Sunday 27 March 2016

चतुर्मास का महत्व



शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।। लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनयन, भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं। आषाढ़ माह में देवशयन एकादशी से कार्तिक माह में हरि प्रबोधिनी एकादशी अर्थात आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार माह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन व कार्तिक माह को चतुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में आधे से अधिक मुख्य त्यौहार पड़ते हैं। चतुर्मास में मुख्य पर्व हंै: गुरु पूर्णिमा, नाग पंचमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रक्षा बंधन, हरीतीज, गणेश चतुर्थी, श्राद्ध, नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवा चैथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन, भैयादूज व छठ पूजन। श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा श्रावण नक्षत्र में होता है, इसलिए इस माह का नाम श्रावण है। यह माह अति शुभ माह माना जाता है एवं इस माह में अनेक पर्व होते हैं। इस माह में प्रत्येक सोमवार को श्रावण सोमवार कहते हैं। इस दिन विशेष रूप से शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है। कहते हैं कि श्रावण मास में ही समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए थे जिसमें एक था हलाहल विष। इसको शिवजी ने अपने गले में स्थापित कर लिया था जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ा। विष के जलन को रोकने के लिए सभी देवताओं ने उनपर गंगा जल डाला। तभी से श्रावण मास में श्रद्धालु (कांवड़िए) तीर्थ स्थल से गंगाजल लाकर शिवजी पर चढ़ाते हैं। कहते हैं कि उत्तरायण के 6 माह देवताओं के लिए दिन होता है और दक्षिणायन के 6 माह की रात होती हैं। चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। अतः सभी संत एवं ऋषि-मुनि इस समय में व्रत का पालन करते हैं। इस समय ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है। चार माह जमीन पर सोते हैं और भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। विष्णु सहस्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फलदायक होता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते हैं। इसलिए इन चार माह में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते। चतुर्मास में द्विगर्त प्रदेश अर्थात गंगा व यमुना के बीच के स्थानों में विशेष तौर से विवाहादि नहीं किए जाते हैं। इन दिनों में तपस्वी एक ही स्थान पर रहकर तप करते हैं। धार्मिक कार्यों में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। यह मान्यता है कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर ब्रज भूमि में निवास करते हैं। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि चतुर्मास में वर्षा का मौसम होता है। पृथ्वी में सुषुप्त जीव जंतु बाहर निकल आते हैं। चलने से या कृषि कार्य करने से या जमीन खोदने से ये जंतु मारे जा सकते हैं। अतः इन चार माह में एक स्थान पर रहना पर्यावरण के लिए शुभ होता है। ऋषि-मुनियों को तो हत्या के पाप से बचने के लिए विशेष तौर पर एक ही स्थान पर रहने के शास्त्रों के आदेश हैं। दूसरे इस अवधि में व्रत का आचरण एवं जौ, मांस, गेहूं तथा मंग की दाल का सेवन निषिद्ध बताया है। नमक का प्रयोग भी नहीं या कम करना चाहिए। वर्षा ऋतु के कारण मनुष्य की पाचन शक्ति कम हो जाती है। इन दिनों व्रतादि से शरीर का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। साथ ही इन दिनों में सूर्य छुपने के पश्चात भोजन करना मना है। कारण लाखों करोड़ों कीट पतंगे रोशनी के सामने रात को आ जाते हैं और भोजन में गिरकर उसे अशुद्ध कर देते हैं। कहते हैं कि इन दिनों स्नान अगर किसी तीर्थ स्थल या पवित्र नदी में किया जाता है तो वह विशेष रूप से शुभ होता है। स्नान के लिए मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए। इसके लिए धान्य के ऊपर लाल रंग के वस्त्र में लिपटे कुंभ रखकर, उसपर भगवान की प्रतिमा रखकर पूजा करनी चाहिए। धूप दीप एवं पुष्प से पूजा कर ‘‘नमो-नारायण’’ या ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ का जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। चतुर्मास का प्रारंभ अर्थात देवशयन एकादशी व इसका अंतिम दिन अर्थात हरि प्रबोधिनी एकादशी, दोनों ही विशेष शुभ दिन माने जाते हैं और इन दोनों को अनबूझ मुहूर्त की संज्ञा उपलब्ध है अर्थात् इस दिन मुहूर्त शोधन के बिना कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि किए जा सकते हैं। देवशयन एकादशी के बाद चार माह कोई विवाहादि नहीं होते हैं और हरि प्रबोधिनी एकादशी से पहले चार माह कोई विवाह नहीं हुए होते हैं और ये दोनों दिन अतिशुभ श्रेणी में माने जाते हैं। अतः इन दोनों दिनों में अनेक शादियां होती हैं। अतः इन दोनों दिवसों की बड़े विवाह मुहूर्तों में गणना की जाती है। हो भी क्यों न आखिर भगवान श्री विष्णु के विशेष कार्य के दिन जो हैं। चतुर्मास के शुभाशुभ फल जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चतुर्मास व्यतीत करता है, वह धनी हो जाता है। जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है। जो चतुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है। जो मनुष्य चतुर्मास में तीन रात उपवास करके चैथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित (बिना मांगे) अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है। चैमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। चतुर्मास में प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरूषसूक्त का जप करने से बुद्धि कुशाग्र होती है। हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। चैमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बड़ा पुण्यफल मिलता है। श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होता है। चतुर्मास आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है जिसका सदुपयोग आत्मोन्नति हेतु करना चाहिए।

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Saturday 26 March 2016

पंचतत्वों में छिपी है ऐश्वर्य और समृद्धि

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान।। प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पùपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य नः।। ”तुभ पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।“ महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ”तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।“ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ”जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहीं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।“ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ”यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। ... वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्....।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहीं दी ? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश ळें। योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ”वैष्णव जन को“ तथा ”रघुपति राघव राजा राम“ गाते थे। चंबल े डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है? यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अतः वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।

महाकालेश्वर व्रत की विधि-विधान और महत्व

महाकालेश्वर व्रत का नियम किसी भी शिवरात्रि से लेने का विधान सर्वोत्तम है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों (विश्वनाथ, वैद्यनाथ, रामेश्वर, मल्लिकाजर्नु , घुष्मेश्वर, नागेश, भीमशंकर, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर, सोमनाथ, केदारनाथ, महाकाल) में से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर है, जो उज्जैन (अवन्तिका, विशाला, कनकश्रृंगा, कुमुद्वती, प्रतिकल्पा, कुशस्थली, अमरावती आदि नामों से भी शास्त्रों में वर्णित है) में स्थित है जहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। इस व्रत में शिव रात्रि से एक दिन पूर्व उज्जैन पधारकर नियमानुसार कामना सिद्धि या निष्काम भाव का संकल्प लेकर पूर्ण विधि-विधान के साथ त्रयोदशी/चतुर्दशी दोनों ही दिन उपवासादि नियमों का पालन करते हुए महाकालेश्वर की षोडशोपचार पूजा करें व शिवरात्रि को रुद्राभिषेक कराएं एवं ऊँ नमः शिवाय मंत्र का जप करते रहें। इसके द्वारा साधक अकाल मृत्यु पर विजय व जीवन में कालसर्प दोष को शांत कर विभिन्न सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। यह एक अद्वितीय व चमत्कारी व्रत है। इस व्रत के प्रभाव से संपूर्ण अमंगल नष्ट हो जाते हैं, विघ्न-बाधा व अड़चनें दूर हो जाती हैं, समृद्धि, ऐश्वर्य, आयुष्य, विद्या, ज्ञान सभी प्राप्त होते हैं। मृकण्ड पुत्र मारकण्डेय ने इन्हीं शिव की आराधना से चिरंजीवी होने वाला आशीर्वाद प्राप्त किया था। शिव सम्पूर्णता के द्योतक हैं। प्रत्येक भक्त को परिवर्तन करने की शक्ति महाकाल शिव में है। शिव सर्वेश्वर, पूर्णेश्वर, योगेश्वर हैं। इनके दर्शन व कृपाकटाक्ष से जीवात्मा के समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं, पाप-ताप भस्मीभूत हो जाते हैं। अतः प्रत्येक मानव-मात्र को प्रत्येक मास की चतुर्दशी को आने वाले शिवरात्रि व्रत में रात्रि के चार प्रह्र में तो अवश्य ही पूजन करना चाहिए, जो जीव के धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पुरुषार्थों को पूर्ण करने वाला व जन्म मरण से मुक्ति दिलाने वाला है। इस पावन महापर्व पर शिवपुराण, शिव कवच स्तोत्रम्, शिवाष्टकम् महामृत्युञ्जय स्तोत्रम् आदि का पाठ एवं ऊँ महाकालेश्वराय नमः या ऊँ नमः शिवाय मंत्र का जप करते रहना चाहिए। निंदा, चुगली, असत्य भाषण, अभक्ष्य भोजन आदि से दूर रहना चाहिए। महाकालेश्वर की अन्य दिनों में भी प्रतिदिन पूजा करना आरोग्य व संपन्नता प्रदान करता है। वर्ष के पूर्ण होने पर पुनः महाकाल की नगरी में शिवरात्रि को पधारकर व विधि-विधान से पूजन-उद्यापनादि कृत्यों को पूर्ण कर कम से कम ग्यारह ब्राह्मणों को सपत्नीक मधुर स्वादिष्ट पदार्थों से तृप्तकर वस्त्र व दक्षिणादि देकर प्रणाम कर विदा करने से घर-परिवार सुखी हो जाता है। इस महाकालेश्वर व्रत की कथाओं को अवश्य ही पढ़ना चाहिए जो भक्त के दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का शमन करने में सक्षम है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मालवा प्रदेश में क्षिप्रानदी के तटपर उज्जैन नगर में विराजमान है, जो अवन्तिका पुरी के नाम से विखयात है। यह राजाभोज, उदयन, विक्रमादित्य, भर्तृहरि एवं महाकवि कालिदास की साधना-स्थली रही है। महाकाल के महात्म्य के प्रसंग में शिव भक्त राज चंद्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकर की कथा- सूत जी कहते हैं- महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग की महात्म्यकथा भक्ति भाव व ध्यान पूर्वक सुनो। उज्जयिनी में चंद्रसेन नामक एक महान् शिव भक्त और जितेन्द्रिय राजा थे। शिव के पार्षदों में प्रधान तथा सर्वलोकवन्दित मणिभद्र जी उनके सखा हो गये थे। एक समय उन्होंने राजापर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभमणि तथा सूर्य के समान देदीप्यमान थी। भगवान् शिव के आश्रित रहने वाले राजा चंद्रसेन उस चिन्तामणि को कण्ठ में धारण करके जब सिंहासन पर बैठते, तब देवताओं में सूर्य नारायण की भांति उनकी शोभा होती थी। समस्त राजाओं के मन में भी उस मणि के प्रति लोभ की मात्रा बढ़ गयी वे सब चतुरंगिणी सेना लेकर युद्ध में चंद्रसेन को जीतने के लिए निकल पड़े, सबने मिलकर उज्जयिनी को चारों ओर से घेर लिया। अपनी पुरी को संपूर्ण राजाओं द्वारा घिरी हुई देख राजा चंदसेन उन्हीं भगवान महाकालेश्वर की शरण में गये और दिन रात अनन्य भाव से महाकाल की आराधना करने लगे। उन्हीं दिनों उस श्रेष्ठ नगर में कोई विधवा ग्वालिन रहती थी, जिसके एकमात्र एक पांच वर्ष का बालक था। उसे लेकर वह महाकाल के मंदिर में गयी। वहां उसने राजा चंद्रसेन द्वारा की हुई पूजा का आदर पूर्वक दर्शन किया। वह आश्चर्य उत्सव देखकर उसने भगवान को प्रणाम किया और अपने निवास- स्थान पर लौट आयी। ग्वालिन के उस बालक ने भी वह सारी पूजा देखी थी। अतः घर आने पर उसने भी कौतूहलवश शिव जी की पूजा करने का विचार किया। एक सुंदर पत्थर लाकर उसे अपने शिविर से थोड़ी ही दूर पर दूसरे शिविर के एकांत स्थान में रख दिया और उसी को शिवलिंग माना। फिर उसने भक्ति पूर्वक बारंबार पूजन करके भांति-भांति से नृत्य किया और बारंबार भगवान के चरणों में मस्तक झुकाया। इसी समय ग्वालिन ने भगवान शिव में आसक्तचित्त हुए अपने पुत्र को बड़े प्यार से भोजन के लिए बुलाया। बारंबार बुलाने पर भी जब उस बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई, तब उसकी मां स्वयं उसके पास गयी और उसे शिव के आगे आंखें बंद करके ध्यान लगाये देख वह, उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी। इतने पर भी जब वह न उठा तब उसने क्रोध में आकर उसे खूब पीटा। फिर भी वह नहीं आया, तब उसने वह शिवलिंग उठाकर दूर फेंक दिया और उस पर चढ़ायी हुई सारी पूजा-सामग्री नष्ट कर दी। यह देख बालक 'हाय-हाय' करके रो उठा। रोष से भरी हुई ग्वालिन अपने बेटे को डांट-फटकार कर घर में चली गयी। पूजा की सामग्री नष्ट हुई देख वह बालक 'देव! देव! महादेव!' की पुकार करते हुए सहसा मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। दो घड़ी बाद जब उसे चेत हुआ, तब उसने आंखें खोलीं। आंख खुलने पर उस शिशु ने देखा, उसका वही शिविर भगवान् शिव के अनुग्रह से तत्काल महाकाल का सुंदर मंदिर बन गया, मणियों के चमकीले खंभे स्फटिक जड़ित भूमि उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस शिवालय में शिव लिंग प्रतिष्ठित था और उस पर उसकी अपनी चढ़ायी हुई पूजन-सामग्री सुसज्जित है। यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया। उसे मन ही मन बड़ा आश्चर्य हुआ और वह परमानंद के समुद्र में निमग्न-सा हो गया। तदनंतर भगवान् शिव की स्तुति करके उसने बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और सूर्यास्त होने के पश्चात् वह गोप-बालक शिवालय से बाहर निकला। बाहर आकर उसने अपने शिविर को देखा। वह इंद्र-भवन के समान शोभा पा रहा था। वहां सब कुछ तत्काल सुवर्णमय होकर विचित्र एवं परम उज्जवल वैभव से प्रकाशित होने लगा। प्रदोषकाल में शिवालय के भीतर सानंद प्रवेश करके बालक ने देखा, उसकी मां दिव्य लक्षणों से युक्त हो एक सुंदर पलंग पर सो रही है। उस बालक ने अपनी माता को बड़े वेग से उठाया। वह भगवान् शिव की कृपा पात्र हो चुकी थी। ग्वालिन ने उठकर देखा, सब कुछ अपूर्व-सा हो गया था। उसने महान् आनंद में निमग्न हो अपने बेटे को छाती से लगा लिया। पुत्र के मुख से गिरिजापति के कृपा प्रसाद का वह सारा वृत्तांत्त सुनकर ग्वालिन ने शिव भक्त राजा को सूचना दी। राजा अपना नियम पूरा करके रात में सहसा वहां आये और ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव देखा। मंत्रियों और पुरोहितों के साथ प्रसन्नता पूर्वक शिव के नाम का कीर्तन करते हुए उन्होंने उस बालक को हृदय से लगा लिया। लोग भी आनंद विभोर होकर महेश्वर के नाम और यश का कीर्तन करने लगे। इस प्रकार शिव का यह अद्भुत महात्म्य देखने से पुरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ और इसी की चर्चा में वह सारी रात एक क्षण के समान व्यतीत हो गयी। नगर को चारों ओर से घेरकर खड़े हुए दूसरे राजाओं ने भी प्रातःकाल अपने गुप्तचरों के मुख से वह सारा अद्भुत चरित्र सुना। सब आश्चर्य चकित हो गये और वहां आये हुए सब नरेश एकत्र हो आपस में इस प्रकार बोले- 'ये राजा चंद्रसेन बड़े भारी शिव भक्त हैं; अतएव इन पर विजय पाना कठिन है। ये सर्वथा निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनी का पालन करते हैं। जिसकी पुरी के बालक भी ऐसे शिव भक्त हैं, वे राजा चंद्रसेन तो महान् शिव भक्त हैं। इनके साथ विरोध करने से निश्चय ही भगवान् शिव क्रोध करेंगे और उनके क्रोध से हम सब लोग नष्ट हो जायेंगे। अतः इन नरेश के साथ हमें मेल-मिलाप कर लेना चाहिए। ऐसा होने पर महेश्वर हम पर बड़ी कृपा करेंगे।' ऐसा निश्चय करके उन सब भूपालों ने हथियार डाल दिये, उनके मन से बैरभाव निकल गया। वे सभी राजा अत्यंत प्रसन्न हो चंद्रसेन की अनुमति ले महाकाल की उस रमणीय नगरी के भीतर गये। वहां उन्होंने भी महाकाल का पूजन किया। फिर वे सब के सब उस ग्वालिन के महान् दिव्य सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसके घर गये। वहां राजा चंद्रसेन ने आगे बढ़कर उनका स्वागत-सत्कार किया। वे बहुमूल्य आसनों पर बैठे और आश्चर्य चकित एवं आनंदित हुए। गोप बालक के ऊपर कृपा करने के लिए स्वतः प्रकट हुए शिवालय और शिवलिंग का दर्शन करके उन सब राजाओं ने अपनी उत्तम बुद्धि भगवान् शिव के चिंतन में लगायी। तदनंतर उन सारे नरेशों ने भगवान् शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए उस गोपशिशु को बहुत-सी वस्तुएं प्रसन्नता पूर्वक भेंट कीं। संपूर्ण जनपदों में जो बहुसंखयक गोप रह रहे थे, उन सब का राजा उन्होंने उसी बालक को बना दिया। इसी समय समस्त देवताओं से पूजित परम तेजस्वी वानरराज हनुमानजी वहां प्रकट हुए। उनके आते ही सब राजा बड़े वेग से उठकर खड़े हो गये। उन सब ने भक्ति भाव से विनम्र होकर उन्हें मस्तक झुकाया। राजाओं से पूजित हो वानरराज हनुमान जी उन सबके बीच में बैठे और उस गोप बालक को हृदय से लगाकर उन नरेशों की ओर देखते हुए बोले- तुम सब लोग तथा दूसरे देहधारी भी मेरी बात सुनें! इससे तुम लोगों का भला होगा। भगवान् शिव के सिवा देहधारियों के लिए दूसरी कोई गति नहीं है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि इस गोप बालक ने शिव की पूजा का दर्शन करके उससे प्रेरणा ली और बिना मनके भी शिव का पूजन करके उन्हें पा लिया। गोपवंश की कीर्ति बढ़ाने वाला यह बालक भगवान् शंकर का श्रेष्ठ भक्त है। इस लोक में संपूर्ण भोगों का उपभोग करके अंत में यह मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इसकी वंश परंपरा के अंतर्गत आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नंद उत्पन्न होंगे, जिनके यहां साक्षात् भगवान नारायण उनके पुत्र रूप से प्रकट होकर श्रीकृष्ण नाम से प्रसिद्ध होंगे। आज से यह गोप कुमार इस जगत में श्रीकर के नाम से विशेष खयाति प्राप्त करेगा। ऐसा कहकर अंजनीनंदन शिव स्वरूप वानरराज हनुमान् जी ने समस्त राजाओं तथा महाराज चंदसेन को भी कृपा दृष्टि से देखा। तदनंतर उन्होंने उस बुद्धिमान् गोप बालक श्रीकर को बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवोपासना के उस आचार-व्यवहार का उपदेश दिया, जो भगवान् शिव को बहुत प्रिय है। इसक बाद परम प्रसन्न हुए हनुमान जी चंद्रसेन और श्रीकर से विदा ले उन सब राजाओं के देखते-देखते वहीं अंर्तध्यान हो गये। वे सब राजा हर्ष में भरकर सम्मानित हो महाराज चंद्रसेन की आज्ञा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। महातेजस्वी श्रीकर भी हनुमान् जी का उपदेश पाकर धर्मज्ञ ब्राह्मणों के साथ शंकर जी की उपासना करने लगा। उन्हीं की आराधना करके परमपद प्राप्त कर लिया। इस प्रकार महाकाल नामक शिवलिंग सत्पुरुषों का आश्रय है। भक्तवत्सल शंकर दुष्ट पुरुषों का सर्वथा हनन करने वाले हैं। यह परम पवित्र रहस्यमय आखयान सब प्रकार का सुख देने वाला, शिव भक्ति को बढ़ाने तथा स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है।

