Tuesday 21 April 2015

परीक्षा के डर से उत्पन्न तनाव -


परीक्षा के डर से उत्पन्न तनाव -
परीक्षा के समय ज्यादा से ज्यादा अंक लाने की होड़, साथी बच्चों से तुलना, लक्ष्य का पूर्व निर्धारित कर उसके अनुरूप प्रदर्षन तथा इसी प्रकार के कई कारण से परीक्षा के पहले बच्चों के मन में तनाव का कारण बनता है। परीक्षा में अच्छे अंक की प्राप्ति के लिए किया गया तनाव अधिकांषतः नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है क्योंकि तनाव के कारण स्मरणषक्ति कम होती है, जिसके कारण पूर्व में तैयार विषय भी याद नहीं रह जाता, घबराहट के कारण स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है, साथ ही अनिद्रा, सिरदर्द तथा स्टेसहार्मोन के कारण एकाग्रता की कमी से परीक्षा का परिणाम भी विपरीत आता है, जोकि डिप्रेषन का कारण बनता है। अतः परीक्षा के डर के कारण उत्पन्न तनाव को दूर करने हेतु ज्योतिषीय तथ्य का सहारा लिया जा सकता है। जब भी परीक्षा से पहले तनाव के कारण सिरदर्द या अनिद्रा की स्थिति बने तो तृतीयेष ग्रह को शांत करने का उपाय आजमाते हुए चंद्रमा तथा राहु की स्थिति तथा दषाओं एवं अंतरदषाओं का निरीक्षण कर उक्त ग्रहों के लिए उचित मंत्र जाप, दान द्वारा मनःस्थिति पर नियंत्रण किया जा सकता है। साथ ही ऐसे में जातक को चाहिए कि हनुमान जी के दर्षन कर हनुमान चालीसा का पाठ कर एकाग्रता बढ़ाते हुए शांत मन से पढ़ाई करनी चाहिए साथ ही मन को प्रसन्न करने का उचित उपाय आजमाने से तनाव से मुक्त हुआ जा सकता है।


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ज्योतिष विवेचन से जाने अपना कर्म क्षेत्र -


ज्योतिष विवेचन से जाने अपना कर्म क्षेत्र -
शिक्षा पूर्ण करते ही हर व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता होती है धन कमाना। किंतु कई बार व्यक्ति असमंजस में होता है कि उसे नौकरी करनी चाहिए या व्यापार। कई बार व्यक्ति नौकरी में असफल या शिक्षा में असफल होने पर व्यापार करना चाहता है। किंतु कभी भी किसी प्रकार का व्यापार करने से पूर्व अपनी जन्म कुंडली की विवेचना कर कर यह जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए कि उसे कौन सा व्यापार लाभ देगा। इसके अतिरिक्त यह भी देख लेना चाहिए कि व्यापार या कार्य की दिशा कौन सी होगी। साझेदारी में व्यापार फलदायी होगा या नहीं। यदि साझेदारी में व्यापार सफल होगा तो किस राशि, नक्षत्र के व्यक्ति के साथ व्यापार उचित होगा। साथ ही अपने कार्य-व्यवसाय में सहायक ग्रह नक्षत्र एवं प्रतिकूल ग्रह दशाओं की जानकारी तथा उससे संबंधित उपाय आपके व्यापार को सफल ही नहीं बनाते अपितु आपको अच्छी व्यवसायिक सफलता के साथ पर्याप्त मात्रा में धन, ऐश्वर्या तथा यश भी दिलाते हैं। अतः व्यापार से धन कमाने के लिए किस माध्यम से धन प्राप्ति का योग बन सकता है, इसके लिए आपकी कुंडली का लग्न, तृतीयेश, सप्तमेश, भाग्येश, दशमेश एवं चंद्रमा से दशम में कौन सा ग्रह बलवान होगा यह देखना चाहिए। लग्न या चंद्र लग्न से दशम का स्वामी तथा उस राशि का स्वामी किस नंवाश में है, उससे संबंधित व्यापार से धन प्राप्त होने के योग बनते हैं। अगर दशमेश स्थिर है तो अपने देश में धन कमाने के योग और चर राशि का हो तो विदेश से धन कमाने के योग बनते हैं और यदि द्विस्भाव है तो दोनों स्थानों से धन प्राप्ति में सफलता प्राप्त होती है। साथ ही तृतीयेश अगर बलवान नहीं है या प्रतिकूल स्थिति में स्थित होगा तो आपका मनोबल कम होने से भी आपको कार्य में अच्छी सफलता प्राप्त होने में बाधक हो सकता हैै। अतः यदि आप व्यापार से संबंधित क्षेत्र से धन कमाने के इच्छुक हैं तो सर्वप्रथम अपने ग्रह दशाओं के अतिरिक्त ग्रह स्थिति एवं साझेदारी में संबंधित व्यक्ति की संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर उचित समय, स्थान, वित्तीय स्थिति, साझेदारी का फैसला करते हुए सावधानी से निर्णय आपको धन प्राप्ति में सहायक होगा।



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बच्चों की आदतें और असफलता


bachho ki 6 adaten aur asaflta
बच्चों की छः आदतें और असफलता :-
यदि गुरू या शुभ ग्रह लग्न में अनुकूल हो तो व्यक्ति को स्वयं ही ज्ञान व आध्यात्म के रास्ते पर जाने को प्रेरित करता है। यदि इसपर पाप प्रभाव न हो तो व्यक्ति स्व-परिश्रम तथा स्व-प्रेरणा से ज्ञानार्जन करता है। अपने बड़ों से सलाह लेना तथा दूसरों को भी मार्गदर्षन देने में सक्षम होता है। यदि गुरू का संबंध तीसरे स्थान या बुध के साथ बनें तो वाणी या बातों के आधार पर प्रेरित होकर सफल होता है वहीं यदि गुरू का संबंध मंगल के साथ बने तो कौषल द्वारा मार्गदर्षक प्राप्त करता है शुक्र के साथ अनुकूल संबंध बनने पर कला या आर्ट के माध्यम से मार्गदर्षन प्राप्त करता है चंद्रमा के साथ संबंध बनने पर लेखन द्वारा मार्गदर्षन पाता है। अतः गुरू का उत्तम स्थिति में होना अच्छे मार्गदर्षन की प्राप्ति या मार्गदर्षन में सफलता का द्योतक होता है। यदि गुरू चतुर्थ या दषम भाव में हो तो क्रमषः माता-पिता ही गुरू रूप में मार्गदर्षन व सहायता देते हैं। गुरू यदि 6, 8 या 12 भाव में हो तो गुरू कृपा से प्रायः वंचित ही रहना पड़ता है। वही यदि लग्न में राहु या शनि जैसे ग्रह हों तो बच्चा अपनी मर्जी का करने का आदि होता है जिससे आज्ञाकारी ना होने के कारण बढ़ती उम्र में गलत संगत या गलत निर्णय लेकर अपना भविष्य खराब कर बैठता है। ऐसी स्थिति में उसके ग्रहों का विष्लेषण कराया जाकर उचित उपाय लेने से उन्नति के रास्ते खुले रहते हैं।


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बढ़ते सामाजिक अपराध का ज्योतिष कारण !!!!!


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज का एक सदस्य है और समाज के अन्य सदस्यों के प्रति प्रतिक्रिया करता है, जिसके फलस्वरूप समाज के सदस्य उसके प्रति प्रक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रया उस समय प्रकट होती है जब समूह के सदस्यों के जीवन मूल्य तथा आदर्ष ऊॅचे हों, उनमें आत्मबोध तथा मानसिक परिपक्वता पाई जाए साथ ही वे दोषमुक्त जीवन व्यतीत करते हों। परिणाम स्वरूप एक स्वस्थ समाज का निमार्ण होगा तथा समाज में नागरिकों का योगदान भी साकारात्मक होगा। सामाजिक विकास में सहभागी होने के लिए ज्योतिष विषलेषण से व्यक्ति की स्थिति का आकलन कर उचित उपाय अपनाने से जीवन मूल्य में सुधार लाया जा सकता है साथ ही लगातार होने वाले अपराध, हिंसा से समाज को मुक्त कराने में भी उपयोगी कदम उठाया जा सकता है। समाज और संस्कृति व्यक्ति के व्यवहार का प्रतिमान होता है, जिसमें आवष्यक नियंत्रण किया जाना संभव हो सकता है। सामाजिक तौर पर व्यवहार को नियंत्रण करने के लिए प्राथमिक स्तर पर विद्यालय जिसमें स्कूल में बच्चों के आदर्ष उनके षिक्षक होते हैं। षिक्षकों के आचरण व व्यवहार, रहन-सहन का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, उनके सौहार्दपूण व्यवहार से साकारात्मक और विपरीत व्यवहार से असुरक्षा, हीनता की भावना उत्पन्न होती है, जिसको देखने के लिए ज्योतिषीय दृष्टि है कि किसी बच्चे की कुंडली में गुरू की स्थिति के साथ उसका द्वितीय तथा पंचम भाव या भावेष की स्थिति उसके गुरू तथा स्कूल षिक्षा से संबंधित क्षेत्र को दर्षाता है ये सभी अनुकूल होने पर सामाजिक विकास में सहायक होते हैं किंतु प्रतिकूल होने पर षिक्षा तथा षिक्षकों के प्रति असंतोष व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार तथा उसके प्रतिक्रिया स्वरूप सामाजिक विकास में सहायक या बाधक हो सकता है। उसके उपरांत बच्चों के विकास में आसपडोस का बहुत प्रभाव पड़ता है, अक्सर अभिभावक अपने बच्चों को आसपड़ोस में खेलने से मना करते हैं कि पड़ोस के बच्चों का व्यवहार प्रतिकूल होने से उनके बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, जिसके ज्योतिष दृष्टि है कि पड़ोस को जातक की कुंडली में तीसरे स्थान से देखा जाता है अगर तीसरा स्थान अनुकूल हो तो पड़ोस का वातावरण अनुकूल होगा, जिससे जातक का व्यवहार भी बेहतर होगा क्योंकि तीसरा स्थान मनोबल का भी होगा अतः मनोबल उच्च होगा। उसी प्रकार समुदाय और संस्कृति का प्रभाव देखने के लिए चूॅकि सकुदाय या जाति, रीतिरिवाज, नगरीय या ग्रामीण वातावरण का प्रभाव भी विकास में सहायक होता है, जिसे ज्योतिष गणना में पंचम तथा द्वितीय स्थान से देखा जाता है। पंचम स्थान उच्च या अनुकूल होने से जातक का सामाजिक परिवेष अच्छा होगा जिससे उसके सामाजिक विकास की स्थिति बेहतर होने से उस जातक के सामाजिक विकास में सहायक बनने की संभवना बेहतर होगी। इस प्रकार उक्त स्थिति को ज्योतिषीय उपाय से अनुकूल या प्रतिकूल बनाया जाकर समाज और राष्ट्र उत्थान में योगदान दिया जा सकता है।


