Saturday 5 March 2016

गत्यात्मक दशा पद्धति

इसमें प्रत्येक ग्रह के प्रभाव को अलग-अलग 12 वर्षाें के लिए निर्धारित किया गया है। साथ ही ग्रहों की शक्ति निर्धारण के लिए स्थान बल, दिक् बल, काल बल, नैसर्गिक बल, दृक बल, अष्टक वर्ग बल से भिन्न ग्रहों की गतिज और स्थैतिज ऊर्जा को स्थान दिया गया हैं। भचक्र के 30 प्रतिशत तक के विभाजन को यथेष्ट समझा गया है तथा उससे अधिक विभाजन की आवश्यकता नहीं समझी गयी है। लग्न को सबसे महत्वपूर्ण राशि समझते हुए इसे सभी प्रकार की भविष्यवाणियों का आधार माना गया है। चंद्रमा मन का प्रतीक ग्रह है। जन्म से 12 वर्ष की उम्र तक बालक अपने मन के अनुसार ही कार्य करना पसंद करते हैं। इसलिए इस अवधि को चंद्रमा का दशा काल माना गया है, चाहे उनका जन्म किसी भी नक्षत्र में क्यों न हुआ हो। चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति के निर्धारण के लिए इसकी सूर्य से कोणिक दूरी पर ध्यान देना आवश्यक होगा। यदि चंद्रमा की स्थिति सूर्य से 00 की दूरी पर हो, तो चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत, यदि 900, या 2700 दूरी पर हो, तो चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत और यदि 1800 की दूरी पर हो, तो चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी स्थिति है, के कारण जातक के बाल मन के मनोवैज्ञानिक विकास में बाधाएं उपस्थित होती हंै। यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत हो, तो उन भावों की अत्यधिक स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी स्थिति है, के कारण बचपन में जातक का मनोवैज्ञानिक विकास संतुलित ढंग से होता है। यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत हो, तो उन भावों की अति सहज, सुखद एवं आरामदायक स्थिति, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी स्थिति है, के कारण बचपन में जातक का मनोवैज्ञानिक विकास काफी अच्छा होता है। 5वें-6ठे वर्ष में चंद्रमा का प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। बुध विद्या, बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक ग्रह है। 12 वर्ष से 24 वर्ष की उम्र विद्याध्ययन की होती है, चाहे वह किसी भी प्रकार की हो। इसलिए इस अवधि को बुध का दशा काल माना गया है। बुध की गत्यात्मक शक्ति के निर्धारण के लिए इसकी सूर्य से कोणिक दूरी के साथ इसकी गति पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है। यदि बुध सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो और इसकी गति वक्र हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है। यदि बुध सूर्य से 260-270 के आसपास स्थित हो तथा बुध की गति 10 प्रतिदिन की हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है। यदि बुध सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो और बुध की गति 20 प्रतिदिन के आसपास हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। बुध की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक विद्यार्थी जीवन में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि बुध की शक्ति 0 प्रतिशत हो, तो उन संदर्भोंे की कमजोरियों, जिनका बुध स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक के मानसिक विकास में बाधाएं आती हैं। यदि बुध की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका बुध स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक का मानसिक विकास उच्च कोटि का होता है। यदि बुध की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की आरामदायक स्थिति, जिनका बुध स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक का मानसिक विकास सहज ढंग से होता है। 17वें-18वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। मंगल शक्ति एवं साहस का प्रतीक ग्रह है। युवावस्था, यानी 24 वर्ष से 36 वर्ष की उम्र तक जातक अपनी शक्ति का सर्वाधिक उपयोग करते हैं। इस दृष्टि से इस अवधि को मंगल का दशा काल माना गया है। मंगल की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर किया जाता है। यदि मंगल सूर्य से 1800 की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत, यदि 900 की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत, यदि 00 की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होगी। मंगल की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी युवावस्था में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि मंगल की शक्ति 0 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका मंगल स्वामी है और जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक के उत्साह में कमी आती है। यदि मंगल की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की अत्यधिक स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका मंगल स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका उत्साह उच्च कोटि का होता है। यदि मंगल की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की सुखद एवं आरामदायक स्थिति, जिनका मंगल स्वामी है और जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक की परिस्थितियां सहज होती हैं। 29वें-30वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। शुक्र चतुराई का प्रतीक ग्रह है। 36 वर्ष से 48 वर्ष की उम्र के प्रौढ़ अपने कार्यक्रमों को युक्तिपूर्ण ढंग से अंजाम देते हैं। इसलिए इस अवधि को शुक्र का दशा काल माना गया है। शुक्र की गत्यात्मक शक्ति के आकलन के लिए, सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के साथ-साथ, इसकी गति पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है। यदि शुक्र सूर्य से 00 की दूरी पर हो और इसकी गति वक्र हो, तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है। यदि शुक्र सूर्य से 450 की दूरी के आसपास स्थित हो और इसकी गति प्रतिदिन 10 की हो, तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है। यदि शुक्र की सूर्य से दूरी 00 हो और इसकी गति प्रतिदिन 10 से अधिक हो, तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। शुक्र की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी प्रौढ़ावस्था पूर्व का समय व्यतीत करते हैं। यदि शुक्र की शक्ति 00 हो, तो उन संदर्भों की कमजोरियों, जिनका शुक्र स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक अपनी जिम्मेदारियों का पालन करने में कठिनाई प्राप्त करते हैं। यदि शुक्र की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन संदर्भोें की मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका शुक्र स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक अपनी जिम्मेदारियों का पालन काफी सहज ढंग से कर पाते हैं। 41वें-42वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता है। ज्योतिष की प्राचीन पुस्तकों में मंगल को राजकुमार तथा सूर्य को राजा माना गया है। मंगल के दशा काल 24 से 36 वर्ष में पिता बनने की उम्र 24 वर्ष को जोड़ दिया जाए, तो यह 48 वर्ष से 60 वर्ष हो जाता है। इसलिए इस अवधि को सूर्य का दशा काल माना गया है। एक राजा की तरह ही जनसामान्य को सूर्य के इस दशा काल में अधिकाधिक कार्य संपन्न करने होते हैं। सभी ग्रहों को ऊर्जा प्रदान करने वाले अधिकतम ऊर्जा के स्रोत सूर्य को हमेशा ही 50 प्रतिशत गत्यात्मक शक्ति प्राप्त होती है। इसलिए इस समय उन भावों की स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका सूर्य स्वामी है तथा जिसमें उसी स्थिति है, के कारण उनकी बची जिम्मेदारियोें का पालन उच्च कोटि का होता है। बृहस्पति धर्म का प्रतीक ग्रह है। 60 वर्ष से 72 वर्ष की उम्र के वृद्ध, हर प्रकार की जिम्मेदारियों निर्वाह कर, धार्मिक जीवन जीना पसंद करते हैं। इसलिए इस अवधि को बृहस्पति का दशा काल माना गया है। बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर किया जाता है। यदि बृहस्पति सूर्य से 1800 की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत, 900 की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत तथा यदि 00 की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होगी। बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपने वृद्ध जीवन में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि बृहस्पति की शक्ति 0 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका बृहस्पति स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका जीवन निराशाजनक बना रहता है। यदि बृहस्पति की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका बृहस्पति स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण अवकाश प्राप्ति के बाद का जीवन उच्च कोटि का होता है। यदि बृहस्पति की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की आरामदायक स्थिति, जिनका बृहस्पति स्वामी है और जिसमें इसकी स्थिति है, के कारण जातक की परिस्थितियां वृद्धावस्था में काफी सुखद होती हैं। प्राचीन ज्योतिष के कथनानुसार ही शनि को, अतिवृद्ध ग्रह मानते हुए, जातक के 72 वर्ष से 84 वर्ष की उम्र तक का दशा काल इसके आधिपत्य में दिया गया है। शनि की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर ही किया जाता है। यदि शनि सूर्य से 1800 की दूरी पर हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है। यदि शनि सूर्य से 900 की दूरी पर स्थित हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है। यदि शनि सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है। शनि की शक्ति के अनुसार ही जातक अति वृद्धावस्था में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं। यदि शनि की शक्ति 0 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका शनि स्वामी है, या जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण अति वृद्धावस्था का उनका समय काफी निराशाजनक होता है। यदि शनि की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की अत्यधिक मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका शनि स्वामी है, या जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका यह समय उच्च कोटि का होता है। यदि शनि की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की अति सुखद एवं आरामदायक स्थिति, जिनका शनि स्वामी हो, या जिसमें उसकी स्थिति हो, के कारण, वृद्धावस्था के बावजूद, उनका समय काफी सुखद होता है। इसी प्रकार जातक का उत्तर वृद्धावस्था का 84 वर्ष से 96 वर्ष तक का समय यूरेनस, 96 से 108 वर्ष तक का समय नेप्च्यून तथा 108 से 120 वर्ष तक का समय प्लूटो के द्वारा संचालित होता है। यूरेनस, नेप्च्यून एवं प्लूटो की गत्यात्मक शक्ति का निर्धारण भी, मंगल, बृहस्पति और शनि की तरह ही, सूर्य से इसकी कोणात्मक दूरी के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार इस दशा पद्धति में सभी ग्रहों की एक खास अवधि में एक निश्चित भूमिका होती है। विंशोत्तरी दशा पद्धति की तरह एक मात्र चंद्रमा का नक्षत्र ही सभी ग्रहों को संचालित नहीं करता है। इस पद्धति के जन्मदाता श्री विद्या सागर महथाजी पेटखार, बोकारो निवासी हैं, जिन्होंने इस पद्धति की नींव जुलाई 1975 में रखी। ग्रहों की गत्यात्मक शक्ति के रहस्य की खोज 1981 में हुई। इस दशा पद्धति का संपूर्ण गत्यात्मक विकास 1987 जुलाई तक होता रहा। 1987 जुलाई के पश्चात अब तक हजारों कुंडलियों में इस दशा पद्धति की प्रायोगिक जांच हुई और सभी जगहों पर सफलता ही मिली। आज गत्यात्मक दशा पद्धति किसी भी कुंडली को ग्रहों की शक्ति के अनुसार लेखाचित्र में अनायास रूपांतरित कर सकती है। ‘गत्यात्मक दशा पद्धति’ की जानकारी के पश्चात् किसी भी व्यक्ति के जीवन की सफलता-असफलता, सुख-दुख, महत्वाकांक्षा, कार्यक्षमता एवं स्तर को लेखाचित्र में ईस्वी के साथ अंकित किया जा सकता है। जीवन में अकस्मात् उत्थान एवं गंभीर पतन को भी ग्राफ से निकाला जा सकता है। सभी ग्रह, अपनी अवस्था विशेष में कुंडली में प्राप्त बल और स्थिति के अनुसार, अपने कार्य का संपादन करते हैं। लेकिन इन 12 वर्षों में भी समय-समय पर उतार-चढ़ाव आना तथा छोटे-छोटे अंतरालों के बारे में जानकारी इस पद्धति से संभव नहीं है। 12 वर्ष के अंतर्गत होने वाले उलट-फेर का निर्णय ‘लग्न सापेक्ष गत्यात्मक गोचर प्रणाली’ से करें, तो दशा काल से संबंधित सारी कठिनाइयां समाप्त हो जाएंगी। इन दोनों सिद्धांतों का उपयोग होने से ज्योतिष विज्ञान दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति के पथ पर होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

ज्योतिष के आधार पर इच्हित संतान कैसे ????

ज्योतिष सिद्धांत से जन्मपत्रिका में उपलब्ध ग्रहों, नक्षत्रों एवं गोचर ग्रह व दशांतर का गहन अध्ययन कर निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। ज्योतिष सिद्धांत के कुछ नियम जिनसे इच्छित संतान प्राप्ति में मदद मिल सकती है। संसार के प्रत्येक पति-पत्नी की यही भावना होती है कि मेरी संतान ऐसे समय पर जन्म लेवे जो संस्कारित हो, उच्च शिक्षित हो, निरोगी काया हो, वैभवशाली बने, परिवार, समाज व घर का कुलदीपक बने, राजनैतिक व सामाजिक क्षेत्र में अपनी अहम भूमिका रहे, जैसे गुणों से परिपूर्ण हो। साथ ही इच्छित संतान के बारे में पति-पत्नी के अलावा भारतीयों में प्रथम लड़का होने की भी इच्छा रहती है ताकि उनका वंश आगे बढ़ सके। इन्हीं सभी प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए ज्योतिष सिद्धांत में बताए गए नियमों का पालन करने पर कुछ हद तक अपनी इच्छित कामनाओं के अनुसार ऐसी संतान को जन्म देने में सफलता प्राप्त की जा सकती है। वैसे तो यही प्रधानता रही है कि विधाता ने अपने हाथों में जन्म-मरण, परण (विवाह), लाभ, हानि को रखा है फिर भी ज्योतिष सिद्धांत से जन्मपत्रिका में उपलब्ध ग्रहों, नक्षत्रों एवं गोचर ग्रह व दशांतर का गहन अध्ययन कर निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। आइए जानते हैं ज्योतिष सिद्धांत के कुछ नियम जिनसे इच्छित संतान प्राप्ति में मदद मिल सकती है। सर्वप्रथम पति-पत्नी के जन्मकालीन ग्रहों में चंद्र व सूर्य बल को देखें कि जिस समय वे रति क्रिया में प्रवेश करेंगे उस समय गोचर में दोनों ग्रहों की क्या स्थिति है। क्योंकि चंद्रमा से मन व सूर्य से आत्मा की स्थिति जानी जायेगी कि उस वक्त यदि चंद्रमा या सूर्य निर्बल होंगे तो दोनों आत्माओं का मिलन वास्तविकता से दूर रहेगा। यदि दोनों ग्रह बलवान होंगे तो पूर्णता की ओर अग्रसर होकर आनंद की प्राप्ति होगी। सोलह संस्कार में से गर्भाधान संस्कार के अनुसार रिक्ता, षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, गंडमूल नक्षत्रों को छोड़कर ऋतुकाल की चार रात्रियों को त्यागकर विषम व सम दिनों के साथ ही शुक्ल पक्ष को ध्यान में रखकर रतिक्रिया करने पर भी इच्छित संतान के साथ ही पुत्र या पुत्री प्राप्त की जा सकती है। इच्छित संतान प्राप्ति के लिए गर्भधारण के समय से लेकर संतान जन्म लेने तक नौ माह ग्यारह दिनों में गोचर ग्रहों व दशांतर की स्थिति को देखते हुए ग्रहों की शांति व लाभ लेने हेतु संबंधित रंग व रत्न धारण करवाना भी एक ज्योतिषी के लिए आवश्यक होता है। गर्भधारण करते समय मंगल-शनि व शुक्र ग्रहों की स्थिति भी कुंडली में देखना आवश्यक है क्योंकि मंगल व शुक्र से वीर्य एवं शनि से स्पर्शता आती है जिसके कारण गर्भधारण करने में सुगमता होती है। गर्भाधान काल से लेकर बच्चे के जन्म के समय तक के बारे में कहावत है जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन और जैसा पियोगे पानी वैसी होगी वाणी, जैसा देखोगे वैसी होगी संतान अर्थात यदि अच्छा भोजन होगा तो विचार अच्छे होंगे अच्छा सोचेंगे व बोलेंगे तथा अच्छा व्यवहार रहेगा जिससे आने वाली संतान में भी वैसे ही गुण दिखेंगे। जन्मकाल के समय लग्न, पंचम, सप्तम, नवम, दशम भाव के स्वामी की स्थिति एवं उनकी दृष्टियां, नक्षत्र के स्वामी व उनकी लग्न व नवांश, दशमांश कुंडलियों में शुभ स्थितियां इच्छित संतान प्राप्ति में सहयोगी बन सकते हैं अन्यथा पापी ग्रहों की युति व दृष्टियां इच्छित संतान प्राप्ति में बाधक बन सकती है इनका भी विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।संतान जन्म लेते समय गुरु की लग्न में उपस्थिति हो ताकि पंचम, सप्तम व नवम भाव पर शुभ दृष्टि होने पर ग्रह के नैसर्गिक गुण का लाभ लेकर संतान शिक्षित, धार्मिक, संस्कारित बनने में मदद हो। संतान का जन्म ऐसे समय हो जब गंडमूल नक्षत्र गोचर में नहीं रहे जिससे संतान को अपनी सफलता में कम कठिनाई आए। संतान का जन्म ऐसे समय पर हो जब पत्रिका में मांगलिक न हो क्योंकि ऐसी धारणा है कि मांगलिक जातकों के कार्यों में भी अड़चन ज्यादा आती है किंतु अनेक पत्रिकाओं में ऐसा देखा गया है कि मांगलिक जातक अपने क्षेत्र में सफलता जरूर पाता है। संतान का जन्म ऐसे समय हो जब लग्न का स्वामी अपने से षष्टम, अष्टम, द्वादश में नहीं रहे साथ ही लग्न कुंडली में ग्रह उच्च का हो और नवांश में नीच का हो तो भी संतान को अपने क्षेत्र में उन्नति कम मिलती है। ज्ञानवान हेतु गुरु, धनवान हेतु शुक्र व मंगल तथा विदेश यात्रा के लिए शनि ग्रहों की दृष्टियां, भाव में उपस्थिति भी इच्छित संतान प्राप्ति में सहायक व अवरोध बन सकती है। साधारण प्रसव की तुलना में शल्य क्रिया द्वारा संतान होने पर एक निश्चित लग्न व ग्रहों की स्थिति को ध्यान में रखकर अपने समयानुसार इच्छित संतान प्राप्त की जा सकती है। इसके साथ ही संतान को डाॅक्टर बनाने के लिए शनि, बुध, मंगल ग्रहों इंजीनियर बनाने के लिए मंगल, बुध, गुरु, शुक्र तथा शनि की भाव स्थिति व दृष्टि तथा प्रोफेसर के लिए गुरु, बुध की प्रधानता, सरकारी नौकरी के लिए सूर्य, बुध व मंगल की स्थिति, राजनेता बनने के लिए राहु, केतु, मंगल, शनि के साथ ही शुक्र बल को देखकर ही उचित समय पर गर्भ धारण करवाने एवं सही समय पर संतान जन्म लेने पर इच्छित संतान प्राप्ति के योग ज्योतिष सिद्धांत का पूर्णतया पालन करने पर बन सकते हैं।

