Friday, 29 May 2015

तुलसी विवाह

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::::::तुलसी विवाह:::::
तुलसी विवाह से सं‍बंधित महत्वपूर्ण बातें जानिए
:: तिथि :: 3 नवंबर 2014
देवउठनी एकादशी पर होता है तुलसी विवाह ! सनातन धर्म में धार्मिक कार्यों का आधार धर्मशास्त्र एवं ज्योतिष की कालगणना दोनों ही हैं। शास्त्रों में कहा है देवताओं का दिन मानव के छह महीने के बराबर होता है और रात्रि छह माह की।
इसी आधार पर जब वर्षाकाल प्रारंभ होता है तो देवशयनी एकादशी को देवताओं की रात्रि प्रारंभ होकर शुक्ल एकादशी अर्थात्‌ देवउठनी एकादशी तक छह माह तक रहती है। इसीलिए छह मास तुलसी की पूजा से ही देवपूजा का फल प्राप्त हो जाता है।
देवउठनी से छह महीने तक देवताओं का दिन प्रारंभ हो जाता है। अतः तुलसी का भगवान श्री हरि विष्णु की शालीग्राम स्वरूप के साथ प्रतीकात्मक विवाह कर श्रद्धालु उन्हें वैकुंठ को विदा करते हैं।
हरि प्रबोधिनी एकादशी को देशी भाषा में देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इस तिथि को तुलसी जी पृथ्वी लोक से वैकुंठ लोक में चली जाती हैं और देवताओं की जागृति होकर उनकी समस्त शक्तियों पृथ्वी लोक में आकर लोक कल्याणकारी बन जाती हैं।
तुलसी को माता कहा जाता है क्योंकि तुलसी पत्र चरणामृत के साथ ग्रहण करने से अनेक रोग दूर होते हैं। शालीग्राम के साथ तुलसी का आध्यात्मिक विवाह देव उठनी एकादशी को होता है लेकिन उनके पत्र मंजरी पूरे वर्ष भर देवपूजन में प्रयोग होते हैं। तुलसी दल अकाल मृत्यु से बचाता है।
वैष्णव उपासकों के लिए तो तुलसी जी का विशेष महत्व होता है। वह तुलसी की माला पहनते हैं और जपते हैं। तुलसी पत्र के बिना भोजन नहीं। कहा जाता है कि तुलसी पत्र डालकर जल या दूध चरणामृत बन जाता है तथा भोजन प्रसाद बन जाता है। इसीलिए तुलसी विवाह का महोत्सव वैष्णवों को परम आत्मतोष देता है। साथ ही प्रत्येक घर में छह महीने तक हुई तुलसी पूजा का इस दिन तुलसी विवाह के रूप में पारायण होता है।
तुलसी के गमले को गोमय एवं गेरू से लीप कर उसके पास पूजन की चौकी पूरित की जाती है। गणेश पूजा पूर्वक पंचांग पूजन के बाद तुलसी विवाह की सारी विधि होती है। लोग, मंगल वाद्ययंत्रों के साथ उन्हें पालकी में बिठाकर मंदिर परिसर एवं घर-आंगन में घूमाकर पूर्व स्थान से दूसरे स्थान पर रख देते हैं। बधाई के गीत गाए जाते हैं और सगुन में मिष्ठान्न, प्रसाद, फल एवं दक्षिणा दी जाती है। इस दिन रेवती नक्षत्र का तृतीय चरण पर्व के लिए विशेष महत्वपूर्ण होता है।
एक मान्यता के अनुसार देव उठनी एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक के पांच दिनों में किसी दिन तुलसी जी का विवाह किया जा सकता है।
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व्रत कथा
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भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर बड़ा गर्व था। वे सोचती थीं कि रूपवती होने के कारण ही श्रीकृष्ण उनसे अधिक स्नेह रखते हैं। एक दिन जब नारदजी उधर गए तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों। नारदजी बोले, 'नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। अतरू तुम भी श्रीकृष्ण को दान रूप में मुझे दे दो तो वे अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे।' सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे दिया। जब नारदजी उन्हें ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया। इस पर नारदजी बोले, 'यदि श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न दे दो तो हम इन्हें छोड़ देंगे।'
तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह देख सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। यह कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला। वे बड़ी लज्जित हुईं। सारा समाचार जब रुक्मिणी जी ने सुना तो वे तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आईं। उस पत्ती को पलड़े पर रव्खते ही तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए।
रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पटरानी थीं। तुलसी के वरदान के कारण ही वे अपनी व अन्य रानियों के सौभाग्य की रक्षा कर सकीं। तब से तुलसी को यह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्रीकृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को तुलसीजी का व्रत व पूजन किया जाता है....द फ्यूचर क्लब फ्यूचर फॉर यू पत्रिका का समूह...प्रिया शरण त्रिपाठी..... ... ....9893363928 हम भारतीय ज्ञान और संस्कृति के पुनः स्थापन के लिए सतत प्रयास करते है....
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जानें स्वयं का मकान कब होगा

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जो लोग किराए के मकान में रहते हैं, उनका सिर्फ एक ही सपना होता है कि उनका भी एक छोटा ही सही, लेकिन सुंदर सा मकान हो। जहां वह निश्चिंत होकर अपने परिवार के साथ रह सके। न मकान मालिक की टेंशन हो और न ही दूसरे किराएदारों की झिकझिक। हस्तरेखा शास्त्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति की हाथ की रेखा देखकर यह बताया जा सकता है कि उस व्यक्ति का कभी अपना मकान भी होगा या नहीं, और यदि होगा तो यह स्थिति कब बनेगी। आज हम आपको उन रेखाओं के बारे में बता रहे हैं, जो किसी भी व्यक्ति के स्वयं के मकान के बारे में बताते हैं-
1- भूमि का ग्रह मंगल है। हस्तरेखा में मंगल का क्षेत्र से भूमि व भवन का पता चलता है। वस्तुत: मंगल का क्षेत्र का उच्च का होना उत्तम भवन प्राप्ति का योग देता है। मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत का बली होना भवन प्राप्ति का अच्छा संकेत है।
2- हस्तरेखा में मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत के उपर किसी रेखा का होन भी ऐसे व्यक्ति को स्वश्रम से निर्मित उत्तम सुख-सुविधाओं ये युक्त भवन प्राप्त होता है।
3- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत मजबूत हो तो भी ऐसा व्यक्ति स्व पराक्रम व पुरुषार्थ से अपना घर(भवन) बनाता है।
4- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत से कोई रेखा भाग्य रेखा तक जाये तो ऐसे व्यक्ति के पास अपना बंगला या महलनुमा भवन होता है जिसमें कलात्मक बगीचा या जलाशय होता है।
5- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत एवं चंद्रमा और शनि का क्षेत्र या पर्वत विकसित हो तो ऐसे व्यक्ति का भवन दूसरों से अलग, सुंदर आकर्षक एवं नूतन साज-सज्जा से युक्त होता है।
6- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत एवं चंद्रमा और शनि का क्षेत्र या पर्वत विकसित हो साथ में इन रेखाओ से चलकर कोई रेखा भाग्य या जीवन रेखा तक जाये तो ऐसे व्यक्ति को अचानक निर्मित भवन की प्राप्ति होती है।

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Thursday, 28 May 2015

क्या वैज्ञानिक के आधार में पुनर्जन्म मान्य है ?????