भगवत कृपा के स्रोत

भगवत प्राप्ति, भक्ति से ईश्वर की कृपा और उनके अनुग्रह से सुख आनंद की प्राप्ति है। आइए जानें, इस लेख के द्वारा कि यह सब कैसे प्राप्त किया जाय। भगवत प्राप्ति, भक्ति से ईश्वर की कृपा और उनके अनुग्रह से सुख आनंद की प्राप्ति आदि काल से मानव जीवन का लक्ष्य रहा है। आधुनिक परिवेश में इसे जानने के क्रम में, एक आकृति मस्तिष्क में आती है। विशाल कालिमा क्षेत्र के भाल पर मनमोहक श्याम की छवि। आकाश की ओर देखा जाये तो वह परिधि रहित कालिमा, नीला ब्योम दिखता है। कभी इसी अनंत अंतरिक्ष में भयानकतम विस्फोट हुआ और पिंडों के रूप में, जो अवशेष घूर्णन से बिखर गये, वे ज्योतिपुन्जों के साथ, आज भी तारे, ग्रह नक्षत्रों के रूप में उपस्थित हैं। पृथ्वी के जड़ चेतन, सौरमंडल, नक्षत्रमंडल, ''यह सब कुछ'' इसी अंतहीन परिधि के क्षेत्र में है। उस अनंत कालिमा तथा उसके तेजमय बिंदु को जो सभी ब्रह्मांड पिंडों का उत्पत्ति स्रोत था, ऋणात्मक और धनात्मक आयाम जाना जा सकता है। कालिमा जो समस्त द्रव्य की माता स्वरूपा काली मां हैं और तेज स्वरूप, उत्सर्जनकर्ता ईश्वर, श्रीकृष्ण श्री हरि समझे जा सकते हैं। देवी भागवत के अध्याय 51 में कहा गया है कि कृष्ण या कालिमा ही तीनों काल-भूत, वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा के स्रोत हैं एवं यह कालपरिधि से परे, आगम-निगम के ज्ञाता हैं तथा कृष्ण अधिष्ठाता देव हैं। प्रत्येक द्वापर युग में इनका अवतार, स्वरूप, समदर्शिता एवं कर्म समन्वय के लिये होता रहा है। मातृत्व स्वरूपा एवं ज्ञानाधिकारी देव हैं ये ईश्वर। उन्हीं काली मां तथा श्याम कृष्ण से सभी संचालित रहते हैं। नक्षत्र गण, सूर्य, पृथ्वी एवं समस्त ग्रह, इनके प्रभाव क्षेत्र में हैं। सूर्य अपने ग्रहों एवं पृथ्वी के साथ इसी अनंत में चलायमान है। सौर मंडल के स्थिति-परिवर्तन से पृथ्वी के जड़-चेतन परिवर्तन पाते हैं और जन-जीवन इसी के अधीन हो जाते हैं। पृथ्वी पर इसी के अनुरूप स्वभाव, रूझान, कर्म और भोग बनता है। ऐसी परिस्थिति में मनुष्य सुख-आनंद की प्राप्ति हेतु कहां जाये, क्या करे? भगवत प्राप्ति का प्रश्न, वास्तव में सामयिक और अति महत्त्वपूर्ण है। इसी संदर्भ में प्रकाश, तेज और उनसे निकलने वाली ऊर्जा पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि क्या बिना इनके ऊर्जा-प्रकाश के, यह जगत जीवित रह पायेगा? आदिकाल से संतपुरुषों, ऋषि-मनीषियों ने सूर्य के अलावा अन्य ग्रहों, नक्षत्रों की रश्मियों के ऊर्जा स्रोतों पर गहन अध्ययन किया और उनके प्रभाव को पृथ्वी पर परिलक्षित होते अनुभव किया। सत्ताईस (27) नक्षत्रों, नौ ग्रहों के ज्योति पुन्जों का प्रभाव विश्लेषित किया और इन्हें ईश्वरीय ज्योति 'ज्योतिष' की संज्ञा दी। ईश्वर ने स्वयं अपनी आकृति नहीं बनाई बल्कि मनुष्य ने अपने अनुरूप उनकी आकृति के स्वरूप का ज्ञान किया। जैसा ब्रह्मांड है, वैसा ही हर पिंड है। मनुष्य की आत्मा के आवरण, इस काया, इस भौतिक शरीर को उस ईश्वर ने अपने ही स्वरूप में, ब्रह्मांड के हर ऊर्जा स्रोत को अपना ही स्वरूप दिया। सात रंगों के उत्सर्जन के कारण मानव ने सूर्य को मानव आकृति देते हुये सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ किया और उनकी ऊर्जा रश्मि को प्राप्त करने हेतु उनकी आराधना का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे ही सभी ग्रहों के देवता निर्धारित हुये। सूर्य के निकटतम ग्रह बुध, जिसे बौद्धिक ज्ञान के प्रकाश का स्रोत जाना गया, सर्वप्रथम पूज्य बनाकर ज्ञान के गणनायक के रूप में पूजा गया। अन्य ग्रहों के गुण अवयवों पर आधारित स्वरूप एवं आराधना के संबंध में बहुत कुछ आदि ग्रंथों में विवेचित किया। ऊर्जा के विभिन्न आयाम होते हैं। किसी ऊर्जा में बुद्धि विकास का गुण है तो किसी में प्रतिरक्षा पौरुष का आधिपत्य। कोई तेज देता है तो कोई शांति और कोई अशांति। हर मनुष्य के जन्मकाल में इन ऊर्जा स्रोतों का एक सम्मिश्रण होता है। जन्मकुंडली में दर्शित ग्रह स्थिति उसी की रूप रेखा व मानचित्र है। जीवन पर्यंत वह इसके अधीन रहता है। ऐसी स्थिति में भगवत कृपा से आनंद प्राप्ति का मूल क्या हो सकता है? इसके जड़ में अध्यात्म है अर्थात् आत्मा में परमात्मा के विशेष अंश का दर्शन। ब्रह्मांड, जो अनंत व असीम है, उसे अतीन्द्रियवाद (मेटाफिजिक्स) द्वारा समझा जा सकता है। इसके लिये ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, योगमार्ग और भक्तिमार्ग का संधान करना होता है जो अत्यंत दुरूह है। ग्रह-नक्षत्रों के सृजनकर्त्ता से कृपा पाना दुर्लभ है। फिर भी मनीषियों ने जो मार्ग बताये हैं उसका अनुसरण ही भगवत् प्राप्ति में सहायक है। एक बालक से पूछा गया कि पढ़-लिखकर क्या बनना है, उत्तर था धन, संपत्ति, वैभव प्राप्त करने का लक्ष्य। फिर प्रश्न था कि उसके बाद क्या होगा, उत्तर था आनंद प्राप्त करेंगे। अर्थात् आनंद ही आगे का लक्ष्य है, तो फिर लक्ष्य परमानंद यानी परम आनंद की प्राप्ति ही बनता है। अंत में सभी मनुष्य भगवत् कृपा पर निर्भर हो जाते हैं। ईश्वर के तीसरे नेत्र का अर्थ ज्ञान चक्षु है जो खुल जाने पर आनंद की सीमा प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण को ज्ञानाधिकारी इसी पर्याय से कहा गया कि द्वापर युग में वेद पुराणादि सभी का सार उन्होंने गीता रूपी अमृत में दिया है- ''ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥'' (अ. 4-11) श्री कृष्ण की यह उक्ति गीता में है जिसका अर्थ है कि जो मनुष्य जिस विधि विधान से ''हमारी'' भक्ति पूजन करते हैं ''मैं'' भी उसे उसी प्रकार भजता हूं क्योंकि सभी मेरे द्वारा प्रदत्त पथ का अनुसरण करते हुए अवतरित होते हैं। अनन्तव्योम के असीमित ग्रह नक्षत्रों के पथ से आने वाली वही परम आत्मा शरीर धारण करने वाले मनुष्यों में अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ सबका दाता है। लेकिन हर व्यक्ति में मस्तिष्क सर्वोपरि है और ज्ञान का उपयोग सदा से उन्नतिकारक रहा है। तथापि मनुष्य का प्रभु सदा-सर्वदा उसके साथ है, सिर्फ उस पर हर क्षण मनन और ध्यान की आवश्यकता है। सत्ताईस नक्षत्र और नौ ग्रहों के स्वामी का निर्धारण करने के पश्चात् मनीषियों ने अपने अपने इष्ट की पहचान जताई। मानव जीवन धरती पर उन्हीं ऊर्जा स्रोतों के सम्मिश्रण से आया है। फिर भी कुछ एक ऊर्जा रश्मि उसके अनुकूल होती हैं और कुछ उस जातक के लिये अशुभ एवं प्रतिकूल होती हैं। आत्मा का उत्सर्जन परमात्मा के अंश का ही रूप है और जो शरीर दिखता है उसमें शुभ-अशुभ वही हैं। अतः अशुभता को शुभता में बदलने हेतु ग्रह नक्षत्रों की ऊर्जा रश्मियों का संतुलन करना होता है। भगवान शब्द के चार अक्षरों को इस प्रकार विश्लेषित किया गया है, ''भ'' भूमि (यह धीर, गंभीर जड़त्व का प्रतीक है) ''ग'' गमन अर्थात उत्सुक, खुला हुआ व विशाल सोच, ''व'' का अर्थ वायु- अर्थात चंचल व गतिशील तथा ''आ'' से अग्नि से शमन शक्ति एवम् ज्वाला से अशुभता की, ''न'' नीर एवंम् शीतल प्रवाह युक्त सरोवर। भगवान या ईश्वर मनुष्य को अपने से या प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं। भगवत् कृपा पाने का यह प्रथम संदेश है। अनंत परिधि वाले परमात्मा से अंशमात्र आत्मा का जब पृथ्वी पर उदय होता है और जीवात्मा भौतिक शरीर पाता है, तब उसमें नक्षत्र-ग्रहों का प्रादुर्भाव निश्चित रहता है। इसमें जन्म-जन्मांतर का कर्म प्रारब्ध के रूप में भी जुड़ा रहता है। उसे विधाता ने अवतरित किया, माता-पिता एवं पूर्वज से जात-पात, गोत्र का निर्धारण हुआ। ये सभी तो पूज्य हैं ही, तो फिर ''स्रोत'' कहां छूट रहा है। यही स्रोत सर्व सृष्टि का प्रणेता है, ईश्वर है। मां भगवती के आरती गान में कहा जाता है कि ''कोटि रतन ज्योति'' आप में विराजमान हैं। अर्थात् असंखय रत्नों के समान ज्योति सदा आपके क्षेत्र में, तारे नक्षत्र ग्रहों के रूप में स्थित है। उनकी ऊर्जा शक्ति की कृपा, भक्त को प्राप्त हो। श्री दुर्गा चालीसा में इसी अनन्त व्योम का ''निराकार है ज्योति तुम्हारी, तिहूं लोक फैली उजियारी'' रूप में बखान है। इससे यही भाव स्पष्ट होता है कि निराकार मातृशक्ति की परिधि में जो शक्ति, ऊर्जा के स्रोत हैं वे ही अनंत आकाश में विद्यमान है उनकी कृपा दृष्टि याचक पर हो। इसी ईश्वर के दो आयाम हैं, कर्म का विशाल क्षेत्र और ज्ञान का चक्षु। अपने बुद्धि विवेक से इसे जहां तक समझने का प्रयास किया, वह अंतहीन कालिमा में सदा भाल पर कृष्ण रूप में उदित दिखे। इस श्याम कालिमा युक्त चादर को युगों-युगों से महान आत्माओं के धारकों ने जाना। स्वामी विवेकानंद ने इसे ''शून्य'' स्वरूप जाना और अपने व्याखयान से, शिकागो में विश्व को चकित कर दिया। रामकृष्ण परमहंस उसी काली मां का ज्ञानाधिकारी के संधान से शायद साक्षात्कार करके, नाम अमर कर गये। बाल हृदय बहुत निश्छल होता है, बालिका मीरा ने उन्हें हृदय में धारण किया उसी साक्षात कृष्ण विग्रह में समा गयी। उसी अनंत भगवान से सब कुछ आया है और उसी में समाहित होने की कामना प्रभु भक्ति, भगवत् भक्ति है। जैसे विवाहित पुत्री को उसके माता-पिता कदापि नहीं चाहते हैं कि अपने पास रखें। वैसे ही ईश्वर मोक्ष देकर अपनी शरण में हमें नहीं बुलाते। उस प्रभु का संदेश प्रायः सभी आदि ग्रंथों में है। जड़-चेतन उनके शिशु हैं और वही सबों का स्वामी है। सदा से ऋषि-महर्षियों ने भगवत् प्राप्ति के लिये प्रयत्न किये और विरले ही इस गति को प्राप्त कर पाये। उनका संदेश तो इस जगत रूपी फुलवारी को ज्ञान-बुद्धि-विवेक से सुसज्जित करना है। प्रभु ने ही माया रूपी तत्त्व का मनुष्य में रोपण किया है, फलतः मोह का क्षय नहीं होता और मोक्ष संभव नहीं होता। ऐसी परिस्थिति में ज्ञान रूपी श्याम, काली मां का आशीष प्राप्त करके और विवेक द्वारा जीवन की अकर्मण्यता को शुभ कर्मों में बदलने हेतु ईश्वरीय ज्योति द्वारा प्रदत्त इष्ट की आराधना के पथ में प्रेरित करते हैं। यही श्रेष्ठतम अनुग्रह है। सत्ताईस नक्षत्र और नौ ग्रहों के स्वामी का निर्धारण करने के पश्चात् मनीषियों ने अपने अपने इष्ट की पहचान जताई। मानव जीवन धरती पर उन्हीं ऊर्जा स्रोतों के सम्मिश्रण से आया है। फिर भी कुछ एक ऊर्जा रश्मि उसके अनुकूल होती हैं और कुछ उस जातक के लिये अशुभ एवं प्रतिकूल होती हैं। आत्मा का उत्सर्जन परमात्मा के अंश का ही रूप है और जो शरीर दिखता है उसमें शुभ-अशुभ वही हैं। परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी श्रेष्ठतम कृति रूप में अवतरित किया। इसे विशेष ज्ञान देकर, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग बताया। भौतिक विज्ञान के अलावा अतीन्द्रिय विज्ञान भी यही प्रमाणित करता है कि सृष्टि का प्रथम सोपान, पाषाण था परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी श्रेष्ठतम कृति के रूप में अवतरित किया। इसे विशेष ज्ञान देकर, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग बताया। भौतिक विज्ञान के अलावा अतीन्द्रिय विज्ञान भी यही प्रमाणित करता है कि सृष्टि का प्रथम सोपान, पाषाण था, तत्पश्चात् पर्यावरण के पेड़-पौधे आदि, फिर जलचर, नभचर, पशु, पक्षी, तदुपरांत मानव का प्रादुर्भाव हुआ, और आज हम विकसित मनुष्य है। आदि पूर्वजों के प्रति आभार के संदर्भ में शिव, कल्याण के कारक हैं। पर्यावरण इस जीवन का आधार है, एवं पशु-पक्षी मानव के सहायक है। देव तुल्य ऋषि-महर्षियों ने ज्ञान के सागर आदि-ग्रंथों की रचना की और इन सबों पर विस्तृत विवेचनायें दी। यही सब आदि स्रोत हैं। अंत में यही कहा जा सकता है। कि सांसारिक जीवन में रहते हुये भगवत् कृपा पाने हेतु वर्तमान जन्मदाता एवं पूर्वजों के अतिरिक्त जगत निर्माता रूपी आदि की आराधना व मनन-चिंतन ही, मानव जीवन का परमलक्ष्य बनता है। विश्व में सर्वमान्य श्री गीता के अमृत-सागर के मंथन में यह पाया गया- तत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्व देहिकम्। यतते च ततो भूयः संसिद्धो कुरुनन्दन॥ (अ. 6-43) भावार्थ इस प्रकार है- यह जीवात्मा पूर्व के भौतिक कार्यों में संग्रहित किये हुए ज्ञान-बुद्धि एवं संस्कारों के साथ पुनः शरीर प्राप्त करता है। वह इन सब गुणों के प्रभाव से बारंबार परमेश्वर की कृपा प्राप्ति का पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है और यही निरंतर अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त करता है।

