Friday 1 May 2015

कुशल प्रबंधन में सहायक ग्रह



कुशल प्रबंधन में सहायक ग्रह  

जितनी सूक्ष्मता प्रबंधन विषय में आवश्यकता होती है, उससे कहीं अधिक बारीकियों और सूक्ष्म गणनाओं का विषय है- कुंडली विवेचन। कुशल प्रबंधन मानवीय श्रम के बेहतरीन संयोजन और कुशलतम व्यवस्थापन का नाम है। इसी प्रकार कुंडली की विवेचना भी सूक्ष्मतम गणनाओं और व्यापक अनुभव का फलितार्थ है। इन दोनों का तालमेल और सामंजस्य कुल मिलाकर एक ऐसे संस्थान की रचना करने के लिए पर्याप्त है जो अपने क्षेत्र में बेरोकटोक निरंतर शीर्ष की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

शून्य का जन्मदाता कहलाने वाला भारत वैदिक गणित और ज्योतिष विद्या में भी काफी पुराने समय से अग्रणी रहा है। वैदिक गणित को अमेरिका की सर्वोच्च स्पेस एजेंसी नासा ने भी अपनी पूरी-पूरी मान्यता प्रदान की है एवं कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इसकी विशेष कक्षाएं लग रही हैं। ठीक इसी प्रकार भारतीय ज्योतिष विद्या और कुंडली विवेचना को भी पाश्चात्य जगत्में शनैः-शनैः मान्यता मिलती जा रही है। व्यक्ति विशेष के भूत, वर्तमान और भविष्य को एक एकीकृत रूप से खुली पुस्तक के रूप में सामने रख देने वाले शास्त्र को भारतीय ज्योतिष कहा गया है।

इन ज्योतिष शास्त्रों में व्यक्ति विशेष की जन्मकुंडली का सबसे बड़ा महत्व है, क्योंकि इसी से इसका सम्पूर्ण जीवन चरित्र छुपा होता है। यदि उस व्यक्ति विशेष के संपूर्ण गुण दोषों से प्रबंधन कर्ता समय के पूर्व वाकिफ हो जाएं तो वह उसे सर्वोपयुक्त स्थान पर नियुक्त करते हुए संस्थान को अधिकतम लाभ दिला सकता है। प्रबंधन का प्रथम सूत्र ही यही है कि सक्षम व्यक्ति संस्थान के भविष्य को उज्ज्वल बनाते हैं और ज्योतिष शास्त्र यह बताने में सक्षम है कि कौन-सा व्यक्ति संस्थान के लिए लाभदायक रहेगा। उसके गुण-दोषों की विवेचना के साथ ज्योतिषशास्त्र में ग्रहों का भी अध्ययन सकारात्मक कहा जा सकता है।

प्रथम बुध क्योंकि बुध विचारशीलता की अभिव्यक्ति प्रदान करता है तो गणित से संबंधित भी इस ग्रह की विशेषता होती है। मंगल-मंगल उत्साहवर्धक, साहस महत्वाकांक्षा एवं उच्च मनोबल की अभिव्यक्ति देती है। गुरु-गुरु ज्ञान, अनुभव प्रथक्करण निरीक्षण के साथ तत्व ज्ञान की अभिव्यक्ति करने वाला होता है। शनि-शनि कुशल प्रशासन सत्ता में महत्व बढ़ाने वाला होता है। एक उत्तम प्रबंधक में उपरोक्त ग्रहों के गुणों का समावेश होना चाहिए।

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शनिष्चरीय अमावस्या



शनिष्चरीय अमावस्या-
प्रत्येक मास में एक अमावस्या आती है और प्रत्येक सात दिन में एक शनिवार। परंतु ऐसा बहुत कम होता है जब अमावस्या शनिवार को हो। हमारे धर्मग्रंथों में अमावस्या का शनिवार को पड़ने पर बहुत से दुखों तथा द्रारिदयहरण का कारक माना जाता है। इस दिन व्रत तथा पूजन करने पर जीवन दुखरहित होकर सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति का कारण हेाता है। इस दिन स्नान कर भगवान षिव के पूजन का विधान है। प्रातःकाल किसी नदी या सरोवर पर स्नान कर भगवान शंकर, पार्वती और तुलसी की एक सौ आठ परिक्रमा करें और प्रत्येक परिक्रमा में कोई वस्तु चढ़ायें। इसके पष्चात् वे सभी वस्तुएॅ किसी जरूरतमंद को दान का दिनभर भगवान शंकर के मंत्रों का मानसिक जाप करते हुए सायंकाल पुनः सरसों के तेल का दीपक वृक्ष पर जलाकर व्रत का पारण करें। ऐसा करने पर जीवन से दुख दूर होकर जीवन में सुख तथा विवाद की समाप्ति होकर जीवन र्निविवाद बनता है। आज के दिन भगवान शनिश्चर की पूजा भी की जाती है। जीवन में अभाव तथा दरिद्रता से पीडि़त लोग आज के दिन भगवान शनि की उपासना करके सभी अभावों से मुक्त हो सकते हैं। शनि की अमावस्या भगवान शनि की उपासना के लिए विषेष मानी जाती है। इस दिन प्रातःकाल स्नान संकल्पपूर्वक व्रत करना चाहिए। भगवान शनि का अभिषेक तेल से करना चाहिए। तथा विष्णुकांता के पुष्प चढ़ाकर भगवान शनि की प्रसन्नता के लिए काले तिल, काली उड़द, लोहे का छल्ला तथा सरसो का तेल एवं शहद और गुड़ का दान करना चाहिए। इस दिन याचकों को यथाषक्ति दान करना चाहिए एवं जरूरतमंदों की अपने हाथो से सेवा करनी चाहिए। ऐसा करने से सभी मनोरथ पूरे होते हैं।



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नक्षत्र से जाने आप का दिन शुभ होगा या अषुभ



