Monday, 13 April 2015

वास्तु शास्त्र के अनुसार रसोईघर


हमारे घर में किचन किस दिशा में स्थित है, वह कौन सा कोण बना रहा है और वह वास्तु के अनुरूप है कि नहीं। क्या कारण है कि घर में सबकुछ है पर शांति नहीं, संतोष नहीं। वैसे आप को बता दें कि घर की खुशहाली किचन से ही होकर निकलती है, सो आज हम आपको बताते हैं कैसी होनी चाहिए आपके किचन का वास्तु:
हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग वास्तु शास्त्र पूर्ण रूप से प्रकृति की लाभकारी ऊर्जा पर आधारित वैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों पर आधारित है। प्राकृतिक ऊर्जा एवं पंचतत्वों के प्रभाव का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही हमारे ऋषि-मुनियों ने वास्तु शास्त्र के सूत्रों की रचना मानव जाति के कल्याण की मूलभूत भावना से की थी, जिनका लाभ मनुष्य आज हजारो वर्षों के बाद भी आसानी से प्राप्त कर सकता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार पाकशाला (रसोईघर/ किचन) का प्रावधान, अत्यन्त सूक्ष्म परीक्षणों के पश्चात ही घर की दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा में किया गया। पूर्व से प्राप्य अवरक्त तथा दक्षिण से प्राप्य पराबैंगनी किरणों का उचित सामंजस्य, दक्षिण-पूर्व स्थित रसोई में न सिर्फ वहां प्रात:काल से लेकर मध्याह्न (भोजन बनाने का समय) तक स्वास्थ्यप्रद प्रकाश एवं ऊर्जा प्रदान करता है बल्कि पाकशाला में आसानी से फैल सकने वाले कीटाणुओं, वायरस, सीलन एवं दुर्गन्ध से भी रक्षा करता है। पूर्व एवं उत्तर दिशा की खिड़कियों से तैलीय गन्ध एवं धुंआ भी बगैर घर के अन्य भागों को प्रभावित किये आसानी से बाहर निकल जाते हैं।
वस्तुत: किचन दक्षिण-पूर्व के अलावा कुछ अन्य दिशाओं में भी आसानी से बनाया जा सकता है एवं वहां ऊर्जा के उचित प्रवाह के माध्यम से सम्पूर्ण लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) के अलावा मध्य दक्षिण एवं वायव्य के किचन भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाते हैं बशर्ते वहां की अन्य व्यवस्था वास्तु नियमों के अनुसार की गई हो। रसोईघर आपके घर का पावर हाऊस है, जहां गृहिणी का अधिकांश समय बीतता है एवं वहाँ बने भोजन को परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करते हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके तन तथा मन पर पड़ता है एवं वास्तु अनुरूप रसोईघर में बने भोजन से तन एवं मन स्वस्थ तथा प्रसन्न रहते हैं, तो धन भी भला पीछे कैसे रह सकता है?
आग्नेय कोण: इस कोण में रसोईघर होना काफी शुभ माना जाता है। इससे घर की महिलाएं प्रसन्न रहती हैं और सभी तरह के सुखों का घर में वास होता है।
नैत्रत्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामिनी उत्साहित एंव उर्जायुक्त रहती है।
वायव्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामी आशिक मिजाज होता है। मालिक की बदनामी का भी भय रहता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से रूबरू होना पड़ सकता है।
ईशान कोण: इस कोण में रसोईघर होने से पारिवारिक सदस्यों को कोई खास सफलता नहीं मिलती है और घर में क्लेश रहने की संभावना बनी रहती है।
कौन सी दिशा सही है रसोईघर के लिए:
रसोईघर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दिशा दक्षिण-पूर्व होती है। अत: इस दिशा में रसोई घर के निर्माण से घर में शान्ति और समृद्धि बनी रहती है
रसोई वास्तु के अनुसार: किचन की ऊँचाई 10 से 11 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए। यदि 4-5 फीट में किचन की ऊँचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कभी भी किचन से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। किचन के बाजू में बोर, कुआँ, बाथरूम बनवाना अवाइड करें, सिर्फ वाशिंग स्पेस दे सकते हैं।
रसोई को घर के आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण) में बनाना चाहिए क्योंकि इसे ही अग्नि का स्थान माना गया है। यहां रसोई होने से अग्नि देव नित्य प्रदीप्त रहते हैं और घर का संतुलन बना रहता है। किंतु, इससे यह भी देखा गया है कि अक्सर दिन में तीन या उससे अधिक बार भोजन बनता है यानी खर्च बना ही रहता है। ऐसे में एकदम अग्निकोण को छोड़कर पूर्व की ओर रसोई बनाएं। यदि पूर्व की रसोई बनी हुई हो तो चूल्हे को थोड़ा पूर्व की ओर खिसका दें। चूल्हा इस तरह लगाएं कि सिलेंडर भी उसके एकदम नीचे रहे। रसोई तैयार करते समय मुख की स्थिति पूर्व में रहनी चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि यदि रसोई के दक्षिण में एग्जॉस्ट फैन हो तो व्यय की संभावना रहती है। ऐसे में पूर्व की दीवार पर एग्जॉस्ट फैन लगाना चाहिए। रसोई बन जाने के बाद भोजन कभी घर के ब्रह्मस्थान पर बैठकर नहीं करें। न ही वहां पर झूठा डालें।
अगर आपके घर का रसोईघर वास्तु के नियमानुसार नहीं है एवं उसके प्रतिकूल परिणाम आपको प्राप्त हो रहे हैं एवं किचन की स्थिति या घर बदलना सम्भव नहीं है, तो डरने या घबड़ाने की जरूरत नहीं है। वास्तु की सहायता से आप आसानी से अधिकांश वास्तु-दोष बिना किसी तोड़-फोड़ के सुधार सकते हैं।

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छत्तीसगढ़ का खजुराहो- भोरमदेव



