Sunday 27 March 2016

पद्मावती यन्त्र क्या है ?...

प्रत्येक मनुष्य सुख-दुख के चक्र से दो-चार होता है, यह सबों की नियति है। किंतु सुख के दौर हमें क्षणिक प्रतीत होते हैं तथा ये कब आते तथा कब जाते हैं, पता ही नहीं चलता। इसके उलट दुःख के दौर काफी कष्टकारक प्रतीत होते हैं तथा इसका अहसास काफी देर तक महसूस होता है। विधाता ने विभिन्न प्रकार की पीड़ा से निजात के लिए विविध उपाय करने के भी संकेत दिए जिससे कि पीडा़ को कमतर किया जा सके। साधकों ने इन विविध उपायों को परिष्कृत तथा सरलीकृत कर उसे आम जनों के सम्मुख प्रस्तुत किया जिससे कि इनका प्रयोग सहजता से करके लाभ प्राप्त किया जा सके तथा वर्तमान कष्ट एवं आसन्न संकटों से अपनी तथा अपने प्रियजनों की रक्षा की जा सके। कष्ट के भी विविध रूप एवं आयाम हैं। कोई संतान न होने के कारण दुःखी है तो कोई रोगग्रस्त होने के कारण तो कोई निर्धनता के कारण। वर्तमान आधुनिक भौतिकवादी परिवेश में हर व्यक्ति को सुख का उपभोग करने की लालसा एवं उत्कंठा होती है। हर प्रकार के सुख के उपभोग के लिए यह आवश्यक है कि पर्याप्त मात्रा में धनागमन हो किंतु सब ऐसे भाग्यशाली नहीं होते। लोगों की इन्हीं सब मनोवांछित ईच्छाओं एवं लिप्साओं की पूर्ति के लिए पद्मावती यंत्र की साधना वरदान साबित होती है, ऐसा हमारे मनीषियों से साबित कर दिखाया है। श्रद्धापूर्वक इस यंत्र की साधना एवं पूजा करने से लोगों को धन-धान्य एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है। इस यंत्र की स्थापना अपने पूजा स्थल में करके इसकी नियमित पूजा करने से मां लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं तथा हर तरह की बाधाओं, संकटों एवं व्यापार में आये प्रतिरोधों का हरण करती हैं तथा हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण करती हैं। पद्मावती यंत्र एक अंक यंत्र है तथा इसके माहात्म्य की व्याख्या तथा इसका विश्लेषण एवं चित्रण हमारे धर्मशास्त्रों में प्रमुखता के साथ किया गया है। इस यंत्र का निर्माण नौ कोष्ठकों में 1 से 9 तक के अंकों का प्रयोग करके किया जाता है। यह यंत्र देवी पद्मावती को समर्पित है। देवी पद्मावती की साधना मुख्य रूप से धन-संपत्ति की प्राप्ति करने तथा धन की देवी लक्ष्मी को आकृष्ट करने के उद्देश्य से किया जाता है। किंतु ऐसा प्रमाणित हो चुका है कि यदि किसी की नौकरी नहीं लग रही है अथवा किसी के विवाह में बाधाएं एवं अड़चन उपस्थित हो रहे हैं अथवा कोई ऋणग्रस्त अथवा रोगग्रस्त है तो उसे भी इस यंत्र की विधिवत साधना अथवा नियमित पूजा से तथा पद्मावती मंत्र के उच्चारण से अभीष्ट लाभ प्राप्त हुआ है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि एक बार पार्वती जी ने कैलाश पर्वत पर विराजमान शिवजी से पद्मावती यंत्र का विधान लोकहित की दृष्टि से पूछा तो भगवान शिव ने उन्हें विस्तार से बताया कि हे देवी ! जो कोई भी इस यंत्र की विधिवत साधना एवं पूजा करता है उसकी हर प्रकार की अभिलाषा पूर्ण होती है तथा वह इस नश्वर संसार से अपनी आयु पूर्ण करने के पश्चात पूर्ण तृप्त होकर स्वर्गलोक को जाता है। यह यंत्र हर प्रकार की ईच्छा पूर्ण करता है तथा संकटों से मुक्ति प्रदान करता है। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं: 1. इसकी साधना एवं पूजा से चतुर्वर्ग फल यानि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। 2. बंधन से मुक्ति एवं स्वामी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। 3. दरिद्रता का नाश होता है। 4. इसकी साधना एवं पूजा से साधक की हर प्रकार की कामनाएं, ईच्छाएं पूर्ण होती हैं तथा वह हर प्रकार के सुख का उपभोग कर इंद्र के समान यशस्वी होता है। 5. इस यंत्र की साधना एवं पूजा से वाणी सिद्ध हो जाती है। 6. इस यंत्र की साधना एवं पूजा से शत्रुओं का नाश होता है, चाहे शत्रु कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों। 7. इस यंत्र की साधना एवं पूजा से कोर्ट, कचहरी तथा अन्य केस एवं विवाद में विजय प्राप्त होती है। शिवजी ने आगे पार्वती जी से कहा - हे देवी ! इतना ही नहीं इसकी विधिवत एवं नियमित साधना से खोया हुआ राज्य भी वापस मिल जाता है। साधना विधि: शुभ मुहूर्त का चयन करके साधना प्रारंभ करें। स्वच्छ स्थान में, स्नानादि से निवृत्त होकर आसनादि तथा आचमन विधि संपन्न करें। लाल आसन पर लाल वस्त्र पहनकर लाल रंग की माला से जप करें। हाथ में जल लेकर संकल्प लें तथा उसमें अपने अभीष्ट कार्य का भी उल्लेख करें। इसके उपरांत निम्नलिखित मंत्र का जाप यथा संभव करें। ऊँ पद्मावती पद्मानेत्रो पद्मासने लक्ष्मीदायिनी वाछापूर्णि )(सिजय जय जय कुरू कुरू स्वाहा।।

दक्षिणामूर्ति की आराधना

गुरुओं के गुरु भगवान दक्षिणामूर्ति की आराधना में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा विरचित दक्षिणामूर्ति स्तोत्र को गुरु भक्ति के स्तोत्र साहित्य में अद्वितीय स्थान प्राप्त है। गुरु कृपा की प्राप्ति हेतु इसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यह स्तोत्र ब्रह्मांड के तत्व विज्ञान ‘‘अद्वैत दर्शन’’ की व्याख्या करता है और ब्रह्मांड, आत्मा व इनके संबंधों के गुप्त रहस्यों को उजागर करता है। यदि इसे सूक्ष्मता से समझ लें और इसके अर्थ का मनन करते हुए आत्म मंथन करें तो यह सत्य को समझने व मोक्ष प्राप्ति कराने में सक्षम है। इसलिए इसे मोक्ष शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। दक्षिणामूर्ति भगवान शिव का वह रूप् हैं जिन्हें संसार के युवा गुरु के रूप् में जाना जाता है। उन्हें दक्षिणामूर्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनका मुंह दक्षिण की ओर है। दक्षिणामूर्ति शब्द का अर्थ कुशल भी होता है। इसलिए दक्षिणामूर्ति वो हैं जो कठिनतम विचारों को कुशलतम तरीके से पढ़ा सकते हैं। भगवान शिव का यह रूप सर्वश्रेष्ठ का जिक्र किया गया है उसी ज्ञान त्रको यह स्तोत्र प्रकटित करता है। इस स्तोत्र को काव्य का सर्वोत्कृष्टतम रूप भी माना गया है। श्री शंकराचार्य की समस्त कृतियों में यह कृति वास्तव में ही एक चैंधियाने वाला रंगीन रत्न है। श्री शंकराचार्य ने न केवल अपने शिष्यों को उपदेश दिए बल्कि इस बात का भी समुचित ध्यान रखा कि उनका ज्ञान उनकी कृतियों के माध्यम से भावी पीढ़ियों तक पहुंच सके। जो विद्वान साधक श्रीमदभगवद्गीता, उपनिषद, नारद भक्ति सूत्र, योग सूत्र व ध्यान की बारीकियों की जानकारी प्राप्त करके आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं वे श्रेष्ठ साधक बनकर इस स्तोत्र में उजागर किए गए गुप्त ज्ञान को समझने के लिए सुपात्र हैं क्योंकि साधना साधक को इन गुप्त रहस्यों को समझने के योग्य बनाती है। इस स्तोत्र में गहन व जटिल दर्शन का वर्णन है इसलिए इस स्तोत्र को समझने हेतु वेदांत की अच्छी समझ व आध्यात्मिक परिपक्वता परमावश्यक है। जानकारी, समझ और ज्ञान का साकार रूप है। ये योग, संगीत, बुद्धिमत्ता व शीघ्रफलदायी ध्यान के ईश्वर, ज्ञानमुद्रा को धारण करने वाले, अज्ञानता के नाशक व ज्ञानदाता हैं। हिंदु परंपरा गुरु को विशेष सम्मान देती है और इसमें दक्षिणामूर्ति को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना जाता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए अहंकार व भ्रम से निर्लिप्त होना परमावश्यक है। जब मनुष्य गुरु कृपा से अहंकार भ्रम व पूर्वजन्म संचित पापकर्मों के फल से मुक्त होता है तो उसे ज्ञान की प्राप्ति होने लगती है इसलिए ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में अहंकार व भ्रम को सबसे बड़ा अवरोध माना गया। दक्षिणामूर्ति स्तोत्र का प्रकट रूप् से उद्देश्य है श्री दक्षिणामूर्ति की उपासना और गौण उद्देश्य है किसी भी गुरु की ईश्वर के रूप में आराधना। गुरु भक्ति का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि ईश्वर की गुरु के रूप में आराधना है। शंकराचार्य के समय में भी इस स्तोत्र के गूढ़ अर्थ व रहस्य को समझना कठिन माना जाता था इसलिए इनके सर्वप्रमुख शिष्य सुरेश्वराचार्य ने इसके ऊपर मानसोल्लास नामक भाष्य लिखा। बाद में इस भाष्य के ऊपर बहुत सी भाष्य व टीकाएं लिखी गईं। कहते हैं कि गुरु बिना ज्ञान नहीं होता। इस लोकोक्ति में जिस ज्ञान का जिक्र किया गया है उसी ज्ञान को यह स्तोत्र प्रकटित करता है।इस स्तोत्र को काव्य का सर्वोत्कृष्टतम रूप भी माना गया है। श्री शंकराचार्य की समस्त कृतियों में यह कृति वास्तव में ही एक चैंधियाने वाला रंगीन रत्न है। श्री शंकराचार्य ने न केवल अपने शिष्यों को उपदेश दिए बल्कि इस बात का भी समुचित ध्यान रखा कि उनका ज्ञान उनकी कृतियों के माध्यम से भावी पीढ़ियों तक पहुंच सके। जो विद्वान साधक श्रीमदभगवद्गीता, उपनिषद, नारद भक्ति सूत्र, योग सूत्र व ध्यान की बारीकियों की जानकारी प्राप्त करके आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं वे श्रेष्ठ साधक बनकर इस स्तोत्र में उजागर किए गए गुप्त ज्ञान को समझने के लिए सुपात्र हैं क्योंकि साधना साधक को इन गुप्त रहस्यों को समझने के योग्य बनाती है। इस स्तोत्र में गहन व जटिल दर्शन का वर्णन है इसलिए इस स्तोत्र को समझने हेतु वेदांत की अच्छी समझ व आध्यात्मिक परिपक्वता परमावश्यक है।

पूजा पाठ में आरती का महत्व

पूजा-पाठ का एक महत्वपूर्ण अंग है, ‘आरतीं शास्त्रों में आरती को ‘आरक्तिका’ ‘आरर्तिका’ और ‘नीराजन’ भी कहते हैं। किसी भी प्रकार की पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, पंचोपचार-षोडशोपचार पूजा आदि के बाद आरती अंत में की जाती है। पूजा-पाठ में जो त्रुटि रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति होती है। आरती को लेकर हमारे ‘स्कंदपुराण’ में भी कहा गया है- मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् पूजनं हरेः । सर्वे संपूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे।। अर्थात् - पूजन मंत्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन आरती कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है। आरती में पहले मूलमंत्र (भगवान् या जिस देवता का जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों की ध्वनि तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुद्ध पात्र में घृत से या कपूर से विषम संख्या की अनेक बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए। ततश्च मूलमंत्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्। महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।। प्रज्वलयेत् तदर्थ च कर्पूरेण घृतेन वा। आरार्तिक शुभे पात्र विषमानेकवर्तिकम।। साधारणतः पांच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक (विषम संख्या में) बत्तियों से आरती की जाती है। कुंकुम, अगर, कपूर, चंदन, रूई और घी, धूप की एक पांच या सात बत्तियां बनाकर शंख, घंटा आदि बाजे बजाते हुए भगवान की आरती करनी चाहिए। आरती के पांच अंग होते हैं। प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चैथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करें। आरती उतारते समय सर्व-प्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमायें, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमंडल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमायें। मंदिरों में अनेकों भगवानों की आरती की जाती है, उसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने घर में भी आरती करता है, तो वह एक से अधिक भगवानों व देवी-देवता की आरती कर सकता है, परंतु सर्वप्रथम भगवान् श्री गणेश जी की आरती करें तथा अंत में भगवान श्री हरी विष्णु जी की आरती करें (अर्थात् - ओम जय जगदीश हरे) आरती रोजाना प्रातः काल तथा सायंकाल संपूर्ण परिवार के साथ करनी चाहिए। आरती से घर व आस-पास का वातावरण भी शुद्ध होता है तथा नकारात्मक ऊर्जा भी समाप्त होती है। यथार्थ में आरती पूजन के अंत में ईष्टदेवता की प्रसन्नता हेतु की जाती है। इसमें ईष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूर च प्रदीपितम्। आरार्तिक्यमहं कुर्वे पश्य मे वरदो भव।।

बारहवें भाव में शनि,राहु एवं केतु के फल

बारहवां घर खुले आकाश का, व्यय का तथा मोक्ष का भाव है। शनि बारहवें घर का शनि व्यक्ति को असाधारण बनाता है, वह नेक भी हो सकता है बद भी। इस घर के शनि वाला व्यक्ति बिना किसी खास कारण के अपने को संतुष्ट महसूस नहीं करता। शनि व्यक्तिगत विकास का सूचक है। बारहवें घर में बैठा शनि इस बात की ओर संकेत करता है कि अभी बीते पिछले जन्म में व्यक्ति अपनी जिंदगी का उद्देश्य अधूरा छोड़कर मरा है। महारानी झांसी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बारहवें घर में शनि था। दोनों उच्च मकसद के लिए लड़े। उनकी महानता इस बात में है कि उन्होंने अपनी ताकत से बड़ा मकसद चुना। वह चेलों को मठ स्थापित करके नहीं पालता, बल्कि चेले अपना खाना पीना साथ लेकर चलते हैं। उपाय शराब, गोश्त और झूठ से परहेज करें। किसी का जूठा न खाएं। अगर शनि नीच होकर अशुभ फल दे तो अपने घर के पूरब दक्षिण कोने में 12 साबुत बादाम जमीन में दबा दें। राहु काल पुरूष की कुण्डली में बारहवां घर मीन राशि का है और यह घर खुला आकाश होता है। यहां राहु केवल धुआं बन जाता है। बारहवें घर के राहु होने पर व्यक्ति कोई भ्रम पाल लेता है, ऐसे व्यक्ति को सुख चैन नहीं मिलता। लाल किताब में इस राहु को शेख चिल्ली कहा गया है। गोचर के समय ऐसा राहु दिमाग में अनेक योजनाएं बनाता है परन्तु वे सब बेकार जाती हैं। ऐसा राहु बेकार खर्च करवाता है। मंगल का होना शुभ फल देता है। बारहवें घर में राहु मंगल योग को हाथी अंकुश योग कहा जा सकता है। मंगल बृहस्पति का सहारा लेकर राहु पर नियन्त्रण कर सकता है। उपाय -अपनी आय का कुछ भाग बहन बेटी के लिए खर्च करना दौलत में बरकत लाएगा। -छोटी सी बोरी में मंगल की कारक वस्तु चीनी या सौंफ भरकर सोने वाले कमरे में रखना। -अपने घर में रसोई में बैठकर भोजन करने से मंगल प्रसन्न होता है और राहु को कोई शरारत नहीं करने देता। केतु काल पुरूष की कुंडली में बारहवें घर में बृहस्पति का चेला केतु अपने गुरू की मीन राशि में बैठा अलौकिक समाधि में लीन होता है। उसके विचार आध्यात्मिक होते हैं। वह ऐसा दरवेश हो जाता है जो अपनी नजर से नर औलाद भी देता है और धन की बरकत भी। यहां केतु के साथ गुरू होना योग और रूहानी रूचि को दिखाता है। केतु को मोक्ष का कारक माना गया है। बारहवें घर में केतु होने से विदेशों में किस्मत जागने की पूरी संभावना होती है। केतु के साथ सूर्य चंद्र मंगल न होना शुभ है। पुत्र जन्म के छठे या बारहवें साल में किस्मत जाग उठती है। पुत्रों के साथ मिलकर काम करना शुभ फल देता है। छठे घर में मंगल बैठा हो तो कुछ रुकावटें आती हैं। उपाय -किसी निःसंतान व्यक्ति की जमीन या मकान न खरीदें। -काले रंग का कुत्ता पालें। कुत्ता मर जाने पर 43 दिन के अंदर नया कुत्ता ले आएं। कुत्तों की सेवा करें। -पुत्रों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखें।