शक्ति का संचरण और शक्ति आराधना



संसार का कोई भी कार्य शक्ति के बिना संभव नहीं है चाहे वह छोटा हो या बड़ा। जिस प्रकार साइकल चलाने के लिए व्यक्ति को शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार संसार के संचालन के लिए भी शक्ति आवश्यक है। उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूपी सृष्टि चक्र का संचालन अवश्य ही किसी महाशक्ति के अधीन है। समूचे ब्रह्मांड का नियमन और संचालन करने वाली जो अदृश्य ऊर्जा है, सूर्य आदि ग्रह-नक्षत्र जिसके प्रकाश से प्रकाशित होते हैं तथा जिसकी ऊर्जा से ही सब गतिमान है, उस ऊर्जा-शक्ति को ही शास्त्रों में आद्याशक्ति/आदि शक्ति कहा गया है। यह शक्ति ब्रह्मरूप में ही सिद्ध है। वस्तुतः यह शक्ति निर्गुण-निराकार है, किंतु इस जड़- चैतन्य जगत में हमें जितने भी रूप (गुण) दिखाई देते हैं वे सब उसी शक्ति के स्वरूप हैं। तंत्रोक्त देवी सूक्त में कहा गया है- या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिताा। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः॥ अर्थात् जो देवी आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में तथा समस्त प्राणियों में शक्तिरूप से स्थित है, उस जीवनदायिनी दैवी शक्ति को नमस्कार है, नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 125वें सूक्त में आदि शक्ति जगदंबा जी कहती हैं, ''मैं ब्रह्मांड की अधीश्वरी हूं, मैं ही सारे कर्मों का फल प्रदान करने वाली तथा ऐश्वर्य देने वाली हूं।'' स्वामी वनखण्डेश्वर महाराज ने इस संदर्भ में लिखा है कि जगदंबा ही इस चराचर जगत् की आधार है, वही सत्पुरुषों को सत्कर्म करने की शक्ति देती है। अव्यक्त होने पर भी वही शक्ति भक्तों की भावना के अनुरूप व्यक्त-स्वरूप को धारण करती है। महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, सीता, राधा, रुकमणी, अन्नपूर्णा, तारा, त्रिपुरसुंदरी व भुवनेश्वरी आदि अनेक रूप उसी आद्याशक्ति की अभिव्यक्तियां हैं। यह आदि शक्ति सनातन है, अनंत विश्व की मूलस्रोत है। इसी शक्ति की सहायता से ब्रह्माजी सृष्टि का सृजन, विष्णुजी पालन तथा इसी के सहारे शिव संसार का संहार करते हैं। महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली ही त्रिदेवों की शक्तियां हैं। ब्रह्म की शक्ति को ब्राह्मी, विष्णु शक्ति को वैष्णवी और शिव की शक्ति को शिवा कहते हैं। (या महेश की शक्ति को माहेशी कहते हैं।) श्रुतियों ने शक्तिमान् स्वरूप अद्वैततत्व का प्रतिपादन किया है। वही एक तत्व परम पुरुष और पराशक्ति रूप से (द्वैत) प्रतीत होता है, वस्तुतः शक्तिमान और उसकी शक्ति दोनों एक ही हैं, अभिन्न हैं। मां जगदंबा ही आद्या शक्ति है, उन्हीं से अखिल विश्व का संचालन होता है, उनके अतिरिक्त दूसरी कोई अविनाशी शक्ति नहीं है। भुवनेश्वरी की कृपा से राज्य की प्राप्ति- प्रलयकाल में जब ईश्वर के जगत् रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है। तब ईश्वर रात्रि (महाप्रलय) की अधिष्ठात्री देवी 'भुवनेश्वरी' कहलाती है। देवी पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी है। भुवनेश्वरी के सानिध्य से ही शिव को सर्वेश्वर होने की शक्ति प्राप्त होती है। भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीलाविलास (माया) की सहचरी है। इसकी पुष्टि श्वेताश्वतरोपनिषद् के उस मंत्र से होती है जिसमें कहा गया है कि 'प्रकृति को माया जालों और मायावी को महेश्वर।' तंत्रशास्त्र में कहा गया है- 'राज्यं तु भुवनेश्वरी' अर्थात् आदिशक्ति भुवनेश्वरी की कृपा से राज्य, राज्य सम्मान, राजकीय या शासकीय पद, धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इसके अलावा दांपत्य सुख एवं सद्गुणी संतान की प्राप्ति हेतु भी भुवनेश्वरी की उपासना, आराधना विशेष फलप्रद कही गई है। जगदंबा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंगकांति प्रातःकाल के सूर्योदय के समान है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है। तीन नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की छटा छाई रहती है। उनके हाथों में पाश, अंकुश, वरद एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं। सब प्रकार के कल्याण के लिए श्री दुर्गासप्तशती के ग्यारहवें अध्याय का दसवें श्लोक का नवरात्रि के दिनों में सुबह शाम कम से कम एक माला जप करना चाहिए। इसके प्रभाव से आपकी इच्छाओं की शीघ्र पूर्ति होगी। सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्रयंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥ श्री दुर्गा देवी का प्रादुर्भाव श्री देवी भागवत् पुराण के अनुसार 'मां दुर्गा के अवतरण का उद्देश्य है- श्रेष्ठ पुरुषों की रक्षा करना, वेदों को सुरक्षित रखना तथा दुष्टों का दलन (संहार) करना।' 'दुर्ग' नामक दैत्य का संहार करने के कारण भुवनेश्वरी का नाम 'दुर्गा' देवी हुआ। श्री दुर्गा देवी के प्रादुर्भाव की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है। दुर्गमासुर नामक एक दैत्य ने कठोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया तथा वरदान स्वरूप ब्रह्माजी से चारों वेदों को प्राप्त करके उन्हें बंदी बना लिया, विलुप्त कर दिया। इस कारण संसार में 'यज्ञ' आदि वैदिक कर्मों का लोप हो गया। जिससे वर्षा बंद हो गई और पृथ्वी पर अकाल पड़ने लगा। जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक बरसात नहीं हुई तथा जल का अभाव हो गया था। उस समय ऋषि मुनियों ने संतप्त होकर भगवती का स्मरण/स्तवन किया। तब अयोनिजारूप में शक्ति तत्काल प्रकट हुई। वे अपने हाथों में बाण, कमल, पुष्प तथा शाक-मूल लिए हुई थी। उन्होंने अपने सौ नेत्रों से मुनियों को देखा तथा मुनियों के दुख से संतप्त होकर, मां की आंखों से अश्रुजल की हजारों धाराएं बहने लगीं। उस जल से पृथ्वी के सभी प्राणी तृप्त हो गये। समुद्रों व नदियों में अगाध जल भर गया। जगदंबा ने शत नेत्रों से ऋषियों को देखा था इसलिए वे 'शताक्षी' कहलाई। उन्होंने अपने शरीर से उत्पन्न शाक-सब्जियों, फल-मूल से संसार का भरण-पोषण किया इस कारण वे 'शाकंभरी' नाम से विखयात हुईं। उसी समय 'शाकंभरी' देवी ने दुर्गमासुर से घनघोर युद्ध किया। दुर्गम नामक महादैत्य का वध करने के कारण वे दुर्गा देवी के नाम से प्रसिद्ध व आराधित हुईं। ऐश्वर्य च या शक्ति पराक्रम एव च। तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्ति प्रकीर्तिता॥ देवी भागवत के अनुसार 'श' का अर्थ ऐश्वर्य और 'क्ति' का अर्थ पराक्रम है। इस प्रकार जो ऐश्वर्य और पराक्रम का स्वरूप है तथा जिससे पराक्रम और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, वही तीनों लोकों में शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। श्री दुर्गादेवी का स्वरूप (ध्यान) श्री दुर्गादेवी के तीन नेत्र है, उनके श्री अंगों की आभा बिजली के समान है। वे सिंह के कंधे पर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती है। हाथों में तलवार और ढाल लिए अनेक कन्याएं उनकी सेवा में खड़ी हैं। वे अपने हाथों में चक्र, गदा, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं। अष्टभुजाओं वाली श्रीदुर्गा देवी का स्वरूप अग्निमय है तथा वे माथे पर चंद्रमा का मुकुट धारण करती हैं। स्तुति मंत्र ऊँ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ संक्रामक रोगों/महामारी नाश के लिए इस मंत्र का जप करना चाहिए। श्री दुर्गा देवी की प्रसन्नता एवं कृपा प्राप्ति के लिए इस मंत्र के अलावा 'सप्तश्लोकी दुर्गा', 'श्री दुर्गा अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्' एवं 'दुर्गा द्वात्रिंशन्नाम माला स्तोत्र' का पाठ करना चाहिए। दुर्गा के 32 नामों का प्रतिदिन 108 बार जप करना चाहिए। ऐसा करने से कोर्ट केस (मुकदमा), शत्रुभय आदि घोर संकटों से शीघ्र मुक्त हो जाता है। क्योंकि दुर्गा दुर्गतिनाशिनी है। दुर्गा देवी का बीज मंत्र 'दुं' श्री दुर्गादेवी का बीजाक्षर है। दुर्गा देवी के दो बीज मंत्र निम्नवत् हैं। ऊँ दुं दुर्गायै नमः ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं दुं दुर्गायै नमः शुभ के मारे जाने के बाद देवताओं ने जब देवी की स्तुति की तो जगन्माता ने उन्हें आश्वासन और वरदान दिया। इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति। तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ देवी ने कहा, जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूंगी। श्री दुर्गा अवतार के बाद हिमालय पर्वत पर भीमादेवी का अवतार भी हो चुका है। इसके पश्चात् अब भविष्य में जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचायेगा तब तीनों लोकों का हित करने के लिए छः पैरों वाले असंखय भ्रमरों का रूप धारण करके उसका वध करेंगे। ऐसा स्वयं मार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अंतर्गत देवी स्तुति नाम ग्यारहवें अध्याय में देव्युवाच के 52-53 वें श्लोक में कहा है। यदारुणाखयस्त्रैलोक्ये महाबाधा करिष्यति। तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंखयेयषट्पदम्। त्रैलोकस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्। भ्रामरीति च मां लोकस्तदा स्तोष्यंति सर्वतः। नवरात्रि और नव दुर्गा भारत में एक संवत्सर में चार नवरात्र होते हैं। आषाढ़ और माघ की नवरात्रि गुप्त नवरात्रि कहलाती है। इन नवरात्रियों में तांत्रिक साधक गुप्त स्थानों पर तांत्रिक साधनाएं करते हैं। चैत्र का नवरात्र वासंतिक नवरात्र तथा आश्विन माह का नवरात्र शारदीय नवरात्र के नाम से जाना जाता है। नवरात्रों में दैवीय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, इसलिए नवरात्र में आद्याशक्ति भगवती दुर्गा की उपासना/आराधना का विशेष महत्व है। 'नव शक्तिभि संयुक्त नवरात्रतदुच्यते।' अर्थात् शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री ये नौ शक्तियां जिस समय एक महाशक्ति का रूप धारण करती हैं। उसे नवरात्र कहते हैं। इन्हीं नवशक्तियों को नवरात्र में जागृत किया जाता है। नवरात्र में जीवनी शक्ति का संचरण होता है। यह समय ऋतु परिवर्तन का होता है। आयुर्वेद के अनुसार इस समय शरीर की शुद्धि होती है। बढ़े हुए वात, पित्त, कफ का शमन करना चाहिए। शरद ऋतु के आश्विन माह में पड़ने वाली नवरात्रि चारों नवरात्रियों से बड़ी है। इसे वार्षिक नवरात्र की संज्ञा दी गई है। इस समय महापूजा का आयोजन किया जाता है। जैसा कि कहा गया है। 'शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।' आश्विन नवरात्र में ही विजया दशमी को अपराजिता देवी का पूजन किया जाता है। चैत्र नवरात्र में 'रामनवमी' पड़ती है। जबकि आश्विन में 'श्री दुर्गा नवमी' आती है। मुखय रूप से तीन महाशक्तियां हैं, महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती। इन तीनों को संयुक्त रूप से 'दुर्गा' कहा जाता है। ब्रह्मा जी के अनुसार जगदंबा के नौ स्वरूप हैं, जिन्हें 'नव दुर्गा' कहते हैं। नवरात्र में श्रीदुर्गा देवी के नौ स्वरूपों की क्रमशः आराधना की जाती है। प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चंद्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥ पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम्॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता। उक्तन्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥ कुछ शास्त्रकारों की मान्यता है कि ये उपरोक्त नौ शक्तियां महासरस्वती के अंग से प्रकट हुई थीं, अतः वे उनकी ही नौ शक्तियां हैं। कतिपय विद्वानों के अनुसार अष्टभुजा धारी दुर्गा जी की पूजा करना हो तो उनके साथ इन नौ शक्तियों की भी पूजा करनी चाहिए। वे शक्तियां हैं- चामुण्डा, वाराही, ऐंद्री, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, नारसिंही, शिवदूती, ब्राह्मी। ये सभी माताएं सभी प्रकार की योग शक्तियों से संपन्न है।

