Wednesday 17 February 2016

कुंडली के विभिन्न भावों में केतु का फल

प्रथम भाव केतु यदि प्रथम भाव में हो तो व्यक्ति रोगी, चिन्ताग्रस्त, कमजोर, भयानक पशुओं से परेशान तथा पीठ के कष्ट का भागी होता है। वह अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं से लड़ने वाला, लोभी, कंजूस तथा गलत लोगों का चयन करने के कारण चिंतित रहता है। परिवार सुख का अभाव और जीवन साथी की चिन्ता सदा रहती है। उसे गिरने से चोट लगने का भय रहता है। किन्तु केतु के बली होने अथवा लाभदायक अवस्था में होने पर व्यक्ति जीवन में अच्छी प्रगति करता है तथा सभी प्रकार के सुख पाता है। द्वितीय भाव केतु के द्वितीय भाव में होने पर जातक गले के कष्ट से पीड़ित तथा संसार के विरूद्ध जाने वाला होता है। परिवार से सुख में कमी तथा शासन द्वारा दंड का भय रहता है। वह सत्य को छिपाने वाला और अपनी बातों से दूसरों को चोट पहुंचाने वाला होता है। यदि केतु शुभ राशि में हो या उच्च का होकर किसी शुभ ग्रह से युति में हो तो वह सुख - सुविधा पूर्ण जीवन, अधिक आय, आज्ञाकारी परिवार तथा हृदय से संन्यासी वृत्ति का होता है। तृतीय भाव तृतीय भाव में केतु जातक को बुद्धि मान, धनी तथा विरोधियों का सर्वनाश करने वाला बनाता है। वह बलशाली, शास्त्रों का ज्ञाता, विवाद में रूचि रखने वाला, परोपकारी तथा उद्यम से भरा पूरा होता है। वह खुली वृत्ति वाला, प्रसिद्ध, भाग्यवान, अपने लोगों से निकटता और स्नेह रखने वाला होता है। जीवन साथी से सुख तथा तीर्थ यात्राओं का शौकीन होता है। बाधित केतु बहरा, हृदय रोगी, बातूनी, दुखी, लिप्त तथा अपयश का भागी होता है। चतुर्थ भाव चतुर्थ भाव में केतु व्यक्ति को निकट संबंधी से सुख का अभाव देता है। माता से सुख में कमी व मित्रों द्वारा अपमानित भी होता है। वह दूसरों पर विश्वास का सुख नहीं पाता तथा पारिवारिक धन की हानि पाता है। यदि केतु बाधित हो तो जीवन में आसानी से स्थिरता नहीं आती। भाई - बहनों के कारण दुख का भागी कुंडली के विभिन्न भावों में केतु का फल होता है। केतु के लाभदायक होने पर विजयी, ईमानदार, मृदुभाषी, धनी, प्रसन्न, दीर्घायु, माता - पिता से सुख तथा उत्तम वाहन पाता है। पंचम भाव पंचम भाव में केतु जातक को कपटी, भयभीत, जल से भय रखने वाला, रोगी, निर्धन, निष्पक्ष, उदासीन तथा विभिन्न प्रकार के कष्टों का भागी बनाता है। वह ईश्वर से डरने वाला, पुत्र से सुख की कमी वाला तथा शासन से दंड का भय रखने वाला होता है। समस्याएं सदा मुंह बाए रहती हैं। कम संतान परन्तु अधिक पुत्रियों वाला हो सकता है। अपव्ययी, अकृतज्ञ तथा पेट के रोगों से ग्रस्त हो सकता है। उच्च का केतु होने पर संन्यासी, प्राचीन शास्त्रों और तीर्थाटन में रूचि वाला तथा किसी संस्था का उच्चाधिकारी हो सकता है। वह ज्ञानवान, भ्रमणशील, नौकरी से लाभ पाने वाला किन्तु व्यवसाय बदलते रहने वाला होता है। षष्ठम भाव षष्ठम् भाव में केतु जातक को दयावान, संबंध स्नेही, ज्ञानी तथा लोक प्रसिद्धि पाने वाला होता है। वह अच्छे पद, विद्वानों का संग पसन्द करने वाला, शत्रुओं, विरोधियों को भयभीत रखने वाला होता है। वह रोग मुक्त, पशु प्रेमी, लोगों के सम्मान का भागी किन्तु माता के पूर्ण स्नेह में कमी वाला होता है। यदि केतु लाभदायक स्थिति में हो तो वह दूसरों की चिन्ता न करने वाला तथा अपने प्रभाव से उन्हें दबाकर अपनी सत्ता बनाने वाला होता है। किन्तु यदि केतु नीच का हो तो पेट के रोग, मिथ्याहंकारी, अलाभकारी कार्यों में लगा हुआ तथा दूसरों से ईमानदार न रहते हुए भी लाभ उठाने का प्रयास करने वाला होता है। सप्तम भाव केतु जब सप्तम् भाव में स्थित होता है तो जातक को अस्थिर बुद्धि वाला, जीवन साथी से सुख में कमी तथा उसके साथ न चलने वाला बनाता है। केतु के बाधित होने पर विवाह में देरी, गलत कामों में रूचि तथा अतिरिक्त वैवाहिक सम्बन्ध बनाने वाला हो सकता है। शुभ केतु सदा चिन्ताग्रस्त परन्तु जीवन में सुख सुविधा से पूर्ण होता है। अष्टम भाव अष्टम् भाव में केतु जातक को चरित्रहीन, व्यभिचारी, दूसरों की संपत्ति पर दृष्टि रखने वाला तथा लोभी प्रकृति का बनाता है। वह वाहन चलाने से भय रखने वाला होता है। उसके स्वभाव का बुरा पक्ष जल्दी सामने आ जाता है। वह नेत्र रोग से पीड़ित होता है। लाभकारी केतु उसे अच्छी धन संपदा प्रदान करता है। वह विदेश में वास करने वाला तथा व्यापार से अच्छी आय करने वाला होता है। नवम भाव नवम् भाव में केतु जातक को क्रोधी, ईष्र्यालु, निंदक तथा धर्म में अस्थिर आस्था रखने वाला बनाता है। वह सुखों में विशेष रूचि रखता है तथा इस कारण नीच लोगों से मित्रता रखने में भी नहीं हिचकता। निकट संबंधियों से सुख प्राप्ति में कमी हो सकती है। बाजुओं में कष्ट व पिता से सम्बन्धों में तनाव का भागी हो सकता है। बाधित केतु बहुत बुरे परिणाम देता है किन्तु विदेश से अच्छी आय का भी कारक होता है। यदि केतु शुभ हो तो जातक साहसी, दयावान, दानी, बुद्धिमान तथा ईश्वर से डरने वाला होता है। दशम भाव दशम् भाव में केतु जातक को बुद्धिमान, दार्शनिक, साहसी तथा दूसरों से प्रेम रखने वाला बनाता है। शुभ केतु होने पर अयोग्य पात्र को भी आश्रय देने वाला होता है और जीवन में अच्छी संपदा पाने वाला होता है। वह अपने विरोधियों को कष्ट पहुंचाने वाला होता है। केतु के बाधित होने पर दुर्भाग्य पीछा नहीं छोड़ता। वह दुर्घटनाओं का भागी होता है तथा पिता से अच्छे सम्बन्धों में कमी करता है। एकादश भाव केतु के एकादश भाव में होने पर व्यक्ति विजयी, कठिन से कठिन समस्याओं का भी सहज ही समाधान ढूंढ़ लेने वाला होता है, अच्छे स्वभाव का स्वामी होता है। वह दूसरों के प्रति दयालु किन्तु केतु के अशुभ होने पर गुप्त रोग से पीड़ित हो सकता है। संतान से सुख में कमी तथा जीवन में सहयोगी मित्रों का अभाव होता है। द्वादश भाव केतु के द्वादश भाव में होने पर व्यक्ति गलत काम में लिप्त, निजी सम्पत्ति की हानि करने वाला, चंचल तथा अलाभकारी कार्यों में धन का अपव्यय करने वाला होता है। वह गुप्त रोगों से पीड़ित, दंभी व चरित्रहीन हो सकता है। किन्तु केतु के लाभकारी स्थिति में जातक ईमानदार, दयावान, कृपालु, संन्यासी तथा जीवन में धन का सुख भोग करने वाला होता है। विभिन्न राशियों में केतु का परिणाम मेष केतु के मेष राशि में होने पर व्यक्ति रूग्ण, विभिन्न रोगों का भागी, अप्रसन्न तथा तनावपूर्ण व चिन्तापूर्ण जीवन का भागी होता है। वह अंतःप्रज्ञा का स्वामी होता है तथा उसके सही प्रयोग करने पर जीवन में विशेष लाभ प्राप्त कर सकता है। वृष केतु के वृष राशि में होने पर जातक रोगी, चिन्तारहित किन्तु नशे का आदि हो सकता है। वह प्रेतबाधा से पीड़ित अपनी ही दुनिया में रहने वाला तथा सहज ही अपने मन की बात न कहने वाला होता है। मिथुन मिथुन राशि में केतु जातक को अपने ही लोगों से विरोध तथा निरर्थक कार्य में लगने वाला बनाता है। वह परिश्रमी होता है तथा अपनी बुद्धि का सही रूप में प्रयोग करने पर अच्छी संपदा कमाता है। कर्क कर्क राशि में यदि केतु हो तो जातक भयभीत, चिंतित, रोगी तथा दूसरों की संगत में बड़बोला बनाता है। अपनी क्षमताओं का स्मरण किये जाने पर वह असंभव को भी संभव कर सकता है। सिंह सिंह राशि में केतु बुद्धिमान होते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में बाध् ाा देता है। वह सदा कुछ भ्रमित रहता है। वह सरकार के हाथों दंड का भागी हो सकता है। कन्या कन्या राशि में केतु होने पर जातक भ्रमित, भयानक तथा विभिन्न रोगों का भागी होता है। केतु के शुभ (लाभकारी) होने पर अंतःप्रज्ञा वाला होता है तथा उसका सही प्रयोग करने पर जीवन में सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता चला जाता है। तुला तुला राशि में केतु व्यक्ति को सामान्यतः संतुलित तथा कठिन समस्याओं का हल करने वाला बनाता है। स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता रहती है। वह नेत्र रोग से पीड़ित तथा संतान से सुख में कमी पाता है। वृश्चिक वृश्चिक राशि में केतु व्यक्ति को बुद्धिमान, साहसी, दयालु तथा सहायता देने वाला बनाता है। किन्तु कभी - कभी वह अति ईष्र्यालु, त्यागी तथा अपने लिए ही कष्ट पैदा करने वाला होता है। धनु धनु राशि में केतु जातक को उदारमना, दयावान तथा विशाल हृदयी बनाता है। वह कठिन समस्याओं का हल करने में सफल तथा तीर्थाटन का प्रेमी होता है। मकर केतु यदि मकर राशि में हो तो व्यक्ति रोगी स्वभाव, परिश्रमी, कार्य कुशल तथा कर्तव्य परायण होता है। वह बुद्धिमान होते हुए भी निकट के लोगों द्वारा भावनात्मक विषयों में ठगा जाता है। कुंभ कुम्भ राशि में यदि केतु स्थित है तो जातक उदार हृदय, दार्शनिक, दानशील तथा खुले विचारों वाला होता है। वह अनेक मित्रों वाला तथा शासन से लाभ प्राप्त करने वाला होता है। मीन मीन राशि में केतु जातक को बुद्धि मान, विशाल हृदय तथा सुखों में आनन्द लेने वाला होता है। वह दूर देशों की यात्रा करने वाला तथा परिवार से प्रेम रखने वाला होता है।

वक्री गुरु का प्रभाव

वक्री ग्रहों के संबंध में ज्योतिष प्रकाशतत्व में कहा गया है कि-“क्रूरा वक्रा महाक्रूराः सौम्या वक्रा महाशुभा।।” अर्थात क्रूर ग्रह वक्री होने पर अतिक्रूर फल देते हैं तथा सौम्य ग्रह वक्री होने पर अति शुभफल देते हैं। जातक तत्व और सारावली के अनुसार यदि शुभग्रह वक्री हो तो मनुष्य को राज्य, धन, वैभव की प्राप्ति होती है किंतु यदि पापग्रह वक्री हो तो धन, यश, प्रतिष्ठा की हानि होकर प्रतिकूल फल की संभावना रहती है। जन्म समय में वक्री ग्रह जब गोचरवश वक्री होता है तो वह शुभफल प्रदान करता है बशर्ते ऐसे जातक की शुभ दशांतर्दशा चल रही हो। क्या हैं वक्री ग्रह: फलित ज्योतिष के अनुसार जब कोई ग्रह किसी राशि में गतिशील रहते हुए अपने स्वाभाविक परिक्रमा पथ पर आगे को न बढ़कर पीछे की ओर (उल्टा) गति करता है तो वह वक्री कहा जाता है। जो ग्रह अपने परिक्रमा पथ पर आगे को गति करता है तो वह मार्गी कहा जाता है। वक्री ग्रह कुंडली में जातक विशेष के चरित्र-निर्माण की क्रिया में सहायक होते हैं। जिस भाव और राशि में वे वक्री होते हैं उस राशि और भाव संबंधी फलादेश में काफी कुछ परिवर्तन आ जाता है। सूर्य एवं चंद्र मार्गी ग्रह हैं, ये कभी भी वक्री नहीं होते हैं। वक्री होने पर शुभाशुभ परिवर्तन: भारतीय ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति जिस भाव में स्थित होकर वक्री होता है, उस भाव के फलादेशों में अनुकूल व सुखद परिवर्तन आते हैं। आमतौर पर बृहस्पति के वक्री होने पर व्यक्ति अपने परिवार-कुटुंब, देश, संतान, जिम्मेदारियों, धर्म व कत्र्तव्य के प्रति ज्यादा चितिंत हो जाता है। जन्म कुंडली के दूसरे स्थान में आकर जब बृहस्पति वक्री होता है, तब अपनी दशा-अन्तर्दशा में अपार धन-दौलत देता है। नवम भाव में वक्री होने पर जातक के भाग्य द्वार खोल देता है एवं द्वादश स्थान में वक्री होने पर जातक को जन्मभूमि की ओर ले जाता है। मकर राशि में भले ही नीच का गुरु विराजमान हो परंतु यदि वह वक्री हो तो उच्च की तरह ही शुभ फल प्रदान करेगा। वक्री गुरु का प्रभाव: गुरु विद्या-बुद्धि और धर्म-कर्म का स्थाई कारक ग्रह है। मनुष्य के विकास के लिए यह अति महत्वपूर्ण ग्रह है। गुरु का मनुष्य के आंतरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक जीवन पर समुचित प्रभाव पड़ता है। गोचरवश गुरु के वक्री रहते हुए धैर्य व गम्भीरता से कार्य की पकड़ कर नई योजना व नए कार्यों को गति देनी चाहिए। जिन जातकों के जन्म समय में गुरु वक्री हो, उनको गोचर भ्रमणवश वक्री होने पर अटके कार्यों में गति एवं सफलता मिलेगी और शुभ फलों की प्राप्ति होगी। बृहस्पति और अन्य राशिगत प्रभाव: वर्तमान में कर्क राशि में गोचर भ्रमणवश पहले, चैथे, आठवें, बारहवें गुरु के अशुभ प्रभाव से प्रभावित कर्क, मेष, धनु एवं सिंह राशि के व्यक्तियों को राहत मिलेगी, जब बृहस्पति वक्री होता है तो ऐसे व्यक्तियों के भाग्य में परिवर्तन आता है। कर्क राशि में गतिशील वक्री गुरु अपनी पंचम पूर्ण दृष्टि से वृश्चिक राशि में गतिशील नैसर्गिक रूप से पापग्रह शनि को देखेगा। जब कोई शुभ ग्रह वक्री होकर किसी अशुभ ग्रह से दृष्टि संबंध बनाता है तो उसके अशुभ फलों में कमी आकर शुभत्व में वृद्धि होती है। अतः इस दौरान शनि की ढैया से पीड़ित मेष व सिंह राशि के जातक एवं साढ़ेसाती से प्रभावित तुला, वृश्चिक व धनु राशि के व्यक्तियों को राहत मिलेगी, उनके बिगडे़ और अटके काम बनने लगेंगे। वक्री गुरु के प्रभाव से अन्य समस्त राशियां भी प्रभावित होंगी। कब होते हैं गुरु वक्री: बृहस्पति अपनी धुरी पर 9 घंटा 55 मिनट में पूरी तरह घूम लेता है। यह एक सेकेंड में 8 मील चलता है तथा सूर्य की परिक्रमा 4332 दिन 35 घटी 5 पल में पूरी करता है। स्थूल मान से गुरु एक राशि पर 12 या 13 महीने रहता है। एक नक्षत्र पर 160 दिन व एक चरण पर 43 दिन रहता है। बृहस्पति ग्रह अस्त होने के 30 दिन बाद उदय होता है। उदय के 128 दिन बाद वक्री होता है। वक्री के 120 दिन बाद मार्गी होता है तथा 128 दिन बाद पुनः अस्त हो जाता है। कर्क राशि में वक्री गुरु के गोचर भ्रमण से पहले, चैथे, आठवें, बारहवें बृहस्पति के अशुभ प्रभाव से प्रभावित कर्क, मेष, धनु एवं सिंह राशि के जातकों को राहत मिलेगी। साथ ही शनि पर वक्री गुरु की कृपा दृष्टि से मेष, सिंह राशि पर गतिशील शनि की ढैया एवं तुला, वृश्चिक, धनु राशि के जातकों को शनि की साढे़साती के अशुभ प्रभाव से मुक्ति मिलेगी। गुरु की दशा लगने पर बड़ों का आदर सम्मान करें। अपने बुजुर्गों का आशीर्वाद लें तथा गुरुवार का व्रत करने से गुरु के शुभ फलों में वृद्धि हो जाती है जबकि अशुभ फलों में कमी आती है। वक्री गुरु की दशा होने पर गुरु से संबंधित वस्तुओं यथा केसर, हल्दी, पीले कपड़े, फूल, सोना, पीतल आदि का दान देना भी शुभ फल देता है।