नक्षत्र से जाने आप का दिन शुभ होगा या अषुभ -
नक्षत्र संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ है न क्षरति न सरति इति नक्षत्रः अर्थात् न हिलने वाला न चलने वाला, जो स्थिर हों, ग्रहों एवं नक्षत्रों में यहीं प्रमुख भेद है कि ग्रह तो भ्रमणषील हैं किंतु नक्षत्र स्थिर। भारतीय ज्योतिष में राषि-पथ एक स्थिर नक्षत्र से प्रारंभ होता है इसलिए नक्षत्रवृत कहलाता है। राषिपथ एक अंडाकार वृत जैसा है जोकि 360 डिग्री का है। इन 360 अंषों को 12 समान भागों में बांटा गया है और प्रत्येक 30 डिग्री के एक भाग को राषि कहा गया है। इन 12 राषियों के नाम हैं मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृष्चिक, धनु, मकर, कुंभ तथा मीन तथा इन्हीं 360 डिग्री को 27 समान भागों में बांटा गया है एवं प्रत्येक 13.20 समान भागों को नक्षत्र कहा गया है। इन 27 नक्षत्रों को भी प्रत्येक 4 बराबर भागों में 3.20 के समान भागों में बांटा गया है इस प्रकार एक राषि में सवा दो नक्षत्र आते हैं। अर्थात् एक राषि में सवा दो नक्षत्र का समावेष होता है। इन 27 नक्षत्रों के नाम हैं क्रमषः अष्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगषिरा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आष्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विषाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती। जन्म के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है वहीं व्यक्ति के जन्मनक्षत्र कहलाता है। सरल शब्दों में उसे जन्मतारा भी कहा जाता है। यह जन्मनक्षत्र व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारतीय ज्योतिषषास्त्र में नक्षत्र के अनुसार ही जातक का नाम, नाड़ी, योनि, गोत्र एवं गण आदि की विवेचना की जाती है। भारतीय ज्योतिष में इन्हीं नक्षत्रों के आधार पर मूहुर्तगणना का विधान है। अतः व्यक्ति के दैनिक जीवन में भी शुभ और अषुभ दिन का निर्धारण इन्हीं नक्षत्रों के आधार पर किया जा सकता है इसका वर्गीकरण जन्म नक्षत्र से प्रारंभ कर 27 नक्षत्रों को तीन-तीन के बराबर भाग में रखकर कुल 9 समूहों में विभाजित किया जाता है। इस प्रकार 9 समूहों के नक्षत्रों के आधार पर एक सारणी का निर्माण कर शुभ तथा अषुभ का विष्लेषण किया जा सकता है जिसमें 1. जन्मतारा 2. संपततारा 3. विपततारा 4. क्षेमतारा 5. प्रत्यरीतारा 6. साधकतारा 7. वधतारा 8. मैत्रतारा 9. अतिमैत्रतारा. अतः जब जन्मतारा का क्रम आता है तो व्यक्ति को कुछ कामों में शुभ तथा कुछ कार्यो में अषुभ फल की प्राप्ति हेाती है। वहीं तीसरातारा विपततारा, पांचवा प्रत्यरीतारा सांतवा वध तारा का क्रम आता है तो व्यक्ति को अषुभ फल की प्राप्ति होती है। आठंवा तथा नवां तारा का क्रम अतिषुभ फल देने वाला होता है। इस प्रकार व्यक्ति का दिन शुभ होगा या अषुभ इसकी जानकारी उस तारासमूह के आधार पर व्यक्तिविषेष के जन्मतारा के आधार पर किया जा सकता है।



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कैसा होगा आपका जीवन साथी




विवाह योग्य प्रत्येक कन्या के मन में एक बार यह प्रष्न अवष्य जाग्रत होता है कि उसका भावी वर कैसा होगा, क्या करता होगा, कहाॅ से होगा तथा किस स्थिति का होगा तथा उसके साथ व्यवहार कैसा होगा। यह सारी बातें उस कन्या की कुंडली के सप्तम भाव, सप्तमेष तथा सप्तमस्त ग्रह तथा नवांष के अध्ययन से मूलभूत जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सप्तमभाव या सप्तमेष का किसी से भी प्रकार से मंगल, शनि या केतु से संबंध होने पर विवाह में बाधा, वैवाहिक सुख में कमी का कारण बनता है वहीं शुक्र से संबंधित हो तो वर आकर्षक तथा प्रेमी होगा तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा भौतिक चाहत भी अच्छी होगी। गुरू, बुध हेाने पर जीवनसाथी बुद्धिमान, उच्च पद में हो सकता है किसी भी प्रकार से राहु से संबंध बनने पर व्यसनी, काल्पनिक व्यक्तित्व हो सकता है वहीं चंद्रमा के होने पर भावुक किंतु आलसी होगा। सूर्य या राहु से संबंधित होने पर राजनीति या प्रषासन से संबंधित होने के साथ रिष्तों में अलगाव दिखाई दे सकता है ऐसी स्थिति सप्तम या सप्तमेष का किसी भी प्रकार का संबंध 6,8 या 12 वे भाव से बनने पर भी दिखाई देता है। वहीं पर लग्नेष, पंचमेष, सप्तमेष या द्वादषेष की युक्ति किसी भी प्रकार से शनि के साथ बनने पर प्रेम विवाह का योग बनता है साथ ही कन्या के दूसरे स्थान पर विषेष ध्यान देना आवष्यक होता है क्योंकि इससे पति की आयु, आरोग्यता का निर्धारण किया जाता है। अतः इन ग्रहों के विपरीत फलकारी होने पर या कू्रर ग्रहों से आक्रांत होेने पर सर्वप्रथम इन ग्रहों से संबंधित निदान कराने के उपरांत ही कन्या का विवाह कराना उचित होता है साथ ही कुंडली मिलान में नौ ग्रहों के मिलान कर उपयुक्त वर तलाष कर कन्या का विवाह किया जाने पर कन्या को अपना मनचाहा वर तथा परिवार की प्राप्ति होती है।



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चंद्रमा के विभिन्न भावों में फल और विपरीत प्रभाव शांति हेतु उपाय


चंद्रमा के विभिन्न भावों में फल और विपरीत प्रभाव शांति हेतु उपाय -

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को प्रमुख स्थान दिया गया है तथा माना गया है कि चंद्रमा मन का कारक होता है। चूॅकि किसी मानव के जीवन में उसकी सफलता तथा असफलता का बहुत बड़ा कारण उसका मन होता है अतः यदि कोई व्यक्ति सफल है या असफल इसका बहुत कुछ निर्धारण चंद्रमा की स्थिति से किया जा सकता है। चंद्रमा यदि लग्न में हो तो जातक ऐष्वर्यषाली, सुखी, मधुरभाषी, स्थूल शरीर वाला, द्वितीय स्थान में सुंदर, परदेषवासी, भ्रमणषील तृतीय स्थान में तपस्वी, आस्तिक, कलाप्रेमी, गले का रोगी, चतुर्थभाव में होने पर दानी, रागद्धेष रहित, क्रोधी, पंचम स्थान में विनीत, व्यसनी, मित्रयुक्त छठवे स्थान में होने पर विलासी, धार्मिक, लोकप्रिय, सप्तम स्थान पर होने पर अस्थिर, दुखी,प्रवासी अष्टम स्थान पर मातृभक्त, कलाप्रेमी, विवादी, मिथ्याभाषी नवम स्थान पर सात्विक, तेजस्वी, मानी दसम स्थान पर विद्धान, दयालु, कला में माहिर एकादष स्थान पर आलसी, दानी मधुरवाणी युक्त तथा द्वादष स्थान पर क्रोधी, व्यसनी, कलाकार हो सकता है। किंतु चंद्रमा के विपरीत स्थान में होने पर विपरीत असरकारी भी होता है अतः मानसिक कमजोर तथा निर्णय लेने में बाधा दे सकता है अतः चंद्रमा के दोषों को दूर करने हेतु चंद्रमा के वस्तुओं का दान जिसमें विषेषकर शंख, कपूर, दूध, दही, चीनी, मिश्री, श्वेत वस्त्र, इत्यादि तथा मंत्रजाप जिसमें उॅ श्रां श्रीं श्रौं सः चंद्रमसे नमः या उॅ नमः षिवाय का 11 हजार जाप तथा रूद्राभिषेक प्रमुख माना जाता है। इन उपायो के आजमाने से शुभ फल में वृद्धि तथा अषुभ फलों में कमी होती है।


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नक्षत्र गंड दोष - कितना असरकारक



