Saturday, 20 February 2016

कारकांश लग्न से डॉक्टर बनने के योग

यदि कारकांश लग्न में शुक्र या चंद्र हो और वहां स्थित चंद्र को बुध देखता हो तो जातक डाॅक्टर होता है। यदि आत्मकारक ग्रह मंगल हो या मेष या वृश्चिक नवांश में हो तो जातक डाॅक्टर होता है। यदि आत्मकारक ग्रह मंगल का संबंध चंद्र या सूर्य से हो तो जातक सरकारी अस्पताल में डाॅक्टर होता है। विवेचन एवं विश्लेषण: इसमें हमने 36 कुंडलियों का अध्ययन किया। इस सर्वेक्षण में हमने पाया कि अधिकतर जातक की कुंडलियों में आत्मकारक ग्रह बुध है और बुध का दृष्टि-युति प्रभाव कुल मिलाकर 52 प्रतिशत सबसे अधिक पाया गया। बुध का जो कि बुद्धि, स्मरण शक्ति, तर्क का प्रतीक है जातक को चिकित्सक बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है। बुध के बाद सूर्य का आत्मकारक ग्रह के रूप में महत्वपूर्ण योगदान रहा, सूर्य जो कि औषधि और स्वास्थ्य का कारक है। चिकित्सक बनने के लिए इसका बली होना जरूरी है। इसके बाद मंगल का जो कि शक्ति, ऊर्जा और उत्साह का प्रतीक है। प्रभाव सबसे अधिक पाया गया। अगर आत्मकारक ग्रह मंगल हो या मंगल के नवांश में हो या नवांश कुंडली में मंगल से दृष्ट हो या युक्त हो तो डाॅक्टर होता है। मंगल क्योंकि रक्त का कारक है। तेज धार वाले औजारों का कारक है। चिकित्सा क्षेत्र में इनका योगदान होता है। इसलिए बली मंगल का जातक को चिकित्सक बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है। राहु और केतु को यद्यपि आत्मकारक नहीं माना फिर भी इसका युति व दृष्टि प्रभाव सबसे अधिक रहा। राहु केतु का सम्मिलित प्रभाव 61 प्रतिशत आश्चर्यजनक है। राहु एंटीबायटिक औषधियों का प्रतीक है। जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा रोग का उपचार करने में राहु व केतु का बली होना आवश्यक है। ग्रह युति प्रभाव: हमारे सर्वेक्षण में डाॅक्टरों की कुंडलियों में बुध केतु और मंगल का युति प्रभाव सबसे अधिक देखा गया। दृष्टि प्रभाव: आत्मकारक ग्रह पर सबसे अधिक राहु का दृष्टि प्रभाव था, राहु का 25 प्रतिशत दृष्टि प्रभाव महत्वपूर्ण था। मंगल का 22 प्रतिशत प्रभाव दर्शाता है कि चिकित्सा क्षेत्र में शक्ति और साहस का प्रतीक मंगल का काफी योगदान है। परिणाम कारकांश लग्न व चिकित्सा का व्यवसाय कारकांश लग्न में यदि शुक्र व चंद्र हो अथवा वहां स्थित चंद्र को शुक्र देखता हो तो मनुष्य चिकित्सा संबंधी रसायनों का निर्माता अर्थात दवा बनाने वाला होता है। डाॅक्टर योग कारकांश लग्न में स्थित चंद्र को यदि बुध, देखता हो तो जातक डाॅक्टर होता है। शिशु रोग विशेषज्ञ जन्मकुंडली में बुध और शुक्र की युति केंद्र, त्रिकोण या द्वितीय या एकादश में हो तो जातक शिशु रोग विशेषज्ञ होता है। कारकांश लग्न में स्थित बुध, शुक्र से युक्त या दृष्ट हो तो व्यक्ति शिशु रोग विशेषज्ञ होता है।

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Thursday, 18 February 2016

विभिन्न कालसर्प योगों के प्रतिफल

विभिन्न कालसर्प योगों के प्रतिफल दाती राजेश्वर महाराज अनंत कालसर्प योग के कारण व्यक्ति के जीवन में संघर्ष, विराग, अपनों से तना-तनी असहयोग, गृहस्थ जीवन में नीरसता छा जाती है। कुलिक कालसर्प योग आर्थिक स्थिति को डांवाडोल करके स्वभाव को चिड़चिड़ा बना देता है और स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव के साथ वैचारिक मतभेद आदि पैदा करता है। वासुकि कालसर्प योग पारिवारिक कलह, संघर्ष, रिश्तेदारों व मित्रों से धोखा तथा भाई-बहन से अनबन का कारण बनता है। शंखपाल कालसर्प योग के कारण विद्या प्राप्ति में बाधा, मानसिक व घरेलू कठिनाइयों तथा विश्वासघात का सामना होता है। पद्म कालसर्प योग संतान प्राप्ति में बाधा या विलंब करता है, पढ़ाई में रुकावट, दाम्पत्य जीवन में तनाव, संघर्ष व शत्रुओं से हानि होती है। महापद्म कालसर्प योग यात्राएं, चिंता, स्वप्न में सांप व शत्रुओं के षडयंत्र के रूप में प्रकट होता है। तक्षक कालसर्प योग से वैवाहिक जीवन में तनाव, संबंध-विच्छेद की नौवत आ जाती है, असफल प्रेम संबंध तथा मानसिक कष्ट होता है। कर्कोटक कालसर्प योग से अल्पायु का भय, वाणी में दोष, गाली गलौच, शत्रुओं का जन्म, धन का अभाव हमेशा बना रहता है। शंखचूड़ कालसर्प योग सर्विस सेवा में अवरोध, अवनति, मामा, नाना व संबंधियों के प्रति चिंता बनी रहती है, व्यापार में घाटा होता है। घातक कालसर्प योग जन्म से ही परिवार से अलग कर देता है, शत्रुओं की अधिकता के साथ मानसिक क्लेश देता है परंतु अंत में वह व्यक्ति प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है। विषधर कालसर्प योग उच्च शिक्षा में बाधा, स्मरण शक्ति में कमी, संतान की बीमारी, नाना-नानी व दादा-दादी से विशेष लाभ व हानि के रूप में फलित होता है। शेष नाग कालसर्प योग वाले व्यक्ति को जन्म स्थान से दूर इज्जत, मान व प्रसिद्धि मिलती है, नेत्र पीड़ा, इच्छा पूर्ति में रुकावटों के साथ गुप्त शत्रु पैदा हो जाते हैं, जीवन को रहस्यमय बनाकर काम का ढंग निराला बनाता है और अंत में खयाति दिलाता है।

बाधक दोष

’’बाधक’’ क्या है ? किसी कार्य में बाधा या रुकावट उत्पन्न करने वाला ग्रह ’’बाधक’’ कहलाता है। जन्म कुंडली के अध्ययन के समय यदि कोई ग्रह देखने में तो योगकारी, और लाभकारी प्रतीत होता है, परंतु वास्तव में जातक के जीवन में वह ग्रह अनिष्ट कर रहा होता है, तब ऐसे ग्रह की अवस्था ’’बाधक’’ कहलाती है और यह दोष ’’बाधक दोष’’ कहलाता है। जन्मलग्न में यदि चर स्वभाव की राशि (मेष, कर्क, तुला, या मकर) हो तो एकादश भाव को बाधक भाव कहते हैं और एकादशेश व एकादश भाव में स्थित ग्रहों को बाधक ग्रह कहते हैं। इसी प्रकार से जन्मलग्न में स्थिर स्वभाव की राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक या कंुभ) हो तो नवम स्थान, उसका स्वामी और उसमें स्थित ग्रह और जन्मलग्न में द्विस्वभाव राशि (मिथुन, कन्या, धनु या मीन) हो तो सप्तम स्थान, उसके स्वामी ग्रह और उसमें स्थित ग्रह बाधाकारी होते हैं। बाधक ग्रह अपनी दशा-अंतर्दशा में रोग, शोक, हानि, अपयश और दुःख देते हैं। इनकी दशा में विदेश भी जाना पड़ता है यानि परिवार से वियोग होता है। कुछ ज्योतिष विद्व ानों का एक विचार यह भी है कि बाधक ग्रह का दोष तब प्रकट होता है, जब वह षष्ठेश से युक्त हो। ऐसी अवस्था में जातक शत्रुओं के द्वारा आर्थिक, दैहिक, सामाजिक रूप से कष्ट भोगता है। क्या आप बाधक दोष से ग्रस्त हैं ? डाॅ. संजय बुद्धिराजा, फरीदाबाद बाधक दोष जन्म कुंडली में केवल जन्मलग्न के लिए ही नहीं होता है, बल्कि यह प्रत्येक भाव के लिए होता है। जैसे, मेष लग्न की कुंडली में लग्न में चर स्वभाव की मेषराशि के लिए बाधक स्थान एकादश भाव होता है। उसी प्रकार से इसी मेष लग्न की कुंडली में द्वि तीय भाव (यहां स्थिर स्वभाव की वृष राशि है) के लिए बाधक स्थान द्वितीय से नवम स्थान होगा यानि दशम भाव होगा और तृतीय भाव (यहां द्विस्वभाव की मिथुन राशि है) के बाधक स्थान तृतीय से सप्तम स्थान होता है यानि नवम भाव होता है। भारतीय ज्योतिष ग्रंथों में बाधक दोष का विस्तृत वर्णन नहीं है, इसलिए यह एक शोध का विषय है। अब प्रश्न उठता है कि बाधक स्थान के स्वामी के लिए कुंडली में कौन सा स्थान उपयुक्त होता है ? जैसा कि हम जानते हैं कि कुंडली में केंद्र और त्रिकोण भाव शुभ स्थान हैं, मगर 3-6-8-12 भाव अशुभ स्थान हैं। इस कारण केंद्र और त्रिकोण के स्वामी की बलवान अवस्था और 3-6-8-12 भाव के स्वामी की निर्बल अवस्था अच्छी कही जाती है। अतः बाधक स्थान के स्वामी की अपने भाव से केंद्र या त्रिकोण स्थान में स्थिति उसे बलवान करेगी और ऐसी अवस्था में उसका बाधक दोष बढ़ जाएगा, किंतु अपने भाव से 3-6-8-12 भाव में स्थिति में वह कमजोर होकर बाधक दोष से मुक्त होगा और जातक अपने सुकर्मों से बाधाओं पर विजय प्राप्त कर सकता है।

अस्त ग्रहों का फल

सूर्य को ग्रहों का राजा कहा जाता है। जो ग्रह सूर्य से एक निष्चित अंषों पर स्थित होने पर अपने राजा के तेज और ओज से ढंक जाता है और क्षितिज पर दृष्टिगोचर नहीं होता तो उसका प्रभाव नगण्य हो जाता है। भारतीय फलित ज्योतिष में ग्रहों की दस अवस्थाएं हैं। दीप्त, स्वस्थ, मुदित, शक्त, षान्त, पीडित, दीन, विकल, खल और भीत। जब ग्रह अस्त हो तो विकल कहलाता है। अस्त होने का दोष सभी ग्रहों को है। सूर्य से ग्रह के बीच एक निष्चित अंषों की दूरी रह जाने पर उस ग्रह को अस्त होने का दोष माना जाता है। चन्द्रमा जब सूर्य से 12 अंष के अंतर्गत होता है तो अस्त माना जाता है। इसी प्रकार मंगल 7 अंषों पर, बुध 13 अंषों पर, बृहस्पति 11 अंषो पर, शुक्र 9 अंष और शनि 15 अंष में आ जाने पर अस्त होते हैं। ये प्राचीन मान्यताएं हैं। वर्तमान में कुछ विद्वानांे का मत है कि ग्रह को तभी अस्त मानना चाहिये जबकि वह सूर्य से 3 अंष या इससे कम अंषों की दूरी पर हो। जो ग्रह सूर्य से न्यूनतम अंषों से पृथक होगा उसे उसी अनुपात में अस्त होने का दोष लगेगा। चन्द्रमा और बुध अस्त होने की स्थिति:- बुध प्रायः अस्त रहता है क्योंकि वह सूर्य के निकट रहता है। यही कारण है कि इसे अस्त होने का दोष नहीं लगता। बुध और सूर्य की युति को बुधादित्य योग के नाम से जाना जाता है। यह एक शुभ योग है। चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। प्रत्येक माह की पूर्णिमा के उपरांत चंद्रमा और सूर्य के मध्य के अंष कम होने लगते हैं। अमावस्या के समय चन्द्रमा और सूर्य लगभग समान अंषों पर होते हैं। चंद्रमा जब सूर्य से 12 अंशों से कम दूर होता है तो अस्त होने का दोष माना जाता है परन्तु चन्द्रमा को तभी शुभ फलदायी समझना चाहिये जबकि वह न्यूनतम 70 अंष दूर हो। यदि चंद्रमा और सूर्य के बीच इससे कम अंशों का अन्तर होता है तो चंद्रमा स्वयं बली न होकर उस राषि या ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है जिस से कि वह प्रभावित हो। यह शुभ स्थिति नहीं है। चंद्रमा जितना सूर्य के निकट होगा उतनी उसकी कलायें कम होंगी। अस्त ग्रह जीवन के दो पहलुओं पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। जन्म लग्न में विभिन्न भावांे से अलग-अलग पहलुओं को देखा जाता है। जब कोई ग्रह अस्त होता है तो उसके नैसर्गिक गुण प्रभावित होते हैं। साथ ही वह जिस भाव का स्वामी होता है उसके फलांे में भी विलंब करता है। जैसे यदि बृहस्पति अस्त है और वह सप्तमेष है तो न केवल स्त्री सुख में बाधा बल्कि जातक में भी विवेकषीलता का अभाव होगा। इस प्रकार जब शुक्र चतुर्थेष होकर अस्त हो और अष्टमस्थ हो तो जातक में यौन शक्ति का अभाव होता है। यौन रोग होते हैं, माता के सुख में न्यूनता आती है। वाहन और भवन सुख में भी कमी आती है। अस्त ग्रह को बली नहीं समझना चाहिये। यदि सूर्य से अस्त ग्रह का अंषात्मक अंतर 3 अंष से अधिक है तो अस्त होने का दोष नष्ट हो जाता है। अस्त ग्रह सदैव दुष्फल देते हैं। कुछ स्थितियां ऐसी भी होती हैं जबकि अस्त ग्रह जिसका वह स्वामी है, के लिये शुभ स्थिति मंे होता है। सभी भावों में गुण दोष होते हैं परन्तु त्रिक भावों में अषुभ फलों की अधिकता होती है। हमारे विद्वानों का मानना है कि अस्त ग्रह त्रिक भावों 6-8-12 में हों तो फलांे की वृद्धि होती है अर्थात ये भाव अपने अषुभ परिणामों को प्रकट नहीं कर पाते। इसका दूसरा पक्ष भी है। जब इन भावों अर्थात 6-8-12 के स्वामी अस्त हों तो समृद्धि आती है और सफलता मिलती है। यह स्थिति विपरीत राजयोग होती है।

