Wednesday 27 July 2016

ज्योतिष में आर्ष पद्धति........

वैदिक ग्रंथों तथा वेदांग ज्योतिष का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भारत में नक्षत्र ज्ञान अपने उत्कर्ष पर रहा है। इसी कारण नक्षत्र ज्ञान तथा नक्षत्र विद्या का अर्थ ‘ज्योतिष’ माना जाने लगा। ज्योतिष का प्रचलित अर्थ हुआ वह षास्त्र जिसमें ज्योति का अध्ययन हो। वास्तव में ज्योतिष नक्षत्र आधारित विज्ञान ही है। ज्योतिष के तीनों स्कंधों-गणित, फलित तथा सहिंता पर नक्षत्रों का वर्चस्व है। वैदिक काल में काल निर्णय नक्षत्रों के माध्यम से किया जाता था। वर्तमान में फलित ज्योतिष में किसी जातक का षुभाषुभ ज्ञात करने के लिए ग्रहों की महादषाओं, अंतर तथा प्रत्यंतर दषाओं का अध्ययन किया जाता है। अनेक प्रकार की दषाओं में नक्षत्र दषा पद्धति प्रधान मानी जाती है। बहुप्रचलित एवं स्वीकृत विंषोतरी दषा, अष्टोत्तरी दषा, काल चक्र दषा, योगिनी दषा आदि दषाएं नक्षत्र पर आधारित ही हैं। मुहूर्त प्रकरणों में अनेक कार्यों के षुभाषुभ परिणाम तथा मुहूर्त का आधार नक्षत्रों पर ही आधारित है। विवाह मेलापक की पद्धति चाहे उत्तर भारतीय हो, या दक्षिण भारतीय, दोनों ही में नक्षत्र आधारित मेलापक का वर्चस्व है। उत्तर भारत में प्रचलित विवाह मेलापक के 36 गुणों में से 21 गुणों के निणर्य का आधार नक्षत्र ही है। व्रत एवं उपवास का निर्णय नक्षत्र पर निर्भर करता है। त्रैलोक्य दीपक, सर्वतोभद्र चक्र का आधार नक्षत्र है। वेदों में नक्षत्रों का वर्णन हुआ है। परंतु सब स्थलों पर नक्षत्र षब्द का अर्थ आजकल के प्रचलित अर्थ में ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऋग्वेद सहिंता तथा अथर्ववेद संहिता में नक्षत्र षब्द का अर्थ तारों के संदर्भ में भी हुआ है। ऋक्संहिता में (7।5।35) चंद्रमा के मार्ग में आने वाले तारों तथा नक्षत्रों के लिए एक ही षब्द का उपयोग हुआ है। परंतु तैत्तरीय संहिता में नक्षत्रों एवं तारों में अंतर किया गया है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार ‘नक्षत्राणि रुप तारका अस्थीनि’, अर्थात नक्षत्र रुप तथा तारें अस्थियंा है। तैत्तरीय ब्राह्मण 1।5।2 में नक्षत्रों को परिभाषित करते हुए बताया गया है कि ‘ समुद्र के समान विस्तार वाले आकाष को जिन तारक नौकाओं के माध्यम से हम पार करते हैं, वे तारे हैं। इन तारों के आधार पर जो यज्ञ प्रयोग किये जाते हैं, उनके लोक क्षत नहीं होते। इसी से उन्हें नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र दिव्य ज्योति देवताओं के मंदिर हैं। जिस प्रकार पृथ्वी पर घर, निवास, अथवा किसी स्थल की पहचान के लिए विषिष्ट चित्र आदि की सहायता ली जाती है, उसी प्रकार अष्व मुख आदि चित्रों की सहायता से अष्विनी आदि देवताओं के षुद्ध नक्षत्रों की पहचान हो जाती है। इस लिए नक्षत्रों का नाम चित्र भी है। तैत्तरीय ब्राह्मण में नक्षत्र षब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गयी है: प्रबाहुर्वा अग्रे क्षत्राण्यातेपुः। तेषामिन्द्रः क्षत्राण्यादत ।। न वा इमानि क्षत्राण्यभूवन्निति । तन्नक्षत्राणंा नक्षत्रत्वम् ।। अर्थात जो क्षत नहीं है, वही नक्षत्र है। निरुक्त में नक्षत्र षब्द के लिए कहा गया है ‘ नक्षत्राणि नक्षतेर्गतिकर्मण।’ तैत्तरीय ब्राह्मण में 1।5।2 में कहा गया है कि ‘ इस लोक के पुण्यात्मा उस लोक में नक्षत्र हो जाते हैं। नक्षत्र देवताओं के ग्रह हैं। जो यह जानता है, वह ग्रही होता है। यह जो पृथ्वी का चित्र है, वह ही नक्षत्र है। अतः अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कोई कार्य न तो प्रारंभ करना चाहिए और न ही समाप्त करना चाहिए। अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कार्य करना पापकारक दिनों में कार्य करने के समान दोषपूर्ण है। आज भी मुहूर्त ग्रंथों में अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कार्य करने का निषेध है। ऋग्वेद ज्योतिष में कहा गया है: नक्षत्रदेवता एता एताभिर्यज्ञकर्मणि । यजमानस्य षास्त्रज्ञेर्नाम नक्षत्रजं स्मृतम् ।। अर्थात षास्त्रों के वचनानुसार यज्ञ कर्म में नक्षत्रों के देवताओं के द्वारा यजमान का नक्षत्र नाम रखा जाना चाहिए। तैत्तरीय श्रुति में नक्षत्रों से संबंधित विषयों का विस्तृत तथा विपुल वर्णन हुआ है। इस श्रुति में सब नक्षत्रों के नाम तथा उनके देवताओं के नाम भी बताये गये हैं। नक्षत्रों के नामों की व्युत्पति बतायी गई है। तैत्तरीय संहिता के अनुवाक 4।4।10 में सभी नक्षत्रों के नाम दिये गये हैं। तैत्तरीय ब्राह्मण में तीन स्थलों पर सब नक्षत्रों के नाम तथा उनके देवताओं के नाम बताये गये हैं। इसी ब्राह्मण के 1।5।2।2 में नक्षत्रीय प्रजापति की कल्पना की गयी है। इसके अनुसार नक्षत्र प्रजापति में हस्त नक्षत्र उसका हाथ, चित्रा नक्षत्र उसका सिर, स्वाती हृदय, विषाखा के दो तारे दोनों जंघाएं तथा अनुराधा खड़े रहने का स्थान है। नक्षत्रों की स्थिति की यह परिभाषा वास्तव में नक्षत्रों में समाहित तारों के विषय में ज्ञान कराने का माध्यम है। इससे यह जाना जा सकता हैे कि किस नक्षत्र पुंज में कितने तारे विद्यमान हैं। वेदों में 27 नक्षत्रों के अतिरिक्त भी कुछ अन्य तारों का उल्लेख मिलता है। स. 1।24।10 में ‘ अमी यक्षा निहितास उच्चा नक्तन्ददृषे कुहचिद्दिवेयु’ के माध्यम से कहा गया है कि आकाष के उच्च क्षेत्रों में स्थित ऋक्ष रात में दिखाई देते हैं और दिन में कहीं अन्यत्र चले जाते है। प्राचीन काल में सप्तर्षियों का उल्लेख ऋक्ष के रुप में किया गया है। सस्ंकृत में ऋक्ष का अर्थ भालू भी होता है। ज्योतिष ग्रंथों तथा षास्त्रों में तारों के विषिष्ट समूंह को नक्षत्र कहा गया है। नक्षत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि ‘ न क्षरतीति नक्षत्रः’, अर्थात जिसका क्षरण न होता हो, वह नक्षत्र है। अथर्ववेद 19।7 की ऋचा ‘ चित्राणि साकंकृकृ; में 28 नक्षत्रों का उल्लेख है। तैत्तरीय श्रुति में दो स्थानों पर अभिजित नक्षत्र का नाम आया है। यजुर्वेद के एक मंत्र में 27 नक्षत्रों का उल्लेख है। इन उल्लेखों से भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि नक्षत्र 27 माने जाएं अथवा 28। आज भी फलित ज्योतिष में 27 नक्षत्र माने जाते है,ं परंतु मुहूर्त आदि विषयों में, अभिजित सहित, 28 नक्षत्र ग्रहण करने का संप्रदाय भी प्रचलित है। सामान्यतः सूक्ष्म नक्षत्र का मान क्रंाति वृत्त का 27 वां भाग, अर्थात 800 कला है। आधुनिक युग में भी यह मान स्वीकृत है। परंतु प्राचीन काल में एक और पद्धति प्रचलित थी। उसमें कुछ नक्षत्रों को अर्धभोग कुछ को सम भोग, अर्थात एक भोग तथा कुछ को अध्यर्ध अर्थात ड़ेढ़ भोग का माना जाता था। ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य ने महर्षि गर्ग के संदर्भ से इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि गर्गादादिक ऋषियों ने फलादेष के लिए यह पद्धति अपनायी थी। इस पद्धति के अनुसार भरणी, आद्र्रा, अष्लेषा, स्वाती, ज्येष्ठा, षतभिषा, ये 6 नक्षत्र अर्ध भोग तथा रोहिणी, पुनर्वसु, तीनों उत्तरा तथा विषाखा, ये 6 नक्षत्र अध्यर्ध भोग तथा षेष नक्षत्र सम भोग माने गये हैं। गर्ग ने भोग का मान 800 कला तथा ब्रह्मगुप्त ने चंद्र मध्य दिन गति अर्थात 790 कला 35 विकला माना है। इसी लिए ब्रह्म सिद्धांत में अभिजित नक्षत्र ले कर चक्र कला की पूर्ति के लिए उसका मान 4 अंष 14 कला 15 विकला दिया है। (21600- 27ग 790/ 35 त्र 4 अंष 14 कला 15 विकला)। नारद ने इस पद्धति के अनुसार अर्ध भोग नक्षत्रों का कालात्मक मान 15 मुहूर्त, अर्थात 30 घटी, सम भोग वाले नक्षत्रों का मान 30 मुहूर्त तथा अध्यर्ध नक्षत्रों का कलात्मक मान 45 मुहूर्त लिखा है। यदि नक्षत्रों के मध्य मान से गणना की जाए, तो यह गणित ठीक आता है। नक्षत्रों के सम, मध्य तथा अध्यर्ध मान आज भी प्रचलित हैं। राजनैतिक तथा व्यापारिक भविष्यवाणियों में सूर्य संक्रांति का विषेष महत्व होता है। सूर्य संक्रांति जिस नक्षत्र में हो, उसी के आधार पर 15, 30, या 45 घटी की संक्राति मानी जाती है। इसी के आधार पर सुभि़क्ष, अथवा दुर्भिक्ष का निर्णय होता है। इसका मूल यही पद्धति है। ऐसा प्रतीत होता है कि नक्षत्रों के तारों का अंतर समान न होने के कारण ही नक्षत्रों के भोग काल में अंतर की धारणा प्रचलित हुई होगी। उनमे से कुछ नक्षत्रों के नाम उनके षुभाषुभ फल के अनुसार ही पड़ गये। उदाहरण के लिये ज्येष्ठ, अथवा वरिष्ठ को मारने वाली ज्येष्ठघ्नी, जिसमें सैकड़ों चिकित्सकों की सहायता ली जाए, वह षतभिषक, या षतभिषा, जिसका फल रुदन हो वह रेवती आदि। यह फल वषिष्ठ संहिता के आधार पर है, जिस में कहा गया है: षतभिषजि भैषज्यं कारयेत्. पौषणधिण्ये मासैकं रोगपीड़नम्’ भारतीय पुराणों तथा धर्म ग्रंथों में स्थान स्थान पर दी गयी कथाएं उस समय की खगोलीय स्थिति का वर्णन है, इसे एक बार नहीं कई बार सिद्ध किया जा चुका है। महाभारत में वर्णित ययाति, अर्जुन आदि के सदेह स्वर्ग गमन के प्रंसंग इसी प्रकार के हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में रोहिणी, मृग तथा मृग व्याध की कथा, रोहिणी प्रजापति की कथा इन तथ्यों की पुष्टि करती है। भारत में नक्षत्र ज्योतिष के अत्याधिक प्रचार तथा प्रसार से प्रायः ही यह माना जाता है कि भारतीय ज्योतिष में राषियों का प्रभाव वराह मिहिर के समय से आया। प्रायः ही इस मत की पुष्टि के लिए महाभारत का उदाहरण दिया जाता है, क्योंकि महाभारत में ज्योतिष की चर्चा अनेक स्थानों पर है। युगों का उल्लेख महाभारत में है। वर्ष के बारह मास, अधिमास, दक्षिणायण ,उत्तरायण का वर्णन भी महाभारत में मिलता है। ग्रहण का उल्लेख मिलता है। ग्रहण पूर्णिमा - अमावस्या को होता है, इसका भी वर्णन मिलता है। यदि नहीं मिलता तो सप्ताह के दिनों का उल्लेख नहीं मिलता। योग, करण, राषियों के नाम नहीं मिलते। तिथियों तथा पर्व की गणना सूर्य एवं चंद्र की स्थिति के अनुसार की जाने के प्रमाण मिलते हैं। इस आधार को ले कर विद्वानों का मत है कि वराह मिहिर ने यवनो के प्रभाव से भारतीय ज्योतिष में राषियों का समावेष किया। उक्त वक्तव्य के प्रमाण में बृहज्जातक अध्याय 1 के ष्लोक 8 का सदंर्भ लिया जाता है, जिसमें राषियों के यवन नामों का उल्लेख है। हमारे मतानुसार यह मंतव्य निराधार है। संस्कृत के आदि कवि वाल्मिकी की रचना ‘ रामायण’ का काल महाभारत पूर्व का है। वाल्मिकी रामायण बाल कांड सर्ग 18 के ष्लोक 8-10 में भगवान श्री राम के जन्म समय की ग्रह स्थिति का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से कर्क लग्न के विषय में कहा है ‘ग्रहेषु कर्कटके लग्ने’। अतः निर्विवादित रुप से भारत में प्राचीन काल से ही राषियों का प्रचलन सिद्ध होता है। राषियों से नक्षत्रों के मान सूक्ष्म हैं। अतः आर्ष ऋषियों ने नक्षत्रों पर आधारित ज्योतिष को राषि ज्योतिष से अधिक महत्वपूर्ण माना। यही तथ्य पुराणों तथा संहिताओं में परिलक्षित होता है।

ज्योतिष में कर्म और भाग्य की व्याख्या.........