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 17 02 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 17 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 17 02 2016

future for you astrological news panchang 17 02 2016

Tuesday 16 February 2016

विभिन्न लग्नों में सप्तम भावस्थ गुरु का प्रभाव एवं उपाय

पौराणिक कथाओं में गुरु को भृगु ऋृषि का पुत्र बताया गया है। ज्योतिष शास्त्र में गुरु को सर्वाधिक शुभ ग्रह माना गया है। गुरु को अज्ञान दूर कर सद्मार्ग की ओर ले जाने वाला कहा जाता है। सौर मंडल में गुरु सर्वाधिक दीर्घाकार ग्रह है। धनु व मीन इसकी स्वराशियां हैं। धनु व मीन द्विस्वभाव राशियां हैं। अतः गुरु द्विस्वभाव राशियों का स्वामी होने के कारण इसमें स्थिरता एवं गतिशीलता के गुणों का प्रभाव है। यह कर्क राशि में उच्च का व मकर राशि में नीच का होता है। कर्क व मकर राशि दोनों ही चर राशियां हैं जिसके कारण गुरु अपनी उच्चता व नीचता का फल बड़ी तेजी से दिखाता है। सूर्य, चंद्र, मंगल इसके मित्र हैं। निर्बल, दूषित व अकेला गुरु सप्तम भावस्थ होने पर व्यक्ति को स्वार्थी, लोभी व अविश्वनीय बनाता है। वहीं शुभ राशिस्थ सप्तमस्थ गुरु व्यक्ति को विनम्र, सुशील सम्मानित बनाता है। जीवन साथी भी सुंदर व सुशील होता है। ‘‘स्थान हानि करो जीवा’’ के सिद्धांत के आधार पर गुरु शुभ व सबल होने पर भी, जिस स्थान में बैठता है उस स्थान की हानि करता है। परंतु जिन स्थानों पर दृष्टि डालता है उन स्थानों को बलवान बनाता है। सप्तम स्थान प्रमुख रूप से वैवाहिक जीवन का भाव माना गया है। सामान्यतः सप्तम भावस्थ गुरु को अशुभ फलप्रद कहा जाता है। पुरूष राशियों में होने पर जातक का अपने जीवन साथी से मतभेद की स्थिति बनती है। वहीं स्त्री राशियों में होने पर जीवन साथी से अलगाव की स्थति ला देता है। सप्तमस्थ गुरु जातक का भाग्योदय तो कराता है परंतु विवाह के बाद। प्रस्तुत है विभिन्न लग्नों में सप्तमस्थ गुरु के फलों का एक स्थूल विवेचन। 1. मेष लग्न मेष लग्न में गुरु नवमेश व द्वादशेश होकर सप्तमस्थ होता है तथा लग्न, लाभ व पराक्रम भाव में दृष्टिपात करता है। सप्तम भाव में तुला राशि का होता है। अतः भाग्येश, सप्तमस्थ होने के कारण निश्चय ही विवाह के बाद भाग्योदय होता है। समाज के बीच मिलनसार होता है। जिसके कारण जीवन साथी से भौतिक दूरी बनी रहती है। 2. वृष लग्न वृष लग्न में गुरु अष्टमेश व एकादशेश होकर वृश्चिक राशि में सप्तमस्थ होकर लाभ, लग्न एवं पराक्रम भाव पर दृष्टिपात करता है। इसकी मूल त्रिकोण राशि अष्टम स्थानगत होने के कारण स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां उत्पन्न होती हैे। ससुराल धनाढ्य होता है परंतु स्वयं धन के मामले में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। 3. मिथुन लग्न मिथुन लग्न में गुरु सप्तम व दशम भाव का स्वामी होकर सप्तम भावस्थ होकर हंस योग का निर्माण करता है। हंस योग को राज योग कहा जा सकता है जिसका परिणाम गुरु की दशा-अंतर्दशा में प्राप्त होता है। परंतु इस लग्न में गुरु को सर्वाधिक केंद्रेश होने का दोष लगता है अतः विवाह एवं वैवाहिक जीवन के मामलों में पृथकता देता है। गुरु यदि वक्री या अस्त हो तो स्थिति और अधिक बिगड़ जाती है। 4. कर्क लग्न कर्क लग्न में गुरु षष्ट्म एवं नवम भाव का स्वामी होकर अपनी नीच राशि में सप्तमस्थ होता है। निश्चय ही नवमेश होने के कारण विवाह के बाद भाग्योदय होता है। परंतु मूल त्रिकोण राशि षष्टम् भाव में पड़ने के कारण जीवन साथी का स्वास्थ्य प्रतिकूल ही रहता है। धन के मामलों में, लाभ की जगह हानि का सामना करना पड़ता है। 5. सिंह लग्न सिंह लग्न में गुरु पंचमेश व अष्टमेश होकर कुंभ राशि में सप्तमस्थ होता है। पंचमेश होने के कारण अति शुभ होता है। ससुराल पक्ष धनाढ्य होता है। परंतु अष्टमेश होने के कारण जीवन साथी को उदर की पीड़ा देता है। जीवन साथी का स्वभाव चिड़चिड़ा होता है। परिवार से ताल मेल नहीं बैठ पाता। 6. कन्या लग्न कन्या लग्न में गुरु चतुर्थ व सप्तम भाव का स्वामी होकर सप्तम भाव में हंस योग का निर्माण करता है जिसके कारण जातक का विवाह उच्च कुल के धनाढ्य परिवार में होता है। परंतु इस लग्न में गुरु को केंद्रेश होने का दोष होता है जिसके कारण विवाहोपरांत जीवन साथी से मतभेद व निराशाजनक परिणाम प्राप्त होने शुरू हो जाते हैं। इस स्थिति में गुरु, यदि वक्री या अशुभ प्रभाव में होता है तो जीवन साथी से अलगाव की स्थिति आ सकती है। 7. तुला लग्न तुला लग्न में गुरु तृतीय व षष्ठ भाव का स्वामी होकर मेष राशि का सप्तम भावगत होता है। भावेश की दृष्टि से यह पूर्णतः अकारक रहता है। मेष राशि में सप्तमस्थ होने से जातक निडर, साहसी बनता है। अपने पराक्रम से धनार्जन करता है। ऐश्वर्य प्रदान करता है। परंतु जीवन साथी के लिए मारक होकर, उसका स्वास्थ्य प्रभावित करता है। 8. वृश्चिक लग्न वृश्चिक लग्न में गुरु द्वितीयेश व पंचमेश होकर वृष राशि में सप्तमस्थ होता है। पंचमेश होने के कारण गुरु शुभ रहता है। धन के मामलों में अच्छा परिणाम देता है। परंतु संतान पक्ष से विवाद की स्थिति पैदा करता है जिसके कारण जीवन साथी से टकराव की नौबत आती है। वस्तुतः जातक को सांसारिक सुखों का सुख प्राप्त नहीं हो पाता। 9. धनु लग्न धनु लग्न में गुरु लग्नेश व चतुर्थेश होकर सप्तमस्थ होता है। गुरु की लग्न पर पूर्ण दृष्टि लग्न को बलवान बनाती है। वस्तुतः जातक सुंदर व सुशील, जीवन साथी प्राप्त करता है। माता-पिता का सुख एवं भूमि, भवन, संतान का सुख प्राप्त करता है। जीवन साथी, माता पिता व संतान का सहयोग प्राप्त करता है। ससुराल से संपत्ति प्राप्त करने के योग बनते है। 10. मकर लग्न मकर लग्न में गुरु द्वादश एवं तृतीय भाव का स्वामी होकर, सप्तम भाव में हंस योग का निर्माण करता है। वस्तुतः जातक विद्वान होता है। जीवन साथी सुंदर व सुशील होता है। मुखमंडल में तेज होता है। जीवन साथी के प्रति समर्पित होता है। 11. कुंभ लग्न कुंभ लग्न में गुरु धन व लाभ भाव का स्वामी हो कर अपने मित्र सूर्य की राशि में सप्तमस्थ होता है। साथ ही गुरु की पूर्ण दृष्टि, लाभ स्थान को मजबूती प्रदान करती है। द्वि तीय व एकादश भाव दोनों ही धन से संबंधित भाव हैं। अतः धन लाभ एवं धनार्जन की दिशा में गुरु बहुत ही शुभ फल करता है। यदि गुरु पर अन्य किसी शुभ या योगकारक ग्रह की दृष्टि हो तो यह स्थिति सोने में सुहागा होती है। जातक का विवाह धनाढ्य परिवार में होता है तथा ससुराल या जीवन साथी से धन लाभ होता है। 12. मीन लग्न मीन लग्न में गुरु लग्नेश व दशमेश होता है। कन्या राशि में सप्तमस्थ होकर लग्न को बल प्रदान करता है। वस्तुतः जातक आरोग्य एवं अच्छी आयु प्राप्त करता है। लाभ स्थान में दृष्टि होने के कारण स्वअर्जित धन प्राप्त करता है। लोगों में प्रतिष्ठा का पात्र बनता है। विवाह के बाद भाग्योदय होता है। जातक का विवाह उच्च कुल में होता है। सप्तम स्थान में कन्या राशि का गुरु होने के कारण जीवन साथी को मतिभ्रम की स्थिति से सामना करना पड़ सकता है। उपरोक्त लग्न के आधार पर सप्तमस्थ गुरु निश्चित ही ‘स्थान हानि करो जीवा’ का सिद्धांत देता है। अर्थात सप्तमस्थ गुरु निश्चित ही सुंदर जीवन साथी देता है। परंतु विवाहोपरांत, वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहने देता। फिर भी नवमांश कुंडली में गुरु यदि बलवान होकर विराजित हो, तो काफी हद तक विषम स्थितियों को जातक समाधान कर लेता है। इसी प्रकार गुरु यदि अष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं ले कर बैठा हो तो भी लग्न कुंडली में सप्तमस्थ गुरु के प्रतिकूल प्रभावों में कमी आती है तथा गुरु अपनी दशा-अंतर्दशा में अच्छा फल देता है। अस्तु सप्तमस्थ गुरु के फलों का विवेचन करने के पूर्व नवमांश व अष्टक वर्ग में गुरु की स्थिति को देखकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचना चाहिए। फिर भी सप्तमस्थ गुरु अपनी दशा-अंतर्दशा में यदि विपरीत प्रभाव दे, तो निम्न उपायों को कर, गुरु के अनिष्टकारी प्रभावों से बचा जा सकता है। उपाय 1. मेष लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. सदैव पीले कपड़े पहनने को प्राथमिकता दें। c. मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ करें। 2. वृष लग्न a. पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. भगवान शिव के किसी मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें। c. सदैव श्वेत रंग के कपड़े पहनने को प्राथमिकता दें। 3. मिथुन लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. ऊँ बृं बृहस्पतये नमः मंत्र का एक माला जप करें। c. सदैव पीले रंग का रूमाल पाॅकेट में रखें। 4. कर्क लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. गुरु से संबंधित वस्तुओं का दान करें। c. भगवान विष्णु की साधना करें। 5. सिंह लग्न a. तांबे की अंगूठी में गुरु यंत्र उत्कीर्ण करा, धारण करें। b. घर में गुरु यंत्र स्थापित करें। c. हल्दी का दान करें। परंतु भिखारी को भूलकर भी न दें। 6. कन्या लग्न a. पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. ‘गुरु गायत्री’ मंत्र का जप करें। c. घोड़े को चने की दाल व गुड़ खिलाएं। 7. तुला लग्न a. घर में गुरु यंत्र की स्थापना करें। b. छोटे भाइयों को स्नेह दें। अपमान न करें। c. शक्ति साधना करें। 8. वृश्चिक लग्न a. न्यूनतम 16 सोमवार का व्रत धारण करें। b. हल्दी की गांठ तकिए के नीचे रखकर सोयें। c. शिव जी की साधना करें। 9. धनु लग्न a. माणिक्य, पुखराज व मूंगा से निर्मित त्रिशक्ति लाॅकेट धारण करें। b. विष्णुस्तोत्र का पाठ करें। c. 43 दिन तक जल में हल्दी मिलाकर स्नान करें। 10. मकर लग्न a. ग्यारह मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. घर की छत में सूरजमुखी का पौधा रोपित करें तथा प्रतिदिन जल दें। c. भगवान भास्कर को प्रतिदिन तांबे के पात्र से जल का अघ्र्य दें। 11. कुंभ लग्न a. भगवान शिव के महामृत्युंजय मंत्र का प्रतिदिन जप करें। b. पुखराज धारण करें। c. रेशमी पीला रूमाल सदैव अपने पास रखें। 12. मीन लग्न a. माणिक्य, पुखराज एवं मूंगा रत्न से निर्मित ‘त्रिशक्ति लाॅकेट’ धारण करें। b. भगवान सूर्य को नित्य जल का अघ्र्य दें। c. गुरुवार को विष्णु मंदिर जाकर पीले रंग के फूल भगवान विष्णु को अर्पित करें तथा कन्याओं को मिश्रीयुक्त खीर खिलाएं। नोट: गुरु की स्थिति कुंडली में चाहे जैसी हो; जातक यदि निम्न मंत्र का जप प्रतिदिन करता है तो गुरु की विशेष कृपा बनी रहती है तथा अशुभ गुरु के दोषों से मुक्ति पायी जा सकती है। मंत्र: ऊँ आंगिरशाय विद्महे, दिव्य देहाय, धीमहि तन्नो जीवः प्रचोदयात्।