नक्षत्र गंड दोष - कितना असरकारक -
गंड अर्थात् दोष। गंड तीन प्रकार के माने जाते हैं जिनमें क्रमषः लग्नगंड, तिथि गंड तथा नक्षत्र गंड होता है। जिसमें नक्षत्र गंड सबसे ज्यादा अषुभ माना जाता है। 27 नक्षत्रों में से छः नक्षत्र गंडदोष युक्त माने जाते हैं जिसमें क्रमषः अष्विनी, अष्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल और रेवती नक्षत्रों को गंड दोषयुक्त माना जाता है। इन नक्षत्रों में जन्म लेने पर मूल के जन्म माने जाते हैं और माना जाता है कि गंडमूल नक्षत्र में जन्म होने पर अषुभ फलकारक स्थिति बनती है। इन नक्षत्रों को दोषयुक्त मान कर इनकी शांति का विधान कराया जाता है। भारतीय ज्योतिष में कुल 27 नक्षत्र होते हैं, इनमें से जन्म के छः नक्षत्र जिन्हें मूल कहा जाता है तथा मृत्यु के पाॅच नक्षत्र जिन्हें पंचक कहा जाता है, इनकी शांति आवष्यक होती है। मान्यता है कि इन नक्षत्रों में जातक लड़का हो या लड़की के पैदा होने पर माता-पिता, भाई, धन, आरोग्य, प्रतिष्ठा तथा पितरों का अंतिमतः कल्याण होता है। ज्योतिष के ग्रंथो में प्रत्येक नक्षत्र में जनम का प्रभाव बड़े विस्तार से लिखा है जिसका सार है कि नक्षत्रों में जन्म लिये हुए बच्चों की नक्षत्र शांति, ग्रो प्रसव के साथ कराना चाहिए। कहते हैं कि तुलसीदासजी का जन्म भी मूल नक्षत्र में हुआ था और उस के प्रभाव से उनकी माता का अल्पायु में देहांत हो गया। पिता भी तुलसीदासजी की उपेक्षा किया करते थे। इस तरह भारतीय दर्षन में इस दोष की बड़ी किंवदंतियाॅ प्रचलित हैं। यदि इन नक्षत्रों में जातक का जन्म हों तो पिता को 27 दिन संतति का मुख नहीं देखना चाहिए तथा उसी नक्षत्र में बच्चे के माता-पिता द्वारा विधिवत् गो प्रसव के साथ मूल वृक्ष बनाकर मूल की शांति कराना चाहिए। 27 छेद के घडे से स्नान करना चाहिए। कहते हैं कि यह पूजा बड़ी कठिन होती है क्योंकि इस पूजा में सात स्थानों की मिट्टी, सात जलाषय का जल, पंचपल्लव, सर्वोषधि आदि संकलित कर कलष में डालकर इनकी पूजा करके माता-पिता वस्त्र सहित बच्चे को गोद में लेकर पूर्वाभिमुख होकर समंत्रक 27 छेद वाले घड़े से स्नान करते हैं तथा पूजन पूर्ण होने पर छायापात्र का दान करते हैं। बच्चे के माता-पिता इस छाया पात्र में तेल डालकर विधिपूर्वक बच्चे का मुख दर्षन करते हैं। ऐसा करने से मूल दोष शांत होता है।
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राजनीति में सफलता प्राप्ति हेतु ज्योतिष योग



राजनीति में सफलता प्राप्ति हेतु ज्योतिष योग -
आजकल राजनीति भी कैरियर के रूप में ली जाने लगी है अतः लोग राजनीतिक सफलता हेतु विषिष्ट संयोगो उन संयोगो द्वारा लोकप्रियता, वैभव तथा सम्मान प्राप्ति हेतु इच्छिुक होता है। कुंडली के द्वारा राजनीतिक जीवन में असफलता तथा उचाईयों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। राजनीति में असफल कैरियर हेतु व्यक्ति में जो गुण होने चाहिए उसमें प्रमुख रूप से माने जाने वाले गुण हैं जोकि किसी व्यक्ति को सफल राजनैतिक कैरियर देने में समर्थ हो सकते हैं वह है नेतृत्व क्षमता, सेवा का भाव, सामाजिक हित अथवा अहित के संदर्भ में विचार लोकप्रियता तथा प्रभावी व्यक्तित्व का गुण होना चाहिए। किसी सफल राजनेता की कुंडली में छठवां, सांतवां, दसवां तथा ग्यारहवां घर प्रमुख माना जा सकता है। क्योंकि सत्ता में प्रमुख रहने हेतु दषम स्थान का उच्च संबंध होना चाहिए चूॅकि दसम स्थान को राजनीति का स्थान या सत्ता का केंद्र माना जाता है साथ ही एकादष स्थान में संबंध होने से लंबे समय तक शाासन तथा विरासत का कारक होता है। छठवां घर सेवा का घर माना जाता है अतः इस घर से दषम स्थान का संबंध राजनीति में सेवा का भाव देता है। साथ ही सांतवा घर दषम से दषम होने के कारण प्रभावी होता है। किसी व्यक्ति की कुंडली में राहु तथा सूर्य, गुरू इत्यादि का प्रभावी होना भी राजनीति जीवन में सफलता का कारक माना जाता है। चूॅकि राहु को नीतिकारक ग्रह का दर्जा प्राप्त है वहीं सूर्य को राज्यकारक, शनि को जनता का हितैषी और मंगल नेतृत्व का गुण प्रदाय करता है। इस योग में तीसरे स्थान से संबंध रखने से व्यक्ति अच्छा वक्ता माना जा सकता है। अतः राजनीति में सफल होने हेतु इन ग्रहों तथा स्थानों का प्रभावी होना व्यक्ति को राजनीति जीवन में सफल बना सकता है।



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ग्रहों की दिषा ज्ञान तथा उनके उपयोगिता



ग्रहों की दिषा ज्ञान तथा उनक उपयोगिता -
प्राचीन भारतीय साहित्य तथा विचार अनुसार प्रत्येक ग्रह की अपनी एक दिषा निर्धारित है जोकि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी सच साबित हुई है। माना जाता है कि प्रत्येक ग्रह की अपनी एक उॅर्जा होती है उसी के अनुरूप उसकी दिषा तय करते हैं। सूर्य के लिए पूर्व दिषा निर्धारित है चूॅकि सूर्य तेजोमय तथा प्रकाष का कारक है अतः सूर्य को पूर्व दिषा का स्वामी माना जाता है। उत्तर पूर्व पर गुरू का अधिकार है चूॅकि गुरू को सकारात्मक और तेज का ग्रह माना जाता है अतः उत्तर पूर्व दिषा प्रदान किया गया है। उत्तर पर बुध का अधिकार इस उद्देष्य से दिया गया है कि बुध सक्रियता तथा रचनात्मकता का स्वामी होता है अतः उत्तर दिषा में इस प्रकार के कर्म से जीवन में रचनात्मकता तथा सक्रियता के कारण सफलता प्राप्ति में सहायता मिल सकती है। उसी प्रकार चंद्रमा को उत्तर पष्चिम का स्वामी माना जाता है क्योंकि यह रचनात्मकता विचार ज्यादा करने का कारक होता है। शनि को पष्चिम दिषा का अधिकार है क्योंकि शनि ग्रह को नाकारात्मक तथा धीमा ग्रह माना जाता है। दक्षिण दिषा में मंगल का अधिकार है चूॅकि मंगल उग्र तथा दाह देने वाला ग्रह माना जाता है उसी प्रकार दक्षिण पष्चिम दिषा को राहु का कारक माना जाता है क्योंकि रहस्य और नाकारात्मक प्रभाव राहु से आता है। दक्षिण पष्चिम पर शुक्र का राज है क्योंकि उष्ण और तेजयुक्त माना जाता है साथ ही उत्तर पूर्व पर केतु का अधिकार काल्पनिक तथा तेज के कारण प्रदान किया गया है। अतः यदि जीवन में उर्जा की आवष्यकता तथा क्षेत्र के अनुरूप कार्य किया जाय तो परिणाम साकारात्मक हो सकता है।



