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Saturday 30 May 2015

जानिये आज का पंचांग 30/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

Pt.P.S Tripathi
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जीवन में आकस्मिक हानि से बचाव हेतु पितृतर्पण -


जीवन में आकस्मिक हानि से बचाव हेतु पितृतर्पण -
व्यक्ति के जीवन में कई बार आकस्मिक हानि प्राप्त हेाती है साथ ही कई बार योग्यता तथा सामथ्र्य होने के बावजूद जीवन में वह सफलता प्राप्त नहीं होती, जिसकी योग्यता होती है। इस प्रकार का कारण ज्योतिषषास्त्र द्वारा किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, अष्टम, नवम भाव में से किसी भाव में राहु के होने पर जातक के जीवन में आकस्मिक हानि का योग बनता है। अगर राहु के साथ सूर्य, शनि के होने पर यह प्रभाव जातक के स्वयं के जीवन के अलावा यह दुष्प्रभाव उसके परिवार पर भी दिखाई देता है। अगर प्रथम भाव में राहु के साथ सूर्य या शनि की युति बने तो व्यक्ति अषांत, गुप्त चिंता, स्वास्थ्य एवं पारिवारिक परेषानियों के कारण चिंतित रहता है। दूसरे भाव में इस प्रकार की स्थिति निर्मित होेने पर परिवार में वैमनस्य एवं आर्थिक उलझनें बनने का कोई ना कोई कारण बनता रहता है। तीसरे स्थान पर होने पर व्यक्ति हीन मनोबल का होने के कारण असफलता प्राप्त करता है। चतुर्थ स्थान में होने पर घरेलू सुख, मकान, वाहन तथा माता से संबंधित कष्ट पाता है। पंचम स्थान में होने पर उच्च षिक्षा में कमी तथा बाधा दिखाई देती है तथा संतान से संबंधित बाधा तथा दुख का कारण बनता है। अष्टम में होने पर आकस्मिक हानि, विवाद तथा न्यायालयीन विवाद, उन्नति तथा धनलाभ में बाधा देता है। बार-बार कार्य में बाधा आना या नौकरी छूटना, सामाजिक अपयष अष्टम राहु के कारण दिखाई देता है। नवम स्थान में होने पर भाग्योन्नति तथा हर प्रकार के सुखों में कमी का कारण बनता है। सामान्यतः चंद्रमा के साथ राहु का दोष होने पर माता, बहन या पत्नी से संबंधित पक्ष में कष्ट दिखाई देता है वहीं शनि के साथ राहु दोष होेने पर पारिवारिक विषेषकर पैतृक दोष का कारण बनता है। सूर्य के आक्रांत होेने पर आत्मा प्रभावित हेाता है, जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा सोच दूषित होती है। बुध के साथ राहु होने पर जडत्व दोष बनता है, जिसमें विकास तथा बुद्धि प्रभावित होती है। मंगल के साथ होने पर संतान से संबंधित पक्ष से कष्ट तथा गुरू के साथ होने पर षिक्षा तथा सामाजिक प्रतिष्ठा संबंधित परेषानी दिखाई देती है। शुक्र के आक्रांत होेने पर सुख प्राप्ति के रास्ते में बाधा आती है। इस प्रकार के दोष जातक की कुंडली में बनने पर जातक के जीवन में स्वास्थ्य की हानि, सुख में कमी,आर्थिक संकट, आय में बाधा, संतान से कष्ट अथवा वंषवृद्धि में बाधा, विवाह में विलंब तथा वैवाहिक जीवन में परेषानी, गुप्तरोग, उन्नति में कमी तथा अनावष्यक तनाव दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार का दोष दिखाई दे तो अपनी कुंडली की विवेचना कराकर उसे पितृतर्पण, देवतर्पण, दानादि कर्म करना चाहिए। इस प्रकार के कार्य हेतु हिंदु धर्म में पितृपक्ष का विधान किया गया है, जिसमें तर्पण, दान एवं भोज द्वारा ग्रहदोषों के कष्ट से बचा जा सकता है।
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श्रावण मास में मंगलवार व्रत


श्रावण मास में मंगलवार के व्रत का विषेष महत्व है। मंगलवार को मंगलागौरी व्रत करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं। जिस जातक के विवाह में बाधा हो, विषेषकर कन्या के विवाह में बाधाक को दूर करने के लिए इस व्रत को किये जाने का विधान शास्त्रों में है। प्रातःकाल उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर इच्छुक वर की प्राप्ति तथा सौभाग्य कामना हेतु मंगलागौरी के व्रत का संकल्प लिया जाता है। इसके उपरंात माॅ मंगलागौरी का चित्र या प्रतिमा एक चैकी में लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित करें। चित्र के सामने आटे से बना एक धी का दीपक बनाकर सोलह बतियों का दीपक जलायें। इसके उपरंात कुंकमरागुरूलिप्तांगा सर्वाभरणभूषिताम् नीलकण्ठप्रियां गौरीं वंदेहं मंगलाहयाम् का उच्चारण कर षोडषोपचार से पूजन करें। पूजन के बाद माता को सोलह माला, लड्डू, फल, पान, इलायची, लौंग, सुपारी, सुहाग की सामग्री व मिष्ठान चढ़ायें। कथा सुनने के बाद सभी सामग्री का दान ब्राम्हण को करें। श्रावण मास की समाप्ति के बाद माता का चित्र जल में प्रवाहित करें। ऐसा करने से मनचाहा वर तथा कुल प्राप्त होता है साथ ही वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
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हिन्दू धर्म में माघ पूर्णिमा का महत्व

