Saturday 16 April 2016

जुड़वाँ भाई/बहन की जन्म कुंडली में ज्योतिष्य भ्रम

यदि दो जुड़वा भाई/बहन हैं और दोनों का जन्म समय, तिथि व स्थान एक ही है तो निश्चित ही जन्मपत्री एक सी ही बनेगी तथा शक्ल, सूरत, विचार, इच्छाएं, रोग, जीवन की घटनाएं भी एक समान हो सकती हैं। परंतु फिर भी जुड़वा बच्चों के व्यक्तित्व, कर्म व जीवनधारा में काफी अंतर हो सकता है यद्यपि कि जन्मपत्री में ग्रह स्थिति एक सी ही हो। उसके कुछ कारण निम्नवत हैं:
गर्भ कुंडली:
वास्तविक जन्म गर्भ में भ्रुण प्रवेश/निषेचन के समय हो जाता है तथा यह भी तय हो जाता है कि बच्चा लडक़ा होगा या लडक़ी। जिस क्षण विशेष में गर्भ में भ्रुण स्थापित होता है वही क्षण उस बालक/बालिका के पूरे जीवन का आधार बनता है। भ्रुण समस्त ग्रहों का प्रभाव पिता व माता द्वारा स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, जो स्त्रियां पक्षबली चंद्रमा के समय में गर्भाधान करती हैं उन्हें निश्चित ही स्वस्थ, सुंदर, सफल व संस्कारवान संतान प्राप्त होती है। जुड़वा संतान की गर्भ कुंडली देखें तो उनमें अधिक अंतर होने की संभावना है क्योंकि गर्भ भ्रुण प्रवेश/ निषेचन एक ही समय में हो ऐसा संभव नहींं है। ज्योतिष नियमानुसार जन्म कुंडली से गर्भ कुंडली बनाई जा सकती है। पर यह निश्चित ही कठिन कार्य है। गर्भ कुंडली भिन्न हो जाने से जातक का व्यक्तित्व व भविष्य भिन्न रूप में विकसित होगा, यह निश्चित है। जैसे- एक राजा समान जीवन यापन कर रहा है, तो दूसरा फुटपाथ पर मजदूरी। इसका कारण गर्भ में कुछ समय मिनट अंतराल में दोनों का गर्भ स्थापित होना है जिसमें दोनों की जन्मपत्री तो एक समान आती है, लेकिन हाथ की रेखाओं में काफी अंतर पाया जाता है। अत: ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘‘हस्त रेखा शास्त्र’’ आसानी से दे सकता है। जन्मकुंडली की इस परेशानी को दक्षिण भारत के महान ज्योतिष विद्वान ‘‘कृष्णमूर्ति’’ ने नक्षत्र पर आधारित पद्धति का निर्माण कर किया, जिसे ‘‘के.पी. पद्धति’’ कहते हैं। इसके अनुसार किसी भाव का फल भावेश अर्थात उसका स्वामी न करके, वह ग्रह जिस नक्षत्र में स्थित हैं, उसका उपनक्षत्र स्वामी करेगा अर्थात् उस भाव का फल उपनक्षत्रेश के आधार पर होगा। जैसे-किसी की जन्मपत्री में तुला लग्न में दशमेश चंद्र, उच्च या स्वगृही है तो उसे किसी कंपनी/सरकारी नौकरी में उच्च पद पर या प्रतिष्ठित व्यवसाय में होना चाहिए। परंतु वास्तव में वह व्यक्ति फुटपाथ पर मजदूरी कर रहा था, तब ऐसे में उसकी जन्मपत्री का अध्ययन किया तो यह पाया कि उसका उपनक्षत्र स्वामी, जन्मपत्री में नीच राशि में स्थित था, अत: उसे वास्तव में निम्न स्तर का रोजगार मिला। ठीक इस प्रकार जुड़वा बच्चों या समकक्ष में के.पी. ने उपनक्षत्र स्वामी का निर्माण राशियों को 4-4 मिनट में बांटकर सारणी तैयार कर किया तथा जुड़वा बच्चों के फल कथन में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो बिल्कुल सटीक पाया गया। क्योंकि जुडवां बच्चों में 2-3 मिनट का ही अंतर रहता है या एक ही स्थान, समय में भी 2-3 मिनट का ही अंतर पाया जाता है। अत: के.पी. की उपनक्षत्रेश पद्धति इनपर बिल्कुल सही साबित हुई। इसके अलावा, के.पी. पद्धति में प्रश्न कुंडली के आधार पर भी इन बच्चों का भविष्य कथन ज्ञात कर सकते हैं। यह आधुनिक ज्योतिष को के.पी. की महान देन है। हस्त रेखा एवं आयुर्विज्ञान के अनुसार, हस्तरेखाओं में भिन्नता 21वें क्रोमोसोम (गुणसूत्र) के कारण होती है, अत: गर्भ स्थान में कुछ समय (मिनट) अंतराल वास्तव में गर्भाशय में शुक्राणु का अंडाणु से निषेचन से होता है। अत: किसी का भी भाग्य का निर्माण चाहे सिंगल हो या जुड़वा, वह तो गर्भ स्थापन में ही हो जाता है बाकी के नौ महीने तो बालक के भ्रुण के पूर्ण निर्माण में लगते हैं। अत: यहां पर गर्भ स्थापन में 16संस्कारों में गर्भाधान संस्कार का महत्व उपरोक्त कारण से है। के.पी. पद्धति से पूर्व ज्योतिष द्वारा जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन पूरी तरह सक्षम नहींं था। ऐसे में हस्तरेखा शास्त्र, भविष्य कथन में सहायक सिद्ध होता था। दो जातकों की हस्त रेखायें भिन्न होती हैं, जो जुडवां हो या एक ही समय और स्थान पर पैदा हुये हों। लेकिन के.पी. की नक्षत्र आधारित पद्धति ने ज्योतिष में जान डालकर हस्तरेखा की भांति सजीव बना दिया। के.पी. एवं हस्तरेखा के अलावा ‘‘प्रश्न ज्योतिष’’ द्वारा भी जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन ज्ञात कर सकते हैं। ज्योतिष में पंचम भाव, पंचमेश व कारक गुरु तीनों संतान से जुड़े हैं, ये किसी स्त्री ग्रह से युक्त/दृष्ट (प्रभावित) हो तो जुडवां संतानें होती हैं। ये योग स्त्री एवं पुरूष में न्यूनतम एक में होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में भी देखते हैं तो कई जातकों के जुडवां बच्चे पैदा होते हैं, उनमें न्यूनतम एक में यह योग अवश्य होता है। जीवनशैली/लालन पालन का महत्व: यदि जन्मकुंडली पूर्ण रूप से समान हो, जुड़वा बच्चों की लग्न, चंद्र राशि व नक्षत्र चरण समान हो फिर भी यदि बच्चों के लालन-पालन में, शिक्षा, संस्कार में भिन्नता हो तो भी बच्चे भिन्न व्यक्तित्व के हो सकते हैं। ग्रह प्रभाव की व्यापकता: यदि दोनों बच्चों का कारक ग्रह एक हो तो भी उनके जीवन में भिन्नता आ सकती है।

जांजगीर-चांपा का विष्णु मंदिर जहाँ पत्थरशिल्प बोलते हैं

जिला जांजगीर-चांपा छत्तीसगढ़ के केंद्र में स्थित है और इसलिए यह छत्तीसगढ़ के दिल के रूप में माना जाता है। यह जिला मई 1998 को स्थापित किया गया था। जिला जांजगीर-चांपा के जिला मुख्यालय जांजगीर कलचुरी राजवंश के महाराजा जाँजवाल्य देव का शहर है। जांजगीर-चांपा जिले राज्य छत्तीसगढ़ में खाद्यान्नों का एक प्रमुख उत्पादक है। जांजगीर जिले के विष्णु मंदिर इस जिले के सुनहरे अतीत को दर्शाता है। विष्णु मंदिर वैष्णव समुदाय का एक प्राचीन कलात्मक नमूना है।
जाज्वल्य देव की नगरी जांजगीर में लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित विष्णुमंदिर, जो कि इस समय ‘‘नकटा’’ मंदिर के रूप मेें जाना जाता है, यहां पत्थरशिल्प बोलते हैं। मंदिर में जड़े पत्थर शिल्प में पुरातनकालीन परंपरा को दर्शाया गया है। यह मंदिर कल्चुरी काल की मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है, जिसे 12 वीं शताब्दी में निर्माण की मान्यता है।
जांजगीर-चांपा जिले की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का देश के इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिले के प्राचीन मंदिरों में कला के वे नमूने हैं, जहां कोई लिपिबद्ध इतिहास न कहकर साक्षात् स्वरूप के दर्शन होते हैं। सर्वाधिक प्राचीन होने का श्रेय किसे है, यह तो क्रमश: परिवर्तित सत्य है, किन्तु इतिहास के झरोखों में जाज्वल्य देव द्वारा निर्मित विष्णु मंदिर प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण 12 वीं शताब्दी में होना बताया जाता है। विष्णु मंदिर कचहरी चौक से आधा किलोमीटर की दूरी पर जांजगीर की पुरानी बस्ती के समीप है। यह मंदिर कल्चुरी कालीन मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है। लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित इस मंदिर की दीवारें भगवान विष्णु के अनेकों रूपों के अलावा अन्य देवताओं कुबेर, सूर्यदेव, ऋषि मुनियों, देवगणिकाओं की मूर्तियों से सुसज्जित किन्तु खंडित है। विष्णु मंदिर के पास ही कल्चुरी काल का एक शिव मंदिर भी है। मंदिर का अधिष्ठान पांच बंधनों में विभक्त है। नीचे के बंधन सादे किन्तु उपरी बंधनों में रत्न पुष्प अलंकरण है। अधिष्ठान के पश्च में गजधर दो भागों में विभक्त है। अंतराल और गर्भगृह के भद्ररथों पर देव कोष्ठ हैं। कर्णरथों पर दिपाल एवं अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी गई है।
विष्णु मंदिर के अधूरा होने के कारण यहां के मूल निवासी इसे ‘नकटा मंदिर’ भी कहते हैं। मंदिर के आसपास सैकड़ों प्राचीनकालीन मूर्तियां धूल खाती पड़ी हुई है, जबकि कई मूर्तियों को पुरानी बस्ती के लोगों ने अपने घरों में रख लिया है। विष्णु मंदिर के बगल में ही विशाल भीमा तालाब है। सैकड़ों एकड़ क्षेत्रफल में फैल भीमा तालाब को भीम ने बनाया था, ऐसी मान्यता है। शहर के प्रबुद्ध लोग कहते है कि विष्णु मंदिर आज संरक्षण की आवश्यकता है और साथ ही इसमें छुपे अप्रतिम इतिहास को भी प्रचारित करने की आवश्यकता है।
कैसे पहुंचें:
जिला जांजगीर-चांपा राजधानी रायपुर से महज १६० कि.मी. दूर है एवं ट्रेन तथा बस दोनों माध्यम से पहुंचा जा सकता है। जांजगीर-चांपा के लिए ट्रेन अथवा बस दोनों में ३ से ४ घण्टे का समय लगता है।

जहाँ मुर्दों के साथ खेली जाती है होली

होली पर्व रंगों का त्यौहार है जिसे भारत के हर कोने में अलग अलग तरीके से मनाया जाता है। भारत के अलग अलग हिस्सों में होली के दस दिन पहले से लेकर दस दिन बाद तक अलग जगहों पर अलग अलग रस्मोरिवाज के साथ होली मनाई जाती है । उसी अनोखी होली का एक रिवाज आपको वाराणसी में देखने को मिल जायेगी जहां पर कुछ साधु मुर्दों के साथ होली खेलते हैं और जलती चिताओं के बीच श्मशान में होली खेलते हैं। कैसे शुरू हुई यह परम्परा आईये विस्तार से जानें।
एक प्राचीन मान्यता है जिसके अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन शिवजी जिनका बाबा विश्वनाथ भी कहते हैं, माता पार्वती का गौना कराकर वापस कैलाश लौट रहे थे। दूसरे दिन जब वो औघड़ होकर श्मशान में जलती चिताओं के बीच भस्म की होली खेले। तब से इस परम्परा को औघड़ साधू और सन्यासी निभाते हैं। इस परम्परा में साधू डमरू बजाते हुए झूमते हुये नाचते हैं जिनके साथ कई और लोग भी शामिल हो जाते हैं और हर-हर महादेव बोलते हुये एक दूसरे को चिताओं का राख लगाते हैं।
इस परंपरा की शुरूआत में रंगभरी एकादशी के दिन सुबह जल्दी मणिकर्णिका घाट पर साधू जमा हो जाते हैं जहां पर डमरुओं की गूंज के साथ बाबा मसान नाथ की आरती शुरू होती है जिसमें विधिपूर्वक बाबा मशान नाथ को गुलाल और रंग लगाया जाता है। आरती होने के बाद साधुओं की टाली चिताओं की ओर रुख करती है, और श्मशान के राख से होली खेलते हैं। यहां पर ऐसी मान्यता है कि यहां पर बाबा लोगों को मुक्ति का तारक मन्त्र देते हैँ जिससे प्राण त्यागने वाला व्यक्ति शिवत्व की प्राप्ति कर लेता है।

देश,काल और पात्र के अनुसार आराध्य देवी-देवता का चयन

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्ट: शरणं त्वां प्रपन्नवान।।
प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पऽपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य न:।।
तुम पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।
महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ‘‘तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।’’ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ‘‘जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहींं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।’’ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ‘‘यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहींं दी? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश हैं।
योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ‘‘वैष्णव जन को’’ तथा ‘‘रघुपति राघव राजा राम’’ गाते थे। चंबल के डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है?
यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अत: वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।