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जीवनकाल के प्रमुख ऋण, उपाय और सफलता प्राप्ति के उपाय



जीवनकाल के प्रमुख ऋण, उपाय और सफलता प्राप्ति के उपाय -
वैदिक काल से मान्यता है कि किसी भी मानव के जीवन में पितृ ऋण, देव ऋण, आचार्य ऋण, मातृऋण के कारण जीवन में असफलता तथा हानि बीमारी का सामना करना पड़ता है। माना जाता है कि इंसान को अपनी जिंदगी में कर्ज, फर्ज और मर्ज को कभी नहीं भूलना चाहिए। जो भी इनको ध्यान में रखते हुए अपना कर्म करता है वह जीवन में बहुत कम असफलता का सामना करता है। किसी व्यक्ति को पूर्वजो के दुष्कर्मो, अपने पूर्व जन्मों के कर्म तथा वर्तमान जीवन के पापकर्म के कारण कई प्रकार ऋणों का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण उसके जीवन में सुखों के कारण बाधा, कार्य में असफलता, बीमारी का सामना करना पड़ता है। जीवन में किस प्रकार के ऋण से व्यक्ति के जीवन में किस प्रकार की हानि संभव है इसका ज्ञान ज्योतिष शास्त्र से किया जाना संभव है, जिसमें प्रमुख बनते हुए कार्य में रूकावट, दुखों की प्राप्ति निराषा, मानहानि, बरकत में कमी आदि हो तो मनुष्य पितृ ऋण से प्रभावित मानी जाती है। जिसका ज्योतिष प्रभाव कुंडली के दूसरे, तीसरे, आठवे या भाग्य स्थान में शनि राहु से आक्रांत हो तो पितृ ऋण के कारण व्यक्ति अपने जीवन में दुखों का सामना करता है। पितृऋण से राहत हेतु अज्ञात पितृ निवारण उपाय करना चाहिए जिसमें नागबलि, नारायण बलि तथा रूद्राभिषेक तथा सभी संबंधी मिलकर दान करें तो इस ऋण से राहत मिलती है। स्वऋण होतो व्यक्ति नास्तिक होता है, रीतिरिवाजों को नहीं मानता। ऐसा व्यक्ति स्वयं के बल पर सभी सुखों को प्राप्त करने के उपरांत आकस्मिक हानि तथा भयंकर बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। इसका परिचय कुंडली के पंचम स्थान में नीच का सूर्य राहु से आक्रांत हो या पंचमेष विपरीत हो तो यह ऋण दृष्टिगोचर होता है। इससे राहत हेतु नियम से सूर्य नमस्कार तथा सभी भाईबंधु मिलकर गरीबो को आहार का दान करना लाभकारी होता है। मातृऋण माता को किसी प्रकार से कष्ट होने पर जीवन में मातृऋण का सामना जरूर करना पड़ता जिसमें मृत्युतुल्य कष्ट, हानि तथा बीमारी का सामना करना पड़ता है इससे राहत हेतु व्यक्ति को माता का यथावत् सम्मान करते हुए किसी बहते पानी में सफेद वस्तु प्रवाहित करना चाहिए। स्त्रीऋण से प्रभावित जातक के घर में संतान का अभाव या संतान से कष्ट का योग बनता है जिसमें दूसरे या सातवें घर में सूर्य, चंद्रमा का राहु से पीडित होना है जिससे राहत हेतु स्त्रीजाति की सेवा तथा सहायता करना एवं गाय को आहार तथा सेवा करना प्रमुख है। देव ऋण किसी जातक के संतान का नाष होना या वंष का बाधित होना या संतान का किसी भी प्रकार से अपूर्ण हेाना देव ऋण का द्योतक होता है, जिसका पता कुंडली के छठवे स्थान में चंद्रमा या मंगल का केतु से पीडित होना बताता है जिससे राहत हेतु जीवों की सेवा, विधवा की सहायता कर राहत पाया जा सकता है। इस प्रकार जीवन में किसी भी प्रकार से सुखों में बाधा आ रही हो तो अपने ऋण के संबंध में ज्ञात होकर उसकी शांति तथा उपाय कर जीवन में सुख तथा सफलता प्राप्त की जा सकती है।


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श्री स्कंद षष्ठी अथवा चम्पाषष्ठी व्रत


श्री स्कंद षष्ठी अथवा चम्पाषष्ठी व्रत -
 मार्गषीर्ष के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को श्री स्कंदषष्ठी या चम्पाषष्ठी व्रत किया जाता है। इस व्रत के संबंध में मान्यता है कि एक बार मुनिवर दुर्वासा युधिष्ठिर को राज्य मिलने के उपरांत उनका हाल-चाल जानने गए। युधिष्ठिर मुनिवर को देखकर अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक उनकी सेवा-सत्कार करने के बाद धमनन्दन महातेज राजा युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर मुनिवर से जानना चाहा कि हे मुनिवर मुझे ऐसे कौन से व्रत के पुण्य से यह राज्य और सुख मिला है मैं उसे पुनः करने का इच्छुक हूॅ। तब मुनिवर दुर्वासा ने कहा कि हे राजन सबसे पहले सत्ययुग में विष्वकर्मा ने चम्पाषष्ठी के दिन उपवास किया था, इससे उनको जगत के सब पदार्थो की बहुत सरलता से रचना करने की चतुरता प्राप्त हुई। उसके बाद विष्वकर्मा प्रजापति पद का अधिकारी हो गये। ऐसे ही राजा पृथु, कार्तवीर्य, नारायण भगवान और महादेव पावर्ती सहित चंद्रषेखर देव ने यह व्रत किया था, जिसके कारण वे सभी महान हो गए। जो व्यक्ति विधि के अनुसार इस चम्पाषष्ठी का व्रत को करता है वह अनन्त पुण्यफल को प्राप्त करता है। जो षष्ठी भौमवार से जुड़ी हो उसे चम्पाषष्ठी कहते हैं।
व्रत विधि -
पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करना चाहिए और उसके उपरांत संकल्प कर षष्ठी का निर्जला व्रत करना चाहिए। षष्ठी को स्वच्छ प्रभात में दंतधावन कर स्नान आदि से पवित्र होकर विधि पूर्वक पूजन करना चाहिए। पूजन में कलष स्थापन कर उसमें सुवर्ण के सारष्वरथ और सारथि सहित सूर्य को बनाकर स्थापित करें उस सूर्य का विधिपूर्वक पूजन कर ‘आदिज्याय नमः पूजयामि’ मंत्र का जाप पूजन करें। उसके उपरांत हवन आरती आदि करने के उपरांत किसी ब्राम्हण को भोजन दान के बाद उसी भोजन से पारण करें।  सप्तमी के दिन प्रातःकाल स्नान कर षिवलिंग का दर्षन अवष्य करना चाहिए। श्री स्कन्दपुराण की कही हुई चम्पाषष्ठी व्रत कहा जाता है।



