Thursday 7 April 2016

जाति-आधारित संरचना में बदलाव

भारत का संविधान जाति को अशक्तता या भेदभाव के स्रोत के रूप मेंं देखता है और असमानता की इस रूढ़ि को जड़ से मिटाने के लिए संविधान मेंं कुछ व्यवस्थाएँ भी की गई हैं. यह परिकल्पना की गई है कि भारत के सामाजिक जीवन मेंं जाति व्यवस्था एक अपवाद है, जो धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी.दूसरे शब्दों मेंं, संविधान भारतीय नागरिक को एक जाति-विहीन नागरिक के रूप मेंं स्वीकार करता है और किसी भी प्रकार के जातिसूचक संबंधों को स्वीकार नहीं करता. यद्यपि संविधान मेंं जाति के आधार पर असमानता को मिटाने का संकल्प स्पष्ट है,लेकिन भारत के सामाजिक जीवन मेंं जातिगत समूहों की हैसियत के बारे मेंं संविधान मेंं स्थिति स्पष्ट नहीं है. परंतु जाति के आधार पर गणना के निर्णय से जातिगत समूहों –विशेषकर अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) जैसे निम्न वर्गों को- कानूनी मान्यता मिल जाएगी और इससे कानूनी तौर पर जातिगत आधार पर राजनैतिक गतिविधियों को बल मिलेगा. इसका अर्थ यह होगा कि भारत कानूनी तौर पर एक जातिगत समाज बन जाएगा. भारत का संभ्रांत वर्ग इस निहितार्थ से सकते मेंं है और इसके परिणामस्वरूप होने वाले व्यापक सामाजिक कायाकल्प और उससे कानूनी तौर पर मिलने वाली जातिगत समाज की सामाजिक स्वीकृति से बेहद आशंकित है.
यह दृष्टि भी नई नहीं है कि भारतीय समाज एक जातिगत समाज है. दलित और अन्य जाति-विरोधी सामाजिक आंदोलनों की यह मान्यता रही है कि भारतीय समाज के मूल मेंं जातिगत व्यवस्था है. ब्रिटिश काल मेंं फुले और अम्बेडकर ने मुखर रूप मेंं यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि भारतीय समाज मेंं जाति के आधार पर ही हैसियत,सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का निर्धारण होता है. आपात् काल के बाद नई पीढ़ी के दलित लेखकों, आलोचकों, विद्वानों और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने न केवल इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत एक जातिमूलक समाज है, बल्कि जाति की नई अवधारणा भी की थी. उन्होंने समाज मेंं विभाजन करने वाली संभ्रांत वर्ग की एक इकाई वाली जातिमूलक अवधारणा की न केवल आलोचना की, बल्कि उसे सिरे से नकार भी दिया और हिंसा के दैनंदिन के अनुभवों के स्रोत और गतिशीलता की पहचान के लिए जाति की नई अवधारणा को जन्म दिया. वस्तुत: जाति को राष्ट्रीय वर्ग के रूप मेंं मान्यता दिलाने के लिए जबर्दस्त दबाव की शुरूआत उस समय हुई जब 1970 और 1980 के दशकों मेंं दलितों के सामूहिक नरसंहार के संदर्भ मेंं समकालीन दलित आंदोलन का उदय हुआ. दलितों पर होने वाले अत्याचारों के संदर्भ मेंं ही कॉन्ग्रेस सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 बनाए. इन अधिनियमों से जाति के कानूनी दृष्टिकोण मेंं महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ. जहाँ एक ओर अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 ने ‘‘अस्पृश्यता’’ को जातिमूलक न मानकर अशक्तता का एक कारण माना, वहीं अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम,1989 ने ‘‘जाति’’ को अत्याचार और जाति संबंधी अत्याचार का मूल कारण मानते हुए राष्ट्रीय अपराध माना. 1991 से 1993 के दौरान मंडल आंदोलन के समय जनता के दबाव मेंं आकर उच्चतम न्यायालय ने भी जाति को राष्ट्रीय इकाई (इंद्रा साहनी बनाम भारतीय संघ, 1992) के रूप मेंं कानूनी मंजूरी दे दी. इसलिए जनगणना 2011 मेंं जाति-आधारित गणना की माँग दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) ने की है. ये वर्ग समकालीन समाज मेंं सामाजिक समूह के रूप मेंं उभरकर संगठित हो गए हैं और अब एक शक्तिशाली वर्ग के रूप मेंं काम कर रहे हैं.
भारत का संभ्रांत वर्ग भारत को एक समरसता पूर्ण और तटस्थ इकाई के रूप मेंं देखने का आग्रह बनाए रखना चाहता है जिसमेंं किसी प्रकार का वर्गभेद न हो. भारतीय नागरिकों (मेरी जाति हिंदुस्तानी) का यह विशेष वर्ग है. यह वर्ग अंग्रेज़ी मेंं शिक्षित शहरी लोगों का एक छोटा-सा वर्ग है, जिसमेंं मुख्यत: ऊँची जाति के बुद्धिजीवी और कुछ राजनीतिज्ञ शामिल हैं. यह वर्ग जाति को विभाजक तत्व और एक बुराई के रूप मेंं देखता है.इस वर्ग मेंं कुछ उदार विचारधारा के बुद्धिजीवियों के साथ-साथ वामपंथी बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जो यह मानते हैं कि जाति के आधार पर जनगणना से भारत के सार्थक और पूर्ण लोकतांत्रिक समाज के रूप मेंं विकसित होने मेंं अवरोध उत्पन्न होगा. वे यह मानते हैं कि जाति व्यवस्था पर की जाने वाली बहस अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के आरक्षण या अन्य नीतिगत मामलों तक ही सीमित है.ये दोनों संभ्रांत वर्ग अपने-आपको जातिविहीन (अर्थात् सच्चे भारतीय) और दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लोगों को जातिपरक लोग ही मानते हैं. वे यह नहीं मानते कि विभिन्न जातियों की मान्यता और देश मेंं विभिन्न सामाजिक वर्गों का अस्तित्व अपने-आप मेंं ही एक महत्वपूर्ण निर्णय है.
हमेंं जाति की महत्वपूर्ण अवधारणाओं के संबंध मेंं दलितों की आलोचना पर ध्यान देना चाहिए. दलितों के साहित्यिक लेखक, कार्यकर्ता और अकादमीय विद्वान् रोज़मर्रे के भेदभाव, हिंसा के विभिन्न प्रकार के क्रूर रूपों और अमानवीयता और असमानता को जाति व्यवस्था का मूल स्रोत मानते हैं.
साथ ही ये लेखक अपने अनुभव के आधार पर जाति की भूमिका को उजागर करते हुए कहते हैं कि हैसियत, जातिगत अहंकार, सामाजिक मान-सम्मान और सत्ता का मूल आधार जाति ही है और इस धारणा को निरस्त कर देते हैं कि धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के नागरिक जातिविहीन हैं. वे जाति के इस ऐकांतिक और प्रभावी दृष्टिकोण को भी चुनौती देते हैं कि सामाजिक विभाजन का एकमात्र साधन जाति ही है और नीची जाति के लोगों की पहचान केवल जाति से ही है.अकादमीय पंडित इस बात पर हैरत मेंं पड़ जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन मेंं और चुनावी मैदान मेंं जाति की पहचान को ज़ोर देकर रेखांकित किया जाता है. जाति के रेखांकन के इन नए तरीकों से यह सवाल उठता है कि भारत मेंं सामाजिक परिवर्तन को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए कदाचित् जाति की अवधारणा ही एकमात्र महत्वपूर्ण साधन है और साथ ही मूल बिंदु भी है.
भारत की जनगणना भारत की पहचान को दर्शाने का मूलभूत साधन है. केंद्र सरकार का यह दावा है कि भारत की जनगणना से व्यापक जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक आँकड़े प्राप्त होते हैं और ‘‘यह गाँव, कस्बे और वार्ड के स्तर पर प्राथमिक आँकड़े प्राप्त करने का एकमात्र स्रोत है’’. ये आंकड़े संसद, विधानसभा, पंचायत और अन्य स्थानीय निकायों के स्तर पर चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन / आरक्षण के आधार हैं. परंतु 1931 के बाद से इन महत्वपूर्ण आँकड़ों मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. जनगणना के वर्गों मेंं केवल धार्मिक समुदायों, भाषिक समूहों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी और पुरुष-स्त्री अनुपात का ही समावेश है. अपवाद के रूप मेंं जाति का रिकॉर्ड अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान के लिए रखा जाता है. जनता के अन्य वर्गों के संदर्भ मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. इस प्रकार भारतीय जनगणना सच्चे अर्थों मेंं ‘‘भारतीय’’ ही रहती है.
राष्ट्रीय जनगणना के प्रतीकात्मक और राजनैतिक महत्व को देखते हुए और राष्ट्रीय जनगणना मेंं जाति के आँकड़ों के अभाव को देखते हुए सन् 2001 मेंं जाति के समावेश की माँग उठाई गई. तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया. इस बार दलित समाज के लोग भारतीय जनगणना के समरसता पूर्ण और एकपक्षीय दृष्टिकोण को चुनौती देने के लिए कटिबद्ध हैं और यह तर्क देते हैं कि भारत मेंं विविध सामाजिक वर्गों के अस्तित्व को मान्यता दी जाए. जनगणना मेंं राष्ट्रीय वर्गों को समग्र रूप मेंं दर्शाया गया है और भारत को एक जातिगत समाज के रूप मेंं फिर से परिभाषित करना राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. दलित और अन्य कुचले हुए जातिगत समूह भारत जैसे आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र की संस्थाओं से जुडऩे का महत्व अब समझने लगे हैं. इसलिए जाति के आधार पर जनगणना की माँग का उनके लिए रणनीतिक महत्व है. वे निश्चय ही भूमि वितरण कार्यक्रम के रूप मेंं या फिर जनगणना की नई रूपावली के रूप मेंं क्रांति के लिए भी सन्नद्ध हैं. लेकिन वे न तो अब व्यापक सामाजिक कायाकल्प की परियोजनाओं की प्रतीक्षा कर सकते हैं और न ही ठीक अभी संपूर्ण जनगणना प्रक्रिया को पूरी तरह से पुनर्निर्मित करने मेंं सक्षम हैं.
जनगणना मेंं न केवल अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की बल्कि ‘‘हर परिवार के प्रत्येक सदस्य की जाति’’ की गणना से भारत जातिगत समाज बन जाएगा और इससे अनेक नए सवाल उठेंगे. जनगणना से कुछ जातिगत समूहों की विशेषाधिकार की हैसियत और उनकी संख्या का भी साफ़-साफ़ पता चल जाएगा. व्यापक जातिगत आँकड़ों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के प्रत्येक वर्ग के लिए आरक्षण के प्रतिशत की माँग भी बढ़ सकती है और आरक्षण की वर्तमान 50 प्रतिशत की सीमा को भी चुनौती दी जा सकती है.
नए जातिगत समूह आरक्षण और कल्याण योजनाओं से कहीं अधिक की माँग कर सकते हैं और भूमि, संपत्ति और सत्ता के पुनर्वितरण की नई माँग कर सकते हैं. कई मायावतियाँ हो सकती हैं जो संख्या के खेल मेंं निपुण हैं और राष्ट्रीय चुनाव के दृश्य को पूरी तरह से बदलने मेंं सक्षम हैं. जाति के आधार पर गणना से एक ऐसी सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू होगी जिससे अकादमीय क्षेत्र से अलग सार्थक जन-संवाद के माध्यम से जाति का गैर-अनिवार्यीकरण और राजनीतिकरण मथकर ऊपर आ जाएगा. इस प्रक्रिया से जातिगत तनाव भी बढ़ सकता है और नए शासक वर्ग (अन्य पिछड़े वर्गों को मिलाकर) का उदय हो सकता है और भारत के संभ्रांत वर्ग से जुड़े वर्तमान शासक वर्ग का पूरी तरह खात्मा हो सकता है. लोकतंत्रीकरण की इस प्रक्रिया मेंं बहुत-से अंतर्विरोध और विस्मयपूर्ण बातें होंगी और भारत का संभ्रांत वर्ग अभी इस कायाकल्प के लिए तैयार नहीं है.
सरकार मेंं आरक्षण और शिक्षण संस्थाओं, नौकरी मेंं आरक्षण दो अलग अलग मुद्दे हैं। पंचायत मेंं अथवा संसद मेंं महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए जो आरक्षण दिया गया है तथा इस दिशा मेंं जो प्रयास किए जा रहे हैं वो उचित हैं। वह इसलिए कि सरकार का तो काम ही होता है कि वह लोगों का प्रतिनिधित्व करे। इसलिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अगर लिंग, समुदाय या क्षेत्र आधारित आरक्षण दिया जाता है तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। पर यही बात नौकरी या शिक्षण संस्थाओं मेंं दिए जाने वाले आरक्षण के बारे मेंं नहीं कही जा सकती।
इंजीनियरिंग या मेंडिकल आदि उच्च शिक्षण संस्थाओं तथा नौकरी मेंं चयन का आधार खुली प्रतिस्पर्धा मेंं समान मानकों पर प्रदर्शन होता है। इसके अलावा और किसी भी आधार पर अगर वहां चयन किया जाएगा तो उसका प्रदर्शन और कार्यकुशलता पर विपरीत असर तो पड़ेगा ही। शुरू मेंं जरूर ऐसा लग सकता है कि कुछ वंचित समुदायों को आगे बढ़ाने मेंं हमने सफलता हासिक की है, पर दीर्घावधि मेंं तो इसके दुष्परिणाम ही होते हैं। इससे समाज बंटता है तथा सामाजिक विभाजन और मजबूत होते हैं। भारत मेंं आरक्षण व्यवस्था की जो भी थोड़ी बहुत समीक्षा हुई है, उसके निष्कर्ष यही हैं। वर्तमान आरक्षण व्यवस्था के दुष्परिणाम समझने के लिए हमेंं कुछ साल पीछे जाना होगा।
इंजीनियरिंग और मेंडिकल कॉलेजों मेंं 2006के दौरान ‘‘यूथ फॉर इक्वैलिटी’’ के बैनर तले कई माह तक चले आंदोलन को याद कर सकते हैं जिसमेंं कई छात्रों ने आत्मदाह भी किया था। जिसके बाद इस संगठन ने कई शिक्षण संस्थाओं मेंं चुनाव भी लड़ा था।
यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था। इसके विपरीत आज जिस तरह से कभी जाट तो कभी किसी अन्य समुदाय को राजनीतिक हानि-लाभ को ध्यान मेंं रखकर आरक्षण दिए जाने की बात की जाती है। योग्यता और कार्यकुशलता को पूरी तरह ताख पर रख दिया गया है। जिसने समुदायों मेंं पारस्परिक वैमनस्य बढ़ाकर सामाजिक एकता को भी चोट पहुंचाई है। अमरीका आदि देशों मेंं भी 'विविधता' को बढ़ावा देने की नीति बनाकर 'अफरमेंटिव एक्शन' के तहत अश्वेत लोगों को नौकरी तथा विशेष रूप से सरकारी ठेकों आदि मेंं प्राथमिकता दी गई थी, वहां भी उसके दूरगामी नकारात्मक असर को देखकर अब उन सबको धीरे धीरे कम किया जा रहा है।
आज तक का अनुभव तो यही कहता है कि नौकरियों अथवा दाखिले मेंं किसी तरह के आरक्षण के बजाए समाज के वंचित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें समर्थनकारी कार्यों के माध्यम से सक्षम बनाने की पहल की जानी चाहिए। उन्हें बेहतर कोचिंग जाने के लिए पैसे दें। अन्य कोई भी समर्थनकारी सहायता चाहे वह सांस्कृतिक-सामाजिक पूंजी के रूप मेंं हो अथवा आर्थिक पूंजी के रूप मेंं हो, दी जा सकती है। पर प्रवेश और नौकरी के लिए तो खुली प्रतिस्पर्धा ही पैमाना होना चाहिए। कई बार सरकारी ठेकों मेंं कुछ समुदायों के लिए आरक्षण की बात भी की जाती है। इसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। इसके बजाए यह हो सकता है कि कुछ समुदायों के लिए ठेके की राशि मेंं 10 या 15 प्रतिशत की रियायत दी जा सकती है, जिससे उन पर आर्थिक बोझ कम आए। पर ठेके की नीलामी तो खुली प्रतिस्पर्धा से ही होनी चाहिए। दीर्घावधि मेंं समाज की एकता और कुशलता दोनों के लिए यही बेहतर है।