विनाश काले विपरीत बुद्धि
महाभारत के वन पर्व का प्रसंग है | जुए में हारने के बाद पांडव वन में चले गए | एक दिन ध्रितराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और दुखी होकर कहा की तुम सबका भला सोचते हो, इसलिए कुछ ऐसा बताओ की कौरवों और पांडवों दोनों का हित हो | विदुर बोले की किसी भी राज्य का स्थायित्व धर्म पर होता है | आप धर्म के अनुसार काम करें पांडवों को उनका राज्य लौटा दीजिये और दुर्योधन को काबू कीजिये |
राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है की वह अपने धन से संतुष्ट रहे और दूसरों के धन का लालच ना करें | यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो कौरव कुल का नाश निश्चित है क्योंकि गुस्से से भरे भीम और अर्जुन लौटने पर किसी को जिन्दा नहीं छोड़ेंगे | विदुर की यह बात ध्रितराष्ट्र के सीने में काँटों की तरह चुभ गई, और उसने कहा तुम केवल पांडवों का भला चाहते हो इसलिए यहाँ से चले जाओ | असल में उस समय ध्रितराष्ट्र केवल कौरवों के हित के बारे में ही सोच रहे थे क्योंकि वे सब उनके सगे बेटे थे | ध्रितराष्ट्र ने विदुर की बात नहीं मानी और जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध हुआ और कौरवों का समूल नाश हो गया | इसलिए कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि |

भगवान से मिलने की ललक

भगवत प्राप्ति के लिए चाहिए भगवान से मिलने की ललक और उसे पाने की रीति है- भक्ति जिसका अर्थ है भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। भगवत प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढि़ए। भगवान से मिलने की ललक भगवद् प्राप्ति का एक अंग होती है। भगवत प्राप्ति अर्थात् भगवान या ईश्वर को पाने की रीति, भक्ति मानी गई है। भक्ति का अर्थ है भगवदोपासना अर्थात् भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। इस असत संसार में लोगों के लिये सुख-शांति प्राप्ति का सरल सुगम पथ केवल ईश्वरोपासना ही है। अपने इष्ट देवता का सुमिरन, चिंतन, पूजन, भजन, कीर्तन, ध्यान, आराधना को उपासना कहा जाता है। अधिकांश रूप में देखा सुना गया है कि संसार में जितने भी महान पुरुष हुये हैं, वे सभी भगवद् भक्त हुये हैं यानी वे सभी ईश्वरोपासक थे। परमहंस श्रीरामकृष्ण जी का कहना है कि ‘‘ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।’’ महामना मदनमोहन जी मालवीय ने लिखा है कि ‘‘धट-घट व्यापक उस परमात्मा की विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिये।’’ स्वामी विवेकानंद ने इस बात का प्रचार किया ‘‘नाना रूपों में जो तुम्हारे सामने है, उसको छोडक़र अन्यत्र कहां ईश्वर को खोज रहे हो। जो जीवन से प्रेम करता है वही मनुष्य ‘मनुष्य’ है और वही मनुष्य ईश्वर की सेवा करता है।’’ ‘‘बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाडि़ कोथा खूंजिछ ईश्वर। जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविदे ईश्वर॥’’
उपासना शब्द के स्मृति, पुराणादि में तथा महापुरुषों की वाणी में अनेक अर्थ पाये जाते हैं। सार रूप में भगवत-प्राप्ति के निमित्त उपासना का अर्थ पूजा भक्ति है। श्री मद्भागवत के अनुसार भगवद्-प्राप्ति के लिये ईश्वर को पूर्ण भक्ति से प्रसन्न कर लेना उपासना कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के या यूं कहें कि स्मृतियों व पुराणों के प्रमाण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उपासना काल में भगवान उपासकों को दर्शन अवश्य देते हैं।
मक्का, मदीना, द्वारका, बद्री और केदार।
प्रेम बिना सब झूठ हैं, कहें ‘मलूक’ विचार॥
उपासना की सिद्धि के लिये भगवान के प्रति भक्ति अत्यधिक प्रेम के साथ होनी आवश्यक है। ऐसी ममता, ऐसा अनुराग या प्रेम भगवान के प्रति हो कि अपनी सब ममता हर जगह से निकालकर परम पिता परमात्मा प्रभु के पादारविंदो में ही केंद्रित हो जाये, अनुरक्त हो जाये। रामचरित मानस में भी यही बात कही गई है।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सबकै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बांध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसे।
लोभी हृदय बसइ धनु जैसे॥
उपर्युक्त चौपाईयां विभीषण शरणागति के प्रसंग में सुंदर कांड के दोहे क्रमांक 47 से 48के मध्यसे अवतरित हैं। भगवान राम और विभीषण के मध्य बातचीत का अंश हैं ये चौपाईयां। और भी कहा गया है- तुलसी दास की रामायण में-
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा।
किए जोग तप ग्यान विरागा॥
भक्त शिरोमणि संत मीराबाई के शब्दों में भी इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान प्रेम के द्वारा प्राप्त होते हैं (पद है - माई री मैं तो लियो गोविन्द मोल। कोई कहै घर में, कोई कहै बन में, राधा के संग किलोल॥ मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आवत प्रेम के मोल॥
भगवद् प्राप्ति के निमित्त बिना प्रेम के यदि चंचल मन को जबरन ईश्वर में लगाया जायेगा तो मन वहां अधिक देर टिक नहींं पायेगा। चंचल मन को प्रभु के चरणों में लगाने के लिये दो प्रमुख उपाय हैं : (1) अभ्यास व (2) वैराग्य। अभ्यास के द्वारा मन को भगवान से प्रेम करने की आदत पड़ जाती है और भगवान में मन टिकने लगता है। वैराग्य से चित्त-विभ्रम की निवृत्ति होने लगती है। संसार से विरक्ति और भगवान से अनुरक्ति उत्पन्न होती है। होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ-चरण अनुरागा॥ सदैव, सर्वत्र यानि सब जगह भगवद्दर्शन करने की ललक अपने को परम दैन्य, अयोग्य एवं सबका सेवक समझना यह परमोच्च कोटि की उपासना है। ऐसा करने से भगवान प्रसन्न होकर भक्त आराधक, उपासक या जातक को सदा सर्वत्र सभी सुख-दुखादि परिस्थितियों में अपना दर्शन कराने लगते हैं। ईश्वर और प्रेम को रसखान कवि ने एक वस्तु के दो रूप माना है-
प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।
एक होय द्वै यों लसैं, ज्यों सूरज अरू धूप॥
विभिन्न उपासकों, भगवत प्रेमियों और भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथायें धर्म-साहित्य में पडऩें को हमें प्राप्त होती हैं और तत्संबंधी कथा वार्ताओं को लोग जानते भी हैं। उनमें से एक मुस्लिम महिला ताज का नाम भी आता है जिसे भगवद् प्रेम ने इस्लाम की राह से मोडक़र नंदनंदन की दीवानी, कृष्ण पंथ की फकीरनी बना दिया। मुगलानी ताज के हृदय के भक्ति भाव, कृष्ण प्राप्ति की झलक उसके इस कवित्त से स्वत: स्पष्ट हो जाती है।
सूनाक दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं। देव पूजा ठानी और नमाज भी भुलानी तजे कमला कुरान, सारे गुननि गहूंगी मैं॥ सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार तेरे नेह दाध में निदाघ ज्यों दहूंगी मैं। नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै। हौं तों मुगलानी हिंदुवानी है रहूंगी मैं॥
इस कवित्त रूपी प्याले में भगवत प्राप्ति विषयक मुगलानी ताज की प्रेम भक्ति की ही मदिरा लबालब भरी हुई है। सार यह है कि श्रद्धा भक्ति और प्रेम के द्वारा भगवत प्राप्ति हो सकती है। किसी भगवत रसिक भक्त की हृदय की धारणा इस तरह से है-
नहिं हिंदु, नहिं तुरक हम, नहींं जैनी, अंगरेज।
सुमन संवारत रहत नित, कुंज बिहारी सेज॥
ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है। मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ तुलसी दास जी की इन अनुभूति की पुष्टि मीराबाई ने भी की यह कहकर कि भगवान प्रेम से प्राप्त होते हैं।

अंग लक्षण एवं सामुद्रिक का परस्पर संबंध

हस्त रेखा शास्त्र, अंग लक्षण विद्या तथा सामुद्रिक क्या ये तीनों एक ही हैं? अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर क्या संबंध है? हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं? मनुष्य का हाथ एक ऐसी जन्म पत्रिका है जो कभी भी नष्ट नहींं होती तथा जिसके रचयिता स्वयं ब्रह्माजी हैं। इसलिए शास्त्रों में कहा भी गया है- ‘‘कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्॥’’ कर (हाथ) के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती तथा मूल में ब्रह्मा जी का वास है अत: प्रात: उठकर सर्वप्रथम अपनी हथेलियों का दर्शन करना चाहिए। हस्तरेखा विज्ञान तथा अंग लक्षण विज्ञान को ही सामुद्रिक भी कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि समुद्र ऋषि ही ऐसे सवर्प्रथम भारतीय ऋषि थे जिन्हांने प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध रूप से ज्योतिष विज्ञान की रचना की थी अत: उन्हीं के नाम पर हस्त रेखा विज्ञान को सामुिदक्र भी कहा जाता है। हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं अथवा अंग लक्षण विद्या का सामुद्रिक से क्या संबंध है। इससे संबंधित तथ्यों का उल्लेख भी वेदों और पुराणों में मिलता है।
‘अंग लक्षण विद्या’ से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से है जिसके ज्ञान के द्वारा स्त्री पुरुष के शारीरिक अंगों में विद्यमान उसके शुभाशुभ लक्षणों को देखकर ही उनके व्यक्तित्व, स्वभाव, चरित्र तथा भाग्य का सटीक और सार्थक फलादशे किया जा सके। ऐसी विलक्षण विद्या की रचना सर्व प्रथम गणेश भगवान के अग्रज भगवान कार्तिकेय ने की थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान गणेश को ‘विघ्नेश’, ‘विघ्न विनाशक’ तथा ‘एकदंत’ भी कहते हैं। उन्होंने किसके लिए विघ्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघ्नशे कहा गया अथवा गणेश जी को एकदंत क्यों कहते हैं? यदि इस प्रश्न की गहराई में जाएं तो भी हम पाएगे कि इसका मूल कारण भी ‘समुद्र शास्त्र’ ही है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में शिव जी के ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय ने अपने ‘अंग लक्षण शास्त्र’ के अनुसार पुरुषों एवं स्त्रियों के श्रेष्ठ लक्षणों की रचना की। उसी समय गणेश जी ने उनके इस कार्य में विघ्न उत्पन्न किया। इस पर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश जी का एक दातं उखाड़ लिया और उन्हें मारने के लिए उद्यत हो उठे। तब भगवान शंकर ने कार्तिकये को बीच में रोककर पूछा कि उनके क्रोध का कारण क्या है? कार्तिकेय जी ने कहा ‘‘पिताजी, मैं पुरुषों के लक्षण बनाकर स्त्रियों के लक्षण बना रहा था, उसमें गणेश ने विघ्न उत्पन्न किया, जिससे स्त्रियों के लक्षण मैं नहीं बना सका। इस कारण मुझे क्रोध आया।’’ यह सुनकर महदेव जी ने उनके क्रोध को शांत किया और मुस्कुराकर उनसे पूछा- ‘‘पुत्र, तुम पुरुष के लक्षण जानते हो, तो बताओ मुझमें पुरुषों के कौन-कौन से लक्षण विद्यमान हैं?’’ कार्तिकेय जी ने कहा ‘‘पिता जी, आपमें पुरुषों के ऐसे लक्षण विद्यमान हैं कि आप संसार में ‘कपाली’ के नाम से प्रसिद्ध होंगे।’’ पुत्र के ऐसे वचनों को सुनकर शिवजी क्रोधित हो गये और उन्होंने कार्तिकेय जी के अंग लक्षण शास्त्र को उठाकर समुद्र में फेंक दिया और स्वयं अंर्तध्यान हो गये। कुछ समय पश्चात् जब शिवजी का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने समुद्र को बुलाकर कहा कि तुम स्त्रियों के आभूषण स्वरूप विलक्षण लक्षणों की रचना करो और कार्तिकेय ने जो कुछ भी पुरुष लक्षणों के बारे में कहा है उसकी भी विस्तृत विवेचना करो।’’ समुद्र ने शिवजी की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए कहा ‘‘स्वामि, आपने जो आज्ञा मुझे दी है, वह निश्चित ही पूर्ण होगी, किंतु जो मेरे द्वारा स्त्री-पुरुष लक्षण का शास्त्र कहा जाएगा, वह मेरेे ही नाम ‘सामुिदक्र शास्त्र’ नाम से प्रसिद्ध होगा।।
किसी भी शुभ अवसर पर हिदंू धर्म में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा-अर्चना का विधान भी शायद इसीलिए बनाया गया है कि व्यक्ति के किसी भी कार्य में कोई भी विघ्न न उपस्थित हो। अत: स्पष्ट है कि अंग लक्षण विद्या से सबंंधित शास्त्र की रचना में विघ्न उत्पन्न करने के कारण ही गणेश जी को विघ्नेश कहा गया तथा भगवान कार्तिकेय के क्रोध के कारण दण्ड स्वरूप उन्हें एकदंत होना पड़ा। लक्षण शास्त्र से सबंंिधत पुराणों एक कथा यह भी है कि, भगवान शिव द्वारा क्रोध में आकर कार्तिकेय द्वारा रचित लक्षण ग्रंथ को समुद्र में फेंक देने के उपरांत व्योमकेश भगवान के सुपुत्र कार्तिकेय जी ने जब अपनी अनुपम शक्ति से क्रौंच पर्वत को विदीर्ण किया तो ब्रह्मा जी ने वर मांगने को कहा। कुमार कार्तिकेय ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा ‘‘प्रभो। स्त्रियों के विषय में जो लक्षण ग्रंथ मैंने पहले बनाया था उसे तो मेरे पिता महादेव ने क्रोध में आकर समदु्र मे फेंक दिया। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर पनु: उन्हीं लक्षणों का वर्णन करें। तब कार्तिकेय जी के आग्रह करने पर ब्रह्मा जी ने स्वयं समुद्र द्वारा कहे गये उन स्त्री-पुरुष लक्षणों को पुन: वर्णित किया। उन्होंने उसी शास्त्र के आधार पर स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन प्रकार के लक्षण बतलाए जिसके अनुसार किसी भी जातक का स्वभाव, व्यवहार तथा भाग्य निर्धारित किया जा सकता है। अत: यह पूर्ण रूपेण प्रामाणिक एवं शास्त्रोक्त भी है, कि हस्तरेखा, अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर गहरा एवं अटूट संबंध है। एक अच्छे ज्योतिषी को चाहिए कि वह अंग लक्षण विद्या एवं ज्योतिष का परस्पर समन्वय स्थापित करते हुए शुभ मुहर्तू में मध्याह्न के पूर्व स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ लक्षणों एवं हस्त रेखाओं का भली प्रकार अध्ययन करने के उपरांत ही सटीक एवं सार्थक फलादेश करें।