गंड अरिष्टादि

आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका ये छह नक्षत्र ‘मूल संज्ञक’ नक्षत्र कहलाते हैं। 27 नक्षत्र को तीन भागों में बांटने पर 9 नक्षत्रों का एक भाग प्राप्त होता है जिनमें प्रत्येक नक्षत्र 9 ग्रहों से प्रत्येक का अधिपत्य रखता है। मेष, सिंह, धनु राशि का प्रारंभ केतु के नक्षत्रों से होता है। कर्क, वृश्चिक, मीन का अंत बुध के नक्षत्रों में होता है। कर्क का समाप्ति, सिंह का प्रारंभ काल, वृश्चिक का समाप्ति काल, धनु का प्रारंभ काल तथा मीन का अंत, मेष का प्रारंभ काल का जोड़ गंड कहलाता है। अर्थात जिस समय राशि तथा नक्षत्र का एक साथ अंत होता है वह समय गंड कहलाता है। आश्लेषा का अंत और मघा के प्रारंभ का काल रात्रि गंड कहलाता है। ज्येष्ठा का अंत मूल का प्रारंभ दिवा गंड कहलाता है। रेवती की समाप्ति व अश्विनी का प्रारंभ संध्या गंड कहलाता है। ज्योतिष मर्मज्ञों ने ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र में पैदा हुए जातकों के बारे में यहां तक लिखा है कि इन नक्षत्रों के किसी भी अंश में उत्पन्न हुए जातक अनिष्ट करते हैं। ज्येष्ठा का अंतिम 1 घटी (2) घंटा) मूल का प्रारंभ 2 घटी (5 घंटा) तो इतना बुरा माना गया है कि ऐसे जन्म के उपरांत नौ वर्ष बाद ही पिता पुत्र का मुख देखे। अश्विनी का गंड दोष होने पर 16 वर्ष, मघा का 8 वर्ष, मूल का 4 वर्ष, आश्लेषा का 2 वर्ष, ज्येष्ठा का 1 वर्ष, रेवती का 1 वर्ष पर्यंत अनिष्ट का भय रहता है। यदि प्रातःकाल अथवा संध्या के समय जन्म हो और संध्या गंड दोष हो तो उस बालक को अरिष्ट होता है। रात्रि काल में जन्म होने से रात्रि गंड दोष से जातक की माता को अरिष्ट होता है। दिवा गंड में दिन में जन्म होने से पिता को अरिष्ट होता है। दिन में जन्म होने से रात्रि गंड और रात्रि में जन्म होने से दिवा गंड अरिष्टकारी नहीं होता है। दिवा गंड में कन्या का और रात्रि गंड में पुरुष का जन्म होने से गंड दोष नहीं लगता है। वैशाख, श्रवण और फाल्गुन में गंड दोष आकाश वासियों को लगता है। आषाढ़, पौष, मार्गशीर्ष और ज्येष्ठ में गंड दोष मनुष्य को तथा चैत्र, भाद्रपद अश्विन और कार्तिक में गंड दोष पाताल वासियों को लगता है। माघ में गंड दोष मृत्युकारक है। यदि आषाढ़, पौष, मार्गशीर्ष, ज्येष्ठ और माघ में गंड दोष हो तो जातक को गंड दोष होता है अर्थात शेष के मासों में गंड दोष का प्रभाव नहीं होता। चित्रा नक्षत्र में प्रारंभ में दो चरण ही कन्या राशि है, पुष्य के चारों चरण जो कर्क राशि है और पूर्वाषाढ़ के चारों चरण जो धनु राशि है, इनमें जन्म होने से क्रमशः माता-पिता तथा मामा के लिए अनिष्टकारी होता है। हस्त नक्षत्र व मघा के तीसरे चरण में माता-पिता के लिए कष्टकारी होता है। तीनांे उत्तरा नक्षत्रों का प्रथम चरण जातक स्वयं के लिए कष्टकारी होता है। चित्रा, विशाखा और हस्त नक्षत्रों में जन्म होने से माता पिता के लिए कष्टकारी होता है। मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में पिता, द्वितीय में माता, तृतीय में जन्म होने से पूरे परिवार के लिए कष्टकारी होता है, परंतु चतुर्थ चरण में जन्म हो तो उन्नति प्रदान करता है। आश्लेषा का प्रथम चरण सुखदायी है, द्वितीय चरण परिवार को, तृतीय माता को, चतुर्थ चरण पिता को कष्टकारी होता है। इन सभी अशुभ फलों का नाश लग्न में किसी बली ग्रह के विराजमान से हो जाता है। जिस नक्षत्र में जातक का जन्म हो वह जन्म नक्षत्र कहलाता है। उस नक्षत्र से दसवां नक्षत्र कर्मक्र्ष कहलाता है। जन्म नक्षत्र से 16वां नक्षत्र संघातिका, 18वां समुदाय, 19वां आघान, 23वां वैनाशिक, 25वां जाति, 26वां देश, 27वां अभिषेक कहलाता है। यदि जन्म समय इन नक्षत्रों पर पाप ग्रह स्थित हो तो जातक की मृत्यु तक हो सकती है। परंतु शुभ ग्रह का होना शुभ फलदायी होता है।

पर्व-त्योहारों की तारीखों में मतांतर क्यों?



भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की गरिमा के प्रतीक पर्व-त्यौहारों के संबंध में कई बार मतांतर हो जाने से पर्व-त्यौहारों की तिथियों एवं तारीखों के बारे में भ्रांतियां उत्पन्न हो जाती हैं। फलस्वरूप, धर्म परायण लोगों के मन में कई प्रकार की शंकाएं पैदा होने लगती हैं, जिससे उनकी श्रद्धा एवं आस्था को भी ठेस पहुंचती है। अधिसंख्य लोगों को पर्व-त्योहारों एवं छुट्टियां संबंधी जानकारी अलग-अलग प्रांतों से छपने वाले जंत्री/पंचांगों, समाचारपत्र, पत्रिका, कैलेंडर, डायरियां, तिथिपत्र, रेडियो, टेलीविजन आदि संचार साधनों द्वारा प्राप्त होती है। केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारों द्वारा उद्घोषित पर्व-त्योहारों एवं सरकारी छुट्टियों की घोषणा राष्ट्रीय कैलेंडर समिति द्वारा, प्रस्तावित सूची के अनुसार, की जाती है। इनमें राष्ट्रीय स्तर के पर्व, जैसे 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्तूबर आदि छुट्टियों की तारीखों के संबंध में तो कोई मतभेद नहीं होता है, परंतु हिंदुओं के धार्मिक पर्व-त्योहारों की तारीखों के संबंध में कई बार मतांतर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। पर्व-त्योहारों की तारीखों में भिन्नता के कुछ कारण उल्लेखनीय हैं: 1. देश में छपने वाली विभिन्न जंत्री/पंचांगों की तिथ्यादि पंचांग गणित में अंतर। 2. पर्व-त्योहारों के संबंध में कतिपय कैलेंडरों, पत्रिकाओं आदि में छपने वाली अपुष्ट जानकारी। 3. प्राचीन आचार्यों के वचनों में एकरूपता का अभाव। 4. विभिन्न प्रांतों के सूर्योदय, चंद्रोदय, अस्तादि में अंतर। 5. कुछ धार्मिक संप्रदायों में मतांतर होना। 6. सरकारी तंत्र का प्रभाव। प्रस्तुत लेख में मैं प्रथम कारण का ही विशेष रूप से विवेचन करना चाहूंगा। अन्य 5 कारण तो प्रत्यक्षतः तथ्याधारित हैं। तिथ्यादि पंचांग गणित में अंतर: देश में छपने वाली विभिन्न प्रकार के पंचांग/जंत्रियों, कैलेंडरो/डायरियों इत्यादि में तिथ्यादि के मान में कई बार भारी अंतर पाया जाता है। विशेष कर अप्रामाणिक एवं अस्तरीय पंचांग गणित को आधार मान कर छपने वाली जंत्रियों, पंचांगों, डायरियों अथवा कैलंडरों में तिथि/नक्षत्रों एवं पर्व-त्योहारों संबंधी तिथियों में भारी विसंगतियां एवं अशुद्धियां पायी जाती हंै। उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारतवर्ष में आजकल प्रतिवर्ष लगभग 150 पंचांग/जंत्रियां छप रहे हैं। तिथि-कैलेंडरों की संख्या तो इससे भी अधिक ही होगी। इनमें अधिकांश आधुनिक पंचांगकर्ता चित्रा पक्षीय दृक् गणिताधारित निरयण पंचांग की गणना अनुसार पंचांग गणित करते हैं। यह गणित, शास्त्र अनुमोदित होने के साथ-साथ, प्रत्यक्षतः दृश्य होने से विज्ञान सम्मत भी है। आधुनिक सूक्ष्म संस्कारों पर आधारित कंप्यूटर प्रक्रिया द्वारा तैयार किये जाने वाले पंचांगों के तिथि, नक्षत्र, योग, ग्रह का राशि संचार,, भोगांश, सूर्य-चंद्रोदयास्तादि तथा कंप्यूटरीकृत विस्तृत जन्मपत्री की रचना भी भारतीय दृग्गणित पद्धति द्वारा ही की जाती है। यह अत्यंत खेद का विषय है कि देश के कुछ पंचांगकार प्राचीनता के मोहवश अवैज्ञानिक एवं अशुद्ध पंचांग गणित का आश्रय ले रहे हैं। उनके इस कृत्य से पर्व-त्योहारों की तारीखों में प्रतिवर्ष कहीं न कहीं भेद उत्पन्न हो जाता है, जिससे सामान्य लोगों में भ्रांतियां पैदा होती हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: आज से लगभग 90 वर्ष, पूर्व भारतवर्ष में अधिसंख्य पंचांगकर्ता पौराणिक सिद्धांत ग्रंथों में प्रतिपादित सूत्रों के अनुसार तिथ्यादि, पंचांग गणित का कष्ट साध्य कार्य करते थे। विभिन्न स्थानीय पंचांगों के तिथ्यादि मान में भी अंतर रहते थे। परंतु 19वीं शताब्दी में नाभिकीय विज्ञान एवं गणितीय क्षेत्रों में, उत्तरोतर उन्नति के साथ-साथ, सूर्यादि ग्रहों की गत्यादि के संबंध में भी अनेक संशोधनात्मक प्रयास हुए हैं। उदाहरणस्वरूप सूर्य सिद्धांत द्वारा प्रतिपादित वर्षमान तथा आधुनिक वेधसिद्ध अनुसंधान द्वारा प्रमाणित वर्षमान में 8 पलों एवं 37 विपलों, अर्थात् लगभग 3) मिनटों का अंतर प्रतिवर्ष रहता है, जिस कारण प्राचीन सूर्य सिद्धांतीय वर्ष प्रवेश सारिणी तथा आधुनिक वेधसिद्ध सूक्ष्म सारिणी द्वारा वर्ष लग्नों में अंतर आ जाना स्वाभाविक ही है। आधुनिक कंप्यूटरों द्वारा निर्मित वर्ष कुंडलियां भी नवीन वेधसिद्ध संशोधित सिद्धांत की परिपुष्टि करती हैं। मानवकृत ज्ञान प्रशाखा के प्रत्येक क्षेत्र में, युग एवं परिस्थितियों के अनुसार, सुधार एवं यथोचित संस्कारों की संभावना रहती है। गणित ज्योतिष के क्षेत्र में भी समय के भेद एवं काल गति के भेद से ग्रहों के गणित में थोड़ा-थोड़ा अंतर पड़ता जाता है। इस संबंध में भारतीय गणिताचार्य एवं विद्वानों ने भी पंचांग गणित की प्रक्रिया में वेधसिद्ध दृक्तुल्य संशोधन कर के भारतीय पंचांग पद्धति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया है

अष्टकवर्ग दशा और शनि का गोचर

जहां एक ओर साधारण जन-मानस शनि की साढ़े-साती व ढैय्या (कंटक शनि) को लेकर भयभीत रहता है, वहीं एक विद्वान व अनुभवी ज्योतिषी यह जानता है कि गोचर फल अध्ययन के लिए जातक की कुंडली को अनेक कसौटियों पर परखना पड़ता है। मात्र शनि के जन्मकालीन चंद्रमा, उससे 2 या 12 भावों पर 4 अथवा 8वें भाव पर गोचरस्थ होने से भयभीत होने का कोई कारण नहीं। गोचर का सूक्ष्मता से अध्ययन करने हेतु महर्षि पराशर द्वारा बताई अष्टकवर्ग की विधि का प्रयोग एक अनुभवी ज्योतिषी करना कभी नहीं भूलता। अष्टकवर्ग पद्धति में ग्रह की गोचर में स्थिति न केवल जन्मकालीन चंद्रमा तथा जन्म लग्न से संबंध रखते हैं, अपितु प्रत्येक ग्रह की स्थिति जन्मकालीन सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि से विभिन्न भावों में देखी जाती है। इनमें राहु-केतु जो कि छाया ग्रह है, को सम्मिलित नहीं किया जाता। महर्षि पराशर कृत बृहत पाराशर होरा शास्त्र में राहु-केतु के अष्टकवर्ग बनाने का कोई उल्लेख नहीं है। राहु-केतु का गोचर यद्यपि भृगु (नाड़ी) में बहुत महत्वपूर्ण है, परंतु शास्त्रीय ग्रंथों के अनुसार अष्टकवर्ग में इनका कोई स्थान नहीं। अष्टकवर्ग पद्धति में प्रत्येक ग्रह को लग्न तथा अन्य सभी ग्रहों से उसकी विभिन्न भावों में जन्मकालीन स्थिति के अनुसार विभिन्न राशियों में 0 (शून्य) अथवा 1 (एक) अंक प्राप्त होता है। इसी के आधार पर प्रत्येक ग्रह का भिन्नाष्टक वर्ग बनाया जाता है। तत्पश्चात् सभी सातों ग्रहों के भिन्नाष्टक वर्ग के आधार पर सर्वाष्टक वर्ग की गणना की जाती है। सर्वाष्टक वर्ग के आधार पर त्रिकोण शोधन तथा एकाधिपति शोधन के पश्चात शोध्य पिंड की गणना की जाती है। इसके बाद शुभ-अशुभ फल देने वाले नक्षत्रों की गणना की जाती है, जिसपर सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों के गोचर के परिणाम स्वरूप जातक को विभिन्न ग्रहों के कारक तत्व अनुसार फलों को भोगना पड़ता है। सामान्यतः सर्वाष्टक वर्ग में जिस राशि को 18 से कम अंक प्राप्त हांे वह राशि निर्बल मानी जाती है, 25 अंक पर मध्यम, 30 या उससे अधिक अंक पर शुभ। शनि तथा अन्य ग्रहों के गोचर में संबंधित फलादेश में सर्वाष्टक वर्ग तथा उनके अपने भिन्नाष्टक वर्ग में अच्छे बिंदु होने पर शुभ कम बिंदु होने पर अशुभ फल कहे गये हैं। ग्रहों के भिन्नाष्टक में 4 से कम बिंदु किसी राशि में होना अशुभ माना गया है तथा 4 या उससे अधिक बिंदु शुभ माने जाते हैं। परंतु इन सामान्य नियमों के कुछ अपवाद भी हैं। जैसे 6, 8 अथवा 12 भावों में सर्वाष्टक वर्ग तथा ग्रहों के भिन्नाष्टक वर्ग में कम बिंदु होना अच्छा माना जाता है। साथ ही यदि विंशोत्तरी दशा अच्छी चल रही हो तो अन्य भावों में (6, 8, अथवा 12 को छोड़) भी यदि कम बिंदु हों तब भी बुरे फल नहीं प्राप्त होते। अर्थात शुभ ग्रहों की प्रबल दशा में यदि शनि का गोचर अष्टकवर्ग में कम बिंदु लिये राशि से हो तब भी शुभ फल ही प्राप्त होंगे।