ज्योतिष में इश्वर प्राप्ति के योग

ज्योतिष में ईश्वर प्राप्ति के योगों के लिए सबसे पहले जन्मकुंडली के सबभावों में से प्रथम, पंचम व नवम भाव व भावेशों पर विचार करना चाहिए। इन भावों में जितनी शुभ ग्रहों की स्थिति या दृष्टि होगी जातक का विश्वास ईश्वरीय सत्ता में उतना ही अधिक होगा, जातक का ध्यान प्रभु में उतना ही अधिक लगेगा। पंचम भाव व नवम भाव का कारक गुरु होता है। गुरु ज्ञान का कारक, मंत्र विद्या का कारक, वेदांत ज्ञान का कारक, धर्म गुरु, ग्रंथ कर्ता, संस्कृत व्याकरण आदि का कारक होता है यदि कुंडली में गुरु लग्न में, तृतीय भाव में, पंचम भाव में या नवम भाव में हो तो उस जातक का मन भगवान में लगता है। मन का कारक चंद्रमा है और भक्ति का कारक गुरु बृहस्पति है। चंद्र गुरु योग भी कुंडली में हो तो ईश्वर प्रेम पैदा करता है। यही योग यदि कुंडली में प्रथम भाव, नवम भाव, पंचम भाव में बनता हो तो जातक आध्यात्मिक ऊंचाइयों को छूने वाला होता है। यदि गुरु लग्न में हो तो ऐसा जातक पूर्व जन्म में वेद पाठी ब्राह्मण होता है। यदि कुंडली में कहीं भी उच्च का गुरु होकर लग्न को देख रहा हो तो जातक पूर्व जन्म में धर्मात्मा, सदगुणी एवं विवेकशील साधु होता है। ऐसा ऋषियों का कथन है। यदि पंचम भाव में पुरुष ग्रह हों या पुरुष ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक पुरुष देवताओं की पूजा करने वाला होता है यदि पंचम भाव में स्त्री राशि हो या चंद्रमा, शुक्र बैठे हों या किसी एक ही दृष्टि हो तो जातक स्त्री देवता की पूजा करने वाला होता है। यदि पंचम भाव में शनि, राहु, केतु हों या इन ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक कामनावश पूजा करने वाला होता है। गुरु व शनि एक अंशों में नवम भाव या दशम भाव में एक साथ बैठे हों शुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो यह मुनि योग का निर्माण करता है। मुनि योग में जन्म लेने वाला जातक सांसारिक प्रपंचों से दूर होकर उम्र भर के लिए साधु बन जाता है। चंद्रमा से केंद्र में गुरु हो तो यह गजकेसरी योग का निर्माण करता है इस योग में जन्म लेने वाला जातक भी ईश्वर भक्ति करने वाला होता है।

भारतीय संस्कृति में मौन व्रत

मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत, संयम व्रत, अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं, परंतु मौनव्रत अपने आप में एक अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन, तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंधकर किया जा सकता है। यह कष्टसाध्य अवश्य है, क्योंकि आज के इस युग में मनुष्य इतना वाचाल हो गया है कि बिना बोले रह ही नहीं सकता। उल्टा-सीधा, सत्य-असत्य वाचन करता ही रहता है। यदि कष्ट सहकर मौनव्रत का पालन किया जाए तो क्या नहीं प्राप्त कर सकता? अर्थात् सब कुछ पा सकता है। कहा भी गया है- ‘कष्ट से सब कुछ मिले, बिन कष्ट कुछ मिलता नहीं। समुद्र में कूदे बिना, मोती कभी मिलता नही।।’ जैसे- जप से तन की, विचार से मन की, दान से धन की तथा तप से इंद्रियों की शुद्धि होती है। सत्य से वाणी की शुद्धि होनी-शास्त्रों तथा ऋषियों द्वारा प्रतिपादित है, परंतु मौन व्रत से तन, मन, इंद्रियों तथा वाणी-सभी की शुद्धि बहुत शीघ्र होती है। यह एक विलक्षण रहस्य है। व्रत से तात्पर्य है- कुछ करने या कुछ न करने का दृढ़ संकल्प। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति दृढ़ संकल्प से ही होती है। यह संसार भी सत्य स्वरूप भगवान के संकल्प से ही प्रकट हुआ है। मौन-व्रत से मनुष्य मस्तिष्क या मन में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, उन पर नियंत्रण होता है। यदि संकल्प-विकल्प भगवन्निष्ठ हों तो सार्थक होता है, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता। भगवान की माया शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है- यह जगत्। मनुष्य इस संसार की महानतम भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए ही नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता रहता है। फलतः मन की चंचलता निरंतर बनी रहती है। जितने क्षण मन कामना (संकल्प-विकल्प)- शून्य हो जाता है उतने क्षण ही योग की अवस्था रहती है। मौन-व्रत द्वारा निश्चित रूप से मन को स्थिर किया जा सकता है। ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। मौन-व्रत रखने से भौतिक कामनाओं से मुक्ति के साथ-साथ परस्पर अनावश्यक वाद-विवाद से भी बचा जा सकता है। राग और द्वेष पर तो विजय मिल ही जाती है। जितने समय तक साधक मौन-व्रत रखता है, उतने काल तक असत्य बोलने से मुक्त रहता है। साथ ही मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है। मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा-शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता हैं भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। शरीर, धन, रूप, विद्या तथा सत्ता का बल मनुष्य को मदांध कर देता है। इनमें से एक भी बल हो तो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ अनीतिमय व्यवहार करने लगता है। जरा सोचें, जिनके पास ये पांचों बल हों उसकी गति क्या होगी! मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है। अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है फिर विषय का त्याग करता हुआ जीवन के अद्वितीय रस भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवान नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक साधक को दिन में एक घंटे, सप्ताह में एक दिन एकांत वास कर मौन-व्रत धारण कर भगवद्भजन करना चाहिए। यह बड़ा ही श्रेयष्कर साधन है। यूं भी साधक को नियमित जीवन मंे ंउतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। निरंतर निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप से वाकसिद्धि हो जाती है। मौन-व्रत का पालन बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि मौन-व्रत तथा सत्य भाषण के कारण ही वाक्सिद्ध थे। यदि हमारी इंद्रियां तथा मन चलायमान रहें तो मौन-व्रत पालन करना छलावा मात्र ही रहेगा। मूल रूप से वाणी संयम तो आवश्यक है ही, किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है संयम। संयम ही वास्तव में मुख्य मौन-व्रत है। यह साधनावस्था की उच्चभूमि है जहां पहुंचकर ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद की स्वतः अनुभूति होने लगती है। अतः धीरे-धीरे वाक् संयम का अभ्यास करते हुए मौन व्रत की मर्यादा में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

मीरा की भक्ति

उनकी भक्तिमय जीवन की धारा किन-किन मोड़ों से निकलकर अपने आराध्य में विलीन हो गई उसका एक संपूर्ण चित्र इस लेख में प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण भक्ति की अनन्य प्रेम भावनाओं में अपने गिरधर के प्रेम में रंग राती मीरा का दर्द भरा स्वर अपनी अलग पहचान रखता है। समस्त भारत उस दर्द दीवानी की माधुर्य भक्ति से ओत-प्रोत रससिक्त वाणी से आप्लावित है। अपने नारी व्यक्तित्व की स्वतंत्र पहचान निर्मित करने वाली तथा युग की विभीषिकाओं के विरूद्ध संघर्षशील विद्रोहिणी मीरा का जन्म राजस्थान में मेड़ता कस्बे के कुड़की ग्राम में हुआ था। मीरा कृष्ण की अनन्य उपासिका थी। भक्ति भावना के आवेश में उन्होंने जिन पदों का गान किया है वे इस तरह से हैं - गीत गोविद की टीका, राग गोविन्द, नृसिंह जी को मायरो। मीरा की भक्ति-भावना माधुर्य भाव की रही है। आध्यात्मिक दृष्टि से वो कृष्ण को अपना पति मानती है। मीरा अपने कृष्ण प्रेम की दीवानी हैं। उन्होंने अपनी इस प्रेम बेलि की आंसुओं के जल से सिंचाई की है। जैसे ''म्हां-गिरधर रंगराती'' पंचरंग चोला पहेरया, सखि म्हां झरमट खेलण जाति। कृष्ण के प्रति भक्ति-भावना का बीजारोपण मीरा में बचपन में ही हो गया था। किसी साधु से मीरा ने कृष्ण की मूर्ति प्राप्त कर ली थी। विवाह होने के बाद वह उस मूर्ति को भी अपने साथ चित्तौड़ ले गई थी। जयमल वंश प्रकाश के अनुसार मीरा अपने शिक्षक पंडित गजाधर को भी अपने साथ चित्तौड़ ले गई थी और दुर्ग में मुरलीधर का मंदिर बनवाकर सेवा और पूजा आदि का समस्त कार्य गजाधर को सौंप दिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी मीरा कृष्ण की पूजा तथा अर्चना करती रही, परंतु मीरा के विधवा होते ही उस पर जो विपत्तियों के पहाड़ टूटे, उससे उसका मन वैराग्य की ओर उन्मुख हो गया। ज्यों ज्यों मीरा को कष्ट दिये गये, मीरा का लौकिक जीवन से मोह समाप्त होता गया और कृष्ण भक्ति में उनकी निष्ठा बढ़ती गई। वह कृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर अमर सुहागिन बन गई। मीरा की आध्यात्मिक यात्रा तीन सोपानों से गुजरती है। प्रथम सोपान, प्रारंभ में उसका कृष्ण के लिए लालायित रहने का है। इस अवस्था में वह व्यग्रता से गाती हैं। 'मैं विरहणि बैठी जांगू, जग सोवेरी आलि' और कृष्ण मिलन की तड़प से बोल उठती हैं ''दरस बिन दुखण लागे नैन''। द्वितीय सोपान यह है कि जब कृष्ण भक्ति से उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाती है और वह कहती है, ''पायो जी, मैंने राम रतन धन पायो।'' मीरा के ये उद्गार उनकी प्रसन्नता के सूचक हैं और इसी तरंग में वह कह उठती है ''साजन म्हारे घरि आया हो, जुगा जुगारी जीवता, विरहणि पिय पाया हो''। तृतीय एवं अंतिम सोपान वह है, जब उन्हें आत्म बोध हो जाता है जो सायुज्य भक्ति की चरम सीढ़ी हैं। वह अपनी भक्ति में सखय भाव से ओत-प्रोत होकर कहती हैं ''म्हारे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोई''। मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाती है। 16वीं सदी में भक्ति की जिस धारा का उद्गम मीरा ने किया था, आज भी वही भक्ति धारा उसी प्रथा से प्रवाहित हो रही है। वास्तव में मीरा नारी संतो में ईश्वर प्राप्ति हेतु लगी रहने वाली साधिकाओं में प्रमुख थी और शायद है। उनकी भक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अन्य भक्तों के लिए मार्ग-निर्देशन करता रहा है। मीरा के काव्य में सांसारिक बंधनो का त्याग और ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव दृष्टिगत होता है। उनकी दृष्टि में सुख, वैभव, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि सभी मिथ्या है। यदि कोई सत्य है तो वह है- ''गिरधर गोपाल''। मीरा के विचार अतीत और वर्तमान से संबद्ध होकर भी मौलिक थे। परंपरा-समर्पित होकर भी पूर्णतः स्वतंत्र थे, व्यापक होकर भी सर्वथा व्यक्तिनिष्ठ थे। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे ! बाल्यकाल से ही मीरा में भगवत भक्ति के संस्कार जागृत होने लगे थे। वे अपनी सहेलियों के साथ खेल खिलवाड़ में भी ठाकुर जी की पूजा, ब्याह, बारात और नित्य नवीन उत्सव का खेल खेलती थीं। उनके हृदय मंदिर में बचपन से ही ऐसे अलौकिक प्रेमानुराग की छटा छिटकने लगी थी, जिसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता था। कृष्ण मूर्ति के लिए हठ : जब मीरा केवल दस वर्ष की थी, उनके घर अभ्यागत बन कर आये संत के पास श्रीकृष्ण की एक मूर्ति थी। जब वे उसकी पूजा करने लगे, मीराबाई भी उस समय उनके पास जा बैठी। बाल-सुलभ मीरा का मन मूर्ति के सौंदर्य पर आकृष्ट हो गया। उन्होंने साधु से पूछा, 'महाराज, आप जिनकी पूजा कर रहे हैं, इनका क्या नाम है?' साधु ने उत्तर दिया 'वह गिरधर लाल जी हैं।' मीरा ने कहा 'आप, इन्हें मुझे दे दीजिए।' इससे वह साधु बड़ा रूष्ट हुआ और वहां से चला गया। मीरा ने मूर्ति प्राप्त करने के लिए हठ किया और वह अन्न जल सब छोड़ बैठी। घर के लोग परेशान हो गये। जब मीरा ने लगातार सात दिन कुछ नहीं खाया, तब उस साधु को भगवान ने स्वप्न में मूर्ति मीरा को देने का आदेश दिया। साधु ने वैसा ही किया। गिरधरलाल जी की मूर्ति पाकर मीरा अत्यंत प्रसन्न हुई और नितनेम के साथ आठों याम उसकी पूजा अर्चना करने लगीं। एक दिन मीरा ने एक बारात देखी। अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे, दूल्हा पालकी में बैठा था। मीरा ने घर वालों से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है? उत्तर मिला - गिरधर लाल जी ही तुम्हारे पति हैं। उसी दिन से मीरा ने भगवान कृष्ण को ही अपना पति मान लिया। वे उसी दिन से मग्न होकर गाने लगीं। ''मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई॥ मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाती हैं, 16वीं सदी में भक्ति की जिस धारा का उद्गम मीरा ने किया था, आज भी वही भक्ति धारा उसी प्रथा से प्रवाहित हो रही है। वास्तव में मीरा ईश्वर भक्ति की लगन वाली साधिकाओं में उनका नाम सर्व प्रमुख है।