future for you astrological news kumari pujan 16 04 2016

future for you astrological news sawal jawab 1 16 04 2016

future for you astrological news sawal jawab 16 04 2016

future for you astrological news dhanu to meen 16 04 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 16 04 2016

future for you astrological news mesh to kark 16 04 2016

future for you astrological news panchang 16 04 2016

Wednesday 13 April 2016

अतृप्त ईच्छओं से बनते है प्रेत

मनुष्य धरती पर स्थूल शरीर समेत रहते है,भुत सूक्ष्म शरीर से अंतरिक्ष में रहते है | तुलनात्मक दृष्टि से उनको सामर्थ्य और साधन जीवित मनुष्यों की तुलना में कम होते है इसलिए वे डराने के अतिरिक्त और कोई बड़ी हानि नहीं पहुंचा सकते | दर के कारण कई बार घबराहट, चिंता, असंतुलन जैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है | भुतोंमाद में यह भीरुता और मानसिक दुर्बलता ही रोग बनकर सामने आती है | वे जिससे कुछ अपेक्षा करते है उनसे संपर्क बनाते है और अपनी अत्रिप्तिजन्य उद्विग्नता के समाधान में सहायता चाहते है | प्राय: दर का मुख्य कारण होता है |
कोई कहे सब अंधविश्वास है, तो कोई कहे बेहद खौफनाक है। भूतों के बारे में सुनते तो सभी हैं परन्तु इनके पौराणिक उद्गम को जानते नहीं और भूत-प्रेत के रहस्य से हमेशा आतंकित रहते हैं। लेकिन गरुड़ पुराण ने उस सारे भय को दूर करते हुए प्रेतयोनि से संबंधित रहस्यों को जीवित मनुष्यों के कर्म फल के साथ जोडक़र सम्पूर्ण अदृश्य जगत का वैज्ञानिक आधार तैयार किया है। वैदिक ग्रन्थ ‘‘गरुड़ पुराण’’ में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है। हिन्दू धर्म में ‘‘प्रेत योनि’’ इस्लाम में ‘‘जिन्नात’’ आदि का वर्णन भूत प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व आत्मा अथवा भूत प्रेत के रूप में होता है।
भूत कभी भी और कहीं भी हो सकते हैं। चाहे वह विराना हो या भीड़ भार वाला मेट्रो स्टेशन। यहां हम जिस मेट्रो स्टेशन की बात कर रहे हैं वह किसी दूसरे देश का नहीं बल्कि भारत का ही एक मेट्रो स्टेशन है। इस स्टेशन पर भूतों का ऐसा साया है कि कई लोग ट्रैक पर कूद कर जान दे चुके हैं।
यह मेट्रो स्टेशन कोलकाता में स्थित है। इस स्टेशन का नाम है रवीन्द्र सरोवर। इस मेट्रो स्टेशन के बारे में कहा जाता है कि यहां पर भूतों का साया है। रात 10:30 बजे यहां से आखिरी मेट्रो गुजरती है। उस समय कई मुसाफिर और मेट्रो के ड्राइवरों ने भी इस चीज का अनुभव किया है कि मेट्रो ट्रैक के बीच अचानक कोई धुंधला साया प्रकट होता है और पल में ही गायब हो जाता है।
कोलकाता का यह मेट्रो स्टेशन यहां का सुसाइड प्वाइंट माना जाता है। कारण यह है कि यहां पर कई लोगों ने ट्रैक पर कूद कर आत्महत्या की है। वैसे भूत प्रेतों में विश्वास नहीं करने वाले लोग यह मानते हैं कि यह मेट्रो स्टेशन टॉलीगंज टर्मिनल के बाद पड़ता है जहां अधिकांश मुसाफिर उतर जाते हैं। इसलिए यहां अधिक भीड़ नहीं रहती है। यही कारण हो सकता है कि इस मेट्रो को सुसाइड प्वाइंट और भूतहा कहा जाता है।
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनि के कारण:
ज्योतिष के अनुसार वे लोग भूतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में चंद्रमा और राहु के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाते हैं।
कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं। कुंडली में बनने वाले कुछ भूत-प्रेत बाधा योग इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रह स्थित हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर भूत-प्रेत-पिशाच या गंदी आत्माओं का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि-राहु-केतु या मंगल में से कोई भी ग्रह सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी भूत प्रेत बाधा या पिशाच या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. यदि किसी की कुंडली में शनि-मंगल-राहु की युति हो तो उसे भी ऊपरी बाधा प्रेत पिशाच या भूत बाधा तंग करती है।
4. उक्त योगों में दशा अंतर्दशा में भी ये ग्रह आते हों और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान हंै। इस कष्ट से मुक्ति के लिए तांत्रिक, ओझा, मोलवी या इस विषय के जानकार ही सहायता करते हैं।
5. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र-राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव से मुक्त न हो।
6. भूत प्रेत अक्सर उन लोगों को अपना शिकार बना लेते हैं जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
7. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और पिशाच योग के बराबर अशुभ फल देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को महत्वपूर्ण माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। पिशाच योग राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है। पिशाच योग जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है वह प्रेत बाधा का शिकार आसानी से हो जाता है। इनमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। कभी-कभी स्वयं ही अपना नुकसान कर बैठते हैं।
8. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई ऊपरी शक्तियां उसका विनाश करने में लगी हुई हैं और किसी भी इलाज से उसको कभी फायदा नहीं होता।
9. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी ऊपरी बाधा का प्रभाव जल्द होने की संभावनाएं बनती हैं। जो मनुष्य जितनी अधिक वासनाएँ ओर आकांक्षाएँ अपने साथ लेकर मरता है उसके भूत होने की सम्भावना उतनी ही अधिक रहती है।
आकांक्षाओं का उद्वेग मरने के बाद भी प्राणी को चैन नहीं लेने देता और वह सूक्ष्म शरीरधारी होते हुए भी यह प्रयत्न करता है कि अपने असन्तोष को दूर करने के लिए कोई उपाय, साधन एवं मार्ग प्राप्त करे। साँसारिक कृत्य का उपयोग शरीर द्वारा ही हो सकते हैं। मृत्यु के उपरान्त शरीर रहता नहीं। ऐसी दशा में उस अतृप्त प्राणी की उद्विग्नता उसे कोई शरीर गढऩे की प्रेरणा करती है। अपने साथ लिपटे हुए सूक्ष्म साधनों से ही वह अपनी कुछ आकृति गढ़ पाता है जो पूर्व जन्म के शरीर से मिलती जुलती किन्तु अनगढ़ होती है। अनगढ़ इसलिए कि भौतिक पदार्थों का अभीष्ट अनुदान प्राप्त कर लेना, मात्र उसकी अपनी इच्छा पर ही निर्भर नहीं रहता। ‘भूत’ अपनी इच्छा पूर्ति के लिए किसी दूसरे के शरीर को भी माध्यम बना सकते हैं। उसके शरीर से अपनी वासनाओं की पूर्ति कर सकते हैं अथवा जो स्वयं करना चाहते थे वह दूसरों के शरीर से करा सकते हैं। कुछ कहने या सुनने की इच्छा हो तो वह भी अपने वंशवर्ती व्यक्ति द्वारा किसी कदर पूरी करते देखे गये हंै। इसके लिए उन्हें किसी को माध्यम बनाना पड़ता है। हर व्यक्ति माध्यम नहीं बन सकता। उसके लिए दुर्बल मन:स्थिति को आदेश पालन के लिए उपयुक्त मनोभूमि का व्यक्ति होना चाहिए। प्रेतों के लिए सवारी का काम ऐसे ही लोग दे सकते हैं। मनस्वी लोगों की तीक्ष्ण इच्छा शक्ति उनका आधिपत्य स्वीकार नहीं करतीं।
भूतों के अस्तित्व से किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है। वे भी मनुष्यों की तरह ही जीवनयापन करते हैं। मनुष्य धरती पर स्थूल शरीर समेत रहते हैं, भूत सूक्ष्म शरीर से अन्तरिक्ष में रहते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से उनको सामथ्र्य और साधन जीवित मनुष्यों की तुलना में कम होते हैं इसलिए वे डराने के अतिरिक्त और कोई बड़ी हानि नहीं पहुँचा सकते। डर के कारण कई बार घबराहट, चिन्ता, असन्तुलन जैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है। भूतोन्माद में यह भीरुता और मानसिक दुर्बलता ही रोग बनकर सामने आती है। वे जिससे कुछ अपेक्षा करते हैं उनसे संपर्क बनाते हैं और अपनी अतृप्तिजन्य उद्विग्नता के समाधान में सहायता चाहते हैं। प्राय: डर का मुख्य कारण होता है। इन सबसे बचने के लिए हनुमान-चालीसा बहुत ज्यादा कारगर है, जिसके नाम से ही भूत-प्रेत भाग जाते हैं।

50 लाख लीटर पानी से भी नहीं भरता घड़ा: दैवीय चमत्कार

जस्थान के पाली जिले में हर साल, सैकड़ों साल पुराना इतिहास और चमत्कार दोहराया जाता है। शीतला माता के मंदिर में स्थित आधा फीट गहरा और इतना ही चौड़ा घड़ा श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ के लिए खोला जाता है। करीब 800 साल से लगातार साल में केवल दो बार ये घड़ा सामने लाया जाता है। अब तक इसमें 50 लाख लीटर से ज्यादा पानी भरा जा चुका है। इसको लेकर मान्यता है कि इसमें कितना भी पानी डाला जाए, ये कभी भरता नहीं है। ऐसी भी मान्यता है कि इसका पानी राक्षस पीता है, जिसके चलते ये पानी से कभी नहीं भर पाता है। दिलचस्प है कि वैज्ञानिक भी अब तक इसका कारण नहीं पता कर पाए हैं।
ग्रामीणों के अनुसार करीब 800 साल से गांव में यह परंपरा चल रही है। घड़े से पत्थर साल में दो बार हटाया जाता है। पहला शीतला सप्तमी पर और दूसरा ज्येष्ठ माह की पूनम पर। दोनों मौकों पर गांव की महिलाएं इसमें कलश भर-भरकर हजारों लीटर पानी डालती हैं, लेकिन घड़ा नहीं भरता है। फिर अंत में पुजारी प्रचलित मान्यता के तहत माता के चरणों से लगाकर दूध का भोग चढ़ाता है तो घड़ा पूरा भर जाता है। दूध का भोग लगाकर इसे बंद कर दिया जाता है। इन दोनों दिन गांव में मेला भी लगता है।
दिलचस्प है कि इस घड़े को लेकर वैज्ञानिक स्तर पर कई शोध हो चुके हैं, मगर भरने वाला पानी कहां जाता है, यह कोई पता नहीं लगा पाया है। ऐसी मान्यता है कि आज से आठ सौ साल पूर्व बाबरा नाम का राक्षस था। इस राक्षस के आतंक से ग्रामीण परेशान थे। यह राक्षस ब्राह्मणों के घर में जब भी किसी की शादी होती तो दूल्हे को मार देता। तब ब्राह्मणों ने शीतला माता की तपस्या की। इसके बाद शीतला माता गांव के एक ब्राह्मण के सपने में आई। उसने बताया कि जब उसकी बेटी की शादी होगी तब वह राक्षस को मार देगी। शादी के समय शीतला माता एक छोटी कन्या के रूप में मौजूद थी। वहां माता ने अपने घुटनों से राक्षस को दबोचकर उसका प्राणांत किया। इस दौरान राक्षस ने शीतला माता से वरदान मांगा कि गर्मी में उसे प्यास ज्यादा लगती है। इसलिए साल में दो बार उसे पानी पिलाना होगा। शीतला माता ने उसे यह वरदान दे दिया। तभी से यह मेला भरता है।

