Wednesday 20 April 2016

नक्षत्रों में शुभ मुहूर्त की चर्चा



नक्षत्रों के दर्पण में शुभ मुहूर्त मुंडन तथा विद्यारंभ जैसे संस्कारों के लिए तथा दुकान खोलने, सामान खरीदने-बेचने और ऋण तथा भूमि के लेन-देन और नये-पुराने मकान में प्रवेश के साथ यात्रा विचार और अन्य अनेक शुभ कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों के साथ-साथ कुछ तिथियों तथा वारों का संयोग उनकी शुभता सुनिश्चित करता है। नक्षत्र ही भारतीय ज्योतिष का वह आधार है जो हमारे दैनिक जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों को प्रभावित करता है। अतः हमें कोई भी कार्य करते हुए उससे संबंधित शुभ नक्षत्रों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए जिससे हम सभी कष्ट एवं विघ्न बाधाओं से दूर रहकर नयी ऊर्जा को सफल उद्देश्य के लिए लगा सकें। विभिन्न कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों को जानना आवश्यक है। नामकरण के लिए : संक्रांति के दिन तथा भद्रा को छोड़कर 1, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 12, 13 तिथियों में, जन्मकाल से ग्यारहवें या बारहवें दिन, सोमवार, बुधवार अथवा शुक्रवार को तथा जिस दिन अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, अभिजित, पुष्य, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा इनमें से किसी नक्षत्र में चंद्रमा हो, बच्चे का नामकरण करना चाहिए। मुण्डन के लिए : जन्मकाल से अथवा गर्भाधान काल से तीसरे अथवा सातवें वर्ष में, चैत्र को छोड़कर उत्तरायण सूर्य में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार को ज्येष्ठा, मृगशिरा, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, अश्विनी, अभिजित व पुष्य नक्षत्रों में, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तिथियों में बच्चे का मुंडन संस्कार करना चाहिए। ज्येष्ठ लड़के का मुंडन ज्येष्ठ मास में वर्जित है। लड़के की माता को पांच मास का गर्भ हो तो भी मुण्डन वर्जित है। विद्या आरंभ के लिए : उत्तरायण में (कुंभ का सूर्य छोड़कर) बुध, बृहस्पतिवार, शुक्रवार या रविवार को, 2, 3, 5,6, 10, 11, 12 तिथियों में पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मूल, पूष्य, अनुराधा, आश्लेषा, रेवती, अश्विनी नक्षत्रों में विद्या प्रारंभ करना शुभ होता है। दुकान खोलने के लिए : हस्त, चित्रा, रोहिणी, रेवती, तीनों उत्तरा, पुष्य, अश्विनी, अभिजित् इन नक्षत्रों में, 4, 9, 14, 30 इन तिथियों को छोड़कर अन्य तिथियों में, मंगलवार को छोड़कर अन्य वारों में, कुंभ लग्न को छोड़कर अन्य लग्नों में दुकान खोलना शुभ है। ध्यान रहे कि दुकान खोलने वाले व्यक्ति की अपनी जन्मकुंडली के अनुसार ग्रह दशा अच्छी होनी चाहिए। कोई वस्तु/सामान खरीदने के लिए : रेवती, शतभिषा, अश्विनी, स्वाति, श्रवण, चित्रा, नक्षत्रों में वस्तु/सामान खरीदना चाहिए। कोई वस्तु बेचने के लिए : पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, कृत्तिका, आश्लेषा, विशाखा, मघा नक्षत्रों में कोई वस्तु बेचने से लाभ होता है। वारों में बृहस्पतिवार और सोमवार शुभ माने गये हैं। ऋण लेने-देने के लिए : मंगलवार, संक्रांति दिन, हस्त वाले दिन रविवार को ऋण लेने पर ऋण से कभी मुक्ति नहीं मिलती। मंगलवार को ऋण वापस करना अच्छा है। बुधवार को धन नहीं देना चाहिए। कृत्तिका, रोहिणी, आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तरा तीनों, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल नक्षत्रों में, भद्रा, अमावस में गया धन, फिर वापस नहीं मिलता बल्कि झगड़ा बढ़ जाता है। भूमि के लेन-देन के लिए : आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, मूल, विशाखा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में, बृहस्पतिवार, शुक्रवार 1, 5, 6, 11, 15 तिथि को घर जमीन का सौदा करना शुभ है। नूतन ग्रह प्रवेश : फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ मास में, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती नक्षत्रों में, रिक्ता तिथियों को छोड़कर सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को नये घर में प्रवेश करना शुभ होता है। (सामान्यतया रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ा, चित्रा व उ. भाद्रपद में) करना चाहिए। यात्रा विचार : अश्विनी, मृगशिरा, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्रों में यात्रा शुभ है। रोहिणी, ज्येष्ठा, उत्तरा-3, पूर्वा-3, मूल मध्यम हैं। भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मघा, आश्लेषा, चित्रा, स्वाति, विशाखा निन्दित हैं। मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रिक्ता और दिक्शूल को छोड़कर सर्वदा सब दिशाओं में यात्रा शुभ है। जन्म लग्न तथा जन्म राशि से अष्टम लग्न होने पर यात्रा नहीं करनी चाहिए। यात्रा मुहूर्त में दिशाशूल, योगिनी, राहुकाल, चंद्र-वास का विचार अवश्य करना चाहिए। वाहन (गाड़ी) मोटर साइकिल, स्कूटर चलाने का मुहूर्त : अश्विनी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, पुनर्वसु, पुष्य, ज्येष्ठा, रेवती नक्षत्रों में सोमवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार व शुभ तिथियों में गाड़ी, मोटर साइकिल, स्कूटर चलाना शुभ है। कृषि (हल-चलाने तथा बीजारोपण) के लिए : अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरा तीनों, अभिजित, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, मूल, धनिष्ठा, रेवती, इन नक्षत्रों में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को, 1, 5, 7, 10, 11, 13, 15 तिथियों में हल चलाना व बीजारोपण करना चाहिए। फसल काटने के लिए : भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मृगशिरा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, हस्त, चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठा, मूल, पू.फाल्गुनी, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा तीनों, नक्षत्रों में, 4, 9, 14 तिथियों को छोड़कर अन्य शुभ तिथियों में फसल काटनी चाहिए। कुआँ खुदवाना व नलकूप लगवाना : रेवती, हस्त, उत्तरा भाद्रपद, अनुराधा, मघा, श्रवण, रोहिणी एवं पुष्य नक्षत्र में नलकूप लगवाना चाहिए। नये-वस्त्र धारण करना : अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, धनिष्ठा, रेवती शुभ हैं। नींव रखना : रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, हस्त, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा एवं श्रवण नक्षत्र में मकान की नींव रखनी चाहिए। मुखय द्वार स्थापित करना : रोहिणी, मृगशिरा, उ.फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद एवं रेवती में स्थापित करना चाहिए। मकान खरीदना : बना-बनाया मकान खरीदने के लिए मृगशिरा, आश्लेषा, मघा, विशाखा, मूल, पुनर्वसु एवं रेवती नक्षत्र उत्तम हैं। उपचार शुरु करना : किसी भी क्रोनिक रोग के उपचार हेतु अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, हस्त, उत्तराभाद्रपद, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा एवं रेवती शुभ हैं। आप्रेशन के लिए : आर्द्रा, ज्येष्ठा, आश्लेषा एवं मूल नक्षत्र ठीक है। विवाह के लिए : रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती शुभ हैं। दैनिक जीवन में शुभता व सफलता प्राप्ति हेतु नक्षत्रों का उपयोगी एवं व्यावहारिक ज्ञान बहुत जरूरी है। वास्तव में सभी नक्षत्र सृजनात्मक, रक्षात्मक एवं विध्वंसात्मक शक्तियों का मूल स्रोत हैं। अतः नक्षत्र ही वह सद्शक्ति है जो विघ्नों, बाधाओं और दुष्प्रभावों को दूर करके हमारा मार्ग दर्शन करने में सक्षम है।

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Tuesday 19 April 2016

माता-पिता के हाथों से संतान की शिक्षा का संबंध

यदि माता-पिता के हाथों में जीवन रेखा का जोड़ शृंखलाबद्ध होकर लंबा हो या दबाव पड़ रहा है तो इनके बच्चों की निर्णय शक्ति कमजोर पायी जाती है। इन्हें किसी भी काम के लिये दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इनके लिये व्यवसाय करना भी कठिन होता है। ये जल्दबाज होते हैं और इनकी पढ़ाई अधूरी रह जाती है। अगर उंगली छोटी हो तो मानसिक स्थिति पर भी प्रभाव पड़ता है। यदि मस्तिष्क रेखा और अधिक दूर तक हो और दोनों बिल्कुल अलग हो तो ऐसी संतान समझदार होती है, प्रत्येक कार्य को सोच समझकर करती है, शीघ्र निर्णय लेती है। अगर हाथ ज्यादा लंबा हो तो विचारते ज्यादा हैं, कार्य को करने में समय ज्यादा लगाते हैं। जीवन रेखा गोलाई लिये और मस्तिक रेखा उच्च के चंद्रमा पर जा रही हो और हृदय रेखा भी अच्छी हो और शनि को छू रही हो तो यदि ऐसे बच्चों को सही रास्ता मिले तो जगत में अपनी अच्छी पहचान बनाते हैं, बहुत ही उन्नति के शिखर पर चले जाते हैं। मस्तिष्क रेखा अगर मंगल की ओर जा रही हो तो यह योग्य संतान के लक्षण हैं। इन लोगों के बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सफलता प्राप्त करते हैं। अगर मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से अलग हो तो ये व्यावसायिक शिक्षा लेते हैं। यदि बृहस्पति क्षेत्र उन्नत हो, मस्तिष्क रेखा बृहस्पति से निकल रही हो, उंगली पतली हो तो अपने गुणों में अच्छे होते हैं। चतुर वाक् शक्ति होती है, ये बच्चे नेतागिरी में भी आते हैं। यदि किसी के पिता का बृहस्पति क्षेत्र अच्छा, सूर्य की उंगली सीधी हो, गुरु की उंगली सूर्य की उंगली से बड़ा हो तो इनको धीरे-धीरे तरक्की मिलती है। शिक्षा तो पूरी करते हैं किंतु कोई न कोई समस्या आती है जिससे शिक्षा प्रभावित होती है। यदि हृदय रेखा दूषित हो, साथ में मस्तिष्क रेखा भी दूषित हो, शुक्र क्षेत्र और चंद्र क्षेत्र ज्यादा हो तो पढ़ाई में कम ध्यान देते हैं। ऐसे बच्चों पर शिक्षा के लिये अधिक दबाव डालना चाहिये। यदि पिता के हाथ में मस्तिष्क रेखा एकदम मुड़कर, झुककर जाये तो इनकी संतान भी भावुक होती है। छोटी-छोटी बातों को मन पर लगाने की आदत होती है। शनि के नीचे रेखा टूटी हो या कोई द्वीप हो तो शिक्षा अधूरी रह जाती है। यदि मस्तिष्क रेखा चंद्र के ठीक बीच में जा रही हो, बृहस्पति क्षेत्र उच्च हो, हाथ नरम, रंग साफ, गुलाबी या सफेद उज्ज्वल हो तो बच्चे शिक्षा में अच्छा नाम करते हैं और अध्यात्म की ओर भी कुछ न कुछ अवश्य ही करते हैं। यदि हाथ टेढ़ा हो, काला हो या ज्यादा लाल रंग का हो तो संतान में चोरों वाली हरकतें आती हैं, शिक्षा अधूरी रहती है, चोरी चक्कारी के आदी हो जाते हैं। यदि भाग्य रेखा पर द्वीपयुक्त रेखा हो तो हर क्षेत्र में रूकावट, कष्ट उठाने पड़ते हैं तथा व्यापार में, विवाह में भी बाधा आती है। यदि भाग्य रेखा अच्छी हो, एक से ज्यादा हो तो संतान योग्य बनती है। हाथ अच्छा गुलाबी रंग का हो तो आय के साधन बच्चों को विरासत में मिलते हैं।