मृत्यु केवल स्थूल शरीर की होती है, पर सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ वैसे ही आगे चलता है , तो हर जन्म के कर्मों के संस्कार उस बुद्धि में समाहित होते रहते हैं । और कभी किसी जन्म में वो कर्म अपनी वैसी ही परिस्थिती पाने के बाद जाग्रत हो जाते हैं ।
इसे उदहारण से समझें :- एक बार एक छोटा सा ६ वर्ष का बालक था, यह घटना हरियाणा के सिरसा एक गाँव की है । जिसमें उसके माता पिता उसे एक स्कूल में घुमाने लेकर गये जिसमें उसका दाखिला करवाना था और वो बच्चा केवल हरियाणवी या हिन्दी भाषा ही जानता था कोई तीसरी भाषा वो समझ तक नहीं सकता था । लेकिन हुआ कुछ यूँ था कि उसे स्कूल की Chemistry Lab में ले जाया गया और वहाँ जाते ही उस बच्चे का मूँह लाल हो गया !! चेहरे के हावभाव बदल गये !! और उसने एकदम फर्राटेदार French भाषा बोलनी शुरू कर दी !! उसके माता पिता बहुत डर गये और घबरा गये , तुरंत ही बच्चे को अस्पताल ले जाया गया । जहाँ पर उसकी बातें सुनकर डाकटर ने एक दुभाषिये का प्रबन्ध किया। जो कि French और हिन्दी जानता था , तो उस दुभाषिए ने सारा वृतान्त उस बालक से पूछा तो उल बालक ने बताया कि " मेरा नाम Simon Glaskey है और मैं French Chemist हूँ । मेरी मौत मेरी प्रयोगशाला में एक हादसे के कारण ( Lab. ) में हुई थी । "
तो यहाँ देखने की बात यह है कि इस जन्म में उसे पुरानी घटना के अनुकूल मिलती जुलती परिस्थिती आने से अपना वह सब याद आया जो कि उसकी गुप्त बुद्धि में दबा हुआ था । यानि की वही पुराने जन्म में उसके साथ जो प्रयोगशाला में हुआ, वैसी ही प्रयोगशाला उसे दूसरे जन्म में देखने पर उसे सब याद आया । तो ऐसे ही बहुत सी उदहारणों से आप पुनर्जन्म को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकते हो ।
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Supersticious Belief of Kuldhara village

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Some superstitious beliefs.The traditional,rituals,beliefs are very amazing. Many faiths and values seems to be mysterious. In many provinces with the diversity of languages and traditions have many strangeness. Like this full of strangeness there is one village in Rajasthan in Jaisalmer district called "Kuldhara". This village was deserted since last 170 years. Thousands of villager of kuldhara evacuated in one night during their going they had given a curse on that village that from now no one will live here.From that time this village has been deserted.
It is said that village was occupied by some unknown forces, many years back in this village many people are residing here but now this village has been transformed into shambles today. Those visitors who visit that village they hear the sound of paliwal brahmins.This make feel them that someone was there. There was a sound of market, sound of talking ladies,bangles sound, this all make the environment of the village fear.Now the government had make a gate in the outskirts of the village where soilder were roaming there in day but no one have a guts to cross the gates at night.
Construction of the village was done Scientifically
Kuldhara village was situated near about 18km from the Jaisalmer. This is community of paliwal in which 84 villages were there among them kuldhara is one of them. In the year 1291 the rich and hardworking paliwal bramins 600 familes settled here. This village was made so scientifically that the texture of stone does not feel them the hot whether of outside.If the outside temprature is 45 degrees in summer but if you enter their house you will feel cold. In the village all homes were connected through vents so that they can send their things so easily. Water pool,stare case were so amazing in their homes.
Palatal's are brahmin but even though they were very entrepreneurial community.Their skills,guts,diligence remain unbroken as they had grown gold on that sandy soil. Surprisingly they had thought of farming in land of soil. The secret behind the paliwal's prosperity is farming only. Analyzing the gypsum land and they settled there due to their scientific thinking and the use of modern technology they get success at that time.
Paliwal community was dependent on farming and raising cattle and live very proudly. Layer of gypsm stop water to absorbed into the ground by this water they do farming.Paliwal's this technique of water management made Thar desert as an extensive desert with the human and cattle population. Paliwal had developed a special technique of water management where water was not in sand but it was collected some where which is the factor of prosperity of them.
The Story behind this ruined village:
This developed village get ruined, the reason behind is, there is one diwan called "Salam singh" who have a keen watch on a beautiful girl of a village.He was so much crazy for the girl that he only wants her. He started pressuring brahmins. And he sent a message to the girl's house that till the next full moon if they didn't give the girl to him he will attack village and he will took her away. This was a very difficult time for the village.If they save their village or that girl.To discuss on this whole 84 village panchayats get collected in the temple and decided that they will not give girl to diwan if anything can be happened also.
What was then, the villagers decided to evacuate the village and disappeared overnight from the village. During they were going they cursed on the village that no one could reside in these homes.Today also the condition of village was same as like many years back they left.
The effect of curse of paliwal brahmins is seen today also. According to the local residents of Jaisalmer some families were trying to settle there but they could not succeed.Local people also tells that some people goes there but they didn't come back till now. What happened to them no one knows,no one knows where they went.
Tourists came here in trying that to find gold which was buried into the ground.According to historians the whole property of paliwal brahmins gold,silver,diamond were suppressed into the ground. That was the reason that people who came there they started digging the ground with the hope that the gold diamond will get them.The village is still inscribed in some places.
Remains of ancient temple in Kuldhara:
Some people from Delhi Paranormal society came there to research their team spent one complete night there.That team also believes that there is something abnormal there. A member of the team also several times realized that in night someone hand on his shoulders ut when he looked back nobody was there. They have a device called "Ghost box" by using this they ask questions from the ghost. In kuldhara some ghost had tell their names.When they return after travelling kuldhara then they had seen the finger prints of some children on the window mirror but nearby no one was there.Thus a well settled village get ruined due an unknown reason, the reality is mystery till now.


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Intelegency of daughter of farmer

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There is one farmer he had to borrow some money from the money lender. The money lender was very cunning person he had a close watch on the daughter beautiful daughter.Then he place a deal infront of a farmer. The deal was that "if farmer's daughter get married to the money lender then he will forgive his all debts. The farmer and his daughter get trembled with the proposal of money lender. Then he says that "If you are not ready then let god take the descion". Then he gives an idea to them that he will put two stones in an empty bag one white and one black and she had to pick up from the bag, if she picks up black stone then she had to marry me and and if she picks up white stone then she will leave and in both cases your debt will be forgive and if she refuse this then the farmer would be sent to prison.
They were standing on the farmers farm trails where there is full of stones, as they were talking moneylender bent down and picked up two stones both were black this farmer daughter had seen she was very clever. Then moneylender ask his daughter to pick up the stone, she was in very difficult situation she know that both stones were black and if she refuses then her father were put in prison and if she picks up the stone she had to marry moneylender. Farmer's daughter was very intelligent, he dipped his hand into the bag and took out a stone, without seeing him in bewilderment dropped down on sidewalks filled with stones, where they fall between the other stones were missing.e
Oh! how clumsy i am, she said "but no matter we will see the remaining one in the bag by which we will know that which stone i had picked. Farmer's daughter know that the remaining stone is black and they will known that i had picked up the white stone and moneylender will not accept this dishonesty. This impossible thing farmer daughter made a possible thing. Big to big problems will be solved but the thing is that try must be important. We had to try atleast to solve a problem.