शनिरेखा में छुपा है मनुष्य का चरित्र

आकाश में भ्रमण कर रहे शनि ग्रह की रेखा भी विशिष्ट है | यह बल्याधारी ग्रह अपने निलाभ्वार्ण और चतुर्दिक मुद्रिका-कार आभायुक्त बलय के कारण बहुत ही शोभन प्रतीत होता है | जन्मकुंडली की भांति मानव हथेलियों पर भी शनि ग्रह की स्तिथि होती है | शनि पर्वत की स्तिथि, आकर उभार और समी पवर्ती पर्वतों की संगीत के भेद से शुभाशुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के फल का अनुमान लगाया जा सकता है |
मध्यमा अंगुली के नीचे शनि पर्वत का स्थान है। यह पर्वत बहुत भाग्यशाली मनुष्यों के हाथों में ही विकसित अवस्था में देखा गया है। शनि की शक्ति का अनुमान मध्यमा की लम्बाई और गठन को देखकर ही लगाया जा सकता है, यदि वह लम्बीं और सीधी है तथा गुरु की अंगुलियां उसकी ओर झुक रही हैं तो मनुष्य के स्वभाव और चरित्र में शनिग्रहों के गुणों की प्रधानता होगी। ये गुण हैं- स्वाधीनता, बुद्धिमता, अध्ययनशीलता, गंभीरता, सहनशीलता, विनम्रता और अनुसंधान तथा इसके साथ अंतर्मुखी, अकेलापन। शनि के दुर्गुणों की सूची भी छोटी नहीं है, विषाद-नैराश्य, अज्ञान, ईष्र्या, अंधविश्वास आदि इसमें सम्मिलित हैं। अत: शनि ग्रह से प्रभावित मनुष्य के शारीरिक गठन को बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है। ऐसे मनुष्य कद में असामान्य रूप में लम्बे होते हैं, उनका शरीर सुसंगठित लेकिन सिर पर बाल कम होते हैं। लम्बे चेहरे पर अविश्वास और संदेह से भरी उनकी गहरी और छोटी आंखें हमेशा उदास रहती हैं। यद्यपि उत्तेजना, क्रोध और घृणा को वह छिपा नहीं पाते।
इस पर्वत के अभाव होने से मनुष्य अपने जीवन में अधिक सफलता या सम्मान नहीं प्राप्त कर पाता। मध्यमा अंगुली भाग्य की देवी है। भाग्यरेखा की समाप्ति प्राय: इसी अंगुली की मूल में होती है। पूर्ण विकसित शनि पर्वत वाला मनुष्य प्रबल भाग्यवान होता है। ऐसे मनुष्य जीवन में अपने प्रयत्नों से बहुत अधिक उन्नति प्राप्त करते हैं। शुभ शनि पर्वत प्रधान मनुष्य, इंजीनियर, वैज्ञानिक, जादूगर, साहित्यकार, ज्योतिषी, कृषक अथवा रसायन शास्त्री होते हैं। शुभ शनि पर्वत वाले स्त्री-पुरुष प्राय: अपने माता-पिता के एकलौता संतान होते हैं तथा उनके जीवन में प्रेम का सर्वोपरि महत्व होता है। बुढ़ापे तक प्रेम में उनकी रुचि बनी रहती है, किंतु इससे अधिक आनंद उन्हें प्रेम का नाटक रचने में आता है। उनका यह नाटक छोटी आयु से ही प्रारंभ हो जाता है। वे स्वभाव से संतोषी और कंजूस होते हैं। कला क्षेत्रों में इनकी रुचि संगीत में विशेष होती है। यदि वह लेखक हैं तो धार्मिक रहस्यवाद उनके लेखन का विषय होता है।
अविकसित शनि पर्वत होने पर मनुष्य एकांत प्रिय अपने कार्यों अथवा लक्ष्य में इतना तनमय हो जाते हैं कि घर-गृहस्थी की चिंता नहीं करते, ऐसा मनुष्य चिड़-चिड़े और शंकालु स्वभाव के हो जाते हैं, तथा उनके शरीर में रक्त वितरण कमजोर होता है। उनके हाथ-पैर ठंडे होते हैं, और उनके दांत काफी कमजोर हुआ करते हैं। दुघर्टनाओं में अधिकतर उनके पैरों और नीचे के अंगों में चोट लगती है। वे अधिकतर निर्बल स्वास्थ्य के होते हैं। यदि हृदय रेखा भी जंजीराकार हो तो मनुष्य की वाहन दुर्घटना में मृत्यु भी हो जाती है।
शनि के क्षेत्र पर भाग्य रेखा कही जाने वाली शनि रेखा समाप्त होती है। इस पर शनिवलय भी पायी जाती है और शुक्रवलय इस पर्वत को घेरती हुई निकलती है। इसके अतिरिक्त हृदय रेखा इसकी निचली सीमा को छूती हैं। इन महत्वपूर्ण रेखाओं के अतिरिक्त इस पर्वत पर एक रेखा जहां सौभाग्य सूचक है। यदि रेखायें गुरु की पर्वत की ओर जा रही हों तो मनुष्य को सार्वजनिक मान-सम्मान प्राप्त होता है। इस पर्वत पर बिन्दु जहां दुर्घटना सूचक चिन्ह है वहीं क्रॉस मनुष्य को संतति उत्पादन की क्षमता को विहीन करता है। नक्षत्र की उपस्थिति उसे हत्या या आत्महत्या की ओर प्रेरित कर सकती है। वृत का होना इस पर्वत पर शुभ होता है और वर्ग का चिन्ह होना अत्यधिक शुभ लक्षण है। ये घटनाओं और शत्रुओं से बचाव के लिए सुरक्षा सूचक है, जबकि जाल होना अत्यधिक दुर्भाग्य का लक्षण है।
यदि शनि पर्वत अत्यधिक विकसित होता है तो मनुष्य 22 या 45 वर्षों की उम्रों में निश्चित रूप से आत्महत्या कर लेता है। डाकू, ठग, अपराधी मनुष्यों के हाथों में यह पर्वत बहुत विकसित पाया जाता है जो साधारणत: पीलापन लिये होता है। उनकी हथेलियां तथा चमड़ी भी पीली होती है और स्वभाव में चिड़चिड़ापन झलकता रहता हैं। यह पर्वत अनुकूल स्थिति में सुरक्षा, संपत्ति, प्रभाव, बल पद-प्रतिष्ठा और व्यवसाय प्रदान करता है, परंतु विपरीत गति होने पर इन समस्त सुख साधनों को नष्ट करके घोर संत्रास्तदायक रूप धारण कर लेता है। यदि इस पर्वत पर त्रिकोण जैसी आकृति हो तो मनुष्य गुप्तविधाओं में रुचि, विज्ञान, अनुसंधान, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र सम्मोहन आदि में गहन रुचि रखता है और इस विषय का ज्ञाता होता है। इस पर्वत पर मंदिर का चिन्ह भी हो तो मनुष्य प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के रूप में प्रकट होते हैं और यह चिन्ह राजयोग कारक माना जाता है। यह चिन्ह जिस किसी की हथेलियों के पर्वत पर उत्पन्न होते हैं, वह किसी भी उम्र में वह मनुष्य लाखों-करोड़ों के स्वामी होते हैं। यदि इस पर्वत पर त्रिशूल जैसी आकृतियां हो तो वह मनुष्य एका-एक सन्यासी बन जाते हैं। यह वैराग्य सूचक चिन्ह है। इसके अलावा शनि का प्रभाव कभी शुरुआत काल में भाग्यवान बनाता है तो कभी दुर्भागी। शनि की दशा शांति करने हेतु शनिवार को पीपल के नीचे दीपक जलाना चाहिए व हनुमान जी की पूजा-उपासना करना चाहिए।

शिव प्रतिमा के आठ प्रकार


हिन्दू धर्म में मान्यता है की भगवान शिव इस संसार में आठ रूपों में समाए है जो है शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव। इसी आधार पर धर्मग्रंथों में शिव जी की मूर्तियों को भी आठ प्रकार का बताया गया है। आईए भगवान शिव के इन आठ मूर्ति स्वरुप के बारे में थोड़ा विस्तार से जानते है।

1. शर्व:- पूरे जगत को धारण करने वाली पृथ्वीमयी मूर्ति के स्वामी शर्व है, इसलिए इसे शिव की शार्वी प्रतिमा भी कहते हैं। सांसारिक नजरिए से शर्व नाम का अर्थ और शुभ प्रभाव भक्तों के हर को कष्टों को हरने वाला बताया गया है।

2. भीम:- यह शिव की आकाशरूपी मूर्ति है, जो बुरे और तामसी गुणों का नाश कर जगत को राहत देने वाली मानी जाती है। इसके स्वामी भीम है। यह भैमी नाम से प्रसिद्ध है। भीम नाम का अर्थ भयंकर रूप वाले भी हैं, जो उनके भस्म से लिपटी देह, जटाजूटधारी, नागों के हार पहनने से लेकर बाघ की खाल धारण करने या आसन पर बैठने सहित कई तरह से उजागर होता है।

3. उग्र:- वायु रूप में शिव जगत को गति देते हैं और पालन-पोषण भी करते हैं। इसके स्वामी उग्र है, इसलिए यह मूर्ति औग्री के नाम से भी प्रसिद्ध है। उग्र नाम का मतलब बहुत ज्यादा उग्र रूप वाले होना बताया गया है। शिव के तांडव नृत्य में भी यह शक्ति स्वरूप उजागर होता है।

4. भव:- शिव की जल से युक्त मूर्ति पूरे जगत को प्राणशक्ति और जीवन देने वाली है। इसके स्वामी भव है, इसलिए इसे भावी भी कहते हैं। शास्त्रों में भी भव नाम का मतलब पूरे संसार के रूप में ही प्रकट होने वाले देवता बताया गया है।

5. पशुपति:- यह सभी आंखों में बसी होकर सभी आत्माओं की नियंत्रक है। यह पशु यानी दुर्जन वृत्तियों का नाश और उनसे मुक्त करने वाली होती है। इसलिए इसे पशुपति भी कहा जाता है। पशुपति नाम का मतलब पशुओं के स्वामी बताया गया है, जो जगत के जीवों की रक्षा व पालन करते हैं।

6. रुद्र:- यह शिव की अत्यंत ओजस्वी मूर्ति है, जो पूरे जगत के अंदर-बाहर फैली समस्त ऊर्जा व गतिविधियों में स्थित है। इसके स्वामी रूद्र है। इसलिए यह रौद्री नाम से भी जानी जाती है। रुद्र नाम का अर्थ भयानक भी बताया गया है, जिसके जरिए शिव तामसी व दुष्ट प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हैं।
7. ईशान:- यह सूर्य रूप में आकाश में चलते हुए जगत को प्रकाशित करती है। शिव की यह दिव्य मूर्ति ईशान कहलाती है। ईशान रूप में शिव ज्ञान व विवेक देने वाले बताए गए हैं।

8. महादेव :- चन्द्र रूप में शिव की यह साक्षात मूर्ति मानी गई है। चन्द्र किरणों को अमृत के समान माना गया है। चन्द्र रूप में शिव की यह मूर्ति महादेव के रूप में प्रसिद्ध है। इस मूर्ति का रूप अन्य से व्यापक है। महादेव नाम का अर्थ देवों के देव होता है। यानी सारे देवताओं में सबसे विलक्षण स्वरूप व शक्तियों के स्वामी शिव ही हैं।