कारकांश लग्न और राशियों के हाल

ज्योतिष की अनेकों विद्याओं में से एक विद्या जैमिनी ज्योतिष भी है जिसे जैमिनी ऋषियों द्वारा उपदेश सूत्रों के रूप में दिया गया है यह विद्या पराशरीय प्रणाली से विभिन्न होते हुये भी काफी सटीक व सूक्ष्म फलित व गणित कर पाने में सक्षम है दक्षिण भारत में इस प्रणाली का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है इस जैमिनी ज्योतिषीय प्रणाली में कुछ अलग प्रकार के नियम व सिद्धांत रखे गये हैं जिनको समझ पाना थोड़ा दुष्कर प्रतीत होता है | कारकांश लग्न: जन्मपत्री में जिस ग्रह के अंश सबसे ज्यादा होते हैं उसे जैमिनी पद्धति में आत्मकारक कहा जाता है। यह आत्मकारक ग्रह नवांश कुंडली में जिस राशि में बैठा होता है उस राशि को यदि हम लग्न मान लें तो वह कारकांश लग्न कहलाता है यह कारकांश लग्न जातक के विषय में काफी सही व सटीक जानकारी प्रेषित करता है। जहां जन्म कुंडली का लग्न यह बताता है कि हम क्या बनना चाहते हंै वही कारकांश लग्न यह बताता है कि हम वास्तव में क्या है। इस कारकांश लग्न के द्वारा जैमिनी सूत्रों में बहुत सी जानकारी दी गई है जो हमने अपने प्रयासों और अनुभवों में काफी सही पाई परन्तु थोड़े से आधुनिक रूप के संदर्भों में इसमें बदलाव भी करने पड़े जिससे फलित काफी सटीक प्राप्त हुआ है। आइये इस कारकांश से संबंधित कुछ जानकारियां प्राप्त करते हैं। कारकांश लग्न से प्रत्येक भाव की विवेचना जन्मपत्री के लग्न के समान ही की जाती है जैसे विवाह हेतु सप्तम भाव व आजीविका हेतु दशम भाव का ही अध्ययन किया जाता है। कारकांश लग्न में उपस्थित राशि निम्न तरह की प्रकृति बताती है। 1. मेषः जातक के जीवन में पशुओं का प्रभाव रहता है आधुनिक संदर्भ में इसे चल सम्पत्ति माना जा सकता है। 2. वृष: खेती, दुग्ध व्यवसाय, वाहन आदि से लाभ प्राप्ति। 3. मिथुनः त्वचा रोग, मोटापा, गायन व विचारक प्रवृत्ति। 4. कर्क: जल से प्रभावित रहने वाला। 5. सिंह: जीवन क्षेत्र में काफी उतार-चढ़ाव रहेंगे। 6. कन्या: अग्नि से भय, त्वचा रोगी अथवा डाॅक्टर, गायक। 7. तुला: व्यापार करने वाला। 8. वृश्चिक: विषैली दवा से कष्ट प्राप्ति तथा माँ का सुख प्राप्त न करने वाला। 9. धनु: उठापटक तथा दण्ड प्राप्ति भरा जीवन पाने वाला। 10. मकर: दुष्टजनों से कष्ट प्राप्त कर परिवर्तन करता रहता है। 11. कुंभ: सबकी सहायता करने वाला तथा समाज को सुविधा प्रदान करता है। 12. मीन: मोक्ष का अभिलाषी व त्यागी प्रवृत्ति वाला। यदि राशि अनुसार प्रकृति देखे तो जातक का कारकांश लग्न उसकी सोच व उसकी विशेषता (फितरत) अवश्य उचित तरीके से बताता है। अब कारकांश लग्न में बैठे ग्रह का प्रभाव देखते हैं कि जब इस लग्न में ग्रह स्थित हो तो जातक कैसा होगा। 1. सूर्य: राजा अथवा सरकार का सेवक। 2. चंद्र और शुक्र: राजयोग वाला तथा सब भोगों को भोगने वाला। 3. मंगल: अग्नि, रसायन, आयुध कार्य चाहने वाला। 4. बुध: कलाकार, शिल्पकार, व्यापारी, बुनाई वाला, आई.ए.एस.। 5. गुरू: अध्यापक, मंत्री, उपदेशक, पण्डित प्रभाव वाला, वकील। 6. शनि: प्रसिद्ध, लोकप्रिय, परिवारिक व्यवसाय करने वाला, लेखक। 7. राहु: मशीनरी व इलेक्ट्राॅनिक्स कार्य करने वाला। 8. केतु: सूक्ष्म यंत्रों का जानकार, व्यवसायी, आध्यात्मिक व्यक्ति। कारकांश लग्न पर आधारित फल कथन - 1. कारकांश लग्न के 2, 12, 3, 11, 4, 10 या 5, 9 भावों में बराबर-बराबर संख्या में ग्रह हो तो व्यक्ति को कारावास होती है। 2. यदि कारकांश लग्न से चैथे भाव में, शुक्र और चंद्र हो, कोई उच्च का ग्रह हो, राहु और शनि हो तो जातक आलीशान मकान का स्वामी होता है। 3. कारकांश लग्न से नवम भाव में शुभ ग्रह हो या उसकी दृष्टि हो तो जातक अपने गुरूओं व बड़ों का आदर करने वाला, गुणवान व सत्यप्रिय होता है। (यहां दृष्टि जैमिनी वाली होनी चाहिये, पराशरीय नहीं)। 4. कारकांश लग्न से पांचवें भाव में गुरु हो तो भाषा का जानकार, केतु हो तो जातक गणितज्ञ होता है। 5. कारकांश लग्न से सप्तम में शनि हो तो पत्नी उम्र में बड़ी होती है, मंगल हो तो विकलांग तथा राहु हो तो तलाकशुदा अथवा विधवा हो सकती है। 6. कारकांश लग्न से दशम में बुध हो या बुध की दृष्टि हो तो जातक प्रसिद्धिवान होता है। 7. कारकांश लग्न पर सूर्य और शुक्र की दृष्टि हो तो जातक सरकारी सेवा में होता है। 8. कारकांश लग्न से पंचम भाव में गुरु व चंद्र हो तो जातक ग्रंथों की रचना करता है। 9. कारकांश लग्न में केतु हो और उस पर शुक्र की दृष्टि हो तो जातक धर्मगुरु होता है। तंत्र-मंत्र की साधना करता है। 10. यदि कारकांश लग्न के द्वितीय भाव में केतु हो तो वाणी लडखड़ाती है (हकलाना, तुतलापन आदि) 11. कारकांश लग्न से केतु अष्टम में हो तो पैतृक संपत्ति नहीं मिलती है। कारकांश लग्न पर आधारित हमारे शोध द्वारा फलकथन: हमने अपने अनुभवों में कारकांश लग्न से कुछ अन्य तत्व भी पाये हैं आशा है हमारे पाठक इन पर अपनी-अपनी बुद्धि अनुसार प्रकाश डालेंगे व शोध करेंगे। 1.कारकांश लग्न की राशि दशा हमेशा कष्ट प्रदान करती है। 2.कारकांश लग्न में केतु हो तो जातक विधवा स्त्री से विवाह करता है तथा व्यापारी होता है। 3.कारकांश लग्न में बुध हो तो जातक मूर्ति बनाने का कार्य सिखता है परंतु करता नहीं। 4.कारकांश लग्न में किसी भी भाव में सूर्य राहु की युति हो तो जातक सर्प भय से डरता रहता है तथा सांपों से खुद को डसा हुआ मानता है। 5.कारकांश लग्न से शनि केन्द्र में हो तो जातक प्रसिद्धि पाता है। 6.कारकांश लग्न से पंचम भाव पर शुक्र और गुरु की जैमिनी दृष्टि शास्त्रीय कला का ज्ञान अवश्य दिलाती है। 7.कारकांश लग्न का द्वितीय व ग्यारहवां भाव शुभ हो, बली हो तो जातक धनवान होता है। 8.कारकांश लग्न से बारहवां भाव बली हो तो जातक कमाता नहीं है।

नजर दोष प्रभाव व् ज्योतिष्य निदान

प्रायः सभी धर्मग्रंथों में ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि का उल्लेख है। कुछ ग्रंथों में इन्हें बुरी आत्मा कहा गया है तो कुछ अन्य में भूत-प्रेत और जिन्न। ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार गुरु पितृदोष, शनि यमदोष, चंद्र व शुक्र जल देवी दोष, राहु सर्प व प्रेत दोष, मंगल शाकिनी दोष, सूर्य देव दोष एवं बुध कुल देवता दोष का कारक होता है। राहु, शनि व केतु ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह हैं। जब किसी व्यक्ति के लग्न (शरीर), गुरु (ज्ञान), त्रिकोण (धर्म भाव) तथा द्विस्वभाव राशियों पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, तो उस पर ऊपरी हवा की संभावना होती है। लक्षण नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति का शरीर कंपकंपाता रहता है। वह अक्सर ज्वर, मिरगी आदि से ग्रस्त रहता है। कब और किन स्थितियों में डालती हैं ऊपरी हवाएं किसी व्यक्ति पर अपना प्रभाव? जब कोई व्यक्ति दूध पीकर या कोई सफेद मिठाई खाकर किसी चैराहे पर जाता है, तब ऊपरी हवाएं उस पर अपना प्रभाव डालती हैं। गंदी जगहों पर इन हवाओं का वास होता है, इसीलिए ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों को ये हवाएं अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन हवाओं का प्रभाव रजस्वला स्त्रियों पर भी पड़ता है। कुएं, बावड़ी आदि पर भी इनका वास होता है। विवाह व अन्य मांगलिक कार्यों के अवसर पर ये हवाएं सक्रिय होती हैं। इसके अतिरिक्त रात और दिन के 12 बजे दरवाजे की चैखट पर इनका प्रभाव होता है। दूध व सफेद मिठाई चंद्र के द्योतक हैं। चैराहा राहु का द्योतक है। चंद्र राहु का शत्रु है। अतः जब कोई व्यक्ति उक्त चीजों का सेवन कर चैराहे पर जाता है, तो उस पर ऊपरी हवाओं के प्रभाव की संभावना रहती है। कोई स्त्री जब रजस्वला होती है, तब उसका चंद्र व मंगल दोनों दुर्बल हो जाते हैं। ये दोनों राहु व शनि के शत्रु हैं। रजस्वलावस्था में स्त्री अशुद्ध होती है और अशुद्धता राहु की द्योतक है। ऐसे में उस स्त्री पर ऊपरी हवाओं के प्रकोप की संभावना रहती है। कुएं एवं बावड़ी का अर्थ होता है जल स्थान और चंद्र जल स्थान का कारक है। चंद्र राहु का शत्रु है, इसीलिए ऐसे स्थानों पर ऊपरी हवाओं का प्रभाव होता है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली के किसी भाव विशेष पर सूर्य, गुरु, चंद्र व मंगल का प्रभाव होता है, तब उसके घर विवाह व मांगलिक कार्य के अवसर आते हैं। ये सभी ग्रह शनि व राहु के शत्रु हैं, अतः मांगलिक अवसरों पर ऊपरी हवाएं व्यक्ति को परेशान कर सकती हैं। दिन व रात के 12 बजे सूर्य व चंद्र अपने पूर्ण बल की अवस्था में होते हैं। शनि व राहु इनके शत्रु हैं, अतः इन्हें प्रभावित करते हैं। दरवाजे की चैखट राहु की द्योतक है। अतः जब राहु क्षेत्र में चंद्र या सूर्य को बल मिलता है, तो ऊपरी हवा सक्रिय होने की संभावना प्रबल होती है। मनुष्य की दायीं आंख पर सूर्य का और बायीं पर चंद्र का नियंत्रण होता है। इसलिए ऊपरी हवाओं का प्रभाव सबसे पहले आंखों पर ही पड़ता है। यहां ऊपरी हवाओं से संबद्ध ग्रहों, भावों आदि का विश्लेषण प्रस्तुत है। राहु-केतु: जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, शनिवत राहु ऊपरी हवाओं का कारक है। यह प्रेत बाधा का सबसे प्रमुख कारक है। इस ग्रह का प्रभाव जब भी मन, शरीर, ज्ञान, धर्म, आत्मा आदि के भावों पर होता है, तो ऊपरी हवाएं सक्रिय होती हैं। शनि: इसे भी राहु के समान माना गया है। यह भी उक्त भावों से संबंध बनाकर भूत-प्रेत पीड़ा देता है। चंद्र: मन पर जब पाप ग्रहों राहु और शनि का दूषित प्रभाव होता है और अशुभ भाव स्थित चंद्र बलहीन होता है, तब व्यक्ति भूत-प्रेत पीड़ा से ग्रस्त होता है।गुरु: गुरु सात्विक ग्रह है। शनि, राहु या केतु से संबंध होने पर यह दुर्बल हो जाता है। इसकी दुर्बल स्थिति में ऊपरी हवाएं जातक पर अपना प्रभाव डालती हैं। लग्न: यह जातक के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है। इसका संबंध ऊपरी हवाओं के कारक राहु, शनि या केतु से हो या इस पर मंगल का पाप प्रभाव प्रबल हो, तो व्यक्ति के ऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना बनती है। पंचम: पंचम भाव से पूर्व जन्म के संचित कर्मों का विचार किया जाता है। इस भाव पर जब ऊपरी हवाओं के कारक पाप ग्रहों का प्रभाव पड़ता है, तो इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों में कमी है। अच्छे कर्म अल्प हों, तो प्रेत बाधा योग बनता है। अष्टम: इस भाव को गूढ़ विद्याओं व आयु तथा मृत्यु का भाव भी कहते हैं। इसमें चंद्र और पापग्रह या ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह का संबंध प्रेत बाधा को जन्म देता है। नवम: यह धर्म भाव है। पूर्व जन्म में पुण्य कर्मों में कमी रही हो, तो यह भाव दुर्बल होता है। राशियां: जन्म कुंडली में द्विस्वभाव राशियों मिथुन, कन्या और मीन पर वायु तत्व ग्रहों का प्रभाव हो, तो प्रे्रत बाधा होती है। वार: शनिवार, मंगलवार, रविवार को प्रेत बाधा की संभावनाएं प्रबल होती हैं। तिथि: रिक्ता तिथि एवं अमावस्या प्रेत बाधा को जन्म देती है। नक्षत्र: वायु संज्ञक नक्षत्र प्रेत बाधा के कारक होते हैं। योग: विष्कुम्भ, व्याघात, ऐंद्र, व्यतिपात, शूल आदि योग प्रेत बाधा को जन्म देते हैं। करण: विष्टि, किस्तुघ्न और नाग करणों के कारण व्यक्ति प्रेत बाधा से ग्रस्त होता है। दशाएं: मुख्यतः शनि, राहु, अष्टमेश व राहु तथा केतु से पूर्णतः प्रभावित ग्रहों की दशांतर्दशा में व्यक्ति के भूत-प्रेत बाधाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। युति किसी स्त्री के सप्तम भाव में शनि, मंगल और राहु या केतु की युति हो, तो उसके पिशाच पीड़ा से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। गुरु नीच राशि अथवा नीच राशि के नवांश में हो, या राहु से युत हो और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो जातक की चांडाल प्रवृत्ति होती है। पंचम भाव में शनि का संबंध बने तो व्यक्ति प्रेत एवं क्षुद्र देवियों की भक्ति करता है। ऊपरी हवाओं के कुछ अन्य मुख्य ज्योतिषीय योग यदि लग्न, पंचम, षष्ठ, अष्टम या नवम भाव पर राहु, केतु, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र आदि का प्रभाव हो, तो जातक के ऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। यदि उक्त ग्रहों का परस्पर संबंध हो, तो जातक प्रेत आदि से पीड़ित हो सकता है। यदि पंचम भाव में सूर्य और शनि की युति हो, सप्तम में क्षीण चंद्र हो तथा द्वादश में गुरु हो, तो इस स्थिति में भी व्यक्ति प्रेत बाधा का शिकार होता है।यदि लग्न पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि हो, लग्न निर्बल हो, लग्नेश पाप स्थान में हो अथवा राहु या केतु से युत हो, तो जातक जादू-टोने से पीड़ित होता है। लग्न में राहु के साथ चंद्र हो तथा त्रिकोण में मंगल, शनि अथवा कोई अन्य क्रूर ग्रह हो, तो जातक भूत-प्रेत आदि से पीड़ित होता है। यदि षष्ठेश लग्न में हो, लग्न निर्बल हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो, तो जातक जादू-टोने से पीड़ित होता है। यदि लग्न पर किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तो जादू-टोने से पीड़ित होने की संभावना प्रबल होती है। षष्ठेश के सप्तम या दशम में स्थित होने पर भी जातक जादू-टोने से पीड़ित हो सकता है।यदि लग्न में राहु, पंचम में शनि तथा अष्टम में गुरु हो, तो जातक प्रेत शाप से पीड़ित होता है। ऊपरी हवाओं के प्रभाव से मुक्ति के सरल उपाय ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु शास्त्रों में अनेक उपाय बताए गए हैं। अथर्ववेद में इस हेतु कई मंत्रों व स्तुतियों का उल्लेख है। आयुर्वेद में भी इन हवाओं से मुक्ति के उपायों का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहां कुछ प्रमुख सरल एवं प्रभावशाली उपायों का विवरण प्रस्तुत है। ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु हनुमान चालीसा का पाठ और गायत्री का जप तथा हवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अग्नि तथा लाल मिर्ची जलानी चाहिए। रोज सूर्यास्त के समय एक साफ-सुथरे बर्तन में गाय का आधा किलो कच्चा दूध लेकर उसमें शुद्ध शहद की नौ बूंदें मिला लें। फिर स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर मकान की छत से नीचे तक प्रत्येक कमरे, जीने, गैलरी आदि में उस दूध के छींटे देते हुए द्वार तक आएं और बचे हुए दूध को मुख्य द्वार के बाहर गिरा दें। क्रिया के दौरान इष्टदेव का स्मरण करते रहें। यह क्रिया इक्कीस दिन तक नियमित रूप से करें, घर पर प्रभावी ऊपरी हवाएं दूर हो जाएंगी। रविवार को बांह पर काले धतूरे की जड़ बांधें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी। लहसुन के रस में हींग घोलकर आंख में डालने या सुंघाने से पीड़ित व्यक्ति को ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिल जाती है।ऊपरी बाधाओं से मुक्ति हेतु निम्नोक्त मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। ‘‘¬ नमो भगवते रुद्राय नमः कोशेश्वस्य नमो ज्योति पंतगाय नमो रुद्राय नमः सिद्धि स्वाहा।’’घर के मुख्य द्वार के समीप श्वेतार्क का पौधा लगाएं, घर ऊपरी हवाओं से मुक्त रहेगा। उपले या लकड़ी के कोयले जलाकर उसमें धूनी की विशिष्ट वस्तुएं डालें और उससे उत्पन्न होने वाला धुआं पीड़ित व्यक्ति को सुंघाएं। यह क्रिया किसी ऐसे व्यक्ति से करवाएं जो अनुभवी हो और जिसमें पर्याप्त आत्मबल हो। प्रातः काल बीज मंत्र ‘क्लीं’ का उच्चारण करते हुए काली मिर्च के नौ दाने सिर पर से घुमाकर दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें, ऊपरी बला दूर हो जाएगी। रविवार को स्नानादि से निवृत्त होकर काले कपड़े की छोटी थैली में तुलसी के आठ पत्ते आठ काली मिर्च और सहदेई की जड़ बांधकर गले में धारण करें, नजर दोष बाधा से मुक्ति मिलेगी। निम्नोक्त मंत्र का 108 बार जप करके सरसों का तेल अभिमंत्रित कर लें और उससे पीड़ित व्यक्ति के शरीर पर मालिश करें, व्यकित पीड़ामुक्त हो जाएगा। मंत्र: ¬ नमो काली कपाला देहि देहि स्वाहा। ऊपरी हवाओं के शक्तिषाली होने की स्थिति में शाबर मंत्रों का जप एवं प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के पूर्व इन मंत्रों का दीपावली की रात को अथवा होलिका दहन की रात को जलती हुई होली के सामने या फिर श्मषान में 108 बार जप कर इन्हें सिद्ध कर लेना चाहिए। यहां यह उल्लेख कर देना आवष्यक है कि इन्हें सिद्ध करने के इच्छुक साधकों में पर्याप्त आत्मबल होना चाहिए, अन्यथा हानि हो सकती है। निम्न मंत्र से थोड़ा-सा जीरा 7 बार अभिमंत्रित कर रोगी के शरीर से स्पर्श कराएं और उसे अग्नि में डाल दें। रोगी को इस स्थिति में बैठाना चाहिए कि उसका धूंआ उसके मुख के सामने आये। इस प्रयोग से भूत-प्रेत बाधा की निवृति होती है। मंत्र: जीरा जीरा महाजीरा जिरिया चलाय। जिरिया की शक्ति से फलानी चलि जाय।। जीये तो रमटले मोहे तो मशान टले। हमरे जीरा मंत्र से अमुख अंग भूत चले।। जाय हुक्म पाडुआ पीर की दोहाई।। एक मुट्ठी धूल को निम्नोक्त मंत्र से 3 बार अभिमंत्रित करें और नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति पर फेंकें, व्यक्ति को दोष से मुक्ति मिलेगी। मंत्र: तह कुठठ इलाही का बान। कूडूम की पत्ती चिरावन। भाग भाग अमुक अंक से भूत। मारुं धुलावन कृष्ण वरपूत। आज्ञा कामरु कामाख्या। हारि दासीचण्डदोहाई। थोड़ी सी हल्दी को 3 बार निम्नलिखित मंत्र से अभिमंत्रित करके अग्नि में इस तरह छोड़ें कि उसका धुआं रोगी के मुख की ओर जाए। इसे हल्दी बाण मंत्र कहते हैं। हल्दी गीरी बाण बाण को लिया हाथ उठाय। हल्दी बाण से नीलगिरी पहाड़ थहराय।। यह सब देख बोलत बीर हनुमान। डाइन योगिनी भूत प्रेत मुंड काटौ तान।। आज्ञा कामरु कामाक्षा माई। आज्ञा हाड़ि की चंडी की दोहाई।। जौ, तिल, सफेद सरसों, गेहूं, चावल, मूंग, चना, कुष, शमी, आम्र, डुंबरक पत्ते और अषोक, धतूरे, दूर्वा, आक व ओगां की जड़ को मिला लें और उसमें दूध, घी, मधु और गोमूत्र मिलाकर मिश्रण तैयार कर लें। फिर संध्या काल में हवन करें और निम्न मंत्रों का 108 बार जप कर इस मिश्रण से 108 आहुतियां दें। मंत्र: नमः भवे भास्कराय आस्माक अमुक सर्व ग्रहणं पीड़ा नाशनं कुरु-कुरु स्वाहा।