भगवत प्रार्थना

महार्षि मार्कण्डेय जी कहते है - भगवन्! आप अंतर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु, परमाराध्य और शुद्ध स्वरूप है। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेद मार्ग के प्रवर्तक हैं। मैंन आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायण को नमस्कार करता हूँ। प्रभो! वेद में आपका साक्षात्कार करने वाला वह शान पूर्ण रूप से विद्यमान है, जो आपके स्वरूप का रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करने का यत्न करते रहने पर भी मोह में पड़ जाते है। आप भी एसे ही लीला विहारी है कि विभिन्न मत वाले आपके सम्बंध में जैसा सोचते-विचरते है, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव में आप देह आदि समस्त उपाधियों में छिपे हुये विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ।
अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन स्वरूप जगत है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुये त्याग पूर्वक भोगते रहो। आसक्त मत हो जाओ, क्योंकि धन-भोज्य-पदार्थ किसका है? अर्थात किसी का भी नहीं है।
हमारे लिये मित्र देवता कल्याणप्रद हो। वरुण कल्याणप्रद हों। चक्षु और सूर्य मंडल के अधिष्ठाता हमारे लिये कल्याणकारी हों, इन्द्र, वृहस्पति हमारे लिये शांती प्रदान करने वाले हो। त्रिविक्रम रूप से विशाल डगों वाले विष्णु हमारे लिये कल्याणकारी हों। ब्रह्म के लिये नमस्कार है। हे वायुदेव! तुम्हारे लिये नमस्कार है, तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा, ऋत के अधिष्ठाता तुम्हे, सत्यनाम सर्वेश्वर, सर्व शक्तिमान परमेंश्वर मेरी रक्षा करे, वह वक्ता की अर्थात आचार्य की रक्षा करे, रक्षा करे, मेरी रक्षा करे और मेरे आचार्य की। भगवान शांतिस्वरूप हैं, शांतिस्वरूप है, शांतिस्वरूप हैं।
जो तेजोमय किरणों के पुंज हैं, मित्र, वरुण तथा अग्नि आदि देवताओं एवं समस्त विश्व के प्राणियों के नेत्र हैं और स्थावर और जंगम सबके अन्तर्यामी आत्मा है, वे भगवान सूर्य आकाश, पृथ्वी, और अंतरिक्ष लोक को अपने प्रकाश से पूर्ण करते हुये आश्चर्य रूप उदित हो रहे हैं।
मैं आदित्य-स्वरूप वाले सूर्य मंडल रथ महान पुरुष को, जो अंधकार से सर्वथा परे, पूर्ण प्रकाश देने वाले और परमात्मा है, उनको जानता हूँ, उन्हीं को जानकर मनुष्य मृत्यु को लाँघ सकता है। मनुष्य के लिये मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा कोई अन्य मार्ग नहीं है।

भारत का ज्ञान शक्ति के रूप में बदलना

विश्व के परिदृश्य पर सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के एक खिलाड़ी के रूप मेंं भारत के उदय के कारण नयी आशाओं और आकांक्षाओं को बल मिला है. आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ अब भारत ज्ञान शक्ति के रूप मेंं, नवोन्मेंष और सृजनात्मक विचारों के केंद्र के रूप मेंं भी उभरने लगा है. लेकिन यही हमारा अभीष्ट मार्ग और मंजिल नहीं है. इसमेंं संदेह नहीं कि भारत के पास इस मंजिल तक पहुँचने के साधन तो हैं, लेकिन जब तक बुनियादी संस्थागत परिवर्तन नहीं होते तब तक इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध शैक्षणिक और अनुसंधान केंद्रों का भारतीय परिदृश्य ज्ञान शक्ति के रूप मेंं भारत को उभरने देने मेंं साफ़ तौर पर रुकावटें पैदा कर रहा है.  इसका प्रमुख कारण अनुसंधान संबंधी इसका बुनियादी ढाँचा और खास तौर पर इसका वर्तमान संस्थागत विन्यास है. ऐतिहासिक तौर पर भारतीय सिगनल व दूरसंचार उद्यम का जन्म पं. नेहरू के उस दृष्टिकोण का परिणाम है, जिसकी देश के विकास मेंं महत्वपूर्ण भूमिका समझी जाती है और जिसकी शुरूआत आज़ादी के बाद एक उछाल की तरह अचानक हुई थी. पं. नेहरू के संरक्षण मेंं मेंघनाथ साहा, विक्रम साराभाई, होमी भाभा और सी.वी. रमन जैसे उस पीढ़ी के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने तेज़ी से देशी वैज्ञानिक समुदाय को तैयार करने और तकनीकी आत्मनिर्भरता और सुविधा को हासिल करने के लिए उच्च प्राथमिकता के आधार पर वैज्ञानिक अनुसंधान को विकसित करने पर ज़ोर दिया था. इसलिए सोवियत संघ के मॉडल के आधार पर विशिष्ट विषयों से संबद्ध कुछ राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को सीमित संसाधन उपलब्ध करा दिये गये थे. संस्थागत टैम्पलेट का यह विकल्प अपनाने के कारण आज हमारी ये संस्थाएँ बहुत दरिद्र हो गयी हैं. इसी आरंभिक ऐतिहासिक दरार के कारण ही विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान को न तो पर्याप्त सहायता और समर्थन मिल सका और न ही संरचनात्मक बदलाव लाये जा सके जो विश्वविद्यालयों को जीवंत बनाने और पुन: आकार देने के लिए आवश्यक थे. इस बीच विश्वविद्यालय प्रणाली के बाहर विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र मेंं अधिकाधिक अनुसंधान संस्थान खुलते चले गये. अनुसंधान को शिक्षण से अलग करने के कारण सबसे अधिक नुक्सान विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध अंत:स्नातकीय शिक्षा को हुआ, जिसमेंं बुनियादी सुधार लाने की आवश्यकता है. शिक्षाशास्त्र को अनुसंधान से अलग करने के कारण ही दोनों ही गतिविधियों को भारी नुक्सान हुआ. पश्च-माध्यमिक शिक्षा मेंं महत्वपूर्ण चिंतन कौशल को विकसित न करने के कारण ही अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम मेंं वह चमक नहीं रही और इसने ही विश्वविद्यालयों के संकाय सदस्यों को विद्वान् न बन पाने के कारण अनेक प्रोत्साहनों से वंचित कर दिया और कुंठाग्रस्त और हताश शिक्षाशास्त्रियों की एक पीढ़ी को भी जन्म दे दिया. दूसरी ओर अधिकांश अनुसंधान केंद्र फलने-फूलने लगे और उनमेंं से कुछ संस्थान तो विश्व स्तर के हो गये. इसके उदाहरण हैं, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामैंटल रिसर्च (टीएफ़आईआर), इंटर युनिवर्सिटी सैंटर फ़ॉर ऐस्ट्रोनॉमी ऐंड ऐस्ट्रोफज़ि़िक्स ( आईयूसीएए), राष्ट्रीय जीववैज्ञानिक केंद्र (एनसीबीएस) और भारतीय विज्ञान संस्थान ( आईआईएस). परंतु नवोन्मेंष मेंं विश्व स्तर पर अग्रणी रहने के लिए भारत को अनुसंधान उद्यमों को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
भारत मेंं एक बार फिर से अनुसंधान और शिक्षण को तत्काल ही परस्पर जोडऩा होगा. संरचनात्मक परिवर्तनों को विश्वविद्यालय प्रणाली मेंं लाने की आवश्यकता है. आवश्यकता इस बात की है कि वे अनुसंधान संस्थानों मेंं सहयोगियों के बीच सहयोग को बढ़ावा दें और ऐसा करने के लिए उन्हें निधि भी प्रदान करें. यह कार्य भारत सरकार के विज्ञान व इंजीनियरी अनुसंधान परिषदों (एसईआरसी) मेंं उपलब्ध निधि को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अवसंरचना कार्यक्रम मेंं सुधार लाने के लिए वितरण करके किया जा सकता है. एसईआरसी इस प्रकार के मात्र सहयोगपरक कार्यों के लिए अनुदान कार्यक्रम आबंटित कर सकती है. अनुसंधान और शैक्षिक महाविद्यालयों के बीच वैज्ञानिक सहयोग को सक्रिय रूप मेंं बढ़ावा देने का लाभ यह होगा कि इससे एक ऐसी सरणी तैयार हो जाएगी जिससे अंत:स्नातक अनुसंधान के काम मेंं जुट जाएँगे. इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विश्वविद्यालयों को कम से कम सभी ऑनर्स डिग्री पाठ्यक्रमों मेंं अंत:स्नातकों के लिए अनुसंधान परियोजनाओं की आवश्यकता होगी. अनुसंधान के चक्र की स्थापना के लिए आवश्यक होगा कि अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम की अवधि बढ़ाकर चार साल कर दी जाए. अनुसंधान विज्ञान के अंत:स्नातकों के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग है और प्रत्येक विद्यार्थी इसका स्वाद भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा व अनुसंधान संस्थानों (आईआईएसईआर) मेंं ही चख लेता है. परंतु इसका कोई सादृश्य मानविकी और समाज विज्ञान मेंं नहीं मिलता. दूसरा आवश्यक और संबंधित मुद्दा है, अंत:स्नातकों की शिक्षा मेंं व्यापकता मेंं कमी. इसे व्यापक बनाने के लिए एक ऐसा व्यापक मूलभूत पाठ्यक्रम बनाना आवश्यक है जिसमेंं मात्रापरक तर्कप्रणाली, महत्वपूर्ण चिंतन, लेखन कौशल और बुनियादी गणित की क्षमता को विशिष्ट विज्ञान, इंजीनियरी या मैडिकल कॉलेजों के साथ-साथ सभी संस्थाओं के डिग्री कॉलेजों मेंं अंत:स्नातकों की शिक्षा का एक अंग बनाया जाना चाहिए.
ऑनलाइन शिक्षण और प्रशिक्षण के क्षेत्र मेंं आयी वर्तमान क्रांति की सहायता से शिक्षा संस्कृति मेंं बुनियादी परिवर्तन लाया जा सकता है. जिन्हें दुनिया मेंं कहीं भी स्ट्रीमलाइन किया जा सकता है और सामग्री को नि:शुल्क या मामूली शुल्क देकर प्राप्त किया जा सकता है. जिस पैमाने पर इन पाठ्यक्रमों को वितरित किया जा सकता है, वह आश्चर्यजनक है. व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) ने विशेषकर भारत जैसे देश मेंं पाठ्यसामग्री वितरित करने के लिए एक विशेष विकल्प की पेशकश की है, क्योंकि भारत की जनसांख्यिकी और शिक्षित किये जाने वाले युवा छात्रों की मात्र संख्या ही इतनी है कि यह अपने-आपमेंं एक चुनौती पैदा करती है. पश्च माध्यमिक शिक्षा मेंं व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) के उपयोग से लाइव और क्रमिक विषयवस्तुओं के साथ मिश्रित कक्षाओं की सुविधाओं का पूरक पाठ्यक्रम की तरह से उपयोग करते हुए वर्तमान अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रमों को अद्यतन किया जा सकता है. चूँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इससे अपने-आप मेंं अनुसंधान के क्षेत्र मेंं कैरियर मेंं उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी, इसलिए इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि इस क्रांति का कितना प्रभाव पड़ेगा.  व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसीएस) के माध्यम से पाठ्यक्रमों के वितरण, पाठ्यक्रम और शिक्षण को मानकीकृत किया जा सकता है.
विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान की गतिविधियों को बढा़वा देने के लिए एक और सरणी है, विज्ञान के विद्यार्थियों को तथाकथित नागरिक विज्ञान संबंधी परियोजनाओं से जोडऩा. शैक्षिक उपक्रमों मेंं विदेशी सहयोग भारत के लिए नया नहीं है. उदाहरण के लिए विशिष्ट आईआईटी संस्थाओं की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ही की गयी है. शायद अनुसंधान विश्वविद्यालयों के साथ संबंधों के नवीयन से वैसी ही मदद मिलती है, लेकिन इससे वर्तमान आईआईटी के संकाय सदस्यों की अनुसंधान परियोजनाओं को बढ़ावा देने मेंं भी मदद मिलेगी.
निर्णायक और साहसिक नीति संबंधी हस्तक्षेपों से भारत अपनी शैक्षणिक संस्कृति को इस पीढ़ी के अंदर भी ला सकेगा और अपनी अनूठी जनसांख्यिकी का लाभ भी उठा सकेगा. जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं और ऊर्जा, पानी और भोजन जैसे दुर्लभ संसाधनों की बढ़ती माँग की चुनौतियों के नये और नवोन्मेंषकारी समाधान ढूँढने के लिए भारत सिगनल व दूरसंचार से उम्मीदें बाँधे हुए है. सिगनल व दूरसंचार ने समाधान दिये भी हैं और जब तक हम इन स्थितियों को अनुकूल बना नहीं लेते तब तक हमारे पास आशावादी बने रहने की हर वजह मौजूद है. भारत उच्च शिक्षा के क्षेत्र मेंं भारी चुनौतियों का सामना कर रहा है. सन् 2007 मेंं प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत के लगभग आधे ज़िलों मेंं उच्च शिक्षा मेंं नामांकन ’’बहुत ही कम’’ है और दो तिहाई भारतीय विश्वविद्यालय और 90 प्रतिशत भारतीय कॉलेज गुणवत्ता की दृष्टि से औसत से भी बहुत नीचे हैं. इसमेंं हैरानी की कोई बात नहीं है कि शिक्षा की माँगों को पूरा करने मेंं शासन की विफलता के कारण ही भारत के संभ्रांत और मध्यम वर्ग के विद्यार्थी भारत मेंं और भारत के बाहर भी सरकारी संस्थाओं को छोडक़र निजी संस्थाओं की ओर रुख करने लगे हैं. सरकारी संस्थाओं से यह पलायन भारतीयों की शिक्षा संबंधी माँगों को पूरा करने मेंं शासन की क्षमता को निरंतर कमज़ोर कर रहा है और इस समस्या को और भयावह बनाता जा रहा है. दुर्भाग्यवश निजी संस्थाओं मेंं संकीर्ण व्यावसायिक मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और आंतरिक प्रशासन कमज़ोर होने लगा है और शासकीय नियमों मेंं शिथिलता आने लगी है.
बड़े पैमाने पर मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसी) चलाकर न केवल भारत की उच्च शिक्षा संबंधी चुनौतियों का पूरी तरह से सामना किया जा सकता है, बल्कि उच्च शिक्षा मेंं भारत की पहुँच और गुणवत्ता को कुछ हद तक बढ़ाया भी जा सकता है. पिछले दो वर्षों के दौरान एमओओसी ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है. एमओओसी के समर्थक सामाजिक, आर्थिक या राष्ट्रीय पृष्ठभूमि की परवाह किये बिना सभी को शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराने की संभावित क्रांति की बात करने लगे हैं. लेकिन कुछ लोग इस बात को लेकर सतर्कता बरतने की बात करते हैं कि इससे उच्च शिक्षा संबंधी स्थानीय संस्थाओं का महत्व घटने लगेगा और भौतिक (फज़िक़िल) विश्वविद्यालयों मेंं विशिष्ट संभ्रांत वर्ग के छात्रों को व्यक्तिनिष्ठ शिक्षा की सुविधा प्रदान करके शैक्षणिक असमानता को और भी बढ़ावा मिलेगा, जबकि अधिकांश छात्र वर्चुअल शिक्षा तक सीमित रह जाएँगे, जिससे शिक्षा की लागत मेंं तो कमी आ जाएगी, लेकिन गुणवत्ता मेंं भी गिरावट आ जाएगी.
भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं एमओओसी के संभावित प्रभाव को समझने के लिए और इस बात पर विचार करने के लिए कि एमओओसी किस तरह से प्रभावी और समान परिणाम हासिल कर सकता है, हमेंं पहले एमओओसी के भागीदारों को अच्छी तरह से समझना होगा. इस समस्या के समाधान के लिए पैन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय ने उन तमाम विद्यार्थियों का सर्वेक्षण कराया था जिन्होंने कम से कम कोर्सेरा के एमओओसी (जो विश्व का सबसे बड़ा एमओओसी प्रदाता है) के किसी एक पाठ्यक्रम मेंं नामांकन करवाया हो.
कोर्सेरा द्वारा संचालित एमओओसी लेने वाले विद्यार्थियों मेंं अमेंरिका के बाद भारतीय विद्यार्थियों की संख्या दूसरे नंबर पर (अर्थात् 10 प्रतिशत) है. उपयोगकर्ताओं के उनके आईपी पतों के आधार पर किये गये भू-देशीय विश्लेषण से पता चलता है कि इस उपयोगकर्ताओं मेंं से अधिकांश उपयोगकर्ता भारत के शहरी इलाकों तक ही सीमित हैं. इनमेंं से 61 प्रतिशत उपयोगकर्ता भारत के पाँच बड़े शहरों मेंं से किसी एक शहर मेंं बसे हुए हैं और 16प्रतिशत उपयोगकर्ता अगले पाँच बड़े शहरों मेंं बसे हुए हैं. मुंबई और बैंगलोर मेंं उपयोगकर्ताओं की तादाद सबसे ज़्यादा है. भारत के कुल कोर्सेरा विद्यार्थियों मेंं से 18-18प्रतिशत इन दोनों शहरों से हैं और इनमेंं से अधिकांश पूर्णकालिक नौकरी कर रहे हैं (और शेष विद्यार्थी या तो स्व-नियोजित हैं या अंशकालीन नौकरी कर रहे हैं). और यह ठीक उसी तरह है जैसे हाल ही मेंं सैल फ़ोन, नया मीडिया और अन्य प्रौद्योगिकी अपनाने वाले उपयोगकर्ताओं की स्थिति है. इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि गणित, मानविकी और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बाद विद्यार्थी सबसे अधिक व्यवसाय, अर्थशास्त्र और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों को ही लेना पसंद करते हैं. यह तथ्य कि एमओओसी के उपयोगकर्ताओं मेंं सबसे अधिक संख्या भारतीयों की है, इस बात की ओर इंगित करता है कि अच्छी किस्म की शिक्षा की भारत मेंं बेहद माँग है, जिसे अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है. लेकिन यदि हम चाहते हैं कि एमओओसी भारत की उच्च शिक्षा की चुनौतियों को पूरा करने के लिए अर्थक्षम और सही मार्ग प्रदान करे तो हमेंं बहुत-से काम करने होंगे.  
सर्वप्रथम हमेंं बुनियादी प्रौद्योगिकीय ढाँचा तैयार करना होगा, जिसमेंं कंप्यूटरों, मोबाइल उपकरणों और उच्च-गति वाले इंटरनैट की सुविधाओं को और विकसित करना होगा ताकि भारत के अधिकाधिक लोगों तक ऑन-लाइन शिक्षा की पहुँच बढ़ायी जा सके. जब तक प्रौद्योगिकीय बाधाएँ दूर नहीं होंगी तब तक केवल संभ्रांत वर्ग के कुछेक विद्यार्थी ही शिक्षा के इस विकल्प का चुनाव कर सकेंगे और इससे भारत मेंं शिक्षा के अवसरों मेंं असमानता की स्थिति और भी बिगड़ती जाएगी.
एमओओसी प्रदाताओं को कम से कम लागत वाली, व्यापक कवरेज वाली और अपने स्वामित्व वाली मोबाइल फ़ोन की भारतीय क्रांति से अपने-आपको जोडऩा होगा. भारत जैसे देश मेंं जहाँ ब्रॉडबैंड कवरेज बहुत सीमित है, एमओओसी की पहुँच को सुगम बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है. एमओओसी प्रदाताओं को मोबाइल की दुनिया मेंं प्रवेश करने के लिए बैंकिंग उद्योग के मुकाबले ज़्यादा बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि उनकी वीडियो की विषय-वस्तु, प्रश्नोत्तरी और असाइनमैंट के लिए स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत पड़ती है, जबकि मोबाइल बैंकिंग के कुछ काम मात्र एसएमएस सेवाओं के ज़रिये ही निपटाये जा सकते हैं. लेकिन 3जी और 4जी के इंटरनैट के कारण अब स्मार्टफ़ोन और टेबलैट की सुविधा भारत मेंं बढ़ती जा रही है और जैसे-जैसे उनके दाम कम होते जाएँगे, उनकी सुविधाओं का भी तेज़ी से विस्तार होता जाएगा.
दूसरी बात यह है कि दुनिया के कुछ सबसे बढय़िा विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित अधिकांश एमओओसी बहुत ही चुनौतीपूर्ण और माँग वाले पाठ्यक्रम हैं, जो विद्यार्थियों को उच्च-कौशल वाले क्षेत्रों मेंं व्यावसायिक प्लेसमैंट के लिए तैयार करते हैं. भारत की असमान शैक्षणिक माँगों की पूर्ति के लिए विविधीकरण की नीति को बढ़ावा देने मेंं मदद कर सकते हैं. अंतत: शैक्षणिक माँगों को समझने और उन्हें पूरा करने के लिए भारत मेंं निवेश करना होगा. भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं पूर्ति और भारी माँग के बीच असंतुलन और किफ़ायती व अच्छी किस्म की शिक्षा की आवश्यकता को देखते हुए, भारतीय विद्यार्थियों के लिए उनकी विशेष रुचि के आधार पर भारतीय भाषाओं की विषयवस्तु को डिज़ाइन करना चाहिए और उसे उपलब्ध कराना चाहिए. अगर इन पाठ्यक्रमों की पहुँच को सुगम बनाने के मार्ग मेंं आने वाली प्रौद्योगिकीय, शैक्षणिक और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर कर दिया जाए तो लाखों भारतीय विद्यार्थी अच्छे स्तर की उच्च शिक्षा सहजता से प्राप्त कर सकेंगे और इससे नाटकीय रूप मेंं भारत मेंं और विश्व-भर मेंं भी उच्च शिक्षा के परिदृश्य को बदला जा सकेगा.










