Sunday, 20 March 2016

अंग लक्षण एवं सामुद्रिक का परस्पर संबंध  हस्त रेखा शास्त्र, अंग लक्षण विद्या तथा सामुद्रिक क्या ये तीनों एक ही हैं? अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर क्या संबंध है? हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं? मनुष्य का हाथ एक ऐसी जन्म पत्रिका है जो कभी भी नष्ट नहीं होती तथा जिसके रचयिता स्वयं ब्रह्माजी हैं। इसलिए शास्त्रों में कहा भी गया है- ''कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्॥ कर (हाथ) के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती तथा मूल में ब्रह्मा जी का वास है अतः प्रातः उठकर सर्वप्रथम अपनी हथेलियों का दर्शन करना चाहिए। हस्तरेखा विज्ञान तथा अंग लक्षण विज्ञान को ही सामुद्रिक भी कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि समुद्र ऋषि ही एसे सवर्प्रथम भारतीय ऋषि थे जिन्हांने प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध रूप से ज्योतिष विज्ञान की रचना की थी अतः उन्हीं के नाम पर हस्त रखाो विज्ञान को सामुिदक्र भी कहा जाता है। हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं अथवा अंग लक्षण विद्या का सामुद्रिक से क्या संबंध है। इससे संबंधित तथ्यों का उल्लेख भी वेदों और पुराणों में मिलता है। 'अंग लक्षण विद्या' से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से है जिसके ज्ञान के द्वारा स्त्री पुरुष के शारीरिक अंगों में विद्यमान उसके शुभाशुभ लक्षणों को देखकर ही उनके व्यक्तित्व, स्वभाव, चरित्र तथा भाग्य का सटीक और सार्थक फलादशे किया जा सके। ऐसी विलक्षण विद्या की रचना सर्व प्रथमगणशे भगवान के अगज्र भगवान कार्तिकेय ने की थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान गणेश को 'विघ्नेश', 'विघ्न विनाशक' तथा 'एकदंत' भी कहते हैं। उन्होंने किसके लिए विघ्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघ्नशे कहा गया अथवा गणेश जी को एकदंत क्यो कहते हैं? यदि इस प्रश्न की गहराई में जाएं तो भी हम पाएगे कि इसका मलू कारण भी 'समुद्र शास्त्र' ही है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में शिव जी के ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय ने अपने 'अंग लक्षण शास्त्र' के अनसु ार पुरुषों एवं स्त्रियों के श्रेष्ठ लक्षणों की रचना की। उसी समय गणेश जी ने उनके इस कार्य में विघ्न उत्पन्न किया। इस पर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्हांने गणेश जी का एक दातं उखाड़ लिया और उन्हें मारने के लिए उद्यत हो उठे। तब भगवान शकं र ने कार्तिकये को बीच में रोककर पूछा कि उनके क्रोध का कारण क्या है? कार्तिकेय जी ने कहा ''पिताजी, मैं पुरुषों के लक्षण बनाकर स्त्रियों के लक्षण बना रहा था, उसमें गणेश ने विघ्न उत्पन्न किया, जिससे स्त्रियों के लक्षण मैं नही ंबना सका। इस कारण मुझे क्रोध आया।'' यह सुनकर महदेव जी ने उनके क्रोध को शांत किया और मुस्कुराकर उनसे पूछा- ''पुत्र, तुम पुरुष के लक्षण जानते हो, तो बताओ मुझमें पुरुषों के कौन-कौन से लक्षण विद्यमान हैं?'' कार्तिकेय जी ने कहा ''पिता जी, आप पुरुषों के ऐसे लक्षण विद्यमान हैं कि आप संसार में 'कपाली' के नाम से प्रसिद्ध होंगे। पुत्र के ऐसे वचनों को सुनकर शिवजी क्रोधित हो गये और उन्होंने कार्तिकेय जी के अंग लक्षण शास्त्र को उठाकर समुद्र में फकें दिया और स्वयं अंर्तध्यान हो गये। कुछ समय पश्चात् जब शिवजी का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने समुद्र को बुलाकर कहा कि तमु स्त्रियों के आभूषण स्वरूप विलक्षण लक्षणों की रचना करो और कार्तिकेय ने जो कुछ भी पुरुष लक्षणों के बारे में कहा है उसकी भी विस्तृत विवेचना करो।'' समुद्र ने शिवजी की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए कहा ''स्वामिन्, आपने जो आज्ञा मुझे दी है, वह निश्चित ही पूर्ण होगी, किंतु जो मेरे द्वारा स्त्री-पुरुष लक्षण का शास्त्र कहा जाएगा, वह मरे ही नाम 'सामुिदक्र शास्त्र' नाम से प्रसिद्ध होगा। कार्तिकेय ने भगवान महेश्वर से कहा ''आपके कहने से यह दातं तो मैं गणशे के हाथ में दे देता हूं किंतु इन्हें इस दांत को सदैव धारण करना होगा। यदि इस दांत को फेंक कर ये इधर-उधर घूमेंगे तो फेंका गया दांत इन्हें भस्म कर देगा''। ऐसा कहकर कार्तिकेय जी ने वह दांत गणेश जी के हाथ में दे दिया। भगवान देवदेवेश्वर श्री शिव जी ने गणेश जी को कार्तिकेय की यह बात मानने के लिए सहमत कर लिया। आज श्री भगवान शंकर एवं गौरा पार्वती के पुत्र विघ्नेश विनायक की प्रतिमा हाथ में अपना दांत लिए देखी जा सकती है तथा किसी भी शुभ अवसर पर हिदं ू धर्म में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा-अर्चना का विधान भी शायद इसीलिए बनाया गया है कि व्यक्ति के किसी भी कार्य में कोई भी विघ्न न उपस्थित हो। अतः स्पष्ट है कि अंग लक्षण विद्या से सबंंिधत शास्त्र की रचना में विघ्न उत्पन्न करने के कारण ही गणेश जी को विघ्नेश कहा गया तथा भगवान कार्तिकेय के क्रोध के कारण दण्ड स्वरूप उन्हें एकदंत होना पड़ा। लक्षण शास्त्र से सबंंिधत पुराणाक्ते एक कथा यह भी है कि, भगवान शिव द्वारा क्रोध में आकर कार्तिकेय द्वारा रचित लक्षण ग्रंथ को समुद में फेंक देने के उपरांत व्योमकेश भगवान के सुपुत्र कार्तिकेय जी ने जब अपनी अनुपम शक्ति से क्रौंच पर्वत को विदीर्ण किया तो ब्रह्मा जी ने वर मांगने को कहा। कुमार कार्तिकेय ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा ''प्रभो। स्त्रियों के विषय में जो लक्षण ग्रंथ मैंने पहले बनाया था उसे तो मेरे पिता महादवे देवश्े वर ने क्रोध में आकर समदु्र मे फकें दिया। वह मुझे अब विस्मृत भी हो गया ह।ै अतः उसको पुनः सनु ने की मेरी बड़ी इच्छा है। यदि आप मुझ पर पस्रन्न हैं तो कृपा कर पनु : उन्हीं लक्षणों का वर्णन करें। तब कार्तिकेय जी के आग्रह करने पर ब्रह्मा जी ने स्वयं समुद्र द्वारा कहे गये उन स्त्री-पुरुष लक्षणों को पुनः वर्णित किया। उन्होंने उसी शास्त्र के आधार पर स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ उत्तम, मध्यम आरै अधम ये तीन प्रकार के लक्षण बतलाए जिसके अनुसार किसी भी जातक का स्वभाव, व्यवहार तथा भाग्य निर्धारित किया जा सकता है। अतः यह पूर्ण रूपेण प्रामाणिक एवं शास्त्रोक्त भी है, कि हस्तरेखा, अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर गहरा एवं अटूट संबंध है। एक अच्छे ज्योतिषी को चाहिए कि वह अंग लक्षण विद्या एवं ज्योतिष का परस्पर समन्वय स्थापित करते हुए शुभ मुहर्तू में मध्याह्न के पूर्व स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ लक्षणों एवं हस्त रेखाओं का भली प्रकार अध्ययन करने के उपरांत ही सटीक एवं सार्थक फलादेश करें।

धन का साथ जाने हस्तरेखाओं से

जीवन की तीन प्रमुख आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान को प्राप्त करने के लिए पैसों की जरूरत होती है। इसके अलावा आज बदलते परिदृश्य में कर्द और साधन जीवन को सुंदर बनाते हैं। इनकी पूर्ति के लिए भी धन-दौलत की जरूरत पड़ती है। धन दौलत की इस जरूरत को पूरा करने के लिए व्यक्ति दिन रात पसीना बहाता है। व्यक्ति का ऐसा पसीना बहाना यह सिद्ध करता है कि जीवन एक संघर्ष है और जो इस संघर्ष से हटकर है वे नष्ट हो जाते हैं। जीवन के इस शाश्वत सत्य यानि मेहनत को सिद्ध करते हुए व्यक्ति जीवन को सौंदर्य और ऐश्वर्य से भर डालता है। ऐसे मेहनती संसार में एक बात और गौर करने लायक है वह यह कि किसी-किसी व्यक्ति को बहुत ही कम मेहनत करके अथाह धन और संपदा मिल जाती है। वहीं कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो दिन रात मेहनत करके जीवन को साधारण ढंग से ही जी पाते हैं। ऐसी बात पर गहन विश्लेषण करें तो हमें यह पता चलेगा कि मेहनत के साथ मनुष्य का भाग्य भी इस जीवन क्रम में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भाग्य यानि पूर्व का कर्म किसी व्यक्ति को बहुत ही कम उम्र में ही अपार दौलत और संपत्ति तथा यश का स्वामी बना देता है। अब अगर क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर की बात करें तो हमें पता चलेगा कि 34 साल के इस क्रिकेटर ने इतनी कम उम्र में ही अच्छी खासी दौलत और शोहरत अर्जित कर ली है। वहीं कई क्रिकेटर ऐसे हैं जिन्हें 32-33 वर्ष के दौरान महज कुछ लाख रूपए की ही आय हो पाती है। इस उदाहरण से हम समझ जाएंगे कि मनुष्य के अंदर दैवीय शक्ति या भाग्य नाम की चीज विद्यमान होती है जो उसे अन्य लोगों से कहीं अलग चमकीला और गौरवमयी बना देती है। उद्यमी पुरूष के पास लक्ष्मी आ जाती है साथ ही भाग्य के बल पर भी लक्ष्मी का सुनहरा साथ मनुष्य को प्राप्त होता है। भाग्य की बात करें और हाथों की रेखाओं का जिक्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। लेख में ऐसी हाथ की रेखाओं का विवरण है जो आदमी को मिलने वाली लक्ष्मी की जानकारी देती है। हाथों की रेखाओं को जानकर कोई भी व्यक्ति अपने भविष्य में मिलने वाली धन संपन्नता को जान सकता है। किन-किन रेखाओं से लक्ष्मी आपकी जिंदगी भर दोस्त बनी रह सकती है और किन-किन रेखाओं की वजह से ये आपसे रूठ जाती है उसका ही विवरण निम्नानुसार है। Û अंगुलियों के बीच में छिद्र न होना, अंगुलियां लंबी होना, अंगुलियों का पीछे की तरफ जाना, जीवन रेखा और भाग्य रेखा के बीच अंतर हो तो ऐसे लक्षण जातक को बड़ी उम्र में संपत्ति का स्वामी बनाता है। ऐसे जातक का शुरूआती जीवन सामान्य ही रहता है। Û हाथ भारी हो, चैड़ा हो तथा अंगुलियां नरम हांे, भाग्य रेखाएं भी अधिक हांे, शनि ग्रह भी उत्तम हो तो ऐसे जातक एक से अध् िाक व्यवसाय करते हैं तथा बहुत धनवान होते हैं। लक्ष्मी की इन पर अपार कृपा होती है। Û जीवन रेखा घुमावदार या गोल हो, मस्तिष्क रेखा में किसी प्रकार का दोष न हो तथा भाग्य रेखा की एक शाखा जीवन रेखा से निकलती हो तथा अन्य भाग्य रेखा