लग्नानुसार विदेश यात्रा के योग

जन्मकुंडली के द्वादश भावों में से प्रमुखतया, अष्टम भाव, नवम, सप्तम, बारहवां भाव विदेश यात्रा से संबंधित है। तृतीय भाव से भी लघु यात्राओं की जानकारी ली जाती है। अष्टम भाव समुद्री यात्रा का प्रतीक है। सप्तम तथा नवम भाव लंबी विदेश यात्राएं, विदेशों में व्यापार, व्यवसाय एवं प्रवास के द्योतक हैं। इसके अतिरिक्त लग्न तथा लग्नेश की शुभाशुभ स्थिति भी विदेश यात्रा संबंधी योगों को प्रभावित करती है। मेष लग्न 1- मेष लग्न हो तथा लग्नेश तथा सप्तमेश जन्म कुंडली के किसी भी भाव में एक साथ हों या उनमें परस्पर दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 2- मेष लग्न में शनि अष्टम भाव में स्थित हो तथा द्वादशेश बलवान हो तो जातक कई बार विदेश यात्राएं करता है। 3- मेष लग्न हो व लग्नेश तथा भाग्येश अपने-अपने स्थानों में हों या उनमें स्थान परिवर्तन योग बन रहा हो तो विदेश यात्रा होती है। 4- मेष लग्न हो तथा छठे, अष्टम या द्वादश स्थान में कहीं भी शनि हो या शनि की दृष्टि इन भावों पर हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 5- मेष लग्न में अष्टम भाव में बैठा शनि जातक को स्थान से दूर ले जाता है तथा बार-बार विदेश यात्राएं करवाता है। उदाहरण कुंडलियों में सैफ अली खान व अभिषेक बच्चन की कुंडलियों में यही स्थिति है। वृष लग्न 1- वृष लग्न में सूर्य तथा चंद्रमा द्वादश भाव में हो तो जातक विदेश यात्रा करता है तथा विदेश में ही काम-धंधा करता है। 2- वृष लग्न हो तथा शुक्र केंद्र में हो और नवमेश नवम भाव में हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 3- वृष लग्न हो तथा शनि अष्टम भाव में स्थित हो तो जातक बार-बार विदेश जाता है और विदेश यात्राएं होती रहती हैं। 4- वृष लग्न हो व लग्नेश तथा नवम भाव का स्वामी, मेष, कर्क, तुला या मकर राशि में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 5- वृष लग्न में भाग्य स्थान या तृतीय स्थान में मंगल राहु के साथ स्थित हो तो जातक सैनिक के रूप में विदेश यात्राएं करता है। उदाहरण कुंडली में लता मंगेशकर की यही स्थिति है- 6- वृष लग्न में राहु लग्न, दशम या द्वादश में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। लता मंगेशकर की कुंडली में राहु द्वादश भाव में स्थित है। गायन के सिलसिले में इन्होंने कई विदेश यात्राएं की हैं। मिथुन लग्न 1- मिथुन लग्न हो, मंगल व लग्नेश दसवें भाव में स्थित हो, चंद्रमा व लग्नेश शनि द्वारा दृष्ट न हांे तो ऐसे योग वाला जातक विदेश यात्रा करता है। 2- मिथुन लग्न हो और लग्नेश तथा नवमेश का स्थान परिवर्तन योग हो तो विदेश यात्रा योग बनता है। 3- मिथुन लग्न हो, शनि वक्री होकर लग्न में बैठा हो तो कई बार विदेश यात्राएं होती हैं। 4- मिथुन लग्न हो तथा लग्नेश व द्वादशेश में परस्पर स्थान परिवर्तन हो व अष्टम व नवम भाव बलवान हो तो विदेश यात्रा होती है। यदि लग्न में राहु अथवा केतु अनुकूल स्थिति में हों और नवम भाव तथा द्वादश स्थान पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। कर्क लग्न 1- कर्क लग्न हो और लग्नेश व चतुर्थेश बारहवें भाव में स्थित हांे तो जातक विदेश यात्रा करता है। 2- कर्क लग्न में चंद्रमा नवम भाव में हो और नवमेश लग्न में स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 3- यदि लग्नेश, भाग्येश और द्वादशेश कर्क, वृश्चिक व मीन राशियों में स्थित हो, तो विदेश यात्रा का योग होता है। 4- यदि लग्नेश नवम भाव में स्थित हो और चतुर्थेश छठे, आठवें या द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। 5- यदि लग्नेश बारहवें स्थान में हो या द्वादशेश लग्न में हो तो काफी संघर्ष के बाद विदेश यात्रा होती है। 6- कर्क लग्न में लग्नेश व द्वादशेश की किसी भी भाव में युति हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। सिंह लग्न 1- सिंह लग्न में गुरु, चंद्र 3, 6, 8 या 12वें भाव में हो तो विदेश यात्रा के योग हैं। 2- लग्नेश जहां बैठा हो उससे द्वादश भाव में स्थित ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- सिंह लग्न में द्वादश भाव में कर्क का चंद्रमा स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 4- सिंह लग्न हो तथा मंगल और चंद्रमा की युति द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्रा होती है। 5- यदि सिंह लग्न में लग्न स्थान में सूर्य बैठा हो व नवम व द्वादश भाव शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। कन्या लग्न 1- यदि कन्या लग्न में सूर्य स्थित हो व नवम व द्वादश भाव शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो विदेश यात्रा योग बनता है। 2- यदि सूर्य अष्टम स्थान में स्थित हो तो जातक दूसरे देशों की यात्राएं करता है। 3- यदि लग्नेश, भाग्येश और द्वादशेश का परस्पर संबंध बने तो जातक को जीवन में विदेश यात्रा के कई अवसर मिलते हैं। 4- कन्या लग्न में बुध और शुक्र का स्थान परिवर्तन विदेश यात्रा का योग बनाता है। 5- द्वितीय भाव में शनि अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। तुला लग्न 1- तुला लग्न में नवमेश बुध उच्च का होकर बारहवें भाव में स्वराशि में स्थित हो, राहु से प्रभावित हो तो राहु की दशा अंतर्दशा में विदेश यात्रा होती है। 2- यदि चतुर्थेश व नवमेश का परस्पर संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- यदि नवमेश या दशमेश का परस्पर संबंध या युति या परस्पर दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- चतुर्थ स्थान में मंगल व दशम स्थान में गुरु उच्च का होकर स्थित हो। 5- यदि लग्न में शुक्र व सप्तम में चंद्रमा हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। उदाहरण कुंडली में टेनिस स्टार सानिया मिर्जा की यही स्थिति है। वृश्चिक लग्न 1- वृश्चिक लग्न में पंचम भाव में अकेला बुध हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो शीघ्र ही विदेश यात्रा होती है। 2- वृश्चिक लग्न में चंद्रमा लग्न में हो, मंगल नवम स्थान में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- यदि सप्तमेश शुभ ग्रहों से दृष्ट होकर द्वादश स्थान में स्थित हो तो जातक विवाह के बाद विदेश यात्रा करता है। 4- यदि वृश्चिक लग्न में शुक्र अष्टम स्थान में हो या नवम स्थान में गुरु चंद्रमा की युति हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 5- वृश्चिक लग्न में लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो व शुभ ग्रहों से युक्त हो या दृष्टि संबंध हो तो कई बार विदेश यात्रा होती है व जातक विदेश में ही बस जाता है। धनु लग्न 1- धनु लग्न में अष्टम स्थान में कर्क राशि का चंद्रमा हो तो जातक कई बाद विदेश यात्रा करता है। 2- धनु लग्न में द्वादश स्थान में मंगल, शनि आदि पाप ग्रह बैठे हों तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- धनु लग्न में नवमेश नवम भाव में स्थित हो, बलवान हो व चतुर्थेश से दृष्टि संबंध बनाता हो, युत हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- अष्टम भाव में चंद्रमा, गुरु की युति, नवमेश नवम भाव में हो तो विदेश यात्रा का प्रबल योग बनता है। 5- धनु लग्न में बुध और शुक्र की महादशा अक्सर विदेश यात्रा करवाती है। मकर लग्न 1- मकर लग्न में सप्तमेश, अष्टमेश, नवमेश या द्वादशेश के साथ राहु या केतु की युति हो जाए तो विदेश गमन होता है। 2- मकर लग्न हो, चतुर्थ और दशम भाव में चर राशि हो और इनमें से किसी भी स्थान में शनि स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- लाभेश और अष्टमेश की युति एकादश स्थान में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- नवमेश बलवान हो तो विदेश यात्रा होती है। 5- शनि चंद्रमा की युति किसी भी स्थान में हो या दोनों में दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 6- सूर्य अष्टम में स्थित हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। उदाहरण कुंडली में मदर टैरेसा की यही स्थिति है- कुंभ लग्न 1- कुंभ लग्न में नवमेश व लग्नेश का राशि परिवर्तन विदेश यात्रा कराता है। 2- भाग्येश द्वादश भाव में उच्च का होकर स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 3- दशम स्थान में सूर्य व मंगल की युति विदेश यात्रा का योग बनाता है। 4- नवम या द्वादश या लग्न या नवम के स्वामियों का स्थान परिवर्तन विदेश यात्रा करवाता है। 5- कुंभ लग्न में तृतीय स्थान, नवम स्थान व द्वादश स्थान का परस्पर संबंध विदेश यात्रा का योग करवाता है। मीन लग्न 1- लग्नेश गुरु नवम भाव में स्थित हो व चतुर्थेश बुध छठे, आठवें या द्वादश भाव में स्थित हो तो जातक कई बाद विदेश गमन करता है। 2- पंचमेश, द्वितीयेश व नवमेश की लाभ (एकादश) भाव में युति विदेश यात्रा का योग बनाता है। 3- द्वादश भाव में मंगल, शनि आदि पाप ग्रह हों तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- यदि शुक्र चंद्रमा से छठे, आठवें या बारहवें स्थान में स्थित हो तो विदेश गमन योग बनता है। 5- मीन लग्न में लग्नेश नवम भाव में स्थित हो व चतुर्थेश छठे, आठवें या द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्रा का प्रबल योग बनता है। 6- लग्नस्थ चंद्रमा व दशम भाव में शुक्र हो तो जातक कई देशों की यात्रा करता है। 

जन्म वार से शरीर का आकर्षण

रविवार यह सूर्य का वार है। सर्वप्रथम इसका नंबर एक है। जिसका जन्म 1, 10, 19 और 28 तारीख में हो तो उस जातक पर सूर्य का प्रभाव रहेगा। सूर्य ग्रहों का राजा है और आत्मा का कारक है। इस वार को जन्मे जातक का सिर गोल, चैकोर, नाटे और मोटे शरीर वाला, शहद के समान मटमैली आंखें, पूर्व दिशा का स्वामी होने के कारण, इसे पूर्व में शुभ लाभ मिलते हैं। सूर्य के इन जातकों का 22-24वें वर्ष में भाग्योदय होता है। सूर्य मेष राशि में उच्च का और तुला राशि में नीच का होता है। इन जातकों की प्रकृति पितृ प्रधान है। दिल का दौरा, फेफड़ों में सूजन, पेट संबंधी बीमारियां हो सकती हैं। चेहरे में गाल के ऊपर दोनों हड्डियां उभरी हुई होती हैं। जब सूर्य 00 से 100 अंश तक हो तो अपना प्रभाव देता है क्योंकि यह ग्रहों का राजा है इसलिए इन जातकों में राजा के समान गुण होने के कारण पल में प्रसन्न और पल में रुष्ट होने की आदत होती है, ये जातक शक्की स्वभाव के होते हैं। गंभीर वाणी, निर्मल दृष्टि और रक्त श्याम वर्ण इनका स्वरूप होता है। गांठ के पक्के और प्रतिशोध लेने की भावना तीव्र होती है। इन्हें पि की तकलीफ होती है। सोमवार यह चंद्रमा का वार है,इसका अंक दो अर्थात् जिन जातकों का जन्म सोमवार 2, 11, 20, 29 तारीखों में हो तो चंद्रमा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है ‘स्वज्ञं प्राज्ञौः गौरश्चपलः, कफ वातिको रुधिसार, मृदुवाणी प्रिय सरवस्तनु, वृतश्चचंद्रमाः हाशुः।। अर्थात् सुंदर नेत्र वाला, बुद्धिमान, गौर वर्ण, चंचल स्वभाव, चंचल प्रकृति, कफ, वात प्रकृति प्रधान, मधुरभाषी, मित्रों का प्रिय, होता है। ऐसा जातक हर समय अपने आप को सजाने में रहता है चंद्रमा मन का कारक है। 24 से 25 वर्ष में यह अपना प्रभाव पाता है। रक्त और मुख के आस-पास इसका अधिकार रहता है। ऐसे जातक के केश घने, काले, चिकने और घुंघराले होते हैं। सोच समझकर बात करते हैं। परिस्थतियों को मापने की इनमें क्षमता होती है। ये भावुक भी होते हैं। बात-चीत करने में कुशल और विरोधी को अपने पक्ष में करने की इनमें क्षमता होती है। इस दिन जन्मी स्त्रियां प्यार में धोखा खाती हैं। ये जातक कल्पना में अधिक रहते हैं। ये प्रेमी, लेखक, शौकीन, पतली वाणी वाले होते हैं। वात् और कफ प्रकृति के कारण जीवन के अंतिम दिनों में फेफड़ों की परेशानी, हार्ट की बीमारियां संभव हैं। चर्म और रक्त संबंधी बीमारियां अक्सर होती रहती हैं। मंगलवार यह हनुमान जी का वार है इसका नंबर नौ है। 9, 19, 27 तरीख को जन्मे जातक का स्वामी मंगल ग्रह है इस दिन जन्मे जातक का सांवला रंग, घुंघराले बाल, लंबी गर्दन, वीर, साहसी, खिलाड़ी, भू-माफिया पुलिस के अधिकारी, सेनाध्यक्ष स्वार्थी होते हैं। इनकी आंखों में हल्का-हल्का पीलापन और आंखों के चारों ओर हल्की सी कालिमा या छाई रहती है। इनका चेहरा तांबे के समान चमकीला होता है। प्रत्येक कार्य करने से पहले हित-अहित का विचार कर लेते हैं। यदि मंगल उच्च का अर्थात मकर राशि का हो तो जातक डाक्टर, ठेकेदार, खेती का व्यापार करने वाला होता है। यदि मंगल अकारक हो तो जातक चोर, डाकू भी हो सकते हैं। मंगल दक्षिण दिशा का स्वामी होता है। ऐसा जातक किसी पर विश्वास नहीं करता। शर्क प्रधान प्रकृति है यहां तक मां-बाप, पति-पत्नी और संतान पर भी शक करता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में यह जातक विचलित नहीं होता। राजनीतिक क्षेत्र में अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा कार्य कर सकता है। एक बार जो काम हाथ में ले ले उसे पूरा करके छोड़ता है। बहुत साहसी, खतरों की जिंदगी में इन्हें आनंद मिलता है। शत्रुओं से लड़ना इनका स्वभाव होता है। मज्जा और मुख के आस-पास इसका अधिकार क्षेत्र है। 28 से 32वें वर्ष में यह फल देता है। महिलायें चिड़चिड़ी और कटुभाषी होती हैं। रक्त एवं चर्म रोग से ग्रस्त रहते हैं। बुधवार गणेश जी इसके स्वामी हैं। इसका अंक पांच है जो जातक 5, 14, 23 तारीखों में जन्मा हो वह जातक ठिगना, सामान्य रंग, फुर्तीला, बहुत बोलने वाला, दुर्बल शरीर, छोटी आंखें, क्रूर दृष्टि, पि प्रकृति, चंचल स्वभाव द्विअर्थक बात करने वाला, हास्य प्रिय, शरीर के मध्य भाग में संदा दुर्बल, उर दिशा का स्वामी, माता-पिता से प्रेम करने वाला, चित्रकार, 8वें और 22वें वर्ष में अरिष्ट 32वें वर्ष में भाग्योदय, त्वचा और नाभि के निकट स्थल पर अधिकार, वाणी, वात-पि का कारक होता है। यह जातक अधिकतर बैंकर्स, दलाल, संपादक, इस जातक को देश, काल और पात्र की पहचान होती है। वातावरण के अनुकूल बातचीत करने में होशियार होते हैं। बुध ग्रह जिस जातक का कारकत्व होता है उसका रंग गोरा, आंखें सुंदर और त्वचा सुंदर और मजबूत होती है, ये अच्छे गुप्तचर या राजदूत बन सकते हैं। यह जातक स्पष्ट वक्ता होता है और मुंह पर खरी-खरी कहता है और इस प्रकार से बात करता है कि दूसरे को बुरा न लगे। सफाई प्रिय होता है कफ-पि-वात प्रकृति प्रधान होने से बाल्यावस्था में जीर्ण ज्वर से पीड़ित रहता है। वृद्धावस्था मंे अनेक रोगों से पीड़ित रहता है। यौवनावस्था में प्रसन्नचि रहता है। सफल व्यापारी के इसमें गुण होते हैं। अनेक रंगों का शौकीन होता है। हरा रंग इसे प्रिय होता है और वह शुभ भी होता है। ज्योतिष या ग्रह नक्षत्रों का ज्ञान, गणितज्ञ, पुरोहित का कार्य करना, लेखाधिकारी। इस वार में जन्मी महिलाएं शीघ्र रूठने वाली, चुगली, निंदा करने वाली और पति से इनकी अनबन रहती है। गुरुवार यह समस्त देवताओं का गुरु है। इसका अंक तीन है अर्थात् 3, 12, 21, 30 तारीखों में जन्मे जातक स्वस्थ शरीर, लंबा कद, घुंघराले बाल, तीखी नाक, बड़ा शरीर, ऊंची आवाज, शहद के समान नेत्र वाले ऐसे जातक सच्चे मित्रों के प्रेमी, कानून जानने वाले अधिकारी, जज, खाद्य सामग्री के व्यापारी, नेता अभिनेता भी होते हैं। ऐसे जातक बोलते समय शब्दों का चयन सावधानी पूर्वक करते हैं। आंखों से झांकने की ऐसी प्रवृ होती है कि मानो समस्त संसार की शांति और करुणा इसमें आकर भर गई हो, जीव हिंसा और पाप कर्म से बचते हैं। महिलाएं चरित्रवान, पति की सेविका, पति को वश में रखने वाली सद्गुणी, कुशल अध्यापिकाएं होती हैं। पुजारी, आश्रम चलाना, सरकारी, नौकरी, पुराण, शास्त्र वेदादि, नीतिशास्त्र, धर्मोपदेश से ब्याज पर धन देने से जीविका होती है। ऐसे जातक शत्रु से भी बातचीत करने में नम्रता रखते हैं। चर्बी-नाक के मध्य अधिकर क्षेत्र है। 16-22 या 40वें वर्ष में सफलता मिलती है। उर-पूर्व (ईशान) इस ग्रह का स्वामी है कर्क राशि में यह ग्रह उच्च का होता है। पीला रंग इनके लिए शुभ होता है। यह एक राशि में एक वर्ष रहता है। यह 110 अंश से 200 अंश में अपने फल देता है, 7, 12, 13, 16 और 30 वर्ष की आयु में कष्ट पाता है। दीर्घ आयु कारक है। यह गुल्म और सूजन वाले रोग भी देता है। चर्बी और कफ की वृद्धि करता है। नेतृत्व की शक्ति इसमें स्वाभाविक रूप से होती है। शुक्रवार यह लक्ष्मी का वार है। इसका अंक छः है अर्थात् 6, 15, 24 तारीखों में जन्म लेने वाले जातक पर शुक्र ग्रह का प्रभाव होता है। इस दिन जन्मे जातकों का सिर बड़ा, बाल घुंघराले, शरीर पतला, दुबला, नेत्र बड़े, रंग गोरा, लंबी भुजाएं, शौकीन, विनोदी, चित्रकलाएं, चतुर, मिठाई फिल्ममेकर, आभूषण विक्रेता होते हैं। शुक्र तीक्ष्ण बुद्धि, उभरा हुआ वक्षस्थल और कांतिमान चेहरा होता है। वीर्य प्रधान ऐसा व्यक्ति स्त्रियों में बहुत प्रिय होता है। यह जातक मुस्कुराहट बिखेरने वाला सर्वदा प्रसन्नचित रहने वाला होता है। शुक्र ग्रह स्त्री कारक होता है और नवग्रहों में सबसे अधिक प्रिय होता है। ऐसे जातक कामुक और शंगार प्रिय होते हैं, इस दिन जन्मा जातक विपरीत लिंग को आकर्षित करता है। ऐसे व्यक्ति सफल होते हैं, विपक्षी को किस प्रकार से सम्मोहित करना चाहिए आदि गुण इनमें जन्मजात होते हैं। मित्रों की संख्या बहुत होती है और मित्रों में लोकप्रिय होते हैं। वात-कफ प्रधान इनकी प्रकृति है और वृद्धावस्था में जोड़ों में दर्द और हड्डियां में पीड़ा होती है। प्रेम के बदले प्रेम चाहते हैं। नृत्य संगीत में रुचि रखते हैं। आग्नेय दिशा का स्वामी है। शनिवार शनि को काल पुरुष का दास कहा गया है। इसका अंक आठ है। दिनांक 8, 17, 26 को जन्मे जातकों का स्वामी शनि है। यह अपने पिता सूर्य का शत्रु है। तुला में शनि उच्च का होता है तथा 210 अंश से 300 अंश तक अपना फल शुभ-अशुभ देता है, इस दिन जन्मा जातक सांवला रंग नसें उभरी हुई, चुगलखोर, लंबी गर्दन, लंबी नाक, जिद्दी, कर्कश आवाज, घोर मेहनती, मोटे नाखून, छोटे बाल, आलसी, अधिक सोने (नींद) वाला, गंदी राजनीति वाला होता है छोटी आयु में कष्ट पाने वाला, दूसरों की भलाई से प्रसन्न न होने वाला, परिवार का शत्रु, 20-25-45वें वर्ष में कष्ट भोगने वाला, स्नायु (नसंे) पेट पर अधिकार 36-42वें वर्ष में शुभ या अशुभ प्रभाव, निर्दयी, दूसरों को विप में डालने वाला और इन्हें परेशान करने में आनंद आता है, शिक्षण काल में काफी रुकावटें, अपशब्द कहने में प्रसन्नता मिलती है। महिलाएं कटुभाषी, पति से नित्य तकरार करने वाली, दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं होता, शुद्धता का ध्यान कम होता है। स्वभाव, क्रोधी, आर्थिक मामलों में यह सामान्य होता है। लोहा आदि या काले रंग के उद्योगों में सफलता मिलती है, वायु प्रधान, मूर्ख, तमोगुणी, आयु से अधिक दिखने वाला, कबाड़ी का काम, कुर्सी बुनना, मजदूरी करना, पति-पत्नी के विचारों में मतभेद। यह तुला राशि में उच्च और मेष राशि में नीच का होता है। 210 अंश से 300 अंश में इस जातक के जीवन पर प्रभाव डालता है। दांत का दर्द, नाक संबंधी तकलीफें, लकवा, नामर्दी, कुष्ठ रोग, कैंसर, दमा, गंजापन रोग संभव हो सकते हैं। इन जातकों को पश्चिम दिशा में लाभ मिल सकता है।