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जानिए की क्या हैं माघ पूर्णिमा और माघ पूर्णिमा का महत्व..???
हिन्दू धर्म में धार्मिक दृष्टि से माघ मास को विशेष स्थान प्राप्त है। भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास और दसवां सौरमास माघ कहलाता है।मघा नक्षत्र से युक्त होने के कारण इस महीने का नाम का माघ नाम पडा। ऐसी मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने वाले पापमुक्त होकर स्वर्ग लोक जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि माघी पूर्णिमा पर स्वंय भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करतें है अत: इस पावन समय गंगाजल का स्पर्शमात्र भी स्वर्ग की प्राप्ति देता है | इसके सन्दर्भ में यह भी कहा जाता है कि इस तिथि में भगवान नारायण क्षीर सागर में विराजते हैं तथा गंगा जी क्षीर सागर का ही रूप है|
प्रयाग में प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। हजारों भक्त गंगा-यमुना के संगम स्थल पर माघ मास में पूरे तीस दिनों तक (पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक) कल्पवास करते है। ऐसी मान्यता है कि इस मास में जरूरतमंदों को सर्दी से बचने योग्य वस्तुओं, जैसे- ऊनी वस्त्र, कंबल और आग तापने के लिए लकडी आदि का दान करने से अनंत पुण्य फल की प्राप्ति होती है।इस मास की प्रत्येक तिथि पवित्र है..
इस वर्ष 03 फरवरी 2015 को मंगलवार के दिन माघ पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाएगा. यह उत्तर भारत में माघ महीने के समापन का प्रतीक हैं. ऐसी मान्यता है कि माघ पूर्णिमा के पावन अवसर पर महाकुंभ में स्नान करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।इस दिन चन्द्रमा भी अपनी सोलह कलाओं से शोभायमान होते हैं। इस दिन पूर्ण चन्द्रमा अमृत वर्षा करते हैं जिनके अंश वृक्षों, नदियों, जलाशयों और वनस्पतियों पर पड़ते हैं। अत: इनमें आरोग्यदायक गुण उत्पन्न होते हैं। धार्मिक मान्यता है कि माघ पूर्णिमा में स्नान-दान करने से सूर्य और चन्द्रमा युक्त दोषों से मुक्ति मिलती है। मकर राशि में सूर्य का प्रवेश और कर्क राशि में चंद्रमा का प्रवेश होने से माघी पूर्णिमा को पुण्य योग बनता है तथा सभी तीर्थों के राजा (देवता) पूरे माह प्रयाग तथा अन्य तीर्थों में विद्यमान रहने से अंतिम दिन को जप-तप व संयम द्वारा सात्विकता को प्राप्त किया जा सकता है। संगम में माघ पूर्णिमा का स्नान एक प्रमुख स्नान है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज रहता है जो पाप का शमन करता है।
निर्णय सिंधु में कहा गया है कि माघ मास के दौरान मनुष्य को कम से कम एक बार पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए। भले पूरे माह स्नान के योग न बन सकें लेकिन माघ पूर्णिमा के स्नान से स्वर्गलोक का उत्तराधिकारी बना जा सकता है। इस बात का उदाहरण इस श्लोक से मिलता है-----
॥ मासपर्यन्त स्नानासम्भवे तु त्रयहमेकाहं वा स्नायात्‌ ॥ -
अर्थात् जो लोग लंबे समय तक स्वर्गलोक का आनंद लेना चाहते हैं, उन्हें माघ मास में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर अवश्य तीर्थ स्नान करना चाहिए।
हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार महाकुंभ में माघ पूर्णिमा का स्नान इसलिए भी अति महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इस तिथि पर चंद्रमा अपने पूर्ण यौवन पर होता है। साधु-संतों का कहना है कि पूर्णिमा पर चंद्रमा की किरणें पूरी लौकिकता के साथ पृथ्वी पर पड़ती हैं। स्नान के बाद मानव शरीर पर उन किरणों के पड़ने से शांति की अनुभूति होती है और इसीलिए पूर्णिमा का स्नान महत्वपूर्ण है।माघ स्नान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। माघ में ठंड खत्म होने की ओर रहती है तथा इसके साथ ही स्‍प्रिंग की शुरुआत होती है। ऋतु के बदलाव का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर नहीं पड़े इसलिए प्रतिदिन सुबह स्नान करने से शरीर को मजबूती मिलती है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख है कि माघी पूर्णिमा पर भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करते हैं अत: इस पावन समय गंगाजल का स्पर्शमात्र भी स्वर्ग की प्राप्ति देता है। इसी प्रकार पुराणों में मान्यता है कि भगवान विष्णु व्रत, उपवास, दान से भी उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना अधिक प्रसन्न माघ स्नान करने से होते हैं.महाभारत में एक जगह इस बात का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इन दिनों में अनेक तीर्थों का समागम होता है। वहीं पद्मपुराण में कहा गया है कि अन्य मास में जप, तप और दान से भगवान विष्णु उतने प्रसन्न नहीं होते जितने कि वे माघ मास में स्नान करने से होते हैं। यही वजह है कि प्राचीन ग्रंथों में नारायण को पाने का आसान रास्ता माघ पूर्णिमा के पुण्य स्नान को बताया गया है।भृगु ऋषि के सुझाव पर व्याघ्रमुख वाले विद्याधर और गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त इन्द्र भी माघ स्नान के सत्व द्वारा ही श्राप से मुक्त हुए थे। पद्म पुराण के अनुसार माघ-स्नान से मनुष्य के शरीर में स्थित उपाताप जलकर भस्म हो जाते हैं।
इस दिन किए गए यज्ञ, तप तथा दान का विशेष महत्व होता है. भगवान विष्णु की पूजा कि जाती है, भोजन, वस्त्र, गुड, कपास, घी, लड्डु, फल, अन्न आदि का दान करना पुण्यदायक माना जाता है. माघ पूर्णिमा में प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व किसी पवित्र नदी या घर पर ही स्नान करके भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिए. माघ मास में काले तिलों से हवन और पितरों का तर्पण करना चाहिए तिल के दान का इस माह में विशेष महत्त्व माना गया है.
मत्स्य पुराण के अनुसार-
पुराणं ब्रह्म वैवर्तं यो दद्यान्माघर्मासि च,
पौर्णमास्यां शुभदिने ब्रह्मलोके महीयते।
मत्स्य पुराण का कथन है कि माघ मास की पूर्णिमा में जो व्यक्ति ब्राह्मण को दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।यह त्यौहार बहुत हीं पवित्र त्यौहार माना जाता हैं.इस दिन किए गए यज्ञ, तप तथा दान का विशेष महत्व होता है. स्नान आदि से निवृत होकर भगवान विष्णु की पूजा कि जाती है, गरीबो को भोजन, वस्त्र, गुड, कपास, घी, लड्डु, फल, अन्न आदि का दान करना पुण्यदायक होता है.
माघ पूर्णिमा को माघी पूर्णिमा के नाम से भी संबोधित किया जाता है. माघशुक्ल पक्ष की अष्टमी भीमाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है। इस तिथि को भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया था। उन्हीं की पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। माघी पूर्णिमा को एक मास का कल्पवास पूर्ण हो जाता है। इस दिन सत्यनारायण कथा और दान-पुण्य को अति फलदायी माना गया है।
माघ माह में स्नान, दान, धर्म-कर्म का विशेष महत्व होता है. इस माह की प्रत्येक तीथि फलदायक मानी गई है. शास्त्रों के अनुसार माघ के महीने में किसी भी नदी के जल में स्नान को गंगा स्नान करने के समान माना गया है. माघ माह में स्नान का सबसे अधिक महत्व प्रयाग के संगम तीर्थ का होता है...इस अवसर पर गंगा में स्नान करने से पाप एंव संताप का नाश होता है तथा मन एवं आत्मा को शुद्वता प्राप्त होती है. इस दिन किया गया महास्नान समस्त रोगों को शांत करने वाला है. इस समय ""ऊँ नमो भगवते नन्दपुत्राय ।। ऊँ नमो भगवते गोविन्दाय ।। ऊँ कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम: ।। मंत्र ध्यान के बाद भगवान कृष्ण या विष्णु की आरती करें। प्रसाद बांटे और ग्रहण करें। पूजा, आरती में हुई गलती के लिए क्षमा प्रार्थना करें।
माघ पूर्णिमा के अवसर पर भगवान सत्यनारायण जी कि कथा की जाती है भगवान विष्णु की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाता है. सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, शहद केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है, इसके साथ ही साथ आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर चूरमे का प्रसाद बनाया जाता है और इस का भोग लगता है.
माघ पूर्णिमा में प्रात: स्नान, यथाशक्ति दान तथा सहस्त्र नाम अथवा किसी स्तोत्र द्वारा भगवान विष्णु की आराधना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। निष्काम भाव से माघ-स्नान मोक्ष दिलाता है। माघ-स्नान से समस्त पाप-ताप-शाप नष्ट हो जाते हैं।
इस दिन सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज रहता है जो पाप का शमन करता है। यह भी मान्यता है कि जो तारों के छुपने से पूर्व स्नान करते हैं, उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है। तारों के छुपने के बाद किन्तु सूर्योदय से पूर्व के स्नान से मध्यम फल मिलता है। किन्तु जो सूर्योदय के बाद स्नान करते हैं, वे उत्तम फल की प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। माघ मास को बत्तीसी पूर्णिमा व्रत भी कहते हैं। पूर्णिमा को भगवान विष्णु की पूजा की जाती है जो सौभाग्य व पुत्र प्राप्ति के लिए होती है।
हिन्दू पंचांग के मुताबिक ग्यारहवें महीने यानी माघ में स्नान, दान, धर्म-कर्म का विशेष महत्व है। इस दिन को पुण्य योग भी कहा जाता है। इस स्नान के करने से सूर्य और चंद्रमा युक्त दोषों से मुक्ति मिलती है।
ऐसा माना जाता हैं जो व्यक्ति माघ पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करता हैं उसके सारे पाप धूल जाते हैं. इस अवसर पर गंगा में स्नान करने से मनुष्य के समस्त पाप एंव संताप मिट जातें है.इसे मन एवं आत्मा को शुद्व करने वाला माना गया है. इस दिन लोग उपवास रखते हैं ,दान देते हैं. पितृ तर्पण भी माघ पूर्णिमा के दिन किया जाता हैं. माघ पूर्णिमा अल्लहाबाद में संगम पर आयोजित हैं. माघ पूर्णिमा का दिन मृत पुर्वजो के लिए पुण्य स्नान करने का आख़िरी दिन हैं.
इस दिन यदि रविवार, व्यतिपात योग और श्रवण नक्षत्र हो तो ‘अर्धोदय योग’ होता है जिसमें स्नान-दान का फल भी मेरू समान हो जाता है। माघ शुक्ल पंचमी को विद्या, बुद्धि, ज्ञान और वाणी की अधिष्ठïात्री देवी भगवती सरस्वती की पूजा होती है। ब्रह्मï वैवर्त पुराण के अनुसार इनका जन्म श्रीकृष्ण के कण्ठ से हुआ। ऋग्वेद में उनकी महिमा का गान हुआ है। अत: यह दिन उनके आविर्भाव दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अचला सप्तमी का व्रत आता है। इसका महात्म्य भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिïर को बताया था कि इस दिन स्नान-दान, पितरों के तर्पण व सूर्य पूजा से तथा वस्त्रादि दान करने से व्यक्ति बैकुण्ठ में जाता है। इस व्रत को करने से वर्ष भर रविवार व्रत करने का पुण्य प्राप्त होता है। इसके बाद शुक्ल अष्टमी को भीमाष्टïमी के नाम से जाना जाता है। इसी तिथि को भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण-त्याग किया था। इस दिन उनके निमित्त स्नान-दान तथा माधव पूजा से सब पाप नष्टï होते हैं।
माघ पूर्णिमा के दिन गंगा ,यमुना,सरस्वती ,कावेरी, कृष्णा आदि नदियों के किनारे जबरदस्त पूजा की जाती हैं.अनेक पवित्र पर्वों के समन्वय की वजह से श्रद्धालुओं के लिए माघ मास को अति पुण्य फलदयी माना जाता है।
इस दिन करें यह विशेष उपाय----शैव मत को मानने वाले व्यक्ति भगवान शंकर की पूजा करते हैं, उन्हें शिव को विशेष मंत्र से शहद स्नान कराना। शाम को स्नान के बाद सफेद वस्त्र पहन चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर शिवलिंग को अक्षत से बने अष्टदल कमल पर स्थापित करें।शिवलिंग को एक पात्र में गंगा जल व दूध मिले पवित्र जल से स्नान कराएं।
इसके बाद शहद की धारा शिवलिंग पर नीचे लिखे मंत्र बोलते हुए पाप नाश व समृद्धि की कामना से करें -
“दिव्यै: पुष्पै: समुद्भूतं सर्वगुणसमन्वितम्। मधुरं मधुनामाढ्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।”
शहद स्नान के बाद शुद्ध जल से स्नान व शिव की पंचोपचार पूजा यानी चंदन, फूल, बिल्वपत्र व मिठाई का भोग लगाकर करें। धूप, दीप व कर्पूर से शिव आरती करें। जाने-अनजाने गलत कामों की क्षमा मांगे।

Friday 29 May 2015

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........

अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. ...........
अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक (Name Number), मूलांक (Root Number) और भाग्यांक (Destiny Number) इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है.
अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. अंक ज्योतिष से ज्योतिष की अन्य विधाओं की तरह भविष्य और सभी प्रकार के ज्योंतिषीय प्रश्नों का उत्तर ज्ञात किया जा सकता है. विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषय में भी अंक ज्योतिष और उसके उपाय काफी मददगार साबित होते हैं.
अंक ज्योंतिष अपने नाम के अनुसार अंक पर आधारित है. अंक शास्त्र के अनुसार सृष्टि के सभी गोचर और अगोचर तत्वों का अपना एक निश्चत अंक होता है. अंकों के बीच जब ताल मेल नहीं होता है तब वे अशुभ या विपरीत परिणाम देते हैं. अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक, मूलांक और भाग्यांक इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है. अगर वर और वधू के अंक आपस में मेल खाते हैं तो विवाह हो सकता है. अगर अंक मेल नहीं खाते हैं तो इसका उपाय करना होता है ताकि अंकों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित हो सके.
वैदिक ज्योतिष (Vedic Astrology) एवं उसके समानांतर चलने वाली ज्योतिष विधाओं में वर वधु के वैवाहिक जीवन का आंकलन करने के लिए जिस प्रकार से कुण्डली से गुण मिलाया जाता ठीक उसी प्रकार अंकशास्त्र में अंकों को मिलाकर (Numerology Marriage compatibility) वर वधू के वैवाहिक जीवन का आंकलन किया जाता है.
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बेहतर कैरिअर के योग और ज्योतिष

बेहतर कैरियर प्राप्ति के योग -
आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसे अच्छा कैरियर प्राप्त हो तथा उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ रहें तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी जातक के पास नियमित कैरियर के प्रयास में सफलता तथा आय का साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है। कुंडली में दूसरे स्थान से उच्च षिक्षा तथा धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अतः इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो षिक्षा, धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेष कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अतः चतुर्थेष या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है। पंचमभाव से अध्ययन, सामाजिक स्थिति के साथ धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अतः पंचमेष या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है। दूसरे भाव या भावेष के साथ कर्मभाव या लाभभाव तथा भावेष के साथ मैत्री संबंध होने से जीवन में धन की स्थिति तथा अवसर निरंतर अच्छी बनी रहती है। जन्म कुंडली के अलावा नवांष में भी इन्हीं भाव तथा भावेष की स्थिति अनुकूल होना भी आवष्यक होता है।  अतः जीवन में इन पाॅचों भाव एवं भावेष के उत्तम स्थिति तथा मैत्री संबंध बनने से व्यक्ति के जीवन में अस्थिर या अस्थिर संपत्ति की निरंतरता तथा साधन बने रहते हैं। इन सभी स्थानों के स्वामियों में से जो भाव या भावेष प्रबल होता है, धन के निरंतर आवक का साधन भी उसी से निर्धारित होता है। अतः जीवन में धन तथा सुख समृद्धि निरंतर बनी रहे इसके लिए इन स्थानों के भाव या भावेष को प्रबल करने, उनके विपरीत असर को कम करने का उपाय कर जीवन में सुख तथा धन की स्थिति को बेहतर किया जा सकता है। आर्थिक स्थिति को लगातार बेहतर बनाने के लिए प्रत्येक जातक को निरंतर एवं तीव्र पुण्यों की आवष्यकता पड़ती है, जिसके लिए जीव सेवा करनी चाहिए। सूक्ष्म जीवों के लिए आहार निकालना चाहिए। अपने ईष्वर का नाम जप करना चाहिए। कैरियर को बेहतर बनाने के लिए शनिवार का व्रत करें।