भगवत प्राप्ति का सहज साधन

भगवत प्राप्ति के लिए चाहिए भगवान से मिलने की ललक और उसे पाने की रीति है- भक्ति जिसका अर्थ है भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। भगवत प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़िए। भगवान से मिलने की ललक भगवद् प्राप्ति का एक अंग होती है। भगवत प्राप्ति अर्थात् भगवान या ईश्वर को पाने की रीति, भक्ति मानी गई है। भक्ति का अर्थ है भगवदोपासना अर्थात् भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। इस असत संसार में लोगों के लिये सुख-शांति प्राप्ति का सरल सुगम पथ केवल ईश्वरोपासना ही है। अपने इष्ट देवता का सुमिरन, चिंतन, पूजन, भजन, कीर्त्तन, ध्यान, आराधना को उपासना कहा जाता है। अधिकांश रूप में देखा सुना गया है कि संसार में जितने भी महान पुरुष हुये हैं, वे सभी भगवद् भक्त हुये हैं यानी वे सभी ईश्वरोपासक थे। परमहंस श्रीरामकृष्ण जी का कहना है कि ''ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।'' महामना मदनमोहन जी मालवीय ने लिखा है कि ''धट-घट व्यापक उस परमात्मा की विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिये।'' स्वामी विवेकानंद ने इस बात का प्रचार किया ''नाना रूपों में जो तुम्हारे सामने है, उसको छोड़कर अन्यत्र कहां ईश्वर को खोज रहे हो। जो जीवन से प्रेम करता है वही मनुष्य 'मनुष्य' है और वही मनुष्य ईश्वर की सेवा करता है।'' बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खूंजिछ ईश्वर। जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविदे ईश्वर॥ उपासना शब्द के स्मृति, पुराणादि में तथा महापुरुषों की वाणी में अनेक अर्थ पाये जाते हैं। सार रूप में भगवत-प्राप्ति के निमित्त उपासना का अर्थ पूजा भक्ति है। श्री मद्भागवत के अनुसार भगवद्-प्राप्ति के लिये ईश्वर को पूर्ण भक्ति से प्रसन्न कर लेना' उपासना कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के या यूं कहें कि स्मृतियों व पुराणों के प्रमाण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उपासना काल में भगवान उपासकों को दर्शन अवश्य देते हैं। मक्का, मदीना, द्वारका, बद्री और केदार। प्रेम बिना सब झूठ हैं, कहें ''मलूक'' विचार॥ उपासना की सिद्धि के लिये भगवान के प्रति भक्ति अत्यधिक प्रेम के साथ होनी आवश्यक है। ऐसी ममता, ऐसा अनुराग या प्रेम भगवान के प्रति हो कि अपनी सब ममता हर जगह से निकालकर परम पिता परमात्मा प्रभु के पादारविंदो में ही केंद्रित हो जाये, अनुरक्त हो जाये। रामचरित मानस में भी यही बात कही गई है। जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥ सबकै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहिं बांध बरि डोरी। समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं। अस सज्जन मम उर बस कैसे। लोभी हृदय बसइ धनु जैसे॥ उपर्युक्त चौपाईयां विभीषण शरणागति के प्रसंग में सुंदर कांड के दोहे क्रमांक 47 से 48 के मध्यसे अवतरित हैं। भगवान राम और विभीषण के मध्य बातचीत का अंश हैं ये चौपाईयां। और भी कहा गया है- तुलसी दास की रामायण में- मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ भक्त शिरोमणि संत मीराबाई के शब्दों में भी इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान प्रेम के द्वारा प्राप्त होते हैं (पद है - माई री मैं तो लियो गोविन्द मोल. ....) ''कोई कहै घर में, कोई कहै बन में, राधा के संग किलोल। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आवत प्रेम के मोल॥'' भगवद् प्राप्ति के निमित्त बिना प्रेम के यदि चंचल मन को जबरन ईश्वर में लगाया जायेगा तो मन वहां अधिक देर टिक नहीं पायेगा। चंचल मन को प्रभु के चरणों में लगाने के लिये दो प्रमुख उपाय हैं : (1) अभ्यास व (2) वैराग्य। अभ्यास के द्वारा मन को भगवान से प्रेम करने की आदत पड़ जाती है और भगवान में मन टिकने लगता है। वैराग्य से चित्त-विभ्रम की निवृत्ति होने लगती है। संसार से विरक्ति और भगवान से अनुरक्ति उत्पन्न होती है। होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ-चरण अनुरागा॥ सदैव, सर्वत्र यानि सब जगह भगवद्दर्शन करने की ललक अपने को परम दैन्य, अयोग्य एवं सबका सेवक समझना यह परमोच्च कोटि की उपासना है। ऐसा करने से भगवान प्रसन्न होकर भक्त आराधक, उपासक या जातक को सदा सर्वत्र सभी सुख-दुखादि परिस्थितियों में अपना दर्शन कराने लगते हैं। ईश्वर और प्रेम को ''रसखान'' कवि ने एक वस्तु के दो रूप माना है- प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप। एक होय द्वै यों लसैं, ज्यों सूरज अरू धूप॥ विभिन्न उपासकों, भगवत प्रेमियों और भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथायें धर्म-साहित्य में पढ़नें को हमें प्राप्त होती हैं और तत्संबंधी कथा वार्ताओं को लोग जानते भी हैं। उनमें से एक मुस्लिम महिला ताज का नाम भी आता है जिसे भगवद् प्रेम ने इस्लाम की राह से मोड़कर नंदनंदन की दीवानी, कृष्ण पंथ की फकीरनी बना दिया। मुगलानी ताज के हृदय के भक्ति भाव, कृष्ण प्राप्ति की झलक उसके इस कवित्त से स्वतः स्पष्ट हो जाती है। सूनाक दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं। देव पूजा ठानी और नमाज भी भुलानी तजे कमला कुरान, सारे गुननि गहूंगी मैं। सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार तेरे नेह दाध में निदाघ ज्यों दहूंगी मैं॥ नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै। हौं तों मुगलानी हिंदुवानी है रहूंगी मैं॥ इस कवित्त रूपी प्याले में भगवत प्राप्ति विषयक मुगलानी ताज की प्रेम भक्ति की ही मदिरा लबालब भरी हुई है। सार यह है कि श्रद्धा भक्ति और प्रेम के द्वारा भगवत प्राप्ति हो सकती है। किसी भगवत रसिक भक्त की हृदय की धारणा इस तरह से है- नहिं हिंदु, नहिं तुरक हम, नहीं जैनी, अंगरेज। सुमन संवारत रहत नित, कुंज बिहारी सेज॥ ''ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।'' मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ तुलसी दास जी की इन अनुभूति की पुष्टि मीराबाई ने भी की यह कहकर कि भगवान प्रेम से प्राप्त होते हैं।