मंगल दोष एवं ग्रह मेलापक

मंगली दोष का हौआ! हिंदू समाज में लड़के और लड़कियों की कुंडली मिलाते समय मंगली दोष पर अधिक जोर दिया जाता है। यद्यपि लड़के के पिता इस बात से विशेष चिंतित नहीं होते किंतु लड़की के माता-पिता केवल यह सुन कर ही चिंता में पड़ जाते हैं कि उनकी कन्या मंगली है। इस मंगली दोष का ‘हौआ’ इतना भयानक होता है कि कुछ लोग यह पता लगने पर कि उनकी लड़की मंगली है नकली जन्मपत्री बनवा लेते हैं। दक्षिण भारत में इसे कुज दोष कहते हैं। तमिलनाडु एवं केरल की असंख्य लड़कियों के विवाह में देरी कराने वाला यही मंगली दोष है। वहां लोग इस दोष के ‘हौए’ से परेशान हो कर बड़ी कठिनाई से किसी लड़के के पिता को संतुष्ट कर पाते हैं। यदि लड़के का पिता मंगली कन्या से अपने पुत्र का विवाह करने के लिए तैयार हो गया तो विवाह हो जाता है; अन्यथा पुनः नये लड़के की तलाश, उसके पिता की संतुष्टि और इस स्थिति में पुनः प्रतीक्षा। इस प्रकार असंख्य सुंदर, सुशिक्षित एवं स्वस्थ कन्याओं के विवाह में मंगली दोष का ‘हौआ’ विरोध, या विलंब उत्पन्न कर रहा है। मंगली दोष क्या है ?: मंगली दोष तब माना जाता है, जब कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में मंगल बैठा हो। लग्न में मंगल हो तो स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति स्वभाव से उग्र एवं जिद्दी होता है। चतुर्थ स्थान में मंगल होने पर जीवन में भोगोपभोग की सामग्री की कमी रहती है। यहां स्थित मंगल की सप्तम स्थान पर दृष्टि पड़ती है, जो दांपत्य सुख पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। सप्तम स्थान में स्थित मंगल दांपत्य सुख (रति सुख) की हानि करने के साथ-साथ पत्नी के स्वास्थ्य को भी हानि पहुंचाता है। इस स्थान में स्थित मंगल की दशम एवं द्वितीय भाव पर दृष्टि पड़ती है। दशम स्थान आजीविका का तथा द्वितीय स्थान कुटुंब का होता है। अतः इन स्थानों में स्थित मंगल आजीविका एवं कुटुंब पर भी अपना प्रभाव डालता है। अष्टम स्थान में स्थित मंगल जीवन में विघ्नकारक, बाधाकारक एवं अनिष्टकारक माना गया है। इस स्थान में स्थित मंगल कभी-कभी दंपति में से किसी एक की मृत्यु भी कर सकता है। द्वादश स्थान में स्थित मंगल, व्यक्ति की क्रय शक्ति (व्यय) को प्रभावित करने के साथ-साथ सप्तम स्थान पर अपनी दृष्टि के द्वारा दांपत्य सुख को भी प्रभावित करता है। इन 5 स्थानों में से लग्न, चतुर्थ, सप्तम या द्वादश स्थान में स्थित मंगल, अपनी दृष्टि, या युति से सप्तम स्थान को प्रभावित करने के कारण, दांपत्य सुख के लिए हानिकारक माना गया है। अष्टम स्थान आयु का प्रतिनिधि भाव है तथा यह पत्नी का मारक (सप्तम से द्वितीय होने के कारण) स्थान होता है। अतः इस स्थान का मंगल दंपति में से किसी एक की मृत्यु कर सकता है। इसलिए इस स्थान में भी मंगल की स्थिति अच्छी नहीं मानी गयी। ज्योतिष शास्त्र में इन पांचों स्थानों में से किसी एक स्थान में मंगल होने पर, मंगल के पड़ने वाले दुष्प्रभाव को ही मंगली दोष कहा जाता है। जिस प्रकार लग्न से उक्त 5 स्थानों में मंगल होने पर मंगली योग, या मंगली दोष होता है, उसी प्रकार चंद्र लग्न एवं शुक्र से भी उक्त 5 स्थानों में मंगल होने पर भी मंगली दोष होता है। कारण यह है कि चंद्र लग्न का भी लग्न के समान ही महत्व माना गया है तथा शुक्र विवाह एवं दांपत्य सुख का प्रतिनिधि ग्रह होता है। इसलिए मंगली योग, या मंगली दोष की संक्षिप्त परिभाषा यह है कि लग्न, चंद्र लग्न, या शुक्र से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में मंगल होने पर मंगली योग होता है। दक्षिण भारत के ज्योतिष ग्रंथों में लग्न के स्थान पर द्वितीय भाव को ग्रहण किया गया है। अतः वहां लग्न आदि से द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश स्थान में मंगल होने पर कुज दोष (मंगली दोष) माना जाता है, जैसा कि केरल शास्त्र में कहा गया है- ‘धने व्यये वा पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे। स्त्री भर्तुर्विनाश च भर्ता च स्त्रीविनाशनम्।।’ मंगली दोष में 5 भाव ही विचारणीय क्यों ?: सुखी दांपत्य जीवन के लिए निम्नलिखित 5 वस्तुओं की आवश्यकता होती है- 1. अच्छा स्वास्थ्य, 2. भोगोपभोग की सामग्री की उपलब्धि, 3. रति सुख, 4. अनिष्ट का अभाव तथा 5. समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अच्छी क्रय शक्ति। ज्योतिष शास्त्र में इन पांचों वस्तुओं के प्रतिनिधि भाव लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश माने गये हैं। लग्न से स्वास्थ्य का विचार करते हैं। चतुर्थ भाव से भोगोपभोग की सामग्री का विचार होता है। यह भाव मकान, भूमि, वाहन एवं घर के उपकरण (बर्तन, फर्नीचर आदि) का प्रतिनिधि भाव है। सुख एवं मनोनुकूलता का विचार भी इसी भाव से होता है। सुरति, या संभोग का विचार सप्तम भाव से होता है। पुरुष की कुंडली में यह भाव पत्नी का तथा स्त्री की कुंडली में पति का प्रतिनिधित्व करता है। अष्टम भाव जीवन में आने वाले विघ्न, बाधा, अनिष्ट एवं मृत्यु का द्योतक है। आयु का विचार भी इसी भाव से होता है। द्वादश भाव व्यय, या क्रय शक्ति का द्योतक है। इस प्रकार देखते हैं कि किसी की कुंडली से उसके दांपत्य जीवन में आने वाले सुख, या दुःख का ज्योतिष शास्त्र की रीति से विचार करते समय इन पांचों (लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश) भावों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। किसी भाव का फल शुभ होगा, या अशुभ यह जानने का सर्वमान्य नियम यह है: जो भाव अपने स्वामी, या शुभ ग्रह से दृष्ट-युत हो, वह जिन वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है, उनकी वृद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि भाव में भाव का स्वामी या शुभ ग्रह बैठा हो, अथवा भाव को उसका स्वामी, या शुभ ग्रह देखता हो, तो भाव का फल शुभ होता है। किंतु भाव में पाप ग्रह बैठा हो, या पाप ग्रह भाव को देखता हो, तो भाव का फल अशुभ होता है। सुखमय दांपत्य जीवन के लिए उक्त 5 वस्तुओं की अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता। किंतु इन पांचों वस्तुओं से सुख तभी प्राप्त हो सकता है, जब इनके प्रतिनिधि भावों में पाप ग्रह न तो बैठे हों और न ही इन भावों को देखते हों। यही कारण है कि ज्योतिष शास्त्र में ग्रह मेलापक के इन पांचों भावों पर पाप ग्रहों के प्रभाव का विचार करने की परंपरा प्राचीन काल से आज तक चली आ रही है। वास्तविकता यह है कि जिस व्यक्ति की कुंडली में इन पांचों भावों में से कोई एक, या अधिक भाव पाप ग्रहों के प्रभाव में हों, उसके दांपत्य जीवन में सुख की हानि का योग बन जाता है। कुंडली में कुल 12 भाव होते हैं तथा गोचरीय क्रम से घूमता हुआ ग्रह इन्हीं में से किसी भी भाव में बैठ जाता है। इस प्रकार कोई भी ग्रह, चाहे वह शुभ हो, या पापी, अधिकतम 12 भावों में बैठ सकता है। इनमें से उक्त 5 भाव दांपत्य सुख के निर्णायक माने गये हैं, जिनमें पाप ग्रह के बैठने से दांपत्य सुख की हानि होती है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि पाप ग्रह अपने 12 भावों के परिभ्रमण काल का भगण पूर्ति काल में से 5/12 काल तक दांपत्य सुख के लिए हानिकारक होता है। 5/12 का मान लगभग 42 प्रतिशत होता है। अतः कहा जा सकता है कि पाप ग्रह अपने संपूर्ण भोग काल में से 42 प्रतिशत समय तक दांपत्य जीवन को हानि पहुंचाता है। यदि पाप ग्रह के भगण भोग काल में 100 व्यक्तियों का जन्म मान लिया जाए, तो उनमें से 42 प्रतिशत लोगों का दांपत्य जीवन दुःखमय रहने की संभावना बनती है। इस प्रकार देखते हैं कि 5 भावों में पाप ग्रह की स्थिति कुल जनसंख्या के 42 प्रतिशत को दांपत्य सुख से वंचित कर सकती है। 42 प्रतिशत एक बहुत बड़ा भाग होता है। इतने अधिक लोगों के दांपत्य जीवन को इन पाप ग्रहों के प्रभाव से कैसे सुरक्षित किया जाए? इस प्रश्न ने प्राचीन महर्षियों एवं आचार्यों के मन को अवश्य विचलित किया होगा। ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों एवं मनीषी आचार्यों ने बार-बार इस गंभीर प्रश्न पर, दत्तचित्त हो कर, विचार किया तथा दांपत्य जीवन को प्रभावित करने वाले पाप ग्रहों के इस अशुभ प्रभाव से बचाव का एक तरीका खोज निकाला, जिसे ज्योतिष की भाषा में ग्रह मेलापक कहते हैं। ग्रह मेलापक क्या है?: लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव में पाप ग्रहों की स्थिति 42 प्रतिशत लोगों के दांपत्य सुख को हानि पहुंचाती है। यह स्थिति तब होती है, जब मात्र लग्न से प्रारंभ कर इन भावों में पाप ग्रहों की स्थिति की संभावना का विचार करते हैं। यदि चंद्रमा से तथा शुक्र से भी, इन्हीं पांचों भावों में पाप ग्रहों की स्थिति को दांपत्य सुख के लिए हानिकारक मान लिया जाए, तो यह प्रतिशत कहां तक बढ़ जाएगा, इसकी कल्पना कर सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र में लग्न के समान ही चंद्र लग्न का भी महत्व है। विवाह एवं दांपत्य सुख का प्रतिनिधि ग्रह शुक्र माना गया है। इसलिए जन्म लग्न, चंद्र लग्न एवं शुक्र से उक्त 5 भावों में पाप ग्रहों के प्रभाव पर विचार किया जाता है। यह प्रभाव इतना व्यापक है कि सभी लोग इसकी परिधि में आ जाते हैं। इस प्रभाव को व्यवहार में मंगली दोष कहते हैं। मंगली दोष वाले लड़के एवं लड़कियों का दांपत्य जीवन सुखमय हो सकता है, यदि उनका ग्रह मेलापक अच्छा हो। ग्रह मेलापक वह विधि है, जो यह बतलाती है कि मंगली लड़के, या लड़की का विवाह किससे किया जाए तथा जो लोग मंगली दोषरहित हैं, उनके भी सुखमय दांपत्य संबंध के लिए मेलापक मार्ग प्रशस्त करता है। मंगली योग एवं उसके परिहार: मंगली योग में प्रमुख बात यह मानी गयी है कि लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश स्थान पर पाप प्रभाव पड़ने से स्वास्थ्य, भोगोपभोग के साधन, रति सुख, अनिष्ट का प्रभाव एवं क्रय शक्ति का ह्रास होता है, जो अंततोगत्वा दांपत्य सुख को नष्ट कर देता है। इसलिए जिस प्रकार उक्त 5 स्थानों में मंगल होने पर दांपत्य सुख को हानि पहुंचने की संभावना बनती है, ठीक उसी प्रकार इन 5 स्थानों में शनि, सूर्य, राहु, या केतु होने पर भी दांपत्य सुख को हानि पहुंच सकती है। यही कारण है कि ज्योतिष शास्त्र में मनीषी आचार्यों ने मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु, इन पांचों ग्रहों को मंगली योगकारक मान लिया है। मंगली योग के दुष्प्रभाव में ह्रास-वृद्धि: मंगली दोष लग्न, चंद्रमा, या शुक्र से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में पाप ग्रह होेने पर होता है। किंतु इस योग का प्रभाव सदैव एक-सा नहीं रहता, अपितु इस में ह्रास-वृद्धि होती रहती है। जब यह योग लग्न से बनता है, तो इसका दुष्प्रभाव अपेक्षाकृत कम, या कमजोर होता है। इसकी तुलना में चंद्रमा से मंगली योग होने पर इसका दुष्प्रभाव अधिक तथा शुक्र से सहयोग होने पर इसका दुष्प्रभाव सर्वाधिक होता है। कारण यह है कि लग्न शरीर का, चंद्रमा मन का तथा शुक्र रति का प्रतिनिधित्व करते हैं। दांपत्य संबंधों को, शरीर की तुलना में, मन, या स्वभाव ज्यादा प्रभावित कर सकता है तथा इन दोनों की तुलना में रति सुख सर्वाधिक महत्त्व रखता है। यह योग मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु इन 5 ग्रहों से बनता है। पाप ग्रहों में मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु उत्तरोत्तर कम पापी माने गये हैं। अतः मंगल से बनने वाले योग की तुलना में शनि से बनने वाला योग कुछ कम प्रभाव डालता है। इसी प्रकार सूर्य, राहु एवं केतु से बनने वाले योग भी उत्तरोत्तर कम प्रभावशाली होते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु इन ग्रहों से बनने वाले योगों का दुष्प्रभाव उत्तरोत्तर कम होता जाता है। इस प्रकार मंगल से बनने वाले योग का दुष्प्रभाव सर्वाधिक तथा केतु से बनने वाले योग का सबसे कम होता है। मंगली योग लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश स्थान में पाप ग्रहों के बैठने से बनता है। सप्तम स्थान साक्षात् दांपत्य सुख का प्रतिनिधित्व करता है। अतः इस स्थान में पाप ग्रह होने पर यह योग अधिक हानिकारक होता है। इसकी तुलना में लग्न में पाप ग्रह होने पर इस योग के दुष्प्रभाव की मात्रा कुछ कम हो जाती है। इससे कम दुष्प्रभाव चतुर्थ स्थान में पाप ग्रह होने पर, उससे भी कम दुष्प्रभाव अष्टम स्थान में पाप ग्रह होने पर तथा सबसे कम दुष्प्रभाव बारहवें स्थान में पाप ग्रह होने पर होता है। अतः कहा जा सकता है कि सप्तम, लग्न, चतुर्थ, अष्टम एवं व्यय स्थानों में पाप ग्रह होने से बनने वाले मंगली योगों का दुष्प्रभाव उत्तरोत्तर कम हो जाता है। ज्योतिष शास्त्र का एक सर्वमान्य नियम यह है कि स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि, उच्च राशि तथा मित्र राशि में स्थित ग्रह भाव का नाश नहीं करता, बल्कि वह भाव के फल की वृद्धि करता है। किंतु नीच राशि या शत्रु राशि में स्थित ग्रह भाव को नष्ट कर देता है। अतः मंगली योग ग्रह के स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में होने पर दोषदायक नहीं होता। किंतु इस योग को बनाने वाला ग्रह नीच या शत्रु राशि में हो, तो अधिक दोषदायक होता है। अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लग्न, चतुर्थ एवं सप्तम स्थान में पाप ग्रहों से बनने वाला योग तथा लग्न, चतुर्थ एवं सप्तम स्थान में मात्र मंगल या शनि से बनने वाला योग दांपत्य जीवन में अशुभ परिणाम पैदा करने का सामथ्र्य रखते हैं। किंतु इससे भिन्न स्थिति में बनने वाले योग का दांपत्य जीवन में बहुत कम या तात्कालिक प्रभाव पड़ता है। मंगली योग का परिहार: ग्रह मेलापक की रीति पर प्रकाश डालने से पूर्व यह बतला दिया जाए कि कुछ परिस्थितियों में मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है। जो योग मंगली दोष को प्रभावहीन कर देते हैं, वे इसके परिहार योग कहे जाते हैं। ज्योतिष शास्त्र के प्रायः सभी मानक ग्रंथों में मंगली योग के परिहार का उल्लेख मिलता है। परिहार योग भी आत्मकुंडलीगत एवं परकुंडलीगत भेद से दो प्रकार के होते हैं। वर या कन्या की कुंडली में मंगली योग होने पर उसी की कुंडली का जो योग मंगली दोष को निष्फल कर देता है, वह परिहार योग आत्मकुंडलीगत कहलाता है तथा वर और कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग का दुष्प्रभाव दूसरे की कुंडली के जिस योग से दूर हो जाता है, वह महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूत योग इस प्रकार है: Û कुंडली में लग्न आदि 5 भावों में से जिस भाव में भौमादि ग्रह के बैठने से मंगली योग बनता हो यदि उस भाव का स्वामी बलवान् हो तथा उस भाव में बैठा हो या उसे देखता हो; साथ ही सप्तमेश या शुक्र त्रिक स्थान में न हो, तो मंगली योग का अशुभ प्रभाव नष्ट हो जाता है। यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान् हो कर केंद्र त्रिकोण में हो तो मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है। वर और कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, या द्वादश स्थान में शनि हो, तो मंगली दोष दूर हो जाता है। वर और कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुंडली में मंगली योगकारक भाव में कोई पाप ग्रह हो तो मंगली दोष नष्ट हो जाता है। जिस कुंडली में मंगली योग हो उसमें शुभ ग्रह केंद्र त्रिकोण में तथा शेष पाप ग्रह त्रिषडाय में हांे तथा सप्तमेश सप्तम स्थान में हो तो भी मंगली योग प्रभावहीन हो जाता है। मंगली योग वाली कुंडली में बलवान् गुरु या शुक्र के लग्न या सप्तम में होने पर अथवा मंगल के निर्बल होने पर मंगली योग का दोष दूर हो जाता है। मेष लग्न में स्थित मंगल, वृश्चिक राशि में चतुर्थ भाव में स्थित मंगल, वृष राशि में सप्तम स्थान में स्थित मंगल, कुंभ राशि में अष्टम स्थान में स्थित मंगल तथा धनु राशि में व्यय स्थान में स्थित मंगल मंगली दोष नहीं करता। मेष या वृश्चिक का मंगल चतुर्थ स्थान में होने पर, कर्क, या मकर का मंगल सप्तम स्थान में होने पर, मीन का मंगल अष्टम स्थान में होने पर तथा मेष या कर्क का मंगल व्यय स्थान में होने पर मंगली दोष नहीं होता। जिस कंुडली में सप्तमेश या शुक्र बलवान हो तथा सप्तम भाव इनसे युत-दृष्ट हो, उस कुंडली में यदि मंगली दोष हो तो वह नष्ट हो जाता है। Û यदि मंगली योगकारक ग्रह स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में हो तो मंगली दोष स्वयं समाप्त हो जाता है। यदि किसी लड़की या लड़के की कुंडली में शुक्र एवं सप्तमेश बलवान हो कर शुभ स्थान में स्थित हो तथा सप्तम भाव पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो उस कुंडली में मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है। इस स्थिति में मंगली दोष से किसी प्रकार की हानि की आशंका नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार जब किसी की कुंडली में मंगली योगकारक ग्रह एवं शुक्र पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो भी मंगली योग दांपत्य जीवन पर किसी प्रकार का दुष्प्रभाव नहीं डाल पाता। मंगली योग देख कर किसी प्रकार के वहम या चिंता में नहीं पड़ना चाहिए अपितु कुंडली में सप्तम भाव सप्तमेश एवं शुक्र की स्थिति तथा उन पर पड़ने वाले शुभ या अशुभ प्रभाव का ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। अनेक जगह देखा गया है कि मंगली योग न होने पर भी मात्र सप्तम भाव, सप्तमेश एवं शुक्र पर पाप ग्रहों का कुप्रभाव होने से दांपत्य जीवन दुःखमय बन गया। मेलापक का कार्य करने वाले ज्योतिषी बंधुओं से एक बात विशेष रूप से कहनी चाहिए कि वे ‘भावात्भावपतेश्च कारकवशात्तत्तद् फलं चिंतयेत्’ इस नियम का उपयोग ग्रह मेलापक में कर के देखें। यह नियम उनके समक्ष मंगली दोष या दांपत्य जीवन के बारे में उठने वाली आशंकाओं का यथार्थ रूप से समाधान करेगा।

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Wednesday, 17 February 2016

कैसे बनते है हत्या के ग्रह योग

हिंसा का प्रतिनिधि मंगल है, नीच एवं घृणित कार्यों का प्रतीक शनि है तथा आवेश व अप्रत्याशितता के उत्प्रेरक राहु केतु है। जब मंगल, शनि और राहु केतु की दृष्टि, युति या अन्य दृढ़ संबंध लग्न और अष्टम भाव या उनके अधिपतियों से होता है तो जातक का प्राणांत अस्वाभाविक रूप से हिंसा द्वारा अर्थात् हत्या से होने की स्थिति निर्मित हो जाती है। जन्मकुंडली जन्म के समय सौर मंडल में स्थित ग्रहों के प्रभाव का चित्रांकन है। अस्तु यही ग्रह योग उस मनुष्य के जन्म मृत्यु एवं संपूर्ण जीवन चक्र को निरूपित करते हैं। जन्मकुंडली में प्रथम (लग्न) भाव जातक के शरीर का समग्र रूप से प्रतिनिधित्व करता है तो अष्टम भाव उसकी आयु का। शरीर के संवेदनशील तंत्र के ऊपर मन का अधिकार होता है जिसका प्रतिनिधित्व चंद्र करता है। हिंसा का प्रतिनिधि मंगल है, नीच एवं घृणित कार्यों का प्रतीक शनि है तथा आवेश व अप्रत्याशितता के उत्प्रेरक राहु केतु है। जब मंगल, शनि और राहु केतु की दृष्टि, युति या अन्य दृढ़ संबंध लग्न और अष्टम भाव या उनके अधिपतियों से होता है तो जातक का प्राणांत अस्वाभाविक रूप से हिंसा द्वारा अर्थात् हत्या से होने की स्थिति निर्मित हो जाती है। चूंकि ऐसी हिंसात्मक अस्वाभाविक मृत्यु (हत्या) के लिए जातक के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति (हत्यारे) की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है अस्तु चतुर्थ भाव या उसके अधिपति का भी इस हेतु दूषित होना आवश्यक है द्वितीय एवं षष्टम भाव ऐसे अन्य व्यक्ति के हाथ होते हैं इसलिए इन मामलों में द्वितीय, चतुर्थ एवं षष्टम भावों या भावेशों का अष्टम भाव या अष्टमेश से संबंध होना भी आवश्यक है। वैसे भी षष्टम भाव शत्रु, दुर्घटना एवं हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है। हिंसा के लिए राहु या केतु की मंगल पर दृष्टि, युति या अन्य संबंध होना और इनसे लग्न और अष्टम भाव या उनके अधिपतियों का दूषित होना भी आवश्यक है। अकेले मंगल या अकेले राहु केतु यह कार्य करने में असमर्थ रहते हैं। जीवन की कोई भी महत्वपूर्ण घटना में तीन बड़े ग्रह शनि, गुरु एवं मंगल की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। घटना घटित होने के लिए जातक की जीवन आयु, ग्रह स्थिति, महादशा एवं ग्रहों के गोचर की स्थितियों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है। हत्या की घटना के समय सामान्यतः गोचर के शनि की दृष्टि या उसका संबंध लग्न एवं अष्टम भाव या उनके अधिपतियों से रहता है।

प्रतिस्पर्धात्त्मक परीक्षा में सफलता कैसे ?