रायपुर से करीब 100 किमी दूर है कवर्धा जो आजकल कबीरधाम जिला कहलाता है। यहां से 17 किमी दूर है घने जंगलों के बीच बेहद खुबसूरत घाटी में एक सुन्दर सरोवर के किनारे बना है भोरमदेव का मंदिर। यहां करीब एक मड़वा महल मंदिर भी है। वहां से प्राप्त शिलालेख में नागवंशी राजाओं के वंशवृक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। मड़वा महल मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचंद्र ने करवाया था। राजा रामचंद्र का विवाह हैहैयवंशी राजकुमारी अंबिकादेवी से हुआ था। मड़वा महल मंदिर में मिथुन मूर्तियां उकेरी गई है। इन मिथुन मूर्तियों की खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों से तुलना की जाती है।
भोरमदेव मंदिर के मण्डप में प्रतिष्ठित एक योगी की मूर्ति पर उत्कृठ लेख यह मंदिर छठे नागवंशी राजा गोपालदेव द्वारा बनाया गया। दुर्लभ शिल्पकला और नागर शैली कलाकृतियों का ये अनूठा और सुन्दर उदाहारण है। पूर्वाभिमुख मंदिर के तीन प्रवेश द्वार है। तीनों द्वार पर तीन अध्र्द मण्डप और बीच में वर्गाकार मण्डप अंत में गर्भगृह निर्मित है। द्वार के दोनों ओर शिव की त्रिभंग मूर्तियां सुशोभित है। ललाट बिंब पर तप मुद्रा में द्विभुजीय नागराज जिसके शिरोभाग में पंच फन है, आसीन है। प्रवेश द्वार शाखा, लता, बेलों से अलंकृत है। बीच का वर्गाकार मण्डप 16खंभों पर टिका है। स्तंभों की चौकी उल्टे विकसित कमल के समान है। जिस पर बने कीचक याने भारवाहक छत के भार को थामे हुए है। मण्डप की छत पर सहस्त्र दल कमल देखने लायक है।
गर्भगृह मण्डप के धरातल से लगभग डेढ़ मीटर बना है। यहां बीचोबीच विशाल शिवलिंग बना है। शिवलिंग के ठीक उपर मण्डप के समान सहस्त्र दल कमल बना हुआ है। यहां पंचमुख नाग प्रतिमा, नृत्य गणेश की अष्टभुजीय प्रतिमा, तपस्यारत योगी, आसनस्थ उपासक दंपति की प्रतिमाऐं गर्भगृह की दीवार के पास पूजा के लिये रखी गई है।
भोरमदेव मंदिर का क्रमश: संकरा होता अलंकृत गोलाकार शिखर आज कलश विहीन है। शेष भाग अपने मूलरूप में स्थित है। मंदिर के दक्षिण द्वार पर लगे शिलालेख के अनुसार 16वीं सदी मे रतनपुर के शासक ने आक्रमण कर इसका कलश तोड़ दिया और विजय के प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये।
भोरमदेव मंदिर का शिखर समूचे छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में प्रकाश के लिये पूर्व दिशा में शिखर के नीचे अलंकरणयुक्त गवाक्ष बना हुआ है। मंदिर के बाहर की दीवारें अलंकरणयुक्त है। इसमें देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ मिथुन के अनेक दृश्य तीन पंक्तियों में सुन्दर कलात्मक कलाओं के साथ बनी है। यहां मिथुन मूर्तियां बहुत है। अप्सरायें और सुर सुंदरियों की विभिन्न मुद्राओं में अंगड़ाई लेती हुई जीवंत नजर आती है। मिथुन मूर्ति में सहज मैथुन के अलावा कुछ काल्पनिक और अप्राकृतिक मैथुन का भी अंकन है। ये मूर्तियां जहां सृष्टि के विकास का संकेत है तो दैहिक और आत्मिक समरसता का संदेश देती है।
भोरमदेव की मूर्तियों में गीत, वाद्य और नृत्य, संगीत की तीनों विधाओं के दृश्य महत्वपूर्ण है। सामने का सरोवर काफी बड़ा है और उसमें हमेशा नीले गुलाबी कमल खिले रहते है। यहां बोटिंग का भी इंतजाम है। चारों ओर पहाडिय़ों से घिरे भोरमदेव मंदिर में अद्भुत शांति मिलती है। घने जंगलों से घिरी पहाडिय़ों के बीच कुछ गांव ऐसे भी है जहां ठंड में एक दो बार बर्फ पड़ जाती है। भोरमदेव से कुछ किमी आगे राष्ट्रीय उद्यान कान्हा किसली भी है जो बंटवारे में मध्यप्रदेश के हिस्से चला गया।
मंदिर की खासियत: यह मंदिर चंदेलों द्वारा बनाये गए खजुराहो के मंदिरों की शैली से बना है। मंदिर वास्तु और शिल्प दोनों ही रूप में कला का एक उत्कृष्ट उदहारण है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन स्तरों में विभिन्न प्रकार की मूर्तियों को उकेरा गया है जिनमें शिव की लीलाओं, विष्णु के विभिन्न अवतारों और अन्य देवी देवताओं की कई मूर्तियां शामिल हैं। दीवारों पर नृत्य करते नायक, नायिकाओं, योद्धाओं, काम-कलाओं को प्रदर्शित करते युगलों का बेहद कलात्मक ढंग से अंकन किया गया है। दीवारों की काम-कला की मूर्तियों की तुलना खजुराहो की मूर्तियों से की जाती है जिस कारण इस मंदिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो भी कहा जाता है।
कौन हैं भोरम देव? यह मंदिर एक शिव मंदिर है, स्थानीय गोंड समाज में कुल देवता को बूढ़ादेव, बड़ादेव या भोरमदेव कहा जाता है, इसीलिए इस मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा।
भोरमदेव मंदिर का निर्माण एक सुंदर और विशाल सरोवर के किनारे किया गया है, जिसके चारों और फैली पर्वत श्रृंखलाएं और हरी-भरी घाटियां पर्यटकों का मन मोह लेती हैं। भोरमदेव मंदिर मूलत: एक शिव मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि शिव के ही एक अन्य रूप भोरमदेव गोंड समुदाय के उपास्य देव थे। जिसके नाम से यह स्थल प्रसिद्ध हुआ। नागवंशी शासकों के समक्ष यहां सभी धर्मों के समान महत्व प्राप्त था जिसका जीता जागता उदाहरण इस स्थल के समीप से प्राप्त शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन प्रतिमाएं हैं।
भोरमदेव मंदिर की स्थापत्य शैली चंदेल शैली की है और निर्माण योजना की विषय वस्तु खजुराहो और सूर्य मंदिर के समान है जिसके कारण इसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो के नाम से भी जानते हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन समानांतर क्रम में विभिन्न प्रतिमाओं को उकेरा गया है जिनमे से प्रमुख रूप से शिव की विविध लीलाओं का प्रदर्शन है। विष्?णु के अवतारों व देवी देवताओं की विभिन्न प्रतिमाओं के साथ गोवर्धन पर्वत उठाए श्रीकृष्ण का अंकन है। जैन तीर्थकरों की भी अंकन है। तृतीय स्तर पर नायिकाओं, नर्तकों, वादकों, योद्धाओं मिथुनरत युगलों और काम कलाओं को प्रदर्शित करते नायक-नायिकाओं का भी अंकन बड़े कलात्मक ढंग से किया गया है, जिनके माध्यम से समाज में स्थापित गृहस्थ जीवन को अभिव्यक्त किया गया है। नृत्य करते हुए स्त्री पुरुषों को देखकर यह आभास होता है कि 11वीं-12वीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र में नृत्यकला में लोग रुचि रखते थे। इनके अतिरिक्त पशुओं के भी कुछ अंकन देखने को मिलते हैं जिनमें प्रमुख रूप से गज और शार्दुल (सिंह) की प्रतिमाएं हैं। मंदिर के परिसर में विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमाएं, सती स्तंभ और शिलालेख संग्रहित किए गए हैं जो इस क्षेत्र की खुदाई से प्राप्त हुए थे। इसी के साथ मंदिरों के बाई ओर एक ईंटों से निर्मित प्राचीन शिव मंदिर भी स्थित है जो कि भग्नावस्था में है। उक्त मंदिर को देखकर यह कहा जा सकता है कि उस काल में भी ईंटों से निर्मित मंदिरों की परंपरा थी।
अन्य स्थल:
छेरकी महल: भोरमदेव मंदिर के पास ही छेरकी महल है, यह भी शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ था। स्थानीय बोली में बकरी को छेरी कहा जाता है इसलिए यह मान्यता है कि यह मंदिर बकरी चराने वालों को समर्पित है। इस मंदिर की खासियत है कि इसके पास जाने पर बकरियों के शरीर से आने वाली गंध आती है। पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया है।
मड़वा महल: भोरमदेव मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम के निकट एक अन्य शिव मंदिर स्थित है जिसे मड़वा महल या दूल्हादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। उक्त मंदिर का निर्माण 1349 ईसवी में फणीनागवंशी शासक रामचंद्र देव ने करवाया था। उक्त मंदिर का निर्माण उन्होंने अपने विवाह के उपलक्ष्य में करवाया था। हैहयवंशी राजकुमार अंबिका देवी से उनका विवाह संपन्न हुआ था। मड़वा का अर्थ मंडप से होता है जो कि विवाह के उपलक्ष्य में बनाया जाता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर 54 मिथुन मूर्तियों का अंकन अत्यंत कला?मकता से किया गया है जो कि आंतरिक प्रेम और सुंदरता को प्रदर्शित करती है।
कवर्धा महल: इटैलियन मार्बल से बना कवर्धा महल बहुत सुन्दर है। इसका निर्माण महाराजा धर्मराज सिंह ने 1936-39 ई. में कराया था। यह महल 11 एकड़ में फैला हुआ है। महल के दरबार के गुम्बद पर सोने और चांदी से नक्काशी की गई है। गुम्बद के अलावा इसकी सीढिय़ां और बरामदे भी बहुत खूबसूरत हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। इसके प्रवेश द्वार का नाम हाथी दरवाजा है, जो बहुत सुन्दर है।
राधाकृष्ण मन्दिर: इस मन्दिर का निर्माण राजा उजीयार सिंह ने 180 वर्ष पहले कराया था। प्राचीन समय में साधु-संत मन्दिर के भूमिगत कमरों में कठिन तपस्या किया करते थे। इन भूमिगत कमरों को पर्यटक आज भी देख सकते हैं। मन्दिर के पास एक तालाब भी बना हुआ है। इसका नाम उजीयार सागर है। तालाब के किनारे से मन्दिर के खूबसूरत दृश्य दिखाई देते हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं।
राधाकृष्ण मन्दिर के अलावा पर्यटक यहां पर मदन मंजरी महल मन्दिर भी देख सकते हैं। भोरमदेव माण्डवा महल और मदन मंजरी महल मन्दिर पुष्पा सरोवर के पास स्थित हैं। इन दोनों मन्दिरों के निर्माण में मुख्य रूप से मार्बल का प्रयोग किया गया है। सरोवर के किनार पर्यटक चहचहाते पक्षियों को भी देख सकते हैं।
लोहारा बावली: कवर्धा की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित लोहारा बावली बहुत खूबसूरत है। बैजनाथ सिंह ने इसका निर्माण 120 वर्ष पहले कराया था। मानसून आने से पहले गर्मी से निजात पाने के लिए कवर्धा के शासक इन कमरों में रहते थे।
भोरमदेव छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। जनजातीय संस्कृति, स्थापत्य कला और प्राकृतिक सुंदरता से युक्त भोरमदेव देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। प्रत्येक वर्ष यहां मार्च के महीने में राज्य सरकार द्वारा भोरमदेव उत्सव का आयोजन अत्यंत भव्य रूप से किया जाता है। जिसमें कला व संस्कृति के अद्भुत दर्शन होते हैं।
कंकालीन-बैजलपुर से एक किलोमीटर दूर बफेला-देवसरा में आठवी शताब्दी की जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ भगवान की काले ग्रेनाइट की कलात्मक प्रतिमा भी उत्खनन में प्राप्त हुई हैं जो पंडरिया के जैन मंदिर में प्रस्थापित है। इस प्रतिमा को स्थानीय बैगा आदिवासी मंत्रित मानते हैं और इसकी पूजा भी करते हैं। तामेश्वरनाथ मंदिर संत कबीर नगर जनपद मुख्यालय खलीलाबाद से मात्र सात कि.मी. की दूरी पर स्थित देवाधिदेव महादेव बाबा तामेश्वरनाथ मंदिर (तामेश्वरनाथ धाम) की महत्ता अन्नत (आदि) काल से चली आ रही है।
जनश्रुति के अनुसार यह स्थल महाभारत काल में महाराजा विराट के राज्य का जंगली इलाका रहा। यहां पांडवों का वनवास क्षेत्र रहा है और अज्ञातवास के दौरान कुंती ने पांडवों के साथ यहां कुछ दिनों तक निवास किया था। इसी स्थल पर माता कुंती ने शिवलिंग की स्थापना की थी, यह वही शिवलिंग है।
यही वह स्थान है जहां कऱीब ढाई हज़ार वर्ष पूर्व दुनिया में बौद्ध धर्म का संदेश का परचम लहराने वाले महात्मा बुद्ध ने मुण्डन संस्कार कराने के पश्चात अपने राजश्री वस्त्रों का परित्याग कर दिया था। भगवान बुद्ध के यहां मुण्डन संस्कार कराने के नाते यह स्थान मुंडन के लिए प्रसिद्ध है। महाशिव रात्रि पर यहां भारी संख्या में लोग यहां अपने बच्चों का मुंडन कराने के लिए उपस्थित होते है।

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बुध ग्रह की शांति के उपाय:


बुध ग्रह की शांति के उपाय:
* बुध के लिए उपासना का समय सूर्योदय से 2 घंटे तक भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। बुध के मूल मंत्र का सवेरे 5 घटी के अंदर पाठ करें। 9,000 या 16,000 पाठ 40 दिन में करें।
* मंत्र: उॅ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम:
* दान-द्रव्य: पन्ना, सोना, कांसी, मूंग, खांड, घी, हरा कपड़ा, सभी फूल, हाथी दांत, कपूर, शस्त्र, फल।
* बुधवार का व्रत करना चाहिए। विष्णु भगवान का पूजन करना चाहिए।
1. छेद वाले तांबे के सिक्के जल में प्रवाहित करें
2. सटटेबाजी में पैसा ना लगाए
3. गाय को हरा चारा खिलाये
4. बुधवार को गरीब लड़कियों को भोजन व हरा कपड़ा दें
5. बुध के दिन हरे रंग की साड़ी का दान करे
6. उॅ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: तथा सामान्य मंत्र बुं बुधाय नम: है
7. बुधवार के दिन हरे रंग के आसन पर बैठकर उत्तर दिशा की तरफ मुख करके बुध मंत्र का जाप करें,
8. माँ दुर्गा की आराधना करे।