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जानिये आज 27/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से"गुस्सा और उसका ज्योतिषीय कारण -"




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future for you astrological news gussa ka prabhav 28 05 2015



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जानिये आज के सवाल जवाब 28/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से



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जानिये आज का राशिफल 28/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से




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जानिये आज का पंचांग 28/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से




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Wednesday, 27 May 2015

जानिये आज के सवाल जवाब(1) 27/04/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से





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जानिये आज 27/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से"कुंडली द्वारा पता करें कि शिशु पूर्णतः स्वस्थ्य है-"





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वैदिक धर्म का आरंभ



हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित है । इसमेंं कई देवी-देवता हैं, पर उनको एक ही ईश्वर के विभिन्न रूप माना जाता है । मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो , दशकं धर्म लक्षणम् ॥
अर्थात धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रह: (इन्द्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन-वचन-कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना), ये दस धर्म के लक्षण हैं।
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये, यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मन: प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थात धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो। अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये। हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी बड़े धर्मों मेंं सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेंटे हुए है। ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, पर इसके ज़्यादातर उपासक भारत मेंं हैं और विश्व का सबसे ज्यादा हिन्दुओं का प्रतिशत नेपाल मेंं है। हालाँकि इसमेंं कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल मेंं ये एकेश्वरवादी धर्म है। हिन्दी मेंं इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इंडोनेशिया मेंं इस धर्म का औपचारिक नाम ''हिन्दु आगम है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है- ''हिन्सायाम दूयते या सा हिन्दु अर्थात जो अपने मन-वचन-कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दु है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है। नेपाल विश्व का एक मात्र आधुनिक हिन्दू राष्ट्र था।
भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता मेंं हिन्दू धर्म के कई निशान मिलते हैं। इनमेंं एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे, और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था। आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग 1700 ईसा पूर्व मेंं आर्य अफ्गानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा मेंं बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत मेंं मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गये, जिनमेंं ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आये। बौद्ध और जैन धर्मों के अलग हो जाने के बाद वैदिक धर्म में काफी परिवर्तन आया। नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल कदाचित सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेंहरगढ की 6500 ईशापूर्व संस्कृति मेंं मिलता है) से भी पहले की भारतीय परम्परा मेंं है।
भारतवर्ष को प्राचीन काल में ऋषियों ने ''हिन्दुस्थान नाम दिया गया था जिसका अपभ्रंश ''हिन्दुस्तान है। ''बृहस्पति आगम के अनुसार:
हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात, हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
''हिन्दू शब्द ''सिन्धु से बना माना जाता है। संस्कृत मेंं सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं- पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र में मिलती है, दूसरा- कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं: सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। हिन्दू शब्द उस समय धर्म की बजाय राष्ट्रीयता के रुप मेंं प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत मेंं केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहींं हुआ था इसलिये ''हिन्दू शब्द सभी भारतीयों के लिये प्रयुक्त होता था। भारत मेंं केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर मेंं विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ मेंं प्रयोग करना शुरु कर दिया।
हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद मेंं सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है- वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की ''स ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन ''स ईरानी भाषाओं की ''ह ध्वनि मेंं बदल जाती है। इसलिये ''सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर ''हफ्त हिन्दु में परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फर्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व मेंं रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत मेंं आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
इन दोनों सिद्धान्तों मेंं से पहले वाले प्राचीन काल मेंं नामकरण को इस आधार पर सही माना जा सकता है कि ''बृहस्पति आगम सहित अन्य आगम ईरानी या अरबी सभ्यताओं से बहुत प्राचीन काल मेंं लिखा जा चुके थे। अत: उसमेंं ''हिन्दुस्थान का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि हिन्दू (या हिन्दुस्थान) नाम प्राचीन ऋषियों द्वारा दिया गया था न कि अरबों/ईरानियों द्वारा। यह नाम बाद मेंं अरबों/ईरानियों द्वारा प्रयुक्त होने लगा।
हिन्दू धर्म मेंं कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहींं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना जरूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक जीवन का मार्ग है। हिन्दुओं का कोई केन्द्रीय चर्च या धर्मसंगठन नहींं है, और न ही कोई ''पोप। इसकी अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं, और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फिर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं, और वे हैं इन सब मेंं विश्वास: धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति, जिसके कई रास्ते हो सकते हैं), और बेशक, ईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों मेंं आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक मेंं पाप और पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म मेंं चार मुख्य सम्प्रदाय हैं : वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय मेंं वर्गीकृत नहींं करते हैं। ब्रह्म हिन्दू धर्मग्रन्थ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है (इसे त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा से भ्रमित न करें)। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी मेंं विलीन हो जाता है। ब्रह्म एक, और सिर्फ एक ही है। वो विश्वातीत भी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। ब्रह्म के दो रूप हैं: परब्रह्म और अपरब्रह्म। परब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है, पर उसमेंं अनन्त सत्य, अनंत चित्त और अनन्त आनन्द है। ब्रह्म की पूजा नहींं की जाती है, क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। ú ब्रह्मवाक्य है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। हिन्दु यह मानते है कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्माण्ड में गून्ज रही है। ध्यान में गहरे उतरने पर यह सुनाई देता है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है। ब्रह्म और ईश्वर मेंं क्या सम्बन्ध है, इसमेंं हिन्दू दर्शनों की सोच अलग अलग है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, क्योंकि मानव माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश में रहता है। अर्थात जब माया के आइने मेंं ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमेंं ईश्वर के रूप मेंं दिखायी पड़ता है। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति ''माया से विश्व की सृष्टि करता है और उस पर शासन करता है। हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है, लेकिन माया उस पर अपना कुप्रभाव नहींं डाल पाती है, जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचंम्भित नहींं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है। वैसे तो ईश्वर रूपहीन है, पर माया की वजह से वो हमेंं कई देवताओं के रूप मेंं प्रतीत हो सकता है। इसके विपरीत वैष्णव मतों और दर्शनों मेंं माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म मेंं कोई फर्क नहींं है- और विष्णु (या कृष्ण) ही ईश्वर हैं। न्याय, वैषेशिक और योग दर्शनों के अनुसार ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा है, जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है। जो भी हो, बाकी बातें सभी हिन्दू मानते हैं: ईश्वर एक, और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया मेंं एक पत्ता भी नहींं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व मेंं नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। ईश्वर के अन्य नाम हैं: परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान (जो हिन्दी में सबसे ज़्यादा प्रचलित है)। इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी मेंं) अल्लाह, (फारसी मेंं) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेजी मेंं) गॉड और यहूदी (इब्रानी मेंं) याह्वेह कहते हैं।
देवी और देवता: हिन्दू धर्म मेंं कई देवता हैं, जिनको अंग्रेज़ी में गलत रूप से ''द्दशस्रह्य'' कहा जाता है। ये देवता कौन हैं, इस बारे मेंं तीन मत हो सकते हैं: अद्वैत वेदान्त, भगवद गीता, वेद, उपनिषद् आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं (ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है)। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन मेंं भगवान को किसी प्रिय रूप मेंं देखता है। ऋग्वेद के अनुसार, ''एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं। योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं। योग दर्शन के अनुसार ईश्वर ही प्रजापति और इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं। मीमांसा के अनुसार सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं, और उनके उपर कोई एक ईश्वर नहींं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमेंं से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना जरूरी है। कई अन्धविश्वासी या अनपढ़ हिन्दू भी ऐसा ही मानते हैं। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है। एक बात और कही जा सकती है कि ज्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं, और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। तीसरे मत को धर्मग्रन्थ मान्यता नहींं देते। जो भी सोच हो, ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।
वैदिक काल के मुख्य देव थे- इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव), और देवियाँ- सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि (कुल 33)। बाद के हिन्दू धर्म मेंं नये देवी देवता आये (कई अवतार के रूप मेंं)- गणेश, राम, कृष्ण, हनुमान, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह, और देवियाँ (जिनको माता की उपाधि दी जाती है) जैसे- दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, राधा, सन्तोषी, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों में उल्लिखित हैं, और उनकी कुल संख्या 33 करोड़ बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहींं, बल्कि महादेव हैं और त्रिमूर्ति के सदस्य हैं। इन सबके अलावा हिन्दु धर्म मेंं गाय को भी माता के रूप मेंं पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय मेंं सम्पूर्ण 33 कोटि देवि देवता वास करते हैं।
आत्मा: हिन्दू धर्म के अनुसार हर मनुष्य मेंं एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन और अमर है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य मेंं ही नहींं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव मेंं आत्मा होती है। मानव जन्म मेंं अपनी आजादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्म करने पर आत्मा कुछ समय के लिये स्वर्ग जा सकती है, या कोई गन्धर्व बन सकती है, अथवा नव योनि मेंं अच्छे कुलीन घर मेंं जन्म ले सकती है। बुरे कर्म करने पर आत्मा को कुछ समय के लिये नरक जाना पड़ता है, जिसके बाद आत्मा निकृष्ट पशु-पक्षी योनि मेंं जन्म लेती है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी खत्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक ''सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमेंं मानव के पाप और पुण्य दोनों कर्म अपने फल देते हैं और जिसमेंं मोक्ष की प्राप्ति मुमकिन है।
परांत स्वर्ग मेंं और बुरे कर्म करने वाला नरक मेंं स्थान पाता है।