मानव के समस्त कार्य और व्यवसाय को संचालित करने में नेत्रों की भूमिका जिस प्रकार अग्रगण्य मानी गई है ठीक उसी प्रकार ज्ञान, विज्ञान विद्या के क्षेत्र में ज्योतिष विज्ञान दृष्टि का कार्य करता है। वेदचक्षुः क्लेदम् स्मृतं ज्योतिषम्। ज्योतिष को वेद की आंख कहा गया है। जिस प्रकार वट वृक्ष का समावेष उसके बीज में होता है ठीक उसी प्रकार जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का बीज रूप होता है जातक की जन्मपत्री। जन्मपत्री के पंचम भाव से विद्या का विचार उत्तर भारत में किया जाता है। दक्षिण भारत में चतुर्थ भाव व द्वितीय भाव से विद्या बुद्वि का विचार किया जाता है। द्वितीय भाव धन व वाणी का स्थान है और विद्या को मनीषियों ने धन ही कहा है जिसका कोई हरण नहीं कर सकता है। विद्या एक ऐसा धन है जिसे न कोई छीन सकता है न चोरी कर सकता है। विद्या धन देने से बढ़ती है। विद्या ज्ञान की जननी है। जीवन को सफल बनाने की दिशा में शिक्षा ही एक उच्च सोपान है जो अज्ञानता के अंधकार से बंधन मुक्त करती है। शिक्षा के बल से ही मानव ने गूढ़ से गूढ़तम (अंधकार) रहस्य से पर्दा उठाया है। आदिकाल से ही मानव को अपना शुभाशुभ भविष्य जानने की उत्कंठा रही है। ज्योतिष विज्ञान इस जिज्ञासा वृत्ति का सहज उत्कर्ष है। जन्मकुंडली का चतुर्थ भाव बुद्वि, पंचम भाव ज्ञान, नवम भाव उच्च शिक्षा की स्थिति को दर्शाता है तो द्वादश भाव की स्थिति जातक को उच्च शिक्षा हेतु विदेश गमन कराती है। ज्ञात हो कि अष्टम भावस्थ क्रूर ग्रह भी शिक्षा हेतु विदेश वास कराता है। किसी भी परीक्षा में सफलता की कुंजी है छात्र की योग्यता और कठिन परीश्रम। यदि इसके साथ-साथ जन्मकुंडली के ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त हो तो सफलता मिलती ही है। अपने देश में यह आम धारणा बनी है कि सर्विस पाने के लिए ही शिक्षा ग्रहण की जाती है, यह विचार बहुत ही संकीर्ण है। विद्या व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारती व संवारती है। वेद पुराण सभी में वर्णित है कि जातक को प्रथम विद्या अध्ययन करना चाहिए तत्तपश्चात् कार्य क्षेत्र में उतरे। शिक्षित व्यक्ति को ही विद्याबल से यश, मान, प्रतिष्ठा स्वतः मिलती चली जाती है। शिक्षा हो अथवा सर्विस सभी जगह व्यक्ति को प्रतियोगिता का सामना करना ही पड़ता है। परीक्षा में सफलता हेतु आवश्यक है लगन, कड़ी मेहनत व संबंधित विषयों का विशद् गहन अध्ययन। किंतु सारी तैयारियां हो जाने के पश्चात् भी कभी-कभी असफलता ही हाथ लगती है। जैसे (1) अचानक बीमार पड़ जाना। (2) परीक्षा भवन में सब कुछ भूल जाना। (3) परीक्षा से भयभीत होकर पूर्ण निराश होना। (4) स्वयं के साथ अनायास दुर्घटना घट जाना कि परीक्षा में बैठ ही न सके। (5) परिवार में अनायास दुःखद घटना घट जाना, जिससे पढने से मन उचाट होना आदि अनेक कारणों से परीक्षा में व्यवधान आते हैं जिससे छात्रों को असफलता का मुंह देखना पड़ता है। ग्रहों का प्रभाव (चंद्र): चंद्र मन का कारक ग्रह है और परीक्षा में सफलता हेतु मन की एकाग्रता अति आवश्यक है। ज्योतिषिय दृष्टि से यदि चंद्र शुभ, निर्मल, डिग्री आधार पर बलवान हो, किसी शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो व्यक्ति बड़ी आसानी से (लगन से) अपने विषय में महारत हासिल करेगा। चंद्र यदि पापाक्रांत हो राहु, शनि, केतु का साथ हो पंचमेश छठे, आठवें, द्वाद्वश भाव में हो तो शिक्षा अधूरी रह जाएगी। व्यक्ति सदैव चिंताग्रस्त व विकल रहेगा। बुध: बुध बुद्वि, विवेक, वाणी का कारक ग्रह है। बुध गणितिय योग्यता में दक्ष और वाणी को ओजस्वी बनाता है। बुध यदि केंद्र में भद्र योग बनाये। सूर्य के साथ बुधादित्य योग घटित करे, निज राशि में बलवान हो तो व्यक्ति उच्च शिक्षा में सफलता हासिल करता है किंतु यदि बुध नीच, निर्बल, अस्त, व क्रूर ग्रहों के लपेटे में हो तो बुध अपनी शुभता खो देगा। फलतः गणितीय क्षेत्र, व्यापार क्षेत्र, कम्प्यूटर शिक्षा में असफल हो जाता है। यदि जन्मकुंडली में बुधादित्य-योग, गजकेसरी-योग, सरस्वती-योग, शारदा-योग, हंस-योग, भारती-योग, शारदा लक्ष्मी योग हो तो जातक उच्च शिक्षा अवश्य प्राप्त कर (अच्छे अंक से) सफल होगा। द्वितीय भाव का बुध मधुरभाषी व व्यक्ति को व्यवहार कुशल बनाता है व बुद्वि बल चतुरता से सफलता की ओर अग्रसर करता है। जबकि पंचम भाव का बुध व्यक्ति को कलाप्रिय व विविध विषयों का जानकार व अपने व्यवहार से दूसरांे को वश में करने वाला होता है। गुरु: उच्च स्तरीय ज्ञान-गुरु ही दिलाते हैं। गुरु ज्ञान का विस्तार करते हैं। अतः जन्मकुंडली में गुरु की शुभ स्थिति विद्या क्षेत्र व प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता दिलाती है। गुरु $ शुक्र का समसप्तक योग यदि पंचम व एकादश भाव में बने व केंद्र में शनि, बुध, उच्च का हो तो व्यक्ति कानून की पढ़ाई में उच्च शिक्षित होगा और शनि गुरु की युति न्यायाधीश बना देगी। ज्योतिष के आधार पर परीक्षा में असफलता के योग: (1) यदि चतुर्थेश, छठे, आठवें द्वाद्वश हो तो उच्च शिक्षा में बाधा, पढ़ाई में मन नहीं लगेगा। (2) यदि चतुर्थेष निर्बल, अस्त, पाप, व क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो तो शिक्षा प्राप्ति में बाधा। (3) यदि द्वितियेश पर चतुर्थ, पंचम भाव पर क्रूर ग्रह की दृष्टि हो या इन भावों ने अपना शुभत्व खो दिया हो तो शिक्षा प्राप्ति में बाधा। (4) ग्रहण योग बना हो। उक्त स्थानों में या ग्रहणकाल में जन्म हुआ हो तो शिक्षा अधूरी। (5) गुरु नीच, निर्बल, पापाक्रांत होने सेे उच्च शिक्षा प्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा। (6) जन्मकुंडली में केंद्रुम योग हो। शिक्षा में बाधा। (7) चंद्र के साथ शनि उक्त स्थानों में विष योग बना रहा हो तो पढ़ाई अवरुद्ध। (8) कुंडली में क्षीण चंद्र हो तो शिक्षा में बाधा आती है। (9) बुध नीच, निर्बल, अशुभ हो तो शिक्षा पूर्ण नहीें होगी। (10) आत्मकारक ग्रह सूर्य यदि पीड़ित, निर्बल अशुभ प्रभाव में हो तो प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा में ही छात्र का आत्म बल घट जाने से प्रायोगिक (प्रेक्टिकल) परीक्षा में ही घबरा कर घर बैठ जाएगा। उच्च शिक्षा से वंचित हो जाएगा। (11) पंचम, द्वितीय, चतुर्थ, व अष्टम में शनि नीच का हो तो शिक्षा अधूरी रहे। त्वरित उपाय करें। ग्रहयोगों के आधार पर प्रतिस्पर्धा में सफलता: (1) लग्नेश पंचमेश चतुर्थेश का संबंध केंद्र या त्रिकोण से बनता हो या इनमें स्थान परिर्वतन हो तो सफलता मिलेगी। (2) कुंडली में कहीं पर भी बुधादित्य योग हो तो सफलता मिलेगी लेकिन बुध दस अंश के ऊपर न हो। (3) केंद्र में उच्च के गुरु, चंद्र शुक्र, शनि यदि हो तो जातक परीक्षा (प्रतियोगिता) में असफल नहीं होता। (4) पंचम के स्वामी गुरु हो और दशम भाव के स्वामी शुक्र हो तथा गुरु दशम भाव में शुक्र पंचम भाव में हो तो निश्चित सफलता मिलती है। (5) लग्नेश बलवान हो। भाग्येश उच्च का होकर केंद्र या त्रिकोण में स्थित हो तो सफलता हर क्षेत्र में मिलती है। (6) लग्नेश त्रिकोण में धनेश एकादश में तथा पंचम भाव में पंचमेश की शुभ दृष्टि हो तो जातक विद्वान होता है। प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करता है। (7) चंद्रगुरु में स्थान परिवर्तन हो चंद्रमा पर गुरु की दृष्टि हो तो सरस्वती योग बनने से ऐसा जातक सभी क्षेत्र में सफल होगा, कहीं भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा। (8) चारों केंद्र स्थान में कहीं से भी गजकेसरी योग बनता हो तो ऐसा बालक प्रतिस्पर्धा में अवश्य सफल होता है। (9) गुरु लग्न भावस्थ हो और बुध केंद्र में नवमेश, दशमेश, एकादशेश से युति कर रहा हो या मेष लग्न में शुक्र बैठे हो सूर्य शुभ हो और शुक्र पर शुभ-ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसा जातक उच्च स्तरीय प्रशासनिक प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होगा ही। (10) कुंडली में पदमसिंहासन योग ऊंचाई देगा। (11) पंचमस्थ गुरु जातक को बुद्धिमान बनाता है। (12) गुरु द्वितियेश हो व गुरु बली सूर्य, शुक्र से दृष्ट हों तो व्याकरण के क्षेत्र में सफलता। (13) केंद्र या त्रिकोण में गुरु हो, शुक्र व बुध उच्च के हो तो जातक साइन्स विषय में सफलता पाता है। (14) धनेश बुध उच्च का हो, गुरु लग्न में और शनि आठवें में हो तो विज्ञान क्षेत्र में सफलता मिलेगी। (15) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम, का संबंध बुध, सूर्य, गुरु व शनि इनमें से हो तो जातक वाणिज्य संबंधी विषयों से अपनी शिक्षा पूर्ण करता है। (16) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, दशम का संबंध सूर्य मंगल चंद्र शनि व राहु से हो तो जातक को चिकित्सा संबंधी विषयों में अपनी शिक्षा पूर्ण करनी चाहिये। (17) यदि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम व दशम का संबंध सूर्य, मंगल, शनि व शुक्र हो तो जातक इन्जीनियरिंग संबंधी विषयों से अपनी शिक्षा पूर्ण करता है। (18) द्वितीय भाव, चतुर्थ भाव, पंचम, नवम, दशम का संबंध सूर्य, बुध, शुक्र, गुरु, ग्रहों से हो तो जातक कला क्षेत्र में अपनी शिक्षा अवश्य पूर्ण करता है। (19) द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम, स्थान से सूर्य, मंगल, गुरु, चंद्र, शनि, व राहु का संबंध हो तो जातक विज्ञान संबंधी विषय में शिक्षा अवश्य पूर्ण करता है। समाधान: स्मरण शक्ति में वृद्धि एवं तीव्र बुद्धि के लिए गायत्री यंत्र का लाॅकेट पहनें श्री गायत्री वेदांे की माता है जो वेद वेदांत, अध्यात्मिक, भौतिक उन्नति व ज्ञान-विज्ञान की दात्री है। यह लाॅकेट तीव्र स्मरण शक्ति यश, कीर्ति, संतोष व उज्जवलता प्रदान करेगा। (1) बुद्वि के प्रदाता श्रीगणेश जी के निम्न मंत्र का जप 21 बार बालक स्वयं करें। ऊं ऐं बुद्धिं वर्द्धये चैतन्यं देहित ¬ नम:। बालक के नाम से माता पिता भी कर सकते हैं। (2) श्रीगणेश चतुर्थी को गणेश पूजन करके 21 दूर्बा श्रीस्फटिक गणेश जी पर श्रीगणेशजी के 21 नामों सहित अर्पण करें और ¬ गं गणपतये नमः कीे एक माला जप करें। ¬ एकदन्त महाबुद्विः सर्व सौभाग्यदायकः। सर्वसिद्धिकरो देवाः गौरीपुत्रो विनायकः।। उक्त मंत्र को नियमित जपे व जिस समय परीक्षा हाल में प्रश्न पत्र हल करने बैठें तब 3 बार इस मंत्र का स्मरण मन ही मन करें। (3) मंत्र ¬ ऐं सरस्वतै ऐं नमः सरस्वती की मूर्ति अथवा चित्र या सरस्वती यंत्र के समक्ष उक्त मंत्र जपते हुए अष्टगंध से अपने ललाट पर तिलक लगाएं। पीला पुष्प अर्पण करें। (4) परीक्षा देने से पूर्व मां अपने बेटे की जीभ में शहद से श्री सरस्वती देवी का बीज मंत्र ऐं लिख दें। बालक को मीठा दही खिलाएं। बालक की स्मरण शक्ति तेज होगी। वाकपटु (श्रेष्ठवक्ता) होगा। बसंत पंचमी के दिन इस प्रयोग को संपन्न करने से बालक बालिका का मन पढ़ाई में लगता है व परीक्षा में श्रेष्ठ अंक प्राप्त करते हैं। (5) ¬ सरस्वत्यै विद्महे ब्रम्हपुत्रयै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्।। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सफलता हेतु सरस्वती यंत्र का लाॅकेट बहुत उपयोगी व लाभदायक है। परीक्षा में अच्छे अंक के लिए अथवा किसी इन्टरव्यु में सफलता प्राप्त करनी हो या शिक्षा से संबंधित कोई भी क्षेत्र हो यह लाॅकेट बालक, बालिका के गले में अद्भुत रूप से लाभदायी सिद्व होगा। (6) ¬ बुद्विहीन तनु जानिके सुमिरौ पवन कुमार। बल बुद्वि विद्या देहु मोहि, हरहु क्लेश विकार ।। मंगलवार या शनिवार के दिन श्री हनुमान जी के मंदिर में दीप जलाएं व शुद्ध पवित्र मन से एक माला उक्त मंत्र का जप करें। परीक्षाफल निकलने तक यह क्रम बनाए रखें। (7) विद्या प्रदायक श्री गणपति: जिन घरों में बच्चे विद्या अध्ययन में रुचि नहीं रखते उन्हें अपने अध्ययन कक्ष में टेबल के ऊपर शुभ मुहूर्त में श्री विद्या प्रदायक श्री गणपति की मूर्ति स्थापित करनी चाहिये। (8) पढ़ने की टेबल में मां सरस्वती का फोटो रखें। क्योंकि मां सरस्वती की आराधना जीवन में हमें उच्च शिखर एवं यश प्रतिष्ठा दिलाती है। मां सरस्वती का चित्र ही हमें शिक्षित करता है कि जीवन में यदि विद्या ग्रहण करनी है तो आसन कठोर होना चाहिए। मां के चार हाथों में से दो में वीणा है जो बताती है कि विद्यार्थी जीवन वीणा की तार की तरह होना चाहिये, वीणा के तार को अधिक कसंेगे तो तार टूट जाएंगे और ढ़ीला छोडें़गे तो सरगम के सुर नहीं निकलेंगे, अतः विद्यार्थियों को अधिक भोजन नहीं करना चाहिए और न अधिक उपवास करना चाहिए। ज्यादा जागना, ज्यादा सोना आपके विद्याभ्यास को बिगाड़ सकता है। एक हाथ में वेद पुस्तक व एक हाथ में माला हमें ज्ञान की ओर प्रेरित करती है। देवी सरस्वती का वाहन मयूर है। हमें सरस्वती का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए उनका वाहन मयूर बनना है। मीठा, नम्र, विनीत, शिष्ट और आत्मीयतायुक्त संभाषण करना चाहिए। तभी मां सरस्वती हमें अपने वाहन की तरह प्रिय पात्र मानेगी। प्रकृति ने मयूर को कलात्मक व सुसज्जित बनाया है। हमें भी अपनी अभिरुचि परिस्कृत व क्रिया कलाप शालीन रखना चाहिए। सरस्वती अराधना हेतु सरस्वती स्त्रोत का पाठ भी करंे। (9) टेबल लैंप को मेज के दक्षिण कोने में रखना चाहिए। (10) अध्ययन कक्ष की दीवारों के रंग गहरे न हों। हल्के हरे सफेद व गुलाबी रंग स्मरण शक्ति को बढ़ाते हैं। (11) दरवाजे के सामने पीठ करके न बैठंे। (12) बीम के नीचे बैठ कर पढाई न करें। (13) अध्ययन कक्ष के परदे हल्के पीले रंग के हों। (14) बिस्तर या सोफे में बैठ कर पढाई न करें। (15) जिनका मन पढाई में नहीं लगता हो वे ध्यानस्थ बगुले का चित्र अध्ययन कक्ष में लगाएं। (16) उत्तर पूर्व की ओर मुख करके अध्ययन करें। (17) अध्ययन कक्ष के मध्य भाग को खाली रखें। (18) अध्ययन कक्ष में पढ़ने की मेज पर जूठे बर्तन कदापि न रखें। (19) पंचमेश यदि शुभ प्रभाव में है तो उस ग्रह का रत्न धारण करें। उदारणार्थ कुंभ लग्न में पंचमेश बुध है अतः पन्ना की अंगूठी दाएं हाथ की कनिष्ठिका में पहनें, विधि विधान से रत्न को अभिमंत्रित व प्राण प्रतिष्ठित करके ही पहनें। (20) श्री गणेश ’’अथर्व-शीर्ष’’ का पाठ करते रहें। इससे बुद्धिबल व आत्मबल बढ़ेगा तथा सफलता मिलेगी। (21) इस मंत्र का जाप सुबह शाम दोनों समय करें। (22) गुरु गृह पढ़न गये रघुराई। अल्प काल विद्या सब पाई ।। अंाखों के खुलते ही दोनांे हाथों की हथेलियों को देखते हुये निम्नलिखित श्लोक का पाठ करें। कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थितो ब्रम्हा प्रभाते करदर्शनम्।। (23) माता पिता गुरु का आदर करें: उत्थाय मातापितरौ पूर्वमेवाभिवादयेत्। आचार्यश्च ततो नित्यमभिवाद्यो विजानता।। परिवार के वृद्ध व्यक्ति वट वृक्ष की तरह होते हैं। जिनकी स्निग्ध छाया में परिवार के लोग जीवन की थकान मिटाते हैं। जिस प्रकार नदियां अपना जल नहीं पीती, पेड़ अपना फल स्वयं नहीं खाते, मेघ अपने लिए जल नहीं बरसाते। ठीक उसी प्रकार सज्जनों गुरुजनों की कृपा वर्षा, परोपकार के लिए होती है। ज्ञान व अनुभव की आभा बिखेरने वाले वृद्धजनों, गुरुजनों व माता-पिता का अनादर (उपेक्षा) न करें। अपितु मनोयोग से सेवा करें। (24) मां गायत्री की साधना निम्न मंत्र सहित करें: यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्मरूपम्। समस्त-तेजोमय-दिव्य रूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।