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बुध ग्रह

बुध एक ऐसा ग्रह है जो सूर्य के सानिध्य में ही रहता है। जब कोई ग्रह सूर्य के साथ होता है तो उसे अस्त माना जाता है। यदि बुध भी 14 डिग्री या उससे कम में सूर्य के साथ हो, तो उसे अस्त माना जाता है। लेकिन सूर्य के साथ रहने पर बुध ग्रह को अस्त होने का दोष नहीं लगता और अस्त होने से परिणामों में भी बहुत अधिक अंतर नहीं देखा गया है। बुध ग्रह कालपुरुष की कुंडली में तृतीय और छठे भाव का प्रतिनिधित्व करता है। बुध की कुशलता को निखारने के लिए की गयी कोशिश, छठे भाव द्वारा दिखाई देती है। जब-जब बुध का संबंध शुक्र, चंद्रमा और दशम भाव से बनता है और लग्न से दशम भाव का संबंध हो, तो व्यक्ति कला-कौशल को अपने जीवन-यापन का साधन बनाता है। जब-जब तृतीय भाव से बुध, चंद्रमा, शुक्र का संबंध बनता है तो व्यक्ति गायन क्षेत्र में कुशल होता है। अगर यह संबंध दशम और लग्न से भी बने तो इस कला को अपने जीवन का साधन बनाता है। इसी तरह यदि बुध का संबंध शनि केतु से बने और दशम लग्न प्रभावित करे, तो तकनीकी की तरफ व्यक्ति की रुचि बनती है। कितना ऊपर जाता है या कितनी उच्च शिक्षा ग्रहण करता है, इस क्षेत्र में, यह पंचम भाव और दशमेश की स्थिति पर निर्भर करता है। पंचम भाव से शिक्षा का स्तर और दशम भाव और दशमेश से कार्य का स्तर पता लगता है। बुध लेख की कुशलता को भी दर्शाता है। यदि बुध पंचम भाव से संबंधित हो, और यह संबंध लग्नेश, तृतीयेश और दशमेश से बनता है, तो संचार माध्यम से जीविकोपार्जन को दर्शाता है और पत्रकारिता को भी दर्शाता है। मंगल से बुध का संबंध हो और दशम लग्न आदि से संबंध बनता हो और बृहस्पति की दृष्टि या स्थान परिवर्तन द्वारा संबंध बन रहा हो, तो इंसान को वाणिज्य के कार्यों में कुशलता मिलती है।
चंद्रमा के पुत्र होने तथा बृहस्पति द्वारा पुत्र माने जाने के कारण स्वयं के गुणधर्म के अतिरिक्त बुध पर इन दोनों ग्रहों का प्रभाव भी स्पष्टत: देखने को मिलता है। चन्द्रमा और बृहस्पति के आशीर्वाद के कारण ही बुध के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषय विस्तृत हैं। गंधर्वराज के पुत्र होने के कारण जहाँ ललित-कलाओं पर बुध का अधिकार है वहीं बृहस्पति के प्रभाव से विद्या, पाण्डित्य, शास्त्र, उपासना आदि बुध के प्रमुख विषय बन जाते हैं। अभिव्यक्ति की क्षमता बुध ही दे सकते हैं। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में सफलता के लिए जिस प्रस्तुतिकरण की आवश्यकता होती है वह सिर्फ बुध ही दे सकते हैं। अन्य ग्रह जैसे चन्द्रमा, शुक्र, बृहस्पति, कला, विद्या, कल्पनाशक्ति प्रदान कर सकते हैं परन्तु यदि जन्मपत्रिका में बुध बली न हों तो अपनी प्रतिभा का आर्थिक लाभ उठाने की कला से व्यक्ति वंचित रहता है। वाणी बुध एवं बृहस्पति दोनों का विषय है परन्तु जहाँ वाणी में ओजस्विता बृहस्पति का क्षेत्र है, वहीं वाक्चातुर्य एवं पटुता बुध का ही आशीर्वाद है। स्पष्ट है कि सही समय पर, सही जवाब या कार्य के लिए बुद्धि में जिस पैनीधार की आवश्यकता होती है वह बुध की कृपा से ही प्राप्त होती है।
बुध से जुड़ा सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण धर्म है अनुकूलनशीलता हर हाल में खुद को ढाल लेना सिर्फ बुध प्रधान व्यक्ति ही कर सकता है। अनुकूलनशीलता का ही दूसरा रूप सामंजस्य भी है। बुध प्रधान व्यक्ति की शिकायत करते शायद ही सुनने को मिलें। बुध प्रधान व्यक्ति में इनकी अवस्था के अनुरूप ही एक छोटा बच्चा सदा जीवित रहता है, जो हंसना, खेलना चाहता है, जिंदादिल रहना और जिंदगी के हर पल को भरपूर जीना चाहता है। ज्योतिषीय परिपेक्ष्य में देखें तो बुध का वर्गीकरण नैसर्गिक शुभ या अशुभ ग्रह के रूप में नहीं किया गया है। वे जिस ग्रह के साथ बैठते हैं या प्रभाव क्षेत्र में होते हैं, उसी के अनुरूप आचरण करते हैं परन्तु अपनी पहचान नहीं खोते हैं, जो इनकी मुख्य विशेषता है। सूर्य के साथ युति करके बुधादित्य योग बनाते हैं। सूर्य की ऊर्जा लेकर बुध जहाँ एक ओर बुद्धि को प्रखर करते हैं वहीं दूसरी ओर अनुशासन लेकर इन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं। यद्यपि चन्द्रमा के प्रति बुध के मन में नाराजगी है तथापि बुध का हास्य-विनोद, चन्द्रमा के साथ से निखर उठता है। चन्द्रमा की कल्पनाशक्ति और उडान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति इस युति में मिल सकती है। मंगल के साथ बुध की युति होने पर बुध की वणिक बुद्धि अत्यधिक जाग्रत हो जाती है और इस युति को यदि शुक्र की अमृत दृष्टि मिल जाए तो उच्चकोटि का धन योग बनता है। बुध और बृहस्पति की युति अद्भुत है। वाणी, बुद्धि, ज्ञान, संगीत से जुड़ी नैसर्गिक प्रतिभा उसमें विद्यमान रहती है अर्थात् व्यक्तित्व में संपूर्णता होती है और व्यक्ति उसे अधिक से अधिक निखारने के लिए प्रयासरत रहता है। यह योग लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को पाने की इच्छा देता है। बुध, शुक्र के साथ मिलकर लगभग ऐसे ही परिणाम देते हैं। शनि के साथ मिलकर बुध, शनि के कठोर श्रम के गुण को अपनाकर ज्ञान और कला की वृद्धि का प्रयास करते हैं परन्तु यदि शनि ग्रह का ठण्डापन भी इस युति पर हावी हो जाता है तो निराशाजनक सोच जन्म लेती है। सीखने की गहरी ललक बुध की कृपा से ही आती है। बुध बालक हैं और एक बच्चो में ही सीखने की इच्छा सबसे तीव्र होती है। जन्मकुण्डली में बुध शक्तिशाली हों तो यह इच्छा सदा बनी रहती है। अभिव्यक्ति और मनोरंजन का मिश्रित रूप (दूसरों की आवाज आदि की नकल करना) की कला है जो बुध की कृपा से ही संभव है। बुध गणितज्ञ हैं और लाभ के लिए जोड-तोड भी बिठा ही लेते हैं। बुध की कृपा से व्यक्ति सुलझी हुई गणित करके गुणा-भाग के साथ जोखिम उठाता है, और यही सफलता की कँुजी भी है।
बुध ग्रह को भगवान विष्णु का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। इसीलिए धन, वैभव आदि का संबंध बुध से है। बुध की दिशा उत्तर है तथा उत्तर दिशा कुबेर का स्थान भी है। वास्तु-योजना में उत्तर दिशा को तिजोरी के लिए प्रशस्त बताया गया है। कार्यालयों में लेखाकार व कैशियर के लिए प्रशस्त स्थान उत्तर दिशा को ही बताया गया है। चूंकि बुध, बुद्धि के कारक हैं अत: अपराध का स्वरूप और हथियार इसी के अनुरूप हो जाते हैं। इंटरनेट के माध्यम से होने वाले अपराध, कागजों में की जाने वाली हेरा-फेरी आदि प्रतिकूल बुध से ही होते हैं। इस प्रकार बुध विद्या रूपी वह शक्तिपुंज है जो सकारात्मक हो जाएं तो ज्ञान, संगीत, ललितकलाएं, मार्केटिंग, वाणी कौशल, लेखन आदि क्षेत्रों में उन्नति देते हैं परंतु यदि नकारात्मक हो जाएं तो व्यक्ति अपराध के रास्ते खोज लेता है जिसकी कल्पना भी दूसरे नहीं कर सकते। इंटरनेट पर नासा की वेबसाइट को या इंटरनेट बैंकिंग में किसी के खाते को क्रेक करना नकारात्मक बुध के कारण ही संभव है। जन्मपत्रिका में बुध का शुभ होना या शुभ ग्रहों के प्रभाव में होना एक वरदान है।