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Friday 4 March 2016

स्कीन एलर्जी का ज्योतिष्य कारण

स्कीन एलर्जी और ज्योतिषीय कारण
खुजली या एलर्जी दरअसल यह त्वचा की दर्द तंत्रिकाओं की उत्तेजना है। जब हमारी तंत्रिकाएं उत्तेजित होती हैं, तो हमें खुजलाहट का अनुभव होता है, इसमें दर्द का अहसास नहीं होता। त्वचा में एलर्जी अथवा खुजली की समस्या से कमोबेश सभी को कभी न कभी सामना करना पड़ता है, जो कि स्कैबीज, जुआ, दाद, पायोडरमा, तेज गर्मी, कीड़े के काटने, एलर्जी या त्वचा के सूख जाने इत्यादि से हो सकती है। किंतु कई लोगों की यह आम समस्या होती है जो उन्हें अकसर होती रहती है। जिसे मेडिकल सांईस द्वारा नहीं जाना जा सकता है कि किसी को क्यू लगातार एलर्जी होती है। किंतु ज्योतिषीय गणना द्वारा पता चलता है कि अगर लग्न, तीसरे, छठवे, एकादष अथवा द्वादष स्थान में शनि या इन स्थानों के ग्रह स्वामी शनि से आक्रांत हों अथवा लग्न तीसरे स्थान में राहु हो तो ऐसे जातक को स्कीन एलर्जी की संभावना होती है। अगर इनकी ग्रह दषाएॅ चले तो ये समस्या ज्यादा बढ़ जाती है। अतः किसी जातक को लगातार ऐसे परेषानी दिखाई दे तो अपनी कुंडली में इन स्थानों में उपस्थित शनि अथवा राहु की शांति कराना, आहार में एलर्जी उत्पन्न करने वाले खाद्य पदार्थो से परहेज करना चाहिए।

प्रेम में पंगा क्यू ????

प्रेम में पंगा क्यू ????
सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे आधुनिक काल में प्रेम का नाम दिया जाता है। जब भी कोई अपनी पसंद रखता तब वह प्रेम करता है। यह प्रेम जब माता-पिता, भाई-बहनों, दोस्त-रिष्तेदारों से हो सकता है तब किसी से भी होता है। ज्योतिषीय रूप देखा जाए तो प्रेम करने हेतु लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम, दसम या द्वादष स्थान में शनि अथवा गुरू, शुक्र, चंद्रमा, राहु या सप्तमेष अथवा द्वादषेष शनि से आक्रांत हो तो ऐसे लोगों को प्यार जरूर होता है। चूॅकि शनि स्वायत्तषासी बनाता है अतः प्रेम के बाद स्वयं की स्वेछा से कार्य करने के कारण अपने प्यार से ही पंगा भी कर लेते हैं। अतः जो ग्रह प्यार का कारक है वहीं ग्रह प्यार में पंगा भी देता है। अतः अगर किसी के प्यार में पंगा हो जाए तो उसे तत्काल शनि की शांति कराना चाहिए। इसके साथ शनि के मंत्रों का जाप, काली चीजों का दान एवं व्रत करना चाहिए। इससे प्यार हो और वह प्यार निभ भी जाए।

मन नहीं लगता किसी भी कार्य में...क्यों??

मन नहीं लगता -
मन नहीं लगता या नहीं लग रहा ये अकसर सुनने में आता है। मन अति चंचल है। कहा जाता है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अतः मन किसी व्यक्ति में इतना मायने रखता है। और कई बार मन कुछ भी करने को नहीं करता है। मन की भटकन को रोकने के लिए ज्योतिष कारगर साबित होता है। मन को हम कुंडली के तीसरे स्थान से देखते है। अगर किसी का तीसरा स्थान विपरीत स्थिति में या कू्रर ग्रहों के साथ हो तो ऐसा व्यक्ति मन के अधीन रहने का आदी होता है और अपने जीवन में अनुषासन नहीं रख पाता जिसके कारण सफलता प्राप्ति नहीं होती और परेषान रहता है। वहीं यदि किसी का तीसरा स्थान अनुकूल स्थिति में और सौम्य ग्रह हो या सौम्य ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसे लोग हमेषा मन को काबू में रख पाते हैं। अतः यदि आपका मन भी बहुत चंचल हो तो अपने तीसरे स्थान के ग्रहों का विष्लेषण कराकर उस ग्रह की शांति कराना चाहिए साथ ही तीसरे स्थान का स्वामी बुध होता है अतः बुद्धि को साकारात्मक रखने एवं लगातार क्रियाषील रहने के लिए बुध से संबधित मंत्रजाप, दान करना भी मन को रूकने में सफल हो सकता है।

जीवन यापन के लिए आप किसका चयन करें नौकरी या व्यवसाय

सधारणतया हम आजीविका के लिए जन्मकुंडली में दशम भाव देखते हैं। छठा भाव नौकरी एवं सेवा का है। उसका कारक ग्रह शनि है। दशम भाव का छठे भाव से संबंध होनानौकरी दर्शाता है। नौकरी में जातक किसी दूसरे के अधीन कार्यरत होता है। लग्न में, अथवा दशम भाव में शनि का होना भी नौकरी दर्शाता है। शनि ग्रह को ‘दास’ एवं शूद्र ग्रह की पदवी दी गयी है। भचक्र में शनि दशम भाव का कारक ग्रह है। शनि ग्रह के बलवान होने की स्थिति में जातक स्वयं मेहनत करके जीविकोपार्जन करता है। इसके साथ सप्तम भाव को भी देखते हैं, जो दशम भाव से दशम है और भावात भावम सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। सप्तम भाव से साझेदारी, सहयोग, दैनिक आय तथा यात्रा का निर्धारण करते हैं। व्यापार में कई सहयोगियों की आवश्यकता होती है, चाहे सहयोग, साझेदारों के अलावा कर्मचारी, अथवा नौकर ही क्यों न दें। दशम भाव बलवान होने पर नौकरी तथा सप्तम भाव बलवान होने पर व्यवसाय का चयन करना चाहिए। अब दशम और सप्तम भाव के कुछ विशेष बिंदुओं को ध्यान से देखेंगे, जो व्यापार एवं नौकरी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैंः दशम भाव: भचक्र में दशम भाव में स्थित मकर राशि के कारक तत्वों में नौकरी संबंधी गुणों की अधिकता होती है। इस राशि पर विशेष प्रभाव रखने वाले ग्रह है: मंगल मकर राशि में उच्च का होता है, जो ऊर्जा, क्षमता तथा पुरूषार्थ का प्रतीक है और एक सेवक के लिए आवश्यक है। बृहस्पति मकर राशि में नीच का होता है, जो नेतृत्व गुण का क्षय, धन की अल्पता तथा तेजहीनता का सूचक है। शनि इस राशि का स्वामी भी है। वह शूद्र वर्ण, एकांतप्रिय, शांत स्वभाव वाला है। ये सभी कारकत्व नौकरी एवं सेवा की ओर अग्रसर करते हैं। इसके अलावा दशम भाव का त्रिकोणीय संबंध द्वितीय भाव, षष्ठ भाव से होता है। द्वितीय भाव धन एवं षष्ठ भाव सेवा, अथवा नौकरी दर्शाते हैं। षष्ठ भाव, दशम भाव का भाग्य भाव है। अतः इसको अच्छा होना चाहिए। सप्तम भाव: भचक्र में सप्तम भाव में स्थित तुला राशि के कारकत्वों में व्यापार संबंधी गुणों की प्रधानता होती है। इस राशि पर विशेष प्रभाव रखने वाले ग्रह है:- सूर्य जो न्याय एवं आत्मा का प्रतीक है। उसके नीच होने के कारण व्यक्ति व्यापार में मापदंड में भेद की नीति अपनाता है। शनि उच्च का होने के कारण जातक में दूसरों के श्रम से धनोपार्जन तथा जनता एवं सेवकों से लाभ प्राप्त करने का गुण होता है। शुक्र इस राशि का स्वामी है जो काम, भोग एवं कला का प्रतीक है और ये एक कुशल व्यापारी के गुण है। व्यापार की सफलता के लिए द्वितीय, पंचम, नवम, सप्तम, दशम और एकादश भाव तथा उन भावों में ग्रहों की स्थिति अच्छी होनी चाहिए अन्यथा ऐसा जातक नौकरी करता है। धन योग: जातक की कुंडली में धन योग की मात्रा देखकर निर्धारित कर सकते हैं कि जातक की पत्री में व्यापार एवं नौकरी का स्तर क्या हो सकता है। व्यवसाय योग: जन्मपत्री में दशम भाव कर्म का है और नौकरी से संबंधित है तथा सप्तम भाव व्यापार प्रक्रिया तथा साझेदारी व्यवसाय को व्यक्त करता है। वृष, कन्या तथा मकर व्यापार की मुख्य राशियां है। चंद्र, बुध, गुरु तथा राहु व्यापार करने के लिए महत्वपूर्ण ग्रह है। जन्मकुंडली में लग्न, चंद्रमा, द्वितीय, एकादश, दशम, नवम तथा सप्तम भाव का मजबूत होना। लग्न स्वामी के साथ द्वितीय और एकादश के स्वामी का केंद्र या त्रिकोण में होना तथा शुभ ग्रह से दृष्ट होना। मजबूत लग्न स्वामी के साथ द्वितीय या एकादश के स्वामी का बृहस्पति के साथ दशम या सप्तम में होना। पंचम भाव या भावेश का संबंध यदि दशम, दशमेश से है तो जातक अपनी शिक्षा का उपयोग व्यवसाय में अवश्य करता है। व्यवसाय के संदर्भ में राशियों और ग्रहों की प्रकृति और तत्व को भी ध्यान में रखना होगा। साथ में नक्षत्र भी व्यापार एवं नौकरी के संदर्भ में जानकारी देने में सहयोगी होते हैं। बुद्धिमान ज्योतिषी को ग्रह, योग, महादशा, अंतर्दशा, गोचर के साथ ही देश, काल और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए नौकरी व्यवसाय का निर्धारण करना चाहिए। रोजगार से संबंधित अनिष्ट दूर करने के उपाय यदि दशमेश 5, 8, 12 भावों में हो तो उस ग्रह से संबंधित रत्न या उपरत्न या उसकी धातु के दो बराबर वजन के टुकड़े लेकर, एक टुकड़े को बहते हुए जल में प्रवाहित करके, दूसरा टुकड़ा अपने पास आजीवन संभाल कर रखें। किसी उग्र देवी या देवता जैसे हनुमान जी, पंचमुखी हनुमान जी, भैरव जी, काली जी, तारा, कालरात्रि, छिन्नमस्ता, भैरवी जी, मां बगलामुखी जी का अनुष्ठान करके उसकी नित्य साधना करें। नवग्रह शांति करवाएं। इसके लिए भगवान दत्तात्रेय जी के तंत्र का उपाय इस प्रकार है: एक हांडी में मदार की जड़, धतूरे, चिरचिटे दूब, बट, पीपल की जड़, आम, भूजर, शमी का पत्ता, घी, दूध, चावल, मूंग, गेहूं, तिल, शहद और मट्ठा भर कर शनिवार के दिन संध्या काल के समय, पीपल के पेड़ की जड़ में गाड़ देने से समस्त ग्रहों के उपद्रवों का नाश हो जाता है। द्वितीयेश यदि 6, 8, 12 भावों में न हो, तो उस ग्रह का रत्न धारण करें। दस अंधे व्यक्तियों को भोजन कराने से कष्ट कम हो सकता है। अपने भोजन में से एक रोटी निकाल कर, उसके तीन भाग करके, एक भाग गाय को, दूसरा भाग कुत्ते को और तीसरा भाग कौए को नित्य खिलाएं। केसर खाएं या नित्य हल्दी का तिलक लगाएं। खोये के गोले को ऊपर से काट कर उसमें देशी घी और देशी खांड भर कर बाहर सुनसान जगह, जहां चींटी का स्थान हो, उसके समीप जमीन खोद कर उस गोले को इस तरह गाड़ दें कि उसका मुंह खुला रहे, ताकि चींटियां को खाने में असुविधा न हो।

कैसे आपके परिस्थितयों को ग्रह ख़राब करते है........