वर्ष 2016: भारत में बदलाव की दरकार

भारत के सारे क्षेत्र प्रशासनिक से लेकर शैक्षिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का राज है। इसे ज्योतिष से देखा जाये तो लग्नस्थ राहू चारित्रिक पवित्रता का अभाव, भाग्येश और दशमेश शनि तीसरे स्थान में सूर्य के साथ होने से भाग्य और पुरुषार्थ की कमी, तृतीयेश चंद्रमा अपने स्थान से बारहवे होने से स्वभाव में सुचिता की कमी है। जरूरी है कि समाज में लोगों को संयुक्त होकर सूर्य को प्रबल बनाने के लिए सामूहिक रूप भ्रष्टाचार का विरोध करने एवं भ्रष्ट आचरण का सामूहिक बहिस्कार करने के साथ यज्ञ एवं हवन करना चाहिए। सामूहिक रूप से आदित्य-हृदय स्त्रोत का पाठ करने से समाज में सुचिता आयेगी और इस तरह की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। इसी प्रकार भारत की कुंडली में लग्रस्थ राहु कुंडली मारकर बैठा है, उसके लिए सभी को आगे बढक़र भौतिकता से परे देशहित एवं समाज कल्याण के लिए सोचना होगा। वृश्चिक लग्र की कुंडली में लग्रस्थ शनि तृतीयेश और चतुर्थेश होकर लग्र में अपने न्यायकारी दृढ़ता के साथ दंडाधिकारी की महती भूमिका में बैठा है और उसी के अनुरूप द्वितीयेश और पंचमेश गुरू कर्क का होकर भाग्यस्थ है अर्थात समाज और समाजिकता हेतु ऊंचे मापदंड स्थापित करने हेतु प्रतिबद्व दिखता है। हालांकि यह भी सच है कि दशम भाव का कारण सूर्य राहु से पापाक्रांत होकर पंचमस्थ है अर्थात सत्तापक्ष कितनी भी विपरीत परिस्थिति और विरोधाभास के बावजूद अपना अंह और मद छोड़ नहीं सकता। किंतु मेरा मानना है कि ग्रहों के गोचरों का प्रभाव समय के कालखंड पर पड़ता है तो जब से शनि और गुरू गोचर में है, तब से ही न्याय और ऊंचे मापदंड स्थापित करता रहा है और अभी जब शनि और गुरू इस स्थिति में हैं तब तक तो ये सिलसिला जारी रहेगा। भ्रष्टाचार के कारण हमारे सामाजिक जीवन के अस्तित्व में ही छिपे हैं और नेतागण महज चिल्लाते रहते हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, हमारे आते ही भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा किंतु मजे कि बात तो यह है कि जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढिय़ाँ पार करनी पड़ती हैं वर्ष 2016का मूल अंक 9 है, जिसका अधिपति मंगल है। जिसके कारण सारे विश्व में अस्थिरता की स्थिति रहेगी। इसके साथ ही पूरी दुनिया में आर्थिक अस्थिरता की स्थिति भी रहेगी। वर्ष 2016में शनि अष्ठम स्थान में बैठा हुआ है, जिसस विश्व के किन्हीं देशों में खाद्यान्न में जहरीला तत्व उत्पन्न हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं जनहानि करेंगी।
हिन्दुस्तान की कुंडली के अनुसार 2016में गुरु राहू का योग प्रथमार्थ में देश की आर्थिक स्थिति कमजोर होगी। जनता और राजनेताओं के बीच दूरी बढ़ेगी। सामाजिक असहिष्णुता और धार्मिक उन्माद हो सकता है गुरू पञ्चम भाव में राहु से आक्रांत होने से हिन्दुस्तान को समाज और धर्म का विवाद उत्पन्न कर रहा है। जिसके कारण देश में अंदरूनी विवाद उत्पन्न होंगे। प्रशासनिक भाव पर शनि की दृष्टि होने से प्रधानमंत्री कई जगह विवश दिखेंगे। भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आएंगे। धर्म संबंधी विवादित बयानों से सत्ता पक्ष परेशान रहेगा। आतंकवाद , जातीय हिंसा, आंतरिक विरोध भी परेशान रखेगा। परंतु सकारात्मक बात यह रहेगी कि देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ेगा। अर्थव्यस्था मजबूत होगी। वित्तीय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन आएंगे जिससे आम आदमी लाभान्वित होगा।
आज की अनेक बड़ी समस्याओं के मूल मेंं यही वजह है कि समाज मेंं सार्थक सामाजिक बदलाव के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष के बारे मेंं स्पष्ट सोच बनाना और इसका प्रसार करना मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है। प्रगति के तमाम दावों व बाहरी चमक-दमक के बावजूद समाज मेंं दुख-दर्द कम नहीं हुआ है। कुछ सीमित संदर्भे मेंं तरक्की नजर आती है तो इससे अधिक व्यापक संदर्भे मेंं दुख-दर्द बढ़े हुए नजर आते हैं। इसमेंं भी बड़ी बात है कि बढ़ते पर्यावरणीय विनाश, जल, जंगल, जमीन जैसे आधारभूत संसाधनों की गंभीर क्षति के कारण भविष्य मेंं समस्याएं उत्तरोत्तर बढ़ते जाने की आशंका है। टूटते-बिखरते सामाजिक ताने-बाने को देखें या हिंसा व महाविनाशक हथियारों मेंं अपार वृद्धि, तेजी से विलुप्त होती प्रजातियां या जलवायु बदलाव, विज्ञान के युग मेंं भी बढ़ती कट्टरता व अंधविास या तकनीक का दुरुपयोग, सभी बिंदुओं पर वर्तमान स्थिति चिंताजनक है और इनके भविष्य मेंं और चिंताजनक बनने की आशंकाएं हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि समाज मेंं बड़े स्तर पर व्याप्त दुख-दर्द व उसके कारणों को कम करने के लिए व भविष्य मेंं इससे भी गंभीर समस्याओं की संभावनाओं को दूर करने के लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत है। सुलझे विचारों व उनसे जुड़े कार्य की क्रान्ति से है जिनके आधार पर अधिकांश लोग समाज के सबसे जरूरी सरोकारों से जुड़ सकते हैं। ये कार्य निश्चय ही समता, पर्यावरण रक्षा, शान्ति, भाईचारा व जीवों की रक्षा से जुड़े हैं पर इनको मौजूदा समय की जरूरतों के संदर्भ मेंं स्थापित करने और उनमेंं आपसी सामंजस्य की चुनौती सामने है। व्यापक सामाजिक बदलाव का यह कार्यक्रम निश्चय ही ऐसा होना चाहिए जिसमेंं विभिन्न तरह के जरूरतमंद लोगों को अपनी समस्याओं का समाधान नजर आए, पर विचार व प्रतिबद्धता मेंं इससे एक कदम आगे जाने की जरूरत है। केवल अपनी समस्याओं से आगे बढक़र दूसरों की समस्याओं, अपने से अधिक जरूरतमंदों की समस्याओं व पूरी धरती के सब जीवों के दुख-दर्द के संदर्भ मेंं एक व्यापक प्रतिबद्धता स्थापित करने की जरूरत है। ऐसा होने पर सोचने-समझने मेंं, विभिन्न मुद्दों के प्रति नजरिए मेंं बड़ा बदलाव आ जाता है व समाज मेंं ऐसा बदलाव लाना बहुत जरूरी है। इस तरह के व्यापक सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया समाज मेंं चलती रहनी चाहिए। वह चाहे मुख्य रूप से एक अभियान के रूप मेंं चले या थोड़े-बहुत बदलाव के साथ कई अभियानों मेंं, पर यह प्रक्रिया व्यापक स्तर पर चलती रहनी चाहिए। इस व्यापक चिंतन-मंथन से ही समाज को कई स्तरों पर सही राह मिलेगी व तरह-तरह के भटकाव की संभावना कम होगी। सत्ता की राजनीति ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव से बड़ी नहीं हो सकती है। उसको व्यापक सामाजिक बदलाव के एक हिस्से या एक पक्ष के रूप मेंं ही जगह मिलनी चाहिए। हाल के समय के तथाकथित वैकल्पिक राजनीति के प्रयास इस कारण आधे-अधूरे रहे हैं क्योंकि उन्हें ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव की छाया नहीं मिली है, सहारा नहीं मिला है। इस कारण यह छिटपुट प्रयास बहुत कम समय मेंं ही तरह-तरह के भटकाव का शिकार होते चले गए। दूसरी ओर यह कहना भी अनुचित है कि व्यापक सार्थक बदलाव का अभियान अपने आप मेंं पूर्ण है। उसे सत्ता प्राप्त करने की राजनीति से जुडऩा ही नहीं चाहिए।
भारत ने 90 के दशक मेंं आर्थिक सुधार शुरू किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्त मंत्री थे। सुधारों से उम्मीद थी कि लोगों के आर्थिक हालात सुधरेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान न देने की वजह से गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और लैंगिक विषमता जैसी सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं। अब यह देश के विकास को प्रभावित कर रहा है। दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की तो की है, लेकिन एक तिहाई आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। भारत इस अवधि मेंं ऐसा देश बन गया है जहां दुनिया भर के एक तिहाई गरीब रहते हैं।
भारत और भ्रष्टाचार की समस्या:
भ्रष्टाचार देश की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर मेंं रिश्तखोरी का स्तर काफी ऊंचा है। भारत मेंं 70 फीसदी लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार की स्थिति और बिगड़ी है। 2जी टेलीकॉम, कॉमनवेल्थ गेम्स और कोयला घोटालों से हुए नुकसान को इसमेंं शामिल नहीं किया गया है जो हजारों करोड़ के हैं। भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था के विकास पर बहुत ही बुरा असर हो रहा है।
गरीबी और बेरोजगारी:
नए रोजगार बनाने और गरीबी को रोकने मेंं सरकार की विफलता की वजह से देहातों से लोगों का शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इसकी वजह से शहरों के ढांचागत संरचना पर दबाव पैदा हो रहा है। आधुनिकता के कारण परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवा लोगों ने शहरों का रुख किया है, जिनका नितांत अभाव है। नतीजे मेंं पैदा हुई सामाजिक तनाव और कुंठा की वजह से हिंसक प्रवृति बढ़ रही है। हालांकि बलात्कार और छेड़ छाड़ से संबंधित कानूनों मेंं सख्ती लाई गई है और सरकार ने महिला पुलिसकर्मियों की बहाली की दिशा मेंं कदम उठाए हैं, पूरे भारत मेंं महिलाओं के खिलाफ हिंसा मेंं कमी नहीं आई है।
समाज की बेरुखी:
पिछले महीनों मेंं भारत के आर्थिक विकास मेंं तेजी से आई कमी का कारण वैश्विक आर्थिक संकट बताया जा रहा है, लेकिन विकास दर को बनाए रखने मेंं विफलता की वजह प्रतिभाओं का इस्तेमाल न करना और कुशल कारीगरों की कमी भी है। भारत मुख्य रूप से गांवों मेंं रहने वाली अपनी आबादी की क्षमताओं का इस्तेमाल करने और उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं देने मेंं नाकाम रहा है। उसे समझना होगा कि उसका आर्थिक स्वास्थ्य व्यापक रूप से उपलब्ध प्रतिभाओं के बेहतर इस्तेमाल पर ही निर्भर है।
आज व्यक्ति जीवन मेंं सामाजिक रूप से व्यापक बदलाव चाहता है। साक्षरता से ग्रामीण जनजीवन मेंं रचनात्मक, सामाजिक बदलाव संभव है। साक्षरता के जरिये व्यक्ति अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठा सकता है। हमेंं साक्षरता के जरिये लोगों के निर्णय लेने की क्षमता का बेहतर विकास करना जरूरी है। निर्णय लेने की क्षमता लोगों मेंं नये आत्मविश्वास का संचार करती है।
निवास व्यवस्था और स्थानांतरण:
परंपरागत रूप मेंं भारत मेंं सामाजिक सुरक्षा का आधार यही रहा है कि औरतें अपनी संतानों के साथ, विशेषकर पुरुष संतानों के साथ ही रहती रही हैं। जनगणना के अनुसार रोजग़ार की वजह से पुरुषों के स्थानांतरण के कारण और शादी के कारण महिलाओं के स्थानांतरण के कारण भारत मेंं अधिकांश उम्रदराज़ लोग अकेले रहने लगे हैं। राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दो दौरों के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल एक दशक मेंं ही अकेले रहने वाली उम्रदराज़ औरतों या पतियों के साथ रहने वाली औरतों का अनुपात 9 प्रतिशत से बढक़र 19 प्रतिशत हो गया। यद्यपि इसका आशय सामाजिक अलगाव के बजाय आर्थिक स्वाधीनता भी हो सकता है, लेकिन इसकी संभावना बहुत ही कम है, क्योंकि इस समूह मेंं ज़्यादातर विधवाएँ और गरीब शहरी महिलाएँ ही हैं। इसी कारण प्रचलित सहायता प्रणाली के बजाय मज़बूत पेंशन प्रणाली की ज़्यादा आवश्यकता है। रोजग़ार के लिए जो बच्चे शहरों मेंं चले जाते हैं, वे शहरों मेंं निवास के भारी खर्च और भीड़-भाड़ वाले शहरी आवास के कारण अपने माँ-बाप को साथ नहीं ले जा पाते और इसका कारण यह भी होता है कि शहर मेंं अकेले रहने के कारण वे अधिक आज़ादी से अपनी ज़िंदगी जीना पसंद करते हैं। पुराने ढर्रे के घरों मेंं अब लोग रहना पसंद नहीं करते और घर मेंं रहते हुए बड़े-बूढ़ों की सेवा करना भी अधिक महँगा पड़ता है। बिखरते ’’भारतीय परिवारों’’ पर शोक मनाने के बजाय अब समय आ गया है कि हम अकेले रहने वाले बड़े-बूढ़ों की देखभाल के बारे मेंं नये ढंग से खास तौर पर उनकी सेहत की देखभाल को लेकर अधिक सृजनात्मक रूप मेंं सोचें।