जीवन रेखा

अक्षया जन्मपत्रियां ब्रह्मणा निर्मिता स्वयम्। ग्रह रेखाप्रदा यास्यां याववज्जीवं व्यवस्थिता।। अर्थात मनुष्य का हाथ ऐसी जन्मपत्री है जो कभी नष्ट नहीं होती। स्वयं ब्रह्मा जी ने इसे बनाया है। नस्ति हस्तात्परं ज्ञानं त्रेलोक्ये सचराचरे। यदब्रह्मा पुस्तकं हस्ते धृत बोधाय जान्मिनाय।। तीनों लोकों में हस्त ज्ञान सबसे बढ़कर है। इसकी रचना स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। वास्तव में यह मनुष्य का मार्गदर्शन करती रहेगी। भारतीय ज्योतिष विज्ञान के अंतर्गत अंग लक्षण विज्ञान का अध्ययन किया जाता है और मनुष्य की शारीरिक संरचना एवं गुण-अवगुण का कथन किया जाता है। सामुद्रिक शास्त्र में भी लक्षण शास्त्र की तरह चलने, उठने-बैठने और अंग पर तिल, मस्सों को देखकर व्यक्ति के विचारों का ज्ञात किया जाता है। मनुष्य के समस्त अंगों की बजाय केवल हाथ से ही गुण, धर्म, स्वभाव और भाग्य को जानने-समझने की तकनीक को अपनाया जा रहा है। इसी तकनीक को हस्तरेखा विज्ञान का नाम दिया। संजीवनी रेखा: जीवन रेखा एक महत्वपूर्ण रेखा है। जीवन रेखा से जीवन प्रवाह देखा जाता है। यह लंबी, तंग व गहरी होनी चाहिए। जीवन रेखा अंगूठे और तर्जनी के बीच से आरंभ होती है और गोलाई लिए हुए शुक्र क्षेत्र को घेरती हुई मणिबंध या उसके समीप तक आती है। इसे गुरुड़ पुराण में कुल रेखा भी कहते हैं। कुल रेखा तु प्रथमा अंगुष्ठादनुवर्तते। भारतीय मत के अनुसार जीवन रेखा को बहुत नामों से जाना जाता है:- 1. पितृ रेखा, 2. गोत्र रेखा, 3. बल रेखा, 4. मूल रेखा, 5. वृक्ष रेखा, 6. धर्म रेखा, 7. धृति रेखा इसी जीवन रेखा को पाश्चात्य मत के अनुसार स्पमि स्पदम अथवा टपजंस स्पदम कहते हैं। प्रत्येक हाथ में इसकी लंबाई कम या ज्यादा हो सकती है। किसी के हाथ में यह रेखा सीधी आगे को बढ़ती है जिससे इसका शुक्र क्षेत्र छोटा हो जाता है। एक अच्छे पामिस्ट को यह सब ध्यान में रखना चाहिए। इसे हमने संजीवनी रेखा का नाम दिया है। प्रकृति ने जिस प्रकार हमारे चेहरे पर नाक, कान के स्थान निर्दिष्ट किए हैं उसी प्रकार हाथ में जीवन रेखा, शीर्ष रेखा तथा अन्य चिन्हों के स्थान भी निर्दिष्ट किए हैं। इसलिए अगर कोई रेखा अपने प्राकृतिक स्थान से हटकर असाधारण स्थिति को ग्रहण कर ले तो असाधारण परिणामों की आशा करना युक्तिसंगत होगा। अगर मनुष्य के स्वाभाविक गुणों में इस प्रकार परिवर्तनों का प्रभाव पड़ सकता है तो उसके स्वास्थ्य पर क्यों नहीं पड़ेगा। हस्त विज्ञान या सामुद्रिक विज्ञान रेखाओं द्वारा रोग और मृत्यु के संबंध में भविष्यवाणी कर सकता है। इस बात को हम सभी स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में कीटाणु स्नायुओं के तालमेल को दूषित करते हैं। उसका प्रभाव स्नायु के माध्यम से हाथ पर पड़ता है। इस रेखा पर जीवन की अवधि, रोग और मृत्यु अंकित होती है और अन्य जिन घटनाओं का पूर्वाभास कराती हैं उनकी पुष्टि जीवन रेखा करती है। संजीवनी रेखा कैसी होनी चाहिए जीवन रेखा लंबी, तंग व गहरी होनी चाहिए, चैड़ी कदापि नहीं होनी चाहिए। यह भी देखा जाता है कि प्रायः कोमल हाथ वाले व्यक्ति रोग आदि से लड़ने की कम क्षमता रखते हैं। थुलथुल हाथ वाले कुछ आरामतलब होते हैं जबकि गठीले हाथ वाले शक्तिशाली होते हैं। संजीवनी रेखा के गुण-दोष जीवन रेखा में कुछ अच्छाई होती है और कहीं खराब होने से उसमें दोष आ जाता है। इसलिए जीवन रेखा के गुण-दोषों का संबंध समझना आवश्यक है। 1. गहरी और अच्छी जीवन रेखा प्राणशक्ति और ताकत को बढ़ाती है। 2. चैड़ी और हल्की जीवन रेखा में उपरोक्त दोनों गुणों का ही अभाव होता है। जीवन रेखा के चैड़ी व हल्की होने पर जातक शारीरिक रूप से इतना शक्तिशाली नहीं होता है कि उसमें उपरोक्त गुण पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हों और जब जीवन प्रवाह दुर्बल होता है तो बौद्धिक विकास भी पूर्ण नहीं हो सकता। 3. बलवान गहरी और स्पष्ट जीवन रेखा अच्छी होती है। इसमें अच्छी प्राणशक्ति व ताकत होती है किंतु ऐसे हाथ में यदि शुक्र पर्वत बहुत उन्नत हो तो जातक अत्यधिक काम वासना में लिप्त रहकर अपना जीवन नष्ट कर देते हैं। बलवान जीवन रेखा से अच्छी पाचन शक्ति भी प्राप्त होती है किंतु अंगुलियों के तीसरे पोर मोटे व लंबे हों तो उसे रक्तचाप की शिकायत रहती है। 4. यदि किसी की हथेली का रंग गुलाबी हो और बृहस्पति की अंगुली का तीसरा पोर मजबूत हो तो वह बहुत ज्यादा खाने-पीने का शौकीन होता है। वह मिर्गी के रोग का शिकार भी हो सकता है। परंतु उसका ऊपरी मंगल क्षेत्र बहुत उन्नत हो तब ऐसा होता है। 5. तंग और पतली जीवन रेखा से भी जीवन प्रवाह शक्ति सामान्य से कम प्रकट होती है। ऐसे व्यक्ति शारीरिक परिश्रम नहीं कर सकते। उनमें धैर्य की कमी होती है। ये जल्दी बीमार हो जाते हैं और सुस्त भी रहते हैं। 6. कभी-कभी जीवन रेखा छोटी-छोटी रेखाओं में बंटी होती है तब भी जीवन प्रवाह की कमी प्रकट होती है। यह जातक में सामान्य दुर्बलता, गिरा हुआ स्वास्थ्य और स्नायविक कमजोरी प्रकट करती है। ऐसी रेखा वाला व्यक्ति उदास होता है। 7. श्रृंखलाकार जीवन रेखा भी दोषपूर्ण मानी जाती है। रेखा में जहां भी श्रृंखला होगी जातक उस समय बीमार होगा। जो व्यक्ति बचपन में ज्यादा बीमार रहता है उसकी जीवन रेखा आरंभ में किसी अन्य रेखा की तरह या श्रृंखलाबद्ध या दोषपूर्ण होती है। यदि जीवन रेखा कुछ दूरी तक ही श्रृंखलाबद्ध है और आगे अच्छी व दोषरहित है तो जातक उसी अवधि तक अस्वस्थ रहता है जहां तक रेखा श्रृंखलाबद्ध है। 8. यदि यह रेखा श्रृंखलाबद्ध ही नहीं अपितु चैड़ी व हल्की भी हो तो और भी खराब होती है क्योंकि ऐसी जगह दो हानिकारक कारण एकत्रित होते हैं। 9. सीढ़ीनुमा रेखा - यह रेखा छोटे-छोटे खंडों के रूप में होती है। जीवन रेखा का आरंभ: जीवन रेखा साधारणतया बृहस्पति पर्वत के नीचे से शुरू होकर शुक्र पर्वत को घेरती हुई मणिबंध या उसके समीप तक जाती है। अगर रेखा बृहस्पति पर्वत से आरंभ हो तो इससे अभिमान व महत्वाकांक्षा प्रकट होती है। जीवन रेखा का संबंध शीर्ष रेखा और हृदय रेखा से यदि जीवन रेखा शीर्ष रेखा से जुड़ी हो तो इसका तात्पर्य यह है कि जातक काफी बुद्धिमान होगा और तर्क व कारण सहित निष्कर्ष निकालता है। लेकिन व्यक्ति को भावुक भी बनाता है। इसमें स्वतंत्र विचार की कमी हो सकती है। जीवन रेखा से वंश वृद्धि: जीवन रेखा को भारतीय मत के अनुसार गोत्र रेखा या कुल रेखा कहते हैं। दोनों का अर्थ है वंश वृद्धि। इसका अर्थ हुआ कि जिसकी जीवन रेखा सुंदर और बलवान होगी तथा जीवन रेखा से घिरा हुआ भाग गुणयुक्त होगा उसी के कुल की वृद्धि होगी। पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि की वृद्धि भी इसी से देखी जाती है। अगर संतान स्वस्थ होती है तो कुल या गोत्र की वृद्धि संभव है। इसलिए भारतीय महर्षियों ने कुल वृद्धि या गोत्र वृद्धि का अर्थ केवल पुत्र तक ही सीमित नहीं रखा है। यदि किसी को निर्बल अवस्था में निर्बल पुत्र हो गया और आगे उसकी वंश वृद्धि नहीं हुई तो गोत्र वृद्धि नहीं मानी जाएगी। पुरुषों तथा स्त्रियों दोनों की संतानोत्पादक शक्ति, शुक्र क्षेत्र तथा जीवन रेखा पर बहुत अधिक मात्रा में अवलंबित है। इसी कारण अंगुष्ठ के नीचे के भाग पर करपृष्ठ की ओर निकली हुई रेखाओं से संतान का विचार किया जाता है। भविष्य पुराण में लिखा है: अंगुष्ठ मूल रेखाः पुत्राः स्युर्दारिकाः सूक्ष्मा। प्रयोग पारिजात में लिखा है- मूलांगुष्ठस्य नृणां स्थूल रेखा भविन्त यावत्यः। तादन्तः पत्राः स्य सूक्ष्माभिः पत्रिकास्ताभि।। अर्थात् अंगूठे के मूल में जो स्थूल रेखाएं हों उन्हें पुत्र रेखा तथा जो सूक्ष्म रेखाएं हों उन्हें कन्या रेखा समझना चाहिए। स्त्रियों के हाथ में भी इन्हीं रेखाओं को संतान रेखा माना जाता है। मोटी रेखाएं हों उतने पुत्र और जितनी कटी हुई रेखाएं हों उतनी कन्या संतानें होंगी। जीवन रेखा या आयु रेखा द्वारा समय का निर्धारण: मनुष्य की आयु प्रमाण सौ वर्ष ही वर्णित किया गया है जो कि ऋषियों द्वारा वेद मंत्रों में किया गया है। किंतु इस वर्तमान युग में मनुष्य की आयु का प्रमाण निर्धारित नहीं हो सकता है क्योंकि हम यही देखते हैं कि बच्चा मां के पेट से लेकर 100 वर्ष की अवस्था तक किसी समय भी मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। इसलिए शत प्रतिशत ठीक बात तो ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं जानता है। फिर भी श्वासों की गिनती के अनुसार सुंदर, साफ और स्पष्ट जीवन रेखा को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति वर्षों की गणना के अनुसार वर्षों की अमुक संख्या तक जीवित रह सकता है। फिर भी जिन मनुष्यों की अवस्था 100 से अधिक होती है उनकी आयु या जीवन रेखा मणिबंध से कलाई तक पहुंच जाती है। फिर छोटी आयु वाले व्यक्ति की जीवन रेखा छोटी और बड़ी आयु की जीवन रेखा बड़ी होती है। आधुनिक और प्राचीन सभी हस्त विशेषज्ञों में अपनी-अपनी गणना के अनुसार इस आयु विभाग गणित में कुछ अंतर तथा मतभेद अवश्य ही रहा है। देखने में अभी तक यही आया है कि यूरोप निवासियों से करीब-करीब सभी ने सप्तवर्षीय नियम को अपना है और भारतीय प्राचीन गं्रथों ने पंचवर्षीय नियम को अपनाकर अपना निर्णय लिया है। रेखाओं के आधार पर घटनाओं का निश्चित समय तय किया जा सकता है। समय निर्धारण मुख्यतः जीवन रेखा के आधार पर किया जाता है। कुछ लोग शनि रेखा का भी प्रयोग करते हैं नीचे कुछ रीतियां इस प्रकार हैं- मनुष्श् को यह मानना होगा कि दुःखमय जीवन से छुटकारा हमें ईश्वर ही दे सकता है उसी पर भरोसा करे। अगर कोई दुःख है तो उसे स्वीकार करके तन-मन अर्पण करके ईश्वर से प्रार्थना करे कि इस कष्ट को भोगने की शक्ति दे। ईश्वर अच्छे सुख के दिन लायेगा विश्वास करे। जो ईश्वर के भक्त हैं वह कहते हैं- 1. भगवान ने जो परिस्थिति दी वह साधन रूप है। विश्वास करके उसे बरतो, फल महान अनूप है। 2. श्विासहीन मनुष्य को सर्वत्र अन्धा कूप है। विश्वास से ही मिलते हरि विश्वास प्रभु का रूप है। अतः मनुष्य को सुख के लिए नित्य प्रयत्न करते रहना चाहिए यही ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान के उद्देश्य हैं।

विवाह रेखा एवं उसके फल

विवाह तय करते समय जन्मपत्री मिलान के अतिरिक्त हस्त रेखाओं का अध्ययन भी सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि जन्मपत्री जन्म समय का ठीक ठीक पता नहीं होने से गलत हो सकती है परंतु हस्त रेखा सही होती है। विवाह रेखा के अलावा भाग्य, आयु, हृदय और मस्तिष्क रेखाओं का गहन अध्ययन आवश्यक है। हस्त रेखा से विवाह का संभावित समय जानने के नियम यहां दिए जा रहे हैं। विवाह रेखा छोठी उंगली और हृदय रेखा के मध्य होती है। छोटी उंगली और हृदय रेखा की दूरी को चार समान भागों में विभक्त करें। यदि हृदय रेखा से प्रथम भाग में विवाह रेखा है तो 18 से 25 वर्ष की आयु में विवाह की संभावना होगी, दूसरे भाग में हो तो 25 से 35 वर्ष तथा तीसरे भाग में हो तो 35 से 50 वर्ष की आयु में विवाह की संभावना होगी। इन चार भागों में भी इसकी दूरी हृदय रेखा से जितनी ज्यादा हो उतनी आयु में विवाह की संभावना होगी यदि विवाह रेखा छोटी उंगली की ओर मुड़ी होगी तो ऐसे जातक का विवाह होना कठिन होता है। यदि उक्त रेखा से एक शाखा छोटी (बुध) उंगली के मूल तक पहुंचे तो ऐसे व्यक्ति का व्यभिचारी होना संभव है। यदि विवाह रेखा हृदय रेखा की ओर झुके तो जीवन साथी के स्वास्थ्य पर विपरीत असर डालेगी तथा यदि हृदय रेखा को स्पर्श करे तो जीवन साथी की उक्त आयु में मृत्यु की संभावना बनती है। विवाह पूर्व उन रेखाओं का अध्ययन आवश्यक है। जिसकी विवाह रेखा हृदय रेखा की ओर थोड़ी सी झुकी हो वह शंकालु होता है। वह हृदय से कपटी और स्वार्थी होता है। विवाह रेखा की जितनी शाखाएं हृदय रेखा को स्पर्श करें उतने ही जीवन साथी की मृत्यु की सूचक है और हृदय रेखा की ओर झुक कर हृदय रेखा को स्पर्श नहीं भी करें तो ऐसे में भी कुछ समय पश्चात जीवन साथी की मृत्यु होने की संभावना बनती है। यदि विवाह रेखा के प्रारंभ में यव चिह्न हो तो पति-पत्नी का वियोग होता है यह यव या द्वीप चिह्न विवाह रेखा पर जिस आयु में हो उस आयु में उनका वियोग होगा जैसे यदि विवाह रेखा के अंत में यह चिह्न हो तो वृद्धावस्था में वियोग या लड़ाई-झगड़ा होता है। यदि विवाह रेखा द्वीपयुक्त हृदय रेखा की ओर झुके तो ऐसा जातक जन¬नंेद्रीय संबंधी रोग का शिकार होता है। विवाह रेखा टूटी हो तो जिस आयु में टूटी हो उस आयु में जीवनसाथी की मृत्यु की संभावना बनती है। विवाह रेखा पर नक्षत्र चिह्न पुरुष के हाथ में जीवन संगिनी की प्रसव के समय मृत्यु का संदेश देता है और यदि नक्षत्र चिह्न की यही स्थिति स्त्री के हाथ में हो तो पति की मृत्यु का सूचक है। यह वैधव्य योग कहलाता है। इस योग में यह याद रहे कि यदि नक्षत्र युक्त विवाह रेखा छोटी उंगली और अनामिका (सूर्य उंगली) के बीच से हृदय रेखा की ओर जाए तो मृत्यु योग टल जाता है परंतु उक्त आयु में मानसिक संताप बहुत होता है। ऐसी रेखा पराक्रम और यश व मान की भी सूचक है। स्पष्ट विवाह रेखा सूर्य रेखा को स्पर्श करे तो शुभ फलदायी होती है। विवाह पश्चात धन व मान-सम्मान मिलता है। लड़की के हाथ में ऐसी रेखा अच्छा और भाग्यवान जीवन साथी दिलाती है। लड़के के हाथ में ऐसी रेखा अच्छी पत्नी दिलाती है, वह गुणवान और धनवान होती है। विवाह रेखा से छोटी-छोटी रेखाएं नीचे की ओर जाती हों तो ऐसे व्यक्ति के जीवन साथी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। ये रेखाएं बारीक हों तो व्यक्ति किसी के प्रेम जाल में फंसता है।

हस्तरेखा द्वारा जाने विदेश यात्रा विचार

हाथ में चंद्र पर्वत मनोभावों का सूचक क्षेत्र होता है और चंद्र पर्वत से ही निकलने वाली तमाम आड़ी, तिरछी और खड़ी रेखाएं ‘यात्रा रेखाएं’ कहलाती हंै। यही वे रेखाएं होती हैं जिनके माध्यम से जातक के जीवन में होने वाली संभावित ‘विदेश यात्रा’ का आकलन किया जाता है। - चंद्र पर्वत से निकलने वाली यात्रा रेखाओं की स्थिति के आधार पर ही गंतव्य स्थान की दूरी का अनुमान लगाया जाता है। अर्थात रेखा यदि लंबाई में अधिक है तो लंबी दूरी की यात्राएं होंगी और रेखा यदि छोटी हों तो पर्याप्त दूरी अथवा समीपस्थ स्थान की यात्रा संभावित होती है। - जीवन रेखा अथवा आयु रेखा से निकलती हुई अथवा मणिबंध से ऊपर उठकर चंद्र पर्वत तक पहुंचने वाली रेखाएं भी यात्रा रेखाएं कहलाती हंै। - अंगुष्ठ के मूल से निकलकर जीवन रेखा की ओर जाने वाली अथवा जीवन रेखा में समाहित हो जाने वाली रेखाएं ‘विदेश यात्रा’ की रेखाएं होती हैं। - हथेली में अंगूठे के मूल क्षेत्र, यानि शुक्र पर्वत पर स्थित छोटी, बड़ी तथा स्पष्ट दिखती हुई निर्दोष खड़ी रेखाएं ‘विदेश यात्रा रेखाएं’ ही मानी जाती हैं। चंद्र पर्वत से निकलने वाली यात्रा रेखाओं के साथ-साथ ही शुक्र पर्वत पर स्थित इन रेखाओं के सम्मिलित अध्ययन से ही ‘विदेश यात्रा’ का सटीक अनुमान लगाया जा सकता है। - कनिष्ठिका (सबसे छोटी) उंगली के मूल क्षेत्र से उत्पन्न होकर जीवन रेखा तक पहुंचने वाली प्रभाव रेखाएं भी जातक के जीवन में यथोचित समय आने पर विदेश जाने का अवसर प्रदान करती हैं। - चंद्र क्षेत्र अथवा चंद्र पर्वत से निकलकर कोई निर्दोष तथा स्पष्ट रेखा यदि बुध क्षेत्र अथवा पर्वत की ओर पहुंचती हो तो जातक निश्चयपूर्वक अपने जीवन काल में विदेश यात्रा अथवा यात्राएं करता है। - यदि शुक्र पर्वत के मूल में कोई रेखा जीवन रेखा की ओर से आकर मिलती हो और दूसरी शाखा रेखा चंद्र पर्वत की ओर जाती हो तो जातक अनेक वर्षों तक दूरस्थ देशों (विदेश) में प्रवासी जीवन व्यतीत करता है। - यदि चंद्र पर्वत से ऊपर उठकर कोई रेखा सूर्य पर्वत तक पहुंच जाए तो जातक को विदेश यात्रा के दौरान धन संपत्ति और मान-सम्मान की प्राप्ति भी होती है। - चंद्र पर्वत से निकलकर जब कोई रेखा भाग्य रेखा को काटती हुई जीवन रेखा में जाकर मिल जाए तो वह व्यक्ति को दुनिया भर के देशों की यात्रा करवाता है। - यदि आयु रेखा (जीवन रेखा) स्वतः ही घूम कर चंद्र पर्वत पर पहुंच जाए तो वह जातक अनेकानेक दूरस्थ देशों की यात्राएं करता है और उसकी मृत्यु भी जन्मस्थान से कहीं बहुत दूर किसी अन्य देश में ही होती है। - मणिबंध से निकलकर कोई रेखा यदि मंगल पर्वत की ओर जाती हो तो वह व्यक्ति जीवन में समुद्री विदेश यात्राएं करता है। - प्रथम मणिबंध से ऊपर उठकर चंद्र पर्वत पर पहुंचने वाली रेखाएं सर्वाधिक शुभ मानी जाती हैं। परिणामतः यात्रा सफल और लाभदायक होती है। - यदि चंद्र पर्वत से उठने वाली आड़ी (लेटी हुई) रेखाएं चंद्र पर्वत को ही पार करती हुई भाग्य रेखा में मिल जाए तो दूरस्थ देशों की महत्वपूर्ण व फलदायी यात्राएं होती हैं। - यदि किसी जातक के दाहिने हाथ में तो विदेश यात्रा रेखाएं हों और बायें हाथ में रेखाएं न हों अथवा रेखा के प्रारंभ में कोई क्राॅस या द्वीप हो तो विदेश यात्रा में कोई न कोई बाधा उत्पन्न हो जायेगी अथवा जातक स्वयं ही उत्साहहीन होकर विदेश यात्रा को रद्द कर देगा। - यदि यात्रा रेखाएं टूटी-फूटी अथवा अस्पष्ट हो तो यात्रा का सिर्फ योग ही घटित होकर रह जाता है। प्रत्यक्ष में कोई यात्रा नहीं होगी। - यात्रा रेखा पर यदि कोई क्राॅस हो तो यात्रा के दौरान एक्सीडेंट अथवा अन्य किसी दुखद घटना के होने की पूर्ण आशंका रहती है। - यदि चंद्र पर्वत से निकलकर कोई रेखा बुध क्षेत्र तक अथवा बुध पर्वत पर पहुंचती हो तो जातक को यात्रा के दौरान आकस्मिक धन की प्राप्ति होती है। - यदि चंद्र पर्वत से यात्रा रेखा हथेली के मध्य में से ही अथवा मुड़कर वापस चंद्र पर्वत पर आये तो जातक को विदेश में व्यापार अथवा नौकरी की खातिर कई वर्ष व्यतीत करने के बाद मजबूरन स्वदेश वापस लौटना ही पड़ता है। - यदि यात्रा रेखा चंद्र क्षेत्र से निकलकर तथा पूरी हथेली को पार करते हुए गुरु पर्वत तक पहुंचती हो तो जातक को दूरस्थ स्थान अथवा विदेश की अत्यधिक लंबी यात्राएं करनी पड़ती है। - यदि किसी स्त्री या पुरुष जातक की हथेली में चंद्र पर्वत से यात्रा रेखा निकलकर स्पष्ट रूप से हृदय रेखा में जाकर मिल जाए तो उस जातक को यात्रा के दौरान ही प्रेम संबंध अथवा प्रेम विवाह होने की पूर्ण संभावना होती है। - यात्रा रेखा पर यदि कोई क्राॅस हो तथा उसके समीप चतुष्कोण भी हो तो अक्सर यात्रा का तयशुदा कार्यक्रम अकस्मात् स्थगित करना पड़ता है। - चंद्र पर्वत से निकलकर कोई यात्रा रेखा मस्तिष्क रेखा से मिल जाती हो तो जातक को यात्रा में कोई व्यावसायिक समझौता अथवा बौद्धिक कार्यों का अनुबंध करना पड़ता है। - यदि हथेली में चंद्र और शुक्र पर्वत उन्न्त हो तथा जीवन रेखा पूरे शुक्र क्षेत्र को घेरती हुई शुक्र पर्वत के मूल तक जाती हो तथा चंद्र पर्वत पर स्पष्ट यात्रा रेखा हो तो जातक को अपने जीवनकाल में देश-विदेश की अनेकानेक यात्राएं करनी पड़ती हैं। - चंद्र पर्वत से कोई स्पष्ट रेखा निकलकर जीवन रेखा को मध्य में से काटती हुई उसके समानांतर मंगल क्षेत्र पर पहुंचती हो तो लंबी यात्राओं के अवसर मिलते हैं। ऐसा जातक विदेश में कई वर्षों तक रहता है। - यदि किसी जातक की हथेली में जीवन रेखा से कोई निर्दोष प्रभाव रेखा निकलकर नीचे मणिबंध क्षेत्र से मिलती हो तथा त्रिभुज बनाती हो और भाग्य रेखा से भी कोई स्पष्ट शाखा रेखा नीचे जाकर इस प्रभाव रेखा के साथ त्रिभुज का निर्माण करती हो तो ऐसा जातक सदैव यात्रा करने का इच्छुक रहता है तथा व्यापारिक कार्यों से वह देश-विदेश की अनेक लाभकारी यात्राएं भी करता है। - यदि किसी की हथेली में चंद्र पर्वत से कोई निर्दोष रेखा निकलकर जीवन रेखा तक आती हो और वहां से भाग्य रेखा निकलकर शनि पर्वत तक पहुंचती हो तो वह जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश यात्रा करता है।