राहु का प्रभाव

ब्रह्मांड में स्थित नव-ग्रहों में से प्रमुख सात ग्रहों (सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, तथा शनि) को छोड़कर शेष दो छाया ग्रहों (राहु-केतु) में राहु का विशेष स्थान है। हालांकि इन छाया ग्रहों का कहीं भौतिक अस्तित्व नहीं है केवल आभास मात्र है लेकिन अन्य प्रमुख ग्रहों की भांति इनका भी भूतल निवासी मानवों पर सीधा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जिसके कारण राहु नामक छाया ग्रह भी ज्योतिष जगत में अपना विशेष स्थान रखता है। राहु एवं इसकी वक्री गति: जब चंद्रमा अपनी कक्षा में दक्षिण से उत्तर को गति करता हुआ क्रांतिवृत्त को काटता है तो वह पात बिन्दु राहु तथा जब चंद्रमा अपनी कक्षा में उत्तर से दक्षिण को गति करता हुआ पुनः क्रांतिवृत्त को 180 डिग्री पर काटता है तो वह पात बिन्दु केतु कहलाता है। चंद्र कक्षा क्रान्ति-वृत्त पर 05 डिग्री झुकी हुई है अतः यह पात बिन्दु प्रत्येक बार थोड़ा पीछे की तरफ बनता है, यही वक्री गति कहलाती है। राहु का विभिन्न भावों में प्रभाव प्रथम भाव - प्रथम भाव में राहु होने से जातक रोगी, क्रोधी, दुखी, दुव्र्यसनी, शत्रुनाशक, अल्प-संतति, मस्तिष्क रोगी, स्वार्थी तथा सेवक वृत्ति वाला होता है। लग्न में राहु हो तो घर में सर्प अवश्य आते हंै। राहु लग्न में हो तो वह जातक अपनी बात मनवाने वाला होता है, माईक हाथ में ले ले तो छोड़ता नहीं है। द्वितीय भाव - द्वितीय भाव में राहु होने से जातक स्वाभिमानी प्रकृति, परिजनों एवं मित्रों के लिए सदैव चिंतित, कुटुंब-नाशक, अल्प-संतति, मिथ्याभाषी, कृपण, शत्रुहंता तथा परिश्रम के पश्चात् ही धन प्रदान करने वाला होता है। तृतीय भाव - तृतीय भाव के राहु से जातक विवेकी, बलिष्ठ, विद्वान, व्यवसायी भाइयों के लिए हानिकारक होता है, नीच का राहु सदैव निर्धनता देता है। स्वगृही राहु सभी सुखों की प्राप्ति कराता है तथा जातक स्त्री, पुत्र, संबंधी तथा मित्रों से युक्त रहता है। चन्द्र राहु तृतीय भाव में हो तो सर्प-दंश अवश्य होता है। शऩि$राहु हों तो उनके द्वारा भी हानि आती है। तृतीय भाव में राहु/केतु होने से भाई-बहनों में मन-मुटाव रहता है। तृतीय भाव में राहु राज बल से युक्त, यशस्वी, प्रतिष्ठित, धनी, दानी, विजयी परंतु भाइयों से वैर करवाता है। चतुर्थ भाव - चतुर्थ भाव के राहु से जातक रोगी, बंधु हीन, निम्न वर्ग के लोगों से प्रेम अधिक रखने वाला, स्वाभाव से क्रूर, अल्प-भाषी, असंतोषी, माता को कष्टकारक होता है। पंचम भाव - पंचम भाव में राहु होने से जातक का कोई कार्य पूर्ण नही हो पाता, आर्थिक स्थिति असंतोषजनक रहने के कारण सदैव चिंतित, भाग्यवान, कर्मठ, कुलनाशक, पत्नी सदैव रोगी रहती है। राहु पंचम में सर्प-शाप दर्शाता है। अतः सर्प पूजा श्रेष्ठ होती है। पंचम में राहु/ केतु विवाहेत्तर संबंध देता है। छठा भाव - छठे भाव में राहु होने से जातक के शत्रु स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं, धन, पुत्र एवं सभी सुखों की प्राप्ति, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक, आपसी विवाद में न्यायालय में सफलता, बलवान, धैर्यवान, दीर्घायु, अनिष्टकारक, शत्रुहंता होता है। सप्तम भाव - सप्तम भाव में राहु होने से जातक अघिक खर्चीला, व्यवसाय में असफल, अधिक श्रम से कार्य में सफलता, चतुर, लोभी, वातरोगी, दुष्कर्म प्रवृत्त, एकाधिक विवाह वाला होता है। राहु सप्तम में तथा सप्तमेश शुक्र के साथ हो तो शादी देता है। सप्तम में राहु हो तथा सप्तमेश द्वादश भाव में हो तो 32 वर्ष की उम्र में शादी होती है। अष्टम भाव - अष्टम भाव के राहु से जातक रोगी के साथ-साथ पाप कर्म वाला होता है। असाध्य रोगों की उत्पत्ति (कैंसर, दमा, पथरी, बवासीर, एक्जीमा आदि) होती है। जातक कठोर, परिश्रमी, बुद्धिमान, कामी, गुप्त रोगी होता है। राहु अष्टम में तंत्र-विद्या व ज्योतिष के लिए अच्छा होता है। अष्टमस्थ राहु की दशा महाकष्टकारी होती है क्योंकि यह नवम (भाग्य, पिता, धर्म) का द्वादश (हानि) भाव है। राहु अष्टम में शुक्र के घर में हो तथा गुरु की दृष्टि न हो तो राहु/शुक्र की दशा में जातक को जेल जाना पड़ता है। यदि अष्टमेश अथवा अन्य पापी ग्रह के साथ राहु/केतु अष्टम में हो तो मृत्यु अथवा मृत्यु-तुल्य कष्ट होता है। मेष राशि का अष्टमस्थ राहु आर्थिक दृष्टि के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होता है। अष्टम भाव में राहु, केतु की स्वराशि में धार्मिक दिशा देता है। नवम भाव - नवम भाव के राहु से जातक धार्मिक प्रवृत्ति वाला, निन्दित कार्य करने वाला, अच्छे कार्यों में बाधा से धन-हीन होता है, शत्रु उत्पन्न करना तथा उनसे भयभीत करवाना भी राहु का कार्य है। जातक सद्गुणी, परिश्रमी लेकिन भाग्यरहित होता है। दशम भाव - दशम भाव में राहु होने से जातक व्यवसाय एवं नौकरी में सफल, कामी प्रवृत्ति, दूसरे की धन-संपत्ति हड़पने वाला, इच्छा अपूर्ण, पारिवारिक व्यक्तियों से तनाव तथा अस्वस्थ रहना, व्यसनी, शौकीन, सुंदरियों पर आसक्त, नीच कर्म प्रवृत्त होता है। एकादश भाव - एकादश भाव के राहु से जातक व्यवसायी, नास्तिक एवं कलहकारी, मंदमति, परिश्रमी, अनिष्ट-नाशक, सतर्क होता है। द्वादश भाव = द्वादश भाव के राहु से जातक धर्म-कर्म वाला, शत्रुओं से भयभीत, दुःखी, विघ्न-ग्रस्त, खर्चीला, प्रवासी, स्त्रीहीन, मंदमति, विवेकहीन, दुर्जनों की संगति वाला होता है। राहु सम्बंधी विशिष्ट बातें - - राहु चंडाल जाति का ग्रह है। - राहु शानिवत फल देता है। - राहु बहिर्मुखी तथा केतु अंतर्मुखी ग्रह होता है। - राहु का मुख दक्षिण की ओर है। - राहु रहस्यमयी विद्याओं का कारक ग्रह है। - राहु की दशा में उच्चाटन क्रिया होती है। - राहु संदेह, संशय आदि देता है। - राहु संध्या समय में बली होता है। - राहु यश, मान, तथा राज-वैभव का कारक ग्रह है। - राहु के नक्षत्र आद्र्रा, स्वाति तथा शतभिषा हैं। - राहु से म्लेच्छ, मुसलमान व विदेशी आदि का विचार किया जाता है। - राहु दशम भाव में बली होता है तथा तृतीय भाव में अतिश्रेष्ठ होता है। - राहु की गति हमेशा वक्र है तथा यह एक राशि मंे लगभग १८ माह रहता है। - राहु की उच्च स्थिति वृषभ (२), स्वराशि कुंभ (११) तथा मूल त्रिकोण राशि मिथुन (३) है। कालिदास। - मंगल, शनि तथा शुक्र इसके मित्र राशि, सिंह, कर्क शत्रु राशि हैं। १, ८,११,६,२,४ राशि में, दशम भाव में राहु बलवान होता है। - राहु हमेशा अपनी दशा में शादी देता है। - राहु, शुक्र, पंचमेश व नवमेश अपनी दशा में शादी देते हैं। - शुक्र/राहु की दशा में जातक अनेक संबंध बनाता है। - शुक्र व राहु का त्रिकोण संबंध प्रेम विवाह का योग देता है। - राहु व शुक्र पंचमेश व नवमेश होने पर अपनी दशा में शादी देते हैं। - 95ः स्थिति में राहु शादी देता है, यदि वह सप्तम से भी संबंधित हो (राहु = ब्याहू)। - वृषभ (2) का राहु एक पुत्र अवश्य देता है। - पंचमेश नीच का 6, 8, 12 में हो तो जातक के पुत्र नहीं होता है (पुत्र-हीन योग), यदि पंचम में राहु हो तो सर्प-दोष के कारण पुत्र का अभाव रहता है । - राहु/केतु तकनीकी शिक्षा देते हैं। - राहु की दशा में जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करने में प्रायः असमर्थ रहता है। - शनि-राहु अथवा चंद्र-मंगल की युति वाले जातक शराब पीते हैं। - राहु़ चंद्र एक साथ होने से जातक को अकेलापन अच्छा लगता है। - चंद्ऱ राहु अथवा चन्द्ऱ केतु कहीं भी हों जातक को अनचाहा भय (डर) देते हैं। - मंगल उच्च का (10) राहु के साथ हो तो जातक क्रोधवाला व युवा दिखने वाला होता है। - सूर्य से द्वितीय भाव में राहु की स्थिति सूर्य के अनिष्ट प्रभाव को नष्ट करती है । - शनि व मंगल का राहु/केतु पर गोचर होने से उस भाव की हानि होती है। - राहु 3,6,11 (3 = कामनाओं पर विजय, 6 = रोगों पर नियंत्रण परन्तु शत्रु होंगे, 11 = धन का आगमन) में अच्छा होता है। - राहु तथा मंगल इत्थसाल अथवा युति में हो तो गुर्दे, पथरी, अपेंडिक्स आदि का आॅपरेशन होता है। - छठे में मंगल, सप्तम में राहु तथा अष्टम में शनि हो तो पति के लिए लखपति बनने तथा पत्नी के लिए पतिनाशक माना जाता है। - अष्टम में राहु हो तो उसकी दशा महा कष्टकारी होती है यह नवम (भाग्य-पिता-धर्म) का द्वादश भाव (हानि) है। - राहु गोचर में जन्म-राशि पर मानसिक परेशानियां पैदा करता है - विरोधी षड्यंत्र करते हैं। - राहु से अष्टम भाव में स्थित सूर्य भी कालसर्प योग जैसा परिणाम देता है। - जन्म राशि से १,३,६,९,१० तथा ११ भाव में राहु होने से पुत्रों की प्राप्ति, धन की वृद्धि तथा न्यायालय के कार्य में विजय होती है। जन्म राशि से २,४,५,७,८ तथा १२ भाव में राहु होने पर आपसी कलह, आर्थिक स्थिति कमजोर होना तथा अचानक शोक समाचारों की प्राप्ति होती है। - राहु स्वभावतः मानव को कष्ट देने वाला है। चेचक, नासूर, भूत-प्रेत बाधा, पिशाच बाधा, अरुचि, कैद, कोढ़ राहु के रोग हैं। अनिद्रा, उदर-रोग, मानसिक रोग, पागलपन आदि रोग भी राहु के कारण होते हैं। - राहु सूर्य से अधिक बलशाली, गहरे नीले रंग का तथा सर्पाकार होता है। राहु छत्र से सुशोभित है तथा इसके चारों ओर शक्तियाँ आराधना करती रहती हैं। - जातक के आध्यात्मिक विकास के लिए राहु पिछले जन्म के राहु जनित कष्टों को (देवता समान) नष्ट करता रहता है। राहु दैत्य, राक्षस, यक्ष या विषधर है। धड़ नाग या सर्प की पूंछ की भांति है। - राहु मनुष्य को जड़ता तथा अज्ञान में डुबो देता है परंतु उसमें संतोष नहीं दिलाता है। यही मानव के लिए धार्मिक संघर्ष का कारण तथा मुक्ति का द्वार बनता है। - राहु में सूर्य तथा चंद्र के शुभत्व को नष्ट करने की शक्ति है। राहु मानव के अंदर जड़ वृत्तियों का नाश करता है, जिससे उसे पूर्व जन्म के कर्मों से मुक्ति मिल सके। - राहु तामसिक ग्रह के साथ-साथ क्रूर पापी पृथकतावादी ग्रह है। जिन राशियों पर इसका प्रभाव होता है यही जातक की मानसिक प्रवृत्ति दूषित कर देता है। - राहु बलि होने पर व्यवसाय - गांजा, अफीम, भांग, रबर का व्यापार, लाॅटरी, कमीशन एजेंट, सर्कस की नौकरी, प्रचार विभाग की नौकरी, नगरपालिका, जिला परिषद्, विधान सभा, लोक सभा आदि क्षेत्रों मंे लाभ होता है। राहु संबंधी उपाय - राहु (बहिर्मुखी) की अन्तर्दशा में तीर्थ-यात्रा, सत्संग, भजन आदि अवश्य करना चाहिए। राहु की महादशा में पक्षियों को ज्वार खिलाना चाहिए तथा प्रत्येक शनिवार को अपने ऊपर से एक नारियल उतारकर दरिया/ सागर में बहाना चाहिए। - राहु रत्न गोमेद बुधवार या शनिवार की मध्य रात्रि को आद्र्रा नक्षत्र में चांदी/सोने की अंगूठी मे धारण करना चाहिए, सफेद चंदन की माला धारण करंे। बुध व शनि को भूरे कुत्ते को मोतीचूर के लड्डू तथा भूरी गाय को गुड़, चना, घास आदि खिलाना चाहिए। राहु हेतु गेहूं, रत्न, अश्व, नीले वस्त्र, कंबल, तिल, तेल, लोहा, अभ्रक, सरसों, काले पुष्प, नारियल, कोयला, खोटे सिक्के, चाबी वाले खिलौने आद्र्रा, स्वाति, शतभिषा नक्षत्र मंे दान करना चाहिए - संतानहीन मानव, एक आँख से काणे, चेचक के दाग वाले, मकान की छत, अचानक काम आने वाले का संबंध राहु से होता है।