सुख और दु:ख

सुख और दु:ख का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। इनका कोई सुनिश्चित, ठोस, सर्वमान्य आधार भी नहीं है। सुख-दु:ख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं। उसकी मान्यता कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुख का स्वरूप बनता है। सुख-दु:ख मनुष्य के मानस पुत्र हैं ऐसा कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियां, मानसिक स्थिति में ही सुख-दु:ख का जन्म होता है। बाह्य परिस्थितियों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि जिन परिस्थितियों में एक दु:खी रहता है तो दूसरा उनमें खुशियाँ मनाता है, सुख अनुभव करता है। वस्तुत: सुख-दु:ख मनुष्य की अपनी अनुभूति के निर्णय हैं, और इन दोनों में से किसी एक के भी प्रवाह में बह जाने पर मनुष्य की स्थिति असन्तुलित एवं विचित्र-सी हो जाती है। उसके सोचने समझने तथा मूल्याँकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। किसी भी परिस्थिति में सुख का अनुभव करके अत्यन्त प्रसन्न होना, हर्षातिरेक हो जाना तथा दु:ख के क्षणों में रोना बुद्धि के मोहित हो जाने के लक्षण हैं। इस तरह की अवस्था में सही-सही सोचने और ठीक काम करने की क्षमता नहीं रहती। मनुष्य उल्टा-सीधा सोचता है। उल्टे-सीधे काम करता है।
कई लोग व्यक्ति विशेष को अपना अत्यन्त निकटस्थ मान लेते हैं। फिर अधिकार- भावनायुक्त व्यवहार करते हैं। विविध प्रयोजनों का आदान-प्रदान होने लगता है। एक दूसरे से कुछ न कुछ अपेक्षायें रखने लगते हैं। जब तक गाड़ी भली प्रकार चलती रहती है तो लोग सुख का अनुभव करते हैं। लेकिन जब दूसरों से अपनी अपेक्षायें पूरी न हों या जैसा चाहते हैं वैसा प्रतिदान उनसे नहीं मिले तो मनुष्य दु:खी होने लगता है।
अक्सर अनुकूलताओं में सुखी और प्रतिकूलताओं में दु:खी होना हमारा स्वभाव बन गया है। उन्नति के, लाभ के, फल-प्राप्ति के क्षणों में हमें बेहद खुशी होती है तो कुछ न मिलने पर, लाभ न होने पर दु:ख भी कम नहीं होता। लेकिन इसका आधार तो स्वार्थ, प्रतिफल, लगाव अधिकार आदि की भावना है। इन्हें हटाकर देखा जाय तो सुख-दु:ख का कोई अस्तित्व ही शेष न रहेगा। दोनों ही नि:शेष हो जायेंगे।
सुख-दु:ख का सम्बन्ध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दु:ख की अनुभूति होगी। जिनमें उदार दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहता है, वे हर समय प्रसन्न, सुखी, आनन्दित रहते हैं। स्वयं तथा संसार और इसके पदार्थों को प्रभु का मंगलमय उपवन समझने वाले महात्माओं को पद-पद पर सुख के सिवा कुछ और रहता ही नहीं। काँटों में भी वे फलों की तरह मुस्कुराते हुए सुखी रहते हैं। कठिनाइयों में भी उनका मुँह कभी नहीं कुम्हलाता।
इसके विपरीत संकीर्णमना हीन भावना वाले, रागद्वेष से प्रेरित स्वभाव वाले व्यक्तियों को यह संसार दु:खों का सागर मालूम पड़ेगा। ऐसे व्यक्ति कभी नहीं कहेंगे कि ‘‘हम सुखी हैं।’’ वे दु:ख में ही जीते हैं और दु:ख में ही मरते हैं। दुर्भावनायें ही दु:खों की जनक है। इसी तरह वे हैं जिनका पूरा ध्यान अपनेपन पर ही है। उनका भी दु:खी रहना स्वाभाविक है। केवल अपने को सुखी देखने वाले, अपना हित, अपना लाभ चाहने वाले, अपना ही एकमात्र ध्यान रखने वाले संकीर्णमना व्यक्तियों को सदैव मनचाहे परिणाम तो मिलते नहीं। अत: अधिकतर दु:ख और रोना-धोना ही इस तरह के लोगों के पल्ले पड़ता है।
एक गुरू के शिष्यों के पास कुल मिलाकर पाँच रोटी और दो टुकड़े तरकारी निकली। गुरु ने उसे इकठ्ठा किया और मन्त्रबल से अन्नपूर्णा बना दिया। शिष्यों ने भर पेट खाया और जो भूखे भिखारी उधर से निकले वे भी उसी से तृप्त हो गये। एक शिष्य ने पूछा-गुरु वर, इतनी कम सामग्री में इतने लोगों की तृप्ति का रहस्य क्या है?
गुरू ने कहा- हे शिष्यों। धर्मात्मा वह है जो खुद की नहीं सब की बात सोचता है। अपनी बचत सबके काम आये इस विचार से ही तुम्हारी पाँच रोटी अक्षय अन्नपूर्णा बन गई। जो जोड़ते हैं वे ही भूखे रहेंगे। जिनने देना सीख लिया है उनके लिए तृप्तता के साधन आप ही आ जुटते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य का भावनास्तर सार्वभौमिक हो। अपनी सुख-दु:ख की अनुभूति का आधार जितना व्यापक होगा उतना ही मनुष्य सुख-दु:ख की मोहमयी माया से बचा रहेगा। सबके साथ सुखी रहना सबके साथ दु:खी, अर्थात् सबके सुख में अपना सुख देखना और सबके दु:ख में अपना दु:ख। इससे मनुष्य न तो सुख में पागल बनेगा न दु:ख में रोयेगा।
सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे सन्तु निरमया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख माप्नुयात॥
‘‘सभी सुखी हों सभी नीरोग हों। सभी कल्याण प्राप्त करें, कोई भी दु:खी न हों।’’ इस तरह की चाह ज्यों-ज्यों बढ़ती जायगी हमारे हृदय में स्थायी सुख शान्ति सन्तोष की भी वृद्धि होगी। इसी तरह सबके दु:खों को अपनी अनुभूति का आधार बनाने वाले व्यक्ति यों के स्वयं के दु:ख, द्वन्द्व स्वत: तिरोहित हो जाते हैं। दु:ख का भार जब मनुष्य अपनी ही पीठ पर लादे फिरता है तो उसका दु:खमय रह कर दु:ख में ही अन्त होना स्वाभाविक है।
अति संवेदनशील व्यक्ति को भी सुख-दु:ख की लहरों में अधिक थपेड़े खाने पड़ते हैं। क्षण-क्षण बदलने वाले, बनने और बिगडऩे वाले पदार्थ, संयोग-वियोग जब संवेदनशील व्यक्ति के मानस को झकझोर डालते हैं तो उसे संसार दु:खमय जान पड़ता है। वस्तुत: इस तरह के व्यक्ति एक अपनी काल्पनिक दुनिया बना लेते हैं। लेकिन जब कल्पना साकार नहीं होती और दूसरे अरुचि के परिणाम मिलते हैं तो संवेदनशील व्यक्ति दु:खी होता है। संसार यथार्थ की कठोर धरती है। यहाँ सभी तरह की परिस्थितियों के झोंके आते रहते हैं। पद-पद पर प्राप्त परिस्थिति का स्वागत कर दृढ़ता के साथ आगे बढऩे वाले ही दु:ख द्वन्द्वों पर काबू पा सकते हैं।
मानव जीवन दुहरी कार्य प्रणाली का संयोग स्थल है। मनुष्य लेता है और त्याग भी करता है निरन्तर श्वास लेता है और प्रश्वास छोड़ता है। भोजन करता है किन्तु दूसरे रूप में उसका त्याग भी करता है। इस तरह धनात्मक और ऋणात्मक दोनों क्रियाओं में ही मनुष्य जीवन की वास्तविकता है। दोनों में से एक का अभाव मृत्यु है। दोनों के सम्मिलित पर्याप्त से ही जीवन पुष्ट बनता है। बिजली का ऋण और धन दोनों धारायें चलती हैं तभी प्रयोजन सिद्ध होता है। अकेली एक धारा कुछ नहीं कर सकती। इसी तरह संसार में सुख भी है और दु:ख भी। न्याय है और अन्याय भी। प्रकाश है और अन्धेरा भी। संसार सुन्दर उपवन है तो कठोर कारागार भी। जन्म के साथ मृत्यु और मृत्यु के साथ जन्म जुड़ा हुआ है। इस तरह विभिन्न धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष मिलकर जीवन को पुष्ट करने का काम करते हैं, केवल मात्र सुख की चाह करना और दु:ख द्वन्द्वों से बचने की लालसा रखना एकांगी है। प्रकृति का नियम तो बदलता नहीं इससे उल्टे मनुष्य में भीरुता, मानसिक दुर्बलता को पोषण मिलता है मनुष्य को निराशामय चिन्ता का सामना करना पड़ता।
जो कुछ भी जीवन में प्राप्त हो जैसी भी परिस्थिति आये उसे जीवन का वरदान मानकर सन्तुष्ट और प्रसन्न रहने में कंजूसी न की जाय। वस्तुत: सुख-दु:ख, अनुकूल-प्रतिकूल, धनात्मक-ऋणात्मक परिस्थितियों में जीवन बलिष्ठ और पुष्ट होता है। इनमें से निकल कर ही मनुष्य निरामय, अनावृत और निर्मल बन सकता है। वैसे इनसे बचने का कोई रास्ता भी नहीं है। फिर क्यों नहीं हर परिस्थिति में सहज भाव में स्थिर रहा जाय? जब संसार को चलाने वाले नियम परिवर्तनशील हैं, ऋणात्मक और धनात्मक हैं तो फिर अपनी एक सी दुनिया बसाने की कल्पना या सुखों के अरमानों को पोषण क्यों दिया जाय? इससे तो दु:ख निराशा क्लान्ति ही मिलेगी। दृढ़ चट्टान की तरह जीवन में आने वाली विविध अनुकूल-प्रतिकूल हवाओं में तटस्थ भाव से सब कुछ देखते रहना और हर परिस्थिति में सन्तुष्ट रहना, सुख-दु:ख से मुक्त रहने का सरल उपाय है।
वस्तुत: सुख के सम्बन्ध में ही लोगों के विचार सही और पूर्ण नहीं होते। कई बार जिन्हें मनुष्य सुख मानकर चलता है वे ही घोर दु:ख का कारण बन जाते हैं। बहुत से लोग शारीरिक सुखों को अपना आधार मान लेते हैं। आराम करना, प्रमादी जीवन बिताने में कई लोग सुख का अनुभव करते हैं किन्तु ये विषवत् दु:खकर होते हैं-
यवग्रे चानु बन्धे च सुखं मोहनमात्मन:।
निद्रालस्य प्रमादोत्यं तत्तामसमुदाह्रतम॥
‘‘भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला, निद्रा, आलस्य, प्रमाद आदि से उत्पन्न सुख तामसी-राक्षसी कहा गया है।’’ वस्तुत: निद्रा-आलस्य-प्रमाद में जीवन बिताने से मनुष्य के मन, बुद्धि, विवेक सुप्त हो जाते हैं। इससे मनुष्य की शारीरिक मानसिक क्षमतायें भी नष्ट हो जाती हैं। और फिर जीवन के संघर्षों में से मनुष्य की क्रियाशक्ति को जंग लग जाता है। हाथ पाँव बेकार और शरीर रुग्ण हो जाता है।
कई लोग अच्छा खाना, पीना, विषय भोग में रत रहना ही सुख का आधार मान कर चलते हैं। खाओ-पीओ और मौज, सुखकर लगने वाले परिणाम में विषवत् मालूम पड़ते हैं। गीताकार ने स्पष्ट लिखा है-
विषयेन्द्रिय संयोगा द्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
पणामें विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥
‘‘विषय और इन्द्रियों के संयोग से होने वाले सुख राजसिक सुख कहलाते हैं जिनका परिणाम विष तुल्य ही होता है।’’ वस्तुत: संसार के भोगों में लिप्त रहना, विषयों में आसक्त रहना प्रारम्भ में तो सुखकर लगता है किन्तु परिणाम में मनुष्य पर हलाहल विष की तरह प्रभाव डालता है। मनुष्य तन, मन से हीन अस्वस्थ हो तड़प-तड़प कर प्राण देता है। जिस तरह पतंगा दीपक की लौ का स्पर्श-सुख प्राप्त करने की चेष्टा करके झुलस जाता है अपने पंखों से हाथ धो बैठता है और फिर तड़प-तड़प कर प्राण देता है उसी तरह विविध भोग, विषय वासना की पूर्ति पहले तो सुखकर लगती है किन्तु फिर अनेकों शारीरिक मानसिक कष्टों का कारण बन जाती है। साथ ही मनुष्य में अनेकों राजसिक भाव, अहंकार, दर्प, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा की भावना, दम्भ, विषय चिन्तन, शान शौकत आदि बढ़ जाते हैं जो सम्पूर्ण जीवन को विकारमय बना देते हैं और इनके कारण मनुष्य को अनेकों कष्टों का सामना करना पड़ता है।
साँसारिक पदार्थ, इन्द्रियाँ तथा इच्छाओं से सम्बन्ध रखने वाले सभी सुखों का अन्त दु:ख में ही होता है। क्योंकि ये सभी नाशवान, क्षणभंगुर परिवर्तनशील होते हैं। संसार और मनुष्य की परिस्थितियाँ हर क्षण बदलती हैं। आज कोई धनवान है तो कल वह निर्धन बन सकता है। आज अनुकूल परिस्थिति है तो कल प्रतिकूलताओं का भी सामना करना पड़ सकता है। आज जो पदार्थ हमें सुख देते हैं ये कल दु:खदायी बन जाते हैं। आज जो अपने हैं वे कल पराये बन जाते हैं।
हाँ, यदि सुख का कोई स्थायी आधार हो सकता है तो वह है सत्य, सनातन, सार्वभौम मानवीय चेतना। अपनी चेतना, अन्तरात्मा में मन, बुद्धि चित्त को केन्द्रित करके तटस्थ निस्पृह अनासक्त भाव से संसार को देखते रहना आत्म स्थित हो जग में अपने कार्य व्यापार करते रहना, आत्मा में ही मस्त रहना, आत्मा में ही सुखी रहना। आत्मा को देखना, आत्मा को ही सुनना, आत्मा में ही रमण करना मनुष्य को सुख-दु:ख की सीमाओं से मुक्त कर देता है।
किसी भी प्रकार के सुख की चाह के साथ दु:ख का अभिन्न साथ है। उसे तिरोहित नहीं किया जा सकता। अस्तु सुख-दु:ख की सीमा से ही परे हो जाना इसके रहस्य को जान लेना है। और यह आत्म केन्द्रित होने पर ही सम्भव है। आत्मस्थ व्यक्ति के लिए न कोई सुख होता है न कोई दु:ख। हमें सुख दु:ख की सीमा से ऊपर उठने के प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिए।
दु:ख मित्य्त्र दु:शब्दों दुरिते खश्च खादते,
पावसी खाद कस्त्माद दु:ख मित्यमिधियते।।
अर्थात- दु:ख में जो ‘दु:’ शब्द है वह दुरित अर्थात पाप के अर्थ में है और ‘ख’ खा जाने अथवा खली कर दे,वही वस्तुत: दु:ख है
निचोड़ यह है कि हम जो सुख भोगते हैं उसमें हमारे पुण्य खर्च होते हैं.पुण्यो का खजाना खाली हो रहा है, सुख बढ़ रहे है तो पुण्य घट रहे हैं। सुख में हमें पुण्य कमाने कि सुध नहीं रहती, अपवादों को छोडक़र सुख में हम पाप अधिक कमाते है। पुण्य कम जब पुण्यो की थैली खाली हो जाती है,तब दु:ख आता है.दु:ख भोगने पर हमारे पाप खर्च होते हैं.जब मनुष्य दुखी होता है,तब उसे ईश्वर की याद आती है, तब उसे सुझता है कि पुण्य कमाए।
वह ईश्वर से डरकर अच्छे कार्य करता है। सुख में ईश्वर का भय अधिक नहीं होता क्योंकि पुण्यों का प्रबल प्रताप रहता है और आदमी मदोन्मत्त होता है। इस प्रकार सुख और दु:ख का क्रम चलता रहता है। सुख-दु:ख का भाग्य से कोई लेना देना नहीं है, वस्तुत: सुख-दु:ख हमारे अपने कर्मो का फल हैं। हम जैसे कर्म करते हैं, वैसे फल पाते है। जैसे फल पाते है वैसा भोगते है।
कैसे बचें दुखों से:
आप आत्मनिर्भर बनिये। यदि आप नश्वर पदार्थो में सुख मान बैठे हैं तो सबकुछ होते हुए भी आपको वास्तविक सुख से वंचित होना पड़ेगा। सहायता या कृपा की इच्छा से या व्यक्तिगत लाभ की आशा से दुसरों की और ताकना छोडिय़े। न तो आपको किसी से यातना करनी चाहिए, न शिकायत करनी चाहिए और न ही गिड़गिड़ाना चाहिए और न ही खेद प्रकट करना चाहिए। बल्कि अपने भीतर के सत्य पर संतोष रखते हुए आत्मनिर्भर होना चाहिए।
यदि आप अपने भीतर शांति नहीं पा सकते तो फिर कहां पायेगे? यदि आपको अपने ही विचारों से आनंद नहीं मिलता तो दुसरों की संगती में कैसे आनंद प्राप्त होगा? क्या दुसरों की संगती करने से दु:ख और कष्टों से बचा जा सकता है। जिस व्यक्ति ने अपने भीतर वह आधार नहीं खोजा, जिस पर वह खड़ा रहा सके, वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। बहुत से लोगों की ऐसी धारणा होती है कि भौतिक पदार्थ अथवा लोगो कि भीड़ ही उन्हें सुखी कर सकती है, यह एक गलत धारणा है। बहुत से करोड़पति जिनके पास न साथियों की कमी है और न ही भौतिक वस्तुओ की, वे सभी दुखी दिखाई देते हैं,क्यों? क्योंकि सुख मन की चीज है। व्यक्ति के कर्म उसे संतोष पहुंचाने वाले और दुसरों के हित में हों, इसी से सुख उपजता है।
दुसरों पर निर्भर रहने वाला, कामचोर, दुसरों का बुरा चाहने और करने वाले यदि जीवन भर सुख की तलाश में भटकते रहें तो दावा है कि जन्म-जन्मान्तर तक उसकी यह भटकन ख़त्म नहीं होगी। जन्म लेते रहिये और कुकर्म करके मरते रहिये। आपको कोई नहीं रोकता। अगर यदि सुख के तलबगार हैं तो काम भी आपको वैसे ही करने होंगे। अच्छे कर्म जब आप करेंगे तो मन में संतोष होगा और संतोष ही सुख है।
संतोषं परम सुखम:
संतोष ही परम सुख है। किसी भी स्थिति विशेष में संतोष अत्यंत लाभकारी होता है। यदि आप निर्धन हैं तो इसे दु:ख का बायस मत बनाइए, यह सोचकर संतोष करें कि दुनिया में करोड़ों लोग आपसे भी गयी-गुजरी स्थिति में हैं, निर्धन हैं। आपको दो समय भरपेट खाना मिलता है। मगर लाखों लोगों को एक समय का खाना भी ढंग से नहीं मिलता। आपको चाहिए कि आप अपनी गरीबी दूर करने का उपाय करें। यदि आप बेरोजगार है तब भी चिंता की कोई बात नहीं। आप यह सोचें कि आप स्वस्थ हैं, आपके पास दो मजबूत हाथ और एक स्वस्थ मस्तिष्क है जिनके माध्यम से आप संसार का हर कार्य कर सकते हैं। एक बात हमेशा याद रखें कि व्यक्ति पुरुषार्थ करने में तभी असमर्थ होता है, जब वह हीन भावना अथवा अभिमान से ग्रस्त होता है। मिथ्याभिमान और हीन भावना उसे कर्तव्य से विमुख कर देती है।
ईष्या भी हमारे दु:ख का एक कारण है, आमतौर पर ऐसा होता है कि सफलता प्राप्त व्यक्ति को देखकर हम ईष्या करते है। हम यह नहीं सोचते कि उस सफलता को पाने के लिए उसने कितनी कुर्बानियां की होगी।अगर हम सोच भी लें तो भी हम वैसी कुर्बानियां करने का साहस नहीं करेंगे,केवल और केवल ईष्या करेंगे।ईष्या करने वाला क्या सुखी रह सकता है?
अपने को खोकर ही हम दुनिया में मिल सकते हैं, विस्तीर्ण क्षेत्र जा सकते हैं। विस्तार में ही सुख हैं। सुख की यह आवश्यक शर्त है। दूसरे शब्दों में यदि हम कहें कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो अतिश्योक्ति न होगी। कोई भी जीवन अपने आप में सिमट कर नहीं रह सकता। हमारी प्रत्येक सांस विश्व के उस श्वास-प्रश्वास से मिली हुयी है जो सूरज और चन्द्रमा के लोक से भी ऊपर और समुद्र के अतल-तल से भी नीचे सब जगह, एक चेतन मन द्वारा हो या अवचेतन मन द्वारा, दूर-पास कि दुनिया प्रभावित होती है। इसी प्रकार दुनिया कि चेष्टाएं भले ही भू-मंडल के किसी भी भाग में हों, हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। सच तो यह है कि यदि हम दुनिया की के अंग नहीं तो हम कुछ भी नहीं। हमारे व्यक्तित्व का विकास इस कड़ी के अंग होने के कारण ही होता है। कोई भी व्यक्ति अपने तक सिमित नहीं है। अपने स्वार्थों, अपनी मान्यताओं से बंधा रहने वाला व्यक्ति अपनी प्रगति में स्वयं बाधक बन जाता है। वह अपने अहम की परिधि में स्वयं गिरफ्तार रहता है, गुलाम रहता है। जो स्वयं ही मुक्त नहीं है, वह संसार को कष्टों से मुक्ति क्या देगा? क्या तो संसार का कल्याण करेगा और क्या स्वयं सुख भोगेगा? दु:ख की मुक्ति और सुख की प्राप्ति कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर भगवान बुद्ध के शब्दों में दिया जाये तो: ‘‘शरीर का संयम अच्छा है, वाणी का संयम अच्छा है, मन का संयम अच्छा है। जो व्यक्ति सभी में संयम करता है, वह सब प्रकार के दुखो से मुक्त हो जाता है।’’