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Saturday, 19 March 2016

आपके हाथों में निवास स्थान

आपके हाथों में निवास स्थान अंगूठा छोटा और कम खुलने वाला हो, अंगुलियां टेढ़ी-मेढ़ी हों तो ऐसे व्यक्ति का निवास स्थान गंदी जगह पर होता है। जीवन रखाो और मस्तिष्क रखाो दानोें ही दोषपूर्ण हों अंगुलियां माटेी हों और अंगूठा कम खुलता हो तो इनके घर के पास गंदगी होती है और पड़ोसी भी अच्छे नहीं होते है। हाथ पतला, काला, कठोर, उबड़-खाबड़ हो, अगूंठा छाटो आरै अंगुलियां मोटी हों तो ऐसे व्यक्तियों का निवास स्थान गंदी जगह पर होता है, रहने की जगह तंग-गली में होती है और पड़ौसी अच्छे नहीं होते। जीवन रखाो और मस्तिष्क रखाो दानोें ही मोटी हों तो निवास स्थान के पास जानवरों के बाड़े के कारण गंदगी हातेी है। यदि जीवन रेखा गोलाकार हो और उसमें त्रिभुज भी हो तथा मस्तिष्क रेखा शाखान्वित हो, हाथ कोमल हो तो मकान सुंदर व बड़े आकार का होता है। यदि साधारण मस्तिष्क रेखा मंगल या चंद्रमा पर जाती हो तो ये पैतृक घर में ही निवास करते हैं। यदि मस्तिष्क रेखा शाखान्वित हो तो पहले पैतृक घर में, फिर दूसरे घर में निवास करते हैं। मस्तिष्क रेखा दोनों हाथों में द्विशाखाकार हो तो मकान या संपत्ति की संखया अधिक होती है। यदि मस्तिष्क रेखा अंत में द्विशाखाकार हो, सूर्य और बृहस्पति की अंगुलियां तिरछी हों तो मकान का दरवाजा आबादी की ओर होता है। यदि मस्तिष्क रखाो अतं में द्विशाखाकार हो और शनि की अंगुली लंबी हो तो मकान का दरवाजा कम आबादी की ओर होता है। हाथ कठोर और निम्न स्तर का हो, अंगूठा कम खुलता हो तथा मस्तिष्क रखाो दोषपूर्ण हो तो निवास स्थान छाटो तथा गंदी जगह पर होता है। मस्तिष्क रेखा या उसकी शाखा चंद्रमा पर जाती हो तो मकान किसी जलाशय (कुआं, बावडी, तालाब या नहर) के पास होता है। जीवन रेखा में त्रिकोण हो और एक से अधिक भाग्य रेखाएं हों तो ऐसे व्यक्ति खुले-स्थान में मकान, बंगला, फ्लैट आदि बनाते हैं। एक से अधिक भाग्य रेखाएं हों, जीवन रेखा में त्रिकोण हो तथा शनि की अंगुली लंबी हो तो ऐसे व्यक्तियों के मकान में पार्क या बगीचा होता है। एक से अधिक भाग्य रखाोएं हो जीवन रेखा में त्रिकोण हो तथा मुखय भाग्य रेखा चंद्रमा के पर्वत से निकली हो तो मकान या बंगले में कोई जलाशय (स्वीमिगं पलू ) या नहाने का हौज हातो है। जिस आयु में भाग्य रेखा मस्तिष्क रेखा के किसी त्रिकोण से निकलती हो, उसी आयु में मकान या संपत्ति बनाते हैं या पुरानी संपत्ति में फेरबदल या विस्तार करते हैं। मोटी भाग्य रेखा वालों का मकान किसी पेड़ के नीचे या बड़े मकान की छाया में अथवा गली में होता है। जीवन रेखा और मस्तिष्क रेखा का जोड़ लंबा, जीवन रेखा टूटी हुई और मस्तिष्क रेखा दोषपूर्ण हो तो निवास स्थान के पास वातावरण गंदा होता है। यदि मस्तिष्क रेखा या उसकी शाखा चंद्रमा पर जाती हो, भाग्य रेखा भी चंद्रमा से निकलती हों तो निवास स्थान समुद्र या झील या नदी के किनारे हातो है। अंगुलियां छाटेी और पतली हां,े जीवन रेखा गोलाकार हो, मस्तिष्क रेखा अच्छी हो तो ऐसे व्यक्ति मकान बना लेते हैं। जीवन रखे ाा जिस आयु तक दाषेपूर्ण रहती है उस आयु तक व्यक्ति को रहने के मकान की कमी खटकती है। जीवन रेखा गोलाकार हो और मस्तिष्क रखाो शाखान्वित हो तो मकान स्वतंत्र खुली जगह में सुंदर और सुविधाओं से युक्त होता है।

स्वभाव का दर्पण : हथेली

वैज्ञानिक अध्ययन से यह पता चलता है कि मस्तिष्क की मूल शिराओं का हाथ के अंगूठे से सीधा संबंध है। स्पष्टतः अंगुष्ठ बुद्धि की पृष्ठ भूमि और प्रकृति को दर्शाने वाला सबसे महत्वपूर्ण अंग है। बाएं हाथ के अंगूठे से विरासत में मिली मानसिक वृति का आकलन किया जाता है और दायें हाथ के अंगूठे से स्वअर्जित बुद्धि-चातुर्य और निर्णय क्षमता का अंदाजा लगाना संभव है। अंगूठे और हथेली का मिश्रित फल व्यक्ति को अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल पाने में सक्षम है। व्यक्ति के स्वभाव और बुद्धि की तीक्ष्णता को अंगुष्ठ के बाद अंगुलियों की बनावट और मस्तिष्क रेखा सबसे अधिक प्रभावित करती है। अमेरिकी विद्वान विलियम जार्ज वैन्हम के अनुसार व्यक्ति के हाव-भाव और पहनावे से उसके स्वभाव के बारे में आसानी से बताया जा सकता है। अतीव बुद्धि संपन्न लोगों का अंगुष्ठ पतला और पर्याप्त लंबा होता है। यह पहली अंगुली (तर्जनी) से बहुत पृथक भी स्थित होता है। यह व्यक्ति के लचीले स्वभाव को व्यक्त करता है। इस प्रकार के लोग किसी भी माहौल में स्वयं को ढाल सकने में कामयाब हो सकते हैं। ये काफी सहनशील भी देखे जाते हैं। इन्हें न तो सफलता का ही नशा चढ़ता है और न ही विफलता की परिस्थितियों से ही विचलित होते हैं। इनकी सबसे अच्छी विशेषता या गुण इनका लक्ष्य के प्रति निरंतरता है। लेकिन यदि अंगुष्ठ का नख पर्व (नाखून वाला भाग) यदि बहुत अधिक पतला है तो व्यक्ति अंततः दिवालिया हो जाता है और यदि यह पर्व बहुत मोटा गद्दानुमा है तो ऐसा व्यक्ति दूसरों के अधीन रह कर कार्य करता है। यदि नख पर्व गोल हो और अंगुलियां छोटी और हथेली में शनि और मंगल का प्रभाव हो तो जातक स्वभाव से अपराधी हो सकता है। अंगुलियां कुल हथेली के चार में से तीन भाग के समक्ष होनी चाहिए। इससे कम होने से जातक कुएं का मेढक होता है। उसके विचारों में संकीर्णता और स्वभाव में अति तक की मितव्ययता होती है। सीमित बुद्धि संपन्न ये जातक भारी और स्थूल कार्यों को ही कर पाते हैं। बौद्धिक कार्य इनके लिए दूर की कौड़ी होती है। अक्सर इनको स्वार्थी भी देखा गया है। इस प्रकार की अंगुलियां यदि विरल भी हो तो आयु का नाश करती हैं। अंगुलियां के अग्र भाग नुकीले रहने से काल्पनिक पुलाव पकाने की आदत होती है। जिससे व्यक्ति जीवन की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए एक असफल जीवन जीता है। अंगुलियां लंबी होने से जातक बौद्धिक और सूक्ष्मतम कार्य बड़ी सुगमता से पूर्ण कर लेता है और स्थूल कार्य भी इसकी पहुंच से बाहर नहीं होते हैं। बहुत बार इस प्रकार के जातक नेतृत्व करते देखे जाते हैं। इस प्रकार की अंगुलियों के साथ हाथ यदि बड़ा और चमसाकार हो तो जातक अपनी क्षमता का लोहा समाज को मनवा लेता है। लंबी अंगुलियों के साथ यदि हथेली में शुक्र मुद्रिका भी हो तो जातक सर्वगुण संपन्न होते हुए भी भावुकतावश प्रगति के मार्ग में पिछड़ जाता है। शनि मुद्रिका होने से दुर्भाग्य साथ नहीं छोड़ता है। इस प्रकार के जातक अपनी योग्यता और क्षमता का पूर्ण दोहन नहीं कर पाते हैं। जिसके कारण इनको जीवन में सीमित उपलब्धियों से ही संतोष करना होता है। चंद्रमा का बहुत प्रभाव होने से जातक पर यथार्तता की अपेक्षा कल्पना हावि रहती है। अंगुलियों के नाखून जब त्वचा में अंदर तक धंसे हों, साथ ही ये आकार में सामान्य से छोटे हों तो जातक बुद्धि कमजोर होती है। इसकी मनोवृत्ति सीमित और आचरण बचकाना होता है। ये जातक आजीविका हेतु इस प्रकार के कार्य करते पाए जाते हैं, जिनमें बौद्धिक / शारीरिक मेहनत न के बराबर होते होती है। कनिष्ठा सामान्य से अधिक छोटी हो तो जातक मूर्ख होता है। कनिष्ठा के टेढी रहने से जातक अविश्वसनीय होता है। टेढ़ी कनिष्ठा को कुछ विद्वान चोरी करने की वृत्ति से भी जोड़ते हैं। लेकिन इसे तभी प्रभावी मानना चाहिए जब हथेली में मंगल विपरीत हो, क्योंकि ग्रहों में मंगल चोर है। अंगुलियों का बैंक बैलेंस से सीधा संबंध है। केवल अंगुलियों का निरक्षण कर लेने भर से ही इस तथ्य का अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यक्ति में धन संग्रह की प्रवृत्ति कहां तक है। तर्जनी (पहली अंगुली) और मध्यमा (बीच की अंगुली) यदि बिरल (मध्य में छिद्र) हों तो निश्चित रूप से जीवन के मध्य काल के बाद ही धन का संग्रह हो पाता है। यदि कनिष्ठा विरल हो तो वृद्धावस्था अर्थाभाव में व्यतीत होती है। यदि अंगुलियों के मूल पर्व गद्देदार और स्थूल हों तो जीवन में विलास का आधिक्य रहता है। सभी अंगुलियों के विरल होने से जीवन पर्यन्त धन की कमी रहती है। सीधी, चिकनी और गोल अंगुलियां धन को बढ़ा देती है। सूखी अंगुलियां धन का नाश करती हैं। वे अंगुलियां जिनके जोड़ों की गांठें बहुत उभरी हुई हों, संवेदनशील और कंजूस प्रवृत्ति दर्शाती हैं। लेकिन ऐसी उंगलियों वाले जातक कड़ी मेहनत कर सकते हैं। यही इनकी सफलता का रहस्य होता है। अंगूठे और अंगुलियों के आकार-प्रकार के अलावा हाथ की बनावट से हमें काफी कुछ जानकारी प्राप्त होती है। समचौरस हथेली के स्वामी व्यवहारिक होते हैं। लेकिन ऐसे लोग स्वार्थी भी होंगे। साथ ही समय आने पर किसी को धोखा भी दे सकते हैं। इसके विपरीत लंबवत हथेली के स्वामी भावुक और कल्पनालोक में विचरण करने वाले लोग होंगे। आमतौर पर ये जीवन में स्वतंत्र रूप से सफल नहीं रहते हैं। तथापि ये नौकरी में ज्यादा सफल रहते हैं। ऐसे लोग यदि स्वयं का व्यवसाय स्थापित करें तो प्रायः लंबा नुकसान उठाते हैं। अतः ऐसे लोगों को हमेशा नौकरी को तरजीह देनी चाहिए। हथेली का पृष्ठभाग समतल या कुछ उभार लेते हुए होना चाहिए। ऐसी हथेली का जातक व्यवहारिक होता है। यदि हथेली का करपृष्ठ बहुत अधिक उभार लिए हुए हो तो प्रायः व्यक्ति कर्कश स्वभाव और झगड़ालू होता है। हथेली में जब गहरा गढ़ा हो तो प्रायः जातक अपनी बात पर कायम नहीं रह पाता है। ऐसे लोग जीवन मे अत्यंत संघर्ष के उपरांत ही कुछ हासिल कर पाते हैं। हथेली का पृष्ठ भाग और कलाई हमेशा समतल होनी चाहिए। यदि दोनों में ज्यादा अंतर है तो यह जातक को समाज में स्थापित होने से रोकती है। ऐसे लोग अपने परिजनों से विरोध करते हैं। समाज में इनकी प्रतिष्ठा कम होती है। जिन हाथों में शनि-मंगल का प्रभाव हो वे लोग कानूनी समस्याओं का सामना करते हैं। कुछ मामलों में ऐसे लोग अपराधी भी हो सकते हैं। हथेली में राहु का प्रभाव होने पर जातक बुरी आदतों का शिकार होता है। वह धर्मभ्रष्ट भी हो सकता है। मदिरापान कर सकता है या अभक्षण का भी भक्षण कर सकता है।

