर तक प्रभावशाली नहीं रह सकती क्योंकि इसमें रहने वाले अधिकांश लोग धार्मिक स्वतंत्रता के मुरीद हैं। हर भारतीय हिंसा और आतंकवाद वाले धार्मिक कट्टरपंथ से दूर रहना चाहता है वह उदारवादी धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक बनने से पहले भारतीय कहलाना पसंद करता है नफरत और हिंसा से दूर रहकर गांधीवादी बन करूणा, प्यार और अहिंसा की विचारधारा को अपनाता है
किन्तु इस वर्ष की ज्योतिष्य गणनाओं बताती है की देश में कुछके छोटे-बड़े सांप्रदायिक घटनाएं हो सकती है |क्योंकि फ़रवरी की शुरुआत में ही गुरु,राहु से पापाक्रांत होकर कन्या राशि में भ्रमण करेगा | अर्थात कालपुरुष की कुंडली में कन्या राशि मतलब शत्रुता,जहाँ गुरु भाग्येश होकर छठे स्थान में राहु से आक्रांत रहेंगे इसका सीधा सा मतलब है प्रभावशाली लोग समस्या को नज़रअंदाज करेंगे और आमजन के मन में असंतोष पनप सकता है |जिसका सीधा सा मतलब है की 2016 के प्रथम छ:माही में असहिष्णुता स्पष्ट दिखाई देगी |इसे रोकने समय रहते प्रयास जरुरी है |
Pt.P.S.Tripathi
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Thursday 24 December 2015

ज्योतिष्य आधार पर इच्हित संतान प्राप्ति योग

ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। समाज में रहकर हम सभी समाज की मान्यताओं के अनुकूल आचरण करते हैं। मान्यताएं विभिन्न होते हुए भी उनकी परिणति लगभग एक जैसी है। जिसके लिए प्रत्येक प्राणी संघर्ष करता है। परिवार की मर्यादाओं से बंधनयुक्त मनुष्य समाज द्वारा निर्धारित आचरणों का पालन करने को बाध्य है तथा विभिन्न संस्कारों पर आचरण करता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत मनुष्य संस्कारों से बंधा कर्तव्यरत रहता है। जीवन के प्रत्येक संस्कार का एक धार्मिक मूल्य है। संस्कृति भी हमारे कर्म तथा किये हुए कर्म पर आधारित है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य कर्म से बंधा है, जिसके अनुसार जन्म जन्मांतर से भोगमान भोगता है, इसलिए शास्त्रों में सत्कर्म करने पर जोर दिया जाता है। इस विधा में कर्मानुसार जन्म समय में क्षितिज में तदनुकूल ग्रह नक्षत्रादि भी उपस्थित रहते हैं, जो कि जन्म कुंडली के रूप में मिलते हैं। जन्मकुंडली वास्तव में जातक के पूर्व जन्म का वह लेखा जोखा है, जो इस जन्म में उसे भोगना पड़ता है। कुंडली देखकर यह बताया जा सकता है कि अमुक बालक का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ। हिंदू धर्म का पुरातत्व नाम ही वर्णाश्रम धर्म है। जिससे हमारे विभिन्न संस्कार बंधे हैं, और आचरण की विधाएं। इन्हीं संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, वैवाहिक संस्कार। जिस पर दो अपरिचितों का मिलन, दोनों का भविष्य तथा मिलन के परिणति का वृत्तिफल इच्छित संतान होना भी निर्भर है। यही कारण है कि समाज के लोग विवाह के पूर्व लड़के तथा लड़कियों के परिवार के बारे में जानने समझने के बाद ही निर्णय लेते हैं तथा गणमान्य ज्योतिषियों से कुंडली दिखाते हैं तभी अंतिम निर्णय लेने की परंपरा है। ज्योतिष शास्त्र से कुंडली मिलाने की विधा जन्म काल के नक्षत्रादि से है। इसका वर्गीकरण 36 गुण किये हैं जिनके आधार पर मिलान आवश्यक है। यदि वर कन्या के 20 गुण मिलते हैं, तो इसे मध्यम माना जाता है। यदि 20 गुण से अधिक मिलते हैं, तो अति शुभ तथा 20 गुण से कम मिलने पर अशुभ माना गया है। अतः 20 गुण से जितना अधिक मिले उत्तरोत्तर उतना ही शुभ मानने का निर्देश शास्त्रों में है। अधिक गुणों के मेल पर अधिक जोर देना चाहिए। वर कन्या के नक्षत्रादि के आधार पर गुणों का मिलान किया जाता है। जन्मकाल में कुंडली बनाने में नक्षत्रों का प्रमुख महत्व है। पूछा भी जाता है कि कौन नक्षत्र में जन्मा है बच्चा? कैसा निकलेगा इत्यादि। यह सुनिश्चित एवं प्रमाणित है कि विशेष नक्षत्र में जन्म लिया व्यक्ति कुछ न कुछ नाक्षत्रिक विशेषता लिए पैदा होता है, जो सर्वविदित है। अतः नक्षत्रों की स्थिति के पश्चात् मनुष्य एक विशेष वर्ण, वश्य, गण, नाड़ी आदि को लेकर जन्म लेता है तथा उन गुण दोषों से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। उदाहरणार्थ यदि पूर्वा फाल्गुनी में कोई जन्म लेता है तो वह बालक निम्न गुण धर्म को लेकर जन्म लेता है। 1. वर्ण-क्षत्रिय 2 वश्य-वनचर 3. योनि-मूषक 4. गण-मनुष्य 5. नाड़ी-मध्य इत्यादि। ये सभी विशेषताएं मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म से पाता है तथा वैसी ही नैसर्गिक विशेषता लेकर जन्म लेता है। वास्तव में यह ईश्वरीय विधा है तथा सामाजिक एवं सांसारिक व्यवस्था से कहीं परे और सुनिश्चित है। इस प्रकार ब्राह्मण कुल में जन्में मनुष्य का जन्म नक्षत्र- पूर्वा फाल्गुनी है तो नक्षत्र वशात् वह क्षत्रिय वर्ण का हुआ। अंक निर्णय लेना है कि उस मनुष्य की भौतिक स्थिति को ध्यान में रखकर हमें विशेषतया नाड़ी पर कुंडली मिलाते समय ध्यान रखना चाहिए या नक्षत्र वशात क्षत्रिय वर्ण होने, क्षत्रिय वर्ण पर ध्यान देना चाहिए, जो वास्तव में ईश्वरीय है, तथा भौतिकता से परे है। अस्तु यहां यह तर्कसंगत होगा कि नक्षत्रादि के विपाक से जो कुछ है वही सुनश्चित और अटल है। पूर्व उल्लिखित उदाहरण में नाड़ी पर विशेष जोर न देकर क्षत्रिय वर्ण की व्यवस्था ही ग्रहण करने योग्य है। नक्षत्र वशात् ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी जातक क्षत्रिय गुणों को अपने में संजोये रहेगा। आचरण भी बहुत कुछ उससे मिलता जुलता होगा। नक्षत्रों के आधार पर 36 गुण होते हैं। यदि 36 गुण मिल गये तो वह मिलान अत्यंत श्रेष्ठ माना जायेगा। लेकिन ऐसा काम होता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि कम गुण मिलने पर कुछ न कुछ कमी तो रहेगी ही। यह कमी किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। जैसे यदि भाग्यादि ठीक रहा तो कन्या का बाहुल्य हो गया संतति के क्षेत्र में इत्यादि। यही नहीं वंशानुगत रोगादि भी वर कन्या के सहवास के फलस्वरूप मिलता है, वह भी तो मेलापक के काम अधिक गुणों के मिलने का प्रतिफल है। अक्सर देखा जाता है कि यजमान लोग भी केवल ग्रह मैत्री संतान धन को मिलाने पर जोर देते हैं ऐसे में शास्त्र और विद्वान को दोष देना व्यर्थ है। सुख एवं दुःख ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो मनुष्य का गुण है कि यदि आज वह सुख भोग रहा है तो उसी को कल दुख भी भोगना पड़ सकता है। इसी प्रकार इस संसार चक्र को संचालित करने में नर एवं नाड़ी एक ही रथ के दो पहिये होते हैं। यह संसार बिना दोनों के योग से चल ही नहीं सकता। दोनों पहिये यदि एक दूसरे के समर्थक व पूरक न हों अर्थात् उचित ताल मेल न हो तो जीवनयापन सुखी नहीं हो सकता। हमारा ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। अब समय आ गया है कि इस विषय को नये सिरे से वैज्ञानिकता के आधार पर विवेचना की जाये तथा वर्तमान काल, स्थिति के संदर्भ में उसको प्रस्तुत किया जाये ताकि सूर्य सिद्धांत व दृश्य गणित का अंतर देखें। यदि इस प्रकार के समयांतर को आधार बनायें तो घटियों का अंतर पड़ते-पड़ते अंश राशि तक पहुंच जायेगा। आज समय आ गया है कि इस पर नये सिरे से विचार करके प्राचीन पद्धति पर बनी सारणी को हटाकर नवीनतम सारणी को प्रस्तुत किया जाये। अपने को समयानुकूल ढ़ालने के लिए नया रूप देना होगा। जबकि पाश्चात्य देश हमारे ही सिद्धांतों को अपनाकर अंतरिक्ष युग में प्रवेश कर चुके हैं तो हमारी कार्य क्षमता पर प्रश्न चिन्ह क्यों। उक्त के अतिरिक्त इसी प्रकार वर्तमान समय के पाश्चात्य समाज में विवाह विषयक निर्णय के लिए रक्त ग्रुप तथा आनुवंशिकी प्रथा प्रचलित है। इस विषय में हमारे मनीषियों ने हजारों वर्षों पूर्व कुंडली मेलापक की व्यवस्था कर दी थी। जो गौरव की बात है।