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विवाद का कारण और निवारण -


विवाद का कारण और निवारण -
महत्वाकांक्षा ही व्यक्ति से नैतिक-अनैतिक, वैधानिक-अवैधानिक, सामाजिक-असाजिक कार्य कराती है साथ ही किसी विषय पर विवाद, कोई गुनाह, संपत्ति से संबंधित झगड़े इत्यादि का होना आपकी कुंडली में स्पष्ट परिलक्षित होता है। अगर इस प्रकार के कोई प्रकरण न्यायालय तक पहुॅच जाए तो उसमें जय प्राप्त होगी या पराजय का मुॅह देखना पड़ सकता है इसका पूर्ण आकलन ज्योतिष द्वारा किया जाना संभव है। सामान्यतः कोर्ट-कचहरी, शत्रु प्रतिद्वंदी आदि का विचार छठे भाव से किया जाता है। सजा का विचार अष्टम व द्वादश स्थान से इसके अतिरिक्त दसम स्थान से यश, पद, प्रतिष्ठा, कीर्ति आदि का विचार किया जाता है। साथ ही सप्तम स्थान में साझेदारी तथा विरोधियों का प्रभाव भी देखा जाता है। इन सभी स्थान पर यदि कू्र, प्रतिकूल ग्रह बैठे हों तो प्रथमतया न्यायालयीन प्रकरण बनती है। इनकी दशाओं एवं अंतदशाओं में निर्णय की स्थिति में जय-पराजय का निर्धारण किया जा सकता है।


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कुंडली मिलान का ज्योतिषीय तथ्य


मिलान का ज्योतिषीय तथ्य
सभी अभिभावक की यह हार्दिक कामना होती है कि उसकी संतान का विवाह समय से हो किंतु उससे प्रमुख कामना होती है कि वह विवाह के उपरांत सुख तथा खुष रहे। इस हेतु भारतीय समाज में कुंडली मिलान का प्रमुख स्थान है। अत्यंत आधुनिक माता भी अपनी संतान के विवाह से पूर्व कुंडली मिलान तथा सभी परंपराओं का निर्वाह करना चाहते हैं। विवाह- निर्णय के लिए वर-वधू मेलापक ज्ञात करने की विधि अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में ऐसी मान्यता है कि जीवन में सामंजस्य तथा विपरीत परिस्थिति से जुझने में जीवनसाथी का सहयोग जीवन को आसान तथा कष्टरहित बना सकता है। जीवनसाथी का श्रेष्ठ मिलान नहीं होता है तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टमय तथा अनेक वैवाहिक विडंबनाएॅ देने के अलावा पारिवारिक तथा सामाजिक रीतियों एवं परंपराओं को जीवित रखने में असमर्थ हो जाता है। अतः दांपत्य जीवन सुखमय हो एवं कष्ट तथा प्रतिकूल स्थिति से सावधानी पूर्वक निकला जा सके इसके लिए जीवनसाथी का सहयोगी होना आवश्यक है। इस हेतु हिंदु संस्कार में विवाह हेतु कुंडली मिलान का विशेष महत्व है।
साधारणतया अष्टकूट अर्थात् तारा, गुण, वश्य, वर्ण, नाड़ी, योनी, ग्रह गुण आदि के आधार पर वर-वधु मेलापक सारिणी के आधार पर गुणों की संख्या के साथ दोषों के संकेत होते हैं। सर्वश्रेष्ठ मिलान में 36 गुणों का होना श्रेष्ठ मिलान का प्रतीक माना जाता है। उससे आधे अर्थात् 18 गुण से अधिक होना ही कुंडली-मिलान का धर्म कांटा मान लिया जाता है। इससे अधिक जितने भी गुण मिले, वह वैवाहिक जीवन में सफलता का प्रतीक मान लिया जाता है। जहाॅ दोषों का संकेत होता है, उनमें भी शुभ नव पंचम, अशुभ नवपंचम अथवा सामान्य नव पंचम या श्रेष्ठ द्विद्र्वादश, प्रीति षडाष्टक, केंद्र के शुभ-अशुभ का आकलन करके सभी ज्योतिविर्द कुंडली का मिलान कर लेते हैं। किसी प्रकार का दोष होने पर उसका परिहार भी मिल जाता है। कहा जाता है की ‘‘ नाड़ी दोषःअस्ति विप्राणां, वर्ण दोषःअस्ति भूभुजाम्। वैश्यानां गणदोषाः स्यात् शूद्राणां योनि दूषणम् ’’ ब्राम्हणों में नाड़ी दोष मानना आवश्यक है, क्षत्रियों में वर्ण दोष की उपेक्षा नहीं की जा सकती, वैश्यों में गण दोष को प्रधान माना जाता है तथा शूद्रों के लिए योनि दोष की उपेक्षा शास्त्र सम्मत नहीं माना जाता है। आज के युग में जब कि सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से बदल चुकी है तब हम ब्राम्हण किसे माने किसे क्षत्रिय की संज्ञा दे, किसको वैष्य कहा जाए और किसे शूद्र का दर्जा दिया जाए। आज जाति का अलंकार जन्म से या कर्म से माना जाए। इस प्रष्न का उत्तर प्राप्त करना भी कठिन है क्योंकि जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात् द्विज उच्यते। वेदपाठीभवेद् विप्र, ब्रम्हणों जानाति ब्राम्हण। वर्तमान परिवेष में जन्म कुंडली का मिलान करते समय गुण मिलान के निर्णय के अनुकूल होने पर ही कुंडली मिलान ज्यादा प्रभावी हो सकता है।



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असुरों के गुरू शुक्र ग्रह के अस्त होने पर विवाहादि कार्य क्यूं वर्जित किए जाते हैं ?