ललाट पहे लिखिता विधाता, षष्ठी दिने याऽक्षर मालिका च। ताम् जन्मत्री प्रकटीं विधत्ते, दीपो यथा वस्तु धनान्धकारे। (मान सागरी) अर्थात् ईश्वर ने भाग्य में जो लिख दिया, उसे भोगना ही पड़ता है। जन्मपत्री के अध्ययन से इस बात का आसानी से पता चल जाता है कि उसने पूर्व जन्म में कैसे-कैसे कर्म किये है और इस जन्म में उसे कैसा क्या सुख भोग मिलेगा। मातुलो यस्य गोविन्दः पिता यस्य धनंजयः। सोऽपित कालवशं प्राप्तः कालो हि बुरतिक्रमः।। अर्थात् अभिमन्यु युवा था, सुंदर था, स्वस्थ था, वीर था, नवविवाहित था। भला क्या उसकी मरने की आयु थी या स्थिति? भगवान श्री कृष्ण उसके मामा थे, उसके पिता अर्जुन महाभारत के अप्रतिम योद्धा थे। किंतु अभिमन्यु काल से न बच सका। तब साधारण जन कैसे बच सकता है। मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते। अथ वाष्दशतान्ते वा मृत्युवै प्राणिनां धु्रवः।। देहे पंचत्वमापन्ने देहि कर्मानुगोऽवंशः। देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः।।अर्थात कंस वासुदेव-देवकी को स्नेह से पहुंचाने जा रहा था। मार्ग में आकाशवाणी हुई ‘अस्यास्त्वाभस्तमा गर्भो हन्ता यां वहसेऽबुध।’ हे मूर्ख! जिसे तुम पहुंचाने जा रहे हो इसका आठवां गर्भ तुम्हंे मार डालेगा।’ क्रुद्ध कंस देवकी के केशों को पकड़कर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर रहा था, तभी वासुदेव जी ने उसे समझाया - हे वीर! जन्मधारण करने वालों के साथ ही उनकी मृत्यु भी उत्पन्न हो जाती है। आत्म कर्मानुसार देहान्तर प्राप्त कर पूर्व देह छोड़ देता है। कहने का अर्थ यही है कि जीव को कर्मानुसार विविध देहांे की विभिन्न प्रकार के सुखों की रोगों की, अभावों की प्राप्ति होती है। तब जन्म पत्री को देखकर कैसे समझा जाए कि ग्रह एक साथ जीवन के कितने क्षेत्रों को प्रभावित करता है। इस तथ्य की सत्यता हेतु कुछ कुण्डलियों का अध्ययन करते हैं। यह सोनीपत शहर में रहने वाली एक ऐसी स्त्री की कुंडली है, जिसके विवाह को सात वर्ष बीत गए लेकिन इसे संतान नहीं हुई। इस औरत की कुंडली जन्म लग्न, चंद्र लग्न, सूर्य लग्न, शुक्र लग्न से मंगली है। लग्न सिंह है और प्रथम भाव में ही मंगल है और चंद्रमा भी सिंह राशि में ही है। लग्नेश सूर्य लग्न से छठे भाव में है। परंतु मंगल सूर्य से अष्टम भाव में है। पंचमेश एवं पंचम कारक गुरु संतान भाव (पंचम भाव) से द्वादश है तथा बृहस्पति पर पाप ग्रह मंगल की चतुर्थ दृष्टि है। संतान भाव पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं है। कुंटुंब भाव (द्वितीय) पाप कर्तरी योग में है यानी इस भाव के एक ओर मंगल है व द ूसरी ओर केतु पाप ग्रह है, लग्न पर राहु का तथा कुंटुंब भाव पर शनि का दुष्प्रभाव है। इसी कारण संतान नहीं हो पायी। इस व्यक्ति को उठने बैठने चलने-फिरने आदि में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि यह पुट्ठे की क्षीणता से ग्रस्त हो गया है। देखते हैं ऐसा किन ग्रह स्थितियों के कारण हुआ। यदि कोई ग्रह षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थानों में स्थित हो और इस पर शुभ दृष्टि न हो तो वह अत्यंत निर्बल हो जाता है। ऐसा ग्रह जिस धातु का कारक होता है, वह उसमें रोग उत्पन्न कर देता है। उपरोक्त कुंडली में मंगल पुट्ठों का कारक है जो मृत्यु भाव अर्थात अष्टम स्थान में स्थित है। वह नीच (कर्कस्थ) भी है। मंगल पर राहु की पंचम की दृष्टि है। इसके अलावा मंगल पर शुभ ग्रह शुक्र की दृष्टि है, परंतु शुक्र भी षष्ठेश तथा एकादशेश होकर मारक भाव में स्थित है शुक्र षष्ठ से षष्ठ अर्थात् एकादश भाव का स्वामी होने से भी रोगदायक है। यही नहीं शुक्र दो पाप ग्रहों शनि तथा सूर्य के बीच भी है जो उसकी निर्बलता बढ़ा रहे हैं। इसी कारण पुट्ठों की क्षीणता अत्यंत कठिनाइयों को पैदा कर रही है। यह पुरुष जातक व्यभिचारी है। यह अपनी पत्नी को उत्पीड़ित करता रहता है। उसे कई बार मारने की कोशिश भी कर चुका है। दो बार पुलिस केस भी हो चुका है। इसके अन्य महिलाओं के साथ भी यौन संबंध हैं। इसकी जन्मकुंडली की ग्रह स्थितियों का अध्ययन कर इन कारणों को जानने का प्रयास करते हैं। यदि लग्नेश चतुर्थ भाव में हो, चतुर्थ एवं सप्तम भाव मंगल या राहु से पीड़ित हो, चतुर्थेश, सप्तमेश एक साथ हो तथा राहु से प्रभावित हो तो जातक व्यभिचारी, बहुस्त्री भोगी, कलंकित होता है। उपरोक्त कुंडली में लग्नेश-चतुर्थेश बुध चतुर्थ भाव में है तथा सप्तमेश गुरु शत्रु राशिस्थ होकर लग्नेश के साथ सुखेश बुध त्रिक भाव के स्वामी सूर्य के साथ है। इसके अतिरिक्त धनेश चंद्रमा केमुद्रम योग बना रहा है तथा शत्रु राशीस्थ होकर द्वादश भाव में है। भोग कारक शुक्र रोग, ऋण व शत्रु भाव में गृहस्थ भाव से द्विद्र्वादश योग बना रहा है। सप्तम भाव पापकर्तरी योग में है। पंचम भाव में शनि से दृष्ट है। लग्न एवं पंचम भाव पर राहु की दृष्टि है। चंद्रमा पर मंगल की दृष्टि भी है। इसी कारण यह व्यभिचारी है। यह कुंडली एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसको कई वर्षों से पेट में गैस की तकलीफ रही है। बिना दवाइयों के यह शौच तक नहीं कर सकता। इसकी जन्मकुंडली में पंचमेश और पंचम भाव और पेट का कारक गुरु दोनों इकट्ठे हैं और साथ में शुक्र भी विराजमान है और वह भी सूर्य से पंचमेश है। इन सब पेट के द्योतक ग्रहों पर शनि की पूर्ण तृतीय दृष्टि भी पड़ रही है और फिर शनि चूंकि सूर्य और केतु अधीष्ठित राशि का स्वामी है, इसमें केतु तथा सूर्य का प्रभाव भी सम्मिलित है। इस प्रकार जहां लग्न, चंद्र लग्न और सूर्य लग्न से पंचमेश होने के कारण पेट के द्योतक हैं वहां पीड़ित करने वाले ग्रह भी बहुत क्रूर हैं। इसका फल बहुत देर तक पेट में कष्ट उत्पन्न करता है। गैस इसलिए कि शनि का प्रभाव मुख्य है और शनि वायु का ग्रह है। यह कुंडली एक ऐसे विवाहित जोड़े की है जिनका विवाह बिना गुण मिलान के सम्पन्न हुआ। विवाह के सप्ताह बाद ही दोनों में कलह शुरु हो गया। यह विवाह दो वर्षों तक चलता रहा, फिर ये दोनों एक-दूसरे को तलाक देकर अलग हो गए। देखते हैं इनका ववाह क्यों नहीं निभ पाया। वर की जन्मकुंडली के लग्न में केतु और सप्तम में राहु विवाह में असफलता का सूचक है। साथ ही भोग कारक शुक्र भोग स्थान अर्थात गृहस्थ भाव से द्वादश, लग्न से षष्ठ तथा राशि से चतुर्थ अशुभ ग्रह इसके अतिरिक्त शुक्र सूर्य द्वारा अस्त भी है तथा अष्टमेश मंगल के साथ है। पराक्रमेश बुध जहां षष्ठ भाव में है, वहीं लग्नेश मंगल शत्रु भाव में शत्रु राशि में है, इतना ही नहीं सभी ग्रह राहु-केतु के मध्य कालसर्प योग भी बना रहे हैं। गृहस्थ भाव से भी कालसर्प योग बन रहा है, सूर्य, बुध, मंगल तथा शुक्र पर शनि की पाप दृष्टि भी है। वधू की जन्मकुंडली में गृहस्थ भाव से द्वादश राहु है तथा उस पर शनि की अशुभ दृष्टि है। अष्टमेश सूर्य शनि द्वारा दृष्ट है। सप्तमेश चंद्र केमदु्रम योग बना रहा है, षष्ठेश बुध के साथ अष्टमेश सूर्य सर्वथा अशुभ है। इसके अलावा राशि एवं मंगल की पाप दृष्टि है। पराक्रमेश गुरु के दोनों ओर पाप ग्रह सूर्य, शनि व मंगल पापकर्तरी योग बना रहे है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है- जो जस करई सो तस फल चाखा; क्योंकि कर्म प्रधान विश्व करि राखा। अर्थात इस संसार में कर्म ही प्रधान है और जैसे कर्म वह करता है उसी के अनुसार मनुष्य के जीवनकाल में न तो आकस्मिक रूप से कुछ होता है और न अनायास ही। बल्कि हमें जो कुछ अप्रत्याशित लगता है वह कर्म विधान के अंतर्गत दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य के रूप में पूर्व निश्चित क्रमानुसार हमारे सामने आता है। जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति के अनुसार हम उस कर्म फल को जान पाते हैं।

शनि की शुभता और अशुभता



ज्योतिष में शनि की बहुत बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। मनुष्य जीवन को संचालित करने वाले अनेकों घटक शनि के अंतर्गत आते हैं और हमारे जीवन में आने वाले बड़े परिवर्तन शनि की गतिविधियों पर ही निर्भर करते हैं। जैसा कि हम जानते हैं शनि, सूर्य के पुत्र हैं और नव ग्रहों में उन्हें दण्डाधिकारी का पद भगवान शिव के द्वारा दिया गया है। भचक्र में मकर और कुम्भ राशि पर शनि का स्वामित्व है तथा तुला राशि में शनि को उच्च व मेष राशि में नीचस्थ माना जाता है। सूर्य, चंद्रमा, मंगल और केतु की शनि से शत्रुता, बृहस्पति सम व शुक्र, बुध, राहु से मित्रता मानी जाती है। शनि को हमारे कर्म, जनता, नौकर, नौकरी, अनुशासन, तपस्या, अध्यात्म आदि का कारक माना गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि शनि की हमारे जीवन में शुभ भूमिका होगी या अशुभ। वास्तव में यह हमारी जन्मकुंडली में शनि की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है सामान्यतया वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर तथा कंुभ लग्न वाले जातकों के लिए शनि को शुभ कारक ग्रह माना जाता है और मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन लग्न की कुण्डली में शनि को अकारक ग्रह माना जाता है। इसके अतिरिक्त शनि से मिलने वाला शुभ या अशुभ फल इस बात पर निर्भर करता है कि शनि हमारी कुण्डली में है किस स्थिति में। शनि यदि जन्मकुंडली में स्व, उच्च, मित्र आदि राशि में बलवान होकर बैठा है तो निश्चित ही ऐसा शनि जातक को दूरद्रष्टा, कर्मप्रधान, अनुशासित एवं अच्छे पद वाला व्यक्ति बनायेगा। ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुए भी अपने जीवन को प्रभु चरणों में लगाएगा और यदि शनि नीच राशि (मेष), शत्रु राशि या शत्रु ग्रहों से प्रभावित होकर पीड़ित या कुपित स्थिति में है तो वह जातक को आलस्य, लापरवाही, नकारात्मक सोच, कर्मों को कल पर छोड़ने की प्रवृत्ति देकर जीवन को संघर्षों से भर देगा कमजोर शनि वाले जातक को अपने करियर में बहुत संघर्षों के बाद ही सफलता मिलती है। शनि की अन्य ग्रहों से युति: 1. शनि-सूर्य: शनि और सूर्य का योग शुभ फल कारक नहीं माना जाता विशेष रूप से पिता और पुत्र दोनों में मतभेद रह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी रहेगी तथा यश प्राप्ति में बाधाएं आयेंगी। 2. शनि-चंद्रमा: ऐसे जातक को मानसिक शांति की कमी सदैव अनुभव होगी, मानसिक एकाग्रता नहीं रहेगी। जल्दी डिप्रेस हो जायेगा, स्वभाव में आलस्य रहेगा और माता के सुख में भी कमी हो सकती है। 3. शनि-मंगल: ऐसे जातक को अपने व्यवसाय या करियर में अपेक्षाकृत अधिक संघर्ष करना पड़ता है और कठिन परिश्रम से ही सफलता मिलती है। 4. शनि-बुध: ऐसे जातक अपनी बुद्धि, वाणी, बुद्धि परक कार्यों से सफलता प्राप्त करते हैं और गहन अध्ययन में रुचि रखते हैं। 5. शनि-बृहस्पति: यह बहुत शुभ योग होता है। ऐसे जातक अपने सभी कार्य काफी लगन से करते हैं तथा जीवन में अच्छे पद प्राप्त करते हैं। 6. शनि-शुक्र: यह भी शुभफल कारक होता है। ऐसे जातक विवाह उपरान्त विशेष उन्नति पाते हैं तथा धन समाप्ति के लिए यह योग शुभ है। 7. शनि$राहु: यह बहुत अच्छा योग नहीं है। संघर्षपूर्ण स्थितियों के पश्चात् सफलता मिलती है, उतार-चढ़ाव अधिक आते हैं। 8. शनि$केतु: शनि की युति केतु के साथ हो तो जातक का ध्यान अध्यात्म या समाज सेवा की ओर उन्मुख हो सकता है परंतु ऐसे जातक को अपनी आजीविका चलाने के लिए अथक प्रयास करने पड़ते हैं। शनि और स्वास्थ्य: हमारे शरीर में शनि विशेषतः पाचनतंत्र और हड्डियों के जोड़ों को नियंत्रित करता है। इसके अतिरिक्त, दांत, नाखून, बाल, टांग, पंजे भी शनि के अंतर्गत आते हैं। जिन व्यक्तियों की कुंडली में शनि नीच राशि (मेष) में कुंडली के छठे या आठवें भाव में हो या अन्य प्रकार से पीड़ित हो तो ऐसे में पाचन तंत्र से जुड़ी समस्याएं और जाॅइंट्स पेन की समस्या का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त दीर्घकालीन रोगों में भी शनि की भूमिका होती है। विशेष रूप से कर्क, सिंह और धनु लग्न वाले जातकों के लिए शनि अपनी दशाओं में स्वास्थ्य कष्ट उत्पन्न करता है। शनि और आजीविका: वर्तमान युग में शनि को एक तकनीकी ग्रह के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि शनि कुंडली में अच्छी स्थिति में है तो निश्चित ही तकनीकी क्षेत्र में उन्नति देगा। इसके अंतर्गत मेकेनिकल इंजीनियरिंग, मशीनों से जुड़ा कार्य, लोहा, स्टील, कोयला पेट्रोल, गैस, कच्ची धातुएं, केमिकल प्रोडक्ट, सीमंेट तथा पुरातत्व विभाग से जुड़े कार्य आते हैं। शनि और साढ़ेसाती: साढ़ेसाती को लेकर सभी व्यक्ति भय से व्याप्त रहते हैं। जब शनि हमारी जन्म राशि से बारहवीं राशि में आते हैं तब साढ़ेसाती का प्रारंभ होता है। वास्तव में यह समय हमें संघर्ष की अग्नि में तपाकर हमारे पूर्व अशुभ कर्मों को स्वच्छ करने का कार्य करता है। परंतु ज्योतिषीय दृष्टिकोण से बात करें तो साढ़ेसाती का फल सबके लिए एक समान कभी नहीं होता। यह कुंडली में बनी ग्रह स्थितियों पर निर्भर करता है। यदि हमारी कुंडली में स्थित शनि बहुत पीड़ित व कमजोर और विशेषकर मंगल, केतु के प्रभाव में हो तो ऐसे में साढ़ेसाती बहुत संघर्ष और बाधापूर्ण होती है। कुंडली में चन्द्रमा यदि अतिपीड़ित हो तब भी साढ़ेसाती में दुष्परिणाम मिलते हैं। परंतु यदि कुंडली में शनि बृहस्पति या मित्र ग्रहों बुध, शुक्र के अधिक प्रभाव में शुभ स्थिति में है तो साढ़ेसाती में अधिक समस्याएं नहीं आतीं। इसके अलावा साढ़ेसाती के अंतर्गत गोचर का शनि यदि उन राशियों से गुजरता है जिनमें हमारे जन्मकालीन शुक्र, बुध व बृहस्पति बैठे हैं तब भी साढ़ेसाती शुभफल कारक होती है। शनि शांति के उपाय: यदि शनि की दशा या साढ़ेसाती में प्रतिकूल परिणाम मिल रहे हों तो निम्नलिखित उपाय अवश्य करें। 1. ऊँ शं शनैश्चराय नमः का 108 बार जाप करें। 2. शनिवार को पीपल के वृक्ष में जल दें। 3. लगातार पांच शनिवार साबुत उड़द का दान करें। 4. हनुमान चालीसा का पाठ करें। 5. सूर्यास्त के बाद घर की पश्चिम दिश में सरसों के तेल का दीया जलाएं। 6. माह में एक बार वृद्धाश्रम में कुछ धन या खाद्य सामग्री का दान अवश्य करें।