देव प्रतिमा निर्माण में ग्राह शिला

देवमूर्तियों का निर्माण करते समय यह ज्ञान होना अति आवश्यक है कि जिस शिला से हम देवमूर्ति का निर्माण करने जा रहे हैं वह शुभ है अथवा अशुभ तथा देवता अथवा देवी के निर्माण योग्य शिला का क्या लक्षण है? इस ज्ञान पिपासा की तृप्ति देवता मूर्ति प्रकरण का अध्ययन करने से होती है। सूत्रधार मंडन के अनुसार जाति भेद से तीन प्रकार की शिला होती हैं - 1. पुंशिला 2. स्त्रीशिला 3. नपुंसकशिला 1. पुंशिला: ‘एकवर्णा घना स्निग्धा मूलाग्रादार्जवान्विता। अजघंटारवाघोषा सा पुंशिला प्रकीर्तिता।।’ 2. स्त्रीशिला: ‘स्थूलमूला कृशाग्रा या कांस्यतालसमध्वनिः।’ 3. नपुंसकशिला: ‘कृशमूलाऽग्रस्थूला शिला षण्ढेति निःस्वना।’ सूत्रधार मंडन का यह विवेचन ‘मयमतम्’ से अत्यधिक प्रभावित है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि इस वर्णन का आधार मयमतम् ही है। मयमतम् में पुरुष जाति की शिला के लक्षण में ‘अजघण्टारव’ के स्थान पर ‘गजघण्टारव’ का प्रयोग किया गया है। घण्टारव अर्थात् हाथी की पीठ पर लटकते हुए घण्टे जैसी शब्द वाली। मयमतम् व देवतामूर्ति प्रकरण में कांसे के घण्टे जैसे आवाज वाली शिला को स्त्री जाति की शिला कहा गया है जबकि अग्निपुराण में उक्त ध्वनि वाली शिला पुरुषजाति की शिला कही गयी है। यथा - ‘कांस्यघण्टानिनादा स्यात्पुलिंगा विस्फुलिंगका’। मयमतम् में स्त्रीशिला का उल्लेख इस प्रकार है- ‘स्थूलमूला कृशाग्रा या कांस्यतालसमध्वनिः’ यहां भी स्पष्ट है कि मयमतम् और सूत्रधार मंडन के स्त्रीशिला लक्षण में आकृति एवं ध्वनि दोनों में ही समानता है। ‘मानसार अध्ययन’ में भी जाति भेद से तीनों ही प्रकार की शिलाओं का वर्णन मिलता है। आकृति भेद की दृष्टि से देखा जाये तो मानसार अध्ययन के मतानुसार भी समान आकार वाली पुंशिला तथा मूल में स्थूल तथा अग्रभाग में कृश स्त्रीशिला कहलाती है। किंतु नपुंसक शिला के विषय में कुछ मतभेद है। सूत्रधार मंडन के अनुसार तो मूल में कृश और अग्र में स्थूल शिला नपुंसक होती है जब कि मानसार अध्ययन के मत में मूल और मध्य में स्थूल तथा अग्र भाग में कृश नपुंसक शिला होती है - ‘स्थूलाग्रं च कृशं मध्यं स्थूलं नपुंसकं शिला।’ मानसार अध्ययन में समान्य लक्षण की दृष्टि से समचोरस-पुंशिला, गोल स्त्रीशिला तथा अत्यधिक गोल या बहुशाखा वाली नपुंसकशिला कही गयी है यथा - ‘चतुरस्रं पुंशिला प्रोक्तं वृत्तं स्याद् वनिताशिला। बहुधा चाग्रश्रृङ््रगं स्यान्नपुंसकं तमुदाहृतम्।। काश्यपशिल्प में भी प्रकारांतर से इसी मत की पुष्टि की गई है - चतुरस्रा च वस्वस्रा स्त्रीशिलेति प्रकीर्तिता। आयतास्रा च वृत्ता च दश- द्वादश कोणका।। पुंशिला सा शिला ख्याता सुवृत्ता सा नपुंसका। मानसार अध्ययन में रत्न के बरतन जैसी आवाज वाली पुरुषशिला कही गई है। जबकि सूत्रधारमंडन के अनुसार बकरी के गले में बंधी घंटी जैसी ध्वनि वाली पुंशिला होती है। स्त्रीशिला एवं नपुंसकशिला का ध्वनि लक्षण दोनों में समान है। मानसार अध्ययन में ध्वनि के आधार पर शिलाओं को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। ‘तालध्वनिनिनादं स्याच्छिला वल्ली प्रकीर्तिता। महिषध्वनिसंयुक्ता शिला वृक्षा प्रकीर्तिता।। पूर्वोक्तार्थ ध्वनिनादं बावना च शिला भवेद्।’ इसी प्रकार काश्यप शिल्प (अ. 49) मयमतम् (अ. 33) और अग्नि पुराण में शिला बाला, यौवना व वृद्धा के नाम से अभिहित है। जाति भेद के आधार पर ही सूत्रधार मण्डन ने शिलाओं का कार्यभेद भी किया है अर्थात् पुल्लिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग की शिला के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। सूत्रधार के अनुसार पुंशिला का कार्य इस प्रकार है: ‘लिंगानि प्रतिमामिश्रं कुर्यात् पुंशिलया बुधः।’ अर्थात् शिवलिंग एवं देवों की मूर्तियों का निर्माण पुरुष जाति की शिला से करना चाहिए। लिंग तीन प्रकार के होते हैं -निष्कल, सकल और मिश्र जैसा कि मयमतम् में कहा गया है- निष्कलं सकलं मिश्रं लिंगश्चेति त्रिधा मतम्। निष्कलं लिंगमित्युक्तं सकलं बेरमुच्यते।। मुखलिंगतया मिश्रं लिंगञ्चाकृतिसन्निभैः। बिम्बमूर्तिः शरीराभा विश्वमूर्तिस्वरूपकैः।। मयमतम् के मतानुसार त्रिविध लिंगों का निर्माण पुंशिला से करना उपयुक्त है। ‘सकलं निष्कलं मिश्रं कुर्याद् पुंशिलया सुधीः’ मंडन ने भी ‘लिंगानि’ से त्रिविध लिंड.ों की ओर ही संकेत किया है। जबकि काश्यपशिल्प में त्रिविध लिंगों का नामोल्लेख न करते हुए केवल ‘पुंशिलाभिः कृतं लिंगम्’ इतना ही कहा गया है। मंडन मतानुसार देवीमूर्ति के निर्माण में स्त्री जाति की शिला का प्रयोग किया जाना चाहिए। ‘युंजीयात् स्त्रीशिंला सम्यक् पीठिका-शक्तिमूत्र्तयः’ पीठिका का तात्पर्य गौरी पीठ से है काश्यपशिल्प में कहा गया है कि पीठार्थ स्त्रीशिला का ग्रहण श्रेष्ठ होता है। मयमतम् के अनुसार भी देवी की मूर्तियों के निर्माण हेतु स्त्री जाति की शिला ही उपयुक्त होती है। यथा- ‘युंजीयात् स्त्री शिला सम्यक् नारी बेरंच पिण्डिका।’ स्पष्टतः सूत्रधार ने भी प्रकारांत से इसी मत को पुष्ट किया है। सूत्रधार ने नपुंसक जाति की शिला की उपयोगिता का वर्णन इस प्रकार किया है- षण्ढोपलेन कत्र्तव्यं ब्रह्मकूर्मशिले तथा। प्रासादतलकुण्डादि कर्म कुर्याद् विचक्षणः।। प्रतिमा के नीचे स्थापनीय शिला पादशिला कहलाती है। इसके दो भेद है - ब्रह्मशिला और कूर्मशिला। मत्स्यपुराण में इसका विवेचन इस प्रकार है- अधः कूर्मशिला प्रोक्ता सदा ब्रह्मशिलाधिका। उपर्यवस्थिता तस्या ब्रह्मभागाधिका शिला।। अर्थात् मंदिर के गर्भगृह के खनन मुहूर्त के समय स्थापित की जाने वाली कूर्म चिन्ह युक्त शिला कूर्मशिला कहलाती है तथा इस शिला के ऊपर रखी जाने वाली शिला ब्रह्मशिला कहलाती है। अतः ब्रह्मकूर्मशिला तथा प्रसादतलकुण्डादि का निर्माण नपुंसकशिला से करना चाहिए। मयमतम् का भी यही मत है। यथा- ‘षण्ढोपलेन कत्र्तव्यं ब्रह्मकूर्मशिले तथा। नन्द्यावत्र्तशिले वापि कत्र्तव्या तेन चाऽऽत्मना।। प्रासादतलकुडयादि कर्म कुर्याद् विचक्षणः।’ यहां स्पष्ट है कि सूत्रधार मंडन और मयमतम् के मत में ही नहीं अपितु श्लोकों में भी अत्यधिक समानता है। सारांशतः पुरुष जाति की शिला से देव मूर्तियों का स्त्रीशिला से देवी की मूर्तियों का तथा नपुंसक जाति की शिला से प्रासादतलकुड्यादि का निर्माण करना चाहिए। देवमूर्तियों का निर्माण करते समय भूमि पर स्थित शिला की दिशा स्थिति पर ध्यान देना परमावश्यक होता है। अर्थात् निर्माणकाल के समय यह विचारणीय है कि शिला का अग्र भाग एवं मूल भाग किस दिशा में है। इसके आधार पर ही मूर्ति के मुख, पैर एवं अन्य अंगों का निर्माण किया जाता है। इस विषय में अधिकांश शिल्प शास्त्रकारों का मत है कि शिला का अग्र भाग पूर्व या उत्तर में तथा मूल भाग दक्षिण या पश्चिम में होता है तथा भूमि पर स्थित शिला नीचे मुख करके उल्टी सोती है। शिला के नीचे के भाग का मुख और ऊपर के भाग का शिर बनाना चाहिए। सूत्रधारमंडन के अनुसार शिला पूर्व और पश्चिम की ओर लंबी हो तो उसका पश्चिम की ओर अग्र भाग मानकर शिर बनाना चाहिए तथा यदि शिला उत्तर और दक्षिण की ओर लंबी हो तो दक्षिण की ओर शिर बनाना चाहिए। यथा- प्राक् पश्चाद्दक्षिणे सौम्ये स्थिता भूमौ तुया शिला। प्रतिमायाः शिरस्तस्याः कुर्यात् पश्चिमदक्षिणे।। मानसार अध्ययन में यह विषय विस्तृत एवं स्पष्ट रूप से उल्लिखित है यहां शिला का अग्रभाग पूर्व और उत्तर दिशा में स्वीकार किया गया है, तथा शिला की दिशा स्थिति के आधार पर अंग निर्माण का भी वर्णन है जिसके अनुसार यदि शिला का अग्र भाग पूर्व दिशा में हो तो उसका दाहिना अंग दक्षिण में तथा वामांग उत्तर दिशा की ओर बनाना चाहिए। उत्तर दिशा की ओर अग्र भाग वाली शिला का दाहिना अंग पूर्व दिशा में और बांयाँ अंग पश्चिम दिशा में होता है। शिला की कोण स्थिति के विषय में मानसार अध्ययन का मत है कि यदि शिला ईशान और नैर्ऋत्य कोण में हो तो उसका अग्र भाग ईशान कोण में एवं मूल भाग नैर्ऋत्य कोण में होता है। मानसार अध्ययन के अनुसार पुंलिंग शिला दिशा की ओर तथा नपुंसक जाति की शिला कोणे की ओर लंबी होती है। मयमतम् में भी पूर्व और उत्तर में शिला का अग्र भाग तथा दक्षिण व पश्चिम में मूल माना गया है यथा - ‘मुखमुद्धरणेऽधोंऽशमूध्र्वभागं शिरो विदुः।। शिलामूलवाक्प्रत्यगुदग्रं प्रागुदग्दिशि। अग्रमूध्र्वमधोमूलं पाषाणस्य स्थितस्य तु, नैऋत्येशानदेशाग्रा बह्व्यग्रा वह्रिवायुगा।।’ मयमतम् के अनुसार अग्र ऊध्र्वभाग और मूल अधोभाग कहलाता है। मानसार अध्ययन में अग्निकोण और वायुकोण में शिला का अग्र व मूल नहीं माना है जबकि मयमतम् में अग्निकोण में शिला का अग्रभाग और वायु कोण में मूल भाग माना गया है। काश्यपशिल्प तथा शिल्परत्न में भी पूर्व और उत्तर को शिला का अग्र भाग तथा दक्षिण व पश्चिम में मूल भाग माना है। यथा ‘प्रागग्रां चोदगग्रां वा शिला संग्राह्य देशिकः। प्रागग्रे पश्चिमं मूलमुदगग्रं तु दक्षिणे।। अधो भागं मुखं ख्यातं पृष्ठमूध्र्वगतं भवेत्।’ शिल्परत्न में उल्लखित ‘पूर्वोत्तरशिरोयुक्ता घण्टानादस्फुलिंगवत्’ इस श्लोकांश से विशेष रूप से यह विदित होता है कि शिला के अग्रभाग की ओर मूर्ति का शिर एवं मूल भाग की ओर पैर बनाने चाहिए। उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि प्रायः सभी शिल्पशास्त्रकारों ने पूर्व और उत्तर दिशा में शिला का अग्र भाग और पश्चिम व दक्षिण में मूल भाग स्वीकार किया है जब कि सूत्रधार मंडन ने पश्चिम और दक्षिण में अग्र भाग शिर बनाना उपयुक्त माना है तथा सूत्रधार ने शिला की कोण स्थिति के विषय में भी कोई मत प्रकट नहीं किया है। प्रतिमा निर्माण योग्य शुभाशुभ शिला के विषय में सूत्रधार मंडन का निम्न मत है- ‘निविडा निव्र्रणा मृद्वी सुगन्धा मधुरा शिला। सर्वार्चा लिंगपीठेषु श्रेष्ठा कान्तियुता च या।। अर्थात् दृढ़, छेद या बिंदु रहित, कोमल, सुगंध वाली मधुर तथा कांति युक्त शिला सभी जाति की प्रतिमा, शिवलिंग और पीठिका के लिए श्रेष्ठ या शुभ होती है। यहां निव्र्रणा का तात्पर्य ‘फोड़े के आकृति वाली बिंदु से रहित शिला से है’ काश्यपशिल्प में त्रिविध बिंदुओं का वर्णन है यथा- ‘कृष्णलोहनिभाकारा कृष्णभ्रमरसन्निभा। शिखिपिच्छसमाकारा त्रिविधा बिन्दुरेव हि।। अर्थात् काले लोहे के सदृश, काले भौंरे के समान और मोर के पंख तुल्य तीन प्रकार की बिंदु होती हैं। अतएव यह भी कहा जा सकता है कि लोहे, भौरे तथा मयूर पंख के समान स्वरूप वाली बिंदु से रहित शिला श्रेष्ठ होती है। सूत्रधार ने सुगंधा शिला को श्रेष्ठ बतलाया है सुगंधा अर्थात् स्वाभाविक सुगंध से युक्त न कि कृत्रिम सुगंध वाली काश्यपशिल्प में वर्णित निंदित या त्याज्य शिला का विशेष आशय स्पष्ट हुआ है। जिसके अनुसार वर्षा, धूप एवं अग्नि से उत्पन्न गंध दुर्गंध होती है न कि सुगंध अतः काश्यपशिल्प में वर्षा, धूप और अग्नि के गंध वाली तथा खारे जल से व्याप्त शिला को निंदित शिला कहा गया है। इस आधार पर वर्षा, धूप और अग्नि की गंध से रहित स्वाभाविक सुगंध वाली शिला ही श्रेष्ठ होगी। यथा - वर्षातपाग्निगंधां×च सुकीर्णा क्षारवारिणा’ मयमतम् में बाला यौवना एवं वृद्धा संज्ञक शिला के लक्षणों का विवेचन है इनमें से चिकनी, सुगंधवाली, शीतल, कोमल और तेजस्वी शिला यौवना नाम से अभिहित है तथा यही शिला सिद्धिदात्री एवं श्रेष्ठ कही गयी है। ध्यातव्य है कि देवतामूर्ति प्रकरण एवं मयमतम् दोनों में श्रेष्ठ शिला का लक्षण समान है। प्रतिष्ठासार के ‘कठिना शीतला स्निग्धा सुस्वादा दृढा तथा।’ सुगंधात्यन्ततेजस्का मनोज्ञा चोत्तमा शिला।।’ इस श्लोक से भी उक्त लक्षणों वालीशिला ही श्रेष्ठ सिद्ध होती है। वर्ण के आधार पर शुभ या ग्राह्य शिला के विषय में वास्तुविद मंडन का मत है कि कबूतर, कुमुदपुष्प, भ्रमर, उड़द, मूंग और कृष्णवर्ण वाली, पीत घी के वर्ण की तथा श्वेत कमल के समान वर्ण वाली शिला सभी देवताओं की प्रतिमा बनाने हेतु ग्राह्य होती है। वसुनंदीकृतप्रतिष्ठासार के अनुसार उपर्युक्त वर्णों के अतिरिक्त लाल, हरे, कमेड़ी तथा मंजीठ के वर्ण वाली शिला भी कल्याणकारी होती है। प्रतिष्ठासार में वर्णित है कि ब्राह्मण, क्षत्रियादि के वर्ण क्रमानुसार भिन्न-भिन्न वर्ण वाली शिला की प्रतिमा शुभ होती है यथा-‘श्वेता रक्ता पीता कृष्णा विप्रादीनां हिता सदा।’ अर्थात् ब्राह्मण वर्ण के लिए श्वेत, क्षत्रिय के लिए लाल, वैश्य के लिए पीत (पीली) और शूद्र के लिए कृष्ण वर्ण वाली प्रतिमा हितप्रद होती है। काश्यप शिल्प में भी प्रतिष्ठा सारोक्त रंगों वाली शिला ही ब्राह्मणादि के लिए उत्तम कही गयी है। यथा- ‘श्वेता रक्ता च पीता च कृष्णा चैव चतुर्विधा।’ तथा क्रमानुसार ब्राह्मणादि वर्ण की उपयोगिता के विषय में कहा गया है कि -‘श्वेता रक्ता च पीता च विप्रादीनां क्रमाद् भवेत्’ यही मत अग्निपुराण का भी है। जैसा कि कहा गया है -‘पाण्डरा ह्यरुणा पीता कृष्णा शस्ता तु वर्णिनाम्। अग्राह्यशिला के विषय में सूत्रधार ने लिखा है कि विशेष मलिन तथा सुवर्ण कांसा लोहादि धातु के समान वर्ण (रंग) के चिन्ह वाली और अन्य दूसरे प्रकार के चिन्ह वाली प्रतिमा त्याज्य है। मयमतम् के ‘रेखाबिन्दुकलंकाढ्या सा त्याज्या सर्वयत्नतः’ इस श्लोकांश से भी देवतामूर्तिप्रकरण का यह कथन पुष्ट होता है। प्रकारांतर से यही मत काश्यप शिल्प में भी उक्त है- ‘रेखाबिन्दुकलंकादिसंयुक्ता परिवर्जयेत्’ कुछ ग्रंथों में चिन्ह का परिहार भी वर्णित है इस संदर्भ में आचार्य दिनकर एवं प्रतिष्ठासार में लिखा है कि प्रतिमा के पाषाण में यदि अपने ही वर्ण के रंग की रेखा या दाग हो तो दोष नहीं होता है। अग्निपुराण के अनुसार शिला में यदि सफेद रेखा हो तो वह उत्तम होती है और अगर काली रेखा हो तो उसका नरसिंह मंत्र के हवन से परिहार हो जाता है। मानसार अध्ययन में सफेद रेखा के साथ ही सुवर्ण रंग की रेखा को भी शुभ बतलाया गया है किंतु यहां कृष्ण वर्ण युक्त रेखा या चिन्ह वाली शिला का त्याग वर्णित है। यथा - ‘सर्वेषां वर्णपाषाणे कृष्णरेखां विसर्जयेत्। श्वेतं च स्वर्णरेखां च सर्वसंपत्करं शुभम्।। यद्यपि पाषाण या काष्ठ में किसी प्रकार का चिन्ह या रेखा अशुभ होती है किंतु कुछ चिन्ह ऐसे भी हैं जो पाषाण या काष्ठ में शुभ होते हैं शिल्प रत्न में लिखा है कि नद्यावर्त, शेषनाग, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शंख, स्वस्तिक, हाथी, गौ, नंदी, इन्द्र, चंद्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिवलिंग, तोरण, हरिण, मंदिर, कमल, वज्र या शिवजटा के समान रेखा या चिन्ह शुभ होते हैं। प्रतिमा निर्माण हेतु उत्तम शिला को शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और अच्छे शकुन में प्रसन्नचित्त होकर ग्रहण करनी चाहिए।