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सपनों की दुनिया और ज्योतिष



सपनों की दुनिया भी बड़ी अजीब होती है। हर इंसान अपनी जिंदगी में सपने जरूर देखता है। स्वप्न जरूरी नहीं कि अच्छे या बुरे ही हों ये कभी सुहावने तो कभी डरावनें कभी सुंदर तो कभी परेषान करने वाले कुछ भी हो सकते हैं कभी सच्चाई के करीब तो कभी बेहद काल्पनिक। किंतु सपनों का संसार विचित्र होने के साथ ही हमारे आंतरिक तथा बाह्य जीवन को प्रभावित करने वाले हो सकते हैं। स्वप्न को हर शास्त्र में अपने तरीके से परिभाषित किया गया है जिसमें जीव विज्ञान तो सपनों को सिर्फ इंसानी सोच का चमत्कार मानता है वहीं शरीर विज्ञानियों का मत है कि सपनें नीेंद में मस्तिष्क में रक्त की कमी के कारण आते हैं वहीं आध्यात्म शास्त्रियों का मत है कि स्वप्न सारे दिन की क्रियाकलापों का परिणाम होता है वहीं इंद्रिय विज्ञानानुसार सपनें पाचन शक्ति के कमजोर होने से आते हैं किंतु सपनों के प्रकारों पर इन विज्ञान द्वारा बहुत विस्तृत परिणाम नहीं निकाला जा सकता है परंतु जहाॅ मनोवैज्ञानिक सपनों को स्वप्नावस्था के अवचेतन मस्तिष्क की उपज मानता है वहीं भारतीय ज्योतिष में स्वप्न को अवचेतनावस्था का ही परिणाम मानता है कि मस्तिष्क नहीं अपितु मन की अवचेतन अवस्था का। विज्ञान जहाॅ मन और मस्तिष्क को एक मानता है वहीं हमारा वेद मन और मस्तिष्क को दो भिन्न स्वीकार करता है जिसमें मन के दो भाग होते हैं एक चेतन मन और दूसरा अवचेतन मन। भौतिक जगत के समस्त क्रियाकलापों चेतनमन द्वारा संचालित होते हैं वहीं पर अवचेतन मन का अधिकांष भाग सुप्तावस्था में रहता है। भारतीय ज्योतिष मानता है कि स्वप्न देखने का कार्य यहीं सुप्तावस्था का अवचेतन मन करता है। वेद में यह माना गया है कि शरीर के सभी इंद्रिय स्वतंत्र हैं तथा सभी का अलग दायित्व है किंतु सोते समय सभी इंद्रिय मन पर एकत्रित हो जाते हैं उस समय देखना, सुनना, सूंधना, स्पर्ष या अन्य क्रियाएॅ षिथिल हो जाती हैं और पूरे शरीर पर सिर्फ मन का राज चलता है। चेतनमन जाग्रत अवस्था में कार्य करता है वहीं कार्य अवचेतनमन निद्रा की अवस्था में करता है। इसलिए कई बार स्वप्न सच भी होते देखे जाते हैं। वैदिक ज्योतिष के अनुसार मन पर चंद्रमा का प्रभाव होता है अर्थात् मन का कारक ग्रह है चंद्रमा। अतः यदि ज्योतिषीय गणना से देखा जाए तो किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में चंद्रमा की स्थिति देखकर उसके स्वप्न का वर्णन किया जा सकता है। चंद्रमा जिस भाव में होगा, उसके स्वप्न उस भाव से संबंधित ज्यादा होते हैं। जैसे किसी व्यक्ति का चंद्रमा चतुर्थ भाव में हो तो उसके ज्यादातर स्वप्न चतुर्थभाव से संबंधित अर्थात् माता, भूमि, मकान, सुख के साधन, वाहन, जल, तालाब, कुॅआ, समुद्र, जनसमूह, प्रेमी-प्रेमिका से संबंधित, परिवार या रिष्तेदार से संबंधित होगा यदि इससे संबंधित ग्रह प्रतिकूल होंगे तो स्वप्न भी बुरे या खराब तथा अनुकूल होने पर अच्छे या लाभकारी हो सकते हैं। साथ ही उस समय गोचर का चंद्रमा जहाॅ भ्रमणषील होगा उसके अनुरूप अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति के अनुसार स्वप्न आ सकते हैं अतः कहा जा सकता है कि स्वप्न चेतन और अवचेतन मन का मिला-जुला भाव हो सकता है जोकि जीवन के चेतन और अवचेतन मस्तिष्क की स्थिति पर निर्भर करता है साथ ही कई बार स्वप्न याद रहते हैं कई बार नहीं भी याद रहते और आधे-अधूरे भी याद हो सकते हैं यह तब संभव होता है जब अवचेतन मन में कई बार चेतनमन सक्रिय हो जाता है तब तक का स्वप्न याद रह जाता है किंतु अवचेतन मन का स्वप्न याद नहीं होता किंतु आभास जरूर होता है कि मन ने कोई स्वप्न देखा था।


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चतुर्थी तिथि के स्वामी श्री गणेष



तिथीषावहिनकौगौरी अर्थात् मूहुर्तचिंतामणि नामक ग्रंथ में उल्लेखित श्लोक के अनुसार प्रत्येक चतुर्थी तिथि के स्वामी गणेष भगवान हैं परंतु प्रत्येक चतुर्थी को भगवान के अलग-अलग रूपों की पूजा होती है। मार्गषीर्ष माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को भगवान वैनायकी के रूप में पूजे जाते हैं। अमरकोष नामक ग्रंथ में उल्लेख है कि विषिष्टोनायकः विनायकः अर्थात् विषिष्ट नायक हो उसे विनायक कहा जाता है। अर्थात् विषिष्ट कर्म में किसी प्रकार के विध्न को हरने हेतु गणेष की अर्चन एवं पूजन किया जाता है। अभिष्ट फल की प्राप्ति हेतु वैनायकी गणेष का व्रत किया जाता है इसमें प्रसन्न मन से पवित्र होकर पूजन सामग्रियों को एकत्रित कर भगवान के मूल मंत्र उॅ गं गणपतये नमः का उच्चारण करते हुए सारी सामग्रियों का चढ़ाकर भगवान के आठ नामों का उच्चारण करे हुए भगवान का वंदन करना चाहिए। भगवान षिव के गुहा के आगे जिनका आविर्भाव हुआ है और जो समस्त देवताओं के द्वारा अग्रपूज्य हैं उन्हें गणपति को विद्या, भाग्य, संतान आदि की अभिलाषा से भगवान वैनायकी के इस रूप का पूजन करने से अभिष्ठ फल की प्राप्ति होती है। भगवान गणेष को मोदक और दूर्वा अति प्रिय हैं अतः हरित वर्ण का दूर्वा जिसमें अमृत तत्व का वास होता है, उसे भगवान वैनायकी पर चढ़ाने पर से जीवन के सभी विध्न समाप्त होकर जीवन में सुखो का वास होता है और अभिष्ट कामना की पूर्ति होती है