ज्योतिष्य आधार पर इच्हित संतान प्राप्ति योग

ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। समाज में रहकर हम सभी समाज की मान्यताओं के अनुकूल आचरण करते हैं। मान्यताएं विभिन्न होते हुए भी उनकी परिणति लगभग एक जैसी है। जिसके लिए प्रत्येक प्राणी संघर्ष करता है। परिवार की मर्यादाओं से बंधनयुक्त मनुष्य समाज द्वारा निर्धारित आचरणों का पालन करने को बाध्य है तथा विभिन्न संस्कारों पर आचरण करता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत मनुष्य संस्कारों से बंधा कर्तव्यरत रहता है। जीवन के प्रत्येक संस्कार का एक धार्मिक मूल्य है। संस्कृति भी हमारे कर्म तथा किये हुए कर्म पर आधारित है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य कर्म से बंधा है, जिसके अनुसार जन्म जन्मांतर से भोगमान भोगता है, इसलिए शास्त्रों में सत्कर्म करने पर जोर दिया जाता है। इस विधा में कर्मानुसार जन्म समय में क्षितिज में तदनुकूल ग्रह नक्षत्रादि भी उपस्थित रहते हैं, जो कि जन्म कुंडली के रूप में मिलते हैं। जन्मकुंडली वास्तव में जातक के पूर्व जन्म का वह लेखा जोखा है, जो इस जन्म में उसे भोगना पड़ता है। कुंडली देखकर यह बताया जा सकता है कि अमुक बालक का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ। हिंदू धर्म का पुरातत्व नाम ही वर्णाश्रम धर्म है। जिससे हमारे विभिन्न संस्कार बंधे हैं, और आचरण की विधाएं। इन्हीं संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, वैवाहिक संस्कार। जिस पर दो अपरिचितों का मिलन, दोनों का भविष्य तथा मिलन के परिणति का वृत्तिफल इच्छित संतान होना भी निर्भर है। यही कारण है कि समाज के लोग विवाह के पूर्व लड़के तथा लड़कियों के परिवार के बारे में जानने समझने के बाद ही निर्णय लेते हैं तथा गणमान्य ज्योतिषियों से कुंडली दिखाते हैं तभी अंतिम निर्णय लेने की परंपरा है। ज्योतिष शास्त्र से कुंडली मिलाने की विधा जन्म काल के नक्षत्रादि से है। इसका वर्गीकरण 36 गुण किये हैं जिनके आधार पर मिलान आवश्यक है। यदि वर कन्या के 20 गुण मिलते हैं, तो इसे मध्यम माना जाता है। यदि 20 गुण से अधिक मिलते हैं, तो अति शुभ तथा 20 गुण से कम मिलने पर अशुभ माना गया है। अतः 20 गुण से जितना अधिक मिले उत्तरोत्तर उतना ही शुभ मानने का निर्देश शास्त्रों में है। अधिक गुणों के मेल पर अधिक जोर देना चाहिए। वर कन्या के नक्षत्रादि के आधार पर गुणों का मिलान किया जाता है। जन्मकाल में कुंडली बनाने में नक्षत्रों का प्रमुख महत्व है। पूछा भी जाता है कि कौन नक्षत्र में जन्मा है बच्चा? कैसा निकलेगा इत्यादि। यह सुनिश्चित एवं प्रमाणित है कि विशेष नक्षत्र में जन्म लिया व्यक्ति कुछ न कुछ नाक्षत्रिक विशेषता लिए पैदा होता है, जो सर्वविदित है। अतः नक्षत्रों की स्थिति के पश्चात् मनुष्य एक विशेष वर्ण, वश्य, गण, नाड़ी आदि को लेकर जन्म लेता है तथा उन गुण दोषों से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। उदाहरणार्थ यदि पूर्वा फाल्गुनी में कोई जन्म लेता है तो वह बालक निम्न गुण धर्म को लेकर जन्म लेता है। 1. वर्ण-क्षत्रिय 2 वश्य-वनचर 3. योनि-मूषक 4. गण-मनुष्य 5. नाड़ी-मध्य इत्यादि। ये सभी विशेषताएं मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म से पाता है तथा वैसी ही नैसर्गिक विशेषता लेकर जन्म लेता है। वास्तव में यह ईश्वरीय विधा है तथा सामाजिक एवं सांसारिक व्यवस्था से कहीं परे और सुनिश्चित है। इस प्रकार ब्राह्मण कुल में जन्में मनुष्य का जन्म नक्षत्र- पूर्वा फाल्गुनी है तो नक्षत्र वशात् वह क्षत्रिय वर्ण का हुआ। अंक निर्णय लेना है कि उस मनुष्य की भौतिक स्थिति को ध्यान में रखकर हमें विशेषतया नाड़ी पर कुंडली मिलाते समय ध्यान रखना चाहिए या नक्षत्र वशात क्षत्रिय वर्ण होने, क्षत्रिय वर्ण पर ध्यान देना चाहिए, जो वास्तव में ईश्वरीय है, तथा भौतिकता से परे है। अस्तु यहां यह तर्कसंगत होगा कि नक्षत्रादि के विपाक से जो कुछ है वही सुनश्चित और अटल है। पूर्व उल्लिखित उदाहरण में नाड़ी पर विशेष जोर न देकर क्षत्रिय वर्ण की व्यवस्था ही ग्रहण करने योग्य है। नक्षत्र वशात् ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी जातक क्षत्रिय गुणों को अपने में संजोये रहेगा। आचरण भी बहुत कुछ उससे मिलता जुलता होगा। नक्षत्रों के आधार पर 36 गुण होते हैं। यदि 36 गुण मिल गये तो वह मिलान अत्यंत श्रेष्ठ माना जायेगा। लेकिन ऐसा काम होता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि कम गुण मिलने पर कुछ न कुछ कमी तो रहेगी ही। यह कमी किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। जैसे यदि भाग्यादि ठीक रहा तो कन्या का बाहुल्य हो गया संतति के क्षेत्र में इत्यादि। यही नहीं वंशानुगत रोगादि भी वर कन्या के सहवास के फलस्वरूप मिलता है, वह भी तो मेलापक के काम अधिक गुणों के मिलने का प्रतिफल है। अक्सर देखा जाता है कि यजमान लोग भी केवल ग्रह मैत्री संतान धन को मिलाने पर जोर देते हैं ऐसे में शास्त्र और विद्वान को दोष देना व्यर्थ है। सुख एवं दुःख ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो मनुष्य का गुण है कि यदि आज वह सुख भोग रहा है तो उसी को कल दुख भी भोगना पड़ सकता है। इसी प्रकार इस संसार चक्र को संचालित करने में नर एवं नाड़ी एक ही रथ के दो पहिये होते हैं। यह संसार बिना दोनों के योग से चल ही नहीं सकता। दोनों पहिये यदि एक दूसरे के समर्थक व पूरक न हों अर्थात् उचित ताल मेल न हो तो जीवनयापन सुखी नहीं हो सकता। हमारा ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। अब समय आ गया है कि इस विषय को नये सिरे से वैज्ञानिकता के आधार पर विवेचना की जाये तथा वर्तमान काल, स्थिति के संदर्भ में उसको प्रस्तुत किया जाये ताकि सूर्य सिद्धांत व दृश्य गणित का अंतर देखें। यदि इस प्रकार के समयांतर को आधार बनायें तो घटियों का अंतर पड़ते-पड़ते अंश राशि तक पहुंच जायेगा। आज समय आ गया है कि इस पर नये सिरे से विचार करके प्राचीन पद्धति पर बनी सारणी को हटाकर नवीनतम सारणी को प्रस्तुत किया जाये। अपने को समयानुकूल ढ़ालने के लिए नया रूप देना होगा। जबकि पाश्चात्य देश हमारे ही सिद्धांतों को अपनाकर अंतरिक्ष युग में प्रवेश कर चुके हैं तो हमारी कार्य क्षमता पर प्रश्न चिन्ह क्यों। उक्त के अतिरिक्त इसी प्रकार वर्तमान समय के पाश्चात्य समाज में विवाह विषयक निर्णय के लिए रक्त ग्रुप तथा आनुवंशिकी प्रथा प्रचलित है। इस विषय में हमारे मनीषियों ने हजारों वर्षों पूर्व कुंडली मेलापक की व्यवस्था कर दी थी। जो गौरव की बात है।

Profession identification through horoscope