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प्रेत बाधा



वैदिक ग्रन्थ गरुड़ पुराण में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है और शोक संतप्त परिवार को इसके सुनने से राहत और तसल्ली मिलती है कि उनके द्वारा दिवंगत आत्मा का सही ढंग से क्रियाकर्म हो रहा है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी धुंधकारी के प्रेत बन जाने का वर्णन आता है। प्रेत की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं मनुष्य है।
अनेक देशों की लोकप्रिय संस्कृतियों में प्रेतों का मुख्य स्थान है। सभी देशों की संस्कृतियों में प्रेतों से संबंधित लोक कथाएं तथा लिखित सामग्री पाई जाती हैं। जिसमें ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और चीनी, जापानी एवं अफ्रीकन संस्कृति प्रमुख है! मिस्र के पिरामिड भी भूतों के स्मारक है। इन स्मारकों को सिर्फ बाहर से ही देखने की अनुमति है अन्दर जाने की नहीं।
हिन्दू धर्म में ''प्रेत योनि इस्लाम में ''जिन्नात आदि का वर्णन प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व जीव अथवा प्रेत के रूप में होता है।
प्रेत का पौराणिक आधार:
गरुड़ पुराण में विभिन्न नरकों में जीव के पडऩे का वृतान्त है। मरने के बाद इसमें मनुष्य की क्या गति होती है उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है प्रेत योनि से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा पितरों के दारुण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
कर्मफल अवस्था: गरूड़ पुराण धर्म, शुद्ध और सत्य आचरण पर बल देता है, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, कर्तव्य-अकर्तव्य तथा इनके शुभ-अशुभ फलों पर विचार करता है। वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त कर देता है।
पहली अवस्था: समस्त अच्छे बुरे कर्मो का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है।
दूसरी अवस्था: मृत्यु के उपरान्त मनुष्य विभिन्न चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्मानुसार जन्म लेता है।
तीसरी अवस्था: कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नर्क में जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में इन तीन प्रकार की अवस्थाओं का खुलकर विवेचन हुआ है। जिस प्रकार चौरासी लाख योनियां है, उसी प्रकार असंख्य नर्क भी हैं जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। 'गरूड़ पुराण ने इसी स्वर्ग नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इसी कारण भयभीत व्यक्ति अधिक दान पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है।
प्रेत योनी किसे प्राप्त होती हैं ?
'प्रेत कल्पÓ में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और संबंधियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताडि़त करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है। जो व्यक्ति दूसरों की संपत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राहमण अथवा मंदिर की संपत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का घात करता है, माता, बहन, पुत्र-पुत्री, स्त्री, पुत्रवधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है। उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीते जी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषिहानि, संतानमृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है। अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है जो धर्म का आचरण और नियमों का पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे अकाल मृत्यु में धकेल देते हैं।
गरुड़ पुराण में प्रेत योनि और नर्क में पडऩे से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक उपाय दान, यज्ञ, सत्संग, नाम संकीर्तन, स्वाध्याय, पिंडदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं।
सर्वाधिक प्रसिद्ध इस प्रेत कल्प के अतिरिक्त इस पुराण में आत्मज्ञान के महत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसके लिए अपने मन और इंद्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकांड पर सर्वाधिक बल देने के उपरांत गरुड़ पुराण में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकांड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है।
जीवों का सूक्ष्म विवेचन:  इस पृथ्वी पर चार प्रकार की आत्माएं पाई जाती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अच्छाई और बुराई के भाव से परे होते हैं। ऐसे जीवों को पुन: जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। वे इस जन्ममृत्यु के बंधन से परे हो जाते हैं। इन्हें असली संत और असली महात्मा कहते हैं। उनके लिए अच्छाई और बुराई कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिए सब बराबर हैं। उनको सबसे प्रेम होता है किसी के प्रति घृणा नहीं होती है। इसी तरह कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अच्छाई और बुराई के प्रति समतुल्य होते हैं यानी दोनों को समान भाव से देखते हैं वे भी इस जनम मृत्यु के बंधनों से मुकत हो जाते हैं। लेकिन तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं जो साधारण प्रकार के होते हैं, जिनमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी होती है। दोनों का मिश्रण होता है उनका व्यक्तित्व ऐसे साधारण प्रकार के लोग अपनी मृत्यु होने के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ को उपलब्ध हो जाते हैं, किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रेत भी गर्भ प्राप्ति की प्रतीक्षा करते हैं:
चौथे प्रकार के लोग असाधारण प्रकार के लोग हैं, जो या तो बहुत अच्छे लोग होते हैं या बहुत बुरे लोग होते हैं। अच्छाई में भी पराकाष्ठा और बुराई में भी पराकाष्ठा। ऐसे लोगों को दूसरा गर्भ प्राप्त करना कठिन हो जाता है। ये जीव भटकते रहते हैं। प्रतीक्षा करते रहते हैं कि उनके अनुरूप कोई गर्भ मिले तभी वह उसमें प्रवेश करें। जो अच्छाई की दिशा में उत्कर्ष पर होते हैं वे प्रतीक्षा करते हैं कि उनके अनुरूप ही योनी मिले। जो बुराई की पराकाष्ठा पर होते हैं वे भी प्रतीक्षा करते हैं। जिन्हें बुरे पूर्वाग्रह वाले प्रेत कहते हैं और मृत्यु के बाद उन्हें गर्भ प्राप्त करने में कभी-कभी बहुत ज्यादा समय लग जाता है। ये जीव जो अगले गर्भ की प्रतीक्षा करते रहते हैं, ये ही मनुष्य के शरीर में प्रेत का रूप लेकर प्रवेश करती हैं और उन्हें कई तरह की पीड़ाओं से ग्रसित करती हैं।
जिस व्यक्ति के जीव में अपने प्रति लगाव होता है, उस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर उतना ही विकसित होता है। शरीर में आपका सूक्ष्म शरीर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यही सबकुछ संचालित करता है। जब जीव का मनोबल व संकल्प शक्तिशाली होता है तब सूक्ष्म शरीर विकसित होता है, फैलता है और शरीर में पूरी तरह व्याप्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर का सबसे बड़ा गुण है, यही स्वरूप उस ब्रह्मा का भी है।
ज्योतिष के अनुसार वे लोग प्रेतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में राहु से पापाक्रांत प्रमुख ग्रहों के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है।
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनी प्राप्ति के कारण:
* कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं।
* कुंडली में बनने वाले कुछ प्रेत बाधा दोष इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रहों की स्थिति हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर प्रेत-पिशाच या नकारात्मक जीवों का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि या मंगल में से कोई भी ग्रह राहु से आक्रांत होकर सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी प्रेत बाधा या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. उक्त योगों की दशा-अंतर्दशा और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान होगा। इस कष्ट से मुक्ति के लिए पितृ शांति कराना चाहिए।
4. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव में हों तो भी प्रेत बाधा बनते हैं।
5. प्रेत-बाधा अक्सर उन लोगों को कष्ट देता है जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
6. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और प्रेत बाधा देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को ज्यादा कष्टकारी माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। प्रेत बाधा दोष राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है।
प्रेतबाधा दोष जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है उसमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं और उनके अनुसार बुरे कर्म करने लगते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। स्वयं ही अपना तथा अपनों का नुकसान कर बैठते हैं।
7. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई उसका विनाश करने में लगा हुआ है और किसी भी इलाज पर उसे भरोसा नहीं होता।
8. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी प्रेतबाधा का प्रभाव आसानी से होने की संभावनाएं बनती हैं।
इस प्रकार परेशानियों से मुक्ति हेतु नारायण बलि, नागबलि, रुद्राभिषेक अर्थात पितृ शांति विद्वान आचार्य से किसी नदी के तट पर देवता के मंदिर प्रांगण में कराना चाहिए।

स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किवदंति खास कारणों से प्रचारित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- 222 में  ''उद्धृत नारायण बलि प्रकरण निर्णय में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तट पर कराई जा सकती है। अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य, इस विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे, जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि प्रेत बाधा दूर करने एवं परिजन को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए की जाती है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि असमायिक मृत्यु जैसे कि एक्सीडेंट, बीमारी, आत्महत्या या हत्या, पानी में डूबने से या जलने से साथ ही प्रसव के दौरान इत्यादि से होने वाली मृत्यु के कारण कोई भी जीव सद्गति को प्राप्त न कर प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है। जीव को प्रेतयोनि में नाना प्रकार के कष्ट को भोगने पड़ते हैं जिसके कारण वह अपने परिवार के प्रियजनों को भी कष्ट देता रहता है, जिसके कारण उस परिवार के वंशज विभिन्न प्रकार के कष्ट जिसमें शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अशांति अथवा गृह-क्लेशों से गुजरते रहते हैं। अपने पितृों को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने एवं स्वयं् पर आये प्रेत-बाधा दोष को दूर करने के लिए अमलेश्वर धाम पर संपन्न होने वाले नारायण नागबलि के विधिवत पूजा में सम्मिलत होकर अपने कष्टों का निवारण करना चाहिए। यही एक मात्र स्थान है जो इस पूजन विधि के लिए सबसे उपयुक्त है।