संवैधानिक बदलाव

आज भारत मेंं सार्वजनिक हित के मामलों को तभी महत्व मिलता है जब उच्चतम न्यायालय इस पर ज़ोर डालता है. सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के हितधारकों के प्रतिनिधि न्यायपालिका मेंं सक्रिय होकर याचिका दाखिल करते हैं. किसी भी विषय पर होने वाले वाद-विवाद से भारतीय न्यायपालिका को महत्व मिलता है और वह सक्रिय भी बनी रहती है. एक ऐसे युग मेंं जहाँ अधिकांश संस्थाओं पर राजनीति हावी होने लगी है, न्यायपालिका ही एकमात्र संस्था बची है जिस पर नागरिकों का विश्वास अभी भी कायम है और उन्हें लगता है कि वहाँ उनकी सुनवाई ठीक तरह से हो सकती है.
कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से एक रुपया चलता है, जो गांव तक पहुंचते पहुंचते 10 पैसे रह जाता है. अगर तीन बड़े घोटालों यानी कॉमनवेल्थ, टूजी टेलीफोनी और कोयला घोटाले की बात करें, तो इनमेंं कई हजार अरब रुपये के वारे न्यारे हो चुके हैं. भ्रष्टाचार तो आम भारतीयों के लिए ‘‘रोजमर्रा’’ की बात हो चुकी है. भारत के पूर्व गृह सचिव मधुकर गुप्ता डॉयचे वेले से कहते हैं, ‘‘भ्रष्टाचार अगर सिर्फ ऊपरी स्तर पर हो, तो अलग बात है लेकिन यह लोगों की सोच मेंं शामिल हो गया है कि अगर पैसा नहीं दिया जाएगा, तो काम नहीं होगा.’’ राजनीति बनाम अफसरशाही
चाहे बड़ी योजनाओं की बात हो, खेलों की या फिर बच्चों के मिडडे मील की, सिर्फ 73 फीसदी साक्षर भारत मेंं हर जगह से भ्रष्टाचार की बदबू आती दिखती है. लालफीताशाही और अफससरशाही को भी इसका जिम्मेंदार माना जाता है. नाम लिखने भर से साक्षर कहलाने वाले लोग हक से अनजान थाना, पुलिस और कचहरी मेंं बेबस हो जाते हैं. यहां बिचौलियों की भूमिका शुरू होती है, जो किसी आसान काम को भी मुश्किल बनाने मेंं माहिर होते हैं. भारत के सरकारी दफ्तरों मेंं कहावत है कि अगर आपकी फाइल पर ‘‘वजन’’ (रिश्वत) न रखा गया हो, तो यह उड़ जाती है.
कैसे बदले भारत अमेंरिका और यूरोप की नजरों मेंं भले भारत आईटी और कंप्यूटर सम्राट हो लेकिन हकीकत मेंं यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों मेंं रहती है, जिन्हें न तो पक्की सडक़ें मिलती हैं और न चौबीसों घंटे बिजली. लोकतंत्र के ‘‘लोक’’ को रातों रात मजबूत नहीं किया जा सकता है. शुरुआत कहां से हो, सवाल यहां शुरू होकर यहीं ठहर जाता है. गुप्ता की राय है कि तकनीक बदलाव से पारदर्शिता आ सकती है, ‘‘तकनीक से तंत्र मेंं तेजी और जवाबदेही लाई जाए और तेज फैसले लेने की सलाहियत और उसके आधार पर इसे लागू करने के मामले मेंं जवाबदेही तय होनी चाहिए.’’ सुधार के रास्ते राजनीति के गलियारे से ही गुजरते हैं और उन्हें साफ करना जरूरी है, ‘‘आज के खेल के नियम बदलने के लिए पहले आपको उसी खेल मेंं विजयी होना होगा, तब आप उसे बदल सकते हैं. यह अपने आप मेंं टेढ़ी खीर है. और यही भारत मेंं वैकल्पिक राजनीति करने की चुनौती भी है.’’
भारत की न्यायपालिका कीचड़ मेंं कमल की तरह है लेकिन विकास इतनी तेजी से हो रहे हैं कि संस्थाएं अगर समय समय पर सुधार न करें तो उनमेंं गिरावट आती ही है. मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व मेंं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों और दूसरे बड़े न्यायिक अधिकारियों ने समस्या को ठीक ही पहचाना है. बुनियादी ढांचों को दुरुस्त करना, आबादी के हिसाब से न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना, और सूचना प्रौद्योगिकी का व्यापक इस्तेमाल. अब इसके अमल मेंं तेजी लाने की जरूरत है. और इसकी जिम्मेंदारी मुख्य रूप से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की है जो न्यायिक संस्था के मुखिया है.
आम लोगों के लिहाज से भारत मेंं न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने की जरूरत है. मुख्य न्यायाधीश ने लोवर कोर्ट मेंं पांच और अपील कोर्ट मेंं दो साल मेंं मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा है. इसे और जल्दी करने से लोगों का खर्च भी घटेगा और न्यायिक प्रक्रिया मेंं लोगों का विश्वास भी बढ़ेगा. इसके अलावा प्रक्रियाओं को आसान करने की जरूरत है ताकि अदालत की सलाह, हस्तक्षेप या फैसला चाह रहे लोग बिना वजह परेशान न हों और न ही उनपर अनाप शनाप आर्थिक और मानसिक बोझ पड़े.
भारत की आबादी तेजी से बढ़ रही है. साथ ही तेज आर्थिक विकास भी हो रहा है और सरकार के प्रयास सफल हुए तो विकास मेंं और तेजी आएगी. आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां अपने साथ विवाद और अपराध भी लाती है. दोनों ही चुनौतियों से भारत को आने वाले समय मेंं निपटना होगा. न्यायिक व्यवस्था के लिए इसका मतलब अधिक अदालतें और अधिक जज भी हैं. संभवत: समय आ गया है कि भारत सुप्रीम कोर्ट की छतरी के नीचे एक-एक राष्ट्रीय प्रशासनिक, वित्तीय, आपराधिक और सामाजिक अदालत बनाने के बारे मेंं सोचे. इससे सुप्रीम कोर्ट पर बोझ कम होगा और देश की सर्वोच्च अदालत न्याय व्यवस्था के फौरी और दूरगामी विकास पर ध्यान दे पाएगी. आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल जरूर ही न्यायालयों के काम को आसान बनाएगी. हर दफ्तर की तरह न्यायालयों को भी दूरसंचार के आधुनिक तकनीकों से लैस किया जाना चाहिए. आईटी के क्षेत्र मेंं दुनिया भर मेंं डंका पीट रहे देश के अपने चोटी के दफ्तरों मेंं अत्याधुनिक तकनीक न हो, यह कोई अच्छी बात नहीं. इसे प्राथमिकता के साथ लागू किया जाना चाहिए.
भ्रष्टाचार के खात्में पर संसद मेंं दिसंबर 1963 को हुई बहस मेंं डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत मेंं जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास मेंं कहीं नहीं हुआ। जज कुरियन जोसेफ ने माना कि वह कॉलेजियम प्रणाली विफल हो गई, जहां दिशा-निर्देशों की अनदेखी कर चहेते और नाकाबिल जजों का चयन होता है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भरूचा ने 15 वर्ष पहले कहा था कि हाईकोर्ट के 20 फीसदी जज भ्रष्ट हैं वहीं, पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने चीफ जस्टिस सहित 50 फीसदी जजों को भ्रष्ट करार दिया। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट के आठ पूर्व चीफ जस्टिसों को भ्रष्ट बताते हुए हलफनामा ही दायर कर दिया परंतु सुप्रीम कोर्ट और सरकार प्रभावी कार्यवाही (इसका एक कारण जजों को हटाने के लिए महाभियोग की जटिल प्रक्रिया भी है) करने मेंं विफल रही, क्योंकि गलत जजों की नियुक्ति मेंं दोनों शामिल थे। काटजू के अनुसार आईबी की प्रतिकूल रिपोर्ट के बावजूद तमिलनाडु मेंं डीएमके के भ्रष्ट नेता को जमानत देने वाले व्यक्ति को यूपीए सरकार द्वारा हाईकोर्ट का जज बनवाकर सुप्रीमकोर्ट के तीन पूर्व प्रधान न्यायाधीशों से अनुचित सेवा-विस्तार दिलवा दिया गया। जज चेलमेंश्वर ने माना कि सिर्फ स्वतंत्र और सक्षम न्यायपालिका ही समाज मेंं भरोसा कायम रखने का काम कर सकती है परंतु देश की अदालतों मेंं लंबित 3.5 करोड़ से अधिक मुकदमों का बढ़ता ढेर जजों की दक्षता का प्रमाण तो नहीं देते। जज कुरियन जोसेफ ने कहा कि न्यायिक प्रणाली लाइलाज नहीं हुई है। उन्होंने इसे दुरुस्त करने के लिए ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका का सुझाव दिया, जिसका प्रयोग रूस मेंं कम्युनिस्ट व्यवस्था मेंं पारदर्शिता और पुनर्निर्माण के लिए मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई के तहत अधिकांश सूचनाओं से अपने को अलग रखा है तो फिर ग्लासनोस्त कैसे आएगा एनजेएसी मामले मेंं छह महीने के भीतर सुनवाई कर निर्णय देने वाले जज, आम जनता के मामलों को सालों-साल क्यों लटकाते हैं? कातिलों के लिए आधी रात मेंं सुनवाई करने वाले जजों को 4 लाख गरीब अनपढ़ कैदियों को जेल से निकालने के लिए समय क्यों नहीं है? मी लार्ड्स को अब हम लोग (वी द पीपुल) से भी जुडऩा पड़ेगा वरना संविधान की संकल्पना को गांधी के अनुसार बदलना पड़ेगा, जिन्होंने कहा था कि अदालतें न हों तो हिंदुस्तान मेंं गरीबों को बेहतर न्याय मिल सकता है। इसके लिए कुछ जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुए ठोस निर्णय लेने होंगे जैसे -
न्यायाधीशों की संख्या मेंं वृद्धि
मुकदमों के समयबद्ध निस्तारण के लिए जरूरत इस बात की है कि न्यायाधीशों की मुकदमें निपटाने की दर के आधार पर अधीनस्थ न्यायालयों मेंं न्यायाधीशों की संख्या में इजाफा किया जाए। इसके लिए जनसंख्या के अनुपात मेंं न्यायाधीशों की संख्या के आधार को छोडऩा होगा।
जजों की नियुक्ति को प्राथमिकता दी जाए
विभिन्न उच्च न्यायालयों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान न्याय प्रणाली के कारण मुकदमों के अंबार लगे हुए हैं। वर्तमान प्रणाली इन्हें रोक भी नहीं पा रही है। मुकदमों के इस अंबार को रोकने और इनके समयबद्ध निस्तारण के लिए अधिक संख्या मेंं जजों की नियुक्तियां की जाएं।
अधीनस्थ न्यायालयों के जजों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़े
समुचित रूप से प्रशिक्षित न्यायाधीशों की कमी के मद्देनजर अधीनस्थ अदालतों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु को बढ़ाकर 62 वर्ष कर दिया जाना चाहिए। इससे मुकदमों के ढेर को कम करने मेंं सहायता मिलेगी।
यातायात/ पुलिस चालान मामलों के लिए हो विशेष कोर्ट
अधीनस्थ न्यायालयों मेंं नए दायर हो रहे मामलों मेंं यातायात या पुलिस चालान सम्बन्धी मामले 38.7 फीसदी होते हैं। लंबित मामलों मेंं भी इनकी संख्या 37.4 प्रतिशत है। इन मामलों के निस्तारण के लिए नियमित न्यायालयों से इतर सुबह और शाम को संचालित होने वाले विशेष न्यायालय शुरू किए जाएं। नए विधि स्नातकों को अल्पकाल के लिए इन नए न्यायालयों का पीठासीन अधिकारी बनाया जा सकता है।
ये न्यायालय जुर्माने आदि से संबंधित मामलों को ही निपटाएं। जहां जेल जैसी सजा के मामले हों, उन्हें नियमित न्यायालय मेंं निपटाया जाए। इसके अलावा जुर्माने को जमा कराने के लिए ऑनलाइन भुगतान की सुविधा होनी चाहिए। न्यायालय परिसर मेंं जुर्माना जमा करवाने के लिए अलग काउंटर लगाए जाने चाहिए।
अतिरिक्त न्यायालयों के लिए आधारभूत सुविधाएं
अतिरिक्त न्यायालयों के लिए पर्याप्त स्टाफ और आधारभूत ढांचागत सुविधाओं के उचित प्रबंध किए जाएं ताकि इन न्यायालयों को कार्यशील बनाया जा सके।
उच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा जरूरी
विधि आयोग का वर्तमान कार्य, वर्ष 2012 तक की स्थिति पर आधारित रहा है। लेकिन, भविष्य मेंं कितनी अधीनस्थ अदालतों और उनके न्यायाधीशों की आवश्यकता होगी, इसका अनुमान लगा पाना कठिन है। इसके लिए उच्च न्यायालयों को चाहिए कि समय-समय पर न्यायाधीशों की संख्या, उनकी निस्तारण दर और मुकदमों के लंबित होने की स्थिति का आकलन करते रहें और आवश्यक कदम उठाते रहें।
अदालतों का काम नीतियां तैयार करना नहीं, सिर्फ यह देखना है कि काम कानून के मुताबिक हो रहा है या नहीं। उत्पादन और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों के बीच संतुलन बनाना मूलत: राजनीतिक कार्य है, जिसमेंं उनकी विशेषज्ञता नहीं है। खराब नीतियों के लिए राजनेता मतदाताओं के सामने जवाबदेह होते हैं। लेकिन प्रशासन को पंगु बनाने, ईमानदार कंपनियों का दीवाला निकालने और आर्थिक विकास को धीमा करके गरीबी बढ़ाने के लिए अदालतों की किसी के आगे कोई जवाबदेही नहीं होती।
इसीलिए कोर्ट का एक्टिविज्म कुछेक बेहद गंभीर मामलों तक ही सीमित रहना चाहिए। पुराना न्यायिक नुस्खा है कि भले ही कई अपराधी छूट जाएं, पर एक भी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए। बावजूद इसके, जुडिशल एक्टिविज्म का शिकार ज्यादातर बेकसूर उद्यमी और ऑफिसर ही हो रहे हैं। भारत मेंं कुशासन की जड़ मेंं सिर्फ धूर्त राजनेता और उद्योगपति ही नहीं, अच्छी नीयत से बनाए गए बुरे कानून भी हैं। अदालतों मेंं लंबे खिंचते मुकदमें हर क्षेत्र मेंं कानून तोडऩे वालों को बढ़ावा देते हैं। लेकिन इसका इलाज तीव्र न्याय है। यह नहीं है अदालतें खुद ही नीतियां बनाने मेंं जुट जाएं।