Astrologically 5th and 10th houses play an important role in identifying the profession, the course of intellectual pursuit. In the modern world many new courses and branches of knowledge have come out, making it difficult to choose out of many branches of knowledge with the help of 12 Rasis, 12 Bhavas and the 9 planets. Our ancient saint like Parasara, either considered, that the Astrologers will be wise and logically well developed to make a judicious selection by permutation and combination of planets. Thus the new generation of astrologers are groping in darkness as to how to judge the horoscope to find the course of studies and the nature of profession. A study in a particular subject does not necessarily mean that he will take up a profession in the same line. There are many Doctors, Engineers who become a contractors, actors, politicians and dacoits. In other words many of them did not choose a profession suitable to their educational qualifications. Hence an astrological assessment of profession on the basis of study of planets in the 5th house may go wrong, without considering the 10th house. The course of study may be influenced by the ruling planets, in the life during the formative years i., 5th to 20th years of age. A qualified Doctor, by leaving his medical profession become a politician or an industrialist or an actor. An Engineer after 10 years of profession has become a Homeopathic Doctor, Ayurvedic Doctors have alternative medicine profession like magnetherphy, flower therphy and so on. Educational and profession deserves to be investigated astrologically fifth house, besides other things, is the house of gaining knowledge and education. 10th house is the house of profession and the karma. The Dasa of a planet from 5th to 20th year i.e., formative period gives an indication of the field of study. In the following example : Cancer is the lagna, 5th house is the Scorpio, and Aries is the 10th house. The 5th and the 10th house lord is Mars posited in 5th house, associated with Mercury the lord of 3rd and 12th. Jupiter the lord of 6th and 9th, Mars being 5th lord he should give technical education, 10th lord also being mars should give technical occupation, Engineering, Defence Services, Police etc. This assessment may not lead to correct prediction with reference to education and profession, we have to take into consideration the modifications in view of Mars association with the Jupiter., and mercury in the 5th house. The Mercury is a mathematician, a literary man, chemist, and a philosopher. As a lord of 3rd house he should deal with many people, being lord of 12th, he should have spiritual mind, loss of opportunities. The Ketu is not lord of any house in association with Mars and Mercury he goes with live stock, forests, timber and bones. So, the choice of profession largely lies in the shoulder of Mars, who is lord of Education and Karma bhava. Mars, Mercury and Jupiter posited in 5th house are in shadastaka with Moon the lord of 1st house. So, we can assume that the native will have technical education with a mixture of mathematics, literature, logic, chemicals food education, and teaching as per the qualities of Mercury and Jupiter. With this data, it becomes possible to fix the course of study, but to pin point we have to examine Dasa period from 5th to 20th year. The balance of Dasa at Birth is around 5 years Rahu. So 5th to 20th year, Jupiter dasa will be in force. Jupiter, essentially a teacher. During this period the native will take Technical studies connected with the Mars and Mercury. Mars is technician, Mercury mathematician. During this period the native studied a technical course with tinge of educational system designing and architects. But from 20th onwards for 19 years the native will enter Saturn Dasa, posited in 6th house, associated with the lord of 2nd Sun. This gives a Government Job involving certain changes induced by Saturn. Now during the sub-period the native is likely to be in a subordinate position. From 40th year Mercury Dasa being the lord of 3rd and 12th posited in 5th should give a position where certain elements of administration and pin pricks of comments or criticism are inevitable. The education can be decided from the planets who are ruling during dasas from 5th to 10th year with reference to their relatin with the 5th and 10th lords. But the career ordained by 5th lord need not necessarily be the same. The professional choice will be influenced by the Dasa lords from 20th onwards. The transition from Jupiter Dasa to Sani dasa will be quits sudden and unexpected with a change of all parameters. Saturn and Mercury they being friendly planets will not oppose each other ensuing continuity of profession in the same location or department with a change from servitude to official status power and financial gain. In this way though 5th house influences the course of study and the 10th house decides the course of career as to whether it should be technical course, subordinate position of administration position. The certification of the 5th and 10th lords depend entirely on the Dasa lords and their lordship of houses. The 5th and 10th lords may not always give them a career in accordance with the education alone. For fixing the profession one has to study and aspects of the horoscope to foresee the changes in the life by combined assessment of 5th and 10th lords dasa and their lordships associations the Bhavas.

शासकीय अधिकारी बनने के योग

जनतांत्रिक शासन प्रणाली में प्रधान नेता, मंत्री और शासकीय अधिकारी आदि उच्च पदों का विचार राजयोगों से और निम्न पदों (शासकीय सेवकों) का विचार राज प्रधान योगों से करना चाहिये। उच्चस्तरीय आजीविका की प्राप्ति में यह योग ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। महर्षि पाराशर प्रणीत इन योगों को जानने के लिये आत्मकारक, अमात्यकारक ग्रह और आरुढ लग्न/पद लग्न को समझना पड़ेगा। आत्मकारक: जन्मकालीन ग्रहों में से जिस ग्रह के अंश सर्वाधिक हो वह आत्मकारक होता है। जहां ग्रहों के अंश तुल्य हों, वहां कला से अधिकता लेनी चाहिये और कला समान हो तो विकला से जो अधिक हो, वही आत्मकारक होता है। महर्षि पाराशर ने कहा है- जिनके जन्मकाल में दो ग्रह सम अंश वाले हो तो दोनों ही उस कारक के स्वामी होते हैं। परंतु उसका फल स्थिर कारक से कहना चाहिये। आत्मकारक ग्रह से न्यून अंश वाला ग्रह अमात्यकारक होता है। इसी प्रकार क्रमशः भ्रातृकारक, मातृकारक, पुत्रकारक, ज्ञातिकारक व स्त्रीकारक होते हैं। इन सभी में आत्मकारक प्रधान होता है व जातक का स्वामी होता है। आत्मकारक के वश से अन्य कारक फल देने वाले होते हैं। क्योंकि आत्मकारक सभी ग्रहों का राजा होता है। लग्नारूढ़ पद: जनुर्लग्नाल्लग्नस्वामी यावद दूरं हितिष्ठति। तावद् दूरं तदग्रे च लग्नारूढं चं कथ्यते।। लग्न लग्न से लग्नेश जितने दूर भाव में स्थित हो, उससे उतने ही भाव आगे की राशि लग्नेश का पद या आरुढ़ होता है। उसे लग्न पद या आरुढ़ लग्न कहते हैं। इस प्रकार लग्नारुढ़ को लग्न मानकर चक्र बनाये उसमें जो ग्रह जिस स्थान में हो उसे वहां लिखकर फल कहें। इस प्रकार द्वादश भावों का आरुढ़ पद बनाया जा सकता है लेकिन सभी पदों में लग्न का पद मुख्य होता है। निर्वध अर्गला: पद या लग्न से 2, 4, 7, 11 भाव में शुभ ग्रह होने से या उक्त भावों पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होने से निर्बाध अर्गला होती है। निर्बाध अर्गला हो तो व्यक्ति भाग्यवान होता है। इस प्रकार प्रत्येक भाव से अर्गला का विचार किया जा सकता है। यदि 2, 4, 7, 11 भावों में अशुभ ग्रह हो या अशुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो फल का आनुपातिक ह्रास होता है। चतुर्थ का दशम, द्वितीय का द्वादश और एकादश का तृतीय भाव क्रमशः बाधक होते हैं। अतः तृतीय, दशम, द्वादश भाव में स्थित ग्रह प्रतिबंधक अर्गला होते हैं अर्थात निर्बाध अर्गला में वधिक होते हैं। शुभ ग्रह की अर्गला भाव फल को खेलती है, धन की वृद्धि करती है और पाप ग्रह की अर्गला भाव फल को रोकती है एवं अल्प धन देती है। शुभ एवं पाप ग्रह की मिश्रित अर्गला होने पर कहीं वृद्धि कहीं ह्रास होता है। लग्न पद या चंद्रमा के साथ कोई उच्चस्थ ग्रह हो तथा उनसे गुरु शुक्र का योग हो और पाप ग्रह कृत अर्गला योग न हो तो निसंशय विशेष राजयोग होता है। पद या लग्न से सातवें भाव में निर्वध अर्गला होती है यदि यह अर्गला हो तो मनुष्य भाग्यवान होता है। शुभ ग्रह की अर्गला बहुत द्रव्य देने वाली होती है। महाराज योग और उच्चाधिकारी महर्षि पाराशर के मतानुसार में दैवज्ञ राजयोगों को जानता है वह राजा (शासक) द्वारा पूज्य होता है। आइये हम भी प्रमुख राज योगों को जानने का प्रयत्न करते हैं। लग्नेऽय पंचमे वापि लग्नेशे पंचमाधिपे। पुत्रात्मकारकौ विप्र लग्ने वा पंचमेऽपि च ।। सम्बंधे वीक्षिते तत्र दृष्टैवं पंचमाधिपे। स्वोच्चे स्वांशे स्वभे वापि शुभग्रह निरीक्षिते।। महाराजेति योगोऽयं सोडत्र जात सुखी नरः। गजवाजिरधैर्युक्तः सेनास्ग्मनेकधा।। 1. लग्नेश और पंचमेश लग्न या पंचम भाव में स्थित हो अथवा लग्नेश पंचम भाव में और पंचमेश लग्न में स्थित हो। तो राजयोग होता है। 2. अथवा आत्मकारक और पुत्रकारक दोनों लग्न या पंचम मे हो, या दोनों में किसी प्रकार का संबंध हो। तो राजयोग होता है। 3. जन्म लग्नेश तथा पंचमेश के संबंध से तथा आत्मकारक और पुत्रकारक के संबंध से और इनके बलाबल के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम राजयोग होता है। 4. राजयोगकारक ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हों और शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो उत्तम श्रेणी का राजयोग ‘महाराज योग’ होता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति शासन के उच्च पदों पर या उच्च प्रशासकीय अधिकारी होता है। 5. राजयोगकारक ग्रह अपने स्वयं के नवांश में स्थित होने और शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट होने पर जातक शासन या प्रशासन में द्वितीय श्रेणी का अधिकारी होता है। 6. राजयोग कारक ग्रह यदि स्वयं की राशि में स्थित हो तो जातक तृतीय श्रेणी का शासकीय कर्मचारी होता है तथा उसे राज्याश्रय प्राप्त होता है। उपरोक्त सभी स्थितियों में उत्पन्न मनुष्य वाहन आदि से युक्त और सुखी होता है। ‘महाराज योग’ श्रेष्ठ राजयोग है। जिनके जन्मकाल में यह योग पड़ता है। उस जातक का सभी सम्मान करते हैं तथा उसके आदेश का पालन करते हैं। भाग्येशः कारके लग्ने पंचमें सप्तमेऽपि वा। राजयोगप्रदातारौ गजवाजिधनरैपि।। यदि भाग्येश और आत्मकारक लगन, पंचम या सप्तम में हो तो हाथी, घोड़े और धन से युक्त राज्य देते हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार यदि उच्च राशि में स्थित ग्रह लग्न को देखता हो तो राजयोग होता है। छठवे या आठवे भाव में अपनी नीच राशि में बैठा ग्रह यदि लग्न को देखे तो योगकारक होता है और राजयोग का फल देता है। धमकर्माधिपौ चैव व्यत्यये तावुभौ स्थितौ। युक्तश्चेद्वै तदा वाच्यः सर्व सौख्य समन्वितः।। नवमेश दशमेश के स्थान परिवत्रन से अर्थात नवमेश दशम भाव और दशमेश नवम भाव में स्थित हो अथवा इन दोनों की युति हो तो जातक सभी सुखों से युक्त होता है। लघु पाराशरी में परम केन्द्रेश और परम त्रिकोणेश के इस योग को प्रथम श्रेणी का राजयोग कहा गया है तथा इस योग का फल यश-कीर्ति और विजय बताया गया है। यह योग मैंने अनेक नेताओं और अधिकारियों की जन्मकुंडली में पाया है। जिसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि उक्त योग में यदि राजभंग योग न हो तो जातक शासक वरिष्ठ मंत्री या उच्च अधिकारी होता है और धन-मान-सम्मान के साथ सुखी जीवन जीता है। सुख कर्माधिपौ चैव मन्त्रिनायेन संयुतौ। धर्मेशेनाऽथवा युक्तौ जालश्चेदिह राज्यभाक् सुखेश, कर्मेश यदि पंचमेश या धर्मेश (नवमेश) से युक्त हो तो जातक राज्य का अधिकारी होता है। यहां भी केंद-त्रिकोण के संबंध से राजयोग बताया गया है। किंतु इस योग में प्रथम और सप्तम केंद्र को शामिल नहीं किया गया है। पंचमेश सप्तमेश के संबंध से अमात्य योग होता हे। इसी योग में यदि कर्मेश योग करता है तो राजा या मंत्री होता है। केंद्रेश और नवमेश का योग हो तो राजा से वंदित राजा होता है। निष्कर्ष यह है कि सुखेश और पंचमेश का संबंध लक्ष्मीदायक है, सुखेश और नवमेश का संबंध इससे भी अच्छा (शुभ) है किंतु दशमेश और नवमेश का युति दृष्टि या स्थान परिवर्तन संबंध प्रबल राजयोग कारक है। लग्नेश, पंचमेश और नवमेश इन तीनों की युति यदि लग्न, चतुर्थ या दशम स्थान में हो तो राजवंश में उपन्न जातक राजा होता है। ऐसा महर्षि पाराशर का कथन है किसी शासक या अधिकारी के पुत्र की कुंडली में उक्त योग हो तो वह बालक भी अपने पिता के समान शासक या अधिकारी होता है। अपनी जन्म कुंडली में उक्त योग रखने वाला जातक यदि साधारण पिता का पुत्र हो तो ऐसा जातक निम्न श्रेणी का अधिकारी, मंत्री का सचिव होता है। सप्तमेश दशमस्थ में स्थित हो तथा अपनी उच्चराशि में कर्मेश भाग्येश के साथ हो तो ‘श्रीनाथ’ योग होता है। इस योग में उत्पन्न जातक द्वंद के समान राजा होता है।

जीवन में महत्वपूर्ण घटनाएं कब होती है

ज्योतिष का महत्वपूर्ण भाग फलकथन है। इसी गुण के कारण उसे वेदों का नेत्र कहा जाता है। भविष्य को जानने की चाह प्रत्येक व्यक्ति को होती है, संकट तथा परेशानी में यह चाह और भी बढ़ जाती है। भविष्य को व्यक्त करने की दुनिया के अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग पद्धतियां हैं। सर्वाधिक प्रचलित तथा विश्वसनीय विधि जन्मपत्री का विश्लेषण है। जन्मपत्री विश्लेषण के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं जो जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत देते हैं। इनमें प्रमुख हैं: जातक का महादशा क्रम, अष्टकवर्ग एवं गोचर तथा नक्षत्रों के विभिन्न चरण तथा उनसे ग्रहों का गोचर। वैसे तो जन्मपत्री विश्लेषण के कई सूत्र हैं यथा - योग, वर्ग कुंडलियां, तिथ, वार, पक्ष, मास, नक्षत्र जन्म फल, ग्रहों के संबंध इत्यादि लेकिन भविष्य कथन में उपरोक्त तीन ही निर्णायक हैं। महर्षि पराशर ने मानव जीवन को 120 वर्ष की अवधि मानकर महादशा प्रणाली विकसित की। इस महादशा का निर्धारण जन्मकालीन चंद्रमा की नक्षत्रात्मक स्थिति में होता है। सभी 27 नक्षत्रों को नवग्रहों में विभक्त कर एक-एक ग्रह को तीन नक्षत्रों का स्वामी बना दिया गया तथा गहों के भी महादशा वर्ष निश्चित किए गए। यहां महादशा क्रम, अंतर व प्रत्यंतर दशा निकालने की विधि दी जा रही है, सिर्फ उन बिंदुओं की चर्चा की जा रही है जो महत्वपूर्ण घटनाक्रम का कारण बनते हैं। लग्न, पंचम व नवम भाव जन्म कुंडली के शक्तिशाली भाव हैं - इनसे स्वास्थ्य, बुद्धि व संतान तथा भाग्य का विचार किया जाता है। इन्हें त्रिकोण भाव कहा जाता है। इन भावों में स्थित राशियों के स्वामी ग्रहों की महादशा, अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा सदैव सुखद परिणाम देती है। इसी तरह छठा, आठवां व व्यय भाव दुःख स्थान या त्रिक् स्थान कहलाते हैं। इनके स्वामी ग्रहों की महादशा, अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा कष्टकारी होती है। लग्न व नवम भाव के स्वामी ग्रहों की ममहादशा में चतुर्थ या सप्तम भाव के स्वामी ग्रह की अंतरदशा घर में मंगल कार्य करवाती है। जन्म नक्षत्र से तीसरा नक्षत्र विपत, पांचवां प्रत्यरि तथा सातवां वध संज्ञक कहलाता है। इन नक्षत्रों के स्वामी ग्रहों की