ज्योतिष कर्म एवं भाग्य की सही व्याख्या करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के आधीन रहता है इसलिए उसे कर्म अवश्य करना है और जीवन का सार यही है। प्रत्येक कर्म का प्रतिफल होता है- यह एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक विचारधारा यह बताती है कि कर्म और उसका प्रतिफल एक साथ कार्य नहीं करते। हमें अकसर किसी कर्म का फल बहुत अधिक समय के बाद फलित होता दिखाई देता है। कर्म और कर्मफल को जानना एक गुप्त रहस्य है। इसे केवल ज्योतिष के आधार पर जाना जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छाओं का मेल अपनी योग्यताओं से करना चाहिए। 1.पुनर्जन्म 2.कर्म: मनुष्य कर्म करने से बच नहीं सकता, यह संभव ही नहीं कि मनुष्य कर्म न करे। 3. कर्म प्रतिफल के अंतर्गत अच्छे या बुरे कर्मों का भोग यही कर्म चक्र है। स्मृति में कहा गया है: अवश्यमनु भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। ना भुक्तं क्षीयते कर्म कतप कोटि शतैरपि।। अर्थात प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों का अच्छा या बुरा फल अवश्य भोगता है। पुनर्जन्म के विषय हिंदू वैदिक ज्योतिष की आस्था है। तभी तो भगवत् गीता में भगवान ने कहा है ‘‘जातस्यहि ध्रुवो मृत्यु र्धुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्ये न त्वं शोचितुर्महसि।।’’ अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। उसी प्रकार जो मर गए हैं उनका जन्म निश्चित है। कर्मांे के सिद्धांत का अर्थ इस प्रकार से हो सकता है- एक विचार को बोना किसी कार्य को काटना, किसी कार्य को बोना किसी आदत को काटना, किसी आदत को बोना किसी चरित्र को काटना और किसी चरित्र को बोकर अपने भाग्य का निर्माण करना, कुंडली में दशम का व्यय स्थान भाग्य स्थान होता है। भाग्यरूपी बीज से जो वृक्ष तैयार होता है वह कर्म है। प्रकरांतर से कर्म वृक्ष का बीज भाग्य है। इस बीज को प्रारब्ध कहा गया है। बीज तीन प्रकार के होते हैं। 1.वृक्ष से लगा अपक्व बीज (क्रियमाण कर्म) 2.वृक्ष से लगा सुपक्व बीज जो बोने के लिए रखा है (संचित कर्म) 3. क्षेत्र में बोया गया बीज जो कि अंकुरित होकर विस्तार प्राप्त कर रहा है (प्रारब्ध कर्म) इससे स्पष्ट है कि कर्म ही भाग्य है। जो कर्म किया जा रहा है और पूरा नहीं हो पाया है वह क्रियमाण कर्म है। जो कर्म किया जा चुका है किंतु फलित नहीं हुआ है वह संचित कर्म है। यही जो संचित हो चुका है, जब फल देने लगता है, तो प्रारब्ध कहलाता है। यह दिखाई नहीं देता क्योंकि यह पूर्व कर्मों का अच्छा या बुरा फल है। यह अदृष्ट है, यही भाग्य है। कर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह दशम भाव ‘क्षेत्र’ में बोया जाता है, बढ़ता और फैलता है और पक कर पूर्ण होता है। तब यह नवम भाव में आकर पूर्णरूप से संरक्षित होता है। कालांतर में परिणामशील होकर भाग्य नाम से जाना जाता है। सम्यक प्रकार से किया गया कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता, उसका फल मिलना निश्चित है। अतः संकल्पपूर्वक कर्म करना चाहिए। यही कारण है कि धार्मिक कर्मकांडों में संकल्प पूर्व में पढ़ा जाता है। यह संकल्प कर्म व्यक्ति का पीछा करता रहता है। जब तक कर्ता नहीं मिल जाता तब तक वह उसे ढंूढता रहता है, भले ही इसमें पूरा युग ही क्यों न लग जाए। सैकड़ों जन्मों तक कर्ता को अपने कर्म फल का भोग करते रहना पड़ता है, इससे पिंड नहीं छूटता। शास्त्र में कहा गया है: यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा पूर्व कृतं कर्म कर्तारम अनुगच्छति।। अर्थात जिस प्रकार हजारों गौओं के झुंड में बछड़ा अपनी माता का ठीक ठाक पता लगा लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। जन्म कुंडली में दशम भाव कर्म स्थान है, कर्म का पराक्रम जन्म कुंडली का व्यय भाव होता है। कर्म का व्यय शुभ या अशुभ, दशम भाव का व्यय नवम भाग्य या धर्म के रूप में जन्म समय से ही अदृष्ट रूप से छिपा रहता है। दशम भाव का सुख भाव या चतुर्थ से जाया का संबंध है और व्यय अर्थात 12वां भाव, जो कर्म का पराक्रम है, चतुर्थ भाव से पुत्रकारक संबंध रखता है, अतः जैसा कर्म किया जाएगा वैसा ही फल का भोग किया जाएगा। क्योंकि जन्म कुंडली का अष्टम भाव, जो कि कर्म भाव से एकादश है, रंध्र है। एक अत्यंत गंभीर विचारशील भाव है दशम भाव से सातवां भाव चतुर्थ और चतुर्थ या जाया कारक से पांचवां भाव जन्म कुंडली का अष्टम भाव जो चतुर्थ का गर्भ स्थान है और श्रेष्ठ गर्भ अच्छी संतान को जन्म देता है, जो कि जन्म कुंडली का द्वितीय भाव या वाणीकारक दशम भाव का संतान कारक भाव होता है अच्छी वाणी ही अच्छे संस्कार का दर्पण है। द्वितीय भाव से पंचम भाव जन्म कुंडली का छठा भाव, पंचम भाव से पंचम शत्रु रोग बुद्धि का धन आदि के रूप में जाना जाता है। इसी कारण व्यक्ति के जीवन में दूसरे, छठे और दसवें भावों का प्रमुख स्थान है। लेकिन मूल में तो केवल दशम भाव ही होता जो गर्भरूपी अष्टम भाव में छिपे रहते हैं। गर्भ में भी नौ मास का समय लगता है। उपर्युक्त वातावरण आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। इस तरह जन्म कुंडली के अष्टम भाव में अनेक रहस्य छिपे रहते हैं, यह परीक्षण स्थान है। यदि अष्टम भाव से व्यय पर ध्यान दें जन्म कुंडली सप्तम भाव और नवम भाव या भाग्य स्थान जो अष्टम का खरा सोना रूपी धर्म है यही तो भाग्य है। इस कारण दशम भाव से दशम सप्तम भाव भावत भावम् कर्म बनता है। दशम भाव का व्यय भाव और अष्टम का सुरक्षित धन भाग्य होता है, इस कारण अष्टम भाव में रहस्य है। चूंकि भाग्य भाव से पंचम भाव स्थम् लग्न कंुडली होती है क्योंकि भाग्य की संतान व्यक्ति या जातक होता है, इस कारण कर्मों का फल जातक शरीर प्राप्ति के बाद भोगता है, तभी तो गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- जो विधिना ने लिख दिया छठी रात्रि के अंक। राई घटै न तिल बढ़ै रह रे जीव निशंक।।

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Tuesday 26 July 2016

ज्योतिष में गुरु की सार्थकता.........

गुरु ज्योतिष के नव ग्रहों में सबसे अधिक शुभ ग्रह माने जाते हैं. जीवन में हर क्षेत्र में सफलता के पीछे गुरु ग्रह की स्थिति बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है. कुंडली में अगर गुरु मजबूत हो तो सफलता का कदम चूमना बिल्कुल तय है.
सफलता के पीछे सकारात्मक उर्जा का होना अहम होता है और यही काम गुरु करते हैं. गुरु जीवन के अधिकतर क्षेत्रों में सकारात्मक उर्जा प्रदान करने में सहायक होते हैं. अपने सकारात्मक रुख के चलते व्यक्ति कठिन से कठिन समय को आसानी से सुलझा लेता है. गुरु आशावादी बनाते हैं और निराशा को जीवन में प्रवेश नहीं करने देते. इसके फलस्लरूप सफलता खुद ब खुद कदम चूमने लगती है. और जब सफलता मिलती रहती है तब जिंदगी में खुशहाली भी आ जाती है.
गुरु के प्रबल प्रभाव वाले जातकों की वित्तिय स्थिति मजबूत होती है तथा आम तौर पर इन्हें अपने जीवन काल में किसी गंभीर वित्तिय संकट का सामना नहीं करना पड़ता. ऐसे जातक सामान्यतया विनोदी स्वभाव के होते हैं तथा जीवन के अधिकतर क्षेत्रों में इनका दृष्टिकोण सकारात्मक होता है. ऐसे जातक अपने जीवन में आने वाले कठिन समयों में भी अधिक विचलित नहीं होते तथा अपने सकारात्मक रुख के कारण इन कठिन समयों में से भी अपेक्षाकृत आसानी से निकल जाते हैं. ऐसे जातक आशावादी होते हैं तथा निराशा का आम तौर पर इनके जीवन में लंबी अवधि के लिए प्रवेश नहीं होता जिसके कारण ऐसे जातक अपने जीवन के प्रत्येक पल का पूर्ण आनंद उठाने में सक्षम होते हैं. ऐसे जातकों के अपने आस-पास के लोगों के साथ मधुर संबंध होते हैं तथा आवश्यकता के समय वे अपने प्रियजनों की हर संभव प्रकार से सहायता करते हैं. इनके आभा मंडल से एक विशेष तेज निकलता है जो इनके आस-पास के लोगों को इनके साथ संबंध बनाने के लिए तथा इनकी संगत में रहने के लिए प्रेरित करता है. आध्यात्मिक पथ पर भी ऐसे जातक अपेक्षाकृत शीघ्रता से ही परिणाम प्राप्त कर लेने में सक्षम होते हैं.
------गुरु के बारे में कुछ तथ्य
1. गुरु वृहस्पति लग्न मे बैठा हो , तो बली होता है और यदि चन्द्रमा के साथ कही बैठा हो तो चेष्ठाबली होता है.
2. गुरु वृहस्पति को शुभ ग्रह माना गया है.
3. गुरु वृहस्पति धनु एवं मीन राशि का स्वामी है.
4. गुरु वृहस्पति जातक को मजिस्ट्रेट, वकील, प्रिंसिपल, गुरु, पंडित, ज्योतिषी, बैंक, मैनेजर, एमएलए, मंदिर के पुजारी, यूनिवर्सिटी का अधिकारी, एमपी, प्रसिद्द राजनेता के गुण आदि बनाता है.
5. एक राशि मे गुरु वृहस्पति 13 मास तक निवास करता है. सूर्य, चन्द्र और मंगल मित्र है, बुध, शुक्र शत्रु है तथा शनि, राहु, केतु समग्रह है.
6. गुरु वृहस्पति बुद्धि तथा उत्तम वाकशक्ति के स्वामी है.
7. गुरु वृहस्पति विशाखा, पुनर्वसु तथा पूर्वभाद्रपद नक्षत्र के स्वामी है.
8. गुरु वृहस्पति को प्रसन्न करना है , तो ब्रह्माजी की पूजा करनी चाहिए.
गुरु (वृहस्पति) ज्योतिष के नव ग्रहों में सबसे अधिक शुभ ग्रह माने जाते हैं. गुरू मुख्य रूप से आध्यात्मिकता को विकसित करने का कारक हैं. तीर्थ स्थानों तथा मंदिरों, पवित्र नदियों तथा धार्मिक क्रिया कलाप से जुडे हैं. गुरु ग्रह को अध्यापकों, ज्योतिषियों, दार्शनिकों, लेखकों जैसे कई प्रकार के क्षेत्रों में कार्य करने का कारक माना जाता है. गुरु की अन्य कारक वस्तुओं में पुत्र, संतान, जीवन साथी, धन-सम्पति, शैक्षिक गुरु, बुद्धिमता, शिक्षा, ज्योतिष तर्क, शिल्पज्ञान, अच्छे गुण, श्रद्धा, त्याग, समृ्द्धि, धर्म, विश्वास, धार्मिक कार्यो, राजसिक सम्मान देखा जा सकता है.
गुरु से संबन्धित कार्य क्षेत्र कौन से हैं
गुरु जीवन के अधिकतर क्षेत्रों में सकारात्मक उर्जा प्रदान करने में सहायक हैं. अपने सकारात्मक रुख के कारण व्यक्ति कठिन से कठिन समय को आसानी से सुलझाने के प्रयास में लगा रहता है. गुरु आशावादी बनाते हैं और निराशा को जीवन में प्रवेश नहीं करने देते हैं. गुरु के अच्छे प्रभाव स्वरुप जातक परिवार को साथ में लेकर चलने की चाह रखने वाला होता है. गुरु के प्रभाव से व्यक्ति को बैंक, आयकर, खंजाची, राजस्व, मंदिर, धर्मार्थ संस्थाएं, कानूनी क्षेत्र, जज, न्यायालय, वकील, सम्पादक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शेयर बाजार, पूंजीपति, दार्शनिक, ज्योतिषी, वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता होता है.
गुरु के मित्र ग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल हैं. गुरु के शत्रु ग्रह बुध, शुक्र हैं, गुरु के साथ शनि सम संबन्ध रखता है. गुरु को मीन व धनु राशि का स्वामित्व प्राप्त है. गुरु की मूलत्रिकोण राशि धनु है. इस राशि में गुरु 0 अंश से 10 अंश के मध्य अपने मूलत्रिकोण अंशों पर होते हैं. गुरु कर्क राशि में 5 अंश पर होने पर अपनी उच्च राशि अंशों पर होते हैं. गुरु मकर राशि में 5 अंशों पर नीच राशिस्थ होते हैं, गुरु को पुरुष प्रधान ग्रह कहा गया है यह उत्तर-पूर्व दिशा के कारक ग्रह हैं. गुरु के सभी शुभ फल प्राप्त करने के लिए पुखराज रत्न धारण किया जाता है. गुरु का शुभ रंग पिताम्बरी पीला है. गुरु के शुभ अंक 3, 12, 21 है. गुरु के अधिदेवता इन्द्र, शिव, ब्रह्मा, भगवान नारायण है.
गुरु का बीज मंत्र
ऊँ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरुवे नम:
गुरु का वैदिक मंत्र
देवानां च ऋषिणा च गुर्रु कान्चन सन्निभम।
बुद्यिभूतं त्रिलोकेश तं गुरुं प्रण्माम्यहम।।
------गुरु की दान की वस्तुएं
गुरु की शुभता प्राप्त करने के लिए निम्न वस्तुओं का दान करना चाहिए. स्वर्ण, पुखराज, रुबी, चना दान, नमक, हल्दी, पीले चावल, पीले फूल या पीले लडडू. इन वस्तुओं का दान वीरवार की शाम को करना शुभ रहता है. गुरु का जातक पर प्रभाव
गुरु लग्न भाव में बली होकर स्थित हों या फिर गुरु की धनु या मीन राशि लग्न भाव में हो, अथवा गुरु की राशियों में से कोई राशि व्यक्ति की जन्म राशि हो तो व्यक्ति के रुप-रंग पर गुरु का प्रभाव रहता है. गुरु बुद्धि को बुद्धिमान, ज्ञान, खुशियां और सभी चीजों की पूर्णता देता है. गुरु का प्रबल प्रभाव जातक को मीठा खाने वाला तथा विभिन्न प्रकार के पकवानों तथा व्यंजनों का शौकीन बनाता है. गुरु चर्बी का प्रभाव उत्पन्न करता है इस कारण गुरू से प्रभावित व्यक्ति मोटा हो सकता है इसके साथ ही व्यक्ति साफ रंग-रुप, कफ प्रकृति, सुगठित शरीर का होता है. गुरु के खराब होने पर
गुरु कुण्डली में कमजोर हो या पाप ग्रहों के प्रभाव में हो, नीच का हो, षडबल हीन हो तो व्यक्ति को गाल-ब्लेडर, खून की कमी, शरीर में दर्द, दिमागी रुप से विचलित, पेट में गड़बड़, बवासीर, वायु विकार, कान, फेफडों या नाभी संबन्धित रोग, दिमाग घूमना, बुखार, बदहजमी, हर्निया, मस्तिष्क, मोतियाबिन्द, बिषाक्त, अण्डाश्य का बढना, बेहोशी जैसे दिक्कतें परेशान कर सकती हैं. वृहस्पति के बलहीन होने पर जातक को अनेक बिमारियां जैसे मधुमेह, पित्ताशय से संबधित बिमारियां प्रभावित कर सकती हैं. कुंडली में गुरु के नीच वक्री या बलहीन होने पर व्यक्ति के शरीर की चर्बी भी बढने लगती है जिसके कारण वह बहुत मोटा भी हो सकता है. वृहस्पति पर अशुभ राहु का प्रबल व्यक्ति को आध्यात्मिकता तथा धार्मिक कार्यों दूर ले जाता है. व्यक्ति धर्म तथा आध्यात्मिकता के नाम पर लोगों को धोखा देने वाला हो सकता है.
-----यदि आपका गुरु खराब है तो
गुरु की अपनी राशियां है धनु और मीन. कर्क राशि में ये उच्च का होता है और मकर राशि में ये नीच का होता है. यदि ये ग्रह अच्छा हो तो एक लाख दोषों तक को दूर कर सकने की शक्ति इस ग्रह में है अन्यथा इतने ही दोष भी उत्पन्न कर सकता है.अच्छा गुरु अध्यापक, वकील, जज, पंडित, पत्रकार, प्रकांड विद्वान् या ज्योतिषाचार्य, सुनार, कोपी-किताबों का व्यापारी, आयुर्वेदाचार्य बनाता है. उच्च कोटी का वृहस्पति धार्मिक चिंतन कराता है. राजनैतिक पद, संतान, शिष्य इसी ग्रह से मिलते है और यदी ये ग्रह कमज़ोर हुआ तो इनमें से कुछ भी नहीं मिलेगा. कमज़ोर वृहस्पति तीर्थ या सत्संग का सुख नहीं लेने देता तथा गुरु बुज़ुर्ग और विद्वान ऐसे व्यक्ती की सदैव अनदेखी करेंगे.अच्छा गुरु उच्च कोटी की सिद्धियां कराता है और निम्न स्थिति का गुरु तंत्र का दुरूपयोग कराता है.जब गुरु खराब हो तो चोटी के स्थान से बाल उड़ जाते हैं.खराब गुरु वाले लोगों के विरुद्ध अफवाहें उड़ाई जाती हैं.

ऐसा क्‍यों है कि शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है??????

शनिवार के दिन शनिदेव पर तेल चढ़ाया जाता है और सरसों के तेल का ही दीपक भी जलाया जाता है| तेल और शनि के बीच क्‍या संबंध है? ऐसा क्‍यों है कि शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है? शनिदेव को तेल चढ़ाने के पीछे दो पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं.
पहली कथा का संबंध है रावण
शनिदेव को तेल चढ़ाने के लिए यह पौराणिक कथा काफी प्रचलित है| माना जाता है कि रावण अपने अहंकार में चूर था और उसने अपने बल से सभी ग्रहों को बंदी बना लिया था| शनिदेव को भी उसने बंदीग्रह में उलटा लटका दिया था| उसी समय हनुमानजी प्रभु राम के दूत बनकर लंका गए हुए थे| रावण ने अहंकार में आकर हनुमाजी की पूंछ में आग लगवा दी थी| इसी बात से क्रोधित होकर हनुमानजी ने पूरी लंका जला दी थी लंका जल गई और सारे ग्रह आजाद हो गए लेकिन उल्‍टा लटका होने के कारण शनि के शरीर में भयंकर पीड़ा हो रही थी और वह दर्द से कराह रहे थे| शनि के दर्द को शांत करने के लिए हुनमानजी ने उनके शरीर पर तेल से मालिश की थी और शनि को दर्द से मुक्‍त किया था| उसी समय शनि ने कहा था कि जो भी व्‍यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उसे सारी समस्‍याओं से मुक्ति मिलेगी| तभी से शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा शुरू हो गई थी|
दूसरी कथा के अनुसार शनिदेव और हनुमानजी में हुआ था युद्ध
दूसरी कथा के अनुसार एक बार शनि देव को अपने बल और पराक्रम पर घमंड हो गया था| लेकिन उस काल में भगवान हनुमान के बल और पराक्रम की कीर्ति चारों दिशाओं में फैली हुई थी| जब शनि देव को भगवान हनुमान के बारे में पता चला तो वह भगवान हनुमान से युद्ध करने के लिए निकल पड़े| जब भगवान शनि हनुमानजी के पास पहुंचे तो देखा कि भगवान हनुमान एक शांत स्थान पर अपने स्वामी श्रीराम की भक्ति में लीन बैठे है| शनिदेव ने उन्हें देखते ही युद्ध के लिए ललकारा. जब भगवान हनुमान ने शनिदेव की युद्ध की ललकार सुनी तो वह शनिदेव को समझाने पहुंचे| लेकिन शनिदेव ने एक बात न मानी और युद्ध के लिए अड़ गए| इसके बाद भगवान हनुमान और शनिदेव के बीच घमासान युद्ध हुआ| युद्ध में शनिदेव भगवान हनुमान से बुरी तरह हारकर घायल हो गए, जिसके कारण उनके शरीर में पीड़ा होने लगी. इसके बाद भगवान ने शनिदेव को तेल लगाने के लिए दिया, जिससे उनका पूरा दर्द गायब हो गया. इसी कारण शनिदेव ने कहा कि जो मनुष्य मुझे सच्चे मन से तेल चढ़ाएगा| मैं उसकी सभी पीड़ा हर लूंगा और सभी मनोकामनाएं पूरी करूंगा|
इसी कारण तब से शनिदेव को तेल चढ़ाने की परंपरा की शुरुआत हुई और शनिवार का दिन शनिदेव का दिन होता है और इस दिन शनिदेव पर तेल चढ़ाने से जल्द आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है.