अर्धकुम्भ महापर्व हरिद्वार

इस वर्ष देव भूमि हरिद्वार मेंं अर्धकुंभ महापर्व के स्थान का अतिशय महत्व है। हरिद्वार मेंं अर्धकुंभ महापर्व के अन्तर्गत सम्पन्न होने वाले आयोजनों और शाही स्नान आदि की प्रमुख तारीखें इस प्रकार हैं-
१. श्री शुभ संम्वत २०७२ पौष शुक्ल पक्ष पंचमी, मकर संक्राति गुरूवार (१४ जनवरी २०१६) पहला स्नान।
२. श्री शुभ संम्वत २०७२ माघ कृष्ण (सोमवती) अमावस्या, सोमवार (८ फरवरी २०१६) दूसरा स्नान।
३. श्री शुभ सम्वत २०७२ माघ शुक्ल पक्ष चतुथी/पंचमी, शुक्रवार (१२ फरवरी २०१६) तीसरा स्नान।
४. श्री शुभ सम्वत २०७२ माघ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, सोमवार (१२ फरवरी) को चौथा स्नान।
५. श्री शुभ सम्वत २०७२ फाल्गुन कृष्ण पक्ष त्रयोदशी, सोमवार (७ मार्च २०१६) को पांचवा स्नान।
६. श्री शुभ सम्वत २०७२ चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या, गुरूवार (७ अप्रैल २०१६) को छठवा स्नान।
७. श्री शुभ सम्वत २०७३ चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, शुक्रवार (८ अप्रैल २०१६) को सातवां स्नान।
८. श्री शुभ सम्वत २०७३ चैत्र शुक्ल पक्ष सप्तमी, बुधवार, मेंष संक्रान्ति (१३ अप्रैल २०१६) को आठंवा स्नान।
९. श्री शुभ सम्वत २०७३ चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी, श्री राम नवमी, शुक्रवार (१५ अप्रैल २०१६) को नवां स्नान।
१०. श्री शुभ सम्वत २०७३ चैत्र शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, शुक्रवार (२२ अप्रैल २०१६) को दसवां स्नान। इति शुभम्।

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Wednesday 6 April 2016

Karmic numbers in numerology

The numbers that indicate a Karmic Debt are 11/2, 19/1, 13/4, 22/4, 14/5 and 16/7 and are called Karmic Numbers. These numbers takes on great significance when they are found in the Core Numbers i.e. the most important numbers like Talent Number, Destiny Number, Heart Number, Personality Number or in the Challenges, Pinnacles, Event Numbers, Personal Years or Birth Force Periods during the course of our life time. Each has its own unique characteristics and its own particular difficulties. A Karmic Number can be found in different places in the chart as a result of totals based on date of birth or calculations based on the letters of name. Numerology is based on the ancient idea that each of us is a spiritual being or a soul who incarnates on the earth many times in order to further evolve towards higher states of awareness. During our long evolutionary path of many incarnations, we have accumulated a wealth of wisdom and have made many good choices that benefit us in future life times. We have also committed mistakes and have sometimes abused the gifts we have been given. To rectify such errors we may take on additional burden in order to learn a particular lesson that we failed to learn in previous life times. In Numerology, this burden is called Karmic Debt. Number 11/2 : Number 11 walks the edge between greatness and self destruction. Its potential for growth, stability and personal power lies in its acceptance of intuitive understanding and of spiritual truths. For Number 11, such place is not found so much in logic but in faith. It is the psychic’s number. This number signifies a grave warning of hidden dangers, trial and treachery from others. Immense sensitivity, tension, impracticality and selfishness are its negative features. The people having this number specially as Talent Number have the tendency to force their views on others irrespective of their desire which prove fatal. It has been observed that if this number appears as Core Numbers specially as Talent Number, the person either remain unmarried or face marital problems leading to divorce and immense ups and downs throughout the life. Adolf Hitler and Benito Mussolini are the prime examples. Both were under the negative influence of Number 11 and their acts are well known to the world. Number 19/1 : Karmic Number 19/1 is the result of the inclusion of the negativity of 1 and 9 i.e. selfishness and proud of 1 and misuse of ability and much ambition. The person having this Number always gets ample opportunities in life but due to problems and obstacles he is not able to take the advantage. He always finds it difficult to use his ability in right direction and so fell to harness the opportunity. They always suffer from the hands of their near and dear. They don’t like to listen to others or to accept the help and advice of others. Number 13/4 : The people having this number as Talent Number or other Core Number have to work very hard to accomplish any task but with poor result. Obstacles stand in their way and they often feel burdened and frustrated by seeming futility of their efforts. Very often people with 13/4 Karmic Number do not concentrate or direct their energies in one specific direction or on a single task but scatter their energies over many projects and jobs, non of which amount to very much. A temptation with the 13/4 is to take shortcuts for quick success. Too often, that easy success does not come causing regret and the desire to give up. The result is a poor self –image and the belief that one is incapable of amounting to very much. Number 14/5 : Karmic Number 14/5 arises from previous life times during which human freedom has been abused. Those with a Karmic Number 14/5 are forced to adapt to ever-changing circumstances and unexpected occurrences. There is an acute danger of falling victim to abuse of drugs, alcohal and over indulgence in sensual pleasures. The people having this number as Talent Number or other Core Numbers have the tendency of too much changeability, love of freedom and movement, involvement in sloth and sensualities. They always aspire to have different partners and always seek pleasures at the cost of self destruction. They also don’t like to stick to one particular job or profession and quite frequently try to change without any specific reason which brings troubles for them. Number 16/7 : Number 16/7 is the manifestation of negative 1 i.e. selfishness and egotism and negative 6 i.e. illicit love affair in the form of negative 7 in present life. Indifferent attitude and introvert nature alienate the people from the mass. As a result marriage and business are totally destroyed and could not be saved. Power, authority, honour, dignity and material accumulation suddenly get vanished. When 16/7 is one of the Core Numbers, this process of destruction and rebirth is a continual cycle that actually serve to bring into higher consciousness and closer union with the source of life. Karmic Number 16/7 can be a path of progress and great spiritual growth if it is looked at properly. It has been observed that people having this number as a Core Number have to face sudden ups and downs in every sphere of life at different junctures specially their married life is disturbed and they have several illicit love relationships.

