Saturday, 11 April 2015

अमन सिंह क्यों इतने ताकतवर ?

भारतीय राजस्व सेवा से संबंधित श्री अमन सिंह इंजिनियरिंग स्नातक हैं। उन्होंने डिप्टी कमिश्नर सेंट्रल एक्साईज, ऐयर कारगो काम्प्लेक्स, कस्टम तथा स्पेशल इकानोमिक जोन, नोयडा आदि विभागों में अपनी सेवाएं प्रदान की है। राजस्व विभाग की ओर से कार्य करते हुये उन्होंने ''कस्टम गेटवे परियोजना पर कार्य किया जो कि एकीकृत टैक्स प्रणाली को स्थापित करने में मील का पत्थर साबित हुई है।
वर्तमान में वे प्रमुख सचिव, मुख्यमंत्री, जनसंपर्क तथा सूचना प्रौद्योगिकी, जैव प्रौद्योगिकी व ऊर्जा विभाग के पद पर कार्य कर रहे हैं। श्री सिंह ने छत्तीसगढ़ में सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के अनेक वृहद् परियोजनाएँ यथा ई-प्रोक्योरमेंट, स्वान, डिजिटल सचिवालय तथा ई-क्लासरूम जैसी योजनाओं के अलावा अन्य सूचना प्रौद्योगिकी परियोजनाएं जैसे चॉइस, भौगोलिक सूचना प्रणाली परियोजनाओं के क्रियान्वयन में नेतृत्व किया है। राज्य में जैव प्रौद्योगिकी परियोजनाओं का भी वे नेतृत्व कर रहे हैं। उन्हें वर्ष 2007 में विश्व प्रसिध्द पत्रिका डाटा क्वेस्ट द्वारा ई-गवर्नेंस चैम्पियन अवार्ड भी प्रदान किया गया है।
मुख्यमंत्री रमन सिंह के प्रमुख सचिव अमन कुमार सिंह ''बाबूज ऑफ इंडिया डॉट कॉम नामक वेबसाइट के द्वारा देश के ताकतवर नौकरशाहों की जारी सूची में 5वें सबसे ताकतवर नौकरशाह चुने गए हैं. श्री सिंह, 10 वर्ष पूर्व डॉ. रमन सिंह के मुख्यमंत्री का पद सम्हालने के बाद भारतीय राजस्व सेवा से छत्तीसगढ़ प्रशासन में प्रतिनियुक्ति पर आए थे. तब से अब तक श्री सिंह मुख्यमंत्री के सचिव के रूप में कार्यरत हैं. श्री सिंह के पास जनसंपर्क ऊर्जा, सूचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग के भी प्रभार हैं. 1995 बैच के आईआरएस अधिकारी श्री सिंह ने 2011 में सेवानिवृत्ति ले ली थी. श्री सिंह के नेतृत्व में राज्य में ई-गव्हर्नेंस के अलावा ऊर्जा के क्षेत्र में कई नयी योजनाओं का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया जा रहा है.
तीसरी बार मुख्यमंत्री बनते ही रमन सिंह जी ने अपने कार्यकाल का पहला आदेश जारी करते हुए अमन सिंह जी को प्रमुख सचिव के पद पर पदोन्नती देते हुए उन्हें और ताकतवर बना दिया। असल में उनकी कुंडली कर्क लग्न की है जिस पर लग्रस्थ बृहस्पति उच्चस्थ है जो जातक को अत्यंत बुद्धिमान एवं दशम स्थान के राहु एवं चतुर्थ मंगल राजा के करीब तथा अत्यंत शक्तिशाली बनाता है।
वर्ष २००४ अप्रैल में शनि में मंगल का अंतर इनकी शक्तिशाली राजकीय यात्रा का प्रारंभ काल था और फिर बुध की दशा में वर्ष २०१० से २०१३, इनकी सक्रियता से सरकार तथा प्रशासन दोनों को अत्यंत लाभ हुआ। शायद रमन सरकार की तीसरी बार सत्ता पर होने में इनके दूरदर्शी प्रयास तथा जबरदस्त प्रशासनिक व्यवस्था बड़ी वजह है।
फरवरी २०१४ से शुक्र का अंतर इनकी सेहत पर असर डाल सकता है। इन्हें कॉलेस्ट्राल पर विशेष ध्यान देना चाहिए। वैसे इस दशा में अमन सिंह जी और ताकतवर होकर उभरेंगे। कुल मिलाकर आने वाला समय इनका होगा। एक बात यह भी जान लेनी चाहिए कि कर्क लग्र का बृहस्पति जातक को अत्यंत विवादों में बनाए रखता है। चूंकि गुरू षष्ठेश है अत: शत्रुओं की भी कमी नहीं रहेगी। आने वाले वर्षों में कद और पद के साथ शत्रुता का पैमाना भी बढ़ेगा।
ऐसी कोशिश करनी होगी कि वे निरापद रह सकें। पर सत्ता के आसपास साजिशें जरूरी अपरिहार्य होती हैं। जरूरत होती है सावधानी की, शेष भगवती कृपा...।

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गर्भाधारण संस्कार

हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। ग्रहस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था।गर्भधारण संस्कार: जीवन की शुरूआत गर्भ से होती है। क्योंकि यहां एक जिन्दग़ी जन्म लेती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ी अच्छी हो उनमें अच्छे गुण हो और उनका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए हम अपनी तरफ से पूरी पूरी कोशिश करते हैं। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर अंकुर शुभ मुहुर्त में हो तो उसका परिणाम भी उत्तम होता है। माता पिता को ध्यान देना चाहिए कि गर्भ धारण शुभ मुहुर्त में हो। ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि इसके अलावा षष्ठी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है।
नक्षत्र गर्भधारण के लिए उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र बहुत ही शुभ और उत्तम माने गये हैं.