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मंगल पर्वत से बदलेगी किस्मत


हस्तरेखा में मंगल पर्वत को दो स्थान दिए गए हैं अत: माना जा सकता है कि मंगल कितना शक्तिशाली और प्रमुख पर्वत है। मंगल पर्वत को हथेली में दो स्थानों पर माना जाता है- एक ऊपर और दूसरा नीचे। एक उच्च का पर्वत होता है और दूसरा नीच का होता है। उच्च मंगल पर्वत हृदय रेखा जहां से शुरू होती उसके ऊपर स्थित होता है जबकि नीच का मंगल जहां से जीवन रेखा शुरू होती है वहां से कुछ ऊपर होता है। ऊपर के मंगल का ज्यादा उन्नत और उभरा होना व्यक्ति में आक्रामकता एवं साहस को बढ़ावा देता है क्योंकि वह सेनापति है, ऐसे जातक स्वभाव से जुझारू होते हैं तथा विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत से काम लेते हैं तथा सफलता प्राप्त करने के लिए बार-बार प्रयत्न करते रहते हैं और अपने रास्ते में आने वाली बाधाओं तथा मुश्किलों के कारण आसानी से विचलित नहींं होते। इस स्थान पर किसी वृत्त, दाग या तिल का होना इसे और ज्यादा पुष्ट करता है। उसे दुर्घटना द्वारा चोट भी लग सकती है और उसका कोई अंग भंग हो सकता है। ऊपर का मंगल यदि बुध पर्वत की ओर खिसका हो तो जातक का स्वभाव उग्र होता है। वह हमेशा अपने को एक कुशल योद्धा समझता है और जिसके कारण जातक के शरीर की चीर-फाड़ हो सकती है तथा अत्याधिक मात्रा में रक्त भी बह सकता है। मंगल पर्वत से निकलकर कोई रेखा यदि जीवनरेखा तक आये तो वह रेखा को जीवनरेखा जहां काट रही हो, उस समय तथा उम्र में किसी दुर्घटना अथवा लड़ाई में अपने शरीर का कोई अंग भी गंवा सकता है। इसके अतिरिक्त मंगल पर्वत पर कोई क्रास का निशान या द्वीप होना जातक को सिरदर्द, थकान, गुस्सा जैसी समस्याएं दे सकता है। यह पर्वत अविकसित हो तो जातक डिप्रेशन का मरीज होता है। यदि मगंल के उस पर्वत से कोई रेखा चंद्र पर्वत तक जाये तो ऐसा जातक निर्णय लेने में विलंब तथा लगातार अनियमित कार्य करने का आदी होता है। यह मंगल पर्वत यदि चंद्र पर्वत से दबा हो तो उसे सफलता ना मिलने के कारण चिड़चिड़ापन भी होता है। इस पर्वत पर कोई अशुभ चिह्न व्यक्ति को आर्थिक मुसीबतों और पारिवारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उसकी वाणी प्रभावित होती है।
नीचे का मंगल क्षेत्र भी इसी प्रकार से उन्नत होने पर जातक अति आत्म विश्वास से युक्त होता है। वह किसी भी कार्य को चुनौती देकर स्वीकार करता है। इस स्थिति का मंगल अंगुठे की तरफ खिसका हो तो जातक कूटनीति करने वाला होता है। फलत: वह नित नवीन परेशानियों एवं उलझनों से घिरा रहता है। मंगल का अनेक रेखाओं से दबा होना और उस स्थान पर जाल का चिह्न रक्त प्रवाह को असामान्य करता है। यदि नीचे का मंगल शुक्र की ओर झुका हुआ हो तो शुक्र और मंगल से प्रभावित होने के फलस्वरूप वह उग्र स्वभाव का हो जाता है। इस स्थिति में उसमें काम के प्रति आसक्ति बनी रहती है और वह काम पिपासा को शांत करने हेतु किसी भी हद तक जा सकता है। यदि इन दोनों पर्वतों पर द्वीप या क्रास का निशान मिले तो जातक को उसका प्यार न मिले तो वह दुखी होकर एडीक्षन का आदी हो सकता है। मंगल पर्वत का उन्नत होना तथा जाल रहित होना व्यक्ति में अच्छे आत्मविष्वास का घोतक होता है। उस पर किसी ग्रह का शुभ चिह्न ऊध्र्व रेखाएं या कोई अन्य शुभ चिह्न हो तो यह बहुत ही योगकारक ग्रह बन कर व्यक्ति को सफलता के शिखर पर पहुंचा देता है। इसकी स्थिति, शुभाशुभ चिह्नों की प्रतिक्रिया, अन्य पर्वतों से सामंजस्य एवं हाथ के आकार प्रकार, उंगलियों की बनावट और उन पर स्थित चिह्नों को भी इसके साथ जोड़ कर सही स्थिति का पता लगाया जा सकता है तथा समस्याओं का समाधान किया जा सकता है मंगल आम तौर पर ऐसे क्षेत्रों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें साहस, शारीरिक बल, मानसिक क्षमता आदि की आवश्यकता पड़ती है जैसे कि पुलिस की नौकरी, सेना की नौकरी, अर्ध-सैनिक बलों की नौकरी, अग्नि-शमन सेवाएं, खेलों में शारीरिक बल तथा क्षमता की परख करने वाले खेल जैसे कि कुश्ती, दंगल, टैनिस, फुटबाल, मुक्केबाजी तथा ऐसे ही अन्य कई खेल जो बहुत सी शारीरिक उर्जा तथा क्षमता की मांग करते हैं। इसके अतिरिक्त मंगल ऐसे क्षेत्रों तथा व्यक्तियों के भी कारक होते हैं जिनमें हथियारों अथवा औजारों का प्रयोग होता है जैसे हथियारों के बल पर प्रभाव जमाने वाले गिरोह, शल्य चिकित्सा करने वाले चिकित्सक तथा दंत चिकित्सक जो चिकित्सा के लिए धातु से बने औजारों का प्रयोग करते हैं, मशीनों को ठीक करने वाले मैकेनिक जो औजारों का प्रयोग करते हैं तथा ऐसे ही अन्य क्षेत्र एवं इनमे काम करने वाले लोग। इसके अतिरिक्त मंगल भाइयों के कारक भी होते हैं तथा विशेष रूप से छोटे भाइयों के। मंगल पुरूषों की कुंडली में दोस्तों के कारक भी होते हैं तथा विशेष रूप से उन दोस्तों के जो जातक के बहुत अच्छे मित्र हों तथा जिन्हें भाइयों के समान ही समझा जा सके। क्योंकि मंगल रक्त के सीधे कारक माने जाते हैं। मंगल के प्रबल प्रभाव वाले जातक शारीरिक रूप से बलवान तथा साहसी होते हैं। अत: मंगल पर्वत का विकसित होना जातक के उत्साह एवं उमंग का प्रतीक होता है और इससे जातक के लगनशील होने का पता चलता है। साथ ही नीचे के मंगल का शुक्र के बराबर उन्नत होना जीवन में समृद्धि देता है। मंगल पर्वत और मंगल रेखा का विकसित होना जीवन में अच्छी उर्जा तथा सफलता का कारण होता है। वहीं उपर के मंगल का बुध की ओर झुका होना अच्छे स्वास्थ्य और समझ को बताता है। मंगल पर्वत का स्थान सपाट होता है वह कायर और डरपोक होते हैं। मंगल पर्वत पर किसी भी प्रकार का क्रास का चिंह होना और जीवन रेखा कट कर कोई रेखा बाहर तक जाकर दूसरे मंगल पर्वत तक जाये तो यह कारावास या समाज से निष्कासित होने को दर्शाता है।
मंगल पर्वत को विकसित करने तथा उर्जा, उत्साह तथा साकारात्मकता बढ़ाने हेतु अनामिका उंगली जिसपर मंगल से संबंधित रत्न मूंगा धारण करना चाहिए इसके अलावा मंगल पर्वत के लिए निम्न मुद्रा का अभ्यास करना भी लाभ देता है।
उपाय:
उपाए (१):
* सिद्धासन,पदमासन या सुखासन में बैठ जाएँ।
* दोनों हाँथ घुटनों पर रख लें हथेलियाँ उपर की तरफ रहें।
* अनामिका अंगुली (रिंग फिंगर) को मोडकर अंगूठे की जड़ में लगा लें एवं उपर से अंगूठे से दबा लें।
* बाकी की तीनों अंगुली सीधी रखें। अनामिका अंगुली पृथ्वी एवं अंगूठा अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है, इन तत्वों के मिलन से शरीर में तुरंत उर्जा उत्पन्न हो जाती है।

उपाए (२):
* पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएँ, रीढ़ की हड्डी सीधी रखें।
* अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रख लें, हथेलियाँ ऊपर की तरफ रहें।
* हाथ की सबसे छोटी अंगुली (कनिष्ठा) एवं इसके बगल वाली अंगुली (अनामिका) के पोर को अंगूठे के पोर से लगा दें। इससे प्राणशक्ति बढती है इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से मन की बैचेनी और कठोरता को दूर होती है एवं एकाग्रता बढ़ती है।
उपाए (३):
* सुखासन या अन्य किसी आसान में बैठ जाएँ, दोनों हाथ घुटनों पर, हथेलियाँ उपर की तरफ एवं रीढ़ की हड्डी सीधी रखें।
* मध्यमा (बीच की अंगुली)एवं अनामिका अंगुली के उपरी पोर को अंगूठे के उपरी पोर से स्पर्श कराके हल्का सा दबाएं। तर्जनी अंगुली एवं कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली सीधी रहे इस मुद्रा के प्रभाव से साधक में सहनशीलता, स्थिरता और तेज का संचार होता है।
नोट: आसनों की जानकारी के लिए अगले अंक में पढ़ें।


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कुंडली मिलान का ज्योतिषीय तथ्य


कुंडली मिलान का ज्योतिषीय तथ्य
सभी अभिभावक की यह हार्दिक कामना होती है कि उसकी संतान का विवाह समय से हो किंतु उससे प्रमुख कामना होती है कि वह विवाह के उपरांत सुख तथा खुष रहे। इस हेतु भारतीय समाज में कुंडली मिलान का प्रमुख स्थान है। अत्यंत आधुनिक माता भी अपनी संतान के विवाह से पूर्व कुंडली मिलान तथा सभी परंपराओं का निर्वाह करना चाहते हैं। विवाह- निर्णय के लिए वर-वधू मेलापक ज्ञात करने की विधि अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में ऐसी मान्यता है कि जीवन में सामंजस्य तथा विपरीत परिस्थिति से जुझने में जीवनसाथी का सहयोग जीवन को आसान तथा कष्टरहित बना सकता है। जीवनसाथी का श्रेष्ठ मिलान नहीं होता है तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टमय तथा अनेक वैवाहिक विडंबनाएॅ देने के अलावा पारिवारिक तथा सामाजिक रीतियों एवं परंपराओं को जीवित रखने में असमर्थ हो जाता है। अतः दांपत्य जीवन सुखमय हो एवं कष्ट तथा प्रतिकूल स्थिति से सावधानी पूर्वक निकला जा सके इसके लिए जीवनसाथी का सहयोगी होना आवश्यक है। इस हेतु हिंदु संस्कार में विवाह हेतु कुंडली मिलान का विशेष महत्व है।
साधारणतया अष्टकूट अर्थात् तारा, गुण, वश्य, वर्ण, नाड़ी, योनी, ग्रह गुण आदि के आधार पर वर-वधु मेलापक सारिणी के आधार पर गुणों की संख्या के साथ दोषों के संकेत होते हैं। सर्वश्रेष्ठ मिलान में 36 गुणों का होना श्रेष्ठ मिलान का प्रतीक माना जाता है। उससे आधे अर्थात् 18 गुण से अधिक होना ही कुंडली-मिलान का धर्म कांटा मान लिया जाता है। इससे अधिक जितने भी गुण मिले, वह वैवाहिक जीवन में सफलता का प्रतीक मान लिया जाता है। जहाॅ दोषों का संकेत होता है, उनमें भी शुभ नव पंचम, अशुभ नवपंचम अथवा सामान्य नव पंचम या श्रेष्ठ द्विद्र्वादश, प्रीति षडाष्टक, केंद्र के शुभ-अशुभ का आकलन करके सभी ज्योतिविर्द कुंडली का मिलान कर लेते हैं। किसी प्रकार का दोष होने पर उसका परिहार भी मिल जाता है। कहा जाता है की ‘‘ नाड़ी दोषःअस्ति विप्राणां, वर्ण दोषःअस्ति भूभुजाम्। वैश्यानां गणदोषाः स्यात् शूद्राणां योनि दूषणम् ’’ ब्राम्हणों में नाड़ी दोष मानना आवश्यक है, क्षत्रियों में वर्ण दोष की उपेक्षा नहीं की जा सकती, वैश्यों में गण दोष को प्रधान माना जाता है तथा शूद्रों के लिए योनि दोष की उपेक्षा शास्त्र सम्मत नहीं माना जाता है। आज के युग में जब कि सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से बदल चुकी है तब हम ब्राम्हण किसे माने किसे क्षत्रिय की संज्ञा दे, किसको वैष्य कहा जाए और किसे शूद्र का दर्जा दिया जाए। आज जाति का अलंकार जन्म से या कर्म से माना जाए। इस प्रष्न का उत्तर प्राप्त करना भी कठिन है क्योंकि जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात् द्विज उच्यते। वेदपाठीभवेद् विप्र, ब्रम्हणों जानाति ब्राम्हण। वर्तमान परिवेष में जन्म कुंडली का मिलान करते समय गुण मिलान के निर्णय के अनुकूल होने पर ही कुंडली मिलान ज्यादा प्रभावी हो सकता है।