स्वप्न और उनके फल

आधुनिक विज्ञानियों ने स्वप्न विषयक जिन तथ्यों का पता लगाया, उनमें से अधिकांश ऋषियों के निष्कर्षों से मेल खाते पाए गए हैं। बृहदारण्यक में जाग्रत एवं सुषुप्त अवस्था के समान मानव के मन की तीसरी अवस्था स्वप्न अवस्था मानी गई हैं। जिस प्रकार मनुष्य के संस्कार उसे जाग्रतावस्था में आत्मिक संतोष और प्रसन्नता प्रदान करते हैं, उसी प्रकार जो भी स्वप्न आएंगे वे उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं के प्रतिबिंब ही होंगे।
जागते हुए जो दिवा स्वप्न हम देखते हैं वे मात्र कल्पनाएं ही होती हैं पर सुषुप्तावस्था में जो कल्पनाएं की जाती हैं उन्हें स्वप्न कहते हैं। निरर्थक, असंगत स्वप्न उथली नींद में ही आते हैं जो उद्विग्न करने वाले होते हैं। वस्तुतः मनुष्य निरंतर जागता नहीं रह सकता। यदि किसी को सोने ही न दिया जाए तो वह मर जाएगा। मनुष्य अपने जीवन का एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत करता है और निद्रा का अधिकांश भाग स्वप्नों से आच्छादित रहता है।
भारतीय शास्त्रादि स्वप्न को दृश्य और अदृश्य के बीच का द्वार अर्थात संधि द्वार मानते हैं। मनुष्य इस संधि स्थल से इस लोक को भी देख सकता है और उस परलोक को भी। इस लोक को संधि स्थान व स्वप्न स्थान कहते हैं।
स्वप्नों का संबंध मन व आत्मा से होता है तो इनका संबंध चंद्र और सूर्य की युति से लगाते हैं। गोविंद राज विरचित रामायण भूषण के स्वप्नाध्याय का वचन है कि जो स्त्री या पुरुष स्वप्न में अपने दोनों हाथों से
सूर्यमंडल अथवा चंद्र मंडल को छू लेता है, उसे विशाल राज्य की प्राप्ति होती है। अतः स्पष्टतया किसी भी व्यक्ति को शुभ समय की सूचना देने वाले स्वप्नों से यह पूर्वानुमान किया जा सकता है। चंद्र की स्थिति व दशाएं शुभ होने पर एवं सूर्य की स्थिति व दशाएं आदि कारक होने पर शुभ स्वप्न दिखाई पड़ेंगे अन्यथा अशुभ। प्रत्यक्ष रूप में देखा जाए तो स्वप्न का आने या न आने का कारण सूर्य व चंद्र ग्रह ही होते हैं क्योंकि सूर्य का संबंध आत्मा से और चंद्र का संबंध मनुष्य के मन से होता है।
दुःखद या दुःस्वप्नों के आने का कारण हमारा मोह और पापी मन ही है। यही बात अथर्ववेद में भी आती है।
‘यस्त्वा स्वप्नेन तमसा मोहयित्वा निपद्यते’
अर्थात मनुष्य को अपने अज्ञान और पापी मन के कारण ही विपत्तिसूचक दुःस्वप्न आते रहते हैं। इनके निराकरण का उपाय बतलाते हुए ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि यदि स्वप्नावस्था में हमें बुरे भाव आते हों तो ऐसे दुःस्वप्नों को पाप-ताप, मोह-अज्ञान एवं विपत्ति जन्य जानकर उनके निराकरण के लिए ब्रह्म की उपासना शुरू कर देनी चाहिए ताकि हमारी दुर्भावनाएं, दुर्जनाएं, दुष्प्रवृत्तियां शांत हो जाएं जिससे मन में सद्प्रवृत्तियों, सदाचरणों, सद्गुणों की अभिवृद्धि हो और शुभ स्वप्न दिखाई देने लगे और आत्मा की अनुभूति होने लगे। वाल्मीकि रामायण के प्रसंगों से स्पष्ट है कि पापी ग्रह मंगल, शनि, राहु तथा केतु की दशा अंतर्दशा तथा गोचर से अशुभ स्थानों में होने पर बुरे स्वप्न दिखाई देते हैं जो जीवन में आने वाली दुरवस्था का मनुष्य को बोध कराते हैं। साथ ही शुभ ग्रहों की दशा अंतर्दशा में शुभ ग्रहों के शुभ स्थान पर गोचर में अच्छे स्वप्न दिखाई देते हैं। आकाश में ऊपर उठना उन्नति तथा अभ्युदय का द्योतक है जबकि ऊपर से नीचे गिरना अवनति व कष्ट का परिचायक है।
बुरे स्वप्न आना तभी संभव है जब लग्न को, चतुर्थ एवं पंचम भाव को प्रभावित करता हुआ ग्रहण योग (राहु+चंद्र, केतु+सूर्य, राहु+सूर्य, केतु+चंद्र) और चांडाल योग (गुरु व राहु की युति) वाली ग्रह स्थिति निर्मित हो या इसी के समकक्ष दशाओं गोचरीय ग्रहों का दुर्योग बन जाए। इसके विपरीत लग्न, चतुर्थ/पंचम भाव को प्रभावित करते हुए शुभ ग्रहों के संयोग के समय अच्छे स्वप्न आने की कल्पना की जा सकती है।
जब हमें कोई अच्छे सुखद स्वप्न दिखाई देते हैं, तो हमारा मन पुलकित हो जाता है, हमें सुख की अनुभूति होने लगती और हम प्रसन्न हो जाते हैं। परंतु जब हमें बुरे स्वप्न दिखते हैं तो मन घबरा जाता है, हमें एक अदृश्य भय सताने लगता है और हम दुखी हो जाते हैं। विद्वानों के अनुभवों से हमें यह बात ज्ञात होती है कि इस तरह के बुरे, डरावने स्वप्न दिखाई देने पर यदि नींद खुल जाए तो हमें पुनः सो जाना चाहिए।
स्वप्नों के स्वरूप
फलित ज्योतिष में स्वप्नों को विश्लेषणों के आधार पर सात भागों में बांटा जाता है- दृष्ट स्वप्न, शृत स्वप्न, अनुभूत स्वप्न, प्रार्थित स्वप्न, सुम्मोहन या हिप्नेगोगिया स्वप्न, भाविक स्वप्न और काल्पनिक स्वप्न।
दृष्ट स्वप्न
दिन प्रतिदिन के क्रिया कलापों को सोते समय स्वप्न रूप में देखे जाने वाले सपनों को दृष्ट स्वप्न कहा जाता है। ये सपने कार्य क्षेत्र में अत्यधिक दबाव और किसी वस्तु या कार्य में अत्यधिक लिप्तता के कारण या मन के चिंताग्रस्त होने पर दिखाई देते हैं। इसलिए इनका कोई फल नहीं होता। कभी सोने से पूर्व किसी प्रकरण पर विचार विमर्श किया गया हो और किसी बात ने मन को प्रभावित या उद्वलित किया हो, तो भी मनुष्य सपनों के संसार में विचरण करता है।
शृत स्वप्न
भयावह फिल्म देखकर या उपन्यास पढ़कर सपनों में भयभीत होने वालों की संख्या कम नहीं है। इन सपनों को शृत स्वप्न कहा जाता है। ये सपने भी वाह्य कारणों से दिखाई देने के कारण निष्फल होते हैं।
अनुभूत स्वप्न
जाग्रत अवस्था में कोई बात कभी मन को छू जाए या किसी विशेष घटना का मन पर प्रभाव पड़ा हो और उस घटना की स्वप्न रूप में पुनरावृत्ति हो जाए, तो ऐसा स्वप्न अनुभूत सपनों की श्रेणी में आता है। इनका भी कोई फल नहीं होता।
प्रार्थित स्वप्न
जाग्रत अवस्था में देवी देवता से की गई प्रार्थना, उनके सम्मुख की गई पूजा-अर्चना या इच्छा सपने में दिखाई दे, तो ऐसा स्वप्न प्रार्थित स्वप्न कहा जाता है। इन सपनों का भी कोई फल नहीं होता।
काल्पनिक स्वप्न
जाग्रत अवस्था में की गई कल्पना सपने में साकार हो सकती है किंतु यथार्थ जीवन में नहीं और इस प्रकार के सपनों की गणना भी फलहीन सपनों में की जाती है।
सम्मोहन या हिप्नेगोगिया स्वप्न
मनुष्य रोगों से पीड़ित होने पर, वात, पित्त या कफ बिगड़ने पर जो स्वप्न देखता है, वे भी निष्फल ही होते हैं। नींद की वह अवस्था, जिसे मेडिकल साइंस की भाषा में हिप्नेगोगिया और भारतीय भाषा में सम्मोहन कहा जाता है। इसमें व्यक्ति न तो पूरी तरह से सोया रहता है और न पूरी तरह से जागा। इसमें देखे गए सपने भी निष्फल होते हैं।
इस तरह ऊपर वर्णित सभी छः प्रकार के सपने निष्फल होते हैं। ये सभी असंयमित जीवन जीने वालों के सपने हैं। विश्व में 99.9 प्रतिशत लोग असंयमित जीवन ही अधिक जीते हैं। यही कारण है कि ये लोग स्वप्न की भाषा नहीं समझकर स्वप्न विज्ञान की, स्वप्न ज्योतिष की खिल्लियां उड़ाते रहते हैं। स्वप्न के बारे में इनकी धारणाएं नकारात्मक सोच वाली ही होती हैं।
भाविक स्वप्न
जो स्वप्न कभी देखे न गए हों, कभी सुने न गए हों, अजीबोगरीब हों, जो भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास कराएं, वे भाविक स्वप्न ही फलदायी होते हैं। पाप रहित मंत्र साधना द्वारा देखे गए स्वप्न भी घटनाओं का पूर्वाभास कराते हैं। मानव का प्रयोजन इसी प्रकार के स्वप्नों से है। जन्मकालीन या गोचरीय कालसर्प योग वाली ग्रह स्थिति अर्थात राहु-केतु के मुख में सभी ग्रहों के समा जाने वाली स्थिति के निर्मित हो जाने पर भगवान शंकर के कंठहार पंचमी तिथि के देवता स्वप्न में आकर मनुष्यों के दिल को दहला देते हैं। ऐसा सपना देखकर मनुष्य का मन मस्तिष्क विचलित हो उठता है। अरिष्टप्रद सूर्य, चंद्र, राहु और केतु के मंत्र जप व स्तोत्र पाठ से तथा, दान, शांति कर्म के उपायों को अपनाकर व्यक्ति दुखद स्वप्नों के अनिष्टों से बचने में समर्थ हो सकता है।
नौ ग्रहों की दशा अंतर्दशा में देखे जाने वाले स्वप्न
स्वप्न के आधार पर फल कथन करने में ज्योतिषियों को आसानी होती है। अगर जातक की राहु, केतु या शनि की महादशा या अंतर्दशा चल रही हो और जन्मकुंडली में वे नीच स्थिति में हों, तो उसे हमेशा डरावने स्वप्न आते हैं जैसे बार-बार सर्प दिखाई देना राहु केतु से बनने वाले कालसर्प योग के द्योतक होते हैं। यदि राहु, केतु व शनि की महादशा या अंतर्दशा हो और वे जन्मकुंडली में स्वराशि या उच्च की राशि में बैठे हों, तो जातक को शुभ स्वप्न आते हैं जैसे जर्मनी के फ्रेडरिक कैक्यूल को राहु से संबंधित सांप का वर्तुल आकार में घूमकर स्वर्ण की अंगूठी जैसे आकार का बनकर अपने-आपको काटते हुए दिखाई देना। इसी भांति सिलाई मशीन के आविष्कारक इलिहास होव को शनि की महादशा अंतर्दशा व कुंडली में उनकी उच्च स्थिति होने के कारण उसके सिर में राक्षस के दूतों द्वारा भाला भोंकने की स्वप्न की घटना जिसके फलस्वरूप उसने सिलाई मशीन का आविष्कार किया। उसी प्रकार यदि सूर्य या मंगल की महादशा या अंतर्दशा चल रही हो और वे नीचस्थ हों, तो आग एवं चोट लगने के स्वप्न दिखाई देते हैं। यदि उपर्युक्त महादशा व अंतर्दशा चल रही हो और जातक की जन्मकुंडली में सूर्य और मंगल उच्च या स्वराशि में हो, तो अशुभ स्वप्न नहीं बल्कि शुभ स्वप्न दिखाई देंगे जैसे राजकार्य में जय, मांगलिक कार्य संपन्न होना आदि। यदि चंद्र और गुरु की महादशा अंतर्दशा हो और वे नीचस्थ हों तो कफ, पेट आदि से संबंधित रोग होते हैं। इसके विपरीत यदि चंद और गुरु उच्चस्थ हों, तो महादशा अंतर्दशा में राजगद्दी प्राप्त होने के स्वप्न दिखाई देंगे। वहीं यदि शुक्र की उच्च स्थिति हो, तो सुख, ऐशो आराम, धन लक्ष्मी आदि से संबंधित और नीचस्थ हो, तो अनेक बीमारियों के स्वप्न दिखाई देते हैं।
नीचस्थ सूर्य की दशा/परिस्थिति या गोचरीय दशा आने पर रेतीले मरुस्थलों की सैर, मरुस्थलों का जहाज ऊंट, गर्म हवाओं के थपेड़े खाता हुआ बेतहासा मजनूं की तरह भागता मनुष्य, सूर्य का सारथी, उष्ण कटिबंधों के दृश्य, सूखा, फटती हुई जमीन, घर-मकान की दीवारों की दरारें, भूख प्यास से व्याकुल पागलों की तरह भटकते लोग, खौलता हुआ झरना, तपेदिक के मरीज, मृगतृष्णा का जल, मौत का सन्नाटा, तपे हुए लोहे के सिक्के लुटाती हुई अलक्ष्मी, सिर पर सेहरे की जगह कफन, ओले की जगह टपकते अंगारे, चांदनी बिखराता सूर्य, तपता हुआ चंद्रमा, हंसता हुआ सियार, चूहे की भांति दुबका हुआ शेर, आकाश में पक्षियों की तरह उड़ता हुआ प्राणी, रोता हुआ मुर्दा आदि दिखाई देने की संभावना रहती है।
इसी तरह के स्वप्न गोचर में वृष राशि में प्रवेश करते हुए सूर्य की दशा में अथवा उसकी दशांतर्दशा में आ सकते हंै। काला बाबा की राशि मकर या कंुभ में सूर्य के प्रवेश की दशा में पर्वतारोहण करते मगरमच्छ, दिन में देखते उल्लू, चलने हुए गरुड़, दीपावली की रात्रि में चमकता हुआ शरद पूर्णिमा के चंद्रमा, निशीथ काल में खिलती हुई कुमुदिनी, चंद्रोदय होते ही खिलते हुए कमल से निकलते हुए भौंरे, पर्वत से पानी निकालती हुई पनिहारिन, दिन में उदित होते चंद्रमा, रात्रि में धूप, बीहड़ घने काले अंधियारे जंगल में नाचते सफेद मोर, काले हंस, गुलाबी रंग की भैंस आदि के समान स्वप्न आ सकते है जिनका फल सदैव अशुभ ही होता है।
चंद्र के दशा परिवर्तन से स्वप्नावस्था में शरीर में नाड़ी की गति मध्यम पड़ जाती है, खून का प्रवाह शिथिल हो जाता है, इंद्रियों की गति मंद हो जाती है और कफ का प्रकोप बढ़ जाता है।