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ज्योतिष में बुध गृह


बुध चंद्रमा तथा तारा या रोहिणी का पुत्र कहलाता है। बुध को माल और व्यापारियों का स्वामी और रक्षक माना जाता है। बुध हल्के स्वभाव के, सुवक्ता और एक हरे वर्ण वाले कहलाते हैं। उन्हें कृपाण, फऱसा और ढाल धारण किये हुए दिखाया जाता है और सवारी पंखों वाला सिंह बताते हैं। एक अन्य रूप में इन्हें राजदण्ड और कमल लिये हुए उडऩे वाले कालीन या सिंहों द्वारा खींचे गए रथ पर आरूढ दिखाया गया है।
बुध का राज बुधवार दिवस पर रहता है। बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुया। इला से प्रसन्न होकर मित्रावरुण ने उसे अपने कुल की कन्या तथा मनु का पुत्र होने का वरदान दिया। कन्या भाव में उसने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह करके पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया। तदुपरान्त वह सुद्युम्न बन गयी और उसने अत्यन्त धर्मात्मा तीन पुत्रों से मनु के वंश की वृध्दि की जिनके नाम इस प्रकार हैं- उत्कल, गय तथा विनताश्व।
बुध का उद्भव: चंद्रमा के गुरु थे देवगुरु बृहस्पति। बृहस्पति की पत्नी तारा चंदमा की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी। तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास भी कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया। बृहस्पति के वापस बुलाने पर उसने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में दैत्य गुरु शुक्राचार्य चंद्रमा की ओर हो गये और अन्य देवता बृहस्पति के साथ हो लिये। अब युद्ध बड़े स्तर पर होने लगा। क्योंकि यह युद्ध तारा की कामना से हुआ था, अत: यह तारकाम्यम कहलाया। इस वृहत स्तरीय युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि ये कहीं पूरी सृष्टि को ही लील न कर जाए, तो वे बीच बचाव कर इस युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे। उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चंद्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंपा। इस बीच तारा के एक सुंदर पुत्र जन्मा जो बुध कहलाया। चंद्र और बृहस्पति दोनों ही इसे अपना बताने लगे और स्वयं को इसका पिता बताने लगे यद्यपि तारा चुप ही रही। माता की चुप्पी से अशांत व क्रोधित होकर स्वयं बुद्ध ने माता से सत्य बताने को कहा। तब तारा ने बुध का पिता चंद्र को बताया।
बुध का जीवन: नक्षत्र मण्डलों में बुध का स्थान बुध मण्डल में है। चंद्र ने बालक बुध को रोहिणी और कृत्तिका नक्षत्र-रूपी अपनी पत्नियों को सौंपा। इनके लालन पालन में बुध बड़ा होने लगा। बड़े होने पर बुध को अपने जन्म की कथा सुनकर शर्म व ग्लानि होने लगी। उसने अपने जन्म के पापों से मुक्ति पाने के लिये हिमालय में श्रवणवन पर्वत पर जाकर तपस्या आरंभ की। इस तप से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उसे दर्शन दिये। उसे वरदान स्वरूप वैदिक विद्याएं एवं सभी कलाएं प्रदान की। एक अन्य कथा के अनुसार बुध का लालन-पालन बृहस्पति ने किया व बुध उनका पुत्र कहलाया।
ज्योतिष रूप: ज्योतिष शास्त्र में बुद्ध को एक शुभ ग्रह माना जाता है। किसी हानिकर या अशुभकारी ग्रह के संगम से यह हानिकर भी हो सकता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार सूर्य और शुक्र, बुध के मित्र ग्रह हैं तथा बुध, चन्द्रमा को अपना शत्रु मानता है। बुध शनि, मँगल व गुरु से सम सम्बन्ध रखता है। बुध मिथुन व कन्या राशि का स्वामी है। बुध कन्या राशि में 15 अंश से 20 अंश के मध्य होने पर अपनी मूलत्रिकोण राशि में होता है। बुध कन्या राशि में 15 अंश पर उच्च स्थान प्राप्त करता है। बुध मीन राशि में होने पर नीच राशि में होता है। बुध को पुरुष व नपुंसक ग्रह माना गया है तथा यह उत्तर दिशा का स्वामी हैं। बुध का शुभ रत्न पन्ना है। यह ग्रह बुद्धि, बुद्धिवर्ग, संचार, विश्लेषण, चेतना (विशेष रूप से त्वचा), विज्ञान, गणित, व्यापार, शिक्षा और अनुसंधान का प्रतिनिधित्व करता है। सभी प्रकार के लिखित शब्द और सभी प्रकार की यात्राएं बुध के अधीन आती हैं।
बुध तीन नक्षत्रों का स्वामी है- अश्लेषा, ज्येष्ठ, और रेवती (नक्षत्र)। हरे रंग, धातु, पीतल और रत्नों में पन्ना बुद्ध की प्रिय वस्तुएं हैं। इसके साथ जुड़ी दिशा उत्तर है, मौसम शरद ऋतु और तत्व पृथ्वी है। बुध से प्रभावित जातक हंसमुख, कल्पनाशील, काव्य, संगीत और खेल में रुचि रखने वाले, शिक्षित, प्रतिभावान, गणितज्ञ, वाणिज्य में पटु और व्यापारी होते हैं। वे बहुत बोलने वाले और अच्छे वक्ता होते हंै। वे हास्य, काव्य और व्यंग्य प्रेमी भी होते हैं। इन्हीं प्रतिभाओं के कारण वे अच्छे सेल्समैन और मार्केटिंग में सफल होते हैं। इसी कारण वे अच्छे अध्यापक और सभी के प्रिय भी होते हैं और सभी से सम्मान पाते हैं। बुध बहुत सुंदर हैं। इसलिए उन्हें आकाशीय ग्रहों में राजकुमार की उपाधि प्राप्त है। उनका शरीर अति सुंदर और छरहरा है। वह ऊंचे कद गोरे रंग के हैं। उनके सुंदर बाल आकर्षक हैं वह मधुरभाषी हैं। बुध, बुद्धि, वाणी, अभिव्यक्ति, शिक्षा, शिक्षण, गणित, तर्क, यांत्रिकी ज्योतिष, लेखाकार, आयुर्वेदिक ज्ञान, लेखन, प्रकाशन, नृत्य-नाटक, और निजी व्यवसाय का कारक है। बुध मामा और मातृकुल के संबंधियों का भी कारक है।
बुध मस्तिष्क, जिह्वा, स्नायु तंत्र, कंठ -ग्रंथि, त्वचा, वाक-शक्ति, गर्दन आदि का प्रतिनिधित्व करता है। यह स्मरण शक्ति के क्षय, सिर दर्द, त्वचा के रोग, दौरे, चेचक, पिश्र, कफ और वायु प्रकृति के रोग, गूंगापन, उन्माद जैसे विभिन्न रोगों का कारक है।

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कब प्रारंभ करें मकान बनवाना ?


कब प्रारंभ करें मकान बनवाना ?
शुक्ल पक्ष मेंं करें गृह निर्माण: वास्तुशास्त्र मेंं प्राचीन मनीषियों ने सूर्य के विविध राशियों पर भ्रमण के आधार पर उस माह मेंं घर निर्माण प्रारंभ करने के फलों की विवेचना की है।
1. मेष राशि मेंं सूर्य होने पर घर बनाना प्रारंभ करना अति लाभदायक होता है।
2. वृषभ राशि मेंं सूर्य संपत्ति बढऩा, आर्थिक लाभ
3. मिथुन राशि मेंं सूर्य गृह स्वामी को कष्ट
4. कर्क राशि मेंं सूर्य धन-धान्य मेंं वृद्धि
5. सिंह राशि का सूर्य यश, सेवकों का सुख
6. कन्या राशि का सूर्य रोग, बीमारी आना
7. तुला राशि का सूर्य सौख्य, सुखदायक
8. वृश्चिक राशि का सूर्य धन लाभ
9. धनु राशि का सूर्य हानि, विनाश
10. मकर राशि का सूर्य धन, संपत्ति वृद्धि
11. कुंभ राशि का सूर्य रत्न, धातु लाभ
12. मीन राशि का सूर्य चौतरफा नुकसान
घर बनाने का प्रारंभ हमेशा शुक्ल पक्ष मेंं करना चाहिए। फाल्गुन, वैशाख, माघ, श्रवण और कार्तिक माहों मेंं शुरू किया गया गृह निर्माण उत्तम फल देता है।
वर्जित: मंगलवार व रविवार, प्रतिपदा, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी, अमावस्या तिथियाँ, ज्येष्ठा, रेवती, मूल नक्षत्र, वज्र, व्याघात, शूल, व्यतिपात, गंड, विषकुंभ, परिध, अतिगंड, योग - इनमेंं घर का निर्माण या कोई जीर्णोद्धार भूलकर भी नहीं करना चाहिए अन्यथा घर फलदायक नहीं होता।
अति शुभ योग: शनिवार, स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न, शुक्ल पक्ष, सप्तमी तिथि, शुभ योग और श्रावण मास ये सभी यदि एक ही दिन उपलब्ध हो सके, तो ऐसा घर दैवी आनंद व सुखों की अनुभूति कराने वाला होता है।
घर किस नगर, मोहल्ले मेंं बनवाना शुभ है। इस हेतु तीन विधियों से विचार करने का मत हमारे प्राचीन वास्तुशास्त्रियों ने दिये हैं-
नक्षत्र विधि: सर्वप्रथम अपने जन्म नक्षत्र का ज्ञान करें जो कि जन्मकुंडली से जाना जा सकता है और यदि जन्मकुंडली न हो तो जो प्रचलित नाम हो उसके प्रथम अक्षर से ज्ञात कर लें। इसी प्रकार जिस नगर, ग्राम, मोहल्ले मेंं घर बनवाना हो उसका भी नक्षत्र नाम के प्रथम अक्षर के अनुसार जान लें। अब ग्राम, नगर, मोहल्ले की नक्षत्र संख्या से अपने जन्म नक्षत्र की संख्या तक गिनें और फल इस प्रकार जानें यदि- संख्या फल 1 से 5 लाभदायक, 6से 8धन हानि, 9 से 13 समृद्धि धन लाभ, यश, 14 से 19 पत्नीकष्ट, हानि, विवाह सुख का अभाव 20 अंग भंग 21 से 24 सुखदायक, संपति से बढ़ोश्ररी 25 कष्टकारक तथा भयकारक 26कष्टकारी, शोककारी 27 ग्राम, नगर, मोहल्ले वालों से बैर इसमेंं अभिजित को संज्ञान मेंं लिया गया है। उदाहरण- माना कि आपका नाम मनमोहन सिंह तथा आप दिल्ली मेंं घर बनवाना चाहते हैं तो उपरोक्त विधि से विचार करने पर दिल्ली का नक्षत्र है पूर्वाभाद्रपद जिसकी नक्षत्र संख्या 25 है तथा नाम नक्षत्र मघा की नक्षत्र संख्या 10 है नगर नक्षत्र से नाम नक्षत्र तक गणना करने पर 13 अंक आ रहा है विवरण अनुसार यह अंक आपके लिए समृद्धि, धन लाभ एवं लाभ कारक है। अर्थात शुभ है।
वर्ग विचार विधि: इस विधि मेंं अपना तथा ग्राम, नगर, मोहल्ले का नाम लेने का विधान है। इस विधि मेंं यह विचारा जाता है कि अपना नाम एवं ग्राम, नगर, मोहल्ले का नाम किस वर्ग मेंं है। किस अक्षर का किस अक्षर तक क्या वर्ग है उसका विवरण इस प्रकार है- अक्षर वर्ग अ से अं तक अ वर्ग में जिसका स्वामी गरुण। क से ड. तक क वर्ग में जिसका स्वामी बिल्ली। च से ञ तक च वर्ग जिसका स्वामी सिंह। ट से ण तक ट वर्ग जिसका स्वामी श्वान। त से न तक त वर्ग का स्वामी सांप। प से म तक प वर्ग का स्वामी चूहा। य से व तक य वर्ग जिसका स्वामी हिरन। श से ह तक श वर्ग का स्वामी बकरी। अपने नाम की वर्ग संख्या को दो से गुणा कर उसमेंं नगर, ग्राम, मोहल्ले आदि वर्ग संख्या जोड़ दें फिर इसमेंं आठ का भाग दें।
अब नगर, ग्राम, मोहल्ले की वर्ग संख्या को दूना करके उसमेंं अपने वर्ग की संख्या जोड़ दें। अब यदि ग्राम, नगर, मोहल्ले की संख्या कम और नाम अधिक है तो यह ग्राम, नगर, मोहल्ला आपके 4, 8, 12 होने पर स्वास्थ्य की दृष्टि से शुभ नहीं है। घर किस ग्राम/नगर/मोहल्ले मेंं बनवाना है निश्चित हो जाने के बाद प्रश्न यह उठता है कि घर स्थान के किस भाग मेंं बनवाया जाये। राशि के अनुसार वृष, मकर, सिंह, मिथुन राशि के जातकों को बीच मेंं, वृश्चिक राशि वालों को पूर्व मेंं, मीन वाले को पश्चिम मेंं, तुला वालों को वायव्य मेंं, उत्तर दिशा मेंं मेष वालों को तथा कुंभ वालों को ईशान दिशा मेंं घर बनवाना चाहिए।