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संकल्प शक्ति से बदलें मन के भाव



स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।। 27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:।। 28।।

और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच मेंं स्थित करके तथा नासिका मेंं विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।
इस सूत्र मेंं कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र मेंं, काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र मेंं काम-क्रोध से मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
इतना जानना पर्याप्त नहींं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म मेंं प्रवेश मिल जाएगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? विधि क्या है?
कृष्ण ने कहीं तीन बातें। एक, दोनों आंखों के ऊपर भू-मध्य मेंं, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करें। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले, इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य मेंं, श्वास हो जाए सम, जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है। इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहींं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पडऩा बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहींं है। इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमेंं जोड़ती हैं।
सात इंद्रियां हैं। साधारणत: पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणत: उनकी बात नहींं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है। जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहींं था। कुछ, जिन्हें समझ मेंं और गहरी बात आई थी, उन्होंने छ: इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों मेंं विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं।
हमारे कान मेंं दो इंद्रियां हैं, एक नहींं। कान सुनता भी है, और कान मेंं वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान मेंं छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब सड़क पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण से नहींं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान मेंं दो इंद्रियों का निवास है।
छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था, वह है अंत:करण, हृदय। साधारणत: हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने मेंं एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहींं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है।
प्राचीन ग्रंथों में सात इंद्रियों का जिक्र है। ये सात इंद्रियां हमेंं बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमेंं से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है।
जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमेंं से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र मेंं कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य मेंं, माथे के बीच मेंं ध्यान को केंद्रित कर।
माथे के बीच मेंं जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, उसका नाम है, आज्ञा-चक्र। वह संकल्प का और इच्छाशक्ति का केंद्र है। जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन मेंं संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा-चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन-धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह ध्यान कर सकता है।
इस चक्र पर ध्यान करने से क्या होगा? एक बात और खयाल मेंं ले लें, तो समझ मेंं आ सकेगी। आपके घर मेंं आग लग गई हो। अभी कोई खबर देने आ जाए कि घर मेंं आग लग गई। आप भागेंगे। रास्ते पर कोई नमस्कार करेगा, आपकी आंख बराबर देखेगी, फिर भी, फिर भी आप नहींं देख पाएंगे। और कल वह आदमी मिलेगा और कहेगा कि कल क्या हो गया था, बदहवास भागे जाते थे? नमस्कार की, उत्तर भी न दिया! आप कहेंगे, मुझे कुछ होश नहींं। मैं देख नहींं पाया। वह आदमी कहेगा, आंख आपकी बिलकुल मुझे देख रही थी। मैं बिलकुल आंख के सामने था। आप कहेंगे, जरूर आप आंख के सामने रहे होंगे। लेकिन मेरा ध्यान आंख पर नहींं था। शरीर की भी वही इंद्रिय काम करती है, जिस पर ध्यान हो, नहींं तो काम नहींं करती। शरीर की इंद्रियों को भी सक्रिय करना हो, तो ध्यान से ही सक्रिय होती हैं वे, अन्यथा सक्रिय नहींं होतीं। आंख तभी देखती है, जब भीतर ध्यान आंख से जुड़ता है, अटेंशन आंख से जुड़ती है। कान तभी सुनते हैं, जब ध्यान कान से जुड़ता है। शरीर की इंद्रियां भी ध्यान के बिना चेतना तक खबर नहींं पहुंचा पातीं। ठीक ऐसे ही भीतर के जो सात चक्र हैं, वे भी तभी सक्रिय होते हैं, जब ध्यान उनसे जुड़ता है।
संकल्प का चक्र है आज्ञा। अर्जुन से वे कह रहे हैं, तू उस पर ध्यान कर। कर्मयोगी के लिए वही उचित है। कर्म का चक्र है वह, विराट ऊर्जा का, उस पर तू ध्यान कर। लेकिन ध्यान तभी घटित होगा, जब बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास सम स्थिति मेंं हों।