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Saturday 16 April 2016

संस्कार और नैतिक मूल्य सिर्फ लड़कियों को ही क्यूँ ??



अब जब हर जगह भौतिक सुख साधन तो है किनती आत्म सुख तथा शांति कहीं दिखाई नहीं देती | आज आधुनिकता के दौड़ में लोग लड़का और लड़की की बात तो करते है किन्तु जब शिक्षा या संस्कार की बात आती है तो लड़कों और लड़कियों में भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देता है | महिलाओं के बारे में तो व्यापक विचार-विमर्श हुआ, वे पढ़े लिखे , आत्मनिर्भर बने, संस्कारी बने, आधुनिक चीजों को जाने, पर इस पूरी कवायाद में हम लड़कों के बारें में विचार, करना ही भूल गए | कहीं कहीं न कहीं ये बात लोगों के मन में घर कर बैठी है की आखिर लड़कों की चिंता करने की जरुरत ही क्या है ?
आज जब हम समाज पर पुरूष वर्ग विशेषकर लडक़ों की भूमिका तथा उसका समाज के सामान्य जीवनचर्या पर असर का अध्ययन करें तो सबसे पहले देंखेंगे कि हमेशा से ही प्रधान तो पुरुष ही रहा है। क्योंकि मैं एक ज्योतिषी हूँ, सब बातों में ज्योतिष का पुट देखना मेरी आदत में शामिल है। अत: इस मुद्दे पर भी जब हम ज्योतिषीय नजरिया डालें तो हम देखते हैं कि समाज में पुरुषो ंका ही बोलबाला रहा है। कालपुरूष की कुंडली में हम लग्न को पुरूष और उसके सप्तम स्थान को महिला मानें तो हम देखते हैं कि लग्न अर्थात मेष और सप्तम अर्थात तुला राशि में मेष का राशि स्वामी मंगल और तुला का राशि स्वामी शुक्र होता है। सीधा सा मतलब है कि प्राकृतिक रूप से ही पुरूष बलवान, क्रूर तथा साहसी और महिला नाजुक, सौम्य और सहनशील है। इसमें भी हम देखें कि निर्भया कांड 2012 में जब हुआ, हालांकि इससे पहले भी और आज भी इस प्रकार की दुर्घटनाएँ निरंतर जारी है। किंतु ये एक ऐसी निर्मम बात थी, जिसे सोच या याद कर सभी की रूह तक कांप जाती है। किंतु करने वालों के मन में जरा भी क्लेश नहीं और ना ही किसी के मन में जरा भी सहिष्णुता दिखाई दी। आज भी ये घटनाएँ लखनउ से लेकर दिल्ली तक रोहतक से लेकर शेखपुरा तक बदस्तूर जारी है। हम देखें कि 2012 में अष्टम में स्थित राहु से पापाक्रांत शुक्र और बुध तथा मंगल शनि से आक्रांत है, इसका सीधा सा मतलब जिद्द के साथ क्रूरता और बुद्धि का हृास। आज समाज में लगातार बढ़ रही हिंसा, दुव्र्यवहार, शोषण, लूट-पाट, भौतिकता का पागलपन जिसके पाने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। अब जब सडक़ या सुनसान जगह ही नहीं अपना स्वयं का घर या स्वयं अपने लोग ही किसी की सुरक्षा की गारंटी नहीं रह गए हैं उस समाज में क्या होगा भविष्य। आज ना ही बुजुर्ग लोग ना बच्चे और ना ही लडक़ी या महिला सुरक्षित है।
ये समाज ही नहीं अपितु प्रकृति प्रदत्त भी है। ज्योतिषीय रूप में देखें तो पुरूष अर्थात मेष लग्न का मंगल और कन्या अर्थात तुला, मतलब शुक्र, मतलब बल का अंतर प्रकृति प्रदत्त है। इसी प्रकार मेष लग्न से तीसरा स्थान बुध और तुला से तीसरा स्थान धनु मतलब बुध और बृहस्पति मतलब सोच का अंतर बुध जहां तनाव और एडिक्शन देता है। वहीं गुरू संतुलित व्यवहार प्रदान करता है। इसी प्रकार मेष से एकादश अर्थात दैनिक दिनचर्या को देखें तो शनि और तुला से एकादश स्थान सूर्य अर्थात दैनिक जीवन में भी सूर्य की गंभीरता लड़कियों को ज्यादा एकाग्र बनाता है वहीं शनि जिद्द और भटकाव देता है। इस प्रकार कुंडली के द्वादश भाव से सभी प्रकार के व्यवहारिक भावनाओं को दर्शाता है। इस लिए जब भी किसी परिवार में लडक़ो और लड़कियों को शिक्षा तथा संस्कार देने की बात हो तो उनकी प्रकृति के अनुरूप समाज तथा समय-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हमेशा ही अनुशासन एवं नियम का पालन कराने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार कुंडली के अनुसार सामाजिक रूप से पनप रहे अन्याय और अव्यवस्था को रोकने हेतु लडक़ों के जीवन में भी अनुशासन, सहिष्णुता का पालन कराने हेतु उपाय आजमाने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि यह प्रकृति का न्याय है और यह कई बार समाज में लडक़ों के अनुसार कई बार लड़कियों एवं कई लड़कियों का व्यवहार लडक़ों के व्यवहार से प्रेरित होता है किंतु यह अपवाद स्वरूप ही होता है। हम एक समूह की बात करें तो सामान्य तौर पर लडक़ो को ज्यादा अनुशासन और संस्कार के साथ संवेदना देने की जरूरत होती है। किंतु इसके विपरीत हम बंधन और संस्कार में सिर्फ लड़कियों को बांधना चाहते हैं।
अब जब हर जगह भौतिक सुख साधन तो है किंतु आत्म सुख तथा शांति कहीं दिखाई नहीं देती। आज आधुनिकता के दौर मेें लोग लडक़ा और लडक़ी की बराबरी की बात तो करते हैं किंतु जब शिक्षा या संस्कार की बात आती है तो लडक़ों और लड़कियों में भेद स्पष्ट दिखाई देता है।
आज के समाज में नारी जब घर से बाहर निकल कर घर और बाहर दोनों मोर्चों पर बखूबी अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक निभा रही है किंतु वहीं लडक़ों को, जो कि पहले बाहर की सारी जिम्मेदारी, कमाने से लेकर सामग्री क्रय करने, बच्चों को स्कूल ले जाने से लेकर फीस इत्यादि सारा काम करते थे किंतु अब ये भी सारे कार्य महिलाओं के हिस्से में आ गया है। अत: आज के परिप्रक्ष्य में महिलाओं का कार्य दायित्व दोगुना और पुरूषों का आधा ही हुआ है। परंतु अब भी महिलाओं को दोयम दर्जे का ही माना जाता है और समय-समय पर मानसिक या शारीरिक रूप से कमजोर साबित करने का कोई भी मौका पुरूष मानसिकता गंवाना नहीं चाहता। देखा जाये तो आज महिलायें पुरुषों से बराबर नहीं बल्कि कहीं आगे ही हैं, हालाँकि इसमें समाज की हर महिला को शामिल नहीं किया जा सकता, पर फिर भी पहले की तुलना में अब काफी अंतर है। महिलाओं के बारे में तो व्यापक विचार-विमर्श हुआ, वो पढ़ें लिखें, आत्मनिर्भर बने, संस्कारी बनें, आधुनिक चीजों को जानें, पर इस पूरी कवायद में हम लडक़ों के बारे में, विचार करना ही भूल गये। कहीं ना कहीं ये बात लोगों के मन में घर कर बैठी है कि आखिर लडक़ों की चिंता करने की जरूरत ही क्या हैं?
मुझे लगता है कि आज के जमाने में लडक़ों के बारे में व्यापक विचार होना जरुरी है, अगर लडक़ों की शिक्षा ऐसी ही अधूरी रही (किताबी ज्ञान तक) तो जिस तरह से समाज में अपराध बढ़ रहे हैं, वो बढ़ते ही जायेंगे। एक बेहतर समाज बनाने में लडक़ों की, पुरुषों की भूमिका अहम् होती है, वो जानना ही नहीं चाहते की गलत क्या है? अधिकारों के नाम पर मची क्रांतियों के कारण आज ये हाल है कि कोई भी किसी का अधिकार मारना, अपना अधिकार समझता है। लडक़ों को अक्सर यही कहकर माँ गलतियाँ करने पर नहीं रोकती कि लडक़ा ही तो है। प्रसिद्ध मान्यता है कि कि लडक़ों की प्रवृत्ति बैल की तरह होती हैं, अगर सही समय पर जिम्मेवारियों का हल रख दिया जाये, कर्तव्यों से बांध दिया जाये तो वो खेती में काम आते हैं और वरना वो ही बैल गलियों में घूमते हैं, लोगों को मारते हैं, चोट पहुचाते हैं।
आज भी अपराध के ज्यादातर गंभीर मामलों में पुरुष ही क्यों जिम्मेवार होते हैं और गंभीर अपराध ना सही, घर परिवार के ज्यादातर लड़ाई झगड़ों में अहम् भूमिका निभाने वाले भी ये ही होते हैं। सडक़ चलते कहीं लड़ते दिखेंगे, तो कहीं थूकते हुए, कहीं गन्दी गालियां देकर बात करते हुए, तो कहीं बेशर्मी से लड़कियों को छेड़ते हुए। लड़कियों को छेडऩा तो जैसे अधिकार ही है इनका। आखिर क्यों ऐसे लडक़ों को शिक्षित माना जाये। आजकल तो पढ़े लिखे, अच्छे परिवार के लडक़े भी उन तथाकथित बिगड़ लडक़ों की कतार में शामिल होते हैं, कभी गाड़ी चुराना, कभी शराब पीकर गाड़ी चलाना। कहीं ना कहीं लडक़ों का नैतिक पतन हुआ है और अगर ऐसा ही रहा तो हालत और बुरे होंगे। क्योंकि लड़कियों के अधिकारों के लिए लडऩे वालों ने तो जैसे लडक़ों की नकल करना शुरू कर दिया है। अगर वो शराब पियेंगे या डिस्कोथेक जा सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। इस तरह की सोच समाज को कहाँ ले जाएगी?
आज की युवा पीढ़ी जब माता-पिता या दादा-दादी बनेंगे, क्या सिखायेंगे ये अपने से छोटों को। क्या है सिखाने के लिए? बात-बात पे गालियां, रिश्तों को तार-तार करने वाले क्या दे पाएंगे ये किसी को? एक समय था कि कम उमर में शादी कर दी जाती थी, पर उसे हटाया गया, कानून बनाया गया और बाल विवाह को रोका गया। क्या फर्क पड़ा कानून बनाने से, क्यों नही रोक पाते माँ बाप। जब आजकल के माँ बाप नहीं रोक पाते तो आने वाले समय में तो जरूर रोक पाएंगे। आने वाले समय में तो यही लोग बनेगे माँ-बाप, दादा, दादी। अपने इन्ही संस्कारों के साथ। हाथ में बड़ी बड़ी डिग्रियां, बड़ी बड़ी नौकरियां, पर मनुष्यता जैसी कोई बात नहीं। पर बुराई सब करते है कि जमाना बहुत बुरा हैं, पर खुद को सुधारना कोई नहीं चाहता। कोई नहीं सोचना चाहता कि क्या करते हैं उनके बच्चे, हम उनकी निजी जिन्दगी में दखल नहीं दे सकते। ऐसा कहकर पल्ला झाडऩे वाले माँ-बाप को सोचना चाहिए कि जब उनका एक बच्चा पैदा होता है, तो वो उनका ही वंश नही बढ़ाता, समाज का भी हिस्सा होता है वो। और जो माँ बाप ये संस्कार नहीं दे पाते एक दिन उनका बच्चा खुद उनके साथ भी दुव्र्यवहार करता है। और क्यों ना करे? आपने सिखाया ही कहाँ उन्हें सही बर्ताव करना।
आज समय की मांग है कि अब लडक़ों के आचार व्यवहार पर विचार किया जाये, ताकि उनमें पनपने वाली अपराधी प्रवृत्ति कम हो सके। माँ बाप जैसे लडक़ी को अनुशासन या समय से घर आना या नियम में बंधना सिखाते हैं वैसे ही लडक़ो को संस्कार भी दें, ताकि वो लड़कियों के प्रति और अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का भाव रखना सीखें। परिवार के प्रति, समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझें। और ये समाज सच में सबके लिए रहने लायक बना रहे। लड़कियों को ये डर ना रहे कि रात हो गयी है, अकेले नहीं जाना चहिये, या सामने से आते हुए लडक़ों के समूह को देखकर सडक़ पर अकेली जाती लडक़ी ना डरे। ऐसा नहीं है कि हर लडक़ा ऐसा होता है, पर ये सच है कि एक बड़ी संख्या में लडक़े या पुरुष ऐसे होते हैं, जिस कारण आज भी लड़कियां घर से निकलते समय या घर में अकेले रहने पर भी डरती हैं। अत: जरूरी है कि लडक़ों में नैतिक जिम्मेवारी जगाई जाये, वरना कोई कानून कुछ नहीं कर सकता। इसके लिए घर एवं परिवार के साथ कॉलोनी और समाज के बीच से ही ये संस्कार निकलने चाहिए कि किसी लडक़े के जीवन में किस प्रकार का अनुशासन अपने आसपास के लोगों तथा लड़कियों के प्रति जरूरी है। ये देना ना सिर्फ अभिभावकों अपितु शिक्षक, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए भी जरूरी है। चूंकि आज हम राहु के युग में जी रहे हैं अत: सभी के जीवन में अनुशासन बहुत जरूरी है। अनुशासन हीनता के कारण पूरा समाज प्रभावित हो रहा है। अत: जीवन में न सिर्फ महिलाओं या लड़कियों के लिए अपितु इससे कहीं ज्यादा लडक़ों के जीवन में होना चाहिए जिससे सामाजिक परिवेश सुरक्षित और शांत रह सके।