तिथि ज्योतिषशास्त्र में गर्भ धारण के लिए तिथियों पर भी विचार करने हेतु कहा गया है। इस संस्कार हेतु प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथि को बहुत ही अच्छा और शुभ कहा गया है।
दिन गर्भ धारण के लिए वार की बात करें तो सबसे अच्छा वार है बुध, बृहस्पतिवार और शुक्रवार इन वारों के अलावा गर्भधारण हेतु सोमवार का भी चयन किया जा सकता है, इसे इस कार्य हेतु मध्यम माना गया है। लग्न(Ascendent) ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार गर्भ धारण के समय लग्न शुभ होकर बलवान होना चाहिएAt the time of Garbh Daharan, Ascendent is always Strong and Auspicious) तथा केन्द्र (1,4,7,10) एवं त्रिकोण (5,9) में शुभ ग्रह व 3,6,11 भावों में पाप ग्रह हो तो उत्तम रहता है। जब लग्न को सूर्य, मंगल और बृहस्पति देखता है और चन्द्रमा विषम नवमांश में होता है तो इसे श्रेष्ठ स्थिति माना जाता है।
निषेध (Nished)ज्योतिषशास्त्र कहता है कि गर्भधारण उन स्थितियों में नहीं करना चाहिए जबकि जन्म के समय चन्द्रमा जिस भाव में था उस भाव से चतुर्थ, अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो। इसके अलावा तृतीय, पंचम या सप्तम तारा दोष बन रहा हो और भद्रा दोष लग रहा हो। ज्योतिषशास्त्र के इन सिद्धान्तों का पालन किया जाए तो कुल की मर्यादा और गौरव को बढ़ाने वाली संतान घर में जन्म लेती है। गर्भाधान संस्कार सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।


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वास्तु शास्त्र का परिचय:

आदि काल से हिंदू धर्म गंथों में चुंबकीय प्रवाहों, दिशाओं, वायु प्रभाव, गुरुत्वाकर्षण के नियमों को ध्यान में रखते हुए वास्तु शास्त्र की रचना की गयी तथा यह बताया गया कि इन नियमों के पालन से मनुष्य के जीवन में सुख-शांति आती है और धन-धान्य में भी वृद्धि होती है। वास्तु वस्तुत: पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्नि इन पांच तत्वों के समानुपातिक सम्मिश्रण का नाम है। इसके सही सम्मिश्रण से 'बायो-इलेक्ट्रिक मैग्नेटिक एनर्जीÓ की उत्पत्ति होती है, जिससे मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य, धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। मानव शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है, क्योंकि मानव शरीर पंच तत्वों से निर्मित होता है और अंतत: पंच तत्वों में ही विलीन हो जाता है। जिन पांच तत्वों पर शरीर का समीकरण निर्मित और ध्वस्त होता है, वह निम्नानुसार है।
आकाश + अग्नि + वायु + जल + पृथ्वी = निर्माण क्रिया
देह या शरीर-वायु-जल-अग्नि-पृथ्वी-आकाश = ध्वंस प्रक्रिया
मस्तिष्क में आकाश, कंधों में अग्नि, नाभि में वायु, घुटनों में पृथ्वी, पादांत में जल आदि तत्वों का निवास है और आत्मा परमात्मा है, क्योंकि दोनों ही निराकार हैं। दोनों
को ही महसूस किया जा सकता है। इसी लिए स्वर महाविज्ञान में प्राण वायु आत्मा मानी गयी है और यही प्राण वायु जब शरीर (देह) से निकल कर सूर्य में विलीन हो जाती है, तब शरीर निष्प्राण हो जाता है। इसी लिए सूर्य ही भूलोक में समस्त जीवों, पेड़-पौधों का जीवन आधार है; अर्थात् सूर्य सभी प्राणियों के प्राणों का स्रोत है। यही सूर्य जब उदय होता है, तब संपूर्ण संसार में प्राणाग्नि का संचार आरंभ होता है, क्योंकि सूर्य की रश्मियों में सभी रोगों को नष्ट करने की शक्ति मौजूद है। सूर्य पूर्व दिशा में उगता हुआ पश्चिम में अस्त होता है। इसी लिए भवन निर्माण में 'ओरिएंटेशन का स्थान प्रमुख है। भवन निर्माण में सूर्य ऊर्जा, वायु ऊर्जा, चंद्र ऊर्जा आदि के पृथ्वी पर प्रभाव प्रमुख माने जाते हैं।