ज्योतिषीय व वास्तु उपायों का संबंध


प्रत्येक व्यक्ति में यह स्वभाविक इच्छा होती है कि मैं सदा सुखी, धनी व स्वस्थ रहूं। जब उसकी किसी भी इच्छा की पूर्ति नहीं होती तो वह विचलित हो जाता है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह ज्योतिषीय वास्तु उपायों का सहारा लेता है। हम सभी अपने पूर्व कर्मों का फल भोगने के लिए बाध्य है। भगवान ने हमारे कर्मों का फल देने के लिए ग्रहों को नियुक्त कर रखा है। जन्म के समय हमारी कुंडली में जैसे ग्रह होंगे, वैसा ही फल हमें भोगना होगा। अपने ग्रहों के हिसाब से ही हमें रहने का निवास, पुत्र, स्त्री व धन की प्राप्ति होती है। नवग्रह किस प्रकार हमें प्रभावित करते हैं। इसे जानने के लिए जन्म मृत्यु चक्र पर विचार करिए। हमारा जन्म पूर्व जन्म में की गई किसी अतृप्त कामना की पूर्ति के लिए होता है। वह कामना धन के लिए भी हो सकती है या किसी स्त्री-पुरुष के लिए भी हो सकती है। काल पुरुष की कुंडली में धन भाव का स्वामी शुक्र है और स्त्री/पुरुष भाव का स्वामी भी शुक्र है , अर्थात कुंडली का दूसरा व सातवां भाव दोंनों को मारक भाव कहा जाता है और दोनों का स्वामी शुक्र ही मैथुनी प्रकृति का आधार है। शुक्र ही सौंदर्य, काम व ऐश्वर्य का प्रतीक है। जब हमारा मन किसी वस्तु, व्यक्ति, सौंदर्य या धन को देखकर आकर्षित हुआ, तो शुक्र ने अपना कार्य कर दिया। हृदय में विचार तरंगे उठनी शुरु हो गई, तो सूर्य का कार्य पूर्वा हुआ। मन उसकी कल्पना में खो गया, तो चंद्र को कार्य मिल गया। बुद्धि द्वारा वस्तु को पाने की इच्छा हुई, तो बुध ने कार्य किया। इच्छा की पूर्ति के लिए हम वेग से आगे बढ़े, पराक्रम किया तो मंगल ने कार्य किया। उसका दिन-रात चिंतन किया, गुरु का कार्य हुआ। उसे पाने के लिए कठिन परिश्रम किया- शनि ने साथया। वस्तु के मिलने पर अहंकार हो गया तो राहू खुश हुआ। अब अगर किसी भी वस्तु को पाने की तमन्ना शेष नहीं रही तो मोक्ष का कारक ग्रह केतू मोक्ष दिलवा देगा। यह नौ ग्रह आपको कुछ देना चाहते हैं। हमें उसको पाने की योग्यता अपने अंदर विकसित करनी है। आप सभी ग्रहों को अपने लिए शुभकर बना सकते हैं, अपने कर्मों द्वारा, उनकी पूजा अर्चना द्वारा व विभिन्न उपायों द्वारा। आमतौर पर छठे, आठवें व बारहवें भाव को शुभ नहीं कहा जाता है। छठे भाव को शुभ किए बिना आप आज्ञाकारी नौकर प्राप्त नहीं कर सकते। आठवें भाव को शुभ किए बिना लंबी आयु कैसे मिलेगी। बारहवां भाव तो व्यय करवाएगा ही, यदि उस व्यय को शुभ कर्मों की ओर मोड़ दोगे, तो मानसिक शांति मिलेगी वह हम अपने भविष्य को उज्जवल बनाएगें। अगर उस व्यय को शराब, वेश्या व जूए आदि में लगाएंगे तो शुभ फल कैसे पाएंगे। अब वास्तु शास्त्र के विषय में विचार करते हैं। अथर्ववेद का एक उपवेद है स्थापत्य वेद। यह उपवेद ही हमारे वास्तु शास्त्र का आधार है। परमयिता परमात्मा ने हमारे कल्याण के लिए हमें बहुत सी विद्याएं दी हैं। यदि आप वेदों पर और भगवान पर विश्वास करते हैं तो कोई कारण नहीं कि वास्तु पर विश्वास करें। जिस प्रकार हमारा शरीर पंचमहाभूतों से मिलकर बना है, उसी प्रकार किसी भी भवन के निमाण में पंच महाभूतों का पर्याप्त ध्यान रखा जाए तो भवन में रहने वाले सुख से रहेंगे। ये पंचमहाभूत हैं- पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। जब पंचमहाभूतों से शरीर बन जाता है तो मन, बुद्धि और अहंकार के सहित आत्मा का उसमें प्रवेश होता है। पंचम महाभूतों के लिए पांच ग्रहों को प्रतिनिधित्व दिया गया है। पृथ्वी के लिए मंगल, जल के लिए शुक्र, अग्नि के लिए सूर्य, वायु के लिए शनि और आकाश के लिए बृहस्पति को माना गया है। मन के लिए चंद्रमा, बुद्धि के लिए बुध और अंहकार के लिए राहू को माना गया है। केतु मोक्ष का कारक है। इसी प्रकार इन नौ ग्रहों का हमारे वास्तु से भी अटूट संबंध हैं। पूर्व दिशा का स्वामी ग्रह सूर्य, आग्नेय का शुक्र, दक्षिण का मंगल, नैत्त्य का राहू-केतू, पश्चिम का शनि, वायव्य का चंद्रमा, उŸार का बुध और ईशान का बृहस्पति स्वामी है। किसी दिशा विशेष मंे दोष होने पर उस दिशा से संबंधित ग्रह पीड़ित होता है और अपने अशुभ फल देता है। किसी दिशा के पीड़ित होने या किसी ग्रह के पीड़ित होने पर व्यक्ति को एक समान ही कष्ट मिलते हैं। मानलीजिए किसी व्यक्ति कुंडली में सूर्य पीड़ित है तो उस व्यक्ति को सरकार से परेशानी, सरकारी नौकरी में परेशानी, नाम व प्रतिष्ठा पर आंच, पिता से संबंध ठीक न होना, सिरदर्द, नेत्र रोग, हृदय रोग, चर्म रोग, अस्थि रोग व मस्तिष्क की दुर्बलता आदि हो सकती है। उसी प्रकार किसी व्यक्ति के घर में पूर्व दिशा में दोष होने पर, वहां शौचालय होने पर, कूड़ा करकट व कबाड़ इकट्ठा होने पर सूर्य देवता पीड़ित होते हैं और उस व्यक्ति को वे सभ्ीा कष्ट हो सकते हैं जो कुंडली में सूर्य पीड़ित होने पर होते हैं। सूर्य से संबंधित उपायन करने पर पूर्व दिशा के वास्तु दोष से होने वाले कष्टों में कमी आती है। दूसरी तरफ अगर पूर्व दिशा के वास्तु दोषों के वास्तु उपायों से ठीक कर दिया जाए, तब भी सूर्य से संबंधित कष्टों में कमी आती है। इसी प्रकार आप सभी दिशाओं से संबंधित ग्रहों की पूजा पाठा मंत्र, जप, यंत्र स्थापन आप वास्तु उपायों द्वारा सभी इन ग्रहों को पीड़ित होने से बचा सकते हैं और उनसे होने वाले कष्टों से छुटकारा पा सकते हैं। नवग्रहों के उपाय: 1. सुखी समाज का आधार: यदि कोई व्यक्ति अपने नवग्रहों द्वारा पीड़ित है तो उसे सबसे पहले अपने सामाजिक परिवेश को सुधारना चाहिए। आज हर व्यक्ति सुखी की चाह में वह कहां-कहां नहीं भटकता। धन, विचाग्रा, शराब, योगा इत्यादि। इन सबके पीछे भागते-भागते वह अपने समजा से दूर होता जा रहा है। सुखी समाज सुखी परिवारों से बनता है और सुखी परिवार, सुखी व्यक्ति से। आज व्यक्ति के पास अपन ेपरिवार के लिए ही समय नहीं है। भाई-बहन, माता-पिता, गुरु, स्त्री, नाना, दादा आदि के साथ संबंधों की गरिमा समाप्त होती जा रही है। सूर्य से पीड़ित व्यक्ति को अपने पिता की सेवा करनी चाहिए, उनका आशीर्वाद लेना चाहिए। चंद्र से पीड़ित व्यक्ति माता की सेवा करे व उनका आशीर्वाद लें। भाई की सेवा करने से मंगल शुभफल देता है। बन, बैटी, बुआ व मौसी की सेवा करने से बुधदेव प्रसन्न होते हैं। स्त्री का सम्मान करने से शुक्र शुभ फलदायी होगा। नौकरों को खुश रखने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं। दादा की सेवा करने से राहू व नाना की सेवा करने से केतु शुभ फलदायी होगा। समाज के इन व्यक्तियों से संबंध सुधारकर आप स्वयं तो सुखी होंगे ही, आपका परिवार और समाज भी सुखी हो जाएगा। सुखी समाज ही हमारे सुख का आधार है। 2.दान द्वारा उपाय: दान का मतलब है- अपनी इच्छा से किसी वस्तु को किसी दूसरे को अर्पित करना। दान यदि सुपात्र दिया जाए तो अति उत्तम है। दान को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-  सात्विक दान- बिना किसी फल की इच्छा से किसी कोई वस्तु दान या उपहार देना। राजसिक दान- नवग्रहों की शांति के लिए किसी को कोई वस्तु दानन या उपहार देना।  तामसिक दान- किसी का अहित करने के लिए उसे तामसी वस्तुओं का दान देना। यथा- शराब, सिगरेट, मीट, चरस व गांजा इत्यादि। दान देने के लिए कुछ उत्तम वस्तुएं इस प्रकार हैं- गाय दान: गाय के शरीर में सभी देवी देवता व चैदह भुवन निवास करते हैं इसलिए गो दान करने से इस लोक और परलोक में भी कल्याण होता है। शुक्र संबंधी दोषों को दूर करने के लिए गो दान उत्तम उपाय हैं। भूमि दान: भूमि के दानको सर्वोत्तम दान माना गया है। मंगल संबंधी दोषों की शांति के लिए भ्ूामिदान का उपाय बताया जाता है। दशांश का दान: अपनी कमाई का दसवां हिस्सा किसी सुपात्र को दान देना या शुभ कर्मों में लगाना आत्म शुद्धि व धन शुद्धि के लिए बहुत ही अच्छा उपाय है। नवग्रहों की शांति के लिए दान: किसी पीड़ित गह की शांति के लिए उस ग्रह से संबंधित वस्तुओं का दान शुभ फलदायी होता है। इसके अतिरिक्त अन्न व भोजनदान, जल का दान, तुला दान, शय्या दान, स्वर्ण दान, पादुका दान, धार्मिक पुस्ताकं का दान भी शुभ फलदायी कहा गया है। 3.स्नान द्वारा उपाय: शास्त्रों में कहा गया है कि पवित्र गंगा नदी में स्नान करने से कई जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। विशेषकर पूर्णिमा, अमावस, संक्रांति, शिवरात्रि, बसंत पंचमी, मकर संक्रांति, सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण आदि पर्वों पर स्नान, दान, जप, अनुष्ठान आदि करने से विशेष पुण्य प्राप्त होते हैं। अर्धुर्कुभ व कुंभ आदि महापर्व पर लाखों की संख्या में लोग हरिद्वार, काशी, उज्जैन आदि तीर्थों पर सामिहिक स्नान व दान आदि करते हैं। सोमवी अमावस, शनिवारी अमावस आदि पर भी स्नान दान का विशेष महत्व है। 4. व्रत का महत्व: किसी भी देवी देवता की कृपा पाने के लिए उस देवी देवता के वार या त्यौहार विशेष पर नियम संयम पूर्वक उपवास करना व्रत कहलाती है। सप्ताह के दिनों को सात ग्रहों की शांति के लिए व्रत रखे जाते हैं। संक्रांति व पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान की प्रसन्नता के लिए व्रत किया जाता है। रामनवमी, जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि आदि पर्वों पर करोड़ों लोग व्रत रखते हैं। शुक्ल पक्ष व कृष्ण पक्ष की एकादशियों को विष्णु भगवान की प्रसन्नता के लिए फलाहारी या निराहारी व्रत रखने का विधान है। करवाचैथ को महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती है। अहोई अष्टमी को महिलाएं अपने बच्चों की लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं। चैत्र व आश्विन शुक्ल पक्ष में मां दुर्गा की प्रसन्नता के लिए नवरात्रों के फलाहारी व्रत रखे जाते है। 5. तीर्थ यात्रा का महत्व: हिंदू धर्म में तीर्थों का बड़ा महत्व है। नदी तटों पर बने स्नान घाट हो या देवी या देवताओं के सिद्ध तीर्थ स्थल होें सभी की बड़ी महत्ता व मान्यता है। शिव ज्योर्तिलिंगों के दर्शन हों, मां दुर्गा के विभिन्न रूपों के सिद्ध स्थान हों, हनुमान जी के सिद्ध तीर्थ हों या सप्तपुरियां हों सभी की महिमा अपरंपार है। चातुर्मास में सप्तपुरियों का दर्शन मोक्ष प्रदान करने वाला है। ये सप्तपुरियां हैं- हरिक्षर, मथुरा, द्वारिका, अयोध्या, कांचीपुरम, वाराणसी व उज्जैन। इसके अतिरिक्त चार धाम तीर्थ यात्रा का भी बहुत महत्व है- पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारकापुरी, उत्तर में बदरीधाम व दक्षिण में रामेश्वरम धाम। 6. यज्ञ का महत्व: यज्ञ का अर्थ सिर्फ मंत्रों द्वारा हवन करना ही नहीं है। यह एक विस्तृत संदर्भ में प्रयोग होता है। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञ कहे गये हैं। इन यज्ञों को करने से हम देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण से मुक्त होते हैं। ये पांच यज्ञ इस प्रकार हैं-  ब्रह्म यज्ञ: निर्गुण या सगुण ब्रह्म की उपासना कर हम ईश्वर को याद करते हैं। ब्रह्म मुहूर्त व संध्या समय में ईश्वर की आराधना, वेद पाठ, स्वाध्याय व आरती इसी श्रेणी में आते हैं।  देव यज्ञ: देव ऋण से मुक्ति दिलाने वाले कर्म यथा देवताओं की पूजा, सत्संग व अग्निहोत्र कर्म इसी श्रेणी में आते हैं।  पितृ यज्ञ: सृष्टि की वृद्धि करने के निमित्त संतान की उत्पत्ति करके हम अपने पितृ ऋण से उऋण होते हैं। अपने दिवंगत पितरों की शांति के लिए श्राद्ध, तर्पण व दान आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं। वैश्व देव यज्ञ: जिस अग्नि से हमने भोजन बनाया है उस भोजन का कुछ अंश अग्नि को अर्पित करना वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। गाय, कुत्ते व कौवे को भोजन का अंश देना भी इसी श्रेणी में आता है।  अतिथि यज्ञ: अतिथि को देवता तुल्य समझने वाले भारतीय समाज में अतिथि को सर्वोपरि माना गया है। याचिका को दान देना, धर्म की रक्षा के लिए धर्म स्थल की पूजा, सेवा व दान देना, साधु सन्यासियों की सेवा व सहायता करना इसी श्रेणी के यज्ञ कहलाते हैं।  सत्कर्मों का महत्व: प्रभु कृष्ण ने गील के सोहलवें अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक में कहा गया है कि देव तुल्य पुरुषों में ये गुण होते हैं। निर्भयता, आत्म शुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान शनि का अनुशीलन, दान, आत्म संयम, यज्ञ परायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोध विहिनता, त्याग, शांति दूसरों के दोष न देखना, समस्त जीवों कर करुणा, लोभविहिनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईष्र्या तथा मान की अभिलाषा से मुक्ति। हमें अपने अपने अंदर इन गुणों को विकसित करते हुए शुद्ध भक्त बनने की कोशिश करनी चाहिए। जो निश्चय पूर्वक मन और बुद्धि को परमात्मा में स्थित करके भक्ति में लगाए रहता है, हर्ष शोक आदि द्वंद्वों से रहित है, प्रभु से कोई इच्छा नहीं करता, मा-अपमान, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख, यश-अपयश में सम रहता है, ऐसे भक्त प्रभु को अत्यधिक प्रीय हैं। यज्ञ, दान, तप, तीर्थ व व्रत आदि जो भी सत्कर्म किए जाते हैं, कर्म योगी को वह केवल संसार के हित के लिए ही करने चाहिए। शुद्ध भक्ति निष्काम होती है, वही परम कल्याणकारी है। जो परमज्ञानी है और शुद्ध भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है। प्रभु श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि शुद्ध भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है। जिसकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा प्रभावित हे, वे देवताओं की शरण जाते हैं और अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं। देवता विशेष की पूजा द्वारा अपनी इच्छा की पूर्तिे करते हैं। किंतु वास्तविकता तो ये है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा ही प्रदŸा है। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं किंतु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं। आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए हमें अपना स्वभाव सतोगुणी बनाना और सतोगुणी स्वभाव विकसित करने के लिए हमें कुछ नियमों का पालन करना चाहिए। सबसे पहले हमें सभी प्रकार के नशीले पदार्थों का त्याग करना चाहिए जैसे- सिगरेट, शराब, भांग, गांजा इत्यादि। दूसरे हमें शाकाहारी भोजन करना चाहिए। तीसरे पराई स्त्री/पुरुष से संपर्क नहीं बनाएं। चैथे किसी प्रकार का जुआ, सट्टा आदि नहीं खेलना चाहिए। इस प्रकार से जीती गई राशि गलत कार्यों में ही खर्च होगी। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन कुछ समय भगवद स्मरण में लगाना चाहिए। भगवद स्मरण करने के लिए आप प्रतिदिन गीता या भागवत् के कुछ अंश पढ़ सकते हैं। दूसरों से भगवत ज्ञान की चर्चा कर सकते हैं। श्री विग्रह की पूजा कर सकते हैं। भगवान को प्रेम सहित फल-फूल व जल अर्पिण कर सकते हैं। प्रतिदिन महामंत्र का जप करें। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्णा हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह आत्मा शुद्धि के लिए सर्वश्रेष्ठ मंत्र है। इन विधि विधानों का पालन करते हुए आप स्वयं महसूस करेंगे कि आप आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं और ग्रह जनित कष्टों से छुटकारा पाते जा रहे है। अपने कष्टों से छुटकारा पाने के लिए भगवान से प्रार्थना और भगवान की भक्ति से अच्छा कोई उपाय नहीं है। नव ग्रहों से मिलने वालु सुख इस प्रकार हैं- सूर्य राज्य लक्ष्मी नाम प्रतिष्ठा, सरकार से लाभ चंद्र आरोग्य लक्ष्मी स्वास्थ्य मंगल उऋण लक्ष्मी ऋणों से मुक्ति बुध सुज्ञान लक्ष्मी अच्छा ज्ञान गुरु सुपुत्र लक्ष्मी आज्ञाकारी पुत्र शुक्र सुभार्या लक्ष्मी आज्ञाकारी पत्नी शनि श्रेष्ठ लक्ष्मी पापरहित कमाई, मेहनता का फल राहु सुमित्र लक्ष्मी अच्छा मित्र केतु सुकीर्ति लक्ष्मी यश व सम्मान इसी प्रकार कुंडली के बारह के बारह भाव व्यक्ति को कुछ न कुछ देना चाहते हैं। प्रत्येक भाव से मिलने वाले सुख इस प्रकार हैं- भाव फल 1 निरोगी काया 2 धन व माया, अच्छा कुटुंब 3 मित्र व छोटे भाई 4 सुंदर घर 5 आज्ञाकारी पुत्र 6 आज्ञाकारी नौकर (कोई रोग व शत्रु) 7 कुलवंती वार (अच्छे कुल से पत्नी) 8 लंबी आयु व पत्नी का कुटुंब 9 पूजा पाठ व धर्म का पालन 10 कर्मशील रहो 11 पाप रहित कमाई 12 शभु कार्यों पर व्यय 

काल सर्प योग और हस्तरेखा

काल सर्प योग और हस्तरेखा, में कालसर्प योग के मुखयकारक ग्रह राहु और केतु हैंऔर उनमें भी राहु मुखयहै। कालसर्प योग के जो भी बुरे प्रभावमनुष्य के जीवन पर पड़ते हैं वे सभीमुखय रूप से राहु के दोष और बुरेप्रभाव ही हैं। इसी प्रकार हाथ से भीराहु और केतु की स्थिति को देखाजाता है और राहु तथा केतु के बुरेप्रभाव को आंका जाता है। कालसर्पयोग में जो सर्प है वह राहु ही है।हस्तरेखा के जितने भी पाश्चात्य विद्वानहुए हैं उन्होंने हाथ पर राहु और केतुकी उपस्थिति का वर्णन नहीं कियाहै। भारतीय विद्वानों ने जो हस्तरेखापर पुस्तकें लिखी हैं उनमें हाथ परराहु और केतु का स्थान तो दिखायागया है परंतु वह अपने आप में पूरीजानकारी नहीं देता।वस्तुतः जीवन रेखा का शुरू का भागराहु का स्थान है। अगर इस भाग परकाले धब्बे हों पिन प्वाइंट जैसेछोटे-छोटे बिंदु हों, जंजीर जैसी रेखाहो, रेखाओं के गुच्छे बने हुए हों तोराहु खराब होता है और राहु के बुरेप्रभाव मनुष्य को भुगतने पड़ते हैं।राहु का दूसरा नाम धोखा है। ऐसाव्यक्ति धोखों का शिकार होता है।व्यापार में धोखा मिलता है, अपनों सेधोखा मिलता है, मां, पिता भाई, बहन,दोस्त, पत्नी तथा भागीदार या किसीसे भी धोखा मिलता है। उसका रुपयामारा जाता है। इसी क्रम में वह कर्जदार बन जाता है। जब हाथ में राहु ज्यादाखराब हो तो वह व्यक्ति को इतनाअधिक कर्जदार बना देता है कि व्यक्तिआत्महत्या करने की स्थिति में आजाता है या उसे शहर छोड़ कर भागनापड़ता है। खराब राहु व्यक्ति के प्रत्येककाम में टांग अड़ाता है। बना बनायाकाम खराब करता है। शादी में रूकावटडाल देता है। लगी लगाई नौकरी मेंबाधा डाल देता है। व्यक्ति पर केसबनवा देता है, नौकरी में निलंबितकरवा देता है। राहु झूठे मुकदमें मेंफंसवा देता है। हमारे जीवन में राहु2, 11, 20, 29, 38, 47, 56, 65, 74, 83, वर्षों में आता है। यदि राहु खराबहै तो इन वर्षों में अपनी खराबी दिखाताहै और जो खराबी इन वर्षों में आजाती है वह आगे भी चलती रहतीहै। शनि और राहु भी आपस में मित्रहैं। जब शनि का समय चल रहाहोता है तो उसमें भी खराब राहु अपनापूरा प्रभाव दिखाता है। हमारे जीवनमें 4, 13, 22, 31, 40, 49, 58, 67,76, 85 आदि शनि के वर्ष हैं। खराबराहु इन वर्षों में भी अपनी खराबीकरता है।यदि हाथ में राहु और केतु खराब हैतो वह व्यक्ति काल सर्प दोष सेपीड़ित है।कालसर्प योग का दूसरा कारक ग्रहकेतु है जो चंद्र पर्वत और शुक्र पर्वतके बीच स्थित हैं और मणिबंध रेखाको छूता है। अगर यह स्थान धंसाहुआ हो या इस पर ग् क्रॉस का चिन्हहो तो केतु खराब होता है। ज्योतिषशास्त्रों में केतु को देवताओं का नगरकोतवाल कहा गया है। जिसका केतुखराब होता है वह पुलिस के चक्करमें फंस जाता है। केतु जेल औरकचहरी का भी कारक है। खराब केतुव्यक्ति को मुकदमों में उलझा देता हैऔर जेल भी भिजवा देता है।

अष्टम चंद्र

अष्टम चंद्र यानि जन्म कुंडली में आठवें भाव में स्थित चंद्र। आठवां भाव यानि छिद्र भाव, मृत्यु स्थान, क्लेश‘विघ्नादि का भाव। अतः आठवें भाव में स्थित चंद्र को लगभग सभी ज्योतिष ग्रंथों में अशुभ माना गया है और वह भी जीवन के लिए अशुभ। जैसे कि फलदीपिका के अध्याय आठ के श्लोक पांच में लिखा है कि अष्टम भाव में चंद्र हो तो बालक अल्पायु व रोगी होता है। एक अन्य ग्रंथ बृहदजातक में भी वर्णित है कि चंद्र छठा या आठवां हो व पापग्रह उसे देखें तो शीघ्र मृत्यु होगी। जातक तत्वम के अध्याय आठ के श्लोक 97 में भी आठवें चंद्र को मृत्यु से जोड़ा गया है। ज्योतिष के ग्रंथ मानसागरी के द्वितीय अध्याय के श्लोक आठ में वर्णित है कि यदि चंद्र अष्टम भाव में पाप ग्रह के साथ हो तो शीघ्र मरण कारक है। इसी कारण से अधिकतर ज्योतिषी अष्टम चंद्र को अशुभ कहते हैं और जातक को उसकी आयु के बारे में भयभीत कर पूजादि करवा कर धन लाभ भी लेते हैं, ज्योतिष के प्रकांड ज्ञानी भी जन्मपत्री में अष्टम चंद्र को देखते ही जन्मपत्री को लपेटना शुरू कर देते हैं, वे अष्टम चंद्र को ऐसा सर्प मानते हैं जिसके विष को जन्म कुंडली में स्थित शुभ ग्रह गुरु, शुक्र या बुध रूपी अमृत भी निष्प्रभावी नहीं कर सकते। वे अष्टम चंद्र को भय का प्रयाय व साक्षात मृत्यु का देवता मानते हैं, मैंने स्वयं अनेक पंडितों को अष्टम चंद्र की भयानकता बताते देखा है। परंतु यह सर्वथा गलत है कि अष्टम चंद्र को देखते ही जन्मपत्री के अन्य शुभ योगों, लग्न व लग्नेश की स्थिति, अष्टम व अष्टमेश की स्थिति आदि को भूल जाएं और अष्टम चंद्र को देखते ही अशुभ बताना शुरू कर दें, क्या इस अष्टम चंद्र की भयानकता हमें इतना सम्मोहित कर देती है कि इसे देखते ही मृत्यु या प्रबल अरिष्ट के रूप में अपना निर्णय सुनाने लगते हैं, बिना यह विचार किए कि सुनने वाले जातक को ऐसे मुर्खतापूर्ण निर्णय से कितना आघात पहुंचता है। यह अपने आप में नकारात्मक ज्योतिष है और हमें इससे बचना चाहिए। केवल मृत्यु या भयानकता ही अष्टम चंद्र का प्रतीक नहीं है वरन् आशा व जीवन का प्रतीक भी अष्टम चंद्र ही है। अतः अष्टम चंद्र का केवल नकारात्मक पक्ष ही नहीं, बल्कि इसके सकारात्मक पक्ष पर भी गहन विचार करने के बाद ही ज्योतिषी को अपना निर्णय सुनाना चाहिए। आइए अष्टम चंद्र के बारे में ज्योतिष के विभिन्न ग्रंथों में लिखित निम्न श्लोकों पर एक नजर डालें जो अष्टम चंद्र के सकारात्मक पक्ष को उजागर करते हैं अर्थात भयभीत करने से बचाते हैं: 1. जातक परिजात में लिखा है कि जिस जातक का कृष्ण पक्ष में दिन का जन्म हो या शुक्ल पक्ष में रात्रि का जन्म हो और उसकी जन्म कुंडली में छठा या आठवां चंद्र हो, शुभ व पाप दोनों प्रकार के ग्रहों से दृष्ट हो तो भी मरण नहीं होता। ऐसा चंद्र बालक की पिता की तरह रक्षा करता है। 2. मानसागरी में कहा गया है कि लग्न से अष्टम भावगत चंद्र यदि गुरु, बुध या शुक्र के द्रेष्काण में हे तो वही चंद्र मृत्यु पाते हुए की भी निष्कपट रक्षा करता है। अब इन श्लोकों पर तो ज्योतिषीगण ध्यान देने की आवश्यकता समझते नहीं या ध्यान देना ही नहीं चाहते जो अष्टम चंद्र का सकारात्मक पक्ष उजागर करते हैं बल्कि नकारात्मक पक्ष को उजागर कर स्वार्थ सिद्ध करते हैं। अतः हमें अष्टम चंद्र से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह जीवन का प्रयाय भी बन जाता है यदि निम्न सिद्धांत इस पर लागू हों तो: 1.जातक का जन्म कृष्ण पक्ष में दिन का हो या शुक्ल पक्ष में रात्रि का हो। 2.जन्म कुंडली में चंद्र शुभ ग्रह गुरु, शुक्र या बुध की राशि में हो या इन्हीं ग्रहों से दृष्ट हो। 3.द्रेष्काण कुंडली में चंद्र पर गुरु, शुक्र या बुध की दृष्टि हो या चंद्र इन्हीं तीन ग्रहों की राशियों में स्थित हो। 4.नवांश कुंडली में चंद्र पर गुरु, शुक्र या बुध की दृष्टि हो या चंद्र इन्हीं तीन ग्रहों की राशियों में स्थित हो।

शिक्षा से सम्बन्धी समस्याओं का निवारण या हल

कुंडली में ग्रहों की स्थिति और सितारों की नजर बताती है। आपके करियर का राज:- हर विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में कठिन परिश्रम कर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है। अपने भाग्य और कड़ी मेहनत के बल पर ही कोई, विद्यार्थी परीक्षा में श्रेष्ठ अंकों को प्राप्त कर सकता है। किसी भी तरह की परीक्षा में इंटरव्यू में जाने के पूर्व बड़ों का अशीर्वाद लेना चाहिए। मीठे दही में तुलसी का पŸाा मिलाकर सेवन करना चाहिए इस तरह के उपायों से सफलता प्राप्त करने में सहायता मिलती है। इन्हीं में कुछ मंत्रों यंत्रों एवं सरल टोटकों के प्रभाव से अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है। मंत्र: ।। ¬ नमो भगवती सरस्वती बाग्वादिनी ब्रह्माणी।। ।। ब्रह्मरुपिणी बुद्धिवर्द्धिनी मम विद्या देहि-देहि स्वाहा।। अपनी जिह्ना को तालु में लगाकर माॅ सरस्वती के बीज मंत्रों का उच्चारण करने से माॅ सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ‘‘एंे’’ किसी भी सफलता की प्राप्ति के लिए इस मंत्र का 11 बार या 21 बार इस मंत्र का जप करने से सफलता की प्राप्ति होती है और इस मंत्र का नित्य सुबह जप करें। ।। जेहि पर कृपा करहि जनु जानी।। ।। कबि उर अजिर नचकहि बानी।। गुरुवार के दिन केसर की स्याही से भोजपत्र पर इस यंत्र का निर्माण करें। इस यंत्र में सब तरह से योग करने पर जोड़ 20 आएगा। इस ताबीज को गले धारण करें। इससे परीक्षा में सफलता की प्राप्ति होगी। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह अध्ययन करते समय उनका मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए। जिन विद्यार्थियों को परीक्षा देेने से पहले उत्तर भूलने की आदत हो। उन्हें परीक्षा के समय जाने से पहले अपने पास कपूर व फिटकरी पास रखकर जाना चाहिए। यह नकारात्मक ऊर्जा को हटाते हैं। परीक्षा के समय जब कठिन विषय की परीक्षा हो तो पास में गुरुवार के दिन मोर पंख रखें। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपनी पढ़ाई का अध्ययन करना चाहिए, जिससे लंबे समय तक विष का विद्यार्थी के ज़हन में ताजा बना रहता है। परीक्षा में जाने से पहले मीठे दही का सेवन करना चाहिए। दिन शुभ व्यतीत होता है। भगवान गणेश जी को हर बुधवार के दिन दूर्बा चढ़ाने से बच्चों की बुद्धि कुशाग्र होती है। इसलिए गणेश जी का सदैव स्मरण करें। जब आपका सूर्य स्वर (दायां स्वर) नासिका का चल रहा है। तब अपने कठिन विषयों का अध्ययन करें। तो वह शीघ्र याद हो जाएगा। इसी प्रकार कक्ष में प्रवेश करते समय भी चल रहे स्वर का ध्यान रखकर प्रवेश करें। ‘परीक्षा में सफलता प्राप्त करने हेतु’ परीक्षा भवन में प्रवेश करते समय भगवान राम का ध्यान करें और निम्नलिखित मंत्र का ग्यारह बार जप करें। ।। प्रबसि नगर कीजे सब काजा।। ।। हृदय राखि कौशलपुर राजा।। गुरु व अंत में चैपाई के संपुट अवश्य लगाएं। यह बहुत प्रभावी टोटके हैं। ‘शिक्षा दीक्षा में रुकावट दूर करने के लिए’’ क्रिस्टल के बने कछुए का उपयोग प्रमुख होता है। क्रिस्टल के कछुए को विद्यार्थी के मेज पर रखना चाहिए। एकाग्रता बनी रहती है। साथ ही सफेद चंदन की बनी मूर्ति टेबल पर रखनी चाहिए रुकावटें धीरे-धीरे दूर होने लगती है। परीक्षा में सफलता के लिए परीक्षा में जाते समय विद्यार्थी को केसर का तिलक लगाएं और थोड़ा सा उसकी जीभ पर भी रखें उसे सारा सबक याद रहेगा और सफलता मिलेगी। चांदी की दो अलग-अलग कटोरी में दही पेड़ा रखकर माॅ सरस्वती के चित्र के आगे ढककर रखें और बच्चे की सफलता के लिए कामना करें। मां सरस्वती का स्मरण कर बच्चे को परीक्षा के लिए निकलने से तीन घंटा पूर्व एक कटोरी खिलाना है और परीक्षा के लिए जाते भक्त दूसरी कटोरी का प्रसाद खिलएं सफलता मिलेगी। ‘विद्या में आने वाले विघ्न को दूर करेने हेतु’ मंदिर में सफेद काले कंबल तथा धार्मिक पुस्तकों का दान करें। 40 दिन तक प्रतिदिन एक केला गणेश जी के मंदिर में उनके आगे रखें। वारों के अनुसार परीक्षा देने के समय किए जाने वाले उपायः सोमवार के सोमवार के दिन पेपर देने जा रहे हों तो दर्पण में अपना प्रतिबिंव देखकर जाएं। शिवलिंग पर पान का पत्ता चढ़ाकर जाएं। मंगलवार: हनुमानजी को गुड़, चने का भोज लगाकर प्रसाद खाकर जाएं। बुधवार: गणेजजी को दूर्वा चढ़ाकर, धनिया चबाकर जाएं। बृहस्पतिवार: केसर का तिलक लगाकर परीक्षा देने जाएं और अपने साथ पीली सरसों रखें। शुक्रवार: श्वेत वस्त्र धारण करके, मीठे दूध में चावल देवी को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करें। शनिवार: अपनी जेब में राई के दाने रखकर परीक्षा देने जाएं। रविवार: दही व गुड़ अपने मुख में रखकर परीक्षा देने जाएं। इनमें किसी एक मंत्र का प्रयोग अवश्य करें।