मंगल की दशा अथवा गोचर में परिवर्तन होने से मनुष्य को चोट-चपेट, दुर्घटना, अग्नि-कांड, शव-दाह, खून-खराबे, मृत्यु-दंड, यान-दुर्घटना, युद्ध के तांडव, उल्कापात, गर्भपात, पक्की इमारतों का भरभराकर गिर जाना, ज्वालामुखी पर्वत और उनके खौलते हुए एवं छलछलाने लावे के दृश्य स्वप्न में दिखलाई देते हैं। मित्र लड़ने को उद्यत दिखाई देता है।
बुध की अंतर्दशा में सुंदर उपवन, हरे-भरे खेत, खंजन पक्षी, तोता विद्या प्राप्त करते बटुक, वृक्षों की ठंडी शीतल छांव में विश्राम करते बटोही, परीक्षा के डर से भयभीत होते बच्चे, छड़ी दिखाता शिक्षार्थी, परीक्षा में पास हो जाने पर हंसते मुस्कराते विद्यार्थी, सुंदरियों को वस्त्र लुटाता बजाज, बंध्या और पुत्र, मुनीमी करता सेठ, गीत सुनता बधिर, वक्ता बना गूंगा, बगुला भगत, सज्जन बना बातुल, बादशाही करता फकीर, शिष्ट तथा सुसंस्कृत बना गंवार, सुंदर हरे भरे ताजे फलों की डलिया, आदि नाना प्रकार के स्वप्न आते हैं। बुध की दशा में पोथी प्रदान करती हुई सरस्वती जी यदि स्वप्न में दर्शन दें, तो जातक वाणी की अधिष्ठात्री देवी वागीश्वरी की अनुपम कृपा का पात्र जातक बन जाता है।
गुरु की दशाओं में भी जलीय दृश्य कफ प्रकृति जातकों को स्वप्न में दिखलाई दे सकते हैं। गुरु की एक राशि मीन है जो जल तत्व वाली राशि है। उदर शूल, उदर व्रण, पाचन संस्थान संबंधी रोग, कफ जनित व्याधियों, वेदाध्ययन, वेद-पाठ, वेद-पुराण- उपनिषदों आदि के दर्शन, धर्म प्रवचन, संत-समागम, तीर्थ -यात्रा, गंगा-स्नान आदि से संबंधित विविध शुभाशुभ स्वप्न गुरु की अंतर्दशा में दिखाई दे सकते हैं। राज्याभिषेक संबंधी आनंदातिरेक देने वाले स्वप्न भी गुरु की दशा में दिखाई दे सकते हैं।
राहु, केतु या शनि की महादशा, अंतर्दशा या गोचर में इनकी अरिष्टकारक दशा चल रही हो, तो जातकों को बेहद भयानक स्वप्न दिखाई दे सकते हैं। राहु के अत्यधिक अशुभ होने पर स्वप्न ही नहीं, यथार्थ में भी बिजली का करंट लग जाया करता है। डरावने स्वप्नों का वेग गहरी निद्रा में डूबे हुए व्यक्ति को एकदम चैंका देता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि डरावने स्वप्न देखता हुआ व्यक्ति उससे त्राण पा लेने को उठकर भाग जाना चाहता है परंतु स्वप्न के भारी दबाव के कारण वह बिस्तर से उठ भी नहीं पाता। आयुर्वेद के मुताबिक वात, पित्त, कफ ये शरीर के तीन दोष हैं।
वात प्रधान लोगों को स्वप्न में पर लग जाते हैं। वे नील गगन में स्वप्न में उड़ने का आनंद प्राप्त करते हैं।
पित्त प्रकृति के लोग स्वप्न में सारे जगत को जगमग ज्योति के रूप में निहारने लगते हैं। वे चांद, सितारे, उल्का और सूरज की रज को प्राप्त कर लेना चाहते हैं। उन्हें चांद-सूरज, तारा गण सप्तर्षि आदि अपना बना लेना चाहते हैं। वे गगन को देखकर मगन हो जाते हैं।
कफ प्रकृति वाले कूप, तड़ाग, बावलियों, नहरों, नदियों नालों झरनों, फव्वारों जलस्रोतों को स्वप्न में देखकर स्वयं जल का देवता वरुण बन जाना चाहते हैं। वे चांदनी रात में नौका-विहार करने लग जाते हैं। कोई स्वप्न में स्वयं को जलतरंग बजाता हुआ देखता है, कोई जलधर ही बन जाता है, कोई जल प्रपात देखता है तो कोई जल प्रलय। उन्हें जल से जन्म लेने वाला जलज स्वप्न में दिखाई देने लगता है। जल में कभी वे जलपरी का जलवा देखते हैं, कभी जलजहाज को जल डमरूमध्य में, तो कभी अपने को गोता लगाता हुआ देखते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि शुभाशुभ स्वप्न विभिन्न ग्रह स्थितियों में तब आते हैं जब ग्रहों की महादशाओं की अंतर्दशाओं में नीच, उच्च, स्वगृही, मित्र गृही, शत्रुगृही होते हैं। कोई भी ग्रह नीच, व शत्रुग्रही हो, तो जातक का बुरे व अशुभ स्वप्न आते हैं और यदि वह उच्च, स्वगृही व मित्र राशि में हो, तो अच्छे व शुभ, उसके मनोनुकूल, स्वप्न आते हैं।
परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर उस परिवार के सदस्यों को दुःस्वप्न दिखाई देते हैं। याद भी रहते हैं जिससे वे विचलित दिखाई देते है।
धन लाभ कराने वाले स्वप्न
कुछ स्वप्न व्यक्ति को धन लाभ कराने वाले होते हैं। हाथी, घोड़े, बैल, सिंह की सवारी, शत्रुओं के विनाश, वृक्ष तथा किसी दूसरे के घर पर चढे़ होने दही, छत्र, फूल, चंवर, अन्न, वस्त्र, दीपक, तांबूल, सूर्य, चंद्रमा, देवपूजा, वीणा, अस्त आदि के सपने धन लाभ कराने वाले होते हैं। कमल और कनेर के फूल देखना, कनेर के नीचे स्वयं को पुस्तक पढ़ते हुए देखना, नाखून एवं रोमरहित शरीर देखना, चिड़ियों के पैर पकड़कर उड़ते हुए देखना, आदि धन लक्ष्मी की प्राप्ति व जमीन में गड़े हुए धन मिलने के सूचक हैं।
मृत्यु सूचक स्वप्न
कुछ स्वप्न स्वयं के लिए अनिष्ट फलदायक होते हैं। स्वप्न में झूला झूलना, गीत गाना, खेलना, हंसना, नदी में पानी के अंदर चले जाना, सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों व नक्षत्रों को गिरते हुए देखना, विवाह, गृह प्रवेश आदि उत्सव देखना, भूमि लाभ, दाढ़ी, मूंछ, बाल बनवाना, घी, लाख देखना, मुर्गा, बिलाव, गीदड़, नेवला, बिच्छू, मक्खी, शरीर पर तेल मलकर नंगे बदन भैंसे, गधे, ऊंट, काले बैल या काले घोड़े पर सवार होकर दक्षिण दिशा की यात्रादि करना आदि मृत्यु सूचक हैं।
कुछ अनुभूत स्वप्न
एक महिला का पुत्र बहुत बुरी स्थिति में दिल्ली के एक अस्पताल में दाखिल था। महिला स्वयं बीमारी के कारण बिस्तर से लगी थीं। उसे एक रात स्वप्न में दिखाई दिया कि उसके गले की मोती की माला टूट गई है। मोती बिखर गए हैं। नींद खुली तो उसने देखा कि माला टूटी हुई थी। बहुत ढूंढने पर भी मोती पूरे नहीं मिले। ठीक उसी समय अस्पताल में उसके युवा पुत्र ने अपने प्राण त्याग दिए थे।
जालंधर के एक व्यक्ति की पत्नी की छाती के कैंसर का ओपरेशन हो रहा था। उसे स्वप्न में दिखाई दिया कि कुछ लोग उन्हें मारने को दौडे़ चले आ रहे हैं। वह भाग रहा और लोग पीछा कर रहे हैं।
अचानक वह अस्पताल के निकट फ्लाई-ओवर पर चढ़ जाता है। स्वयं फिर वह अपने घर (जालंधर) के पास पहुंचा हुआ पाता है। वे लोग अब भी उसका पीछा कर रहे हैं। आस-पास के लोग उन्हें बचाने की कोशिश करते हैं और वह खुद भाग कर घर में छुपने की कोशिश करता है और नींद टूट जाती है। फिर उसने एक अच्छे दैवज्ञ से सलाह ली। स्वप्न का फल यही समझा गया कि उसकी पत्नी स्वस्थ हो जाएगी। यह बात अप्रैल 1980 की है। उसकी पत्नी आज भी जीवित और स्वस्थ है। लेकिन उस व्यक्ति का अचानक हृदय गति रुक जाने से जनवरी 1989 में देहांत हो गया।
इस तरह स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में आने वाली दुर्घटनाओं, उन्नति और शुभ समय के आगमन से संबंधित स्वप्न कई बार सच्चे साबित हो जाते हैं।
स्वप्न फल विचार
जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में कोई असाधारण परिस्थिति होती है, स्वप्न आते हैं। कुछ विशिष्ट स्वप्न याद भी रहते हैं। ब्रह्म मुहूर्त के स्वप्न अक्सर सच भी होते हैं। रात के प्रथम, द्वि तीय अथवा तृतीय प्रहर में दिखने वाले स्वप्न लंबे समय के बाद सच होते हुए पाए जाते हैं।
स्वप्नों के विषय में कुछ प्रतीकों को हमारी लोक संस्कृति में मान्यता प्राप्त है, जो इस प्रकार हैं।
किसी की मृत्यु देखना -उसकी लंबी आयु होना।
सीढ़ी चढ़ना - उन्नति
आकाश में उड़ना - उन्नति
सर्प अथवा जल देखना - धन की प्राप्ति
बीमार व्यक्ति द्वारा काला सर्प देखना - मृत्यु
सिर मुंडा देखना - मृत्यु
स्वप्न में भोजन करना - बीमारी
दायां बाजू कटा देखना - बड़े भाई की मृत्यु
बायां बाजू कटा देखना - छोटे भाई की मृत्यु
पहाड़ से नीचे गिरना - अवनति
स्वयं को पर्वतों पर चढ़ता देखना- सफलता, विद्यार्थी का स्वयं को फेल होते देखना - सफलता, कमल के पत्तों पर खीर खाते हुए देखना - राजा के समान सुख, अतिथि आता दिखाई देना - अचानक विपत्ति, अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देना - कष्ट या मानहानि, स्वयं को मृत देखना - आयु वृद्धि, आत्म हत्या करना - दीर्धायु, उल्लू दिखाई देना रोग व शोक, आग जलाकर उसे पकड़ता हुआ देखना - अनावश्यक व्यय, ओपरेशन होता दिखाई देना - किसी बीमारी का सूचक, इमारत बनती दिखाई देना - धन लाभ व तरक्की, खुद को कैंची चलाता देखना। व्यर्थ के वाद विवाद व लड़ाई झगड़ा, कौआ बोलता दिखाई देना - किसी बीमारी या बुरे समाचार का सूचक, इमारत बनती दिखाई देना - धन लाभ व तरक्की, कबूतर दिखाई देना - शुभ समाचार का सूचक, काला नाग दिखाई देना - राजकीय सम्मान, कोढ़ी दिखाई देना- रोग सूचक, कोयला देखना- झगड़ा, श्मशान या कब्रिस्तान देखना - प्रतिष्ठा में वृद्धि, गोबर देखना- पशुधन लाभ, ग्रहण देखना - रोग व चिंता, गोली चलता देखना- मनोकामना पूर्ति, गरीबी देखना -सुख समृद्धि, गर्भपात देखना - गंभीर रोग, शुक्र तारा देखना - शीध्र विवाह, स्वयं रोटी बनाना - रोग, स्वयं को नंगा देखना - मान प्रतिष्ठा की हानि, कष्ट, देव दर्शन या देव स्थान दर्शन- लाभदायी, राजदरबार देखना - मृत्यु सूचक, दवाइयां देखना - उत्तम स्वास्थ्य, किसी दम्पति का तलाक - गृह कलह, ताज महल देखना पति - पत्नी के संबंध विच्छेद, नाई से हजामत बनवाना - अशुभ, पति पत्नी का मिलन - दाम्पत्य सुख, सूखी लकड़ियां देखना - मृत्यु सूचक, किसी कैदी या अपराधी को देखना - अशुभ प्यार, भंडारा कराते देखना - धन लाभ, सगाई देखना - अशुभ, सूखा वृक्ष/ठूठ दिखाई देना - अशुभ प्यार, तोता या तितली दिखाई देना - लाभप्रद।
इसी प्रकार स्वप्न में दांत टूटना - दुख, झंझट, दरवाजा देखना - बड़े व्यक्ति से मित्रता, दरवाजा बंद देखना - परेशानियां, दलदल देखना - व्यर्थ की चिंता में वृद्धि, सुपारी देखना - रोग मुक्ति, धुआं देखना - हानि एवं विवाद, रस्सी देखना - यात्रा, रूई देखना - स्वस्थ होना, खेती देखना - लापरवाह या संतान प्राप्ति, भूकंप देखना - संतान कष्ट, दुख, सीढ़ी देखना - सुख संपत्ति में वृद्धि, सुराही देखना - बुरी संगत, चश्मा लगाना - विद्वत्ता में वृद्धि, खाई देखना - धन एवं प्रसिद्धि की प्राप्ति, कैंची देखना - गृह कलह, कुत्ता देखना - उत्तम मित्र की प्राप्ति कलम देखना - महान पुरुष के दर्शन, टोपी देखना - दुख से मुक्ति, उन्नति, धनुष खींचना - लाभप्रद यात्रा, कीचड़ में फंसना - कष्ट, व्यय, गाय या बैल देखना- मोटे से लाभ, दुबले से प्रसिद्धि, घास का मैदान देखना - धन की वृद्धि, घोड़ा देखना - संकट से बचाव, घोड़े पर सवार होना - पदोन्नति, लोहा देखना - किसी धनी से लाभ, लोमड़ी देखना - किसी संबंधी से धोखा, मोती देखना - कन्या की प्राप्ति, मुर्दे का पुकारना - विपत्ति एवं दुख, मुर्दे से बात करना - मुराद पूरी होने का संकेत, बाजार देखना - दरिद्रता से मुक्ति, बड़ी दीवार देखना - सम्मान की प्राप्ति, दीवार में कील ठोकना - किसी वृद्ध से लाभ, दातुन करना - पाप का प्रायश्चित व सुख की प्राप्ति, खूंटा देखना - धर्म में रुचि, धरती पर बिस्तर लगाना - दीर्घायु की प्राप्ति, सुख में वृद्धि, उंचे स्थान पर चढ़ना - पदोन्नति व प्रसिद्धि, बिल्ली देखना -चोर या शत्रु भय, बिल्ली या बंदर का काटना - रोग व अर्थ संकट, नदी का जल पीना - राज्य लाभ व परिश्रम, सफेद पुष्प देखना - दुख से मुक्ति, लाल फूल देखना - पुत्र सुख, भाग्योदय, पत्थर देखना - विपत्ति, मित्र का शत्रुवत व्यवहार, तलवार देखना - युद्ध में विजय, तालाब या पोखरे में स्नान करना - संन्यास की प्राप्ति, सिंहासन देखना - अतीव सुख की प्राप्ति, जंगल देखना - दुख से मुक्ति व विजय की प्राप्ति, अर्थी देखना - रोग से मुक्ति व आयु में वृद्धि, जहाज देखना - परेशानी दूर होना या व्यय होना, चांदी देखना - धन व अहंकार में वृद्धि, झरना देखना