जाने सोमवार व्रत की विधि एवं कथा

सोमवार व्रत की विधि:
नारद पुराण के अनुसार सोमवार व्रत में व्यक्ति को प्रातः स्नान करके शिव जी को जल और बेल पत्र चढ़ाना चाहिए तथा शिव-गौरी की पूजा करनी चाहिए. शिव पूजन के बाद सोमवार व्रत कथा सुननी चाहिए. इसके बाद केवल एक समय ही भोजन करना चाहिए. साधारण रूप से सोमवार का व्रत दिन के तीसरे पहर तक होता है. मतलब शाम तक रखा जाता है. सोमवार व्रत तीन प्रकार का होता है प्रति सोमवार व्रत, सौम्य प्रदोष व्रत और सोलह सोमवार का व्रत. इन सभी व्रतों के लिए एक ही विधि होती है.
व्रत कथा:
एक समय की बात है, किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसके घर में धन की कोई कमी नहीं थी लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी इस कारण वह बहुत दुखी था. पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिव मंदिर जाकर भगवान शिव और पार्वती जी की पूजा करता था. उसकी भक्ति देखकर एक दिन मां पार्वती प्रसन्न हो गईं और भगवान शिव से उस साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का आग्रह किया. पार्वती जी की इच्छा सुनकर भगवान शिव ने कहा कि 'हे पार्वती, इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों का फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है.' लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति का मान रखने के लिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा जताई| माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके बालक की आयु केवल बारह वर्ष होगी. माता पार्वती और भगवान शिव की बातचीत को साहूकार सुन रहा था. उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही दुख. वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा.कुछ समय के बाद साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ. जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया | साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन दिया और कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ और मार्ग में यज्ञ कराना. जहां भी यज्ञ कराओ वहां ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते हुए जाना |
दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी की ओर चल पड़े| रात में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था |लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था. राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए एक चाल सोची |
साहूकार के पुत्र को देखकर उसके मन में एक विचार आया| उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं| विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा. लड़के को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह कर दिया गया. लेकिन साहूकार का पुत्र ईमानदार था| उसे यह बात न्यायसंगत नहीं लगी|
उसने अवसर पाकर राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिखा कि 'तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है| मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं.'
जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई. राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया जिससे बारात वापस चली गई. दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया. जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसी दिन यज्ञ रखा गया. लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मामा ने कहा कि तुम अंदर जाकर सो जाओ|
शिवजी के वरदानुसार कुछ ही देर में उस बालक के प्राण निकल गए. मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप शुरू किया. संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे. पार्वती ने भगवान से कहा- स्वामी, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा. आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें|
जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया. अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है. लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव, आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे|
माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया. शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया. शिक्षा समाप्त करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया. दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था. उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया| उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी खातिरदारी की और अपनी पुत्री को विदा किया |
इधर साहूकार और उसकी पत्नी भूखे-प्यासे रहकर बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए. उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है. इसी प्रकार जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

फलित ज्योतिष में षोडश वर्ग का क्या महत्व है?

जन्म पत्रिका का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए षोडश वर्ग विशेष सहायक होते हैं। इन वर्गों के अध्ययन के बिना जन्म कुंडली का विश्लेषण अधूरा है क्योंकि जन्म कुंडली से केवल जातक के शरीर, उसकी संरचना एवं स्वास्थ्य के बारे में विस्तृत अध्ययन किया जाता है जबकि षोडश वर्ग का प्रत्येक वर्ग जातक के जीवन के एक विशिष्ट कारकत्व या घटना के अध्ययन के लिए सहायक होता है। प्रश्न: बिना षोडश वर्ग अध्ययन के विश्लेषण अधूरा कैसे? उत्तर: जातक के जीवन के जिस पहलू के बारे में हम जानना चाहते हैं उस पहलू के वर्ग का जब तक हम अध्ययन नहीं करें तो विश्लेषण अधूरा ही रहता है। जैसे हम जातक की संपत्ति-संपन्नता के विषय में जानना चाहते हैं तो जरूरी है कि होरा वर्ग का अध्ययन करें या किसी के व्यवसाय के बारे में जानना है तो दशमांश का अध्ययन करना चाहिए। जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को जानने के लिए किसी विशेष वर्ग का अध्ययन किये बिना फलित चूक सकता है। प्रश्न: षोडश वर्ग के भिन्न-भिन्न वर्गों से जातक के किन-किन पहलुओं का ज्ञान होता है? उत्तर: षोडश वर्ग में सोलह वर्ग हैं जो जातक के विभिन्न पहलुओं की जानकारी देते हैं। जैसे: होरा से संपत्ति व समृद्धि, द्रेष्काण से भाई-बहन, पराक्रम, चतुर्थान्श से भाग्य, चल एवं अचल संपत्ति, सप्तांश से संतान, नवांश से वैवाहिक जीवन व जीवन साथी, दशमांश से व्यवसाय व जीवन में उपलब्धियां, द्वादशांश से माता-पिता, षोडशांश से सवारी एवं सामान्य खुशियां, विंशांश से पूजा-उपासना और आशीर्वाद, चतुर्विंशांश से विद्या, शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान आदि, सप्तविंशांश से बल एवं दुर्बलता, त्रिंशांश से दुःख, तकलीफ, दुर्घटना, अनिष्ट, खवेदांश से शुभ या अशुभ फलों का विवेचन, अक्षवेदांश से जातक का चरित्र, षष्ट्यांश से जीवन के सामान्य शुभ-अशुभ फल आदि अनेक पहलुओं का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है। प्रश्न: षोडश वर्ग में कौन से वर्ग अधिक महत्वपूर्ण हैं? उत्तर: यूं तो सभी वर्ग महत्वपूर्ण हैं लेकिन आज के युग में जातक धन, पराक्रम, भाई-बहनों से वाद-विवाद, रोग, संतान, वैवाहिक जीवन, साझेदारी, व्यवसाय, माता-पिता और जीवन में आने वाले संकटों के बारे में अधिक प्रश्न करता है। इन प्रश्नों के विश्लेषण के लिए होरा, द्रेष्काण, सप्तांश, नवांश, दशमांश, द्वादशांश और त्रिंशांश काफी हंै क्योंकि आज का मानव इन्हीं से संबंधित अधिक प्रश्न करता है। प्रश्न: क्या षोडश वर्ग के अतिरिक्त भी और वर्ग होते हैं? उत्तर: षोडश वर्ग में सोलह वर्ग लिए गए हैं लेकिन इसके अतिरिक्त भी और चार वर्ग पंचमांश, षष्टांश, अष्टमांश और एकादशांश हंै। पंचमांश जातक की आध्यात्मिक प्रवृत्ति, पूर्व जन्मों के पुण्य एवं संचित कर्मों की जानकारी देता है। षष्टांश से जातक के स्वास्थ्य, रोग के प्रति अवरोधक शक्ति, ऋण, झगड़े आदि की विवेचना की जाती है। एकदशांश जातक की बिना प्रयास धन प्राप्ति को दर्शाता है। यह वर्ग पैतृक संपत्ति, शेयर, सट्टे के द्वारा स्थायी धन प्राप्ति की जानकारी देता है। अष्टमांश से जातक की आयु एवं आयुर्दाय के विषय में जानकारी मिलती है। प्रश्न: षोडश वर्ग पर कितना ध्यान देना चाहिए? उत्तर: जब किसी विषय विशेष का बहुत ही सूक्ष्म अध्ययन करना हो तब षोडश वर्ग पर पूर्ण ध्यान देना चाहिए। प्रश्न: क्या सभी वर्ग कुंडलियों का हर प्रश्न के लिए विचार करना चाहिए या किसी एक प्रश्न के लिए? उत्तर: वर्ग कुंडलियों में एक वर्ग से हर प्रश्न पर विचार नहीं होता है। किसी विशेष विषय के लिए संबंधित वर्ग पर विचार करना चाहिए। प्रश्न: षोडश वर्ग में भी क्या अलग-अलग भाव अलग-अलग पहलुओं को दर्शाते हैं? उत्तर: षोडश वर्ग में अलग-अलग भाव अलग पहलुओं को नहीं दर्शाते हैं। वर्ग कुंडली में वर्ग के लग्न और उसमें बैठे ग्रहों का ही महत्व है। प्रश्न: यदि कोई ग्रह वर्गोत्तम है और नीच है तो कैसे फल देगा? उत्तर: वर्गोत्तम ग्रह नीच हो तो फल कमजोर ही होगा। फल ग्रह के बलाबल पर निर्भर करता है, भले ही वह नीच का हो। प्रश्न: क्या वर्गोत्तम होना केवल नवांश से ही देखना चाहिए? उत्तर: वर्गोत्तम नवांश से ही नहीं बल्कि और वर्गो से भी देखना चाहिए क्योंकि जिस विषय विशेष का अध्ययन करना हो उससे संबंधित वर्ग में भी यदि ग्रह लग्न कुंडली की राशि में है तो वर्गोत्तम माना जाएगा। प्रश्न: षोडश वर्ग का उपयोग ज्योतिष में और कहां मिलता है? उत्तर: षोडश वर्ग का उपयोग षड्बल और विंशोपक बल में बलों को साधने में किया गया है। प्रश्न: क्या षोडश वर्गो में उच्च-नीचस्थ ग्रहों आदि को भी लग्न कुंडली की तरह देखना चाहिए? उत्तर: षोडश वर्गों में उच्च, नीच, स्वग्रही आदि का विचार करना चाहिए। वृहत पराशर होरा शास्त्र के अनुसार ‘‘स्वोच्च मूलत्रिकोणस्वभवनाधिपतेः तथा। स्वारूढात् केंद्र नाथानां वर्गां ग्राह्याः सुधीमता।। अस्तंगता ग्रहजिता नीचगा दुर्बलास्थता। शयनादिगतादुस्था उत्पन्ना योग नाशकाः।। अर्थात अपने उच्च, मूलत्रिकोण, स्वभवन वाले लग्न केंद्राधिपतियों के वर्ग शुभ होते हैं। अस्तंगत, पराजित, नीचगत, बलहीन, शयनादि अवस्था में स्थित ग्रहों के वर्ग अशुभ फलदायक और शुभ फलों के नाशकारक होते हैं। प्रश्न: षोडश वर्ग में वर्गों के देवता आदि का वर्णन होता है। उनके फल कथन कैसे किए जाएं? उत्तर: षोडश वर्ग में ग्रह अंश के अनुसार राशि गणना की जाती है और साथ ही अधिदेव का स्पष्टीकरण किया जाता है। देवता की प्रकृति के अनुसार ही फलकथन करना चाहिए। लेकिन सामान्य रूप से राशि के स्वामी के अनुसार ही फल कथन किया जाता है। प्रश्न: जातक के धन संबंधित पहलू की जानकारी के लिए होरा किस तरह से देखनी चाहिए? उत्तर: जन्म कुंडली की प्रत्येक राशि के दो समान भाग कर सिद्धांतानुसार जो वर्ग बनता है, होरा कहलाता है। इससे जातक के धन संबंधित पहलू का अध्ययन किया जाता है। होरा में दो ही लग्न होते हैं, सूर्य का अर्थात सिंह या चंद्र का अर्थात कर्क। ग्रह या तो चंद्र होरा में रहते हैं या सूर्य होरा में। वृहत पराशर होराशास्त्र के अनुसार गुरु, सूर्य एवं मंगल सूर्य की होरा में जातक को अच्छा फल देते हैं। चंद्र, शुक्र एवं शनि चंद्र की होरा में अच्छा फल देते हैं। बुध दोनों होराओं में फलदायक है। यदि सभी ग्रह अपनी शुभ फल वाली होरा में होंगे तो जातक को धन संबंधी समस्याएं नहीं आएंगी, जातक धनी होगा। यदि कुछ ग्रह शुभ होरा में और कुछ अशुभ होरा में होंगे तो फल मध्यम रहेगा। यदि सभी ग्रह अशुभ होरा में होंगे तो जातक निर्धन होता है। प्रश्न: दे्रष्काण जातक के जीवन के किस पहलू के विश्लेषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है? उत्तर: द्रेष्काण जातक के भाई-बहनों से सुख, परस्पर संबंध, पराक्रम के बारे में जानकारी के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इससे जातक की मृत्यु का स्वरूप भी मालूम किया जाता है। प्रश्न: द्रेष्काण से फलित करते समय किन बातों पर ध्यान रखना चाहिए? उत्तर: द्रेष्काण से फलित करते समय हमें कुंडली के तीसरे भाव के स्वामी, तीसरे भाव का कारक मंगल एवं मंगल से तीसरे स्थित ग्रह की स्थिति और उसके बल का ध्यान रखना चाहिए। यदि द्रेष्काण कुंडली में संबंधित ग्रह अपने शुभ स्थान पर स्थित हैं तो जातक को भाई-बहनों से विशेष लाभ होगा और उसके पराक्रम में वृद्धि होगी। आगे चल कर जातक का अंत समय भी सुखी होगा। इसके विपरीत यदि संबंधित ग्रह अपने अशुभ स्थान अर्थात द्रेष्काण में होंगे तो जातक को अपने भाई-बहनों से किसी प्रकार का सहयोग प्राप्त नहीं होगा। ऐसी भी संभावना हो सकती है कि जातक अपने मां-बाप की अकेली ही संतान हो। प्रश्न: सप्तांश वर्ग से संतान सुख का विश्लेषण कैसे करते हैं? उत्तर: जन्म कुंडली में पंचम भाव संतान का माना गया है, इसलिए पंचम भाव का स्वामी, पंचम का कारक ग्रह गुरु, गुरु से पंचम स्थित ग्रह और उसके बल का ध्यान रखना चाहिए। सप्तांश में संबंधित ग्रह अपने उच्च या शुभ स्थान पर हो तो शुभ फल प्राप्त होता है अर्थात संतान का सुख प्राप्त होता है। इसके विपरीत अशुभ और नीचस्थ ग्रह जातक को संतानहीन बनाता है या संतान होने पर भी सुख नहीं प्राप्त होता। सप्तांश लग्न और जन्म लग्न दोनों के स्वामियों में परस्पर मित्रता (नैसर्गिक और तात्कालिक) होनी आवश्यक है। प्रश्न: नवांश क्या है और इस वर्ग का ज्योतिष में क्या महत्व है? उत्तर: राशियों को नौ समान भागों में विभक्त कर तैयार वर्ग नवांश कहलाता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ग है। सभी वर्गों में इस वर्ग की चर्चा सबसे अधिक होती है। इस वर्ग को जन्म कुंडली का पूरक भी समझा जाता है। आमतौर पर नवांश के बिना फलित नहीं किया जाता। यह ग्रहों के बलाबल और जीवन के उतार-चढ़ाव को दर्शाता है। मुख्य रूप से यह वर्ग विवाह, वैवाहिक जीवन में खुशियां एवं दुख को दर्शाता है। लग्न कुंडली में जो ग्रह अशुभ स्थिति में हो और नवांश में वह शुभ हो तो ग्रह को शुभ फलदायी या हानि न पहुंचाने वाला माना जाता है। यदि ग्रह लग्न और नवांश दोनों में एक ही राशि पर हो तो ग्रह को वर्गोत्तम माना जाता है अर्थात विशेष शुभ फलदायी ग्रह हो जाता है। लग्नेश और नवांशेश दोनों का आपसी संबंध लग्न और नवांश कुंडली में शुभ हो तो जातक के जीवन में विशेष खुशियों को लाता है, वैवाहिक जीवन सुखमय होता है, जातक हर प्रकार के सुखों को भोगता हुआ जीवन व्यतीत करता है। वर-वधू के कुंडली मिलान में भी नवांश महत्वपूर्ण है। यदि लग्न कुंडलियां आपस में न मिलें लेकिन नवांश वर्ग मिल जाएं तो विवाह उत्तम माना जाता है और गृहस्थ जीवन आनंदमय रहता है। प्रश्न: क्या नवांश वर्ग में दृष्टियां भी कार्य करती हैं? उत्तर: नवांश वर्ग ही क्यों, किसी भी वर्ग में दृष्टि को नहीं देखा जाता। सिर्फ लग्न कुंडली में ही दृष्टि का महत्व है, अन्य किसी वर्ग में दृष्टि नहीं होती। प्रश्न: यदि नवांश वर्ग लग्न वर्ग का पूरक है तो क्या सिर्फ नवांश से ही फलित किया जा सकता है? उत्तर: पूरक होने का यह अर्थ नहीं कि हम मूल को भूल जाएं। बिना लग्न कुंडली के नवांश वर्ग ही नहीं किसी भी वर्ग से अकेले फलित नहीं किया जा सकता। प्रश्न: यदि नवांश वर्ग में ग्रहों की स्थिति एकदम खराब हो और लग्न कुंडली में बहुत ही अच्छी हो तो जातक को कैसा फल प्राप्त होगा? उत्तर: लग्न कुंडली में जातक को राज योग होते हुए भी राज योग का फल प्राप्त नहीं होगा। यदि नवांश वर्ग में ग्रहों की स्थिति विपरीत रहती है तो देखने में जातक संपन्न अवश्य नज़र आएगा लेकिन अंदर से खोखला होगा, स्त्री से परेशान रहेगा, जीवन में संघर्ष करता हुआ जीवन बिताएगा। प्रश्न: व्यवसाय के विषय में सूक्ष्म जानकारी के लिए कौन सा वर्ग देखना चाहिए और कैसे? उत्तर: व्यवसाय के लिए दशमांश वर्ग की सहायता ली जाती है। दशमांश अर्थात राशि के दस समान भाग कर जो वर्ग बनता है। वैसे देखा जाए तो जन्म कुंडली का दशम भाव जातक का कर्म क्षेत्र है जिसे देख कर यह अनुमान लगाया जाता है कि जातक का व्यवसाय कैसा रहेगा अर्थात जातक अपने व्यवसाय में बिना किसी रुकावट के कार्य करता रहेगा या नहीं। लेकिन व्यवसाय कैसा होना चाहिए और व्यवसाय में स्थिरता की जानकारी के लिए दशमांश वर्ग सहायक होता है। यदि दशमेश और दशम भाव में स्थित ग्रह दशमांश वर्ग में बल प्राप्त करते हैं तो जातक को व्यवसाय में विशेष सफलता प्राप्त होती है। प्रश्न: जातक व्यापार करेगा या नौकरी, यह दशमांश से कैसे मालूम होगा? उत्तर: जातक की कुंडली में दशम भाव में स्थित ग्रह यदि दशमांश कुंडली में स्थिर राशि में है और शुभ ग्रह से युक्त है तो जातक व्यापार में सफलता पाता है। दशमांश के लग्न का स्वामी और लग्नेश दोनों एक ही तत्व राशि के हों तो भी जातक व्यापार करता है। इसके विपरीत यदि दशम भाव स्थित ग्रह दशमांश कुंडली में चर राशि में स्थित हो और अशुभ ग्रह से युक्त हो तो जातक नौकरी करता है। दशमांश वर्ग लग्न स्वामी और लग्नेश में परस्पर शत्रुता जातक को व्यवसाय में अस्थिरता देती है। ऐसे कई योग देखने के बाद व्यवसाय के विषय में सूक्ष्मता से जाना जा सकता है। प्रश्न: व्यापार में कोई बहुत बड़े व्यापार में होता है, कोई छोटे में और नौकरी में कोई बहुत ऊंचे पद पर और कोई निम्न पद पर, क्या यह भी दशमांश से जाना जा सकता है? उत्तर: दशमांश हर तरह से व्यवसाय के संबंध में सहायता करता है। दशमांश में ग्रह विशेष शुभ है और कुंडली में भी ग्रह शुभ है या शुभ योगों में है तो जातक नौकरी में हो या व्यापार में, उच्चकोटि का काम ही करता है। एक आई.ए.एस. अधिकारी की कुंडली में नौकरी से संबंधित ग्रह उच्च कोटि के होंगे तभी वह इस पद पर पहुंचता है। व्यापारी की कुंडली में व्यापार से संबंधित ग्रह दशमांश और कुंडली दोनों में ही शुभ और उच्च कोटि के होने से एक बड़ा व्यापारी बनता है। प्रश्न: कैसे द्वादशांश वर्ग से जानें कि माता-पिता से जातक को कितना सुख है? उत्तर: लग्नेश और द्वादशांश लग्नेश इन दोनों में आपसी मित्रता इस बात का संकेत करती है कि जातक और उसके माता-पिता में आपसी संबंध अच्छे रहेंगे। इसके विपरीत ग्रह स्थिति से आपसी संबंध बिगड़ेंगे। इसके साथ ही लग्न कुंडली के चतुर्थ और दशम भाव के स्वामियों की द्वादशंाश वर्ग में स्थिति मित्र राशि में होनी चाहिए। इससे जातक को माता-पिता का पूर्ण सुख प्राप्त होता है। यदि ग्रह स्थितियां विपरीत रहेंगी तो जातक को सुख की इच्छा नहीं करनी चाहिए। प्रश्न: कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि मां से तो जातक की बहुत बनती है पर पिता से दुश्मनी, ऐसी स्थिति में द्वादशांश मंे क्या ग्रह स्थितियां होती हैं? उत्तर: यदि चतुर्थेश द्वादशांश में अशुभ ग्रहों से युक्त हो गया तो माता से नहीं बनेगी और दशमेश यदि शुभ ग्रहों से युक्त हो और शुभ स्थित हो तो जातक की पिता से बनेगी। इसके अतिरिक्त सूर्य और शनि की युति पिता-पुत्र में आपसी वैमनस्य पैदा करती है। इसी तरह चंद्र और शनि की युति माता-पुत्र में आपसी दूरियां पैदा करती है। प्रश्न: जातक के जीवन में अरिष्ट कार्य होते रहेंगे, यह कैसे जाना जाएगा? उत्तर: त्रिंशांश वर्ग में यदि सुख प्रदान करने वाले ग्रह शत्रु क्षेत्री या अशुभ स्थिति में हांे तो जातक के जीवन में अरिष्ट कार्य होते रहेंगे। प्रश्न: दुर्घटना कब होगी, क्या यह भी त्रिंशांश वर्ग से जाना जा सकता है? उत्तर: यह बात ग्रह-दशा पर निर्भर करती है। जो ग्रह लग्न कुंडली में सुख देने वाला है और त्रिंशांश में अशुभ है तो उसी ग्रह की दशा में जातक को कष्ट होगा। संबंधित ग्रह की गोचर स्थिति पर भी घटना निर्भर करती है। प्रश्न: खगोलशास्त्र के अनुसार षोडश वर्ग क्या दर्शाता है? उत्तर: खगोल शास्त्र के अनुसार राशि चक्र को बारह राशियों और 27 नक्षत्रों में बांटा गया है। मंद गति के ग्रह राशियों और नक्षत्रों में काफी समय तक रहते हैं अतः उसके आगे विभाग करने के लिए षोडश वर्ग की सहायता ली गई है जिसमें एक राशि अधिक से अधिक 60 भागों में बांट कर पूरे राशि चक्र को 720 भागों में विभक्त किया गया है। इससे सूक्ष्म फलकथन में सहायता मिलती है। प्रश्न: क्या षोडश वर्ग से ग्रह शांति के उपाय भी बताए जा सकते हैं? उत्तर: ग्रह शांति उस ग्रह की होती है जो कुंडली में अनिष्टकारी हो। यदि षोडश वर्ग में किसी वर्ग में ग्रह निर्बल है और लग्न कुंडली अशुभ फलदायी नहीं है तो उसका उपाय किया जा सकता है। सामान्यतः लग्न कुंडली और चलित से ही उपाय करना चाहिए।