जुड़वां बच्चों का ज्योतिष्य अवधारणा

यदि दो जुड़वां भाई/बहन हं और दोनों का जन्म समय, तिथि व स्थान एक ही है तो निश्चित ही जन्मपत्री एक सी ही बनेगी तथा शक्ल, सूरत, विचार, इच्छाएं, रोग, जीवन की घटनाएं भी एक समान हो सकती हैं। परंतु फिर भी जुड़वां बच्चों के व्यक्तित्व, कर्म व जीवनधारा में काफी अंतर हो सकता है यद्यपि कि जन्मपत्री में ग्रह स्थिति एक सी ही हो। उसके कुछ कारण निम्नवत हैं: गर्भ कुंडली: वास्तविक जन्म गर्भ में भ्रूण प्रवेश/निषेचन के समय हो जाता है तथा यह भी तय हो जाता है कि बच्चा लड़का होगा या लड़की। जिस क्षण विशेष में गर्भ में भ्रूण स्थापित होता है वही क्षण उस बालक/बालिका के पूरे जीवन का आधार बनता है। भ्रूण समस्त ग्रहों का प्रभाव पिता व माता द्वारा स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, जो स्त्रियां पक्षबली चंद्रमा के समय में गर्भाधान करती हैं उन्हें निश्चित ही स्वस्थ, सुंदर, सफल व संस्कारवान संतान प्राप्त होती है। जुड़वां संतान की गर्भ कुंडली देखें तो उनमें अधिक अंतर होने की संभावना है क्योंकि गर्भ भ्रूण प्रवेश/ निषेचन एक ही समय में हो ऐसा संभव नहीं है। ज्योतिष नियमानुसार जन्म कुंडली से गर्भ कुंडली बनाई जा सकती है। पर यह निश्चित ही कठिन कार्य है। गर्भ कुंडली भिन्न हो जाने से जातक का व्यक्तित्व व भविष्य भिन्न रूप में विकसित होगा, यह निश्चित है। जैसे - एक राजा समान जीवन यापन कर रहा है तो दूसरा फुटपाथ पर मजदूरी। इसका कारण गर्भ में कुछ समय मिनट अंतराल में दोनों का गर्भ स्थापित होना है जिसमें दोनों की जन्मपत्री तो एक समान आती है, लेकिन हाथ की रेखाओं में काफी अंतर पाया जाता है। अतः ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘‘हस्त रेखा शास्त्र’’ आसानी से दे सकता है। जन्मकुंडली की इस परेशानी को दक्षिण भारत के महान ज्योतिष विद्वान ‘‘कृष्णमूर्ति’’ ने नक्षत्र पर आधारित पद्धति का निर्माण कर किया, जिसे ‘‘के. पी. पद्धति‘’ कहते हैं। इसके अनुसार किसी भाव का फल भावेश अर्थात उसका स्वामी न करके, वह ग्रह जिस नक्षत्र में स्थित हैं, उसका उपनक्षत्र स्वामी करेगा अर्थात् उस भाव का फल उपनक्षत्रेश के आधार पर होगा। जैसे-किसी की जन्मपत्री में तुला लग्न में दशमेश चंद्र, उच्च या स्वगृही है तो उसे किसी कंपनी/सरकारी नौकरी में उच्च पद पर या प्रतिष्ठित व्यवसाय में होना चाहिए। परंतु वास्तव में वह व्यक्ति फुटपाथ पर मजदूरी कर रहा था, तब ‘ऐसे में उसकी जन्मपत्री का अध्ययन किया तो यह पाया कि उसका उपनक्षत्र स्वामी, जन्मपत्री में नीच राशि में स्थित था, अतः उसे वास्तव में निम्न स्तर का रोजगार मिला। ठीक इस प्रकार जुड़वां बच्चों या समकक्ष में के. पी. ने उपनक्षत्र स्वामी का निर्माण राशियों को 4-4 मिनट में बांटकर सारणी तैयार कर किया तथा जुड़वां बच्चों के फल कथन में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो बिल्कुल सटीक पाया गया। क्योंकि जुडवां बच्चों में 2-3 मिनट का ही अंतर रहता है या एक ही स्थान, समय में भी 2-3 मिनट का ही अंतर पाया जाता है। अतः के. पी. की उपनक्षत्रेश पद्धति इनपर बिल्कुल सही साबित हुई। इसके अलावा, के. पी. पद्धति में प्रश्न कुंडली के आधार पर भी इन बच्चों का भविष्य कथन ज्ञात कर सकते हैं। यह आधुनिक ज्योतिष को के. पी. की महान देन है। हस्त रेखा एवं आयुर्विज्ञान के अनुसार, हस्तरेखाओं में भिन्नता 21वें क्रोमोसोम (गुणसूत्र) के कारण होती है, अतः गर्भ स्थान में कुछ समय (मिनट) अंतराल वास्तव में गर्भाशय में शुक्राणु का अंडाणु से निषेचन से होता है। अतः किसी का भी भाग्य का निर्माण चाहे सिंगल हो या जुड़वां, वह तो गर्भ स्थापन में ही हो जाता है बाकी के नौ महीने तो बालक के भ्रूण के पूर्ण निर्माण में लगते हैं। अतः यहां पर गर्भ स्थापन में 16 संस्कारों में गर्भाधान संस्कार का महत्व उपरोक्त कारण से है। के. पी. पद्धति से पूर्व ज्योतिष द्वारा जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन पूरी तरह सक्षम नहीं था। ऐसे में हस्तरेखा शास्त्र, भविष्य कथन में सहायक सिद्ध होता था। दो जातकों की हस्त रेखायें भिन्न होती हैं, जो जुडवां हो या एक ही समय और स्थान पर पैदा हुये हों। लेकिन के. पी. की नक्षत्र आधारित पद्धति ने ज्योतिष में जान डालकर हस्तरेखा की भांति सजीव बना दिया। के. पी. एवं हस्तरेखा के अलावा ‘‘प्रश्न ज्योतिष’ द्वारा भी जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन ज्ञात कर सकते हैं। ज्योतिष में पंचम भाव, पंचमेश व कारक गुरु तीनों संतान से जुड़े हैं, ये किसी स्त्री ग्रह से युक्त/दृष्ट (प्रभावित) हो तो जुडवां संतानें होती हैं। ये योग स्त्री एवं पुरूष में न्यूनतम एक में होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में भी देखते हैं तो कई जातकों के जुडवां बच्चे पैदा होते हैं, उनमें न्यूनतम एक में यह योग अवश्य होता है। जीवनशैली/लालन पालन का महत्व: यदि जन्मकुंडली पूर्ण रूप से समान हो, जुड़वां बच्चों की लग्न, चंद्र राशि व नक्षत्र चरण समान हो फिर भी यदि बच्चों के लालन-पालन में, शिक्षा, संस्कार में भिन्नता हो तो भी बच्चे भिन्न व्यक्तित्व के हो सकते हैं। ग्रह प्रभाव की व्यापकता: यदि दोनों बच्चों का कारक ग्रह एक हो तो भी उनके जीवन में भिन्नता आ सकती है।

मंगल और शुक्र की भूमिका

चंद्र मन का प्रतिनिधित्व करता है और मन काम शक्ति का कारक है। सभी प्रकार के संबेधों का कारण भी चंद्र होता है। जब चंद्र की दृष्टि, युति आदि सूर्य से हो, तो संबंध में आश्रय पाने के विचार होते हैं। मंगल कारण कर्मठ व्यक्तियों से, बुध के कारण व्यापारी वर्ग से, गुरु के कारण आध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों से, शुक्र के कारण विपरीत लिंग से और शनि के कारण आलोचना करने वालों से संबंध होते हैं। राहु-केतु के कारण उनके स्वामी के अनुरूप ही संबंध होते हैं। मंगल तथा शुक्र के कारण कामुक संबंध स्थापित होते हैं। लेकिन इनके साथ चंद्र की भी अहं भूमिका होती है। और इन योगों में शनि का योगदान अनैतिक संबंध कारक माना जाता है। चतुर्थ भाव का संबंध नैतिक तथा पवित्र माना जाता है। लेकिन सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव का संबंध उपर्युक्त योगों के साथ अनैतिक होता है। निर्बल मंगल गोपनीय संबंध बनाकर विवाहोपरांत जीवन को कष्टमय बना देता है। लेकिन मंगल और शुक्र दोनों बलवान हों तो बहु संबंधों के साथ बहुविवाह भी सफल होते हैं। विवाह आठ प्रकार के होते हैं- ब्राह्मण विवाह, प्राजापत्य विवाह, आर्ष विवाह, देव विवाह, गांधर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह। इन आठ प्रकार के विवाहों में ब्राह्मण वर्ण के लिए ब्रह्म विवाह, प्राजापत्य विवाह, आर्ष विवाह और देव विवाह सर्वश्रेष्ठ होते हैं। क्षत्रिय वर्ण के लिए आसुर विवाह और राक्षस विवाह श्रेष्ठ माने जाते हैं। वैश्य तथा शूद्र वर्णों के लिए गांधर्व विवाह तथा पैशाच विवाह श्रेष्ठ माने जाते हैं। गांधर्व विवाह की अनुमति सभी वर्णों के व्यक्तियों को होती है क्योंकि इस विवाह का कारक चंद्र, मंगल और शुक्र हैं। इसके अंतर्गत पुरुष स्त्री से प्रेम संबंध स्थापित कर विवाह कर लेता है। यह दोनों की सहमति से ही होता है। उपर्युक्त योगों के साथ-साथ अन्य ग्रहों की भी अपनी-अपनी भूमिका होती है। जैसे लग्नेश यदि चतुर्थ भाव में हो तथा चतुर्थ एवं सप्तम भाव मंगल और राहु से प्रभावित हों, तो जातक या जातका के कई स्त्रियों या पुरुषों से संबंध होते हैं। इसी प्रकार सप्तम भाव व सप्तमेश, पंचम भाव व पंचमेश तथा द्वादश भाव व द्वादशेश का किसी भी रूप में संबंध हो, तो स्त्री या पुरुष कामुकता के वशीभूत होकर विवाहेतर संबंध बनाते हैं। ज्योतिष में शुक्र दूसरों को रोमांस की दृष्टि से आकर्षित करने की क्षमता का परिचायक है। वह जातक या जातका को उसकी कामेच्छा, अभिलाषा, अभीप्सा आदि की पूर्ति हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। बहु संबंध एवं बहु विवाह का एक प्रमुख कारण स्थान विशेष का वातावरण भी होता है। स्वभाव से पुरुष सौंदर्यप्रिय तथा स्त्री धनप्रिय होती है। वर्तमान काल में 40 प्रतिशत विवाह धन के कारण तथा 30 प्रतिशत विवाह सौंदर्य के कारण होते हैं। शेष 30 प्रतिशत विवाह निवास या कार्यालय के वास्तुदोषों के कारण होते हैं। लेकिन इन सभी कारणों में उपर्युक्त ग्रह योगों की भूमिका अहम होती है। इसी प्रकार उपर्युक्त योगों को हाथ की रेखाओं के माध्यम से भी देखा जा सकता है। यदि मंगल व शुक्र के कारण बहु संबंध या अनैतिक संबंध बन रहे हों, तो जातक की हस्त परीक्षा से शुक्र पर्वत पर महीन जाली मिलेगी या गुरु पर्वत पर एक तारा का चिह्न अवश्य मिलेगा। यदि त्रिकोण के अंदर चंद्र की आकृति हो, तो चारित्रिक शिथिलता का बोध होता है। शुक्र पर्वत पर 2 क्राॅस अति कामी बनाकर बहु संबंध बनाते हों, तो शुक्र पर्वत के नीचे की तरफ कोई वर्ग हो तथा किसी अंगुली में 4 पर्व हांे, तो अनैतिक संबंध से कारागार प्राप्त होता है

जीवन में कष्ट और क्लेश हो करें कुछ उपाय........



आप भी जानते हैं, कि संसार का हर एक जीव अपने परिवार तथा आस पास के लोगों से बहुत प्यार करता है और हर किसी के मन मंे प्यार और सम्मान पाने की बहुत चाह होती है। लेकिन आज-कल परिवार में छोटी-छोटी बातों को लेकर क्लेश होना और फिर उसके कारण उस क्लेश का विकराल रूप होने में देर नहीं लगती है। हम भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, कि ये उसी कारण ऐसा हुआ है, अगर वो ऐसा नहीं करता तो आज ये हालात नहीं होते। ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है, हम या आप किसी को गलत नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इन सबके लिए जिम्मेदार हमारे कर्म तो होते हैं, लेकिन सबसे बड़े जिम्मेदार हमारे ग्रह ही होते हैं। कोई भी जीव धरती पर बुरा नहीं है, आइये अब कैसे इसे ठीक करें, जिससे कि हम हमारे प्यार करने वाले अनमोल परिवार से किसी भी तरह दूर न हों।
सबसे पहले क्या करें:
हमारे घर में छोटी-मोटी जरूरतों के लिए कीलें, बिना ताले की चाभियां, जंग लगा हुआ लोहा, बरसात की भीगी लकड़ी, कबाड़ के और भी जो रूप होते हैं, पड़े हुये मिल जाते हैं उन्हें बाहर निकालें।
छत पर भी कोई कबाड़, लोहा, लकड़ी आदि नहीं होना चाहिए, घर की छत बिस्तर के सुख वाले ग्रह से संबन्धित माना गया है।
घर में मूर्ति लगाकर, ज्योत जलाकर पूजा पाठ न करें, मंदिर में जाकर आप दोनों प्रकार से पूजा कर सकते हैं, सिर्फ आपको घर में मना किया जा रहा है।
सुबह जल्दी उठकर घर में साफ-सफाई करके पूरे घर में अच्छी लेकिन हल्की खूशबू वाली अगरबत्ती या धूप जला दें, जिससे कि परिवार में सभी लोगों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो सके।
गंदे-फटे बिस्तरों का प्रयोग न करें, हर सप्ताह में एक बार बिस्तरों के लिहाफ आदि बदल दें।
घर में नीले-काले रंग के पेंट आदि न करवाएँ और पर्दे आदि भी इस रंग के प्रयोग न करें।
घर के पूर्वी और उत्तर दिशा को हमेशा साफ रखें, इस दिशा में कभी भी कबाड़ या भारी सामान न रखें।
रोजाना घर की सबसे पहली रोटी में से कुत्ते, कौवे और गाय को हिस्सा जरूर दें, अगर रोटी में से न दे पाएँ तो अपने भोजन में से इनके लिए हिस्से अवश्य निकालें, ये कार्य करने से आपके सहकर्मी और आपके बड़े अधिकारी आपसे खुश रहेंगे तथा जीवनसाथी का सुख भी अच्छा मिलेगा।
घरेलू सुख-शांति के लिए ऐसा करें-
चाँदी के बड़े से बर्तन में गंगाजल भरकर चाँदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर घर में रखें, गंगाजल कभी सूखने न दें।
हर सप्ताह कम से कम एक बार गायों की सेवा जरूर करें, और संभव हो सके तो गली में साफ-सफाई करने वाले को भरपेट शाकाहारी भोजन अपने घर पर ही करवाएँ ।
जीवनसाथी के प्रति वफादारी कभी भी कम न करें।
तला हुआ खाना कम से कम बनाएँ, नारियल, बादाम तलने भुनने से बचें।
शौचालय, स्नानागार आदि बिल्कुल साफ सुथरे रखें, इनमें भी हल्की खूशबू का हमेशा प्रबंध रखें।
रात के समय जूठे बर्तन और गंदे कपड़े भिगोकर न सोएँ, अन्यथा आपके परिवार में एकता कभी नहीं बनेगी, और घर के सभी लोग अपनी- अपनी इच्छा का दबाव बनाकर सब कुछ नष्ट कर देंगे।
जो लोग दिन में मांसाहारी भोजन और शराब का सेवन करते हैं तो वो इसका सेवन सिर्फ रात को ही करें।
बीमारियाँ दूर न होती हों तो क्या करें ?-
हर महीने के किसी भी एक मंगलवार को पूरे महीने में आए रिश्तेदारों और घर के सदस्यों को जोड़ें। उनमंे चार और फालतू जोड़ लें तो जितनी भी संख्या हो उतनी ही आटे मंे गुड़ मिलाकर रोटियाँ तंदूर में लगवाकर कुत्तों और कौवों को डालें, लेकिन ध्यान रहे कि रोटियों मे लोहे का प्रयोग न हो।
हर रोज रात को सिरहाने दो-चार रुपए सिक्के के रूप में रखकर सोयें और सुबह उठाकर सफाई-कर्मचारी को दे दें।
घर के नौकर-चाकर और साथ में काम करने वालों को खुश रखें, उनसे झगड़ा और बहस कभी न करें।
रोजाना सुबह जल्दी उठकर सूर्य की रोशनी से स्नान करें।

ज्योतिष्य सार्थकता का जीवन पर प्रभाव....