महादशा, अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा दुखद परिणाम देती है लेकिन अगर ये ग्रह त्रिकोण भावों के स्वामी हों तो परिणाम मिश्रित होते हैं। द्वितीय व सप्तम भाव मारक भाव हंै। इनके स्वामी ग्रहों की दशा-अंतरदशा यह प्रत्यंतर दशा मारक होती है। शास्त्रों में आठ प्रकार की मृत्यु बताई गई है अतः मृत्यु का अर्थ केवल जीवन की समाप्ति नहीं होता। विंशोत्तरी महादशा के अतिरिक्त अन्य दशाओं का भी प्रयोग होता है। लेकिन अष्टोत्तरी, कालचक्र, योगिनी चर तथा माण्डु मुख्य हैं। लेकिन घटनाओं के निर्धारण में विंशोत्तरी की उपयोगिता निर्विवाद है। अष्टक वर्ग एक विशिष्ट प्रणाली है जो ग्रहों के शुभ-अशुभ प्रभावों को संख्या में व्यक्त करती है। इसका आधार है ग्रहों का ग्रहों पर प्रभाव। जिस राशि में जिस ग्रह के शुभ अंक ज्यादा हों, गोचर में उस राशि में वह ग्रह अपने भाव का भरपूर लाभ देता है। लेकिन इस प्रणाली को जानकार ज्योतिषियों के माध्यम से ही जाना जा सकता है। अष्टकवर्ग घटनाओं के निर्धारण तथा आयु निर्णय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गोचर अर्थात् ग्रहों का राशि पथ में भ्रमण और उसका जन्म कुंडली के विभिन्न भावों पर प्रभाव। गोचर सामान्यतः चंद्र राशि के आधार पर गोचर का निर्धारण कर फल कथन किया जाता है। जन्म नक्षत्र से तीसरा, पांचवां, सातवां 12वां,14वां,16वां,21वां,23वां या 25वां नक्षत्र गोचर के भाव से अशुभ है। इन नक्षत्रों से ग्रहों का भ्रमण अशुभ घटनाक्रम उत्पन्न कर सकता है। राशि पथ 27 नक्षत्रों तथा 108 चरणों में विभक्त है। यही 108 चरण नवांश भी कहलाते हैं। कुछ फलितकार जीवन भी 108 वर्ष का मानते हैं। जीवन के आयु तुल्य नवांश में जब भी कोई ग्रह भ्रमण करता है तो वह अपने भाव का शुभ या अशुभ फल अवश्य करता है। इधर कुछ फलितकारों की विशेष रूप से प्रश्न मार्ग की मान्यता है कि 108 चरणों को यदि जन्म कुंडली के 12 भावों में विभक्त किया जाए तो प्रत्येक भाव में 9 चरण आएंगे। यदि इन्हें क्रम से रखा जाए ता लग्न में 1,13,25,37,49,61,73,85 या 97वां चरण पड़ेगा। इन नवांशों में जब भी ग्रह गोचरस्थ होंगे वे स्वास्थ्य पर अपनी प्रकृति के अनुसार प्रभाव डालेंगे। इस प्रणाली में चतुर्थ भाव में पड़ने वाला 64वां एवं 88वां चरण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। राहु-केतु-शनि तथा मंगल का इन चरणों से गोचर अत्यंत कष्ट देता है। ज्योतिष में राशियों के मृत्यु भाग का उल्लेख आता है। मेष का 260, वृष 120, मिथुन 130, कर्क 250, सिंह 20, कन्या 010, तुला 260, वृश्चिक 140, धनु 130, मकर 250, कुंभ 50 एवं मीन का 12वां अंश मृत्यु भाग है। लग्न से 210 से 220 अंशों को महाकष्टकारी माना जाता है। इन अंशों से ग्रहों का गोचर कष्ट ही देता है। यहां उन विशिष्ट बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है जो अति संवेदनशील है |

गोचर विज्ञान

इसे देखने के लिये अष्टक वर्ग जैसी अन्य पद्धतियों का नाम एवं विधि विस्तारपूर्वक बताएं। ब्रह्मांड में स्थित ग्रह अपने-अपने मार्ग पर अपनी-अपनी गति से सदैव भ्रमण करते हुए एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते रहते हैं। जन्म समय में ये ग्रह जिस राशि में पाये जाते हैं वह राशि इनकी जन्मकालीन राशि कहलाती है जो कि जन्म कुंडली का आधार है। जन्म के पश्चात् किसी भी समय वे अपनी गति से जिस राशि में भ्रमण करते हुए दिखाई देते हैं, उस राशि में उनकी स्थिति गोचर कहलाती है। वर्ष भर के समय की जानकारी गुरु और शनि से, मास की सूर्य से और प्रतिदिन की चंद्रमा के गोचर से प्राप्त की जा सकती है। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी ग्रह का गोचर फल उस ग्रह की अन्य प्रत्येक ग्रह से स्थिति के आधार पर भी कहना चाहिए न कि केवल चंद्रमा की स्थिति से। गोचर फलादेश के सिद्धांत: 1. मनुष्य को ग्रह गोचर द्वारा ग्रहों की, मुख्यतः ग्रहों की जन्मकालीन स्थिति के अनुरूप ही अच्छा अथवा बुरा फल मिलता है। इस विषय में मंत्रेश्वर महाराज ने ‘फलदीपिका’ में लिखा है। ‘‘यद भागवो गोचरतो विलग्नात्देशश्वरः सर्वोच्च सुहृदय ग्रहस्थः तद् भाववृद्धि कुरूते तदानीं बलान्वितश्चेत प्रजननेऽपि तस्य’’ अर्थात् यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में बली होकर गोचर में भी अपनी उच्च राशि, अपनी राशि अथवा मित्र राशि में जा रहा हो तो लग्न से जिस भाव में गोचर द्वारा जा रहा होगा, उसी भाव के शुभ फल को बढ़ायेगा। इसी विषय को पुनः अशुभ फल के रूप में भी फलदीपिका कार इस प्रकार लिखते हैं। ‘‘बलोनितो जन्मनि पाकनाथौ मौढ्यं स्वनीचं रिपुमंदिरं वा। प्राप्तश्च यद भावमुपैति चारात् तदभाव नाशकुरूते तदानीम्।। अर्थात् यदि कुंडली में कोई ग्रह जिसकी दशा चल रही हो, निर्बल है, अस्त है, नीच राशि में अथवा शत्रु राशि में स्थित है तो वह ग्रह गोचर में लग्न के जिस भाव को देखेगा या जायेगा उस भाव का नाश करेगा। 2. यदि जन्मकुंडली में कोई ग्रह अशुभ भाव का स्वामी हो या अशुभ स्थान में पड़ा हो या नीच राशि अथवा नीच नवांश में हो तो वह ग्रह-गोचर में शुभ स्थान में आ जाने पर भी अपना गोचर का पूर्णअशुभ फल देगा। 3. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में शुभ हो, और गोचर में बलवान होकर शुभ स्थान में भ्रमण कर रहा हो तो उत्तम फल करता है। 4. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली के अनुसार शुभ हो, गोचर में भी शुभ भाव में होकर नीच आदि प्रकार से अधम हो तो कम शुभ फल करता है। 5. यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में अशुभ हो और गोचर में शुभ भाव में हो, परंतु नीच, शत्रु आदि राशि में हो तो बहुत कम शुभ फल करेगा, अधिकांश अशुभ फल ही प्रदान करेगा। 6. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में अशुभ है और गोचर में भी अशुभ भाव में अशुभ राशि आदि में स्थित है तो वह अत्यंत अशुभ फल प्रदान करेगा। 7. जब ग्रह गोचरवश शुभ स्थान से जा रहा हो और जन्मकुंडली में स्थित दूसरे शुभ ग्रहों से अंशात्मक दृष्टि योग कर रहा हो तो विशेष शुभ फल प्रदान करता है। 8. गोचर में जब ग्रह मार्गी से वक्री होता है अथवा वक्री से मार्गी होता है तब विशेष प्रभाव दिखलाता है। 9. जब गोचर में कोई ग्रह अग्रिम राशि में चला जाता है और कुछ समय के लिए वक्री होकर पिछली राशि में आ जाता है तब भी वह आगे की राशि का फल प्रदान करता है। 10. सूर्य और चंद्रमा का गोचर फल: जिस जातक के जन्म नक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण पड़ता है तो उस व्यक्ति के स्वास्थ्य आयु आदि के लिए बहुत अशुभ होता है। इस संबंध में ‘मुहूर्त’ चिंतामणि’ का निम्नलिखित श्लोक इस प्रकार है- ‘‘जन्मक्र्षे निधने ग्रहे जन्मतोघातः क्षति श्रीव्र्यथा, चिन्ता सौख्यकलत्रादौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। लाभोऽपाय इति क्रमातदशुभ्यध्वस्त्यै जपः स्वर्ण, गोदानं शान्तिस्थो ग्रहं त्वशुभदं नोवीक्ष्यमाहुवरे।।’’ अर्थात जिस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र पर ग्रहण पड़ा हो उसकी सूर्य चंद्र के द्वारा जन्म नक्षत्र पर गोचर भ्रमण के समय मृत्यु हो सकती है। यही फल जन्म राशि पर ग्रहण लगने से कहा है। जन्म राशि से द्वितीय भाव में ग्रहण पड़े तो धन की हानि, तृतीय में पड़े तो धन की प्राप्ति होती है, पांचवे तो चिंता, छठे पड़े तो सुखप्रद होता है। सातवें पड़े तो स्त्री से पृथकता हो या उसका अनिष्ट हो, आठवें पड़े तो रोग हो, नवें पड़े तो मानहानि, दशम में पड़े तो कार्यों में सिद्धि, एकादश पड़े तो विविध प्रकार से लाभ और बारहवें पड़े तो अधिक व्यय तथा धन नाश होता है। 11. यदि वर्ष का फल अशुभ हो अर्थात् शनि, गुरु और राहु गोचर में अशुभ हों और मास का फल उत्तम हो तो उस मास में शुभ फल बहुत ही कम आता है। 