कवर्धा रियासत का प्राचीन महल

कवर्धा महल छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा जिले में स्थित मुख्य आकर्षण का केंद्र है। कवर्धा महल का निर्माण महाराजा धर्मराज सिंह ने 1936-39 ई. में कराया था और यह महल 11 एकड़ में फैला हुआ है। कवर्धा महल के निर्माण में इटैलियन मार्बल और सफ़ेद संगमरमर का उपयोग किया है। कवर्धा महल के दरबार के गुम्बद पर सोने और चांदी से नक्कासी की गई है। कवर्धा महल के प्रवेश द्वार का नाम हाथी दरवाजा है, जो बहुत सुन्दर है। यह कारीगरों की निपुणता, शिल्प कौशल और घाघ कौशल को दर्शाता है। इस महल को कवर्धा के शाही परिवारों के अंतर्गत रखा गया है। रानी दुर्गावती के सेनापति महाबलि सिंह से लेकर महाराज योगेश्चवरराज सिंह (12 वीं पीढ़ी) तक का इतिहास इस महल में देखने को मिलता है। हांलाकि मंहगाई की मार के चलते कवर्धा पैलेस इन दिनों एक होटल में बदल गया है। होटल भी ऐसा-वैसा नहीं कि कोई भी आया और किराया देकर रूक गया। यहां ठहरने के लिए पहले आपको इत्तला देनी होगी। जब आपके बारे में छानबीन हो जाएगी तब आपको न केवल पैलेस में ठहरने का मौका मिलेगा बल्कि हो सकता है कि राजा-महाराजाओं की बची हुई पीढ़ी में से कोई आपके साथ भोजन भी ग्रहण करें। पंखा झेलते हुए सेवकों और राजा-महाराजाओं के वंशजों के बीच भोजन का आनन्द आपको एक नए किस्म के रोमांच में डाल सकता है। कवर्धा कुल 805 वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ है। अकेले 12 एकड़ क्षेत्र में पैलेस स्थित है। राजा-महाराजाओं के चले जाने के बाद उनके महल सरकारी कार्यालयों का हिस्सा बनकर रह गए है। कवर्धा पैलेस का एक बड़े हिस्से में भी सरकारी दफ्तर लगता है लेकिन अब भी एक ऐसा पैलेस बचा हुआ है जो दर्शनीय है। महाबलि सिंह, उजियार सिंह, टोकसिंह, बहादुर सिंह, रूपकुंवर, गौरकुंवर, राजपाल सिंह, पदुमनाथ सिंह, देवकुमारी, धर्मराज, विश्वराज के बाद जब योगेश्वरराज के ऊपर पैलेस की जवाबदारी आयी तो उन्होंने अपने पुरखों से मिली समृद्ध विरासत को एक नई पहचान देने का काम किया। पैलेस में लगभग तीन सौ तरह की तलवारें मौजूद है। इसके अलावा युद्ध में प्रयुक्त आने वाली 35 बंदूके, कई जानवरों के सिर, बेशकीमती कपड़े, टोपियां, छडिय़ां, सोने-चांदी के बर्तन, छुरी और कांटो का अनोखा संग्रह भी है। पैलेस में एक दरबार हाल है जो प्रवेश करते ही आकर्षित करता है। इसके अतिरिक्त आफीस लांउज, स्टेट डायनिंग हाल और लगभग 12 लोगों के ठहरने के लिए बनाया गया कमरा देखने योग्य है। कभी कवर्धा स्टेट का एक बड़ा हिस्सा भोंसले के कब्जे में था। बाद में जब राजा धर्मराज सिंह के पास आया तब उन्होंने इसकी देख-रेख पर ध्यान देना प्रारंभ किया। पैलेस के भीतर जितनी भी लकड़ी प्रयुक्त हुई है वह बर्मा देश की है। सारे मार्बल इटैलियन है जबकि कुछ पत्थर कवर्धा के पास मौजूद सोनबरसा गांव से मंगवाए गए हैं। एक अनुमान है कि पैलेस के रख-रखाव के लिए हर साल 10 लाख रुपए खर्च होते हैं। कवर्धा पैलेस से रष्ट्रीय पार्क कान्हा की दूरी मात्र 95 किलोमीटर है। जो देसी-विदेशी पर्यटक कान्हा जाने के इच्छुक रहते हैं वे एक बार कवर्धा पैलेस में जरूर रूकते हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधायक रहे योगीराजजी बताते हैं कि वर्ष 1991 में महल को पैलेस के रूप में बदल दिया गया था। योगीराजजी के मुताबिक पर्यटकों के आने से जो आय होती है उसका उपयोग बैगाओं के इलाज के लिए किया जाता है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में एक अति प्राचीन जनजाति बैगा की उपस्थिति भी कायम है। आज भी यह जनजाति झाड़-फूंक पर भरोसा रखती है और इनका रहन सहन भी देखने लायक और रोमांच से भरा होता है। एक बात यह भी है कि यह बात कोई ठीक-ठाक नहीं बता सकता है कि सत्यमेव जयते की शुरूआत कब हुई और भारत सरकार ने इसे अपना स्लोगन कब बनाया लेकिन यह तय है कि कवर्धा स्टेट की राजपत्रित मुहरों में लिखा होता था-सत्यमेव जयते।

future for you astrological news saptami kaal ratri 13 04 2016

future for you astrological news swal jwab 1 13 04 2016

future for you astrological news swal jwab 13 04 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 13 04 2016

future for you astrological news rashifal leo to scorpio 13 04 2016

future for you astrological news rashifal mesh to kark 13 04 2016

future for you astrological news panchang 13 04 2016

Sunday 10 April 2016

2016 में "आईएसआईएस" की ग्रह दशा

आईएसआईएस
आईएसआईएस की गुरू की महादशा में चंद्रमा की अंतरदशा चल रही है जिसके कारण इसके अपने सदस्य ही विरोध में आ सकते हैं और संभव है कि ये आपस में ही लड़ कर स्वयं को नाश कर डालें। साथ ही वैश्विक धरा पर शक्तिशाली राष्ट्रों ने इनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और आने वाले समय में इनका समूल नाश हो सकता है। इस तरह से देखा जाये तो दोनों मोर्चे पर इन्हें शिकस्त मिल सकती है।
इस्लामी राज्य जून 2014 में निर्मित एक अमान्य राज्य तथा इराक एवं सीरिया में सक्रिय जिहादी सुन्नी सैन्य समूह है। अरबी भाषा में इस संगठन का नाम है ‘‘अल दौलतुल इस्लामिया फिल इराक वल शाम’’। इसका हिन्दी अर्थ है- ‘‘इराक एवं शाम का इस्लामी राज्य’’। शाम सीरिया का प्राचीन नाम है। इस संगठन के कई पूर्व नाम हैं जैसे आईएसआईएस अर्थात् ‘‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’’, आईएसआईए, दाइश आदि। आईएसआईएस नाम से इस संगठन का गठन अप्रैल 2013 में हुआ। इब्राहिम अव्वद अल-बद्री उर्फ अबु बक्र अल-बगदादी इसका मुखिया है। शुरू में अल कायदा ने इसका हर तरह से समर्थन किया किन्तु बाद में अल कायदा इस संगठन से अलग हो गया। अब यह अल कायदा से भी अधिक मजबूत और क्रूर संगठन के तौर पर जाना जाता हैं।
यह दुनिया का सबसे अमीर आतंकी संगठन है जिसका बजट 2 अरब डॉलर का है। 29 जून 2014 को इसने अपने मुखिया को विश्व के सभी मुसलमानों का खलीफा घोषित किया है। विश्व के अधिकांश मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों को सीधे अपने राजनीतिक नियंत्रण में लेना इसका घोषित लक्ष्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये इसने सबसे पहले लेवेन्त क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने का अभियान चलाया है जिसके अन्तर्गत जॉर्डन, इजरायल, फिलिस्तीन, लेबनान, कुवैत, साइप्रस तथा दक्षिणी तुर्की का कुछ भाग आता हैं। आईएसआईएस के सदस्यो की संख्या करीब 10,000 हैं।