यदि मनुष्य मकान को इस प्रकार से बनाए, जो प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप हो, तो प्राकृतिक प्रदूषण की समस्या काफी हद तक दूर हो सकती है, जिससे मनुष्य प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों को, भवन के माध्यम से, अपने कल्याण के लिए इस्तेमाल कर सके। पूर्व में उदित होने वाले सूर्य की किरणों का भवन के प्रत्येक भाग में प्रवेश हो सके और मनुष्य ऊर्जा को प्राप्त कर सके, क्योंकि सूर्य की प्रात:कालीन किरणों में विटामिन-डी का बहुमूल्य स्रोत होता है, जिसका प्रभाव हमारे शरीर पर रक्त के माध्यम से, सीधा पड़ता है। इसी तरह मध्याह्न के पश्चात् सूर्य की किरणें रेडियधार्मिता से ग्रस्त होने के कारण शरीर पर विपरीत (खराब) प्रभाव डालती हैं। इसी लिए भवन निर्माण करते समय भवन का 'ओरिएंटेशन इस प्रकार से रखा जाना चाहिए, जिससे मध्यांत सूर्य की किरणों का प्रभाव शरीर एवं मकान पर कम से कम पड़े। दक्षिण-पश्चिम भाग के अनुपात में भवन निर्माण करते समय पूर्व एवं उत्तर के अनुपात की सतह को इसलिए नीचा रखा जाता है, क्योंकि प्रात:काल के समय सूर्य की किरणों में विटामिन डी, एफ एवं विटामिन ए रहते हैं। रक्त कोशिकाओं के माध्यम से जिन्हें हमारा शरीर आवश्यकतानुसार विटामिन डी ग्रहण करता रहे। यदि पूर्व का क्षेत्र पश्चिम के क्षेत्र से नीचा होगा, अधिक दरवाजे, खिड़कियां आदि होने के कारण प्रात:कालीन सूर्य की किरणों का लाभ पूरे भवन को प्राप्त होता रहेगा। पूर्व एवं उत्तर क्षेत्र अधिक खुला होने से भवन में वायु बिना रुकावट के प्रवेश करती रहे और चुंबकीय किरणें, जो उत्तर से दक्षिण दिशा को चलती हैं, उनमें कोई रुकावट न हो और दक्षिण-पश्चिम की छोटी-छोटी खिड़कियों से धीरे-धीरे वायु निकलती रहे। इससे वायु मंडल का प्रदूषण दूर होता रहेगा।
दक्षिण-पश्चिम भाग में भवन को अधिक ऊंचा का प्रमुख कारण तथा मोटी दीवार बनाने तथा सीढिय़ों आदि का भार भी दिशा में रखना, भारी मशीनरी, भारी सामान का स्टोर आदि भी बनाने का प्रमुख कारण यह है कि जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणी दिशा में करती है, तो वह एक विशेष कोणीय स्थिति में होती है। अत: इस क्षेत्र में अधिक भार रखने से संतुलन आ जाता है तथा सूर्य की गर्मी इस भाग में होने के कारण उससे इस प्रकार बचा भी जा सकता है। गर्मी में इस क्षेत्र में ठंडक तथा सर्दियों में गर्मी का अनुभव भी किया जा सकता है। दक्षिण-पश्चिम में कम और छोटी-छोटी खिड़कियां रखने का प्रमुख कारण है गर्मियों में ठंडक महसूस हो सके, क्योंकि भूखंड क्षेत्र के दक्षिण-पश्चिम में खुली हवा तापयुक्त हो कर सर्दियों में विशेष दबाव से कमरे में पहुंच कर कमरों को गर्म करती है। यह हवा रोशनदान एवं छोटी खिड़कियों से भवन में गर्मियों में कम ताप से युक्त अधिक मोलीक्यूबल दबाव के कारण भवन को ठंडा रखती है और साथ ही वातावरण को शुद्ध करने में सहायता पहुंचाती रहती है।
आग्नेय (दक्षिण-पूर्वी) कोण में रसोई बनाने का प्रमुख कारण यह है कि सुबह पूर्व से सूर्य की किरणें विटामिन युक्त हो कर दक्षिण क्षेत्र की वायु के साथ प्रवेश करती हैं। क्योंकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणायन की ओर करती है, अत: आग्नेयकों की स्थिति में इस भाग को अधिक विटामिन 'एफ एवं 'डी से युक्त सूर्य की किरणें अधिक समय तक मिलती रहे, तो रसोई घर में रखे खाद्य पदार्थ शुद्ध होते रहेंगे और इसके साथ-साथ सूर्य की गर्मी से पश्चिमी दीवार की नमी के कारण विद्यमान हानिकारक कीटाणु नष्ट होते रहते हैं। उत्तरी-पूर्वी भाग ईशान कोण में आराधना स्थल या पूजा स्थल रखने का प्रमुख कारण यह है कि पूजा करते समय मनुष्य के शरीर पर