जाने इस बार का मानसून का मिजाज और ज्योतिष्य गणना -

भारत की लगभग आधी से ज्यादा आबादी खेती के लिए बारिश पर निर्भर है, लेकिन बीते एक दशक में मानसून का मिजाज काफी बदल गया है. मानसून पर प्रदूषण और गर्मी के दिनों में जंगलों में आग लगने की वजह से पैदा हुए धुएं कारण गर्मियों में अब भारत के ऊपर भूरे रंग की एक धुएं की परत छाने की वजह से सूर्य की किरणें परावर्तित हो जाती हैं. मानसून का आना और सूर्य की किरणों का परावर्तित होना अलग अलग घटनाएं हैं, लेकिन जब ये दोनों टकराती हैं तो मानसून का व्यवहार बदल जाता है. भारत में बारिश के स्वभाव में आए बदलाव की वजह से हिमालयी राज्यों में कई नदियां रास्ता बदल चुकी हैं अब बारिश बहुत ज्यादा और लंबे समय तक हो रही है. इसकी वजह से नदियां लबालब हो रही हैं साथ ही जमीन की उर्वरता और जैव विविधता को भी भारी नुकसान हुआ है. इन घटनाओं का अगर हम ज्योतिषीय विवेचन करें तो देखते हैं कि बीते कुछ समय से, विषेषकर जब से राहु कलयुग में प्रभावी हुआ है तब से ही प्लीस्टिक या फाईबर की चीजों का चलन आरंभ हुआ और साथ ही जब से नीच के शनि का उच्चस्थ शनि की ओर भ्रमण चल रहा है और गुरू का गोचर में विपरीत प्रभाव शुरू हुआ तब से ही इंसान मनमर्जी करने के कारण राहु संबंधी चीजों का उपयोग कर वातावरण के प्रति असहिष्णु हो गया है, जिसके कारण प्रदूषण और भौतिकता की अति के कारण जंगल की कमी से वातावरण में इस प्रकार के परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। बीते कई सालों से चल रही इस प्रकार की प्रक्रिया को अब जब शनि और गुरू गोचर में उच्च तथा अनुकूल राषि में चल रहे हैं तब कठोरता से प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए पृथ्वी तथा इंसान को बचाने का प्रयास करना चाहिए। 

भद्रा एवं उसके दोष निवारण.......

किसी भी मांगलिक कार्य में भद्रा का योग अशुभ माना जाता है। भद्रा में मांगलिक कार्य का शुभारंभ या समापन दोनों ही अशुभ माने गये हैं। पुराणों के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य देव व देवी छाया की पुत्री व राजा शनि की बहन है। शनि की तरह ही इनका स्वभाव कड़क है। जिस समय देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय को देखकर श्री शंकर भगवान को क्रोध उत्पन्न हो गया और उनकी दृष्टि हृदय पर पड़ जाने से एक शक्ति उत्पन्न हो गई जो गर्दभ (गधा) के से मुंह वाली, सात भुजा वाली, तीन पैर युक्त, लम्बी पूंछ और सिंह के समान गर्दन से युक्त, कृश पेट वाली थी। वह पे्रत पर सवार होकर दैत्यों (राक्षसों) का विनाश करने लगी। इससे प्रसन्न होकर देवताओं ने इसे अपने कानों के समीप में स्थापित किया अतः इसे करणों में गिना जाने लगा। इस प्रकार काले वर्ण, लम्बे केश, तथा बड़े दांत व भंयकर रुप वाली, सात हाथ वाली, दुबले पेट वाली, महादेव जी के शरीर से उत्पन्न होकर दैत्यों का विनाश करने वाली भद्रा का जन्म हुआ। पंचांग में भद्रा का महत्व हिन्दू पंचांग के पांच प्रमुख अंग होते हैं- तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण। करण तिथि का आधा भाग होता है। करण ग्यारह होते हैं। इसमें ७ करण चर व ४ करण स्थिर होते हैं। ७वें चर करण का नाम ही विष्टि या भद्रा है। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि (भद्रा) चर करण हैं और स्थिर करण हैं - शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुध्न। भद्रा तीनों लोकों में घूमती है, मृत्युलोक, भू-लोक एवं स्वर्ग लोक। जब वह मृत्युलोक में होती है तो आवश्यक कार्यों में बाधक होती है। भद्रा के दोष का परिहार निम्नांकित चार स्थितियों में होता है- 1.स्वर्ग या पाताल में भद्रा का वास हो। 2.प्रतिकूल-काल वाली भद्रा हो। 3.दिनार्द्ध के अनन्तर वाली भद्रा हो। 4.भद्रा का पुच्छ काल हो। 1. स्वर्ग या पाताल में भद्रावास:- जिस भद्रा के समय चन्द्रमा मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशियों में हो उस भद्रा का वास स्वर्ग में, जिस भद्रा के समय चन्द्रमा कन्या, तुला, धनु, मकर राशियों में हो उसका वास पाताल और जिस भद्रा के समय चन्द्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ, मीन राशियों में हो उस भद्रा का वास भूमि पर माना जाता है। शास्त्रों का निर्णय है कि वही भद्रा दोषकारक है, जिसका भूमि पर वास हो। शेष (स्वर्ग या पाताल में वास करने वाली) भद्राओं का काल शुभ माना गया है। ‘‘भूलोकस्था सदा त्याज्या स्वर्ग-पातालगा शुभा।’’ इससे स्पष्ट है कि मेष, वृष, मिथुन, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु और मकर राशि में चन्द्रमा की स्थिति के समय घटित होने वाली (अर्थात् स्वर्ग-पातालवासी) भद्राएं शुभ होने से मंगल कार्यों के लिए शुभ हैं। स्पष्ट है, परिहार के इस नियम के अनुसार भद्रा का 67 प्रतिशत काल, जिसे हम अशुभ समझते हैं, मंगल कार्यों के लिए शुभ होता है। 2. प्रतिकूल-काल वाली भद्राः- तिथि के पूर्वार्द्ध में रहने वाली (यानी कृष्ण पक्ष की 7, 14 और शुक्ल पक्ष की 8, 15 तिथियों वाली) भद्राएं रात्रि की भद्राएं कहलाती हैं। यदि दिन की भद्रा रात्रि के समय और रात्रि की भद्रा दिन के समय आ जाए तो उसे ‘‘प्रतिकूल काल वाली भद्रा कहा जाता है। प्रतिकूल-काल वाली भद्रा को आचार्यों ने शुभ माना है- रात्रि भद्रा यदाऽह्नि स्याद् दिवा भद्रा यदा निशि। न तत्र भद्रादोषः स्यात् सा भद्रा भद्रदायिनी।। यदि ‘रात्रिभद्रा’ रात्रि के समय और ‘दिनभद्रा’ दिन के समय घटित हो तो उसे ‘अनुकूल काल वाली भद्रा’ कहा जाता है, ऐसी भद्रा को ही अशुभ माना गया है। 3. दिनार्द्ध के अनन्तर वाली भद्रा:- जो भद्रा दिनार्द्ध (मध्याह्न) से पूर्ववर्ती काल में हो उसे अशुभ और जो उसके (मध्याह्न) के परवर्ती काल में हो, उसे शुभ माना गया है- विष्टिरंगारकश्चैव व्यतीपातश्च वैधृतिः। प्रत्यरि-जन्मनक्षत्रं मध्याह्नात् परतः शुभम्।। भद्रा को वार के अनुसार भी नाम दिये गये हैं। सोमवार एवं शुक्रवार की भद्रा हो तो कल्याणी, यदि शनिवार को भद्रा हो तो वृश्चिकी, गुरुवार को हो तो पुण्यवती, रविवार, मंगलवार और बुधवार को हो तो भद्रिका की संज्ञा दी गयी है। 4. भद्रा का पुच्छकाल: कश्यप संहिता अनुसार मुखे पंच गले त्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः। नाभौ चतस्रः षट् कट्यां तिस्त्रः पुच्छाख्यनाडिकाः।। कार्यहानिः मुखे मृत्युर्गले वक्षासि निःस्वता। कट्यामुन्मत्तता नाभौ च्युतिः पुच्छे ध्रवो जयः।। अर्थात् भद्रा की 30 घड़ियों में से पहली पांच घड़ियां (कुल काल का षष्ठांश) उसका मुख, उसके बाद एक घड़ी गला, 11 घड़ियां वक्ष, 4 घड़ियां नाभि, 6 घड़ियां कमर और तीन घड़ियां (कुल काल का दशमांश) उसकी पुच्छ होती है। मुखकाल में कार्यहानि, कण्ठकाल में मृत्यु, वक्षकाल में निर्धनता, कटिकाल में पागलपन, नाभिकाल में पतन और पुच्छकाल में निश्चित विजय होती है। यदि भद्रा 30 घड़ी से अधिक की हो तो मुख व अन्य अंग भी षष्ठांश की गणनानुसार बड़े होंगे। सभी मुहूत्र्त ग्रन्थों में भद्रा के मुख काल को अशुभ और पुच्छ काल को शुभ लिखा गया है। भद्रा सर्पिणी की भांति अपना मुख पुच्छ की ओर करके रहती है। अर्थात जहां पुच्छ समाप्त होती है वहीं मुख प्रारंभ होता है लेकिन विभिन्न तिथियों में मुख का प्रारंभ काल अलग-अलग होता है। विभिन्न तिथियों वाली भद्राओं के मुख और पुच्छ का प्रारंभ काल, जो मुहूत्र्त संहिता ग्रन्थों में बतलाया गया है, उपरोक्त तालिका में वर्णित है। तालिकानुसार कृष्णपक्ष की तृतीया तिथि वाली भद्रा का मुख इस भद्रा के चैथे प्रहर के प्रारम्भ में इस भद्रा के षष्ठांश तुल्य समय तक और इसकी पुच्छ इसके तीसरे प्रहर के अन्त में इस भद्रा के दशमांश तुल्य समय तक रहेगी। सारांश -स्वर्ग और पातालवासी भद्राएं शुभ हैं, भूवासी नहीं। - भूवासी भद्रा भी शुभ हो जाती है, यदि वह प्रतिकूल काल वाली हो। - यदि भद्रा भूवासी है, वह प्रतिकूल काल वाली भी नहीं है, तब भी वह शुभ होगी, यदि वह दिनार्द्ध के बाद हो। - अत्यावश्यकता की स्थिति में भद्रा के मुखकाल को छोड़कर शेष भाग में शुभ कार्य किया जा सकता है। इस स्थिति में यदि हो सके तो पुच्छ काल को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कार्योंऽत्यावश्यके विष्टेः मुखमात्रं परित्यजेत्। - भद्रा के पुच्छकाल प्रत्येक स्थिति में शुभ हैं। जो व्यक्ति प्रातः काल भद्रा के १२ नामों का स्मरण करता हैं तो उसके सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। धन्या दधिमुखी भद्रा महामारी खरानना। कालरात्रिर्महारुद्रा विष्टिस्च कुल पुत्रिका ।। भैरवी च महाकाली असुराणां क्षयंकरी । द्वादशैव तु नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।। अर्थात् धन्या, दधि मुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारूद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुरक्षयंकारी द्वादश नाम प्रातः लेने से भद्रा शुभ फलदायी होती है।