चतुर्मास का महत्व



शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।। लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनयन, भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं। आषाढ़ माह में देवशयन एकादशी से कार्तिक माह में हरि प्रबोधिनी एकादशी अर्थात आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार माह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन व कार्तिक माह को चतुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में आधे से अधिक मुख्य त्यौहार पड़ते हैं। चतुर्मास में मुख्य पर्व हंै: गुरु पूर्णिमा, नाग पंचमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रक्षा बंधन, हरीतीज, गणेश चतुर्थी, श्राद्ध, नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवा चैथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन, भैयादूज व छठ पूजन। श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा श्रावण नक्षत्र में होता है, इसलिए इस माह का नाम श्रावण है। यह माह अति शुभ माह माना जाता है एवं इस माह में अनेक पर्व होते हैं। इस माह में प्रत्येक सोमवार को श्रावण सोमवार कहते हैं। इस दिन विशेष रूप से शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है। कहते हैं कि श्रावण मास में ही समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए थे जिसमें एक था हलाहल विष। इसको शिवजी ने अपने गले में स्थापित कर लिया था जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ा। विष के जलन को रोकने के लिए सभी देवताओं ने उनपर गंगा जल डाला। तभी से श्रावण मास में श्रद्धालु (कांवड़िए) तीर्थ स्थल से गंगाजल लाकर शिवजी पर चढ़ाते हैं। कहते हैं कि उत्तरायण के 6 माह देवताओं के लिए दिन होता है और दक्षिणायन के 6 माह की रात होती हैं। चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। अतः सभी संत एवं ऋषि-मुनि इस समय में व्रत का पालन करते हैं। इस समय ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है। चार माह जमीन पर सोते हैं और भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। विष्णु सहस्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फलदायक होता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते हैं। इसलिए इन चार माह में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते। चतुर्मास में द्विगर्त प्रदेश अर्थात गंगा व यमुना के बीच के स्थानों में विशेष तौर से विवाहादि नहीं किए जाते हैं। इन दिनों में तपस्वी एक ही स्थान पर रहकर तप करते हैं। धार्मिक कार्यों में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। यह मान्यता है कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर ब्रज भूमि में निवास करते हैं। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि चतुर्मास में वर्षा का मौसम होता है। पृथ्वी में सुषुप्त जीव जंतु बाहर निकल आते हैं। चलने से या कृषि कार्य करने से या जमीन खोदने से ये जंतु मारे जा सकते हैं। अतः इन चार माह में एक स्थान पर रहना पर्यावरण के लिए शुभ होता है। ऋषि-मुनियों को तो हत्या के पाप से बचने के लिए विशेष तौर पर एक ही स्थान पर रहने के शास्त्रों के आदेश हैं। दूसरे इस अवधि में व्रत का आचरण एवं जौ, मांस, गेहूं तथा मंग की दाल का सेवन निषिद्ध बताया है। नमक का प्रयोग भी नहीं या कम करना चाहिए। वर्षा ऋतु के कारण मनुष्य की पाचन शक्ति कम हो जाती है। इन दिनों व्रतादि से शरीर का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। साथ ही इन दिनों में सूर्य छुपने के पश्चात भोजन करना मना है। कारण लाखों करोड़ों कीट पतंगे रोशनी के सामने रात को आ जाते हैं और भोजन में गिरकर उसे अशुद्ध कर देते हैं। कहते हैं कि इन दिनों स्नान अगर किसी तीर्थ स्थल या पवित्र नदी में किया जाता है तो वह विशेष रूप से शुभ होता है। स्नान के लिए मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए। इसके लिए धान्य के ऊपर लाल रंग के वस्त्र में लिपटे कुंभ रखकर, उसपर भगवान की प्रतिमा रखकर पूजा करनी चाहिए। धूप दीप एवं पुष्प से पूजा कर ‘‘नमो-नारायण’’ या ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ का जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। चतुर्मास का प्रारंभ अर्थात देवशयन एकादशी व इसका अंतिम दिन अर्थात हरि प्रबोधिनी एकादशी, दोनों ही विशेष शुभ दिन माने जाते हैं और इन दोनों को अनबूझ मुहूर्त की संज्ञा उपलब्ध है अर्थात् इस दिन मुहूर्त शोधन के बिना कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि किए जा सकते हैं। देवशयन एकादशी के बाद चार माह कोई विवाहादि नहीं होते हैं और हरि प्रबोधिनी एकादशी से पहले चार माह कोई विवाह नहीं हुए होते हैं और ये दोनों दिन अतिशुभ श्रेणी में माने जाते हैं। अतः इन दोनों दिनों में अनेक शादियां होती हैं। अतः इन दोनों दिवसों की बड़े विवाह मुहूर्तों में गणना की जाती है। हो भी क्यों न आखिर भगवान श्री विष्णु के विशेष कार्य के दिन जो हैं। चतुर्मास के शुभाशुभ फल जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चतुर्मास व्यतीत करता है, वह धनी हो जाता है। जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है। जो चतुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है। जो मनुष्य चतुर्मास में तीन रात उपवास करके चैथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित (बिना मांगे) अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है। चैमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। चतुर्मास में प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरूषसूक्त का जप करने से बुद्धि कुशाग्र होती है। हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। चैमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बड़ा पुण्यफल मिलता है। श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होता है। चतुर्मास आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है जिसका सदुपयोग आत्मोन्नति हेतु करना चाहिए।

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Saturday 26 March 2016

पंचतत्वों में छिपी है ऐश्वर्य और समृद्धि

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान।। प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पùपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य नः।। ”तुभ पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।“ महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ”तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।“ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ”जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहीं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।“ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ”यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। ... वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्....।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहीं दी ? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश ळें। योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ”वैष्णव जन को“ तथा ”रघुपति राघव राजा राम“ गाते थे। चंबल े डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है? यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अतः वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।

महाकालेश्वर व्रत की विधि-विधान और महत्व

महाकालेश्वर व्रत का नियम किसी भी शिवरात्रि से लेने का विधान सर्वोत्तम है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों (विश्वनाथ, वैद्यनाथ, रामेश्वर, मल्लिकाजर्नु , घुष्मेश्वर, नागेश, भीमशंकर, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर, सोमनाथ, केदारनाथ, महाकाल) में से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर है, जो उज्जैन (अवन्तिका, विशाला, कनकश्रृंगा, कुमुद्वती, प्रतिकल्पा, कुशस्थली, अमरावती आदि नामों से भी शास्त्रों में वर्णित है) में स्थित है जहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। इस व्रत में शिव रात्रि से एक दिन पूर्व उज्जैन पधारकर नियमानुसार कामना सिद्धि या निष्काम भाव का संकल्प लेकर पूर्ण विधि-विधान के साथ त्रयोदशी/चतुर्दशी दोनों ही दिन उपवासादि नियमों का पालन करते हुए महाकालेश्वर की षोडशोपचार पूजा करें व शिवरात्रि को रुद्राभिषेक कराएं एवं ऊँ नमः शिवाय मंत्र का जप करते रहें। इसके द्वारा साधक अकाल मृत्यु पर विजय व जीवन में कालसर्प दोष को शांत कर विभिन्न सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। यह एक अद्वितीय व चमत्कारी व्रत है। इस व्रत के प्रभाव से संपूर्ण अमंगल नष्ट हो जाते हैं, विघ्न-बाधा व अड़चनें दूर हो जाती हैं, समृद्धि, ऐश्वर्य, आयुष्य, विद्या, ज्ञान सभी प्राप्त होते हैं। मृकण्ड पुत्र मारकण्डेय ने इन्हीं शिव की आराधना से चिरंजीवी होने वाला आशीर्वाद प्राप्त किया था। शिव सम्पूर्णता के द्योतक हैं। प्रत्येक भक्त को परिवर्तन करने की शक्ति महाकाल शिव में है। शिव सर्वेश्वर, पूर्णेश्वर, योगेश्वर हैं। इनके दर्शन व कृपाकटाक्ष से जीवात्मा के समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं, पाप-ताप भस्मीभूत हो जाते हैं। अतः प्रत्येक मानव-मात्र को प्रत्येक मास की चतुर्दशी को आने वाले शिवरात्रि व्रत में रात्रि के चार प्रह्र में तो अवश्य ही पूजन करना चाहिए, जो जीव के धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पुरुषार्थों को पूर्ण करने वाला व जन्म मरण से मुक्ति दिलाने वाला है। इस पावन महापर्व पर शिवपुराण, शिव कवच स्तोत्रम्, शिवाष्टकम् महामृत्युञ्जय स्तोत्रम् आदि का पाठ एवं ऊँ महाकालेश्वराय नमः या ऊँ नमः शिवाय मंत्र का जप करते रहना चाहिए। निंदा, चुगली, असत्य भाषण, अभक्ष्य भोजन आदि से दूर रहना चाहिए। महाकालेश्वर की अन्य दिनों में भी प्रतिदिन पूजा करना आरोग्य व संपन्नता प्रदान करता है। वर्ष के पूर्ण होने पर पुनः महाकाल की नगरी में शिवरात्रि को पधारकर व विधि-विधान से पूजन-उद्यापनादि कृत्यों को पूर्ण कर कम से कम ग्यारह ब्राह्मणों को सपत्नीक मधुर स्वादिष्ट पदार्थों से तृप्तकर वस्त्र व दक्षिणादि देकर प्रणाम कर विदा करने से घर-परिवार सुखी हो जाता है। इस महाकालेश्वर व्रत की कथाओं को अवश्य ही पढ़ना चाहिए जो भक्त के दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का शमन करने में सक्षम है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मालवा प्रदेश में क्षिप्रानदी के तटपर उज्जैन नगर में विराजमान है, जो अवन्तिका पुरी के नाम से विखयात है। यह राजाभोज, उदयन, विक्रमादित्य, भर्तृहरि एवं महाकवि कालिदास की साधना-स्थली रही है। महाकाल के महात्म्य के प्रसंग में शिव भक्त राज चंद्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकर की कथा- सूत जी कहते हैं- महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग की महात्म्यकथा भक्ति भाव व ध्यान पूर्वक सुनो। उज्जयिनी में चंद्रसेन नामक एक महान् शिव भक्त और जितेन्द्रिय राजा थे। शिव के पार्षदों में प्रधान तथा सर्वलोकवन्दित मणिभद्र जी उनके सखा हो गये थे। एक समय उन्होंने राजापर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभमणि तथा सूर्य के समान देदीप्यमान थी। भगवान् शिव के आश्रित रहने वाले राजा चंद्रसेन उस चिन्तामणि को कण्ठ में धारण करके जब सिंहासन पर बैठते, तब देवताओं में सूर्य नारायण की भांति उनकी शोभा होती थी। समस्त राजाओं के मन में भी उस मणि के प्रति लोभ की मात्रा बढ़ गयी वे सब चतुरंगिणी सेना लेकर युद्ध में चंद्रसेन को जीतने के लिए निकल पड़े, सबने मिलकर उज्जयिनी को चारों ओर से घेर लिया। अपनी पुरी को संपूर्ण राजाओं द्वारा घिरी हुई देख राजा चंदसेन उन्हीं भगवान महाकालेश्वर की शरण में गये और दिन रात अनन्य भाव से महाकाल की आराधना करने लगे। उन्हीं दिनों उस श्रेष्ठ नगर में कोई विधवा ग्वालिन रहती थी, जिसके एकमात्र एक पांच वर्ष का बालक था। उसे लेकर वह महाकाल के मंदिर में गयी। वहां उसने राजा चंद्रसेन द्वारा की हुई पूजा का आदर पूर्वक दर्शन किया। वह आश्चर्य उत्सव देखकर उसने भगवान को प्रणाम किया और अपने निवास- स्थान पर लौट आयी। ग्वालिन के उस बालक ने भी वह सारी पूजा देखी थी। अतः घर आने पर उसने भी कौतूहलवश शिव जी की पूजा करने का विचार किया। एक सुंदर पत्थर लाकर उसे अपने शिविर से थोड़ी ही दूर पर दूसरे शिविर के एकांत स्थान में रख दिया और उसी को शिवलिंग माना। फिर उसने भक्ति पूर्वक बारंबार पूजन करके भांति-भांति से नृत्य किया और बारंबार भगवान के चरणों में मस्तक झुकाया। इसी समय ग्वालिन ने भगवान शिव में आसक्तचित्त हुए अपने पुत्र को बड़े प्यार से भोजन के लिए बुलाया। बारंबार बुलाने पर भी जब उस बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई, तब उसकी मां स्वयं उसके पास गयी और उसे शिव के आगे आंखें बंद करके ध्यान लगाये देख वह, उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी। इतने पर भी जब वह न उठा तब उसने क्रोध में आकर उसे खूब पीटा। फिर भी वह नहीं आया, तब उसने वह शिवलिंग उठाकर दूर फेंक दिया और उस पर चढ़ायी हुई सारी पूजा-सामग्री नष्ट कर दी। यह देख बालक 'हाय-हाय' करके रो उठा। रोष से भरी हुई ग्वालिन अपने बेटे को डांट-फटकार कर घर में चली गयी। पूजा की सामग्री नष्ट हुई देख वह बालक 'देव! देव! महादेव!' की पुकार करते हुए सहसा मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। दो घड़ी बाद जब उसे चेत हुआ, तब उसने आंखें खोलीं। आंख खुलने पर उस शिशु ने देखा, उसका वही शिविर भगवान् शिव के अनुग्रह से तत्काल महाकाल का सुंदर मंदिर बन गया, मणियों के चमकीले खंभे स्फटिक जड़ित भूमि उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस शिवालय में शिव लिंग प्रतिष्ठित था और उस पर उसकी अपनी चढ़ायी हुई पूजन-सामग्री सुसज्जित है। यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया। उसे मन ही मन बड़ा आश्चर्य हुआ और वह परमानंद के समुद्र में निमग्न-सा हो गया। तदनंतर भगवान् शिव की स्तुति करके उसने बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और सूर्यास्त होने के पश्चात् वह गोप-बालक शिवालय से बाहर निकला। बाहर आकर उसने अपने शिविर को देखा। वह इंद्र-भवन के समान शोभा पा रहा था। वहां सब कुछ तत्काल सुवर्णमय होकर विचित्र एवं परम उज्जवल वैभव से प्रकाशित होने लगा। प्रदोषकाल में शिवालय के भीतर सानंद प्रवेश करके बालक ने देखा, उसकी मां दिव्य लक्षणों से युक्त हो एक सुंदर पलंग पर सो रही है। उस बालक ने अपनी माता को बड़े वेग से उठाया। वह भगवान् शिव की कृपा पात्र हो चुकी थी। ग्वालिन ने उठकर देखा, सब कुछ अपूर्व-सा हो गया था। उसने महान् आनंद में निमग्न हो अपने बेटे को छाती से लगा लिया। पुत्र के मुख से गिरिजापति के कृपा प्रसाद का वह सारा वृत्तांत्त सुनकर ग्वालिन ने शिव भक्त राजा को सूचना दी। राजा अपना नियम पूरा करके रात में सहसा वहां आये और ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव देखा। मंत्रियों और पुरोहितों के साथ प्रसन्नता पूर्वक शिव के नाम का कीर्तन करते हुए उन्होंने उस बालक को हृदय से लगा लिया। लोग भी आनंद विभोर होकर महेश्वर के नाम और यश का कीर्तन करने लगे। इस प्रकार शिव का यह अद्भुत महात्म्य देखने से पुरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ और इसी की चर्चा में वह सारी रात एक क्षण के समान व्यतीत हो गयी। नगर को चारों ओर से घेरकर खड़े हुए दूसरे राजाओं ने भी प्रातःकाल अपने गुप्तचरों के मुख से वह सारा अद्भुत चरित्र सुना। सब आश्चर्य चकित हो गये और वहां आये हुए सब नरेश एकत्र हो आपस में इस प्रकार बोले- 'ये राजा चंद्रसेन बड़े भारी शिव भक्त हैं; अतएव इन पर विजय पाना कठिन है। ये सर्वथा निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनी का पालन करते हैं। जिसकी पुरी के बालक भी ऐसे शिव भक्त हैं, वे राजा चंद्रसेन तो महान् शिव भक्त हैं। इनके साथ विरोध करने से निश्चय ही भगवान् शिव क्रोध करेंगे और उनके क्रोध से हम सब लोग नष्ट हो जायेंगे। अतः इन नरेश के साथ हमें मेल-मिलाप कर लेना चाहिए। ऐसा होने पर महेश्वर हम पर बड़ी कृपा करेंगे।' ऐसा निश्चय करके उन सब भूपालों ने हथियार डाल दिये, उनके मन से बैरभाव निकल गया। वे सभी राजा अत्यंत प्रसन्न हो चंद्रसेन की अनुमति ले महाकाल की उस रमणीय नगरी के भीतर गये। वहां उन्होंने भी महाकाल का पूजन किया। फिर वे सब के सब उस ग्वालिन के महान् दिव्य सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसके घर गये। वहां राजा चंद्रसेन ने आगे बढ़कर उनका स्वागत-सत्कार किया। वे बहुमूल्य आसनों पर बैठे और आश्चर्य चकित एवं आनंदित हुए। गोप बालक के ऊपर कृपा करने के लिए स्वतः प्रकट हुए शिवालय और शिवलिंग का दर्शन करके उन सब राजाओं ने अपनी उत्तम बुद्धि भगवान् शिव के चिंतन में लगायी। तदनंतर उन सारे नरेशों ने भगवान् शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए उस गोपशिशु को बहुत-सी वस्तुएं प्रसन्नता पूर्वक भेंट कीं। संपूर्ण जनपदों में जो बहुसंखयक गोप रह रहे थे, उन सब का राजा उन्होंने उसी बालक को बना दिया। इसी समय समस्त देवताओं से पूजित परम तेजस्वी वानरराज हनुमानजी वहां प्रकट हुए। उनके आते ही सब राजा बड़े वेग से उठकर खड़े हो गये। उन सब ने भक्ति भाव से विनम्र होकर उन्हें मस्तक झुकाया। राजाओं से पूजित हो वानरराज हनुमान जी उन सबके बीच में बैठे और उस गोप बालक को हृदय से लगाकर उन नरेशों की ओर देखते हुए बोले- तुम सब लोग तथा दूसरे देहधारी भी मेरी बात सुनें! इससे तुम लोगों का भला होगा। भगवान् शिव के सिवा देहधारियों के लिए दूसरी कोई गति नहीं है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि इस गोप बालक ने शिव की पूजा का दर्शन करके उससे प्रेरणा ली और बिना मनके भी शिव का पूजन करके उन्हें पा लिया। गोपवंश की कीर्ति बढ़ाने वाला यह बालक भगवान् शंकर का श्रेष्ठ भक्त है। इस लोक में संपूर्ण भोगों का उपभोग करके अंत में यह मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इसकी वंश परंपरा के अंतर्गत आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नंद उत्पन्न होंगे, जिनके यहां साक्षात् भगवान नारायण उनके पुत्र रूप से प्रकट होकर श्रीकृष्ण नाम से प्रसिद्ध होंगे। आज से यह गोप कुमार इस जगत में श्रीकर के नाम से विशेष खयाति प्राप्त करेगा। ऐसा कहकर अंजनीनंदन शिव स्वरूप वानरराज हनुमान् जी ने समस्त राजाओं तथा महाराज चंदसेन को भी कृपा दृष्टि से देखा। तदनंतर उन्होंने उस बुद्धिमान् गोप बालक श्रीकर को बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवोपासना के उस आचार-व्यवहार का उपदेश दिया, जो भगवान् शिव को बहुत प्रिय है। इसक बाद परम प्रसन्न हुए हनुमान जी चंद्रसेन और श्रीकर से विदा ले उन सब राजाओं के देखते-देखते वहीं अंर्तध्यान हो गये। वे सब राजा हर्ष में भरकर सम्मानित हो महाराज चंद्रसेन की आज्ञा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। महातेजस्वी श्रीकर भी हनुमान् जी का उपदेश पाकर धर्मज्ञ ब्राह्मणों के साथ शंकर जी की उपासना करने लगा। उन्हीं की आराधना करके परमपद प्राप्त कर लिया। इस प्रकार महाकाल नामक शिवलिंग सत्पुरुषों का आश्रय है। भक्तवत्सल शंकर दुष्ट पुरुषों का सर्वथा हनन करने वाले हैं। यह परम पवित्र रहस्यमय आखयान सब प्रकार का सुख देने वाला, शिव भक्ति को बढ़ाने तथा स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है।