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नाड़ी दोष और भकूट दोष का व्यवहारिक स्वरूप-



भारतीय ज्योतिष में कुंडली मिलान के लिए प्रयोग की जाने वाली गुण मिलान की विधि में मिलाएॅ जाने वाले अष्टकूटों में नाड़ी और भकूट को सबसे अधिक गुण प्रदान किये जाते हैं। नाड़ी को 8 और भकूट को 7 गुण प्रदान किय जाते हैं। मिलान की विधि में यदि नाड़ी और भकूट के गुण मिलते हैं तो गुणों को पूरे अंक और ना मिलने की स्थिति में शून्य अंक दिया जाता है। इस प्रकार से अष्टकूटों के मिलान में प्रदान किये जाने वाले 36 गुणों में 15 गुण केवल इन दो कूटों के मिलान से ही आ जाते हैं। भारतीय ज्योतिष में प्रचलित धारणा के अनुसार इन दोनों दोषों को अत्यंत हानिकारक माना जाता है। इन गुणों के ना मिलने की स्थिति में माना जाता है कि वैवाहिक जीवन में कठिनाई, संतान सुख में कमी तथा वर या वधु की मृत्यु का कारण बनता है। इन दोनों कूटों के मान का इतना महत्व माना जाता है जिसके लिए किसी व्यक्ति की कुंडली में चंद्रमा की किसी नक्षत्र विषेष में उपस्थिति से उस व्यक्ति की नाड़ी का पता चलता है। नक्षत्र संख्या में कुल 27 होते हैं तथा इनमें से किन्हीं 9 विषेष नक्षत्रों में चंद्रमा के स्थित होने से कुंडली धारक की कोई एक नाड़ी होती है। इसी प्रकार यदि वर-वधु की कुंडलियों में चंद्रमा परस्पर 6-8, 9-5 या 12-2 राषियों में स्थित हो तो भकूट मिलान के 0 अंक और इन स्थानों पर ना होने पर पूरे 7 अंक प्राप्त होती है। भकूट दोष होने पर संतान, समृद्धि तथा स्वास्थ्य हेतु हानिकारक माना जाता है। किंतु व्यवहारिक और ज्योतिष स्वरूप में देखा जाए तो कुंडली मिलान की यह विधि अपूर्ण होने के साथ अनुचित भी है। किसी व्यक्ति की कुंडली में नवग्रहों में सिर्फ चंद्रमा की स्थिति को देखकर दोष-अवदोष निर्धारित कर देना अव्यवहारिक ही नहीं अवैचारिक भी है। सिर्फ चंद्रमा का महत्व यदि व्यक्ति के जीवन में आधा मान लिया जाए जैसा कि 36 में से 15 गुण प्रदान करना है तो बाकि के आठ ग्रहों का व्यक्ति की कुंडली में महत्व ही नहीं माना जायेगा। जबकि देखा यह गया है कि चंद्रमा अपनी स्थिति सवा दो दिन में बदल लेती है किंतु कई ग्रह व्यक्ति की कुंडली में महत्वपूर्ण मानी जाती हैं अतः व्यवहारिक तो यह माना जाता है कि किसी व्यक्ति की कुंडली में समग्र विचार करना उचित होगा। हालांकि भारतीय मत के अनुसार विवाह दो मनों का पारस्पिरिक मिलन होता है तथा चंद्रमा व्यक्ति के मन पर सीधे प्रभाव डालता है इस दृश्टि से चंद्रमा की स्थिति का महत्व माना जा सकता है किंतु किसी व्यक्ति की कुंडली में सुखमय वैवाहिक जीवन के लक्षण, सुख, संतान पक्ष, आर्थिक सुदृढ़ता, अच्छे स्वास्थ्य एवं आपस में मित्रवत् व्यवहार तथा सामंजस्य को देखा जाना ज्यादा आवष्यक है ना कि सिर्फ नाड़ी और भकूट दोष के आधार पर कुंडली के मिलान ना स्वीकारना या नाकारना। इस प्रकार कुंडली मिलान की प्रचलित रीति सुखी वैवाहिक जीवन बताने में न तो पूर्ण है और ना ही सक्षम। इस प्रकार से कुंडली मिलान को मिलान की एक विधि का एक हिस्सा मानना चाहिए न कि अपने आप में एक संपूर्ण विधि। सिर्फ चंद्रमा के अनुसार मिलान की प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य ग्रहों की स्थिति तथा मिलान के अनुसार ग्रह दोषों के अनुसार मिलान ज्यादा सुखी तथा वैवाहिक रिष्तों की नींव होगी जिससे आज के युग में चल रही अलगाव या तलाक की स्थिति को कम कर आपसी सद्भावना तथा तनाव को कम करने में सहायता प्राप्त होगी।



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पुरूषार्थ का महत्व




पुरूषार्थ का महत्व भाग्य से अधिक है साथ ही अधिकांष लोगो की मान्यता होती है कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं होती जितना कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है किंतु जीवन की कई अवस्थाओं पर नजर डाले तो भाग्य की धारणा से इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय शास्त्र में कर्म को तीन श्रेणियों में बांटा गया है जोकि क्रमषः संचित कर्म, क्रियामाण कर्म और प्रारब्ध है। जो वर्तमान में कर्म किया जाता है वहीं क्रियामाण कर्म कहा जाता है जिसका कोई फल अभी हमें प्राप्त नहीं है अर्थात् वहीं कर्म भविष्य में संचित कर्म बनता है। इन्हीं संचित कर्म में से जिसका फल हमें प्राप्त हो जाता है वह चाहें अच्छा हो या बुरा प्रारब्ध कहा जा सकता है। अब देखें कि संचित कर्म का विचार - वह कर्म जिसका परिणाम हमें वर्तमान में नहीं प्राप्त होता माना जाता है कि वह किसी भी जनम में प्राप्त हो सकता है जिसका उल्लेख आप वंषषास्त्र से कर सकते हैं क्योंकि जन्म के समय किसी भी प्रकार के कर्म के बिना भी जीव उच्च-नीच, अमीर-गरीब, स्वस्थ या अस्वस्थ होने के तौर पर प्राप्त करता है जिसका वर्णन ज्योतिष शास्त्र में जातक के जन्मकुंडली के पंचम या पंचमेष के आधार पर किया जा सकता है। कर्म का दूसरा भाग है प्रारब्ध। प्रारब्ध को अपने इसी जन्म में भोगना हेाता है अर्थात इसे उत्पति कर्म भी कहा जा सकता है जोकि व्यक्ति के जींस तय कर देते हैं कि उसका प्रारब्ध क्या होगा अर्थात् गर्भधारण के समय ही उसका प्रारब्ध निर्धारित हो जाता है। प्रयत्न के बिना ही पैदा होते ही जो कुछ प्राप्त होता है या अप्राप्त रह जाता है वह प्रारब्ध होता है। कुंडली में प्रारब्ध केा नवम भाव या नवमेष से देखा जा सकता है। अब कर्म के तीसरे स्वरूप क्रियामाण को देखें। क्रियामाण अर्थात् जो वर्तमान में कर्म चल रहा है मतलब इसे हम पुरूषार्थ कह सकते हैं। भारतीय मान्यता है कि इंसान के 12 वर्ष अर्थात् कालपुरूष के भाग्य के एक चक्र के पूरा होने के उपरांत क्रियामाण का दौर शुरू हो जाता है जोकि जीवन के अंत तक चलता है। अब व्यक्ति की षिक्षा उसकी रूचि सामाजिक स्थिति पारिवारिक तथा निजी परिस्थिति पसंद नापसंद, प्रयास तथा उसमें सकाकरात्मक या नाकारात्मक सोच से व्यक्ति का क्रियामाण उसके जीवन को प्रतिकूल या अनुकूल स्थिति हेतु प्रभावित करता है अतः पुरूषार्थ या क्रियामाण कर्म ही संचित होकर प्रारब्ध बनता है अतः जीवन के सिर्फ कर्म के आधार पर नहीं वरन् कर्म और भाग्य के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है जोकि कुंडली के पंचम, नवम और दषम स्थान से देखा जाता है इसमें प्रयास का स्तर, मनोभाव या सहयोग कि स्थिति देखना भी आवष्यक होता है जोकि कुंडली के अन्य भाव से निर्धारित होता है अतः मानव जीवन में भाग्य का भी अहम हिस्सा होता है।