राशिफल 26 जुलाई 2016


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Monday 25 July 2016

इनफर्टिलिटी : ज्योतिष्य कारण व् उपाय

फर्टिलिटी अर्थात प्रजनन क्षमता से जुड़ी समस्यायें स्त्री और पुरूष दोनों में ही पायी जाती हैं। हमारी कुंडली जीवन के प्रत्येक पक्ष को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। पुरूष की कुंडली में शुक्र और सूर्य तथा स्त्री की कुंडली में मंगल और चंद्रमा प्रजनन क्षमता को नियंत्रित करते हैं। इसके अतिरिक्त कुंडली का सप्तम भाव भी फर्टिलिटी में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। पुरुषों के लिए शुक्र, शुक्राणु को नियंत्रित करता है और सूर्य की सहायक भूमिका होती है तथा स्त्रियों के लिए मंगल और चंद्रमा रज को नियंत्रित करते हैं। इसके अतिरिक्त कुंडली का सप्तम भाव भी पुरूषों की शुक्र क्षमता को प्रभावित करता है और स्त्रियों में गर्भाशय और अंडाशय की स्थिति को दर्शाता है। अर्थात पुरूष की कुंडली में शुक्र और सप्तम भाव यदि बहुत पीड़ित या कमजोर स्थिति में हो तो फर्टिलिटी से जुड़ी समस्याएं आ सकती हैं। इसी प्रकार स्त्रियों की कुंडली में यदि मंगल, चंद्रमा और सप्तम भाव पीड़ित हो तो यूटरस या ओवरी से जुड़ी समस्याएं सामने आ सकती हैं जिससे संतान प्राप्ति में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। 1. पुरूष की कुंडली में यदि शुक्र नीच राशि (कन्या) में हो तो समस्याएं हो सकती हैं। 2. शुक्र छठे या आठवंे भाव में हो तो भी। 3. शुक्र केतु या मंगल के साथ हो तो। 4. शुक्र सूर्य के साथ समान अंश पर हो तो। 5. सप्तम भाव में पाप योग बने हों, सप्तमेश छठे या आठवें भाव में हो, नीचस्थ हो या षष्ठेश, अष्टमेश सप्तम भाव में हो तो भी पुरूषों में इन्फर्टिलिटी की समस्या हो सकती है। 1. स्त्रियों की कुंडली में यदि मंगल, चंद्रमा, नीच राशि में हों तो समस्याएं हो सकती हैं। 2. मंगल, चंद्रमा छठे या आठवें भाव में हो तो भी। 3. मंगल, चंद्रमा की राहु या शनि के साथ युति भी समस्या दे सकती है। 4. यदि सप्तम भाव पीड़ित हो या सप्तमेश पीड़ित हो तो भी स्त्रियों में फर्टिलिटी को लेकर समस्याएं हो सकती हैं। उपरोक्त सभी योगों में महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि फर्टिलिटी कारक ग्रह कमजोर है परंतु बलवान बृहस्पति की उनपर दृष्टि हो तो व्यक्ति को उस समस्या का समाधान मिल जाता है। ज्योतिषीय उपाय 1. पुरूष जातक शुक्र मंत्र का जाप करें। (ऊँ द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः) 2. स्त्री जातक मंगल और चंद्रमा का जप करें। (ऊँ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः) (ऊँ श्रां श्रीं श्रौं सः चंद्रमसे नमः) 3. पुरूष जातक शुक्रवार को गाय को खीर खिलायें। 4. स्त्री जातक मंगलवार को गाय को गुड़ खिलायें। 5. प्रतिदिन तुलसी जी को जल दें। 6. अपनी कुंडली के सप्तमेश ग्रह का भी निरंतर मंत्र जाप करें तो यह भी इन्फर्टिलिटी से जुड़ी समस्याओं में लाभदायक होता है।

हर्निया रोग: ज्योतिष्य विश्लेषण

उदर गह्नर में अमाशय, आंत आदि विभिन्न अंग होते हैं और जो भोजन नली अमाशय से गुर्दे तक जाती है, वह कई स्थानों से जुड़ी होती है तथा उसे उदर के ही पर्दे का सहारा होता है। आंत उतरने पर, जब तक वह अपने स्थान पर वापस नहीं आ जाती, तब तक अस्वाभाविकता के कारण कष्ट और पीड़ा का होना स्वाभाविक है, इससे तकलीफ बहुत बढ़ जाती है, खासकर उस वक्त, जब तक उतरी हुई आंत किसी तरह भी अपने स्थान पर वापस नहीं आ जाती। कभी-कभी इससे रोगी की मृत्यु भी हो जाती है। हर्निया अपने आप में रोग नहीं है। यह एक मात्र उदर की दीवार की निर्बलता है, जिसके कारण स्वस्थ एवं निरोग आंत उदर की दीवार की कमजोर मांसपेशियों में से मार्ग पाने पर, नीचे खिसक आती हैं। यदि उचित समय पर उपाय करके उदर की दीवार की इन कमजोर मांसपेशियांे को सशक्त कर देने में देरी न हो, तो आंत उतरना जानलेवा नहीं होता। हर्निया कभी भी, किसी को भी हो सकता है। छोटे बच्चों से लेकर वृद्ध लोगों तक को ऐसा हो सकता है। शरीर में हर्निया का सबसे प्रमुख स्थान उदर है और इसके अतिरिक्त सामान्यतः बनने वाली हर्निया इस प्रकार है:- वंक्षण हर्निया (इंग्यूनल हर्निया) इस प्रकार की हर्निया साधारणतः दो कारणों से होती है- एक तो उदर की दीवार की मांसपेशियों की दुर्बलता से, दूसरा बार-बार प्रसव प्रक्रिया से गुजरने, किसी चोट आदि के कारण और शल्य-चिकित्सा से उदर के अंदर दबाव के एकदम अत्यधिक बढ़ जाने से, जैसे पुरानी खांसी, क्षय, दमा आदि, जोर से खांसते रहने, मल त्याग में अधिक जोर लगाने आदि से आंत उदर दीवार के कोटर से सरक कर वंक्षणी नलिका में आ जाती है। इस प्रकार की हर्निया प्रायः बड़ी आयु वालों को होती है। नाभि हर्निया (अंबिलिक हर्निया) यह तीन प्रकार की होती है: 1. शैशव नाभि हर्निया: इस प्रकार की हर्निया में शिशु के खांसने या जोर लगाने पर नाभि में से एक थैली सी निकल आती है। इसका प्रमुख लक्षण यह है कि शिशु की नाभि स्पष्ट रूप से उभरी होती है। 2. जन्मजात नाभि बाह्य हर्निया यह शिशु में जन्म से ही होती है। समय पर इस हर्निया की शल्य-क्रिया न होने पर कोश के फटने का डर रहता है जो घातक सिद्ध होता है। 3. वयस्कों में परनाभि हर्निया इस प्रकार की हर्निया प्रायः अधिक आयु की मोटी स्त्रियों में उनकी नाभि के ऊपर एक छोटी थैली के रूप में शुरू होती है। यह हर्निया उन स्त्रियों में भी अधिक होती है, जो कई बार गर्भधारण और प्रसव प्रक्रिया से गुजरती हैं। उदर की पेटी की शल्य-चिकित्सा द्वारा हर्निया के कष्ट से छुटकारा मिल जाता है। और्वी हर्निया: यह स्त्रियों और पुरूषों में समान रूप से ही होती है। किंतु पुरूषों में यह वंक्षण हर्निया की अपेक्षा काफी कम ही होती है। यह हर्निया जोर से खांसने या जोर लगाने पर आर्वी नलिका पर एक उभार के रूप में प्रकट हो जाती है। इसका सरल उपाय शल्य चिकित्सा है। हायेटस हर्निया: यह हर्निया अधिकतर ग्रास प्रणाली में छिद्र से होती है, जिसका कारण छिद्र का बड़ा आकार होना है। यह हर्निया मध्य आयु के व्यक्तियों में, विशेषकर स्त्रियों में अधिक होता है। इसके लक्षण प्रायः अनिश्चित तथा अन्य अंगों से संबंधित प्रतीत होते हैं। लक्षणहीन हायेटस हर्निया में चिकित्सा की विशेष आवश्यकता नहीं होती। आभ्यंतर हर्निया: यह हर्निया बाह्य रूप में प्रकट नहीं होती, बल्कि अंदर ही अप्रत्यक्ष रूप में पैदा होती है और रोगी के जीवन के लिए भारी जटिलताएं पैदा करती है। इसके लक्षण कभी-कभी आंत्र अवरोध के रूप में भी प्रकट होते हैं जिसका शल्य चिकित्सा से ही उपचार हो पाता है। हर्निया से बचाव और उपचार: हर्निया का एक मात्र सफल उपचार शल्य चिकित्सा ही है। परंतु यदि हर्निया का आकार छोटा है और उससे होने वाले कष्ट सहनीय हैं, तो आंत की पेटी बांधने और भोजन संबंधी सावधानियां रखने तथा कुछ व्यायाम आदि से आराम आ जाता है। आंत की पेटी हर्निया की वृद्धि और वेदना को रोकने का एक यांत्रिक साधन है। इसे जहां तक संभव हो सके, हर समय लगाए रखना चाहिए। केवल सोते समय, लेटने के पश्चात उतार लें। हर्निया के रोगी को गैस, कब्ज की शिकायत न हो, इसकी सावधानी रखनी चाहिए और मल त्याग के समय वे अधिक जोर न लगाएं। जोर से खांसना, वजन उठाना, तेजी से दौड़ना आदि भी वर्जित है, रोगी की स्थिति को मद्देनजर रखते हुए आंशिक उपवास कराएं या 5-7 दिन तक रोगी को रस-आहार या फल-आहार देना चाहिए। बाद में रोगी को धीरे-धीरे ठोस आहार पर लाएं और सलाद, उबली सब्जियां, फल मौसम अनुसार सेवन कराएं। ज्योतिषीय दृष्टिकोण ज्योतिष के अनुसार काल पुरूष की कुंडली में आंत का संबंध षष्ठ भाव और कन्या राशि से है। कन्या राशि का स्वामी बुध होता है और षष्ठ भाव का कारक ग्रह मंगल होता है। इसलिए षष्ठ भाव, षष्ठेश, षष्ठकारक मंगल, बुध, लग्न, लग्नेश जब दुष्प्रभावों में रहते हैं, तो आंतों से संबंधित रोग होते हैं, जिनमें हर्निया रोग भी शामिल है। शरीर में हर्निया उदर के ऊपरी भाग से लेकर उदर के निचले भाग तक कहीं भी हो सकती है। काल पुरूष की कुंडली में पंचम और सप्तम भाव भी शामिल है। इसलिए इन भावों के स्वामी और कारक ग्रहों का निर्बल होना उदर में उस स्थान को दर्शाते हैं जिस भाग में हर्निया होती है। हर्निया रोग आंत के उदर की दीवार के कोटर से बाहर निकलने से होता है जिसे आंत का उतरना भी कहते हैं। उदर की दीवार की निर्बलता के कारण आंत अपने स्थान (कोटर) से बाहर निकलकर नीचे की तरफ उतर जाती है। ऐसा उपर्युक्त भाव, राशि एवं ग्रहों के दुष्प्रभाव और निर्बलता के कारण होता है। जब इन ग्रहों की दशा-अंतर्दशा रहती है और संबंधित ग्रह का गोचर विपरीत रहता है तो हर्निया रोग होता है। विभिन्न लग्नों में हर्निया रोग मेष लग्न: लग्नेश मंगल सप्तम भाव में सूर्य से अस्त हो, षष्ठेश बुध राहु से युक्त या दृष्ट षष्ठ भाव में हो और शनि लग्न, पंचम या दशम भाव में हो तो हर्निया रोग या उदर में आंतों से संबंधित रोग होता है। वृष लग्न: लग्नेश एवं षष्ठेश शुक्र अष्टम भाव में गुरु राहु से युक्त या दृष्ट, षष्ठ भाव में पंचमेश बुध, सप्तम भाव में शनि से युक्त हो तो हर्निया जैसा रोग होता है। मिथुन लग्न: मंगल पंचम, षष्ठ या सप्तम भाव में राहु या केतु से दृष्ट या युक्त हो, बुध अस्त हो, गुरु षष्ठेश से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को हर्निया जैसे रोग का सामना करना पड़ता है। कर्क लग्न: लग्नेश चंद्र बुध से युक्त होकर षष्ठ भाव में हो और राहु-केतु की दृष्टि में हो, शुक्र पंचम या सप्तम भाव में हो और शनि से युक्त या दृष्ट हो तो हर्निया रोग हो सकता है। सिंह लग्न: बुध षष्ठ भाव में, पंचमेश गुरु और नवमेश मंगल राहु या केतु से युक्त होकर सप्तम भाव में हो, शुक्र अष्टम भाव में हो तो जातक को हर्निया रोग देता है। कन्या लग्न: मंगल-गुरु एक- दूसरे से युक्त या दृष्ट षष्ठ भाव में हो, बुध-सूर्य सप्तम भाव में,राहु-केतु, षष्ठ या अष्टम भाव में हो तो हर्निया जैसा रोग हो सकता है। तुला लग्न: गुरु षष्ठ भाव में राहु एवं मंगल से युक्त हो, शनि बुध सप्तम भाव में हो और शुक्र अस्त हो तो हर्निया रोग होता है। वृश्चिक लग्न: बुध षष्ठ भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो, मंगल अष्टम भाव में, सूर्य सप्तम भाव में एवं चंद्र लग्न में हो तो हर्निया जैसा रोग होता है। धनु लग्न: बुध-शुक्र षष्ठ भाव में, सूर्य सप्तम भाव में मंगल से युक्त हो, राहु-केतु दशम भाव में हो तो जातक को हर्निया जैसा रोग होता है। मकर लग्न: गुरु षष्ठ भाव में केतु से युक्त या दृष्ट हो, बुध सप्तम भाव में शुक्र से युक्त, शनि चतुर्थ भाव में चंद्र से युक्त हो तो जातक को हर्निया हो सकता है।

शिव अधिवास व्रत


श्रावाण एकादशी व्रत


श्रवाण में कालाष्टमी व्रत


सावन का पहला सोमवार


वास्तु और ज्योतिष में मेलभाव........

वास्तु शास्त्र के अनुसार पूर्व एवं उत्तर दिशा अगम सदृश और दक्षिण और पश्चिम दिशा अंत सदृश है। ज्योतिष अनुसार पूर्व दिशा में सूर्य एवं उत्तर दिशा में प्रसरणशील बृहस्पति का कारक तत्व है। उसके अनुसार उत्तर एवं पूर्व में अगम दिशा के तौर पर पश्चिम में शनि समान मंगल पाप ग्रह की प्रबलता है। पश्चिम में शनि समान आकुंचन तत्व की महत्ता है। उस गणना से दक्षिण-पश्चिम अंत सदृश दिशाएं हैं। इस आलेख में दी गई चारों कुण्डलियों के अनुसार यह समझाने का प्रयास किया गया है कि वास्तु एवं ज्योतिष एक सिक्के के पहलू हैं। जैसे प्रत्येक ग्रह की अपनी एक प्रवृत्ति होती है। उसी के अनुसार वह फल करता है। यदि शुभ ग्रह शुभ भाव में विराजमान होगा तो वहां सुख समृद्धि देगा। अशुभ ग्रह शुभ स्थान पर अशुभ फल प्रदान करेगा। बृहस्पति- खुली जगह, खिड़की, रोशनदान, द्वार, कलात्मक व धार्मिक वस्तुएं। चंद्रमा- बाहरी वस्तुओं की गणना देगा। शुक्र- कच्ची दीवार, गाय, सुख समृद्धि वस्तुएं। मंगल- खान-पान संबंधित वस्तुएं। बुध- निर्जीव वस्तुएं, शिक्षा संबंधी। शनि- लोहा लकड़ों का सामान। राहु- धूएं का स्थान, नाली का गंदा पानी, कबाड़ा। केतु- कम खुला सामान। उक्तग्रहों के अनुसार, जातक की पत्री अनुसार ज्ञात प्रवृत्ति सकता है कि उसके भवन में किस प्रवृत्ति का निर्माण है। कालपुरुष की कुंडली में जहां पाप ग्रह विद्यमान हैं और वह निर्माण वास्तु सम्मत नहीं है तो उक्त निर्माण उस जातक को कष्ट देगा। 1.लग्नेश लग्न में (शुभ ग्रह) हो ता पूर्व में खिड़कियां। 2. लग्नेश का लग्न में नीच, पीड़ित होना- पूर्व दिशा के दोष को दर्शायेगा। जातक मष्तिक से पीड़ित रहेगा। देह सुख नहीं प्राप्त होगा। 3. लग्नेश का 6, 8, 12वें में पीड़ित होना पूर्व दिशा में दोष करता है। 4. षष्ठेश लग्न में हो तो- पूर्व में खुला मगर आवाज, शोर शराबा आदि । 5. लग्नेश तृतीय भाव में- ई्रशान में टूट-फूट-ईट, का निर्माण आदि। 6. राहु-केतु की युति उस ग्रह संबंधी दिशा में दोष उत्पन्न करती है। 7. एकादश, द्वादश में पाप ग्रह, षष्ठेश, अष्टमेश के होने के कारण ईशान में दोष कहें। 8. क्रम संख्या (1) में जहां-जहां शुभ ग्रह होंगे वहां-वहां खुलापन हवा व प्रकाश की उचित व्यवस्था होगी। 9. यदि शुभ ग्रह दशम भाव में होंगे तो वहां पर खुला स्थान होगा। इसी प्रकार शुभाशुभ निर्माण को हम जन्म पत्रिका से जान लेते हैं। अशुभ निर्माण कालपुरुष के अंगों को प्रभावित करके गृहस्वामी को कष्ट देता है। उक्त भाव संबंधी लोगों को कष्ट देगा। 10. ततीय भाव पीडित हा ता भाई-बहन को कष्ट। 11. चतुर्थ भाव व चतुर्थेश पीड़ित हो तो- मां को कष्ट। 12. सप्तम-नवम् भाव पीड़ित हो तो- पत्नी पिता को कष्ट होगा। इसी प्रकार प्रत्येक का हाल जानें।

अगर आप शनि पीड़ित हैं तो क्या ज्योतिष्य उपाय करें...