भगवत कृपा के स्रोत

भगवत प्राप्ति, भक्ति से ईश्वर की कृपा और उनके अनुग्रह से सुख आनंद की प्राप्ति है। आइए जानें, इस लेख के द्वारा कि यह सब कैसे प्राप्त किया जाय। भगवत प्राप्ति, भक्ति से ईश्वर की कृपा और उनके अनुग्रह से सुख आनंद की प्राप्ति आदि काल से मानव जीवन का लक्ष्य रहा है। आधुनिक परिवेश में इसे जानने के क्रम में, एक आकृति मस्तिष्क में आती है। विशाल कालिमा क्षेत्र के भाल पर मनमोहक श्याम की छवि। आकाश की ओर देखा जाये तो वह परिधि रहित कालिमा, नीला ब्योम दिखता है। कभी इसी अनंत अंतरिक्ष में भयानकतम विस्फोट हुआ और पिंडों के रूप में, जो अवशेष घूर्णन से बिखर गये, वे ज्योतिपुन्जों के साथ, आज भी तारे, ग्रह नक्षत्रों के रूप में उपस्थित हैं। पृथ्वी के जड़ चेतन, सौरमंडल, नक्षत्रमंडल, ''यह सब कुछ'' इसी अंतहीन परिधि के क्षेत्र में है। उस अनंत कालिमा तथा उसके तेजमय बिंदु को जो सभी ब्रह्मांड पिंडों का उत्पत्ति स्रोत था, ऋणात्मक और धनात्मक आयाम जाना जा सकता है। कालिमा जो समस्त द्रव्य की माता स्वरूपा काली मां हैं और तेज स्वरूप, उत्सर्जनकर्ता ईश्वर, श्रीकृष्ण श्री हरि समझे जा सकते हैं। देवी भागवत के अध्याय 51 में कहा गया है कि कृष्ण या कालिमा ही तीनों काल-भूत, वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा के स्रोत हैं एवं यह कालपरिधि से परे, आगम-निगम के ज्ञाता हैं तथा कृष्ण अधिष्ठाता देव हैं। प्रत्येक द्वापर युग में इनका अवतार, स्वरूप, समदर्शिता एवं कर्म समन्वय के लिये होता रहा है। मातृत्व स्वरूपा एवं ज्ञानाधिकारी देव हैं ये ईश्वर। उन्हीं काली मां तथा श्याम कृष्ण से सभी संचालित रहते हैं। नक्षत्र गण, सूर्य, पृथ्वी एवं समस्त ग्रह, इनके प्रभाव क्षेत्र में हैं। सूर्य अपने ग्रहों एवं पृथ्वी के साथ इसी अनंत में चलायमान है। सौर मंडल के स्थिति-परिवर्तन से पृथ्वी के जड़-चेतन परिवर्तन पाते हैं और जन-जीवन इसी के अधीन हो जाते हैं। पृथ्वी पर इसी के अनुरूप स्वभाव, रूझान, कर्म और भोग बनता है। ऐसी परिस्थिति में मनुष्य सुख-आनंद की प्राप्ति हेतु कहां जाये, क्या करे? भगवत प्राप्ति का प्रश्न, वास्तव में सामयिक और अति महत्त्वपूर्ण है। इसी संदर्भ में प्रकाश, तेज और उनसे निकलने वाली ऊर्जा पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि क्या बिना इनके ऊर्जा-प्रकाश के, यह जगत जीवित रह पायेगा? आदिकाल से संतपुरुषों, ऋषि-मनीषियों ने सूर्य के अलावा अन्य ग्रहों, नक्षत्रों की रश्मियों के ऊर्जा स्रोतों पर गहन अध्ययन किया और उनके प्रभाव को पृथ्वी पर परिलक्षित होते अनुभव किया। सत्ताईस (27) नक्षत्रों, नौ ग्रहों के ज्योति पुन्जों का प्रभाव विश्लेषित किया और इन्हें ईश्वरीय ज्योति 'ज्योतिष' की संज्ञा दी। ईश्वर ने स्वयं अपनी आकृति नहीं बनाई बल्कि मनुष्य ने अपने अनुरूप उनकी आकृति के स्वरूप का ज्ञान किया। जैसा ब्रह्मांड है, वैसा ही हर पिंड है। मनुष्य की आत्मा के आवरण, इस काया, इस भौतिक शरीर को उस ईश्वर ने अपने ही स्वरूप में, ब्रह्मांड के हर ऊर्जा स्रोत को अपना ही स्वरूप दिया। सात रंगों के उत्सर्जन के कारण मानव ने सूर्य को मानव आकृति देते हुये सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ किया और उनकी ऊर्जा रश्मि को प्राप्त करने हेतु उनकी आराधना का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे ही सभी ग्रहों के देवता निर्धारित हुये। सूर्य के निकटतम ग्रह बुध, जिसे बौद्धिक ज्ञान के प्रकाश का स्रोत जाना गया, सर्वप्रथम पूज्य बनाकर ज्ञान के गणनायक के रूप में पूजा गया। अन्य ग्रहों के गुण अवयवों पर आधारित स्वरूप एवं आराधना के संबंध में बहुत कुछ आदि ग्रंथों में विवेचित किया। ऊर्जा के विभिन्न आयाम होते हैं। किसी ऊर्जा में बुद्धि विकास का गुण है तो किसी में प्रतिरक्षा पौरुष का आधिपत्य। कोई तेज देता है तो कोई शांति और कोई अशांति। हर मनुष्य के जन्मकाल में इन ऊर्जा स्रोतों का एक सम्मिश्रण होता है। जन्मकुंडली में दर्शित ग्रह स्थिति उसी की रूप रेखा व मानचित्र है। जीवन पर्यंत वह इसके अधीन रहता है। ऐसी स्थिति में भगवत कृपा से आनंद प्राप्ति का मूल क्या हो सकता है? इसके जड़ में अध्यात्म है अर्थात् आत्मा में परमात्मा के विशेष अंश का दर्शन। ब्रह्मांड, जो अनंत व असीम है, उसे अतीन्द्रियवाद (मेटाफिजिक्स) द्वारा समझा जा सकता है। इसके लिये ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, योगमार्ग और भक्तिमार्ग का संधान करना होता है जो अत्यंत दुरूह है। ग्रह-नक्षत्रों के सृजनकर्त्ता से कृपा पाना दुर्लभ है। फिर भी मनीषियों ने जो मार्ग बताये हैं उसका अनुसरण ही भगवत् प्राप्ति में सहायक है। एक बालक से पूछा गया कि पढ़-लिखकर क्या बनना है, उत्तर था धन, संपत्ति, वैभव प्राप्त करने का लक्ष्य। फिर प्रश्न था कि उसके बाद क्या होगा, उत्तर था आनंद प्राप्त करेंगे। अर्थात् आनंद ही आगे का लक्ष्य है, तो फिर लक्ष्य परमानंद यानी परम आनंद की प्राप्ति ही बनता है। अंत में सभी मनुष्य भगवत् कृपा पर निर्भर हो जाते हैं। ईश्वर के तीसरे नेत्र का अर्थ ज्ञान चक्षु है जो खुल जाने पर आनंद की सीमा प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण को ज्ञानाधिकारी इसी पर्याय से कहा गया कि द्वापर युग में वेद पुराणादि सभी का सार उन्होंने गीता रूपी अमृत में दिया है- ''ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥'' (अ. 4-11) श्री कृष्ण की यह उक्ति गीता में है जिसका अर्थ है कि जो मनुष्य जिस विधि विधान से ''हमारी'' भक्ति पूजन करते हैं ''मैं'' भी उसे उसी प्रकार भजता हूं क्योंकि सभी मेरे द्वारा प्रदत्त पथ का अनुसरण करते हुए अवतरित होते हैं। अनन्तव्योम के असीमित ग्रह नक्षत्रों के पथ से आने वाली वही परम आत्मा शरीर धारण करने वाले मनुष्यों में अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ सबका दाता है। लेकिन हर व्यक्ति में मस्तिष्क सर्वोपरि है और ज्ञान का उपयोग सदा से उन्नतिकारक रहा है। तथापि मनुष्य का प्रभु सदा-सर्वदा उसके साथ है, सिर्फ उस पर हर क्षण मनन और ध्यान की आवश्यकता है। सत्ताईस नक्षत्र और नौ ग्रहों के स्वामी का निर्धारण करने के पश्चात् मनीषियों ने अपने अपने इष्ट की पहचान जताई। मानव जीवन धरती पर उन्हीं ऊर्जा स्रोतों के सम्मिश्रण से आया है। फिर भी कुछ एक ऊर्जा रश्मि उसके अनुकूल होती हैं और कुछ उस जातक के लिये अशुभ एवं प्रतिकूल होती हैं। आत्मा का उत्सर्जन परमात्मा के अंश का ही रूप है और जो शरीर दिखता है उसमें शुभ-अशुभ वही हैं। अतः अशुभता को शुभता में बदलने हेतु ग्रह नक्षत्रों की ऊर्जा रश्मियों का संतुलन करना होता है। भगवान शब्द के चार अक्षरों को इस प्रकार विश्लेषित किया गया है, ''भ'' भूमि (यह धीर, गंभीर जड़त्व का प्रतीक है) ''ग'' गमन अर्थात उत्सुक, खुला हुआ व विशाल सोच, ''व'' का अर्थ वायु- अर्थात चंचल व गतिशील तथा ''आ'' से अग्नि से शमन शक्ति एवम् ज्वाला से अशुभता की, ''न'' नीर एवंम् शीतल प्रवाह युक्त सरोवर। भगवान या ईश्वर मनुष्य को अपने से या प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं। भगवत् कृपा पाने का यह प्रथम संदेश है। अनंत परिधि वाले परमात्मा से अंशमात्र आत्मा का जब पृथ्वी पर उदय होता है और जीवात्मा भौतिक शरीर पाता है, तब उसमें नक्षत्र-ग्रहों का प्रादुर्भाव निश्चित रहता है। इसमें जन्म-जन्मांतर का कर्म प्रारब्ध के रूप में भी जुड़ा रहता है। उसे विधाता ने अवतरित किया, माता-पिता एवं पूर्वज से जात-पात, गोत्र का निर्धारण हुआ। ये सभी तो पूज्य हैं ही, तो फिर ''स्रोत'' कहां छूट रहा है। यही स्रोत सर्व सृष्टि का प्रणेता है, ईश्वर है। मां भगवती के आरती गान में कहा जाता है कि ''कोटि रतन ज्योति'' आप में विराजमान हैं। अर्थात् असंखय रत्नों के समान ज्योति सदा आपके क्षेत्र में, तारे नक्षत्र ग्रहों के रूप में स्थित है। उनकी ऊर्जा शक्ति की कृपा, भक्त को प्राप्त हो। श्री दुर्गा चालीसा में इसी अनन्त व्योम का ''निराकार है ज्योति तुम्हारी, तिहूं लोक फैली उजियारी'' रूप में बखान है। इससे यही भाव स्पष्ट होता है कि निराकार मातृशक्ति की परिधि में जो शक्ति, ऊर्जा के स्रोत हैं वे ही अनंत आकाश में विद्यमान है उनकी कृपा दृष्टि याचक पर हो। इसी ईश्वर के दो आयाम हैं, कर्म का विशाल क्षेत्र और ज्ञान का चक्षु। अपने बुद्धि विवेक से इसे जहां तक समझने का प्रयास किया, वह अंतहीन कालिमा में सदा भाल पर कृष्ण रूप में उदित दिखे। इस श्याम कालिमा युक्त चादर को युगों-युगों से महान आत्माओं के धारकों ने जाना। स्वामी विवेकानंद ने इसे ''शून्य'' स्वरूप जाना और अपने व्याखयान से, शिकागो में विश्व को चकित कर दिया। रामकृष्ण परमहंस उसी काली मां का ज्ञानाधिकारी के संधान से शायद साक्षात्कार करके, नाम अमर कर गये। बाल हृदय बहुत निश्छल होता है, बालिका मीरा ने उन्हें हृदय में धारण किया उसी साक्षात कृष्ण विग्रह में समा गयी। उसी अनंत भगवान से सब कुछ आया है और उसी में समाहित होने की कामना प्रभु भक्ति, भगवत् भक्ति है। जैसे विवाहित पुत्री को उसके माता-पिता कदापि नहीं चाहते हैं कि अपने पास रखें। वैसे ही ईश्वर मोक्ष देकर अपनी शरण में हमें नहीं बुलाते। उस प्रभु का संदेश प्रायः सभी आदि ग्रंथों में है। जड़-चेतन उनके शिशु हैं और वही सबों का स्वामी है। सदा से ऋषि-महर्षियों ने भगवत् प्राप्ति के लिये प्रयत्न किये और विरले ही इस गति को प्राप्त कर पाये। उनका संदेश तो इस जगत रूपी फुलवारी को ज्ञान-बुद्धि-विवेक से सुसज्जित करना है। प्रभु ने ही माया रूपी तत्त्व का मनुष्य में रोपण किया है, फलतः मोह का क्षय नहीं होता और मोक्ष संभव नहीं होता। ऐसी परिस्थिति में ज्ञान रूपी श्याम, काली मां का आशीष प्राप्त करके और विवेक द्वारा जीवन की अकर्मण्यता को शुभ कर्मों में बदलने हेतु ईश्वरीय ज्योति द्वारा प्रदत्त इष्ट की आराधना के पथ में प्रेरित करते हैं। यही श्रेष्ठतम अनुग्रह है। सत्ताईस नक्षत्र और नौ ग्रहों के स्वामी का निर्धारण करने के पश्चात् मनीषियों ने अपने अपने इष्ट की पहचान जताई। मानव जीवन धरती पर उन्हीं ऊर्जा स्रोतों के सम्मिश्रण से आया है। फिर भी कुछ एक ऊर्जा रश्मि उसके अनुकूल होती हैं और कुछ उस जातक के लिये अशुभ एवं प्रतिकूल होती हैं। आत्मा का उत्सर्जन परमात्मा के अंश का ही रूप है और जो शरीर दिखता है उसमें शुभ-अशुभ वही हैं। परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी श्रेष्ठतम कृति रूप में अवतरित किया। इसे विशेष ज्ञान देकर, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग बताया। भौतिक विज्ञान के अलावा अतीन्द्रिय विज्ञान भी यही प्रमाणित करता है कि सृष्टि का प्रथम सोपान, पाषाण था परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी श्रेष्ठतम कृति के रूप में अवतरित किया। इसे विशेष ज्ञान देकर, अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग बताया। भौतिक विज्ञान के अलावा अतीन्द्रिय विज्ञान भी यही प्रमाणित करता है कि सृष्टि का प्रथम सोपान, पाषाण था, तत्पश्चात् पर्यावरण के पेड़-पौधे आदि, फिर जलचर, नभचर, पशु, पक्षी, तदुपरांत मानव का प्रादुर्भाव हुआ, और आज हम विकसित मनुष्य है। आदि पूर्वजों के प्रति आभार के संदर्भ में शिव, कल्याण के कारक हैं। पर्यावरण इस जीवन का आधार है, एवं पशु-पक्षी मानव के सहायक है। देव तुल्य ऋषि-महर्षियों ने ज्ञान के सागर आदि-ग्रंथों की रचना की और इन सबों पर विस्तृत विवेचनायें दी। यही सब आदि स्रोत हैं। अंत में यही कहा जा सकता है। कि सांसारिक जीवन में रहते हुये भगवत् कृपा पाने हेतु वर्तमान जन्मदाता एवं पूर्वजों के अतिरिक्त जगत निर्माता रूपी आदि की आराधना व मनन-चिंतन ही, मानव जीवन का परमलक्ष्य बनता है। विश्व में सर्वमान्य श्री गीता के अमृत-सागर के मंथन में यह पाया गया- तत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्व देहिकम्। यतते च ततो भूयः संसिद्धो कुरुनन्दन॥ (अ. 6-43) भावार्थ इस प्रकार है- यह जीवात्मा पूर्व के भौतिक कार्यों में संग्रहित किये हुए ज्ञान-बुद्धि एवं संस्कारों के साथ पुनः शरीर प्राप्त करता है। वह इन सब गुणों के प्रभाव से बारंबार परमेश्वर की कृपा प्राप्ति का पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है और यही निरंतर अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त करता है।