अधिक वस्त्र न रहने के कारण प्रात:कालीन सूर्य की किरणों के माध्यम से शरीर में विटामिन 'डी नैसर्गिक अवस्था में प्राप्त हो जाती है और उत्तरी क्षेत्र से पृथ्वी की चुंबकीय ऊर्जा का अनुकूल प्रभाव भी पवित्र माना जाता है। अंतरिक्ष से हमें कुछ अलौकिक शक्ति मिलती रहे, इसी लिए इस क्षेत्र को अधिक खुला रखा जाता है।
उत्तर-पूर्व में आने वाले पानी के स्रोत का प्रमुख आधार यह है कि पानी में प्रदूषण जल्दी लगता है और पूर्व से ही सूर्य उदय होने के कारण सूर्य की किरणें जल पर पड़ती हैं, जिसके कारण इलेक्ट्रोमेग्नेटिक सिद्धांत के द्वारा जल को सूर्य से ताप प्राप्त होता है। उसी के कारण जल शुद्ध रहता है। दक्षिण दिशा में सिर रखने का प्रमुख कारण पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का मानव पर पडऩे वाला प्रभाव ही है। जिस प्रकार चुंबकीय किरणें उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की तरफ चलती हैं, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में जो चुंबकीय क्षेत्र हैं, वह भी सिर से पैर की तरफ होता है। इसी लिए मानव के सिर को उत्तरायण एवं पैर को दक्षिणायन माना जाता है। यदि सिर को उत्तर की ओर रखें तो चुंबकीय प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि पृथ्वी के क्षेत्र का उत्तरी ध्रुव मानव के उत्तरी पोल ध्रुव से घृणा करेगा और चुंबकीय प्रभाव अस्वीकार करेगा, जिससे शरीर के रक्त संचार के लिए उचित और अनुकूल चुंबकीय क्षेत्र का लाभ नहीं मिल सकेगा, जिससे मस्तिष्क में तनाव होगा और शरीर को शांतिमय (पूर्वक) निद्रा का अनुकूल अवस्था प्राप्त नहीं होगी। सिर दक्षिण दिशा में रखने से चुंबकीय परिक्रमा पूरी होगी और पैर उत्तर की तरफ करने से दूसरी तरफ भी परिक्रमा पूरी होने के कारण चुंबकीय तरंगों के प्रभाव में रुकावट न होने से अच्छी नींद आएगी।
चुंबकीय तरंगें उत्तर से दक्षिण दिशा को जाती हैं। अगर किसी भी मनुष्य से व्यापारिक चर्चा करनी हो, तो उत्तर की ओर मुंह कर के ही चर्चा करें। इसका प्रमुख कारण यह है कि उत्तरी क्षेत्र से चुंबकीय ऊर्जा प्राप्त
होने के कारण मस्तिष्क की कोशिकाएं तुरंत सक्रिय होने से जो शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त होती है, उससे मस्तिष्क की कोशिकाओं के माध्यम से याददाश्त बढ़ जाती है, नैसर्गिक ऊर्जा शक्ति के साथ परामर्श करने वाली मस्तिष्क की ग्रंथियां अधिक सक्षम बन जाती हैं। इसी लिए इस दिशा में की जाने वाली व्यापारिक चर्चाएं अधिक महत्व रखती हैं।
मनुष्य को चाहिए कि यदि उत्तर में मुंह कर के बैठे, तो अपने दाहिने तरफ चेक बुक आदि रखे। यदि मनुष्य मकान बनाए, तो मकान के चारों ओर खुला स्थान अवश्य रखे। खुला स्थान पूर्व एवं उत्तर दिशा में अधिक (यानी सबसे अधिक पूर्व) में, फिर उससे कम उत्तर में तथा उत्तर दिशा से भी कम दक्षिण दिशा में (और दक्षिण दिशा से भी कम) सबसे कम पश्चिम दिशा में रखे। इससे सभी दिशाओं से वायु का प्रवेश होता रहेगा। वायु का निष्कासन होने के कारण वायु मंडल शुद्ध रहता है। इससे गर्मी में भवन ठंडा एवं सर्दियों में भवन गर्म रहता है, क्योंकि वायु मंडल में अन्य गैसों के अनुपात में ऑक्सीजन की कम मात्रा होती है। यदि भवन के चारों ओर खुला स्थान है, तो मनुष्य को हमेशा आवश्यकतानुसार प्राण वायु (ऑक्सीजन) एवं चुंबकीय ऊर्जा का लाभ मिलता रहेगा।