आपको खयाल मेंं नहींं होगा कि सम स्थिति कब होती है। आपको पता होता है कि श्वास भीतर गई, तो आपको पता होता है। श्वास बाहर गई, तो आपको पता होता है। लेकिन एक क्षण ऐसा आता है, जब श्वास भीतर होती है, बाहर नहींं जा रही, एक रुका हुआ क्षण। एक क्षण ऐसा भी होता है, जब श्वास बाहर चली गई और अभी भीतर नहींं आ रही, एक छोटा-सा अंतराल। उस अंतराल मेंं चेतना बिलकुल ठहरी हुई होती है। उसी अंतराल मेंं अगर ध्यान ठीक से किया गया, तो आज्ञा-चक्र शुरू हो जाता है, सक्रिय हो जाता है।
और जब ऊर्जा आज्ञा-चक्र को सक्रिय कर दे, तो आज्ञा-चक्र की हालत वैसी हो जाती है, जैसे कभी आपने सूर्यमुखी के फूल देखे हों सुबह, सूरज नहींं निकला, लटके रहते हैं जमीन की तरफ, उदास, मुर्झाए हुए, पंखुडिय़ां बंद, जमीन की तरफ लटके हुए। फिर सूर्य निकला और सूर्यमुखी का फूल उठना शुरू हुआ, खिलना शुरू हुआ, पंखुडिय़ां फैलने लगीं, मुस्कुराहट छा गई, नृत्य फूल पर आ गया। रौनक, ताजगी। फूल जैसे जिंदा हो गया, उठकर खड़ा हो गया।
जिस चक्र पर ध्यान नहींं है, वह चक्र उलटे फूल की तरह मुर्झाया हुआ पड़ा रहता है। जैसे ही ध्यान आता है, जैसे सूर्य ने फूल पर चमत्कार किया हो, ऐसे ही ध्यान की किरणें चक्र के फूल को ऊपर उठा देती हैं। और एक बार किसी चक्र का फूल ऊपर उठ जाए, तो आपके जीवन मेंं एक नई इंद्रिय सक्रिय हो गई। आपने भीतर की दुनिया से संबंध जोडऩा शुरू कर दिया।
अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने मेंं आसानी होगी। जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही, जैसा कि क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा-चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहींं होगा कि आज्ञा-चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहींं है, वह किसी चीज को अपने मेंं समा सकता है, हमला नहींं कर सकता, जैसे कि स्त्रियां। स्त्री का पूरा बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है। उसे गर्भ ग्रहण करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने मेंं समाकर और बड़ी करनी है। इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो यह एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहींं होगी और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान-रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमेंं पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी।
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था है ध्यान करने के लिए। अर्जुन के लिए इसलिए कृष्ण ने यह सूत्र को कहा।
और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती है, न बाहर, न भीतर, बीच मेंं ठहरी होती है। न तो आप ले रहे होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहींं होती, ठहरी होती है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत मेंं होते हैं, जैसी हालत मेंं मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत मेंं जन्म के समय होते हैं।
अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच मेंं न्यूट्रल गियर है, जहां सम है, जहां न भीतर, न बाहर, न अस्तित्व है जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण मेंं आपका रूपांतरण होता है।
इसलिए कृष्ण दो बातों पर जोर देते हैं, श्वास हो सम अर्जुन, और ध्यान तेरा भू-मध्य पर, आज्ञा-चक्र पर हो, तो फूल ऊपर उठ जाएगा, चक्र खुल जाएगा। और जैसे ही वह चक्र खुलेगा, वैसे ही तू अचानक पाएगा कि वह सारी शक्ति जो पहले काम बनती थी, क्रोध बनती थी, वह सारी की सारी शक्ति आज्ञा-चक्र पी गया। वह सारी शक्ति संकल्प बन गई।
इसलिए ध्यान रखें, अगर आप बहुत क्रोधी हैं या बहुत कामी हैं, तो एक लिहाज से दुर्भाग्य है, लेकिन एक लिहाज से सौभाग्य भी है। क्योंकि इस जगत मेंं जो बहुत कामी हैं और बहुत क्रोधी हैं, वे ही बड़े संकल्पवान हो सकते हैं। दुर्भाग्य है कि काम और क्रोध आपको परेशान करेंगे। सौभाग्य है कि अगर आप ध्यान कर लें, तो आपके पास जितना संकल्प होगा, उतना उन लोगों के पास नहींं होगा, जिनके पास न काम है, न क्रोध है।
इसलिए इस जगत मेंं जिन लोगों ने बहुत महान शक्ति पाई, वे वे ही लोग हैं, जो बहुत कामी थे। यह बहुत हैरानी की बात है। इस जगत मेंं जो लोग बहुत महान ऊर्जा को उपलब्ध हुए, वे वे ही लोग हैं, जो अतिकामी थे। साधारण रूप से कामी नहींं थे, बहुत कामी थे। लेकिन जब शक्ति बदली, तो यही बड़ी शक्ति जो काम मेंं प्रकट होती थी, संकल्प बन गई।
अर्जुन अगर रूपांतरित हो जाए, तो जैसा महाक्षत्रिय है वह बाहर के जगत मेंं, ऐसा ही भीतर के जगत मेंं महावीर हो जाएगा। इतनी ही ऊर्जा जो क्रोध और काम मेंं बहती है, संकल्प को मिल जाए, तो संकल्प महान होगा।
इस जगत मेंं वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं, इस जगत मेंं अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति पास मेंं है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ मेंं है। काम-क्रोध बिलकुल न हो, तो बहुत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पास मेंं नहींं है, रूपांतरित क्या होगा!
इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे वह आपके खयाल मेंं आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी। यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा। शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग मेंं उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल मेंं आ सकता है।





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उत्सवों और त्योहारों के रंग में रंगी तीर्थस्थली : महासमुंद