असुरों के गुरू शुक्र ग्रह के अस्त होने पर विवाहादि कार्य क्यूं वर्जित किए जाते हैं ?
"यत्पिण्डे च ब्राह्मंडे" अर्थात जो कुछ भी इस भौतिक शरीर में मौजूद है, वही इस ब्राह्मंड में भी विधमान है। ये वाक्य कोई परिकल्पना नहीं है, अपितु एक शाश्वत सत्य है। वेद, पुराण इत्यादि समस्त शास्त्रों की रचना और उनमें छिपे इस सृ्ष्टि के अनन्त रहस्यों का मूल केवल एक यही वाक्य है। किन्तु इस प्रकार के किसी श्लोक के माध्यम से जब बात ज्योतिष जैसे गूढ शास्त्र को समझने या किसी दूसरे व्यक्ति को समझाने की आती है तो जटिलता सदैव एक सीढ़ी ऊपर खड़ी दिखाई देती है। इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें अपने दृष्टिकोण के स्तर को ऊंचा उठाना पडेगा। इतना ही नहीं संदेह के आवरण को सरका कर इस तथ्य मे विश्वास दिखाना पड़ेगा कि शास्त्र ज्ञान का अथाह भंडार है तो फिर चाहे कोई भी क्षेत्र हो या उस क्षेत्र से जुड़े किसी भी विषय पर चर्चा हो तो इस दुनिया के लिए इसमें विखरे ज्ञान को समेटना ही अपने आपमें एक चुनौती बन जाएगा। शुक्र ग्रह जिसे कि असुर जाति का गुरूपद प्राप्त है, तो फिर उन्हे लोकजीवन में मांगलिक कार्यों का मसीहा क्यूं माना जाता है और क्यूं शुक्र अस्त के समय विवाह इत्यादि कार्य वर्जित किए जाते हैं।"
सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि बृ्हस्पति को देवताओं का तथा शुक्र को असुरों का गुरू कहने का क्या तात्पर्य है। यत्पिंडे च ब्राह्मंडे का ये सिद्धान्त ये कहता है कि जो कुछ आपके भीतर है, वही इस अनन्त ब्राह्मंड में विधमान है अर्थात ये जो ग्रह, नक्षत्र, तारे, लोक-परलोक, भिन्न भिन्न योनियां है, उन सब का एक प्रतिरूप हम सब के अन्दर ही मौजूद है। ज्योतिष में बृ्हस्पति तथा शुक्र के जिस गुरूतत्व (देव और असुरों के गुरू होने) का वर्णन किया गया है, यहां एक स्थूल एवं बाह्य वास्तविक स्वरूप न होकर उसके प्रतिरूप (शरीर में मौजूद) की बात की जाती है।
शास्त्रों में मुख्यतय: तीन प्रकार की योनियां बताई गई हैं-----
1.देव योनि
2. असुर योनि
3. मनुष्य योनि।
वैदिक ज्योतिष अनुसार "बृ्हस्पति" धर्म और मोक्ष का तथा "शुक्र" अर्थ और काम (वासना) का प्रतिनिधित्व करता है। जैसा कि सर्वविदित है कि प्रत्येक मनुष्य में देव और आसुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृ्तियां समान रूप में निवास करती हैं। अब जिस व्यक्ति में जो प्रवृ्ति ज्यादा प्रबल मात्रा में होगी, उसी तरह का उसका जीवन होगा। अर्थात अगर किसी का धर्म पक्ष (नीति/अनीति का ज्ञान,सात्विकता,सदाचार इत्यादि गुण) प्रबल है और जो मोक्ष प्राप्ति को अपना लक्ष्य मानकर चल रहा है तो ऎसा व्यक्ति देव श्रेणी में आता है। यहां बृ्हस्पति उसके लिए गुरू (मार्गदर्शक) की भूमिका का निर्वहन करता है। किन्तु अगर व्यक्ति का भौतिक पक्ष ज्यादा प्रबल हुआ तो वो असुर श्रेणी का जीव हुआ। यहां "शुक्र" उसके लिए गुरू (मार्गदर्शक) की भूमिका निभाता है।
अगर जीव में धर्म पक्ष (बृ्हस्पति) अति प्रबल हुआ तो उसकी भौतिक तौर पर उन्नति संभव नहीं है। क्योंकि भौतिकता गुरू के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। वो आपको सांसारिक ज्ञान दे सकता है, दिव्य आन्तरिक ज्ञान दे सकता है, आपको जन्म-मरण से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखा सकता है, किन्तु भौतिक जीवन की उपलब्धियां नहीं प्रदान कर सकता। क्यों कि भौतिकता तो एक प्रकार से ज्ञान और मुक्ति की राह में एक बडी बाधा ही मानी जाती है।
अगर कहीं किसी व्यक्ति में शुक्र का प्रभाव अधिक हुआ तो भौतिकता ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह जाता है। अगर ऎसा व्यक्ति धर्म, पूजा पाठ, दान पुण्य इत्यादि का भी आश्रय लेगा तो उसमें भी उसका उदेश्य सिर्फ यश/ धन/संपदा/वासना इत्यादि जैसी कोई भौतिक कामना की पूर्ती ही होगा। क्योंकि वो इस भौतिक जीवन के अतिरिक्त कुछ ओर सोच ही नहीं पाता। उसे यदि धन और ज्ञान में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाए तो वो सदैव धन का ही चुनाव करेगा। इसी को हमारी संस्कृ्ति और शास्त्रों में "आसुरी प्रवृ्ति" कहा गया है। अब इन भौतिक कामनाओं की पूर्ती हेतु जो मार्गदर्शक (गुरू) का कार्य करता है वो है शुक्र। इसीलिए शुक्र ग्रह को असुरों का गुरू कहा जाता है। क्यों कि एक गुरू का कार्य होता है, अपनी शरण में आए हुए का मार्गदर्शन करना जिसे कि शुक्र ग्रह बखूबी अंजाम देता है। किन्तु जो जीव इन दोनों से इतर मध्यमार्ग का चुनाव करता है अर्थात अपने जीवन में धर्म पक्ष और भौतिक पक्ष का सामंजस्य बना कर चलता है -वो है "मनुष्य"। क्योंकि जब ईश्वर ने हमें इस धरती पर उत्पन किया है तो जीवित रहने तथा अपने पारिवारिक/ सामाजिक उत्तरदायित्वों के भली भांती निर्वहण के लिए "अर्थ्" और "काम" भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि जीवन बंधन से मुक्ति के लिए "धर्म"।
इस प्रकार से ये देव, असुर और मनुष्य ये तीनों ही योनियां हम सब में निवास करती हैं। अब जिस व्यक्ति ने ज्ञान और धर्म का रास्ता चुन लिया, वो देव योनि का। जो सिर्फ भौतिक संसाधनों की पूर्ती में ही निमग्न है, वो "असुर योनि" और जो इन दोनों मार्गों के मध्य का मार्ग चुनता है-- वो "मनुष्य योनि" में जी रहा है।
ज्योतिष का ये एक मूलभूत नियम है कि ग्रह जब सूर्य के अति निकट आ जाता है तो उसे अस्त मान लिया जाता है अर्थात वो अपना प्रभाव देने के नैसर्गिक गुण को खो देता है।शुक्र अस्त के समय वो कार्य वर्जित किए जाते हैं,जिनका उदेश्य भौतिक इच्छाओं (विवाह, धन कमाने का साधन जैसे नवीन रोजगार प्रारंभ इत्यादि) की पूर्ति होता है तथा बृ्हस्पति अस्त के समय सिर्फ वो कार्य वर्जित माने जाते हैं, जिनमे भौतिक प्राप्तियों के अतिरिक्त कोई अन्य कामना निहित रहती है। परन्तु विवाह जैसे मांगलिक कार्य में इन दोनों का ही विशेष महत्व है। चूंकि भारतीय संस्कृ्ति में विवाह दैहिक, भौतिक एवं दैविक अर्थात शारीरिक, सम्पति-परक तथा आध्यात्मिक इन तीनों ही कामनाओं की पूर्ती का द्वार माना गया है। इसलिए विशेष रूप से विवाह जैसे अति महत्वपूर्ण कार्य हेतु बृ्हस्पति और शुक्र इन दोनों ही ग्रहों के अस्त काल को त्याज्य कहा गया है। इन कार्यों की सफलता हेतु जिनका कि हमें गुरूतुल्य मार्गदर्शन चाहिए होता है, वे ग्रह जब स्वयं ही निस्तेज है तो फिर कार्य सिद्धि कैसे संभव होगी अर्थात इहलौकिक और पारलौकिक, दोनों में ही असफलता।
आशा करता हूं कि यदि अपने पूर्वाग्रहों का परित्याग कर चुके हों तो इस विषय में कोई शंका उत्पन हुई होगी तो उसका निवारण हो चुका होगा। किन्तु अगर फिर भी किसी के मन में कोई भी प्रश्न शेष रह गया हो अथवा किसी अन्य प्रकार की शंका/जिज्ञासा हो तो आप उसे निसंकोच यहां व्यक्त कर सकते हैं। एक बात जो कि विशेष तौर पर यहां सभी से कहना चाहूंगा कि आप ज्योतिष, आध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान इत्यादि किसी भी विषय आधारित आपके मन में कोई विचार हो तो अवश्य व्यक्त करें।



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हस्तरेखा और मकान


स्वयं का मकान और हस्तरेखा
जो लोग किराए के मकान में रहते हैं, उनका सिर्फ एक ही सपना होता है कि उनका भी एक छोटा ही सही, लेकिन सुंदर सा मकान हो। जहां वह निश्चिंत होकर अपने परिवार के साथ रह सके। न मकान मालिक की टेंशन हो और न ही दूसरे किराएदारों की झिकझिक। हस्तरेखा शास्त्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति की हाथ की रेखा देखकर यह बताया जा सकता है कि उस व्यक्ति का कभी अपना मकान भी होगा या नहीं, और यदि होगा तो यह स्थिति कब बनेगी। आज हम आपको उन रेखाओं के बारे में बता रहे हैं, जो किसी भी व्यक्ति के स्वयं के मकान के बारे में बताते हैं-
1- भूमि का ग्रह मंगल है। हस्तरेखा में मंगल का क्षेत्र से भूमि व भवन का पता चलता है। वस्तुत: मंगल का क्षेत्र का उच्च का होना उत्तम भवन प्राप्ति का योग देता है। मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत का बली होना भवन प्राप्ति का अच्छा संकेत है।
2- हस्तरेखा में मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत के उपर किसी रेखा का होन भी ऐसे व्यक्ति को स्वश्रम से निर्मित उत्तम सुख-सुविधाओं ये युक्त भवन प्राप्त होता है।
3- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत मजबूत हो तो भी ऐसा व्यक्ति स्व पराक्रम व पुरुषार्थ से अपना घर(भवन) बनाता है।
4- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत से कोई रेखा भाग्य रेखा तक जाये तो ऐसे व्यक्ति के पास अपना बंगला या महलनुमा भवन होता है जिसमें कलात्मक बगीचा या जलाशय होता है।
5- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत एवं चंद्रमा और शनि का क्षेत्र या पर्वत विकसित हो तो ऐसे व्यक्ति का भवन दूसरों से अलग, सुंदर आकर्षक एवं नूतन साज-सज्जा से युक्त होता है।
6- हस्तरेखा के मंगल और शुक्र का क्षेत्र या पर्वत एवं चंद्रमा और शनि का क्षेत्र या पर्वत विकसित हो साथ में इन रेखाओ से चलकर कोई रेखा भाग्य या जीवन रेखा तक जाये तो ऐसे व्यक्ति को अचानक निर्मित भवन की प्राप्ति होती है।


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क्या विभिन्न प्रकार के रंगों का उपयोग करने से भी वास्तुदोष दूर होते है?


प्रश्न: क्या विभिन्न प्रकार के रंगों का उपयोग करने से भी वास्तुदोष दूर होते है?
बिलकुल नहीं! पिछले कुछ वर्षों से कई वास्तुविद् विभिन्न दिशाओं के दोषों को दूर करने के लिए ज्योतिष के आधार पर दिशाओं के स्वामी के प्रतिनिधित्व रंग के अनुसार लाल, पीले, हरे, इत्यादि रंगों का उपयोग करने की सलाह देते है। जैसे दक्षिण दिशा में भूमिगत पानी की टंकी है तो इस दोष को दूर करने के लिए टंकी के ऊपर लाल रंग करवाते है। क्योंकि इस दिशा का स्वामी मंगल है। किंतु सच्चाई यह है कि इससे वास्तुदोष के कुप्रभाव में 1 प्रतिशत की भी कमी नहीं आती। दोषपूर्ण स्थान पर बने टैंक के कुप्रभाव से बचने का एकमात्र तरीका है कि उस टैंक को मिट्टी डालकर पूरी तरह से बंद कर दिया जाए।