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रोगों से लड़ने की शक्ति


सूर्य कुण्डली में आरोग्य शक्ति व पिता के कारक ग्रह होते है, जब जन्म कुण्डली में सूर्य के दुष्प्रभाव प्राप्त हो रहे हों या फिर सूर्य राहू-केतू से पीडित हों तो सूर्य से संम्बधित उपाय करना लाभकारी रहता है....इन उपायों से रोगों से लडने की शक्ति का विकास होता है....विशेष कर ये उपाय सूर्य गोचर में जब शुभ फल न दे रहा हों तो इनमें से कोई भी उपाय किया जा सकता है ...सूर्य के उपाय करने पर अन्य अनिष्टों से बचाव करने के साथ-साथ व्यक्ति में रोगों इसके अलावा जब सूर्य गोचर में छठे घर के स्वामी या सांतवें घर के स्वामी पर अपनी दृ्ष्टी डाल उसे पीडित कर रहा हों तब भी इनके उपाय करने से व्यक्ति के कष्टों में कमी होती है.....इस उपाय को करने के लिये प्रात उठ कर नित्यकर्म करने के बाद स्नान करने के बाद सूर्य देव को जल अर्पित किया जाता है इसके बाद सूर्य से संबन्धित वस्तुओं का दान जप होम मन्त्र धारण व सूर्य की वस्तुओं से जल स्नान करना भी सूर्य के उपायों में आता है सूर्य के उपायों में मन्त्र जाप भी किया जा सकता है.... सूर्य के मन्त्रों में ऊँ घृ्णि सूर्य आदित्य मन्त्र का जाप किया जा सकता है.... इस मन्त्र का जाप प्रतिदिन भी किया जा सकता है तथा प्रत्येक रविवार के दिन यह जाप करना विशेष रुप से शुभ फल देता है.....

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किस्मत खराब होने का ज्योतिष सच -

किस्मत खराब होने का ज्योतिष सच -
पुरूषार्थ का महत्व भाग्य से अधिक है साथ ही अधिकांष लोगो की मान्यता होती है कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं होती जितना कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है किंतु जीवन की कई अवस्थाओं पर नजर डाले तो भाग्य की धारणा से इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय शास्त्र में कर्म को तीन श्रेणियों में बांटा गया है जोकि क्रमषः संचित कर्म, क्रियामाण कर्म और प्रारब्ध है। जो वर्तमान में कर्म किया जाता है वहीं क्रियामाण कर्म कहा जाता है जिसका कोई फल अभी हमें प्राप्त नहीं है अर्थात् वहीं कर्म भविष्य में संचित कर्म बनता है। इन्हीं संचित कर्म में से जिसका फल हमें प्राप्त हो जाता है वह चाहें अच्छा हो या बुरा प्रारब्ध कहा जा सकता है। अब देखें कि संचित कर्म का विचार - वह कर्म जिसका परिणाम हमें वर्तमान में नहीं प्राप्त होता माना जाता है कि वह किसी भी जनम में प्राप्त हो सकता है जिसका उल्लेख आप वंषषास्त्र से कर सकते हैं क्योंकि जन्म के समय किसी भी प्रकार के कर्म के बिना भी जीव उच्च-नीच, अमीर-गरीब, स्वस्थ या अस्वस्थ होने के तौर पर प्राप्त करता है जिसका वर्णन ज्योतिष शास्त्र में जातक के जन्मकुंडली के पंचम या पंचमेष के आधार पर किया जा सकता है। कर्म का दूसरा भाग है प्रारब्ध। प्रारब्ध को अपने इसी जन्म में भोगना हेाता है अर्थात इसे उत्पति कर्म भी कहा जा सकता है जोकि व्यक्ति के जींस तय कर देते हैं कि उसका प्रारब्ध क्या होगा अर्थात् गर्भधारण के समय ही उसका प्रारब्ध निर्धारित हो जाता है। प्रयत्न के बिना ही पैदा होते ही जो कुछ प्राप्त होता है या अप्राप्त रह जाता है वह प्रारब्ध होता है। कुंडली में प्रारब्ध केा नवम भाव या नवमेष से देखा जा सकता है। अब कर्म के तीसरे स्वरूप क्रियामाण को देखें। क्रियामाण अर्थात् जो वर्तमान में कर्म चल रहा है मतलब इसे हम पुरूषार्थ कह सकते हैं। भारतीय मान्यता है कि इंसान के 12 वर्ष अर्थात् कालपुरूष के भाग्य के एक चक्र के पूरा होने के उपरांत क्रियामाण का दौर शुरू हो जाता है जोकि जीवन के अंत तक चलता है। अब व्यक्ति की षिक्षा उसकी रूचि सामाजिक स्थिति पारिवारिक तथा निजी परिस्थिति पसंद नापसंद, प्रयास तथा उसमें सकाकरात्मक या नाकारात्मक सोच से व्यक्ति का क्रियामाण उसके जीवन को प्रतिकूल या अनुकूल स्थिति हेतु प्रभावित करता है अतः पुरूषार्थ या क्रियामाण कर्म ही संचित होकर प्रारब्ध बनता है अतः जीवन के सिर्फ कर्म के आधार पर नहीं वरन् कर्म और भाग्य के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है जोकि कुंडली के पंचम, नवम और दषम स्थान से देखा जाता है इसमें प्रयास का स्तर, मनोभाव या सहयोग कि स्थिति देखना भी आवष्यक होता है जोकि कुंडली के अन्य भाव से निर्धारित होता है अतः मानव जीवन में भाग्य का भी अहम हिस्सा होता है।

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Thursday 28 May 2015

क्या वैज्ञानिक के आधार में पुनर्जन्म मान्य है ?????



मृत्यु केवल स्थूल शरीर की होती है, पर सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ वैसे ही आगे चलता है , तो हर जन्म के कर्मों के संस्कार उस बुद्धि में समाहित होते रहते हैं । और कभी किसी जन्म में वो कर्म अपनी वैसी ही परिस्थिती पाने के बाद जाग्रत हो जाते हैं ।
इसे उदहारण से समझें :- एक बार एक छोटा सा ६ वर्ष का बालक था, यह घटना हरियाणा के सिरसा एक गाँव की है । जिसमें उसके माता पिता उसे एक स्कूल में घुमाने लेकर गये जिसमें उसका दाखिला करवाना था और वो बच्चा केवल हरियाणवी या हिन्दी भाषा ही जानता था कोई तीसरी भाषा वो समझ तक नहीं सकता था । लेकिन हुआ कुछ यूँ था कि उसे स्कूल की Chemistry Lab में ले जाया गया और वहाँ जाते ही उस बच्चे का मूँह लाल हो गया !! चेहरे के हावभाव बदल गये !! और उसने एकदम फर्राटेदार French भाषा बोलनी शुरू कर दी !! उसके माता पिता बहुत डर गये और घबरा गये , तुरंत ही बच्चे को अस्पताल ले जाया गया । जहाँ पर उसकी बातें सुनकर डाकटर ने एक दुभाषिये का प्रबन्ध किया। जो कि French और हिन्दी जानता था , तो उस दुभाषिए ने सारा वृतान्त उस बालक से पूछा तो उल बालक ने बताया कि " मेरा नाम Simon Glaskey है और मैं French Chemist हूँ । मेरी मौत मेरी प्रयोगशाला में एक हादसे के कारण ( Lab. ) में हुई थी । "
तो यहाँ देखने की बात यह है कि इस जन्म में उसे पुरानी घटना के अनुकूल मिलती जुलती परिस्थिती आने से अपना वह सब याद आया जो कि उसकी गुप्त बुद्धि में दबा हुआ था । यानि की वही पुराने जन्म में उसके साथ जो प्रयोगशाला में हुआ, वैसी ही प्रयोगशाला उसे दूसरे जन्म में देखने पर उसे सब याद आया । तो ऐसे ही बहुत सी उदहारणों से आप पुनर्जन्म को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकते हो ।
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Wednesday 27 May 2015

संकल्प शक्ति से बदलें मन के भाव



स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।। 27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:।। 28।।