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महासमुंद छत्तीसगढ़ प्रान्त का एक शहर है। अपनी प्राकृतिक सुन्दरता, रंगारंग उत्सवों और त्योहारों के लिए महासमुंद प्रसिद्ध है। यहां पर पूरे वर्ष मेले आयोजित किए जाते हैं। स्थानीय लोगों मेंं यह मेले बहुत लोकप्रिय है। स्थानीय लोगों के अलावा पर्यटकों को भी इन मेलों मेंं भाग लेना बड़ा अच्छा लगता है। इन मेलों मेंं चैत्र माह मेंं मनाया जाने वाला राम नवमी का मेला, वैशाख मेंं मनाया जाने वाला अक्थी मेला, अषाढ़ मेंं मनाया जाने वाला ''माता पहुंचनी मेला आदि प्रमुख हैं।
मेलों और उत्सवों की भव्य छटा देखने के अलावा पर्यटक यहां के आदिवासी गांवों की सैर कर सकते हैं। गांवों की सैर करने के साथ वह उनकी रंग-बिरंगी संस्कृति से भी रूबरू हो सकते हैं। यहां रहने वाले आदिवासियों की संस्कृति पर्यटकों को बहुत पसंद आती है। वह आदिवासियों की संस्कृति की झलक अपने कैमरों मेंं कैद करके ले जाते हैं।
सियादेवी:
बालोद से 25 किमी. दूर पहाड़ी पर स्थित सियादेवी मंदिर प्राकृतिक सुंदरता से शोभायमान है जो एक धार्मिक पर्यटन स्थल है। यहां पहुंचने पर झरना, जंगल व पहाड़ों से प्रकृति की खूबसूरती का अहसास होता है। इसके अलावा रामसीता लक्ष्मण, शिव-पार्वती, हनुमान, राधा कृष्ण, भगवान बुद्ध, बूढ़ादेव की प्रतिमाएं है। यह स्थल पूर्णत: रामायण की कथा से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि त्रेता युग मेंं भगवान राम, सीता माता और लक्षमण वनवास काल मेंं इस जगह पर आये थे। यहाँ सीता माता के चरण के निशान भी चिन्हित हैं। बारिस मेंं यह जगह खूबसूरत झरने की वजह से अत्यंत मनोरम हो जाती है। झरने को वाल्मीकि झरने के नाम से जाना जाता है। परिवार के साथ जाने के लिए यह बहुत बेहतरीन पिकनिक स्पाट है। यहाँ जाने का सबसे अच्छा समय जुलाई से फरवरी तक है।
लक्ष्मण मन्दिर:
महासमुन्द मेंं स्थित लक्ष्मण मन्दिर भारत के प्रमुख मन्दिरों मेंं से एक है। यह मन्दिर बहुत खूबसूरत है और इसके निर्माण मेंं पांचरथ शैली का प्रयोग किया गया है। मन्दिर का मण्डप, अन्तराल और गर्भ गृह बहुत खूबसूरत है, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते है। इसकी दीवारों और स्तम्भों पर भी सुन्दर कलाकृतियां देखी जा सकती हैं, जो बहुत खूबसूरत हैं। इन कलाकृतियों के नाम वातायन, चित्या ग्वाकक्षा, भारवाहकगाना, अजा, किर्तीमुख और कर्ना अमालक हैं। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर शेषनाग, भोलेनाथ, विष्णु, कृष्ण लीला की झलकियां, वैष्णव द्वारपाल और कई उनमुक्त चित्र देखे जा सकते हैं। यह चित्र मन्दिर की शोभा मेंं चार चांद लगाते है और पर्यटकों को भी बहुत पसंद आते हैं।
आनन्द प्रभु कुटी विहार और स्वास्तिक विहार:
सिरपुर अपने बौद्ध विहारों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इन बौद्ध विहारों मेंं आनन्द प्रभु विहार और स्वास्तिक विहार प्रमुख हैं। आनन्द प्रभु विहार का निर्माण भगवान बुद्ध के अनुयायी आनन्द प्रभु ने महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल मेंं कराया था। इसका प्रवेश द्वार बहुत खूबसूरत है। प्रवेश द्वार के अलावा इसके गर्भ-गृह मेंं लगी भगवान बुद्ध की प्रतिमा भी बहुत खूबसूरत है जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती है। विहार मेंं पूजा करने और रहने के लिए 14 कमरों का निर्माण भी किया गया है।
आनन्द प्रभु विहार के पास स्थित स्वास्तिक विहार भी बहुत खूबसूरत है जो हाल मेंं की गई खुदाई मेंं मिला है। कहा जाता है कि बौद्ध भिक्षु यहां पर तपस्या किया करते थे।
गंडेश्वर मन्दिर:
महानदी के तट पर स्थित गंडेश्वर मन्दिर बहुत खूबसूरत है। इसका निर्माण प्राचीन मन्दिरों और विहारों के अवेशषों से किया गया है। मन्दिर मेंं पर्यटक खूबसूरत ऐतिहासिक कलाकृतियों को देख सकते हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती हैं। इन कलाकृतियों मेंं नटराज, शिव, वराह, गरूड़, नारायण और महिषासुर मर्दिनी की सुन्दर प्रतिमाएं प्रमुख हैं। इसके प्रवेश द्वार पर शिव-लीला के चित्र भी देखे जा सकते हैं, जो इसकी सुन्दरता मेंं चार चांद लगाते हैं।
संग्रहालय:
भारतीय पुरातत्व विभाग ने लक्ष्मण मन्दिर के प्रांगण मेंं एक संग्रहालय का निर्माण भी किया है। इस संग्रहालय मेंं पर्यटक सिरपुर से प्राप्त आकर्षक प्रतिमाओं को देख सकते हैं। इन प्रतिमाओं के अलावा संग्रहालय मेंं शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन धर्म से जुड़ी कई वस्तुएं देखी जा सकती हैं, जो बहुत आकर्षक हैं। यह सभी वस्तुएं इस संग्रहालय की जान हैं।
श्वेत गंगा:
महासमुन्द की पश्चिमी दिशा मेंं 10 कि.मी. की दूरी पर श्वेत गंगा स्थित है। गंगा के पास ही मनोरम झरना और मन्दिर है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। माघ की पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन यहां पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले मेंं स्थानीय निवासी और पर्यटक बड़े उत्साह के साथ भाग लेते हैं। श्रावण मास मेंं यहां पर भारी संख्या मेंं शिवभक्त इक_े होते हैं और यहां से कांवड़ लेकर जाते हैं। वह कावड़ के जल को गंगा से 50 कि.मी. दूर सिरपुर गांव के गंडेश्वर मन्दिर तक लेकर जाते हैं और मन्दिर के शिवलिंग को इस जल से नहलाते हैं। अपनी इस यात्रा के दौरान भक्तगण बोल बम का उद्घोष करते हैं। उस समय सिरपुर छोटे बैजनाथ धाम जैसा लगता है।