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Friday 25 March 2016

वास्तु अनुसार पूजा स्थान का निर्माण कैसे कराएं

भवन में पूजा घर उत्तर-पूर्व में ही रखना क्यों अधिक लाभप्रद है ?
पूजा घर हमेषा उत्तर-पूर्व दिषा अर्थात् ईषान कोण में ही बनाना चाहिए क्योंकि उत्तर-पूर्व में परमपिता परमेष्वर अर्थात ईष्वर का वास होता है। कहा जाता है कि देवी लक्ष्मी, भगवान विष्णु के साथ उत्तर-पूर्व म निवास करती हैं। साथ ही ईषान क्षेत्र में देव गुरू बृहस्पति का अधिकार है जो कि आध्यात्मिक चेतना का प्रमुख कारक ग्रह है। प्रातःकाल उत्तर-पूर्व भाग या ईशान कोण में पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा तथा वायु मंडल और ब्रह्मांड से मिलने वाले ऊर्जा एवं शक्तियों का अनूकूल प्रभाव मिलता है। फलस्वरूप आध्यात्मिक एवं मानसिक शक्तियों में सकारात्मक वृद्धि होती है।
पूजाघर, रसोईघर में क्यों नहीं रखना चाहिए
पूजाघर कभी भी रसोईघर के साथ नहीं बनाना चाहिए। प्रायः लोग रसोईघर में ही पूजाघर बना लेते हैं जो उचित नहीं है। रसोईघर में प्रयोग होनेवाली वस्तुएं मिर्च-मसाला, गैस, तेल, कांटा, चम्मच, नमक आदि मंगल की प्रतीक वस्तुएं हैं। मंगल का वास भी रसोईघर में ही होता है। उग्र ग्रह होने के कारण मंगल उग्र प्रभाव में वृद्धि कर पूजा करने वाले की शांति एवं सात्विकता मे कमी लाता है। भगवान भाव एवं सुगंध के भूखे होते हैं। रसोईघर में सात्विक एवं निरामिष दोनां प्रकार का भोजन पकाते है जिसका सुगंध एवं दुर्गंध भगवान को मिलती है, जो कि उनके प्रति व्यवहार ठीक नहीं है, इससे देवता श्राप देते हैं। अतः पूजाघर में रसोई बनाने से आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पाता।
पूजाघर, शौचालय के सामने क्यों नही रखना चाहिए?
पूजाघर, टायलेट के सामने नहीं होना चाहिए क्योंकि टायलेट पर राहु का अधिकार होता है जबकि पूजा स्थान पर बृहस्पति का अधिकार है। राहु अनैतिक संबंध एवं भौतिकवादी विचारधारा का सृजन करता है। साथ ही राहु की प्रवृत्तियां राक्षसी होती हैं जो पूजाकक्ष के अधिपति ग्रह बृहस्पति के सात्विक गुणों के प्रभाव को कम करती है जिसके फलस्वरूप पूजा का पूर्ण अध्यात्मिक लाभ व्यक्ति को नहीं मिल पाता। पूजा कक्ष सीढ़ियों के नीचे भी नहीं रखना चाहिए।
गणेश जी की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
गणेश जी की स्थापना दक्षिण दिषा में करनी चाहिए। इससे उनकी दृष्टि उत्तर की तरफ रहेगी, उत्तर मे हिमालय पर्वत है और उसपर गणेष जी के माता-पिता अर्थात् शंकर-पार्वती जी का वास स्थान है। गणेष जी को अपने माता पिता की तरफ देखना बड़ा अच्छा लगता है इसलिए गणेषजी की मूर्ति दक्षिण दिषा में रखी जानी चाहिए। गणेष जी की स्थापना पष्चिम दिषा में कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि गणेष जी मंगल के प्रतीक और पष्चिम दिषा का स्वामी शनि है। इस तरह मंगल व शनि एक साथ हो जाएंगे जिससे घर में परेषानियां एवं मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी।
अन्य देवताओं की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
पूजाघर में ब्रह्मा, विष्णु, षिव, कात्र्तिकेय, सूर्य एवं इन्द्र को इस तरह स्थापित करना चाहिए कि पूजा करते समय व्यक्ति का मूंह पूर्व या पष्चिम की ओर हो। अर्थात् इन सभी देवी देवताओं की स्थापना की सही दिषा पूर्व या पष्चिम है। देवी देवताओ की मूत्र्तियां दिषा वाली दीवार पर नहीं लगानी चाहिए अन्यथा वे दक्षिणाभिमुख हो जाएंगी। साथ ही उत्तर मे उत्तर होता है, अतः दोनों का एक दिषा में रहना ठीक नहीं रहेगा। कुबेर का स्थान उत्तर दिषा है। लक्ष्मी उत्तर-पूर्व में रहती हैं। सरस्वती पष्चिम दिषा में निवास करती हैं। इसलिए पश्चिम दिषाओं में बैठकर सरस्वती जी की पूजा की एवं उत्तर-पूर्व में बैठकर लक्ष्मी जी की पूजा हमेषा करनी चाहिए।
पूजा कक्ष में द्वार कहाँ पर होनी चाहिए?
पूजा कक्ष का द्वार हमेषा कक्ष के मध्य में स्थित होनी चाहिए। लेकिन मूत्र्तियां द्वार के ठीक सामने हैं तो द्वार पर परदा रखना आवष्यक है। पूजा कक्ष का प्रवेष द्वार पूर्व की ओर तथा निकास उŸार दिषा की ओर होना चाहिए जिसके फलस्वरूप उस घर में निवास करने वाले लोगों के नाम और यष में वृद्धि होती है तथा विषिष्ट व्यक्ति के रूप में उनकी पहचान बनती है। यदि पूजा कक्ष का द्वार उत्तर-पूर्व दिषा में हो तथा उसमें आना जाना उत्तर-पूर्व दिषा से ही होता हो तो सूर्य कि किरणों और चुंबकीय प्रभाव से धन दौलत के साथ-साथ चहुंमुखी सुख की प्राप्ति होती है क्योंकि कुछ देवी देवता इन्द्र के रास्ते पूर्व से पूजन कक्ष या मंदिर में प्रवेष करना पसंद करते हैं तथा कुछ देवी देवता उत्तर या उत्तर-पूर्व के रास्ते पूजन कक्ष में प्रवेष करना पसंद करते हैं। वरूण एवं वायु देवता हमेषा पष्चिम-उत्तर के रास्ते प्रवेष करते हैं इसलिए इन स्थानों से भी प्रवेष द्वार रखना शुभ फलदायी है। दक्षिण-पूर्व के रास्ते यज्ञ के देवता अग्नि देव प्रवेष करते हैं अतः इस कारण से इस ओर का द्वार भी अच्छा माना गया है। इन सिद्धांतों को अपनाने से पूजन कक्ष की गरिमा बढ़ती है तथा वहां पर देवी देवता शुभ फल प्रदान कर मानसिक एवं आध्यात्मिक सुख समृद्धि प्रदान करते हंै।
पूजा कक्ष में किन देवी देवताओ ं को रखना विशेष लाभप्रद होता है?
घर में विष्णु, लक्ष्मी, राम-सीता, कृष्ण, एवं बालाजी जैसे सात्विक एवं शांत देवी देवता का यंत्र, मूत्र्ति एवं तस्वीर रखना लाभप्रद होता है। पूर्व में भगवान का मंदिर तथा पष्चिम में देवी मंदिर नाम, ऐष्वर्य एवं धन-दौलत देने वाला बनता है। पूजा घर में मूत्र्तियां एक दूसरे की ओर मुख करके नहीं रखनी चाहिए।
पूजा कक्ष मे मूर्ति खंडित होने पर क्या करना चाहिए ?
 पूजाघर में किसी भी प्रकार से अंष मात्र भी इष्ट प्रतिमा खंडित हो गयी हो तो कितनी ही बहुमूल्य क्यों न हो पूजन योग्य नहीं होती। ऐसी स्थिति होने पर उन्हे ं पवित्र जल में विधि विधान से विसर्जित कर देनी चाहिए। साथ ही किसी प्राचीन मंदिर से लाई गई खंडित मूर्ति भी नहीं रखना चाहिए। देवी देवताओं की प्रतिमा पर से उतरे हुए सूखे पुष्प, माला तथा हवन, धूप आदि की राख, सफाई में निकला अवषेष जल, नारियल के टुकडे़, पुराने वस्त्र आादि को अनावष्यक समझ फेंकने के बजाय तेज बहते जल में विसर्जित कर देना चाहिए।

दाह संस्कार :अंतिम संस्कार

हिंदू धर्म में मृत्यु को जीवन का अंत नहीं माना गया है। मृत्यु होने पर यह माना जाता है कि यह वह समय है, जब आत्मा इस शरीर को छोड़कर पुनः किसी नये रूप में शरीर धारण करती है, या मोक्ष प्राप्ति की यात्रा आरंभ करती है । किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद मृत शरीर का दाह-संस्कार करने के पीछे यही कारण है। मृत शरीर से निकल कर आत्मा को मोक्ष के मार्ग पर गति प्रदान की जाती है। शास्त्रों में यह माना जाता है कि जब तक मृत शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्रों के अनुसार किये जाने वाले सोलह संस्कारों में से अंतिम संस्कार दाह संस्कार है। यह संस्कार दो प्रकार से किया जाता है 1. जब मृत शरीर उपलब्ध हो जब मृत शरीर उपलब्ध हो तो निम्न प्रकार से दाह संस्कार क्रिया करनी चाहिए- व्यक्ति की मृत्यु के बाद पुत्र या पौत्र को मरे हुए प्राणी को कंधा देना चाहिए। तथा उसका निम्न विधान से अग्निदाह करना चाहिए। मृत्यु के पश्चात् सबसे पहले भूमि को गोबर से लिपना चाहिए। जल रेखा से मंडल बनाना चाहिए। इसके बाद तिल और कुश बिछाकर व्यक्ति को कुश पर सुला देना चाहिए तथा उसके मुख में स्वर्ण तथा पंचरत्न डालना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति अपने सभी पापों से मुक्त हो जाता है। मंडल युक्त भूमि पर प्राण त्याग करने से व्यक्ति को अन्य योनि प्राप्त करने में सहजता रहती है अन्यथा उसकी आत्मा वायुलोक में भटकती रहती है। मृत्युकाल में मरनासन्न व्यक्ति के दोनों हाथों में कुश रखना चाहिए। इससे प्राणी विष्णुलोक को प्राप्त करता है। व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर, पुत्रादि तथा परिजनों को स्वयं स्नान करने के बाद शव को शुद्ध जल से स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाकर, उसके बाद शरीर में चंदन आदि सुगंधित पदार्थों का लेप भी करना चाहिए। दाह संस्कार के अंतर्गत छः पिंड देने का विधान है। पहला पिंड मृत्यु स्थान पर, दूसरा द्वार पर, तीसरा चैराहे पर, चैथा विश्रामस्थान, पांचवां चिता, और छठा संचयन के समय। इसके बाद शव को बंधु-बांधवों को श्मशान घाट ले जाना चाहिए और वहां शव को दक्षिणी दिशा की ओर सिर करके स्थापित करना चाहिए। दाहक्रिया के लिए पुत्रादि-परिजनों को तृण, काष्ठ, तिल और घी लेकर जाना चाहिए। श्मशान घर में दाह संस्कार के सभी कार्य दक्षिणामुखी होकर करना चाहिए। दाह संस्कार करने से पूर्व स्वच्छ भूमि पर अग्नि स्थापित कर, शव को चिता में जलाने का उपक्रम करना चाहिए। जब शव के शरीर का आधा भाग चिता में जल जाए तो उस समय कर्ता तिलमिश्रित घी की आहुति चिता में जल रहे शव के ऊपर छोड़ना चाहिए। उसके बाद भाव विह्वल होकर उस आत्मीय जन के लिए रोना चाहिए। इस प्रकार करने से मृतक को अत्यधिक सुख प्राप्त होता है। दाह क्रिया करने के बाद अस्थि-संचयन क्रिया की जानी चाहिए। इसके बाद किसी जलाशय पर जाकर सभी परिजनों को वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए तथा दक्षिणामुखी होकर मृत प्राणी के लिए तिलयुक्त जलांजलि देनी चाहिए। शवदाह जलांजलि के बाद स्वजनों को अश्रुपात नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में ऐसा माना जाता है कि इस समय रोते हुए अपने बंधु बांधवों के द्वारा आंख और मुंह से गिराए हुए आंसू और कफ का मृतक को पान करना पड़ता है। घर के द्वार पर पहुंचने पर नीम की पत्तियों को दांत से काटकर आचमन करें तथा बाद में घर में प्रवेश करें। दाह संस्कार मुहूर्त जब मृत शरीर उपलब्ध होता है तो दाह संस्कार के लिये मुहूर्त चयन की आवश्यकता नहीं होती है। केवल जब किसी के मृत शरीर का दाह-संस्कार पंचक के नक्षत्र समय में करना हो तो मुहूर्त समय का प्रयोग किया जाता है। पंचक नक्षत्रों में धनिष्ठा के अंतिम दो चरण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद व रेवती आते हैं। इन पांच नक्षत्रों में मृत्यु होने पर दाह-संस्कार से पूर्व पंचक शांति करानी होती है। 2. जब मृत शरीर उपलब्ध हो जब किसी व्यक्ति की मृत्यु भूख से, हिंसक प्राणी के द्वारा, फांसी के फंदे, विष से, अग्नि से, आत्मघात से, गिरकर, रस्सी बंधन से, जल में रखने से, सर्प दंश से, बिजली से, लोहे से, शस्त्र से या विषैले कुत्ते के मुख स्पर्श से हुई हो तो इसे दुर्मरण कहा जाता है। इन सभी स्थितियों में मृत्यु को सामान्य नहीं माना जाता और मृत्यु पश्चात् दाह संस्कार के लिए पुतला दाह संस्कार विधि का प्रयोग किया जाता है। यही विधि प्रवास में मृत्यु होने पर भी अपनाई जाती है। इस प्रकार की स्थिति तभी सामने आती है, जब सामान्यतः अप्राकृतिक मृत्यु होती है। जिसमें या तो शरीर किसी कारण वश नष्ट हो जाता है, अथवा प्राप्त ही नहीं होता है। इन स्थितियों में कुशा (एक प्रकार की घास), पलाश और चावल के आटे का पुतला बनाकर उसका दाह संस्कार किया जाता है। पुतला दाह-संस्कार अर्थात पुतले के दाह-संस्कार के लिये मुहूर्त चयन की निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाती है:- क) जब मृत्यु की सूचना सूतक (अशुद्धता) के दौरान प्राप्त होती है सूतक समय स्थान विशेष की रीति-रिवाज अनुसार सूतक, मृत्यु के दस से 16 दिन के अंदर समाप्त हो जाता है। यदि मृत्यु की सूचना इन दिनों के बीच ही प्राप्त हो जाती है तो पुतला-दाह पंचक के नक्षत्र समय को छोड़कर किसी भी समय किया जा सकता है। ख) जब मृत्यु की सूचना सूतक के पश्चात् अर्थात 16 दिनों से एक वर्ष के मध्य प्राप्त होती है, तो पुतला-दाह के मुहूर्त चयन के लिये निम्नलिखित बातों का विचार करना आवश्यक होता है। 1. पुतला दाह-संस्कार नक्षत्र पुतले का दाह-संस्कार करने के लिये श्रवण, हस्त, अश्विनी और पुष्य नक्षत्र सबसे अच्छे माने जाते हैं। इसके बाद उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी, पुनर्वसु, विशाखा, मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठा नक्षत्र पुतला दाह- संस्कार के लिये मध्यम श्रेणी के नक्षत्र होते हैं। 2. पुतला दाह - संस्कार वार यह कार्य करने के लिये रविवार, सोमवार व गुरुवार को लिया जा सकता है। 3. दाह संस्कार त्याज्य समय पुतला दाह - संस्कार कार्य के लिये भद्रा त्याज्य है। दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति का जन्म व प्रत्यारि तारा (जन्म नक्षत्र वाला तारा, 5वां, 10वां, 14वां, 19वां व 23वां तारा त्याज्य होता है व दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति के जन्म चंद्रमा से गोचर के चंद्रमा की स्थिति 4, 8, 12 वें भावों में भी नहीं होनी चाहिए। शुक्रवार, मंगलवार, शनिवार नहीं लेना चाहिए। तिथियों में 1, 6, 11, 13, 14 तिथियां, त्रिपुष्कर योग, अधिमास, गुरु व शुक्र का अस्त होना और शुक्ल पक्ष का भी परित्याग करना चाहिए। साथ ही सब क्रूर नक्षत्रों अर्थात पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वा आषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपद, भरणी व मघा आदि नक्षत्रों के अतिरिक्त तीक्ष्ण नक्षत्र अर्थात (मूल, ज्येष्ठा, आद्र्रा व आश्लेषा और रेवती) को भी त्याग देना चाहिए। 4. जब मृत्यु की सूचना एक वर्ष बाद प्राप्त हो जब मृत्यु की सूचना एक वर्ष के उपरांत प्राप्त हो, तो ऐसी स्थिति में पुतला दाह-संस्कार उत्तरायण में ही करना चाहिए और पुतला दाह के मुहूर्त चयन के लिए उन सभी बातों का विचार आवश्यक रूप से करना चाहिए जिन्हें ऊपर (ख) में बताया गया है।