शक्ति का संचरण और शक्ति आराधना



संसार का कोई भी कार्य शक्ति के बिना संभव नहीं है चाहे वह छोटा हो या बड़ा। जिस प्रकार साइकल चलाने के लिए व्यक्ति को शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार संसार के संचालन के लिए भी शक्ति आवश्यक है। उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूपी सृष्टि चक्र का संचालन अवश्य ही किसी महाशक्ति के अधीन है। समूचे ब्रह्मांड का नियमन और संचालन करने वाली जो अदृश्य ऊर्जा है, सूर्य आदि ग्रह-नक्षत्र जिसके प्रकाश से प्रकाशित होते हैं तथा जिसकी ऊर्जा से ही सब गतिमान है, उस ऊर्जा-शक्ति को ही शास्त्रों में आद्याशक्ति/आदि शक्ति कहा गया है। यह शक्ति ब्रह्मरूप में ही सिद्ध है। वस्तुतः यह शक्ति निर्गुण-निराकार है, किंतु इस जड़- चैतन्य जगत में हमें जितने भी रूप (गुण) दिखाई देते हैं वे सब उसी शक्ति के स्वरूप हैं। तंत्रोक्त देवी सूक्त में कहा गया है- या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिताा। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः॥ अर्थात् जो देवी आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में तथा समस्त प्राणियों में शक्तिरूप से स्थित है, उस जीवनदायिनी दैवी शक्ति को नमस्कार है, नमस्कार है, बारंबार नमस्कार है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 125वें सूक्त में आदि शक्ति जगदंबा जी कहती हैं, ''मैं ब्रह्मांड की अधीश्वरी हूं, मैं ही सारे कर्मों का फल प्रदान करने वाली तथा ऐश्वर्य देने वाली हूं।'' स्वामी वनखण्डेश्वर महाराज ने इस संदर्भ में लिखा है कि जगदंबा ही इस चराचर जगत् की आधार है, वही सत्पुरुषों को सत्कर्म करने की शक्ति देती है। अव्यक्त होने पर भी वही शक्ति भक्तों की भावना के अनुरूप व्यक्त-स्वरूप को धारण करती है। महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, सीता, राधा, रुकमणी, अन्नपूर्णा, तारा, त्रिपुरसुंदरी व भुवनेश्वरी आदि अनेक रूप उसी आद्याशक्ति की अभिव्यक्तियां हैं। यह आदि शक्ति सनातन है, अनंत विश्व की मूलस्रोत है। इसी शक्ति की सहायता से ब्रह्माजी सृष्टि का सृजन, विष्णुजी पालन तथा इसी के सहारे शिव संसार का संहार करते हैं। महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली ही त्रिदेवों की शक्तियां हैं। ब्रह्म की शक्ति को ब्राह्मी, विष्णु शक्ति को वैष्णवी और शिव की शक्ति को शिवा कहते हैं। (या महेश की शक्ति को माहेशी कहते हैं।) श्रुतियों ने शक्तिमान् स्वरूप अद्वैततत्व का प्रतिपादन किया है। वही एक तत्व परम पुरुष और पराशक्ति रूप से (द्वैत) प्रतीत होता है, वस्तुतः शक्तिमान और उसकी शक्ति दोनों एक ही हैं, अभिन्न हैं। मां जगदंबा ही आद्या शक्ति है, उन्हीं से अखिल विश्व का संचालन होता है, उनके अतिरिक्त दूसरी कोई अविनाशी शक्ति नहीं है। भुवनेश्वरी की कृपा से राज्य की प्राप्ति- प्रलयकाल में जब ईश्वर के जगत् रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है। तब ईश्वर रात्रि (महाप्रलय) की अधिष्ठात्री देवी 'भुवनेश्वरी' कहलाती है। देवी पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी है। भुवनेश्वरी के सानिध्य से ही शिव को सर्वेश्वर होने की शक्ति प्राप्त होती है। भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीलाविलास (माया) की सहचरी है। इसकी पुष्टि श्वेताश्वतरोपनिषद् के उस मंत्र से होती है जिसमें कहा गया है कि 'प्रकृति को माया जालों और मायावी को महेश्वर।' तंत्रशास्त्र में कहा गया है- 'राज्यं तु भुवनेश्वरी' अर्थात् आदिशक्ति भुवनेश्वरी की कृपा से राज्य, राज्य सम्मान, राजकीय या शासकीय पद, धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इसके अलावा दांपत्य सुख एवं सद्गुणी संतान की प्राप्ति हेतु भी भुवनेश्वरी की उपासना, आराधना विशेष फलप्रद कही गई है। जगदंबा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंगकांति प्रातःकाल के सूर्योदय के समान है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है। तीन नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की छटा छाई रहती है। उनके हाथों में पाश, अंकुश, वरद एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं। सब प्रकार के कल्याण के लिए श्री दुर्गासप्तशती के ग्यारहवें अध्याय का दसवें श्लोक का नवरात्रि के दिनों में सुबह शाम कम से कम एक माला जप करना चाहिए। इसके प्रभाव से आपकी इच्छाओं की शीघ्र पूर्ति होगी। सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्रयंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥ श्री दुर्गा देवी का प्रादुर्भाव श्री देवी भागवत् पुराण के अनुसार 'मां दुर्गा के अवतरण का उद्देश्य है- श्रेष्ठ पुरुषों की रक्षा करना, वेदों को सुरक्षित रखना तथा दुष्टों का दलन (संहार) करना।' 'दुर्ग' नामक दैत्य का संहार करने के कारण भुवनेश्वरी का नाम 'दुर्गा' देवी हुआ। श्री दुर्गा देवी के प्रादुर्भाव की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है। दुर्गमासुर नामक एक दैत्य ने कठोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया तथा वरदान स्वरूप ब्रह्माजी से चारों वेदों को प्राप्त करके उन्हें बंदी बना लिया, विलुप्त कर दिया। इस कारण संसार में 'यज्ञ' आदि वैदिक कर्मों का लोप हो गया। जिससे वर्षा बंद हो गई और पृथ्वी पर अकाल पड़ने लगा। जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक बरसात नहीं हुई तथा जल का अभाव हो गया था। उस समय ऋषि मुनियों ने संतप्त होकर भगवती का स्मरण/स्तवन किया। तब अयोनिजारूप में शक्ति तत्काल प्रकट हुई। वे अपने हाथों में बाण, कमल, पुष्प तथा शाक-मूल लिए हुई थी। उन्होंने अपने सौ नेत्रों से मुनियों को देखा तथा मुनियों के दुख से संतप्त होकर, मां की आंखों से अश्रुजल की हजारों धाराएं बहने लगीं। उस जल से पृथ्वी के सभी प्राणी तृप्त हो गये। समुद्रों व नदियों में अगाध जल भर गया। जगदंबा ने शत नेत्रों से ऋषियों को देखा था इसलिए वे 'शताक्षी' कहलाई। उन्होंने अपने शरीर से उत्पन्न शाक-सब्जियों, फल-मूल से संसार का भरण-पोषण किया इस कारण वे 'शाकंभरी' नाम से विखयात हुईं। उसी समय 'शाकंभरी' देवी ने दुर्गमासुर से घनघोर युद्ध किया। दुर्गम नामक महादैत्य का वध करने के कारण वे दुर्गा देवी के नाम से प्रसिद्ध व आराधित हुईं। ऐश्वर्य च या शक्ति पराक्रम एव च। तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्ति प्रकीर्तिता॥ देवी भागवत के अनुसार 'श' का अर्थ ऐश्वर्य और 'क्ति' का अर्थ पराक्रम है। इस प्रकार जो ऐश्वर्य और पराक्रम का स्वरूप है तथा जिससे पराक्रम और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, वही तीनों लोकों में शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। श्री दुर्गादेवी का स्वरूप (ध्यान) श्री दुर्गादेवी के तीन नेत्र है, उनके श्री अंगों की आभा बिजली के समान है। वे सिंह के कंधे पर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती है। हाथों में तलवार और ढाल लिए अनेक कन्याएं उनकी सेवा में खड़ी हैं। वे अपने हाथों में चक्र, गदा, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं। अष्टभुजाओं वाली श्रीदुर्गा देवी का स्वरूप अग्निमय है तथा वे माथे पर चंद्रमा का मुकुट धारण करती हैं। स्तुति मंत्र ऊँ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ संक्रामक रोगों/महामारी नाश के लिए इस मंत्र का जप करना चाहिए। श्री दुर्गा देवी की प्रसन्नता एवं कृपा प्राप्ति के लिए इस मंत्र के अलावा 'सप्तश्लोकी दुर्गा', 'श्री दुर्गा अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्' एवं 'दुर्गा द्वात्रिंशन्नाम माला स्तोत्र' का पाठ करना चाहिए। दुर्गा के 32 नामों का प्रतिदिन 108 बार जप करना चाहिए। ऐसा करने से कोर्ट केस (मुकदमा), शत्रुभय आदि घोर संकटों से शीघ्र मुक्त हो जाता है। क्योंकि दुर्गा दुर्गतिनाशिनी है। दुर्गा देवी का बीज मंत्र 'दुं' श्री दुर्गादेवी का बीजाक्षर है। दुर्गा देवी के दो बीज मंत्र निम्नवत् हैं। ऊँ दुं दुर्गायै नमः ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं दुं दुर्गायै नमः शुभ के मारे जाने के बाद देवताओं ने जब देवी की स्तुति की तो जगन्माता ने उन्हें आश्वासन और वरदान दिया। इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति। तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ देवी ने कहा, जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूंगी। श्री दुर्गा अवतार के बाद हिमालय पर्वत पर भीमादेवी का अवतार भी हो चुका है। इसके पश्चात् अब भविष्य में जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचायेगा तब तीनों लोकों का हित करने के लिए छः पैरों वाले असंखय भ्रमरों का रूप धारण करके उसका वध करेंगे। ऐसा स्वयं मार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अंतर्गत देवी स्तुति नाम ग्यारहवें अध्याय में देव्युवाच के 52-53 वें श्लोक में कहा है। यदारुणाखयस्त्रैलोक्ये महाबाधा करिष्यति। तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंखयेयषट्पदम्। त्रैलोकस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्। भ्रामरीति च मां लोकस्तदा स्तोष्यंति सर्वतः। नवरात्रि और नव दुर्गा भारत में एक संवत्सर में चार नवरात्र होते हैं। आषाढ़ और माघ की नवरात्रि गुप्त नवरात्रि कहलाती है। इन नवरात्रियों में तांत्रिक साधक गुप्त स्थानों पर तांत्रिक साधनाएं करते हैं। चैत्र का नवरात्र वासंतिक नवरात्र तथा आश्विन माह का नवरात्र शारदीय नवरात्र के नाम से जाना जाता है। नवरात्रों में दैवीय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, इसलिए नवरात्र में आद्याशक्ति भगवती दुर्गा की उपासना/आराधना का विशेष महत्व है। 'नव शक्तिभि संयुक्त नवरात्रतदुच्यते।' अर्थात् शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री ये नौ शक्तियां जिस समय एक महाशक्ति का रूप धारण करती हैं। उसे नवरात्र कहते हैं। इन्हीं नवशक्तियों को नवरात्र में जागृत किया जाता है। नवरात्र में जीवनी शक्ति का संचरण होता है। यह समय ऋतु परिवर्तन का होता है। आयुर्वेद के अनुसार इस समय शरीर की शुद्धि होती है। बढ़े हुए वात, पित्त, कफ का शमन करना चाहिए। शरद ऋतु के आश्विन माह में पड़ने वाली नवरात्रि चारों नवरात्रियों से बड़ी है। इसे वार्षिक नवरात्र की संज्ञा दी गई है। इस समय महापूजा का आयोजन किया जाता है। जैसा कि कहा गया है। 'शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।' आश्विन नवरात्र में ही विजया दशमी को अपराजिता देवी का पूजन किया जाता है। चैत्र नवरात्र में 'रामनवमी' पड़ती है। जबकि आश्विन में 'श्री दुर्गा नवमी' आती है। मुखय रूप से तीन महाशक्तियां हैं, महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती। इन तीनों को संयुक्त रूप से 'दुर्गा' कहा जाता है। ब्रह्मा जी के अनुसार जगदंबा के नौ स्वरूप हैं, जिन्हें 'नव दुर्गा' कहते हैं। नवरात्र में श्रीदुर्गा देवी के नौ स्वरूपों की क्रमशः आराधना की जाती है। प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चंद्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥ पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम्॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता। उक्तन्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥ कुछ शास्त्रकारों की मान्यता है कि ये उपरोक्त नौ शक्तियां महासरस्वती के अंग से प्रकट हुई थीं, अतः वे उनकी ही नौ शक्तियां हैं। कतिपय विद्वानों के अनुसार अष्टभुजा धारी दुर्गा जी की पूजा करना हो तो उनके साथ इन नौ शक्तियों की भी पूजा करनी चाहिए। वे शक्तियां हैं- चामुण्डा, वाराही, ऐंद्री, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, नारसिंही, शिवदूती, ब्राह्मी। ये सभी माताएं सभी प्रकार की योग शक्तियों से संपन्न है।