जुड़वाँ भाई/बहन की जन्म कुंडली में ज्योतिष्य भ्रम

यदि दो जुड़वा भाई/बहन हैं और दोनों का जन्म समय, तिथि व स्थान एक ही है तो निश्चित ही जन्मपत्री एक सी ही बनेगी तथा शक्ल, सूरत, विचार, इच्छाएं, रोग, जीवन की घटनाएं भी एक समान हो सकती हैं। परंतु फिर भी जुड़वा बच्चों के व्यक्तित्व, कर्म व जीवनधारा में काफी अंतर हो सकता है यद्यपि कि जन्मपत्री में ग्रह स्थिति एक सी ही हो। उसके कुछ कारण निम्नवत हैं:
गर्भ कुंडली:
वास्तविक जन्म गर्भ में भ्रुण प्रवेश/निषेचन के समय हो जाता है तथा यह भी तय हो जाता है कि बच्चा लडक़ा होगा या लडक़ी। जिस क्षण विशेष में गर्भ में भ्रुण स्थापित होता है वही क्षण उस बालक/बालिका के पूरे जीवन का आधार बनता है। भ्रुण समस्त ग्रहों का प्रभाव पिता व माता द्वारा स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, जो स्त्रियां पक्षबली चंद्रमा के समय में गर्भाधान करती हैं उन्हें निश्चित ही स्वस्थ, सुंदर, सफल व संस्कारवान संतान प्राप्त होती है। जुड़वा संतान की गर्भ कुंडली देखें तो उनमें अधिक अंतर होने की संभावना है क्योंकि गर्भ भ्रुण प्रवेश/ निषेचन एक ही समय में हो ऐसा संभव नहींं है। ज्योतिष नियमानुसार जन्म कुंडली से गर्भ कुंडली बनाई जा सकती है। पर यह निश्चित ही कठिन कार्य है। गर्भ कुंडली भिन्न हो जाने से जातक का व्यक्तित्व व भविष्य भिन्न रूप में विकसित होगा, यह निश्चित है। जैसे- एक राजा समान जीवन यापन कर रहा है, तो दूसरा फुटपाथ पर मजदूरी। इसका कारण गर्भ में कुछ समय मिनट अंतराल में दोनों का गर्भ स्थापित होना है जिसमें दोनों की जन्मपत्री तो एक समान आती है, लेकिन हाथ की रेखाओं में काफी अंतर पाया जाता है। अत: ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘‘हस्त रेखा शास्त्र’’ आसानी से दे सकता है। जन्मकुंडली की इस परेशानी को दक्षिण भारत के महान ज्योतिष विद्वान ‘‘कृष्णमूर्ति’’ ने नक्षत्र पर आधारित पद्धति का निर्माण कर किया, जिसे ‘‘के.पी. पद्धति’’ कहते हैं। इसके अनुसार किसी भाव का फल भावेश अर्थात उसका स्वामी न करके, वह ग्रह जिस नक्षत्र में स्थित हैं, उसका उपनक्षत्र स्वामी करेगा अर्थात् उस भाव का फल उपनक्षत्रेश के आधार पर होगा। जैसे-किसी की जन्मपत्री में तुला लग्न में दशमेश चंद्र, उच्च या स्वगृही है तो उसे किसी कंपनी/सरकारी नौकरी में उच्च पद पर या प्रतिष्ठित व्यवसाय में होना चाहिए। परंतु वास्तव में वह व्यक्ति फुटपाथ पर मजदूरी कर रहा था, तब ऐसे में उसकी जन्मपत्री का अध्ययन किया तो यह पाया कि उसका उपनक्षत्र स्वामी, जन्मपत्री में नीच राशि में स्थित था, अत: उसे वास्तव में निम्न स्तर का रोजगार मिला। ठीक इस प्रकार जुड़वा बच्चों या समकक्ष में के.पी. ने उपनक्षत्र स्वामी का निर्माण राशियों को 4-4 मिनट में बांटकर सारणी तैयार कर किया तथा जुड़वा बच्चों के फल कथन में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो बिल्कुल सटीक पाया गया। क्योंकि जुडवां बच्चों में 2-3 मिनट का ही अंतर रहता है या एक ही स्थान, समय में भी 2-3 मिनट का ही अंतर पाया जाता है। अत: के.पी. की उपनक्षत्रेश पद्धति इनपर बिल्कुल सही साबित हुई। इसके अलावा, के.पी. पद्धति में प्रश्न कुंडली के आधार पर भी इन बच्चों का भविष्य कथन ज्ञात कर सकते हैं। यह आधुनिक ज्योतिष को के.पी. की महान देन है। हस्त रेखा एवं आयुर्विज्ञान के अनुसार, हस्तरेखाओं में भिन्नता 21वें क्रोमोसोम (गुणसूत्र) के कारण होती है, अत: गर्भ स्थान में कुछ समय (मिनट) अंतराल वास्तव में गर्भाशय में शुक्राणु का अंडाणु से निषेचन से होता है। अत: किसी का भी भाग्य का निर्माण चाहे सिंगल हो या जुड़वा, वह तो गर्भ स्थापन में ही हो जाता है बाकी के नौ महीने तो बालक के भ्रुण के पूर्ण निर्माण में लगते हैं। अत: यहां पर गर्भ स्थापन में 16संस्कारों में गर्भाधान संस्कार का महत्व उपरोक्त कारण से है। के.पी. पद्धति से पूर्व ज्योतिष द्वारा जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन पूरी तरह सक्षम नहींं था। ऐसे में हस्तरेखा शास्त्र, भविष्य कथन में सहायक सिद्ध होता था। दो जातकों की हस्त रेखायें भिन्न होती हैं, जो जुडवां हो या एक ही समय और स्थान पर पैदा हुये हों। लेकिन के.पी. की नक्षत्र आधारित पद्धति ने ज्योतिष में जान डालकर हस्तरेखा की भांति सजीव बना दिया। के.पी. एवं हस्तरेखा के अलावा ‘‘प्रश्न ज्योतिष’’ द्वारा भी जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन ज्ञात कर सकते हैं। ज्योतिष में पंचम भाव, पंचमेश व कारक गुरु तीनों संतान से जुड़े हैं, ये किसी स्त्री ग्रह से युक्त/दृष्ट (प्रभावित) हो तो जुडवां संतानें होती हैं। ये योग स्त्री एवं पुरूष में न्यूनतम एक में होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में भी देखते हैं तो कई जातकों के जुडवां बच्चे पैदा होते हैं, उनमें न्यूनतम एक में यह योग अवश्य होता है। जीवनशैली/लालन पालन का महत्व: यदि जन्मकुंडली पूर्ण रूप से समान हो, जुड़वा बच्चों की लग्न, चंद्र राशि व नक्षत्र चरण समान हो फिर भी यदि बच्चों के लालन-पालन में, शिक्षा, संस्कार में भिन्नता हो तो भी बच्चे भिन्न व्यक्तित्व के हो सकते हैं। ग्रह प्रभाव की व्यापकता: यदि दोनों बच्चों का कारक ग्रह एक हो तो भी उनके जीवन में भिन्नता आ सकती है।

जांजगीर-चांपा का विष्णु मंदिर जहाँ पत्थरशिल्प बोलते हैं

जिला जांजगीर-चांपा छत्तीसगढ़ के केंद्र में स्थित है और इसलिए यह छत्तीसगढ़ के दिल के रूप में माना जाता है। यह जिला मई 1998 को स्थापित किया गया था। जिला जांजगीर-चांपा के जिला मुख्यालय जांजगीर कलचुरी राजवंश के महाराजा जाँजवाल्य देव का शहर है। जांजगीर-चांपा जिले राज्य छत्तीसगढ़ में खाद्यान्नों का एक प्रमुख उत्पादक है। जांजगीर जिले के विष्णु मंदिर इस जिले के सुनहरे अतीत को दर्शाता है। विष्णु मंदिर वैष्णव समुदाय का एक प्राचीन कलात्मक नमूना है।
जाज्वल्य देव की नगरी जांजगीर में लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित विष्णुमंदिर, जो कि इस समय ‘‘नकटा’’ मंदिर के रूप मेें जाना जाता है, यहां पत्थरशिल्प बोलते हैं। मंदिर में जड़े पत्थर शिल्प में पुरातनकालीन परंपरा को दर्शाया गया है। यह मंदिर कल्चुरी काल की मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है, जिसे 12 वीं शताब्दी में निर्माण की मान्यता है।
जांजगीर-चांपा जिले की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का देश के इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिले के प्राचीन मंदिरों में कला के वे नमूने हैं, जहां कोई लिपिबद्ध इतिहास न कहकर साक्षात् स्वरूप के दर्शन होते हैं। सर्वाधिक प्राचीन होने का श्रेय किसे है, यह तो क्रमश: परिवर्तित सत्य है, किन्तु इतिहास के झरोखों में जाज्वल्य देव द्वारा निर्मित विष्णु मंदिर प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण 12 वीं शताब्दी में होना बताया जाता है। विष्णु मंदिर कचहरी चौक से आधा किलोमीटर की दूरी पर जांजगीर की पुरानी बस्ती के समीप है। यह मंदिर कल्चुरी कालीन मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है। लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित इस मंदिर की दीवारें भगवान विष्णु के अनेकों रूपों के अलावा अन्य देवताओं कुबेर, सूर्यदेव, ऋषि मुनियों, देवगणिकाओं की मूर्तियों से सुसज्जित किन्तु खंडित है। विष्णु मंदिर के पास ही कल्चुरी काल का एक शिव मंदिर भी है। मंदिर का अधिष्ठान पांच बंधनों में विभक्त है। नीचे के बंधन सादे किन्तु उपरी बंधनों में रत्न पुष्प अलंकरण है। अधिष्ठान के पश्च में गजधर दो भागों में विभक्त है। अंतराल और गर्भगृह के भद्ररथों पर देव कोष्ठ हैं। कर्णरथों पर दिपाल एवं अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी गई है।
विष्णु मंदिर के अधूरा होने के कारण यहां के मूल निवासी इसे ‘नकटा मंदिर’ भी कहते हैं। मंदिर के आसपास सैकड़ों प्राचीनकालीन मूर्तियां धूल खाती पड़ी हुई है, जबकि कई मूर्तियों को पुरानी बस्ती के लोगों ने अपने घरों में रख लिया है। विष्णु मंदिर के बगल में ही विशाल भीमा तालाब है। सैकड़ों एकड़ क्षेत्रफल में फैल भीमा तालाब को भीम ने बनाया था, ऐसी मान्यता है। शहर के प्रबुद्ध लोग कहते है कि विष्णु मंदिर आज संरक्षण की आवश्यकता है और साथ ही इसमें छुपे अप्रतिम इतिहास को भी प्रचारित करने की आवश्यकता है।
कैसे पहुंचें:
जिला जांजगीर-चांपा राजधानी रायपुर से महज १६० कि.मी. दूर है एवं ट्रेन तथा बस दोनों माध्यम से पहुंचा जा सकता है। जांजगीर-चांपा के लिए ट्रेन अथवा बस दोनों में ३ से ४ घण्टे का समय लगता है।

जहाँ मुर्दों के साथ खेली जाती है होली

होली पर्व रंगों का त्यौहार है जिसे भारत के हर कोने में अलग अलग तरीके से मनाया जाता है। भारत के अलग अलग हिस्सों में होली के दस दिन पहले से लेकर दस दिन बाद तक अलग जगहों पर अलग अलग रस्मोरिवाज के साथ होली मनाई जाती है । उसी अनोखी होली का एक रिवाज आपको वाराणसी में देखने को मिल जायेगी जहां पर कुछ साधु मुर्दों के साथ होली खेलते हैं और जलती चिताओं के बीच श्मशान में होली खेलते हैं। कैसे शुरू हुई यह परम्परा आईये विस्तार से जानें।
एक प्राचीन मान्यता है जिसके अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन शिवजी जिनका बाबा विश्वनाथ भी कहते हैं, माता पार्वती का गौना कराकर वापस कैलाश लौट रहे थे। दूसरे दिन जब वो औघड़ होकर श्मशान में जलती चिताओं के बीच भस्म की होली खेले। तब से इस परम्परा को औघड़ साधू और सन्यासी निभाते हैं। इस परम्परा में साधू डमरू बजाते हुए झूमते हुये नाचते हैं जिनके साथ कई और लोग भी शामिल हो जाते हैं और हर-हर महादेव बोलते हुये एक दूसरे को चिताओं का राख लगाते हैं।
इस परंपरा की शुरूआत में रंगभरी एकादशी के दिन सुबह जल्दी मणिकर्णिका घाट पर साधू जमा हो जाते हैं जहां पर डमरुओं की गूंज के साथ बाबा मसान नाथ की आरती शुरू होती है जिसमें विधिपूर्वक बाबा मशान नाथ को गुलाल और रंग लगाया जाता है। आरती होने के बाद साधुओं की टाली चिताओं की ओर रुख करती है, और श्मशान के राख से होली खेलते हैं। यहां पर ऐसी मान्यता है कि यहां पर बाबा लोगों को मुक्ति का तारक मन्त्र देते हैँ जिससे प्राण त्यागने वाला व्यक्ति शिवत्व की प्राप्ति कर लेता है।