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Sunday 20 March 2016

अंग लक्षण एवं सामुद्रिक का परस्पर संबंध  हस्त रेखा शास्त्र, अंग लक्षण विद्या तथा सामुद्रिक क्या ये तीनों एक ही हैं? अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर क्या संबंध है? हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं? मनुष्य का हाथ एक ऐसी जन्म पत्रिका है जो कभी भी नष्ट नहीं होती तथा जिसके रचयिता स्वयं ब्रह्माजी हैं। इसलिए शास्त्रों में कहा भी गया है- ''कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्॥ कर (हाथ) के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती तथा मूल में ब्रह्मा जी का वास है अतः प्रातः उठकर सर्वप्रथम अपनी हथेलियों का दर्शन करना चाहिए। हस्तरेखा विज्ञान तथा अंग लक्षण विज्ञान को ही सामुद्रिक भी कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि समुद्र ऋषि ही एसे सवर्प्रथम भारतीय ऋषि थे जिन्हांने प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध रूप से ज्योतिष विज्ञान की रचना की थी अतः उन्हीं के नाम पर हस्त रखाो विज्ञान को सामुिदक्र भी कहा जाता है। हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं अथवा अंग लक्षण विद्या का सामुद्रिक से क्या संबंध है। इससे संबंधित तथ्यों का उल्लेख भी वेदों और पुराणों में मिलता है। 'अंग लक्षण विद्या' से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से है जिसके ज्ञान के द्वारा स्त्री पुरुष के शारीरिक अंगों में विद्यमान उसके शुभाशुभ लक्षणों को देखकर ही उनके व्यक्तित्व, स्वभाव, चरित्र तथा भाग्य का सटीक और सार्थक फलादशे किया जा सके। ऐसी विलक्षण विद्या की रचना सर्व प्रथमगणशे भगवान के अगज्र भगवान कार्तिकेय ने की थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान गणेश को 'विघ्नेश', 'विघ्न विनाशक' तथा 'एकदंत' भी कहते हैं। उन्होंने किसके लिए विघ्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघ्नशे कहा गया अथवा गणेश जी को एकदंत क्यो कहते हैं? यदि इस प्रश्न की गहराई में जाएं तो भी हम पाएगे कि इसका मलू कारण भी 'समुद्र शास्त्र' ही है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में शिव जी के ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय ने अपने 'अंग लक्षण शास्त्र' के अनसु ार पुरुषों एवं स्त्रियों के श्रेष्ठ लक्षणों की रचना की। उसी समय गणेश जी ने उनके इस कार्य में विघ्न उत्पन्न किया। इस पर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्हांने गणेश जी का एक दातं उखाड़ लिया और उन्हें मारने के लिए उद्यत हो उठे। तब भगवान शकं र ने कार्तिकये को बीच में रोककर पूछा कि उनके क्रोध का कारण क्या है? कार्तिकेय जी ने कहा ''पिताजी, मैं पुरुषों के लक्षण बनाकर स्त्रियों के लक्षण बना रहा था, उसमें गणेश ने विघ्न उत्पन्न किया, जिससे स्त्रियों के लक्षण मैं नही ंबना सका। इस कारण मुझे क्रोध आया।'' यह सुनकर महदेव जी ने उनके क्रोध को शांत किया और मुस्कुराकर उनसे पूछा- ''पुत्र, तुम पुरुष के लक्षण जानते हो, तो बताओ मुझमें पुरुषों के कौन-कौन से लक्षण विद्यमान हैं?'' कार्तिकेय जी ने कहा ''पिता जी, आप पुरुषों के ऐसे लक्षण विद्यमान हैं कि आप संसार में 'कपाली' के नाम से प्रसिद्ध होंगे। पुत्र के ऐसे वचनों को सुनकर शिवजी क्रोधित हो गये और उन्होंने कार्तिकेय जी के अंग लक्षण शास्त्र को उठाकर समुद्र में फकें दिया और स्वयं अंर्तध्यान हो गये। कुछ समय पश्चात् जब शिवजी का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने समुद्र को बुलाकर कहा कि तमु स्त्रियों के आभूषण स्वरूप विलक्षण लक्षणों की रचना करो और कार्तिकेय ने जो कुछ भी पुरुष लक्षणों के बारे में कहा है उसकी भी विस्तृत विवेचना करो।'' समुद्र ने शिवजी की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए कहा ''स्वामिन्, आपने जो आज्ञा मुझे दी है, वह निश्चित ही पूर्ण होगी, किंतु जो मेरे द्वारा स्त्री-पुरुष लक्षण का शास्त्र कहा जाएगा, वह मरे ही नाम 'सामुिदक्र शास्त्र' नाम से प्रसिद्ध होगा। कार्तिकेय ने भगवान महेश्वर से कहा ''आपके कहने से यह दातं तो मैं गणशे के हाथ में दे देता हूं किंतु इन्हें इस दांत को सदैव धारण करना होगा। यदि इस दांत को फेंक कर ये इधर-उधर घूमेंगे तो फेंका गया दांत इन्हें भस्म कर देगा''। ऐसा कहकर कार्तिकेय जी ने वह दांत गणेश जी के हाथ में दे दिया। भगवान देवदेवेश्वर श्री शिव जी ने गणेश जी को कार्तिकेय की यह बात मानने के लिए सहमत कर लिया। आज श्री भगवान शंकर एवं गौरा पार्वती के पुत्र विघ्नेश विनायक की प्रतिमा हाथ में अपना दांत लिए देखी जा सकती है तथा किसी भी शुभ अवसर पर हिदं ू धर्म में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा-अर्चना का विधान भी शायद इसीलिए बनाया गया है कि व्यक्ति के किसी भी कार्य में कोई भी विघ्न न उपस्थित हो। अतः स्पष्ट है कि अंग लक्षण विद्या से सबंंिधत शास्त्र की रचना में विघ्न उत्पन्न करने के कारण ही गणेश जी को विघ्नेश कहा गया तथा भगवान कार्तिकेय के क्रोध के कारण दण्ड स्वरूप उन्हें एकदंत होना पड़ा। लक्षण शास्त्र से सबंंिधत पुराणाक्ते एक कथा यह भी है कि, भगवान शिव द्वारा क्रोध में आकर कार्तिकेय द्वारा रचित लक्षण ग्रंथ को समुद में फेंक देने के उपरांत व्योमकेश भगवान के सुपुत्र कार्तिकेय जी ने जब अपनी अनुपम शक्ति से क्रौंच पर्वत को विदीर्ण किया तो ब्रह्मा जी ने वर मांगने को कहा। कुमार कार्तिकेय ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा ''प्रभो। स्त्रियों के विषय में जो लक्षण ग्रंथ मैंने पहले बनाया था उसे तो मेरे पिता महादवे देवश्े वर ने क्रोध में आकर समदु्र मे फकें दिया। वह मुझे अब विस्मृत भी हो गया ह।ै अतः उसको पुनः सनु ने की मेरी बड़ी इच्छा है। यदि आप मुझ पर पस्रन्न हैं तो कृपा कर पनु : उन्हीं लक्षणों का वर्णन करें। तब कार्तिकेय जी के आग्रह करने पर ब्रह्मा जी ने स्वयं समुद्र द्वारा कहे गये उन स्त्री-पुरुष लक्षणों को पुनः वर्णित किया। उन्होंने उसी शास्त्र के आधार पर स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ उत्तम, मध्यम आरै अधम ये तीन प्रकार के लक्षण बतलाए जिसके अनुसार किसी भी जातक का स्वभाव, व्यवहार तथा भाग्य निर्धारित किया जा सकता है। अतः यह पूर्ण रूपेण प्रामाणिक एवं शास्त्रोक्त भी है, कि हस्तरेखा, अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर गहरा एवं अटूट संबंध है। एक अच्छे ज्योतिषी को चाहिए कि वह अंग लक्षण विद्या एवं ज्योतिष का परस्पर समन्वय स्थापित करते हुए शुभ मुहर्तू में मध्याह्न के पूर्व स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ लक्षणों एवं हस्त रेखाओं का भली प्रकार अध्ययन करने के उपरांत ही सटीक एवं सार्थक फलादेश करें।

धन का साथ जाने हस्तरेखाओं से

जीवन की तीन प्रमुख आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान को प्राप्त करने के लिए पैसों की जरूरत होती है। इसके अलावा आज बदलते परिदृश्य में कर्द और साधन जीवन को सुंदर बनाते हैं। इनकी पूर्ति के लिए भी धन-दौलत की जरूरत पड़ती है। धन दौलत की इस जरूरत को पूरा करने के लिए व्यक्ति दिन रात पसीना बहाता है। व्यक्ति का ऐसा पसीना बहाना यह सिद्ध करता है कि जीवन एक संघर्ष है और जो इस संघर्ष से हटकर है वे नष्ट हो जाते हैं। जीवन के इस शाश्वत सत्य यानि मेहनत को सिद्ध करते हुए व्यक्ति जीवन को सौंदर्य और ऐश्वर्य से भर डालता है। ऐसे मेहनती संसार में एक बात और गौर करने लायक है वह यह कि किसी-किसी व्यक्ति को बहुत ही कम मेहनत करके अथाह धन और संपदा मिल जाती है। वहीं कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो दिन रात मेहनत करके जीवन को साधारण ढंग से ही जी पाते हैं। ऐसी बात पर गहन विश्लेषण करें तो हमें यह पता चलेगा कि मेहनत के साथ मनुष्य का भाग्य भी इस जीवन क्रम में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भाग्य यानि पूर्व का कर्म किसी व्यक्ति को बहुत ही कम उम्र में ही अपार दौलत और संपत्ति तथा यश का स्वामी बना देता है। अब अगर क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर की बात करें तो हमें पता चलेगा कि 34 साल के इस क्रिकेटर ने इतनी कम उम्र में ही अच्छी खासी दौलत और शोहरत अर्जित कर ली है। वहीं कई क्रिकेटर ऐसे हैं जिन्हें 32-33 वर्ष के दौरान महज कुछ लाख रूपए की ही आय हो पाती है। इस उदाहरण से हम समझ जाएंगे कि मनुष्य के अंदर दैवीय शक्ति या भाग्य नाम की चीज विद्यमान होती है जो उसे अन्य लोगों से कहीं अलग चमकीला और गौरवमयी बना देती है। उद्यमी पुरूष के पास लक्ष्मी आ जाती है साथ ही भाग्य के बल पर भी लक्ष्मी का सुनहरा साथ मनुष्य को प्राप्त होता है। भाग्य की बात करें और हाथों की रेखाओं का जिक्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। लेख में ऐसी हाथ की रेखाओं का विवरण है जो आदमी को मिलने वाली लक्ष्मी की जानकारी देती है। हाथों की रेखाओं को जानकर कोई भी व्यक्ति अपने भविष्य में मिलने वाली धन संपन्नता को जान सकता है। किन-किन रेखाओं से लक्ष्मी आपकी जिंदगी भर दोस्त बनी रह सकती है और किन-किन रेखाओं की वजह से ये आपसे रूठ जाती है उसका ही विवरण निम्नानुसार है। Û अंगुलियों के बीच में छिद्र न होना, अंगुलियां लंबी होना, अंगुलियों का पीछे की तरफ जाना, जीवन रेखा और भाग्य रेखा के बीच अंतर हो तो ऐसे लक्षण जातक को बड़ी उम्र में संपत्ति का स्वामी बनाता है। ऐसे जातक का शुरूआती जीवन सामान्य ही रहता है। Û हाथ भारी हो, चैड़ा हो तथा अंगुलियां नरम हांे, भाग्य रेखाएं भी अधिक हांे, शनि ग्रह भी उत्तम हो तो ऐसे जातक एक से अध् िाक व्यवसाय करते हैं तथा बहुत धनवान होते हैं। लक्ष्मी की इन पर अपार कृपा होती है। Û जीवन रेखा घुमावदार या गोल हो, मस्तिष्क रेखा में किसी प्रकार का दोष न हो तथा भाग्य रेखा की एक शाखा जीवन रेखा से निकलती हो तथा अन्य भाग्य रेखा

जीवन रेखा

अक्षया जन्मपत्रियां ब्रह्मणा निर्मिता स्वयम्। ग्रह रेखाप्रदा यास्यां याववज्जीवं व्यवस्थिता।। अर्थात मनुष्य का हाथ ऐसी जन्मपत्री है जो कभी नष्ट नहीं होती। स्वयं ब्रह्मा जी ने इसे बनाया है। नस्ति हस्तात्परं ज्ञानं त्रेलोक्ये सचराचरे। यदब्रह्मा पुस्तकं हस्ते धृत बोधाय जान्मिनाय।। तीनों लोकों में हस्त ज्ञान सबसे बढ़कर है। इसकी रचना स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। वास्तव में यह मनुष्य का मार्गदर्शन करती रहेगी। भारतीय ज्योतिष विज्ञान के अंतर्गत अंग लक्षण विज्ञान का अध्ययन किया जाता है और मनुष्य की शारीरिक संरचना एवं गुण-अवगुण का कथन किया जाता है। सामुद्रिक शास्त्र में भी लक्षण शास्त्र की तरह चलने, उठने-बैठने और अंग पर तिल, मस्सों को देखकर व्यक्ति के विचारों का ज्ञात किया जाता है। मनुष्य के समस्त अंगों की बजाय केवल हाथ से ही गुण, धर्म, स्वभाव और भाग्य को जानने-समझने की तकनीक को अपनाया जा रहा है। इसी तकनीक को हस्तरेखा विज्ञान का नाम दिया। संजीवनी रेखा: जीवन रेखा एक महत्वपूर्ण रेखा है। जीवन रेखा से जीवन प्रवाह देखा जाता है। यह लंबी, तंग व गहरी होनी चाहिए। जीवन रेखा अंगूठे और तर्जनी के बीच से आरंभ होती है और गोलाई लिए हुए शुक्र क्षेत्र को घेरती हुई मणिबंध या उसके समीप तक आती है। इसे गुरुड़ पुराण में कुल रेखा भी कहते हैं। कुल रेखा तु प्रथमा अंगुष्ठादनुवर्तते। भारतीय मत के अनुसार जीवन रेखा को बहुत नामों से जाना जाता है:- 1. पितृ रेखा, 2. गोत्र रेखा, 3. बल रेखा, 4. मूल रेखा, 5. वृक्ष रेखा, 6. धर्म रेखा, 7. धृति रेखा इसी जीवन रेखा को पाश्चात्य मत के अनुसार स्पमि स्पदम अथवा टपजंस स्पदम कहते हैं। प्रत्येक हाथ में इसकी लंबाई कम या ज्यादा हो सकती है। किसी के हाथ में यह रेखा सीधी आगे को बढ़ती है जिससे इसका शुक्र क्षेत्र छोटा हो जाता है। एक अच्छे पामिस्ट को यह सब ध्यान में रखना चाहिए। इसे हमने संजीवनी रेखा का नाम दिया है। प्रकृति ने जिस प्रकार हमारे चेहरे पर नाक, कान के स्थान निर्दिष्ट किए हैं उसी प्रकार हाथ में जीवन रेखा, शीर्ष रेखा तथा अन्य चिन्हों के स्थान भी निर्दिष्ट किए हैं। इसलिए अगर कोई रेखा अपने प्राकृतिक स्थान से हटकर असाधारण स्थिति को ग्रहण कर ले तो असाधारण परिणामों की आशा करना युक्तिसंगत होगा। अगर मनुष्य के स्वाभाविक गुणों में इस प्रकार परिवर्तनों का प्रभाव पड़ सकता है तो उसके स्वास्थ्य पर क्यों नहीं पड़ेगा। हस्त विज्ञान या सामुद्रिक विज्ञान रेखाओं द्वारा रोग और मृत्यु के संबंध में भविष्यवाणी कर सकता है। इस बात को हम सभी स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में कीटाणु स्नायुओं के तालमेल को दूषित करते हैं। उसका प्रभाव स्नायु के माध्यम से हाथ पर पड़ता है। इस रेखा पर जीवन की अवधि, रोग और मृत्यु अंकित होती है और अन्य जिन घटनाओं का पूर्वाभास कराती हैं उनकी पुष्टि जीवन रेखा करती है। संजीवनी रेखा कैसी होनी चाहिए जीवन रेखा लंबी, तंग व गहरी होनी चाहिए, चैड़ी कदापि नहीं होनी चाहिए। यह भी देखा जाता है कि प्रायः कोमल हाथ वाले व्यक्ति रोग आदि से लड़ने की कम क्षमता रखते हैं। थुलथुल हाथ वाले कुछ आरामतलब होते हैं जबकि गठीले हाथ वाले शक्तिशाली होते हैं। संजीवनी रेखा के गुण-दोष जीवन रेखा में कुछ अच्छाई होती है और कहीं खराब होने से उसमें दोष आ जाता है। इसलिए जीवन रेखा के गुण-दोषों का संबंध समझना आवश्यक है। 1. गहरी और अच्छी जीवन रेखा प्राणशक्ति और ताकत को बढ़ाती है। 2. चैड़ी और हल्की जीवन रेखा में उपरोक्त दोनों गुणों का ही अभाव होता है। जीवन रेखा के चैड़ी व हल्की होने पर जातक शारीरिक रूप से इतना शक्तिशाली नहीं होता है कि उसमें उपरोक्त गुण पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हों और जब जीवन प्रवाह दुर्बल होता है तो बौद्धिक विकास भी पूर्ण नहीं हो सकता। 3. बलवान गहरी और स्पष्ट जीवन रेखा अच्छी होती है। इसमें अच्छी प्राणशक्ति व ताकत होती है किंतु ऐसे हाथ में यदि शुक्र पर्वत बहुत उन्नत हो तो जातक अत्यधिक काम वासना में लिप्त रहकर अपना जीवन नष्ट कर देते हैं। बलवान जीवन रेखा से अच्छी पाचन शक्ति भी प्राप्त होती है किंतु अंगुलियों के तीसरे पोर मोटे व लंबे हों तो उसे रक्तचाप की शिकायत रहती है। 4. यदि किसी की हथेली का रंग गुलाबी हो और बृहस्पति की अंगुली का तीसरा पोर मजबूत हो तो वह बहुत ज्यादा खाने-पीने का शौकीन होता है। वह मिर्गी के रोग का शिकार भी हो सकता है। परंतु उसका ऊपरी मंगल क्षेत्र बहुत उन्नत हो तब ऐसा होता है। 5. तंग और पतली जीवन रेखा से भी जीवन प्रवाह शक्ति सामान्य से कम प्रकट होती है। ऐसे व्यक्ति शारीरिक परिश्रम नहीं कर सकते। उनमें धैर्य की कमी होती है। ये जल्दी बीमार हो जाते हैं और सुस्त भी रहते हैं। 6. कभी-कभी जीवन रेखा छोटी-छोटी रेखाओं में बंटी होती है तब भी जीवन प्रवाह की कमी प्रकट होती है। यह जातक में सामान्य दुर्बलता, गिरा हुआ स्वास्थ्य और स्नायविक कमजोरी प्रकट करती है। ऐसी रेखा वाला व्यक्ति उदास होता है। 7. श्रृंखलाकार जीवन रेखा भी दोषपूर्ण मानी जाती है। रेखा में जहां भी श्रृंखला होगी जातक उस समय बीमार होगा। जो व्यक्ति बचपन में ज्यादा बीमार रहता है उसकी जीवन रेखा आरंभ में किसी अन्य रेखा की तरह या श्रृंखलाबद्ध या दोषपूर्ण होती है। यदि जीवन रेखा कुछ दूरी तक ही श्रृंखलाबद्ध है और आगे अच्छी व दोषरहित है तो जातक उसी अवधि तक अस्वस्थ रहता है जहां तक रेखा श्रृंखलाबद्ध है। 8. यदि यह रेखा श्रृंखलाबद्ध ही नहीं अपितु चैड़ी व हल्की भी हो तो और भी खराब होती है क्योंकि ऐसी जगह दो हानिकारक कारण एकत्रित होते हैं। 9. सीढ़ीनुमा रेखा - यह रेखा छोटे-छोटे खंडों के रूप में होती है। जीवन रेखा का आरंभ: जीवन रेखा साधारणतया बृहस्पति पर्वत के नीचे से शुरू होकर शुक्र पर्वत को घेरती हुई मणिबंध या उसके समीप तक जाती है। अगर रेखा बृहस्पति पर्वत से आरंभ हो तो इससे अभिमान व महत्वाकांक्षा प्रकट होती है। जीवन रेखा का संबंध शीर्ष रेखा और हृदय रेखा से यदि जीवन रेखा शीर्ष रेखा से जुड़ी हो तो इसका तात्पर्य यह है कि जातक काफी बुद्धिमान होगा और तर्क व कारण सहित निष्कर्ष निकालता है। लेकिन व्यक्ति को भावुक भी बनाता है। इसमें स्वतंत्र विचार की कमी हो सकती है। जीवन रेखा से वंश वृद्धि: जीवन रेखा को भारतीय मत के अनुसार गोत्र रेखा या कुल रेखा कहते हैं। दोनों का अर्थ है वंश वृद्धि। इसका अर्थ हुआ कि जिसकी जीवन रेखा सुंदर और बलवान होगी तथा जीवन रेखा से घिरा हुआ भाग गुणयुक्त होगा उसी के कुल की वृद्धि होगी। पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि की वृद्धि भी इसी से देखी जाती है। अगर संतान स्वस्थ होती है तो कुल या गोत्र की वृद्धि संभव है। इसलिए भारतीय महर्षियों ने कुल वृद्धि या गोत्र वृद्धि का अर्थ केवल पुत्र तक ही सीमित नहीं रखा है। यदि किसी को निर्बल अवस्था में निर्बल पुत्र हो गया और आगे उसकी वंश वृद्धि नहीं हुई तो गोत्र वृद्धि नहीं मानी जाएगी। पुरुषों तथा स्त्रियों दोनों की संतानोत्पादक शक्ति, शुक्र क्षेत्र तथा जीवन रेखा पर बहुत अधिक मात्रा में अवलंबित है। इसी कारण अंगुष्ठ के नीचे के भाग पर करपृष्ठ की ओर निकली हुई रेखाओं से संतान का विचार किया जाता है। भविष्य पुराण में लिखा है: अंगुष्ठ मूल रेखाः पुत्राः स्युर्दारिकाः सूक्ष्मा। प्रयोग पारिजात में लिखा है- मूलांगुष्ठस्य नृणां स्थूल रेखा भविन्त यावत्यः। तादन्तः पत्राः स्य सूक्ष्माभिः पत्रिकास्ताभि।। अर्थात् अंगूठे के मूल में जो स्थूल रेखाएं हों उन्हें पुत्र रेखा तथा जो सूक्ष्म रेखाएं हों उन्हें कन्या रेखा समझना चाहिए। स्त्रियों के हाथ में भी इन्हीं रेखाओं को संतान रेखा माना जाता है। मोटी रेखाएं हों उतने पुत्र और जितनी कटी हुई रेखाएं हों उतनी कन्या संतानें होंगी। जीवन रेखा या आयु रेखा द्वारा समय का निर्धारण: मनुष्य की आयु प्रमाण सौ वर्ष ही वर्णित किया गया है जो कि ऋषियों द्वारा वेद मंत्रों में किया गया है। किंतु इस वर्तमान युग में मनुष्य की आयु का प्रमाण निर्धारित नहीं हो सकता है क्योंकि हम यही देखते हैं कि बच्चा मां के पेट से लेकर 100 वर्ष की अवस्था तक किसी समय भी मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। इसलिए शत प्रतिशत ठीक बात तो ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं जानता है। फिर भी श्वासों की गिनती के अनुसार सुंदर, साफ और स्पष्ट जीवन रेखा को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति वर्षों की गणना के अनुसार वर्षों की अमुक संख्या तक जीवित रह सकता है। फिर भी जिन मनुष्यों की अवस्था 100 से अधिक होती है उनकी आयु या जीवन रेखा मणिबंध से कलाई तक पहुंच जाती है। फिर छोटी आयु वाले व्यक्ति की जीवन रेखा छोटी और बड़ी आयु की जीवन रेखा बड़ी होती है। आधुनिक और प्राचीन सभी हस्त विशेषज्ञों में अपनी-अपनी गणना के अनुसार इस आयु विभाग गणित में कुछ अंतर तथा मतभेद अवश्य ही रहा है। देखने में अभी तक यही आया है कि यूरोप निवासियों से करीब-करीब सभी ने सप्तवर्षीय नियम को अपना है और भारतीय प्राचीन गं्रथों ने पंचवर्षीय नियम को अपनाकर अपना निर्णय लिया है। रेखाओं के आधार पर घटनाओं का निश्चित समय तय किया जा सकता है। समय निर्धारण मुख्यतः जीवन रेखा के आधार पर किया जाता है। कुछ लोग शनि रेखा का भी प्रयोग करते हैं नीचे कुछ रीतियां इस प्रकार हैं- मनुष्श् को यह मानना होगा कि दुःखमय जीवन से छुटकारा हमें ईश्वर ही दे सकता है उसी पर भरोसा करे। अगर कोई दुःख है तो उसे स्वीकार करके तन-मन अर्पण करके ईश्वर से प्रार्थना करे कि इस कष्ट को भोगने की शक्ति दे। ईश्वर अच्छे सुख के दिन लायेगा विश्वास करे। जो ईश्वर के भक्त हैं वह कहते हैं- 1. भगवान ने जो परिस्थिति दी वह साधन रूप है। विश्वास करके उसे बरतो, फल महान अनूप है। 2. श्विासहीन मनुष्य को सर्वत्र अन्धा कूप है। विश्वास से ही मिलते हरि विश्वास प्रभु का रूप है। अतः मनुष्य को सुख के लिए नित्य प्रयत्न करते रहना चाहिए यही ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान के उद्देश्य हैं।