हाथ की रेखाओं में राहु

सामान्यतः मंगल से निकलकर जीवन व भाग्य रेखा को काटकर मस्तिष्क रेखा को छूने या उसे भी काटकर हृदय रेखा तक जाने वाली रेखाएं, ‘राहु रेखा’ कहलाती है। हाथों में इनकी संख्या एक से लेकर तीन या चार तक होती हैं। मोटी ‘राहु रेखाएं’ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। ये रेखाएं दोषपूर्ण लक्षण हैं क्योंकि जिस आयु में ये मस्तिष्क-रेखा, भाग्यरेखा व जीवन रेखा को काटती हैं, परेशानी रहती है। जीवन रेखा को काटने पर कुटुम्ब, संतान तथा स्वास्थ्य, भाग्य रेखा को काटने पर जीवनसाथी को रोग व व्यापारिक चिंता तथा मस्तिष्क रेखा को काटने पर ये उस आयु में किसी संबंधी की मृत्यु, हानि या बुखार का संकेत करते हैं, हृदय रेखा को छूने पर उस आयु पर किसी प्रेमी की मृत्यु या बिछोह का संकेत है। मंगल से आकर मस्तिष्क रेखा पर रुकने वाली ‘राहु रेखा’ मस्तिष्क रेखा को काटकर जाने की अपेक्षा अधिक हानिकरक होती है और यदि यह मस्तिष्क रेखा व जीवन-रेखा को काटने के बजाय दोनों पर ही रुकती हो तो अत्यंत दोषपूर्ण होती हैं। यदि यह जीवन व मस्तिष्क रेखा के निकास के पास हो तो विश्ेाष दोषपूर्ण फल करती हैं। इस आयु में जीवन में उथल-पुथल, रोग, स्थान परिवर्तन, राज-भय, मृत्यु, दुर्घटना आदि फल होते हैं। ‘राहु-रेखा’ थोड़ी भी दोष-पूर्ण होने पर पतन की ओर ले जाती है। ऐसे व्यक्तियों को जेल भय, चोरी, दुर्घटना, कत्ल या रोग आदि का सामना करना होता है। उत्तम हाथ में निर्दोष व लंबी राहु रेखा व्यक्ति को ‘राष्ट्रीय-सम्मान’ प्राप्ति की पुष्टि व विशेष उन्नति की सूचक होती है। इस प्रकार की निर्दोष रेखाएं मंत्रियों, बड़े व्यापारियों या शोधकर्ताओं (वैज्ञानिकों) के हाथों में पाई जाती हैं। निर्दोष ‘राहु रेखाएं’ होने पर यदि मस्तिष्क रेखा व हृदय रेखा समानांतर हों तो ऐसे व्यक्ति नया अन्वेषण करके ‘राष्ट्रीय सम्मान’ प्राप्त करते हैं। ‘मस्तिष्क रेखा’ शाखा युक्त द्विभाजित हो तो इससे भाग्य रेखाएं निकलने पर ‘सम्मान प्राप्ति’ में केाई शंका नहीं रहती। नौकरी होने पर कोई विशेष प्रमाण-पत्र, सम्मान या पदक मिलता है जो जीवन में महत्व रखता है। इनके संबंध सेना के बड़े आॅफिसर या मंत्रियों आदि से होते हैं। मस्तिष्क रेखा या इसकी शाखा बुध पर जाने की दिशा में यदि ‘राहु-रेखा’ से बुध पर बड़ा द्वीप बनता हो तो व्यक्ति सम्मानित व शक्ति सम्पन्न होता है। ऐसे व्यक्ति मंत्री होते हैं मस्तिष्क रेखा, भाग्य रेखा, हृदय रेखा या जीवन रेखा में दोष होने पर, ‘राहु रेखा’ दोषपूर्ण फलों में वृद्धि करती है। जैसे-जैसे इन रेखाओं में सुधार होता है इसका फल भी उत्तम होता जाता है। उत्तम हाथ में निर्दोष ‘राहु रेखा’ महानता की सूचक है। जीवन-रेखा से निकलकर मस्तिष्क रेखा में मिलने की दशा में ‘राहु-रेखा’ सीधी न होकर कुछ गोलाकार हो तो अधिक दोषपूर्ण होती है (चित्र ब्.ब्1 देखें)। इस राहु रेखा के कारण टांग टूटना, कंधे में चोट, चोरी से हानि, जादू-टोने का भ्रम ‘जीवन रेखा’ दोषपूर्ण होने की स्थिति में खराब स्वास्थ्य, इनको या इनकी पत्नी के दांतों में रोग आदि घटनाएं होती हैं। ‘राहु रेखाएं’ पास-पास दो या तीन होने पर यदि निर्दोष भी हों और हाथ अच्छा हो तो ऐसे व्यक्ति राजनीति में ऊँचे पदों पर पाये जाते हैं। इन्हें राष्ट्र-सम्मान भी प्राप्त होता है। तीन ‘राहु रेखाएं’ होने पर गोद की संपत्ति का लाभ होता है। दो या अधिक रेखाओं से मिलकर ‘मस्तिष्क रेखा’ पर द्वीप बनता हो तो वंश में जवान-मृत्यु का संकेत है, ऐसी दशा में कई मृत्यु भी होती है। यदि ‘मस्तिष्क रेखा’ टेढ़ी हो तो इसमें केाई शंका नहीं रहती। मंगल से दो ‘राहु-रेखाएं’ एक साथ पास-पास निकलकर जब शनि के नीचे ‘मस्तिष्क रेखा’ को छूती हों तो ऐसे व्यक्तियों का मानसिक संतुलन ठीक नहीं रहता । शुक्र व चंद्रमा उन्नत या जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा में शनि के नीचे दोष होने पर वहम या सनक होती है। इन्हें भूत-प्रेत, छाया-पुरुष या किसी ऐसी बाहरी शक्ति का प्रभाव होता है। इनके कानों में बाहर से कोई आवाज सुनाई देती है और ये उसी के अनुरूप आचरण करने को बाध्य होते हैं। कई बार तो इस आवेश में हत्या तक कर देते हैं। अपने आप से बातें करना, ध्यान में कोई दिखाई देना, मस्तिष्क पर दूसरे का नियंत्रण या प्रभाव मालूम होना आदि लक्षण इस दशा में प्रतीत होते हैं। स्मरण रखें यह ‘राहु रेखा’ मस्तिष्क रेखा पर शनि (अंगुली मध्यमा) के नीचे ही रुकती हो, दूसरे स्थान पर नहीं। ‘राहु रेखा’ पर बना हुआ ‘त्रिकोणात्मक-द्वीप’ स्त्री के हाथ में हो और जीवन रेखा में दोष, शुक्र उन्नत व अन्य वासनात्मक लक्षण हों तो ऐसी स्त्रियां बड़ी आयु के व्यक्तियों से लम्बे समय तक यौन सम्पर्क रखती हैं। स्त्रियों को यह लक्षण होने पर रक्त स्राव, गर्भपात आदि दोष भी पाये जाते हैं। मंगल-रेखा होने पर ऐसी स्त्रियां अपने प्रेमियों से धन व संपत्ति का लाभ प्राप्त करती हैं, परंतु इस दशा में अन्य रेखाओं में दोष नहीं होना चाहिए। चंद्रमा क्षेत्र से निकल कर मोटी-भाग्य-रेखा, हृदय रेखा पर रुकने, शुक्र अधिक उन्नत और हृदय रेखा सीधी बृहस्पति पर जाने की दशा में निश्चित ही ऐसी स्त्रियों के अनैतिक संबंध पाये जाते हैं। किन्हीं हाथों में शुक्र क्षेत्र से निकलकर एक रेखा जीवन रेखा को काटती हुई चंद्रमा पर जाती है। यह भी ‘राहु रेखा’ कहलाती है । ऐसे व्यक्ति चरित्रहीन होते हैं। चरित्र संबंधी गिरावट के विषय में इनका कोई स्तर नहीं होता। माँ, बहन, बेटी या अन्य पवित्र संबंधों पर भी इनकी बुरी दृष्टि रहती है। ये शराबी, जुआरी होते हैं। हाथ पतला, काला, मस्तिष्क व हृदय रेखा दोषपूर्ण होने पर तो सभी कलाओं में पारंगत होते हैं: ‘राहु रेखा’ वास्तव में मुख्य न होकर गौण रेखा है। परंतु फल के विषय में बहुत महत्वपूर्ण है, अतः भली भांति देखकर व अन्य लक्षणों से समन्वय करने के पश्चात् इस रेखा का फल कहने से ‘चमत्कारिक फल’ प्राप्त होते हैं...

होली का पर्व

होली का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह दो भागों में विभक्त है। पूर्णिमा को होली का पूजन और होलिका दहन तथा फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को रंग- गुलाल, कीचड़ आदि से होली। संपूर्ण त्योहारों में होली सर्वश्रेष्ठ है। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने द्वारिकावासियों, ब्रजवासियों, अपनी रानियों, पटरानियों एवं आह्लादिनी शक्ति राधा के साथ होली का उत्सव मनाया है। स्वयं देवता भी इस आनंद में पीछे नहीं रहे। भगवान शंकर ने तो श्मशान की राख से ही होली खेल कर अपने को कृतकृत्य किया। होली की प्रासंगिक कथा: प्रह्लाद् दैत्यराज हिरण्यकशिपु का पुत्र था। वह बाल्यावस्था से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। हिरण्यकशिपु घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी से दिव्य वरदान प्राप्त कर उसका दुरुपयोग करने लगा। उसने इंद्रासन पर भी अपना अधिकार कर लिया तथा अपने भाई हिरण्याक्ष के वधकत्र्ता भगवान् विष्णु से विशेष विद्वेष करने लगा। संभवतः इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप उनके पुत्र प्रह्लाद में विष्णु (कृष्ण) के प्रति भक्ति भावना, देवर्षि नारद जी की कृपा से जागृत हो गयी थी। एक बार हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र की शिक्षा के संबंध में जानने का प्रयास किया, तो पुत्र की भक्ति भावना का ज्ञान हुआ। इस पर क्रोधित हो कर उन्होंने प्रह्लाद को गोद से नीचे जमीन पर पटक दिया तथा यातनाओं का पहाड़ प्रह्लाद पर टूट पड़ा। प्रह्लाद के मर्म स्थानों को शूलों से भिदवाया, बडे़-बडे़ मतवाले हाथियों से उसे कुचलवाया, विषधर नागों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे फिकवा दिया, शंबरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अंधेरी कोठरियों में बंद कराया, विष पिलाया, भोजन बंद कर दिया, बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बारी से डलवाया, आंधी में छोड़ दिया, पर्वत के नीचे दबवा दिया। स्वयं हिरण्यकशिपु की बहन होलिका प्रह्लाद को गोदी में ले कर आग में बैठ गयी। परंतु भगवत् कृपा से जो दुपट्टा होलिका को ब्रह्माजी से प्राप्त हुआ था, वही दुपट्टा भक्त प्रह्लाद के शरीर पर, वायुदेव की कृपा से, आ पड़ा और होलिका की शक्ति, जो दुपट्टे में निहित थी, चली जाने के कारण वह ध्वंस हो गयी। भक्त प्रह्लाद हरि नाम स्मरण करते हुए सकुशल अग्नि से बाहर निकल आये। पुनः हिरण्यकशिपु का वध भगवान नृसिंह के द्वारा हो गया। इसी पुनीत अवसर पर नवीन धान्य (जौ, गेहंू, चने) खेत में पक कर तैयार हो गये और मानव समाज में उन धान्यों को उपयोग में लेने का प्रयोजन भी उपस्थित हो गया। किंतु धर्म परायण हिंदू भगवान यज्ञेश्वर को अर्पण किये बिना नवीन अन्न को उपयोग में नहीं ले सके। अतः फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को समिधास्वरूप उपले आदि को एकत्रित कर के, उसमें यज्ञ की विधि से अग्नि स्थापन, प्रतिष्ठा, प्रज्ज्वलन एवं पूजन कर के विविध रक्षोघ्न मंत्रों से यव गोधूमादि के चरू स्वरूप बालों की आहुति दी और हुतशेष धान्य को घर ला कर प्रतिष्ठित किया। उसी से प्राणों का पोषण हो कर सभी प्राणी हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ हुए तथा होली के रूप में नवान्नेष्टि यज्ञ को संपन्न किया। तभी से होली पूजन की यह परंपरा मानव समाज में विकसित हो गयी। इसे वसंत ऋतु के आगमन में किया गया महायज्ञ भी मानते हैं। लोक परंपरा के अनुसार नव विवाहिता स्त्री को प्रथम बार ससुराल की जलती होली नहीं देखनी चाहिए। प्रतिपदा का भव्य होली उत्सव धुलैंडी: होली के अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को सभी बालक, वृद्ध, नर-नारी, भांति-भांति की पिचकारियां और अनेक प्रकार के रंग-गुलाल आदि से एक दूसरे से होली का खेल खेलते हैं। विभिन्न प्रकार के रंगों से चेहरे को पोत देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो नाली की गंदी कीचड़, गड्ढों में भरे हुए पानी से ही एक दूसरे को सराबोर करते हैं। साल भर की ईष्र्या एवं द्वेष भावना मन से मिट जाती है। एक दूसरे को अश्लील गालियां आदि भी देते हैं। बडे़-बूढ़ों का चरण स्पर्श कर के आशीर्वाद लेते हैं। भाई-भाई आपस में गले मिलते हैं। ब्रज मंडल में तो यह उत्सव पूरे फाल्गुन मास ही मनाया जाता है। होली से पूर्व नवमी, दशमी, एकादशी को बरसाना, नंदगांव, वृंदावन में लट्ठमार होली एवं रंग की होली अपने आप में दिव्य है, जिसे देखने भारतवर्ष के कोने-कोने से तथा विदेशों से भी भक्त काफी संख्या में आते हैं। सब जोर-जोर से होली गीत और रसिया गाते हैं; उछलते-कूदते और फांदते हैं। होली गीत गाने, हंसने तथा निर्भीक निःसंकोच बोलने का आयुर्वेदिक महत्व भी है। गाने का गले से संबंध होने के कारण गले की पूरी कसरत हो जाती है। परिणामतः कफ दब जाता है। अबीर-गुलाल के गले में जाने से फेफडे़ तथा गले में रुकी कफ साफ हो जाती है। परंतु बड़ी विडंबना है कि आज के मानव समाज ने होली के इस त्योहार को दूषित कर दिया है। प्राणी शत्रु भावना से होली खेलते हैं। पुरानी दुश्मनी निकालते हैं। युवा वर्ग काम वासना की भावना से ही स्त्री वर्ग पर रंग डालना, गुलाल लगाना आदि क्रियाएं करता है, जो नितांत गलत और जघन्य अपराध है। इनसे बचना चाहिए। होली पूजन विचार: होली का पूजनोत्सव रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, ढुंढा, प्रह्लाद तो मुख्य हैं ही, इसके अलावा इस दिन नवान्नेष्टि यज्ञ भी संपन्न होता है। इसी परंपरा से ‘धर्मध्वज’ राजाओं के यहां माघी पूर्णिमा के प्रभात में शूर, सामंत और सभ्य मनुष्य गाजे-बाजे सहित नगर से बाहर वन में जा कर शाखा सहित वृक्ष लाते हैं और उसको, गंध-अक्षतादि से पूजा कर, नगर या गांव से बाहर पश्चिम दिशा में आरोपित कर के स्थित कर देते हैं। जनता में यह होली दंड (होली का डांडा) या प्रह्लाद के नाम से प्रसिद्ध है। यदि इसे ‘नवान्नेष्टि’ का यज्ञ स्तंभ माना जाए, तो निरर्थक नहीं होगा। व्रती को चाहिए कि वह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि के अनंतर ‘मम बालक बालकादिभिः सह सुखशांति-प्राप्त्यर्थं होलिका व्रतं करिष्ये’ से संकल्प कर के काष्ठ खंड के खङ्ग बनवा कर बालकों को देवें तथा उनको उत्साही सैनिक बनावें। वे निःशंक हो कर खेल-कूद करें और परस्पर हंसें। इसके अतिरिक्त होलिका के दहन स्थान को जल छिड़क कर शुद्ध कर के उसमें सूखा काष्ठ, सूखे उपले और सूखे कांटे आदि का स्थापन करें। पुनः सायं काल के समय प्रसन्न मन से संपूर्ण पुरवासियों एवं गाजे-बाजे के साथ होली के समीप जा कर शुभासन पर पूर्व या उत्तर मुख हो कर बैठें और ‘मम सकुटुंबस्य सपरिवारस्य पुरग्रामस्थजनपदसहितस्य वा सर्वापच्छांतिप्रशमनपूर्वक- सकल शुभफल प्राप्त्यार्थं ढुंढा प्रीति कामनया होलिका पूजन करिष्ये’ यह संकल्प कर के पूर्णिमा प्राप्त होने पर अछूत या सूतिका के घर से बालकों द्वारा अग्नि मंगवा कर, होली को दीप्तिमान करें और चैतन्य होने पर गंध, अक्षत, पुष्पादि से शोडषोपचार पूजन कर के ‘‘असृक्पाभयसंत्रस्तैः कृत्वा त्वं होलि बालिशैः। अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।।’’ इस मंत्र से तीन प्रदक्षिणा या प्रार्थना कर के अघ्र्य दें तथा लोक प्रसिद्ध होली दंड (प्रह्लाद) या शास्त्रीय ‘यज्ञ स्तंभ’ को, शीतल जल से अभिषिक्त कर के, एकांत में रख दें। उपरांत घर से लाये हुए खेड़ा, खांडा और वरकूलिया आदि को होली में डाल कर जौ, गेहूं की बाल और चने के होलों को होली की ज्वाला से सेकंे और यज्ञ सिद्ध नवान्न तथा होली की अग्नि तथा भस्म ले कर घर आवें। वहां आ कर वास स्थान के प्रांगण में गोबर से चैका लगा कर अन्नादि का स्थापन करंे। उस अवसर पर काष्ठ के खंडों को स्पर्श कर के बालकगण हास्य सहित शब्द उच्चारें। बालकों का रात्रि आने पर संरक्षण किया जावे और गुड़ के बने हुए पकवान (पुआ-पूड़ी) उनको खाने को दें। इस प्रकार करने से ढंुढा के दोष शांत हो जाते हैं और होली के उत्सव से अभूतपूर्व सुख-शांति मिलती है। होली, होलिका दहन निर्णय: प्रदोष व्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा। तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे।। इति नारद-वचनात् प्रदोषव्यापिनीत्युक्तम। सदा फाल्गुन मास की पूर्णिमा को प्रदोषव्यापिनी ग्रहण करें। उसमें भद्रा के मुख को त्याग कर निशा मुख में होली का पूजन करें। इसे नारद के वचन से प्रदोषव्यापिनी ग्रहण करें। हेमाद्रि तथा मदनरत्न में भी भविष्य पुराण का वचन है कि हे पार्थ, इस पूर्णिमा में रात्रि के आने पर गोमय से किये हुए चैकोर गृहांगण (घर के चैक) में बालकों की रक्षा करें। इत्यादि से वहां पर उसका विधान कहा है। इससे यह पूर्व विद्धा (अर्थात पूर्व दिन ही प्रदोष काल में प्राप्त होने पर) ग्रहण करें। श्रावणी दुर्गा नवमी, दुर्गाष्टमी, हुताशनी (होली), शिव रात्रि तथा बलि के दिन वे सब पूर्वा विद्धा ही करना चाहिए। यह बृहद्यम और ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है: दोनों दिन प्रदोष काल में प्राप्त हों, तो दूसरा ही ग्रहण करें। सायाह्ने होलिकां कुर्यात् पूर्वाह्ने क्रीडनं गवाम्। निर्णयामृत के अनुसार सायाह्न में होलिका करें और पूर्वाह्न में गौओं की क्रीड़ा करे। ज्योतिर्निबंधेतु- प्रतिपद भूत भद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा। संवत्सरं च तद्राष्ट्रं पुरं दहति साभुतम्।। ज्योतिर्निबंध में कहा है कि प्रतिपदा, चतुर्दशी और भद्रा में जो होलिका को दिन में पूजित करता है, वह एक वर्ष तक उस देश (राष्ट्र)े और नगर को आश्चर्य से दहन करता है। प्रथम दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो, तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर के सूर्याेदय होने से पूर्व होली का दहन करना चाहिए। (चंद्रप्रकाश) यदि पहले दिन प्रदोष न हो और हो, तो भी रात्रि भर भद्रा रहे (सूर्योदय होने से पहले न उतरे) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा समाप्त होती हो, तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो, तो भी उसके पुच्छ में होलिका दीपन कर देना चाहिए (भविष्योत्तर एवं लल्ल)। यदि पहले दिन रात्रि भर भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा का उत्तरार्ध मौजूद भी हो, तो भी उस समय यदि चंद्र ग्रहण हो, तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो, तब भी सूर्यास्त के पीछे होली जला देनी चाहिए (मुहूर्त चिंतामणि)। यदि दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा हो और भद्रा उससे पहले उतरने वाली हो, किंतु चंद्र ग्रहण हो, तो उसके शुद्ध होने के पीछे स्नान-दानादि कर के होलिका दहन करना चाहिए (स्मृति कौस्तुभ)। यदि फाल्गुन दो हों (मलमास हो) तो शुद्ध मास (दूसरे फाल्गुन) की पूर्णिमा को होलिका दहन करना चाहिए। (धर्मसार) हुताशनी मलमासे न भवति।