ज्योतिष में इश्वर प्राप्ति के योग

ज्योतिष में ईश्वर प्राप्ति के योगों के लिए सबसे पहले जन्मकुंडली के सबभावों में से प्रथम, पंचम व नवम भाव व भावेशों पर विचार करना चाहिए। इन भावों में जितनी शुभ ग्रहों की स्थिति या दृष्टि होगी जातक का विश्वास ईश्वरीय सत्ता में उतना ही अधिक होगा, जातक का ध्यान प्रभु में उतना ही अधिक लगेगा। पंचम भाव व नवम भाव का कारक गुरु होता है। गुरु ज्ञान का कारक, मंत्र विद्या का कारक, वेदांत ज्ञान का कारक, धर्म गुरु, ग्रंथ कर्ता, संस्कृत व्याकरण आदि का कारक होता है यदि कुंडली में गुरु लग्न में, तृतीय भाव में, पंचम भाव में या नवम भाव में हो तो उस जातक का मन भगवान में लगता है। मन का कारक चंद्रमा है और भक्ति का कारक गुरु बृहस्पति है। चंद्र गुरु योग भी कुंडली में हो तो ईश्वर प्रेम पैदा करता है। यही योग यदि कुंडली में प्रथम भाव, नवम भाव, पंचम भाव में बनता हो तो जातक आध्यात्मिक ऊंचाइयों को छूने वाला होता है। यदि गुरु लग्न में हो तो ऐसा जातक पूर्व जन्म में वेद पाठी ब्राह्मण होता है। यदि कुंडली में कहीं भी उच्च का गुरु होकर लग्न को देख रहा हो तो जातक पूर्व जन्म में धर्मात्मा, सदगुणी एवं विवेकशील साधु होता है। ऐसा ऋषियों का कथन है। यदि पंचम भाव में पुरुष ग्रह हों या पुरुष ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक पुरुष देवताओं की पूजा करने वाला होता है यदि पंचम भाव में स्त्री राशि हो या चंद्रमा, शुक्र बैठे हों या किसी एक ही दृष्टि हो तो जातक स्त्री देवता की पूजा करने वाला होता है। यदि पंचम भाव में शनि, राहु, केतु हों या इन ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक कामनावश पूजा करने वाला होता है। गुरु व शनि एक अंशों में नवम भाव या दशम भाव में एक साथ बैठे हों शुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो यह मुनि योग का निर्माण करता है। मुनि योग में जन्म लेने वाला जातक सांसारिक प्रपंचों से दूर होकर उम्र भर के लिए साधु बन जाता है। चंद्रमा से केंद्र में गुरु हो तो यह गजकेसरी योग का निर्माण करता है इस योग में जन्म लेने वाला जातक भी ईश्वर भक्ति करने वाला होता है।

भारतीय संस्कृति में मौन व्रत

मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत, संयम व्रत, अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं, परंतु मौनव्रत अपने आप में एक अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन, तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंधकर किया जा सकता है। यह कष्टसाध्य अवश्य है, क्योंकि आज के इस युग में मनुष्य इतना वाचाल हो गया है कि बिना बोले रह ही नहीं सकता। उल्टा-सीधा, सत्य-असत्य वाचन करता ही रहता है। यदि कष्ट सहकर मौनव्रत का पालन किया जाए तो क्या नहीं प्राप्त कर सकता? अर्थात् सब कुछ पा सकता है। कहा भी गया है- ‘कष्ट से सब कुछ मिले, बिन कष्ट कुछ मिलता नहीं। समुद्र में कूदे बिना, मोती कभी मिलता नही।।’ जैसे- जप से तन की, विचार से मन की, दान से धन की तथा तप से इंद्रियों की शुद्धि होती है। सत्य से वाणी की शुद्धि होनी-शास्त्रों तथा ऋषियों द्वारा प्रतिपादित है, परंतु मौन व्रत से तन, मन, इंद्रियों तथा वाणी-सभी की शुद्धि बहुत शीघ्र होती है। यह एक विलक्षण रहस्य है। व्रत से तात्पर्य है- कुछ करने या कुछ न करने का दृढ़ संकल्प। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति दृढ़ संकल्प से ही होती है। यह संसार भी सत्य स्वरूप भगवान के संकल्प से ही प्रकट हुआ है। मौन-व्रत से मनुष्य मस्तिष्क या मन में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, उन पर नियंत्रण होता है। यदि संकल्प-विकल्प भगवन्निष्ठ हों तो सार्थक होता है, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता। भगवान की माया शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है- यह जगत्। मनुष्य इस संसार की महानतम भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए ही नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता रहता है। फलतः मन की चंचलता निरंतर बनी रहती है। जितने क्षण मन कामना (संकल्प-विकल्प)- शून्य हो जाता है उतने क्षण ही योग की अवस्था रहती है। मौन-व्रत द्वारा निश्चित रूप से मन को स्थिर किया जा सकता है। ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। मौन-व्रत रखने से भौतिक कामनाओं से मुक्ति के साथ-साथ परस्पर अनावश्यक वाद-विवाद से भी बचा जा सकता है। राग और द्वेष पर तो विजय मिल ही जाती है। जितने समय तक साधक मौन-व्रत रखता है, उतने काल तक असत्य बोलने से मुक्त रहता है। साथ ही मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है। मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा-शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता हैं भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। शरीर, धन, रूप, विद्या तथा सत्ता का बल मनुष्य को मदांध कर देता है। इनमें से एक भी बल हो तो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ अनीतिमय व्यवहार करने लगता है। जरा सोचें, जिनके पास ये पांचों बल हों उसकी गति क्या होगी! मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है। अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है फिर विषय का त्याग करता हुआ जीवन के अद्वितीय रस भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवान नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक साधक को दिन में एक घंटे, सप्ताह में एक दिन एकांत वास कर मौन-व्रत धारण कर भगवद्भजन करना चाहिए। यह बड़ा ही श्रेयष्कर साधन है। यूं भी साधक को नियमित जीवन मंे ंउतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। निरंतर निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप से वाकसिद्धि हो जाती है। मौन-व्रत का पालन बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि मौन-व्रत तथा सत्य भाषण के कारण ही वाक्सिद्ध थे। यदि हमारी इंद्रियां तथा मन चलायमान रहें तो मौन-व्रत पालन करना छलावा मात्र ही रहेगा। मूल रूप से वाणी संयम तो आवश्यक है ही, किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है संयम। संयम ही वास्तव में मुख्य मौन-व्रत है। यह साधनावस्था की उच्चभूमि है जहां पहुंचकर ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद की स्वतः अनुभूति होने लगती है। अतः धीरे-धीरे वाक् संयम का अभ्यास करते हुए मौन व्रत की मर्यादा में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

मीरा की भक्ति

उनकी भक्तिमय जीवन की धारा किन-किन मोड़ों से निकलकर अपने आराध्य में विलीन हो गई उसका एक संपूर्ण चित्र इस लेख में प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण भक्ति की अनन्य प्रेम भावनाओं में अपने गिरधर के प्रेम में रंग राती मीरा का दर्द भरा स्वर अपनी अलग पहचान रखता है। समस्त भारत उस दर्द दीवानी की माधुर्य भक्ति से ओत-प्रोत रससिक्त वाणी से आप्लावित है। अपने नारी व्यक्तित्व की स्वतंत्र पहचान निर्मित करने वाली तथा युग की विभीषिकाओं के विरूद्ध संघर्षशील विद्रोहिणी मीरा का जन्म राजस्थान में मेड़ता कस्बे के कुड़की ग्राम में हुआ था। मीरा कृष्ण की अनन्य उपासिका थी। भक्ति भावना के आवेश में उन्होंने जिन पदों का गान किया है वे इस तरह से हैं - गीत गोविद की टीका, राग गोविन्द, नृसिंह जी को मायरो। मीरा की भक्ति-भावना माधुर्य भाव की रही है। आध्यात्मिक दृष्टि से वो कृष्ण को अपना पति मानती है। मीरा अपने कृष्ण प्रेम की दीवानी हैं। उन्होंने अपनी इस प्रेम बेलि की आंसुओं के जल से सिंचाई की है। जैसे ''म्हां-गिरधर रंगराती'' पंचरंग चोला पहेरया, सखि म्हां झरमट खेलण जाति। कृष्ण के प्रति भक्ति-भावना का बीजारोपण मीरा में बचपन में ही हो गया था। किसी साधु से मीरा ने कृष्ण की मूर्ति प्राप्त कर ली थी। विवाह होने के बाद वह उस मूर्ति को भी अपने साथ चित्तौड़ ले गई थी। जयमल वंश प्रकाश के अनुसार मीरा अपने शिक्षक पंडित गजाधर को भी अपने साथ चित्तौड़ ले गई थी और दुर्ग में मुरलीधर का मंदिर बनवाकर सेवा और पूजा आदि का समस्त कार्य गजाधर को सौंप दिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी मीरा कृष्ण की पूजा तथा अर्चना करती रही, परंतु मीरा के विधवा होते ही उस पर जो विपत्तियों के पहाड़ टूटे, उससे उसका मन वैराग्य की ओर उन्मुख हो गया। ज्यों ज्यों मीरा को कष्ट दिये गये, मीरा का लौकिक जीवन से मोह समाप्त होता गया और कृष्ण भक्ति में उनकी निष्ठा बढ़ती गई। वह कृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर अमर सुहागिन बन गई। मीरा की आध्यात्मिक यात्रा तीन सोपानों से गुजरती है। प्रथम सोपान, प्रारंभ में उसका कृष्ण के लिए लालायित रहने का है। इस अवस्था में वह व्यग्रता से गाती हैं। 'मैं विरहणि बैठी जांगू, जग सोवेरी आलि' और कृष्ण मिलन की तड़प से बोल उठती हैं ''दरस बिन दुखण लागे नैन''। द्वितीय सोपान यह है कि जब कृष्ण भक्ति से उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाती है और वह कहती है, ''पायो जी, मैंने राम रतन धन पायो।'' मीरा के ये उद्गार उनकी प्रसन्नता के सूचक हैं और इसी तरंग में वह कह उठती है ''साजन म्हारे घरि आया हो, जुगा जुगारी जीवता, विरहणि पिय पाया हो''। तृतीय एवं अंतिम सोपान वह है, जब उन्हें आत्म बोध हो जाता है जो सायुज्य भक्ति की चरम सीढ़ी हैं। वह अपनी भक्ति में सखय भाव से ओत-प्रोत होकर कहती हैं ''म्हारे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोई''। मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाती है। 16वीं सदी में भक्ति की जिस धारा का उद्गम मीरा ने किया था, आज भी वही भक्ति धारा उसी प्रथा से प्रवाहित हो रही है। वास्तव में मीरा नारी संतो में ईश्वर प्राप्ति हेतु लगी रहने वाली साधिकाओं में प्रमुख थी और शायद है। उनकी भक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अन्य भक्तों के लिए मार्ग-निर्देशन करता रहा है। मीरा के काव्य में सांसारिक बंधनो का त्याग और ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव दृष्टिगत होता है। उनकी दृष्टि में सुख, वैभव, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि सभी मिथ्या है। यदि कोई सत्य है तो वह है- ''गिरधर गोपाल''। मीरा के विचार अतीत और वर्तमान से संबद्ध होकर भी मौलिक थे। परंपरा-समर्पित होकर भी पूर्णतः स्वतंत्र थे, व्यापक होकर भी सर्वथा व्यक्तिनिष्ठ थे। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे ! बाल्यकाल से ही मीरा में भगवत भक्ति के संस्कार जागृत होने लगे थे। वे अपनी सहेलियों के साथ खेल खिलवाड़ में भी ठाकुर जी की पूजा, ब्याह, बारात और नित्य नवीन उत्सव का खेल खेलती थीं। उनके हृदय मंदिर में बचपन से ही ऐसे अलौकिक प्रेमानुराग की छटा छिटकने लगी थी, जिसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता था। कृष्ण मूर्ति के लिए हठ : जब मीरा केवल दस वर्ष की थी, उनके घर अभ्यागत बन कर आये संत के पास श्रीकृष्ण की एक मूर्ति थी। जब वे उसकी पूजा करने लगे, मीराबाई भी उस समय उनके पास जा बैठी। बाल-सुलभ मीरा का मन मूर्ति के सौंदर्य पर आकृष्ट हो गया। उन्होंने साधु से पूछा, 'महाराज, आप जिनकी पूजा कर रहे हैं, इनका क्या नाम है?' साधु ने उत्तर दिया 'वह गिरधर लाल जी हैं।' मीरा ने कहा 'आप, इन्हें मुझे दे दीजिए।' इससे वह साधु बड़ा रूष्ट हुआ और वहां से चला गया। मीरा ने मूर्ति प्राप्त करने के लिए हठ किया और वह अन्न जल सब छोड़ बैठी। घर के लोग परेशान हो गये। जब मीरा ने लगातार सात दिन कुछ नहीं खाया, तब उस साधु को भगवान ने स्वप्न में मूर्ति मीरा को देने का आदेश दिया। साधु ने वैसा ही किया। गिरधरलाल जी की मूर्ति पाकर मीरा अत्यंत प्रसन्न हुई और नितनेम के साथ आठों याम उसकी पूजा अर्चना करने लगीं। एक दिन मीरा ने एक बारात देखी। अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे, दूल्हा पालकी में बैठा था। मीरा ने घर वालों से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है? उत्तर मिला - गिरधर लाल जी ही तुम्हारे पति हैं। उसी दिन से मीरा ने भगवान कृष्ण को ही अपना पति मान लिया। वे उसी दिन से मग्न होकर गाने लगीं। ''मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई॥ मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाती हैं, 16वीं सदी में भक्ति की जिस धारा का उद्गम मीरा ने किया था, आज भी वही भक्ति धारा उसी प्रथा से प्रवाहित हो रही है। वास्तव में मीरा ईश्वर भक्ति की लगन वाली साधिकाओं में उनका नाम सर्व प्रमुख है।