विवाह रेखा एवं उसके फल

विवाह तय करते समय जन्मपत्री मिलान के अतिरिक्त हस्त रेखाओं का अध्ययन भी सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि जन्मपत्री जन्म समय का ठीक ठीक पता नहीं होने से गलत हो सकती है परंतु हस्त रेखा सही होती है। विवाह रेखा के अलावा भाग्य, आयु, हृदय और मस्तिष्क रेखाओं का गहन अध्ययन आवश्यक है। हस्त रेखा से विवाह का संभावित समय जानने के नियम यहां दिए जा रहे हैं। विवाह रेखा छोठी उंगली और हृदय रेखा के मध्य होती है। छोटी उंगली और हृदय रेखा की दूरी को चार समान भागों में विभक्त करें। यदि हृदय रेखा से प्रथम भाग में विवाह रेखा है तो 18 से 25 वर्ष की आयु में विवाह की संभावना होगी, दूसरे भाग में हो तो 25 से 35 वर्ष तथा तीसरे भाग में हो तो 35 से 50 वर्ष की आयु में विवाह की संभावना होगी। इन चार भागों में भी इसकी दूरी हृदय रेखा से जितनी ज्यादा हो उतनी आयु में विवाह की संभावना होगी यदि विवाह रेखा छोटी उंगली की ओर मुड़ी होगी तो ऐसे जातक का विवाह होना कठिन होता है। यदि उक्त रेखा से एक शाखा छोटी (बुध) उंगली के मूल तक पहुंचे तो ऐसे व्यक्ति का व्यभिचारी होना संभव है। यदि विवाह रेखा हृदय रेखा की ओर झुके तो जीवन साथी के स्वास्थ्य पर विपरीत असर डालेगी तथा यदि हृदय रेखा को स्पर्श करे तो जीवन साथी की उक्त आयु में मृत्यु की संभावना बनती है। विवाह पूर्व उन रेखाओं का अध्ययन आवश्यक है। जिसकी विवाह रेखा हृदय रेखा की ओर थोड़ी सी झुकी हो वह शंकालु होता है। वह हृदय से कपटी और स्वार्थी होता है। विवाह रेखा की जितनी शाखाएं हृदय रेखा को स्पर्श करें उतने ही जीवन साथी की मृत्यु की सूचक है और हृदय रेखा की ओर झुक कर हृदय रेखा को स्पर्श नहीं भी करें तो ऐसे में भी कुछ समय पश्चात जीवन साथी की मृत्यु होने की संभावना बनती है। यदि विवाह रेखा के प्रारंभ में यव चिह्न हो तो पति-पत्नी का वियोग होता है यह यव या द्वीप चिह्न विवाह रेखा पर जिस आयु में हो उस आयु में उनका वियोग होगा जैसे यदि विवाह रेखा के अंत में यह चिह्न हो तो वृद्धावस्था में वियोग या लड़ाई-झगड़ा होता है। यदि विवाह रेखा द्वीपयुक्त हृदय रेखा की ओर झुके तो ऐसा जातक जन¬नंेद्रीय संबंधी रोग का शिकार होता है। विवाह रेखा टूटी हो तो जिस आयु में टूटी हो उस आयु में जीवनसाथी की मृत्यु की संभावना बनती है। विवाह रेखा पर नक्षत्र चिह्न पुरुष के हाथ में जीवन संगिनी की प्रसव के समय मृत्यु का संदेश देता है और यदि नक्षत्र चिह्न की यही स्थिति स्त्री के हाथ में हो तो पति की मृत्यु का सूचक है। यह वैधव्य योग कहलाता है। इस योग में यह याद रहे कि यदि नक्षत्र युक्त विवाह रेखा छोटी उंगली और अनामिका (सूर्य उंगली) के बीच से हृदय रेखा की ओर जाए तो मृत्यु योग टल जाता है परंतु उक्त आयु में मानसिक संताप बहुत होता है। ऐसी रेखा पराक्रम और यश व मान की भी सूचक है। स्पष्ट विवाह रेखा सूर्य रेखा को स्पर्श करे तो शुभ फलदायी होती है। विवाह पश्चात धन व मान-सम्मान मिलता है। लड़की के हाथ में ऐसी रेखा अच्छा और भाग्यवान जीवन साथी दिलाती है। लड़के के हाथ में ऐसी रेखा अच्छी पत्नी दिलाती है, वह गुणवान और धनवान होती है। विवाह रेखा से छोटी-छोटी रेखाएं नीचे की ओर जाती हों तो ऐसे व्यक्ति के जीवन साथी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। ये रेखाएं बारीक हों तो व्यक्ति किसी के प्रेम जाल में फंसता है।

हस्तरेखा द्वारा जाने विदेश यात्रा विचार

हाथ में चंद्र पर्वत मनोभावों का सूचक क्षेत्र होता है और चंद्र पर्वत से ही निकलने वाली तमाम आड़ी, तिरछी और खड़ी रेखाएं ‘यात्रा रेखाएं’ कहलाती हंै। यही वे रेखाएं होती हैं जिनके माध्यम से जातक के जीवन में होने वाली संभावित ‘विदेश यात्रा’ का आकलन किया जाता है। - चंद्र पर्वत से निकलने वाली यात्रा रेखाओं की स्थिति के आधार पर ही गंतव्य स्थान की दूरी का अनुमान लगाया जाता है। अर्थात रेखा यदि लंबाई में अधिक है तो लंबी दूरी की यात्राएं होंगी और रेखा यदि छोटी हों तो पर्याप्त दूरी अथवा समीपस्थ स्थान की यात्रा संभावित होती है। - जीवन रेखा अथवा आयु रेखा से निकलती हुई अथवा मणिबंध से ऊपर उठकर चंद्र पर्वत तक पहुंचने वाली रेखाएं भी यात्रा रेखाएं कहलाती हंै। - अंगुष्ठ के मूल से निकलकर जीवन रेखा की ओर जाने वाली अथवा जीवन रेखा में समाहित हो जाने वाली रेखाएं ‘विदेश यात्रा’ की रेखाएं होती हैं। - हथेली में अंगूठे के मूल क्षेत्र, यानि शुक्र पर्वत पर स्थित छोटी, बड़ी तथा स्पष्ट दिखती हुई निर्दोष खड़ी रेखाएं ‘विदेश यात्रा रेखाएं’ ही मानी जाती हैं। चंद्र पर्वत से निकलने वाली यात्रा रेखाओं के साथ-साथ ही शुक्र पर्वत पर स्थित इन रेखाओं के सम्मिलित अध्ययन से ही ‘विदेश यात्रा’ का सटीक अनुमान लगाया जा सकता है। - कनिष्ठिका (सबसे छोटी) उंगली के मूल क्षेत्र से उत्पन्न होकर जीवन रेखा तक पहुंचने वाली प्रभाव रेखाएं भी जातक के जीवन में यथोचित समय आने पर विदेश जाने का अवसर प्रदान करती हैं। - चंद्र क्षेत्र अथवा चंद्र पर्वत से निकलकर कोई निर्दोष तथा स्पष्ट रेखा यदि बुध क्षेत्र अथवा पर्वत की ओर पहुंचती हो तो जातक निश्चयपूर्वक अपने जीवन काल में विदेश यात्रा अथवा यात्राएं करता है। - यदि शुक्र पर्वत के मूल में कोई रेखा जीवन रेखा की ओर से आकर मिलती हो और दूसरी शाखा रेखा चंद्र पर्वत की ओर जाती हो तो जातक अनेक वर्षों तक दूरस्थ देशों (विदेश) में प्रवासी जीवन व्यतीत करता है। - यदि चंद्र पर्वत से ऊपर उठकर कोई रेखा सूर्य पर्वत तक पहुंच जाए तो जातक को विदेश यात्रा के दौरान धन संपत्ति और मान-सम्मान की प्राप्ति भी होती है। - चंद्र पर्वत से निकलकर जब कोई रेखा भाग्य रेखा को काटती हुई जीवन रेखा में जाकर मिल जाए तो वह व्यक्ति को दुनिया भर के देशों की यात्रा करवाता है। - यदि आयु रेखा (जीवन रेखा) स्वतः ही घूम कर चंद्र पर्वत पर पहुंच जाए तो वह जातक अनेकानेक दूरस्थ देशों की यात्राएं करता है और उसकी मृत्यु भी जन्मस्थान से कहीं बहुत दूर किसी अन्य देश में ही होती है। - मणिबंध से निकलकर कोई रेखा यदि मंगल पर्वत की ओर जाती हो तो वह व्यक्ति जीवन में समुद्री विदेश यात्राएं करता है। - प्रथम मणिबंध से ऊपर उठकर चंद्र पर्वत पर पहुंचने वाली रेखाएं सर्वाधिक शुभ मानी जाती हैं। परिणामतः यात्रा सफल और लाभदायक होती है। - यदि चंद्र पर्वत से उठने वाली आड़ी (लेटी हुई) रेखाएं चंद्र पर्वत को ही पार करती हुई भाग्य रेखा में मिल जाए तो दूरस्थ देशों की महत्वपूर्ण व फलदायी यात्राएं होती हैं। - यदि किसी जातक के दाहिने हाथ में तो विदेश यात्रा रेखाएं हों और बायें हाथ में रेखाएं न हों अथवा रेखा के प्रारंभ में कोई क्राॅस या द्वीप हो तो विदेश यात्रा में कोई न कोई बाधा उत्पन्न हो जायेगी अथवा जातक स्वयं ही उत्साहहीन होकर विदेश यात्रा को रद्द कर देगा। - यदि यात्रा रेखाएं टूटी-फूटी अथवा अस्पष्ट हो तो यात्रा का सिर्फ योग ही घटित होकर रह जाता है। प्रत्यक्ष में कोई यात्रा नहीं होगी। - यात्रा रेखा पर यदि कोई क्राॅस हो तो यात्रा के दौरान एक्सीडेंट अथवा अन्य किसी दुखद घटना के होने की पूर्ण आशंका रहती है। - यदि चंद्र पर्वत से निकलकर कोई रेखा बुध क्षेत्र तक अथवा बुध पर्वत पर पहुंचती हो तो जातक को यात्रा के दौरान आकस्मिक धन की प्राप्ति होती है। - यदि चंद्र पर्वत से यात्रा रेखा हथेली के मध्य में से ही अथवा मुड़कर वापस चंद्र पर्वत पर आये तो जातक को विदेश में व्यापार अथवा नौकरी की खातिर कई वर्ष व्यतीत करने के बाद मजबूरन स्वदेश वापस लौटना ही पड़ता है। - यदि यात्रा रेखा चंद्र क्षेत्र से निकलकर तथा पूरी हथेली को पार करते हुए गुरु पर्वत तक पहुंचती हो तो जातक को दूरस्थ स्थान अथवा विदेश की अत्यधिक लंबी यात्राएं करनी पड़ती है। - यदि किसी स्त्री या पुरुष जातक की हथेली में चंद्र पर्वत से यात्रा रेखा निकलकर स्पष्ट रूप से हृदय रेखा में जाकर मिल जाए तो उस जातक को यात्रा के दौरान ही प्रेम संबंध अथवा प्रेम विवाह होने की पूर्ण संभावना होती है। - यात्रा रेखा पर यदि कोई क्राॅस हो तथा उसके समीप चतुष्कोण भी हो तो अक्सर यात्रा का तयशुदा कार्यक्रम अकस्मात् स्थगित करना पड़ता है। - चंद्र पर्वत से निकलकर कोई यात्रा रेखा मस्तिष्क रेखा से मिल जाती हो तो जातक को यात्रा में कोई व्यावसायिक समझौता अथवा बौद्धिक कार्यों का अनुबंध करना पड़ता है। - यदि हथेली में चंद्र और शुक्र पर्वत उन्न्त हो तथा जीवन रेखा पूरे शुक्र क्षेत्र को घेरती हुई शुक्र पर्वत के मूल तक जाती हो तथा चंद्र पर्वत पर स्पष्ट यात्रा रेखा हो तो जातक को अपने जीवनकाल में देश-विदेश की अनेकानेक यात्राएं करनी पड़ती हैं। - चंद्र पर्वत से कोई स्पष्ट रेखा निकलकर जीवन रेखा को मध्य में से काटती हुई उसके समानांतर मंगल क्षेत्र पर पहुंचती हो तो लंबी यात्राओं के अवसर मिलते हैं। ऐसा जातक विदेश में कई वर्षों तक रहता है। - यदि किसी जातक की हथेली में जीवन रेखा से कोई निर्दोष प्रभाव रेखा निकलकर नीचे मणिबंध क्षेत्र से मिलती हो तथा त्रिभुज बनाती हो और भाग्य रेखा से भी कोई स्पष्ट शाखा रेखा नीचे जाकर इस प्रभाव रेखा के साथ त्रिभुज का निर्माण करती हो तो ऐसा जातक सदैव यात्रा करने का इच्छुक रहता है तथा व्यापारिक कार्यों से वह देश-विदेश की अनेक लाभकारी यात्राएं भी करता है। - यदि किसी की हथेली में चंद्र पर्वत से कोई निर्दोष रेखा निकलकर जीवन रेखा तक आती हो और वहां से भाग्य रेखा निकलकर शनि पर्वत तक पहुंचती हो तो वह जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश यात्रा करता है।