इसके अलावा वायु मंडल और ब्रह्मांड में काफी मात्रा में अदृश्य शक्तियां एवं ऐसी ऊर्जाएं हैं, जिनको हम न देख सकते हैं और न ही महसूस कर सकते हैं तथा जिनका प्रभाव दीर्घ काल में ही अनुभव होता है। इसी को प्राकृतिक ओज (औरा) कहते हैं। जीवित मनुष्य के अंदर और उसके चारों ओर हर समय एक विशेष चुंबकीय क्षेत्र होता है। इसी विशेष चुंबकीय क्षेत्र को हम 'बायोइलेक्ट्रिक चुंबकीय क्षेत्र भी कहते हैं। इसी लिए दक्षिण-पश्चिम का भाग ऊंचा तथा पूर्व-उत्तर का भाग नीचे रखने से 'बायोमैग्नेटिक फील्ड के कारण मनुष्य के चुंबकीय क्षेत्र में कोई रुकावट नहीं आएगी। ये 'बायोइलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड वायु मंडल में वैसे तो बीस प्रकार के होते हैं, परंतु मानव शरीर के लिए चार प्रकार ही (बी. ई. एम. स.) अधिक उपयोगी माना गया है। इसी लिए वास्तु शास्त्र में इन पांच भूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं वायु- का विशेष स्थान है। मनुष्य को वास्तु शास्त्र के एक सौ पचास नियम बहुत ही बारीकी से अध्ययन कर के अपनाने चाहिएं, क्योंकि भूखंड की स्थिति एवं कोण की स्थिति जानने के बाद वास्तु शास्त्र के सभी पहलुओं का सूचारु रूप से अध्ययन कर के ही भवन निर्माण, औद्योगिक भवन, व्यापारिक संस्थान आदि की स्थापना करें। तभी लाभ मिलेगा।
आवासीय तथा व्यावसायिक भवन निर्माण करते समय यदि इन पांच तत्वों को समझ कर इनका यथोचित ध्यान रखा जाए, तो ब्रह्मांड की प्रबल शक्तियों का अद्भुत उपहार हमारे समस्त जीवन को सुखी एवं संपन्न बनाने में सहायक होंगे।

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सपनों का सच

पनों की दुनिया भी बड़ी अजीब होती है। हर इंसान अपनी जिंदगी में सपने जरूर देखता है। स्वप्न जरूरी नहीं कि अच्छे या बुरे ही हों ये कभी सुहावने तो कभी डरावनें कभी सुंदर तो कभी परेशान करने वाले कुछ भी हो सकते हैं कभी सच्चाई के करीब तो कभी बेहद काल्पनिक। किंतु सपनों का संसार विचित्र होने के साथ ही हमारे आंतरिक तथा बाह्य जीवन को प्रभावित करने वाले हो सकते हैं। स्वप्न को हर शास्त्र में अपने तरीके से परिभाषित किया गया है जिसमें जीव विज्ञान तो सपनों को सिर्फ इंसानी सोच का चमत्कार मानता है वहीं शरीर विज्ञानियों का मत है कि सपनें नीेंद में मस्तिष्क में रक्त की कमी के कारण आते हैं वहीं आध्यात्म शास्त्रियों का मत है कि स्वप्न सारे दिन की क्रियाकलापों का परिणाम होता है वहीं इंद्रिय विज्ञानानुसार सपनें पाचन शक्ति के कमजोर होने से आते हैं किंतु सपनों के प्रकारों पर इन विज्ञान द्वारा बहुत विस्तृत परिणाम नहीं निकाला जा सकता है परंतु जहॉ मनोवैज्ञानिक सपनों को स्वप्नावस्था के अवचेतन मस्तिष्क की उपज मानता है वहीं भारतीय ज्योतिष में स्वप्न को अवचेतनावस्था का ही परिणाम मानता है कि मस्तिष्क नहीं अपितु मन की अवचेतन अवस्था का। विज्ञान जहॉ मन और मस्तिष्क को एक मानता है वहीं हमारा वेद मन और मस्तिष्क को दो भिन्न स्वीकार करता है जिसमें मन के दो भाग होते हैं एक चेतन मन और दूसरा अवचेतन मन। भौतिक जगत के समस्त क्रियाकलापों चेतनमन द्वारा संचालित होते हैं वहीं पर अवचेतन मन का अधिकांश भाग सुप्तावस्था में रहता है। भारतीय ज्योतिष मानता है कि स्वप्न देखने का कार्य यहीं सुप्तावस्था का अवचेतन मन करता है। वेद में यह माना गया है कि शरीर के सभी इंद्रिय स्वतंत्र हैं तथा सभी का अलग दायित्व है किंतु सोते समय सभी इंद्रिय मन पर एकत्रित हो जाते हैं उस समय देखना, सुनना, सूंधना, स्पर्स या अन्य क्रियाएॅ शिथिल हो जाती हैं और पूरे शरीर पर सिर्फ मन का राज चलता है। चेतनमन जाग्रत अवस्था में कार्य करता है वहीं कार्य अवचेतनमन निद्रा की अवस्था में करता है। इसलिए कई बार स्वप्न सच भी होते देखे जाते हैं। वैदिक ज्योतिष के अनुसार मन पर चंद्रमा का प्रभाव होता है अर्थात् मन का कारक ग्रह है चंद्रमा। अत: यदि ज्योतिषीय गणना से देखा जाए तो किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में चंद्रमा की स्थिति देखकर उसके स्वप्न का वर्णन किया जा सकता है। चंद्रमा जिस भाव में होगा, उसके स्वप्न उस भाव से संबंधित ज्यादा होते हैं। जैसे किसी