2016 में "सीरियाई गृहयुद्ध" की ग्रह दशा

सीरियाई गृहयुद्ध
शनि की महादशा में शनि के अंतर में सीरियाई युद्ध की शुरूआत हुई। सितंबर २०१७ के बाद जब बुध का अंतर शुरू होगा तब आमजन खुलकर सत्ता के विरोध में आयेंगे और संभव है कि सत्तापलट कर ही डालें। साथ ही यहां की जनता अब आंतकी संगठनों के विरोध में भी खड़े हो जायें।
सीरियाई गृहयुद्ध जो कि सीरियाई विद्रोह या सीरियाई संकट के नाम से भी जाना जाता है, सीरिया में सत्तारूढ़ ‘‘बाथ सरकार’’ के समर्थकों एवं विपक्षियो के बीच चल रहा सशस्त्र संघर्ष है। यह संघर्ष 15 मार्च,2011 को लोक-सम्मत प्रदर्शनों के साथ शुरू हुआ एवं अप्रैल, 2011 तक पूरे देश में फैल गया। यह प्रदर्शन समस्त उत्तर-पूर्व में चल रही अरब क्रांति का हिस्सा थे। विरोधकर्ताओं की मांगें थी की राष्ट्रपति बशर-अल-अस्सद, जो कि 1971 से सीरिया में सत्तारूढ़ थे, पदत्याग करें एवं बाथ पार्टी का शासन, जो कि 1963 से आ रहा है, का अंत हो।
अप्रैल, 2011 में सीरियाई सेना को क्रांति के निर्देष मिले, तथा सैनिकों ने पूरे देश में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। महीनों की सैन्य घेराबंदी के बाद यह विरोध सशस्त्र विद्रोह में बदल गया। आज विपक्षी ताकतें, जो कि मुख्यत: विरोधी सैनिकों एवं नागरिकों से बनीं हैं एक केन्द्रीय नेतृत्व के बिना हैं। पूरे देश के कई छोटे-बड़े नगरों में चल रहा यह विद्रोह असममात्रिक है। 2011 के अन्त में विपक्षी ताकतों में इस्लामी संगठन जबात-उल-नसरा का बढ़ता प्रभाव देखा गया। सन 2013 में हिजबुल्ला ने सीरियाई सेना की ओर से जंग में प्रवेश किया। सीरियाई सरकार को रूस एवं ईरान से सैनिक सहायता प्राप्त है, जबकि विद्रोहियों को कतर एवं सउदी अरब से हथियारों की पूर्ती हो रही है। जुलाई 2013 तक सीरियाई सरकार देश की 30-40 प्रतिशत भूमि व 60 प्रतिशत जनता पर शासन कर रही है, जबकि विप्लवियों के नियंत्रण में देश के उत्तर एवं पूर्व में भूमि है।
अरब संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, एवं अन्य देशों ने प्रदर्शनकारियों पर हिंसा के प्रयोग कि निंदा की। अरब संघ ने इस संकट पर राज्य की प्रतिक्रिया के कारण सीरिया को संघ से निकाल दिया, एवं उसकी जगह सीरियाई राष्ट्रीय गठबंधन, सीरिया के राजनीतिक विपक्षी समूहों के एक गठबंधन, को 6मार्च 2013 को संघ में जगह दी।

साल 2016 में "पुतिन" की कुंडली

पुतिन
जन्म: 7 अक्टूबर 1952 (आयु 63 वर्ष), लेनिनग्रेड, रूसी गणराज्य, सोवियत संघ
राजनीतिक दल: सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी
पुतिन की शनि की महादशा में मंगल की अंतरदशा चल रही है। मंगल तीसरे स्थान में बैठ कर जबरदस्त आक्रामकता के साथ ही वैश्विक कूटनीति के तीखे तेवरों के चलते कामयाब भी रहेंगे। इस समय वे विश्व में सबसे ज्यादा शक्तिशाली नेता बनकर उभरेंगे किंतु इस समय इनके जीवन को भी संकट हो सकता है।
व्लादिमीर व्लादिमीरोविच पुतिन रूसी राजनीतिज्ञ हैं। वे 7 मई 2012 से रूस के राष्ट्रपति हैं। इससे पहले सन् 2000 से 2008तक रूस के राष्ट्रपति तथा 1999 से 2000 एवं 2008से 2012 तक रूस के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वो अपने पिछले प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान रूस की संयुक्त रूस पार्टी के अध्यक्ष भी थे।
पुतिन ने 16साल तक केजीबी में ऑफिसर के रूप में सेवा की, जहाँ वे लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक पदोन्नत हुए। 1991 में सेवानिवृत्त होने के पश्चात उन्होंने अपने पैतृक शहर सेंट पीटर्सबर्ग से राजनीति में कदम रखा। 1996में वह मास्को में राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के प्रशासन में शामिल हो गए, एवं येल्तसिन के अप्रत्याशित रूप से इस्तीफा दे देने के कारण 31 दिसम्बर 1999 को रूस के कार्यवाहक राष्ट्रपति बने। तत्पश्चात, पुतिन ने वर्ष 2000 और फिर 2004 का राष्ट्रपति चुनाव जीता। रूसी संविधान के द्वारा तय किये गए कार्यकाल सीमा की वजह से वह 2008में लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति पद के चुनाव में खड़े होने के लिए अयोग्य थे। 2008में दिमित्री मेदवेदेव ने राष्ट्रपति चुनाव जीता और प्रधानमंत्री के रूप में पुतिन नियुक्त किया। सितंबर 2011 में, कानून में बदलाव के परिणामस्वरूप राष्ट्रपति पद के कार्यकाल की अवधी चार साल से बढ़ाकर छह साल हो गयी, एवं पुतिन ने 2012 में राष्ट्रपति पद के लिए एक तीसरे कार्यकाल की तलाश में चुनाव लडऩे करने की घोषणा की, जिसके चलते कई रूसी शहरों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। मार्च 2012 में उन्होंने यह चुनाव जीता और वर्तमान में 6वर्ष के कार्यकाल की पूर्ति कर रहे हैं।
पुतिन के पहले राष्ट्रपति कार्यकाल को आर्थिक वृद्धि के दौर के रूप में देखा जाता है: रूसी अर्थव्यवस्था में लगातार आठ साल तक संवृद्धि हुई, क्रय-शक्ति समता में 72प्रतिशत की वृद्धि एवं संज्ञात्मक सकल घरेलू उत्पाद में 6गुणा वृद्धि देखने को मिली।

साल 2016 में "नरेन्द्र दामोदरदास मोदी" जी की कुंडली

नरेन्द्र दामोदरदास मोदी
जन्म:17 सितम्बर 1950 (आयु 65 वर्ष), वडऩगर, गुजरात, भारत
राजनीतिक दल: भारतीय जनता पार्टी

नरेन्द्र मोदी की इस समय चंद्रमा की महादशा में शनि की अंतरदशा चल रही है। शनि इनका तृतीयेश होकर अपने स्थान से अष्टमस्थ है। तीसरा स्थान निर्णयों के लिये जाना जाता है अत: इस समय लिये गये सारे निर्णयों में इन्हें विवाद का सामना करना पड़ रहा है और चुंकि शनि चतुर्थेश भी अत: आम जन या समाज इनके निर्णयों के कारण खुल कर विरोध में सामने आ सकता है। सितंबर २०१७ के बाद जब बुध की दशा चलेगी तब इन्हें विपरीत परिणामों का सामना करना पड़ेगा।
नरेन्द्र दामोदरदास मोदी भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री हैं। भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें 26मई 2014 को भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलायी। वे स्वतन्त्र भारत के 15वें प्रधानमन्त्री हैं तथा इस पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं। माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे ज्यादा फॉलोअर वाले भारतीय नेता हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अलावा हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं। अपने माता-पिता की कुल छ: सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया। बडऩगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र हालाँकि एक औसत दर्ज़े का छात्र था, लेकिन वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी बेहद रुचि थी। इसके अलावा उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।
13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ, वह मात्र 17 वर्ष के थे। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये। परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे के लिये अजनबी हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी।
जहां तक मोदी की आर्थिक नीतियों का सवाल है, उस पर मिश्रित प्रतिक्रिया रही हैं लेकिन अब तो देशी और विदेशी जानकार भी मानने लगे हैं कि भारत की विदेश नीति में मोदी ने जैसे नई ऊर्जा डाल दी है। पिछले एक साल में उन्होंने 18देशों की यात्राएं कीं और उनका हर दौरा सुर्खियों में रहा। यहां तक कि कुछ लोग तो यहां तक ताने देने लगे कि मोदी देश से ज्यादा विदेश में ही रहते हैं जबकि उन्हें ज्यादा ध्यान देश की अंदरूनी समस्याओं पर देना चाहिए। दक्षिण एशियाई पड़ोस से प्रशांत महासागर में बसे जापान तक और बीजिंग से लेकर बर्लिन तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निरंतर यात्राओं के अलावा कई देशों के प्रमुखों को भारत आमंत्रित करने से यह संकेत स्पष्ट है कि बीता वर्ष वैश्विक रंगमंच पर मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने की भारत की जिद का साल रहा है। मोदी की विदेश नीति में चीन, अमेरिका, रूस, कनाडा और यूरोप का महत्वपूर्ण स्थान है, वहीं नेपाल, भूटान, मंगोलिया और सेशेल्स जैसे छोटे देश भी प्राथमिकताओं में शामिल हैं. इन प्रयासों ने राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों को नयी ऊर्जा दी है तथा बेहतर आर्थिक संभावनाओं की राह खोली है।
भारत की विदेश नीति अब तक ऐसी थी जो पश्चिम और पूर्व के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश करती दिखती थी। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि वो अभी भी गुट निरपेक्ष आंदोलन के मोड़ में है लेकिन मोदी ने एक जबर्दस्त बदलाव किया। अब उनकी नई विदेश नीति में भारत और उसकी पहचान सर्वोपरि है। मोदी अच्छे ‘कम्यूनिकेटर’ हैं और ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया का बखूबी इस्तेमाल करते हैं। जापान के प्रधानमंत्री के साथ जापानी भाषा में और चीन के सोशल मीडिया पर चीनी भाषा पर संदेश का मोदी का कदम काफी सफल रहा।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह, मोदी ने भी विदेशों में रह रहे भारतीयों और भारतीय मूल के लोगों को भी अपनी नीति में शामिल किया है। मैं तो कहूंगा कि इसे इतनी ऊंचाई पर ले गए हैं जिसे कोई दूसरा नहीं ले जा सका है। चाहे अमेरिका हो या फिर ऑस्ट्रेलिया, या फिर चीन या कहीं और...मोदी प्रवासियों में भी काफी लोकप्रिय हैं यह साबित हो चुका है। भारतीय संस्कृति को भी कूटनीति में शामिल करने का उनका प्रयोग सफल रहा है। यह उनका ही प्रस्ताव था कि 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया रहा है। कुल मिला कर देखा जाए तो मोदी का पहला साल काफी व्यस्त रहा और इसमें कुछ किया गया लेकिन बहुत कुछ करना बाकी है क्योंकि चुनौतियों की कमी नहीं है और कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।