हस्त रेखा द्वारा जानें रियल एस्टेट में लाभ एवं हानि

 हाथ की रेखाओं के द्वारा हर एक क्षेत्र को समझा तथा जाना जा सकता है। यदि आप रीयल एस्टेट में पैसा इनवेस्ट करना चाहते हैं, तो उससे पहले आपको अपने हाथ की रेखाओं का अध्ययन जरूरी है। यदि आपके हाथ में रेखाएं रीयल एस्टेट के हिसाब से ठीक हैं तो आप उससे फायदा उठा सकते हैं अन्यथा नहीं। यदि हाथ भारी, अंगुलियां चौकोर, ग्रह पर्वत सीधे खासकर शनि और मंगल के उठे हुए हों और जीवन रेखा गोल तथा भाग्य रेखा जीवन रेखा से दूरी पर हो तो रीयल एस्टेट में आपका लगाया हुआ धन कुछ ही वर्षों में भारी लाभ करायेगा। हाथ कोमल व गुलाबी हो, अंगुलियां पीछे की तरफ झुकती हों, मस्तिष्क रेखा सीधे मंगल के क्षेत्र पर जाती हो, हृदय रेखा शनि की अंगुली के नीचे समाप्त हो, भाग्य रेखा का उदग्म जीवन रेखा से हो रहा हो तो आप रीयल एस्टेट के अच्छे निवेशक बन कर लाभ ले सकते हैं। जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा शुरूआत से एक ही जोड़ में से निकल रही हो, अंगुलियों के आधार बराबर हों, हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा में अंतर हो, हृदय रेखा साफ सुथरी हो व मस्तिष्क रेखा को भी कोई अन्य मोटी-मोटी रेखाएं न काट रही हों, हाथ भारी हो तो रीयल एस्टेट में भविष्य स्वर्णिम होता है। यदि हाथ में भाग्य रेखा एक से अधिक हों, सूर्य रेखा भाग्य रेखा के अंदर समा रही हो, मंगल ग्रह के दोनों क्षेत्र उठे हुए हों, जीवन रेखा के साथ एक अन्य जीवन रेखा हो अर्थात् दोहरी जीवन रेखा हो तो भी रीयल एस्टेट के कार्य से अच्छा खासा लाभ होता है। . हाथ में शनि व मंगल ग्रह के पर्वत उठे हुए व साफ सुथरे हों, हाथ भारी हो, जीवन रेखा से कुछ रेखाएं ऊपर की ओर उठकर अर्थात अंगुलियों की तरफ जा रही हो तो मनुष्य को रीयल एस्टेट से लाभ होता ही रहता है। हाथ भारी हो व उसमें एक से अधिक भाग्य रेखा हो व मस्तिष्क रेखा पर त्रिकोण हो तो मनुष्य स्वयं कई संपत्तियों का स्वामी होता है। रीयल एस्टेट का व्यवसाय भी उसके लिए बहुत लाभप्रद होता है। रीयल एस्टेट की ज्योतिष विवेचना द्वारा भी जाना जा सकता है कि आपको रीयल एस्टेट में कितना लाभ है। उसके कुछ योग इस प्रकार है। 1. चतुर्थेश केंद्र या त्रिकोण में हो 2. मंगल त्रिकोण में हो। 3. चतुर्थेश स्वगृही, वर्गोत्तम, स्व नवांश या उच्च का हो तो भूमि व रीयल एस्टेट के काम में लाभ होता है। 4. यदि व्यक्ति का चतुर्थेश बलवान हो और लग्न से उसका संबंध हो तो भवन सुख की प्राप्ति होती है। 5. यदि चतुर्थ भाव पर दो शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति भवन का स्वामी बनता है व रीयल एस्टेट में मुनाफा कमाता है। 6. शनि, मंगल व राहु की युति हो तो ऐसे व्यक्ति की भू-संपदा व मकान इत्यादि अवैध कमाई से निर्मित होता है। परंतु रीयल एस्टेट में सौदा फायदे का ही होता है। 7. गुरु की महादशा में शनि की अंतर्दशा में व्यक्ति को मकान का सुख तो प्राप्त होता है, परंतु उसे यह सुख पुराने मकान के रूप में प्राप्त होता है। उसे अपने मकान का नवीकरण करना पड़ता है एवं रीयल एस्टेट में बहुत ज्यादा इनवेस्ट ठीक नहीं होता है। ऐसे लोगों को चाहिए रीयल एस्टेट के कारोबार में अपनी आय का एक सीमित हिस्सा ही लगायें। इसके अतिरिक्त ऐसे अन्य कई लक्षण हैं जिससे इस विषय को और अधिक गहराई से जाना जा सकता हैं।

वैवाहिक जीवन में सुखी क्यूँ नहीं

विवाह को हिंदू समाज व धर्म में जन्म-जन्म का पवित्र व अटूट बंधन माना गया है। हमारी संस्कृति में विवाह को केवल दो व्यक्तियों के तन और मन के मिलन से बढ़कर दो परिवारों के आपस में धार्मिक सामाजिक, मानसिक व सांस्कृतिक मिलन का अपूर्व संगम माना गया है। भाग्य और ग्रह हमारे पक्ष में हो जायें तो शादी के समय जिस स्त्री पुरूष का विवाह अनचाहा और बेमेल भी हो तो भी गृहस्थी की राहों पर आते ही दोनों इतने संतुलित होकर समन्वय पूर्वक चलते हैं कि जीवन में विवाह के सुखों की झड़ी सी लग जाती है और जिंदगी खुशहाल एवं समृद्ध हो जाती है। इन सबको प्रभावित करती हैं हमारे हाथों की रेखाएं। 1- यदि हाथ में हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा एक हो (पुरुष के हाथ में) व स्त्री के हाथों में हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा अलग हो तो पति पत्नी के विचारों का कहीं से भी मेल नहीं बैठता है। अगर इस स्थिति के साथ-साथ मंगल ग्रह व शुक्र ग्रह अगर स्त्री के खराब हैं तो स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। 2- यदि हाथ स्त्री का सख्त है और उसके पति का नरम तो स्त्री के स्वभाव के कारण उसे विवाह का सुख चाहते हुए भी नहीं मिल पाता है। 3- यदि विवाह रेखा में कट-फट हो और वह आगे से फटी हुई हो व द्विभाजित हो या नीचे की तरफ मुड़ जाती हो तो भी वैवाहिक जीवन में बाधा आती रहती है। 4- यदि स्त्रियों के हाथ में हृदय रेखा खंडित हो, उस पर यव बनते हों और वहां से मोटी-मोटी रेखाएं मस्तिष्क रेखा पर गिरती हों तो ऐसी स्त्रियां छोटी-छोटी बात को बहुत अधिक महसूस करती हैं। पति की जरा सी भी अनदेखी उनसे बर्दाश्त नहीं होती है जिसकी वजह से छोटी-छोटी बातों पर घर का क्लेश वैवाहिक जीवन के सुख को खत्म कर देता है। 5- यदि भाग्य रेखा में द्वीप हो, और मस्तिष्क रेखा जजीराकार हो, हाथ सख्त हो तो भी वैवाहिक सुख को भंग कर देता है। 6- मंगल ग्रह पर कट-फट हो वहां से मोटी-मोटी रेखाएं मस्तिष्क रेखा को काट रही हो, हृदय रेखा भी टूटी-फूटी हो, विवाह रेखा पर जाल हो, हाथ सख्त हो अंगुलियां टूटी फूटी हों तो भी वैवाहिक सुख को कम या खत्म ही कर देती है। 7- अनुभव मं पाया गया है कि यदि हाथ सख्त हो, अंगुलियां मोटी या टेढ़ी हों- अंगूठा आगे की तरफ हो, तो सारी जिंदगी गिले शिकवे में कट जाती है। 8- शुक्र पर तिल व अत्यधिक उठा हुआ शुक्र भी गृहस्थ सुख में बाधक होता है।

हस्तरेखा से जाने मोटापे की बीमारी के बारे में

आज के मशीनी युग में जन मानस की दिनचर्या भी एक मशीन के समान होकर रह गई है। हर व्यक्ति दन रात काम ही काम में लगा रहता है। समयाभाव के कारण वह प्रकृति प्रदत्त उपहारों जैसे स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, सूर्य की किरणों का सूर्य उदय के समय मिलने वाला प्रकाश और उष्णता, शुद्ध विटामिनों आदि के लाभ से वंचित रह जाते हैं। स्वच्छ वायु के बदले हम एअरकंडिशनर में रहना पसंद करते हैं, रात देर से सोते हैं और सुबह तब उठते हैं जब सूर्य की किरणें तीव्र होकर अपनी उपयोगिता कम कर चुकी होती हैं। शुद्ध जल के बदले हम कोला और नशीले पेय पदार्थों का सेवन करने लगे हैं। शुद्ध और ताजे फलों तथा सब्जियों का स्थान जंक फूड और फास्ट फूड ने ले लिया है। यही कारण है कि आज मोटापे और डायबिटीज की शिकायत आम हो चली है। हम पूर्ण रूप से प्रकृति के विरुद्ध चल रहे हैं और हमारा शारीरिक स्वास्थ्य और सौंदर्य अपने सौद्गठव को छोड़कर बढ़ती हुई चर्बी के कारण प्रतिकूल होता जा रहा है। साथ ही तनावपूर्ण मशीनी जिंदगी के कारण हम डाइबिटीज तथा इस जैसे अन्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। इन दुष्परिणामों पर जब हमारा ध्यान जाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और हम इन्हें ढोने को लाचार हो जाते हैं। इन बीमारियों से मुक्ति और बचाव में अन्य चिकित्साओं की भांति हमारे हाथ की रेखाएं भी सहायक हो सकती हैं, क्योंकि ये रेखाएं हमारी द्राारीरिक संरचना का आइना हैं। हम किंचित ध्यान देकर इन रेखाओं के विश्लेद्गाण से हो चुकी और होने वाली बीमारियों की स्थिति का पता लगाकर उनसे मुक्ति और बचाव का उपाय कर सकते हैं। यहां मोटापे, डायबिटीज तथा कुछ अन्य आम रोगों के लक्षणों को दर्शाने वाली रेखाओं तथा अन्य चिह्नों का विशलेद्गाण प्रस्तुत है, जिसे पढ़कर एक आम पाठक भी लाभ उठा सकता है। यदि मस्तिष्क रेखा चंद्र क्षेत्र पर जाए, हाथ नरम हो, राहु और शनि दबे हुए हों, तो यह लक्षण डाइबिटीज का सूचक है। यदि भाग्य रेखा मोटी से पतली हो और उसे राहु रेखाएं काट रही हों तो यह मोटापे व डाइबिटीज दोनों का

जानिए अपनी रुचि हस्त रेखाओं से

 पांच प्रकार के हाथ पाये जाते है। ऐसे व्यक्ति सेना, वाहन उद्योग, इंजीनियरी, खदान, लखाो आदि के कायों में सफल रहते हैं। ऐसे व्यक्ति अच्छे समाज सेवक द्री हाते है।ं ऐसे व्यक्ति पुलिस के कार्य, खेल-कूद या अध्यापक का कार्य दक्षता से कर के उन्नति करते हैं। ऐसे व्यक्ति अद्रिनेता, संगीतकार, संपत्ति की खरीद-फरोखत, अतः सज्जा आदि कामों में उन्नति करते हैं। ऐसे व्यक्ति लेखाकार, प्रकाशक, ग्रथकार, योग के शिक्षक, सलाहकर बन कर उन्नति करते हैंं। ऐसे व्यक्ति विपणन प्रबंधक, आशुलिपिक, सचिव आदि कार्यों में उन्नति करते हैं। यदि गुरु का पर्वत उठा हुआ और सुदृढ हो, तो वह व्यक्ति बहुत महत्वाकांक्षी होता है और सरकारी नौकरी या राजनीति में उच्च पद पर रहता है। ऐसे व्यक्ति धार्मिक कार्यों में द्री बहुत रुचि लेते हैं। जब गरुु आरै शनि के पवर्त साथ-साथ हों तो व्यक्ति सीमटें , रते , और सगंममर्र आदि का कारखाना लगा सकता है, या उससे सबंंिधत कार्य करे तो अच्छी उन्नति की संद्रावना रहती है। गुरु के पर्वत के साथ यदि सूर्य का पर्वत द्री अच्छा हो, तो ऐसे व्यक्तियों को चित्रकारी, साज-सज्जा, स्त्रियों से सबंंिधत कपडे़ या द्रटें दने वाली वस्तुओं के काम में अधिक सफलता मिलती है। गुरु के पर्वत के साथ बुध का पर्वत द्री यदि पुष्ट हो, तो ऐसे व्यक्ति चिकित्सक, वकील, बीमा एजेंट आदि का कार्य करते हैं या पुरुषों के कपड़ों का व्यापार करते हैं। गुरु के पर्वत के साथ यदि मंगल का पर्वत द्री पुष्ट हो, तो व्यक्ति द्रवन निर्माण, वाहन उत्पादन, कृषि संबंधी औजार उत्पादन, या जासूसी कार्य में सफल होते हैं। गुरु के साथ यदि शुक्र का पर्वत द्री अच्छा हो, तो ऐसे व्यक्ति होटल व्यापार, संगीत संबंधी वाद्य यंत्र, घरेलू फर्नीचर, गहनों के व्यापारो में अधिक उन्नति करते हैं। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गुरु के पर्वत के साथ यह द्री देखना चाहिए कि हाथ की बनावट कैसी है। यदि गुरु के पुष्ट पर्वत शुद्र चिकने हाथ में हैं, तो व्यक्ति अधिकारी के पद पर आसीन होगा। साधारण हाथ वाला प्रबधंक, खजांची, या रेस्टोरंटे का स्वामी होगा तथा कठोर हाथ वाला आशुलिपिक, क्लर्क आदि के पद पर रह सकता हैं। यही सिद्धांत अन्य ग्रहों के पर्वतों के लिए द्री कार्य करेगा। शनि का पवर्त यदि प्रबल  तो व्यक्ति वैज्ञानिक, चिकित्सक, या इंजीनियर हो सकता ह।ै उसे बाग-बगीचा लगाने में द्री रुचि रहेगी। शनि पर्वत के साथ सूर्य पर्वत द्री पुष्ट हो, तो व्यक्ति बिजली के सामान, जैसे जनरेटर, फ्रीजर, कपड़े धाने की मशीन आदि का उत्पादन या व्यापार करेगा। शनि पर्वत के साथ बुध पर्वत द्री यदि पुष्ट हो, तो वह उन्नत ढंग से खेती करेगा। बीज या शक्कर का व्यापार करने से उसे सफलता मिलेगी। अकेले बुध के पर्वत के पुष्ट रहने पर व्यक्ति दवाइयों , बैकिंग, या कानूनी पुस्तकों के व्यापार में उन्नति कर सकता है। अकेले मंगल का पर्वत पुष्ट होने पर व्यक्ति सेना, पुलिस, खेल-कूद, द्रवन निर्माण आदि कार्यों में अधिक उन्नति कर सकता है। चंद्र पर्वत के पुष्ट होने पर व्यक्ति संगीत, यात्रा संबंधी कार्यों में रुचि लेगा। शुक्र का पर्वत पुष्ट होने पर संगीत, सजावट, श्रृंगार की दुकान आदि का कार्य कर के उन्नति कर सकता हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि किसी द्री पर्वत के साथ यदि गुरु व सूर्य का पर्वत द्री पुष्ट हो, तो ऐसा व्यक्ति सरकारी सेवा में अधिक उन्नति कर सकता है। जिसकी मस्तिष्क रेखा के अंत में चतुष्कोण हो, रेखा चंद्र क्षेत्र की ओर झुके तो, उसे प्रतिदिन प्राणायाम, ध्यान करने की सलाह देनी चाहिए, जिससे उसका मानसिक तनाव कम हो।