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Saturday 19 March 2016

आपके हाथों में निवास स्थान

आपके हाथों में निवास स्थान अंगूठा छोटा और कम खुलने वाला हो, अंगुलियां टेढ़ी-मेढ़ी हों तो ऐसे व्यक्ति का निवास स्थान गंदी जगह पर होता है। जीवन रखाो और मस्तिष्क रखाो दानोें ही दोषपूर्ण हों अंगुलियां माटेी हों और अंगूठा कम खुलता हो तो इनके घर के पास गंदगी होती है और पड़ोसी भी अच्छे नहीं होते है। हाथ पतला, काला, कठोर, उबड़-खाबड़ हो, अगूंठा छाटो आरै अंगुलियां मोटी हों तो ऐसे व्यक्तियों का निवास स्थान गंदी जगह पर होता है, रहने की जगह तंग-गली में होती है और पड़ौसी अच्छे नहीं होते। जीवन रखाो और मस्तिष्क रखाो दानोें ही मोटी हों तो निवास स्थान के पास जानवरों के बाड़े के कारण गंदगी हातेी है। यदि जीवन रेखा गोलाकार हो और उसमें त्रिभुज भी हो तथा मस्तिष्क रेखा शाखान्वित हो, हाथ कोमल हो तो मकान सुंदर व बड़े आकार का होता है। यदि साधारण मस्तिष्क रेखा मंगल या चंद्रमा पर जाती हो तो ये पैतृक घर में ही निवास करते हैं। यदि मस्तिष्क रेखा शाखान्वित हो तो पहले पैतृक घर में, फिर दूसरे घर में निवास करते हैं। मस्तिष्क रेखा दोनों हाथों में द्विशाखाकार हो तो मकान या संपत्ति की संखया अधिक होती है। यदि मस्तिष्क रेखा अंत में द्विशाखाकार हो, सूर्य और बृहस्पति की अंगुलियां तिरछी हों तो मकान का दरवाजा आबादी की ओर होता है। यदि मस्तिष्क रखाो अतं में द्विशाखाकार हो और शनि की अंगुली लंबी हो तो मकान का दरवाजा कम आबादी की ओर होता है। हाथ कठोर और निम्न स्तर का हो, अंगूठा कम खुलता हो तथा मस्तिष्क रखाो दोषपूर्ण हो तो निवास स्थान छाटो तथा गंदी जगह पर होता है। मस्तिष्क रेखा या उसकी शाखा चंद्रमा पर जाती हो तो मकान किसी जलाशय (कुआं, बावडी, तालाब या नहर) के पास होता है। जीवन रेखा में त्रिकोण हो और एक से अधिक भाग्य रेखाएं हों तो ऐसे व्यक्ति खुले-स्थान में मकान, बंगला, फ्लैट आदि बनाते हैं। एक से अधिक भाग्य रेखाएं हों, जीवन रेखा में त्रिकोण हो तथा शनि की अंगुली लंबी हो तो ऐसे व्यक्तियों के मकान में पार्क या बगीचा होता है। एक से अधिक भाग्य रखाोएं हो जीवन रेखा में त्रिकोण हो तथा मुखय भाग्य रेखा चंद्रमा के पर्वत से निकली हो तो मकान या बंगले में कोई जलाशय (स्वीमिगं पलू ) या नहाने का हौज हातो है। जिस आयु में भाग्य रेखा मस्तिष्क रेखा के किसी त्रिकोण से निकलती हो, उसी आयु में मकान या संपत्ति बनाते हैं या पुरानी संपत्ति में फेरबदल या विस्तार करते हैं। मोटी भाग्य रेखा वालों का मकान किसी पेड़ के नीचे या बड़े मकान की छाया में अथवा गली में होता है। जीवन रेखा और मस्तिष्क रेखा का जोड़ लंबा, जीवन रेखा टूटी हुई और मस्तिष्क रेखा दोषपूर्ण हो तो निवास स्थान के पास वातावरण गंदा होता है। यदि मस्तिष्क रेखा या उसकी शाखा चंद्रमा पर जाती हो, भाग्य रेखा भी चंद्रमा से निकलती हों तो निवास स्थान समुद्र या झील या नदी के किनारे हातो है। अंगुलियां छाटेी और पतली हां,े जीवन रेखा गोलाकार हो, मस्तिष्क रेखा अच्छी हो तो ऐसे व्यक्ति मकान बना लेते हैं। जीवन रखे ाा जिस आयु तक दाषेपूर्ण रहती है उस आयु तक व्यक्ति को रहने के मकान की कमी खटकती है। जीवन रेखा गोलाकार हो और मस्तिष्क रखाो शाखान्वित हो तो मकान स्वतंत्र खुली जगह में सुंदर और सुविधाओं से युक्त होता है।

स्वभाव का दर्पण : हथेली

वैज्ञानिक अध्ययन से यह पता चलता है कि मस्तिष्क की मूल शिराओं का हाथ के अंगूठे से सीधा संबंध है। स्पष्टतः अंगुष्ठ बुद्धि की पृष्ठ भूमि और प्रकृति को दर्शाने वाला सबसे महत्वपूर्ण अंग है। बाएं हाथ के अंगूठे से विरासत में मिली मानसिक वृति का आकलन किया जाता है और दायें हाथ के अंगूठे से स्वअर्जित बुद्धि-चातुर्य और निर्णय क्षमता का अंदाजा लगाना संभव है। अंगूठे और हथेली का मिश्रित फल व्यक्ति को अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल पाने में सक्षम है। व्यक्ति के स्वभाव और बुद्धि की तीक्ष्णता को अंगुष्ठ के बाद अंगुलियों की बनावट और मस्तिष्क रेखा सबसे अधिक प्रभावित करती है। अमेरिकी विद्वान विलियम जार्ज वैन्हम के अनुसार व्यक्ति के हाव-भाव और पहनावे से उसके स्वभाव के बारे में आसानी से बताया जा सकता है। अतीव बुद्धि संपन्न लोगों का अंगुष्ठ पतला और पर्याप्त लंबा होता है। यह पहली अंगुली (तर्जनी) से बहुत पृथक भी स्थित होता है। यह व्यक्ति के लचीले स्वभाव को व्यक्त करता है। इस प्रकार के लोग किसी भी माहौल में स्वयं को ढाल सकने में कामयाब हो सकते हैं। ये काफी सहनशील भी देखे जाते हैं। इन्हें न तो सफलता का ही नशा चढ़ता है और न ही विफलता की परिस्थितियों से ही विचलित होते हैं। इनकी सबसे अच्छी विशेषता या गुण इनका लक्ष्य के प्रति निरंतरता है। लेकिन यदि अंगुष्ठ का नख पर्व (नाखून वाला भाग) यदि बहुत अधिक पतला है तो व्यक्ति अंततः दिवालिया हो जाता है और यदि यह पर्व बहुत मोटा गद्दानुमा है तो ऐसा व्यक्ति दूसरों के अधीन रह कर कार्य करता है। यदि नख पर्व गोल हो और अंगुलियां छोटी और हथेली में शनि और मंगल का प्रभाव हो तो जातक स्वभाव से अपराधी हो सकता है। अंगुलियां कुल हथेली के चार में से तीन भाग के समक्ष होनी चाहिए। इससे कम होने से जातक कुएं का मेढक होता है। उसके विचारों में संकीर्णता और स्वभाव में अति तक की मितव्ययता होती है। सीमित बुद्धि संपन्न ये जातक भारी और स्थूल कार्यों को ही कर पाते हैं। बौद्धिक कार्य इनके लिए दूर की कौड़ी होती है। अक्सर इनको स्वार्थी भी देखा गया है। इस प्रकार की अंगुलियां यदि विरल भी हो तो आयु का नाश करती हैं। अंगुलियां के अग्र भाग नुकीले रहने से काल्पनिक पुलाव पकाने की आदत होती है। जिससे व्यक्ति जीवन की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए एक असफल जीवन जीता है। अंगुलियां लंबी होने से जातक बौद्धिक और सूक्ष्मतम कार्य बड़ी सुगमता से पूर्ण कर लेता है और स्थूल कार्य भी इसकी पहुंच से बाहर नहीं होते हैं। बहुत बार इस प्रकार के जातक नेतृत्व करते देखे जाते हैं। इस प्रकार की अंगुलियों के साथ हाथ यदि बड़ा और चमसाकार हो तो जातक अपनी क्षमता का लोहा समाज को मनवा लेता है। लंबी अंगुलियों के साथ यदि हथेली में शुक्र मुद्रिका भी हो तो जातक सर्वगुण संपन्न होते हुए भी भावुकतावश प्रगति के मार्ग में पिछड़ जाता है। शनि मुद्रिका होने से दुर्भाग्य साथ नहीं छोड़ता है। इस प्रकार के जातक अपनी योग्यता और क्षमता का पूर्ण दोहन नहीं कर पाते हैं। जिसके कारण इनको जीवन में सीमित उपलब्धियों से ही संतोष करना होता है। चंद्रमा का बहुत प्रभाव होने से जातक पर यथार्तता की अपेक्षा कल्पना हावि रहती है। अंगुलियों के नाखून जब त्वचा में अंदर तक धंसे हों, साथ ही ये आकार में सामान्य से छोटे हों तो जातक बुद्धि कमजोर होती है। इसकी मनोवृत्ति सीमित और आचरण बचकाना होता है। ये जातक आजीविका हेतु इस प्रकार के कार्य करते पाए जाते हैं, जिनमें बौद्धिक / शारीरिक मेहनत न के बराबर होते होती है। कनिष्ठा सामान्य से अधिक छोटी हो तो जातक मूर्ख होता है। कनिष्ठा के टेढी रहने से जातक अविश्वसनीय होता है। टेढ़ी कनिष्ठा को कुछ विद्वान चोरी करने की वृत्ति से भी जोड़ते हैं। लेकिन इसे तभी प्रभावी मानना चाहिए जब हथेली में मंगल विपरीत हो, क्योंकि ग्रहों में मंगल चोर है। अंगुलियों का बैंक बैलेंस से सीधा संबंध है। केवल अंगुलियों का निरक्षण कर लेने भर से ही इस तथ्य का अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यक्ति में धन संग्रह की प्रवृत्ति कहां तक है। तर्जनी (पहली अंगुली) और मध्यमा (बीच की अंगुली) यदि बिरल (मध्य में छिद्र) हों तो निश्चित रूप से जीवन के मध्य काल के बाद ही धन का संग्रह हो पाता है। यदि कनिष्ठा विरल हो तो वृद्धावस्था अर्थाभाव में व्यतीत होती है। यदि अंगुलियों के मूल पर्व गद्देदार और स्थूल हों तो जीवन में विलास का आधिक्य रहता है। सभी अंगुलियों के विरल होने से जीवन पर्यन्त धन की कमी रहती है। सीधी, चिकनी और गोल अंगुलियां धन को बढ़ा देती है। सूखी अंगुलियां धन का नाश करती हैं। वे अंगुलियां जिनके जोड़ों की गांठें बहुत उभरी हुई हों, संवेदनशील और कंजूस प्रवृत्ति दर्शाती हैं। लेकिन ऐसी उंगलियों वाले जातक कड़ी मेहनत कर सकते हैं। यही इनकी सफलता का रहस्य होता है। अंगूठे और अंगुलियों के आकार-प्रकार के अलावा हाथ की बनावट से हमें काफी कुछ जानकारी प्राप्त होती है। समचौरस हथेली के स्वामी व्यवहारिक होते हैं। लेकिन ऐसे लोग स्वार्थी भी होंगे। साथ ही समय आने पर किसी को धोखा भी दे सकते हैं। इसके विपरीत लंबवत हथेली के स्वामी भावुक और कल्पनालोक में विचरण करने वाले लोग होंगे। आमतौर पर ये जीवन में स्वतंत्र रूप से सफल नहीं रहते हैं। तथापि ये नौकरी में ज्यादा सफल रहते हैं। ऐसे लोग यदि स्वयं का व्यवसाय स्थापित करें तो प्रायः लंबा नुकसान उठाते हैं। अतः ऐसे लोगों को हमेशा नौकरी को तरजीह देनी चाहिए। हथेली का पृष्ठभाग समतल या कुछ उभार लेते हुए होना चाहिए। ऐसी हथेली का जातक व्यवहारिक होता है। यदि हथेली का करपृष्ठ बहुत अधिक उभार लिए हुए हो तो प्रायः व्यक्ति कर्कश स्वभाव और झगड़ालू होता है। हथेली में जब गहरा गढ़ा हो तो प्रायः जातक अपनी बात पर कायम नहीं रह पाता है। ऐसे लोग जीवन मे अत्यंत संघर्ष के उपरांत ही कुछ हासिल कर पाते हैं। हथेली का पृष्ठ भाग और कलाई हमेशा समतल होनी चाहिए। यदि दोनों में ज्यादा अंतर है तो यह जातक को समाज में स्थापित होने से रोकती है। ऐसे लोग अपने परिजनों से विरोध करते हैं। समाज में इनकी प्रतिष्ठा कम होती है। जिन हाथों में शनि-मंगल का प्रभाव हो वे लोग कानूनी समस्याओं का सामना करते हैं। कुछ मामलों में ऐसे लोग अपराधी भी हो सकते हैं। हथेली में राहु का प्रभाव होने पर जातक बुरी आदतों का शिकार होता है। वह धर्मभ्रष्ट भी हो सकता है। मदिरापान कर सकता है या अभक्षण का भी भक्षण कर सकता है।