सुखमय गृह वास्तु के 51 सूत्र

सुखमय गृह वास्तु के 51 सूत्र छह श्लोकी संपूर्ण गृह वास्तु : इ्रशान्यां देवतागृहं पूर्वस्यां स्नानमंदिरम्। आग्नेयां पाक सदनं भाण्डारं गृहमुत्तरे॥1॥ आग्नेयपूर्वयोर्मध्ये दधिमणि-मंदिरम्। अग्निप्रेतेशयोर्मध्ये आज्यगेहं प्रशस्यते॥2॥ चाम्यनै त्ययोर्मध्ये पुरीषत्यागमंदिरम्। र्नैयांबुपयोर्मध्ये विद्यााभ्यासस्य मंदिरम्॥3॥ पश्चिमानिलयो र्मध्ये रोदनार्थं गृहं स्मृत। वायव्योत्तरयोर्मध्ये रतिगेहं प्रशस्ते॥4॥ उत्तरेशानयोर्मध्ये औषधार्थं तु कारयेत्। र्नैत्यां सूतिकागेहं नृपाणां भूतिमिच्छता॥5॥ आसन्नप्रसवे मासि कुर्याच्चैव विशेषतः। तद्वत् प्रसवकाल स्यादिति शास्त्रेषु निश्चयः॥6॥ अर्थात् : ईशान कोण में देवता का, पूर्व दिशा में स्नान का, अग्नि कोण में रसोई का, उत्तर में भंडार का, अग्नि कोण और पूर्व दिशा के बीच दूध दही मथने का, अग्नि कोण और दक्षिण दिशा के मध्य घी का, दक्षिण दिशा और नैत्य कोण के मध्य शा चै का, नै त्य काणे व पश्चिम दिशा के मध्य विद्याभ्यास का, पश्चिम और वायव्य कोण के मध्य रोदन का, वायव्य और उत्तर दिशा के मध्य रति मिलाप का, उत्तर दिशा और ईशान के मध्य औषधि का और नैत्य कोण में प्रसव का गृह बनाना चाहिए। प्रसव का गृह प्रसव के आसन्न मास में बनाना चाहिए, ऐसा शास्त्र में कहा गया है। अक्सर लोग वास्तु के नियमों की जटिलता के कारण उनका लाभ लेने से वंचित रह जाते हैं। इस तथ्य के मद्देनजर यहां सुखमय गृह वास्तु के सहज व उपयुक्त इक्यावन सूत्रों का विशद विवरण प्रस्तुत है। सफेद रंग की सुगंधित मिट्टी वाली भूमि ब्राह्मणों के निवास के लिए श्रेष्ठ मानी गई है। लाल रंग की कसैले स्वाद वाली भूमि क्षत्रिय, राजनेता, सेना व पुलिस के अधिकारियों के लिए शुभ होती है। हरे या पीले रंग की खट्टे स्वाद वाली भूमि व्यापरियों, व्यापारिक स्थलों तथा वित्तीय संस्थानों के लिए शुभ मानी गई है। काले रंग की कड़वे स्वाद वाली भूमि अच्छी नहीं मानी जाती। यह भूमि शूद्रों के योग्य होती है। मधुर, समतल, सुगंधित व ठोस भूमि भवन बनाने के लिए उपयुक्त होती है। खुदाई में चींटी, दीपक, अजगर सांप, हड्डी, कपड़े, राख, कौड़ी, जली लकड़ी व लोहा मिलना शुभ नहीं माना जाता है। भूमि की ढलान उत्तर और पूर्व की ओर हो तो शुभ होती है। छत की ढलान ईशान कोण में होनी चाहिए। भूखंड के दक्षिण या पश्चिम में ऊंचे भवन, पहाड़, टीले, पेड़ आदि शुभ माने जाते हैं। जिस भूखंड से पूर्व या उत्तर की ओर कोई नदी या नहर हो और उसका प्रवाह उत्तर या पूर्व की ओर हो, वह शुभ होता है। भूखंड के उत्तर, पूर्व या ईशान में भूमिगत जल स्रोत, कुआं, तालाब, बावड़ी आदि शुभ माने जाते हैं। भूखंड का दो बड़े भवनों के बीच होना शुभ नहीं होता। आयताकार, वृत्ताकार व गोमुखी भूखंड गृह वास्तु के लिए शुभ होता है। वृत्ताकार भूखंड में निर्माण भी वृत्ताकार ही होना चाहिए। सिंहमुखी भूखंड व्यावसायिक वास्तु के लिए शुभ होता है। भूखंड का उत्तर, पूर्व या ईशान कोण में विस्तार शुभ माना जाता है। भूखंड के उत्तर और पूर्व में मार्ग शुभ माने जाते हैं। दक्षिण और पश्चिम में मार्ग व्यापारिक स्थल के लिए लाभदायक माने जाते हैं। भवन के द्वार के सामने मंदिर, खंभा व गड्ढा शुभ नहीं होते। आवासीय भूखंड में बेसमेंट नहीं बनाना चाहिए। बेसमेंट बनाना आवश्यक हो, तो उत्तर और पूर्व में ब्रह्मस्थान को बचाते हुए बनाना चाहिए। बेसमेंट की ऊंचाई कम से कम 9 फुट हो और तल से 3 फुट ऊपर हो ताकि प्रकाश और हवा आ-जा सकें। वास्तु पुरुष के अतिमर्म स्थानों को छोड़कर कुआं, बोरिंग व भूमिगत टंकी उत्तर, पूर्व या ईशान में बना सकते हैं। भवन की प्रत्येक मंजिल में छत की ऊंचाई 12 फुट रखनी चाहिए। बाध्यता की स्थिति में 10 फुट से कम तो नहीं ही होनी चाहिए। भवन का दक्षिणी भाग हमेशा उत्तरी भाग से ऊंचा होना चाहिए। भवन का पश्चिमी भाग हमेशा पूर्वी भाग से ऊंचा होना चाहिए। भवन का नै त्य सबसे ऊंचा और ईशान सबसे नीचा होना चाहिए। भवन का मुखय द्वार ब्राह्मणों को पूर्व में, क्षत्रियों को उत्तर में, वैश्यों को दक्षिण में तथा शूद्रों को पश्चिम में बनाना चाहिए। इसके लिए 81 पदों का वास्तु चक्र बनाकर निर्णय करना चाहिए। द्वार की चौड़ाई उसकी ऊंचाई से आधी होनी चाहिए। बरामदा घर के उत्तर या पूर्व में ही बनाना चाहिए। खिड़कियां घर के उत्तर या पूर्व में अधिक तथा दक्षिण या पश्चिम में कम बनानी चाहिए। ब्रह्म स्थान को खुला, साफ तथा हवादार रखना चाहिए। गृह निर्माण में 81 पद वाले वास्तु चक्र में 9 स्थान ब्रह्मस्थान के लिए नियत किए गए हैं। चार दीवारी के अंदर सबसे ज्यादा खुला स्थान पूर्व में, उससे कम उत्तर में, उससे कम पश्चिम में और सबसे कम दक्षिण में छोड़ें। दीवारों की मोटाई सबसे ज्यादा दक्षिण में, उससे कम पश्चिम में, उससे कम उत्तर में और सबसे कम पूर्व में रखें। घर के ईशान कोण में पूजा घर, कुआं, बोरिंग, बच्चों का कमरा, भूमिगत वाटर टैंक, बरामदा, लिविंग रूम, ड्राइंग रूम व बेसमेंट बनाएं। घर की पूर्व दिशा में स्नान घर, तहखाना, बरामदा, कुआं, बगीचा व पूजा घर बनाना चाहिए। घर के आग्नेय कोण में रसोई घर, बिजली के मीटर, जेनरेटर, इन्वर्टर व मेन स्विच लगाए जा सकते हैं। घर की दक्षिण दिशा में मुखय शयन कक्ष, भंडार, सीढ़ियां बनाने व ऊंचे वृक्ष लगाने चाहिए। घर के नै त्य कोण में शयनकक्ष, भारी व कम उपयोगी सामान का स्टोर, सीढ़ियां, ओवर हेड वाटर टैंक व शौचालय बनाए जा सकते हैं। घर की पश्चिम दिशा में भोजन कक्ष, सीढ़ियां, अध्ययन कक्ष, शयन कक्ष, शौचालय बनाए व ऊंचे वृक्ष लगाए जा सकते हैं। घर के वायव्य कोण में अतिथि घर, कन्याओं का शयनकक्ष, रोदन कक्ष, लिविंग रूम, ड्राइंग रूम, सीढ़ियां, अन्न भंडार व शौचालय बनाने चाहिए। घर की उत्तर दिशा में कुआं, तालाब, बगीचा, पूजा घर, तहखाना, स्वागत कक्ष, कोषागार व लिविंग रूम बनाए जा सकते हैं। घर का भारी सामान नैत्य कोण, दक्षिण या पश्चिम में रखना चाहिए। घर का हल्का सामान उत्तर, पूर्व व ईशान में रखना चाहिए। घर के नैत्य भाग में किरायेदार या अतिथि को नहीं ठहराना चाहिए। सोते समय सिर पूर्व या दक्षिण की तरफ होना चाहिए। (मतांतर से अपने घर में पूर्व दिशा में, ससुराल में दक्षिण में और परदेश में पश्चिम में सिर करके सोना चाहिए। ध्यान रहे, उत्तर दिशा में सिर करके कभी नहीं सोना चाहिए।) घर के पूर्व गृह में बड़ी मूर्तियां नहीं होनी चाहिए। दो शिवलिंग, तीन गणेश, दो शंख, दो सूर्य प्रतिमाएं, तीन देवी प्रतिमाएं, दो गोमती चक्र व दो शालिग्राम नहीं रखने चाहिए। भोजन सदा पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके ही करना चाहिए। सीढ़ियों के नीचे पूजा घर, शौचालय व रसोई घर नहीं बनाना चाहिए। धन की तिजोरी का मुंह उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए।

जन्म दिनांक से वास्तु दोष विचार

वास्तु दोष आपके घर में है या नहीं, इसका पता आप अपने जन्म दिनांक से प्राप्त कर सकते हैं। जन्म होते ही हमारे साथ कुछ अंक जुड़ जाते हैं। जैसे कि जन्म तिथि का अंक, जन्म समय की होरा व जन्म स्थान आदि। इन सब के आधार पर ज्योतिष व अंक ज्योतिष की गणनायें की जा सकती है। अगर हम 'गीता में श्री कृष्ण द्वारा बताये गये कर्म-सिद्धांत पर विश्वास करते हैं तो इस बार आपको आपका 'जन्म दिनांक' आपके पिछले कर्मों के आधार पर प्राप्त हुआ है जिसमें प्रत्येक अंक महत्त्व रखता है। वर्ग पद्धति में 'जन्म दिनांक' में आने वाले प्रत्येक अंक को वर्ग में दर्शाया जाता है। सभी अंक उनके नियत स्थान पर दर्शाने के उपरांत भी कुछ स्थान रिक्त रह जाते हैं। ये रिक्त स्थल इस जन्म को जीने की राह दिखाते हैं। शास्त्रों में नौ ग्रहों के नौ यंत्र हैं जिनका आधार निम्नलिखित 'सूर्य यंत्र हैं। सूर्य यंत्र के आधार पर हमारे घर में वास्तु दोष कहां है, इसका पता जातक व उसकी पत्नी की 'जन्मतिथि के आधार पर लगाया जा सकता है। 'सूर्य यंत्र' में दी गई संखया का किसी भी दिशा से योग करें तो योगफल 15 ही होगा। 'ग्रह वास्तु दोष' जानने के लिये हमें जन्म दिनांक में आने वाले प्रत्येक अंक को (दिनांक, माह, वर्ष व शताब्दी के अंक को) उपरोक्त 'सूर्य यंत्र' के आधार पर उनके स्थान पर दर्शाना होगा। यदि कोई अंक उस 'जन्म दिनांक' में नहीं आया है तो उसके स्थान को वर्ग में रिक्त रहने देंगे। इसी रिक्त स्थान पर 'वास्तु दोष' है, ऐसा हम जानेंगे व 'वास्तु उपचार' भी उसी के अनुसार करेंगे। उदाहरण के लिये एक पुरुष जातक व उसकी पत्नी की जन्म तिथि क्रमशः 13-12-1956 व 5-5-1958 है। 'सूर्य यंत्र' पर आधारित वर्ग इनके लिये इस प्रकार बनेगें। इस जातक के निवास गृह में दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) व पश्चिम दिशा में ( द्द्र ) रिक्त वर्ग वाली दिशा में वास्तु दोष होगा। पत्नी के जन्म दिनांक ने पति के वर्ग में अंक 8 (अ ) से ईशान दिशा में होने वाले दोष को दूर कर दिया है व पति के जन्म दिनांक ने पत्नी के वर्ग में अंक 6, 2 व 4 क्रमशः वायव्य, र्नैत्य व पूर्व दिशा में होने वाले वास्तु दोषों को दूर कर दिया है। आजकल संपत्ति पति व पत्नी दोनों के नाम पर होती है। अतः वे एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं। इससे ज्ञात होगा कि दिशा अनुसार गृह में क्या-क्या वास्तु दोष हो सकते हैं? दोष का पता चलने पर उसके उपाय भी किये जा सकते हैं। दिशा के अनुसार निम्नलिखित दोष घर में पाये जा सकते हैं। पूर्व दिशा : पूर्व दिशा में दोष होने पर पिता-पुत्र के संबंध ठीक नहीं रहते हैं। सरकारी नौकरी से परेशानी या सरकार से दंड, नेत्र रोग, सिर दर्द, हृदय रोग, चर्म रोग व पीलिया जैसे रोग घर में लगे रहते हैं। पश्चिम दिशा : पश्चिम दिशा में दोष होने पर नौकरों से क्लेश, नौकरी में परेशानी, भूत-प्रेत का भय, वायु-विकार, लकवा, चेचक, कुष्ठ रोग, रीढ़ की हड्डी में व पैरों में कष्ट हो सकता है। उत्तर दिशा : उत्तर दिशा में दोष होने पर विद्या संबंधी रूकावटें, व्यवसाय में हानि, वाणी दोष, मिर्गी, गले के रोग, नाक के रोग व मतिभ्रम आदि कष्ट हो सकते हैं। दक्षिण दिशा : दक्षिण दिशा में दोष होने पर क्रोध अधिक आना, दुर्घटनायें होना, रक्त विकार, कुष्ठ रोग, उच्च रक्त चाप जैसे रोग हो सकते हैं। भाइयों से संबंध भी ठीक नहीं रहते हैं। ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) : ईशान कोण में दोष होने पर पूजा में मन नहीं लगता, आय में कमी आती है, धन-संग्रह नहीं हो पाता, विवाह में देरी, संतान में देरी, उदर-विकार, कान के रोग, कब्ज, अनिद्रा आदि कष्ट हो सकते हैं। आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व) : आग्नेय कोण में दोष होने पर पति/पत्नी में अच्छे संबंध न रहना, प्रेम में असफलता, वाहन से कष्ट, शृंगार में रूचि न रखना, हर्निया, मधुमेह, धातु एवं मूत्र संबंधी रोग व गर्भाशय से संबंधित रोग हो सकते हैं। र्नैत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) : र्नैत्य कोण में दोष होने पर दादा व नाना से परेशानी, अहंकार व भूत-प्रेत का भय, त्वचा रोग, रक्त विकार, मस्तिष्क रोग, चेचक, हैजा जैसी बीमारियों का घर में वास रहता है। वायव्य दिशा (उत्तर-पश्चिम) : वायव्य दिशा में दोष होने पर माता से संबंध ठीक नहीं रहते, मानसिक परेशानियां, अनिद्रा, सर्दी-जुकाम, मूत्र रोग, मासिक धर्म संबंधी रोग, पथरी व निमोनिया आदि हो सकते हैं। अच्छे वास्तु-विशेषज्ञ के सुझाव व उपायों की जानकारी ले कर उपरोक्त दिशा-दोष से होने आने वाले कष्टों से मुक्ति पाई जा सकती है।