देश,काल और पात्र के अनुसार आराध्य देवी-देवता का चयन

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्ट: शरणं त्वां प्रपन्नवान।।
प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पऽपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य न:।।
तुम पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।
महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ‘‘तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।’’ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ‘‘जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहींं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।’’ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ‘‘यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहींं दी? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश हैं।
योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ‘‘वैष्णव जन को’’ तथा ‘‘रघुपति राघव राजा राम’’ गाते थे। चंबल के डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है?
यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अत: वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।

विनाश काले विपरीत बुद्धि
महाभारत के वन पर्व का प्रसंग है | जुए में हारने के बाद पांडव वन में चले गए | एक दिन ध्रितराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और दुखी होकर कहा की तुम सबका भला सोचते हो, इसलिए कुछ ऐसा बताओ की कौरवों और पांडवों दोनों का हित हो | विदुर बोले की किसी भी राज्य का स्थायित्व धर्म पर होता है | आप धर्म के अनुसार काम करें पांडवों को उनका राज्य लौटा दीजिये और दुर्योधन को काबू कीजिये |
राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है की वह अपने धन से संतुष्ट रहे और दूसरों के धन का लालच ना करें | यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो कौरव कुल का नाश निश्चित है क्योंकि गुस्से से भरे भीम और अर्जुन लौटने पर किसी को जिन्दा नहीं छोड़ेंगे | विदुर की यह बात ध्रितराष्ट्र के सीने में काँटों की तरह चुभ गई, और उसने कहा तुम केवल पांडवों का भला चाहते हो इसलिए यहाँ से चले जाओ | असल में उस समय ध्रितराष्ट्र केवल कौरवों के हित के बारे में ही सोच रहे थे क्योंकि वे सब उनके सगे बेटे थे | ध्रितराष्ट्र ने विदुर की बात नहीं मानी और जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध हुआ और कौरवों का समूल नाश हो गया | इसलिए कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि |

भगवान से मिलने की ललक

भगवत प्राप्ति के लिए चाहिए भगवान से मिलने की ललक और उसे पाने की रीति है- भक्ति जिसका अर्थ है भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। भगवत प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढि़ए। भगवान से मिलने की ललक भगवद् प्राप्ति का एक अंग होती है। भगवत प्राप्ति अर्थात् भगवान या ईश्वर को पाने की रीति, भक्ति मानी गई है। भक्ति का अर्थ है भगवदोपासना अर्थात् भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। इस असत संसार में लोगों के लिये सुख-शांति प्राप्ति का सरल सुगम पथ केवल ईश्वरोपासना ही है। अपने इष्ट देवता का सुमिरन, चिंतन, पूजन, भजन, कीर्तन, ध्यान, आराधना को उपासना कहा जाता है। अधिकांश रूप में देखा सुना गया है कि संसार में जितने भी महान पुरुष हुये हैं, वे सभी भगवद् भक्त हुये हैं यानी वे सभी ईश्वरोपासक थे। परमहंस श्रीरामकृष्ण जी का कहना है कि ‘‘ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।’’ महामना मदनमोहन जी मालवीय ने लिखा है कि ‘‘धट-घट व्यापक उस परमात्मा की विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिये।’’ स्वामी विवेकानंद ने इस बात का प्रचार किया ‘‘नाना रूपों में जो तुम्हारे सामने है, उसको छोडक़र अन्यत्र कहां ईश्वर को खोज रहे हो। जो जीवन से प्रेम करता है वही मनुष्य ‘मनुष्य’ है और वही मनुष्य ईश्वर की सेवा करता है।’’ ‘‘बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाडि़ कोथा खूंजिछ ईश्वर। जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविदे ईश्वर॥’’
उपासना शब्द के स्मृति, पुराणादि में तथा महापुरुषों की वाणी में अनेक अर्थ पाये जाते हैं। सार रूप में भगवत-प्राप्ति के निमित्त उपासना का अर्थ पूजा भक्ति है। श्री मद्भागवत के अनुसार भगवद्-प्राप्ति के लिये ईश्वर को पूर्ण भक्ति से प्रसन्न कर लेना उपासना कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के या यूं कहें कि स्मृतियों व पुराणों के प्रमाण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उपासना काल में भगवान उपासकों को दर्शन अवश्य देते हैं।
मक्का, मदीना, द्वारका, बद्री और केदार।
प्रेम बिना सब झूठ हैं, कहें ‘मलूक’ विचार॥
उपासना की सिद्धि के लिये भगवान के प्रति भक्ति अत्यधिक प्रेम के साथ होनी आवश्यक है। ऐसी ममता, ऐसा अनुराग या प्रेम भगवान के प्रति हो कि अपनी सब ममता हर जगह से निकालकर परम पिता परमात्मा प्रभु के पादारविंदो में ही केंद्रित हो जाये, अनुरक्त हो जाये। रामचरित मानस में भी यही बात कही गई है।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सबकै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बांध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसे।
लोभी हृदय बसइ धनु जैसे॥
उपर्युक्त चौपाईयां विभीषण शरणागति के प्रसंग में सुंदर कांड के दोहे क्रमांक 47 से 48के मध्यसे अवतरित हैं। भगवान राम और विभीषण के मध्य बातचीत का अंश हैं ये चौपाईयां। और भी कहा गया है- तुलसी दास की रामायण में-
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा।
किए जोग तप ग्यान विरागा॥
भक्त शिरोमणि संत मीराबाई के शब्दों में भी इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान प्रेम के द्वारा प्राप्त होते हैं (पद है - माई री मैं तो लियो गोविन्द मोल। कोई कहै घर में, कोई कहै बन में, राधा के संग किलोल॥ मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आवत प्रेम के मोल॥
भगवद् प्राप्ति के निमित्त बिना प्रेम के यदि चंचल मन को जबरन ईश्वर में लगाया जायेगा तो मन वहां अधिक देर टिक नहींं पायेगा। चंचल मन को प्रभु के चरणों में लगाने के लिये दो प्रमुख उपाय हैं : (1) अभ्यास व (2) वैराग्य। अभ्यास के द्वारा मन को भगवान से प्रेम करने की आदत पड़ जाती है और भगवान में मन टिकने लगता है। वैराग्य से चित्त-विभ्रम की निवृत्ति होने लगती है। संसार से विरक्ति और भगवान से अनुरक्ति उत्पन्न होती है। होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ-चरण अनुरागा॥ सदैव, सर्वत्र यानि सब जगह भगवद्दर्शन करने की ललक अपने को परम दैन्य, अयोग्य एवं सबका सेवक समझना यह परमोच्च कोटि की उपासना है। ऐसा करने से भगवान प्रसन्न होकर भक्त आराधक, उपासक या जातक को सदा सर्वत्र सभी सुख-दुखादि परिस्थितियों में अपना दर्शन कराने लगते हैं। ईश्वर और प्रेम को रसखान कवि ने एक वस्तु के दो रूप माना है-
प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।
एक होय द्वै यों लसैं, ज्यों सूरज अरू धूप॥
विभिन्न उपासकों, भगवत प्रेमियों और भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथायें धर्म-साहित्य में पडऩें को हमें प्राप्त होती हैं और तत्संबंधी कथा वार्ताओं को लोग जानते भी हैं। उनमें से एक मुस्लिम महिला ताज का नाम भी आता है जिसे भगवद् प्रेम ने इस्लाम की राह से मोडक़र नंदनंदन की दीवानी, कृष्ण पंथ की फकीरनी बना दिया। मुगलानी ताज के हृदय के भक्ति भाव, कृष्ण प्राप्ति की झलक उसके इस कवित्त से स्वत: स्पष्ट हो जाती है।
सूनाक दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं। देव पूजा ठानी और नमाज भी भुलानी तजे कमला कुरान, सारे गुननि गहूंगी मैं॥ सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार तेरे नेह दाध में निदाघ ज्यों दहूंगी मैं। नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै। हौं तों मुगलानी हिंदुवानी है रहूंगी मैं॥
इस कवित्त रूपी प्याले में भगवत प्राप्ति विषयक मुगलानी ताज की प्रेम भक्ति की ही मदिरा लबालब भरी हुई है। सार यह है कि श्रद्धा भक्ति और प्रेम के द्वारा भगवत प्राप्ति हो सकती है। किसी भगवत रसिक भक्त की हृदय की धारणा इस तरह से है-
नहिं हिंदु, नहिं तुरक हम, नहींं जैनी, अंगरेज।
सुमन संवारत रहत नित, कुंज बिहारी सेज॥
ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है। मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ तुलसी दास जी की इन अनुभूति की पुष्टि मीराबाई ने भी की यह कहकर कि भगवान प्रेम से प्राप्त होते हैं।

अंग लक्षण एवं सामुद्रिक का परस्पर संबंध

हस्त रेखा शास्त्र, अंग लक्षण विद्या तथा सामुद्रिक क्या ये तीनों एक ही हैं? अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर क्या संबंध है? हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं? मनुष्य का हाथ एक ऐसी जन्म पत्रिका है जो कभी भी नष्ट नहींं होती तथा जिसके रचयिता स्वयं ब्रह्माजी हैं। इसलिए शास्त्रों में कहा भी गया है- ‘‘कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्॥’’ कर (हाथ) के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती तथा मूल में ब्रह्मा जी का वास है अत: प्रात: उठकर सर्वप्रथम अपनी हथेलियों का दर्शन करना चाहिए। हस्तरेखा विज्ञान तथा अंग लक्षण विज्ञान को ही सामुद्रिक भी कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि समुद्र ऋषि ही ऐसे सवर्प्रथम भारतीय ऋषि थे जिन्हांने प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध रूप से ज्योतिष विज्ञान की रचना की थी अत: उन्हीं के नाम पर हस्त रेखा विज्ञान को सामुिदक्र भी कहा जाता है। हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं अथवा अंग लक्षण विद्या का सामुद्रिक से क्या संबंध है। इससे संबंधित तथ्यों का उल्लेख भी वेदों और पुराणों में मिलता है।
‘अंग लक्षण विद्या’ से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से है जिसके ज्ञान के द्वारा स्त्री पुरुष के शारीरिक अंगों में विद्यमान उसके शुभाशुभ लक्षणों को देखकर ही उनके व्यक्तित्व, स्वभाव, चरित्र तथा भाग्य का सटीक और सार्थक फलादशे किया जा सके। ऐसी विलक्षण विद्या की रचना सर्व प्रथम गणेश भगवान के अग्रज भगवान कार्तिकेय ने की थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान गणेश को ‘विघ्नेश’, ‘विघ्न विनाशक’ तथा ‘एकदंत’ भी कहते हैं। उन्होंने किसके लिए विघ्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघ्नशे कहा गया अथवा गणेश जी को एकदंत क्यों कहते हैं? यदि इस प्रश्न की गहराई में जाएं तो भी हम पाएगे कि इसका मूल कारण भी ‘समुद्र शास्त्र’ ही है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में शिव जी के ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय ने अपने ‘अंग लक्षण शास्त्र’ के अनुसार पुरुषों एवं स्त्रियों के श्रेष्ठ लक्षणों की रचना की। उसी समय गणेश जी ने उनके इस कार्य में विघ्न उत्पन्न किया। इस पर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश जी का एक दातं उखाड़ लिया और उन्हें मारने के लिए उद्यत हो उठे। तब भगवान शंकर ने कार्तिकये को बीच में रोककर पूछा कि उनके क्रोध का कारण क्या है? कार्तिकेय जी ने कहा ‘‘पिताजी, मैं पुरुषों के लक्षण बनाकर स्त्रियों के लक्षण बना रहा था, उसमें गणेश ने विघ्न उत्पन्न किया, जिससे स्त्रियों के लक्षण मैं नहीं बना सका। इस कारण मुझे क्रोध आया।’’ यह सुनकर महदेव जी ने उनके क्रोध को शांत किया और मुस्कुराकर उनसे पूछा- ‘‘पुत्र, तुम पुरुष के लक्षण जानते हो, तो बताओ मुझमें पुरुषों के कौन-कौन से लक्षण विद्यमान हैं?’’ कार्तिकेय जी ने कहा ‘‘पिता जी, आपमें पुरुषों के ऐसे लक्षण विद्यमान हैं कि आप संसार में ‘कपाली’ के नाम से प्रसिद्ध होंगे।’’ पुत्र के ऐसे वचनों को सुनकर शिवजी क्रोधित हो गये और उन्होंने कार्तिकेय जी के अंग लक्षण शास्त्र को उठाकर समुद्र में फेंक दिया और स्वयं अंर्तध्यान हो गये। कुछ समय पश्चात् जब शिवजी का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने समुद्र को बुलाकर कहा कि तुम स्त्रियों के आभूषण स्वरूप विलक्षण लक्षणों की रचना करो और कार्तिकेय ने जो कुछ भी पुरुष लक्षणों के बारे में कहा है उसकी भी विस्तृत विवेचना करो।’’ समुद्र ने शिवजी की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए कहा ‘‘स्वामि, आपने जो आज्ञा मुझे दी है, वह निश्चित ही पूर्ण होगी, किंतु जो मेरे द्वारा स्त्री-पुरुष लक्षण का शास्त्र कहा जाएगा, वह मेरेे ही नाम ‘सामुिदक्र शास्त्र’ नाम से प्रसिद्ध होगा।।
किसी भी शुभ अवसर पर हिदंू धर्म में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा-अर्चना का विधान भी शायद इसीलिए बनाया गया है कि व्यक्ति के किसी भी कार्य में कोई भी विघ्न न उपस्थित हो। अत: स्पष्ट है कि अंग लक्षण विद्या से सबंंधित शास्त्र की रचना में विघ्न उत्पन्न करने के कारण ही गणेश जी को विघ्नेश कहा गया तथा भगवान कार्तिकेय के क्रोध के कारण दण्ड स्वरूप उन्हें एकदंत होना पड़ा। लक्षण शास्त्र से सबंंिधत पुराणों एक कथा यह भी है कि, भगवान शिव द्वारा क्रोध में आकर कार्तिकेय द्वारा रचित लक्षण ग्रंथ को समुद्र में फेंक देने के उपरांत व्योमकेश भगवान के सुपुत्र कार्तिकेय जी ने जब अपनी अनुपम शक्ति से क्रौंच पर्वत को विदीर्ण किया तो ब्रह्मा जी ने वर मांगने को कहा। कुमार कार्तिकेय ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा ‘‘प्रभो। स्त्रियों के विषय में जो लक्षण ग्रंथ मैंने पहले बनाया था उसे तो मेरे पिता महादेव ने क्रोध में आकर समदु्र मे फेंक दिया। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर पनु: उन्हीं लक्षणों का वर्णन करें। तब कार्तिकेय जी के आग्रह करने पर ब्रह्मा जी ने स्वयं समुद्र द्वारा कहे गये उन स्त्री-पुरुष लक्षणों को पुन: वर्णित किया। उन्होंने उसी शास्त्र के आधार पर स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन प्रकार के लक्षण बतलाए जिसके अनुसार किसी भी जातक का स्वभाव, व्यवहार तथा भाग्य निर्धारित किया जा सकता है। अत: यह पूर्ण रूपेण प्रामाणिक एवं शास्त्रोक्त भी है, कि हस्तरेखा, अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर गहरा एवं अटूट संबंध है। एक अच्छे ज्योतिषी को चाहिए कि वह अंग लक्षण विद्या एवं ज्योतिष का परस्पर समन्वय स्थापित करते हुए शुभ मुहर्तू में मध्याह्न के पूर्व स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ लक्षणों एवं हस्त रेखाओं का भली प्रकार अध्ययन करने के उपरांत ही सटीक एवं सार्थक फलादेश करें।