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घर सुख संबंधी मुख्य ज्योतिषीय सिद्धांत:


घर सुख संबंधी मुख्य ज्योतिषीय सिद्धांत:
1. चतुर्थ स्थान मेंं शुभ ग्रह हों तो घर का सुख उत्तम रहता है।
2. चंद्रमा से चतुर्थ मेंं शुभ ग्रह होने पर घर संबंधी शुभ फल मिलते हैं।
3. चतुर्थ स्थान पर गुरु-शुक्र की दृष्टि उच्च कोटि का गृह सुख देती है।
4. चतुर्थ स्थान का स्वामी 6, 8, 12 स्थान मेंं हो तो गृह निर्माण मेंं बाधाएँ आती हैं। उसी तरह 6, 8, 12 भावों मेंं स्वामी चतुर्थ स्थान मेंं हो तो गृह सुख बाधित हो जाता है।
5. चतुर्थ स्थान का मंगल घर मेंं आग से दुर्घटना का संकेत देता है। अशांति रहती है।
6. चतुर्थ मेंं शनि हो, शनि की राशि हो या दृष्टि हो तो घर मेंं सीलन, बीमारी व अशांति रहती है।
7. चतुर्थ स्थान का केतु घर मेंं उदासीनता देता है।
8. चतुर्थ स्थान का राहु मानसिक अशांति, पीड़ा, चोरी आदि का डर देता है।
9. चतुर्थ स्थान का अधिपति यदि राहु से अशुभ योग करे तो घर खरीदते समय या बेचते समय धोखा होने के संकेत मिलते हैं।
10. चतुर्थ स्थान का पापग्रहों से योग घर मेंं दुर्घटना, विस्फोट आदि के योग बनाता है।
11. चतुर्थ स्थान का अधिपति 1, 4, 9 या 10 मेंं होने पर गृह-सौख्य उच्च कोटि का मिलता है।
उपरोक्त संकेतों के आधार पर कुंडली का विवेचन कर घर खरीदने या निर्माण करने की शुरुआत की जाए तो लाभ हो सकता है। इसी तरह पति, पत्नी या घर के जिस सदस्य की कुंडली मेंं गृह-सौख्य के शुभ योग हों, उसके नाम से घर खरीदकर भी कई परेशानियों से बचा जा सकता है।
गुरु का योग घर बनाने वाले कारकों से होता है तो रहने के लिये घर बनता है । शनि का योग जब घर बनाने वाले कारकों से होता है तो कार्य करने के लिये घर बनने का योग होता है जिसे व्यवसायिक स्थान भी कहा जाता है। बुध किराये के लिये बनाये जाने वाले घरों के लिये अपनी सूची बनाता है तो मंगल कारखाने और डाक्टरी स्थान आदि बनाने के लिये अपनी अपनी तरह से बल देता है। लेकिन घर बनाने के लिये मुख्य कारक शुक्र का अपना बल देना भी मुख्य है।
वर्षफल के हिसाब से शुक्र जब राहु, केतु के सम्बन्ध से अछूता हो और शुभ ग्रहों के साथ बैठा हो तो मकान ही मकान बनवायेगा लेकिन जब केवल राहु, केतु के साथ हो तो मकान बनने से बर्बाद होगा और हानि देगा। पुष्य नक्षत्र से शुरू कर इसी नक्षत्र मेंं पूर्ण किया मकान अति उत्तम होता है तथा पूर्ण होने पर मकान की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
शुभ लग्न मेंं शुरू किये मकान के लिए निम्न सावधानियां जरूरी हैं:
कोने: जमीन के टुकड़ों को एक गिन उस के कोने देखें। चार कोने वाला (90 डिग्री) का मकान सर्वोत्त्म है, आठ कोनो वाला मातमी या बीमारी देने वाला, अठारह कोनों वाला हो तो सोना, चांदी देने वाला होता है। तीन या तेरह कोनों वाला हो तो भाई बन्धुओं को मौतें, आग, फांसी देने वाला होता है। पांच कोनों वाला हो तो सन्तान का दुख व बरबादी, मध्य से बाहर या मछली की पेट की तरह उठा हुआ मकान हो तो खानदान घटेगा यानी दादा तीन, बाप दो, स्वयं अकेला और नि:सन्तान होता है।
दीवारें: कोने देखने के बाद, मकान बनाने के पहले दीवारों का क्षेत्रफल और नींव छोड़कर हरेक हिस्सा या कमरे का अंदरूनी क्षेत्रफल अलग-अलग देखा जाए तो जातक (मालिक मकान) के अपने हाथों का क्षेत्रफल भी देखा जाए। उस का हाथ चाहे 18,19 या 17 इंच का हो पैमाना उस के हाथ की लम्बाई का हो।
मुख्य द्वार: 1 पूर्व मेंं उत्तम, नेक व्यक्ति आए जाए, सुख हो। 2 पश्चिम मेंं दूसरे दर्जे का उत्तम। 3 उत्तर मेंं नेक, लम्बे सफर, पूजा पाठ नेक कार्य के लिए आने जाने का रास्ता जो परलोक सुधारे। 4 दक्षिण मेंं हानिकारक, मौत की जगह।
निम्न सावधानियां रखें नया मकान बनवाते समय:
हमारे ग्रंथ पुराणों आदि मेंं वास्तु एवं ज्योतिष से संबंधित गूढ़ रहस्यों तथा उसके सदुपयोग सम्बंधी ज्ञान का अथाह समुद्र व्याप्त है जिसके सिद्धान्तों पर चलकर मनुष्य अपने जीवन को सुखी, समृद्ध, शक्तिशाली और निरोगी बना सकता है।
सुखी परिवार अभियान मेंं वास्तु एक स्वतंत्र इकाई के रूप मेंं गठित की गयी है और उस पर श्रेष्ठ वातावरण और परिणाम के लिए वास्तु के अनुसार जीवनशैली और ग्रह का निर्माण अति आवश्यक है। इस विद्या मेंं विविधताओं के बावजूद वास्तु सम्यक उस भवन को बना सकते हैं, जिसमेंं कि कोई व्यक्ति पहले से निवास करता चला आ रहा है। वास्तु ज्ञान वस्तुत: भूमि व दिशाओं का ज्ञान है।
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ज्योतिष और मकान का सुख


घर का सुख देखने के लिए मुख्यत: चतुर्थ स्थान को देखा जाता है। फिर गुरु, शुक्रऔर चंद्र के बलाबल का विचार प्रमुखता से किया जाता है। जब-जब मूल राशि स्वामी या चंद्रमा से गुरु, शुक्र या चतुर्थ स्थान के स्वामी का शुभ योग होता है, तब घर खरीदने, नवनिर्माण या मूल्यवान घरेलू वस्तुएँ खरीदने का योग बनता है। व्यक्ति के जीवन पुरुषार्थ, पराक्रम एवं अस्तित्व की पहचान उसका निजी मकान है। महंगाई और आबादी के अनुरूप हर व्यक्ति को मकान मिले यह संभव नहीं है। आधी से ज्यादा दुनिया किराये के मकानों मेंं रहती है। कुछ किरायेदार, जबरदस्ती मकान मालिक बने बैठे हैं। कुछ लोगों को मकान हर दृष्टि से फलदायी है। कोई टूटे-फूटे मकानों मेंं रहता है तो कोई आलिशान बंगले का स्वामी है। सुख-दुख जीवन के अनेक पहलुओं पर मकान एक परमावश्यकता बन गई है।
जन्मपत्री मेंं भूमि का कारक ग्रह मंगल है। जन्मपत्री का चौथा भाव भूमि व मकान से संबंधित है। चतुर्थेश उच्च का, मूलत्रिकोण, स्वग्रही, उच्चाभिलाषी, मित्रक्षेत्री शुभ ग्रहों से युत हो या शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो अवश्य ही मकान सुख मिलेगा।
साथ ही मंगल की स्थिति का सुदृढ़ होना भी आवश्यक है। मकान सुख के लिये मंगल और चतुर्थ भाव का ही अध्ययन पर्याप्त नहीं है। भवन सुख के लिये लग्न व लग्नेश का बल होना भी अनिवार्य है। इसके साथ ही दशमेंश, नवमेंश और लाभेश का सहयोग होना भी जरूरी है।