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 16 02 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 16 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 16 02 2016

future for you astrological news panchang 16 02 2016

Monday 15 February 2016

षट्कर्म साधन

एक मित्र को विदेष में सरकार से कुछ समस्या हो गई। वहां का सरकारी कर्मचारी उनके पक्ष में हो जाए उनके लिए दिल्ली में बगुलामुखी अनुश्ठान करवाया। जैसे ही अनुश्ठान पूर्ण हुआ, वह कर्मचारी मित्र के पक्ष में बोलने लगा और कुछ ही दिनों में समस्या पूर्ण रूप से हल हो गई। एक और मित्र के रिष्तेदार को गंभीर स्वास्थ्य समस्या हो गई, उनके लिए महामृत्युंजय अनुश्ठान कराया और उनका असाध्य रोग छूमंतर हो गया। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हैं जबकि अनुश्ठान का फल आश्चर्यजनक रूप में प्राप्त हुआ है। भारतीय वेद शास्त्रों में अनेक प्रकार के अनुष्ठान आदि बताए गए हैं, किसी को अपनी ओर आकर्शित करने से लेकर उसे स्तंभित करने या उसे अपने पक्ष में कर लेने तक। सभी मंत्र-तंत्र-यंत्र में षट्कर्मों की साधना बताई गई है।
यथा-
1.शांति कर्म- मंगल प्रदायक, कल्याणकारी कोई भी कार्य जैसे - शरीर व मन के रोगों की शांति, क्लेश की शांति, उपद्रवों की समाप्ति, ग्रह-बाधा के कुप्रभावों की समाप्ति, आपत्ति व कष्ट निवारण, पाप विमोचन, ऋद्धि, सिद्धि या सुख-शांति के उपाय व दरिद्रता निवारण इत्यादि की साधना को शांति कर्म कहते हैं।
2.मोहन,आकर्षण,वाशिकर्ण- किसी को अपनी तरफ मोहित कर लेना मोहन कर्म है। किसी को आकृष्ट कर अनुकूल बनाकर अपना काम करवा लेना आकर्षण कहा गया है। किसी को शुभ या अशुभ कार्य करने के लिए प्रयोजन पूर्वक वशीभूत कर देना वशीकरण है।
3.स्तंभन कर्म-किसी की चाल-ढाल को बंद कर देना। सजीव या निर्जीव को जहां का तहां रोक देना, बंधन में डाल देना, निष्क्रिय या स्थिर कर देना, शत्रु के अस्त्र-शस्त्र को रोक देना, अग्नि के तेज को रोक देना, विरोधी की जीभ, मुख आदि को रोक देना इत्यादि स्तम्भन कर्म कहलाता है।
4.उच्चाटन कर्म- किसी के मन में शंका पैदा कर भयभीत या भ्रमित बनाकर भगा देना या स्थानांतरित कर देना उच्चाटन होता है। साध्य व्यक्ति मारा-मारा फिरता है। पागल की तरह हो जाता है। घर-स्थान छोड़कर भाग जाता है।
5.विद्वेषण कर्म-किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति से अलग करना, किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच कलह-क्लेश उत्पन्न करवाकर एक दूसरे का शत्रु बना देना विद्वेषण कर्म कहलाता है।
6.मारण कर्म- किसी का प्राण हरण कर उसका जीवन समाप्त कर देना या करवा देना। मरण तुल्य कष्ट देना मारण कर्म कहलाता है।
प्रथम तिन कर्म समान्यत: अपने कष्ट निवारण हेतु किए जाते हैं। इनमें दूसरे के प्रति कोई विद्वेषण की भावना नहीं होती। लेकिन आखिरी तीन कर्म विद्वेषण की भावना से ही किए जाते हैं अतः उनका प्रयोग सर्वदा वर्जित ही है। उपरोक्त सभी साधनाएं अनुष्ठान रूप में किसी ब्राह्मण द्वारा कराई जानी चाहिए। इन प्रयोगों में आवष्यक है कि अनुश्ठान करने वाला ब्राह्मण सदाचारी रहे। जातक के प्रति उसकी सद्भावना हो। सभी साधनाएं निश्चित मात्रा में (प्रायः सवा लाख) मंत्र जप द्वारा उनके यंत्रों को प्रतिष्ठित कर की जाती है। तदुपरांत हवन, मार्जन व तर्पण कर अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है। प्रतिष्ठित यंत्र को कार्य पूर्ण होने तक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है। कार्य सिद्ध होने के बाद यंत्र को विसर्जित कर दिया जाता है।
विभिन्न कार्यों के लिए कौन सा मन्त्र एवं यंत्र उपयोग में लाना चाहिए
कार्य का आरम्भ करने हेतु- ऊँ गं गणपतये नमः।। यंत्र - गणेश यंत्र
सम्पूर्ण विद्याओं की प्राप्ति हेतु- विद्याः समस्तास्तव देवि ! भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः।। यंत्र - सरस्वती यंत्र
रोग नाश के लिए महामृत्युंजय मन्त्र: सर्वबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः।। यंत्र - बाधामुक्ति यंत्र ऊँ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।। यंत्र - महामृत्युंजय यंत्र ऊँ
आराध्य रोग नाश हेतु -हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः ऊँ तत्सवितुर्वरेण्यं त्रयम्बकं यजामहे भर्गो देवस्य धीमहि सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। धियो यो नः प्रचोदयात् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।। ऊँ स्वः भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। यंत्र - महामृत्युंजय यंत्र
पाप नाश/पितरों की शांति हेतु गायत्री मन्त्र - ऊँ भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।। यंत्र - गायत्री यंत्र
बंगलामुखी मन्त्र- ऊँ हिम् बगुलामुखी सर्वदुष्टानां वाचम् मुखं पदम् स्तम्भय जीह्नाम् कीलय बुद्धिम् विनाशय हिम् ऊँ स्वाहा। यंत्र - बगलामुखी यंत्र
विशेष कष्ट निवारण हेतु दुर्गा मंत्र- ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं दुं उत्तिष्ठ पुरुषि किं स्वपिशि भयं मे समुपस्थितम्। यदि शक्यं अशक्यं वा तन्ये भगवति शमय स्वाहा।। यंत्र - वन दुर्गा यंत्र
रक्षा पाने के लिए: शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टा स्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च।। यंत्र - राम रक्षा यंत्र
समस्या निदान हेतु- शरणागतदीनार्तंपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि, नारायणि नमोस्तु ते।। यंत्र - दुर्गा बीसा यंत्र
भय निवारण हेतु -सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि ! दुर्गे देवि नमोस्तु ते।। यंत्र - काली यंत्र
बटुक भैरव मन्त्र: ऊँ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं। यंत्र - बटुक भैरव यंत्र
आकर्षण के लिए- ऊँ क्लीं ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।। यंत्र - आकर्षण यंत्र
वशीकरण के लिए- महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्। ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।। यंत्र - वशीकरण यंत्र
कालसर्प शांति हेतु- ऊँ क्रौं नमो अस्तु सर्पेभ्यो कालसर्प शांति कुरु-कुरु स्वाहा। यंत्र - कालसर्प यंत्र
शनि दोष निवारण हेतु- नीला जन समाभासं रविपुत्रां यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।। यंत्र - शनि यंत्र
धन प्राप्ति के लिए- श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्म्यै नमः।। यंत्र - श्रीयंत्र:
वर प्राप्ति के लिए- कात्यायनि महाभाये महायोगिन्य धीश्वरि! नन्दगोपसुतं देवं पतिं मे कुरु ते नमः।। यंत्र - कात्यायनि यंत्र
मनोवांछित पत्नी प्राप्ति हेतु- पत्नीं मनोरमां देहि, मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्।। यंत्र - मातंगी यंत्र
पुत्र प्राप्ति हेतु- ऊँ देवकीसुतगोविंद वासुदेवजगत्पते। देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः।। यंत्र - संतान गोपाल यंत्र
हनुमान यंत्र- ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः। आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा।। यंत्र - हनुमान यंत्र, काली यंत्र विद्वान का परामर्श लेकर मंत्र चयन कर विधिवत रूप से अनुष्ठान करवाना चाहिए। निष्ठापूर्वक कर्म करने पर फल अवश्य प्राप्त होगा।

future for you astrological news nadi dosh ki vyakhya 15 02 2016

future for you astrological news swal jwab 1 15 02 2016

future for you astrological news swal jwab 15 02 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 15 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 15 02 2016

future for you astrological news panchang 15 02 2016

Sunday 14 February 2016

तंत्र क्या है ?????

समस्त वर्ण, अक्षर, मातृका को ‘मंत्र’ एवं इसके संयोग-वियोग तथा साधना की क्रिया को ‘तंत्र’ कहते हैं। संस्कृत शब्दकोष के अनुसार, अति मानव शक्ति प्राप्त करने के लिए, शीघ्र ही फलीभूत होने वाली क्रिया ‘तंत्र’ कहलाती है।  तंत्र शास्त्र की उत्पत्ति कब हुई, यह कहना कठिन है। प्राचीन स्मृतियों में 14 विद्याओं का उल्लेख मिलता है, किंतु उसमें तंत्र का उल्लेख नहीं पाया गया है। इस कारण तंत्र शास्त्र को प्राचीन काल में विकसित शास्त्र नहीं माना जा सकता। पहली बार ‘नृसिंहतायनीयोपनिषद’ में तंत्र  संबंधी बातों का उल्लेख मिलता है।
तंत्र अनेक संप्रदायों में, भिन्न-भिन्न रूपों में, प्रचलित रहा। वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य, बौद्ध, जैन एवं मुस्लिम तंत्र प्रमुख हैं। 10 शैवागम, 28 रुद्रागम एवं 64 भैरवागम प्रसिद्ध हैं। तंत्र में मंत्र साधना प्रमुख है। मंत्रों के द्वारा साधना प्रक्रिया का पूर्ण रूप से दिव्य प्रतिपादन किया जाता है तथा मानव जाति को सभी प्रकार के भयों से छुटकारा दिलाने के लिए तंत्र का उपयोग किया जाता है। यंत्रों का प्रयोग भी अनेक रूपों में किया जाता है, जैसे बगलामुखी, वशीकरण, महामृत्युंजय, भैरव आदि विभिन्न प्रकार के यंत्र तंत्र सिद्धियों के लिए प्रायः उपयोग में लाये जाते हैं।
तंत्र, मंत्र एवं यंत्र तीनों ही, एक प्रकार से, एक दूसरे के पूरक हैं। तंत्र के द्वारा जो कार्य किया जाता है, वह मंत्र द्वारा, यंत्र का आधार ले कर, किया जाता है। यंत्र को प्रत्यक्ष रूप में सिद्ध कर के दूसरे को दिया जा सकता है, जबकि तंत्र, या मंत्र को प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिया जा सकता। तंत्र में अनेक मंत्र विधाएं स्वयंसिद्ध मानी गयी हैं। तंत्र शास्त्र में मंत्रों की कई जातियां पायी जाती हैं। ‘शारदातिलक’ में इसकी परिपूर्ण विवेचना पद्धति प्रस्तुत की गयी है। इसी क्रम में यह भी बताया गया है कि शाबर जैसी कुछ तंत्र सिद्धियां कलि युग में सिद्ध मानी गयी हैं तथा वे सभी के लिए उपयोगी भी हैं।
तंत्र क्रिया पूर्व काल में जादू-टोना, काम-क्रीड़ा, दुआ-ताबीज, औषधि निर्माण आदि से संबंधित थी। वर्तमान परिवेश में संकट, अड़चन, दुखों आदि से मुक्ति और प्रेम तथा धन आदि के लिए तंत्र का अधिक उपयोग किया जा रहा है।  तंत्र के आगम शास्त्र में उद्धृत लक्षणों से जो गुरु हों, उनसे विधानपूर्वक दीक्षा ग्रहण करने का प्रस्ताव भी दिया गया है। एक ओर जहां मंत्रों के खंड में नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म एवं काम्य कर्म की विवेचना है, वहीं दूसरी ओर तंत्र में मात्र नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों की ही अधिक विवेचना प्रतिपादित है। तंत्र शास्त्र में षट्कर्मों (शांति, वश्य, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण)
की व्याख्या एवं प्रयोग की भी अधिक विवेचना दी गयी है।
तंत्र शास्त्र को मुख्यतः शिवप्रणीत माना जाता है, जो 3 भागों में विभक्त है- प्रथम आगम तंत्र, द्वितीय यामल तंत्र एवं तृतीय वाराही तंत्र। इनके अंतर्गत क्रमशः सृष्टि, प्रलय एवं देवोपासना का प्रावधान है। आगम में षट्कर्म एवं 4 प्रकार के ध्यान-योगों का वर्णन पाया जाता है।  यामल तंत्र में सृष्टि तत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम सूत्र, वर्ण भेद एवं युग धर्म का वर्णन दिया गया है। इसी के अंतर्गत व्यवहार तथा अध्यात्म नियम भी प्रतिपादित हंै। वाराही तंत्र में सृष्टि, लय, मंत्र निर्णय, तीर्थ, व्यवहार, तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन है। इसी क्रम में तांत्रिकों को 7 कोटियों में विभक्त किया गया है, जो इस प्रकार हंै - देवाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार एवं कौलाचार। धर्म 4 हैं, जिनमें से 1 है शाक्त धर्म। इसी शाक्त धर्म से संबंधित बातों का प्रतिपादन तंत्र शास्त्र में अधिक पाया जाता है। धर्म गं्रथों के अनुसार शिव ने वैदिक क्रियाओं को कीलित कर रखा है। भगवती उमा के आग्रह से शिव ने कलि युग के लिए तंत्र का निर्माण किया।
जब कोई तंत्र साधक किसी अन्य जातक के लिए कोई अभिचारादि कर्म करता है, तो वह तंत्रकत्र्ता के आसपास एक विशेष प्रकार के पर्यावरण को निर्मित करता है। कुछ समय पश्चात् यह पर्यावरण शक्ति, आकाशीय ऊर्जा के माध्यम से, ऊपर की ओर उठती हुई, अपने निश्चित मार्ग में गमन करती हुई, अपने लक्ष्य तक की यात्रा तय करती है। जब यह पर्यावरण उस जातक के पास पहुंचता है, तो जातक को प्रभावित करने लगता है, जिसे सामान्य लोग टोने, टोटके, एवं चमत्कार के नाम से जानते हैं। तंत्र के अनुसार इस शास्त्र के सिद्धांत बहुत ही गुप्त रखे जाते हैं। यदि वर्तमान स्थिति को देखा जाए, तो हिंदू धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म में तंत्र साधक कहीं अधिक पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी मत में भी इस विद्या का अधिक प्रचार-प्रसार देखा जा सकता है। तंत्र विस्तार का पर्यायवाची है। तंत्र एक क्रिया की विद्या है। यह शक्ति नहीं है। तंत्र की क्रियाएं ही मानव की शक्ति में वृद्धि लाने का कार्य करती हैं।
भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से जिन्हें सिद्धियां कहते हैं, या मानते हैं, वे साधना में प्रकट होने वाली विभूतियां हैं। जब कोई साधक तंत्र साधना करता है और उसी पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, तो कालांतर में यह क्रिया साधक में ध्यानाकर्षण की वृद्धि करती है। यही आगे चल कर अनेक घटनाओं की सूचनादि प्राप्त करने में साधक की मदद करती है। तंत्र में अभिचार एवं वशीकरण, मारणादि का उपयोग अशुभ माना गया है। यदि स्वार्थवश  तंत्र का दुरुपयोग किया जाता है, तो साधक का विनाश होता है। अतः तंत्र संबंधी साधनाएं गुरु के मार्गदर्शन से करने की सलाह दी जाती है। इसका दुरुपयोग करना सदा ही वर्जित कहा गया है।