ज्योतिष शास्त्र का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर ने प्रत्येक मानव की आयु की रचना उसके पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार की है, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता विशेषरूप से मनुष्य के जीवन की निम्नांकित तीन घटनाओं को कोई नहीं बदल सकता: 1. जन्म 2. विवाह 3. मृत्यु। ज्योतिष विद्या इन्हीं तीनों पर विशेष रूप से प्रकाश डालती है, यद्यपि इन तीनों के अतिरिक्त जीवन से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण बिदुओं से भी संबंधित है। कारण है कि यह एक ब्रह्म विद्या है। ज्योतिष शास्त्र को वेद के नेत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। यह भारतीय ऋषि-महर्षियों के त्याग, तपस्या एवं बुद्धि की देन है। इसका गणित-भाग विश्व-मानव मस्तिष्क की वैज्ञानिक प्राप्ति का मूल है तथा फलित भाग उसका फल-फूल। ज्योतिष अपने विविध भेदों के माध्यम से समाज की सेवा करता आया है और करता रहेगा। यह सत्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति या ज्ञान का विशेष प्रभाव समाज पर पड़ता है, उसका विरोध भी उसी स्तर पर होता है। ज्योतिष ने अपने ज्ञान के माध्यम से समाज को जितना अधिक प्रभावित किया है, उतने ही प्रखर रूप से इसकी आलोचना भी की गई। आलोचनाओं से निखर कर इसने अपने गणित-ज्ञान से विश्व को उद्घोषित किया तथा आकाश में रहने वाले ग्रहों, नक्षत्रों बिंबों तथा रश्मियों के प्रभावों का अध्ययन किया। इन प्रभावों से समाज में होने वाले परिवर्तन को देखा और समझा। ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों के प्राणी पर पड़ने वाले प्रभावों को जानने के लिए मनीषियों ने ब्रह्मांड रूपी भचक्र में विचरने वाले ग्रहों का कुंडली के भचक्र के रूप में साक्षात्कार कर उसके माध्यम से जन-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया, जिसे ‘फलित ज्योतिष’ की संज्ञा दी गई जो अपने आप में सत्य और विज्ञान-सम्मत है। किंतु प्रश्न यह है कि आकश में भ्रमण करने वाले ग्रहों का प्रभाव सृष्टि जड़ चेतन पर भी पड़ता है। ब्रह्मांड में अपनी रश्मियों को बिखेरने वाले ग्रह सांसारिक जीवों तथा वस्तुओं पर अपना अमिट प्रभाव डालते हैं, जिसका मूर्त रूप सागर मे उठने वाले ज्वार-भाटा का मूल कारण ‘चंद्रमा’ के प्रभाव को मानते हैं। तरल पदार्थ पर चंद्रमा का प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है। फाइलेरिया बीमारी का एक तीव्र वेग भी एकादशी से पूर्णिमा तक अधिक होता है। ज्योतिष चंद्रमा को रुधिर का कारक मानता है। चन्द्रमा जल में अपना प्रभाव डालकर जिस तरह उसमें उथल-पुथल मचाता है, उसी तरह से शरीर रक्त प्रवाह में भी अपना प्रभाव प्रदान कर मानव को रोगी बना देता है। वनस्पतियों पर यदि ध्यान दिया जाय तो चंद्रोदय होते ही कुमदिनी पुष्पित होती ह तथा कमल संकुंचित। सूर्योदय होने पर कमल प्रस्फुटित तथा कुमदिनीं संकुंचित। इससे स्पष्ट होता है कि सूर्य तथा चंद्रमा का इन दोनों पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। ‘उद्मिज्जज्ञ सरलिनोंस’ ने अपनी पुष्पवाटिका में फूलों की ऐसी पंक्ति बैठा ली थी, जो बारी-बारी से खिलकर घड़ी का कार्य करती थी। पशु-पक्षियों पर भी ग्रहों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टि गोचर होता है। उदाहरणार्थ बिल्ली की आंख की पुतली, चंद्रमा की कलानुसार घटती-बढ़ती रहती है। कुत्तों की काम वासना आश्विन-कार्तिक में जागृत होती है। अनेक पशु-पक्षी पर ग्रहों, तारों का प्रभाव अदृश्य रूप से पड़ता है, जो उनके क्रिया कलापों से उद्भाषित हो जाता है। पक्षियों की वाणी से घटनाओं की पूर्व सूचना हो जाती है। आदिवासी लोग बहुत कुछ इसी पर निर्भर रहते हैं। ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने अपनी अन्वेषणात्मक बुद्धि से ग्रहों के पड़ने वाले प्रभावों को पूर्ण रूप से परखा तथा उसके विषय में समाज को उचित मार्ग-दर्शन प्रदान किया। आज इस बात की आवश्यकता है कि हम इस शास्त्र के ज्ञान को सही सरल और सुबोध बनाकर मानव-समाज के समक्ष प्रस्तुत करें। शास्त्र वर्णित नियमानुसार यदि फलादेश किया जाए, जो प्रत्यक्ष रूप से घटित हो, तो इस शास्त्र को विज्ञान कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। फलादेश की प्रक्रिया: फलित ज्योतिष के विस्तार एवं विधाओं को देखने से ज्ञात होता है कि महर्षियों ने अपनी-अपनी सूझ-बूझ से अन्वेषण किया। परिणामतः उनके भेद-उपभेद होते चले गये। अतएव इसमें जातक, तांत्रिक, संहिता, केरल, समुद्रिक, अंक, मुहूर्त, रमल, शकुन, स्वर इत्यादि उपभेदों में भी अनेक सिद्धांतों का प्रचलन हुआ। मात्र जातक को ही लिया जाये, तो उसमें भी अनेक सिद्धांत प्रचलित हुए जिनमें केशव और पराशर को मूर्धन्य माना गया है। ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों की मौलिक प्रकृति, गुणतत्व-दोष कारक तत्व इत्यादि में लगभग सभी का मतैक्य है, परंतु फलकथन की विधि, दृष्टि, योग और दशादि के विचार में सबमें मतांतर है। ज्योतिषशास्त्र में महर्षि पराशर ने ग्रहों के शुभा-शुभत्व के निर्णय का वैज्ञानिक दृष्टि से फलादेश करने की विधियों, राजयोग, सुदर्शन पद्धति, दृष्टि तथा विश्लेषण किया है, उतना ‘अन्यत्र’ नहीं है। उन्होंने ग्रहों के अधिकाधिक शुभाशुभत्व का अलग से निर्णय किया है। ‘राजयोग’ के बारे में भी उनका विचार स्वतंत्र तथा सुलझा हुआ है। यद्यपि वराहमिहिर आदि आचार्यों ने भी इस पर अपना प्रभाव कम नहीं डाला है, फिर भी पराशर के विचार की तुलना में इनका विचार गौण है। अतः समीक्षकों ने ‘फलौ पराशरी स्मृति’ तक कह दिया है। पराशर के अनुसार ग्रहों के फल दो प्रकार के होते हैं। 1. अदृढ़ कर्मज 2. दृढ़ कर्मज अदृढ कर्मज फल गोचर ग्रह कृति है, जो शांत्यादि अनुष्ठान से परिवर्तनशील होता है। परंतु दृढ़ कर्मज फल ग्रह की दशा, भाव आदि से उत्पन्न होता है, जो अमिट होता है। अतः आधुनिक ज्योतिषियों के द्वारा अभिव्यक्त गोचर फल स्थायित्व से रहित होता है। जब तक गोचर का ग्रह प्रबल योग कारक रहता है, तब तक शुभ फल की प्राप्ति होती है। जब प्रतिकूल हो जाता है, तब उस फल का भी विनाश हो जताा है। हां, यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि नक्षत्र दशा का फल नहीं मिलता है। आचार्य वराहमिहिर ने लिखा है - स्व दशायु फलप्रदः सर्वे। अर्थात ग्रह अपने दशाकाल में अपना फल देते हैं। ग्रह भुक्ति के संबंध में पर्याप्त मतांतर है। सब के मतानुसार विभिन्न दशाएं हैं। किस दशा में ग्रह फल देते हैं, उसके संबंध में पराशर तीस से भी अधिक दशाओं में अपनी विशोंतरी दशा को प्रमुख बताया है। कुछ ज्योतिषियों का मत है कि दशादि के मध्यम से ग्रहकृत फलों का जो समय निर्धारित किया जाता है, सही नहीं होता है। इसके अनेक कारण हैं। समय का निर्धारण पंचांग के गणित के आधार पर किया जाता है, जो अधिकतर स्थूल होते हैं। अतः उनके द्वारा है अथवा नहीं। दशा अनुकूल हो, गोचर प्रतिकूल हो, तो अतिशुभ गोचर मिलान कर ही फलादेश किया जाये। अंत में समस्त ज्योतिष फलादेश विधि देखने से स्पष्ट होता है कि ज्योतिषियों के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न ग्रह जनित शुभाऽशुभ फल का समय निर्धारण करना है। यद्यपि ज्योर्तिविदों के इस संबंध में अनेक निर्णय हैं, फिर भी इस संबंध में और अधिक ठोस निर्णय लेने की आवश्यकता है।

शनि का गोचरीय प्रभाव

ग्रह सबसे बड़े व धीमी गति के होने के कारण धरती पर अपना सबसे ज्यादा प्रभाव डालते हैं। गोचर में भ्रमण करते हुये ये एक साथ 6 राशियों पर अपना नियंत्रण रखते हैं जिस कारण इनका फलित ज्योतिष में अपना अलग ही महत्व रहता है। अनुभवों से ज्ञात होता है कि शनि, मंगल व राहु गोचर में अपना शुभ फल लग्न से 62 अंश के बिन्दु पर होने पर देते हैं जबकि अन्य अंशों के बिन्दु में होने पर ये सभी ग्रह अपना अशुभफल प्रदान करते हैं। गुरु ग्रह इसी अंश के बिन्दु पर अपना सर्वोत्तम शुभ फल प्रदान करते हैं जबकि अन्य अंशों के बिन्दुओं पर केवल शुभफल ही देते हैं तथा लग्न से 200 अंश के बिन्दु में गुरु अशुभ फल देते हैं। जन्म लग्न से शनि का गोचर जातक विशेष के मस्तिष्क को कुंद करता है। जातक की सेहत खराब होने लग जाती है तथा लंबा व बड़ा रोग होने की संभावना बढ़ जाती है (टीबी. जैसे रोग इस दौरान ज्यादा पाये जाते हैं), जातक को दुर्घटनाओं का भय होने लगता है। स्त्री जातकों में इस समय प्रेम संबंधांे में निराशा, तलाक,विधवापन जैसी परेशानियाँ देखी गयी हैं। ऐसा नहीं है कि ये गोचर सारे अशुभ प्रभाव ही देता है। अनुभव में देखा गया है कि जो जातक तुला, मकर या कुम्भ लग्न के थे उन्हें शनि के इस गोचर ने शुभ फल भी प्रदान किए। इसके अतिरिक्त जिनकी पत्रिका मे शनि शुभ अवस्था में थे उन्हें शनि के इस गोचर ने बीमारी से मुक्ति, स्त्री सुख व स्त्री मिलन जैसे सुख भी प्रदान किए (जिनकी पत्नी उनसे दूर रहती हो वह वापस आ जाती हैं )। इसी प्रकार के नतीजे मंगल,सूर्य राहु, केतु के लग्न से गोचर करने पर भी पाये गए । यदि गोचरीय शनि को मंगल प्रभाव दे रहा हो तो जातक को बुरे वक्त से गुजरना पड़ता है, उसे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। यदि शनि पर शुभ ग्रह का प्रभाव हो तो जातक को उसकी ईमानदारी का शानदार इनाम मिलता है। यही वह समय होता है जब जातक समाज में अपना ऊंचा स्थान पा जाता है। जब शनि लग्न से 60 अंश पर से गुजरता है तब जातक को जमीन जायदाद एवं व्यापार संबंधी लाभ प्राप्त होते हैं। जमीन से किसी भी प्रकार जुड़े व्यक्तियों को बहुत लाभ मिलता है। घर से गए व्यक्ति,गायब हुये व्यक्ति वापस अपने घर आ जाते हैं। यदि यह शनि मंगल के प्रभाव मंे हो तो जातक के छोटे भाई-बहनों क स्वास्थ्य की हानि होती है। रिश्तेदारों व पड़ोसियों से तनाव पैदा करता है, यदि इस शनि को गुरु ग्रह देख रहा हो तो परिवार में सुखों की वृद्धि होती है, संतान का जन्म होता है। लेखकों के लिए यह समय अति शुभ होता है, राजनीति से जुड़े लोगों की समस्या का समाधान होता है। कला से जुड़े व्यक्तियों, कलाकारों का सम्मान होता है तथा धरती पर दुधारू पशुओं की वृद्धि होती है। जब शनि गोचर में लग्न से 90 अंशों से गुजरता है तो जातक विशेष को अचानक हानि का सामना करना पड़ता है, माता या मातृपक्ष के किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है, कोर्ट कचहरी के चक्करोंके कारण अनावश्यक खर्च होता है, धन हानि के साथ-साथ स्थान परिवर्तन भी होता है। यदि यह शनि शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो इन सभी अशुभफलों में कमी होकर जातक को धनप्राप्ति व नई परिस्थितियों,उम्मीदों का सामना करना पड़ता है। लग्न से 120 अंशांे पर गोचर करने पर शनि संबंधांे को तोड़ने का कार्य करता है, संतान को कष्ट व स्वास्थ्य हानि होती है। कुछ अवस्थाओं में बड़े बच्चे अपने माता-पिता की अवहेलना भी करने लगते हैं। यदि इस शनि पर कोई शुभ ग्रह प्रभाव डाल रहा हो तो जातक तीर्थयात्रा व धार्मिक शिक्षा का अध्यापन करता है। यदि यह शनि स्वगृही हो या शुभ हो तो राजनीतिज्ञों को अपने शत्रुओं पर विजय दिलाता है और यदि इस शनि पर पाप प्रभाव हो तो बड़ों के द्वारा दंड,कानून द्वारा सजा, विस्थापन,मृत्यु तथा घर वालों को बीमारी जैसे फल प्राप्त होते हैं। इस गोचर से व्यापारियों व कारोबारियों को नुकसान होता है, स्त्री को विवाह में बाधाएं व पति सुख में कमी जैसे फलों का सामना करना पड़ता है। मजदूर वर्ग हड़ताल जैसी समस्याओं का सामना करता है, चोटिल होता है। शनि का लग्न के 180 अंशो पर गोचर जातक विशेष को पत्नी की स्वास्थ्य हानि, परीक्षा में असफलता, किसी इल्जाम में फंसना, से मतभेद तथा पालतू जानवरांे की हानि जैसे फल देता है। जब शनि का गोचर लग्न से 199 अंश पर होता है तब जातक विशेष को पत्नी की हानि, संपत्ति बंटवारा, स्वयं के अस्तित्व पर संदेह,नौकरी में अवनति जैसे फल प्राप्त होते हैं। अगर इस शनि के गोचर पर पाप प्रभाव हो तो जातक को अवसाद, असहयोग,नकारात्मक सोच के कारण आत्महत्या जैसे विचार आते हैं।

उच्चतम मुहूर्त से उच्च चरित्र का निर्माण कैसे?????