1. स्वअर्जित भवन सुख (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- लग्नेश चतुर्थ स्थान मेंं हो चतुर्थेश लग्न मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्म लेने वाला जातक पराक्रम व पुरुषार्थ से स्वयं का मकान बनाता है।

2. उत्तम ग्रह योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश किसी शुभ ग्रह के साथ युति करे, केंद्र-त्रिकोण (1,4,7,9,10) मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति को अपनी मेहनत से कमाये रुपये का मकान प्राप्त होता है। मकान से सभी प्रकार की सुख सुविधायें होती है।

3. अकस्मात घर प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और लग्नेश दोनों चतुर्थ भाव मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- अचानक घर की प्राप्ति होती है। यह घर दूसरों का बनाया होता है।

4. एक से अधिक मकानों का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ स्थान पर चतुर्थेश दोनों चर राशियों मेंं (1,4,7,10) हो। चतुर्थ भाव के स्वामी पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो एक से अधिक मकान प्राप्ति के योग बनते हैं।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति के अलग-अलग जगहों पर मकान होते हैं। वह मकान बदलता रहता है।

5 वाहन, मकान व नौकर सुख योग (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- नवमेंश, दूसरे भाव मेंं और द्वितीयेश नवम भाव मेंं परस्पर स्थान परिवर्तन करें तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्मेंं जातक का भाग्योदय 12वें वर्ष मेंं होता है। 32वें वर्ष के बाद जातक को वाहन, मकान और नौकर-चाकर का सुख मिलता है।

6. बड़े बंगले का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव मेंं यदि चंद्र और शुक्र हो अथवा चतुर्थ भाव मेंं कोई उच्च राशिगत ग्रह हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।

7. बिना प्रयत्न प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- लग्नेश व सप्तमेंश लग्न मेंं हो तथा चतुर्थ भाव पर गुरु, शुक्र या चंद्रमा का प्रभाव हो।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा, जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।

8. बिना प्रयत्न ग्रह प्राप्ति का दूसरा योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव का स्वामी उच्च, मूल त्रिकोण या स्वग्रही हो तथा नवमेंश केंद्र मेंं हो तो ये योग बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को बिना प्रयत्न के घर मिल जाता है।

9. ग्रहनाश योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश के नवमांश का स्वामी 12वें चला गया हो तो, यह दोष बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को अपनी स्वयं की संपत्ति व घर से वंचित होना पड़ता है।

10. उत्तम कोठी योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और दशमेंश एक साथ केंद्र त्रिकोण मेंं हो तो उत्तम व श्रेष्ठ घर प्राप्त होता है।
परिणाम- कोठी, बड़ा मकान व संपत्ति प्राप्ति होती है।

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यकृत रोग क्या है


यकृत कार्यकरण: यकृत शरीर के अत्यंत महत्वपूर्ण अंगों मेंं से है। यकृत की कोशिकाएँ आकार मेंं सूक्ष्मदर्शी से ही देखी जा सकने योग्य हैं, परंतु ये बहुत कार्य करती हैं। एक कोशिका इतना कार्य करती हैं कि इसकी तुलना एक कारखाने से (क्योंकि यह अनेक रासायनिक यौगिक बनाती है), एक गोदाम से (ग्लाइकोजन, लोहा और बिटैमिन को संचित रखने के कारण), अपशिष्ट निपटान संयंत्र से (पिपततवर्णक, यूरिया और विविध विषहरण उत्पादों को उत्सर्जित करने के कारण) और शक्ति संयंत्र से (क्योंकि इसके अपचय से पर्याप्त ऊष्मा उत्पन्न होती है) की जा सकती है।
पित्ताशय उस पित्त को सांद्र और संचित करता है, जो उसमेंं यकृतवाहिनी और पित्ताशय वाहिनी द्वारा प्रविष्ट होता है। जब उदर और आँतों मेंं पाचन होता रहता है, तब पिताशय संकुचित होता है, जिससे सांद्रित पित्तग्रहणी मेंं निष्कासित हो जाता है। यकृत समस्त प्राणियों मेंं पाचन संबंधी समस्त क्रियाएं, शरीर मेंं रक्त की आपूर्ति के साथ शारीरिक पोषण का मुख्य आधार है। यकृत की रक्चचाप से लेकर अन्य सभी क्रियाओं के जिए जिम्मेंदार होता है। यकृत के क्षतिग्रस्त हो जाने पर जीवन असंभव हो जाता है।
जिगर की बीमारी के कारण: जिगर की विफलता के रोगों के रूप मेंं विल्सन रोग, हेपेटाइटिस (यकृत शोथ), जिगर कैंसर, क्रोनिक जिगर की सूजन (यकृत चयापचय गतिविधि मेंं परिवर्तन कर सकते हैं और अगर यह एक लंबे समय के लिए प्रभावित हो तो इसके हानिकारक प्रभाव से पूरा शरीर प्रभावित होता है।
यकृत रोग कुछ दवाओं या अल्कोहल लंबे समय से अधिक लेने से। कभी कभी लंबे समय से अधिक रोगग्रस्त जिगर, सिकुड़ा हुआ हो से हो जाता है। हैपेटाइटिस, यकृत की सूजन है। हेपेटाइटिस वायरस (ए, बी और सी) की तरह जनित वायरस के कारण होता है।
यकृत रोग के प्रकार: शराब से संबंधित जिगर की बीमारी, विष प्रेरित जिगर की बीमारी है। अगर एक लंबी अवधि के दौरान बहुत अधिक शराब सेवन किया जाए तो लीवर रोग हो जाता है। शराब से संबंधित तीन प्रकार की बीमारी हो सकती है-वसायुक्त जिगर की बीमारी, हेपेटाइटिस और अंत मेंं सरोसिस हो सकता है।
शराब से संबंधित सूजन परिवर्तन और अंत मेंं अपरिवर्तनीय ऊतक या सिरोसिस के बाद यकृत पर वसा जमने के रूप मेंं जिगर की बीमारी शुरू होती है। हेपेटाइटिस जिगर की क्षति सूजन के रूप मेंं हो जाता है।
जिगर की बीमारी चर्बी जमा होने के परिणाम स्वरूप मधुमेंह और उच्च रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल देखा जाता है। हाई ब्लड प्रैशर, सिरोसिस, द्रव, खून बहना, बढ़े हुए प्लीहा, बढ़े हुए पेट और कभी कभी पीलिया। खून बहना घेघा मेंं या मलाशय के माध्यम से हो सकता है।
ज्योतिषीय कारण: ज्योतिष मेंं कुंडली के द्वादश भावों मेंं यकृत का संबंध पंचम भाव से होता है। पंचम भाव का कारण ग्रह गुरु है। गुरु का अपना रंग पीला ही होता है और पीलिया रोग मेंं भी जब रक्त मेंं बिलीरूबिन जाता है, तो शरीर के सभी अंगों को पीला कर देता है। ऐसा पित्त के बिगडऩे से भी होता है। गुरु ग्रह भी पित्त तत्व से संबंध रखता है। पीलिया रोग मेंं बिलीरूबिन पदार्थ रक्त की सहायता से सारे शरीर मेंं फैलता है। रक्त के लाल कण मंगल के कारण होते हैं और तरल चंद्र से। इसलिए मंगल और चंद्र भी इस रोग के फैलने मेंं अपना महत्व रखते है। इस प्रकार पंचम भाव, पंचमेंश, गुरु, मंगल और चंद्र जब अशुभ प्रभावों मेंं जन्मकुंडली एवं गोचर मेंं होते हैं, तो व्यक्ति को पीलिया रोग हो जाता है। जब तक गोचर और दशांतर दशा अशुभ प्रभाव मेंं रहेंगे, तब तक जातक को पीलिया रोग रहेगा; उसके उपरांत नहीं।
विभिन्न लग्नों मेंं यकृत रोग के ज्योतिषीय कारण:
मेष लग्न: गुरु, सूर्य छठे भाव मेंं और अशुभ प्रभाव मेंं हों, तो जातक को यकृत संबंधित रोग होता है।
वृष लग्न: बुध और गुरु किसी भी भाव मेंं राहु तथा शनि से दृष्ट हों और मंगल छठे भाव मेंं स्थित या छठा भाव मंगल से दृष्ट हो, तो यकृत संबंधी रोग होते हंै।
मिथुन लग्न: मंगल दशम भाव मेंं, शुक्र छठे भाव मेंं, गुरु-चंद्र पंचम मेंं, शनि-बुध अष्टम भाव मेंं स्थित हों, तो यकृत रोग या रक्त संबंधी विकार हाते हैं।
कर्क लग्न: गुरु पंचम भाव मेंं, चंद्र छठे भाव मेंं, मंगल दूसरे भाव मेंं, शनि से दृष्ट हों, अर्थात् शनि षष्ठम मेंं रहे, तो जातक को यकृत संबंधी रोग होता है।
सिंह लग्न: गुरु पंचम भाव मेंं शनि से युति करे, राहु लग्न मेंं, सूर्य-मंगल नवम् मेंं रहें, तो यकृत संबंधी रोग से जातक पीडि़त रहता है और पीलिया रोग होता है।
कन्या लग्न: गुरु लग्न मेंं, सूर्य पंचम भाव मेंं, बुध छठे भाव मेंं, शनि सप्तम भाव मेंं, केतु नवम् मेंं हों, तो पीलिया या यकृत संबंधी रोग होता है।
तुला लग्न: शनि तृतीय भाव मेंं मंगल के साथ हो, गुरु लग्न भाव मेंं, शुक्र-बुध छठे भाव मेंं राहु के साथ हों, तो जातक को यकृत रोग होता है।
वृश्चिक लग्न: मंगल दूसरे भाव मेंं, गुरु छठे भाव मेंं, शनि चतुर्थ मेंं चंद्र के साथ हो, तो यकृत रोग होता है।
धनु लग्न: गुरु और मंगल छठे भाव मेंं शनि से दृष्ट हों, चंद्र पंचम भाव मेंं राहु के साथ या उसके द्वारा दृष्ट हो, तो यकृत रोग होता है।
मकर लग्न: शुक्र और पंचम भाव पर गुरु की दृष्टि हो, मंगल एकादश भाव मेंं केतु से दृष्ट हो, तो यकृत रोग होता है।
कुंभ लग्न: गुरु एकादश भाव मेंं, या लग्न मेंं हो, बुध पंचम मेंं सूर्य से अस्त हो और शनि छठे भाव मेंं हो, तो यकृत रोग होता है।
मीन लग्न: गुरु छठे, चंद्र आठवें, मंगल द्वादश, सूर्य-शुक्र पंचम मेंं हों और लग्न पर राहु की दृष्टि हो, तो जातक यकृत संबंधी रोग से पीडि़त होता है।
उपर्युक्त योग अशुभ कारक ग्रहों की दशाओं मेंं अशुभ गोचर ग्रहों की स्थिति से प्रभावित हो कर होते हैं।