12. यदि वर्ष और मास दोनों का फल शुभ हो तो उस मास में अवश्य अतीव शुभ फल मिलता है। 13. ग्रहों का गोचर में शुभ अशुभ फल जो उनके चंद्र राशि में भिन्न भावों में आने पर कहा है उसमें बहुत बार कमी आ जाती है। उस कमी का कारण ‘वेध’ भी होता है। जब कोई ग्रह किसी भाव में गोचरवश चल रहा हो तो उस भाव से अन्यत्र एक ऐसा भाव भी होता है जहां कोई अन्य ग्रह स्थित है तो पहले ग्रह का ‘वेध’ हो जाता है अर्थात् उसका शुभ अथवा अशुभ फल नहीं हो पाता। जैसे सूर्य चंद्र लग्न से जब तीसरे भाव में आता है, तो वह शुभ फल करता है, परंतु यदि गोचर में ही चंद्र लग्न से नवम् भाव में कोई ग्रह बैठा हो तो फिर सूर्य की तृतीय स्थिति का फल रुक जायेगा, क्योंकि तृतीय स्थित सूर्य के लिए नवम वेध स्थान है। इसी प्रकार चंद्रमा जब गोचर में चंद्र लग्न से पंचम भाव में स्थित हो तो कोई ग्रह यदि चंद्र लग्न से छठे भाव में आ जाय तो पंचम चंद्र का वेध हो जायेगा। इसी प्रकार अन्य ग्रहों का भी वेध द्वारा फल का रुक जाना समझ लेना चाहिए। सूर्य तथा शनि पिता पुत्र हैं। इसलिए इनमें परस्पर वेध नहीं होता है। इसी प्रकार चंद्र बुध माता पुत्र है। अतः चंद्र और बुध में भी परस्पर वेध नहीं होता। वेध को समझने के लिए एक तालिका बनाई गई है, जिसमें नौ ग्रहों के चंद्र लग्न से विविध भावों पर आने से कहां-कहां वेध होना है दर्शाया गया है। इस तालिका में अंकों से तात्पर्य भाव से है जो कि चंद्र लग्न से गिनी जाती है। उदाहरण: जैसे सूर्य तृतीय भाव में हो तो नवम भाव स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा। यदि चतुर्थ भाव में हो तो तृतीय भाव में स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसका वेध करेगा। यदि पंचम भाव में हो तो छठे भाव में स्थित कोई भी ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा इत्यादि। 14. मुहूर्त चिंतामणि में कहा गया है कि ‘‘दुष्टोऽपि खेटो विपरीतवेधाच्छुभो द्विकोणेशुभदः सितेऽब्जः ।।’’ अर्थात कोई ग्रह यदि गोचर में दुष्ट है, अर्थात जन्म राशि में अशुभ स्थानों में स्थित होने के कारण अशुभ फलदाता है और फिर वेध में आ गया है तो वह शुभफल दाता हो जाता है। दूसरे शब्दों में वेध का प्रभाव नाशात्मक है। यदि अशुभता का नाश होता है तो शुभता की प्राप्ति स्वतः सिद्ध होती है। 15. गोचर में चल रहे ग्रहों के फल के तारतम्य के सिलसिले में स्मरणीय है, वह यह है कि फल बहुत अंशों में ग्रह अष्टक वर्ग पर निर्भर करता है। अपने अष्टक वर्ग में उसे उस स्थान में चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो उस ग्रह की अशुभता कुछ दूर हो जायेगी। यदि उसे चार से कम रेखा मिलती हैं तो जितनी-जितनी कम रेखा होती जायेंगी उतनी ही फल में अशुभता बढ़ती जायेगी। यदि उसे कोई रेखा प्राप्त नहीं हो तो फल बहुत ही अशुभ होगा। यदि गोचरवश शुभ ग्रह को चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो स्पष्ट है तो जितनी-जितनी अधिक रेखा होंगी, उतना ही फल उत्तम होता जायेगा। नोट: अष्टक वर्ग में रेखा को शुभ फल मानते है तथा बिंदु को अशुभ। दक्षिण भारत में बिंदु को शुभ एवं रेखा को अशुभ मानते हैं। महर्षि पराशर नें रेखा को शुभ एवं बिंदु को अशुभ के रूप में अंकित करने की सलाह दी है। इसीलिये यहां रेखा को शुभ के रूप में अंकित है। 16. गोचर में ग्रह कब फल देते हैं- ग्रहों की जातक विचार में जो फल प्रदान करने की विधि है वही गोचर में भी है। फलदीपिकाकार मंत्रेश्वर महाराज ने लिखा है। ‘‘क्षितितनय पतंगो राशि पूर्व त्रिभागे सुरपति गुरुशुक्रौ राशि मध्य त्रिभागे तुहिन किरणमन्दौराशि पाश्चात्य भागे शशितनय भुजड्गौ पाकदौ सार्वकालम्।।’’ अर्थात सूर्य तथा मंगल गोचर वश जब किसी राशि में प्रवेश करते हैं तो तत्काल ही अपना प्रभाव दिखलाते हंै। एक राशि में 30 अंश होते हैं, इसलिए सूर्य और मंगल 0 डिग्री से 10 डिग्री तक ही विशेष प्रभाव करते हैं। गुरु और शुक्र मध्य भाग में अर्थात 10 अंश से 20 अंश विशेष शुभ तथा अशुभ प्रभाव दिखलाते हैं। चंद्रमा और शनि, राशि के अंतिम भाग अर्थात 29 अंश से 30 अंश तक विशेष प्रभावशाली रहते हैं। बुध तथा राहु सारी राशि में अर्थात् 0 अंश से 30 अंश तक सर्वत्र एक सा फल दिखाते हैं। 17. ग्रहों के गोचर में फलप्रदान करने के विषय में ‘काल प्रकाशिका’ नामक पुस्तक में थोड़ा सा मतभेद चंद्र और राहु के विषय में है। उसमें कहा गया है। ‘‘सूर्योदौ फलदावादौ गुरुशुक्रौ मध्यगौ मंदाही फलदावन्तये बुधचन्द्रौ तु सर्वदा। अर्थात सूर्य तथा मंगल राशि के प्रारंभ में, गुरु, शुक्र मध्य में, शनि और राहु अंत में तथा बुध और चंद्रमा सब समय में फल देते हैं। जन्म कालीन ग्रहों पर से गोचर ग्रहों के भ्रमण का फल: 1. जन्मकालिक ग्रहों से सूर्य का गोचर फल: जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान (जन्म कुंडली) से गोचर के सूर्य का गोचर व्यक्ति को कष्ट देता है। धन लाभ तो होता है किंतु टिकता नहीं, व्यवसाय भी ठीक नहीं चलता। शरीर अस्वस्थ रहता है। यदि दशा, अंतर्दशा भी अशुभ हो तो पिता की मृत्यु हो सकती है। इस अवधि में जातक का अपने पिता से संबंध ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ चंद्रमा पर से या इससे सातवें स्थान में गुजरता हुआ सूर्य शुभ फल प्रदान करता है। यदि सूर्य कुंडली में अशुभ स्थान का स्वामी हो तो मानसिक कष्ट, अस्वस्थता होती है। यदि सूर्य शुभ स्थान का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। जन्मस्थ मंगल पर से या इससे सातवें स्थान में गोचर रवि का प्रस्थान प्रायः अशुभ फल देता है। यदि कुंडली में मंगल बहुत शुभ हो तो अच्छा फल मिलता है। जन्मस्थ बुध से या उसके सातवें स्थान से सूर्य गुजरता है तो सामान्य तथा शुभ फल करता है परंतु संबंधियों से वैमनस्य की संभावना रहती है। जन्मस्थ गुरु पर से या उसके सातवें स्थान से गोचर का सूर्य शुभ फल नहीं देेता है। इस अवधि में उन्नति की संभावना कम रहती है। जन्मस्थ शुक्र पर से या उससे सातवें स्थान से सूर्य भ्रमण करने पर स्त्री सुख नहीं मिलता। स्त्री बीमार रहती है। व्यय होता है। राज्य की ओर से कष्ट होता है। जन्मस्थ शनि से या उससे सप्तम स्थान पर गोचर का सूर्य कष्ट देता है। 2. जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल: जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल जन्मस्थ चंद्र के पक्षबल पर निर्भर करता है। यदि पक्षबल में बली हो तो शुभ अन्यथा क्षीण होने पर अशुभ फल देता है। जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर के चंद्रमा का शुभ प्रभाव जन्मस्थ चंद्र के शुभ होने पर निर्भर है। चंद्रमा स्वास्थ्य की हानि, धन की कमी, असफलता तथा आंख में कष्ट देता है। जन्मस्थ गुरु पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर का चंद्रमा बली हो तो स्त्री सुख देता है। ऐशो आराम के साधन जुट जाते हैं, धन का लाभ होता है लेकिन जन्मकालीन चंद्रमा क्षीण हो तो इसके विपरीत अशुभ फल मिलता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सप्तम स्थान पर से जब गोचर का चंद्रमा गुजरता है तो धन मिलता है लेकिन निर्बल हो तो मनुष्य को व्यापार में घाटा होता है। 