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शापित गाँव कुलधारा




भारत अपने आप में आश्चर्य भरा देश है। यहां की परंपरा, रीतिरिवाज और मान्यतायें बड़ी ही आश्चर्य जनक हैं। कई विश्वास तथा मान्यताएं रहस्यमयी सी प्रतीत होती हैं। अनेक प्रांतों में भाषा की विभिन्नता के साथ ही मान्यताएं तथा परंपराएं भी विचित्रता लिये हुये हैं। ऐसी ही विचित्रता से पूर्ण है राजस्थान के जैसलमेर जिले का कुलधरा गाँव। यह गांव पिछले 170 सालों से वीरान पड़ा है। कुलधरा गाँव के हजारों लोग एक ही रात में इस गांव को खाली कर के चले गए थे और जाते-जाते श्राप दे गए थे कि यहाँ फिर कभी कोई नहींं बस पायेगा। तब से गाँव वीरान पड़ा हैं।
कहा जाता है कि यह गांव अज्ञात ताकतों के कब्जे में है, कभी हंसता खेलता यह गांव आज एक खंडहर में तब्दील हो चुका है। कुलधरा गांव घूमने आने वालों के मुताबिक यहां रहने वाले पालीवाल ब्राह्मणों की आहट आज भी सुनाई देती है। उन्हेंं वहां हरपल ऐसा अनुभव होता है कि कोई आसपास चल रहा है। बाजार के चहल-पहल की आवाजें आती हैं, महिलाओं के बात करने, उनकी चूडिय़ों और पायलों की आवाज हमेशा ही वहां के माहौल को भयावह बनाती है। प्रशासन ने इस गांव की सरहद पर एक फाटक बनवा दिया है जिसके पार दिन में तो सैलानी घूमने आते रहते हैं लेकिन रात में इस फाटक को पार करने की कोई हिम्मत नहींं करता हैं।
वैज्ञानिक तरीके से हुआ था गाँव का निर्माण-
कुलधरा, जैसलमेर से लगभग अठारह किलोमीटर की दूरी पर स्थिति है। पालीवाल समुदाय के इस इलाके में चौरासी गांव थे और कुलधरा उनमें से एक था। मेहनती और रईस पालीवाल ब्राम्हणों की कुलधरा शाखा ने सन 1291 में तकरीबन छह सौ घरों वाले इस गांव को बसाया था। कुलधरा गाँव पूर्ण रूप से वैज्ञानिक तौर पर बना था। ईंट-पत्थर से बने इस गांव की बनावट ऐसी थी कि यहां कभी गर्मी का अहसास नहींं होता था। कहते हैं कि इस कोण में घर बनाए गये थे कि हवाएं सीधे घर के भीतर होकर गुजरती थीं। कुलधरा के ये घर रेगिस्तान में भी वातानुकूलन का अहसास देते थे। इस जगह गर्मियों में तापमान 45 डिग्री रहता हैं पर आप यदि कभी भरी गर्मी में इन वीरान पड़े मकानों में जायेंगे तो आपको शीतलता का अनुभव होगा। गांव के तमाम घर झरोखों के जरिए आपस में जुड़े थे इसलिए एक सिरे वाले घर से दूसरे सिरे तक अपनी बात आसानी से पहुंचाई जा सकती थी। घरों के भीतर पानी के कुंड, ताक और सीढिय़ां कमाल के हैं ।
पालीवाल, ब्राम्हण होते हुए भी बहुत ही उद्यमी समुदाय था। अपनी बुद्धिमत्ता, कौशल और अटूट परिश्रम के रहते पालीवालों ने रेतीली धरती पर सोना उगाया था। हैरत की बात ये है कि पाली से कुलधरा आने के बाद पालीवालों ने रेगिस्तानी सरजमीं के बीचोंबीच इस गांव को बसाते हुए खेती पर केंद्रित समाज की परिकल्पना की थी। रेगिस्तान में खेती पालीवालों के समृद्धि का रहस्य था। जिप्सम की परत वाली जमीन को पहचानना और वहां पर बस जाना। पालीवाल अपनी वैज्ञानिक सोच, प्रयोग और आधुनिकता की वजह से उस समय भी इतनी तरक्की कर पाए थे।
पालीवाल समुदाय आमतौर पर खेती और मवेशी पालने पर निर्भर रहता था और बड़ी शान से जीता था। जिप्सम की परत बारिश के पानी को जमीन में अवशोषित होने से रोकती और इसी पानी से पालीवाल खेती करते और जबर्दस्त फसल पैदा करते। पालीवालों के जल-प्रबंधन की इसी तकनीक ने थार रेगिस्तान को इंसानों और मवेशियों की आबादी या तादाद के हिसाब से दुनिया का सबसे सघन रेगिस्तान बनाया। पालीवालों ने ऐसी तकनीक विकसित की थी कि बारिश का पानी रेत में गुम नहींं होता था बल्कि एक खास गहराई पर जमा हो जाता था, जो उनकी समृद्धि का कारक था।
कुलधरा गाँव के खंडहर: कुलधरा के वीरान होने कि कहानी
इतना विकसित गाँव रातों रात वीरान हो गया, इसकी वजह था गाँव का अय्याश दीवान सालम सिंह जिसकी नजर गाँव कि एक खूबसूरत लड़की पर पड़ गयी थी। दीवान उस लड़की के पीछे इस कदर पागल था कि बस किसी तरह से उसे पा लेना चाहता था। उसने इसके लिए ब्राह्मणों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। हद तो तब हो गई कि जब सत्ता के मद में चूर उस दीवान ने लड़की के घर संदेश भिजवाया कि यदि अगले पूर्णमासी तक उसे लड़की नहींं मिली तो वह गांव पर हमला करके लड़की को उठा ले जाएगा। गांववालों के लिए यह मुश्किल की घड़ी थी। उन्हेंं या तो गांव बचाना था या फिर अपनी बेटी। इस विषय पर निर्णय लेने के लिए सभी 84 गांव वाले एक मंदिर पर इक_ा हो गए और पंचायतों ने फैसला किया कि कुछ भी हो जाए अपनी लड़की उस दीवान को नहींं देंगे।
फिर क्या था, गांव वालों ने गांव खाली करने का निर्णय कर लिया और रातोंरात सभी उस गांव से ओझल हो गए। जाते-जाते उन्होंने श्राप दिया कि आज के बाद इन घरों में कोई नहींं बस पाएगा। आज भी वहां की हालत वैसी ही है जैसी उस रात थी जब लोग इसे छोड़ कर गए थे।
पालीवाल ब्राह्मणों के श्राप का असर यहां आज भी देखा जा सकता है। जैसलमेर के स्थानीय निवासियों की मानें तो कुछ परिवारों ने इस जगह पर बसने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहींं हो सके। स्थानीय लोगों का तो यहां तक कहना है कि कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जो वहां गए जरूर लेकिन लौटकर नहींं आए। उनका क्या हुआ, वे कहां गए कोई नहींं जानता।
पर्यटक यहां इस चाह में आते हैं कि उन्हेंं यहां दबा हुआ सोना मिल जाए। इतिहासकारों के मुताबिक पालीवाल ब्राह्मणों ने अपनी संपत्ति जिसमें भारी मात्रा में सोना-चांदी और हीरे-जवाहरात थे, उसे जमीन के अंदर दबा रखा था। यही वजह है कि जो कोई भी यहां आता है वह जगह-जगह खुदाई करने लग जाता है। इस उम्मीद से कि शायद वह सोना उनके हाथ लग जाए। यह गांव आज भी जगह-जगह से खुदा हुआ मिलता है।
कुलधरा गाँव में एक प्राचीन मंदिर के अवशेष:
दिल्ली से आई भूत-प्रेत व आत्माओं पर रिसर्च करने वाली पेरानार्मल सोसायटी की टीम ने कुलधरा गांव में एक रात बिताई। टीम ने माना कि यहां कुछ न कुछ असामान्य जरूर है। टीम के एक सदस्य ने बताया कि उस रात में कई बार मैंने महसूस किया कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, जब मुड़कर देखा तो वहां कोई नहींं था। पेरानॉर्मल सोसायटी के अनुसार उनके पास एक डिवाइस है जिसका नाम गोस्ट बॉक्स है। इसके माध्यम से वे ऐसी जगहों पर रहने वाली आत्माओं से सवाल पूछते हैं। कुलधरा में भी ऐसा ही किया जहां कुछ आवाजें आई तो कहीं असामान्य रूप से आत्माओं ने अपने नाम भी बताए। टीम के सदस्य जब कुलधरा गांव में घूमकर वापस लौटे तो उन्होंने अपनी गाडिय़ों की कांच पर बच्चों के पंजे के निशान देखे, जबकि आप-पास तो कोई बच्चा नहीं था। इस प्रकार एक बसा-बसाया गांव किस अज्ञात कारण से वीरान हो गया, इसकी सच्चाई आज तक रहस्य ही है।


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स्वावलंबन-परक शिक्षा ज्योतिषीय नजरिये से


जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न ही 'रोटी अर्थात 'रोजगार है, तो क्या हम ऐसी शिक्षा व्यवस्था को श्रेष्ठ कह सकते हैं जो इस पहले मोर्चे पर ही असफल साबित हो जाए। नि:संदेह इसका जवाब 'न में ही हो सकता है। इस आधार और कसौटी पर तौलें तो भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोयम दर्जे की सिद्ध होती है। वर्तमान डिग्री प्राप्त करने से ईतर स्वावलंबन परक शिक्षा की शुरूआत होने की दरकार है। जिस समय कालपुरुष की कुंडली में वृश्चिक का शनि मौजूद है, जो कि नवीन अन्वेषण का कारक होता है। अत: शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ नया करते हुये ऐसी शिक्षा देने का प्रयास करना चाहिए जिससे डिग्री या ज्ञान के साथ-साथ समर्थवान बन सके...
आ ज जब पूरा विश्व मंहगाई, भ्रष्टाचार, नैतिकताविहीन तथा हिंसा के साये में जी रहा है, तब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि इस वक्त की शिक्षा प्रणाली को इस प्रकार का स्वरूप दिया जाए, जिससे हर मानव के मन में चाहे वह छोटा बच्चा हो, चाहे घरेलू महिला या कामकाजी कोई व्यक्ति, सभी को अपने हिस्से की सद्भावना और सहिष्णुता के साथ उसकी जरूरी आवश्यकता को आसानी से पूरा करने की योग्यता दी जा सके । इस समय जब उच्च का गुरू और वृश्चिक का शनि गोचर में हैं तब हम सब को मिलकर एक नयी व्यवस्था की रचना करनी चाहिए। वैसे भी वृश्चिक का शनि रचनात्मकता देता है तो क्यों ना ये रचनात्मकता देश और दुनिया को शामिल करते हुए बड़े पैमाने पर किया जाए जिसमें सभी शामिल हों और सभी को इससे लाभ हो, बिना किसी नुकसान के। इसके लिए जब आज की जन्मकुंडली पर नजर डालें तो इस समय कर्क का उच्च का गुरू और वृश्चिक का शनि नयी दिशा और न्याय देने में सक्षम है। साथ ही सूर्य भी उत्तरायन का है तब इस पावन बेला में आज हम सब मिलकर संकल्प करें कि ना सिर्फ सरकार बल्कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इस दिशा में एक छोटा सा प्रयास जरूर करेगा। इसके लिए सबसे पहले देखें कि हमारी आज तक इस स्थिति को बदतर बनाये रखने के लिए क्या और किस प्रकार की जवाबदारी कम रही है। आज जबकि जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न ही 'रोटी अर्थात 'रोजगार है, तो क्या हम ऐसी शिक्षा व्यवस्था को श्रेष्ठ कह सकते हैं जो इस पहले मोर्चे पर ही असफल साबित हो जाए। नि:संदेह इसका जवाब 'नÓ में ही हो सकता है। इस आधार और कसौटी पर तौलें तो भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोयम दर्जे की सिद्ध होती है। इसी बात को दूसरे शब्दों में कुछ यूं कहा जा सकता है कि डिग्रियों की चमक-दमक वाली यह शिक्षा प्रणाली एक ऐसी व्यवस्था है जो साल दर साल बेरोजगारों की लम्बी-चौड़ी फौज पैदा कर रही है। भारत में ऐसे लाखों नवयुवक मिल जाएंगे जो इस शिक्षा के कारण पैतृक काम करने में अक्षम हो चुके हैं और कोई हुनर न होने की वजह से कहीं नौकरी के लिए भी तरस रहे हैं। क्योंकि इस शिक्षा प्रणाली ने उन्हेंं यह सब सिखाया ही नहींं। अगर हम छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो जब से इस प्रदेश का निर्माण हुआ है तब से शिक्षा का स्तर लगातार पतन की ओर जा रहा है। रोजगार के लिए प्रयासरत यहां की प्रतियोगिता परीक्षा से संबंधित उच्च संस्था लगातार विवादों में रही हैं, जिसे लगातार भ्रष्टाचार तथा अन्य प्रकार के आक्षेप मिलते रहे हैं। इस संबंध में ज्योतिषीय गणना देखें तो छत्तीसगढ़ का निर्माण हुआ सन् 2000 में हुआ, जब नीच का शनि और मिथुन का राहु दोनों मिलकर मन एवं मनोदशा को खराब कर रहे थे और यह स्थिति लगातार शनि के उच्चस्थ होते तक रही। इस प्रकार जब शनि, ''कन्या और तुला राशि में प्रवेश नहीं कर गया तब तक स्थिति लगातार खराब रही। उसके बाद जब शनि तथा गुरू एवं राहु की स्थिति में बदलाव शुरू हुआ, उसके बाद से लोगों में जागरूकता दिखाई देनी शुरू हुई। इस प्रकार तब से अब तक यदि युवाओं का मनोबल देखें तो वे शिक्षा तथा उसके उपरांत आय के साधन प्राप्त करने के संबंध में दिगभ्रमित ही हैं। किंतु अब युवाओं के साथ-साथ बुद्धिजीवी भी इस शिक्षा प्रणाली और रोजगार परक प्रयास के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रहे हैं।
इसलिए शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जो विधार्थी को केवल यह न बताए कि अकबर के पिता का नाम क्या था बल्कि वह ये भी सिखाए कि मुर्गी के चूजों को बाजार में बेचकर कैसे आय अर्जित की जा सकती है। भारत को ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है जो विद्यार्थी को विभिन्न स्तरों के उत्तीर्णता प्रमाण पत्र व डिग्रियां देने के साथ-साथ ही कुछ विशेष तकनीकी व प्रबंधन कार्यकलापों में इस तरह दक्ष बनाए कि डिग्री स्तर एवं उसके आगे की उच्चतर शिक्षा अध्ययन के समय वे अपना समस्त खर्च स्वयं वहन कर सकें तथा कैरियर के दृष्टिकोण से स्थायी तौर पर अपने पैरों पर खड़े हो सकें।
इस समय जब कि उच्च के गुरू और वृश्चिक का शनि उदारता के साथ नये प्रयोग करने की प्रेरणा दे रहा है तब हमें नये प्रयोग, शिक्षा और उससे जुड़े रोजगार परक उद्देश्यों को पूरा करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर 'स्वयं सहायता समूह एवं ग्रामीण प्रबंधनÓ पाठयक्रम की सहायता से समूह का गठन कर रोजगार प्राप्त करें एवं विभिन्न रोजगार जैसे मशरूम एवं शहद उत्पादन जैसी विद्या से अच्छी आय प्राप्त करें। दूसरी ओर उच्च शिक्षा पूरी करने के उपरांत व्यवसाय में लगने के अतिरिक्त कैरियर के अन्य विकल्प भी खुले हैं।
क्या इस प्रकार की व्यवस्था देश के हर गांव में नहींं हो सकती। हो सकती है अगर शिक्षा में व्यापक पैमाने पर बदलाव किया जाए तो। गांधी जी तो 'रामराज्यÓ की अपनी अवधारणा में शुरू से ही इस बात पर जोर देते रहे कि हमें एक ऐसी अर्थव्यवस्था की जरूरत है जिसमें सभी गांव आत्मनिर्भर हो सकें। इन तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को कमाई और पढ़ाई के बुनियादी सिद्धांत के अंतर्गत लाना ही होगा। अन्यथा तेजी से बढ़ती शिक्षित युवाओं की विशाल बेरोजगार जनसंख्या राष्ट्रीय प्रगति में घातक ही सिद्ध होगी।
दक्षता आधारित शिक्षा:
(जब बुध और गुरू उच्च अथवा सकारात्मक स्थान पर हों)
इस समय जब गुरू, बुध, शनि और राहु ने अपनी अपनी स्थितियां अनुकूल की है तो हमें भी नये प्रयोग करते हुए कमाई और पढ़ाई के मूल सिद्धांत पर आधारित शिक्षा या साक्षरता की बात करते समय यह भी ध्यान में रखना होगा कि भारत में अर्थव्यवस्था को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटकर देखा जा सकता है। शहरी व महानगरीय अर्थव्यवस्था एवं ग्रामीण व कस्बाई अर्थव्यवस्था। चूंकि दोनों क्षेत्रों की मांगें व आवश्यकताएं व्यापक तौर पर अलग-अलग हैं अत: इन आवश्यकताओं को ही आधार बनाकर दोनों क्षेत्रों के लिए कुछ अलग प्रकार की दक्षता आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू करने की जरूरत है। ताकि ऐसी शिक्षा प्राप्त युवाओं को अपने क्षेत्र में ही अपनी मूल प्रकृति व वातावरण के अनुसार रोजगार की प्राप्ति हो सके। दूसरी ओर सरकार को यह भी ध्यान में रखना होगा कि निम्नवर्ग एवं निम्न मध्यमवर्ग के विद्यार्थियों के लिए दक्षता प्रशिक्षण आधारित शिक्षा को खर्च की दृष्टि से अनुकूल बनाए रखे। दक्षता कार्यक्रमों, कक्षाओं एवं कार्यशालाओं में प्रशिक्षार्थी विद्यार्थियों द्वारा किया गया उत्पादन भी सरकार के लिए आय का एक अच्छा स्रोत हो सकता है। कार्यशालाओं में होने वाला उत्पादन या मरम्मत कार्य सरकारी खर्चों के ढाचों में काफी हद तक सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। इसके लिए प्रत्येक प्रदेश, जिला तथा सभी लोगों की कुंडली के अनुसार, जिसे जानना अति सरल है कि जैसे किसी बच्चे का झुकाव चित्रकला या संगीत की ओर हो तो आसानी से जाना जा सकता है कि इस बच्चे पर राहु का प्रभाव है वहीं तकनीकी योग्यता का प्रदर्शन दिखाता है कि उसकी कुंंडली में गुरू, बुध, सूर्य तथा शनि की स्थिति बेहतर है। यदि खेलकूद में योग्यता नजर आ रही हो तो मंगल तथा केतु की स्थिति बेहतर होना प्रतीत होता है। इस प्रकार आसानी से बिना विद्वान ज्योतिष बने ज्योतिष के प्रारंभिक ज्ञान से उस बच्चे को रोजगार मूलक शिक्षा के क्षेत्र में बनाये रखा जा सकता है।
कई क्षेत्र हैं जिसमें ऐसी व्यवस्था हो सकती है। उदाहरण के लिए यदि सरकार इंटरमीडिएट पाठयक्रम व्यवस्था के अनेक रूपों व गतिविधियों में से संभावित एक 'सौर उर्जा संचालित उपकरणों का निर्माण व मरम्मत में दक्षता कार्यक्रम चलाए तो एक तरफ कार्यशालाओं में हजारों की संख्या में अच्छा उत्पादन भी हो सकता है तो वहीं दूसरी ओर सरकारी क्षेत्र में खराब पड़े सौर उपकरणों की मरम्मत भी सीखने की प्रक्रिया के दौरान ही बिना किसी खर्च के हो सकेगी। भारत की विशाल ऊर्जा जरूरतें किसी से छिपी नहींं है, अत: इस क्षेत्र में प्रशिक्षण लेने वालों के लिए बेरोजगारी की कल्पना भी मुश्किल ही प्रतीत होती है। दक्षता आधारित शिक्षा को दो रूपों में निम्न प्रकार से बांटकर देखा-समझा जा सकता है।
1. ग्रामीण पृष्ठभूमि व आवश्यकताओं पर केंद्रित दक्षता शिक्षा।
2. शहरी व महानगरीय पृष्ठभूमि व आवश्यकताओं पर केंद्रित दक्षता शिक्षा।
ग्रामीण केन्द्रित दक्षता शिक्षा:
(जब बुध, शुक्र तथा राहु का असर ज्यादा हो तो)
जब भी किसी भी व्यक्ति में शुक्र, केतु, बुध, शनि का असर हो तो उसे छोटे छोटे व्यवसाय तथा कार्य के क्षेत्र में लगाया जा सकता है, जिन्हें ग्रामीण परिवेश में भी आसानी से किया जा सकता है। विभिन्न राज्यों की राजधानियों एवं बड़े शहरों को छोड़कर देश के शेष क्षेत्रों में इस माडल को लागू किया जा सकता है। यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहींं है कि भारत की करीब साठ से सत्तर फीसदी आबादी ग्रामीण पृष्ठभूमि से सीधे संबंधित है। इस विशाल आबादी व क्षेत्र में अर्थव्यवस्था की संरचना काफी भिन्न है। यह क्षेत्र हमेशा से ही उर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनेक बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित रहा है। अत: उर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि एवं पशुपालन की आधुनिक तकनीकें, खाद्य प्रसंस्करण एवं कुटीर स्तर के उत्पादन तथा हस्तशिल्प आदि इस क्षेत्र में कार्ययोजनाओं एवं प्रशिक्षण के महत्वपूर्ण आधार साबित हो सकते हैं। ऐसी तमाम जरूरतों को ध्यान में रखते हुए दक्षता आधारित शिक्षा विकसित करने से एक तो ग्रामीण पृष्ठभूमि का युवा अपनी जमीन से बाहर पलायन करने की अपेक्षा शिक्षा प्राप्त कर लेने के उपरांत स्वयं ही आधारभूत संरचनाओं के निर्माण व तकनीक में दक्षता हासिल कर लेने के उपरांत उसे अपने ही क्षेत्र व पृष्ठभूमि में अद्भुत व्यावसायिक सफलता व रोजगार प्राप्त करने का मौका मिल सकेगा।
ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों व इंटरकालेजों आदि में गणित, इतिहास, विज्ञान जैसे पारंपरिक विषयों के साथ-साथ कई अन्य तकनीकी पाठयक्रमों को भी संयुक्त रूप से शामिल किया जा सकता है। कृषि एवं पशुपालन से जुड़ी तमाम तकनीकों की मूलभूत जानकारी छात्रों के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। औषधीय पौधों के उत्पादन का प्रशिक्षण, सुगंधित पौधों व फूलों की खेती का प्रशिक्षण, मशरूम उत्पादन, मुर्गी पालन, मछली पालन, दुग्ध, पशुपालन आदि का विस्तृत अध्ययन अत्यंत लाभदायक सिद्ध हो सकता है। विद्यार्थी इच्छानुसार इनमें से किसी एक या दो विषयों को गहन अध्ययन के लिए चुन सकते हैं। केंद्र व राज्य सरकारें इनके प्रशिक्षण हेतु अलग से पाठयक्रम व प्रशिक्षण शिविर चलाती हैं। विधार्थी अगर प्रशिक्षण के बाद इस तरह के उद्यम करना चाहें तो 'नाबार्डÓ जैसी अनेक सरकारी संस्थाए व बैंक धन भी मुहैया कराते हैं, जिनका व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार होना जरूरी है।
बागवानी एवं ग्रामीण प्रबंधन भी अच्छे विषय हो सकते हैं। प्राय: देखा जाता है कि गामीण क्षेत्रों में कृषि उपयोग के अतिरिक्त भी अत्यधिक मात्रा में खाली जमीन व्यर्थ पड़ी रहती है। खाली भूमि पर एवं खेत के चारों ओर मेढ़ों पर अनेक फलदार वृक्षों जैसे आम, अमरूद, कटहल, बेर आदि लगाने से अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है। चूंकि फलदार पौधों के रोपण, देखरेख एवं बीमारियां व कीटों से बचाव से लेकर फलों की सही स्थिति में तुड़ाई एवं विपणन तक के क्रियाकलाप विस्तृत ज्ञान व तकनीक का विषय हैं, अत: इसका प्रशिक्षण भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है। गांव की उर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर तमाम आवश्यकताओं की समझ एवं उसकी आपूर्ति तथा क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों का सही प्रयोग ग्रामीण प्रबंधन के अंतर्गत आता है जिसका प्रशिक्षण न केवल युवाओं के लिए बल्कि उनके परिवार सहित पूरे गांव की आत्मनिर्भरता के लिए अत्यंत लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
गांव एवं शहर की आवश्यकताओं को पूरा करनेवाले अनेक कुटीर उद्योगों की स्थापना, संचालन एवं उत्पादन से लेकर विपणन व संतुलित वित्तीय प्रबंधन की गहरी जानकारी भी शिक्षित युवाओं के लिए आकर्षक स्वरोजगार एवं ग्रामीण उन्नति के स्वर्गद्वार खोल सकती है। दरअसल वर्तमान समय में कुटीर उद्योगों की स्थापना एवं संचालन लाभकारी तो बहुत है लेकिन बिना प्रशिक्षण इस क्षेत्र में कुछ किया जाना बहुत मुश्किल है।
कहना न होगा कि ऐसे तमाम तकनीकी पाठयक्रमों की सामान्य सी जानकारी वाले युवा संतोषजनक कैरियर व आत्मनिर्भरता तो पा ही सकेंगे साथ ही उच्च प्रतिभा वाले युवा अपनी महत्वाकांक्षाओं को एक विशाल औद्योगिक रूप दे देने में भी सक्षम हो सकते हैं।
शहर व महानगर केन्द्रित दक्षता शिक्षा:
(जब सूर्य, गुरू, मंगल तथा चंद्रमा का असर हो)
ग्रामीण क्षेत्रों की भांति शहर व महानगर की अर्थव्यवस्था का परिदृश्य भी बहुत भिन्न है। दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों के बारे में तो एक पुरानी कहावत है कि यहां सबका पेट पल जाता है। हम यह भी कह सकते हैं कि यहां बेरोजगारी की अवधारणा अपनी मूल प्रकृति से कुछ अलग है। जब कोई अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भली भांति पूरा कर पाने लायक धन नहींं अर्जित कर पाता तो हम इसे भी एक प्रकार की बेरोजगारी ही कह सकते हैं। शहर एवं महानगरों में पढऩे लिखने वाले युवाओं में कहीं न कहीं महत्वाकांक्षाओं का आवेग बहुत उच्च व प्रबल होता है। वह यह न तो जान पाता है और न ही समझ पाता है कि इतिहास, विज्ञान, वाणिज्य, भूगोल जैसे पारंपरिक विषयों में प्रथम श्रेणी की डिग्री पा लेना ही अच्छे रोजगार प्राप्ति की योग्यता नहींं है। वैसे तो सरकार व निजी क्षेत्रों की कई नौकरियों के लिए मात्र डिग्री भी पर्याप्त होती है किंतु एक ओर तो ऐसी नौकरियों की संख्या बेरोजगारों की विशाल फौज के आगे नगण्य है एवं दूसरी ओर उसमें भी प्रतियोगिता का स्तर इतना अधिक बढ़ गया है कि अच्छी योग्यता के बावजूद सभी इसमें सफल हो जाए, यह अतिशयोक्ति ही होगी।
जब सूर्य या गुरू हो तो उच्च स्तर के प्रशासकीय कार्य, मंगल या राहु हो तो इलेक्टानिक तथा मीडिया और चंद्रमा शनि आदि हो तो अन्य शहरी कार्य संभव हैं। अत: मीडिया, पर्यटन, होटल, व्यापार, उद्योग, मार्केटिंग, प्रबंधन लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अब जैसे-जैसे उच्च तकनीकों का समावेश होने लगा है वैसे-वैसे पारंपरिक डिग्री धारको के लिए अब वहां अवसर समाप्त ही होते जा रहे हैं। लगभग एक दशक पहले तक यदि किसी युवा में समसामयिकी की गहरी समझ व भाषा तथा लेखन पर अच्छा अधिकार होता था, तो उसे कहीं न कहीं किसी अच्छे अखबार या पत्रिका में रोजगार के अवसर मिल ही जाते थे। किंतु वर्तमान में मीडिया उच्च तकनीक पर आधारित हो गई है। प्रेस व इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों में कम्पयूटर, इंटरनेट से लेकर अत्याधुनिक उपकरणों तथा कैमरों व वीडियों कांफ्रेंसिंग इत्यादि की गहरी तकनीकी जानकारी इतनी अधिक वांछित हो गई है कि कहीं न कहीं भाषा, समसामयिक बोध व लेखन पर अधिकार की मूलभूत प्रतिभाएं भी गौण बनकर रह गई हैं। दूसरे शब्दों में यह युग सूचना, तकनीक व विशेष दक्षता का युग है इसलिए पारंपरिक विषयों का अध्ययन ज्ञानवर्धक भले ही हो, लेकिन यथार्थरूप में वह रोजगार परक न हो पाने के कारण अब अधिक लाभदायक नहींं रह गया है।
शहरों व महानगरों में वैसे तो पहले से ही दक्षता आधारित शिक्षा का स्वरूप मौजूद है, लेकिन वह अभी व्यापक नहींं है। आईटीआई इसका एक अच्छा उदाहरण है। लेकिन आईटीआई प्रशिक्षण लेने वाले विद्यार्थियों के साथ भी एक समस्या यह हो जाती है कि पारंपरिक विषयों से उनका नाता टूट जाता है। फलत: पारंपरिक विषयों में उच्च शिक्षा हेतु आगे के लिए सभी द्वार बंद हो जाते हैं। अब ऐसे में दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं उभर रही हैं। एक वह जो परंपरागत हैं और दूसरी वह जो परंपरागत अध्ययन से दूर विशुद्ध तकनीकी पर आधारित हैं। इस तरह रोजगार के लिए कठोर सीमांकन पैदा हो जाता है जो नहींं होना चाहिए। हमें तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जिसमें एक ओर तो विद्यार्थी स्कूल व स्नातक स्तर पर परंपरागत विषयों का अध्ययन भी करे और साथ-साथ एक या दो रोजगार क्षेत्रों का तकनीकी ज्ञान व प्रशिक्षण भी प्राप्त करता रहे। इस सह-शिक्षा व्यवस्था के शहरी व महानगरीय माडल में कुछ विशेष चीजों का समावेश किया जा सकता है। जैसे कम्प्यूटर में दक्षता आज प्रत्येक क्षेत्र के रोजगार में सबसे महत्वपूर्ण योग्यता बन चुका है जिसका पारंपरिक स्कूली पाठयक्रम में अब भी विशेष स्थान नहींं बन पाया है, यह सिर्फ एक औपचारिकता मात्र बनकर रह गयी है। सरकार को चाहिए कि वह प्रत्येक इंटरमीडिएट पास छात्र के लिए यह सुनिश्चित करें कि वह इसी दौरान कम्प्यूटर का भी आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त कर चुका हो। हिंदी, अंग्रेजी भाषाओं के साथ-साथ किसी विदेशी भाषा जर्मन, फ्रेंच, चीनी, जापानी आदि के भी ऐच्छिक प्रशिक्षण की शुरूआत भी की जा सकती है जो कैरियर की दृष्टि से महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।
कम्प्यूटर, टेलीविजन, मोबाइल, फ्रिज जैसे इलेक्ट्रिकल व संचार उपकरणों की मरम्मत से लेकर विशिष्ट औद्योगिक इकाइयों के लिए बुनियादी अभियांत्रिक दक्षता को भी स्कूली व स्नातक स्तर के पाठयक्रम में एक स्थान दिया जा सकता है। हिंदी व अंग्रेजी भाषा-भाषी पाठयक्रमों को प्रेस व मीडिया प्रशिक्षण के साथ बहुपयोगी बनाया जा सकता है ताकि एक ओर तो विद्यार्थी भाषा का गहन अध्ययन करें और दूसरी ओर उस भाषा के रोजगारपरक तकनीकी पहलू में भी प्रशिक्षण प्राप्त करें। होटल व पर्यटन जैसे अन्य क्षेत्रों से जुड़ा बुनियादी तकनीकी प्रशिक्षण भी विद्यार्थियों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है। इसी तरह विस्तृत अध्ययन व शोध के पश्चात ऐसे कई अन्य क्षेत्रों से जुड़ा तकनीकी प्रशिक्षण भी स्कूली व विश्वविद्यालय अध्ययन का एक भाग बनाया जा सकता है।
दक्षता आधारित शिक्षा का क्रियान्वयन:
(जब बुध एवं शनि प्रभावी कारक ग्रह हों)
दक्षता आधारित शिक्षा के क्रियान्वयन में कई समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। पहली, सार्थक क्षेत्रों की पहचान व चुनाव तथा उनके प्रशिक्षण हेतु व्यापक व्यवस्था की समस्या। दूसरी विद्यार्थियों पर बोझ बढ़ जाने की समस्या। इस बारे में यह कहा जा सकता है कि व्यापक मशीनरी व महंगे प्रशिक्षण को छोड़ निम्न व मध्यवर्ती प्रकार के तकनीकी प्रशिक्षण को सरकार अपने विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के परंपरागत विषयों के पाठयक्रम में शामिल करें तो उस पर एक तो बोझ नहींं पड़ेगा दूसरे रोजगार मुहैया कराने का दबाव भी कम हो जाएगा। इसके ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर देखते हैं कि जब भी किसी क्षेत्र या व्यक्ति में बुध, शनि एवं राहु प्रभावी हो तो उसकी दक्षता अच्छी होती है साथ ही अगर बुध, सूर्य एवं गुरू उच्च या बेहतर स्थिति में हो तो समझ अच्छी होती है, जिससे उसका तकनीकी ज्ञान का स्तर अच्छा हेाता है। अत: इस प्रकार ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर दक्षता आधारित पाठ्यक्रम में प्रशिक्षण दिया जा सकता है।
दक्षता प्रशिक्षण के समावेश से पाठयक्रम का बोझ बढ़ जाना एक दूसरी समस्या हो सकती है। यहां यह किया जा सकता है कि भारत के लगभग सभी स्कूलों व विश्वविद्यालयों में गर्मियों के दौरान दो से तीन माह का लंबा अवकाश सत्र होता है। हम इस अवधि को तकनीकी प्रशिक्षण अवधि के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। अथवा ऐसा भी किया जा सकता है कि एक वर्ष के शिक्षा सत्र में छह माह ही परंपरागत व दक्षता प्रशिक्षण का मिला-जुला सह प्रशिक्षण पाठयक्रम चले और शेष सत्र परंपरागत अध्ययन के लिए ही छोड़ दिया जाए। बोझ कम करने के लिए परंपरागत विषयों के पाठयक्रम में यदि बीस से पच्चीस फीसदी कटौती कर दी जाए तो भी काम बन सकता है। लेकिन यह अनिवार्य रूप से सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि शिक्षण संस्थान व विद्यार्थी दोनों ही दक्षता प्रशिक्षण को हल्के में न लें। इसलिए वार्षिक परीक्षाओं में कुल प्राप्तांक प्रतिशत में इसे भी अनिवार्य रूप से जमा करके ही विद्यार्थी की कुल योग्यता आंकी जाए।
इसमें तो कोई दो राय नहींं कि इस तरह की दक्षता आधारित शिक्षा व्यवस्था आरंभ की गई तो न केवल ये हमारी वर्तमान बल्कि आने वाली युवा पीढिय़ों के लिए भी अत्यंत आत्मनिर्भरता परक व कल्याणकारी साबित होगी। इस प्रकार व्यहारिक तथा आत्मनिर्भरता परक शिक्षा एवं बेरोजगारी को कम करने हेतु ना सिर्फ तकनीकी या स्वरोजगार की योजना अपितु ज्योतिषीय गणनाओं का सहारा लेते हुए एक अच्छी शिक्षा व्यवस्था को आधार बनाते हुए रोटी तथा रोजगार मूलक शिक्षा को बढावा दिया जाए तो भविष्य में आने वाली पीढिय़ों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वालंब तो प्राप्त होगा ही उसके साथ मंहगाई तथा भ्रष्टाचार जैसे राक्षसों से भी निजात पाया जा सकता है।