दस महाविद्या: शक्ति एवं साधन

आदि ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है जो विभिन्न शक्तियों की दाता हैं। व्यक्ति आवष्यकतानुसार शक्ति प्राप्त करने हेतु उस महाविद्या के मूल मंत्र द्वारा महाविद्या की साधना कर सकता है और अभीष्ट फल प्राप्त कर सकता है। विभिन्न महाविद्याओं की शक्तियां एवं मूल मंत्र निम्नलिखित हैं-
देवी महाकाली महाविद्या- देवी काली काम रुपिणी है। महाकाली साधना के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आंतरिक हों या बाहरी। इस साधना के द्वारा साधक उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वह शक्ति स्वरूप है, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती है। इनकी साधना को बीमारी नाश, दुष्ट आत्मा व दुष्ट ग्रह से बचने के लिए, अकाल मृत्यु के भय से बचने के लिए, वाक सिद्धि के लिए तथा कवित्व के लिए किया जाता है। मंत्र-ऊँ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहाः
देवी तारा महाविद्या- तारा को तारिणी भी कहा गया है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वर्णाभूषणों का उपहार देती है। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या है। तारा साधना को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैं, वहीं उसके अंदर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता है। इनकी साधना से वाक सिद्धि तो अतिशीघ्र प्राप्त होती है साथ ही साथ तीव्र बुद्धि रचनात्मकता, डाॅक्टर, इंजीनियर, काव्य संबंधीं गुणों का उन्मेष होता है। तारा शत्रु को जड़ से खत्म कर देती है। मंत्र-ऊँ ह्रीं स्रीं हुं फट
षोडशी त्रिपुर सुंदरी महाविद्या- जिस काम में देवता का चयन करने में कोई दिक्कत हो तो देवी त्रिपुर सुंदरी की उपासना कर सकते हैं। यह भोग और मोक्ष दोनों ही साथ-साथ प्रदान करती है। त्रिपुर सुंदरी साधना मन, बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती है, जिससे वह शक्ति जाग्रत होती है। भू, भुवः, स्वः ये तीनों लोक इसी महाशक्ति से उद्भूत हुए हैं, इसीलिए इसे त्रिपुर सुंदरी कहा जाता है। गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरुष प्राप्ति हेतु इस साधना का विशेष महत्व है। मनोवांछित कार्य-सिद्धि के लिए भी यह साधना उपयुक्त है। मंत्र-ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमःः
देवी भुवनेश्वरी महाविद्या-भुवन अर्थात् इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो ‘ह्रीं’ बीज मंत्र धारिणी हैं। वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी अधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती है। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यंत विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतद्वात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीति प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उŸाम मानी गयी है। इस महाविद्या की आराधना एवं साधना करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। मंत्र-ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं नमः
देवी छिनमस्ता महाविद्या- यह देवी शत्रु का तुरंत नाश करने वाली, वाक सिद्धि देने वाली, रोजगार में सफलता, नौकरी में पदोन्नति के लिए कोर्ट के केस से मुक्ति दिलाने में सक्षम, सरकार को आपके पक्ष में करने वाली, कुंडली-जागरण में सहायक, पति-पत्नी को तुरंत वश में करने वाली चमत्कारी देवी है। शत्रु हावी हांे, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह साधना अत्यंत प्रभावी है। इस साधना द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारंभ हो जाता है। मंत्र-श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहाः
देवी भैरवी महाविद्या-जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ वशीकरण, आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। सुंदर पति या पत्नी की प्राप्ति के लिए, प्रेम विवाह, शीघ्र विवाह, प्रेम में सफलता के लिए भैरवी देवी साधना करनी चाहिए।माता भैरवी साधना से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्ति होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्य भी पूर्ण हो जाते है। मंत्र-ऊँ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहाः
देवी धुमावती महाविद्या- हर प्रकार की दरिद्रता के नाश के लिए, तंत्र-मंत्र के लिए, जादू-टोना, बुरी नजर और भूत-प्रेत आदि समस्त भयों से मुक्ति के लिए, सभी रोगों के लिए, अभय प्राप्ति के लिए, साधना में रक्षा के लिए, जीवन में आने वाले हर प्रकार के दुःखों का निदान करने वाली देवी है। आये दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता हो या शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती हो, तो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता है, जिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। यदि किसी प्रकार की तंत्र-बाधा या प्रेत बाधा आदि हो, तो तंत्र-मंत्र-यंत्र इस साधना के प्रभाव से वह भी क्षीण हो जाती है। मंत्र-ऊँ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहाः
देवी बंगलामुखी महाविद्या- बगलामुखी महाविद्या भगवान विष्णु की संहारक शक्ति है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई साधना नहीं है। इसके प्रभाव से रुका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैं, जो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है। वाक-्शक्ति से तुरंत परिपूर्ण करने वाली, शत्रु का नाश, कोर्ट कचहरी में विजय, हर प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता के लिए, सरकारी कृपा के लिए मां बगलामुखी की साधना करें। इस विद्या का उपयोग तभी किया जाता है जब और कोई रास्ता न बचा हो। मंत्र-ऊँ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ऊँ नमः दूसरा मंत्र-ऊँ ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचंमुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय हुं फट् स्वाहा।
देवी मातंगी महाविद्या- घर गृहस्थी में आने वाले सभी विघ्नों को हरने वाली है। जिसकी शादी न हो रही हो, संतान प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति के लिए या किसी भी प्रकार की गृहस्थ जीवन की समस्या के दुख हरने के लिए देवी मातंगी की साधना उत्तम है। इनकी कृपा से स्त्रियों का सहयोग सहज ही मिलने लगता है चाहे वह स्त्री किसी भी वर्ग की क्यों न हो। जीवन में सरसता, आनंद, भोग-विलास, प्रेम, सुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी साधना अत्यंत उपयुक्त मानी जाती है। मंत्र-ऊँ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहाः
देवी कमला महाविद्या-इस संसार में जितनी भी सुदंर लड़किया हैं, सुंदर वस्तु, पुष्प आदि हैं, ये सब कमला महाविद्या का ही सौंदर्य है। हर प्रकार की साधना में रिद्धि-सिद्धि दिलाने वाली, अखंड धन धान्य प्राप्ति, ऋण का नाश और महालक्ष्मी जी की कृपा के लिए कमल पर विराजमान देवी कमला की साधना करें। प्रत्येक महाविद्या साधना अपने आप में ही अद्वितीय है। साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी साधना कर सकते हैं। एक महाविद्या की साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का द्वार खुल जाता है और वह एक-एक करके सभी साधनाओं में सफल होता हुआ पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है। मंत्र-ऊँ ह्रीं अष्ट महालक्ष्म्यै नमः। नवरात्रों में महाविद्या की उपासना शीघ्र फलदायी है। अतः इन दिनों में इच्छित महाविद्या का सवा लाख मंत्र जप व दशांश का हवन करने से इच्छित फल प्राप्त होता है।

शंख और उसकी उपयोगिता



शंख का पूजा में महत्व
शंखों का हिंदू धर्म संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विशेष महत्व रहा है। अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है। श्री विष्णु के चार आयुधों में शंख को भी स्थान प्राप्त है। शंख पूजन से दरिद्रता निवारण, आर्थिक उन्नति, व्यापारिक वृद्धि और भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। पूजा, यज्ञ एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर शंखनाद हमारी परंपरा में है। शंख-ध्वनि के बिना कोई पूजा संपन्न नहीं मानी जाती। मंदिरों में नियमित रूप से और घरों में पूजा-पाठ, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, कथाओं, जन्मोत्सव के अवसरों पर शंख बजाया जाता है। शंख से निकलने वाली वाली ध्वनितरंगों में हानिकारक वायरस को नष्ट करने की क्षमता होती है। शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इससे आशा, आत्मबल, शक्ति व दृढ़ता बढ़ती है व भय दूर होता है।
दक्षिणावर्ती शंख की उपयोगिता
दक्षिणावर्ती शंख से लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है- इसके बिना लक्ष्मी जी की पूजा-आराधना सफल नहीं मानी जाती। दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर गर्भवती स्त्री को सेवन कराने से संतान स्वस्थ व रोग मुक्त होती है। दक्षिणावर्ती शंख से पितृ तर्पण करने पर पितरो की शांति होती है। दक्षिणावर्ती शंख से शालिग्राम व स्फटिक श्रीयंत्र को स्नान कराने से व्यवहायिक जीवन सुखमय और लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। चंद्र ग्रह की प्रतिकूलता से होने वाले श्वास व हृदय रोगो की शांति के लिए इसकी नित्य पूजा करे | दक्षिणावर्ती शंख की स्थापना से वास्तु दोषों का निवारण होता है।
पूजा में शंख क्यूँ बजाया जाता है
समुद्र मंथन के समय मिले 14 रत्नों में से एक रत्न शंख भी है। शंख में ओम की ध्वनि प्रतिध्वनित होती है, इसलिए ओम् से ही वेद बने और वेद से ज्ञान का प्रसार हुआ। शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देव स्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा व सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है। आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मांड एवं शंख की आकृति समान है शंख के अंदर का घेरा ब्रह्मांड की कुंडली की तरह होता है। शंख में गूंजने वाला स्वर ब्रह्मांड की गूंज के समान है। ऊँ शब्द की गूंज भी शंख के द्वारा गूंजायमान ध्वनि जैसी ही होती है।
शंखों की आयुर्वेद में उपयोगिता
वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके प्रभाव से सूर्य की हानिकारक किरणें बाधित होती हैं। शंख नाद करने पर जहां तक इसकी ध्वनि जाती है, वहां तक व्याप्त बीमारियों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे मौजूद जल सुवासित और रोगाणुरहित हो जाता है। इसी लिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है। बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बांधने व उन्हें शंख-जल पिलाने से वाणी-दोष दूर होते हैं। मूक व श्वास रोगी हमेशा शंख बजाए, तो वे बोलने की शक्ति पा सकते हैं आयुर्वेद के अनुसार हकलाने वाले व्यक्ति यदि नित्य शंख-जल पिएं तो वे ठीक हो जाएंगे। शंख जल स्वास्थ्य, हड्डियों व दांतों के लिए लाभदायक है।
क्या शंख जैविक पदार्थ नहीं हैं ?
शंख समुद्र मे पायें जाने वाले एक प्रकार के घोघें का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। घोघें से इसका निर्माण होने के कारण यह एक समुद्री जैविक पदार्थ है। जैसे- नाखून और बाल मानव शरीर से ही जीवन पाते है। परंतु जैसे ही इन्हे काटकर अलग किया जाता हैं तो ये निर्जीव हो जाते है इसी प्रंकार मूगा रत्न भी एक जैंविक उत्पाद है। यह भी शंख की तरह सामुद्रिक पदार्थ है औंर जब इसे इसकी श्रृखला ं से अलग कर दिया जाता है तब यह बढ़ना बंद कर देता है। शंख भी घोघें से अलग होने पर आकार-वृद्धि करना बंद कर देते है। अतः शंख एक जैविक पदार्थ होते हुए भी अजैविक पदार्थ है।
शंख की मौलिकता की पहचान किस प्रकार की जाती है ?
शंख की मौलिकता की पहचान एक्स-रे द्वारा की जाती है। कभी-कभी शंख के दोषों को दूर करने के लिए कृत्रिम रूप से उसकी पाउडर द्वारा फिलिंग कर दी जाती है या कोने आदि बना दिये जाते हैं। शंख समुद्र की मिट्टी में दबे होते हैं इनकी मिट्टी हटाकर, इन्हें तेजाब से साफ किया जाता है जिससे इनकी वास्तविक चमक प्राप्त होती है। इसके पश्चात् इन्हें गंगाजल से शुद्ध किया जाता है। दु
दुर्लभ शंख ?
दुर्लभ शंख सामान्यतः मालदीव, अंडमान-निकोबार द्व ीपसमूह, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर से प्राप्त होते है। इनका आकार एक मिली मीटर सें लेकर 5 फीट हो सकता है व शंख एक ग्राम से कई लेकर कई किलो तक वजन मे पायें जाते है।
दुर्लभ शंखों के नाम व उपयोगिता
गणेश शंख सर्वाधिक शक्तिशाली शंख है। इस शंख को विद्या-प्राप्ति और सौभाग्य तथा पारिवारिक उन्नति के लिए श्रेष्ठ माना जाता है।्र शंख शनि दोष का निवारण करता है। यह काले रंग का बहुत ही प्रभावशाली शंख है। शनि देव का प्रकोप शांत करके उनकी कृपा-दृष्टि प्राप्त करने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण शंख है। जिन पर शनि साढ़ेसाती, शनि ढैया व शनि महादशा चल रही हो या शुरु होने वाली हो उनको यह शंख अपने साथ रखने चाहिए या इसे सरसों के तेल में डुबोकर घर के मंदिर में रखना चाहिए।: दक्षिणावर्ती शंख धन के देवता कुबेर का शंख है। इस शंख के पूजन से धन, संपत्ति व ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। मोती जैसी आभा वाला मोती शंख दुर्लभ शंख है। यह सौभाग्यवर्द्धक शंखों की श्रेणी में आता है। मोती शंख का पूजन मानसिक अशांति दूर करता है। कौड़ी शंख को संतान, संपत्ति मान-सम्मान, वैवाहिक सुख व ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है। गौमुखी शंख सफेद रंग और पीतवर्ण के विशेष रूप से पाये जाते हैं। गौमुखी शंख की उपासना से सुख, सौभाग्य, सौंदर्य व समृद्धि प्राप्ति होती है। अन्नपूर्णा शंख अपने ज्ञान के अनुरूप फल देता है। यह दिव्य व चमत्कारी शंख है। जिस घर में अन्नपूर्णा शंख स्थापित होता है वह घर अन्न-धन से परिपूर्ण और चंहुमुखी विकास की ओर अग्रसर होता है।