और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच मेंं स्थित करके तथा नासिका मेंं विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।
इस सूत्र मेंं कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र मेंं, काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र मेंं काम-क्रोध से मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
इतना जानना पर्याप्त नहींं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म मेंं प्रवेश मिल जाएगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? विधि क्या है?
कृष्ण ने कहीं तीन बातें। एक, दोनों आंखों के ऊपर भू-मध्य मेंं, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करें। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले, इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य मेंं, श्वास हो जाए सम, जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है। इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहींं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पडऩा बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहींं है। इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमेंं जोड़ती हैं।
सात इंद्रियां हैं। साधारणत: पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणत: उनकी बात नहींं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है। जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहींं था। कुछ, जिन्हें समझ मेंं और गहरी बात आई थी, उन्होंने छ: इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों मेंं विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं।
हमारे कान मेंं दो इंद्रियां हैं, एक नहींं। कान सुनता भी है, और कान मेंं वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान मेंं छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब सड़क पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण से नहींं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान मेंं दो इंद्रियों का निवास है।
छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था, वह है अंत:करण, हृदय। साधारणत: हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने मेंं एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहींं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है।
प्राचीन ग्रंथों में सात इंद्रियों का जिक्र है। ये सात इंद्रियां हमेंं बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमेंं से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है।
जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमेंं से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र मेंं कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य मेंं, माथे के बीच मेंं ध्यान को केंद्रित कर।
माथे के बीच मेंं जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, उसका नाम है, आज्ञा-चक्र। वह संकल्प का और इच्छाशक्ति का केंद्र है। जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन मेंं संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा-चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन-धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह ध्यान कर सकता है।
इस चक्र पर ध्यान करने से क्या होगा? एक बात और खयाल मेंं ले लें, तो समझ मेंं आ सकेगी। आपके घर मेंं आग लग गई हो। अभी कोई खबर देने आ जाए कि घर मेंं आग लग गई। आप भागेंगे। रास्ते पर कोई नमस्कार करेगा, आपकी आंख बराबर देखेगी, फिर भी, फिर भी आप नहींं देख पाएंगे। और कल वह आदमी मिलेगा और कहेगा कि कल क्या हो गया था, बदहवास भागे जाते थे? नमस्कार की, उत्तर भी न दिया! आप कहेंगे, मुझे कुछ होश नहींं। मैं देख नहींं पाया। वह आदमी कहेगा, आंख आपकी बिलकुल मुझे देख रही थी। मैं बिलकुल आंख के सामने था। आप कहेंगे, जरूर आप आंख के सामने रहे होंगे। लेकिन मेरा ध्यान आंख पर नहींं था। शरीर की भी वही इंद्रिय काम करती है, जिस पर ध्यान हो, नहींं तो काम नहींं करती। शरीर की इंद्रियों को भी सक्रिय करना हो, तो ध्यान से ही सक्रिय होती हैं वे, अन्यथा सक्रिय नहींं होतीं। आंख तभी देखती है, जब भीतर ध्यान आंख से जुड़ता है, अटेंशन आंख से जुड़ती है। कान तभी सुनते हैं, जब ध्यान कान से जुड़ता है। शरीर की इंद्रियां भी ध्यान के बिना चेतना तक खबर नहींं पहुंचा पातीं। ठीक ऐसे ही भीतर के जो सात चक्र हैं, वे भी तभी सक्रिय होते हैं, जब ध्यान उनसे जुड़ता है।
संकल्प का चक्र है आज्ञा। अर्जुन से वे कह रहे हैं, तू उस पर ध्यान कर। कर्मयोगी के लिए वही उचित है। कर्म का चक्र है वह, विराट ऊर्जा का, उस पर तू ध्यान कर। लेकिन ध्यान तभी घटित होगा, जब बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास सम स्थिति मेंं हों।
आपको खयाल मेंं नहींं होगा कि सम स्थिति कब होती है। आपको पता होता है कि श्वास भीतर गई, तो आपको पता होता है। श्वास बाहर गई, तो आपको पता होता है। लेकिन एक क्षण ऐसा आता है, जब श्वास भीतर होती है, बाहर नहींं जा रही, एक रुका हुआ क्षण। एक क्षण ऐसा भी होता है, जब श्वास बाहर चली गई और अभी भीतर नहींं आ रही, एक छोटा-सा अंतराल। उस अंतराल मेंं चेतना बिलकुल ठहरी हुई होती है। उसी अंतराल मेंं अगर ध्यान ठीक से किया गया, तो आज्ञा-चक्र शुरू हो जाता है, सक्रिय हो जाता है।
और जब ऊर्जा आज्ञा-चक्र को सक्रिय कर दे, तो आज्ञा-चक्र की हालत वैसी हो जाती है, जैसे कभी आपने सूर्यमुखी के फूल देखे हों सुबह, सूरज नहींं निकला, लटके रहते हैं जमीन की तरफ, उदास, मुर्झाए हुए, पंखुडिय़ां बंद, जमीन की तरफ लटके हुए। फिर सूर्य निकला और सूर्यमुखी का फूल उठना शुरू हुआ, खिलना शुरू हुआ, पंखुडिय़ां फैलने लगीं, मुस्कुराहट छा गई, नृत्य फूल पर आ गया। रौनक, ताजगी। फूल जैसे जिंदा हो गया, उठकर खड़ा हो गया।
जिस चक्र पर ध्यान नहींं है, वह चक्र उलटे फूल की तरह मुर्झाया हुआ पड़ा रहता है। जैसे ही ध्यान आता है, जैसे सूर्य ने फूल पर चमत्कार किया हो, ऐसे ही ध्यान की किरणें चक्र के फूल को ऊपर उठा देती हैं। और एक बार किसी चक्र का फूल ऊपर उठ जाए, तो आपके जीवन मेंं एक नई इंद्रिय सक्रिय हो गई। आपने भीतर की दुनिया से संबंध जोडऩा शुरू कर दिया।
अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने मेंं आसानी होगी। जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही, जैसा कि क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा-चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहींं होगा कि आज्ञा-चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहींं है, वह किसी चीज को अपने मेंं समा सकता है, हमला नहींं कर सकता, जैसे कि स्त्रियां। स्त्री का पूरा बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है। उसे गर्भ ग्रहण करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने मेंं समाकर और बड़ी करनी है। इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो यह एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहींं होगी और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान-रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमेंं पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी।
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था है ध्यान करने के लिए। अर्जुन के लिए इसलिए कृष्ण ने यह सूत्र को कहा।
और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती है, न बाहर, न भीतर, बीच मेंं ठहरी होती है। न तो आप ले रहे होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहींं होती, ठहरी होती है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत मेंं होते हैं, जैसी हालत मेंं मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत मेंं जन्म के समय होते हैं।
अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच मेंं न्यूट्रल गियर है, जहां सम है, जहां न भीतर, न बाहर, न अस्तित्व है जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण मेंं आपका रूपांतरण होता है।
इसलिए कृष्ण दो बातों पर जोर देते हैं, श्वास हो सम अर्जुन, और ध्यान तेरा भू-मध्य पर, आज्ञा-चक्र पर हो, तो फूल ऊपर उठ जाएगा, चक्र खुल जाएगा। और जैसे ही वह चक्र खुलेगा, वैसे ही तू अचानक पाएगा कि वह सारी शक्ति जो पहले काम बनती थी, क्रोध बनती थी, वह सारी की सारी शक्ति आज्ञा-चक्र पी गया। वह सारी शक्ति संकल्प बन गई।
इसलिए ध्यान रखें, अगर आप बहुत क्रोधी हैं या बहुत कामी हैं, तो एक लिहाज से दुर्भाग्य है, लेकिन एक लिहाज से सौभाग्य भी है। क्योंकि इस जगत मेंं जो बहुत कामी हैं और बहुत क्रोधी हैं, वे ही बड़े संकल्पवान हो सकते हैं। दुर्भाग्य है कि काम और क्रोध आपको परेशान करेंगे। सौभाग्य है कि अगर आप ध्यान कर लें, तो आपके पास जितना संकल्प होगा, उतना उन लोगों के पास नहींं होगा, जिनके पास न काम है, न क्रोध है।
इसलिए इस जगत मेंं जिन लोगों ने बहुत महान शक्ति पाई, वे वे ही लोग हैं, जो बहुत कामी थे। यह बहुत हैरानी की बात है। इस जगत मेंं जो लोग बहुत महान ऊर्जा को उपलब्ध हुए, वे वे ही लोग हैं, जो अतिकामी थे। साधारण रूप से कामी नहींं थे, बहुत कामी थे। लेकिन जब शक्ति बदली, तो यही बड़ी शक्ति जो काम मेंं प्रकट होती थी, संकल्प बन गई।
अर्जुन अगर रूपांतरित हो जाए, तो जैसा महाक्षत्रिय है वह बाहर के जगत मेंं, ऐसा ही भीतर के जगत मेंं महावीर हो जाएगा। इतनी ही ऊर्जा जो क्रोध और काम मेंं बहती है, संकल्प को मिल जाए, तो संकल्प महान होगा।
इस जगत मेंं वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं, इस जगत मेंं अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति पास मेंं है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ मेंं है। काम-क्रोध बिलकुल न हो, तो बहुत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पास मेंं नहींं है, रूपांतरित क्या होगा!
इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे वह आपके खयाल मेंं आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी। यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा। शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग मेंं उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल मेंं आ सकता है।





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Saturday 23 May 2015

एक ही कतार के दरवाजे उचित या अनुचित

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वास्तु शास्त्र मुख्यत: दो ऊर्जाओं पर केंद्रित है। पहला सूर्य किरणों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा और दूसरा पृथ्वी की चुंबकीय शक्ति से प्राप्त ऊर्जा। सूर्य ऊर्जा पूर्व दिशा से सूर्य के उगते समय प्राप्त होती है और चुंबकीय ऊर्जा उत्तर दिशा से प्राप्त होती है। इन दोनों दिशाओं के विपरीत की ऊर्जा ऋणात्मक ऊर्जा होती है अत: सकारात्मक ऊर्जा की दिशा में मकान का दरवाजा या खिड़की खोली जाए और नकारात्मक दिशा बंद रखी जाए तो जीवन में सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य, शांति प्राप्त की जा सकती है।