छत्तीसगढ़ के 36गढ़ों मेंं से चार गढ़ मोहंदी, खल्लारी, सिरपुर और सुअरमार महासमुंद जिले मेंं हैं। जिला मुख्यालय से 10 किमी दूर मोहंदी गढ़ मेंं 18किमी का पठार है। इस गढ़ मेंं एक सुरंग है। लेकिन इसकी लंबाई अब तक कोई नहींं जान पाया है। पठार के ऊपरी हिस्से का नजारा किसी हिल स्टेशन से कम नहींं है। मोहंदी प्राचीनकाल मेंं नगर था। इस गढ़ का इतिहास नागपुर के संग्रहालय मेंं है।
मोहंदी ग्राम के विजय दीवान ने बताया कि इस गढ़ मेंं किला, सुंदर झरना, महादेवा पठार, रानी खोल और लंबी सुरंग है। सुरंग के बारे मेंं कहा जाता है कि 20-21 साल पहले जब ग्रामीण यहां पहुंचे, तो सुरंग एक छेद की भांति दिख रहा था।
आज यह 250 से 300 मीटर तक खुल गया है। पहाड़ के सोरमसिंघी व दलदली के पास भी इसी तरह का सुरंग है। सुअरमाल 125 एकड़ क्षेत्रफल पर फैला हुआ है, जो हरियाली से अच्छादित है। यहां पुरातन मंदिर भी है, जो आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। पर संरक्षण के अभाव मेंं यह गढ़ उपेक्षित है। पुरानगरी सिरपुर को जिस तरह शासन तव्वजो दे रही है, उस लिहाज से यह दोनों गढ़ अपने अस्तित्व बरकरार रखने शासन की बाट जो रहे हैं।
पठार तक पहुंचने बनाई सीढ़ी:
मोहंदी के ग्रामीणों ने पठार तक पहुंचने के लिए सीढ़ी बनवाया है। हर वर्ष नवरात्रि मेंं चंपई माता की पूजा-अर्चना की जाती है। इस गढ़ के ऊपरी सतह पर पत्थर से किला बनवाया गया है, जो कटिंग पत्थर से बना है। वर्तमान मेंं ग्रामीणों ने यहां देवी की स्थापना की है। महादेव पठार मेंं मौजूद झरना का पानी दलदली मेंं जाकर निकलता है। जहां नंदी के मुख से पानी निकल रहा है। यह पठार मोहंदी, सोरमसिंघी, दलदली, गौरखेड़ा, खल्लारी तक फैला हुआ है।
मधुबन धाम:
छत्तीसगढ़ अंचल मेंं फसल कटाई और मिंजाई के उपरांत मेलों का दौर शुरु हो जाता है। साल भर की हाड़-तोड़ मेहनत के पश्चात किसान मेलों एवं उत्सवों के मनोरंजन द्वारा आने वाले फसली मौसम के लिए उर्जा संचित करता है। छत्तीसगढ़ मेंं महानदी के तीर राजिम एवं शिवरीनारायण जैसे बड़े मेले भरते हैं तो इन मेलों के सम्पन्न होने पर अन्य स्थानों पर छोटे मेले भी भरते हैं, जहाँ ग्रामीण आवश्यकता की सामग्री के साथ-साथ खाई-खजानी, देवता-धामी दर्शन, पर्व स्नान, कथा एवं प्रवचन श्रवण के साथ मेलों मेंं सगा सबंधियों एवं इष्ट मित्रों से मुलाकात भी करते है तथा सामाजिक बैठकों के द्वारा सामाजिक समस्याओं का समाधान करने का प्रयास होता है। इस तरह मेला संस्कृति का संवाहक बन जाता है और पीढ़ी दर पीढ़ी सतत रहता है।
मधुबन धाम के मधुक वृक्ष:
मान्यता है कि पहले यह घना जंगल था तथा जंगल इतना घना था कि पेड़ों के बीच से 2 बैल एक साथ नहींं निकल सकते थे। महंत के जाने के बाद यहां पर कुछ लोगों को बहुत बड़ा लाल मुंह का वानर दिखाई दिया। वह मनुष्यों जैसे दो पैरों पर खड़ा दिखाई देता था। देखने वालों ने पहले उसे रामलीला की पोशाकधारी कोई वानर समझा, लेकिन वह असली का वानर था। उसके बाद सब गांव वालों ने इस घटना पर चर्चा की। फिर यहाँ एक यज्ञ किया गया और तब से प्रति वर्ष यहाँ यज्ञ के साथ मेले का आयोजन प्रारंभ हो गया।
सरोवर मेंं विराजे हैं भगवान कृष्ण:
मधुबन मेंं मेला आयोजन के लिए मधुबन धाम समिति का निर्माण हुआ है, यही समिति विभिन्न उत्सवों का आयोजन करती है। फाल्गुन मेला के साथ यहां पर चैत्र नवरात्रि एवं क्वांर नवरात्रि का नौ दिवसीय मेला पूर्ण धूमधाम से मनाया जाता है तथा दीवाली के पश्चात प्रदेश स्तरीय सांस्कृतिक ''मातर उत्सवÓÓ मनाया जाता है, जिसकी रौनक मेले जैसी ही होती है। मधुबन की मान्यता पांडव कालीन है, पाँच पांडव मेंं से सहदेव राजा ग्राम कुंडेल मेंं विराजते हैं और उनकी रानी सहदेई ग्राम बेलौदी मेंं विराजित हैं, यहाँ से कुछ दूर पर महुआ के ५ पेड़ हैं , जिन्हें पचपेड़ी कहते हैं। इन पेड़ों को राजा रानी के विवाह अवसर पर आए हुए बजनिया (बाजा वाले) कहते हैं तथा मधुबन के सारे महुआ के वृक्षों को उनका बाराती माना जाता है।
हनुमान मंदिर एवं यज्ञ शाला:
ऐसी मान्यता भी है कि भगवान राम लंका विजय के लिए इसी मार्ग से होकर गए थे। इस स्थान को राम वन गमन मार्ग मेंं महत्वपूर्ण माना जाता है। मेला क्षेत्र के विकास के लिए वर्तमान पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर ने अपने पूर्व विधायक काल विशेष सहयोग किया है। तभी इस स्थान पर शासकीय राशि से संत निवास का निर्माण संभव हुआ। मधुबन के समीप ही नाले पर साप्ताहिक बाजार भरता है। सड़क के एक तरफ शाक भाजी और दूसरी मछली की दुकान सजती है। मेला के दिनों मेंं यहां पर मांस, मछरी, अंडा, मदिरा आदि का विक्रय एवं सेवन कठोरता के साथ वर्जित रहता है। यह नियम समस्त ग्रामवासियों ने बनाया है।
पहुंच मार्ग:
वायु मार्ग: पर्यटकों की सुविधा के लिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर मेंं हवाई अड्डे का निर्माण किया गया है। यहां से पर्यटक बसों व टैक्सियों द्वारा आसानी से महासमुन्द तक पहुंच सकते हैं।
रेल मार्ग: मुंबई-विशाखापट्टनम और कोलकाता-विशाखापट्टनम रेलवे लाईन पर महासमुन्द मेंं रेलवे स्टेशन का निर्माण किया गया है।
सड़क मार्ग: महासमुन्द कोलकाता, मुंबई और देश के अन्य भागों से सड़क मार्ग द्वारा अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। जहां से पर्यटक आसानी से महासमुन्द तक पहुंच सकते हैं।