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Wednesday 13 April 2016

अतृप्त ईच्छओं से बनते है प्रेत

मनुष्य धरती पर स्थूल शरीर समेत रहते है,भुत सूक्ष्म शरीर से अंतरिक्ष में रहते है | तुलनात्मक दृष्टि से उनको सामर्थ्य और साधन जीवित मनुष्यों की तुलना में कम होते है इसलिए वे डराने के अतिरिक्त और कोई बड़ी हानि नहीं पहुंचा सकते | दर के कारण कई बार घबराहट, चिंता, असंतुलन जैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है | भुतोंमाद में यह भीरुता और मानसिक दुर्बलता ही रोग बनकर सामने आती है | वे जिससे कुछ अपेक्षा करते है उनसे संपर्क बनाते है और अपनी अत्रिप्तिजन्य उद्विग्नता के समाधान में सहायता चाहते है | प्राय: दर का मुख्य कारण होता है |
कोई कहे सब अंधविश्वास है, तो कोई कहे बेहद खौफनाक है। भूतों के बारे में सुनते तो सभी हैं परन्तु इनके पौराणिक उद्गम को जानते नहीं और भूत-प्रेत के रहस्य से हमेशा आतंकित रहते हैं। लेकिन गरुड़ पुराण ने उस सारे भय को दूर करते हुए प्रेतयोनि से संबंधित रहस्यों को जीवित मनुष्यों के कर्म फल के साथ जोडक़र सम्पूर्ण अदृश्य जगत का वैज्ञानिक आधार तैयार किया है। वैदिक ग्रन्थ ‘‘गरुड़ पुराण’’ में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है। हिन्दू धर्म में ‘‘प्रेत योनि’’ इस्लाम में ‘‘जिन्नात’’ आदि का वर्णन भूत प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व आत्मा अथवा भूत प्रेत के रूप में होता है।
भूत कभी भी और कहीं भी हो सकते हैं। चाहे वह विराना हो या भीड़ भार वाला मेट्रो स्टेशन। यहां हम जिस मेट्रो स्टेशन की बात कर रहे हैं वह किसी दूसरे देश का नहीं बल्कि भारत का ही एक मेट्रो स्टेशन है। इस स्टेशन पर भूतों का ऐसा साया है कि कई लोग ट्रैक पर कूद कर जान दे चुके हैं।
यह मेट्रो स्टेशन कोलकाता में स्थित है। इस स्टेशन का नाम है रवीन्द्र सरोवर। इस मेट्रो स्टेशन के बारे में कहा जाता है कि यहां पर भूतों का साया है। रात 10:30 बजे यहां से आखिरी मेट्रो गुजरती है। उस समय कई मुसाफिर और मेट्रो के ड्राइवरों ने भी इस चीज का अनुभव किया है कि मेट्रो ट्रैक के बीच अचानक कोई धुंधला साया प्रकट होता है और पल में ही गायब हो जाता है।
कोलकाता का यह मेट्रो स्टेशन यहां का सुसाइड प्वाइंट माना जाता है। कारण यह है कि यहां पर कई लोगों ने ट्रैक पर कूद कर आत्महत्या की है। वैसे भूत प्रेतों में विश्वास नहीं करने वाले लोग यह मानते हैं कि यह मेट्रो स्टेशन टॉलीगंज टर्मिनल के बाद पड़ता है जहां अधिकांश मुसाफिर उतर जाते हैं। इसलिए यहां अधिक भीड़ नहीं रहती है। यही कारण हो सकता है कि इस मेट्रो को सुसाइड प्वाइंट और भूतहा कहा जाता है।
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनि के कारण:
ज्योतिष के अनुसार वे लोग भूतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में चंद्रमा और राहु के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाते हैं।
कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं। कुंडली में बनने वाले कुछ भूत-प्रेत बाधा योग इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रह स्थित हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर भूत-प्रेत-पिशाच या गंदी आत्माओं का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि-राहु-केतु या मंगल में से कोई भी ग्रह सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी भूत प्रेत बाधा या पिशाच या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. यदि किसी की कुंडली में शनि-मंगल-राहु की युति हो तो उसे भी ऊपरी बाधा प्रेत पिशाच या भूत बाधा तंग करती है।
4. उक्त योगों में दशा अंतर्दशा में भी ये ग्रह आते हों और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान हंै। इस कष्ट से मुक्ति के लिए तांत्रिक, ओझा, मोलवी या इस विषय के जानकार ही सहायता करते हैं।
5. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र-राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव से मुक्त न हो।
6. भूत प्रेत अक्सर उन लोगों को अपना शिकार बना लेते हैं जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
7. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और पिशाच योग के बराबर अशुभ फल देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को महत्वपूर्ण माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। पिशाच योग राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है। पिशाच योग जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है वह प्रेत बाधा का शिकार आसानी से हो जाता है। इनमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। कभी-कभी स्वयं ही अपना नुकसान कर बैठते हैं।
8. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई ऊपरी शक्तियां उसका विनाश करने में लगी हुई हैं और किसी भी इलाज से उसको कभी फायदा नहीं होता।
9. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी ऊपरी बाधा का प्रभाव जल्द होने की संभावनाएं बनती हैं। जो मनुष्य जितनी अधिक वासनाएँ ओर आकांक्षाएँ अपने साथ लेकर मरता है उसके भूत होने की सम्भावना उतनी ही अधिक रहती है।
आकांक्षाओं का उद्वेग मरने के बाद भी प्राणी को चैन नहीं लेने देता और वह सूक्ष्म शरीरधारी होते हुए भी यह प्रयत्न करता है कि अपने असन्तोष को दूर करने के लिए कोई उपाय, साधन एवं मार्ग प्राप्त करे। साँसारिक कृत्य का उपयोग शरीर द्वारा ही हो सकते हैं। मृत्यु के उपरान्त शरीर रहता नहीं। ऐसी दशा में उस अतृप्त प्राणी की उद्विग्नता उसे कोई शरीर गढऩे की प्रेरणा करती है। अपने साथ लिपटे हुए सूक्ष्म साधनों से ही वह अपनी कुछ आकृति गढ़ पाता है जो पूर्व जन्म के शरीर से मिलती जुलती किन्तु अनगढ़ होती है। अनगढ़ इसलिए कि भौतिक पदार्थों का अभीष्ट अनुदान प्राप्त कर लेना, मात्र उसकी अपनी इच्छा पर ही निर्भर नहीं रहता। ‘भूत’ अपनी इच्छा पूर्ति के लिए किसी दूसरे के शरीर को भी माध्यम बना सकते हैं। उसके शरीर से अपनी वासनाओं की पूर्ति कर सकते हैं अथवा जो स्वयं करना चाहते थे वह दूसरों के शरीर से करा सकते हैं। कुछ कहने या सुनने की इच्छा हो तो वह भी अपने वंशवर्ती व्यक्ति द्वारा किसी कदर पूरी करते देखे गये हंै। इसके लिए उन्हें किसी को माध्यम बनाना पड़ता है। हर व्यक्ति माध्यम नहीं बन सकता। उसके लिए दुर्बल मन:स्थिति को आदेश पालन के लिए उपयुक्त मनोभूमि का व्यक्ति होना चाहिए। प्रेतों के लिए सवारी का काम ऐसे ही लोग दे सकते हैं। मनस्वी लोगों की तीक्ष्ण इच्छा शक्ति उनका आधिपत्य स्वीकार नहीं करतीं।
भूतों के अस्तित्व से किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है। वे भी मनुष्यों की तरह ही जीवनयापन करते हैं। मनुष्य धरती पर स्थूल शरीर समेत रहते हैं, भूत सूक्ष्म शरीर से अन्तरिक्ष में रहते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से उनको सामथ्र्य और साधन जीवित मनुष्यों की तुलना में कम होते हैं इसलिए वे डराने के अतिरिक्त और कोई बड़ी हानि नहीं पहुँचा सकते। डर के कारण कई बार घबराहट, चिन्ता, असन्तुलन जैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है। भूतोन्माद में यह भीरुता और मानसिक दुर्बलता ही रोग बनकर सामने आती है। वे जिससे कुछ अपेक्षा करते हैं उनसे संपर्क बनाते हैं और अपनी अतृप्तिजन्य उद्विग्नता के समाधान में सहायता चाहते हैं। प्राय: डर का मुख्य कारण होता है। इन सबसे बचने के लिए हनुमान-चालीसा बहुत ज्यादा कारगर है, जिसके नाम से ही भूत-प्रेत भाग जाते हैं।

50 लाख लीटर पानी से भी नहीं भरता घड़ा: दैवीय चमत्कार

जस्थान के पाली जिले में हर साल, सैकड़ों साल पुराना इतिहास और चमत्कार दोहराया जाता है। शीतला माता के मंदिर में स्थित आधा फीट गहरा और इतना ही चौड़ा घड़ा श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ के लिए खोला जाता है। करीब 800 साल से लगातार साल में केवल दो बार ये घड़ा सामने लाया जाता है। अब तक इसमें 50 लाख लीटर से ज्यादा पानी भरा जा चुका है। इसको लेकर मान्यता है कि इसमें कितना भी पानी डाला जाए, ये कभी भरता नहीं है। ऐसी भी मान्यता है कि इसका पानी राक्षस पीता है, जिसके चलते ये पानी से कभी नहीं भर पाता है। दिलचस्प है कि वैज्ञानिक भी अब तक इसका कारण नहीं पता कर पाए हैं।
ग्रामीणों के अनुसार करीब 800 साल से गांव में यह परंपरा चल रही है। घड़े से पत्थर साल में दो बार हटाया जाता है। पहला शीतला सप्तमी पर और दूसरा ज्येष्ठ माह की पूनम पर। दोनों मौकों पर गांव की महिलाएं इसमें कलश भर-भरकर हजारों लीटर पानी डालती हैं, लेकिन घड़ा नहीं भरता है। फिर अंत में पुजारी प्रचलित मान्यता के तहत माता के चरणों से लगाकर दूध का भोग चढ़ाता है तो घड़ा पूरा भर जाता है। दूध का भोग लगाकर इसे बंद कर दिया जाता है। इन दोनों दिन गांव में मेला भी लगता है।
दिलचस्प है कि इस घड़े को लेकर वैज्ञानिक स्तर पर कई शोध हो चुके हैं, मगर भरने वाला पानी कहां जाता है, यह कोई पता नहीं लगा पाया है। ऐसी मान्यता है कि आज से आठ सौ साल पूर्व बाबरा नाम का राक्षस था। इस राक्षस के आतंक से ग्रामीण परेशान थे। यह राक्षस ब्राह्मणों के घर में जब भी किसी की शादी होती तो दूल्हे को मार देता। तब ब्राह्मणों ने शीतला माता की तपस्या की। इसके बाद शीतला माता गांव के एक ब्राह्मण के सपने में आई। उसने बताया कि जब उसकी बेटी की शादी होगी तब वह राक्षस को मार देगी। शादी के समय शीतला माता एक छोटी कन्या के रूप में मौजूद थी। वहां माता ने अपने घुटनों से राक्षस को दबोचकर उसका प्राणांत किया। इस दौरान राक्षस ने शीतला माता से वरदान मांगा कि गर्मी में उसे प्यास ज्यादा लगती है। इसलिए साल में दो बार उसे पानी पिलाना होगा। शीतला माता ने उसे यह वरदान दे दिया। तभी से यह मेला भरता है।