हमारे लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपनी मूल संस्कृति से इतने दूर जा रहे हैं कि हमारे समाज में पति-पत्नी जैसे पवित्र संबंधं का भी महत्व नहीं रह गया है। प्रिंट मीडिया के कई सर्वेक्षणों से यह बात उभरकर सामने आई है कि आज हमारे समाज में चाहे वह कोई स्त्री हो या पुरुष, शादी से पहले या शादी के बाद कई-कई संबंध बेहिचक बनाने लगे हुए हैं। बात सिर्फ गुप्त रूप से बने संबंधों की नहीं है बल्कि लोग तो आज आधुनिकता की दौड़ में खुलकर बहु विवाह भी कर रहें हैं। इसमें उन्हें कोई भी शर्म या हिचक महसूस नहीं होती है। इन बहु विवाहों और बहु संबंधों के बारे में ज्योतिषीगण किसी जातक या जातका की जन्म पत्रिका देखकर उसके इन संबंधों के बारे में सटीक भविष्यवाणी करके बता भी देते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या एक सच्चे ज्योतिषी का कर्तव्य यहीं समाप्त हो जाता है? शायद नहीं, मुहूर्त की मदद से एक मां इस समस्या को शायद ज्योतिषीय विधि से कहीं न कहीं कम कर सकती है। जीवन का प्रारंभ मां से होता है और यदि मुहूर्त और मातृत्व में सामंजस्य बन जाए तो जातक चरित्रवान, भाग्यवान, स्वस्थ एवं दीर्घायु हो सकता है। मातृत्व एवं मुहूर्त के विषय में ज्योतिष के अनेक विद्वानों ने दिग्दर्शन कर यश कमाया है। इनमें ‘मुहत्तर्त-मार्तंड’ के रचयिता आचार्य नारायण प्रमुख हैं। जीवन के बहु आयामों के अनुरूप अनेकानेक मुहूर्त निर्धारित किए जाते हैं, किंतु सर्व प्रथम मुहूर्त कन्या के प्रथम रजो दर्शन से ही प्रारंभ होते हैं; किंतु भारतीय परिवेश में लज्जा, संकोच एवं मुहूर्त को अनुपयुक्त समझकर इस अति महत्वपूर्ण तथ्य को नगण्य कर दिया जाता है और जातक के जन्म के बाद माता-पिता जीवन भर एक से दूसरे ज्योतिषी एवं एक उपाय से दूसरे उपाय तक भटकता फिरते हैं। अस्तु, आवश्यक है कि एक श्रेष्ठतर राष्ट्र निर्माण हेतु श्रेष्ठ नागरिक तैयार किए जाएं। प्राचीन काल में मुहूर्त का उपयोग राजवंशों में ही प्रचलित था। परिणामतः राजाओं की संतति अधिक स्वस्थ होती थी एवं उनका भाग्य बलशाली होता था। किंतु आज बदले हुए परिवेश में सर्वसाधारण भी मुहूर्त का उपयोग करने लगे हैं, क्योंकि यह उनके लिए भी उतना ही जरूरी है। इस कार्य में माताओं को ही अग्रणी भूमिका अदा करनी होगी। तभी पुत्री के इस प्रथम मातृ सोपान पर शुभाशुभ निर्णयकर जीवन को सहज एवं सफल अस्तित्व प्रदान किया जा सकेगा। कन्या की 12 से 14 वर्षों की आयु के अंतराल में यदि रजोदर्शन शुभ मुहूर्त में हो, तो निश्ंिचत रहें अन्यथा यदि मुहूर्त अशुभ हो, तो कुछ उपाय, दान आदि से अशुभता का निवारण करें। प्रथम रज दर्शन के शुभ मुहूर्त मास: माघ, अगहन, वैशाख, आश्विन, फाल्गुन, ज्येष्ठ, श्रावण। पक्ष: उपर्युक्त महीनों के शुल्क पक्ष तिथि: 1,2,3,5,7,10,11,13 और पूर्णिमा। वार: सोवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार। नक्षत्र: श्रवण, धनिष्ठा,शतभिषा, मृगशिरा, अश्विनी, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, तनों उत्तरा, रोहिणी, पुनर्वसु, मूल, पुष्य शुभ लग्न: वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, तुला, धनु, मीन शुभवस्त्र: श्वेत प्रथम रज दर्शन के अशुभ काल एवं उपाय यदि रजोदर्शन में पूर्वोक्त शुभ समय नहीं रहा हो, तो अशुभता निवारण हेतु उपाय सहज एवं सुलभ है। निषिद्ध योग उपाय भद्रा-स्वस्ति-वाचन, गणेशपूजन निद्रा-शिव संकल्प सूक्त के 11 पाठ संक्राति अमावस्या-सूर्याघ्र्य एवं दान रिक्ता तिथि-अन्न से भरा कलश दान संध्या- बहते जल में दीप दान षष्ठी, द्वादशी, अष्टमी- गौरी पूजन वैधृति योग- शिव लिंग पर दुग्ध, दूर्बा एवं विल्वपत्र समर्पण रोगावस्था- पीली सरसों की अग्नि में आहुति चंद्र सूर्य ग्रहण-काले उड़द का दान पात योग-राहु-केतु का दान अशुभ नक्षत्र-पार्थिव पूजन अशुभ लग्न-नव ग्रह पूजन पूर्वोक्त उपाय, कन्या के शुद्ध होने पर कन्या द्वारा ही कराएं। इन उपायों द्वारा अमंगल निवारण हो जाता है और भावी जीवन कल्याणकारी होता है। उपाय की उपयुक्तता: अगर जीवन में कुछ छोटी-छोटी बातों जैसे छिपकली या गिरगिट का गिरना, बिल्ली का रास्ता काटना आदि को शुभाशुभ मान कर उपाय करते हैं तो इस शारीरिक परिवर्तनारंभ का भी ज्योतिषीय उपाय एवं विश्लेषण किया जाना चाहिए क्योंकि यह आवश्यक एवं तर्कसंगत है। आज के वैज्ञानिक युग में यौन-संबंध के बिना भी जीवन उत्पत्ति (परखनली शिशु) होती देखी जा रही है। वैज्ञानिक उस जैव उत्पत्ति स्थान-परिसर में वातानुकूलन को अनिवार्य मानते हैं। मातृत्व हेतु मुहूर्त भी ग्रह-नक्षत्रों के अनुकूलन की प्रक्रिया है। दूसरा मातृत्व सोपान गर्भाधान होता है। भारतीय विद्वानों ने अपनी अलौकिक ज्ञान साधना द्वारा इस विषय पर सर्व सम्मति से निर्णय दिया है। भद्रा पर्व के दिन षष्ठी, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या पूर्णिमा, संक्रांति, रिक्ता, संध्याकाल, मंगलवार, रविवार, शनिवार और रजोदर्शन से 4 रात्रि छोड़कर शेष समय में तीनों उत्तरा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा एवं शतभिषा नक्षत्र में गर्भाधान शुभ होता है। गर्भाधान के पश्चात गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा भी उतनी ही आवश्यक होती है, जितनी अंकुरित होते हुए बीज एवं विकसित होते हुए पौधों की। इस संबंध में मुहूर्त चिंतामणिकार ने गर्भकालीन दस मास तक के स्वामी ग्रहों की स्थिति का निर्धारण किया है। इन ग्रहों के दान-पूजन से उत्पन्न होने वाले जातक का जीवन एवं भाग्य सुदृढ़ होते है। मास ग्रह पूजन एवं उपाय प्रथम शुक्रगणेश स्मरण, मिष्टान्न एवं सुगंधि दान। द्वितीय मंगल गाय को मसूर की दाल खिलाएं। तृतीय गुरु परिवार के श्रेष्ठों को हल्दी का तिलक लगाकर आशीर्वाद लें। चतुर्थ सूर्य सूर्याघ्र्य दान पंचम चंद्रचंद्राघ्र्य दान षष्ठ शनि सायंकाल शनिवार को दीपदान सप्तम बुध हरी सब्जियों का उपयोग एवं दान अष्टम लग्नेश विष्णु पूजन करें, तुलसी को जल दें। नवम चंद्र चंद्राघ्र्य दान दशम सूर्य सूर्य को प्रणाम करें, गणेश का स्मरण करें। ज्योतिष मुहूर्त की अंक प्रक्रिया इसे पूर्ण वैज्ञानिक बनाती है।

आयुर्वेदिक विज्ञान का ज्योतिष्य महत्व

आयुर्वेद को जीवन का विज्ञान कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यह विज्ञान मात्र शारीरिक संरचना, स्वास्थ्य संवर्धन का ही विवेचन नहीं करता, अपितु मनुष्य के आर्थिक, सामाजिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्वास्थ्य की विवेचना भी इसका उद्देश्य है। कहा है: ”शरीरेन्द्रिय सत्वात्म संयोगो आयुः“ शरीर के साथ सत्वात्म की विवेचना ही व्यक्तित्व विवेचना है। सत्वात्म का विभिन्न परिमाणों में सम्मिश्रण ही व्यक्तित्व के बहुविध स्वरूपों का प्रदर्शन है। इस व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतंत्र रूप से भूत विद्या नामक चिकित्साशास्त्र की अवधारणा संहिताकारों ने की जिसका मूल स्रोत अथर्ववेद की अथर्वण परंपरा से संभवतः गृहीत किया गया है। क्या है व्यक्तित्व: मानस के विभिन्न क्रिया व्यापार के परिणामस्वरूप व्यवहार के रूप में प्राप्त जो विचार है उसे व्यक्तित्व कहते हैं। कुछ विद्वान ”मनोविचय“ को व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया है। जिस प्रकार शारीरिक क्रियाओं को समझाने के लिए शरीरविचय की आवश्यकता होती है वैसे ही मानस व्यापार के माध्यम से मनोविचय का परिज्ञान होता है। व्यक्तित्व का आभास मनोविचय के माध्यम से भी होता है। मनस स्वयं अतींद्रिय है इसलिए उसके व्यापार दृष्ट एवं अदृष्ट दोनों प्रकार के होते हैं। इस सूक्ष्म एवं अतींद्रिय मनस के व्यापारों को समझने के लिए चित्त, बुद्धि, अहंकार के विषय का ज्ञान कर व्यक्तित्व ज्ञान किया जाता है। कहा भी है: ”शरीर विचयः शरीरोपकारार्थमिष्यते। ज्ञात्वा हि शरीरतत्वं शरीरोपकारकेषुभावेषु ज्ञानमुत्पद्यते। तस्मात् शरीरविचयं प्रशंसन्ति कुशलाः। चरकसंहिता शारीर 6/3 सभी दर्शन के आचार्य मनस का अस्तित्व स्वीकार करते हैं लेकिन मन के निष्क्रियत्व, क्रियत्व, विभुत्व, अविभुत्व निर्विकार और चिदंश स्वरूप को मानने में एकमत नहीं हैं। मानस के संगठन में संस्कार या संस्कार पुंज का विशेष स्थान है। संस्कार प्रत्येक जीवन के अनुभवों के आधार पर सत्व, रज और तम गुणों से संपृक्त होते हैं। मानस की रचना एवं क्रिया में संस्कार कोषों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे हम मानस व्यापार के द्वारा समझ सकते हैं। आचार्य चरक का मत है कि मन अचेतन होने पर भी क्रियाशील है और उसको चैतन्यांश आत्मा से प्राप्त होता है। कहा भी है: अचेतनं क्रियावच्चमश्चेतयिता परः, युक्तस्य मनसा तस्य निर्दिश्यन्ते विभोः क्रियाः। चेतनावान् यतश्चात्मा ततः कत्र्तानिगद्यते, अचेतनत्वाच्च मनः क्रियावदपिनोच्यते। जिस प्रकार देह या शरीर के निर्माण में त्रिदोषों का महत्व है उसी प्रकार महागुणों का महत्व ‘मानस प्रकृति’ या ‘व्यक्तित्व’ निर्माण में स्वीकार किया गया है। महागुण या सत्व, रजस् या तमस गुणों का प्राधान्य ही व्यक्तित्व या मानस प्रकृति का परिचायक है। यह प्रकृति या व्यक्तित्व आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार शुक्र आत्र्तव के माध्यम से प्राप्त होता है। यथाः शुक्रात्र्तवस्थैर्जन्मादौविषेणैव विषीक्रिमे, तैश्च तिस्र प्रकृतियोः हीन मध्योत्तमापृथक्। मातरं पितरं चैके मन्यन्ते जन्मकारणम् स्वभावं परनिर्माणं यदृच्छाचापरे जनाः। आचार्य सुश्रुत ने प्रकृति की परिभाषा करते हुए बतलाया है कि शुक्र शोषित संयोग में जो दोष प्रबल होता है उसी से प्रकृति उत्पन्न होती है। कहा भी है ”प्रकृतिर्नाम जन्ममरणान्तराल भाविनी गर्भावक्रान्ति समये स्वकारणोद्रेक जनिता निर्विकारिणी दोषस्थितिः।“ व्यक्तित्व या प्रकृति प्रकार एवं विनियोग: आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन धातु साम्य है, अतः प्रकृति का अर्थ धातु साम्य के साथ ही सन्निहित है। जब प्रकृति का अर्थ स्वभाव किया जाता है तब इससे शरीर और मानस व्यक्तित्व का ग्रहण किया जाता है। स्वभावदृष्टया शरीर मानस प्रकृति और देह प्रकृति का परिचायक है। आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों का निर्माण गर्भावस्था में ही होता है। यह पोषण पंचमहाभूतात्म, षडरसात्मक आहार जो माता ग्रहण करती है उसी के अंश से गर्भ को प्राप्त होता है। आचार्य चरक ने चरक संहिता सूत्रस्थान 1/5 में कहा है कि शरीर में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसकी त्रिदोषों या पंच महाभूतों से उत्पत्ति न हुई हो। आचार्य सुश्रुत ने भी पंचमहाभूतों/त्रिदोषों को शरीर की प्राथमिक इकाई के रूप में स्वीकार किया है और ये ही शरीर के सामान्य क्रिया व्यापार को नियमित करते हैं। व्यक्तित्व या मानस प्रकृति के प्रतिनिधित्व के रूप में सत्व, रजस और तमस को भी आधार रूप में मानते हैं। अतः यहां पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सत्व, रज एवं तम पंचमहाभूतों या त्रिदोषों से अलग नहीं हैं। डाॅ. ए. लक्ष्मीपति का मत है कि त्रिदोष या पंचमहाभूत अथवा महागुण (सत्व, रज, तम) शरीर कोशिकाओं के चारों ओर स्थित होते और उन्हें ठोस, गैस और द्रव रूपात्मक द्रव्यसत्ता से पोषण प्रदान करते हैं। आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक क्रिया का सुव्यवस्थित, एवं पारदर्शी स्वरूप मिलने के कारण और प्रत्यक्ष प्रमाण से अधिकाधिक ज्ञापित होने के कारण इसे ‘न्यूरोह्यूमर्स’ के रूप में प्रतिपादित करते हैं। आयुर्वेदीय संहिताओं में इस तरह के भी संदर्भ हैं कि गर्भधारण से पूर्व एवं धारण के पश्चात जिस प्रकार के आचार-विचार, व्यवहार, खान-पान का प्रयोग मां करती है उसका भी प्रभाव गर्भ पर पड़ता है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता भी इससे सहमत हैं। व्यक्तित्व एवं ज्योतिष विज्ञान: आयुर्वेद की प्रमुख संहिताओं चरक सुश्रुत एवं अष्टांग संग्रह और अष्टांग हृदय सहित संहितेतर ग्रंथों में शरीरशास्त्र औषधि ग्रहण एवं प्रयोग विधि, निर्माण विधि के संदर्भ में ज्योतिषीय आधारों को ग्रहण करने का निर्देश दिया गया है। ज्योतिषशास्त्र का आधार मुख्य रूप से ग्रहों, नक्षत्रों को माना गया है और इनका ही ‘जातक’ के जन्मकाल, स्थान विशेषादि से गणितीय गणना के आधार पर आकलन कर सुखासुख विवेक निर्धारित किया जाता है। सूर्य, चंद्र, बुध, गुरु, मंगल, शुक्र, राहु, शनि आदि कुंडली के अनुसार सुखासुख विवेक को प्रदर्शित करते हैं। प्रत्येक ग्रह का अपना नैसर्गिक फल होता है। भावाधीश फल का लग्नेश के अनुसार फल बदल जाता है। इसी को आधार मानकर आयुर्वेद के आचार्य साध्यासाध्य व्याधि का विचार कर सकते हैं। अनेक असाध्य व्याधियों का उल्लेख भी है जिनकी साध्यासाध्यता औषधि प्रयोग और ज्योतिषीय फलादेश के आधार पर निश्चित की जा सकती है। यह बात महत्वपूर्ण है कि जहां आयुर्वेद विज्ञान कार्य कारण सिद्धांत के अनुसार शरीराभिनिवृत्ति, द्रव्यमनि निवृत्ति, रोगारोग्य कारणों सहित व्यक्तित्व का प्रतिवादन करता है वहीं ज्योतिष विज्ञान संभावनाओं के आधार पर जातक के गुणावगुणों और दुःख-सुखादि भावों को बताने में समर्थ है। अतः दोनों विज्ञानों का समन्वय कर चिकित्सा जगत की समस्याओं का निवारण किया जा सकता है।

ग्रहों का बलवान एवं अच्छी स्थिति में होना सफलता की कुंजी क्यों है?

अगर लग्न एवं लग्नेश बलवान है तो वह व्यक्ति स्वयं ऊर्जावान एवं क्षमतावान होगा और उसकी प्रतिकूल परिस्थितियों एवं बाधाओं से निपटने की क्षमता तथा प्रतिरोधात्मक शक्ति भी दुगनी होगी जिससे वह अपना बचाव करते हुए आगे बढ़ने का रास्ता निकाल सकता है। लग्न एवं लग्नेश के निर्बल होने पर उनकी प्रतिरोधक क्षमता नगण्य हो जाती है और उसे थोड़ा भी प्रतिकूल प्रभाव अधिक महसूस होता है। फलस्वरूप उसकी प्रगति में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। इस बात को इस प्रकार समझा जा सकता है कि अगर किसी पहलवान को चोट लग जाए तो वह उससे जल्दी स्वस्थ हो जाएगा, जबकि एक निर्बल व्यक्ति के लिए वह जानलेवा भी हो सकती है। अस्तु बलशाली लग्न एवं लग्नेश वाले व्यक्ति को अरिष्ट योगों का अपेक्षाकृत कम बुरा परिणाम परिलक्षित होगा और व्यक्ति के ऊर्जावान होने से अच्छे योगों का वह और अधिक लाभ उठाएगा, जबकि निर्बल लग्न एवं लग्नेश वाले व्यक्ति के ऊर्जाहीन रहने से उसे अनिष्ट योगों का प्रभाव ज्यादा कष्टप्रद महसूस होगा और अच्छे योगों का फल भी उसे अपेक्षाकृत कम लाभ ही दे पायेगा। ऐसी स्थिति जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों के सम्बन्ध में दृष्टिगोचर होती है। अगर ग्रह बलवान है तो उसका प्रभाव अच्छा परिलक्षित होगा, जबकि निर्बल ग्रह का प्रभाव कम या नगण्य ही रहेगा। वैसे तो ग्रहों का बल कई प्रकार से आकलित किया जाता है किन्तु राशि अंशों के आधार पर 0 से 6 अंश तक ग्रह को बालक 6 से 12 अंश तक कुमार, 12 से 18 अंश तक युवा, 18 से 24 अंश तक प्रौढ़ तथा 24 से 30 अंश तक वृद्ध माना गया है। इस प्रकार किसी राशि में ग्रह 10 अंश से 24 अंश के बीच बलशाली रहेगा। ग्रह की नीच, अशुभ या शत्रुभाव में स्थिति, क्रूर, अशुभ, शत्रु ग्रहों की युति या दृष्टि ग्रहों की शुभता को कम कर उसकी अशुभता में वृद्धि करती है। उच्च, शुभ या मित्र भाव में ग्रह की स्थिति, शुभ एवं मित्र ग्रहों से युति या उसकी दृष्टि ग्रह की अशुभता को कम कर उसकी शुभता में वृद्धि करती है। चन्द्रमा की सबलता व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति एवं मानसिकता का परिचायक है। कई बार देखने में आता है कि जन्मकुण्डली में प्रथम दृष्टया राजयोग एवं कई अच्छे योग होने के बावजूद व्यक्ति का जीवन साधारण स्तर का ही व्यतीत होता है, जबकि अशुभ एवं अनिष्टकारी योग होने के बावजूद कई व्यक्तियों का जीवन अस्त-व्यस्त नहीं होता और मामूली कुछ झटके सहकर वे संभल जाते हैं। यह परिणामों की विसंगति लग्न, लग्नेश, चन्द्र एवं योग निर्मित करने वाले ग्रहों के बल एवं उनकी स्थिति के कारण होती है। अगर योग निर्मित करने वाले ग्रह निर्बल हैं, अच्छी स्थिति में नहीं हैं, पीड़ित हैं तो वे अपना प्रभाव देने में असमर्थ रहेंगे। लग्न एवं लग्नेश की सबलता योग की शुभता में वृद्धि करेगी, जबकि निर्बलता अशुभता को बढ़ा देगी। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि शक्ति के समक्ष सब नतमस्तक होते हैं।