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ज्योतिष से करें शिक्षा क्षेत्र का चुनाव


बौद्धिक विकास एवं शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं। इसके लिए विवेक शक्ति, बुद्धि, प्रतिभा एवं स्मरण शक्ति तथा विद्या पर विचार करने की आवश्यकता होगी। सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार शिक्षा का विचार तृतीय एवं पंचम भाव से किया जाता है। जातक परिजात के अनुसार चतुर्थ एवं पंचम भावों से शिक्षा का विचार करते हैं। फलदीपिका मेंं लग्नेश, पंचम भाव और पंचमेंश के साथ ही चंद्रमा, बृहस्पति एवं बुध को शिक्षा का कारक बताया गया है। चंद्रमा लग्न स्वरूप मन का कारक है। बृहस्पति ज्ञान का नैसर्गिक कारक है, जबकि बुध विवेक शक्ति, बुद्धि, स्मरण शक्ति का कारक है। इसके अतिरिक्त शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्वस्थ तन की भी आवश्यकता है। यदि इनके साथ-साथ विद्या, बुद्धि, स्मरण शक्ति, विविध शिक्षा योगों का अध्ययन करें, तो सभी बातें स्वत: ही स्पष्ट हो जाएंगी। शिक्षा का योग बृहस्पति उच्च का हो कर पांचवें स्थान को देखता हो। बुध उच्च का हो। पंचमेंश बली हो कर 1, 4, 5 भावों मेंं हो। पंचमेंश केंद्र, या त्रिकोण मेंं हो। नवमेंश केंद्र, या त्रिकोण मेंं हो। द्वितीयश्ेा एवं बहृस्पति त्रिकोण में हो दशमेंश लग्न मेंं हो। बृहस्पति और चंद्र मेंं राशि परिवर्तन योग हो। बृहस्पति और बुध की युति, या दृष्टि संबंध हो। बृहस्पति, बुध एवं शुक्र केंद्र या त्रिकोण मेंं हों। चंद्र से त्रिकोण मेंं बृहस्पति एवं बुध से त्रिकोण मेंं मंगल हो। विद्वान योग बुध, सूर्य के साथ अपने घर मेंं हो। लग्न मेंं मंगल हो, चतुर्थ स्थान मेंं सूर्य एवं बुध हों तथा दशम भाव मेंं शनि और चंद्रमा हों, तो जातक विद्वान होता है। गणितज्ञ योग शनि-बुध ग्यारहवें भाव मेंं हों। लग्न मेंं बृहस्पति एवं अष्टम भाव मेंं शनि हों। लग्न से दूसरे, तीसरे, या पांचवें भाव मेंं केतु और बृहस्पति हों। धन भाव मेंं मंगल हो और शुभ ग्रहों की उस पर दृष्टि हो। बृहस्पति केंद्र और त्रिकोण मेंं हो। शुक्र मीन का हो एवं बुध धनेश हो। मंगल और चंद्र दूसरे भाव मेंं हों तथा केंद्र मेंं बुध स्थित हो।
चिकित्सक योग सूर्य औषधियों का कारक है। मंगल रक्त का कारक है। शनि अस्थियों, चर्म तथा मृत शरीर का कारक है। दशम भाव व्यवसाय, एकादश आय एवं द्वितीय भाव विद्या एवं धन के हैं। यदि उपर्युक्त ग्रहों का संबंध संबंधित भावों से हो, तो जातक चिकित्सा शिक्षा ग्रहण करता है। केंद्र मेंं मंगल हो और शुक्र द्वारा दृष्ट हो। केतु और बृहस्पति की युति हो। शुक्र-चंद्र की युति दशम भाव मेंं हो और सूर्य की उनपर दृष्टि हो। इंजीनियर योग सूर्य और बुध की युति केंद्र, या त्रिकोण मेंं हो। शनि पंचम भाव मेंं हो और बुध एकादश मेंं हो। राहु-मंगल की युति केंद्र, या त्रिकोण मेंं हो। शनि एवं मंगल की युति, या दृष्टि संबंध। शुक्र बली हो। उसपर मंगल, शनि, या बृहस्पति की दृष्टि हो। शनि-मंगल की युति एवं केंद्र मेंं बृहस्पति हो। अभिनेता का योग शुक्र स्वराशि का हो कर केंद्र, या त्रिकोण मेंं हो। बुध और शुक्र की युति हो। बुध चंद्रमा के नवांश मेंं हो और सूर्य द्वारा दृष्ट हो। शुक्र एवं बुध लग्नेश से युत हों तथा भाव बली हों। वृषभ, या तुला राशिस्थ मंगल पर बृहस्पति की दृष्टि हो। बुध कर्क राशि मेंं हो तथा उस पर चंद्रमा, या शुक्र की दृष्टि हो। चंद्र और शुक्र मेंं पारस्परिक युति या दृष्टि हो। पत्रकारिता का योग बली बृहस्पति, या बुध दशम भाव मेंं हो। स्वराशि का बुध, या बृहस्पति केंद्र, या त्रिकोण मेंं हो। शुक्र पर बृहस्पति की दृष्टि, या युति। चंद्रमा, गुरु और शुक्र परस्पर त्रिकोण मेंं हों। अध्यापक के योग पंचमेंश बली हो कर केंद्र मेंं स्थित हो। बुध स्वराशि का हो एवं उसपर बृहस्पति की दृष्टि, या युति हो। शुक्र एवं बृहस्पति की युति केंद्र, या त्रिकोण मेंं हो। बृहस्पति एवं मंगल की युति, या दृष्टि हो। बृहस्पति एवं चंद्र की युति, या दृष्टि हो। आध्यात्मिक योग एकादश स्थान मेंं शनि हो। दशम स्थान मेंं मीन राशि का मंगल, या बुध हो। नवमेंश स्वग्रही हो। दशमाधिपति नवम मेंं हो और बलवान नवमेंश बृहस्पति, या शुक्र से युक्त, या दृष्ट हो। लग्नेश दशम स्थान मेंं और दशमेंश नवम स्थान मेंं हों तथा उस पर पाप ग्रह की दृष्टि एवं दशमेंश शुभ ग्रह के नवमांश मेंं हो। ज्योतिषी योग बुध केंद्र मेंं हो, द्वितीयेश बली हो, या शुक्र दूसरे भाव मेंं हो। केंद्र, या त्रिकोण मेंं बुध एवं बृहस्पति की युति।
शिक्षा मेंं महत्वाकांक्षा: जन्मकुंडली का नवम भाव धर्म त्रिकोण स्थान है, जिसके स्वामी देव गुरु ब्रहस्पति है यह भाव शिक्षा मेंं महत्वाकांक्षा व उच्च शिक्षा तथा उच्च शिक्षा किस स्तर की होगी इसको दर्शाते हैं यदि इसका सम्बन्ध पंचम भाव से हो जाये तो अच्छी शिक्षा तय करते है।
शिक्षा का स्तर: जन्मकुंडली का पंचम भाव बुद्धि, ज्ञान, कल्पना, अतिन्द्रिय ज्ञान, रचनात्मक कार्य, याददाश्त व पूर्व जन्म के संचित कर्म को दर्शाता है यह शिक्षा के संकाय का स्तर तय करता है।
शिक्षा किस प्रकार की होगी: जन्मकुंडली का तृतीय भाव मन का भाव है यह इस बात का निर्धारण करता है कि आपकी मानसिक योग्यता किस प्रकार की शिक्षा मेंं होगी जब वे चतुर्थ भाव का स्वामी छठे, आठवें या बारहवे भाव मेंं गया हो या नीच राशि, अस्त राशि, शत्रु राशि मेंं बैठा हो व कारक गृह (चंद्रमा) पीडि़त हो तो शिक्षा मेंं मन नहीं लगता है।
शिक्षा का उपयोग: जन्मकुंडली का द्वितीय भाव वाणी, धन संचय, व्यक्ति की मानसिक स्थिति को व्यक्त करता है तथा यह दर्शाता है कि शिक्षा आपने ग्रहण की है वह आपके लिए उपयोगी है या नहीं है यदि इस भाव पर पाप ग्रह का प्रभाव हो तो व्यक्ति शिक्षा का उपयोग नहीं करता है। जातक को बचपन से किस विषय की पढाई करवानी चाहिए इस हेतु हम मूलत: निम्न चार पाठ्यक्रम (विषय) ले सकते है- गणित, जीव विज्ञान, कला और वाणिज्य। कौन से विषय का चयन उसके जीवन मेंं उपयोगी होगा इसका निर्धारण जन्म कुंडली से किया जा सकता है।
शिक्षा मेंं अवरोध उत्पन्न करने वाले कारण:
राहु अगर पंचम भाव मेंं पंचमेंश से युत या दृष्ट हो और पाप पीडि़त हो, तो विद्या ग्रहण मेंं बाधा आती है। पंचमेंश पंचम भाव से अष्टम अर्थात लग्न से द्वादश भाव मेंं हो, अस्त हो या नीच राशि मेंं हो, या अन्य प्रकार से निर्बल हो, तो भी शिक्षा प्राप्ति मेंं रुकावटें आती हैं। द्वितीय भाव का स्वामी अपने भाव से अष्टम मेंं निर्बल हो, पाप पीडि़त हो तो विद्याध्ययन मेंं व्यवधान उत्पन्न होता है। द्वितीय, पंचम और पंचम से पंचम, नवम भाव पाप मध्य हों, पाप पीडि़त हों, त्रिकेश इन भावों मेंं हो, सर्वाष्टक वर्ग मेंं इन भावों मेंं शुभ रेखा अल्प हो, तो भी शिक्षा ग्रहण करने मेंं व्यवधान आता है। इसके अतिरिक्त बुद्धि का कारक बुध एवं ज्ञान का कारक ग्रह गुरु निर्बल हो, त्रिक भाव मेंं हो, अस्त हो, नीच राशि मेंं हो, पाप पीडि़त हो, तो विद्याध्ययन मेंं बाधा आती है। जातक की शिक्षा उच्च कोटि की नहीं होती है।
ऊपर वर्णित जितने अधिक घटक पाप प्रभाव मेंं होंगे, निर्बल होंगे जातक की शिक्षा मेंं उतना ही अधिक व्यवधान आएगा।
इसके अतिरिक्त शिक्षा ग्रहण काल खंड मेंं अशुभ ग्रह की दशांतर्दशा हो या शनि का प्रभाव हो, या गोचर मेंं शिक्षा से संबंधित घटक ग्रहों की स्थिति अशुभ हो तो भी विद्याध्ययन मेंं बाधा आती है। पंचम भाव से त्रिकोण मेंं शनि गोचर मेंं हो या पंचमेंश से त्रिकोण मेंं गुरु गोचर मेंं हो, तो शिक्षा के भाव पंचम का नाश होता है और विद्याध्ययन मेंं रुकावट आती है। पंचम भाव, बुध, गुरु, पंचमेंश या तृतीयेश पर एकाधिक ग्रहों का विच्छेदात्मक प्रभाव हो, तो इस स्थिति मेंं भी विद्याध्ययन मेंं व्यवधान आता है और शिक्षा के प्रति जातक की रुचि कम होती है - विशेष कर जब इन विच्छेदात्मक ग्रहों की दशांतर्दशा हो। पंचम भाव के स्वामी ग्रह का अधिशत्रु ग्रह यदि अष्टक वर्ग मेंं शुभ रेखा रहित राशि मेंं हो, तो उसकी दशा मेंं पंचम भाव प्रदर्शित विद्या के क्षेत्र मेंं व्यवधान आता है।
उपाय:
सरस्वती से संबंधित मंत्र का नियमित जप करने से विद्या मेंं सफलता के लिए निम्नोक्त मंत्र का जप करना चाहिए।
ह्रीं श्रीं ऐं वागवादिनि भगवती अर्हनमुख। निवासिनि सरस्वती ममास्ये प्रकाशं कुरू कुरू स्वाहा ऐं नम:।।
इसके साथ ही बुद्धि के देवता प्रथम पूज्य श्री गणेश का ध्यान करने से विद्या और बुद्धि का विकास होता है और अध्ययन मेंं आने वाली बाधाएं दूर होती हैं।
यदि शिक्षा से संबंधित ग्रह जन्मकुंडली मेंं शुभ हो परंतु निर्बल हो और अपने शुभ प्रभाव देने मेंं असमर्थ हो तो उसे बल प्रदान करने के लिए उससे संबंधित रत्न भी धारण किया जा सकता है। यदि जातक शिक्षा के प्रति गंभीर नहीं हो, तो गुरु के उपाय करने चाहिए। किसी भी मंत्र का जप प्रतिदिन एक माला करें। मंत्र जप शुरू करने से पहले स्नान आदि करके शरीर को शुद्ध कर लें। मंत्र जप के लिए ब्राह्म मुहूर्त का समय सबसे उत्तम होता है। वैसे तो जब भी खाली समय हो, मंत्र का जप कर सकते हैं। जप पूर्व की ओर मुख करके करना चाहिए। जप किसी आसन पर बैठकर करना चाहिए ताकि शरीर का सीधा संपर्क जमीन से न हो। जप यथासंभव रुद्राक्ष या तुलसी की माला पर करें। जप करते समय माला को किसी वस्त्र से ढक कर रखें।