वास्तुशास्त्र मेंं, सकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश एवं नकारात्मक ऊर्जा के निर्गम के लिए दरवाजा और खिड़की किसी भी घर के लिए महत्वपूर्ण हैं। जीवन में सुख और संतुष्टि के साथ समृद्धि बढ़ाने के लिए वास्तु के अनुसार घर मेंं रखी हर चीज का अपना अलग प्रभाव होता है। साथ ही घर के कमरे, खिड़की और दरवाजे आदि भी अच्छा-बुरा प्रभाव छोड़ते हैं।
घर का मुख्य दरवाजा सही स्थिति मेंं हो तो परिवार के सभी सदस्यों को इसका फायदा मिलता है। सभी के कार्य समय पर पूर्ण होते हैं और पारिवारिक तालमेल बना रहता है। कुछ लोगों के घरों मेंं मुख्य दरवाजे के अतिरिक्त अन्य दरवाजे भी होते हैं जहां से घर मेंं प्रवेश किया जा सकता है। वास्तु के अनुसार ऐसे दरवाजों से किसी व्यक्ति के घर मेंं प्रवेश नहींं करना चाहिए। घर मेंं प्रवेश हमेशा मुख्य दरवाजे से ही किया जाना चाहिए। ऐसा होने पर सकारात्मक विचारों का संचार होता है और हमारे बुरे विचार दूर हो जाते हैं। साथ ही जो लोग मुख्य द्वार के अतिरिक्त किसी और द्वार से घर मेंं प्रवेश करते हैं उनकी आर्थिक उन्नति होने मेंं काफी परेशानियां रहती हैं। संतान की वृद्धि उस घर मेंं नहींं होती तथा सदा परेशानी बनी रहती है। यदि किसी परिवार मेंं आर्थिक, मानसिक, शारीरिक या अन्य किसी प्रकार की परेशानियां चल रही हो और उसके घर मेंं एक कतार मेंं तीन या तीन से अधिक दरवाजे लगे हों तो वास्तुविद् उन्हें बहुत अशुभ बताते हुए एक दरवाजा कतार से हटाने की सलाह देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि, वास्तुशास्त्र के किसी भी प्राचीन ग्रन्थ मेंं एक कतार मेंं तीन या तीन से अधिक दरवाजे से होने वाले अशुभ प्रभाव के बारे मेंं किसी प्रकार का कोई उल्लेख नहींं है, बल्कि इसके विपरीत भारत के ही कई प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिरों और महलों मेंं तीन या तीन से अधिक दरवाजे एक कतार मेंं देखने को मिलते हैं, जैसे - तिरुपति बालाजी, वृहदेश्वर मंदिर तंजावूर, एकाम्बरनाथ मंदिर कांचीपुरम्, मीनाक्षी मंदिर मदुरै, ज्योतिर्लिंग रामेंश्वरम् मंदिर, और तो और दक्षिण भारत के श्रीरंगम् स्थित चार किलोमीटर क्षेत्र मेंं फैला श्रीरंगनाथ स्वामी मंदिर मेंं तो सात दरवाजे एक कतार मेंं है, जिसका दक्षिण दिशा स्थित मुख्यद्वार 236फीट ऊँचा है।
किसी घर मेंं जब तीन या तीन से अधिक दरवाजे एक कतार मेंं होते हैं तो सामान्यत: पहला दरवाजा मुख्यद्वार और आखिरी वाला दरवाजा घर का पिछला दरवाजा होता है। यदि कोई भवन भारतीय वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुकूल बना हो तो तीन या तीन से अधिक दरवाजे एक कतार मेंं रखे जा सकते हैं और यह पूर्णत: शुभ होकर परिवार मेंं सुख-शांति और समृद्धि लाते हैं, जैसे किसी भी भवन का मुख्यद्वार पूर्व मेंं हो तो अंतिम द्वार पश्चिम मेंं होगा।
यदि मुख्यद्वार पश्चिम मेंं हो तो अंतिम द्वार पूर्व मेंं होगा। इसी प्रकार उत्तर दिशा मेंं मुख्यद्वार हो तो दक्षिण दिशा मेंं अंतिम द्वार होगा और यदि दक्षिण दिशा मेंं मुख्य द्वार हो तो अंतिम द्वार उत्तर दिशा मेंं होगा। ऐसी स्थिति मेंं एक कतार मेंं होने के कारण पूर्व आग्नेय का अंतिम दरवाजा पश्चिम नैऋत्य मेंं होता है और उत्तर वायव्य का अंतिम दरवाजा दक्षिण नैऋत्य मेंं होता है। इसी प्रकार मुख्यद्वार दक्षिण दिशा मेंं दक्षिण नैऋत्य मेंं रखा जाता है ताकि पिछला द्वार उत्तर वायव्य मेंं खुले और पश्चिम दिशा मेंं पश्चिम नैऋत्य मेंं रखा जाता है ताकि पिछला द्वार पूर्व आग्नेय मेंं खुले। दोषपूर्ण स्थान पर लगा एक ही दरवाजा अशुभ होता है और यदि एक ही कतार मेंं तीन या तीन से अधिक दरवाजे लगे हो और मुख्यद्वार के साथ-साथ अंतिम दरवाजा भी घर के पिछले भाग मेंं दोषपूर्ण स्थान पर खुलता हो तो यह स्थिति अत्यन्त दुखदायी एवं घातक होती है, किन्तु भारत के कुछ विद्वान् वास्तुविदों ने बिना किसी शोध के यह भ्राँति फैला दी है कि, किसी भी स्थिति मेंं चाहे वह स्थिति शुभ हो या अशुभ एक कतार मेंं तीन या तीन से अधिक द्वार शुभ नहींं होते हैं और एक द्वार कतार से हटाने से यह दोष दूर हो जाता है। घर के पूर्व आग्नेय मेंं द्वार होने पर घर मेंं कलह और चोरी से नुकसान होता है। यदि इसी के साथ वहाँ रेम्प, गड्ढा या ढलान हो तो घर का मालिक या मालकिन पाप कर्म करते हुए मानसिक दु:ख से पीडि़त रहते हैं।
पश्चिम नैऋत्य मेंं चारदीवारी या घर का द्वार हो तो घर के पुरुष बदनामी जेल, एक्सीडेंट या खुदकुशी के शिकार होते हैं। हार्ट अटैक, आपरेशन, एक्सिडेन्ट, हत्या, लकवा या किसी प्रकार की जालिम मौत से मरते हैं। यह द्वार शत्रु स्थान का है। यदि इसी के साथ यहाँ किसी भी प्रकार की रेम्प, नीचाईयाँ, भूमिगत पानी का स्रोत हो तो उस घर मेंं किसी पुरुष सदस्य की आत्महत्या या दुर्घटना से मृत्यु हो सकती है। अर्थात् परिवार के पुरुष सदस्य के साथ अनहोनी होती है।
उत्तरी वायव्य का प्रवेशद्वार दु:खदायी, कलहकारी, बैर भाव, मुकदमेबाजी व बदनामी लाने वाला रहता है। इसी के साथ यदि यहां रैंम्प, गड्ढा हो तो शत्रु की संख्या मेंं वृद्धि, स्त्री को कष्ट, घर मेंं मानसिक अशांति रहती है। दक्षिण नैऋत्य मेंं घर या कम्पाउण्ड वाल का द्वार हो तो उस घर की महिलाएँ गम्भीर बीमारियों की शिकार होती है।
यहाँ किसी भी प्रकार का भूमिगत पानी का स्रोत होगा तो आत्महत्या या दुर्घटना से मृत्यु हो सकती है या किसी प्रकार की अनहोनी का शिकार होती है। अनुभव मेंं आया है कि, जिस घर मेंं डाका पड़ता है, उस घर के दरवाजे सब एक कतार मेंं होते हैं। मुख्यद्वार उत्तर वायव्य मेंं होकर सबसे पीछे का बाहर पडऩे वाला दरवाजा अगर दक्षिण नैऋत्य मेंं हो या पूर्व आग्नेय से पश्चिम नैऋत्य मेंं एक कतार के दरवाजे हों तो वहाँ डाका पड़ सकता है। यदि इन दरवाजों के दोष के साथ-साथ पूर्व आग्नेय और पश्चिम नैऋत्य दोनों तरफ नीचाई हो तो डाके के दौरान हिंसा होती है और किसी पुरुष सदस्यों की हत्या तक हो सकती है और यदि उत्तर वायव्य और दक्षिण नैऋत्य मेंं यह स्थिति बने तो डाके के दौरान स्त्रियों के साथ दुराचार होता है साथ ही उनकी हत्या होने की सम्भावना होती है। ऐसी स्थिति मेंं कोई एक दरवाजा हटाने से इस दोष का निवारण जरूर हो जाता है, चाहे वह बीच का ही दरवाजा क्यों ना हो।
रसोई मेंं एक खिड़की ऐसी बनवाएं जो पूर्व दिशा को ओर खुलती हो, ताकि सूर्य की प्रात:कालीन किरणें रसोई घर मेंं प्रवेश कर सके। ऐसा होने पर हानिकारक सूक्ष्म कीटाणु नष्ट हो सकते हैं। नमी, सीलन आदि भी समाप्त हो सकती है।
1. यदि आपके घर का दरवाजा दक्षिण दिशा की ओर है तो आप इसे गहरे महरून, पेल यलो या वर्मिलियन रेड के शेड से रंग सकते है। इन सभी कलर शेड के कलर बाजार मेंं आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।
2. मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर दिशा की ओर है तो छह छड़ वाली धातु की बनी विंड चाइम लगानी चाहिए। विंड चाइम की खनखनाहट से मुख्य दरवाजे के आसपास के बुरे प्रभाव दूर हो सकते हैं। यहां बताए जा रहे वास्तु के सभी आइटम्स बाजार मेंं आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।
3. पश्चिम की ओर मुख वाले दरवाजे के लिए प्लॉट या यहां तक कि बालकनी के उत्तर-पूर्व क्षेत्र मेंं तुलसी का पौधा नकारात्मक प्रभावों को भी सकारात्मकता प्रदान कर सकता है। इसी तरह चमेंली की बेल भी सुगंध से प्रतिकूल प्रभावों को दूर करने का काम करती है।
4. दरवाजों के दोनों ओर काफी सारे हरे और लम्बे स्वस्थ पौधे लगाए जा सकते हैं जो गलत दिशा मेंं बने दरवाजे के दुष्प्रभावों को दूर करने का काम करेंगे।
5. मुख्य दरवाजे कोई पवित्र चिह्न लगाएं, जैसे ऊँ, श्रीगणेश, स्वस्तिक, शुभ-लाभ आदि। ऐसा करने पर घर पर सभी देवी-देवताओं की कृपा बनी रहती है और बुरी नजर से घर की रक्षा होती है।
6. मुख्य द्वार का मुख पूर्व या दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर है तो दरवाजे के अंदर बाएं ओर जल पात्र को पानी और फूल की पंखुडय़िों से भरकर रखें। इससे दिशा को सकारात्मक रुख देने मेंं मदद मिलेगी। वैसे वास्तु के हिसाब से पूर्व दिशा पवित्र समझी जाती है।
7. उत्तर दिशा के दरवाजे के लिए सफेद, पेल ब्लू कलर बेहतर होते हैं।
8. मुख्य दरवाजा पश्चिम दिशा की ओर मुख वाला हो तो सूर्यास्त के वक्त दुष्प्रभावों को रोकने के लिए द्वार के समीप क्रिस्टल ग्लास रखें।




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जानिए जून 2015 की शेयर मार्केट का हाल

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इस माह बृहस्पति-शुक्र युती शेयर बाजार की दिशा तय करने में मुख्य भूमिका अदा कर सकती है। वक्री शनि अभी भी कुछ क्षेत्रों में नकारात्मक प्रभाव डाले हुये है। किन्तु इस माह हस्त नक्षत्र का राहु कुछ क्षेत्रों में उछाल का कारण बन सकता है। माह के उत्तार्ध में मंगल का शत्रु राशि में गमन कुछ क्षेत्रों मुनाफा वसूली का संकेत दे रहा है। बुध एवं बृहस्पती इस माह बाजार को मजबूती देनें में सक्षम हो सकते हैं।