वास्तु शांति क्यों जरुरी है गृह प्रवेश के पहले

आप जब भी कोई नया घर या मकान खरीदते हैं तो उसमं प्रवेश से पहले उसकी वास्तु शांति करायी जाती है। जाने अनजाने हमारे द्वारा खरीदे या बनाये गये मकान में कोई भी दोष हो तो उसे वास्तु शांति करवा के दोष को दूर किया जाता है। इसमें वास्तु देव का ही विशेष पूजन किया जाता है जिससे हमारे घर में सुख शांति बनी रहती है। वास्तु का अर्थ है मनुष्य और भगवान का रहने का स्थान। वास्तु शास्त्र प्राचीन विज्ञान है जो सृष्टि के मुख्य तत्वों का निःशुल्क लाभ प्राप्त करने में मदद करता है। ये मुख्य तत्व हैं- आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। हम प्रत्येक प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिए वास्तु शांति करवाते हैं। उसके कारण जमीन या बांध, काम में प्रकृति अथवा वातावरण में रहा हुआ वास्तु दोष दूर होता है। गृह प्रवेश के पूर्व वास्तु शांति कराना शुभ होता है। इसके लिए शुभ नक्षत्र, वार एवं तिथि इस प्रकार हैं- शुभ वार- सोमवार, बुधवार, गुरुवार व शुक्रवार शुभ हैं। शुभ तिथि- शुक्लपक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी एवं त्रयोदशी। शुभ नक्षत्र- अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, उत्ताफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, अनुराधा एवं मघा। अन्य विचार- चंद्रबल, लग्न शुद्धि एवं भद्रादि का विचार कर लेना चाहिए। क्या है वास्तु शांति की विधि स्वस्तिवाचन, गणपति स्मरण, संकल्प, श्री गणपति पूजन, कलश स्थापन और पूजन, पुनःवचन, अभिषेक, शोडेशमातेर का पूजन, वसोधेरा पूजन, औशेया मंत्रजाप, नांन्देशराद, आचार्य आदे का वरेन, योग्ने पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, अग्नि स्थापन, नवग्रह स्थापन और पूजन, वास्तु मंडल पूजन और स्थापन, गृह हवन, वास्तु देवता होम, बलिदान, पूर्णाहुति, त्रिसुत्रेवस्तेन, जलदुग्धारा और ध्वजा पताका स्थापन, गतिविधि, वास्तुपुरुष-प्रार्थना, दक्षिणासंकल्प, ब्राह्मण भोजन, उत्तर भोजन, अभिषेक, विसर्जन। उपयुक्त वास्तु शांति पूजा के हिस्सा हैं। सांकेतिक वास्तुशांतिः सांकेतिक वास्तु शांति पूजा पद्धति भी होती है, इस पद्धति में हम नोंध के अनुसार वास्तु शांति पूजा में से नजरअंदार न कर सके वैसी वास्तु शांति पूजा का अनुसरण करते हैं। ‘विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र’ विधिवत अनुष्ठान करने से सभी ग्रह, नक्षत्र, वास्तु दोषों की शांति होती है। विद्याप्राप्ति, स्वास्थ्य एवं नौकरी-व्यवसाय में खूब लाभ होता है। कोर्ट-कचहरी तथा अन्य शत्रुपीड़ा की समस्याओं में भी खूब लाभ होता है। इस अनुष्ठान को करके गर्भाधान करने पर घर में पुण्यात्माएं आती हैं। सगर्भावस्था के दौरान पति-पत्नी तथा कुटुम्बीजनों को इसका पाठ करना चाहिए। अनुष्ठान-विधि: सर्वप्रथम एक चैकी पर सफेद कपड़ा बिछाएं। उस पर थोड़े चावल रख दें। उसके ऊपर तांबे का छोटा कलश पानी भर के रखें। उसमें कमल का फूल रखें। कमल का फूल बिल्कुल ही अनुपलब्ध हो तो उसमें अडूसे का फूल रखें। कलश के समीप एक फल रखें। तत्पश्चात तांबे के कलश पर मानसिक रूप से चारों वेदों की स्थापना कर ‘विष्णुसहस्रनाम’ स्तोत्र का सात बार पाठ सम्भव हो तो प्रातः काल एक ही बैठक में करें तथा एक बार उसकी फलप्राप्ति पढ़ें। इस प्रकार सात या इक्कीस दिन तक करें। रोज फूल एवं फल बदलें और पिछले दिन वाला फूल चैबीस घंटे तक अपनी पुस्तकों, दफ्तर, तिजोरी अथवा अन्य महत्त्वपूर्ण जगहों पर रखें व बाद में जमीन में गाड़ दें। चावल के दाने रोज एक पात्र में एकत्र करें तथा अनुष्ठान के अंत में उन्हें पकाकर गाय को खिला दें या प्रसाद रूप में बांट दें। अनुष्ठान के अंतिम दिन भगवान को हलवे का भोग लगायें। यह अनुष्ठान हो सके तो शुक्ल पक्ष में शुरू करें। संकटकाल में कभी भी शुरू कर सकते हैं। स्त्रियों को यदि अनुष्ठान के बीच में मासिक धर्म आते हों तो उन दिनों में अनुष्ठान बंद करके बाद में फिर से शुरू करना चाहिए। जितने दिन अनुष्ठान हुआ था, उससे आगे के दिन गिनें। इनका ध्यान रखें अपने नए या पुराने घर में घर के खिड़की-दरवाजे इस तरह होने चाहिए कि सूरज की रोशनी अच्छी तरह से घर के अंदर आए। ड्रॉइंग रूम में फूलों का गुलदस्ता लगाएं। रसोई घर में पूजा की आलमारी या मंदिर नहीं रखना चाहिए। बेडरूम में भगवान के कैलेंडर, तस्वीरें या फिर धार्मिक आस्था से जुड़ी वस्तुएं न रखें। घर में टॉयलेट के बगल में देवस्थान नहीं होना चाहिए। दीपावली अथवा अन्य किसी शुभ मुहूर्त में अपने घर में पूजास्थल में वास्तुदोषनाशक कवच की स्थापना करें और नित्य इसकी पूजा करें। इस कवच को दोषयुक्त स्थान पर भी स्थापित करके आप वास्तुदोषों से सरलता से मुक्ति पा सकते हैं। अपने घर में ईशान कोण अथवा ब्रह्मस्थल में स्फटिक श्रीयंत्र की शुभ मुहूर्त में स्थापना करें। यह यन्त्र लक्ष्मीप्रदायक भी होता ही है, साथ ही साथ घर में स्थित वास्तुदोषों का भी निवारण करता है। प्रातःकाल के समय एक कंडे पर थोड़ी अग्नि जलाकर उस पर थोड़ी गुग्गल रखें और ऊँ नारायणाय नमः मंत्र का उच्चारण करते हुए तीन बार घी की कुछ बूँदें डालें। अब गुग्गल से जो धूम्र उत्पन्न हो, उसे अपने घर के प्रत्येक कमरे में जाने दें। इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा खत्म होगी और वातुदोषों का नाश होगा। प्रतिदिन शाम के समय घर मं कपूर जलाएं इससे घर में मौजूद नकारात्मक ऊर्जा खत्म हो जाती है। वास्तु पूजन के पश्चात् भी कभी-कभी मिट्टी में किन्हीं कारणों से कुछ दोष रह जाते हैं जिनका निवारण कराना आवश्यक है। घर के सभी प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिए मुख्य द्वार पर एक ओर केले का वृक्ष दूसरी ओर तुलसी का पौधा गमले में लगायें। दुकान की शुभता बढ़ाने के लिए प्रवेश द्वार के दोनों ओर गणपति की मूर्ति या स्टिकर लगायें। एक गणपति की दृष्टि दुकान पर पड़ेगी, दूसरे गणपति की बाहर की ओर। हल्दी को जल में घोलकर एक पान के पत्ते की सहायता से अपने सम्पूर्ण घर में छिडकाव करें। इससे घर में लक्ष्मी का वास तथा शांति भी बनी रहती है अपने घर के मन्दिर में घी का एक दीपक नियमित जलाएं तथा शंख की ध्वनि तीन बार सुबह और शाम के समय करने से नकारात्मक ऊर्जा घर से बाहर निकलती है। घर में उत्पन्न वास्तुदोष घर के मुखिया के लिए कष्टदायक होते हैं। इसके निवारण के लिये घर के मुखिया को सातमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए। यदि आपके घर का मुख्य द्वार दक्षिणमुखी है, तो यह भी मुखिया के लिये हानिकारक होता है। इसके लिये मुख्य द्वार पर श्वेतार्क गणपति की स्थापना करनी चाहिए। अपने घर के पूजा घर में देवताओं के चित्र भूलकर भी आमने-सामने नहीं रखने चाहिए इससे बड़ा दोष उत्पन्न होता है। अपने घर के ईशान कोण में स्थित पूजा-घर में अपने बहुमूल्य वस्तुएं नहीं छिपानी चाहिए। पूजाकक्ष की दीवारों का रंग सफेद, हल्का पीला अथवा हल्का नीला होना चाहिए। यदि झाड़ू से बार-बार पैर का स्पर्श होता है, तो यह धन-नाश का कारण होता है। झाड़ू के ऊपर कोई वजनदार वास्तु भी नहीं रखें। ध्यान रखें की बाहर से आने वाले व्यक्ति की दृष्टि झाड़ू पर न पड़े। अपने घर में दीवारों पर सुन्दर, हरियाली से युक्त और मन को प्रसन्न करने वाले चित्र लगाएं। इससे घर के मुखिया को होने वाली मानसिक परेशानियों से निजात मिलती है। घर के पूर्वोत्तर दिशा में पानी का कलश रखें। इससे घर में समृद्धि आती है। बेडरूम में भगवान के कैलेंडर या तस्वीरें या फिर धार्मिक आस्था से जुड़ी वस्तुएं नहीं रखनी चाहिए। बेडरूम की दीवारों पर पोस्टर या तस्वीरें नहीं लगाएं तो अच्घ्छा है। हां अगर आपका बहुत मन है, तो प्राकृतिक सौंदर्य दर्शाने वाली तस्वीर लगाएं। इससे मन को शांति मिलती है, पति-पत्नी में झगड़े नहीं होते। वास्तु पुरूष की मूर्ति, चांदी का नाग, तांबा का वायर, मोती और पौला ये सब वस्तुएं लाल मिटटी के साथ लाल कपड़े में रखकर उसको पूर्व दिशा में रखें। लाल रेती, काजू, पौला को लाल कपड़ों में रख कर मंगलवार को पश्चिम दिशा में रखकर उसकी पूजा की जाए तो घर में शांति की वृद्धि होती है। प्रवेश की सीढ़ियों की प्रतिदिन पूजा करें, वहां कुंकुम और चावल के साथ स्वास्तिक, मिट्टी के घड़े का चित्र बनाएं। रक्षोज्ञा सूक्त जप, होम, अनुष्ठान इत्यादि भी करना चाहिए। ओम नमो भगवती वास्तु देवताय नमः। इस मंत्र का जप प्रतिदिन 108 बार और कुल 12500 जप करें और अंत में दशांश होम करें। वास्तु पुरुष की प्रार्थना करें। दक्षिण-पश्चिम दिशा अगर कट गई हो अथवा घर में अशांति हो तो पितृशांति, पिंडदान, नागबली, नारायण बलि इत्यादि करें। प्रत्येक सोमवार और अमावास्या के दिन रुद्री करें। घर में गणपति की मूर्ति या छवि रखें। प्रत्येक घर में पूजा कक्ष बहुत जरूरी है। नवग्रह शांति के बिना गृह प्रवेश मत करें। जो मकान बहुत वर्षों से रिक्त हो उसको वास्तुशांति के बाद में उपयोग में लाना चाहिए। वास्तु शांति के बाद उस घर को तीन महिने से अधिक समय तक खाली मत रखें। भंडार घर कभी भी खाली मत रखें। घर में पानी से भरा मटका हो वहां पर रोज सांझ को दीपक जलाएं। प्रति वर्ष ग्रह शांति कराएं क्योंकि हम अपने जीवन में बहुत से पाप करते रहते हैं।

विद्यार्थी जीवन में उपलब्धि हेतु शास्त्रीय उपाय



पढ़ाई-लिखाई में सफलता के शास्त्रीय उपाय विद्यार्थी जगत की उपलब्धियों में पुस्तक, विद्यालय और शिक्षक के अलावा जिन महत्वपूर्ण बातों का विशिष्ट योगदान रहता है। उनमें परिवेश अर्थात वास्तु एवं अन्य कारकों का सही योगदान होने और कुछ छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने से उपलब्धि की गुणवत्ता निश्चित रूप से कई गुना बढ़ जाती है। यहां ऐसे कुछ घटक तत्वों और कारकों का उल्लेख है जिनका लाभ सभी विद्यार्थी उठा सकते हैं। वास्तु शास्त्र : अध्ययन कक्ष एक ऐसा स्थान है, जहां पर व्यक्ति ज्ञान, बुद्धि के साथ-साथ पढ़ने के शौक को पूरा करता है। इस कक्ष का वास्तविक क्षेत्र, भवन के उत्तर-पूर्व में होता है। इसके अलावा यह कक्ष उत्तर, पूर्व तथा पश्चिम दिशा के बीच भी हो सकता है। दक्षिण-पश्चिम (नैत्य कोण) दक्षिण, वायव्य कोण अध्ययन कक्ष के लिए उपयुक्त नहीं होते। उत्तर-पश्चिम दिशा के बढ़े हुए भाग में बच्चों को कभी अध्ययन न करने दें। यहां अध्ययन करने से बच्चे के घर से भागने की इच्छा होगी। अध्ययन-कक्ष में विद्यार्थियों को सदैव पूर्व, उत्तर या ईशान कोण की तरफ मुंह करके पढ़ना चाहिए। इससे वह विलक्षण प्रतिभा का धनी व ज्ञानवान होगा। पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पढ़ने वाले बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस अधिकारी तक हो सकते हैं। पूर्व दिशा लिखने-पढ़ने के लिए सर्वोत्तम होती है। उत्तर-पूर्व में रहने वाले बच्चे की सेहत भी काफी अच्छी रहती है। मकान के उत्तर-पूर्व कोण के बने कमरे में दक्षिण या पश्चिम की ठोस दीवार के सहारे बैठकर पढ़ने से सफलता जल्दी मिलती है। इस कमरे में उत्तर-पूर्व की दीवार पर रोशनदान या खिड़की जरूर होनी चाहिए। बच्चे को आग्नेय कोण में बैठकर पढ़ने से मना करें, क्योंकि यहां बैठने से रक्तचाप बढ़ता है और बच्चा हमेशा ही पेरशान रहता है। मेहनत करने के बावजूद भी सफलता हाथ नहीं लगती। पढ़ाई हो या दफ्तर, पीठ के पीछे खिड़की शुभ नहीं होती। इससे पढ़ाई/नौकरी छूट जाती है। पीछे व कंधे पर रोशनी या हवा का आना अशुभता को ही दर्शाता है। जिस मकान में, जहां कहीं भी तीन या इससे अधिक दरवाजे एक सीध में हो या गली की सीध में हों तो उसके बीच में बैठकर नहीं पढ़ना चाहिए। इसके बीच में बैठकर पढ़ने से बच्चे की सेहत ठीक नहीं रहती, साथ ही पढ़ने में भी मन नहीं लगता। विद्यार्थियों को किसी बीम या दुछत्ती के नीचे बैठकर पढ़ना या सोना नहीं चाहिए, अन्यथा मानसिक तनाव उत्पन्न होता है। अध्ययन कक्ष की दीवार या पर्दे का रंग हल्का पीला, हल्का हरा, हल्का आसमानी हो तो बेहतर है। कुंडली के अनुसार शुभ रंग जानकर अगर दीवारों पर करवाया जाये, तो ज्यादा बेहतर परिणाम सामने आते हैं। यदि विद्यार्थी कम्प्यूटर का प्रयोग करते हैं तो कम्प्यूटर आग्नेय से दक्षिण व पश्चिम के मध्य कहीं भी रख सकते हैं। ईशान कोण में कभी भी कम्प्यूटर न रखें। अध्ययन-कक्ष के टेबल पर उत्तर-पूर्व कोण में एक गिलास पानी का रखें। इसके अलावा टेबल के सामने या पास में मुंह देखने वाला आईना न रखें। अध्ययन कक्ष में सोना मना है। इस कारण से वहां पर पलंग, गद्दा-रजाई आदि नहीं होनी चाहिए। वैसे सोते समय बच्चे का सिर पूर्व दिशा या दक्षिण दिशा की ओर अच्छा रहता है। रुद्राक्ष रत्न कवच : यह कवच चार मुखी रुद्राक्ष एवं पन्ना रत्न के संयुक्त मेल से निर्मित होता है। चार मुखी रुद्राक्ष ब्रह्मा जी का स्वरूप होने से इसे विद्या प्राप्ति के लिए धारण करना शुभ होता है। पन्ना रत्न से बुद्धि का विकास होता है, जिससे पढ़ाई में अच्छी सफलता प्राप्त होती है। सरस्वती यंत्र : जिन विद्यार्थियों को अधिक मेहनत करने पर भी परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त नहीं होते, उन्हें यह यंत्र घर में स्थापित करना चाहिए और श्रद्धा से धूप, दीप, गंध, अक्षत आदि से पूजन तथा निम्न मंत्र का जप करना चाहिए। मंत्र : ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं सरस्वत्यै नमः॥ या देवि सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ फेंगशुई : अगर बच्चे का पढ़ाई में मन नहीं लगा रहा हो, तो टेबल पर एजुकेशन टावर लगाना चाहिए। इसके प्रभाव से बच्चे की पढ़ाई में एकाग्रता बढ़ेगी और पढ़ाई में बच्चे का मन लगने लगेगा। बच्चे की परीक्षा में शानदार सफलता के लिए अध्ययन कक्ष में स्फटिक गोले उत्तर दिशा में लटकाने चाहिए। नवरत्न का पौधा बच्चे के नवग्रह को ठीक करता है। इसे उत्तर दिशा में लगाना चाहिए। विद्यार्थी अपनी मेज पर ग्लोब रखें और इसे दिन में तीन बार घुमाएं। पिरामिड : पिरामिड का जल अगर बच्चे को पिलाया जाये तो बच्चे की सेहत ठीक रहेगी और बच्चे की पढ़ाई में रुचि बढ़ेगी। तंत्र व टोटके : अगर बच्चा पढ़ाई में मन नहीं लगा रहा हो तो एक साबुत नींबू लेकर बच्चे के सिर के ऊपर से सात बार उतारें, उतारते समय नींबू से निवेदन करें कि 'अमुक की हर बला तेरे सर'। इसके पश्चात नींबू को आड़ा काटकर किसी चौराहे पर फैंक दें और बिना मुड़े वापिस आ जायें। बच्चे को अगर नजर लगी हो तो बच्चे का पढा़ई में मन नहीं लगता। इसके उपाय के लिए 7 लाल मिर्च, 1 चम्मच राई को लेकर बच्चे के सिर पर से विपरीत दिशा में सात बार उतारकर अग्नि में डाल दें। इससे बड़ी से बड़ी नजर तुरंत उतर जाती है। बच्चे को नजर लगने पर अपने मकान की देहली पर बिठाकर काली उड़द, नमक व मिट्टी को बराबर मात्रा में लेकर सात बार उतारकर दक्षिण दिशा में फैंक दें। 11 गोमती चक्र बच्चे के सिर पर से सात बार उतारकर प्रवाहित करें। यह उपाय लगातार सात सोमवार करें। बच्चे का पढ़ाई में मन लगना शुरू हो जायेगा। प्रत्येक बुधवार को गाय को हरा चारा डालें, इससे बच्चे को विद्या और बुद्धि आती है। जिन बच्चों की स्मरण शक्ति कमजोर हो, उन्हें नियमित रूप से 11 तुलसी के पत्तों का रस मिश्री के साथ देने से स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है।