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गरियाबंद गिरि में बंद प्रकृति का नज़ारा




पैरी नदी के आंचल में हरे-भरे सघन वनों और पहाडिय़ों के मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से सुसज्जित गरियाबंद जिले का निर्माण 690 गांवों, 306 ग्राम पंचायतों और 158 पटवारी हल्कों को मिलाकर किया गया है। जमीन के ऊपर बहुमूल्य वन सम्पदा के साथ-साथ यह जिला अपनी धरती के गर्भ में अलेक्जेण्डर और हीरे जैसी मूल्यवान खनिज सम्पदा को भी संरक्षित किए हुए है। गिरि यानी पर्वतों से घिरे होने (बंद होने) के कारण संभवत: इसका नामकरण गरियाबंद हुआ। गरियाबंद जिले की कुल जनसंख्या पांच लाख 75 हजार 480 है। लगभग चार हजार 220 वर्ग किलोमीटर के भौगोलिक क्षेत्रफल वाले इस जिले में दो हजार 860 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र और एक हजार 360 वर्ग किलोमीटर राजस्व क्षेत्र है। नये गरियाबंद जिले का कुल वन क्षेत्र लगभग 67 प्रतिशत है। इस नये जिले में वन्य प्राणियों सहित जैव विविधता के लिए प्रसिध्द उदन्ती अभ्यारण्य भी है। इस अभ्यारण्य के नाम से वन विभाग का उदन्ती वन मण्डल भी यहां कार्यरत है।
गरियाबंद जिले के फिंगेश्वर विकासखण्ड (तहसील) में ग्राम कोपरा स्थित कोपेश्वर महादेव, फिंगेश्वर स्थित कर्णेश्वर महादेव और पंचकोशी महादेव सहित विकासखण्ड छुरा में ग्राम कुटेना में सिरकट्टी आश्रम, जतमई माता का मंदिर ओर घटारानी का पहाड़ी मंदिर तथा जल प्रपात भी इस जिले की सांस्कृतिक और नैसर्गिक पहचान बनाते हैं। पैरी नदी पर निर्मित सिकासार जलाशय सहित उदन्ती अभ्यारण्य, देवधारा (मैनपुर) और घटारानी के जल प्रपात यहां सैलानियों को यहां आकर्षित करते रहे हैं। सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व की दृष्टि से देखा जाए तो नये गरियाबंद जिले को अनेक प्रसिध्द हस्तियों की जन्म भूमि और कर्म भूमि होने का गौरव प्राप्त है। पहाड़ी क्षेत्र में घूमने के लिए राजिम मार्ग सबसे अच्छी जगह है। जहा प्रकृति की सौंदर्यता का आनंद लिया जा सकता है। राजिम मार्ग में 70 मीटर की उंचाई से गिरते हुए झरने का आनंद सबसे मनमोहक है। इस पहाड़ की खास बात यह है की पहाड़ को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे वहां के सारे पत्थर किसी ने अपने हाथो से जमाये हो।
जतमई और घटारानी में माता का दरबार:
झरनों की रिमझिम फुहार के बीच यह है जतमई माता का दरबार। राजधानी रायपुर से करीब 70 किलो मीटर की दूरी पर राजिम मार्ग में है, जतमई। जतमई का रास्ता इतना रोमांचक है कि यहां हर कोई जाना चाहता है। एक तो माता का दरबार, उस पर प्रकृति के अद्भुत नजारे हैं। छल छल करते मनोरम झरने और जतमई - घटारानी मंदिर। जतमई और घटारानी दो अलग-अलग जगहें हैं। पटेवा के निकट स्थित जतमई पहाड़ी एक 200 मीटर क्षेत्र में फैला पहाड़ है, जिसकी उंचाई करीब 70 मीटर है। यहां शिखर पर विशालकाय पत्थर एक-दूसरे के ऊपर इस कदर टिके हैं, जैसे किसी ने उन्हेंं जमाया हो। जतमई में प्रमुख मंदिर के निकट ही सिद्ध बाबा का प्राचीन चिमटा है, जिसके बारे में किवंदती है कि यह 1600 वीं शताब्दी का है. बारिश के दिनों झरनों की रिमझिम फुहार इसे बेहतरीन पिकनिक की जगह बना देता है , यहाँ पर्यटक नहाने का बहुत आनंद उठाते हैं। ऊपर है जतमई माता का दरबार। यहां के नजारें आंखों को बहुत प्यारे लगते हैं। जतमई के रास्ते का प्राकृतिक सौंदर्य भी देखने लायक और रोमांचक है नवरात्रि के समय यहां दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ लगने लगी है। घटारानी जतमई से 25 कि.मी. है। यहाँ पर भी बेहतरीन जल -प्रपात है। घटारानी मंदिर कि भी बहुत मान्यता है। घटारानी प्रपात तक पहुंचना आसान नहींं है, पर पर्यटकों के जाने के लिए पर्याप्त साधन हैं। प्रकृति प्रेमियों के लिए इन जगहों पर जाने का सबसे अच्छा समय अगस्त से दिसंबर तक है। गरियाबंद का जतमई और घटारानी धाम के वाटर फॉल को देखकर पर्यटक खासे रोमांचित होते हैं और जो एक बार यहां आ जाता है दोबारा आने की हसरत लिए वापस जाता है। बरसात के समय मंदिर में पानी भरा रहता है और ऐसी मान्यता है की जल भी माता के चरणों को छूकर आगे प्रवाहित होता है।
माँ जतमई के मंदिर में चैत्र नवरात्र और कुंवार नवरात्र में मनोकामना ज्योति प्रज्वलित किये जाते हैं एवं इस समय मेला भी लगता है। जतमई मार्ग पर और भी पर्यटक स्थल है यहाँ पास में छोटा सा बांध है जो पिकनिक स्पॉट भी है।
अदृश्य रहस्यमय गाँव:
धरती पर गाँव-नगर, राजधानियाँ उजड़ी, फिर बसी, पर कुछ जगह ऐसी हैं जो एक बार उजड़ी, फिर बस न सकी। कभी राजाओं के साम्राज्य विस्तार की लड़ाई तो कभी प्राकृतिक आपदा, कभी दैवीय प्रकोप से लोग बेघर हुए। बसी हुयी घर गृहस्थी और पुरखों के बनाये घरों को अचानक छोड़ कर जाना त्रासदी ही है। बंजारों की नियति है कि वे अपना स्थान बदलते रहते हैं, पर किसानों का गाँव छोड़ कर जाना त्रासदीपूर्ण होता है, एक बार उजडऩे पर कोई गाँव बिरले ही आबाद होता है। गरियाबंद जिले का एक ऐसा ही बांव है केडी आमा (अब रमनपुर), जो150 वर्षों के बाद अब पुन: आबाद हो रहा है। ऐसा ही एक गाँव गरियाबंद जिले में फिंगेश्वर तहसील से 7 किलो मीटर की दूरी पर चंदली पहाड़ी के नीचे मिला है। सूखा नदी के किनारे चंदली पहाड़ी की गोद में बसा था टेंवारी गाँव। यह आदिवासी गाँव कभी आबाद था, जीवन की चहल-पहल यहाँ दिखाई देती थी। अपने पालतू पशुओं के साथ ग्राम वासी गुजर-बसर करते थे। दक्षिण में चंदली पहाड़ी और पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती सूखा नदी आगे चल कर महानदी में मिल जाती है। इस सुरम्य वातावरण के बीच टेंवारी आज वीरान-सुनसान है। इस गाँव के विषय में मिली जानकारी के अनुसार इसे रहस्यमयी कहने में कोई संदेह नहींं है। उजड़े हुए घरों के खंडहर आज भी अपने उजडऩे की कहानी स्वयं बयान करते हैं। ईमली के घने वृक्ष इसे और भी रहस्यमयी बनाते हैं। ईमली के वृक्षों के बीच साँपों की बड़ी-बड़ी बांबियाँ दिखाई देती हैं। परसदा और सोरिद ग्राम के जानकार कहते हैं कि गाँव उजडऩे के बाद से लेकर आज तक वहां कोई भी रहने की हिम्मत नहींं कर पाया। ग्राम सोरिद खुर्द से सूखा नदी पार करने के बाद इस वीरान गाँव में एक मंदिर और आश्रम स्थित है। जंगल के रास्ते में साल के वृक्ष की आड़ में विशाल शिवलिंग है, जो पत्तों एवं घास की आड़ छिपा था। आश्रम, खपरैल की छत का बना है, सामने ही एक कुंवा है। कच्ची मिटटी की दीवारों पर सुन्दर देवाकृतियाँ बनी हैं। शिव मंदिर की दक्षिण दिशा में सूखा नदी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शिवलिंग प्राचीन एवं मान्य है। इसे टानेश्वर नाथ महादेव कहा जाता है, यह एकमुखी शिवलिंग तिरछा है। कहते हैं कि फिंगेश्वर के मालगुजार इसे ले जाना चाहते थे, खोदने पर शिवलिंग कि गहराई की थाह नहींं मिली। तब उसने ट्रेक्टर से बांध कर इसे खिंचवाया। तब भी शिवलिंग अपने स्थान से टस से मस नहींं हुआ। थक हार इसे यहीं छोड़ दिया गया। तब से यह शिवलिंग टेढ़ा ही है।