बैंकिंग: उच्चस्थ बृहस्पति और वृषभ के बुध से बैंकिंग के क्षेत्र में मजबूती के संकेत हैं। पीएसयू तथा प्राईवेट बैंकों में गिरावट पर खरीददारी करने की सलाह है। माह के अंतिम दशक में मुनाफा वसूली भी कर लेनी चाहिए।
मेटल: माह के पूर्वार्ध में मेटल में कुछ तेजी देखने मिलेगी, किन्तु उत्तार्ध में अथवा अंतिम सप्ताह में कुछ गिरावट हो सकती है।
पावर: माह के अंतिम दशक में पावर सेक्टर में तेजी की संभावना है, अत: गिरावट में निवेश किया जा सकता है।
क्रुड ऑयल: क्रुड में अत्याधिक उतार-चढ़ाव की स्थिति बन सकती है किन्तु इसकी मुख्य दिशा ऊपर की ओर रहने की आशा है। ऑयर गैस के शेयरों में तेजी रहने की आशा है।
टैक्टाईल: इस क्षेत्र में इस माह विशेष तेजी की संभावना है। विशेष तेजी ४-५ और १९-२१ जून को देखने को मिलेगा।
एफ.एम.सी.जी.: एफएमसीजी के क्षेत्र में इस माह तेजी रहने की उम्मीद है। गिरावट पर निवेश की सलाह है।
आईटी टेक्नोलॉजी: हस्त नक्षत्र का राहु इस माह आईटी और टेक्नोलॉजी क्षेत्र में हलचल लाने का काम कर सकती है। गिरावट पर खरीदने की सलाह है। २-३ और १९-२० को विशेष तेजी की संभावना है।
केमीकल फर्टिलाईजर: इस क्षेत्र में ९-११ जून के आस-पास अधिक खरीददारी हो सकती है। इस क्षेत्र में अत्याधिक उतार-चढ़ाव रहेगा। पीएसयू में निवेश करें।
ऑटो क्षेत्र में माह के प्रथम दशक में तेजी अथवा माह के अंतिम दशम में मंदी के आसार हैं। फार्मा और हेल्थ केयर के क्षेत्र से दूर ही रहें, इस क्षेत्र में ऊपरी स्तर पर बिकावली देखी जा सकती है। कैपिटल गुड्स और इंफ्रा का क्षेत्र इस माह मजबूत रह सकता है।

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क्‍या होता है वास्‍तु दोष, जाने कारण और निवारण

क्‍या होता है वास्‍तु दोष, जाने कारण और निवारण
वास्‍तु दोष के कई कारण होते हैं। ये किसी भी वजह से हो सकता है। अपने आस पास की भूमि के दोषों, वातावरण के साथ सामंजस्य की कमी, मकान की बनावट के दोषों, घरेलू उपकरणों को गलत जगह रखे होने आदि से उत्पन्न होते हैं। हमारा शरीर और समस्त ब्रह्माण्ड पंच महाभूतों से मिल कर बना है। महाभूतों , दिशाओं, प्राकृतिक ऊर्जाओं के तारतम्य से भवन का निर्माण होने पर जीवन में शुभता आती है और जीवन में सभी प्रकार से सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। पंचभूतों के सही समायोजन के अनुसार, दिशाओं के वास्तुनियमों के अनुसार भवन का निर्माण हमारे जीवन को, हमारे विचारों की दिशा, हमारी जीवन पद्धति और स्वास्थ्य आदि सभी भावों को पूर्णतया प्रभावित करते हैं। हम आपको बता रहे हैं वास्‍तु दोष के मुख्‍य कारण और उसके उपाय। पढ़ें और जानें...
मकान कैसी भूमि पर स्थित है ?
मकान जिस भूमि पर स्थित है, उसका आकार क्या है ?
भवन में कमरों, खिड़कियों, स्तम्भों, जल निकास व्यवस्था, मल के निकास की व्यवस्था, प्रवेश द्वार, मुख्य द्वार आदि का संयोजन किस प्रकार का है ?
भवन में प्रकाश, वायु और विद्युत चुम्कीय तरंगों के प्रवेश और निकास की क्या व्यवस्था है ?
भवन के चारों ओर अन्य इमारतें किस प्रकार बनी हुई हैं ?
भवन के किस हिस्से में परिवार का कौन सा व्यक्ति रहता है ?
भवन में किस दिशा में निर्माण सबसे भारी और किस दिशा में हल्का है ?
भवन की कौनसी दिशा ऊँची है और कौनसी नीची ?
भवन में किस दिशा में खुला स्थान है ?
इस प्रकार की सभी बातें घर के वास्तु को प्रभावित करती हैं। वास्तुशास्त्र में इन सब बातों के लिए नियम बनाए गए हैं, इनमें रहे दोष ही वास्तु दोष कहलाते हैं। भवन निर्माण में रहे वास्तु दोष जीवन में गंभीर दुष्परिणाम देते हैं।
इस प्रकार भवन से जुड़ी हर गतिविधि का प्रभाव भवन में रहने वाले व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है। इन्हीं सब व्यवस्थाओं पर जीवन निर्भर होने के कारण जीवन का हर पहलू वास्तु संबंधी कारणों से जुड़ा होता है। जीवन का हर पहलू इनसे कभी अछूता नहीं रह पाता।
भवन के निर्माण और उपयोग में रहे दोषों को ही वास्तुदोष कहा जाता है। भवन के निर्माण से पहले वास्तु पुरुष की पूजा आवयश्क रूप से की जाती है, ताकि भवन के निर्माण में रही खामियों से भवन और भवन में रहने वाले लागों के जीवन को वास्तु दोष के प्रभावों से मुक्त रखा जा सके।
वास्तु दोष के कारण होने वाले दुष्प्रभाव
आर्थिक समस्याएं – आर्थिक उन्नति न होना, धन का कहीं उलझ जाना, लाभों का देरी से मिलना, आय से अधिक व्यय होना, आवश्यकता होने पर धन की व्यवस्था ना हो पाना, धन का चोरी हो जाना आदि।
पारिवारिक समस्याएं – वैवाहिक संबंधों में विवाद, अलगाव, विवाह में विलम्ब, पारिवारिक शत्रुता हो जाना, पड़ोसियों से संबंध बिगड़ना, पारिवारिक सदस्यों से किसी भी कारण अलगाव, विश्वासघात आदि।
संतान संबंधी चिन्ताएं – संतान का न होना, देरी से होना, पुत्र या स्त्री संतान का न होना, संतान का गलत मार्ग पर चले जाना, संतान का गलत व्यवहार, संतान की शिक्षा व्यवस्था में कमियां रहना आदि।
व्यावसायिक समस्याएं – कैरियर के सही अवसर नहीं मिल पाना, मिले अवसरों का सही उपयोग नहीं कर पाना, व्यवसाय में लाभों का कम होना, साझेदारों से विवाद, व्यावसायिक प्रतिद्वन्द्विता में पिछड़ना, नौकरी आदि में उन्नति व प्रोमोशन नहीं होना, हस्तान्तरण सही जगह नहीं होना, सरकारी विभागों में काम अटकना, महत्वाकांक्षाओं का पूरा नहीं हो पाना आदि।
स्वास्थ्य समस्याएं – भवन के मालिक और परिवार जनों की दुर्घटनाएं, गंभीर रोग, व्यसन होना, आपरेशन होना, मृत्यु आदि।
कानूनी विवाद, दुर्घटनाएं, आग, जल, वायु प्रकोप आदि से भय, राज्य दण्ड, सम्मान की हानि आदि भयंकर परिणाम देखने को मिलते हैं।
वास्तुदोषों के निराकरण के लिए करते हैं वास्तु संबंधी उपकरणों की स्थापना
वास्तु संबंधी दोषों के उपचार दोषों की प्रकृति पर और उससे होने वाले परिणामों की गंभीरता पर निर्भर होते हैं। हल्के वास्तु दोषों का उपचार कम प्रयासों से संभव हो जाता है, जबकि कई बार कमियां इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उनके दुष्प्रभावों से मुक्ति के लिए बड़े बदलावों की आवश्यकता पड़ती है। वास्तु संबंधी उपचार कई प्रकार से किए जाते हैं। ये उपचार शास्त्रोक्त पद्धतियों के साथ साथ बदलते हुए परिवेश में विशेषज्ञ के अनुभवों पर भी निर्भर करते हैं।
वास्तु दोषों को शान्त करने के लिए संभवतया पहला प्रयास निर्माण संबंधी बड़ी खामियों को दूर करना होता है। इसमें भवन में आमूल चूल परिवर्तन करके दिशाओं के अनुरूप पुनः निर्माण करवाया जाता है। लेकिन ऐसा कर पाना कई बार संभव नहीं हो पाता है।
भवन की किस दिशा में किस व्यक्ति को रहना चाहिए, इसके अनुसार भवन के उपयोग में बदलाव लाकर भी वास्तु संबंधी कमियों को दूर किया जाता है। जैसे भवन के दक्षिण पश्चिम में घर के मालिक को रहना चाहिए, विवाहयोग्य संतान को उत्तर पश्चिम दिशा में।
भवन में काम में लिए जाने वाले घरेलू संसाधनों जैसे टी वी, सोफा, डाइनिंग टेबल, बेड, अलमारी आदि की दिशा बदलकर भी वास्तु संबंधी समस्याओं को दूर किया जा सकता है।
मुख्य द्वार का स्थान बदलकर भी वास्तु दोषों का निवारण किया जा सकता है।
घर में उपयुक्त पालतू पशु या पक्षी रखकर भी वास्तु दोषों से मुक्ति पायी जाती है।
उपयुक्त व शुभ वृक्षों और पौधों के सही दिशा में संयोजन से भी वास्तु दोषों के दुष्परिणाम कम होते हैं।
जल संग्रह की दिशा बदलने से वास्तु दोषों के दुष्परिणामों में बड़ी सफलता मिलती है।
भूमि की आकृतियों को सुधार कर वास्तु के बड़े दुष्परिणामों से मुक्ति मिलती है।
पूजन, हवन व यज्ञ आदि कर्मों द्वारा भवन में शुभता व सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने से भी वास्तु संबंधी दोषों के दुष्प्रभावों से मुक्ति मिलती है। ऐसी स्थिति में जब घर के निर्माण संबंधी या अन्य बदलावों से यथेच्छ परिणाम मिलने की स्थिति ना बन पाए तब वास्तु संबंधी उपकरणों की उपयुक्त दिशा में स्थापना करके वास्तु दोषों का निराकरण किया जाता है।
जल से भरे पात्रों , झरनों व चित्रों आदि की स्थापना।
वास्तुयंत्र की स्थापना
विभिन्न यंत्रों की स्थापना ( वास्तु दोषों के अनुरूप श्रीयंत्र, कुबेर यंत्रादि )
विभिन्न देवों की मूर्तियों व चित्रों की स्थापना
गणपति की मूर्तियों व चित्रों आदि की स्थापना ( वास्तु दोषों के अनुरूप विघ्न विनायक, सिद्धि दायक आदि विभिन्न मुद्राओं में )
श्री लक्ष्मी की मूर्ति व चित्रों की स्थापना ( वास्तु दोषों के अनुरूप विभिन्न मुद्राओं में )
श्री बालगोपाल की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री दुर्गा व नवदुर्गा की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री हनुमान की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री कृष्ण की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री सरस्वति की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री राम दरबार की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री शिव की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री शिव परिवार की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री लक्ष्मी गणेश की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
श्री लक्ष्मीनारायण की मूर्ति व चित्रों की स्थापना
पारिवारिक सदस्यों के सुखद चित्रों की स्थापना
सांकेतिक चित्रों की स्थापना
दिशाओं के अनुरूप रंगों का प्रयोग करके
गाय और बछड़े की शुभ आकृतियों की स्थापना
शुभ वृक्षों और पौधों की स्थापना


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