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अन्नप्राशन-संस्कार


छठे माह में बालक का अन्नप्राशन-संस्कार किया जाता है। शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं। अन्न से ही मन बनता है। इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्व है। माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है - अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति। शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे।
शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है। आहार शुद्ध होने पर ही अंत:करण शुद्ध होता है।
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: अर्थात शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है। अन्न से केवल शरीर का पोषण ही नहीं होता, अपितु मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मा का भी पोषण होता है। इसी कारण अन्नप्राशन को संस्कार रुप में स्वीकार करके शुद्ध, सात्त्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने हेतु अन्नप्राशन-संस्कार संपन्न किया जाता है। अन्नप्राशन का उद्देश्य बालक को तेजस्वी, बलशाली एवं मेधावी बनाना है, इसलिए बालक को धृतयुक्त भात या दही, शहद और धृत तीनों को मिलाकर अन्नप्राशन करने का का विधान है। छ: माह बाद बालक हल्के अन्न को पचाने में समर्थ हो जाता है, अत: अन्नप्राशन-संस्कार छठें माह में ही करना चाहिए। इस समय ऐसा अन्न दिया जाता है, जो पचाने में आसान व बल प्रदान करने वाला हो। 6-7 माह के शिशु के दांत निकलने लगते हैं और पाचनक्रिया प्रबल होने लगती है। ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरुप उसका तन-मन बनता है। मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है। अन्न से ही जीवनतत्त्व मिलते हैं, जिससे रक्त, मांस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है। अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए। शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहस:।।
अर्थात हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।
शरीर रूपी मशीन को चलाने के लिए उर्जा और शक्ति की आवश्यक होती है। भोज्य पदार्थों से हमें उर्जा और शक्ति मिलती है। सनातन ध्रर्म के अनुसार जब बच्चों के दांत निकलने शुरू होते हैं और वह पहली बार दूध के अलावा ठोस आहार लेता है तब यह संस्कार किया जाता है, अर्थात पहली बार जब बच्चा शास्त्रोक्त तरीके से अन्न ग्रहण करता है उस संस्कार को अन्नप्राशन संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार में बच्चे को ठोस आहार दिया जाता है। यह ठोस आहार खीर होती है जो ना तो पूरी तरह तरह पेय होती है और न ही खाद्य। इस खीर में शहद, घी, तुलसी पत्ता और गंगाजल मिलाया जाता है। इन सभी चीज़ो को शामिल करने का उद्देश्य यह है कि ये पौष्टिक, रोगनाशक तथा पवित्र आध्यात्मिक गुणों को बढ़ाने वाले होते हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि जैसा आहार होता है वैसी ही हमारी बुद्धि, हमारा स्वभाव और व्यक्तित्व होता है इसलिए शुद्ध और पुष्ट आहार से अन्नप्राशन कराया जाता है। यह शुभ कर्म अर्थात संस्कार शुभ समय में हो इसके लिए मुहुर्त का विचार किया जाता है। अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहुर्त देखते समय सबसे पहले हम संस्कार का समय ज्ञात करते हैं।
संस्कार का समय: ज्योतिषशास्त्र के विधान के अनुसार इस संस्कार के लिए समय का आंकलन बालक और बालिका के अनुसार अलग अलग होता है। अगर संतान बालक है तो इनका अन्नप्राशन छठे, आठवें अथवा दसवें महीने में किया जाना चाहिए। अगर संतान बालिका है तो इनका अन्नप्राशन पंचम, सप्तम, नवम या एकादश मास में करना शास्त्रानुकूल माना जाता है।
नक्षत्र का आंकलन: अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहुर्त के रूप में रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य और शतभिषा नक्षत्र का नाम लिया जाता है। उपरोक्त नक्षत्रों को छोड़कर अन्य नक्षत्र में अन्नप्राशन करना शुभ नहीं माना जाता।
तिथि विचार: ज्योतिष विधा के अनुसार अन्नप्राशन रिक्ता यानी चतुर्थ, नवम व चतुर्दशी तिथि, एवं नन्दा तिथि यानी प्रतिपदा, षष्टी एवं एकादश तिथि तथा अष्टम, द्वादश तथा अमावस को छोड़कर अन्य किसी भी तिथि यानी द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी तथा पूर्णिमा के दिन किया जा सकता है।
वार का आंकलन: अन्नप्राशन के लिए ज्योतिषशास्त्र कहता है यह सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार के दिन करना चाहिए। इस शुभ संस्कार हेतु यह उत्तम दिन माना जाता है।
लग्न का विचार: अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहुर्त का आंकलन करते समय शुभ लग्न का भी विचार करना चाहिए। वृष, मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, धनु, मकर एवं कुम्भ लग्न अन्नप्राशन संस्कार के लिए शुभ माने जाते हैं। इस शुभ कार्य हेतु प्रथम, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम भावों में स्थित शुभ ग्रह तथा तृतीय, षष्टम एवं एकादश भाव में स्थित पाप ग्रह का होना बहुत ही शुभ माना जाता है।
निषेध: अन्नप्राशन के लिए ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि जब लग्न के रूप में मेष, वृश्चिक या मीन मौजूद हो तो यह संस्कार नहीं करना चाहिए। संतान के जन्म के समय जिस राशि का लग्न था उससे आठवें राशि के लग्न में यह संस्कार नहीं करना चाहिए। मुहुर्त लग्न में चन्द्रमा प्रथम, षष्टम व अष्टम भाव में नहीं होना चाहिए, तथा दशम भाव रिक्त होना चाहिए। चन्द्र व तारा शुद्धि भी इस संस्कार के लिए आवश्यक है, अगर चन्द्र व तारा शुद्ध नहीं हैं तो स्थिति दोषपूर्ण मानी जाती है।
इस प्रकार इस विधि से इस संस्कार की रस्म अदा की जाती है।

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