ग्रहों की चर्चा आते ही अधिकांश लोगों का ध्यान ‘‘शनि’’ की ओर ही आकर्षित होता है तथा एक भय की दृष्टि से इसे देखते हैं। जबकि सत्यता इससे कहीं अलग है क्योंकि शनिदेव को भगवान शिव के द्वारा दण्डाधिकारी का पद मिला हुआ है अब यदि दण्डाधिकारी सबके सामने अपना कोमल हृदय प्रस्तुत करेंगे तो अपराधियों को दण्ड देने में और मनुष्य द्वारा किये गये गलत कर्म का दण्ड देने में व्यवधान उत्पन्न होगा और सृष्टि संचालन बाधित हो जायेगा तो शनि का क्रूर या क्रोधी स्वभाव केवल गलत कर्मों को नष्ट करने के लिए है शनि की साढ़ेसाती और ढैया में मनुष्य के गलत कर्म या भूल आदि का फल प्राप्त होता है यदि साढ़ेसाती जीवन में न आये तो हमारे गलत कर्म के परिणाम एकत्रित होते रहेंगे जिन्हें आगे हमें भोगना पड़ेगा इसलिए शनि की साढ़ेसाती साथ के साथ ही परिणाम देकर गलत कर्मों को भस्म करती है और मनुष्य को संघर्ष की अग्नि में तपाकर परिपक्वता की स्वर्ग सी चमक भर देती है। ज्योतिषीय दृष्टि कोण: हमारे जीवन से जुड़े बहुत से अहम घटक शनि के अंतर्गत आते हैं। यदि हमारी कुंडली में शनि पीड़ित या निर्बल स्थिति में हो तो उनसे संबंधित विभिन्न समस्याएं होती हैं। आजीविका: यदि कुंडली में शनि नीच राशि में है त्रिक भाव में है मंगल या केतु के प्रभाव से पीड़ित है या पूर्णतः अस्त हो तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति संघर्ष करने पर भी आजीविका क्षेत्र में उन्नति कर पाता। बार-बार क्षेत्र बदलने पड़ते हैं तथा आजीविका में उतार-चढ़ाव सदैव आते रहते हैं। व्यापारिक क्षेत्र में: यदि शनि कुंडली में पीड़ित है तो ऐसे व्यक्ति को लोहे, मशीनों, पुर्जों, पैट्रोल, कोयला, गाड़ी, कैमिकल आदि के व्यापार में उन्नति नहीं होती अतः शनि निर्बल होने पर इन व्यापारों को नहीं करना चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि में: यदि शनि नीच राशि (मेष) में है या छठे, आठवें बारहवें भाव में है या षष्टेश और अष्टमेश से प्रभावित है तो ऐसे में व्यक्ति का पेट, पाचन तंत्र सदैव बिगड़ा रहता है तथा जोड़ों के दर्द जैसे कमर, घुटने कोहनी आदि की समस्या भी रहती है इसके अतिरिक्त बालों की समस्या तथा वात रोगों से भी व्यक्ति परेशान रहता है। जनता के समर्थन में: राजनीति के संबंध में भी शनि की भूमिका होती है क्योंकि शनि जनता का नैसर्गिक कारक है अतः शनि कुंडली में पीड़ित हो तो व्यक्ति को जनता का समर्थन पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है। अतः कुंडली में शनि बलहीन या पीड़ित हो तो जीवन में बहुत सी आवश्यक चीजों का अभाव हो जाता है अतः ज्योतिष और सृष्टि सचांलन में शनि की एक अहम भूमिका है उपरोक्त स्थितियों में शनि के मंत्र, पूजन, व्रत, सेवा आदि करके स्थिति को सुधारा जा सकता है।

हार्मोनस की गड़बड़ी जाने कुंडली से-

हार्मोन शरीर में बनने वाले वो रासायनिक पदार्थ हैं जो शारीरिक क्रियाओ पर नियंत्रण रखते हैं। हार्मोन की कमी या अधिकता शरीर को प्रभावित करती है। शरीर में विभिन्न प्रकार के हार्मोन होते हैं, जिसे मेडिकल साईंस द्वारा तो जाना जा ही सकता है किंतु इसका सही तरीके से वर्णन किसी की कुंडली देखकर किया जा सकता है। यदि किसी का लग्नेष द्वादष या अष्टम स्थान में हो तो उसे थाईराइड जैसे हार्मोन के कारण शारीरिक कष्ट हो सकता है इसी प्रकार दूसरे या तीसरे स्थान का स्वामी अपने स्थान से द्वादष या षडाषटक हो जाये तो पेराथाईराईड जैसे हार्मोन के गड़बड से हड्डी संबंधी दिक्कत होती है इसी प्रकार अन्य ग्रहों के प्रतिकूल होने से शरीर के विभिन्न हार्मोन की गड़बड़ी शारीरिक क्रिया को प्रभावित कर सकती है। किसी भी बच्चे की कुंडली का अध्ययन कराया जाकर उसकी कुंडली में ऐसे ग्रहों की विपरीत स्थिति का पता लगाया जाकर ग्रहों की शांति एवं समय रहते आवष्यक चिकित्सकीय उपाय करना चाहिए।

Astrology Sitare Hamare Saptahik Rashifal 25 31 July 2016

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Sunday 24 July 2016

अगस्त 2016 के शुभ मुहूर्त..........


फलित ज्योतिष में षोडश वर्ग का क्या महत्व है?

जन्म पत्रिका का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए षोडश वर्ग विशेष सहायक होते हैं। इन वर्गों के अध्ययन के बिना जन्म कुंडली का विश्लेषण अधूरा है क्योंकि जन्म कुंडली से केवल जातक के शरीर, उसकी संरचना एवं स्वास्थ्य के बारे में विस्तृत अध्ययन किया जाता है जबकि षोडश वर्ग का प्रत्येक वर्ग जातक के जीवन के एक विशिष्ट कारकत्व या घटना के अध्ययन के लिए सहायक होता है। प्रश्न: बिना षोडश वर्ग अध्ययन के विश्लेषण अधूरा कैसे? उत्तर: जातक के जीवन के जिस पहलू के बारे में हम जानना चाहते हैं उस पहलू के वर्ग का जब तक हम अध्ययन नहीं करें तो विश्लेषण अधूरा ही रहता है। जैसे हम जातक की संपत्ति-संपन्नता के विषय में जानना चाहते हैं तो जरूरी है कि होरा वर्ग का अध्ययन करें या किसी के व्यवसाय के बारे में जानना है तो दशमांश का अध्ययन करना चाहिए। जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को जानने के लिए किसी विशेष वर्ग का अध्ययन किये बिना फलित चूक सकता है। प्रश्न: षोडश वर्ग के भिन्न-भिन्न वर्गों से जातक के किन-किन पहलुओं का ज्ञान होता है? उत्तर: षोडश वर्ग में सोलह वर्ग हैं जो जातक के विभिन्न पहलुओं की जानकारी देते हैं। जैसे: होरा से संपत्ति व समृद्धि, द्रेष्काण से भाई-बहन, पराक्रम, चतुर्थान्श से भाग्य, चल एवं अचल संपत्ति, सप्तांश से संतान, नवांश से वैवाहिक जीवन व जीवन साथी, दशमांश से व्यवसाय व जीवन में उपलब्धियां, द्वादशांश से माता-पिता, षोडशांश से सवारी एवं सामान्य खुशियां, विंशांश से पूजा-उपासना और आशीर्वाद, चतुर्विंशांश से विद्या, शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान आदि, सप्तविंशांश से बल एवं दुर्बलता, त्रिंशांश से दुःख, तकलीफ, दुर्घटना, अनिष्ट, खवेदांश से शुभ या अशुभ फलों का विवेचन, अक्षवेदांश से जातक का चरित्र, षष्ट्यांश से जीवन के सामान्य शुभ-अशुभ फल आदि अनेक पहलुओं का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है। प्रश्न: षोडश वर्ग में कौन से वर्ग अधिक महत्वपूर्ण हैं? उत्तर: यूं तो सभी वर्ग महत्वपूर्ण हैं लेकिन आज के युग में जातक धन, पराक्रम, भाई-बहनों से वाद-विवाद, रोग, संतान, वैवाहिक जीवन, साझेदारी, व्यवसाय, माता-पिता और जीवन में आने वाले संकटों के बारे में अधिक प्रश्न करता है। इन प्रश्नों के विश्लेषण के लिए होरा, द्रेष्काण, सप्तांश, नवांश, दशमांश, द्वादशांश और त्रिंशांश काफी हंै क्योंकि आज का मानव इन्हीं से संबंधित अधिक प्रश्न करता है। प्रश्न: क्या षोडश वर्ग के अतिरिक्त भी और वर्ग होते हैं? उत्तर: षोडश वर्ग में सोलह वर्ग लिए गए हैं लेकिन इसके अतिरिक्त भी और चार वर्ग पंचमांश, षष्टांश, अष्टमांश और एकादशांश हंै। पंचमांश जातक की आध्यात्मिक प्रवृत्ति, पूर्व जन्मों के पुण्य एवं संचित कर्मों की जानकारी देता है। षष्टांश से जातक के स्वास्थ्य, रोग के प्रति अवरोधक शक्ति, ऋण, झगड़े आदि की विवेचना की जाती है। एकदशांश जातक की बिना प्रयास धन प्राप्ति को दर्शाता है। यह वर्ग पैतृक संपत्ति, शेयर, सट्टे के द्वारा स्थायी धन प्राप्ति की जानकारी देता है। अष्टमांश से जातक की आयु एवं आयुर्दाय के विषय में जानकारी मिलती है। प्रश्न: षोडश वर्ग पर कितना ध्यान देना चाहिए? उत्तर: जब किसी विषय विशेष का बहुत ही सूक्ष्म अध्ययन करना हो तब षोडश वर्ग पर पूर्ण ध्यान देना चाहिए। प्रश्न: क्या सभी वर्ग कुंडलियों का हर प्रश्न के लिए विचार करना चाहिए या किसी एक प्रश्न के लिए? उत्तर: वर्ग कुंडलियों में एक वर्ग से हर प्रश्न पर विचार नहीं होता है। किसी विशेष विषय के लिए संबंधित वर्ग पर विचार करना चाहिए। प्रश्न: षोडश वर्ग में भी क्या अलग-अलग भाव अलग-अलग पहलुओं को दर्शाते हैं? उत्तर: षोडश वर्ग में अलग-अलग भाव अलग पहलुओं को नहीं दर्शाते हैं। वर्ग कुंडली में वर्ग के लग्न और उसमें बैठे ग्रहों का ही महत्व है। प्रश्न: यदि कोई ग्रह वर्गोत्तम है और नीच है तो कैसे फल देगा? उत्तर: वर्गोत्तम ग्रह नीच हो तो फल कमजोर ही होगा। फल ग्रह के बलाबल पर निर्भर करता है, भले ही वह नीच का हो। प्रश्न: क्या वर्गोत्तम होना केवल नवांश से ही देखना चाहिए? उत्तर: वर्गोत्तम नवांश से ही नहीं बल्कि और वर्गो से भी देखना चाहिए क्योंकि जिस विषय विशेष का अध्ययन करना हो उससे संबंधित वर्ग में भी यदि ग्रह लग्न कुंडली की राशि में है तो वर्गोत्तम माना जाएगा। प्रश्न: षोडश वर्ग का उपयोग ज्योतिष में और कहां मिलता है? उत्तर: षोडश वर्ग का उपयोग षड्बल और विंशोपक बल में बलों को साधने में किया गया है। प्रश्न: क्या षोडश वर्गो में उच्च-नीचस्थ ग्रहों आदि को भी लग्न कुंडली की तरह देखना चाहिए? उत्तर: षोडश वर्गों में उच्च, नीच, स्वग्रही आदि का विचार करना चाहिए। वृहत पराशर होरा शास्त्र के अनुसार ‘‘स्वोच्च मूलत्रिकोणस्वभवनाधिपतेः तथा। स्वारूढात् केंद्र नाथानां वर्गां ग्राह्याः सुधीमता।। अस्तंगता ग्रहजिता नीचगा दुर्बलास्थता। शयनादिगतादुस्था उत्पन्ना योग नाशकाः।। अर्थात अपने उच्च, मूलत्रिकोण, स्वभवन वाले लग्न केंद्राधिपतियों के वर्ग शुभ होते हैं। अस्तंगत, पराजित, नीचगत, बलहीन, शयनादि अवस्था में स्थित ग्रहों के वर्ग अशुभ फलदायक और शुभ फलों के नाशकारक होते हैं। प्रश्न: षोडश वर्ग में वर्गों के देवता आदि का वर्णन होता है। उनके फल कथन कैसे किए जाएं? उत्तर: षोडश वर्ग में ग्रह अंश के अनुसार राशि गणना की जाती है और साथ ही अधिदेव का स्पष्टीकरण किया जाता है। देवता की प्रकृति के अनुसार ही फलकथन करना चाहिए। लेकिन सामान्य रूप से राशि के स्वामी के अनुसार ही फल कथन किया जाता है। प्रश्न: जातक के धन संबंधित पहलू की जानकारी के लिए होरा किस तरह से देखनी चाहिए? उत्तर: जन्म कुंडली की प्रत्येक राशि के दो समान भाग कर सिद्धांतानुसार जो वर्ग बनता है, होरा कहलाता है। इससे जातक के धन संबंधित पहलू का अध्ययन किया जाता है। होरा में दो ही लग्न होते हैं, सूर्य का अर्थात सिंह या चंद्र का अर्थात कर्क। ग्रह या तो चंद्र होरा में रहते हैं या सूर्य होरा में। वृहत पराशर होराशास्त्र के अनुसार गुरु, सूर्य एवं मंगल सूर्य की होरा में जातक को अच्छा फल देते हैं। चंद्र, शुक्र एवं शनि चंद्र की होरा में अच्छा फल देते हैं। बुध दोनों होराओं में फलदायक है। यदि सभी ग्रह अपनी शुभ फल वाली होरा में होंगे तो जातक को धन संबंधी समस्याएं नहीं आएंगी, जातक धनी होगा। यदि कुछ ग्रह शुभ होरा में और कुछ अशुभ होरा में होंगे तो फल मध्यम रहेगा। यदि सभी ग्रह अशुभ होरा में होंगे तो जातक निर्धन होता है। प्रश्न: दे्रष्काण जातक के जीवन के किस पहलू के विश्लेषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है? उत्तर: द्रेष्काण जातक के भाई-बहनों से सुख, परस्पर संबंध, पराक्रम के बारे में जानकारी के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इससे जातक की मृत्यु का स्वरूप भी मालूम किया जाता है। प्रश्न: द्रेष्काण से फलित करते समय किन बातों पर ध्यान रखना चाहिए? उत्तर: द्रेष्काण से फलित करते समय हमें कुंडली के तीसरे भाव के स्वामी, तीसरे भाव का कारक मंगल एवं मंगल से तीसरे स्थित ग्रह की स्थिति और उसके बल का ध्यान रखना चाहिए। यदि द्रेष्काण कुंडली में संबंधित ग्रह अपने शुभ स्थान पर स्थित हैं तो जातक को भाई-बहनों से विशेष लाभ होगा और उसके पराक्रम में वृद्धि होगी। आगे चल कर जातक का अंत समय भी सुखी होगा। इसके विपरीत यदि संबंधित ग्रह अपने अशुभ स्थान अर्थात द्रेष्काण में होंगे तो जातक को अपने भाई-बहनों से किसी प्रकार का सहयोग प्राप्त नहीं होगा। ऐसी भी संभावना हो सकती है कि जातक अपने मां-बाप की अकेली ही संतान हो। प्रश्न: सप्तांश वर्ग से संतान सुख का विश्लेषण कैसे करते हैं? उत्तर: जन्म कुंडली में पंचम भाव संतान का माना गया है, इसलिए पंचम भाव का स्वामी, पंचम का कारक ग्रह गुरु, गुरु से पंचम स्थित ग्रह और उसके बल का ध्यान रखना चाहिए। सप्तांश में संबंधित ग्रह अपने उच्च या शुभ स्थान पर हो तो शुभ फल प्राप्त होता है अर्थात संतान का सुख प्राप्त होता है। इसके विपरीत अशुभ और नीचस्थ ग्रह जातक को संतानहीन बनाता है या संतान होने पर भी सुख नहीं प्राप्त होता। सप्तांश लग्न और जन्म लग्न दोनों के स्वामियों में परस्पर मित्रता (नैसर्गिक और तात्कालिक) होनी आवश्यक है। प्रश्न: नवांश क्या है और इस वर्ग का ज्योतिष में क्या महत्व है? उत्तर: राशियों को नौ समान भागों में विभक्त कर तैयार वर्ग नवांश कहलाता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ग है। सभी वर्गों में इस वर्ग की चर्चा सबसे अधिक होती है। इस वर्ग को जन्म कुंडली का पूरक भी समझा जाता है। आमतौर पर नवांश के बिना फलित नहीं किया जाता। यह ग्रहों के बलाबल और जीवन के उतार-चढ़ाव को दर्शाता है। मुख्य रूप से यह वर्ग विवाह, वैवाहिक जीवन में खुशियां एवं दुख को दर्शाता है। लग्न कुंडली में जो ग्रह अशुभ स्थिति में हो और नवांश में वह शुभ हो तो ग्रह को शुभ फलदायी या हानि न पहुंचाने वाला माना जाता है। यदि ग्रह लग्न और नवांश दोनों में एक ही राशि पर हो तो ग्रह को वर्गोत्तम माना जाता है अर्थात विशेष शुभ फलदायी ग्रह हो जाता है। लग्नेश और नवांशेश दोनों का आपसी संबंध लग्न और नवांश कुंडली में शुभ हो तो जातक के जीवन में विशेष खुशियों को लाता है, वैवाहिक जीवन सुखमय होता है, जातक हर प्रकार के सुखों को भोगता हुआ जीवन व्यतीत करता है। वर-वधू के कुंडली मिलान में भी नवांश महत्वपूर्ण है। यदि लग्न कुंडलियां आपस में न मिलें लेकिन नवांश वर्ग मिल जाएं तो विवाह उत्तम माना जाता है और गृहस्थ जीवन आनंदमय रहता है। प्रश्न: क्या नवांश वर्ग में दृष्टियां भी कार्य करती हैं? उत्तर: नवांश वर्ग ही क्यों, किसी भी वर्ग में दृष्टि को नहीं देखा जाता। सिर्फ लग्न कुंडली में ही दृष्टि का महत्व है, अन्य किसी वर्ग में दृष्टि नहीं होती। प्रश्न: यदि नवांश वर्ग लग्न वर्ग का पूरक है तो क्या सिर्फ नवांश से ही फलित किया जा सकता है? उत्तर: पूरक होने का यह अर्थ नहीं कि हम मूल को भूल जाएं। बिना लग्न कुंडली के नवांश वर्ग ही नहीं किसी भी वर्ग से अकेले फलित नहीं किया जा सकता। प्रश्न: यदि नवांश वर्ग में ग्रहों की स्थिति एकदम खराब हो और लग्न कुंडली में बहुत ही अच्छी हो तो जातक को कैसा फल प्राप्त होगा? उत्तर: लग्न कुंडली में जातक को राज योग होते हुए भी राज योग का फल प्राप्त नहीं होगा। यदि नवांश वर्ग में ग्रहों की स्थिति विपरीत रहती है तो देखने में जातक संपन्न अवश्य नज़र आएगा लेकिन अंदर से खोखला होगा, स्त्री से परेशान रहेगा, जीवन में संघर्ष करता हुआ जीवन बिताएगा। प्रश्न: व्यवसाय के विषय में सूक्ष्म जानकारी के लिए कौन सा वर्ग देखना चाहिए और कैसे? उत्तर: व्यवसाय के लिए दशमांश वर्ग की सहायता ली जाती है। दशमांश अर्थात राशि के दस समान भाग कर जो वर्ग बनता है। वैसे देखा जाए तो जन्म कुंडली का दशम भाव जातक का कर्म क्षेत्र है जिसे देख कर यह अनुमान लगाया जाता है कि जातक का व्यवसाय कैसा रहेगा अर्थात जातक अपने व्यवसाय में बिना किसी रुकावट के कार्य करता रहेगा या नहीं। लेकिन व्यवसाय कैसा होना चाहिए और व्यवसाय में स्थिरता की जानकारी के लिए दशमांश वर्ग सहायक होता है। यदि दशमेश और दशम भाव में स्थित ग्रह दशमांश वर्ग में बल प्राप्त करते हैं तो जातक को व्यवसाय में विशेष सफलता प्राप्त होती है। प्रश्न: जातक व्यापार करेगा या नौकरी, यह दशमांश से कैसे मालूम होगा? उत्तर: जातक की कुंडली में दशम भाव में स्थित ग्रह यदि दशमांश कुंडली में स्थिर राशि में है और शुभ ग्रह से युक्त है तो जातक व्यापार में सफलता पाता है। दशमांश के लग्न का स्वामी और लग्नेश दोनों एक ही तत्व राशि के हों तो भी जातक व्यापार करता है। इसके विपरीत यदि दशम भाव स्थित ग्रह दशमांश कुंडली में चर राशि में स्थित हो और अशुभ ग्रह से युक्त हो तो जातक नौकरी करता है। दशमांश वर्ग लग्न स्वामी और लग्नेश में परस्पर शत्रुता जातक को व्यवसाय में अस्थिरता देती है। ऐसे कई योग देखने के बाद व्यवसाय के विषय में सूक्ष्मता से जाना जा सकता है। प्रश्न: व्यापार में कोई बहुत बड़े व्यापार में होता है, कोई छोटे में और नौकरी में कोई बहुत ऊंचे पद पर और कोई निम्न पद पर, क्या यह भी दशमांश से जाना जा सकता है? उत्तर: दशमांश हर तरह से व्यवसाय के संबंध में सहायता करता है। दशमांश में ग्रह विशेष शुभ है और कुंडली में भी ग्रह शुभ है या शुभ योगों में है तो जातक नौकरी में हो या व्यापार में, उच्चकोटि का काम ही करता है। एक आई.ए.एस. अधिकारी की कुंडली में नौकरी से संबंधित ग्रह उच्च कोटि के होंगे तभी वह इस पद पर पहुंचता है। व्यापारी की कुंडली में व्यापार से संबंधित ग्रह दशमांश और कुंडली दोनों में ही शुभ और उच्च कोटि के होने से एक बड़ा व्यापारी बनता है। प्रश्न: कैसे द्वादशांश वर्ग से जानें कि माता-पिता से जातक को कितना सुख है? उत्तर: लग्नेश और द्वादशांश लग्नेश इन दोनों में आपसी मित्रता इस बात का संकेत करती है कि जातक और उसके माता-पिता में आपसी संबंध अच्छे रहेंगे। इसके विपरीत ग्रह स्थिति से आपसी संबंध बिगड़ेंगे। इसके साथ ही लग्न कुंडली के चतुर्थ और दशम भाव के स्वामियों की द्वादशंाश वर्ग में स्थिति मित्र राशि में होनी चाहिए। इससे जातक को माता-पिता का पूर्ण सुख प्राप्त होता है। यदि ग्रह स्थितियां विपरीत रहेंगी तो जातक को सुख की इच्छा नहीं करनी चाहिए। प्रश्न: कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि मां से तो जातक की बहुत बनती है पर पिता से दुश्मनी, ऐसी स्थिति में द्वादशांश मंे क्या ग्रह स्थितियां होती हैं? उत्तर: यदि चतुर्थेश द्वादशांश में अशुभ ग्रहों से युक्त हो गया तो माता से नहीं बनेगी और दशमेश यदि शुभ ग्रहों से युक्त हो और शुभ स्थित हो तो जातक की पिता से बनेगी। इसके अतिरिक्त सूर्य और शनि की युति पिता-पुत्र में आपसी वैमनस्य पैदा करती है। इसी तरह चंद्र और शनि की युति माता-पुत्र में आपसी दूरियां पैदा करती है। प्रश्न: जातक के जीवन में अरिष्ट कार्य होते रहेंगे, यह कैसे जाना जाएगा? उत्तर: त्रिंशांश वर्ग में यदि सुख प्रदान करने वाले ग्रह शत्रु क्षेत्री या अशुभ स्थिति में हांे तो जातक के जीवन में अरिष्ट कार्य होते रहेंगे। प्रश्न: दुर्घटना कब होगी, क्या यह भी त्रिंशांश वर्ग से जाना जा सकता है? उत्तर: यह बात ग्रह-दशा पर निर्भर करती है। जो ग्रह लग्न कुंडली में सुख देने वाला है और त्रिंशांश में अशुभ है तो उसी ग्रह की दशा में जातक को कष्ट होगा। संबंधित ग्रह की गोचर स्थिति पर भी घटना निर्भर करती है। प्रश्न: खगोलशास्त्र के अनुसार षोडश वर्ग क्या दर्शाता है? उत्तर: खगोल शास्त्र के अनुसार राशि चक्र को बारह राशियों और 27 नक्षत्रों में बांटा गया है। मंद गति के ग्रह राशियों और नक्षत्रों में काफी समय तक रहते हैं अतः उसके आगे विभाग करने के लिए षोडश वर्ग की सहायता ली गई है जिसमें एक राशि अधिक से अधिक 60 भागों में बांट कर पूरे राशि चक्र को 720 भागों में विभक्त किया गया है। इससे सूक्ष्म फलकथन में सहायता मिलती है। प्रश्न: क्या षोडश वर्ग से ग्रह शांति के उपाय भी बताए जा सकते हैं? उत्तर: ग्रह शांति उस ग्रह की होती है जो कुंडली में अनिष्टकारी हो। यदि षोडश वर्ग में किसी वर्ग में ग्रह निर्बल है और लग्न कुंडली अशुभ फलदायी नहीं है तो उसका उपाय किया जा सकता है। सामान्यतः लग्न कुंडली और चलित से ही उपाय करना चाहिए।