व्यक्ति का चंद्रमा चतुर्थ भाव में हो तो उसके ज्यादातर स्वप्न चतुर्थभाव से संबंधित अर्थात् माता, भूमि, मकान, सुख के साधन, वाहन, जल, तालाब, कुॅआ, समुद्र, जनसमूह, प्रेमी-प्रेमिका से संबंधित, परिवार या रिष्तेदार से संबंधित होगा यदि इससे संबंधित ग्रह प्रतिकूल होंगे तो स्वप्न भी बुरे या खराब तथा अनुकूल होने पर अच्छे या लाभकारी हो सकते हैं। साथ ही उस समय गोचर का चंद्रमा जहॉ भ्रमणषील होगा उसके अनुरूप अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति के अनुसार स्वप्न आ सकते हैं अत: कहा जा सकता है कि स्वप्न चेतन और अवचेतन मन का मिला-जुला भाव हो सकता है जोकि जीवन के चेतन और अवचेतन मस्तिष्क की स्थिति पर निर्भर करता है साथ ही कई बार स्वप्न याद रहते हैं कई बार नहीं भी याद रहते और आधे-अधूरे भी याद हो सकते हैं यह तब संभव होता है जब अवचेतन मन में कई बार चेतनमन सक्रिय हो जाता है तब तक का स्वप्न याद रह जाता है किंतु अवचेतन मन का स्वप्न याद नहीं होता किंतु आभास जरूर होता है कि मन ने कोई स्वप्न देखा था। यदि स्वप्न अनिष्ट के हों, तो जातक को चाहिए कि वह स्वप्न के बारे में किसी बुजूर्ग से इस बारे में कह दे तथा शास्त्र विहित शांति करावें। अथवा किसी वेदपाठी ब्राम्हण से आशिर्वाद लें ले तो बुरे स्वप्नों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत यदि स्वप्न उत्तम हों तो अपना स्वप्न किसी से ना कहें और पुन: सोये नहीं, उठकर शंकरजी का अभिषेक कर लें तो उत्तम स्वप्न सिद्ध हो जाते हैं। स्वप्न का समय भी स्वप्न की सिद्धि को तय करता है, अर्थात् रात्रि 03 बजे से सूर्योदय के पूर्व के स्वप्न सात दिन में मध्य रात्रि के स्वप्न एक मास में मध्य रात्रि से पूर्व के स्वप्न एक वर्ष में फ ल प्रदान करते हैं। दिन के स्वप्न महत्वहीन तथा एक रात में एक से अधिक स्वप्न दृष्ट हों तो अंतिम स्वप्न ही फलदायी होता है।

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जितात्मन: प्रशांतस्य

जन्म-मरण मन की चंचलता और आसक्ति का फल है। दु:ख-क्लेश का मूल है, मन की चंचलता और आसक्ति। गीता में अर्जुन कहता है श्रीकृष्ण से:
चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़:।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्कर:।।
हे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए इसको वश में करना वायु की भाँति अति दुष्कर मानता हूँ।
तब श्री कृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
हे महाबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास से अर्थात् स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से मन वश में होता है। (गीता: 6.34.35)
ज्यों-ज्यों मन शांत होता जायेगा, त्यों-त्यों उसमें परमात्मा का सुख उभरता जायेगा। ज्यों-ज्यों मन अनासक्त होगा, त्यों-त्यों मन परमात्म-प्रेम में पावन होता जायेगा।
आलस्य को भगाने के लिए परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता के विचार सहायक हैं। ऐसे ही कामुकता को दूर
करने के लिए ब्रह्मचर्य के विचार, मातृभावना, पवित्रता एवं संयम के विचार, विकारों के परिणाम के विचार करना मददरूप बनता है। क्रोध को भगाना हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति, सज्जनता, उदारता एवं आत्मभाव के विचार सहायक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, निराशा-हताशा, आलस्य आदि आत्मसुख को लूटने वाले विकार हैं।
विकारों की जगह पर निर्विकारता ले आओ। आपका जीवन सुखमय हो जायेगा,
आनंदमय हो जायेगा, मधुमय हो जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अगर तुम्हें इसी जीवन में अपने जीवनदाता स्वभाव को पाना है, सारे दु:खों से सदा के लिए छूटना तो...