प्राचीन बंदरगाह:
गरियाबंद से 15 किलोमीटर पर पैरी नदी के तट पर स्थित एक ग्राम का नाम मालगाँव है। यहाँ नावों द्वारा लाया गया सामान (माल) रखा जाता था। इसलिए इस गांव का नाम मालगाँव पड़ा। वर्षाकाल में रायपुर से देवभोग जाने वाले यात्री मालगाँव से भली भांति परिचित होते थे, क्योंकि यहीं से पैरी नदी को नाव द्वारा पार करना पड़ता था। यहाँ से महानदी के जल-मार्ग के माध्यम द्वारा कलकत्ता तथा अन्य स्थानों से वस्तुओं का आयात-निर्यात हुआ करता था। पू्र्वी समुद्र तट पर 'कोसल बंदरगाह नामक एक विख्यात बन्दरगाह भी था। जहाँ से जल परिवहन के माध्यम से व्यापार होता था। इससे ज्ञात होता है कि वन एवं खनिज संपदा से भरपूर छत्तीसगढ प्राचीन काल से ही समृद्ध रहा है। नदियाँ इसे धन धान्य से समृद्ध करते रही हैं। पैरी नदी के तट पर कुटेना में स्थित यह बंदरगाह (गोदी) पाण्डुका ग्राम से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि इस गोदी का निर्माण कुशल शिल्पियों ने किया है। इसकी संरचना में 90 अंश के कई कोण बने हैं। कठोर लेट्राईट को काटकर बनाई गयी गोदियाँ तीन भागों में निर्मित हैं, जो 5 मीटर से 6.60 मीटर चौड़ी तथा 5-6मीटर गहरी हैं। साथ ही इन्हें समतल बनाया गया, जिससे नाव द्वारा लाया गया सामान रखा जा सके। वर्तमान में ये गोदियाँ नदी की रेत में पट चुकी हैं। रेत हटने पर गोदियाँ दिखाई देने लगती हैं। इस स्थान पर महाभारत कालीन मृदा भांड के टुकटे भी मिलते हैं। नदी से कोसला वज्र (हीरा) प्राप्त होता था तथा जल परिवहन द्वारा आयात-निर्यात होता था। पैरी नदी का उद्गम मैनपुर से लगे हुए ग्राम भाटीगढ़ से हुआ है। पहाड़ी पर स्थित पैरी उद्गम स्थल से जल निरंतर रिसता है। अब इस स्थान पर छोटा सा मंदिर भी बना दिया गया है। पैरी और सोंढूर नदी का मिलन रायपुर-गरियाबंद मार्ग पर स्थित मालगाँव के समीप मुहैरा ग्राम के समीप हुआ है। यहाँ से चल कर दोनों नदियाँ महानदी से जुड़ जाती है।
सिरकट्टी आश्रम:
पैरी नदी के तट पर कुटेना ग्राम का सिरकट्टी आश्रम स्थित है। आश्रम का नाम सिरकट्टी इसलिए पड़ा कि यहाँ मंदिर के अवशेष के रुप में सिर कटी मूर्तियाँ प्राप्त हुई, जिन्हे बरगद के वृक्ष के नीचे स्थापित कर दिया। तब से इसे सिरकट्टी आश्रम के नाम से जाना जाता है। आश्रम में स्थित सिरकटी मूर्तियाँ एक दीमक की बांबी से प्राप्त हुई थी। कुछ द्रव्य के साथ दो शिवलिंग भी यहाँ प्राप्त हुए, जिसमें से एक पेड़ के नीचे स्थापित है, दूसरा मंदिर में स्थापित है। इस स्थान पर सुदूर प्रांतों से आये संत आश्रम की सेवा करते हैं।
प्राकृतिक शिवलिंग- भूतेश्वरनाथ महादेव:
गरियाबंद से 3 किलो मीटर दूर मरौदा के जंगलो में विश्व का सबसे बड़ा प्राकृतिक शिवलिंग है। यह अर्धनारीश्वर प्राकृतिक शिव लिंग हैं जो विश्वप्रसिध्द विशालतम शिव लिंग के नाम से प्रसिध्द है। यह शिव लिंग प्रतिवर्ष अपने आप में बढ़ता जा रहा हैं इसे भुतेश्वर महादेव कहा जाता है। हर वर्ष महाशिवरात्रि एवं सावन माह के पर्व पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। सुरम्य वनों एवं पहाडिय़ों से घिरे अंचल में प्रकृति प्रदत्त विश्व का सबसे विशाल शिवलिंग विराजमान है। यह समस्त क्षेत्र गिरी (पर्वत) तथा वनों से आच्छादित हैं इसे गिरिवन क्षेत्र कहा जाता था जो कालांतर में गरियाबंद कहलाया। भूमि, जल, अग्नि, आकाश और हवा पंचभूत कहलाते हैं, इन सबके ईश्वर भूतेश्वर हैं, समस्त प्राणियों का शरीर भी पंचभूतों से बना हैं इस तरह भूतेश्वरनाथ सबके ईश्वर हैं उनकी आराधना सम्पूर्ण विश्व की आराधना हैं।
इस तरह भुतेश्वर महादेव ने ज्ञान रूपी गंगा, शांति रूपी चन्द्रमा, विवके रूपी तीसरी आंख तथा कटुता रूपी सर्प और मृत्यु रूपी मुंड धारण किया हैं। भूतेश्वर नाथ प्रांगण अत्यंत विशाल हैं यहां पर गणेश मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, राम जानकी मंदिर, यज्ञ मंडप, दो सामुदायिक भवन, एक सांस्कृतिक भवन तथा बजरंग बली का मंदिर है। यहां के मंदिर व भवन, भूतेश्वर नाथ समिति तथा अनेक श्रध्दालुओं के द्वारा यह निर्माण किये गए हैं जो भूतेश्वर नाथ धाम को भव्यता प्रदान कर रहे हैं।
उदन्ती अभ्यादरण्य:
उड़ीसा से लगे रायपुर-देवभोग मार्ग पर यह अभयारण्य रायपुर से 140 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। पश्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली उदंती नदी के नाम पर इस अभयारण्य का नामकरण हुआ है। छोटे-छोटे पहाडिय़ों की श्रृंखलाओं एवं उनके बीच फैली हुई मैदानी पट्टियों से इस अभयारण्य की विशेषाकृति तैयार हुई है। इस अभ्यारण्य में 10 वनग्राम है जिसमें मुख्यत: जनजाति के लोग रहते है।
उदंती की लहलहाती पहाडिय़ां, घने वनों से आच्छादित हैं। इन वनों में साजा, बीजा, लेंडिया, हल्दु, धाओरा, आंवला, सरई एवं अमलतास जैसी प्रजातियों के वृक्ष भी पाए जाते हैं। वनभूमि घास, पेड़ों, झाडिय़ों व पौधों से ढंकी हुई हैं। अभयारण्य का उत्तरी-पिश्चमी भाग साल के वृक्षों से सुसज्जित है। फरवरी माह में उदंती नदी का बहाव रूक जाता है। बहाव रूकने से नदी तल में पानी के सुंदर एवं शांत ताल निर्मित हो जाते हैं। जिनमें वनभैंसा, गौर, शेर, तेन्दुआ, चीतल, सांभर, नीलगाय, जंगली सुअर, सियार, भालू, जंगली कुत्ते, जंगली बिल्ली, साही, लोमड़ी, धारीदार लकड बग्घा देखे जा सकते हैं। उदंती में पक्षियों की 120 से भी ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें कई प्रवासी पक्षी शामिल हैं। इनमें से कुछ हैं जंगली मुर्गे, फेजेन्ट, बुलबुल, ड्रोंगो, कठफोड़वा आदि। उदंती संपूर्ण रूप से एक विशिष्ट अनुभव है।
उदंती में स्थित अन्य दर्शनीय स्थल:
1.गोडेना जलप्रपात: यह जलप्रपात कर्रलाझर से 8कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह स्थान बहुत ही मनोरम एवं एकांतमय है जहां झरने की कलकल ध्वनी से पहाड़ी गूंजती सी प्रतीत होती है। यह पर्यटकों के लिये पिकनिक का एक उत्तम स्थान है।
2.देवधारा जलप्रपात: तौरेंगा से 12 कि.मी. की दूरी पर यह जलप्रपात है। यहां पहुचने के लिये 1.5 कि.मी. पैदल चलना पड़ता है। यह स्थान भी बहुत ही खुबसूरत है एवं यह बांस एवं मिश्रित वन से घिरा हुआ है।
पहुंच मांर्ग:
वायुमार्ग- रायपुर (45कि.मी.) निकटतम हवाई अड्डा है जो दिल्ली, मुंबई, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम एवं चैन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेलमार्ग-रायपुर निकटतम रेल्वे स्टेशन है तथा यह हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर स्थित है।
सड़क मार्ग- नियमित बस तथा टैक्सी सेवा रायपुर तथा महासुमंद से जुड़ा हुआ है।
आवास व्यवस्था-
यहां पर पी.डब्लू.डी का विश्रामगृह है तथा अधिक आरामदायक सुविधा के लिए रायपुर में विभिन्न प्रकार के होटल्स उपलब्ध है।


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