कुंडली में बुध ग्रह देता है बुरी आदतें.....

कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व विशेष ढंग का होता है जिसमें पहले से ही कुछ ऐसे लक्षण विद्यमान रहते हैं, जो उसे शराबी बना देती है और वह तनाव की स्थिति से समायोजित होने के लिए कोई दूसरी सुरक्षात्मक प्रक्रिया का उपयोग नहीं कर पाता। इसे अल्कोहोलिक व्यक्तित्व कहा जाता है। व्यक्ति अपने शराब पीने पर नियंत्रण नहीं रख पाते, इसका कारण मनोवैज्ञानिक है। असामाजिक व्यक्तित्व तथा अवसाद ये दो ऐसे चिकित्सकीय लक्षण है जो अत्यधिक मद्यपान करनेवाले व्यक्तियों में पाये जाते है। ये लक्षण किसी व्यक्ति की कुंडली में दिखाई देती है। यदि किसी जातक की कुंडली में उसका तृतीयेष राहु से पापाक्रांत होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर आ जाए, बुध इन स्थानों का कारक ग्रह हो अथवा अपने स्थान से इन स्थानों पर हो तो ऐसा व्यक्ति तनाव से बचने के लिए अपने आप को नषे में डालता है और लगातार नषे के सेवन से एल्कोहोलिक होता हैं अतः कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर तीसरे स्थान के ग्रहों की शांति, मंत्रजाप तथा पूजा तथा रत्न धारण करना चाहिए। अच्छे मार्गदर्षक या साथ में रहना भी तनाव से बाहर निकलने का एक जरिया होता है।

पुराण के अनुसार मंगल ग्रह

इतिहास गवाह है कि ब्रह्मांड का कोई भी ग्रह मानव को इतना रोमांचित व लालायित नहीं कर पाया जितना कि मंगल ग्रह ने किया है। इस लाल रंग के आकर्षक ग्रह के बारे में जानने के लिये वैज्ञानिक हमेषा से उत्सुक रहे हैं। यह उन्हें अचंभित कर उत्तेजना से भरता रहा है। आधुनिक वैज्ञानिक शोधों से भी यह सिद्ध हुआ है कि मंगल ग्रह और पृथ्वी के बीच में कोई समानता है, वो भी इतनी कि यह माना जा रहा है कि कभी बहुत पहले मंगल ग्रह पृथ्वी का ही एक हिस्सा रहा होगा और कालांतर में यह पृथ्वी से अलग हो गया होगा। भारतीय पुराणों के अनुसार भी मंगल ग्रह को ‘‘भौम’’ या ‘‘भूमि-पुत्र’’ अर्थात ‘भूमि का अंश’ भी कहा गया है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय पुराणों के लेखक, हमारे महान ऋषि-मुनि आधुनिक वैज्ञानिकों से दूरदृष्टि में बहुत आगे थे। स्वरूप व विशेषतायें:- मंगल ग्रह आग है। इसमें गर्मी है, तेज है क्योंकि यह अग्निपुत्र है। ‘‘बृहत्पाराशर होराशास्त्र’’ के अनुसार - ‘‘क्रूरो रक्तेक्षणो भौमश्चपलादारमूर्तिकः पित्तप्रकृतिकः क्रोधी कृशमध्यतनुर्द्वि ज’’ अर्थात क्रूर, रक्त नेत्र, चंचल, उदारहृदय, पित्तप्रकृति, क्रोधी, कृश मंगल: क्या कहते हैं पुराण डाॅ संजय बुद्धिराजा और मध्यम देह का स्वामी मंगल है. ‘‘नारदीय पुराण’’ के अनुसार - ‘‘क्रूरदृक्तरूणो भौमः पैत्तिकश्चपलस्तथा’’ अर्थात मंगल क्रूर दिखता है, यह युवा है, यह चपल है और साहसी भी है। ‘‘गरूड़ पुराणानुसार’’ एक विशाल रथ पर सवारी करने वाले भूमिपुत्र के रथ का रंग सुनहरा है और यह आठ घोड़ों द्वारा खींचा जाता है जिनमें आग सी चपलता है। इस कारण मंगल साहसी, निडर व तेज है। ‘‘जातकतत्वम्’’ के अनुसार - ‘‘दुष्टदृक् तरूणः कृशमध्यो रक्तसितांगः पैत्तिकश्चलधीरूदारप्रताप्यारः’’ नामावली:- मंगल ग्रह को हमारे हिंदू पुराणों ने कई नाम दिये हैं जो मंगल की विषेषताओं को ही बताते हैं, जैसे कि अंगारक - अग्नि से पैदा हुआ भौम - भूमि का पुत्र कुज - भूमि का पुत्र मंगला - मंगलकारक लोहिता - लाल अग्निभुवः - अग्नि से उत्पन्न महीसुत - भगवान शिव की संतान भू-सुत - भूमि का पुत्र धराज - धरा यानि पृथ्वी पुत्र क्रूरनेत्र - क्रूर आंखों वाला मिर्रीख, लोहितांग, अवनिज, क्षितिनंदन आदि। अर्थात आंखों में कांइयांपन, जवान शरीर, पतली कमर, हल्का रक्त वर्ण, पित्त प्रधान प्रकृति, चंचल बुद्धि, उदार व प्रतापी ये मंगल की विशेषतायें हैं। वातावरण:- मंगल ग्रह के वातावरण को लोहिता अर्थात लाल कहा जाता है। यह नौ रश्मियों युक्त और जलीय स्थल वाला है। ‘‘लोहितो नवरश्मिस्तु स्थानमाप्यं तु तस्य वै’’ जन्म:- ‘‘मत्स्य पुराण’’ अनुसार सभी ग्रह सूर्य की रश्मियों से पैदा हुये हैं। ‘‘संवर्धनस्तु यो रश्मिः स योनिर्लोहितस्य च’’ अर्थात लोहिता यानि मंगल भी सूर्य की उन रश्मियों की पैदावार है जिसे ‘‘संवर्धना’’ कहते हैं। भगवान शिव से संबंध: ‘‘स्कन्द पुराण’’ के अनुसार जब भगवान शिव को सती के मरने का दुख हुआ तो उन्होंने कैलाश पर्वत पर तांडव किया जिससे उनके शरीर में अतिरिक्त ऊष्मा उत्पन्न हुई और माथे से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी.. इस बूंद से एक बालक उत्पन्न हुआ जिसके शरीर का रंग लाल था, उसकी चार भुजायें थीं, तन से एक विशेष प्रकार की गंध आ रही थी और उसने रोना शुरू कर दिया था। धरती माता ने उस बालक को गोद में लिया और दूध पिलाकर शांत कियाइस बात से भगवान शिव ने प्रसन्न होकर धरती यानि भूमि को वरदान दिया कि यह बालक अब उसके नाम से जाना जायेगा। क्योंकि बालक का पालन पोषण भूमि ने किया था, अतः बालक भूमि-पुत्र, भौम और कुज कहलाया। भगवान शिव के पसीने से मंगल की उत्पत्ति अवंति (उज्जैन) के पास हुई थी। आज भी वहां शिप्रा नदी के तट पर मंगल (मंगलान्था) का मंदिर है। भगवान विष्णु से संबंध:- ‘‘देवी भागवत’’ में बताया गया है कि वराह के रूप में अवतार लेने वाले महाविष्णु की पत्नी भूमि देवी यानि पृथ्वी के पुत्र का नाम मंगल है। अग्नि से संबंध:- एक अन्य पुराण के अनुसार कुमार यानि मंगल, अग्नि और स्वाहा (अग्नि की पत्नी) की संतान है। कुमार कई नामों से जाना जाता है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं- भौम, गुहा, महासेना, शक्तिधारा, श्रभु, सेनापति। मंगल के कारकत्व:- ‘‘उत्तर कालामृत’’ के अनुसार मंगल से निम्न विषयों का विचार करना चाहिये:- शूरता, भूमि, राज्य, चोर, विरोध, शत्रु, पशु, राजा, क्रोध, विदेशगमन, अग्नि, पित्त, घाव, छोटा कद, रोग, शस्त्र, कडवा, ग्रीष्मऋतु, शील, तांबा, दक्षिण दिशा, सेनाधीश, वृक्ष, भ्राता, दंडाधिकारी, सांप, तर्कशक्ति, गृह आदि। विभिन्न भावों में मंगल के फल ः- ‘‘मानसागरी’’ के अनुसार मंगल के विभिन्न भावों में स्थित होने से निम्न फल मिलते हैं - प्रथम भाव में - शरीर में रोग, चंचल; द्वितीय - तेज और चटोरा ; तृतीय- विद्वान, साहसी; चतुर्थ - कष्ट भोगने वाला, दुखी ; पंचम - धन व संतान की कमी ; षष्ट - बलवान, शत्रु विजेता ; सप्तम - पत्नी से निष्कासित ; अष्टम - स्वस्थ व खुश ; नवम - घायल, भाग्यहीन ; दशम - विद्वान व साहसी ; एकादश - धनी व सम्मानित ; द्वादश - निर्धन व बीमार। मंगल के व्यवसाय:- ‘‘उत्तर कालामृत’’ के अनुसार मंगल ग्रह से संबंधित निम्न व्यवसाय होने चाहिये ः- अग्नि, बिजली, रेडियो, भट्ठी आदि के सभी कार्य। बारूद, बंदूक, तोप तलवार आदि शस्त्रों के कार्य, सेना से संबंधित कार्य, मंगल की पूजा:- मंगल की शांति के लिये निम्न दिन शुभ कहे जाते हैं - मंगलवार मंगल ग्रह के लिये शुभ दिन है। जब कभी शुक्ल पक्ष की चतुर्थी मंगलवार को आती है तो यह दिन मंगल की पूजा के लिये शुभ माना जाता है। इसे अंगारक चतुर्थी भी कहते हैं। ‘‘स्कन्द पुराण’’ के अनुसार षष्ठी तिथि को भी मंगल की पूजा के लिये शुभ कहा जाता है क्योंकि इसी दिन मंगल को सेनापति बनाया गया था। इस दिन मंगल की पूजा करने से धन व पुत्रलाभ मिलता है। ‘‘अपुत्रो लभते पुत्रमधनो पि धनं लभेत’’ यदि अंगारक चतुर्दशी को मंगल की पूजा की जाये तो सौ सूर्य ग्रहणों के बराबर फल की प्राप्ति होती है। मंगल ग्रह की प्रार्थनायें:- ‘‘स्कन्द पुराण’’ के अनुसार अंगारक शक्तिधरो लोहितांगो धरासुतः। कुमारो मंगलो भौमो महाकायो धनप्रदः।। ऋणहर्ता दृष्टिकर्ता रोगकृद्रोगनाशनः। विद्युत्प्रभो व्रणकर कामदो धनहत् कुजः।। सर्वा नश्यति पीडा च तस्य ग्रहकृता ध्रुवम्।।