शनिरेखा में छुपा है मनुष्य का चरित्र

आकाश में भ्रमण कर रहे शनि ग्रह की रेखा भी विशिष्ट है | यह बल्याधारी ग्रह अपने निलाभ्वार्ण और चतुर्दिक मुद्रिका-कार आभायुक्त बलय के कारण बहुत ही शोभन प्रतीत होता है | जन्मकुंडली की भांति मानव हथेलियों पर भी शनि ग्रह की स्तिथि होती है | शनि पर्वत की स्तिथि, आकर उभार और समी पवर्ती पर्वतों की संगीत के भेद से शुभाशुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के फल का अनुमान लगाया जा सकता है |
मध्यमा अंगुली के नीचे शनि पर्वत का स्थान है। यह पर्वत बहुत भाग्यशाली मनुष्यों के हाथों में ही विकसित अवस्था में देखा गया है। शनि की शक्ति का अनुमान मध्यमा की लम्बाई और गठन को देखकर ही लगाया जा सकता है, यदि वह लम्बीं और सीधी है तथा गुरु की अंगुलियां उसकी ओर झुक रही हैं तो मनुष्य के स्वभाव और चरित्र में शनिग्रहों के गुणों की प्रधानता होगी। ये गुण हैं- स्वाधीनता, बुद्धिमता, अध्ययनशीलता, गंभीरता, सहनशीलता, विनम्रता और अनुसंधान तथा इसके साथ अंतर्मुखी, अकेलापन। शनि के दुर्गुणों की सूची भी छोटी नहीं है, विषाद-नैराश्य, अज्ञान, ईष्र्या, अंधविश्वास आदि इसमें सम्मिलित हैं। अत: शनि ग्रह से प्रभावित मनुष्य के शारीरिक गठन को बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है। ऐसे मनुष्य कद में असामान्य रूप में लम्बे होते हैं, उनका शरीर सुसंगठित लेकिन सिर पर बाल कम होते हैं। लम्बे चेहरे पर अविश्वास और संदेह से भरी उनकी गहरी और छोटी आंखें हमेशा उदास रहती हैं। यद्यपि उत्तेजना, क्रोध और घृणा को वह छिपा नहीं पाते।
इस पर्वत के अभाव होने से मनुष्य अपने जीवन में अधिक सफलता या सम्मान नहीं प्राप्त कर पाता। मध्यमा अंगुली भाग्य की देवी है। भाग्यरेखा की समाप्ति प्राय: इसी अंगुली की मूल में होती है। पूर्ण विकसित शनि पर्वत वाला मनुष्य प्रबल भाग्यवान होता है। ऐसे मनुष्य जीवन में अपने प्रयत्नों से बहुत अधिक उन्नति प्राप्त करते हैं। शुभ शनि पर्वत प्रधान मनुष्य, इंजीनियर, वैज्ञानिक, जादूगर, साहित्यकार, ज्योतिषी, कृषक अथवा रसायन शास्त्री होते हैं। शुभ शनि पर्वत वाले स्त्री-पुरुष प्राय: अपने माता-पिता के एकलौता संतान होते हैं तथा उनके जीवन में प्रेम का सर्वोपरि महत्व होता है। बुढ़ापे तक प्रेम में उनकी रुचि बनी रहती है, किंतु इससे अधिक आनंद उन्हें प्रेम का नाटक रचने में आता है। उनका यह नाटक छोटी आयु से ही प्रारंभ हो जाता है। वे स्वभाव से संतोषी और कंजूस होते हैं। कला क्षेत्रों में इनकी रुचि संगीत में विशेष होती है। यदि वह लेखक हैं तो धार्मिक रहस्यवाद उनके लेखन का विषय होता है।
अविकसित शनि पर्वत होने पर मनुष्य एकांत प्रिय अपने कार्यों अथवा लक्ष्य में इतना तनमय हो जाते हैं कि घर-गृहस्थी की चिंता नहीं करते, ऐसा मनुष्य चिड़-चिड़े और शंकालु स्वभाव के हो जाते हैं, तथा उनके शरीर में रक्त वितरण कमजोर होता है। उनके हाथ-पैर ठंडे होते हैं, और उनके दांत काफी कमजोर हुआ करते हैं। दुघर्टनाओं में अधिकतर उनके पैरों और नीचे के अंगों में चोट लगती है। वे अधिकतर निर्बल स्वास्थ्य के होते हैं। यदि हृदय रेखा भी जंजीराकार हो तो मनुष्य की वाहन दुर्घटना में मृत्यु भी हो जाती है।
शनि के क्षेत्र पर भाग्य रेखा कही जाने वाली शनि रेखा समाप्त होती है। इस पर शनिवलय भी पायी जाती है और शुक्रवलय इस पर्वत को घेरती हुई निकलती है। इसके अतिरिक्त हृदय रेखा इसकी निचली सीमा को छूती हैं। इन महत्वपूर्ण रेखाओं के अतिरिक्त इस पर्वत पर एक रेखा जहां सौभाग्य सूचक है। यदि रेखायें गुरु की पर्वत की ओर जा रही हों तो मनुष्य को सार्वजनिक मान-सम्मान प्राप्त होता है। इस पर्वत पर बिन्दु जहां दुर्घटना सूचक चिन्ह है वहीं क्रॉस मनुष्य को संतति उत्पादन की क्षमता को विहीन करता है। नक्षत्र की उपस्थिति उसे हत्या या आत्महत्या की ओर प्रेरित कर सकती है। वृत का होना इस पर्वत पर शुभ होता है और वर्ग का चिन्ह होना अत्यधिक शुभ लक्षण है। ये घटनाओं और शत्रुओं से बचाव के लिए सुरक्षा सूचक है, जबकि जाल होना अत्यधिक दुर्भाग्य का लक्षण है।
यदि शनि पर्वत अत्यधिक विकसित होता है तो मनुष्य 22 या 45 वर्षों की उम्रों में निश्चित रूप से आत्महत्या कर लेता है। डाकू, ठग, अपराधी मनुष्यों के हाथों में यह पर्वत बहुत विकसित पाया जाता है जो साधारणत: पीलापन लिये होता है। उनकी हथेलियां तथा चमड़ी भी पीली होती है और स्वभाव में चिड़चिड़ापन झलकता रहता हैं। यह पर्वत अनुकूल स्थिति में सुरक्षा, संपत्ति, प्रभाव, बल पद-प्रतिष्ठा और व्यवसाय प्रदान करता है, परंतु विपरीत गति होने पर इन समस्त सुख साधनों को नष्ट करके घोर संत्रास्तदायक रूप धारण कर लेता है। यदि इस पर्वत पर त्रिकोण जैसी आकृति हो तो मनुष्य गुप्तविधाओं में रुचि, विज्ञान, अनुसंधान, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र सम्मोहन आदि में गहन रुचि रखता है और इस विषय का ज्ञाता होता है। इस पर्वत पर मंदिर का चिन्ह भी हो तो मनुष्य प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के रूप में प्रकट होते हैं और यह चिन्ह राजयोग कारक माना जाता है। यह चिन्ह जिस किसी की हथेलियों के पर्वत पर उत्पन्न होते हैं, वह किसी भी उम्र में वह मनुष्य लाखों-करोड़ों के स्वामी होते हैं। यदि इस पर्वत पर त्रिशूल जैसी आकृतियां हो तो वह मनुष्य एका-एक सन्यासी बन जाते हैं। यह वैराग्य सूचक चिन्ह है। इसके अलावा शनि का प्रभाव कभी शुरुआत काल में भाग्यवान बनाता है तो कभी दुर्भागी। शनि की दशा शांति करने हेतु शनिवार को पीपल के नीचे दीपक जलाना चाहिए व हनुमान जी की पूजा-उपासना करना चाहिए।

शिव प्रतिमा के आठ प्रकार


हिन्दू धर्म में मान्यता है की भगवान शिव इस संसार में आठ रूपों में समाए है जो है शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव। इसी आधार पर धर्मग्रंथों में शिव जी की मूर्तियों को भी आठ प्रकार का बताया गया है। आईए भगवान शिव के इन आठ मूर्ति स्वरुप के बारे में थोड़ा विस्तार से जानते है।

1. शर्व:- पूरे जगत को धारण करने वाली पृथ्वीमयी मूर्ति के स्वामी शर्व है, इसलिए इसे शिव की शार्वी प्रतिमा भी कहते हैं। सांसारिक नजरिए से शर्व नाम का अर्थ और शुभ प्रभाव भक्तों के हर को कष्टों को हरने वाला बताया गया है।

2. भीम:- यह शिव की आकाशरूपी मूर्ति है, जो बुरे और तामसी गुणों का नाश कर जगत को राहत देने वाली मानी जाती है। इसके स्वामी भीम है। यह भैमी नाम से प्रसिद्ध है। भीम नाम का अर्थ भयंकर रूप वाले भी हैं, जो उनके भस्म से लिपटी देह, जटाजूटधारी, नागों के हार पहनने से लेकर बाघ की खाल धारण करने या आसन पर बैठने सहित कई तरह से उजागर होता है।

3. उग्र:- वायु रूप में शिव जगत को गति देते हैं और पालन-पोषण भी करते हैं। इसके स्वामी उग्र है, इसलिए यह मूर्ति औग्री के नाम से भी प्रसिद्ध है। उग्र नाम का मतलब बहुत ज्यादा उग्र रूप वाले होना बताया गया है। शिव के तांडव नृत्य में भी यह शक्ति स्वरूप उजागर होता है।

4. भव:- शिव की जल से युक्त मूर्ति पूरे जगत को प्राणशक्ति और जीवन देने वाली है। इसके स्वामी भव है, इसलिए इसे भावी भी कहते हैं। शास्त्रों में भी भव नाम का मतलब पूरे संसार के रूप में ही प्रकट होने वाले देवता बताया गया है।

5. पशुपति:- यह सभी आंखों में बसी होकर सभी आत्माओं की नियंत्रक है। यह पशु यानी दुर्जन वृत्तियों का नाश और उनसे मुक्त करने वाली होती है। इसलिए इसे पशुपति भी कहा जाता है। पशुपति नाम का मतलब पशुओं के स्वामी बताया गया है, जो जगत के जीवों की रक्षा व पालन करते हैं।

6. रुद्र:- यह शिव की अत्यंत ओजस्वी मूर्ति है, जो पूरे जगत के अंदर-बाहर फैली समस्त ऊर्जा व गतिविधियों में स्थित है। इसके स्वामी रूद्र है। इसलिए यह रौद्री नाम से भी जानी जाती है। रुद्र नाम का अर्थ भयानक भी बताया गया है, जिसके जरिए शिव तामसी व दुष्ट प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हैं।
7. ईशान:- यह सूर्य रूप में आकाश में चलते हुए जगत को प्रकाशित करती है। शिव की यह दिव्य मूर्ति ईशान कहलाती है। ईशान रूप में शिव ज्ञान व विवेक देने वाले बताए गए हैं।

8. महादेव :- चन्द्र रूप में शिव की यह साक्षात मूर्ति मानी गई है। चन्द्र किरणों को अमृत के समान माना गया है। चन्द्र रूप में शिव की यह मूर्ति महादेव के रूप में प्रसिद्ध है। इस मूर्ति का रूप अन्य से व्यापक है। महादेव नाम का अर्थ देवों के देव होता है। यानी सारे देवताओं में सबसे विलक्षण स्वरूप व शक्तियों के स्वामी शिव ही हैं।