जितात्मन: प्रशांतस्य परमात्मा समाहित:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:।।
जिसने अपने-आप पर विजय कर ली है, वह शीत-उष्ण अर्थात् अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहने वाला शरीर के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता वरन् शरीर पर उसका प्रभाव बढ़ जाता है। दु:ख और सुख मन को होता है। दु:ख-सुख में जो सम रहता है, वह मन के प्रभाव से दबता नहीं और वह मन का स्वामी होने में सफल हो जाता है। मान-अपमान की गाँठ बुद्धि को होती है, यह समझकर जो उससे परे हो जाता है, उसे मान-अपमान प्रभावित नहीं कर सकते। जैसे, भगवान का प्रभाव प्रकृति पर पड़ता है वैसे ही इस जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा का प्रभाव शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ जाये तो जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न हो जाये।
अगर मन पर अपना प्रभाव पड़ा तो वासनाएँ शांत होने लगेंगी और अपने चित्त में परमात्मा से दूरी की जो भ्रांति है, वह दूर हो जायेगी। फिर अपने ही मन में परमात्मा का सुख, परमात्मा का वैभव, परमात्मा का आनंद और परमात्मा का माधुर्य उभरने लगेगा। जैसे, बादल के हटने पर सूर्य दिखता है अथवा तो शीतकाल में आकाश स्वच्छ होता है, वैसे ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक प्रभावों से ज्यों-ज्यों अपने को दूर करता जायेगा, त्यों-त्यों अपना साफ-सुथरा आत्मसुख, आत्मवैभव प्रगट होता जायेगा। धनबल, जनबल, बा-हुबल और बुद्धिबल इन सारे बलों को जहाँ से बल मिलता है वह है आत्मवैभव। अगर आत्मवैभव मिल गया तो
बाकी के वैभव तुम्हारे दास होने लगेंगे, बाकी के वैभव फिर तुम्हें आसक्त नहीं कर पायेंगे।
जैसे, व्यक्ति दूसरों को सुधारने के लिए तत्पर होता है, शत्रु का दोष बड़ी तत्परता से खोज निकालता है, ऐसे ही अपनी कमजोरियाँ खोज निकाले तो वह महापुरुष बन जायेगा।
बुद्ध के सत्संग में सत्संगी आते थे, बुद्धिमान, संयमी भिक्षु भी आते थे और आम आदमी भी आते थे। बुद्ध ने सत्संग पूरा किया। आम आदमी तो चल दिये लेकिन एक किशोर और कुछ साधक भिक्षु बैठे रहे। उस किशोर ने बुद्ध से प्रश्न किया: ''भन्ते ! सबसे छोटा आदमी कौन है?ÓÓ
वह किशोर बड़ा धीर-गम्भीर, शांत, चंचलतारहित चित्तवाला लग रहा था। बुद्ध ने उसका प्रश्न सुना और वे गंभीर हो गये। बच्चे का प्रश्न बढिय़ा था। बुद्ध तनिक देर के लिए अपने-आपमें आ गये, फिर बोले:
''सबसे छोटा आदमी वह है जो केवल अपने लिये ही सोचता है, जो केवल अपने स्वार्थ में ही मशगूल रहता है। जो केवल अपने लिये ही जीता है, वह सबसे छोटा व्यक्ति है।
ज्यों-ज्यों सोच का दायरा, विचार का दायरा व्यापक होता जायेगा, त्यों-त्यों व्यक्ति बड़ा होता जायेगा। दूसरों के दु:ख हरने में और दूसरों के चित्त में सुख भरने में, दूसरों की अशांति हरने में एवं शांति भरने में जितना-जितना चित्त मशगूल होगा उतना-उतना चित्त चैतन्य के साथ तदाकार होता जायेगा और दूसरों का दु:ख हरने का सामर्थ्य आता है दु:खहारी श्रीहरि में गोता मारने से। जरा-जरा बात में, जरा सी शारीरिक सुविधा-असुविधा से प्रभावित मत हो, मानसिक सुख-दु:ख से प्रभावित मत हो और बुद्धिगत मान-अपमान से भी प्रभावित मत हो, क्योंकि असुविधाएँ तुम्हं,
डराकर डरपोक बना देंगी और सुविधाएँ तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देंगी। सुख तुम्हें आसक्त करके खोखला कर देगा और दु:ख तुम्हारे अंत:करण को अशुद्ध कर देगा।
भगवान कहते हैं- जितात्मन: प्रशांतस्य। आप प्रशांत रहो। अशांत नहीं, शांत नहीं वरन् प्रशांत रहो अर्थात् सुव्यस्थित शांत रहो। शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक चाहे कोई भी प्रतिकूलता आये या अनुकूलता, आप प्रशांतात्मा रहो, जितात्मा रहो। ज्यों-ज्यों आप जितात्मा होंगे, त्यों-त्यों आपका जीवन सशक्त होगा, निखरेगा और आप सफलता के उन शिखरों पर पहुँच जायेंगे, जहाँ पहुँचना साधारण आदमी के लिए असाध्य है, दुर्लभ है। श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी को कि: शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:। शीत और उष्ण ये दो शब्द कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने तमाम शारीरिक सुविधा-असुविधाओं से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है। ?सुख-दु:ख? ये दो शब्द कहकर मानसिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है और मान-अपमान ये दो शब्द कहकर बौद्धिक प्रभावों से अप्रभावित रहने की प्रेरणा दी है ताकि आपका अपना दिव्य स्वभाव प्रगट हो सके।
अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आयें तो तुम उनमें फँसो मत, नहीं तो वे तुम्हें ले डूबेंगी। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक तीनों ही प्रभावी से अगर थोड़े-से सावधान हो गये तो योगी का योग सफल होने लगेगा, तपी का तप सफलता की सुवास बिखरेगा, ध्यानी का ध्यान सफल होने लगेगा, भक्त की भक्ति सफल होने लगेगी और जपी का जप भी आत्मरस प्रगटने में सफल हो जायेगा।
जो दुनिया की ''तू-तू... मैं-मैं से प्रभावित नहीं होता, जो दुनियादारों की निंदा-स्तुति से प्रभावित नहीं होता और जो दुनिया के सुख-दु:ख से प्रभावित नहीं होता, वह दुनिया को हिलाने में अवश्य सफल हो जाता है।
सुविधा-असुविधा, यह इन्द्रियों का धोखा है, सुख-दु:ख, यह मन की वृत्तियों का धोखा है और मान-अपमान यह बुद्धिवृत्ति का स्वाभाव अर्थात् स्व का भाव। परभाव नहीं। सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, मान-अपमान आदि परभाव हैं क्योंकि ये शरीर, मन और बुद्धि के हैं, हमारे नहीं। सर्दी आयी तब भी हम थे, गर्मी आयी तब भी हम हैं। सुख आया तब भी हम थे और दु:ख आया तब भी हम थे। अपमान आया तब भी हम थे और मान आया तब भी हम हैं। हम पहले भी थे, अब भी हैं और बाद में भी रहेंगे। अत: सदा रहने वाले अपने इसी 'स्वभाव में जागो।
शरीर की अनुकूलता और प्रतिकूलता, मन के सुखाकार और दु:खाकार भाव, बुद्धि के रागाकार और द्वेषाकार भाव इनको आप सत्य मत मानिये। ये तो आऩे जाने वाले हैं, बनने-मिटने वाले हैं, बदलने वाले हैं लेकिन अपने स्वभाव को जान लीजिये तो काम बन जायेगा। जितना-जितना आदमी जाने-अनजाने 'स्व के भाव में होता है उतना-उतना वह परिस्थितियों के प्रभाव से अप्रभावित रहता है और जितना वह अप्रभावित रहता है उतना ही उसका प्रभाव परिस्थितियों पर पड़ता है।

फरवरी महीने का मास फल

यह मास माघ शुक्ल 2 शनिवार से आरम्भ होकर फाल्गुन कृष्ण 14 शुकवार तक रहेगा। ता. 1 को चन्द्रदर्शन शनि वासरी है अत: आगे किसी राज्य की सरकार भंग व अन्न के भावों में तेजी का संकेत। रुई, सूत, वस्त्र, सोना, चांदी, गेहूं सरसों, मूंगफली के भावों में अच्छी तेजी। अनाजों के भावों में घटाबढ़ी से तेजी। ता. 4 तुला राशि के भौम योग से रुई, सूत, सन, कपास, बाट, बारदाना, गुड़, खाण्ड, गेहूं, मूंग, मटर, बाजरा के भावों में तेजी। रुख देखें, सतर्कता से कार्य करें, अच्छी तेजी का योग। पाट, हेसियन शेयर्स बाजार सुस्त रहेगा। रुई में मन्दी, चांदी के भावों में तेजी का झटका। ता. 12 कुम्भ संकान्ति बुध वासरी है अत: लोंग, इलाइची, जीरा, काली मिर्च, इमली, अनारदाना, गेहूं, जौ, चना, मटर, रुई, चौपाये पशुओं के भावों में मन्दी। मक्का, ज्वार, बाजरा, सूत के भाव तेजी लेकर गिर जायेगे। तांबा, लोहा, जस्ता, पीतल, तिल, तेल, सुर्ख रंग के भाव घटाबढ़ी से समता को बल देंगे। सोना, चांदी, बिनौला में घटाबढ़ी व पत्थर क्या मूर्तियों के भाव में तेजी। यहां मन्दी हुई वस्तु का संग्रह करें दो मास पश्चात अच्छी तेजी में विकय कर लाभ लें।
ता. 1 4 माधी पूर्णिमा आश्लेषा युवत है अत: बाजारों में तेजी का रुख ही रहेगा। ता. 19 शतभिषा के सूर्य से दो सप्ताह के अन्तर्गत सोना, चांदी, सूत, सन, कपास, तिल, तेल, एरण्ड, सरसों, हींग, जायफल, छुहारा, सांठ, हल्दी, गेहूं, गुड़ के भावों में तेजी का योग। ता. 21 क्या. के शुक से गुड़, खाण्ड, सोना, चांदी, अलसी, एरण्ड के भावों में मन्दी। अनाजों के भावों में तेजी, रुई के भाव घटाबढ़ी से तेज। ता. 25 मकरैबुध से रुई, सूत, सोना, चांदी के भावों में तेजी। सभी चुनिंदा अनाजों के भाव मध्यम, प्राकृतिक प्रकोप से खड़ी फसल में हानि, प्रजा में असन्तोष, बन्द, आन्दोलन, प्रदर्शनों की वृद्धि, वाक् युद्ध।


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