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परीक्षा में सफलता हेतु उपाय




क्या करें परीक्षा में सफलता हेतु उपाय-
हर माता-पिता की एक ही कामना होती है कि उसके बच्चे उच्च षिक्षा ग्रहण करें, हर परीक्षा में उच्च अंक प्राप्त करें। इसके लिए वे हर प्रकार से प्रयास करते हैं साथ ही हर वह उपाय करते हैं, जिससे उनकी मनोकामना पूरी हो किंतु हर संभव प्रयास करने के उपरांत भी कई बार असफलता आती है, जिसके कई कारण हो सकते हैं, प्रयास में कमी, परिस्थितियों का विपरीत होना या कोई मामूली सी गलती भी असफलता का कारण हो सकती है। किंतु ज्योतिष दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह सभी घटना आकस्मिक ना होकर ग्रहीय है। परीक्षा का संबंध स्मरणषक्ति से होता है, जिसका कारक ग्रह है बुध परीक्षा भवन में मानसिक संतुलन का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसका कारक ग्रह है चंद्रमा परीक्षा में विद्या की स्थिरता, विकास का आकंलन मूख्य होता है, जिसका कारक ग्रह है गुरू भाषा या शब्द ज्ञान होना भी परीक्षा में आवष्यक गुण माने जा सकते हैं, जिसका कारक ग्रह होता है शनि साथ ही राहु तथा शुक्र आपकी भोग तथा सुख के प्रति लालसा को प्रर्दषित करती है अतः इनके अनुकूल या प्रतिकूल या दषा अंतदषा का प्रभाव भी परीक्षा में पड़ सकता है। इसके अलावा परीक्षार्थी के पंचम स्थान, जहाॅ से विद्याविचार द्वितीय स्थान जहाॅ से विद्या योग देखा जाता है। इस सबो के अलावा जातक के विंषोतरी दषाओं पर भी विचार करना चाहिए। लग्न, तीसरे, दसवें, पाॅचवें, ग्यारवहें शनि के कारण तथा वयस्कता की शुरूआत इन दो वजहों से अथवा शुक्र राहु आदि ग्रहों की अंतरदषाओं में भी व्यवधान संभव है। क्योंकि इन तीनों ग्रहों की दषाओं में जातक स्वेच्छाचारी हो जाता है तथा अनुषासनहीन व अवज्ञाकारी अनियमित तथा बहिरमुखी हो जाता है। परिणामस्वरूप असफलता हाथ आती है। ऐसे जातकों के अभिभावकों को चाहिए कि अपने बच्चो की जन्म कुंडलियाॅ विद्धान आचार्यो को दिखाकर उन ग्रहों के विधिवत् उपाय कर अनुषासन तथा आज्ञापालन नियमितता तथा एकाग्रता सुनिष्चित करें। तभी बच्चें अपने कैरियर में ग्रहों के प्रभाव से ऊपर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।




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कार्यक्षेत्र में सहयोगियों का प्रभाव और लाभ-हानि में ज्योतिष विष्लेषण



कार्यक्षेत्र में सहयोगियों का प्रभाव और लाभ-हानि में ज्योतिष विष्लेषण -
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में जिस प्रकार ग्रहों में आपस में मित्रता-षत्रुता तथा समता होती है, उसी का असर जीवन में सहयोगियों या साझेदारों फिर वह जीवन में नीति संबंधों का हो या व्यवसायिक संबंधों का सहभागिता, अनुकूलता तथा सहिष्णुता ज्योतिष गणना का विषय है। जिस प्रकार जीवन साथी के चयन में गुण मेलापक को महत्व दिया जाता है, उसी के अनुरूप कार्य में साझेदार या सहकर्मी या अधिनस्थों के गुण-दोषों का मिलान कर जीवन में व्यवसायिक तथा सामाजिक जीवन को सरल किया जा सकता है। इसके लिए कार्य से संबंधित क्षेत्र का चयन करते समय अपनी ग्रह स्थितियों के अलावा, अपने ग्रहों की दिषा, दषा तथा स्थिति के अनुरूप व्यक्तियों से नजदीकी या दूरी बनाकर तथा किस व्यक्ति का संबंध किस स्थान है, जानकारी प्राप्त कर उस व्यक्ति से उस स्तर का संबंध बनाकर समस्या से निजात पाया जा सकता है। साझेदारों के चुनाव तथा व्यवहारगत संबंध तथा व्यक्ति का चुनाव कार्यक्षेत्र में लाभ-हानि तथा मानसिक शांति हेतु आवष्यक भूमिका निभाता है।



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उत्पन्ना एकादषी

उत्पन्ना एकादषी -
उत्पन्ना एकादषी का व्रत मार्गषीर्ष माह की कृष्णपक्ष की एकादषी को मनाया जाता है। इस दिन भगवान कृष्ण की पूजा का विधान है। एकादषी का व्रत रखने वाले दषमी के सूर्यास्त से भोजन नहीं करते। एकादषी के दिन ब्रम्हबेला में भगवान कृष्ण की पुष्प, जल, धूप, अक्षत से पूजा की जाती है। इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगता है। यह ब्रम्हा, विष्णु, महेष त्रिदेवों का संयुक्त अंष माना जाता है। यह अंष दत्तात्रेय के रूप् में प्रकट हुआ था। यह मोक्ष देने वाला वत्र माना जाता है।
कथा -
सत्ययुग में एक बार मुर नामक दैत्य ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्र को अपदस्थ कर दिया। देवता भगवान शंकर की शरण में पहुॅचे। भगवान शंकर ने देवताओं को विष्णु जी के पास भेज दिया। विष्णु जी ने दानवों को तो परास्त कर दिया परंतु मूर भाग गया। विष्णु ने देखा कि मूर दैत्य डरकर भाग गया है तो वे बद्रिकाश्रम की गुफा में आराम करने लगे। मूर ने ऐसा जानकर विष्णु को मारना चाहा। विष्णुजी आराम की मुद्रा में थे तत्काल उनके शरीर से एक कन्या का अवतरण हुआ और उसने मूर को मार डाला। विष्णुजी ने कन्या से परिचय जानना चाहा तब कन्या ने कहा कि मैं आपके शरीर से उत्पन्न शक्ति हूॅ। विष्णुजी ने प्रसन्न होकर कन्या का नाम एकादषी रखा था आर्षीवाद दिया कि तुम संसार में मायाजाल में उलझे तथा मोह के कारण मुझसे विमुख प्राणियों को मुझ तक लाने में सक्षम होंगी। तुम्हारी आराधना करने वाले प्राणी आजीवन सुखी रहेंगे। यही कन्या के नाम पर एकादषी का व्रत किया जाता है। सभी एकादषियों में उत्पन्ना एकादषी का महत्व अपूर्व है क्योंकि विष्णुजी के शरीर से उत्पन्न यही एकादषी मानी जाती है। इसलिए इसका नाम भी उत्पन्ना एकादषी कहा जाता है।