3. जन्मकालिक ग्रहों से मंगल का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा उससे दसवें स्थान पर से गोचर का मंगल जब जाता है तब उस अवधि में रोग होता है। खर्च बढ़ता है। व्यवसाय में बाधा आती है और नौकरी में भी वरिष्ठ पदाधिकारी नाराज हो जाते हैं। आंखों में कष्ट होता है तथा पेट के आॅपरेशन की संभावना रहती है। पिता को कष्ट होता है। जन्म के चंद्रमा पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान पर गोचरवश जब मंगल आता है तो शारीरिक चोट की संभावना रहती है। क्रोध आता है। भाईयों द्वारा कष्ट होता है। धन का नाश होता है। यदि जन्म कुंडली में मंगल बली हो तो धन लाभ होता है। राजयोग कारक हो तो भी धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है और जन्मकुंडली में मंगल दूसरे, चैथे, पांचवे, सातवें, आठवें अथवा बारहवें स्थान में हो और विशेष बलवान न हो तो धन हानि, कर्ज, नौकरी छूटना, बल में कमी, भाइयों से कष्ट व झगड़ा होता है तथा शरीर में रोग होता है। जन्मस्थ बुध पर अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से जब मंगल भ्रमण करता है तो अशुभ फल मिलता है। बड़े व्यापारियों के दो नंबर के खाते पकड़े जाते हैं। झूठी गवाही या जाली हस्ताक्षर के मुकदमे चलते हैं। धन हानि होती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है तो लाभ होता है। लेकिन संतान को कष्ट होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल भ्रमण करता है तो कामवासना तीव्र होती है। वैश्या इत्यादि से यौन रोग की संभावना रहती है। आंखों में कष्ट तथा पत्नी को कष्ट होता है। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से मंगल गुजरता है और यदि जन्मकुंडली में शनि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम, नवम अथवा द्वादश भाव में शत्रु राशि में स्थित हो तो उस गोचर काल में बहुत दुख और कष्ट होते हैं। भूमि व्यवसाय से या अन्य व्यापार से हानि होती है। मुकदमा खड़ा हो जाता है। स्त्री वर्ग एवं निम्न स्तर के व्यक्तियों से हानि होती है। यदि जन्मकुंडली में शनि एवं मंगल दोनों की शुभ स्थिति हो तो विशेष हानि नहीं होती है। लेकिन मानसिक तनाव बना रहता है। 4. जन्मकालिक ग्रहों से बुध का गोचर फल: बुध के संबंध में यह मौलिक नियम है कि यदि बुध शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो शुभ एवं पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो पाप फल करता है। इसलिए गोचर के बुध का फल उस ग्रह के फल के अनुरूप होता है जिससे या जिनसे जन्मकुंडली में बुध अधिक प्रभावित है। यदि बुध पर सूर्य मंगल, शनि यदि नैसर्गिक पापी ग्रहों का प्रभाव शुभ ग्रहों के अपेक्षा अधिक हो तो ऊपर दिये गये सूर्य, मंगल, शनि आदि ग्रहों के गोचर फल जैसा फल करेगा। विपरीत रूप से यदि जन्मकुंडली में बुध पर प्रबल प्रभाव, चंद्र, गुरु अथवा शुक्र का हो तो इन ग्रहों के गोचर फल जैसा फल भी देगा। 5. जन्मकालिक ग्रहों से गुरु का गोचर फल: जन्मकालिक सूर्य से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जाता हुआ गुरु यदि चंद्र लग्न के स्वामी का मित्र है तो गुरु बहुत अच्छा फल प्रदान करता है। यदि गुरु साधारण बली है तो साधारण फल होगा। यदि गुरु, चंद्र लग्नेश का शत्रु अथवा शनि, राहू अधिष्ठित राशि का भी स्वामी हो तो खराब फल करेगा। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से जाता हुआ गुरु अशुभ फल करता है। यदि जन्मकुंडली में चंद्रमा 2, 3, 6, 7, 10 और 11 राशि में हो और गुरु शनि अथवा राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो ऐसा गोचर का गुरु रोग देता है। माता से वियोग करता है। धन का नाश एवं व्यवसाय में हानि होती है। कर्ज के कारण मानसिक परेशानी होती है तथा घर से दूर भी कराता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव से गुजरता हुआ गुरु प्रायः शुभ फल देता है। यदि कुंडली में गुरु राहु या शनि अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो खराब फल मिलता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव में, आया हुआ गोचर का गुरु निम्न प्रकार से फल प्रदान करता है। (क) यदि बुध अकेला हो और किसी ग्रह के प्रभाव में न हो तो शुभ फल मिलता है । (ख) यदि बुध पर गुरु के मित्र ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर के गुरु का वही फल होगा जो उन-उन ग्रहों पर गुरु की शुभ दृष्टि का होता है अर्थात शुभ फल प्राप्त होगा। (ग) यदि बुध पर गुरु के शत्रु ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर का गुरु अनिष्ट फल देगा। विशेषतया उस समय जब कि जन्म कुंडली में गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो और बुध पर दैवी श्रेणी के ग्रहों का प्रभाव हो। (घ) यदि बुध अधिकांशतः आसुरी श्रेणी के ग्रहों से प्रभावित हो तथा गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो गुरु के गोचर में कुछ हद तक शुभता आ सकती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचरवश आया हुआ गुरु शुभ फल नहीं देता है। यदि यह जन्मकुंडली में 3, 6, 8 अथवा 12 भावों में शत्रु राशि में स्थित हो या पाप युक्त, पाप दृष्ट हो या शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो, ऐसी स्थिति में वह खराब फल देता है। यदि गुरु जन्म समय में बलवान हो तो शुभ फल होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में जब गोचर वश गुरु आता है तो शुभ फल देता है, यदि शुक्र जन्म कुंडली में बली हो अर्थात् द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो। यदि शुक्र जन्मकुंडली में अन्यत्र हो और गुरु भी पाप दृष्ट, पापयुक्त हो तो गोचर का गुरु खराब फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जब गुरु आता है तो शुभफल करता है। यदि शनि जन्मकुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम अष्टम, दशम अथवा एकादश भावों में हो तो डूबा हुआ धन मिलता है तथा लाभ होता है यदि शनि अन्यत्र हो और पराशरीय नियमों के अनुसार अशुभ आधिपत्य भी हो तो गोचर का गुरु कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता है बल्कि हानिप्रद ही सिद्ध होता है। 6. जन्मकालिक ग्रहों से शुक्र का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा इससे सप्तम स्थान में गोचरवश जाता हुआ शुक्र लाभप्रद होता है। यदि शुक्र का आधिपत्य अशुभ हो तो व्यसनों में समय बीतता है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र मन में विलासिता उत्पन्न करता है। वाहन का सुख मिलता है। धन की वृद्धि तथा स्त्री वर्ग से लाभ होता है। चंद्र यदि निर्बल हो तो अल्प मात्रा मंे लाभ मिलता है। जन्मस्थ मंगल पर से या उससे सप्तम भाव में गोचरवश आया हुआ शुक्र बल वृद्धि करता है, कामवासना में वृद्धि करता है, भाई के सुख को बढ़ाता है तथा भूमि से लाभ होता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा उससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र विद्या लाभ देता है। सभी से प्यार मिलता है। स्त्री वर्ग से तथा व्यापार से लाभ होता है। यह फल तब तक मिलता है जब बुध अकेला हो। यदि बुध किसी ग्रह विशेष से प्रभावित हो तो गोचर का फल उस ग्रह पर से शुक्र के संचार जैसा होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें भाव में गोचरवश जब शुक्र आता है जो सज्जनों से संपर्क बढ़ता है, विद्या में वृद्धि होती है। पुत्र से धन मिलता है, राजकृपा होती है, सुख बढ़ता है। यदि शुक्र निर्बल हो और शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो फल विपरीत होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम भाव से जब शुक्र गुजरता है तो विलासिता की वस्तुओं में और स्त्रियों से संपर्क में वृद्धि करता है। तरल पदार्थों से लाभ देता है। स्त्री सुख में वृद्धि करता है तथा व्यापार में वृद्धि करता है। कमजोर शुक्र कम फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश जब शुक्र आता है तो मित्रों की वृद्धि, भूमि आदि की प्राप्ति, स्त्री वर्ग से लाभ, नौकरी की प्राप्ति होती है। कमजोर शुक्र कम फल प्रदान करता है। 