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खुद से प्यार करना सीखो


ऐसा समय सभी के जीवन मेंं कभी न कभी जरूर आता है जबकि व्यक्ति को अपनी क्षमताओं पर संदेह होने लगता है, अपनी योग्यता पर वह खुद ही प्रश्नचिह्न लगाने लगता है। जिंदगी के ऐसे लम्हों मेंं जब आप खुद को कमतर आंकें तो अपने आत्मविश्वास को संभालने की बहुत ज्यादा जरूरत है। यहां हम आपको कुछ ऐसे टिप्स देंगे जिनसे आपको आत्मसंशय के समय आत्मविश्वास बढ़ जाएगा और आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए तीसरे स्थान को मजबूत करना अत्यंत आवश्यक है।

क्या वाकई मैं कुछ अच्छा काम नहींं कर रहा हूं? क्या मैं अपनी पूरी क्षमता से काम कर पा रहा हूं? क्या मैं इतना अच्छा हूं कि लोग मुझसे प्यार करें? ऐसे खयाल बहुत से लोगों के मन मेंं उमड़ते हैं। अपने प्रियजनों और परिजनों की नजर मेंं और अपने कामकाजी जीवन मेंं अपने महत्व को लेकर अक्सर लोग कुछ ज्यादा ही चिंतित होते हैं। ऐसी चिंता बहुधा उन्हें अपनी क्षमता से कमतर होने का एहसास कराती है। व्यक्ति कई मौकों पर खुद को मूल्यहीन समझने लगता है। ऐसे मेंं किसी भी तुलना से दूर रहते हुए खुद पर भरोसा रखकर आगे बढऩा ही आपका मंत्र होना चाहिए। सभी बातों मेंं सबसे महत्वपूर्ण है कि कभी यह न सोचें कि आपका कोई महत्व नहींं है। किसी भी व्यक्ति को ऐसा नहींं सोचना चाहिए। और ऐसा किसी के मन में लगातार आ रहा हो तो अपनी कुंडली के तीसरे स्थान का विश£ेषण कराकर उस स्थान के ग्रह की शांति कराकर अपना मनोबल उच्च करना चाहिए।
हर व्यक्ति का अलग स्तर:
अगर आपको लगता है कि आपको अपने साथियों के मुकाबले बहुत ही कम चीजें आती हैं। उनके स्तर तक पहुंचने के लिए आपको बहुत लंबा समय लगेगा तो इस तरह दूसरों के साथ तुलना करने के बजाय आपको समझना चाहिए कि उनके और आपके स्तर मेंं फर्क है, और आप दोनों की प्राथमिकताएं भी अलग-अलग हैं।
समान परिस्थितियों मेंं रहने वाले दो लोग भी एक स्तर पर नहींं होते हैं इसलिए खुद को दूसरों से कमतर समझने के भाव से उबरना चाहिए। इसके साथ यह भी है कि सिर्फ आप अकेले नहींं हैं जो दूसरों से इस तरह की तुलना करके दबाव मेंं आते हैं बल्कि ऐसा सभी लोगों के साथ होता है। मुश्किल उन्हीं लोगों के साथ पेश आती है जो खुद को मूल्यहीन मान बैठते हैं। इसलिए जरूरी यही है कि खुद को मूल्यहीन न समझें।
हर व्यक्ति मेंं कोई न कोई खूबी:
मान लीजिए कि आप मार्केटिंग मेंं बहुत अच्छे नहींं हैं और इसी कारण आप खुद को साबित करने का दबाव महसूस करते हों लेकिन हो सकता है कि आप दूसरों के साथ तालमेंल मेंं माहिर हों। अक्सर हम अपने भीतर उन्हीं गुणों को तलाशते हैं जो हमेंं दूसरों मेंं दिखाई देते हैं, उन गुणों की तलाश नहींं करते जो हमारे भीतर हैं।
हम दूसरों के गुणों को तो देख पाते हैं लेकिन कई बार अपने गुणों की तरफ ही नजर नहींं जाती है। ऐसे मेंं अपनी क्षमताओं और योग्यताओं को पहचानने की जरूरत है। इसे यूं समझिए कि आप अपने भाई, बहन, पिता, टीचर, बॉस की तरह नहींं होते हैं। आपकी परवरिश और आपका स्वभाव दूसरों से अलग ही होगा। हर व्यक्ति दूसरे से अलग होता है। ऐसे मेंं अपने को कमतर आंकने का कोई अर्थ नहींं है।
भविष्य नहींं वर्तमान मेंं रहें:
ऐसे बहुत से लोग हैं जो सोचते हैं कि जब उनकी नौकरी अच्छी हो जाएगी तो वे ज्यादा बेहतर स्थिति मेंं होंगे। या फिर जब उनका अपना घर होगा तब उनके लिए कोई आकांक्षा बाकी नहींं रह जाएगी। जब वे पूरी तरह स्वस्थ होंगे तभी वे खुश रहेंगे। लेकिन इस तरह की सोच के साथ लोग अपने ''आज की पूरी तरह उपेक्षा करते हैं और उस भविष्य मेंं जीते हैं जो संभावित है।
ऐसे लोग खुशियों के पीछे दौड़ते रहते हैं लेकिन हमेशा उन्हें खुशियां अपने से आगे ही नजर आती है और उन्हें लगता है कि उनका आज मूल्यहीन है। जब वे आज के महत्व को समझेंगे तो उन्हें जीवन मूल्यवान नजर आएगा।
खुद से प्यार करें:
जब भी जीवन मेंं दु:ख हो तो आपको प्यार की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। अगर आप खुद के प्रति ही अच्छा नहींं महसूस करेंगे तो चीजें ठीक नहींं होगी। कठिन समय मेंं इंसान को अपने प्रति अधिक उदार होने की जरूरत होती है। हम देखते हैं कि जब भी बच्चे को चोट पहुंचती है या वे दु:खी होते हैं तो माता-पिता उन्हें दुलारते हैं और कहते हैं कि सबकुछ ठीक होगा। यह आश्वासन उनकी जिंदगी मेंं महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हमेंं अपने प्रति भी इस तरह के प्रेम के प्रदर्शन की जरूरत है। अपने प्रति अच्छा सोचकर आप सही दिशा मेंं आगे बढ़ सकेंगे। अपने गुणों के प्रति विश्वास रखना आपको भीतर से भी मजबूत बनाएगा।
आकलन का नजरिया अपना हो:
हम खुद को किस तरह देखें और खुद का मूल्यांकन किस तरह करें इसका विचार हमेंं अपने आसपास के लोगों से मिलता है लेकिन पूरी तरह उनके विचारों के अनुरूप चलने से आप कभी पूरी तरह अपने मन का काम नहींं कर पाएंगे।
हमेशा उनके विचारों के अनुरूप बने रहने का दबाव आप पर बना रहेगा और आप हमेशा खुद को कमतर पाएंगे, इसलिए किसी की भी नकारात्मक प्रतिक्रिया या नकारात्मक विचार के आधार पर खुद के आकलन से बचें। इस तरह आप अपनी ऊर्जा को भी बचा पाएंगे और सही दिशा मेंं आगे बढ़ पाएंगे।

भविष्य आपके हाथ मेंं है:
आप अपने विचारों के स्वामी हैं और अपनी गतिविधियों को नियंत्रित भी कर सकते हैं। जब एक बार आप जान लेते हैं कि हर तरह की स्थिति से निकला जा सकता है तो कुछ भी मुश्किल नहींं है। इसलिए आज अगर आप कठिन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं तो कल उसमेंं बदलाव भी कर सकते हैं।
हमेशा याद रखें कि अपने भविष्य को बदलना आपके हाथ मेंं है और अगर आप आज कडी मेंहनत करते हैं तो भविष्य मेंं अच्छे परिणाम हासिल कर सकते हैं। मुश्किलों से जूझते हुए जब आप चीजों को बेहतर बनाएंगे तो इससे आपका आत्मसम्मान भी बढऩा तय है।
जो आप कर सकते हैं दूसरे नहींं:
कुछ काम ऐसे भी होते हैं जो आप दूसरों से ज्यादा बेहतर तरीके से कर सकते हैं और इस लिहाज मेंं आप उनसे बहुत ज्यादा आगे हैं। यह खुद को दिलासा देने के लिए नहींं है बल्कि इसका महत्व इस रूप मेंं है कि इस तरह की सोच आपको प्रेरित और उत्साहित बनाए रखती है।
जीवन एकपक्षीय नहींं है बल्कि उसमेंं कई क्षेत्र हैं और हर क्षेत्र मेंं अलग तरह की योग्यता की जरूरत होती है। याद रखें कि आपके क्षेत्र के मुताबिक आपकी काबिलियत के भी अपने मायने हैं।

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Monday, 25 May 2015

जानिये आज 25/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से"बार-बार चोटिल होने का ज्योतिष कारण"




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जानिये आज का राशिफल 25/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से




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