बच्चों के जीवन और कैरिअर को सही दिशा

इसी महीने बच्चों की परीक्षा का समय आ गया है। हम अपनी जिंदगी में आजकल इतना व्यस्त हो चुके हैं कि हमें अपने भविष्य को बनाने के अलावा और किसी बात की चिंता ही नहीं होती, जिसके कारण पारिवारिक जीवन अंदर ही अंदर खराब होता रहता है। पति-पत्नी में भी आए-दिन क्लेश होते रहते हैं, कई बार तो बच्चों की पढ़ाई की वजह से घर में क्लेश बड़ा रूप ले लेता है जिसके कारण पति-पत्नी में भी तनाव बन जाता है।
बच्चों की पिटाई करना भी अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जिसे इतना प्यार करते हैं, उसी औलाद पर कैसे हाथ उठा दें। समस्या का ये कोई हल भी नहीं है, ऐसा बिलकुल न करें। बच्चांे में बढ़ती उम्र के साथ जिद्दीपन, गुस्सा, छोटी-छोटी बातों को लेकर घर में तोड़ फोड़ करने की आदत न जाने कहां से आ जाती है, फिर यही सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हम तो ऐसे नहीं थे फिर हमारे बच्चे ऐसे कैसे हो गए। आइये आज हम ऐसी ही बहुत सी परेशानियों के हल निकालें....
मन का न लगना या फिर याद करके भूल जाना
जो बच्चे पढ़ने लिखने में ध्यान नहीं देते हैं, उनको सबसे पहले तो गहरे नीले और काले रंग से परहेज करवाएं, उनके कमरे में भी इन रंगों को न करवाएं।
सूर्यास्त के बाद बच्चों को दूध न पिलाएं अगर पीना ही हो तो रंग बदलकर पीने दें।
बच्चों को हमेशा उत्तर दिशा की तरफ मुंह करके पढ़ने के लिए कहें, बच्चों की स्टडी टेबल पर सफेद या लाल रंग का प्रयोग करें।
घर से सभी तरह के नए-पुराने बिजली के खराब सामान, बंद घड़ियां, खोटे सिक्के, जंग लगा हुआ लोहा आदि बाहर निकालें, क्योंकि इनकी दुर्गंध सांस के द्वारा जब अंदर जाती है तो दिमाग में सहन शक्ति कम होने लगती है और याददाश्त कमजोर होती है साथ ही यही घर में बीमारी भी कभी खत्म नहीं होने देते।
चांदी के बर्तन में गंगाजल भरकर चांदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर बच्चों के पढ़ने वाले कमरे में रखें।
बच्चे के कमरे में बृहस्पति की पोटली कील पर लटका दें।
बच्चों के कमरे में मां सरस्वती जी की फोटो उत्तर दिशा की तरफ जरूर लगाएं।
परीक्षा के दौरान क्या करें और क्या नहीं करें
जब भी बच्चा परीक्षा देने जाये तो उससे पहले 6 दिन लगातार 600 ग्राम दूध मंदिर में रखें।
काले, नीले रंग के कवर वाले पेन न ले जाएं, और पेन का ढक्कन अगर सुनहरा हो तो बहुत ही अच्छा होगा।
बच्चों को 6 से 7 घंटे की नींद जरूर लेने दें, न ही इससे ज्यादा नींद लेने दें और ना ही इससे कम नींद लेने दें।
नीले, काले रंग के कपड़े पहनकर एक्जाम देने ना जाएं, अगर भूल जाने की आदत हो तो हरे रंग से परहेज रखें।
जो बच्चे अपनी पढ़ाई टिककर नहीं करते अर्थात धैर्य से नहीं पढ़ते उनको सवा 5 रत्ती लाल मूंगा (बंगाली मूंगा अति उत्तम होता है) चांदी में लगवाकर शुक्ल पक्ष में मंगलवार के दिन सीधे हाथ की अनामिका अंगुली में पहना दें। रत्न के लिए सही तरह से जन्मकुंडली का देखना जरूरी होगा।
बच्चे में बढ़ते गुस्से और जिद्दीपन
बच्चों में बढ़ते गुस्से और जिद्दीपन को रोकने के लिए हर मंगलवार 8 गुड़ की रोटियां तंदूर में लगवाकर 4 कुत्तों को डालें और 4 कौवों को डालें, रोटियों में लोहे की छड़ न लग पाये।
बच्चों को अच्छे और सहनशील दोस्तों का चयन करना सिखाएं।
बच्चों की पिटाई ना करें, इससे उनके अंदर का डर एक दिन खत्म हो जाएगा, बहुत ज्यादा होने पर ही ऐसा कदम सोच समझकर उठाएं।
घर की छत पर किसी भी प्रकार का कबाड़, लोहा, लकड़ी आदि न रखें।
उनके कमरे की और कपड़ों की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।
चांदी के बर्तन में गंगाजल भरकर चांदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर बच्चों के पढ़ने वाले कमरे में रखें।
बच्चे के कमरे में बृहस्पति की पोटली कील पर लटका दें।
खेलने का कम से कम एक से डेढ़ घंटे मौका अपने बच्चों को जरूर दें जिससे कि उन्हें पसीना जरूर आये और श्वांस प्रक्रिया के द्वारा दिमाग में, आॅक्सीजन पहुंच सके, मुंह से सांस न लेने की आदत डाले, इससे बच्चे की याददाश्त बढ़ेगी।
बच्चों को देर रात तक न जागने दें और सुबह देर तक ना सोने दें। सुबह जल्दी जगाकर उनके कमरे में अच्छी हल्की खूशबू की अगरबत्ती या परफ्यूम लगा दें जिससे कि जब वे जागें तो एक सकारात्मक सोच के साथ दिन की शुरूआत हो।

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Thursday 3 March 2016

चरावेती-चरावेती प्रचलाम्ह निरंतरम् - केतु के अधीन पौरूष्र्य -

निरंतर चलायमान रहने अर्थात् किसी जातक को अपने जीवन में निरंतर उन्नति करने हेतु प्रेरित करने तथा बदलाव हेतु तैयार तथा प्रयासरत रहने हेतु जो ग्रह सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है, उसमें एक महत्वपूर्ण ग्रह है केतु। ज्योतिष शास्त्र में राहु की ही भांति केतु भी एक छायाग्रह है तथा यह अग्नितत्व का प्रतिनिधित्व करता है। इसका स्वभाग मंगल ग्रह की तरह प्रबल और क्रूर माना जाता है। केतु ग्रह विषेषकर आध्यात्म, पराषक्ति, अनुसंधान, मानवीय इतिहास तथा इससे जुड़े सामाजिक संस्थाएॅ, अनाथाश्रम, धार्मिक शास्त्र आदि से संबंधित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। केतु ग्रह की उत्तम स्थिति या ग्रह दषाएॅ या अंतरदषाओं में जातक को उन्नति या बदलाव हेतु प्रेरित करता है। केतु की दषा में परिवर्तन हेतु प्रयास होता है। पराक्रम तथा साहस दिखाई देता है। राहु जहाॅ आलस्य तथा कल्पनाओं का संसार बनाता है वहीं पर केतु के प्रभाव से लगातार प्रयास तथा साहस से परिवर्तन या बेहतर स्थिति का प्रयास करने की मन-स्थिति बनती है। केतु की अनुकूल स्थिति जहाॅ जातक के जीवन में उन्नति तथा साकारात्मक प्रयास हेतु प्रेरित करता है वहीं पर यदि केतु प्रतिकूल स्थिति या नीच अथवा विपरीत प्रभाव में हो तो जातक के जीवन में गंभीर रोग, दुर्घटना के कारण हानि,सर्जरी, आक्रमण से नुकसान, मानसिक रोग, आध्यात्मिक हानि का कारण बनता है। केतु के शुभ प्रभाव में वृद्धि तथा अषुभ प्रभाव को कम करने हेतु केतु की शांति करानी चाहिए जिसमें विषेषकर गणपति भगवान की उपासना, पूजा, केतु के मंत्रों का जाप, दान तथा बटुक भैरव मंत्रों का जाप करना चाहिए जिससे केतु का शुभ प्रभाव दिखाई देगा तथा जीवन में निरंतर उन्नति बनेगी।

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Wednesday 2 March 2016

बच्चे को सामथ्र्यवान बनाने हेतु बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें-

आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे इसके साथ उसमें अनुशासन तो आवश्यक है ही। यदि आप भी अपने बच्चे में एक साथ ये सारी आदतें देखना चाहते हैं तो बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें और उसे सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु उसकी कुंडली के अनुसार लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम, दसम एवं एकादश स्थान के कारक ग्रह एवं उन स्थानों पर स्थित ग्रह के अनुसार अपने बच्चे के अच्छे गुण को विकसित करने के साथ प्रतिकूल ग्रहों की शांति अथवा ज्योतिषीय उपाय लेते हुए सभी गुणों में दक्ष बनाने हेतु निरंतर अभ्यास करायें। इससे ना सिर्फ आपका बच्चा पढ़ाई में अथवा जीवन के सभी रंगों से सराबोर होगा।
Pt.P.S.Tripathi
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मोटापा बढ़ रहा हो तो दिखाए अपनी शुक्र की स्थिति -

किसी भी जातक के यदि शुक्र राहु के साथ लग्न में हों या इसी प्रकार के योग दूसरे, तीसरे अथवा एकादष स्थान में बन जाए साथ ही लग्नेष शुक्र छठवे, आठवे या बारहवें स्थान में आ जाए तो ऐसे लोग ओवरइटर के षिकार होते हैं अथवा राहु के कारण कम्प्यूटर, मोबाईल जैसे इलेक्टानिक गैजेट के शौकिन होते हैं, जिससे शारीरिक कार्य नहीं होती और कई बार डिप्रेषन के कारण लोगो से कम मिलना अथवा घर में रहकर खाते रहने के आदी हो जाते हैं जिससे मोटापा बढ़ सकता है इसके आलावा कई बार यह जैनिटिकल बीमारी भी होती है इसे भी कुंडली के अष्टम भाव या अष्टमेष के लग्न में होने अथवा राहु से पापक्रांत होने से देखा जा सकता है। मोटापे या स्थूलता से ग्रस्त होने पर पहली समस्या यह होती है कि वे आमतौर पर भावुक होते हैं या मनोवैज्ञानिक रूप से समस्याग्रस्त होते हैं। मोटापा खतरनाक विकार भी उत्पन्न कर सकता है जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, ह्रदय रोग, निद्रा रोग और अन्य समस्याएं। कुछ अन्य विकारों में यकृत रोग, यौवन का जल्दी आना, या लड़कियों में मासिक धर्म का जल्दी शुरू होना, आहार विकार, त्वचा में संक्रमण और अस्थमा और श्वसन से सम्बंधित अन्य समस्याएं शामिल हो सकती हैं। अधिक वजन से आत्मविश्वास में कमी आती है और वे अपने आत्मसम्मान को कम महसूस करते हैं और अवसाद से भी ग्रस्त हो सकते हैं। अगर आपके परिवार में किसी में ऐसी स्थिति दिखाई दे तो उसकी कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर ग्रहों की स्थिति के अनुसार उचित ग्रहषांति, व्यवहार एवं खानपान, रहनसहन में परिवर्तन कर इस समस्या से बचा जा सकता है।
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Tuesday 1 March 2016

ज्योतिष में राहुकाल क्यों ?????

ज्योतिष शास्त्र में हर दिन को एक अधिपति दिया गया है। जैसे- रविवार का सूर्य, सोमवार का चंद्र, मंगलवार का मंगल, बुधवार का बुध, बृहस्पतिवार का गुरु, शुक्रवार का शुक्र व शनिवार का शनि। इसी प्रकार दिन के खंडों को भी आठ भागों में विभाजित कर उनको अलग-अलग अधिष्ठाता दिये गये हैं। इन्हीं में से एक खंड का अधिष्ठाता राहु होता है। इसी खंड को राहुकाल की संज्ञा दी गई है। राहुकाल में किये गये काम या तो पूर्ण ही नहीं होते या निष्फल हो जाते हैं। इसीलिए राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। कुछ लोगों का मानना यह भी है कि इस समय में किये गये कार्यों में अनिष्ट होने की संभावना रहती है। लेकिन मुख्यतः ऐसा माना जाता है कि राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए और यदि कार्य का प्रारंभ राहुकाल के शुरु होने से पहले ही हो चुका है तो इसे करते रहना चाहिए क्योंकि राहुकाल को केवल किसी भी शुभ कार्य का प्रारंभ करने के लिए अशुभ माना गया है ना कि कार्य को पूर्ण करने के लिए। राहुकाल में घर से बाहर निकलना भी अशुभ माना गया है लेकिन यदि आप किसी कार्य विशेष के लिए राहुकाल प्रारंभ होने से पूर्व ही निकल चुके हैं तो आपको राहुकाल के समय अपनी यात्रा स्थगित करने की आवश्यकता नहीं है। राहुकाल का विशेष प्रचलन दक्षिण-भारत में है और इसे वहां राहुकालम् के नाम से जाना जाता है। यह भारत में अब काफी प्रचलित होने लगा है एवं इसे मुहूर् के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। राहु को नैसर्गिक अशुभ कारक ग्रह माना गया है, गोचर में राहु के प्रभाव में जो समय होता है उस समय राहु से संबंधित कार्य किये जायें तो उनमें सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। इस समय राहु की शांति के लिए यज्ञ किये जा सकते हैं। इस अवधि में शुभ ग्रहों के लिए यज्ञ और उनसे संबंधित कार्य को करने में राहु बाधक होता है शुभ ग्रहों की पूजा व यज्ञ इस अवधि में करने पर परिणाम अपूर्ण प्राप्त होता है। अतः किसी कार्य को शुरु करने से पहले राहुकाल का विचार कर लिया जाए तो परिणाम में अनुकूलता की संभावना अधिक रहती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस समय शुरु किया गया कोई भी शुभ कार्य या खरीदी-बिक्री को शुभ नहीं माना जाता। राहुकाल में शुरु किये गये किसी भी शुभ कार्य में हमेशा कोई न कोई विघ्न आता है, अगर इस समय में कोई भी व्यापार प्रारंभ किया गया हो तो वह घाटे में आकर बंद हो जाता है। इस काल में खरीदा गया कोई भी वाहन, मकान, जेवरात, अन्य कोई भी वस्तु शुभ फलकारी नहीं होती। सभी लोग, विशेष रूप से दक्षिण भारत के लोग राहुकाल को अत्यधिक महत्व देते हैं। राहुकाल में विवाह, सगाई, धार्मिक कार्य, गृह प्रवेश, शेयर, सोना, घर खरीदना अथवा किसी नये व्यवसाय का शुभारंभ करना, ये सभी शुभ कार्य राहुकाल में पूर्ण रूपेण वर्जित माने जाते हैं। राहुकाल का विचार किसी नये कार्य का सूत्रपात करने हेतु नहीं किया जाता है, परंतु जो कार्य पहले से प्रारंभ किये जा चुके हैं वे जारी रखे जा सकते हैं। राहुकाल गणना: राहुकाल गणना के लिए दिनमान को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। यदि सूर्योदय को सामान्यतः प्रातः 6 बजे मान लिया जाये और सूर्यास्त को 6 बजे सायं तो दिनमान 12 घंटों का होता है। इसे आठ से विभाजित करने पर एक खंड डेढ़ घंटे का होता है। प्रथम खंड में राहुकाल कभी भी नहीं होता। सोमवार का द्वितीय खंड राहुकाल होता है, इसी प्रकार शनिवार को तृतीय खंड, शुक्रवार को चतुर्थ, बुधवार को पंचम खंड, गुरुवार को छठा खंड मंगलवार को सप्तम खंड और रविवार को अष्टम खंड राहुकाल का होता है।

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