सुख और दु:ख

सुख और दु:ख का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। इनका कोई सुनिश्चित, ठोस, सर्वमान्य आधार भी नहीं है। सुख-दु:ख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं। उसकी मान्यता कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुख का स्वरूप बनता है। सुख-दु:ख मनुष्य के मानस पुत्र हैं ऐसा कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियां, मानसिक स्थिति में ही सुख-दु:ख का जन्म होता है। बाह्य परिस्थितियों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि जिन परिस्थितियों में एक दु:खी रहता है तो दूसरा उनमें खुशियाँ मनाता है, सुख अनुभव करता है। वस्तुत: सुख-दु:ख मनुष्य की अपनी अनुभूति के निर्णय हैं, और इन दोनों में से किसी एक के भी प्रवाह में बह जाने पर मनुष्य की स्थिति असन्तुलित एवं विचित्र-सी हो जाती है। उसके सोचने समझने तथा मूल्याँकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। किसी भी परिस्थिति में सुख का अनुभव करके अत्यन्त प्रसन्न होना, हर्षातिरेक हो जाना तथा दु:ख के क्षणों में रोना बुद्धि के मोहित हो जाने के लक्षण हैं। इस तरह की अवस्था में सही-सही सोचने और ठीक काम करने की क्षमता नहीं रहती। मनुष्य उल्टा-सीधा सोचता है। उल्टे-सीधे काम करता है।
कई लोग व्यक्ति विशेष को अपना अत्यन्त निकटस्थ मान लेते हैं। फिर अधिकार- भावनायुक्त व्यवहार करते हैं। विविध प्रयोजनों का आदान-प्रदान होने लगता है। एक दूसरे से कुछ न कुछ अपेक्षायें रखने लगते हैं। जब तक गाड़ी भली प्रकार चलती रहती है तो लोग सुख का अनुभव करते हैं। लेकिन जब दूसरों से अपनी अपेक्षायें पूरी न हों या जैसा चाहते हैं वैसा प्रतिदान उनसे नहीं मिले तो मनुष्य दु:खी होने लगता है।
अक्सर अनुकूलताओं में सुखी और प्रतिकूलताओं में दु:खी होना हमारा स्वभाव बन गया है। उन्नति के, लाभ के, फल-प्राप्ति के क्षणों में हमें बेहद खुशी होती है तो कुछ न मिलने पर, लाभ न होने पर दु:ख भी कम नहीं होता। लेकिन इसका आधार तो स्वार्थ, प्रतिफल, लगाव अधिकार आदि की भावना है। इन्हें हटाकर देखा जाय तो सुख-दु:ख का कोई अस्तित्व ही शेष न रहेगा। दोनों ही नि:शेष हो जायेंगे।
सुख-दु:ख का सम्बन्ध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दु:ख की अनुभूति होगी। जिनमें उदार दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहता है, वे हर समय प्रसन्न, सुखी, आनन्दित रहते हैं। स्वयं तथा संसार और इसके पदार्थों को प्रभु का मंगलमय उपवन समझने वाले महात्माओं को पद-पद पर सुख के सिवा कुछ और रहता ही नहीं। काँटों में भी वे फलों की तरह मुस्कुराते हुए सुखी रहते हैं। कठिनाइयों में भी उनका मुँह कभी नहीं कुम्हलाता।
इसके विपरीत संकीर्णमना हीन भावना वाले, रागद्वेष से प्रेरित स्वभाव वाले व्यक्तियों को यह संसार दु:खों का सागर मालूम पड़ेगा। ऐसे व्यक्ति कभी नहीं कहेंगे कि ‘‘हम सुखी हैं।’’ वे दु:ख में ही जीते हैं और दु:ख में ही मरते हैं। दुर्भावनायें ही दु:खों की जनक है। इसी तरह वे हैं जिनका पूरा ध्यान अपनेपन पर ही है। उनका भी दु:खी रहना स्वाभाविक है। केवल अपने को सुखी देखने वाले, अपना हित, अपना लाभ चाहने वाले, अपना ही एकमात्र ध्यान रखने वाले संकीर्णमना व्यक्तियों को सदैव मनचाहे परिणाम तो मिलते नहीं। अत: अधिकतर दु:ख और रोना-धोना ही इस तरह के लोगों के पल्ले पड़ता है।
एक गुरू के शिष्यों के पास कुल मिलाकर पाँच रोटी और दो टुकड़े तरकारी निकली। गुरु ने उसे इकठ्ठा किया और मन्त्रबल से अन्नपूर्णा बना दिया। शिष्यों ने भर पेट खाया और जो भूखे भिखारी उधर से निकले वे भी उसी से तृप्त हो गये। एक शिष्य ने पूछा-गुरु वर, इतनी कम सामग्री में इतने लोगों की तृप्ति का रहस्य क्या है?
गुरू ने कहा- हे शिष्यों। धर्मात्मा वह है जो खुद की नहीं सब की बात सोचता है। अपनी बचत सबके काम आये इस विचार से ही तुम्हारी पाँच रोटी अक्षय अन्नपूर्णा बन गई। जो जोड़ते हैं वे ही भूखे रहेंगे। जिनने देना सीख लिया है उनके लिए तृप्तता के साधन आप ही आ जुटते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य का भावनास्तर सार्वभौमिक हो। अपनी सुख-दु:ख की अनुभूति का आधार जितना व्यापक होगा उतना ही मनुष्य सुख-दु:ख की मोहमयी माया से बचा रहेगा। सबके साथ सुखी रहना सबके साथ दु:खी, अर्थात् सबके सुख में अपना सुख देखना और सबके दु:ख में अपना दु:ख। इससे मनुष्य न तो सुख में पागल बनेगा न दु:ख में रोयेगा।
सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे सन्तु निरमया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख माप्नुयात॥
‘‘सभी सुखी हों सभी नीरोग हों। सभी कल्याण प्राप्त करें, कोई भी दु:खी न हों।’’ इस तरह की चाह ज्यों-ज्यों बढ़ती जायगी हमारे हृदय में स्थायी सुख शान्ति सन्तोष की भी वृद्धि होगी। इसी तरह सबके दु:खों को अपनी अनुभूति का आधार बनाने वाले व्यक्ति यों के स्वयं के दु:ख, द्वन्द्व स्वत: तिरोहित हो जाते हैं। दु:ख का भार जब मनुष्य अपनी ही पीठ पर लादे फिरता है तो उसका दु:खमय रह कर दु:ख में ही अन्त होना स्वाभाविक है।
अति संवेदनशील व्यक्ति को भी सुख-दु:ख की लहरों में अधिक थपेड़े खाने पड़ते हैं। क्षण-क्षण बदलने वाले, बनने और बिगडऩे वाले पदार्थ, संयोग-वियोग जब संवेदनशील व्यक्ति के मानस को झकझोर डालते हैं तो उसे संसार दु:खमय जान पड़ता है। वस्तुत: इस तरह के व्यक्ति एक अपनी काल्पनिक दुनिया बना लेते हैं। लेकिन जब कल्पना साकार नहीं होती और दूसरे अरुचि के परिणाम मिलते हैं तो संवेदनशील व्यक्ति दु:खी होता है। संसार यथार्थ की कठोर धरती है। यहाँ सभी तरह की परिस्थितियों के झोंके आते रहते हैं। पद-पद पर प्राप्त परिस्थिति का स्वागत कर दृढ़ता के साथ आगे बढऩे वाले ही दु:ख द्वन्द्वों पर काबू पा सकते हैं।
मानव जीवन दुहरी कार्य प्रणाली का संयोग स्थल है। मनुष्य लेता है और त्याग भी करता है निरन्तर श्वास लेता है और प्रश्वास छोड़ता है। भोजन करता है किन्तु दूसरे रूप में उसका त्याग भी करता है। इस तरह धनात्मक और ऋणात्मक दोनों क्रियाओं में ही मनुष्य जीवन की वास्तविकता है। दोनों में से एक का अभाव मृत्यु है। दोनों के सम्मिलित पर्याप्त से ही जीवन पुष्ट बनता है। बिजली का ऋण और धन दोनों धारायें चलती हैं तभी प्रयोजन सिद्ध होता है। अकेली एक धारा कुछ नहीं कर सकती। इसी तरह संसार में सुख भी है और दु:ख भी। न्याय है और अन्याय भी। प्रकाश है और अन्धेरा भी। संसार सुन्दर उपवन है तो कठोर कारागार भी। जन्म के साथ मृत्यु और मृत्यु के साथ जन्म जुड़ा हुआ है। इस तरह विभिन्न धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष मिलकर जीवन को पुष्ट करने का काम करते हैं, केवल मात्र सुख की चाह करना और दु:ख द्वन्द्वों से बचने की लालसा रखना एकांगी है। प्रकृति का नियम तो बदलता नहीं इससे उल्टे मनुष्य में भीरुता, मानसिक दुर्बलता को पोषण मिलता है मनुष्य को निराशामय चिन्ता का सामना करना पड़ता।
जो कुछ भी जीवन में प्राप्त हो जैसी भी परिस्थिति आये उसे जीवन का वरदान मानकर सन्तुष्ट और प्रसन्न रहने में कंजूसी न की जाय। वस्तुत: सुख-दु:ख, अनुकूल-प्रतिकूल, धनात्मक-ऋणात्मक परिस्थितियों में जीवन बलिष्ठ और पुष्ट होता है। इनमें से निकल कर ही मनुष्य निरामय, अनावृत और निर्मल बन सकता है। वैसे इनसे बचने का कोई रास्ता भी नहीं है। फिर क्यों नहीं हर परिस्थिति में सहज भाव में स्थिर रहा जाय? जब संसार को चलाने वाले नियम परिवर्तनशील हैं, ऋणात्मक और धनात्मक हैं तो फिर अपनी एक सी दुनिया बसाने की कल्पना या सुखों के अरमानों को पोषण क्यों दिया जाय? इससे तो दु:ख निराशा क्लान्ति ही मिलेगी। दृढ़ चट्टान की तरह जीवन में आने वाली विविध अनुकूल-प्रतिकूल हवाओं में तटस्थ भाव से सब कुछ देखते रहना और हर परिस्थिति में सन्तुष्ट रहना, सुख-दु:ख से मुक्त रहने का सरल उपाय है।
वस्तुत: सुख के सम्बन्ध में ही लोगों के विचार सही और पूर्ण नहीं होते। कई बार जिन्हें मनुष्य सुख मानकर चलता है वे ही घोर दु:ख का कारण बन जाते हैं। बहुत से लोग शारीरिक सुखों को अपना आधार मान लेते हैं। आराम करना, प्रमादी जीवन बिताने में कई लोग सुख का अनुभव करते हैं किन्तु ये विषवत् दु:खकर होते हैं-
यवग्रे चानु बन्धे च सुखं मोहनमात्मन:।
निद्रालस्य प्रमादोत्यं तत्तामसमुदाह्रतम॥
‘‘भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला, निद्रा, आलस्य, प्रमाद आदि से उत्पन्न सुख तामसी-राक्षसी कहा गया है।’’ वस्तुत: निद्रा-आलस्य-प्रमाद में जीवन बिताने से मनुष्य के मन, बुद्धि, विवेक सुप्त हो जाते हैं। इससे मनुष्य की शारीरिक मानसिक क्षमतायें भी नष्ट हो जाती हैं। और फिर जीवन के संघर्षों में से मनुष्य की क्रियाशक्ति को जंग लग जाता है। हाथ पाँव बेकार और शरीर रुग्ण हो जाता है।
कई लोग अच्छा खाना, पीना, विषय भोग में रत रहना ही सुख का आधार मान कर चलते हैं। खाओ-पीओ और मौज, सुखकर लगने वाले परिणाम में विषवत् मालूम पड़ते हैं। गीताकार ने स्पष्ट लिखा है-
विषयेन्द्रिय संयोगा द्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
पणामें विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥
‘‘विषय और इन्द्रियों के संयोग से होने वाले सुख राजसिक सुख कहलाते हैं जिनका परिणाम विष तुल्य ही होता है।’’ वस्तुत: संसार के भोगों में लिप्त रहना, विषयों में आसक्त रहना प्रारम्भ में तो सुखकर लगता है किन्तु परिणाम में मनुष्य पर हलाहल विष की तरह प्रभाव डालता है। मनुष्य तन, मन से हीन अस्वस्थ हो तड़प-तड़प कर प्राण देता है। जिस तरह पतंगा दीपक की लौ का स्पर्श-सुख प्राप्त करने की चेष्टा करके झुलस जाता है अपने पंखों से हाथ धो बैठता है और फिर तड़प-तड़प कर प्राण देता है उसी तरह विविध भोग, विषय वासना की पूर्ति पहले तो सुखकर लगती है किन्तु फिर अनेकों शारीरिक मानसिक कष्टों का कारण बन जाती है। साथ ही मनुष्य में अनेकों राजसिक भाव, अहंकार, दर्प, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा की भावना, दम्भ, विषय चिन्तन, शान शौकत आदि बढ़ जाते हैं जो सम्पूर्ण जीवन को विकारमय बना देते हैं और इनके कारण मनुष्य को अनेकों कष्टों का सामना करना पड़ता है।
साँसारिक पदार्थ, इन्द्रियाँ तथा इच्छाओं से सम्बन्ध रखने वाले सभी सुखों का अन्त दु:ख में ही होता है। क्योंकि ये सभी नाशवान, क्षणभंगुर परिवर्तनशील होते हैं। संसार और मनुष्य की परिस्थितियाँ हर क्षण बदलती हैं। आज कोई धनवान है तो कल वह निर्धन बन सकता है। आज अनुकूल परिस्थिति है तो कल प्रतिकूलताओं का भी सामना करना पड़ सकता है। आज जो पदार्थ हमें सुख देते हैं ये कल दु:खदायी बन जाते हैं। आज जो अपने हैं वे कल पराये बन जाते हैं।
हाँ, यदि सुख का कोई स्थायी आधार हो सकता है तो वह है सत्य, सनातन, सार्वभौम मानवीय चेतना। अपनी चेतना, अन्तरात्मा में मन, बुद्धि चित्त को केन्द्रित करके तटस्थ निस्पृह अनासक्त भाव से संसार को देखते रहना आत्म स्थित हो जग में अपने कार्य व्यापार करते रहना, आत्मा में ही मस्त रहना, आत्मा में ही सुखी रहना। आत्मा को देखना, आत्मा को ही सुनना, आत्मा में ही रमण करना मनुष्य को सुख-दु:ख की सीमाओं से मुक्त कर देता है।
किसी भी प्रकार के सुख की चाह के साथ दु:ख का अभिन्न साथ है। उसे तिरोहित नहीं किया जा सकता। अस्तु सुख-दु:ख की सीमा से ही परे हो जाना इसके रहस्य को जान लेना है। और यह आत्म केन्द्रित होने पर ही सम्भव है। आत्मस्थ व्यक्ति के लिए न कोई सुख होता है न कोई दु:ख। हमें सुख दु:ख की सीमा से ऊपर उठने के प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिए।
दु:ख मित्य्त्र दु:शब्दों दुरिते खश्च खादते,
पावसी खाद कस्त्माद दु:ख मित्यमिधियते।।
अर्थात- दु:ख में जो ‘दु:’ शब्द है वह दुरित अर्थात पाप के अर्थ में है और ‘ख’ खा जाने अथवा खली कर दे,वही वस्तुत: दु:ख है
निचोड़ यह है कि हम जो सुख भोगते हैं उसमें हमारे पुण्य खर्च होते हैं.पुण्यो का खजाना खाली हो रहा है, सुख बढ़ रहे है तो पुण्य घट रहे हैं। सुख में हमें पुण्य कमाने कि सुध नहीं रहती, अपवादों को छोडक़र सुख में हम पाप अधिक कमाते है। पुण्य कम जब पुण्यो की थैली खाली हो जाती है,तब दु:ख आता है.दु:ख भोगने पर हमारे पाप खर्च होते हैं.जब मनुष्य दुखी होता है,तब उसे ईश्वर की याद आती है, तब उसे सुझता है कि पुण्य कमाए।
वह ईश्वर से डरकर अच्छे कार्य करता है। सुख में ईश्वर का भय अधिक नहीं होता क्योंकि पुण्यों का प्रबल प्रताप रहता है और आदमी मदोन्मत्त होता है। इस प्रकार सुख और दु:ख का क्रम चलता रहता है। सुख-दु:ख का भाग्य से कोई लेना देना नहीं है, वस्तुत: सुख-दु:ख हमारे अपने कर्मो का फल हैं। हम जैसे कर्म करते हैं, वैसे फल पाते है। जैसे फल पाते है वैसा भोगते है।
कैसे बचें दुखों से:
आप आत्मनिर्भर बनिये। यदि आप नश्वर पदार्थो में सुख मान बैठे हैं तो सबकुछ होते हुए भी आपको वास्तविक सुख से वंचित होना पड़ेगा। सहायता या कृपा की इच्छा से या व्यक्तिगत लाभ की आशा से दुसरों की और ताकना छोडिय़े। न तो आपको किसी से यातना करनी चाहिए, न शिकायत करनी चाहिए और न ही गिड़गिड़ाना चाहिए और न ही खेद प्रकट करना चाहिए। बल्कि अपने भीतर के सत्य पर संतोष रखते हुए आत्मनिर्भर होना चाहिए।
यदि आप अपने भीतर शांति नहीं पा सकते तो फिर कहां पायेगे? यदि आपको अपने ही विचारों से आनंद नहीं मिलता तो दुसरों की संगती में कैसे आनंद प्राप्त होगा? क्या दुसरों की संगती करने से दु:ख और कष्टों से बचा जा सकता है। जिस व्यक्ति ने अपने भीतर वह आधार नहीं खोजा, जिस पर वह खड़ा रहा सके, वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। बहुत से लोगों की ऐसी धारणा होती है कि भौतिक पदार्थ अथवा लोगो कि भीड़ ही उन्हें सुखी कर सकती है, यह एक गलत धारणा है। बहुत से करोड़पति जिनके पास न साथियों की कमी है और न ही भौतिक वस्तुओ की, वे सभी दुखी दिखाई देते हैं,क्यों? क्योंकि सुख मन की चीज है। व्यक्ति के कर्म उसे संतोष पहुंचाने वाले और दुसरों के हित में हों, इसी से सुख उपजता है।
दुसरों पर निर्भर रहने वाला, कामचोर, दुसरों का बुरा चाहने और करने वाले यदि जीवन भर सुख की तलाश में भटकते रहें तो दावा है कि जन्म-जन्मान्तर तक उसकी यह भटकन ख़त्म नहीं होगी। जन्म लेते रहिये और कुकर्म करके मरते रहिये। आपको कोई नहीं रोकता। अगर यदि सुख के तलबगार हैं तो काम भी आपको वैसे ही करने होंगे। अच्छे कर्म जब आप करेंगे तो मन में संतोष होगा और संतोष ही सुख है।
संतोषं परम सुखम:
संतोष ही परम सुख है। किसी भी स्थिति विशेष में संतोष अत्यंत लाभकारी होता है। यदि आप निर्धन हैं तो इसे दु:ख का बायस मत बनाइए, यह सोचकर संतोष करें कि दुनिया में करोड़ों लोग आपसे भी गयी-गुजरी स्थिति में हैं, निर्धन हैं। आपको दो समय भरपेट खाना मिलता है। मगर लाखों लोगों को एक समय का खाना भी ढंग से नहीं मिलता। आपको चाहिए कि आप अपनी गरीबी दूर करने का उपाय करें। यदि आप बेरोजगार है तब भी चिंता की कोई बात नहीं। आप यह सोचें कि आप स्वस्थ हैं, आपके पास दो मजबूत हाथ और एक स्वस्थ मस्तिष्क है जिनके माध्यम से आप संसार का हर कार्य कर सकते हैं। एक बात हमेशा याद रखें कि व्यक्ति पुरुषार्थ करने में तभी असमर्थ होता है, जब वह हीन भावना अथवा अभिमान से ग्रस्त होता है। मिथ्याभिमान और हीन भावना उसे कर्तव्य से विमुख कर देती है।
ईष्या भी हमारे दु:ख का एक कारण है, आमतौर पर ऐसा होता है कि सफलता प्राप्त व्यक्ति को देखकर हम ईष्या करते है। हम यह नहीं सोचते कि उस सफलता को पाने के लिए उसने कितनी कुर्बानियां की होगी।अगर हम सोच भी लें तो भी हम वैसी कुर्बानियां करने का साहस नहीं करेंगे,केवल और केवल ईष्या करेंगे।ईष्या करने वाला क्या सुखी रह सकता है?
अपने को खोकर ही हम दुनिया में मिल सकते हैं, विस्तीर्ण क्षेत्र जा सकते हैं। विस्तार में ही सुख हैं। सुख की यह आवश्यक शर्त है। दूसरे शब्दों में यदि हम कहें कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो अतिश्योक्ति न होगी। कोई भी जीवन अपने आप में सिमट कर नहीं रह सकता। हमारी प्रत्येक सांस विश्व के उस श्वास-प्रश्वास से मिली हुयी है जो सूरज और चन्द्रमा के लोक से भी ऊपर और समुद्र के अतल-तल से भी नीचे सब जगह, एक चेतन मन द्वारा हो या अवचेतन मन द्वारा, दूर-पास कि दुनिया प्रभावित होती है। इसी प्रकार दुनिया कि चेष्टाएं भले ही भू-मंडल के किसी भी भाग में हों, हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। सच तो यह है कि यदि हम दुनिया की के अंग नहीं तो हम कुछ भी नहीं। हमारे व्यक्तित्व का विकास इस कड़ी के अंग होने के कारण ही होता है। कोई भी व्यक्ति अपने तक सिमित नहीं है। अपने स्वार्थों, अपनी मान्यताओं से बंधा रहने वाला व्यक्ति अपनी प्रगति में स्वयं बाधक बन जाता है। वह अपने अहम की परिधि में स्वयं गिरफ्तार रहता है, गुलाम रहता है। जो स्वयं ही मुक्त नहीं है, वह संसार को कष्टों से मुक्ति क्या देगा? क्या तो संसार का कल्याण करेगा और क्या स्वयं सुख भोगेगा? दु:ख की मुक्ति और सुख की प्राप्ति कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर भगवान बुद्ध के शब्दों में दिया जाये तो: ‘‘शरीर का संयम अच्छा है, वाणी का संयम अच्छा है, मन का संयम अच्छा है। जो व्यक्ति सभी में संयम करता है, वह सब प्रकार के दुखो से मुक्त हो जाता है।’’