कुंडली के विभिन्न भावों में केतु का फल

प्रथम भाव केतु यदि प्रथम भाव में हो तो व्यक्ति रोगी, चिन्ताग्रस्त, कमजोर, भयानक पशुओं से परेशान तथा पीठ के कष्ट का भागी होता है। वह अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं से लड़ने वाला, लोभी, कंजूस तथा गलत लोगों का चयन करने के कारण चिंतित रहता है। परिवार सुख का अभाव और जीवन साथी की चिन्ता सदा रहती है। उसे गिरने से चोट लगने का भय रहता है। किन्तु केतु के बली होने अथवा लाभदायक अवस्था में होने पर व्यक्ति जीवन में अच्छी प्रगति करता है तथा सभी प्रकार के सुख पाता है। द्वितीय भाव केतु के द्वितीय भाव में होने पर जातक गले के कष्ट से पीड़ित तथा संसार के विरूद्ध जाने वाला होता है। परिवार से सुख में कमी तथा शासन द्वारा दंड का भय रहता है। वह सत्य को छिपाने वाला और अपनी बातों से दूसरों को चोट पहुंचाने वाला होता है। यदि केतु शुभ राशि में हो या उच्च का होकर किसी शुभ ग्रह से युति में हो तो वह सुख - सुविधा पूर्ण जीवन, अधिक आय, आज्ञाकारी परिवार तथा हृदय से संन्यासी वृत्ति का होता है। तृतीय भाव तृतीय भाव में केतु जातक को बुद्धि मान, धनी तथा विरोधियों का सर्वनाश करने वाला बनाता है। वह बलशाली, शास्त्रों का ज्ञाता, विवाद में रूचि रखने वाला, परोपकारी तथा उद्यम से भरा पूरा होता है। वह खुली वृत्ति वाला, प्रसिद्ध, भाग्यवान, अपने लोगों से निकटता और स्नेह रखने वाला होता है। जीवन साथी से सुख तथा तीर्थ यात्राओं का शौकीन होता है। बाधित केतु बहरा, हृदय रोगी, बातूनी, दुखी, लिप्त तथा अपयश का भागी होता है। चतुर्थ भाव चतुर्थ भाव में केतु व्यक्ति को निकट संबंधी से सुख का अभाव देता है। माता से सुख में कमी व मित्रों द्वारा अपमानित भी होता है। वह दूसरों पर विश्वास का सुख नहीं पाता तथा पारिवारिक धन की हानि पाता है। यदि केतु बाधित हो तो जीवन में आसानी से स्थिरता नहीं आती। भाई - बहनों के कारण दुख का भागी कुंडली के विभिन्न भावों में केतु का फल होता है। केतु के लाभदायक होने पर विजयी, ईमानदार, मृदुभाषी, धनी, प्रसन्न, दीर्घायु, माता - पिता से सुख तथा उत्तम वाहन पाता है। पंचम भाव पंचम भाव में केतु जातक को कपटी, भयभीत, जल से भय रखने वाला, रोगी, निर्धन, निष्पक्ष, उदासीन तथा विभिन्न प्रकार के कष्टों का भागी बनाता है। वह ईश्वर से डरने वाला, पुत्र से सुख की कमी वाला तथा शासन से दंड का भय रखने वाला होता है। समस्याएं सदा मुंह बाए रहती हैं। कम संतान परन्तु अधिक पुत्रियों वाला हो सकता है। अपव्ययी, अकृतज्ञ तथा पेट के रोगों से ग्रस्त हो सकता है। उच्च का केतु होने पर संन्यासी, प्राचीन शास्त्रों और तीर्थाटन में रूचि वाला तथा किसी संस्था का उच्चाधिकारी हो सकता है। वह ज्ञानवान, भ्रमणशील, नौकरी से लाभ पाने वाला किन्तु व्यवसाय बदलते रहने वाला होता है। षष्ठम भाव षष्ठम् भाव में केतु जातक को दयावान, संबंध स्नेही, ज्ञानी तथा लोक प्रसिद्धि पाने वाला होता है। वह अच्छे पद, विद्वानों का संग पसन्द करने वाला, शत्रुओं, विरोधियों को भयभीत रखने वाला होता है। वह रोग मुक्त, पशु प्रेमी, लोगों के सम्मान का भागी किन्तु माता के पूर्ण स्नेह में कमी वाला होता है। यदि केतु लाभदायक स्थिति में हो तो वह दूसरों की चिन्ता न करने वाला तथा अपने प्रभाव से उन्हें दबाकर अपनी सत्ता बनाने वाला होता है। किन्तु यदि केतु नीच का हो तो पेट के रोग, मिथ्याहंकारी, अलाभकारी कार्यों में लगा हुआ तथा दूसरों से ईमानदार न रहते हुए भी लाभ उठाने का प्रयास करने वाला होता है। सप्तम भाव केतु जब सप्तम् भाव में स्थित होता है तो जातक को अस्थिर बुद्धि वाला, जीवन साथी से सुख में कमी तथा उसके साथ न चलने वाला बनाता है। केतु के बाधित होने पर विवाह में देरी, गलत कामों में रूचि तथा अतिरिक्त वैवाहिक सम्बन्ध बनाने वाला हो सकता है। शुभ केतु सदा चिन्ताग्रस्त परन्तु जीवन में सुख सुविधा से पूर्ण होता है। अष्टम भाव अष्टम् भाव में केतु जातक को चरित्रहीन, व्यभिचारी, दूसरों की संपत्ति पर दृष्टि रखने वाला तथा लोभी प्रकृति का बनाता है। वह वाहन चलाने से भय रखने वाला होता है। उसके स्वभाव का बुरा पक्ष जल्दी सामने आ जाता है। वह नेत्र रोग से पीड़ित होता है। लाभकारी केतु उसे अच्छी धन संपदा प्रदान करता है। वह विदेश में वास करने वाला तथा व्यापार से अच्छी आय करने वाला होता है। नवम भाव नवम् भाव में केतु जातक को क्रोधी, ईष्र्यालु, निंदक तथा धर्म में अस्थिर आस्था रखने वाला बनाता है। वह सुखों में विशेष रूचि रखता है तथा इस कारण नीच लोगों से मित्रता रखने में भी नहीं हिचकता। निकट संबंधियों से सुख प्राप्ति में कमी हो सकती है। बाजुओं में कष्ट व पिता से सम्बन्धों में तनाव का भागी हो सकता है। बाधित केतु बहुत बुरे परिणाम देता है किन्तु विदेश से अच्छी आय का भी कारक होता है। यदि केतु शुभ हो तो जातक साहसी, दयावान, दानी, बुद्धिमान तथा ईश्वर से डरने वाला होता है। दशम भाव दशम् भाव में केतु जातक को बुद्धिमान, दार्शनिक, साहसी तथा दूसरों से प्रेम रखने वाला बनाता है। शुभ केतु होने पर अयोग्य पात्र को भी आश्रय देने वाला होता है और जीवन में अच्छी संपदा पाने वाला होता है। वह अपने विरोधियों को कष्ट पहुंचाने वाला होता है। केतु के बाधित होने पर दुर्भाग्य पीछा नहीं छोड़ता। वह दुर्घटनाओं का भागी होता है तथा पिता से अच्छे सम्बन्धों में कमी करता है। एकादश भाव केतु के एकादश भाव में होने पर व्यक्ति विजयी, कठिन से कठिन समस्याओं का भी सहज ही समाधान ढूंढ़ लेने वाला होता है, अच्छे स्वभाव का स्वामी होता है। वह दूसरों के प्रति दयालु किन्तु केतु के अशुभ होने पर गुप्त रोग से पीड़ित हो सकता है। संतान से सुख में कमी तथा जीवन में सहयोगी मित्रों का अभाव होता है। द्वादश भाव केतु के द्वादश भाव में होने पर व्यक्ति गलत काम में लिप्त, निजी सम्पत्ति की हानि करने वाला, चंचल तथा अलाभकारी कार्यों में धन का अपव्यय करने वाला होता है। वह गुप्त रोगों से पीड़ित, दंभी व चरित्रहीन हो सकता है। किन्तु केतु के लाभकारी स्थिति में जातक ईमानदार, दयावान, कृपालु, संन्यासी तथा जीवन में धन का सुख भोग करने वाला होता है। विभिन्न राशियों में केतु का परिणाम मेष केतु के मेष राशि में होने पर व्यक्ति रूग्ण, विभिन्न रोगों का भागी, अप्रसन्न तथा तनावपूर्ण व चिन्तापूर्ण जीवन का भागी होता है। वह अंतःप्रज्ञा का स्वामी होता है तथा उसके सही प्रयोग करने पर जीवन में विशेष लाभ प्राप्त कर सकता है। वृष केतु के वृष राशि में होने पर जातक रोगी, चिन्तारहित किन्तु नशे का आदि हो सकता है। वह प्रेतबाधा से पीड़ित अपनी ही दुनिया में रहने वाला तथा सहज ही अपने मन की बात न कहने वाला होता है। मिथुन मिथुन राशि में केतु जातक को अपने ही लोगों से विरोध तथा निरर्थक कार्य में लगने वाला बनाता है। वह परिश्रमी होता है तथा अपनी बुद्धि का सही रूप में प्रयोग करने पर अच्छी संपदा कमाता है। कर्क कर्क राशि में यदि केतु हो तो जातक भयभीत, चिंतित, रोगी तथा दूसरों की संगत में बड़बोला बनाता है। अपनी क्षमताओं का स्मरण किये जाने पर वह असंभव को भी संभव कर सकता है। सिंह सिंह राशि में केतु बुद्धिमान होते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में बाध् ाा देता है। वह सदा कुछ भ्रमित रहता है। वह सरकार के हाथों दंड का भागी हो सकता है। कन्या कन्या राशि में केतु होने पर जातक भ्रमित, भयानक तथा विभिन्न रोगों का भागी होता है। केतु के शुभ (लाभकारी) होने पर अंतःप्रज्ञा वाला होता है तथा उसका सही प्रयोग करने पर जीवन में सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता चला जाता है। तुला तुला राशि में केतु व्यक्ति को सामान्यतः संतुलित तथा कठिन समस्याओं का हल करने वाला बनाता है। स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता रहती है। वह नेत्र रोग से पीड़ित तथा संतान से सुख में कमी पाता है। वृश्चिक वृश्चिक राशि में केतु व्यक्ति को बुद्धिमान, साहसी, दयालु तथा सहायता देने वाला बनाता है। किन्तु कभी - कभी वह अति ईष्र्यालु, त्यागी तथा अपने लिए ही कष्ट पैदा करने वाला होता है। धनु धनु राशि में केतु जातक को उदारमना, दयावान तथा विशाल हृदयी बनाता है। वह कठिन समस्याओं का हल करने में सफल तथा तीर्थाटन का प्रेमी होता है। मकर केतु यदि मकर राशि में हो तो व्यक्ति रोगी स्वभाव, परिश्रमी, कार्य कुशल तथा कर्तव्य परायण होता है। वह बुद्धिमान होते हुए भी निकट के लोगों द्वारा भावनात्मक विषयों में ठगा जाता है। कुंभ कुम्भ राशि में यदि केतु स्थित है तो जातक उदार हृदय, दार्शनिक, दानशील तथा खुले विचारों वाला होता है। वह अनेक मित्रों वाला तथा शासन से लाभ प्राप्त करने वाला होता है। मीन मीन राशि में केतु जातक को बुद्धि मान, विशाल हृदय तथा सुखों में आनन्द लेने वाला होता है। वह दूर देशों की यात्रा करने वाला तथा परिवार से प्रेम रखने वाला होता है।

वक्री गुरु का प्रभाव

वक्री ग्रहों के संबंध में ज्योतिष प्रकाशतत्व में कहा गया है कि-“क्रूरा वक्रा महाक्रूराः सौम्या वक्रा महाशुभा।।” अर्थात क्रूर ग्रह वक्री होने पर अतिक्रूर फल देते हैं तथा सौम्य ग्रह वक्री होने पर अति शुभफल देते हैं। जातक तत्व और सारावली के अनुसार यदि शुभग्रह वक्री हो तो मनुष्य को राज्य, धन, वैभव की प्राप्ति होती है किंतु यदि पापग्रह वक्री हो तो धन, यश, प्रतिष्ठा की हानि होकर प्रतिकूल फल की संभावना रहती है। जन्म समय में वक्री ग्रह जब गोचरवश वक्री होता है तो वह शुभफल प्रदान करता है बशर्ते ऐसे जातक की शुभ दशांतर्दशा चल रही हो। क्या हैं वक्री ग्रह: फलित ज्योतिष के अनुसार जब कोई ग्रह किसी राशि में गतिशील रहते हुए अपने स्वाभाविक परिक्रमा पथ पर आगे को न बढ़कर पीछे की ओर (उल्टा) गति करता है तो वह वक्री कहा जाता है। जो ग्रह अपने परिक्रमा पथ पर आगे को गति करता है तो वह मार्गी कहा जाता है। वक्री ग्रह कुंडली में जातक विशेष के चरित्र-निर्माण की क्रिया में सहायक होते हैं। जिस भाव और राशि में वे वक्री होते हैं उस राशि और भाव संबंधी फलादेश में काफी कुछ परिवर्तन आ जाता है। सूर्य एवं चंद्र मार्गी ग्रह हैं, ये कभी भी वक्री नहीं होते हैं। वक्री होने पर शुभाशुभ परिवर्तन: भारतीय ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति जिस भाव में स्थित होकर वक्री होता है, उस भाव के फलादेशों में अनुकूल व सुखद परिवर्तन आते हैं। आमतौर पर बृहस्पति के वक्री होने पर व्यक्ति अपने परिवार-कुटुंब, देश, संतान, जिम्मेदारियों, धर्म व कत्र्तव्य के प्रति ज्यादा चितिंत हो जाता है। जन्म कुंडली के दूसरे स्थान में आकर जब बृहस्पति वक्री होता है, तब अपनी दशा-अन्तर्दशा में अपार धन-दौलत देता है। नवम भाव में वक्री होने पर जातक के भाग्य द्वार खोल देता है एवं द्वादश स्थान में वक्री होने पर जातक को जन्मभूमि की ओर ले जाता है। मकर राशि में भले ही नीच का गुरु विराजमान हो परंतु यदि वह वक्री हो तो उच्च की तरह ही शुभ फल प्रदान करेगा। वक्री गुरु का प्रभाव: गुरु विद्या-बुद्धि और धर्म-कर्म का स्थाई कारक ग्रह है। मनुष्य के विकास के लिए यह अति महत्वपूर्ण ग्रह है। गुरु का मनुष्य के आंतरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक जीवन पर समुचित प्रभाव पड़ता है। गोचरवश गुरु के वक्री रहते हुए धैर्य व गम्भीरता से कार्य की पकड़ कर नई योजना व नए कार्यों को गति देनी चाहिए। जिन जातकों के जन्म समय में गुरु वक्री हो, उनको गोचर भ्रमणवश वक्री होने पर अटके कार्यों में गति एवं सफलता मिलेगी और शुभ फलों की प्राप्ति होगी। बृहस्पति और अन्य राशिगत प्रभाव: वर्तमान में कर्क राशि में गोचर भ्रमणवश पहले, चैथे, आठवें, बारहवें गुरु के अशुभ प्रभाव से प्रभावित कर्क, मेष, धनु एवं सिंह राशि के व्यक्तियों को राहत मिलेगी, जब बृहस्पति वक्री होता है तो ऐसे व्यक्तियों के भाग्य में परिवर्तन आता है। कर्क राशि में गतिशील वक्री गुरु अपनी पंचम पूर्ण दृष्टि से वृश्चिक राशि में गतिशील नैसर्गिक रूप से पापग्रह शनि को देखेगा। जब कोई शुभ ग्रह वक्री होकर किसी अशुभ ग्रह से दृष्टि संबंध बनाता है तो उसके अशुभ फलों में कमी आकर शुभत्व में वृद्धि होती है। अतः इस दौरान शनि की ढैया से पीड़ित मेष व सिंह राशि के जातक एवं साढ़ेसाती से प्रभावित तुला, वृश्चिक व धनु राशि के व्यक्तियों को राहत मिलेगी, उनके बिगडे़ और अटके काम बनने लगेंगे। वक्री गुरु के प्रभाव से अन्य समस्त राशियां भी प्रभावित होंगी। कब होते हैं गुरु वक्री: बृहस्पति अपनी धुरी पर 9 घंटा 55 मिनट में पूरी तरह घूम लेता है। यह एक सेकेंड में 8 मील चलता है तथा सूर्य की परिक्रमा 4332 दिन 35 घटी 5 पल में पूरी करता है। स्थूल मान से गुरु एक राशि पर 12 या 13 महीने रहता है। एक नक्षत्र पर 160 दिन व एक चरण पर 43 दिन रहता है। बृहस्पति ग्रह अस्त होने के 30 दिन बाद उदय होता है। उदय के 128 दिन बाद वक्री होता है। वक्री के 120 दिन बाद मार्गी होता है तथा 128 दिन बाद पुनः अस्त हो जाता है। कर्क राशि में वक्री गुरु के गोचर भ्रमण से पहले, चैथे, आठवें, बारहवें बृहस्पति के अशुभ प्रभाव से प्रभावित कर्क, मेष, धनु एवं सिंह राशि के जातकों को राहत मिलेगी। साथ ही शनि पर वक्री गुरु की कृपा दृष्टि से मेष, सिंह राशि पर गतिशील शनि की ढैया एवं तुला, वृश्चिक, धनु राशि के जातकों को शनि की साढे़साती के अशुभ प्रभाव से मुक्ति मिलेगी। गुरु की दशा लगने पर बड़ों का आदर सम्मान करें। अपने बुजुर्गों का आशीर्वाद लें तथा गुरुवार का व्रत करने से गुरु के शुभ फलों में वृद्धि हो जाती है जबकि अशुभ फलों में कमी आती है। वक्री गुरु की दशा होने पर गुरु से संबंधित वस्तुओं यथा केसर, हल्दी, पीले कपड़े, फूल, सोना, पीतल आदि का दान देना भी शुभ फल देता है।