हस्तरेखा और बोलने की कला

अंगूठा लंबा हो, गुरु की अंगुली सूर्य की अंगुली से लंबी हो, हृदय रेखा साफ-सुथरी हो, मस्तिष्क रेखा शुरू व अंत में विभाजित हो, तो ऐसे लोगों की वाणी सम्मोहन का कार्य करती है- इनमें भाषा व बोलने की कला का अच्छा ज्ञान होता है। जिस प्रकार उठना बैठना, चलना फिरना प्रत्येक इंसान जानता है अगर हम इन क्रियाओं में शिष्टाचार का उपयोग करते हैं तो उसमें चार चांद स्वभाविक रूप से लग जाते हैं। ठीक उसी प्रकार बोलना तो हर कोई जानता है लेकिन बोलते समय अगर एक ‘भाषा शैली’ का उपयोग जिसमें मधुरता, धारा प्रवाह, रस, वाक्पटुता आदि हो तो, सुनने वाला अपने आप को कुछ पल के लिए ‘सम्मोहित’ सा महसूस करता है। बोलने की कला कुदरत ने सबको नहीं बख्शी होती है। अगर रेखाओं में जरा भी दोष आ जाता है तो उसका प्रभाव मनुष्य की भाषा शैली में आ जाता है और वे धारा प्रवाह व आत्म विश्वास के साथ अपनी बात कहने में असमर्थ सा महसूस करते हंै। कुछ लोग ऐसे हैं कि अपनी बात को एक या दो जनों तक की उपस्थिति में तो कह देते हैं किंतु जब उन्हें भाषण देने के लिए कहा जाता है तो वे उसमें अपने आपको असमर्थ महसूस करते हैं। ऐसा किन रेखाओं व ग्रहों में दोष होने पर होता है? इसके कई कारण है (1) मस्तिष्क रेखा दोषपूर्ण हो, उसमें जंजीरकार रेखा बनती हो, जीवन रेखा चाहे ठीक, बुध ग्रह उन्नत न हो तो ऐसे लोग अपनी वाणी में धारा प्रवाह व आत्म विश्वास की कमी पाते हैं। 2. दोषपूर्ण मस्तिष्क रेखा को राहु रेखाएं अगर काट दें, भाग्य रेखा जीवन रेखा के पास हो, सूर्य की उंगली तिरछी हो, सूर्य पर कट-फट हो तो भी बोलने की कला एक लय पर नहीं होती है। 3. हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा में दोष, हाथ में धब्बे, उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी हो, ऐसे लोग भाषण या अपनी बात को दूसरे के सामने सही ढंग से नहीं रख पाते हैं। 4. अंगूठा कम खुलता हो, मस्तिष्क रेखा व जीवन रेखा का जोड़ लंबा हो, हाथ सख्त हो, पतला हो, सभी ग्रह दबे हों, ऐसे व्यक्ति की बोलने की कला से कोई भी प्रभावित नहीं होता है। 5. मस्तिष्क रेखा में विभाजन न हो, गुरु की अंगुली छोटी हो, सूर्य की अंगुली टेढ़ी हो, हृदय रेखा में दोष व मस्तिष्क रेखा को जब बारीक-बारीक रेखाएं काटती हों तो भी ऐसे लोग बोलने की कला नहीं जानते केवल बोलना ही जानते हैं। 6. हृदय रेखा से मोटी शाखाएं नीचे की तरफ मस्तिष्क रेखा को काटे, जीवन रेखा में दोष, चंद्र रेखाओं में द्वीप हो तो ऐसे लोग किसी को अपनी वाक् शैली द्वारा प्रभावित नहीं कर पाते हैं। 7. जोड़ लंबा हो (जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा का), सूर्य क्षेत्र व बुध क्षेत्र में कट-फट हो, सूर्य की उंगली टेढ़ी हो, अंगूठा हथेली की तरफ हो, ऐसे लोगों के सूर्य, बुध, शनि भी उत्तम न हो तो ऐसे लोग अपनी साधारण शैली में ही अपनी बात कह पाते हैं, इनकी बोली में कोई आकर्षण नहीं होता है। 8. भाग्य रेखा में द्वीप हो, भाग्य रेखा मस्तिष्क रेखा पर रूके, मस्तिष्क रेखा में कोई शाखा न हो और उसमें दोष हो, हाथ का रंग काला हो, हाथ में मोटी रेखाओं का दोष हो (जाल हो) ऐसे मनुष्य दूसरों से तो प्रभावित हो जाते हैं पर खुद प्रभावित करने की कला नहीं जानते हैं। 9. अंगूठा छोटा, मोटा हो, अंगुलियां मोटी हों तो भी साधारण बोलने की आदत होती है। 10. सूर्य ग्रह दबा हो, शनि की स्थिति व बुध ग्रह की स्थिति भी ठीक न हो तो ऐसे लोग आत्म विश्वास व मानसिक तनाव की वजह से अपनी बात को कलात्मक रूप से प्रगट करने में असमर्थ होते हैं। बोलने की कला में सिद्धहस्त लोगों के हाथों के कुछ लक्षण 1. सूर्य, बुध व शनि ग्रह उत्तम हों, सूर्य रेखा मस्तिष्क रेखा को चीरकर चली जाये, अंगुलियां पतली व सीधी हों, मस्तिष्क रेखा द्विभाजित हो, भाग्य रेखा सीधे शनि क्षेत्र पर जाती हो, मस्तिष्क रेखा व जीवन रेखा में कोई बड़ा दोष न हो तो ऐसे लोगों की वाणी सम्मोहन का कार्य करती है, बरबस अपनी ओर लोगों का ध्यान खींच लेते हैं। 2. मस्तिष्क रेखा दोहरी हो, अंगूठा लंबा व पीछे की तरफ हो, अंगुलियां पतली व छोटी हों, गुरु ग्रह व गुरु की उंगली सूर्य से लंबी हो, जीवन रेखा साफ हो तो ऐसे लोगों की भाषा पर काफी पकड़ होती है। ये भाषण देने में माहिर होते हैं। 3. हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा में कोई दोष न हो, बुध की अंगुली टेढ़ी हो (थोड़ी सी), सूर्य रेखा डबल या साफ सुथरी हो, मस्तिष्क रेखा मंगल तक जाती हो, जीवन रेखा में कोई जोड़ न हो, सूर्य ग्रह व बुध ग्रह उन्नत हो तो भी ऐसे लोगों की बोलने की कला बहुत सम्मोहक होती है। 4. शनि और सूर्य की उंगली का आधार बराबर हो नीचे से, जीवन रेखा के साथ मंगल रेखा हो, हाथ का रंग साफ हो, हाथ भारी हो, अंगुलियां पतली हों, गुरु, सूर्य व बुध ग्रह ठीक हांे- ऐसे लोग अपनी भाषा शैली से सभी को प्रभावित करने वाले व घुमावदार जीवन शैली के लिए होते हैं। 5. अंगूठा लंबा हो, गुरु की अंगुली सूर्य की अंगुली से लंबी हो, हृदय रेखा साफ-सुथरी हो, मस्तिष्क रेखा शुरू व अंत में विभाजित हो, चंद्र उठा हो, अन्य ग्रह भी ठीक हों, हाथ भारी हो तो भी ऐसे लोगों की वाणी सम्मोहन का कार्य करती है- इनमें भाषा व बोलने की कला का अच्छा ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई लक्षण हैं जो हमारी बोलने की कला को प्रभावित करते हैं। कुछ दोषों व ग्रहों का निवारण करके हम बोलने की थोड़ी बहुत कमी को सफलता पूर्वक उपाय करवा कर दूर कर सकते हैं।

हस्तरेखा और विवाह मिलाप

हस्त रेखा के नियम और संयोग विवाह मिलाप करने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। संपूर्ण हाथ का अध्ययन, पर्वत, चिह्न एवं रेखाओं का विष्लेषण वर एवं कन्या के विवाह मिलाप में सहायक होते हैं। इसके माध्यम से उन दोनों के शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक व्यक्तित्व पर विचार करके उनके व्यावहारिक और व्यावसायिक योग्यताएं, उनके स्वास्थ्य एवं आयु गणना पर विचार किया जा सकता है। एक सुखमय एवं सुखद वैवाहिक जीवन के लिये निम्न तथ्यों पर विचार आवष्यक है- 1. वर-कन्या के स्वभाव एवं चरित्र अनुकूलता। 2. व्यावसायिक योग्यता एवं स्थिरता 3. अनुकूल शारीरिक आकर्षण एवं क्षमता 4. वर-कन्या में उत्तम संतान योग 5. तलाक स्थिति के योग न होना 6. उत्तम स्वास्थ्य के योग 7. वर कन्या के उत्तम आयु योग इन तथ्यों का विस्तार में विवेचन वर कन्या के सफल वैवाहिक जीवन का मार्गदर्षन देते हैं। 1. वर-कन्या के स्वभाव एवं चरित्र अनुकूलता प्रत्येक व्यक्ति में सकारात्मक एवं नकारात्मक गुण होते हैं। वर-कन्या में नकारात्मक गुणों की अधिकता होने के कारण वैवाहिक जीवन असफल हो सकता है। अतः आवष्यक है कि दोनों के स्वभाव का विष्लेषण किया जाये और उनके मानसिक अनुकूलता का निर्णय किया जाये। जितने अधिक अच्छे संयोग, उतना ही उत्तम मिलाप। अच्छे संयोग 1. आदर्ष एवं उत्तम विकसित हृदय रेखा। 2. उत्तम विकसित जीवन रेखा। 3. शुक्र वलय का केवल प्रारंभ एवं अंत में बनना। 4. हृदय रेखा का बृहस्पति पर्वत पर समाप्त होना। 5. उत्तम विकसित शुक्र पर्वत एवं बृहस्पति पर्वत। 6. जीवन रेखा एवं मस्तिष्क रेखा के बीच सामान्य दूरी। 7. उत्तम विकसित विवाह रेखा नकारात्मक संयोग 1. छोटी एवं हल्की हृदय रेखा 2. मंगल पर्वत का अत्यधिक विकसित होना तथा मंगल पर्वत पर दोषपूर्ण चिह्न। 3. कम विकसित चंद्र, शुक्र एवं बृहस्पति पर्वत। 4. जंजीरदार हृदय रेखा 5. असामान्य जीवन रेखा 6. दोषपूर्ण विवाह रेखा वर-कन्या के हाथों में सकारात्मक संयोग भावनात्मक, मार्मिक एवं महत्वाकांक्षी स्वभाव को दर्षाते हैं। दोनों स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त मन के होते हैं। दूसरी ओर नकारात्मक संयोग प्रबल एवं अहंकारी स्वभाव को दर्षाते हैं। वे जीवन के प्रति उदासीन एवं निराषावादी दृष्टिकोण रखते हैं। अतः यह आवष्यक है कि वर-कन्या के अनुकूल गुणों को संतुलित करके विवाह मिलान उचित है। 2. वर-कन्या की व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता उत्तम स्वभाव एवं मनोवैज्ञानिक विषेषताओं के साथ इस भौतिक संसार में सुखी रहने के लिये व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता भी आवष्यक है। कई बार पति-पत्नी में मतभेद आर्थिक अस्थिरता के कारण उत्पन्न हो जाते हैं। अतः विवाह मिलान इस प्रकार किया जाना चाहिये कि वर-कन्या के जीवन में आर्थिक स्थिति अनुकूल रहे तथा कभी जीवन में आर्थिक समस्याओं का सामना भी करना पड़े तो दोनों में फिर से आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति हो। अनुकूल गुण 1. उत्तम विकसित भाग्य रेखा एवं सूर्य रेखा। 2. उत्तम बृहस्पति एवं सूर्य पर्वत 3. विस्तृत हथेली 4. बृहस्पति पर्वत पर समाप्त होती एक भाग्य रेखा। 5. हथेली एवं रेखाओं पर शुभ चिह्न 6. उत्तम मस्तिष्क एवं जीवन रेखा अनुकूलता एवं यौन संबंध जान सकते हैं। उत्तम अनुकूलता द्वारा वे अपने रोमांटिक इच्छाओं को बढ़ा सकते हैं, अच्छे संबंध बना सकते हैं और एक सुखी वैवाहिक जीवन का आनंद ले सकते हैं। दूसरी ओर शारीरिक और यौन अयोग्यता या यौन संबंध में निर्दयी स्वभाव वैवाहिक जीवन में दरार डाल देती है। अतः बहुत निपूणता से यह विवाह मिलान करना आवष्यक है। अनुकूल गुण 1. उत्तम विकसित हृदय रेखा 2. उत्तम विकसित षुक्र एवं चंद्र पर्वत 3. उत्तम विकसित अंगूठे का तीसरा पर्व 4. उत्तम उभार लिये मंगल पर्वत 5. गहरी व गुलाबी विवाह रेखा चित्र संख्या 1.2 नकारात्मक संयोग चित्र संख्या 2.1 अनुकुल गुण नकारात्मक गुण 1. टूटी हुई अथवा जंजीरदार भाग्य रेखा। 2. कम विकसित बुध एवं बृहस्पति पर्वत। 3. कमजोर भाग्य एवं सूर्य रेखा 4. भाग्य रेखा पर नकारात्मक चिह्न 5. भाग्य रेखा से निकलती निचली रेखायें 6. कमजोर जीवन रेखा चित्र 2.2 नकारात्मक गुण वर-कन्या के वैवाहिक जीवन में व्यावसायिक एवं आर्थिक स्थिरता के लिये ऊपर दिये गये संयोगों का मिलान आवष्यक है। 3. उत्तम शारीरिक अनुकूलता हथेली के विष्लेषण द्वारा वर-कन्या के विवाह उपरांत उत्तम शारीरिक चित्र 3.1 अनुकूल गुण नकारात्मक गुण 1. हृदय रेखा पर काले चिह्न 2. बुध रेखा या यकृत रेखा का समाप्ति पर द्विषाखित होना नपुंसक योग बनाता है। 3. मस्तिष्क रेखा एवं जीवन रेखा में अत्यधिक दूरी 4. हाथ का निचला क्षेत्र अत्यधिक विकसित 5. मंगल प्रधान व्यक्तित्व और दोश्पूर्ण मंगल पर्वत 6. अत्यधिक विकसित शुक्र पर्वत एवं मंगल पर्वत के कारण अलग करता है। 3. विवाह रेखा को काटती हुई रेखा तलाक देती है। 4. विवाह रेखा का प्रारम्भ एवं अन्त में द्विमुखी होना कुछ समय के लिये अलग करता है। चित्र 3.2 नाकारात्मक गुण 4. वर-कन्या में उत्तम संतान योग विवाह के पवित्र रिश्ते में बंधने के उपरान्त वर-कन्या सन्तान के इच्छुक हो जाते हैं। ऐसे में दोनों के हाथों में सन्तान होने के योग आवश्यक होते हैं। कन्या के हाथ में संतान योग अत्यधिक शुभ होने चाहिए क्योंकि एक स्त्री संतान को नौ महीने तक गर्भ धारण करके एक स्वस्थ्य बालक को जन्म देना होता है। अनुकूल गुण 1. अंगूठे के आधार पर परिवार मुद्रिका 2. विवाह रेखा के ऊपर पाई जाने वाली सीधी रेखाएं 3. उत्तम विकसित बुध की उंगली 4. उत्तम विकसित शुक्र पर्वत 5. उत्तम विकसित अंगूठे का तीसरा पर्वत 6. उत्तम विकसित हृदय रेखा नकारात्मक गुण 1. छोटी हृदय रेखा 2. कम उभरा हुआ शुक्र पर्वत एवं गुरु पर्वत 3. विवाह रेखा के ऊपर क्राॅस 4. जिस स्थान पर मस्तिष्क रेखा बुध रेखा को काटती है वहां तारा होना 5.तलाक स्थिति के योग न हो तलाक विवाह के सम्बन्ध का कानूनी भंग है जब दोनों जीवनसाथी साथ रहकर एक स्वस्थ सम्बन्ध नहीं निभा पाते हैं। अतः विवाह मिलाप करते समय वर-कन्या के हाथ में इस बात की जाँच अवश्य की जाये कि उनके स्वस्थ सम्बन्ध बनेंगे या नहीं क्योंकि तलाक एक दर्दनाक घटना है। तलाक अथवा कुछ समय के लिए अलग होने के योग 1. विवाह रेखा का अंत में द्विशाखित होना कुछ समय के लिये अलग करता है। 2. शुक्र पर्वत पर जाल अथवा काटती हुई रेखाएं शारीरिक कम के कारण अलग करता है। 3. विवाह रेखा को काटती हुई रेखा तलाक देती है। 4. विवाह रेखा का प्रारम्भ एवं अन्त में द्विमुखी होना कुछ समय के लिये अलग करता है। 6. विवाह योग्य वर-कन्या का उत्तम स्वास्थ्य व्यक्ति प्रायः अपने दैनिक जीवन में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का सामना करता है। इन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कुछ कारण हैं दुर्बल गठन, जीवन शक्ति की कमी, नेत्र समस्याएं, दुर्बल पाचन शक्ति इत्यादि। ये समस्याएं व्यक्ति को मानसिक रूप से भी कमजोर बनाती हैं और उसके वैवाहिक जीवन की ऊर्जा और उत्तेजना कम हो जाती है। ऐसे में अनेक वैवाहिक सम्बन्ध खराब हो जाते हैं। अतः वर-कन्या के वैवाहिक जीवन का मिलाप करते वक्त इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि उन दोनों का उत्तम स्वास्थ्य एवं अच्छा शारीरिक गठन है। अनुकूल योग 1. उत्तम विकसित जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा 2. बुध रेखा का न होना और होना तो उत्तम विकसित होना। 3. उत्तम विकसित मंगल रेखा 4. जीवन रेखा से ऊपर की ओर निकलती रेखायें 5. जीवन रेखा एवं मस्तिष्क रेखा का प्रारम्भ में उत्तम विकसित होना 6. उत्तम भाग्य रेखा 7. स्वस्थ नाखून नकारात्मक गुण 1. कमजोर जीवन रेखा 2. टूटी हुई बुध रेखा 3. कमजोर मस्तिष्क एवं हृदय रेखा 4. प्रारम्भ से जंजीरदार मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा 5. जीवन रेखा से नीचे की ओर जाती रेखाए 6. कमजोर नाखून 7. वर-कन्या की पूर्ण आयु विवाह योग्य वर-कन्या के लिये एक उत्तम एवं पूर्ण आयु वैवाहिक जीवन को लम्बे समय तक निभाने के लिए आवश्यक है। यदि दोनों के भाग्य में पूर्ण आयु का योग न हो तो एक लम्बे समय तक वैवाहिक सुख नहीं प्राप्त कर सकते। अनुकूल गुण 1. पूर्ण गोलाई लिये हुये एक अच्छी एवं लम्बी जीवन रेखा 2. उत्तम विकसित बुध रेखा 3. पूर्ण मणिबन्ध 4. उत्तम मस्तिष्क व हृदय रेखा 5. पूर्ण विकसित बुध की रेखा 6. उत्तम विकसित मंगल रेखा नकारात्मक योग 1. जीवन रेखा का दोनों हाथों में कम आयु में टूटना 2. जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा एवं हृदय रेखा का प्रारम्भ में जुड़ना तथा जीवन रेखा का टूटना 3. बुध की रेखा का कम आयु में जीवन रेखा से मिलना तथा जीवन रेखा का टूटना 4. विवाह रेखा का टूटना विवाह योग्य वर-कन्या का विवाह-मिलान एक सफल सम्बन्ध तथा एक स्वस्थ एवं सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन की ओर संकेत करता है। हाथों पर पाये जाने वाले संयोग एवं संकेत विवाह मिलाप करने में सहायक हैं तथा वर-कन्या को आपस में अनुकूल बनाते हुये विवाह एवं जीवन को सफल यात्रा की ओर ले जाते हैं।