भाग्य का उदय

भाग्य के साथ देने पर व्यक्ति का पुरूषार्थ भी सफल होता है। एक स्वस्थ, सुशिक्षित, धनी, सुशील पत्नी तथा पुत्रों सहित सुखी जीवन का आनंद लेते व्यक्ति को देखकर सभी उसे भाग्यशाली कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपना भाग्य (भविष्य) जानने के लिए उत्सुक रहता है। भाग्य व्यक्ति के प्रारब्ध (पिछले जन्म के कर्मफल) को दर्शाता है। जन्मकुंडली के नवम् भाव को भाग्य स्थान माना गया है। नवम् भाव से भाग्य, पिता, पुण्य, धर्म, तीर्थ यात्रा तथा शुभ कार्यों का विचार किया जाता है। नवम भाव कुंडली का सर्वोच्च त्रिकोण स्थान है। उसे लक्ष्मी का स्थान माना गया है। नवम भाव, एकादश (लाभ) भाव से एकादश होने के कारण ‘लाभ का लाभ’, अर्थात जातक के जीवन की बहुमुखी समृद्धि दर्शाता है। ‘मानसागरी’ ग्रंथ के अनुसार:- ‘‘विहाय सर्वं गणकैर्विचिन्त्यो भाग्यालयः केवलमन्न यलात्।’’ अर्थात्’ ‘‘एक ज्योतिषाचार्य को दूसरे सब भावों को छोड़कर केवल नवम् भाव का यत्नपूर्वक विचार करना चाहिए, क्योंकि नवम् भाव का नाम भाग्य है। जब नवम भाव अपने स्वामी या शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो मनुष्य भाग्यशाली होता है। नवमेश भी शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो सर्वदा शुभकारी होता है। यदि पाप ग्रह भी अपनी, मित्र, मूल त्रिकोण अथवा उच्च राशि में नवम् भाव में स्थित हो तो अपने बलानुसार शुभ फल देता है। जैसे शनि भाग्येश होकर भाग्य भाव में स्थित हो तो जातक जीवन पर्यन्त भाग्यशाली रहता है। (भाग्य योग करें सौरे स्थिते च जन्मनि। - मानसागरी)। लग्नेश यदि भाग्य भाव में स्थित हो तब भी जातक परम भाग्यशाली होता है। बृहस्पति नवम भाव का कारक ग्रह है। जब बलवान बृहस्पति नवम भाव में हो, या लग्न, तृतीय अथवा पंचम भाव में स्थित होकर नवम् भाव पर दृष्टिपात करें तो विशेष भाग्यकारक होता है। नवम भाव में सुस्थित बृहस्पति यदि शुक्र और बुध के साथ हो तो पूर्ण शुभ फलदायक होता है। परंतु इन पर शनि, मंगल व राहु की दृष्टि हो तो आधा ही शुभ फल मिलता है। नवम् भाव व नवमेश निर्बल अथवा पीड़ित हो तो जातक भाग्यहीन होता है। भाग्य भाव पंचम भाव लग्न भाव होता है। अतः उसका स्वामी (लग्नेश) भी भाग्यकारक होता है। ‘भावात् भावम्’ सिद्धांत के अनुसार नवम् से नवम् अर्थात पंचम भाव और पंचमेश भी भाग्यकारक होते हैं। ज्ञातव्य है कि नवम और पंचम (त्रिकोण भाव) को लक्ष्मी स्थान की संज्ञा दी गई है। जब ये तीनों ग्रह (नवमेश, लग्नेश और पंचमेश) बलवान हों तथा शुभ भाव में अपनी स्वयं, उच्च, अथवा मूलत्रिकोण राशि में शुभ दृष्ट हों, तो व्यक्ति जीवन पर्यन्त भाग्यशाली होता है। कारक बृहस्पति का संबंध शुभ फल में वृद्धि करता है। भाग्योदय काल त्रिक भावों (6, 8, 12) के अतिरिक्त अन्य भाव में स्थित नवमेश अपने बलानुसार उस भाव के कारकत्व के फल में वृद्धि करता है। नवमेश, नवम भाव स्थित ग्रह तथा नवम भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रहों की दशा में भाग्योदय होता है। ‘फलित मार्तण्ड’ ग्रंथ के अनुसार नवमेश, नवम भाव स्थित ग्रह व नवम भाव पर दृष्टिपात करने वाले बलवान ग्रह अपने निर्धारित वर्ष में जातक का भाग्योदय करते हैं। ग्रहों के भाग्योदय वर्ष इस प्रकार हैंः- सूर्य- 22, चंद्रमा- 24, मंगल- 28, बुध-32, बृहस्पति -16 (40), शुक्र-21 (25), शनि-36, राहु-42 और केतु -48 वर्ष। बृहत पाराशर होरा शास्त्र ग्रंथ के अनुसार 1. भाग्य स्थान में बृहस्पति और भाग्येश केंद्र में हो तो 20वें वर्ष से भाग्योदय होता है। 2. यदि नवमेश द्वितीय भाव में और द्वितीयेश नवम भाव में हो तो 32वें वर्ष से भाग्योदय, वाहन प्राप्ति और यश मिलता है। 3. यदि बुध अपने परमोच्चांश (कन्या राशि-150 ) पर और भाग्येश भाग्य स्थान में हो तो जातक का 36वें वर्ष से भाग्योदय होता है। सौभाग्यकारी गोचर 1. जब गोचर में नवमेश की लग्नेश से युति हो, या फिर परस्पर दृष्टि विनिमय हो अथवा लग्नेश का नवम भाव से गोचर हो तो भाग्योदय होता है। परंतु उस समय नवमेश निर्बल राशि में हो तो शुभ फल नहीं मिलता। 2. नवमेश से त्रिकोण (5, 9) राशि में गुरु का गोचर शुभ फलदायक होता है। 3. जब जन्म राशि से नवम्, पंचम या दशम भाव में चंद्रमा आए उस दिन जातक को शुभ फल की प्राप्ति होती है। उपरोक्त ज्योतिष सूत्रों को दर्शाती कुछ कुंडलियां इस प्रकार हैं:- नवमेश बुध, एकादशेश सूर्य तथा बृहस्पति तृतीय भाव से नवम भाव पर दृष्टिपात कर रहे हैं। योगकारक शनि लग्न में ‘शश’ योग बना रहा है। लग्नेश शुक्र दशमेश चंद्रमा के साथ द्वितीय भाव में है।

दक्षिण दिशा के दुष्प्रभाव

परिवार/व्यवसाय की वृद्धि व घर में सामंजस्य रहता है। - घर का मुख्य द्वार उत्तर में होने के कारण पूरे घर की शांति तथा विकास के लिए लाभदायक है। परन्तु खुली जगह का दक्षिण में तथा उत्तर का बंद होना (सामने दूसरा फ्लैट होने के कारण) उचित नहीं है। इसकी वजह से काम-धन्धों का विकास न होना, बीमारियों का बढ़ना तथा अनावश्यक खर्चे होने लगते हैं। - घर में उत्तर-पूर्व का कटना (शाफ्ट के कारण) बहुत खराब है क्योंकि यह सर्वोत्तम अच्छी व शुद्ध ऊर्जा को समाप्त करता है एवं इस चहुंमुखी विकास के शुभ क्षेत्र के लाभ को भी कम करता है, जहां से हमें शांति, विद्या, बुद्धिमत्ता तथा भगवान का आशीर्वाद मिलता है। परिवार में बच्चों से संबंधित समस्या बनी रह सकती है। - बढ़ा हुआ आग्नेय चोरी और आग की घटनाओं को बढ़ावा देता है। - उत्तर-पूर्व में रसोईघर होने के कारण स्त्री की सेहत तथा परिवार की वृद्धि में कठिनाई आ सकती है। यह दोष भारी व्यय तथा मानसिक अशांति का कारण देखा गया है। - रसोईघर में गैस तथा सिंक एक ही लाइन में होने की वजह से परिवार में मनमुटाव का कारण बन सकता है। गैस तथा सिंक के बीच कम से कम 2 फुट ऊँचा डिवाइडर बनाने से इसका प्रभाव काफी कम हो सकता है। - रसोईघर में सिंक शांति तथा वित्तीय समृद्धि के लिये बहुत उचित है लेकिन गैस का उत्तर में होना आपसी मतभेद तथा अवांछित खर्चों को बढ़ाता है। फ्रिज का स्थान चल सकता है। - दक्षिण-पूर्व के कमरे के शौचालय की सीट का मुख पूर्व की तरफ है जो कि भगवान के आशीर्वाद को कम करता है। इसे बदला जा सकता है। लेकिन इस कमरे के कारण दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) का कोण बन्द हो गया था जिससे चोरी, आग दुर्घटना का डर बना रहता है। - विवाहित जोड़े के लिए मुख्य शयन कक्ष दक्षिण-पूर्व जो कि आग का क्षेत्र होता है ठीक नहीं है क्योंकि यह आपसी कलह को बढ़ावा देता है। हालांकि यह अविवाहित बच्चों विशेषकर लड़कों के लिए ठीक होता है। वे यहां ऊर्जा से भरपूर रहते हैं। अभी बच्चों/मेहमान/ पढ़ाई के लिये प्रयोग में ला सकते हैं। - दूसरा कमरा दक्षिण-पश्चिम में है तथा उसका शौचालय दक्षिण में है जो कि बहुत अच्छा है तथा मास्टर बेडरुम के लिये उत्तम है। - लिविंग रुम तथा इसमें रखे फर्नीचर, सामान आदि की व्यवस्था अच्छी है। घर के वास्तु परामर्श द्वारा जीवन व परिवार की समस्याओं का बिना किसी पूर्व जानकारी के, इतना सटीक विवरण सुनकर उनको भी इस भारतीय प्राचीन विद्या में विश्वास जागृत हुआ। पिछले कुछ वर्षों से, जबसे वे लोग यहां आये हैं, घर में तनाव, चोरी, बीमारी, गर्भहानि, अबाॅर्शन के कारण उदासी रहती है। ईशान के कटने को कुछ हद तक शीशा लगाकर कम कर सकते हैं, परन्तु चूंकि अभी जीवन की शुरुआत ही है, इसलिये यह सुझाया गया कि उपरोक्त सब परिवर्तन प्रारंभिक उपचार समझें। अंततोगत्वा दूसरा घर जिसमें ऐसे भारी दोष न हों, वही लेना उचित रहेगा।

कृषि भूमि की कमी और विकास क्या है इसका ज्योतिषीय कारण -

विकास के नाम पर देश की हरियाली पर कुठाराघात किया जा रहा है दुनिया का अमीर से अमीर आदमी भी अन्न खाकर ही जीवित रहता है किंतु इसी अन्न को उगाने वाले किसानों से उपजाउ भूमि अधिग्रहित कर सरकार रोड़, नगर, क्रांकीट की जाल बिछाती जा रही है? आज भी हमारा देश कृषि प्रधान देश है और देश के लिए विकास और अनाज दोनो जरूरी है किसानो को शोषण करके देश का विकास संभव नही है। जमीन से पैदावार तो कर सकते है जमीनी दायरे को बढ़ा नही सकते इस देश का विकास तभी संभव है जब किसानों को शिक्षित किया जाएगा, कृषिभूमि को उरवर बनाने के प्रयास किये जाए क्योंकि किसान से विकास के नाम पर जमीन लेकर मुआवजा तो दे देंगे जो खत्म भी हो जायेगी किंतु पीढ़ियों तक चलने वाली आजीविका कहाॅ से लायेंगे। विकास हो, खूब हो, देश तरक्की करे, आगे बढे। लेकिन विकास का यह कैसा मार्ग है जिस पर किसान, आदिवासी या गांववालों को दबा कर ही आगे ही बढ़ा जा सकता है। ऐसा क्यों हो रहा है जाने इसका ज्योतिषीय कारण क्या है। जब गुरू राहु से पापाक्रांत हो रहा है तो बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग आमजन विरोधी क्रियाकलाप कर आम जन के हित से परे कार्य करेंगे। चूॅकि मंगल, सूर्य और शुक्र जैसे ग्रह विपरीत हैं तो ताकतवर लोग कमजोर लोगों के हित से परे कार्य करेंगे। जो कि भविष्य में जन आंदोलन का कारण बनेगा। अतः आमजन की सुविधा और कृषि से जुड़े लोगो के हित को सर्वोपरी रखते हुए कार्य करना ही सत्ता और सरकार के साथ समाज की शांति, समृद्धि और सुख के लिए आवष्यक है। 

साप्ताहिक राशिफल 24 जुलाई से 30 जुलाई 2016.........


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Saturday 23 July 2016

रिश्तों में दूरियां का आने के ज्योतिष्य कारण.....

सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे आधुनिक काल में प्रेम का नाम दिया जाता है। जब भी कोई अपनी पसंद रखता तब वह प्रेम करता है। यह प्रेम जब माता-पिता, भाई-बहनों, दोस्त-रिष्तेदारों से हो सकता है तब किसी से भी होता है। इसका कारण होता है कि जब व्यक्ति स्वायत्यशाी हेाता है तो अपनी मर्जी से किसी को पसंद करता है और उससे ही विवाह करता है, और मर्जी का मालिक होने के कारण अपने पार्टनर के साथ भी मनमर्जी चलाने के कारण विवाद की स्थिति निर्मि होती है। ज्योतिषीय रूप देखा जाए तो प्रेम करने हेतु लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम, दसम या द्वादष स्थान में शनि अथवा गुरू, शुक्र, चंद्रमा, राहु या सप्तमेष अथवा द्वादषेष शनि से आक्रांत हो तो ऐसे लोगों को प्यार जरूर होता है। चूॅकि शनि स्वायत्तषासी बनाता है अतः प्रेम के बाद स्वयं की स्वेछा से कार्य करने के कारण अपने प्यार से ही पंगा भी कर लेते हैं। अतः जो ग्रह प्यार का कारक है वहीं ग्रह प्यार में पंगा भी देता है। अतः अगर किसी के प्यार में पंगा हो जाए तो उसे तत्काल शनि की शांति कराना चाहिए। इसके साथ शनि के मंत्रों का जाप, काली चीजों का दान एवं व्रत करना चाहिए। इससे प्यार हो और वह प्यार निभ भी जाए।