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Friday 25 March 2016

वास्तु अनुसार पूजा स्थान का निर्माण कैसे कराएं

भवन में पूजा घर उत्तर-पूर्व में ही रखना क्यों अधिक लाभप्रद है ?
पूजा घर हमेषा उत्तर-पूर्व दिषा अर्थात् ईषान कोण में ही बनाना चाहिए क्योंकि उत्तर-पूर्व में परमपिता परमेष्वर अर्थात ईष्वर का वास होता है। कहा जाता है कि देवी लक्ष्मी, भगवान विष्णु के साथ उत्तर-पूर्व म निवास करती हैं। साथ ही ईषान क्षेत्र में देव गुरू बृहस्पति का अधिकार है जो कि आध्यात्मिक चेतना का प्रमुख कारक ग्रह है। प्रातःकाल उत्तर-पूर्व भाग या ईशान कोण में पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा तथा वायु मंडल और ब्रह्मांड से मिलने वाले ऊर्जा एवं शक्तियों का अनूकूल प्रभाव मिलता है। फलस्वरूप आध्यात्मिक एवं मानसिक शक्तियों में सकारात्मक वृद्धि होती है।
पूजाघर, रसोईघर में क्यों नहीं रखना चाहिए
पूजाघर कभी भी रसोईघर के साथ नहीं बनाना चाहिए। प्रायः लोग रसोईघर में ही पूजाघर बना लेते हैं जो उचित नहीं है। रसोईघर में प्रयोग होनेवाली वस्तुएं मिर्च-मसाला, गैस, तेल, कांटा, चम्मच, नमक आदि मंगल की प्रतीक वस्तुएं हैं। मंगल का वास भी रसोईघर में ही होता है। उग्र ग्रह होने के कारण मंगल उग्र प्रभाव में वृद्धि कर पूजा करने वाले की शांति एवं सात्विकता मे कमी लाता है। भगवान भाव एवं सुगंध के भूखे होते हैं। रसोईघर में सात्विक एवं निरामिष दोनां प्रकार का भोजन पकाते है जिसका सुगंध एवं दुर्गंध भगवान को मिलती है, जो कि उनके प्रति व्यवहार ठीक नहीं है, इससे देवता श्राप देते हैं। अतः पूजाघर में रसोई बनाने से आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पाता।
पूजाघर, शौचालय के सामने क्यों नही रखना चाहिए?
पूजाघर, टायलेट के सामने नहीं होना चाहिए क्योंकि टायलेट पर राहु का अधिकार होता है जबकि पूजा स्थान पर बृहस्पति का अधिकार है। राहु अनैतिक संबंध एवं भौतिकवादी विचारधारा का सृजन करता है। साथ ही राहु की प्रवृत्तियां राक्षसी होती हैं जो पूजाकक्ष के अधिपति ग्रह बृहस्पति के सात्विक गुणों के प्रभाव को कम करती है जिसके फलस्वरूप पूजा का पूर्ण अध्यात्मिक लाभ व्यक्ति को नहीं मिल पाता। पूजा कक्ष सीढ़ियों के नीचे भी नहीं रखना चाहिए।
गणेश जी की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
गणेश जी की स्थापना दक्षिण दिषा में करनी चाहिए। इससे उनकी दृष्टि उत्तर की तरफ रहेगी, उत्तर मे हिमालय पर्वत है और उसपर गणेष जी के माता-पिता अर्थात् शंकर-पार्वती जी का वास स्थान है। गणेष जी को अपने माता पिता की तरफ देखना बड़ा अच्छा लगता है इसलिए गणेषजी की मूर्ति दक्षिण दिषा में रखी जानी चाहिए। गणेष जी की स्थापना पष्चिम दिषा में कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि गणेष जी मंगल के प्रतीक और पष्चिम दिषा का स्वामी शनि है। इस तरह मंगल व शनि एक साथ हो जाएंगे जिससे घर में परेषानियां एवं मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी।
अन्य देवताओं की स्थापना किन दिशाओं में करना लाभप्रद होता है?
पूजाघर में ब्रह्मा, विष्णु, षिव, कात्र्तिकेय, सूर्य एवं इन्द्र को इस तरह स्थापित करना चाहिए कि पूजा करते समय व्यक्ति का मूंह पूर्व या पष्चिम की ओर हो। अर्थात् इन सभी देवी देवताओं की स्थापना की सही दिषा पूर्व या पष्चिम है। देवी देवताओ की मूत्र्तियां दिषा वाली दीवार पर नहीं लगानी चाहिए अन्यथा वे दक्षिणाभिमुख हो जाएंगी। साथ ही उत्तर मे उत्तर होता है, अतः दोनों का एक दिषा में रहना ठीक नहीं रहेगा। कुबेर का स्थान उत्तर दिषा है। लक्ष्मी उत्तर-पूर्व में रहती हैं। सरस्वती पष्चिम दिषा में निवास करती हैं। इसलिए पश्चिम दिषाओं में बैठकर सरस्वती जी की पूजा की एवं उत्तर-पूर्व में बैठकर लक्ष्मी जी की पूजा हमेषा करनी चाहिए।
पूजा कक्ष में द्वार कहाँ पर होनी चाहिए?
पूजा कक्ष का द्वार हमेषा कक्ष के मध्य में स्थित होनी चाहिए। लेकिन मूत्र्तियां द्वार के ठीक सामने हैं तो द्वार पर परदा रखना आवष्यक है। पूजा कक्ष का प्रवेष द्वार पूर्व की ओर तथा निकास उŸार दिषा की ओर होना चाहिए जिसके फलस्वरूप उस घर में निवास करने वाले लोगों के नाम और यष में वृद्धि होती है तथा विषिष्ट व्यक्ति के रूप में उनकी पहचान बनती है। यदि पूजा कक्ष का द्वार उत्तर-पूर्व दिषा में हो तथा उसमें आना जाना उत्तर-पूर्व दिषा से ही होता हो तो सूर्य कि किरणों और चुंबकीय प्रभाव से धन दौलत के साथ-साथ चहुंमुखी सुख की प्राप्ति होती है क्योंकि कुछ देवी देवता इन्द्र के रास्ते पूर्व से पूजन कक्ष या मंदिर में प्रवेष करना पसंद करते हैं तथा कुछ देवी देवता उत्तर या उत्तर-पूर्व के रास्ते पूजन कक्ष में प्रवेष करना पसंद करते हैं। वरूण एवं वायु देवता हमेषा पष्चिम-उत्तर के रास्ते प्रवेष करते हैं इसलिए इन स्थानों से भी प्रवेष द्वार रखना शुभ फलदायी है। दक्षिण-पूर्व के रास्ते यज्ञ के देवता अग्नि देव प्रवेष करते हैं अतः इस कारण से इस ओर का द्वार भी अच्छा माना गया है। इन सिद्धांतों को अपनाने से पूजन कक्ष की गरिमा बढ़ती है तथा वहां पर देवी देवता शुभ फल प्रदान कर मानसिक एवं आध्यात्मिक सुख समृद्धि प्रदान करते हंै।
पूजा कक्ष में किन देवी देवताओ ं को रखना विशेष लाभप्रद होता है?
घर में विष्णु, लक्ष्मी, राम-सीता, कृष्ण, एवं बालाजी जैसे सात्विक एवं शांत देवी देवता का यंत्र, मूत्र्ति एवं तस्वीर रखना लाभप्रद होता है। पूर्व में भगवान का मंदिर तथा पष्चिम में देवी मंदिर नाम, ऐष्वर्य एवं धन-दौलत देने वाला बनता है। पूजा घर में मूत्र्तियां एक दूसरे की ओर मुख करके नहीं रखनी चाहिए।
पूजा कक्ष मे मूर्ति खंडित होने पर क्या करना चाहिए ?
 पूजाघर में किसी भी प्रकार से अंष मात्र भी इष्ट प्रतिमा खंडित हो गयी हो तो कितनी ही बहुमूल्य क्यों न हो पूजन योग्य नहीं होती। ऐसी स्थिति होने पर उन्हे ं पवित्र जल में विधि विधान से विसर्जित कर देनी चाहिए। साथ ही किसी प्राचीन मंदिर से लाई गई खंडित मूर्ति भी नहीं रखना चाहिए। देवी देवताओं की प्रतिमा पर से उतरे हुए सूखे पुष्प, माला तथा हवन, धूप आदि की राख, सफाई में निकला अवषेष जल, नारियल के टुकडे़, पुराने वस्त्र आादि को अनावष्यक समझ फेंकने के बजाय तेज बहते जल में विसर्जित कर देना चाहिए।

दाह संस्कार :अंतिम संस्कार

हिंदू धर्म में मृत्यु को जीवन का अंत नहीं माना गया है। मृत्यु होने पर यह माना जाता है कि यह वह समय है, जब आत्मा इस शरीर को छोड़कर पुनः किसी नये रूप में शरीर धारण करती है, या मोक्ष प्राप्ति की यात्रा आरंभ करती है । किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद मृत शरीर का दाह-संस्कार करने के पीछे यही कारण है। मृत शरीर से निकल कर आत्मा को मोक्ष के मार्ग पर गति प्रदान की जाती है। शास्त्रों में यह माना जाता है कि जब तक मृत शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्रों के अनुसार किये जाने वाले सोलह संस्कारों में से अंतिम संस्कार दाह संस्कार है। यह संस्कार दो प्रकार से किया जाता है 1. जब मृत शरीर उपलब्ध हो जब मृत शरीर उपलब्ध हो तो निम्न प्रकार से दाह संस्कार क्रिया करनी चाहिए- व्यक्ति की मृत्यु के बाद पुत्र या पौत्र को मरे हुए प्राणी को कंधा देना चाहिए। तथा उसका निम्न विधान से अग्निदाह करना चाहिए। मृत्यु के पश्चात् सबसे पहले भूमि को गोबर से लिपना चाहिए। जल रेखा से मंडल बनाना चाहिए। इसके बाद तिल और कुश बिछाकर व्यक्ति को कुश पर सुला देना चाहिए तथा उसके मुख में स्वर्ण तथा पंचरत्न डालना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति अपने सभी पापों से मुक्त हो जाता है। मंडल युक्त भूमि पर प्राण त्याग करने से व्यक्ति को अन्य योनि प्राप्त करने में सहजता रहती है अन्यथा उसकी आत्मा वायुलोक में भटकती रहती है। मृत्युकाल में मरनासन्न व्यक्ति के दोनों हाथों में कुश रखना चाहिए। इससे प्राणी विष्णुलोक को प्राप्त करता है। व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर, पुत्रादि तथा परिजनों को स्वयं स्नान करने के बाद शव को शुद्ध जल से स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाकर, उसके बाद शरीर में चंदन आदि सुगंधित पदार्थों का लेप भी करना चाहिए। दाह संस्कार के अंतर्गत छः पिंड देने का विधान है। पहला पिंड मृत्यु स्थान पर, दूसरा द्वार पर, तीसरा चैराहे पर, चैथा विश्रामस्थान, पांचवां चिता, और छठा संचयन के समय। इसके बाद शव को बंधु-बांधवों को श्मशान घाट ले जाना चाहिए और वहां शव को दक्षिणी दिशा की ओर सिर करके स्थापित करना चाहिए। दाहक्रिया के लिए पुत्रादि-परिजनों को तृण, काष्ठ, तिल और घी लेकर जाना चाहिए। श्मशान घर में दाह संस्कार के सभी कार्य दक्षिणामुखी होकर करना चाहिए। दाह संस्कार करने से पूर्व स्वच्छ भूमि पर अग्नि स्थापित कर, शव को चिता में जलाने का उपक्रम करना चाहिए। जब शव के शरीर का आधा भाग चिता में जल जाए तो उस समय कर्ता तिलमिश्रित घी की आहुति चिता में जल रहे शव के ऊपर छोड़ना चाहिए। उसके बाद भाव विह्वल होकर उस आत्मीय जन के लिए रोना चाहिए। इस प्रकार करने से मृतक को अत्यधिक सुख प्राप्त होता है। दाह क्रिया करने के बाद अस्थि-संचयन क्रिया की जानी चाहिए। इसके बाद किसी जलाशय पर जाकर सभी परिजनों को वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए तथा दक्षिणामुखी होकर मृत प्राणी के लिए तिलयुक्त जलांजलि देनी चाहिए। शवदाह जलांजलि के बाद स्वजनों को अश्रुपात नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में ऐसा माना जाता है कि इस समय रोते हुए अपने बंधु बांधवों के द्वारा आंख और मुंह से गिराए हुए आंसू और कफ का मृतक को पान करना पड़ता है। घर के द्वार पर पहुंचने पर नीम की पत्तियों को दांत से काटकर आचमन करें तथा बाद में घर में प्रवेश करें। दाह संस्कार मुहूर्त जब मृत शरीर उपलब्ध होता है तो दाह संस्कार के लिये मुहूर्त चयन की आवश्यकता नहीं होती है। केवल जब किसी के मृत शरीर का दाह-संस्कार पंचक के नक्षत्र समय में करना हो तो मुहूर्त समय का प्रयोग किया जाता है। पंचक नक्षत्रों में धनिष्ठा के अंतिम दो चरण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद व रेवती आते हैं। इन पांच नक्षत्रों में मृत्यु होने पर दाह-संस्कार से पूर्व पंचक शांति करानी होती है। 2. जब मृत शरीर उपलब्ध हो जब किसी व्यक्ति की मृत्यु भूख से, हिंसक प्राणी के द्वारा, फांसी के फंदे, विष से, अग्नि से, आत्मघात से, गिरकर, रस्सी बंधन से, जल में रखने से, सर्प दंश से, बिजली से, लोहे से, शस्त्र से या विषैले कुत्ते के मुख स्पर्श से हुई हो तो इसे दुर्मरण कहा जाता है। इन सभी स्थितियों में मृत्यु को सामान्य नहीं माना जाता और मृत्यु पश्चात् दाह संस्कार के लिए पुतला दाह संस्कार विधि का प्रयोग किया जाता है। यही विधि प्रवास में मृत्यु होने पर भी अपनाई जाती है। इस प्रकार की स्थिति तभी सामने आती है, जब सामान्यतः अप्राकृतिक मृत्यु होती है। जिसमें या तो शरीर किसी कारण वश नष्ट हो जाता है, अथवा प्राप्त ही नहीं होता है। इन स्थितियों में कुशा (एक प्रकार की घास), पलाश और चावल के आटे का पुतला बनाकर उसका दाह संस्कार किया जाता है। पुतला दाह-संस्कार अर्थात पुतले के दाह-संस्कार के लिये मुहूर्त चयन की निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाती है:- क) जब मृत्यु की सूचना सूतक (अशुद्धता) के दौरान प्राप्त होती है सूतक समय स्थान विशेष की रीति-रिवाज अनुसार सूतक, मृत्यु के दस से 16 दिन के अंदर समाप्त हो जाता है। यदि मृत्यु की सूचना इन दिनों के बीच ही प्राप्त हो जाती है तो पुतला-दाह पंचक के नक्षत्र समय को छोड़कर किसी भी समय किया जा सकता है। ख) जब मृत्यु की सूचना सूतक के पश्चात् अर्थात 16 दिनों से एक वर्ष के मध्य प्राप्त होती है, तो पुतला-दाह के मुहूर्त चयन के लिये निम्नलिखित बातों का विचार करना आवश्यक होता है। 1. पुतला दाह-संस्कार नक्षत्र पुतले का दाह-संस्कार करने के लिये श्रवण, हस्त, अश्विनी और पुष्य नक्षत्र सबसे अच्छे माने जाते हैं। इसके बाद उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी, पुनर्वसु, विशाखा, मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठा नक्षत्र पुतला दाह- संस्कार के लिये मध्यम श्रेणी के नक्षत्र होते हैं। 2. पुतला दाह - संस्कार वार यह कार्य करने के लिये रविवार, सोमवार व गुरुवार को लिया जा सकता है। 3. दाह संस्कार त्याज्य समय पुतला दाह - संस्कार कार्य के लिये भद्रा त्याज्य है। दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति का जन्म व प्रत्यारि तारा (जन्म नक्षत्र वाला तारा, 5वां, 10वां, 14वां, 19वां व 23वां तारा त्याज्य होता है व दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति के जन्म चंद्रमा से गोचर के चंद्रमा की स्थिति 4, 8, 12 वें भावों में भी नहीं होनी चाहिए। शुक्रवार, मंगलवार, शनिवार नहीं लेना चाहिए। तिथियों में 1, 6, 11, 13, 14 तिथियां, त्रिपुष्कर योग, अधिमास, गुरु व शुक्र का अस्त होना और शुक्ल पक्ष का भी परित्याग करना चाहिए। साथ ही सब क्रूर नक्षत्रों अर्थात पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वा आषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपद, भरणी व मघा आदि नक्षत्रों के अतिरिक्त तीक्ष्ण नक्षत्र अर्थात (मूल, ज्येष्ठा, आद्र्रा व आश्लेषा और रेवती) को भी त्याग देना चाहिए। 4. जब मृत्यु की सूचना एक वर्ष बाद प्राप्त हो जब मृत्यु की सूचना एक वर्ष के उपरांत प्राप्त हो, तो ऐसी स्थिति में पुतला दाह-संस्कार उत्तरायण में ही करना चाहिए और पुतला दाह के मुहूर्त चयन के लिए उन सभी बातों का विचार आवश्यक रूप से करना चाहिए जिन्हें ऊपर (ख) में बताया गया है।

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