7. जन्मकालिक ग्रहों से शनि का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचरीय शनि आता है तो नौकरी छूटने की संभावनाएं रहती है, पेट में रोग तथा पिता को परेशानी होती है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में शनि भ्रमण करता है तब धन हानि, मानसिक तनाव होता है तथा रोग होता है। यदि चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी की हो तो मिश्रित फल मिलता है तथा आर्थिक लाभ भी हो सकता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश यदि शनि जाए तो शत्रुओं से पाला पड़ता है, स्वभाव में क्रूरता बढ़ती है तथा भाईयों से अनबन रहती है। राज्य से परेशानी है। रक्त विकार एवं मांसपेशियों में कष्ट होता है। बवासीर हो सकता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचर वश शनि जाता है तो बुद्धि का नाश, विद्या हानि, संबंधियों से वियोग व्यापार में हानि, मामा से अनबन एवं अंतड़ियों में रोग होता है। यदि बुध आसुरी श्रेणी का हो तो धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से जब गोचरवश शनि जाता है तब कर्मचारियों की ओर से विरोध, धन में कमी पुत्र से अनबन अथवा वियोग होता है। सुख में कमी आती है। जिगर के रोग होते हैं। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम स्थान से, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से गोचरवश शनि पत्नी से वैमनस्य कराता है। यदि शुक्र जन्म कुंडली में राहु, शनि आदि से पीड़ित हो तो तलाक भी करवा सकता है। प्रायः धन और सुख में कमी लाता है। सिवाय इसके जबकि जन्म लग्न आसुरी श्रेणी का हो। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थभाव में जब गोचर वश शनि भ्रमण करता है तो निम्न वर्ग के लोगों से हानि, भूमि, नाश, टांगों में दर्द तथा कई प्रकार के दुख होते हैं। यदि लग्न तथा चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी के हो तो धन, पदवी आदि सभी बातों में सुख मिलता है। 8. जन्मकालिक ग्रहों से राहु/केतु का गोचर फल: राहु और केतु छाया ग्रह है। इसका भौतिक अस्तित्व नहीं। यही कारण है कि इनको गोचर पद्धति में सम्मिलित नहीं किया गया है तो भी ज्योतिष की प्रसिद्ध लोकोक्ति है। शनिवत राहू कुजावत केतु अतः गोचर में राहू शनि जैसा तथा केतु मंगल जैसा ही फल करता है। यह स्मरणीय है कि राहु और केतु का गोचर मानसिक विकृति द्वारा ही शरीर, स्वास्थ्य तथा जीवन के लिए अनिष्टकारक होता है, विशेषतया जबकि जन्मकुंडली में भी राहु, केतु पर शनि, मंगल तथा सूर्य का प्रभाव हो, क्योंकि ये छाया ग्रह राहु जहां भी प्रभाव डालते हैं वहां न केवल अपना बल्कि इन पाप एवं क्रूर ग्रहों का भी प्रभाव साथ-साथ डालते हैं। राहु और केतु की पूर्ण दृष्टि नवम एवं पंचम पर भी (गुरु की भांति) रहती है। अतः गोचर में इन ग्रहों का प्रभाव और फल देखते समय यह देख लेना चाहिए कि ये अपनी पंचम और नवम, अतिरिक्त दृष्टि से किस-किस ग्रह को पीड़ित कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि सदा ही राहु तथा केतु का गोचरफल अनिष्टकारी होता है। कुछ एक स्थितियों में यह प्रभाव सट्टा, लाॅटरी, घुड़दौड़ आदि द्वारा तथा ग्ग्ग्ग्ग्अन्यथा भी अचानक बहुत लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। वह तब, जब, कुंडली में राहु अथवा केतु शुभ तथा योगकारक ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हों और गोचर में ऐसे ग्रह पर से भ्रमण कर रहे हों जो स्वयं शुभ तथा योग कारक हों। उदाहरण के लिए यदि योगकारक चंद्रमा तुला लग्न में हो और राहु पर जन्मकुंडली में शनि की युति अथवा दृष्टि हो तो गोचर वश राहु यदि बुध अथवा शुक्र अथवा शनि पर अपनी सप्तम, पंचम अथवा नवम दृष्टि डाल रहा हो तो राहु के गोचर काल में धन का विशेष लाभ होता है, यद्यपि राहु नैसर्गिक पाप ग्रह है। अष्टक वर्ग से गोचर का फल: गोचर के फलित का अष्टक वर्ग के फलित से तालमेल बैठाने की प्रक्रिया में निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिये। 1. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि से संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग की 30 से अधिक रेखाएं हों तो गोचर में चंद्र से अशुभ स्थिति में होने के बावजूद उस भाव-राशि से संबंधित कार्य कलापों और विषयों के संदर्भ में वह ग्रह शुभ फल प्रदान करता है। 2. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि में संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से कम रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग में 30 से कम रेखाएं हों तो भले ही वह ग्रह चंद्र से शुभ स्थानों में गोचर कर रहा हो, अशुभ फल ही देता है। ऐसी स्थिति में यदि उक्त ग्रह के संचरण वाली राशि चंद्र से अशुभ स्थान पर हो तो अशुभ फल काफी अधिक मिलते हैं। 3. ग्रह अष्टक वर्ग में भी शुभ हों और कुंडली में उपचय स्थान (3, 6, 10वें तथा 11 वें स्थान) में निज राशि में या मित्र की राशि में या अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो बहुत शुभ फल देते हैं और यदि अनुपचय स्थान में नीच अथवा शत्रु राशि में हो और गोचर में भी अशुभ हो तो अधिक अशुभ फल देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अष्टक वर्ग से ग्रह का उतार-चढ़ाव देखा जाता है। 4. यदि किसी भाव को कोई रेखा न मिले तो उस भाव से गोचर फल अत्यंत कष्टकारी होता है। चार रेखा प्राप्त हो तो मिश्रित फल अर्थात मध्यमफल मिलता है। 5 रेखा मिलने पर फल अच्छा होता है। 6 रेखा मिले तो बहुत अच्छा, 7 रेखा मिले तो उत्तम फल और 8 में से 8 रेखा मिल जाये तो सर्वोत्तम फल कहना चाहिए। 5. जातक परिजात में अष्टकवर्ग को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। जो ग्रह उच्च, मित्र राशि अथवा केंद्र (1, 4, 7, 10) कोण (5, 9), उपचय (3, 6, 10, 11) में स्थित है, जो शुभ वर्ग में है। बलवान है तो भी यदि अष्टक वर्ग में कोई रेखा नहीं पाता है तो फल का नाश करने वाला ही होता है और यदि कोई ग्रह पापी, नीच या शत्रु ग्रह के वर्ग में हो अथवा गुलिक राशि के स्वामी हो, परंतु अष्टक वर्ग में 5, 6, 7 अथवा 8 रेखा पाता है तो यह ग्रह उत्तम फल देता है। 6. सारावली ने अष्टकवर्ग के संबंध में जो सम्मति दी है, हम समझते हैं कि वह अधिक युक्तिसंगत है। सारावली में कहा गया है। ‘‘इत्युक्तं शुभ मन्यदेवमशुभं चारक्रमेण ग्रहाः’’ शक्ताशक्त विशेषितं विद्धति प्रोत्कृष्टमेतत्फलम्। स्वार्थी स्वोच्च्सुहृदगृहेषु सुतरां शस्तं त्वनिष्टसमम् नीचाराति गता ह्यानिष्ट बहुलं शक्तं न सम्यक् फलम्।। अर्थात इस प्रकार गोचरवश ये ग्रह शुभ अथवा अशुभ फल करते हैं। अष्टकवर्ग द्वारा ग्रह अच्छा, बुरा अथवा सम फल देते हैं। परंतु ग्रह उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्र में होकर भी यदि अष्टकवर्ग में अशुभ हो अर्थात कम रेखा प्राप्त हों, तो बुरा फल देते हैं। 4. कोई ग्रह किसी राशि विशेष में कब-कब अपना शुभ या अशुभ फल दिखलाएगा? इसके लिए प्रत्येक राशि को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। एक राशि के 30 अंशों को आठ बराबर भाग में बांटने पर मान 3 अंश 45 कला के बराबर होता है। इन अष्टमांशों को कक्षाक्रम से ही ग्रहों को अधिपत्य दिया गया है तथा वे तदनुसार ही फल देते हैं। माना किसी व्यक्ति को शनि योगकारक उत्तमफल दायक है। अब शनि जब-जब अधिक रेखा युक्त राशि में गोचर करेगा तो उसे अच्छा फल मिलेगा। यह एक सामान्य नियम है। शनि एक राशि में 2 वर्ष 6 माह तक रहेगा। तो क्या पूरे समय में व्यक्ति को शुभ या अशुभ फल मिलता रहेगा या किसी विशेष भाग में? इसका उत्तर हमें गोचराष्टक वर्ग से मिलेगा। आचार्यों ने राशि को आठ बराबर भागों में बांटा है। उन आठ भागों को कक्षा क्रम से आठो वर्गाधिपति कहते हैं। अब देखना है कि अपने भिन्नाष्टक वर्ग में किस राशि में शनि को किस ग्रह ने रेखायें दी थी।