साल 2016 में "किम जोंग उन" की कुंडली

किम जोंग उन
जन्म: 8जनवरी 1983 (आयु 33), प्योंगयांग, उत्तर कोरिया
किम जोंग उन बुध की महादशा में मंगल की अंतरदशा और उसके बाद राहु की अंतरदशा लगातार व्यवहार में क्रूरता और अक्रामकता लायेगी। अपने सनकीपन और तानाशाही मिजाज के कारण वैश्विक मंच पर बदनाम रहेंगे। साल के अंत तक अमेरिका से खुलकर युद्ध का बिगुल बजा सकते हैं।
किम जोंग उन उत्तरी कोरिया के सर्वोच्च नेता हैं। वे किम जोंग इल के पुत्र हैं। किम जोंग उन दुनिया के ऐसे खतरनाक शासक हैं जिनके डर से अमेरिका भी कांपता है। उत्तर कोरिया का यह शासक अपने पिता की तरह ही रहस्यमयी और खुंखार है। 30 साल के स्विट्जरलैंड में पढ़ाई करने वाले किम जोंग उन के जन्म तिथि के बारे में कोई 1983 का दावा करता है तो कोई 1984 का। सही-सही किसी को पता नहीं।
किम जोंग उन के पिता किम जोंग इल ने जब सत्ता संभाली थी, तब भी दुनिया हैरान रह गई थी। इसका कारण यह था कि तब किम पर्दे के पीछे रहने वाले एक शातिर नेता समझे जाते थे। किम जोंग इल को 2008में पक्षाघात हुआ था। बीमारी की हालत में दो साल पहले किम जोंग इल ने मृत्यु से पहले ही किम जोंग उन को अपनी सत्ता सौंप दी थी। लेकिन किम जोंग उन के सामने अपने पिता के मुकाबले हमेशा ही कुछ अलग तरह की चुनौतियां रही हैं। कहा जाता है कि जिस तरह से किम जोंग इल के बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं थी, उसी तरह उनके बेटे और उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन के बारे में कोई नहीं जानता। पढ़ाई के लिए जोंग उन विदेश चले गए यानी अपने देश का उन्हें वह अनुभव नहीं, जो उनसे पहले उनके पिता या दादा को था। हालांकि किम जोंग उन अपने दिवंगत पिता के चहेते रहे हैं। किम ने जब सत्ता संभाली तो सबसे पहले अपने चाचा को ताकतवर सैनिक पद पर बिठाया था और उसके बाद अपनी बहन को भी जनरल बना दिया।
जहां तक 30 साल के किम जोंग उन के राजनीतिक करियर का सवाल है, उन्हें अपने देश का ज्यादा तजुर्बा नहीं है। उनके सत्ता संभालने के साथ ही सवाल उठने लगे थे कि 60 से ज्यादा परमाणु हथियारों से संपन्न उत्तर कोरिया क्या इनको सुरक्षित रख पाएगा और क्या सीमा पर अचानक पैदा हो गए तनाव को झेल पाएगा।

साल 2016 में शिंजो अबे की कुंडली

शिंजो अबे
जन्म: 21 सितम्बर 1954 (आयु 61 वर्ष), नगातो, यामागुची, जापान
राजनैतिक दल: लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी
शिंजो अबे की शुक्र की महादशा में राहु का अंतर चल रहा है जो इन्हें लगातार प्रसिद्धी और राजनैतिक कामयाबी देगा। इनकी मिलनसारिता और वैश्विक नेताओं से मित्रता नये करार दिला सकती है।
शिंजो अबे, दिसंबर 2012 से जापान के प्रधानमंत्री पद पर बने हुए हैं। इन्होंने पूर्व में भी (2006से 2007 तक) जापान के प्रधानमंत्री पद को सम्भाला था। अबे लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी और ओयागाकू प्रणोदन संसदीय समूह के अध्यक्ष हैं। जब अबे जापान की राष्ट्रीय संसद (डाइट) की विशेष सत्र में 26सितम्बर 2006में पहली बार प्रधानमंत्री पद के लिए चुने गए, तब वे, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के, जापान के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री बने। साथ ही साथ, वे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मे पहले प्रधानमंत्री थे। एक साल से भी कम अवधि तक सेवा में रहने के बाद उन्होंने 12 सितम्बर 2007 में प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, तत्पश्चात उन्हें यासुओ फुकुडा ने प्रतिस्थापित किया।

साल 2016 में "शी जिनपिंग" की कुंडली

शी जिनपिंग
जन्म: 15 जून 1953 (आयु 62 वर्ष), बीजिंग, चीन
जिनपिंग की चंद्रमा की महादशा में बुध की अंतरदशा, अप्रैल से केतु की दशा शुरू होगी। चंद्रमा-केतु द्वादशस्थ होने से इनके जीवन में भी पतन का समय आ सकता है। इनकी सुधारवादी नीतियां ही इन्हें हानि पहुंचा सकती है।
शी जिनपिंग, जनवादी गणतंत्र चीन के सर्वोच्च नेता हैं जो चीन के राष्ट्रपति, चीनी साम्यवादी पार्टी के महासचिव, केन्द्रीय सैनिक समिति के अध्यक्ष और केन्द्रीय पार्टी विद्यालय के अध्यक्ष हैं। उन्हें 15 नवम्बर 2012 में चीनी साम्यवादी (कोम्युनिस्ट) पार्टी का महासचिव घोषित किया गया। चीनी नामों की प्रथानुसार इनके पारिवारिक नाम उनका पहला नाम ‘शी’ है और ‘जिनपिंग’ उनका व्यक्तिगत नाम है, इसलिए उन्हें साधारणत: अपने पहले नाम ‘शी’ से बुलाया जाता है। नवम्बर 2012 में शी जिनपिंग को चीनी साम्यवादी पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया। शी जिनपिंग चीनी साम्यवादी पार्टी के एक पुराने नेता शी झोंगशुन के पुत्र हैं। साम्यवादी पार्टी के अपने आरंभिक दौर में उन्होंने फ़ूज्यान प्रान्त में काम किया। उसके बाद उन्हें पड़ोस के झेजियांग प्रान्त का पार्टी नेता नियुक्त किया गया। इसके उपरांत शंघाई में चेन लियांगयू के भ्रष्टाचार के आरोपों पर सेवा से निकाले जाने पर उन्हें उस महत्वपूर्व क्षेत्र का पार्टी प्रमुख बनाया गया। शी भ्रष्टाचार पर अपने कड़े रुख़ और राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए दो टूक बाते करने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें चीनी साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व की पांचवी पीढ़ी का प्रधान कहा जाता है।

साल 2016 में "बराक ओबामा" की कुंडली

बराक ओबामा
जन्म: 4 अगस्त 1961 (आयु 54), होनोलूलू, हवाई, संयुक्त राज्य अमेरिका
बराक ओबामा की शनि की महादशा में बुध का अंतर २०१८ तक चलेगा, बुध भाग्येश होकर सप्तम भाव में जरूर हैं किंतु शनिदृष्ट होने के कारण अपनों से हानि पा सकते हैं। अर्थात जो उनके आस-पास हों वही उनके लिये नुकसानदायक होंगे। उनके अलोकप्रिय होने का कारण उनके अपने निर्णय और अपने साथी होंगे।
बराक हुसैन ओबामा अमरीका के 44वें राष्ट्रपति हैं। वे इस देश के प्रथम अश्वेत (अफ्रीकी अमरीकन) राष्ट्रपति हैं। उन्होंने 20 जनवरी, 2009 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली। ओबामा इलिनॉय प्रांत से कनिष्ठ सेनेटर तथा 2008में अमरीका के राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रैटिक पार्टी के उम्मीदवार थे। ओबामा हार्वर्ड लॉ स्कूल से 1991 में स्नातक बनें, जहाँ वे हार्वर्ड लॉ रिव्यू के पहले अफ्रीकी अमरीकी अध्यक्ष भी रहे। 1997 से 2004 इलिनॉय सेनेट में तीन सेवाकाल पूर्ण करने के पूर्व ओबामा ने सामुदायिक आयोजक के रूप में कार्य किया है और नागरिक अधिकार अधिवक्ता के रूप में प्रेक्टिस की है। 1992 से 2004 तक उन्होंने शिकागो विधि विश्वविद्यालय में संवैधानिक कानून का अध्यापन भी किया। सन् 2000 में अमेरिकी हाउस आफ रिप्रेसेंटेटिव में सीट हासिल करने में असफल होने के बाद जनवरी 2003 में उन्होंने अमरीकी सेनेट का रुख किया और मार्च 2004 में प्राथमिक विजय हासिल की। नवंबर 2003 में सेनेट के लिये चुने गये।
109वें काँग्रेस में अल्पसंख्य डेमोक्रैट सदस्य के रूप में उन्होंने पारंपरिक हथियारों पर नियंत्रण तथा संघीय कोष के प्रयोग में अधिक सार्वजनिक उत्तरदायित्व का समर्थन करते विधेयकों के निर्माण में सहयोग दिया। वे पूर्वी युरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका की राजकीय यात्रा पर भी गये। 110वें काँग्रेस में लॉबिंग व चुनावी घोटालों, पर्यावरण के बदलाव, नाभिकीय आतंकवाद और युद्ध से लौटे अमेरीकी सैनिकों की देखरेख से संबंधित विधेयकों के निर्माण में उन्होंने सहयोग दिया। विश्वशांति में उल्लेखनीय योगदान के लिए बराक ओबामा को वर्ष 2009 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है।
होनोलूलू में जन्में ओबामा किन्याई मूल के अश्वेत पिता व अमरीकी मूल की माता के संतान हैं। उनका अधिकांश प्रारंभिक जीवन अमरीका के हवाई प्रांत में बीता। 6से 10 वर्ष तक की अवस्था उन्होंने जकार्ता, इंडोनेशिया में अपनी माता और इंडोनेशियाई सौतेले पिता के संग बिताया। बाल्यकाल में उन्हें बैरी नाम से पुकारा जाता था। बाद में वे होनोलूलू वापस आकर अपनी ननिहाल में ही रहने लगे। 1995 में उनकी माता का कैंसर से देहांत हो गया। ओबामा की पत्नी का नाम मिशेल है। उनका विवाह 1992 में हुआ जिससे उनकी दो पुत्रियाँ हैं, 9 वर्षीय मालिया तथा 6वर्षीय साशा। 2 नवम्बर 2008को ओबामा का आरंभिक लालन पालन करने वाली उनकी दादी मेडलिन दुनहम का 86वर्ष की आयु में निधन हो गया।
ओबामा हार्वड लॉ स्कूल से 1991 में स्नातक बनें, जहाँ वे हार्वड लॉ रिव्यू के पहले अफ्रीकी अमरीकी अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने दो लोकप्रिय पुस्तकें भी लिखी हैं, पहली पुस्तक ड्रीम्स फ्रॉम माई फादर: अ स्टोरी आफ रेस एंड इन्हेरिटेंस का प्रकाशन लॉ स्कूल से स्नातक बनने के कुछ दिन बाद ही हुआ था। इस पुस्तक में उनके होनोलूलू व जकार्ता में बीते बालपन, लॉस एंजलिस व न्यूयॉर्क में व्यतीत कालेज जीवन तथा 80 के दशक में शिकागो शहर में सामुदायिक आयोजक के रूप में उनकी नौकरी के दिनों के संस्मरण हैं। पुस्तक पर आधारित आडियो बुक को 2006में प्रतिष्ठित ग्रैमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनकी दूसरी पुस्तक द ओडेसिटी ऑफ़ होप मध्यावधि चुनाव के महज़ तीन हफ्ते पहले अक्तूबर 2006में प्रकाशित हुई। यह किताब शीघ्र ही सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों की सूची में शामिल हो गई। पुस्तक पर आधारित आडियो बुक को भी 2008में प्रतिष्ठित ग्रैमी पुरस्कार से नवाजा गया है। शिकागो ट्रिब्यून के अनुसार पुस्तक के प्रचार के दौरान लोगों से मिलने के प्रभाव ने ही ओबामा को राष्ट्रपति पद के चुनाव में उतरने का हौसला दिया।

साल 2016 में "अबु बक्र अल-बगदादी" की कुंडली

जन्म: 28जुलाई 1971 (आयु 44), सामर्रा, इराक
बगदादी की वर्तमान में बुध की महादशा में शुक्र की अंतरदशा और जुलाई तक सूर्य की अंतरदशा चलेगी। ज्ञात कुंडली के अनुसार बगदादी के एकादशेश सूर्य और द्वितीयेश और सप्तमेश मंगल साथ में हैं। अत: इस समय उनकी दशा मार्केश के साथ होने से उन्हें जीवनसंकट हो सकता है।
बगदादी का जन्म 1971 में ईराक के सामर्रा नगर में हुआ। अली बदरी सामर्राई, अबू दुआ, डाक्टर इब्राहीम, अल कर्रार और अबू बक्र अलबगदादी आदि कई इसके उपनाम हैं। यह पीएचडी हैं। इसके पिता का नाम अलबू बदरी हैं जो सलफ़ी तकफ़ीरी विचारधारा को मानते हैं। अबू बक्र बगदादी की शुरुवात धर्म के प्रचार साथ ही प्रशिक्षण से हुआ। लेकिन जेहादी विचारधारा की ओर अधिक झुकाव रखने के कारण वह इराक के दियाला और सामर्रा में जेहादी पृष्ठिभूमि के केन्द्रों में से एक केन्द्र के रूप में ऊभरा। उसने बगदाद के इस्लामी विज्ञान विश्वविद्यालय से इस्लामी विज्ञान में मास्टर की डिग्री और पीएचडी अर्जित किया। जेहादी वेबसाइटों का दावा है कि वह प्रतिष्ठित परिवार का पढ़ा-लिखा इमाम है। वह 2003 में इराक में अमेरिकी घुसपैठ के बाद बागी गुटों के साथ अमेरिकी फौज से लड़ा था। वह पकड़ा भी गया और 2005-09 के दौरान उसे दक्षिणी इराक में मेरिका के बनाए जेल कैंप बुका में रखा गया था। और 2010 में इराक के अलकायदा का नेता बन गया। और २०१५ में खुद खलीफ ा बन बैठा आईएस आतंकी संगठन का लीडर है।

future for you astrological news ma ke dushre rup ki puja se kAREN PRET ...