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ग्रहों की चाल और व्यवसायिक सफलता



ग्रहों की कृपा और व्यवसायिक सफलता -

कार्यक्षेत्र में सफलता एवं उन्नति हेतु व्यक्ति में अनेक गुण होने चाहिए, जोकि एक ही व्यक्ति में संभव नहीं है। किसी व्यक्ति के पास वाकशक्ति होती है तो किसी के पास कार्यनिष्ठा तो कोई कार्य में दक्ष होने से सफल होता है।
किसी व्यक्ति में कार्यक्षमता का स्तर कितना है यह शनि की स्थिति से देखना चाहिए। यदि शनि उत्तम या अनुकूल है तो व्यक्ति में कार्यक्षमता अच्छी होगी, जिससे उसके सफलता प्राप्ति के अवसर ज्यादा होंगे साथ ही क्रूर ग्रहों से प्रभावित हो तो कार्यभार अधिक होने के साथ समय समय पर प्रतिकूल असर भी दे सकता है।
किसी व्यक्ति में यदि कार्य की अच्छी समझ होगी तो उसे कार्य में दिक्कतों का सामना कम करना पड़ेगा। किसी व्यक्ति की कुंडली में यदि गुरू उत्तम स्थिति या अनुकूल हो तो उसकी कार्य के प्रति समझ या ज्ञान अच्छी होगी। साथ ही स्मरणशक्ति प्रबल बनाने में भी गुरू का प्रभाव होता है, जिससे सही समय तथा सही जगह पर उसे प्रयोग करने से अच्छी सफलता की प्राप्ति हो सकती है।
किसी व्यक्ति की कुंडली में सूर्य अनुकूल हो तो अनुशासन तथा जिम्मेदार होेने से भी उन्नति में सहायक होता है। यांत्रिक ज्ञान तथा वाकशक्ति उत्तम होना भी सफलता में सहयोगी हो सकता है, इसके लिए जन्म कुंडली का तीसरा भाव तथा बुध एवं मंगल की स्थिति उत्तम होनी चाहिए।



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न्यायालयीन प्रकरण में जय-पराजय के ज्योतिष योग



न्यायालयीन प्रकरण में जय-पराजय के ज्योतिष योग -
महत्वाकांक्षा ही व्यक्ति से नैतिक-अनैतिक, वैधानिक-अवैधानिक, सामाजिक-असाजिक कार्य कराती है साथ ही किसी विषय पर विवाद, कोई गुनाह, संपत्ति से संबंधित झगड़े इत्यादि का होना आपकी कुंडली में स्पष्ट परिलक्षित होता है। अगर इस प्रकार के कोई प्रकरण न्यायालय तक पहुॅच जाए तो उसमें जय प्राप्त होगी या पराजय का मुॅह देखना पड़ सकता है इसका पूर्ण आकलन ज्योतिष द्वारा किया जाना संभव है। सामान्यतः कोर्ट-कचहरी, शत्रु प्रतिद्वंदी आदि का विचार छठे भाव से किया जाता है। सजा का विचार अष्टम व द्वादष स्थान से इसके अतिरिक्त दषम स्थान से यष, पद, प्रतिष्ठा, कीर्ति आदि का विचार किया जाता है। साथ ही सप्तम स्थान में साझेदारी तथा विरोधियों का प्रभाव भी देखा जाता है। इन सभी स्थान पर यदि कू्रर, प्रतिकूल ग्रह बैठे हों तो प्रथमतया न्यायालयीन प्रकरण बनती है। इनकी दषाओं एवं अंतदषाओं में निर्णय की स्थिति में जय-पराजय का निर्धारण किया जा सकता है। इसके साथ ही षष्ठेष किस स्थिति में है उससे किस प्रकार का प्रकरण होगा तथा क्या फल मिलेगा इसका निर्धारण किया जा सकता है। कुछ महत्वपूर्ण स्थिति जिसके द्वारा न्यायालयीन प्रकरण, विवाद, पुलिस से संबंधित घटना हो सकती है निम्न है: सूर्य- छठे स्थान में सूर्य होने से शासकीय/ राजकीय प्रकरण से संबंधित विवाद हो सकता है। चंद्रमा- छठे स्थान पर चंद्र होने से मामा/ माता पक्ष से संपत्ति संबंधी विवाद संभव है। मंगल- मंगल के विपरीत होने पर पुलिस या सैन्य से संबंधित प्रकरण हो सकते हैं। बुध- बुध के विपरीत होने से व्यापार या लेनदेन से संबंधित विवाद या प्रकरण संभावित है। गुरू-गुरू के विपरीत होने पर धार्मिक, ब्राम्हण, षिक्षक, न्यायिक संस्था से संबंधित विवाद हो सकता है। शुक्र के विपरीत होने पर होटल, स्त्री, कलाकार या भोग से संबंधित स्थानों पर विवाद हो सकता है। शनि के नीच या विपरीत होने पर कुटिलता, शासन से विपरीत स्वभाव या अन्याय से संबंधित केस संभावित है। राहु या केतु होने पर अनैतिक आचरण या सामाजिक प्रकरण पर विवाद हो सकता है। जिन ग्रहों की विपरीत स्थिति या परिस्थितियों में कष्ट उत्पन्न हों, उसके ग्रहों की स्थिति, दषाओं का ज्ञान कर उसके अनुरूप आवष्यक उपाय जीवन में कष्टों की समाप्ति कर जीवन सुखमय बनाता हैं। इस सभी परिस्थितियों में जातक को दुर्गा सप्तषती का सकाम अनुष्ठान शुक्लपक्ष की पंचमी से कलष स्थापन कर अष्टमी तक विद्धान आचार्य के निर्देष में निष्पादित करना चाहिए। इस समय आहार, व्यवहार का संयम रखना चाहिए। निष्चित ही सभी परेषानियाॅ दूर होती हैं तथा विजयश्री प्राप्त होती है। इसके अलावा जब समय अभाव हों तो बंगलामुखी का अनुष्ठाान करना भी श्रेयस्कर होता है। परंतु इस ब्रम्हविद्या का इस्तेमाल करने से पहले साधक का सामथ्र्य तथा तपोबल के बारे में अच्छी तरह से निष्चय कर लेना चाहिए।





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