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Tuesday, 16 February 2016

विभिन्न लग्नों में सप्तम भावस्थ गुरु का प्रभाव एवं उपाय

पौराणिक कथाओं में गुरु को भृगु ऋृषि का पुत्र बताया गया है। ज्योतिष शास्त्र में गुरु को सर्वाधिक शुभ ग्रह माना गया है। गुरु को अज्ञान दूर कर सद्मार्ग की ओर ले जाने वाला कहा जाता है। सौर मंडल में गुरु सर्वाधिक दीर्घाकार ग्रह है। धनु व मीन इसकी स्वराशियां हैं। धनु व मीन द्विस्वभाव राशियां हैं। अतः गुरु द्विस्वभाव राशियों का स्वामी होने के कारण इसमें स्थिरता एवं गतिशीलता के गुणों का प्रभाव है। यह कर्क राशि में उच्च का व मकर राशि में नीच का होता है। कर्क व मकर राशि दोनों ही चर राशियां हैं जिसके कारण गुरु अपनी उच्चता व नीचता का फल बड़ी तेजी से दिखाता है। सूर्य, चंद्र, मंगल इसके मित्र हैं। निर्बल, दूषित व अकेला गुरु सप्तम भावस्थ होने पर व्यक्ति को स्वार्थी, लोभी व अविश्वनीय बनाता है। वहीं शुभ राशिस्थ सप्तमस्थ गुरु व्यक्ति को विनम्र, सुशील सम्मानित बनाता है। जीवन साथी भी सुंदर व सुशील होता है। ‘‘स्थान हानि करो जीवा’’ के सिद्धांत के आधार पर गुरु शुभ व सबल होने पर भी, जिस स्थान में बैठता है उस स्थान की हानि करता है। परंतु जिन स्थानों पर दृष्टि डालता है उन स्थानों को बलवान बनाता है। सप्तम स्थान प्रमुख रूप से वैवाहिक जीवन का भाव माना गया है। सामान्यतः सप्तम भावस्थ गुरु को अशुभ फलप्रद कहा जाता है। पुरूष राशियों में होने पर जातक का अपने जीवन साथी से मतभेद की स्थिति बनती है। वहीं स्त्री राशियों में होने पर जीवन साथी से अलगाव की स्थति ला देता है। सप्तमस्थ गुरु जातक का भाग्योदय तो कराता है परंतु विवाह के बाद। प्रस्तुत है विभिन्न लग्नों में सप्तमस्थ गुरु के फलों का एक स्थूल विवेचन। 1. मेष लग्न मेष लग्न में गुरु नवमेश व द्वादशेश होकर सप्तमस्थ होता है तथा लग्न, लाभ व पराक्रम भाव में दृष्टिपात करता है। सप्तम भाव में तुला राशि का होता है। अतः भाग्येश, सप्तमस्थ होने के कारण निश्चय ही विवाह के बाद भाग्योदय होता है। समाज के बीच मिलनसार होता है। जिसके कारण जीवन साथी से भौतिक दूरी बनी रहती है। 2. वृष लग्न वृष लग्न में गुरु अष्टमेश व एकादशेश होकर वृश्चिक राशि में सप्तमस्थ होकर लाभ, लग्न एवं पराक्रम भाव पर दृष्टिपात करता है। इसकी मूल त्रिकोण राशि अष्टम स्थानगत होने के कारण स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां उत्पन्न होती हैे। ससुराल धनाढ्य होता है परंतु स्वयं धन के मामले में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। 3. मिथुन लग्न मिथुन लग्न में गुरु सप्तम व दशम भाव का स्वामी होकर सप्तम भावस्थ होकर हंस योग का निर्माण करता है। हंस योग को राज योग कहा जा सकता है जिसका परिणाम गुरु की दशा-अंतर्दशा में प्राप्त होता है। परंतु इस लग्न में गुरु को सर्वाधिक केंद्रेश होने का दोष लगता है अतः विवाह एवं वैवाहिक जीवन के मामलों में पृथकता देता है। गुरु यदि वक्री या अस्त हो तो स्थिति और अधिक बिगड़ जाती है। 4. कर्क लग्न कर्क लग्न में गुरु षष्ट्म एवं नवम भाव का स्वामी होकर अपनी नीच राशि में सप्तमस्थ होता है। निश्चय ही नवमेश होने के कारण विवाह के बाद भाग्योदय होता है। परंतु मूल त्रिकोण राशि षष्टम् भाव में पड़ने के कारण जीवन साथी का स्वास्थ्य प्रतिकूल ही रहता है। धन के मामलों में, लाभ की जगह हानि का सामना करना पड़ता है। 5. सिंह लग्न सिंह लग्न में गुरु पंचमेश व अष्टमेश होकर कुंभ राशि में सप्तमस्थ होता है। पंचमेश होने के कारण अति शुभ होता है। ससुराल पक्ष धनाढ्य होता है। परंतु अष्टमेश होने के कारण जीवन साथी को उदर की पीड़ा देता है। जीवन साथी का स्वभाव चिड़चिड़ा होता है। परिवार से ताल मेल नहीं बैठ पाता। 6. कन्या लग्न कन्या लग्न में गुरु चतुर्थ व सप्तम भाव का स्वामी होकर सप्तम भाव में हंस योग का निर्माण करता है जिसके कारण जातक का विवाह उच्च कुल के धनाढ्य परिवार में होता है। परंतु इस लग्न में गुरु को केंद्रेश होने का दोष होता है जिसके कारण विवाहोपरांत जीवन साथी से मतभेद व निराशाजनक परिणाम प्राप्त होने शुरू हो जाते हैं। इस स्थिति में गुरु, यदि वक्री या अशुभ प्रभाव में होता है तो जीवन साथी से अलगाव की स्थिति आ सकती है। 7. तुला लग्न तुला लग्न में गुरु तृतीय व षष्ठ भाव का स्वामी होकर मेष राशि का सप्तम भावगत होता है। भावेश की दृष्टि से यह पूर्णतः अकारक रहता है। मेष राशि में सप्तमस्थ होने से जातक निडर, साहसी बनता है। अपने पराक्रम से धनार्जन करता है। ऐश्वर्य प्रदान करता है। परंतु जीवन साथी के लिए मारक होकर, उसका स्वास्थ्य प्रभावित करता है। 8. वृश्चिक लग्न वृश्चिक लग्न में गुरु द्वितीयेश व पंचमेश होकर वृष राशि में सप्तमस्थ होता है। पंचमेश होने के कारण गुरु शुभ रहता है। धन के मामलों में अच्छा परिणाम देता है। परंतु संतान पक्ष से विवाद की स्थिति पैदा करता है जिसके कारण जीवन साथी से टकराव की नौबत आती है। वस्तुतः जातक को सांसारिक सुखों का सुख प्राप्त नहीं हो पाता। 9. धनु लग्न धनु लग्न में गुरु लग्नेश व चतुर्थेश होकर सप्तमस्थ होता है। गुरु की लग्न पर पूर्ण दृष्टि लग्न को बलवान बनाती है। वस्तुतः जातक सुंदर व सुशील, जीवन साथी प्राप्त करता है। माता-पिता का सुख एवं भूमि, भवन, संतान का सुख प्राप्त करता है। जीवन साथी, माता पिता व संतान का सहयोग प्राप्त करता है। ससुराल से संपत्ति प्राप्त करने के योग बनते है। 10. मकर लग्न मकर लग्न में गुरु द्वादश एवं तृतीय भाव का स्वामी होकर, सप्तम भाव में हंस योग का निर्माण करता है। वस्तुतः जातक विद्वान होता है। जीवन साथी सुंदर व सुशील होता है। मुखमंडल में तेज होता है। जीवन साथी के प्रति समर्पित होता है। 11. कुंभ लग्न कुंभ लग्न में गुरु धन व लाभ भाव का स्वामी हो कर अपने मित्र सूर्य की राशि में सप्तमस्थ होता है। साथ ही गुरु की पूर्ण दृष्टि, लाभ स्थान को मजबूती प्रदान करती है। द्वि तीय व एकादश भाव दोनों ही धन से संबंधित भाव हैं। अतः धन लाभ एवं धनार्जन की दिशा में गुरु बहुत ही शुभ फल करता है। यदि गुरु पर अन्य किसी शुभ या योगकारक ग्रह की दृष्टि हो तो यह स्थिति सोने में सुहागा होती है। जातक का विवाह धनाढ्य परिवार में होता है तथा ससुराल या जीवन साथी से धन लाभ होता है। 12. मीन लग्न मीन लग्न में गुरु लग्नेश व दशमेश होता है। कन्या राशि में सप्तमस्थ होकर लग्न को बल प्रदान करता है। वस्तुतः जातक आरोग्य एवं अच्छी आयु प्राप्त करता है। लाभ स्थान में दृष्टि होने के कारण स्वअर्जित धन प्राप्त करता है। लोगों में प्रतिष्ठा का पात्र बनता है। विवाह के बाद भाग्योदय होता है। जातक का विवाह उच्च कुल में होता है। सप्तम स्थान में कन्या राशि का गुरु होने के कारण जीवन साथी को मतिभ्रम की स्थिति से सामना करना पड़ सकता है। उपरोक्त लग्न के आधार पर सप्तमस्थ गुरु निश्चित ही ‘स्थान हानि करो जीवा’ का सिद्धांत देता है। अर्थात सप्तमस्थ गुरु निश्चित ही सुंदर जीवन साथी देता है। परंतु विवाहोपरांत, वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहने देता। फिर भी नवमांश कुंडली में गुरु यदि बलवान होकर विराजित हो, तो काफी हद तक विषम स्थितियों को जातक समाधान कर लेता है। इसी प्रकार गुरु यदि अष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं ले कर बैठा हो तो भी लग्न कुंडली में सप्तमस्थ गुरु के प्रतिकूल प्रभावों में कमी आती है तथा गुरु अपनी दशा-अंतर्दशा में अच्छा फल देता है। अस्तु सप्तमस्थ गुरु के फलों का विवेचन करने के पूर्व नवमांश व अष्टक वर्ग में गुरु की स्थिति को देखकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचना चाहिए। फिर भी सप्तमस्थ गुरु अपनी दशा-अंतर्दशा में यदि विपरीत प्रभाव दे, तो निम्न उपायों को कर, गुरु के अनिष्टकारी प्रभावों से बचा जा सकता है। उपाय 1. मेष लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. सदैव पीले कपड़े पहनने को प्राथमिकता दें। c. मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ करें। 2. वृष लग्न a. पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. भगवान शिव के किसी मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें। c. सदैव श्वेत रंग के कपड़े पहनने को प्राथमिकता दें। 3. मिथुन लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. ऊँ बृं बृहस्पतये नमः मंत्र का एक माला जप करें। c. सदैव पीले रंग का रूमाल पाॅकेट में रखें। 4. कर्क लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. गुरु से संबंधित वस्तुओं का दान करें। c. भगवान विष्णु की साधना करें। 5. सिंह लग्न a. तांबे की अंगूठी में गुरु यंत्र उत्कीर्ण करा, धारण करें। b. घर में गुरु यंत्र स्थापित करें। c. हल्दी का दान करें। परंतु भिखारी को भूलकर भी न दें। 6. कन्या लग्न a. पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. ‘गुरु गायत्री’ मंत्र का जप करें। c. घोड़े को चने की दाल व गुड़ खिलाएं। 7. तुला लग्न a. घर में गुरु यंत्र की स्थापना करें। b. छोटे भाइयों को स्नेह दें। अपमान न करें। c. शक्ति साधना करें। 8. वृश्चिक लग्न a. न्यूनतम 16 सोमवार का व्रत धारण करें। b. हल्दी की गांठ तकिए के नीचे रखकर सोयें। c. शिव जी की साधना करें। 9. धनु लग्न a. माणिक्य, पुखराज व मूंगा से निर्मित त्रिशक्ति लाॅकेट धारण करें। b. विष्णुस्तोत्र का पाठ करें। c. 43 दिन तक जल में हल्दी मिलाकर स्नान करें। 10. मकर लग्न a. ग्यारह मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. घर की छत में सूरजमुखी का पौधा रोपित करें तथा प्रतिदिन जल दें। c. भगवान भास्कर को प्रतिदिन तांबे के पात्र से जल का अघ्र्य दें। 11. कुंभ लग्न a. भगवान शिव के महामृत्युंजय मंत्र का प्रतिदिन जप करें। b. पुखराज धारण करें। c. रेशमी पीला रूमाल सदैव अपने पास रखें। 12. मीन लग्न a. माणिक्य, पुखराज एवं मूंगा रत्न से निर्मित ‘त्रिशक्ति लाॅकेट’ धारण करें। b. भगवान सूर्य को नित्य जल का अघ्र्य दें। c. गुरुवार को विष्णु मंदिर जाकर पीले रंग के फूल भगवान विष्णु को अर्पित करें तथा कन्याओं को मिश्रीयुक्त खीर खिलाएं। नोट: गुरु की स्थिति कुंडली में चाहे जैसी हो; जातक यदि निम्न मंत्र का जप प्रतिदिन करता है तो गुरु की विशेष कृपा बनी रहती है तथा अशुभ गुरु के दोषों से मुक्ति पायी जा सकती है। मंत्र: ऊँ आंगिरशाय विद्महे, दिव्य देहाय, धीमहि तन्नो जीवः प्रचोदयात्।

लग्नानुसार विदेश यात्रा के योग

जन्मकुंडली के द्वादश भावों में से प्रमुखतया, अष्टम भाव, नवम, सप्तम, बारहवां भाव विदेश यात्रा से संबंधित है। तृतीय भाव से भी लघु यात्राओं की जानकारी ली जाती है। अष्टम भाव समुद्री यात्रा का प्रतीक है। सप्तम तथा नवम भाव लंबी विदेश यात्राएं, विदेशों में व्यापार, व्यवसाय एवं प्रवास के द्योतक हैं। इसके अतिरिक्त लग्न तथा लग्नेश की शुभाशुभ स्थिति भी विदेश यात्रा संबंधी योगों को प्रभावित करती है। मेष लग्न 1- मेष लग्न हो तथा लग्नेश तथा सप्तमेश जन्म कुंडली के किसी भी भाव में एक साथ हों या उनमें परस्पर दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 2- मेष लग्न में शनि अष्टम भाव में स्थित हो तथा द्वादशेश बलवान हो तो जातक कई बार विदेश यात्राएं करता है। 3- मेष लग्न हो व लग्नेश तथा भाग्येश अपने-अपने स्थानों में हों या उनमें स्थान परिवर्तन योग बन रहा हो तो विदेश यात्रा होती है। 4- मेष लग्न हो तथा छठे, अष्टम या द्वादश स्थान में कहीं भी शनि हो या शनि की दृष्टि इन भावों पर हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 5- मेष लग्न में अष्टम भाव में बैठा शनि जातक को स्थान से दूर ले जाता है तथा बार-बार विदेश यात्राएं करवाता है। उदाहरण कुंडलियों में सैफ अली खान व अभिषेक बच्चन की कुंडलियों में यही स्थिति है। वृष लग्न 1- वृष लग्न में सूर्य तथा चंद्रमा द्वादश भाव में हो तो जातक विदेश यात्रा करता है तथा विदेश में ही काम-धंधा करता है। 2- वृष लग्न हो तथा शुक्र केंद्र में हो और नवमेश नवम भाव में हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 3- वृष लग्न हो तथा शनि अष्टम भाव में स्थित हो तो जातक बार-बार विदेश जाता है और विदेश यात्राएं होती रहती हैं। 4- वृष लग्न हो व लग्नेश तथा नवम भाव का स्वामी, मेष, कर्क, तुला या मकर राशि में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 5- वृष लग्न में भाग्य स्थान या तृतीय स्थान में मंगल राहु के साथ स्थित हो तो जातक सैनिक के रूप में विदेश यात्राएं करता है। उदाहरण कुंडली में लता मंगेशकर की यही स्थिति है- 6- वृष लग्न में राहु लग्न, दशम या द्वादश में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। लता मंगेशकर की कुंडली में राहु द्वादश भाव में स्थित है। गायन के सिलसिले में इन्होंने कई विदेश यात्राएं की हैं। मिथुन लग्न 1- मिथुन लग्न हो, मंगल व लग्नेश दसवें भाव में स्थित हो, चंद्रमा व लग्नेश शनि द्वारा दृष्ट न हांे तो ऐसे योग वाला जातक विदेश यात्रा करता है। 2- मिथुन लग्न हो और लग्नेश तथा नवमेश का स्थान परिवर्तन योग हो तो विदेश यात्रा योग बनता है। 3- मिथुन लग्न हो, शनि वक्री होकर लग्न में बैठा हो तो कई बार विदेश यात्राएं होती हैं। 4- मिथुन लग्न हो तथा लग्नेश व द्वादशेश में परस्पर स्थान परिवर्तन हो व अष्टम व नवम भाव बलवान हो तो विदेश यात्रा होती है। यदि लग्न में राहु अथवा केतु अनुकूल स्थिति में हों और नवम भाव तथा द्वादश स्थान पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। कर्क लग्न 1- कर्क लग्न हो और लग्नेश व चतुर्थेश बारहवें भाव में स्थित हांे तो जातक विदेश यात्रा करता है। 2- कर्क लग्न में चंद्रमा नवम भाव में हो और नवमेश लग्न में स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 3- यदि लग्नेश, भाग्येश और द्वादशेश कर्क, वृश्चिक व मीन राशियों में स्थित हो, तो विदेश यात्रा का योग होता है। 4- यदि लग्नेश नवम भाव में स्थित हो और चतुर्थेश छठे, आठवें या द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। 5- यदि लग्नेश बारहवें स्थान में हो या द्वादशेश लग्न में हो तो काफी संघर्ष के बाद विदेश यात्रा होती है। 6- कर्क लग्न में लग्नेश व द्वादशेश की किसी भी भाव में युति हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। सिंह लग्न 1- सिंह लग्न में गुरु, चंद्र 3, 6, 8 या 12वें भाव में हो तो विदेश यात्रा के योग हैं। 2- लग्नेश जहां बैठा हो उससे द्वादश भाव में स्थित ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- सिंह लग्न में द्वादश भाव में कर्क का चंद्रमा स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 4- सिंह लग्न हो तथा मंगल और चंद्रमा की युति द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्रा होती है। 5- यदि सिंह लग्न में लग्न स्थान में सूर्य बैठा हो व नवम व द्वादश भाव शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। कन्या लग्न 1- यदि कन्या लग्न में सूर्य स्थित हो व नवम व द्वादश भाव शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो विदेश यात्रा योग बनता है। 2- यदि सूर्य अष्टम स्थान में स्थित हो तो जातक दूसरे देशों की यात्राएं करता है। 3- यदि लग्नेश, भाग्येश और द्वादशेश का परस्पर संबंध बने तो जातक को जीवन में विदेश यात्रा के कई अवसर मिलते हैं। 4- कन्या लग्न में बुध और शुक्र का स्थान परिवर्तन विदेश यात्रा का योग बनाता है। 5- द्वितीय भाव में शनि अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। तुला लग्न 1- तुला लग्न में नवमेश बुध उच्च का होकर बारहवें भाव में स्वराशि में स्थित हो, राहु से प्रभावित हो तो राहु की दशा अंतर्दशा में विदेश यात्रा होती है। 2- यदि चतुर्थेश व नवमेश का परस्पर संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- यदि नवमेश या दशमेश का परस्पर संबंध या युति या परस्पर दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- चतुर्थ स्थान में मंगल व दशम स्थान में गुरु उच्च का होकर स्थित हो। 5- यदि लग्न में शुक्र व सप्तम में चंद्रमा हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। उदाहरण कुंडली में टेनिस स्टार सानिया मिर्जा की यही स्थिति है। वृश्चिक लग्न 1- वृश्चिक लग्न में पंचम भाव में अकेला बुध हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो शीघ्र ही विदेश यात्रा होती है। 2- वृश्चिक लग्न में चंद्रमा लग्न में हो, मंगल नवम स्थान में स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- यदि सप्तमेश शुभ ग्रहों से दृष्ट होकर द्वादश स्थान में स्थित हो तो जातक विवाह के बाद विदेश यात्रा करता है। 4- यदि वृश्चिक लग्न में शुक्र अष्टम स्थान में हो या नवम स्थान में गुरु चंद्रमा की युति हो तो विदेश यात्रा का योग होता है। 5- वृश्चिक लग्न में लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो व शुभ ग्रहों से युक्त हो या दृष्टि संबंध हो तो कई बार विदेश यात्रा होती है व जातक विदेश में ही बस जाता है। धनु लग्न 1- धनु लग्न में अष्टम स्थान में कर्क राशि का चंद्रमा हो तो जातक कई बाद विदेश यात्रा करता है। 2- धनु लग्न में द्वादश स्थान में मंगल, शनि आदि पाप ग्रह बैठे हों तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- धनु लग्न में नवमेश नवम भाव में स्थित हो, बलवान हो व चतुर्थेश से दृष्टि संबंध बनाता हो, युत हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- अष्टम भाव में चंद्रमा, गुरु की युति, नवमेश नवम भाव में हो तो विदेश यात्रा का प्रबल योग बनता है। 5- धनु लग्न में बुध और शुक्र की महादशा अक्सर विदेश यात्रा करवाती है। मकर लग्न 1- मकर लग्न में सप्तमेश, अष्टमेश, नवमेश या द्वादशेश के साथ राहु या केतु की युति हो जाए तो विदेश गमन होता है। 2- मकर लग्न हो, चतुर्थ और दशम भाव में चर राशि हो और इनमें से किसी भी स्थान में शनि स्थित हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 3- लाभेश और अष्टमेश की युति एकादश स्थान में हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- नवमेश बलवान हो तो विदेश यात्रा होती है। 5- शनि चंद्रमा की युति किसी भी स्थान में हो या दोनों में दृष्टि संबंध हो तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 6- सूर्य अष्टम में स्थित हो तो विदेश यात्राएं होती हैं। उदाहरण कुंडली में मदर टैरेसा की यही स्थिति है- कुंभ लग्न 1- कुंभ लग्न में नवमेश व लग्नेश का राशि परिवर्तन विदेश यात्रा कराता है। 2- भाग्येश द्वादश भाव में उच्च का होकर स्थित हो तो विदेश यात्रा होती है। 3- दशम स्थान में सूर्य व मंगल की युति विदेश यात्रा का योग बनाता है। 4- नवम या द्वादश या लग्न या नवम के स्वामियों का स्थान परिवर्तन विदेश यात्रा करवाता है। 5- कुंभ लग्न में तृतीय स्थान, नवम स्थान व द्वादश स्थान का परस्पर संबंध विदेश यात्रा का योग करवाता है। मीन लग्न 1- लग्नेश गुरु नवम भाव में स्थित हो व चतुर्थेश बुध छठे, आठवें या द्वादश भाव में स्थित हो तो जातक कई बाद विदेश गमन करता है। 2- पंचमेश, द्वितीयेश व नवमेश की लाभ (एकादश) भाव में युति विदेश यात्रा का योग बनाता है। 3- द्वादश भाव में मंगल, शनि आदि पाप ग्रह हों तो विदेश यात्रा का योग बनता है। 4- यदि शुक्र चंद्रमा से छठे, आठवें या बारहवें स्थान में स्थित हो तो विदेश गमन योग बनता है। 5- मीन लग्न में लग्नेश नवम भाव में स्थित हो व चतुर्थेश छठे, आठवें या द्वादश भाव में हो तो विदेश यात्रा का प्रबल योग बनता है। 6- लग्नस्थ चंद्रमा व दशम भाव में शुक्र हो तो जातक कई देशों की यात्रा करता है। 

जन्म वार से शरीर का आकर्षण

रविवार यह सूर्य का वार है। सर्वप्रथम इसका नंबर एक है। जिसका जन्म 1, 10, 19 और 28 तारीख में हो तो उस जातक पर सूर्य का प्रभाव रहेगा। सूर्य ग्रहों का राजा है और आत्मा का कारक है। इस वार को जन्मे जातक का सिर गोल, चैकोर, नाटे और मोटे शरीर वाला, शहद के समान मटमैली आंखें, पूर्व दिशा का स्वामी होने के कारण, इसे पूर्व में शुभ लाभ मिलते हैं। सूर्य के इन जातकों का 22-24वें वर्ष में भाग्योदय होता है। सूर्य मेष राशि में उच्च का और तुला राशि में नीच का होता है। इन जातकों की प्रकृति पितृ प्रधान है। दिल का दौरा, फेफड़ों में सूजन, पेट संबंधी बीमारियां हो सकती हैं। चेहरे में गाल के ऊपर दोनों हड्डियां उभरी हुई होती हैं। जब सूर्य 00 से 100 अंश तक हो तो अपना प्रभाव देता है क्योंकि यह ग्रहों का राजा है इसलिए इन जातकों में राजा के समान गुण होने के कारण पल में प्रसन्न और पल में रुष्ट होने की आदत होती है, ये जातक शक्की स्वभाव के होते हैं। गंभीर वाणी, निर्मल दृष्टि और रक्त श्याम वर्ण इनका स्वरूप होता है। गांठ के पक्के और प्रतिशोध लेने की भावना तीव्र होती है। इन्हें पि की तकलीफ होती है। सोमवार यह चंद्रमा का वार है,इसका अंक दो अर्थात् जिन जातकों का जन्म सोमवार 2, 11, 20, 29 तारीखों में हो तो चंद्रमा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है ‘स्वज्ञं प्राज्ञौः गौरश्चपलः, कफ वातिको रुधिसार, मृदुवाणी प्रिय सरवस्तनु, वृतश्चचंद्रमाः हाशुः।। अर्थात् सुंदर नेत्र वाला, बुद्धिमान, गौर वर्ण, चंचल स्वभाव, चंचल प्रकृति, कफ, वात प्रकृति प्रधान, मधुरभाषी, मित्रों का प्रिय, होता है। ऐसा जातक हर समय अपने आप को सजाने में रहता है चंद्रमा मन का कारक है। 24 से 25 वर्ष में यह अपना प्रभाव पाता है। रक्त और मुख के आस-पास इसका अधिकार रहता है। ऐसे जातक के केश घने, काले, चिकने और घुंघराले होते हैं। सोच समझकर बात करते हैं। परिस्थतियों को मापने की इनमें क्षमता होती है। ये भावुक भी होते हैं। बात-चीत करने में कुशल और विरोधी को अपने पक्ष में करने की इनमें क्षमता होती है। इस दिन जन्मी स्त्रियां प्यार में धोखा खाती हैं। ये जातक कल्पना में अधिक रहते हैं। ये प्रेमी, लेखक, शौकीन, पतली वाणी वाले होते हैं। वात् और कफ प्रकृति के कारण जीवन के अंतिम दिनों में फेफड़ों की परेशानी, हार्ट की बीमारियां संभव हैं। चर्म और रक्त संबंधी बीमारियां अक्सर होती रहती हैं। मंगलवार यह हनुमान जी का वार है इसका नंबर नौ है। 9, 19, 27 तरीख को जन्मे जातक का स्वामी मंगल ग्रह है इस दिन जन्मे जातक का सांवला रंग, घुंघराले बाल, लंबी गर्दन, वीर, साहसी, खिलाड़ी, भू-माफिया पुलिस के अधिकारी, सेनाध्यक्ष स्वार्थी होते हैं। इनकी आंखों में हल्का-हल्का पीलापन और आंखों के चारों ओर हल्की सी कालिमा या छाई रहती है। इनका चेहरा तांबे के समान चमकीला होता है। प्रत्येक कार्य करने से पहले हित-अहित का विचार कर लेते हैं। यदि मंगल उच्च का अर्थात मकर राशि का हो तो जातक डाक्टर, ठेकेदार, खेती का व्यापार करने वाला होता है। यदि मंगल अकारक हो तो जातक चोर, डाकू भी हो सकते हैं। मंगल दक्षिण दिशा का स्वामी होता है। ऐसा जातक किसी पर विश्वास नहीं करता। शर्क प्रधान प्रकृति है यहां तक मां-बाप, पति-पत्नी और संतान पर भी शक करता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में यह जातक विचलित नहीं होता। राजनीतिक क्षेत्र में अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा कार्य कर सकता है। एक बार जो काम हाथ में ले ले उसे पूरा करके छोड़ता है। बहुत साहसी, खतरों की जिंदगी में इन्हें आनंद मिलता है। शत्रुओं से लड़ना इनका स्वभाव होता है। मज्जा और मुख के आस-पास इसका अधिकार क्षेत्र है। 28 से 32वें वर्ष में यह फल देता है। महिलायें चिड़चिड़ी और कटुभाषी होती हैं। रक्त एवं चर्म रोग से ग्रस्त रहते हैं। बुधवार गणेश जी इसके स्वामी हैं। इसका अंक पांच है जो जातक 5, 14, 23 तारीखों में जन्मा हो वह जातक ठिगना, सामान्य रंग, फुर्तीला, बहुत बोलने वाला, दुर्बल शरीर, छोटी आंखें, क्रूर दृष्टि, पि प्रकृति, चंचल स्वभाव द्विअर्थक बात करने वाला, हास्य प्रिय, शरीर के मध्य भाग में संदा दुर्बल, उर दिशा का स्वामी, माता-पिता से प्रेम करने वाला, चित्रकार, 8वें और 22वें वर्ष में अरिष्ट 32वें वर्ष में भाग्योदय, त्वचा और नाभि के निकट स्थल पर अधिकार, वाणी, वात-पि का कारक होता है। यह जातक अधिकतर बैंकर्स, दलाल, संपादक, इस जातक को देश, काल और पात्र की पहचान होती है। वातावरण के अनुकूल बातचीत करने में होशियार होते हैं। बुध ग्रह जिस जातक का कारकत्व होता है उसका रंग गोरा, आंखें सुंदर और त्वचा सुंदर और मजबूत होती है, ये अच्छे गुप्तचर या राजदूत बन सकते हैं। यह जातक स्पष्ट वक्ता होता है और मुंह पर खरी-खरी कहता है और इस प्रकार से बात करता है कि दूसरे को बुरा न लगे। सफाई प्रिय होता है कफ-पि-वात प्रकृति प्रधान होने से बाल्यावस्था में जीर्ण ज्वर से पीड़ित रहता है। वृद्धावस्था मंे अनेक रोगों से पीड़ित रहता है। यौवनावस्था में प्रसन्नचि रहता है। सफल व्यापारी के इसमें गुण होते हैं। अनेक रंगों का शौकीन होता है। हरा रंग इसे प्रिय होता है और वह शुभ भी होता है। ज्योतिष या ग्रह नक्षत्रों का ज्ञान, गणितज्ञ, पुरोहित का कार्य करना, लेखाधिकारी। इस वार में जन्मी महिलाएं शीघ्र रूठने वाली, चुगली, निंदा करने वाली और पति से इनकी अनबन रहती है। गुरुवार यह समस्त देवताओं का गुरु है। इसका अंक तीन है अर्थात् 3, 12, 21, 30 तारीखों में जन्मे जातक स्वस्थ शरीर, लंबा कद, घुंघराले बाल, तीखी नाक, बड़ा शरीर, ऊंची आवाज, शहद के समान नेत्र वाले ऐसे जातक सच्चे मित्रों के प्रेमी, कानून जानने वाले अधिकारी, जज, खाद्य सामग्री के व्यापारी, नेता अभिनेता भी होते हैं। ऐसे जातक बोलते समय शब्दों का चयन सावधानी पूर्वक करते हैं। आंखों से झांकने की ऐसी प्रवृ होती है कि मानो समस्त संसार की शांति और करुणा इसमें आकर भर गई हो, जीव हिंसा और पाप कर्म से बचते हैं। महिलाएं चरित्रवान, पति की सेविका, पति को वश में रखने वाली सद्गुणी, कुशल अध्यापिकाएं होती हैं। पुजारी, आश्रम चलाना, सरकारी, नौकरी, पुराण, शास्त्र वेदादि, नीतिशास्त्र, धर्मोपदेश से ब्याज पर धन देने से जीविका होती है। ऐसे जातक शत्रु से भी बातचीत करने में नम्रता रखते हैं। चर्बी-नाक के मध्य अधिकर क्षेत्र है। 16-22 या 40वें वर्ष में सफलता मिलती है। उर-पूर्व (ईशान) इस ग्रह का स्वामी है कर्क राशि में यह ग्रह उच्च का होता है। पीला रंग इनके लिए शुभ होता है। यह एक राशि में एक वर्ष रहता है। यह 110 अंश से 200 अंश में अपने फल देता है, 7, 12, 13, 16 और 30 वर्ष की आयु में कष्ट पाता है। दीर्घ आयु कारक है। यह गुल्म और सूजन वाले रोग भी देता है। चर्बी और कफ की वृद्धि करता है। नेतृत्व की शक्ति इसमें स्वाभाविक रूप से होती है। शुक्रवार यह लक्ष्मी का वार है। इसका अंक छः है अर्थात् 6, 15, 24 तारीखों में जन्म लेने वाले जातक पर शुक्र ग्रह का प्रभाव होता है। इस दिन जन्मे जातकों का सिर बड़ा, बाल घुंघराले, शरीर पतला, दुबला, नेत्र बड़े, रंग गोरा, लंबी भुजाएं, शौकीन, विनोदी, चित्रकलाएं, चतुर, मिठाई फिल्ममेकर, आभूषण विक्रेता होते हैं। शुक्र तीक्ष्ण बुद्धि, उभरा हुआ वक्षस्थल और कांतिमान चेहरा होता है। वीर्य प्रधान ऐसा व्यक्ति स्त्रियों में बहुत प्रिय होता है। यह जातक मुस्कुराहट बिखेरने वाला सर्वदा प्रसन्नचित रहने वाला होता है। शुक्र ग्रह स्त्री कारक होता है और नवग्रहों में सबसे अधिक प्रिय होता है। ऐसे जातक कामुक और शंगार प्रिय होते हैं, इस दिन जन्मा जातक विपरीत लिंग को आकर्षित करता है। ऐसे व्यक्ति सफल होते हैं, विपक्षी को किस प्रकार से सम्मोहित करना चाहिए आदि गुण इनमें जन्मजात होते हैं। मित्रों की संख्या बहुत होती है और मित्रों में लोकप्रिय होते हैं। वात-कफ प्रधान इनकी प्रकृति है और वृद्धावस्था में जोड़ों में दर्द और हड्डियां में पीड़ा होती है। प्रेम के बदले प्रेम चाहते हैं। नृत्य संगीत में रुचि रखते हैं। आग्नेय दिशा का स्वामी है। शनिवार शनि को काल पुरुष का दास कहा गया है। इसका अंक आठ है। दिनांक 8, 17, 26 को जन्मे जातकों का स्वामी शनि है। यह अपने पिता सूर्य का शत्रु है। तुला में शनि उच्च का होता है तथा 210 अंश से 300 अंश तक अपना फल शुभ-अशुभ देता है, इस दिन जन्मा जातक सांवला रंग नसें उभरी हुई, चुगलखोर, लंबी गर्दन, लंबी नाक, जिद्दी, कर्कश आवाज, घोर मेहनती, मोटे नाखून, छोटे बाल, आलसी, अधिक सोने (नींद) वाला, गंदी राजनीति वाला होता है छोटी आयु में कष्ट पाने वाला, दूसरों की भलाई से प्रसन्न न होने वाला, परिवार का शत्रु, 20-25-45वें वर्ष में कष्ट भोगने वाला, स्नायु (नसंे) पेट पर अधिकार 36-42वें वर्ष में शुभ या अशुभ प्रभाव, निर्दयी, दूसरों को विप में डालने वाला और इन्हें परेशान करने में आनंद आता है, शिक्षण काल में काफी रुकावटें, अपशब्द कहने में प्रसन्नता मिलती है। महिलाएं कटुभाषी, पति से नित्य तकरार करने वाली, दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं होता, शुद्धता का ध्यान कम होता है। स्वभाव, क्रोधी, आर्थिक मामलों में यह सामान्य होता है। लोहा आदि या काले रंग के उद्योगों में सफलता मिलती है, वायु प्रधान, मूर्ख, तमोगुणी, आयु से अधिक दिखने वाला, कबाड़ी का काम, कुर्सी बुनना, मजदूरी करना, पति-पत्नी के विचारों में मतभेद। यह तुला राशि में उच्च और मेष राशि में नीच का होता है। 210 अंश से 300 अंश में इस जातक के जीवन पर प्रभाव डालता है। दांत का दर्द, नाक संबंधी तकलीफें, लकवा, नामर्दी, कुष्ठ रोग, कैंसर, दमा, गंजापन रोग संभव हो सकते हैं। इन जातकों को पश्चिम दिशा में लाभ मिल सकता है।