टैरो के विभिन्न कार्ड्स और उनके फल

जैसा कि आप जानते हैं, टैरो में कुल 78 कार्ड होते हैं। ये मुख्यतः दो भागों में बंटे होते हैं- मेजर आरकाना व माइनर आरकाना। मेजर आरकाना में ‘0’ से लेकर ‘21’ तक कुल 22 कार्ड होते हैं तथा माइनर आरकाना में ‘56’ कार्ड होते हैं। जहां मेजर आरकाना ब्रह्मांडीय विषयों (मूल तत्वों, गृह व राशियों) को व्यावहारिक क्षेत्र में लाकर यह बताते हैं कि जीवन की रोजमर्रा की घटनाओं में वे कैसे लागू होते हैं। माइनर आरकाना कार्ड्स प्रतिनिधित्व करते हैं उन सरोकारों, गतिविधियों तथा भावनाओं का जो जीवन की प्रतिदिन की प्रक्रिया को स्थापित करती है। इस बार आप को कुछ मेजर आरकाना कार्ड्स के बारे में बताएंगे। क्रम कार्ड का नाम कार्ड का विवरण कार्ड का फल 0 दी फूल (मूर्ख) तत्व-वायु यह कार्ड अप्रत्याशित घटना का या खबर का प्रतीक है। ऐसे प्रभाव जो जातक की निर्णय क्षमता एवं रूचियों को नाटकीय ढंग से बदल देता है तथा सत्य को न पहचानना, बच्चे जैसी आदतें, साफ दिल का, भ्रष्टाचार से कोसों दूर, धर्म की कमी, किसी भी कार्य को करने की अधीरता, अत्यधिक आशावादी, रोमांचकारी कार्य को करने केी उत्सुकता, हाजिर जवाब व बेफ्रिक।
1 दी मैजिशियन (जादूगर) ग्रह-बुध यह एक शुभ कार्ड है जो नये अवसर, नए उद्यम, दृढ़ इच्छा शक्ति एवं प्रत्येक नए काम में उमंग के साथ समाहित होने का प्रतीक है। आगे बढ़-चढ़कर भाग लेना, अपनी काबिलियत को पहचानना। ज्ञान सफलता की कुंजी है परंतु अपने को धोखे में न रखें कि वह हर समस्या का समाधान जानते हैं। अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखें। अपनी बात व काम को कैसे पूरा करना है वह भली भांति जानता है व उसे पूरा भी करता है।
2 दी कार्ड प्रीस्टेस (पुजारिन) ग्रह- चंद्रमा यह कार्ड रहस्यों की मार्गदर्शिका का बोध कराता है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी रहस्य से पर्दाफाश होने वाला है या जातक किसी रहस्य को उजागर करना चाहता या चाहती है। रहस्यमयी, मन की छुपी भावनाएं, पूर्वाभास, स्त्रीशक्ति, शांत व्यक्तित्व।
3 दी एम्प्रैस (महारानी) ग्रह-शुक्र यह कार्ड प्रेम, शादी, भरोसे, समृद्धि तथा जन्म का प्रतीक है। इससे यह समझना चाहिए कि कोई स्वागत योग्य शुभ घटना घटने वाली है। किसी नए घटना का उदय होना व बढ़ना, सुख समृद्धि, सृजनात्मकता, अत्यधिक स्नेह भाव, जीवन के प्रति सकारात्मक सोच, कला व सौंदर्य पर ध्यान केंद्रित करना, प्राकृतिक सौंदर्य में रहना पसंद करना, सुख सुविधाओं में भरपूर जीवन जीना।
4 दी एम्परर (महाराना) राशि-मेष यह उपलब्धि और सम्मान का प्रतीक है तथा कई बार पुरूष के अदम्य प्रभाव का द्योतक भी होता है जैसे- पिता/पति/साझेदार या जातक के जीवन में किसी पुरूष या उच्चाधिकारी का प्रभाव होता है। अदम्य शक्ति, प्रतिनिधित्व, सबसे आगे बढ़कर कार्य करना व अन्य लोग उनकी राह पर चलना पसंद करते हैं। न्याय प्रिय व न्याय प्रणाली को सही तरीके से बनाए रखना।
5 दी हायरोफेंट (ज्योतिषी) राशि-वृष यह नैतिक कानून, चतुर और बुद्धिमान, परामर्शदाता, व्यावहारिक निर्देशक या आध्यात्मिक गुरु का प्रतीक है। पारंपरिक रीति-रिवाजों को जो मूलतः दकियानूसी विचार वाला है, जो नई बात तलाशने के हक में नहीं है। इस कार्ड का प्रकटन विवाह या विवाह की कामना एवं कानूनी जिम्मेदारियों और सरकारी दस्तावेजों की ओर इंगित करता है।
6. दी लवर्स (प्रेमी) राशि-मिथुन यह प्रेमी युगल का प्रतीक है, जातक के जीवन में प्रवेश करने वाले नए प्रेम-संबंध का संकेतक है जिसे जातक स्वयं नहीं देख सकता परंतु प्राप्त करने पर आश्चर्यचकित रह जाता है तथा प्रेम व कत्र्तव्य के बीच निर्णय को स्थापित करता है।
7. दी चैरियट (रथ) राशि-कर्क यह संघर्ष या टकरावों के पश्चात् विजय का प्रतीक है। इसलिए यह कार्ड यह सलाह देता है कि यदि किसी संघर्ष में जातक फंसा है तो उसे प्रयत्न जारी रखने चाहिए क्योंकि अंततः विजय जातक की होगी।
8. जस्टिस (न्यायाधीश) राशि-तुला यह न्याय व ईमानदारी का परिचायक होता है तथा हर मामले में संतुलन को प्रदर्शित करता है। साझेदारी, मुकदमे इत्यादि के मामले में सभी के साथ न्याय एवं ईमानदारी को दिखाता है चाहे यह हिस्सा व्यापार का हो या व्यक्तिगत।
9. दी हरमिट (साधु-संन्यासी) राशि-कन्या यह कार्ड आत्म-विश्लेषण तथा शांति एवं एकांत की कामना का प्रतीक हैं। यह जातक को चेतावनी देता है कि निर्णय जल्दबाजी या अधीरता से न लिया जाए बल्कि किसी भरोसेमंद व्यक्ति से उचित सलाह लेकर निर्णय लें। यह निर्णय मुख्यतः स्वास्थ्य से संबंधित भी हो सकते हैं। इससे पता चलता है कि जातक की बीमारी के बाद स्वस्थ होने के लिए कितने समय तक आराम करना चाहिए।
10. दी व्हील आॅफ फाॅरच्यून (भाग्य चक्र) ग्रह-बृहस्पति यह जीवन के नर चक्र का प्रतीक है। इसका अर्थ है सौभाग्यशील एवं सुनहरा भविष्य। यह भी भाग्य है जो आप इस अवसर में आए न कि आप अपनी मर्जी से आए। मौजूदा समस्याओं का अंत और पूर्व समय में किये गए प्रयत्नों का प्रतिफल या ईनाम प्राप्त होता है।
11. स्ट्रेन्थ (शक्ति) राशि-सिंह इसका तात्पर्य केवल भौतिक शक्ति नहीं बल्कि भयंकर दबाव की स्थिति में सहजता से कार्य करने की क्षमता को प्रकट करता है तथा इसका अंत सफलता के साथ होता है।
12. दी हैंगमैन (फांसी) तत्व-जल ग्रह-नेप्च्यून यह जातक के पार्थिव या भावनात्मक बदलाव का प्रतीक है। साथ ही जातक में परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल पाने की योग्यता को दर्शाता है।
13. डेथ (मृत्यु) राशि-वृश्चिक यह कार्ड भयदायक जरूर प्रतीत होता है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। यह पुराने कामों की समाप्ति या नए कामों की शुरूआत को बताता है।
14. टेम्परेंस (धैर्य) राशि-धनु यह आत्म नियंत्रण, ज्वलनशील मुद्दों को ठंडे दिमाग से निबटने का प्रतीक है जिससे कि सकारात्मक परिणाम मिल सकें।
15. दी डेविल (शैतान) राशि-मकर यह कार्ड एक शुभ संकेतक है। यदि किसी विवाह में प्रतिबद्धता या रिश्तों की ईमानदारी का प्रश्न हो तो इसे सच्चाई, ईमानदारी एवं वफादारी का प्रेमपूर्ण प्रतीक समझा जाना चाहिए।
16. दी टाॅवर (मीनार) ग्रह-मंगल डेथ और डेविल के पश्चात् यह कार्ड बेहद भय एवं खौफ का वातावरण प्राप्त करता है। अप्रत्याशित घटनाओं के बारे में जो तहस-नहस करने वाली लेकिन उसके बाद मजबूत होकर उभरेंगे तथा समस्याओं के विलंब की ओर इशारा करता है।
17. दी स्टार (तारे) राशि-कुंभ यह एक फलदायक कार्ड है जो भविष्य का प्रतीक है व अंतदृष्टि प्रदान करता है। इसमें आशीर्वाद, उम्मीद, निष्ठा का दृष्टिकरण एवं अप्रत्याशित उपहार समाहित है।
18. दी मून (चंद्रमा) राशि-मीन यह जातक की तीव्र भावनात्मक अभिव्यक्ति और संशय की स्थिति प्रदर्शित करता है। परंतु यह जातक की राह को जगमगा देने वाला होता है भले ही मन में कितना भी भय क्यों न हो अर्थात् रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो, अंततः सफलता की प्राप्ति कराता है।
19. दी सन (सूर्य) राशि-सूर्य यह उत्तम कार्डों में से है जो बताता है कि समय बहुत हर्षदायक और प्रसन्नतावर्द्धक स्थिति की ओर अग्रसर है, मस्ती भरी छुट्टियां, चारों ओर से बच्चों के संबंध में शुभ समाचार या काफी समय पश्चात् बच्चे के जन्म का प्रतीक माना जाता है। परिवार व मित्रों के साथ मौज-मजा, प्रिय और सौहार्दपूर्ण संबंधों का प्रतीक है।
20 जजमेंट (निर्णय) ग्रह-प्लूटो तत्व अग्नि यह वर्तमान पूर्णता एवं पूर्व समय में किए गए प्रयत्नों के पुरस्कार का द्योतक है अर्थात् पुराने प्रयत्नों के समापन एवं नए कामों की शुरूआत का प्रतीक है।
21 दी वल्र्ड (विश्व) ग्रह-शनि यह जातक की हार्दिक इच्छा की संपूर्ति का प्रतीक है चाहे वह कुछ भी क्यों न हो अर्थात् उपलब्धि का समय, मान्यता, सफलता पाने की घड़ी और विजयश्री की उपलब्धि का प्रतीक है। मूर्ख (दी फूल): यह कार्ड उदित हो तो अप्रत्याशित घटना या खबर की आशा करनी चाहिए, एक ऐसे प्रभाव की जो नाटकीय रूप से आपके निर्णय को बदल दे। यह कार्ड नई शुरूआत का, अनजान जगह के लिए यात्रा-जिसमें बहुत मजा आए-सूचक है। रास्ते में हुए अनुभव यात्री को अधिक तजुर्बेकार और बुद्धिमान बना देंगे। लेकिन यदि पठन सत्र में पहली बार ये ही उदय हो जाए तो समझना चाहिए कि एक दुःसाहसिक बेवकूफी होगी या पूछा हुआ सवाल ही गलत होगा या इसे पूछने का कारण ही गलत होगा। दी फूल रीडिंग एक ऐसे व्यक्ति का भी परिचायक होता है जो अनूठा, लीक से हटकर चलने वाला, वासना से परिपूर्ण और सनकी हो सकता है। जादूगर: (दी मैजिशियन) यह एक उम्दा कार्ड है जो नए अवसरों का, नए उद्यम की महत्ता, दृढ़ इच्छा शक्ति एवं हर काम में उमंग के समावेश होने का प्रतीक है। इसका पारे जैसा ढुलमुल स्वभाव है। आप स्वयं का आकलन कर अपनी जमीन पर रहेंगे और साम-दाम, दंड-भेद से अपना लक्ष्य अवश्य प्राप्त कर लेंगे। ऋणात्मक रूप से यह कार्ड चालबाजी, धोखाधड़ी को स्थापित कर यह चेतावनी देता है कि किसी पर भी विश्वास बहुत सोच समझकर करें। कभी-कभी इसका उल्टा प्रभाव अपने आत्म-विश्वास में कमी तथा अनिर्णयात्मक स्थिति का द्योतक है। पुजारिन (दी हाई प्रीस्टेस) यह रहस्यों की मार्ग-दर्शिका के रूप में कार्ड-पठन में उभरती है। इसका संकेत है कि किसी रहस्य से पर्दाफाश होने वाला है या कोई रहस्य आप उजागर करना चाहते हैं। आपको समझना होगा कि अपने आंतरिक अभास पर भरोसा करने का समय आ गया है। इतनी अंतप्र्रज्ञा शक्ति को ही अपना मार्ग-दर्शन करने दीजिए। यह उस व्यक्ति की तरफ भी इशारा करेगी जिससे आपको मशविरा लेना चाहिए। यदि किसी आदमी के लिए कार्ड पठन हो रहा है तो यह उसके जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण महिला की तरफ इशारा करता है। इसका ऋणात्मक पक्ष है किसी महिला का उस पर गलत प्रभाव डालना। महारानी (दी एम्प्रेस): यह प्रतीक है प्रेम, भरोसे, समृद्धि तथा जन्म का इसलिए जब यह प्रकट होती है तो समझिए कोई स्वागत योग्य स्थिति घटने वाली है। दी एम्प्रेस सृजनात्मकता का होना इंगित करता है। दी एम्प्रेस धन संबंधी चिंताएं तथा अनचाहे गर्भ या अनुर्वरता का निर्देश देती है। महाराज (दी एम्परर): यह प्रतीक है उपलब्धि एवं सम्मान का और कई बार पुरुष के अदम्य प्रभाव का द्योतक भी होता है जैसे पिता/ पति/साझेदार या आपके जीवन में किसी पुरुष या बाॅस का प्रभाव। जब यह कार्ड सही स्थिति में प्रकट हो तो समझिए आपके प्रभाव और रूतबे में वृद्धि होने वाली है या आपका रौब लोगों पर कायम होगा। ऋणात्मक रूप से दी एम्परर का प्रकटन निर्देश देता है कि कोई दबंग या तानाशाही व्यक्ति आप पर जबरदस्ती, अपनी सत्ता के कारण रौब गांठने वाला है। अन्य ऋणात्मक निर्देश असफल आकांक्षा, पद स्थिति की अदम्य लालसा और किसी सत्ताधारी व्यक्ति के कारण असुरक्षा की भावना।

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