कुछ उपायों से बदली जा सकती है हस्तरेखा

हस्तरेखाओं से यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति को किस दिशा में प्रयास करना चााहिए कि उसकी आय के स्रोत सदैव खुले रहें, वह प्रगतिशील रहे और उसके कार्यों में कोई बाधा न आए। किंतु कई बार व्यक्ति ऐसा पेशा, व्यापार या नौकरी अपना लेता है जिससे वह अत्यंत मेहनत करने के पश्चात भी जीवन स्तर की सुधार नहीं पाता है। यहां हथेलियों में पाए जाने वाले अपूर्ण या दुष्प्रभाव वाले चिह्नों को शुभ चिह्नों में बदलने के उपायों का वर्णन प्रस्तुत है। - प्रशासनिक क्षेत्र में जाने या नौकरी में पदोन्नति के लिए आवश्यक है कि सूर्य पर्वत उभरा हुआ हो तथा उस पर गहरी रेखा हो जो मस्तिष्क रेखा से मिल रही हो। किंतु यदि इसका अभाव हो तो इस क्षेत्र में उन्नति के लिए निम्न उपाय करने चाहिए। - जल में सिंदूर या कुमकुम मिलाकर सूर्य को चढ़ाएं। उगते हुए सूर्य के दर्शन अवश्य करें। और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। यदि विवाह रेखा दोषपूर्ण हो अपूर्ण या इसकी संख्या दो से अधिक हो और इस कारण विवाह में विलंब रहा हो तो केले के वृक्ष की परिक्रमा करें या बंदरों को केला खिलाएं अथवा हाथों की आठों अंगुलियों के नाखून काट कर कर्पूर के माध्यम से उन्हें जला लें और उसमें हल्दी मिला कर दोनों हाथों की मुठ्ठियों में जो से भींच लें। यह प्रयोग गुरुवार को गोधूलि बेला में। सूर्य की साक्षी में करें और मुठ्ठियाँ तब तक भींचे रखें जब तक कि अंधेरा न हो जाए। फिर वह राख फेंक दें। यदि शनि पर्वत या शनि रेखा के कारण कोई कार्य बिगड़ रहा हो तो शनिवार की रात किसी स्थान पर किसी भी तेल की ग्यारह बिंदिया लगाकर उस पर काला आसन बिछाकर पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके बैठें और अंधेरे में शनि मंत्र का जप करें। यदि समस्या न्यायालय से संबंधित हो तो आसन के नीचे लोहे का सिक्का भी रख लें। सिक्के को साथ में न्यायालय भी ले जाएं। यदि हस्तरेखाएं स्पष्ट न हों, पर्वतों के उभार सही नहीं हों तो घर में पिरामिड या स्फटिक श्री यंत्र की स्थापना और पूजन करें, लाभ होगा। नियमित मौन रखने से भी हस्त रेखाओं में शीघ्र अनुकूल बदलाव आते हैं। जीवन रेखा को गहरा और वृहद बनाने तथा दोषपूर्ण स्थिति मिटाने के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप है। प्राणायम और योगासान से हृदय रेखा प्रभावित होती है। यदि हृदय रेखा जालीदार, टूटी हुई और छोटी हो तो सुबह शाम प्राणायाम करें, अत्यंत लाभ होगा।

धन आने में रुकावट....जाने हाथ की रेखाओं से....

धन आगमन में रुकावटों का कारण होता है मनुष्य का हाथ अर्थात हाथों की लकीरें और हाथांे में स्थित निर्धनता के योग। आइये जानें इन रुकावटों का क्या संबंध है हाथों से: - भाग्य रेखा देर से शुरू हो रही हो, भाग्य रेखा मोटी और मस्तिष्क रेखा पर रुक गयी हो तथा हाथ में बहुत ही कम रेखाएं हों तो जीवन में कठिन संघर्ष करना पड़ता है, साथ ही कामकाज गति नहीं पकड़ पाता। - हाथ बहुत भारी न हो, सख्त हो और शनि ग्रह दबा हुआ हो तो अनियमित रोजगार, जीवन में संघर्ष और प्रत्येक काम रुक-रुक कर चलने के संकेत हैं। - शुक्र ग्रह का उठा हुआ होना, शनि ग्रह का दबा हुआ होना, गुरु की उंगली का छोटा होना और भाग्यरेखा का दूषित होना काम-काज में व्यवधान, अनियमित रोजगार और आर्थिक हानि होने के प्रबल संकेत हैं। - दोनों हाथों में जीवन रेखा सीधी हो, भाग्य रेखा दूषित हो और शनि ग्रह अत्यंत खराब हो तो आर्थिक नुकसान और रोजगार अनियमित रहने के संकेत हैं। - हृदय रेखा से कोई रेखा निकल कर या हृदय रेखा की शाखा मस्तिष्क रेखा को काट रही हो, साथ ही गुरु की उंगली छोटी हो तो ऐसे व्यक्तियों के धनागमन के मार्ग में बाधाएं आती हैं। - जीवन रेखा और मस्तिष्क रेखा बहुत आगे तक जाकर जुड़ रही हों, साथ ही शनि, सूर्य तथा बुध ग्रह भी दबे हुए हों तो ऐसे जातकों के रोजगार गति नहीं पकड़ पाते, कोई भी व्यवसाय नियमित नहीं चल पाता। - हाथ सख्त हो और पतला हो, गुरु की उंगली छोटी हो और उंगलियों में छिद्र हों तो ये दोषपूर्ण योग हैं। इनके कारण धन के संघर्ष, अस्थिर व्यवसाय एवं आर्थिक रुकावटें बनी रहती हैं। - चमसाकार हाथ में भाग्य रेखा दोषपूर्ण हो, उंगलियों में छेद हों और शनि ग्रह की स्थिति अत्यंत कमजोर हो तो पूरा जीवन संघर्षमय रहेगा, खासकर नौकरी एवं व्यवसाय में रुकावटें आती रहेंगी। - अत्यंत चैड़ी भाग्य रेखा से छोटी-छोटी शाखाएं निकलकर नीचे की ओर जा रही हों तो यह दिवाला योग का प्रबल संकेत है। - शनि ग्रह और बुध ग्रह अत्यंत कमजोर हों, शनि की उंगली भी ठीक न हो तो धनप्राप्ति के मार्ग में रुकावट आती है। - मंगल रेखा, जीवन रेखा और भाग्य रेखा को यदि कई आड़ी-तिरछी रेखाएं काट रही हों तो सभी कामों में रुकावट आती हैं, खासकर आर्थिक क्षेत्र में बाधाएं आती हैं। - दूषित भाग्य रेखा से अधोगामी रेखाएं निकल रहीं हों और शुक्र से निकलने वाली रेखाएं जीवन रेखा को काट रही हों तो आर्थिक हानि होती है और व्यवसाय में रुकावटें आती हैं।

हिन्दू मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार

अनादि काल से ही हिंदू धर्म में अनेक प्रकार की मान्यताओं का समावेश रहा है। विचारों की प्रखरता एवं विद्वानों के निरंतर चिंतन से मान्यताओं व आस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। क्या इन मान्यताओं व आस्थाओं का कुछ वैज्ञानिक आधार भी है? यह प्रश्न बारंबार बुद्धिजीवी पाठकों के मन को कचोटता है। धर्मग्रंथों को उद्धृत करके‘ ‘बाबावाक्य प्रमाणम्’ कहने का युग अब समाप्त हो गया है। धार्मिक मान्यताओं पर सम्यक् चिंतन करना आज के युग की अत्यंत आवश्यक पुकार हो चुकी है। प्रश्न: माला का प्रयोग क्यों करते हैं? उत्तर: माला एक पवित्र वस्तु है जो‘ शुचि संज्ञक’ वस्तुओं से बनाई जाती है। इसमें 108 मनके होते हैं जिससे साधक को अनुष्ठान संबंधी जप- मंत्र की संख्या का ध्यान रहता है। अंगिरा स्मृति में कहा है- ‘‘असंख्या तु यज्जप्तं, तत्सर्वं निष्फलं भवेत्।’’ अर्थात बिना माला के संख्याहीन जप जो होते हैं, वे सब निष्फल होते हैं। विविध प्रकार की मालाओं से विविध प्रकार के लाभ होते हैं। अंगुष्ठ और अंगुली के संघर्ष से एक विलक्षण विद्युत उत्पन्न होगी, जो धमनी के तार द्वारा सीधी हृदय चक्र को प्रभावित करेगी, डोलता हुआ मन इससे निश्चल हो जायेगा। प्रश्न: माला जप मध्यमांगुली से क्यों? उत्तर: मध्यमा अंगुली की धमनी का हृत्प्रदेश से सीधा संबंध है। हृदयस्थल में ही आत्मा का निवास है। आत्मा का माला से सीधा संबंध जोड़ने के लिये माला का मनका मध्यमा अंगुली की सहायता से फिराया जाता है। प्रश्न: माला में 108 दाने क्यों? उत्तर: माला का क्रम नक्षत्रों के हिसाब से रखा गया है। भारतीय ऋषियों ने कुल 27 नक्षत्रों की खोज की। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। 27 ग् 4 = 108 । अतः कुल मिलाकर 108 की संख्या तय की गई है। यह संख्या परम पवित्र व सिद्धिदायक मानी गई। तत्पश्चात् हिंदू धर्म के धर्माचार्यों, जगद्गुरुओं के आगे भी ‘श्री 108’ की संख्याएं सम्मान में लगाई जाने लगीं। प्रश्न: माला कंठी गले में क्यांे? उत्तर: मौलाना भी अपने गले में तस्बी लटकाते हैं। ईसाई पादरी भी ईशु मसीह का क्राॅस गले में लटकाते हैं। अतः अपने इष्ट वस्तुओं को गले में धारण करने की धार्मिक परंपरा हिंदुओं में भी है। ओष्ठ व जिह्ना को हिलाकर उपांशु जप करने वाले साधकों की कंठ धमनियों को अधिक प्ररिश्रम करना पड़ता है। यह साधक कहीं गलगण्ड, कंठमाला आदि रोगों से पीड़ित न हो जाय, उस खतरे से बचने के लिये तुलसी, रुद्राक्ष आदि दिव्य औषधियों की माला धारण की जाती है। हिंदू सनातन धर्म में केवल मंत्र संख्या जानने तक ही माला का महत्त्व सीमित है। महर्षियों ने इसके आगे खोज की तथा विभिन्न रत्न औषधि व दिव्यवृक्षों के महत्त्व, उपादेयता को जानकर उनकी मालाएं धारण करने की व्यवस्थाएं इस प्रकार से दी हैं। ‘तन्त्रसार’ के अनुसार 1. कमलाक्ष (कमलगट्टे) की माला शत्रु का नाश करती है, कुश ग्रन्थि से बनी माला पाप दूर करती है। 2. जीयापीता (जीवपुत्र) की माला, संतानगोपाल आदि मंत्रों के साथ जपने से पुत्र लाभ देती है। 3. मूंगे (प्रवाल) की माला धन देती है। 4. रुद्राक्ष की माला महामृत्युंजय मंत्र के साथ जपने से रोगों का नाश करके दीर्घायु देती है। 5. विघ्न-निवृत्ति हेतु, शत्रु-नाश में हरिद्रा की माला। 6. मारण व तामसी कार्यों में सर्प के हड्डी की माला, आकर्षण एवं विद्या हेतु स्फटिक माला। 7. श्री कृष्ण व विष्णु की प्रसन्नता हेतु तुलसी एवं शंख की माला प्रशस्त है। 8. वैसे व्याघ्रनख, चांदी, सोने, तांबे के सिक्के से सन्निवेश डोरा बच्चों को नजर-टोकार एवं बहुत सी संक्रामक बीमारियों से बचाता है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार

तीसरा संस्कार ‘सीमन्तोन्नयन’ है। गर्भिणी स्त्री के मन को सन्तुष्ट और अरोग रखने तथा गर्भ की स्थिति को स्थायी एवं उत्तरोत्तर उत्कृष्ट बनते जाने की शुभाकांक्षा-सहित यह संस्कार किया जाता है। समय-पुंसवन वत् प्रथमगर्भे षष्ठेऽष्टमेवा मासे अर्थात् प्रथम गर्भ स्थिति से 6 ठे या आठवें महीने यह संस्कार किया जाता है। कोई इसे प्रथम गर्भ का ही संस्कार मानते हैं, कोई इसे अन्य गर्भों में कर्तव्य मानते हैं, परन्तु उनके मत में 6 ठे या 8 वें महीने का नियम नहीं है। ‘सीमन्तोन्नयन’ शब्द का अर्थ है ‘स्त्रियों के सिर की मांग’। यह एक साधारण प्रथा है कि सौभाग्यवती स्त्रियां ही मांग भरती है। यह उनकी प्रसन्नता, संतुष्टि आदि का सूचक है। यहां पति अपने हाथ से पत्नी के बाल संवार कर मांग में सिंदूर दान करता है। चरक में लिखा हैः- ‘सा यद्यदिच्छेत्ततदस्य दद्यादन्यत्र गर्भापघातकरेभ्यो भावेभ्यः’। अर्थात् गर्भवती स्त्री, गर्भविनष्ट करने वाली वस्तुओं को छोड़कर जो भी कुछ मांगे वह देना चाहिए। ‘‘सौमनस्यं गर्भधारकारणम्।’’ लब्धदौहृदा तु वीर्यवन्तं चिरायुषं च पुत्रं प्रसूते। गर्भवती स्त्री को प्रसन्न रखना चाहिए। उसकी इच्छा पूरी होने से सन्तान वीर्यवती और दीर्घायु होती है। संकल्प सीमन्तोन्नयन संस्कार के दिन यजमान पत्नीसहित मंगल द्रव्ययुत जल से स्नान कर चीरेदार दो शुद्ध वस्त्र धारण कर शुभासन पर बैठकर आचमन प्राणायाम कर निम्नलिखित संकल्प पढ़ेः- (देष-काल का कीर्तन कर) अस्याः मम भार्यायाः गर्भा- तदा चास्य चेतना प्रव्यक्ता भवति। ततष्च प्रभृति स्पन्दते, अभिलाषं पंचेन्द्रियार्थेषु करोति। मातजं चास्य हृदयं तद्रसहारिणीभिः धमनीभिः मातृहृदयेनाभिसम्बद्धं भवति। तस्मात्तयोस्ताभिः श्रद्धा सम्पद्यते। तथा च दौहृद्यां ‘नारी दोहृदिनी’ त्याचक्षते। अर्थात् गर्भस्थ जीव को चेतना (इच्छा) चैथे महीने में स्पष्ट होने लगती है। उस समय गर्भ का स्पन्दन आरम्भ होता है। पांचों इन्द्रियों के विषय में वह इच्छा करने लगता है। इस गर्भ का हृदय माता के बीज-भाग के हृदय के साथ जुड़ा होता है। इसलिए दोनों में एक समान इच्छा होती है और अब दो हृदयों के कारण स्त्री को दो हृदिनी कहने लगते हैं। सा प्राप्तदौहृदा पुत्रं जनयेत् गुणान्वितम्। अलब्धादौहृदा गर्भं लभेतात्मनि वा भयम्।। अर्थात् दोहृद पूरा न होने पर गर्भ या माता के जीवन को भय रहता है। आठवें महीने में अष्टमेऽस्थिरी भवति ओजः। तत्र जातष्चेन्न जीवेन्निरोजस्त्वात्। नैर्ऋतभागत्वाच्च वयवेभ्यस्तेजोवृद्धयर्थं क्षेत्रगर्भयोः संस्कारार्थं गर्भसमद्भवैनो निबर्हणपुरस्सरं श्रीपरमेष्वरप्रीत्यर्थं सीमन्तोन्नयनाख्यं संस्कारकर्म करिष्ये। तत्र निर्विघ्नार्थं गणपतिपूजनं, स्वस्तिपुष्याहवाचनं मातृकानवग्रहादिपूजनं यथाषक्ति सांकल्पिकं नान्दीश्राद्धं होमं च करिष्ये। सामान्य विधि संकल्प पढ़ने के पश्चात् स्वस्तिवाचनादि सामान्य विधि प्रकरण में उक्त रीति से सम्पन्न करे और अन्त में कुषकण्डिका समेत विस्तृत होम विधि करे। विशेष विधि तत्र विषेषः पात्रासदने। आज्यभागान्तरं तुण्डलतिलमुद्गानां क्रमेण पृथगासादनम्। उपकल्पनीयानि मृदुपीठं, युग्मान्योदुम्बरफलानि एकस्तबक निबद्धानि, त्रयोदर्भपिंजूलाः,त्रयेणी शलली, वीरतरुषंकुः, शरेषीका आष्वत्त्थो वा शंकुः पूर्णं चात्रं, वीणागाथिनौ चेति। आज्यमधिश्रित्य चरुस्थाल्यां मुद्गान् प्रक्षिप्याधिश्रित्य ईषच्छृतेषु मुद्गेषु तिलतण्डुलप्रक्षेपं कृत्वा पर्यग्निकरणं कुर्यात्। आठवें महीने में अभी ओज अस्थिर होता है। इस मास में उत्पन्न सन्तान प्रायः जीती नहीं। ओज का दूसरा नाम वीर्य है। यह ओज आठवें मास में अस्थिर रहता है- कभी माता में कभी सन्तान में जाता-आता रहता है। इसलिए इस महीने को ‘नगण्य’ (गिनती में न लाने योग्य) कहते हैं। इस ओज को बढ़ाने के लिए माता को प्रसन्न रखना आवष्यक है। इन्हीं कारणों से गर्भवती पत्नी को विषेषतः प्रसन्न रखने के लिए और उसमें प्रसन्न रहने की धारणा को पुष्ट करने के लिए इस संस्कार का समय गर्भ का चैथा व आठवां मास नियत है। इन मासों में जब चन्द्रमा पुनर्वसु, पुष्य आदि पुल्लिंग नक्षत्रों से युक्त हो तब इस संस्कार को करें। इस संस्कार की कुषकण्डिका में विषेष बात यह है कि दूसरी सब वस्तुओं के साथ आज्य के पश्चात् चावल, तिल, मूंग को क्रमषः अलग-अलग रखें और कोमलासन सहित पटड़ा (भद्रपीठ), एक गुच्छे में बन्धे गूलर फलों के जोड़े, कुषाओं की तीन पिंजूलि, तीन स्थान पर श्वेत सेही का एक कांटा, अर्जुन या पीपल की एक खूंटी, पीले सूत से भरा तकुआ और दो वीणावादक। घृत को पकने के पश्चात् चरु (सामग्री) पात्र में मूंग डालकर उनको पकायें, कुछ पक जाने पर उनमें तिल-चावल मिलायंे और घृत की भांति इसमें भी जलते हुए तृण को घूमाकर रखें। (पर्यग्निकरण) कुशकण्डिका के पश्चात् होम विधि प्रारम्भ करंे। होम विधि में स्विष्टकृति आहुति के पश्चात् पूर्वसिद्ध स्थालीपाक (खिचड़ी) की आहुति निम्न मन्त्र से देंः- ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं निर्वपामि ऊँ प्रजापतये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि। फिर महा व्याहृति आदि प्राजापत्य आहुति पर्यन्त आहुतियां शेष स्थालीपाक से दे। पश्चात् बर्हिहोम पर्यन्त होमविधि सम्पूर्ण करें। सीमन्तोन्नयन इसके पश्चात् स्नाता एवं शुद्ध वस्त्रा, गर्भिणी पत्नी को, अग्नि के पष्चिम भाग में, एकान्त में अथवा संस्कार भूमि पर ही एक ओर पटड़े पर कोमल आसन बिछाकर बिठायें और उसके पीछे बैठकर तेरह-तेरह कुओं की तीन पिंजुली, तीन स्थान में श्वेत सेही का एक कांटा, पीला सूत लिपटे लोहे का तकुवा और तीक्ष्ण अग्रभाग समेत बिलस्त भर काठ की एक घूंटी’ और बिल्व इन पांचों से एक साथ पत्नी के सिर का विनयन करें अर्थात् फल स्वच्छ कर, पट्टी निकाल पीछे की ओर सुन्दर जूड़ा बांधे। मांग करते समय निम्न मन्त्रभाग का पाठ करेंः- ऊँ भूर्विनयामि। ऊँ भुवर्विनयामि। ऊँ स्व र्विनयामि। पश्चात् निम्न मन्त्र का पाठ करता हुआ बाल संवारने की पांचों वस्तुओं को जूड़े में ही बांध देंः- ऊँ अयमूर्जावतो वृक्ष ऊर्जीव फलिनी भव पष्चात् वीणावादक निम्नलिखित मन्त्र का गान करेंः- ऊँ सोम एव ते राजेमा मानुषीः प्रजाः। अविमुक्तचक्र आसीरंस्तीरे तुभ्यम्......... पश्चात् अन्य वामदेव्य गान आदि गान करें। अब अभ्यागत ब्राह्मणादि का दक्षिणा भोजनादि से सत्कार कर, आषीर्वाद ग्रहण कर, देवगणों का विसर्जन करें। तदन्तर स्रुवा मूल द्वारा कुण्ड में से भस्म लेकर विधि पूर्वक भस्म धारण और आरती आदि करें।

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Friday, 18 March 2016

देवी पाठ विधि

जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम गं्रथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ ह।ै 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। 'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है। प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु। उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगााणां शतद्वयम्॥ मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के। विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥ एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥ तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥ अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं। दुर्गा सप्तशती को सिद्ध कैसे करें- सामान्य विधि : नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं। वाकार विधि : यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है। संपुट पाठ विधि : किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है। सार्ध नवचण्डी विधि : इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है। शतचण्डी विधि : मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है। इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।

गणेश साधना से ग्रह शांति

बुद्धि के विशेष प्रतिनिधि होने से गणपति का महत्व काफी बढ़ जाता है। विभिन्न धार्मिक क्षेत्रों में गणपति के विषय में विस्तृत वर्णन किया गया है। तंत्रशास्त्रों में भी इनकी महिमा का वर्णन है। सनातन संस्कृति के अनुयायी बिना गणेश पूजन किये कोई शुभ व मांगलिक कार्य आरंभ नहीं करते। निश्चित ही वह अति विशिष्ट ही होगा जिसने तैंतीस करोड़ देवताओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। गणेश महात्म्य : त्रिपुरासुर के वध के लिए जिसकी स्वयं महेश यानि भगवान शिव करते हैं, महिषासुर के नाश के लिए जिसकी तपस्या स्वयं आदि शक्ति भगवती करती हैं, वह गणाध्यक्ष विनायक कोई भी कार्य संपादन का एक मात्र अधिष्ठाता होगा ही। प्रभु श्री विष्णु, रामावतार में विवाह प्रसंग के समय बड़े मनोभाव से भगवान गणेश की पूजा करते हैं तो माता पार्वती एवं बाबा भोले नाथ ने भी अपने विवाह से पहले श्री गणेश की सर्वप्रथम पूजा-अर्चना की। मानव में सात चक्र होते हैं जिसमें सबसे प्रथम है- मूलाधार चक्र। इस मूलाधार चक्र को भी गणेश चक्र के नाम से खयाति प्राप्त है। मूलाधार चक्र को शक्ति व ज्ञान की गति का अधिष्ठान बताया गया है। ऐसा ही विलक्षण दर्शन गणेश के चरित्र से प्राप्त होता है। इसलिए अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक परंब्रह्म, असाधारण प्रतिभावान यह गणपति ही हैं, विष्णु महाकैटभ के संहार और ब्रह्मा सृष्टि के कार्य सिद्धि लिए गणेश उपासना यूं ही नहीं करते। वस्तुतः प्राचीन उपासना क्रम में पंच देवोपासना का निर्देश मिलता है। इस उपासना भेद में भी श्री गणेश को अपना स्थान प्राप्त हुआ है। प्रातःकाल गणेश जी को श्वेत दूर्वा अर्पित करके घर से बाहर जायें। इससे आपको कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। घर के मुखय द्वार के ऊपर गणेश जी का चित्र या प्रतिमा इस प्रकार लगाएं कि उनका मुंह घर के भीतर की ओर रहे। इससे धन लाभ होगा। गणपति को दूर्वा और मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाकर श्री लक्ष्मी के चित्र के सामने शुद्ध घी का दीपक जलाएं कभी धनाभाव नहीं होगा। दुकान या व्ववसाय स्थल के उद्घाटन के समय चांदी की एक कटोरी में धनिया डालकर उसमें चांदी के लक्ष्मी गणेश की मूर्ति रख दें। फिर इस कटोरी को पूर्व दिशा में स्थापित करें। दुकान खोलते ही पांच अगरबत्ती से पूजन करने से व्यवसाय में उन्नति होती है। नित्य श्री गणेश जी की पूजा करके उनके मंत्र 'श्री गं गणपतये नमः' का जप करने से सभी प्रकार की परीक्षा में सफलता प्राप्त होती है। छात्रों को जो विषय कठिन लगता हो उस विषय की पुस्तक में गणेश जी का चित्र तथा दूर्वा रखने से वह विषय सरल लगने लगेगा। बुधवार का व्रत रखकर बुध स्तोत्र का पाठ करने से, गणेश जी को मूंग के लड्डू चढ़ाने से आजीविका की प्राप्ति शीघ्र होती है। रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र में श्वेत आक की जड़ लाकर उससे श्री गणेश जी की प्रतिमा बनायें। फिर उस पर सिंदूर और देशी घी के मिश्रण का लेप करके एक जनेऊ पहनाकर पूजा घर में स्थापित कर दें। तत्पश्चात इसके समक्ष श्री गणेश मंत्र की 11 माला का जप करें। आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। बुधवार के दिन श्री गणेश का पूजन करके गाय को घास खिलाने से सास के प्रति बहू का कटु व्यवहार दूर होता है। बुधवार के दिन श्री गणेश साधना करने से बुध ग्रह के दोष दूर होते हैं। गणेश चतुर्थी के दिन से श्री गणेश स्तोत्र का पाठ शुरू करके भगवान से प्रार्थना करने पर पिता-पुत्र के संबंधों में मधुरता आती है। एक सुपारी पर मौली लपेटकर उसे गणपति के रूप में स्थापित कर तत्पश्चात उसका पूजन करके घर से बाहर जायें। कार्यों में सफलता प्राप्त होगी। भगवान गणेश को नित्य प्रातःकाल लड्डू का भोग लगाने से धन लाभ का मार्ग प्रशस्त होता है।भगवान गणपति जी को बेसन के लड्डू का भोग लगाकर व्यवसाय स्थल पर जायें और कोई मीठा फल किसी मंदिर में चढ़ाएं। इससे धन-धान्य व सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।धनतेरस से दीपावली तक लगातार तीन दिन सायंकाल श्री गणेश स्तोत्र का पाठ करके गाय को हरा चारा (सब्जी-साग आदि) खिलायें। बाधायें -रूकावटें दूर होंगी। परीक्षा देने से पूर्व श्री गणेश मंत्र का 108 बार जप करें और गणपति को सफेद दूर्वा चढ़ायें। परीक्षा में निश्चय ही सफलता मिलेगी। घर में गणेश जी के प्रतिमा के सामने नित्य पूजन करने से धन मान और सुख की प्राप्ति होती है। प्रातः काल गणपति जी मंत्र का 21 दिनों में सवा लाख बार जप करने से सभी मनोकामना पूर्ण होंगी। इसीलिए गणपत्यऽथर्वशीर्ष में कहा गया है कि श्री गणेश भगवान आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव हो। आप ही अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्र हो। समस्त देवता, पंचतत्व, नवग्रह आदि सब कुछ आपका स्वरूप हैं। गणेश पुराण में वर्णित गणेशाष्टक को सिद्धि प्रदायक कहा गया है। निश्चित ही ऋद्धि-सिद्धि की सहजता से उपलब्धि गणेश तत्व से ही संभव है। ऋिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति कामनापूर्ति, संकटनाश, प्रेम प्राप्ति, मधुर दांपत्य जीवन, विघ्ननाश, आरोग्य आदि कोई भी ऐसी कामना नहीं है जो कि गणेशकृपा से पूर्ण न हो।

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Thursday, 17 March 2016

भवन निर्माण कार्य एवं मुहूर्त

प्रत्येक प्रकार के औद्योगिक या रिहायशी उपयोग के भवनों के निर्माण का कार्य मिट्टी की खुदाई तथा नींव रखने जैसे अनेक चरणों से गुजरते हुए पूर्णता की स्थिति तक पहुंचता है। सहज पूर्णता के लिए व्यक्ति को शुभ तिथि, पक्ष, लग्न एवं वार आदि की यदि समुचित जानकारी हो तो कार्य सरल हो जाता है। इन सब पहलुओं पक्षों के बारे में विस्तृत और सरल जानकारी प्राप्त करने के लिए यह लेख उपयोगी है। निर्माणाधीन रिहायशी मकान या भवन सभी परिवारजनों के लिए तथा व्यावसायिक या औद्योगिक भवन कंपनी के हिस्सेदारों, निदेद्गाकों तथा ग्राहकों और अंद्गाभागियों सभी के लिए शांति, समृद्धि, उन्नति, स्वास्थ्य, धन और प्रसन्नतादायक हो, इसके लिए खुदाई का शुभ मुहूर्त सुनिश्चित करना और शिलान्यास करना अति महत्वपूर्ण है। भवन-निर्माण प्रारंभ करने हेतु शुभ और अशुभ माह और उनके परिणाम- इसके लिए निम्नलिखित अवधि सर्वोत्तम मानी जाती हैं - महीने की 14 तारीख से आगामी महीने की 13 तारीख तक : वैशाख, श्रावण और फाल्गुन ये महीने अच्छे और शुभ तथा परिवार के लिए हितकारी, लाभदायक और धनप्रद रहते हैं। यह वास्तु राज वल्लभ (श्लोक 1/7) द्वारा भी अभिमत है। सुप्रसिद्ध ज्योतिषी और विद्वान योगेश्वर आचार्य के अनुसार कोई भी निर्माण कार्य आषाढ़ (जून-जुलाई), चैत्र (मार्च-अप्रैल), आश्विन (सितंबर-अक्तूबर), कार्तिक (अक्तूबर-नवंबर), माघ (जनवरी-फरवरी), ज्येष्ठ (मई-जून) या भाद्रपद (अगस्त-सितंबर) में प्रारंभ नहीं करना चाहिए। इस दृष्टि से ये मास अशुभ माने जाते हैं और असंखय समस्याओं और मुसीबतों का कारण बनते हैं। स्थानीय रीति-रिवाजों का अनुसरण करना अधिक अच्छा होता है। पक्ष : मिट्टी की खुदाई, शिलान्यास इत्यादि सभी अच्छी चीजें शुक्लपक्ष में ही प्रारंभ होनी चाहिए, जब चंद्रमा बढ़ता है। कृष्णपक्ष में जब चंद्रमा घटता है तब ये कार्य शुभ नहीं माने जाते। तिथि : द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा शुभ मानी गई हैं। कई विद्वानों के अनुसार पूर्णिमा (पूर्ण चंद्रदिवस) को भी कोई कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए। कोई भी कार्य 1, 4, 8, 9 और 14 तिथियों तथा अमावस्या को प्रारंभ नहीं करना चाहिए, क्योंकि निम्नलिखित कुप्रभाव सुनिश्चित है- प्रतिपदा (1) - निर्धनता। चतुर्थी (4) - धन हानि। अष्टमी (8) - उन्नति में बाधा नवमी (9) - फसल में हानि और दुःख। चतुर्दशी (14) - महिलाओं के लिए हानिकारक व निराशा। कुछ विद्वानों का सुझाव है कि अपरिहार्य परिस्थितियों में कृष्ण पक्ष की द्वितीया (2), तृतीया (3), पंचमी (5) ठीक-ठाक माने जाते हैं। लग्नोदय : वृषभ, मिथुन, वृश्चिक, कुंभ - शुभ। मेष, कर्क, तुला, मकर - मध्यम। सिंह, कन्या, धनु, मीन - इन लग्नों से बचना चाहिए। दिवस : सोमवार - प्रसन्नता और समृद्धि दायक। बुधवार - प्रसन्नतादायक। बृहस्पतिवार - दीर्घ आयु, प्रसन्नता और सुसंतानदायक। शुक्रवार - मन की शांति, उन्नति और समृद्धि देने वाला होता है। रविवार, मंगलवार और शनिवार से बचना चाहिए, क्योंकि इनके परिणाम अच्छे नहीं होते हैं। परंतु राजस्थान में सभी शुभ कार्यों हेतु शनिवार (स्थिर वार) शुभ माना गया है। नक्षत्र : रोहिणी, मृगशिरा उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, श्रवण भी कुछ विद्वानों के द्वारा शुभ माने गये हैं। दक्षिण भारत में कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा, पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद से बचने की सलाह दी जाती है। योग : प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, ध्रुव, सिद्ध, शिव, साध्य, शुभ, इंद्र, ब्रह्मा शुभ माने जाते हैं। लेकिन दक्षिण भारत में विशेषकर तमिलभाषी प्रदेश में मात्र तीन योग ही माने जाते हैं। अमृत योग - अति उत्तम सिद्ध योग - शुभ। मृत्यु योग - बहुत बुरा। इससे हर हालत में बचना चाहिए। करण : बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज शुभ माने जाते हैं। अन्य : इन चीजों के अतिरिक्त आय, व्यय के अंश भी देखने चाहिए। अग्नि नक्षत्र (भरणी चतुर्थ चरण से रोहिणी द्वितीय चरण तक) पूर्णतः वर्जित हैं। जिस वर्ष माघ माह में महाकुंभ मेला (उत्तर में, इलाहाबाद में) (12 वर्ष में एक बार) और कुंभ कोणम (तमिलनाडु के तंजोर जिले में) आता है, उससे बचना चाहिए। निर्माण - कार्य प्रारंभ करने के लिए मलमास निषिद्ध है। शुभ होरा भी देखना चाहिए और निर्माण के समय, अच्छे या बुरे, शकुनों पर भी ध्यान देना चाहिए। भूमि-चयन दोष का भी ध्यान रखना चाहिए और इससे बचना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ बिंदु ध्यान रखने योग्य हैं- प्रायः किसी भी कार्य में शनिवार निषिद्ध है। परंतु निर्माण आरंभ करने हेतु स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न, शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि, श्रावण मास में शुभ योग के साथ शनिवार सर्वोत्तम, शुभ व सौभाग्यशाली माना जाता है। यह मालिक और उसके परिवारजनों के लिए गाड़ी, धन-लाभ और समृद्धि दायक होगा। जब तक उपर्युक्त भाग्यशाली तालमेल न हो तब तक प्राय सिंह लग्न से बचना चाहिए। मिट्टी की खुदाई प्रारंभ करने, शिलान्यास करने, निर्माण प्रारंभ करने और गृह प्रवेश या भवन का प्रतिष्ठान करने के लिए शुभ मुहूर्त अति आवश्यक है। बिना उचित मुहूर्त के प्रारंभ किया गया भवन निर्माण कार्य आगे नहीं बढ़ता। अनेक प्रकार की बाधाएं अकस्मात् आ जाती हैं और कार्य आधा-अधूरा छोड़ना पड़ता है, जिससे मानसिक संताप, आर्थिक हानि और अन्य कई समस्याएं होती हैं। इसलिए हम यदि अच्छे मुहूर्त यानी वास्तु-पुरुष की जागृत-अवस्था में कार्य प्रारंभ करें तो वास्तु या अन्य किसी दोष का निवारण स्वतः ही हो जाता है। जब किसी महीने में वास्तु-पुरुष चौबीस घंटे सो रहे हों तो कोई भी निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए।