Thursday 21 April 2016

कृषि भूमि का अधिग्रहण और विकास क्या है इसका ज्योतिषीय कारण

विकास के नाम पर देश की हरियाली पर कुठाराघात किया जा रहा है दुनिया का अमीर से अमीर आदमी भी अन्न खाकर ही जीवित रहता है किंतु इसी अन्न को उगाने वाले किसानों से उपजाउ भूमि अधिग्रहित कर सरकार रोड़, नगर, क्रांकीट की जाल बिछाती जा रही है? आज भी हमारा देश कृषि प्रधान देश है और देश के लिए विकास और अनाज दोनो जरूरी है किसानो को शोषण करके देश का विकास संभव नही है। जमीन से पैदावार तो कर सकते है जमीनी दायरे को बढ़ा नही सकते इस देश का विकास तभी संभव है जब किसानों को शिक्षित किया जाएगा, कृषिभूमि को उरवर बनाने के प्रयास किये जाए क्योंकि किसान से विकास के नाम पर जमीन लेकर मुआवजा तो दे देंगे जो खत्म भी हो जायेगी किंतु पीढि़यों तक चलने वाली आजीविका कहाॅ से लायेंगे। विकास हो, खूब हो, देश तरक्की करे, आगे बढे। लेकिन विकास का यह कैसा मार्ग है जिस पर किसान, आदिवासी या गांववालों को दबा कर ही आगे ही बढ़ा जा सकता है। ऐसा क्यों हो रहा है जाने इसका ज्योतिषीय कारण क्या है। जब गुरू राहु से पापाक्रांत हो रहा है तो बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग आमजन विरोधी क्रियाकलाप कर आम जन के हित से परे कार्य करेंगे। चूॅकि मंगल, सूर्य और शुक्र जैसे ग्रह विपरीत हैं तो ताकतवर लोग कमजोर लोगों के हित से परे कार्य करेंगे। जो कि भविष्य में जन आंदोलन का कारण बनेगा। अतः आमजन की सुविधा और कृषि से जुड़े लोगो के हित को सर्वोपरी रखते हुए कार्य करना ही सत्ता और सरकार के साथ समाज की शांति, समृद्धि और सुख के लिए आवष्यक है।

सुदर्शन चक्र का कुंडली अध्ययन

किसी भी कुंडली का फलकथन राशि, लग्न एवं ग्रह दशा को ध्यान में रखकर किया जाता है। जन्म नक्षत्र ज्योतिषीय शास्त्र में वह केंद्र बिंदु है जिसके चारों तरफ जातक की जीवन गति चलती रहती है। सटीक फलकथन करने के लिए जन्म नक्षत्र विचार करना परम आवश्यक है। 27 नक्षत्रों में से 6 नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र होते हैं। इनमें जन्में जातकों को गंडमूल का दोष लगता है। लग्न जातक के सामान्य आकार, लक्षण, स्वभाव एवं स्वास्थ्य के बारे में सूचित करती है। लग्न के आधार पर कुंडली के अन्य भावों का क्रमबद्ध निर्धारण किया जाता है। इन द्वादश भावों का निर्धारण करके जातक के जीवन में घटने वाली समस्त शुभाशुभ घटनाओं के बारे में विचार किया जाता है। ‘चंद्रमा मनसो जातः’ अर्थात चंद्रमा जातक का मन है। मन की शीघ्र गति होने के कारण एवं सभी ग्रहों में चंद्रमा की गति सबसे अधिक होने के कारण चंद्रमा का मन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। जातक के किसी भी शुभ कार्य जैसे विवाह, उपनयन अन्य आवश्यक मुहूर्तों में चंद्रमा को आधार मानकर कूट जातक के लिए शुभाशुभ मुहूर्त प्राप्त किया जाता है। सूर्य ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। सूर्य को जातक की आत्मा भी कहा जाता है। ‘आत्मा का अंश आत्मा’ इस आधार पर कहा जाता है कि प्रत्येक जातक अपने पिता का अंश है। अतः सूर्य को पिता का कारक भी कहा गया है। ‘जीवन आत्मा मन तथा शरीर का मिश्रण है’ यह सुदर्शन चक्र का मूल आधार है। आत्मा मन तथा शरीर का सही समायोजन जीवन की पूर्णता के लिए परम आवश्यक है। आत्मा जातक की सबसे भीतरी स्थिति है। मन उससे बाहर की तथा शरीर सबसे बाह्य स्थिति है। इसी प्रकार का क्रम सुदर्शन चक्र कुंडली में भी है। सबसे भीतर सूर्य कुंडली उससे ऊपर चंद्र कुंडली, सबसे बाहर लग्न कुंडली। आत्मा का प्रभाव मन पर व मन के विचारों का प्रभाव जातक के शरीर पर पड़ता है। प्रत्येक जातक में आत्मा के रूप में सिर्फ पिता का ही अंश नहीं है बल्कि आत्मा पिता के माध्यम से प्राप्त जन्म जन्मांतर में विभिन्न योनियों में विचरण करने के उपरांत प्राप्त अनुभवों तथा सीखों का संकलन है। जो सर्वप्रथम मन उसके बाद जातक का विकास रहता है। इसलिए एक ही पिता की संतान (चाहे जुड़वां ही क्यों न हो) गुण, स्वभाव, आचार, विचार, व्यवहार में एक जैसी नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि शरीर तो पिता से मिलता है लेकिन इस शरीर के साथ ऐसा भी कुछ प्राप्त होता है जो पिछले कई जन्मों के विकास का परिणाम है। यही आत्मा है। हम शरीर के माध्यम से आत्मा का निरंतर विकास करते रहते हैं। मन आत्मा तथा शरीर के मध्य सेतु का कार्य करता है। एक तरफ मन आत्मा का विकास करता है तो दूसरी तरफ आत्मा के अनुभवों को शरीर पर अनुभव कराता है। विचार, प्रयास, गंभीरता, सुख दुखः करूणा, दया, प्रेम इसी का परिणाम है। यही पुनर्जन्म का गूढ़ रहस्य है। हमारे दूरदर्शी ज्योतिष मर्मज्ञ ऋषियों मुनियों ने सूर्य एवं चंद्रमा द्वारा बनने वाले योगों पर विचार करना बताया है। उसका आशय मन एवं आत्मा पर अन्य ग्रहों द्वारा पड़ने वाले प्रभाव से है। मन और आत्मा का सही समायोजन जातक के व्यक्तित्व का विकास करता है। सूर्य से बनने वाले वसियोग, वासियोग, उभयचारी योग में चंद्रमा को विशेष महत्व दिया है एवं सर्य से चंद्र की स्थिति के आधार पर इन योगों का निर्माण किया गया है। चंद्रमा से बनने वाले सुनफा योग, अनफा योग, दुरधरा योग, केन्द्रुम योग सूर्य एवं चंद्रमा की विशेष स्थिति के आधार पर ही निर्धारित किये जाते हैं। इन योगों पर गहनता से विचार करके जातक के व्यक्तित्व, भविष्य आदि के बारे में फल कथन किया जाता है। बुधादित्य योग, गजकेसरी योग आदि योगों के अध्ययन से जातक के मन, आत्मा की गहराई जानी जा सकती है। वास्तव में सुदर्शन चक्र ज्योतिष का पूर्ण आध्यात्मिक पक्ष है। उदाहरण: स्वामी जी का सूर्य मकर राशि में है। मकर राशि का स्वामी शनि कर्मवादी ग्रह है। हमेशा कार्य में लगे रहना फल की आशा किये बिना औरों के लिए कार्य करना, कई बार अपनी खुशियों को न्योछावर कर देना मकर राशि के विशेष गुण है। यह राशि पूरी लगन के साथ अपनी मंजिल की ओर बढ़ने वाली, व्यवहारिक सोच, सहनशीलता प्रदान राशि है। बेहद सुलझी राशि, अपना काम अपने आप करने वाली राशि है। इस राशि में सूर्य विश्लेषणात्मक बुद्धि देता है। स्वामी जी के मकर राशि में सूर्य होने के कारण उक्त गुण प्रधान रूप से अनुभव किये जा सकते हैं। स्वामी जी का चंद्रमा बुध ग्रह से प्रभावित कन्या राशि में है। कन्या राशि की विशेषता भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्ति देता है। शब्द प्रदान करता है। अतः स्वामी जी की सबसे भीतरी अवस्था आत्मा से प्राप्त गुणों को कन्या रूपी चंद्र से संयोग से विचारों की अभिव्यक्ति के विशालता प्राप्त हुई। इस सूर्य राशि व चंद्र राशि के संयोग से ही स्वामी जी को आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ। इस आत्म ज्ञान को सबसे बाहरी अवस्था शरीर रूपी संसार को प्रदान करने के लिए ईश्वर द्वारा स्वामी जी को गुरु से प्रभावित धनु लग्न प्राप्त हुई। धनु लग्न अग्नि रूपी ज्ञान की अग्नि तत्वीय राशि है। यह राशि ज्ञान, ईश्वर भक्ति, परम शक्ति, सत्यवादी, आध्यात्मवादी, धीरज, कुछ करने की लगन, आत्मविश्वास से परिपूर्ण, ईश्वर की चाह रखने वाली, अच्छा सलाहकार बनाने वाली राशि है। इस राशि द्वारा अच्छी शिक्षा, अच्छा ज्ञान, आध्यात्म अनुसंधान प्राप्त होता है। उक्त सभी गुण धनु लग्न होने से स्वामी जी से प्राप्त हुए।

पंचांग इतिहास : जाने कैसे बनते है पंचांग

पंचांग : इतिहास-विकास-गणना भारतीय पंचांग के इतिहास की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। क्षेत्रीयकरण के क्रम में ग्रहों, नक्षत्रों आदि की इस युगों पुरानी गणना पद्धति और उसके अनुसार मानव जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले इस सशक्त माध्यम को परिवर्तन के अनेक चरणों से गुजरना पड़ा है और आज देश भर में राष्ट्रीय पंचांग के अतिरिक्त कई क्षेत्रीय पंचांग उपलब्ध हैं। इनमें से अधिकांश सबसे पहले लगध के वेदांग ज्योतिष में प्रतिपादित पद्धति से लिए गए हैं। लगध के इस वेदांग ज्योतिष का सूर्य सिद्धांत में मानकीकरण हुआ और आगे चलकर आर्यभट्ट, वराहमिहिर और भास्कर ने इसमें व्यापक सुधार किए। क्षेत्रों की भिन्नता के कारण पंचांगों की गणनाओं में अंतर आता है, किंतु निम्नलिखित तथ्य प्रायः सभी पंचांगों में समान हैं। भारतीय ज्योतिर्विज्ञान की शास्त्र एवं प्रयोग सिद्ध एक स्वस्थ परंपरा 'पंचांग' के माध् यम से हमारे जीवन को आलोकित करती आ रही है। पंचांग ज्योतिषीय अध्ययन का एक अनिवार्य उपकरण है। इसे तिथि पत्र या पत्रा भी कहते हैं। इसका नाम पंचांग इसलिए है कि इसके पांच मुखय अंग होते हैं - तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण।पंचांग प्रकरण, श्लोक 1 में कहा गया है - तिथि वारिश्च नक्षत्रां योग करणमेव च। एतेषां यत्रा विज्ञानं पंचांग तन्निगद्यते॥ प्रत्येक प्रामाणिक पंचांग किसी स्थान विशेष के अक्षांश और रेखांश पर आधारित होता है। पंचांग दो पद्धतियों पर निर्मित होते हैं - सायन और निरयन। उत्तर भारत के सभी पंचांग निरयन पद्धति पर निर्मित होते हैं, जबकि पाश्चात्य देशों में सायन पद्धति प्रचलित है। तिथि : चंद्र की एक कला को तिथि कहते हैं। कला का मान सूर्य और चंद्र के अंतरांशों पर निकाला जाता है। सूर्य सिद्धांत के मानाध्याय, श्लोक 13 में तिथि का निरूपण इस प्रकार है। अर्काद्विनिसृजः प्राचीं यद्यात्यहरहः शद्गाी। तच्चान्द्रमानमंद्गौस्तु ज्ञेया द्वादद्गाभिस्तिथिः॥ संपूर्ण भचक्र (3600) में 30 तिथियां होती हैं। अतः एक तिथि का मान 360÷30=120 होता है। इनमें 15 तिथियां कृष्ण पक्ष की तथा 15 शुक्ल पक्ष की होती हैं। परंतु चंद्र की गति में तीव्र भिन्नता होने के कारण तिथि के मान में न्यूनाधिकता बनी रहती है। चंद्र अपने परिक्रमा पथ पर एक दिन में लगभग 130 अंश बढ़ता है। सूर्य भी पृथ्वी के संदर्भ में एक दिन में 10 या 60 कला आगे बढ़ता है। इस प्रकार एक दिन में चंद्र की कुल बढ़त 130- 10 = 120 ही रह जाती है। यह बढ़त ही सूर्य और चंद्र की गति का अंतर होती है। अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्र साथ-साथ (एक ही राशि व अंशों में) होते हैं। उनका राश्यांतर शून्य होता है, इसलिए चंद्र दिखाई नहीं देता है। जब दोनों का अंतर शून्य से बढ़ने लगता है तब एक तिथि का आरंभ होने लगता है अर्थात प्रतिपदा तिथि शुरू होती है। जब यह अंतर बढ़ते-बढ़ते 120 अंश का हो जाता है, तब प्रतिपदा तिथि पूर्ण और द्वितीया शुरू हो जाती है। चूंकि प्रतिपदा तिथि को चंद्र सूर्य से केवल 120 अंश ही आगे निकलता है, इसलिए इस तिथि को भी साधारणतः आकाश में चंद्रदर्शन नहीं होते हैं। इसी प्रकार सूर्य-चंद्र के राश्यांतरों से तिथि का निर्धारण होता है। जब चंद्र सूर्य से 1800 (120 ग 15) आगे होता है, तब पूर्णिमा तिथि समाप्त तथा कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि आरंभ होती है। पुनः जब सूर्य और चंद्र का अंतर 3600 या शून्य होता है तब कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि समाप्त होती है। वार : भारतीय ज्योतिष में एक वार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक रहता है। वार को परिभाषित करते हुए कहा गया है - उदयात् उदयं वारः। वार को प्राचीन गणित ज्योतिष में सावन दिन या अहर्गण के नाम से भी जाना जाता है। वारों का प्रचलित क्रम समस्त विश्व में एक जैसा है। सात वारों के नाम सात ग्रहों के नाम पर रखे गए हैं। वारों का क्रम होराक्रम के आधार पर है और होरा क्रम ब्रह्मांड में सूर्यादि ग्रहों के कक्ष क्रम के अनुसार हैं। नक्षत्र : ज्योतिष शास्त्र में समस्त मेषादि राशि चक्र अर्थात भचक्र (3600) को 27 भागों में बांटा गया है। हर भाग एक नक्षत्र का सूचक है और हर भाग को एक नाम दिया गया है। इनके अतिरिक्त एक और नक्षत्र का समावेश भी किया गया है, जिसे अभिजित नक्षत्र कहते हैं। इस तरह भारतीय ज्योतिष के अनुसार भचक्र में कुल 28 नक्षत्र हैं। सूर्य सिद्धांत के भूगोलाध्याय में श्लोक 25 के अनुसार एक नक्षत्र का मान 3600 झ् 27 अर्थात 13 अंश 20 कला होता है। अभिजित् को मिलाकर 28 नक्षत्र हो जाते हैं। किंतु सर्वमान्य मत के अनुसार नक्षत्र कुल 27 ही हैं। कुछ आचार्यों के अनुसार उत्तराषाढ़ा नक्षत्र की अंतिम 15 तथा श्रवण नक्षत्र की प्रथम 4 घटियां अभिजित नक्षत्र के नाम हैं। इस तरह इस नक्षत्र का मान अभिजित नक्षत्र का मान कुल मिलाकर 19 है। पाश्चात्य ज्योतिष में भी अभिजित को उत्तराषाढ़ा एवं श्रवण के मध्य माना गया है जिसे वेगा ;टम्ळ।द्ध कहते हैं। ज्योतिष में 27 नक्षत्रों को 12 राशियों में वर्गीकृत किया गया है। प्रत्येक नक्षत्र के चार भाग किए गए हैं, जिन्हें नक्षत्र का चरण या पाद कहते हैं। प्रत्येक चरण का मान 130 20' ÷ 4 = 3 अंश 20 कला होता है। इस प्रकार 27 नक्षत्रों में कुल 108 चरण होते हैं। वृहज्जातकम् के राद्गिा प्रभेदाध्याय के श्लोक 4 के अनुसार प्रत्येक राशि में 108 ÷ 12 = 9 चरण होंगे। आधुनिक मत से चंद्र लगभग 27 दिन 7 घंटे 43 मिनट में पृथ्वी की नाक्षत्रिक परिक्रमा करता है। नक्षत्रों की कुल संखया भी 27 ही है। इस प्रकार चंद्र लगभग 1 दिन (60 घटी) में एक नक्षत्र का भोग करता है। किंतु अपनी गति में न्यूनाधिकता के कारण चंद्र एक नक्षत्र को अपनी न्यूनतम गति से पार करने में लगभग 67 घटी तथा अपनी अधिकतम गति से पार करने में लगभग 52 घटी का समय ले सकता है। योग : पंचांग में मुखयतः दो प्रकार के योग होते हैं - आनंदादि तथा विष्कंभादि। योग पंचांग के पांचों अंगों में से एक हैं। जिस प्रकार सूर्य और चंद्र के राश्यांतर से तिथि का निर्धारण होता है, उसी प्रकार सूर्य और चंद्र के राश्यांशों के योग (जोड़) से विष्कंभादि योग का निर्धारण होता है। नक्षत्रों की भांति योग कोई तारा समूह नहीं है बल्कि यह एक वस्तु स्थिति है। आकाश में निरयन आदि बिंदुओं से सूर्य और चंद्र को संयुक्त रूप से 13 अंश 20 कला (800 कलाएं) का पूरा भोग करने में जितना समय लगता है, वह योग कहलाता है। इस प्रकार एक योग का मान नक्षत्र की भांति 800 कला होता है। विष्कंभादि योगों की कुल संखया 27 है। योग का दैनिक भोग मध्यम मान लगभग 60 घटी 13 पल होता है। सूर्य और चंद्र की गतियों की असमानता के कारण मध् यम मान में न्यूनाधिकता बनी रहती है। सुगम ज्योतिष के संज्ञाध्याय के योगप्रकरण के श्लोक 1 एवं वृहद अवकहड़ाचक्रम् के योगप्रकरण के श्लोक 1 में इन योगों को यथा नाम तथा गुण फलदायक कहा गया है। इन योगों में वैधृति एवं व्यतिपात नामक योगों को महापात कहते हैं। जब सायन सूर्य और चंद्र का योग ठीक 1800 या 3600 होता है, उस समय दोनों की संक्रांतियां समान होती हैं। 1800 अंश के क्रांतिसाम्य को व्यतिपात तथा 3600 अंश के क्रांतिसाम्य को वैधृति कहते हैं। सूर्यसिद्धांत, पाताधिकार, श्लोक 1, 2 एवं 20 में तांत्रिक क्रियाओं के लिए क्रांतिसाम्य अथवा महापात की स्थिति को अत्युत्तम माना गया है। वार और नक्षत्र के संयोग से तात्कालिक आनंदादि योग बनते हैं। नारद पुराण एवं मुहूर्त चिंतामणि ग्रथों में इनकी संखया 28 दर्शाई है। इन्हें स्थिर योग भी कहते हैं। इनकी गणितीय क्रिया नहीं है। ये योग सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक रहते हैं। इन योगों का निर्धारण वार विशेष को निर्दिष्ट नक्षत्र से विद्यमान नक्षत्र (अभिजित् सहित) तक की गणना द्वारा होता है। करण : करण तिथि का आधा होता है अर्थात सूर्य और चंद्र में 60 अंश का अंतर होने में जितना समय लगता है, उसे करण कहते हैं। किंतु कुछ पंचांगकार तिथि की संपूर्ण अवधि के दो समान भाग करके स्थूल रूप से करणों का निर्धारण कर देते हैं। एक तिथि में दो करण होते हैं। इनकी कुल संखया 11 है। सुगमज्योतिष, करण प्रकरण, श्लोक 1 में इनके दो भेद माने गए है - चर और स्थिर। बव, बालव, कौलव, तैत्तिल, गर, वणिज एवं विष्टि (भद्रा) चर और शकुनि, चतुष्पद, नाग एवं किंस्तुघ्न स्थिर संज्ञक करण हैं। चूंकि करण की शुरुआत स्थिर करण किंस्तुघ्न से होती है जब भचक्र में सूर्य और चंद्र का राश्यंतर शून्य होता है तब प्रतिपदा तिथि के साथ ही स्थिर करण किंस्तुघ्न शुरू होता है। जब चंद्र अपनी तीव्र गति के कारण सूर्य से 6 अंश आगे पहुंच जाता है, तब किंस्तुघ्न करण समाप्त हो जाता है। इस प्रकार सूर्य और चंद्र में 6 अंश के राश्यंतर होने में जो समय लगता है, वह किंस्तुघ्न करण कहलाता है। जैसे ही चंद्र सूर्य से 60 से आगे बढ़ना शुरू करता है, बव नामक चर करण शुरू हो जाता है। जब सूर्य और चंद्र का राश्यंतर 120 हो जाता है, तब बव करण के साथ-साथ प्रतिपदा तिथि भी समाप्त हो जाती है और द्वितीय तिथि के साथ ही चर करण बालव की शुरुआत होती है। यही क्रम आगे भी जारी रहता है। तिथि के पूर्वार्ध का चर करण कैसे ज्ञात करें? नारद पुराण के अनुसार जिस तिथि के पूर्वार्ध का करण ज्ञात करना हो, उससे पूर्व की गति तिथियों को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनें। तदुपरांत प्राप्त संखया में 2 से गुणा करके 7 का भाग दें, जो शेषफल प्राप्त होगा, वह उस तिथि के पूर्वार्ध में बवादि क्रम से गिनने पर अभीष्ट करण होगा। पंचांग प्रयोग से पूर्व क्या करें? अलग-अलग पंचांग कालांगों का दिग्दर्शन अलग-अलग इकाइयों व विधाओं में करते हैं तथा अलग-अलग अक्षांशों और रेखांशों के आधार पर निर्मित होते हैं। अतः पंचांग को उपयोग में लाने से पूर्व निम्नलिखित तथ्यों का पालन करना चाहिए, ताकि गणना में त्रुटि न हो । पंचांग का निर्माण ग्रीनविच से कितने अक्षांश एवं रेखांश पर हुआ है, यह देख लेना चाहिए, ताकि अपने स्थल अथवा जातक के जन्म स्थल से चरांतर एवं देशांतर संस्कार करने में त्रुटि नहीं हो। अक्षांशीय एवं देशांतरीय अंतर के आधार पर अभीष्ट स्थान एवं पंचाग निर्माण के स्थान का शुद्ध समयांतर ज्ञात होता है। देखना चाहिए कि पंचांग की रचना में कौन सा अयनांश प्रयुक्त हुआ है - ग्रहलाघवीय, चित्रपक्षीय या लहरी इत्यादि। उत्तर भारत में चित्रपक्षीय अयनांश प्रयुक्त होता है। इसे भारत सरकार की मान्यता भी प्राप्त है। इसके अतिरिक्त यह भी देखना चाहिए कि पंचांग में दिया गया अयनांश धनून-संस्कार-संस्कृत है अथवा नहीं। जैसे मार्त्तण्ड पंचांग में धनून- संस्कार-संस्कृत चित्रपक्षीय अयनांश प्रयुक्त होता है। इस पर भी विचार करना चाहिए कि पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग और करण के समाप्ति काल तथा सूर्योदय एवं सूर्यास्त किस इकाई में हैं - स्थानीय समय में अथवा मानक समय में। काशी के श्री हृषिकेश तथा श्री महावीर पंचांगों में सूर्योदय, सूर्यास्त तथा तिथि, नक्षत्र, योग और करण का समाप्ति काल स्थानीय समय में दिया गया है, जबकि दिल्ली के विद्यापीठ एवं विश्व विजय पंचांगों में सूर्योदय, सूर्यास्त और तिथि, नक्षत्र, योग तथा करण का समाप्तिकाल भारतीय मानक समय में दिया गया है। यदि पंचांग में दर्शाए गए प्रतिदिन के सूर्योदय एवं सूर्यास्त काल का योग 12 घंटे होता हो, तो समझना चाहिए कि पंचांग में स्थानीय समय प्रयुक्त हुआ है। दूसरी पहचान यह है कि दिनमान (घटी-पल) में 5 का भाग देने पर स्थानीय समय में (घंटे-मिनट में) सूर्यास्तकाल प्राप्त होता है। पंचांग में दिनमान का सूर्योदय एवं सूर्यास्त द्वारा प्रमाणीकरण होना चाहिए। पंचांग में सूर्योदय या सूर्यास्त किसी भी इकाई में हो, दिनमान अपरिवर्तित रहता है। सूर्यास्त में से सूर्योदय घटाकर शेष घंटे-मिनट में ढाई गुना करने पर दिनमान प्राप्त होता है। यह दिनमान (घटी-पल) पंचांग में दिए गए दिनमान के तुल्य होना चाहिए। पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग और करण के सूर्योदय से समाप्तिकाल (घंटा-मिनट) इनके घटी-पलात्मक मान के तुल्य होना चाहिए। सूर्योदयास्तकाल में किरण वक्री भवन संस्कार करने से वास्तविक क्षितिज वृत्त के उदयास्तकाल में सूक्ष्मांतर आ जाता है, जिससे इष्ट बनाने में तथा धार्मिक निर्णयों में त्रुटि होना संभव है। परंतु सूर्योदयास्त काल में घड़ी का मिलान करना हो, तो पंचांग में दर्शाए गए सूर्योदय में 2 मिनट किरण वक्री भवन संस्कार घटाने तथा सूर्यास्त में 2 मिनट जोड़ने पर घटी यंत्र से मिलना चाहिए। किरण वक्री भवन संस्कार के कारण दिनमान भी लगभग 10 पल बढ़ जाता है। पंचांग प्रयोग से पूर्व देखें कि चंद्र संचार मानक समय में दिया गया है या घटी-पलात्मक मान में। वाणीभूषण पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण का मान घटी-पल तथा मानक समय (घण्टा-मिनट) में जबकि विद्यापीठ और दिवाकर पंचांगों में चंद्र संचार को मानक समय (घंटा-मिनट) में व्यक्त किया गया है। वहीं निर्णय सागर एवं विश्व पंचांग में चंद्र संचार घटी-पल में दर्शाया गया है। 

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Wednesday 20 April 2016

जाने राहुकाल के समय के बारे में

ज्योतिष शास्त्र में हर दिन को एक अधिपति दिया गया है। जैसे- रविवार का सूर्य, सोमवार का चंद्र, मंगलवार का मंगल, बुधवार का बुध, बृहस्पतिवार का गुरु, शुक्रवार का शुक्र व शनिवार का शनि। इसी प्रकार दिन के खंडों को भी आठ भागों में विभाजित कर उनको अलग-अलग अधिष्ठाता दिये गये हैं। इन्हीं में से एक खंड का अधिष्ठाता राहु होता है। इसी खंड को राहुकाल की संज्ञा दी गई है। राहुकाल में किये गये काम या तो पूर्ण ही नहीं होते या निष्फल हो जाते हैं। इसीलिए राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। कुछ लोगों का मानना यह भी है कि इस समय में किये गये कार्यों में अनिष्ट होने की संभावना रहती है। लेकिन मुख्यतः ऐसा माना जाता है कि राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए और यदि कार्य का प्रारंभ राहुकाल के शुरु होने से पहले ही हो चुका है तो इसे करते रहना चाहिए क्योंकि राहुकाल को केवल किसी भी शुभ कार्य का प्रारंभ करने के लिए अशुभ माना गया है ना कि कार्य को पूर्ण करने के लिए। राहुकाल में घर से बाहर निकलना भी अशुभ माना गया है लेकिन यदि आप किसी कार्य विशेष के लिए राहुकाल प्रारंभ होने से पूर्व ही निकल चुके हैं तो आपको राहुकाल के समय अपनी यात्रा स्थगित करने की आवश्यकता नहीं है। राहुकाल का विशेष प्रचलन दक्षिण-भारत में है और इसे वहां राहुकालम् के नाम से जाना जाता है। यह भारत में अब काफी प्रचलित होने लगा है एवं इसे मुहूर् के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। राहु को नैसर्गिक अशुभ कारक ग्रह माना गया है, गोचर में राहु के प्रभाव में जो समय होता है उस समय राहु से संबंधित कार्य किये जायें तो उनमें सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। इस समय राहु की शांति के लिए यज्ञ किये जा सकते हैं। इस अवधि में शुभ ग्रहों के लिए यज्ञ और उनसे संबंधित कार्य को करने में राहु बाधक होता है शुभ ग्रहों की पूजा व यज्ञ इस अवधि में करने पर परिणाम अपूर्ण प्राप्त होता है। अतः किसी कार्य को शुरु करने से पहले राहुकाल का विचार कर लिया जाए तो परिणाम में अनुकूलता की संभावना अधिक रहती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस समय शुरु किया गया कोई भी शुभ कार्य या खरीदी-बिक्री को शुभ नहीं माना जाता। राहुकाल में शुरु किये गये किसी भी शुभ कार्य में हमेशा कोई न कोई विघ्न आता है, अगर इस समय में कोई भी व्यापार प्रारंभ किया गया हो तो वह घाटे में आकर बंद हो जाता है। इस काल में खरीदा गया कोई भी वाहन, मकान, जेवरात, अन्य कोई भी वस्तु शुभ फलकारी नहीं होती। सभी लोग, विशेष रूप से दक्षिण भारत के लोग राहुकाल को अत्यधिक महत्व देते हैं। राहुकाल में विवाह, सगाई, धार्मिक कार्य, गृह प्रवेश, शेयर, सोना, घर खरीदना अथवा किसी नये व्यवसाय का शुभारंभ करना, ये सभी शुभ कार्य राहुकाल में पूर्ण रूपेण वर्जित माने जाते हैं। राहुकाल का विचार किसी नये कार्य का सूत्रपात करने हेतु नहीं किया जाता है, परंतु जो कार्य पहले से प्रारंभ किये जा चुके हैं वे जारी रखे जा सकते हैं। राहुकाल गणना: राहुकाल गणना के लिए दिनमान को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। यदि सूर्योदय को सामान्यतः प्रातः 6 बजे मान लिया जाये और सूर्यास्त को 6 बजे सायं तो दिनमान 12 घंटों का होता है। इसे आठ से विभाजित करने पर एक खंड डेढ़ घंटे का होता है। प्रथम खंड में राहुकाल कभी भी नहीं होता। सोमवार का द्वितीय खंड राहुकाल होता है, इसी प्रकार शनिवार को तृतीय खंड, शुक्रवार को चतुर्थ, बुधवार को पंचम खंड, गुरुवार को छठा खंड मंगलवार को सप्तम खंड और रविवार को अष्टम खंड राहुकाल का होता है। निम्न तालिका में वार अनुसार राहुकाल का लगभग समय दिया गया है। राहुकाल केवल दिन में ही माना गया है। लेकिन कुछ विद्वान रात्रिकाल के लिए भी इसकी गणना करते हैं। रात्रि में वही खंड राहुकाल होता है जो दिन में होता है। यदि सोमवार को 07:30 से 9 बजे तक राहुकाल होता है तो रात्रि में भी सायं 07:30 से 9 बजे तक राहुकाल होगा। आगे दी गई तालिका की गणना केवल आसानी के लिए दी गई है। सूक्ष्म गणना में सूर्योदय व सूर्यास्त का सही समय लेना चाहिए और उसके अनुसार दिनमान व राहुकाल की गणना करनी चाहिए। चूंकि सूर्योदय व सूर्यास्त प्रतिदिन बदलते रहते हैं अतः राहुकाल का समय भी प्रतिदिन बदलता रहता है। इसी प्रकार सूर्योदय व सूर्यास्त स्थान के अक्षांश, रेखांश के अनुसार भी बदलते रहते हैं। अतः राहुकाल स्थान व दिनांक दोनों के अनुरूप बदलता रहता है। दूसरा ऐसा भी मानना है कि सूर्योदय आदि के लिए दर्शित सूर्योदय काल नहीं लेना चाहिए बल्कि ज्यामितीय सूर्योदय काल लेना चाहिए जिसमें कि परिवर्तन और ऊंचाई आदि की शुद्धि नहीं की गई हो। इनका ऐसा मानना है कि ज्यामितीय सूर्योदय सूर्य दर्शन के बाद में होता है। लेकिन परीवर्तन के कारण सूर्य कुछ मिनट पूर्व ही दिखने लगता है। ज्योतिषीय गणनाओं में हमें दर्शन काल न लेकर, ग्रहों के मध्य से रेखा खींचकर गणना करनी चाहिए। राहुकाल का कुछ दिनों पर ज्यादा प्रभाव होता है, जैसे- शनिवार को इसका प्रभाव सर्वाधिक माना गया है। क्योंकि शनिवार को इसका काल लगभग 9:00 से 10:30 बजे तक होता है और यही समय होता है एक आम आदमी का अपने व्यवसाय पर जाने या कार्य शुरु करने का। अतः इस दिन राहुकाल का विशेष ध्यान रखना लाभकारी रहता है। मंगलवार, शुक्रवार व रविवार को भी राहुकाल विशेष प्रभावशाली माना गया है।

विवाह हेतु महत्वपूर्ण ग्रहों की दशा

हमारे शास्त्रों में 16 संस्कार बताये गये हैं जिनमें विवाह सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। हमारे समाज में जीवन को सुचारू रूप से चलाने एवं वंश को आगे बढ़ाने के लिए विवाह करना आवश्यक माना गया है। जब हम कुंडली में विवाह का विचार करते हैं तो उसके लिए नौ ग्रहों में सबसे महत्वपूर्ण ग्रह गुरु, शुक्र और मंगल का विश्लेषण करते हैं। इन तीनों ग्रहों का विवाह में विशेष भूमिका होती है। यदि किसी का विवाह नहीं हो रहा है या दांपत्य जीवन ठीक नहीं चल रहा है तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसकी कुंडली में गुरु, शुक्र और मंगल की स्थिति ठीक नहीं हैं। गुरु वर-वधू की कुंडली में गुरु ग्रह बली होना चाहिए। गुरु की शुभ दृष्टि यदि सप्तम भाव पर होती है तो वैवाहिक जीवन में परेशानियों के बाद भी अलगाव की स्थिति नहीं बनती है अर्थात गुरु की शुभता वर-वधू की शादी को बांधे रखती है। गुरु ग्रह शादी के साथ-साथ संतान का कारक भी है। अतः यदि गुरु बलहीन होगा तो शादी के बाद संतान प्राप्ति में भी कठिनाई होगी। अतः हमें कुंडली में मुख्य रूप से गुरु को सबसे पहले देखना चाहिए। गुरु यदि स्वयं बली है स्व अथवा उच्च राशि में है, केंद्र या त्रिकोण में है तथा शुभ ग्रह से प्रभावित है तो जातक के शादी में परेशानी नहीं आती है और जातक की शादी समय से हो जाती है। शुक्र गुरु ग्रह जहां शादी करवाते हैं वहीं शुक्र ग्रह शादी का सुख प्रदान करते हैं। कई बार देखा गया है कि शादी तो समय पर हो जाती है लेकिन पति को पत्नी सुख और पत्नी को पति सुख का अभाव रहता है। किसी न किसी कारण वश पति-पत्नी एक साथ नहीं रह पाते और अगर रहते हैं तो भी उन्हें शय्या सुख प्राप्त नहीं हो पाता। यदि आपके जीवन में ऐसी स्थिति बन रही है तो आपको समझ लेना चाहिए कि आपका शुक्र ग्रह पीड़ित है अर्थात शुक्र पापी ग्रहों से पीड़ित है, कमजोर है। अतः हमें विवाह का पूर्ण सुख लेने के लिए शुक्र की स्थिति का आकलन जरूर करना चाहिए। शुक्र की शुभ स्थिति दांपत्य जीवन के सुख को प्रभावित करती है अर्थात यदि शुक्र स्वयं बली हो, स्व अथवा उच्च राशि में स्थित हो, केंद्र या त्रिकोण में हो तब अच्छा दांपत्य सुख प्राप्त होता है। इसके विपरित जब त्रिक भाव, नीच का अथवा शत्रु क्षेत्री, अस्त, पापी ग्रह से दृष्ट अथवा पापी ग्रह के साथ बैठा हो तब दांपत्य जीवन के लिए अशुभ योग बनता है। अतः कुंडली में शुक्र की स्थिति का अवलोकन जरूर करना चाहिए। मंगल मंगल का अध्ययन किये बिना विवाह के पक्ष से कुंडलियों का अध्ययन अधूरा ही रहता है। वर-वधू की कुंडलियों का विश्लेषण करते समय पहले कुंडली में मंगल की भूमिका का विचार अवश्य करना चाहिए कि मंगल किन भावों में स्थित है कौन से ग्रहों से दृष्टि संबंध बना रहे हैं तथा किन भावों एवं ग्रहों पर इनकी दृष्टि है। मंगल से मांगलिक योग का निर्माण होता है। यदि कुंडली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में मंगल होता है तो कुंडली मांगलिक कहलाती है क्योंकि इन घरों में बैठकर मंगल सप्तम भाव को प्रभावित करता है। अतः कुंडली में मंगल की स्थिति ठीक होनी जरूरी है क्योंकि मंगल ग्रह की अशुभ स्थिति वैवाहिक जीवन के सुख में कमी लाता है। विशेष: यदि आपकी शादी नहीं हो रही है या आपके दांपत्य जीवन में सुख की कमी है तो आप किसी विद्वान ज्योतिषी से कुंडली दिखाकर गुरु, शुक्र और मंगल का उपाय करें। ऐसा करने से ग्रह की शुभता बढ़ेगी जिससे आपकी विवाह संबंधी समस्याएं दूर होंगी एवं शादी जल्द होगी ।

चन्द्र-शनि युति: विषयोग

इस धरती पर जन्म लेने वाले हर प्राणी के लिए उसका जन्म-क्षण बहुत महत्वपूर्ण होता है, ऐसी ज्योतिष ज्ञान की मान्यता है। इस क्षण को आधार मानकर ज्योतिष गणना द्वारा उसके सम्पूर्ण जीवन का लेखा-जोखा जन्मकुंडली से तैयार किया जा सकता है। इस बनाई गई कुंडली से इस जातक के जीवन में होने वाली शुभ-अशुभ घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। जन्म कुंडली के बारह भावों में नौ ग्रह स्थित होकर शुभ तथा अशुभ योगों की रचना करते हैं। भारतीय ज्योतिष की मान्यतानुसार योगों की रचना कुछ आधारों पर की गई है जिनमें से एक है ग्रहों का परस्पर संबंध। इन संबंधों में से एक है ग्रहों की परस्पर युति अर्थात् एक ही भाव में दो या अधिक ग्रहों का एक साथ होना। किसी भी कुंडली का शुभत्व या अशुभत्व उस कुंडली के भिन्न-भिन्न भावों तथा राशियों में स्थित ग्रहों तथा उनसे बनने वाले योगों के मिश्रित फल से जाना जा सकता है। जब योग भंग होते हैं तो उनका फल भी प्रभावहीन हो जाता है। चंद्र का एक नाम अमृत है और शनि का एक कारकत्व विष है। अतः चंद्र-शनि की युति अमृत-विष का योग बनाती है। चंद्रमा मन है और शनि विष अर्थात् अशुभ कर्ता। इन दोनों की युति का जातक के जीवन पर कैसा प्रभाव होगा, यह आकलन महत्वपूर्ण है। पुरातन ज्योतिष साहित्य में सभी प्रबुद्ध दैवज्ञों ने इस अमृत-विष युति के फल को अशुभ ही कहा है। इसके कुछ उदाहरण हैं- जातकभरणम्- दुराचारी, परजात, धनहीन; चमत्कार निंदक, धनहीन; बृहद्जातक व फलदीपिका - दूसरे पतिवाली स्त्री का पुत्र आदि। चंद्र-शनि युति किस भाव में है और किस राशि में, कौन से अन्य ग्रहों का इस युति पर क्या प्रभाव है- इन सब बातों को ध्यान में रखकर जन्म कुंडलियों का विश्लेषण किया गया, परंतु उपर्युक्त फलों और चंद्र-शनि युति में कोई सामंजस्य नहीं मिल पाया। अतः इस अध्ययन की आवश्यकता की अनुभूति हुई। यह सत्य है और सर्वमान्य है कि शनि पापग्रह व अशुभ ग्रह है, परंतु ऐसा भी माना गया है कि शनि अंत में शुभफल देने वाला ही होता है। चंद्र की शुभता-अशुभता उसके पूर्ण और क्षीण होने से मानी गई है। चंद्र मन है और शनि विष, तो इनकी युति को मन की विचित्रता को व्यक्त करना चाहिए। हमारे मत से सनकीपन का संबंध इस युति से होना चाहिए। किस प्रकार की मंथन मन की होगी, यह इस युति के भाव विशेष में स्थिति, उस भाव की राशि, इस युति पर अन्य ग्रहों की दृष्टि, अन्य योगों की उपस्थिति आदि पर निर्भर करेगी।

नक्षत्रों में शुभ मुहूर्त की चर्चा

नक्षत्रों के दर्पण में शुभ मुहूर्त मुंडन तथा विद्यारंभ जैसे संस्कारों के लिए तथा दुकान खोलने, सामान खरीदने-बेचने और ऋण तथा भूमि के लेन-देन और नये-पुराने मकान में प्रवेश के साथ यात्रा विचार और अन्य अनेक शुभ कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों के साथ-साथ कुछ तिथियों तथा वारों का संयोग उनकी शुभता सुनिश्चित करता है। नक्षत्र ही भारतीय ज्योतिष का वह आधार है जो हमारे दैनिक जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों को प्रभावित करता है। अतः हमें कोई भी कार्य करते हुए उससे संबंधित शुभ नक्षत्रों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए जिससे हम सभी कष्ट एवं विघ्न बाधाओं से दूर रहकर नयी ऊर्जा को सफल उद्देश्य के लिए लगा सकें। विभिन्न कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों को जानना आवश्यक है। नामकरण के लिए : संक्रांति के दिन तथा भद्रा को छोड़कर 1, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 12, 13 तिथियों में, जन्मकाल से ग्यारहवें या बारहवें दिन, सोमवार, बुधवार अथवा शुक्रवार को तथा जिस दिन अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, अभिजित, पुष्य, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा इनमें से किसी नक्षत्र में चंद्रमा हो, बच्चे का नामकरण करना चाहिए। मुण्डन के लिए : जन्मकाल से अथवा गर्भाधान काल से तीसरे अथवा सातवें वर्ष में, चैत्र को छोड़कर उत्तरायण सूर्य में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार को ज्येष्ठा, मृगशिरा, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, अश्विनी, अभिजित व पुष्य नक्षत्रों में, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तिथियों में बच्चे का मुंडन संस्कार करना चाहिए। ज्येष्ठ लड़के का मुंडन ज्येष्ठ मास में वर्जित है। लड़के की माता को पांच मास का गर्भ हो तो भी मुण्डन वर्जित है। विद्या आरंभ के लिए : उत्तरायण में (कुंभ का सूर्य छोड़कर) बुध, बृहस्पतिवार, शुक्रवार या रविवार को, 2, 3, 5,6, 10, 11, 12 तिथियों में पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मूल, पूष्य, अनुराधा, आश्लेषा, रेवती, अश्विनी नक्षत्रों में विद्या प्रारंभ करना शुभ होता है। दुकान खोलने के लिए : हस्त, चित्रा, रोहिणी, रेवती, तीनों उत्तरा, पुष्य, अश्विनी, अभिजित् इन नक्षत्रों में, 4, 9, 14, 30 इन तिथियों को छोड़कर अन्य तिथियों में, मंगलवार को छोड़कर अन्य वारों में, कुंभ लग्न को छोड़कर अन्य लग्नों में दुकान खोलना शुभ है। ध्यान रहे कि दुकान खोलने वाले व्यक्ति की अपनी जन्मकुंडली के अनुसार ग्रह दशा अच्छी होनी चाहिए। कोई वस्तु/सामान खरीदने के लिए : रेवती, शतभिषा, अश्विनी, स्वाति, श्रवण, चित्रा, नक्षत्रों में वस्तु/सामान खरीदना चाहिए। कोई वस्तु बेचने के लिए : पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, कृत्तिका, आश्लेषा, विशाखा, मघा नक्षत्रों में कोई वस्तु बेचने से लाभ होता है। वारों में बृहस्पतिवार और सोमवार शुभ माने गये हैं। ऋण लेने-देने के लिए : मंगलवार, संक्रांति दिन, हस्त वाले दिन रविवार को ऋण लेने पर ऋण से कभी मुक्ति नहीं मिलती। मंगलवार को ऋण वापस करना अच्छा है। बुधवार को धन नहीं देना चाहिए। कृत्तिका, रोहिणी, आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तरा तीनों, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल नक्षत्रों में, भद्रा, अमावस में गया धन, फिर वापस नहीं मिलता बल्कि झगड़ा बढ़ जाता है। भूमि के लेन-देन के लिए : आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, मूल, विशाखा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में, बृहस्पतिवार, शुक्रवार 1, 5, 6, 11, 15 तिथि को घर जमीन का सौदा करना शुभ है। नूतन ग्रह प्रवेश : फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ मास में, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती नक्षत्रों में, रिक्ता तिथियों को छोड़कर सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को नये घर में प्रवेश करना शुभ होता है। (सामान्यतया रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ा, चित्रा व उ. भाद्रपद में) करना चाहिए। यात्रा विचार : अश्विनी, मृगशिरा, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्रों में यात्रा शुभ है। रोहिणी, ज्येष्ठा, उत्तरा-3, पूर्वा-3, मूल मध्यम हैं। भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मघा, आश्लेषा, चित्रा, स्वाति, विशाखा निन्दित हैं। मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रिक्ता और दिक्शूल को छोड़कर सर्वदा सब दिशाओं में यात्रा शुभ है। जन्म लग्न तथा जन्म राशि से अष्टम लग्न होने पर यात्रा नहीं करनी चाहिए। यात्रा मुहूर्त में दिशाशूल, योगिनी, राहुकाल, चंद्र-वास का विचार अवश्य करना चाहिए। वाहन (गाड़ी) मोटर साइकिल, स्कूटर चलाने का मुहूर्त : अश्विनी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, पुनर्वसु, पुष्य, ज्येष्ठा, रेवती नक्षत्रों में सोमवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार व शुभ तिथियों में गाड़ी, मोटर साइकिल, स्कूटर चलाना शुभ है। कृषि (हल-चलाने तथा बीजारोपण) के लिए : अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरा तीनों, अभिजित, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, मूल, धनिष्ठा, रेवती, इन नक्षत्रों में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को, 1, 5, 7, 10, 11, 13, 15 तिथियों में हल चलाना व बीजारोपण करना चाहिए। फसल काटने के लिए : भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मृगशिरा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, हस्त, चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठा, मूल, पू.फाल्गुनी, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा तीनों, नक्षत्रों में, 4, 9, 14 तिथियों को छोड़कर अन्य शुभ तिथियों में फसल काटनी चाहिए। कुआँ खुदवाना व नलकूप लगवाना : रेवती, हस्त, उत्तरा भाद्रपद, अनुराधा, मघा, श्रवण, रोहिणी एवं पुष्य नक्षत्र में नलकूप लगवाना चाहिए। नये-वस्त्र धारण करना : अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, धनिष्ठा, रेवती शुभ हैं। नींव रखना : रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, हस्त, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा एवं श्रवण नक्षत्र में मकान की नींव रखनी चाहिए। मुखय द्वार स्थापित करना : रोहिणी, मृगशिरा, उ.फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद एवं रेवती में स्थापित करना चाहिए। मकान खरीदना : बना-बनाया मकान खरीदने के लिए मृगशिरा, आश्लेषा, मघा, विशाखा, मूल, पुनर्वसु एवं रेवती नक्षत्र उत्तम हैं। उपचार शुरु करना : किसी भी क्रोनिक रोग के उपचार हेतु अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, हस्त, उत्तराभाद्रपद, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा एवं रेवती शुभ हैं। आप्रेशन के लिए : आर्द्रा, ज्येष्ठा, आश्लेषा एवं मूल नक्षत्र ठीक है। विवाह के लिए : रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती शुभ हैं। दैनिक जीवन में शुभता व सफलता प्राप्ति हेतु नक्षत्रों का उपयोगी एवं व्यावहारिक ज्ञान बहुत जरूरी है। वास्तव में सभी नक्षत्र सृजनात्मक, रक्षात्मक एवं विध्वंसात्मक शक्तियों का मूल स्रोत हैं। अतः नक्षत्र ही वह सद्शक्ति है जो विघ्नों, बाधाओं और दुष्प्रभावों को दूर करके हमारा मार्ग दर्शन करने में सक्षम है।

नक्षत्रों में शुभ मुहूर्त की चर्चा



नक्षत्रों के दर्पण में शुभ मुहूर्त मुंडन तथा विद्यारंभ जैसे संस्कारों के लिए तथा दुकान खोलने, सामान खरीदने-बेचने और ऋण तथा भूमि के लेन-देन और नये-पुराने मकान में प्रवेश के साथ यात्रा विचार और अन्य अनेक शुभ कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों के साथ-साथ कुछ तिथियों तथा वारों का संयोग उनकी शुभता सुनिश्चित करता है। नक्षत्र ही भारतीय ज्योतिष का वह आधार है जो हमारे दैनिक जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों को प्रभावित करता है। अतः हमें कोई भी कार्य करते हुए उससे संबंधित शुभ नक्षत्रों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए जिससे हम सभी कष्ट एवं विघ्न बाधाओं से दूर रहकर नयी ऊर्जा को सफल उद्देश्य के लिए लगा सकें। विभिन्न कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों को जानना आवश्यक है। नामकरण के लिए : संक्रांति के दिन तथा भद्रा को छोड़कर 1, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 12, 13 तिथियों में, जन्मकाल से ग्यारहवें या बारहवें दिन, सोमवार, बुधवार अथवा शुक्रवार को तथा जिस दिन अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, अभिजित, पुष्य, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा इनमें से किसी नक्षत्र में चंद्रमा हो, बच्चे का नामकरण करना चाहिए। मुण्डन के लिए : जन्मकाल से अथवा गर्भाधान काल से तीसरे अथवा सातवें वर्ष में, चैत्र को छोड़कर उत्तरायण सूर्य में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार को ज्येष्ठा, मृगशिरा, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, अश्विनी, अभिजित व पुष्य नक्षत्रों में, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तिथियों में बच्चे का मुंडन संस्कार करना चाहिए। ज्येष्ठ लड़के का मुंडन ज्येष्ठ मास में वर्जित है। लड़के की माता को पांच मास का गर्भ हो तो भी मुण्डन वर्जित है। विद्या आरंभ के लिए : उत्तरायण में (कुंभ का सूर्य छोड़कर) बुध, बृहस्पतिवार, शुक्रवार या रविवार को, 2, 3, 5,6, 10, 11, 12 तिथियों में पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मूल, पूष्य, अनुराधा, आश्लेषा, रेवती, अश्विनी नक्षत्रों में विद्या प्रारंभ करना शुभ होता है। दुकान खोलने के लिए : हस्त, चित्रा, रोहिणी, रेवती, तीनों उत्तरा, पुष्य, अश्विनी, अभिजित् इन नक्षत्रों में, 4, 9, 14, 30 इन तिथियों को छोड़कर अन्य तिथियों में, मंगलवार को छोड़कर अन्य वारों में, कुंभ लग्न को छोड़कर अन्य लग्नों में दुकान खोलना शुभ है। ध्यान रहे कि दुकान खोलने वाले व्यक्ति की अपनी जन्मकुंडली के अनुसार ग्रह दशा अच्छी होनी चाहिए। कोई वस्तु/सामान खरीदने के लिए : रेवती, शतभिषा, अश्विनी, स्वाति, श्रवण, चित्रा, नक्षत्रों में वस्तु/सामान खरीदना चाहिए। कोई वस्तु बेचने के लिए : पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, कृत्तिका, आश्लेषा, विशाखा, मघा नक्षत्रों में कोई वस्तु बेचने से लाभ होता है। वारों में बृहस्पतिवार और सोमवार शुभ माने गये हैं। ऋण लेने-देने के लिए : मंगलवार, संक्रांति दिन, हस्त वाले दिन रविवार को ऋण लेने पर ऋण से कभी मुक्ति नहीं मिलती। मंगलवार को ऋण वापस करना अच्छा है। बुधवार को धन नहीं देना चाहिए। कृत्तिका, रोहिणी, आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तरा तीनों, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल नक्षत्रों में, भद्रा, अमावस में गया धन, फिर वापस नहीं मिलता बल्कि झगड़ा बढ़ जाता है। भूमि के लेन-देन के लिए : आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, मूल, विशाखा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में, बृहस्पतिवार, शुक्रवार 1, 5, 6, 11, 15 तिथि को घर जमीन का सौदा करना शुभ है। नूतन ग्रह प्रवेश : फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ मास में, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती नक्षत्रों में, रिक्ता तिथियों को छोड़कर सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को नये घर में प्रवेश करना शुभ होता है। (सामान्यतया रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ा, चित्रा व उ. भाद्रपद में) करना चाहिए। यात्रा विचार : अश्विनी, मृगशिरा, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्रों में यात्रा शुभ है। रोहिणी, ज्येष्ठा, उत्तरा-3, पूर्वा-3, मूल मध्यम हैं। भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मघा, आश्लेषा, चित्रा, स्वाति, विशाखा निन्दित हैं। मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रिक्ता और दिक्शूल को छोड़कर सर्वदा सब दिशाओं में यात्रा शुभ है। जन्म लग्न तथा जन्म राशि से अष्टम लग्न होने पर यात्रा नहीं करनी चाहिए। यात्रा मुहूर्त में दिशाशूल, योगिनी, राहुकाल, चंद्र-वास का विचार अवश्य करना चाहिए। वाहन (गाड़ी) मोटर साइकिल, स्कूटर चलाने का मुहूर्त : अश्विनी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, पुनर्वसु, पुष्य, ज्येष्ठा, रेवती नक्षत्रों में सोमवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार व शुभ तिथियों में गाड़ी, मोटर साइकिल, स्कूटर चलाना शुभ है। कृषि (हल-चलाने तथा बीजारोपण) के लिए : अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरा तीनों, अभिजित, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, मूल, धनिष्ठा, रेवती, इन नक्षत्रों में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को, 1, 5, 7, 10, 11, 13, 15 तिथियों में हल चलाना व बीजारोपण करना चाहिए। फसल काटने के लिए : भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मृगशिरा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, हस्त, चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठा, मूल, पू.फाल्गुनी, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा तीनों, नक्षत्रों में, 4, 9, 14 तिथियों को छोड़कर अन्य शुभ तिथियों में फसल काटनी चाहिए। कुआँ खुदवाना व नलकूप लगवाना : रेवती, हस्त, उत्तरा भाद्रपद, अनुराधा, मघा, श्रवण, रोहिणी एवं पुष्य नक्षत्र में नलकूप लगवाना चाहिए। नये-वस्त्र धारण करना : अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, धनिष्ठा, रेवती शुभ हैं। नींव रखना : रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, हस्त, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा एवं श्रवण नक्षत्र में मकान की नींव रखनी चाहिए। मुखय द्वार स्थापित करना : रोहिणी, मृगशिरा, उ.फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद एवं रेवती में स्थापित करना चाहिए। मकान खरीदना : बना-बनाया मकान खरीदने के लिए मृगशिरा, आश्लेषा, मघा, विशाखा, मूल, पुनर्वसु एवं रेवती नक्षत्र उत्तम हैं। उपचार शुरु करना : किसी भी क्रोनिक रोग के उपचार हेतु अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, हस्त, उत्तराभाद्रपद, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा एवं रेवती शुभ हैं। आप्रेशन के लिए : आर्द्रा, ज्येष्ठा, आश्लेषा एवं मूल नक्षत्र ठीक है। विवाह के लिए : रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती शुभ हैं। दैनिक जीवन में शुभता व सफलता प्राप्ति हेतु नक्षत्रों का उपयोगी एवं व्यावहारिक ज्ञान बहुत जरूरी है। वास्तव में सभी नक्षत्र सृजनात्मक, रक्षात्मक एवं विध्वंसात्मक शक्तियों का मूल स्रोत हैं। अतः नक्षत्र ही वह सद्शक्ति है जो विघ्नों, बाधाओं और दुष्प्रभावों को दूर करके हमारा मार्ग दर्शन करने में सक्षम है।

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Tuesday 19 April 2016

माता-पिता के हाथों से संतान की शिक्षा का संबंध

यदि माता-पिता के हाथों में जीवन रेखा का जोड़ शृंखलाबद्ध होकर लंबा हो या दबाव पड़ रहा है तो इनके बच्चों की निर्णय शक्ति कमजोर पायी जाती है। इन्हें किसी भी काम के लिये दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इनके लिये व्यवसाय करना भी कठिन होता है। ये जल्दबाज होते हैं और इनकी पढ़ाई अधूरी रह जाती है। अगर उंगली छोटी हो तो मानसिक स्थिति पर भी प्रभाव पड़ता है। यदि मस्तिष्क रेखा और अधिक दूर तक हो और दोनों बिल्कुल अलग हो तो ऐसी संतान समझदार होती है, प्रत्येक कार्य को सोच समझकर करती है, शीघ्र निर्णय लेती है। अगर हाथ ज्यादा लंबा हो तो विचारते ज्यादा हैं, कार्य को करने में समय ज्यादा लगाते हैं। जीवन रेखा गोलाई लिये और मस्तिक रेखा उच्च के चंद्रमा पर जा रही हो और हृदय रेखा भी अच्छी हो और शनि को छू रही हो तो यदि ऐसे बच्चों को सही रास्ता मिले तो जगत में अपनी अच्छी पहचान बनाते हैं, बहुत ही उन्नति के शिखर पर चले जाते हैं। मस्तिष्क रेखा अगर मंगल की ओर जा रही हो तो यह योग्य संतान के लक्षण हैं। इन लोगों के बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सफलता प्राप्त करते हैं। अगर मस्तिष्क रेखा जीवन रेखा से अलग हो तो ये व्यावसायिक शिक्षा लेते हैं। यदि बृहस्पति क्षेत्र उन्नत हो, मस्तिष्क रेखा बृहस्पति से निकल रही हो, उंगली पतली हो तो अपने गुणों में अच्छे होते हैं। चतुर वाक् शक्ति होती है, ये बच्चे नेतागिरी में भी आते हैं। यदि किसी के पिता का बृहस्पति क्षेत्र अच्छा, सूर्य की उंगली सीधी हो, गुरु की उंगली सूर्य की उंगली से बड़ा हो तो इनको धीरे-धीरे तरक्की मिलती है। शिक्षा तो पूरी करते हैं किंतु कोई न कोई समस्या आती है जिससे शिक्षा प्रभावित होती है। यदि हृदय रेखा दूषित हो, साथ में मस्तिष्क रेखा भी दूषित हो, शुक्र क्षेत्र और चंद्र क्षेत्र ज्यादा हो तो पढ़ाई में कम ध्यान देते हैं। ऐसे बच्चों पर शिक्षा के लिये अधिक दबाव डालना चाहिये। यदि पिता के हाथ में मस्तिष्क रेखा एकदम मुड़कर, झुककर जाये तो इनकी संतान भी भावुक होती है। छोटी-छोटी बातों को मन पर लगाने की आदत होती है। शनि के नीचे रेखा टूटी हो या कोई द्वीप हो तो शिक्षा अधूरी रह जाती है। यदि मस्तिष्क रेखा चंद्र के ठीक बीच में जा रही हो, बृहस्पति क्षेत्र उच्च हो, हाथ नरम, रंग साफ, गुलाबी या सफेद उज्ज्वल हो तो बच्चे शिक्षा में अच्छा नाम करते हैं और अध्यात्म की ओर भी कुछ न कुछ अवश्य ही करते हैं। यदि हाथ टेढ़ा हो, काला हो या ज्यादा लाल रंग का हो तो संतान में चोरों वाली हरकतें आती हैं, शिक्षा अधूरी रहती है, चोरी चक्कारी के आदी हो जाते हैं। यदि भाग्य रेखा पर द्वीपयुक्त रेखा हो तो हर क्षेत्र में रूकावट, कष्ट उठाने पड़ते हैं तथा व्यापार में, विवाह में भी बाधा आती है। यदि भाग्य रेखा अच्छी हो, एक से ज्यादा हो तो संतान योग्य बनती है। हाथ अच्छा गुलाबी रंग का हो तो आय के साधन बच्चों को विरासत में मिलते हैं।

कारकांश लग्न और राशियों के हाल

ज्योतिष की अनेकों विद्याओं में से एक विद्या जैमिनी ज्योतिष भी है जिसे जैमिनी ऋषियों द्वारा उपदेश सूत्रों के रूप में दिया गया है यह विद्या पराशरीय प्रणाली से विभिन्न होते हुये भी काफी सटीक व सूक्ष्म फलित व गणित कर पाने में सक्षम है दक्षिण भारत में इस प्रणाली का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है इस जैमिनी ज्योतिषीय प्रणाली में कुछ अलग प्रकार के नियम व सिद्धांत रखे गये हैं जिनको समझ पाना थोड़ा दुष्कर प्रतीत होता है | कारकांश लग्न: जन्मपत्री में जिस ग्रह के अंश सबसे ज्यादा होते हैं उसे जैमिनी पद्धति में आत्मकारक कहा जाता है। यह आत्मकारक ग्रह नवांश कुंडली में जिस राशि में बैठा होता है उस राशि को यदि हम लग्न मान लें तो वह कारकांश लग्न कहलाता है यह कारकांश लग्न जातक के विषय में काफी सही व सटीक जानकारी प्रेषित करता है। जहां जन्म कुंडली का लग्न यह बताता है कि हम क्या बनना चाहते हंै वही कारकांश लग्न यह बताता है कि हम वास्तव में क्या है। इस कारकांश लग्न के द्वारा जैमिनी सूत्रों में बहुत सी जानकारी दी गई है जो हमने अपने प्रयासों और अनुभवों में काफी सही पाई परन्तु थोड़े से आधुनिक रूप के संदर्भों में इसमें बदलाव भी करने पड़े जिससे फलित काफी सटीक प्राप्त हुआ है। आइये इस कारकांश से संबंधित कुछ जानकारियां प्राप्त करते हैं। कारकांश लग्न से प्रत्येक भाव की विवेचना जन्मपत्री के लग्न के समान ही की जाती है जैसे विवाह हेतु सप्तम भाव व आजीविका हेतु दशम भाव का ही अध्ययन किया जाता है। कारकांश लग्न में उपस्थित राशि निम्न तरह की प्रकृति बताती है। 1. मेषः जातक के जीवन में पशुओं का प्रभाव रहता है आधुनिक संदर्भ में इसे चल सम्पत्ति माना जा सकता है। 2. वृष: खेती, दुग्ध व्यवसाय, वाहन आदि से लाभ प्राप्ति। 3. मिथुनः त्वचा रोग, मोटापा, गायन व विचारक प्रवृत्ति। 4. कर्क: जल से प्रभावित रहने वाला। 5. सिंह: जीवन क्षेत्र में काफी उतार-चढ़ाव रहेंगे। 6. कन्या: अग्नि से भय, त्वचा रोगी अथवा डाॅक्टर, गायक। 7. तुला: व्यापार करने वाला। 8. वृश्चिक: विषैली दवा से कष्ट प्राप्ति तथा माँ का सुख प्राप्त न करने वाला। 9. धनु: उठापटक तथा दण्ड प्राप्ति भरा जीवन पाने वाला। 10. मकर: दुष्टजनों से कष्ट प्राप्त कर परिवर्तन करता रहता है। 11. कुंभ: सबकी सहायता करने वाला तथा समाज को सुविधा प्रदान करता है। 12. मीन: मोक्ष का अभिलाषी व त्यागी प्रवृत्ति वाला। यदि राशि अनुसार प्रकृति देखे तो जातक का कारकांश लग्न उसकी सोच व उसकी विशेषता (फितरत) अवश्य उचित तरीके से बताता है। अब कारकांश लग्न में बैठे ग्रह का प्रभाव देखते हैं कि जब इस लग्न में ग्रह स्थित हो तो जातक कैसा होगा। 1. सूर्य: राजा अथवा सरकार का सेवक। 2. चंद्र और शुक्र: राजयोग वाला तथा सब भोगों को भोगने वाला। 3. मंगल: अग्नि, रसायन, आयुध कार्य चाहने वाला। 4. बुध: कलाकार, शिल्पकार, व्यापारी, बुनाई वाला, आई.ए.एस.। 5. गुरू: अध्यापक, मंत्री, उपदेशक, पण्डित प्रभाव वाला, वकील। 6. शनि: प्रसिद्ध, लोकप्रिय, परिवारिक व्यवसाय करने वाला, लेखक। 7. राहु: मशीनरी व इलेक्ट्राॅनिक्स कार्य करने वाला। 8. केतु: सूक्ष्म यंत्रों का जानकार, व्यवसायी, आध्यात्मिक व्यक्ति। कारकांश लग्न पर आधारित फल कथन - 1. कारकांश लग्न के 2, 12, 3, 11, 4, 10 या 5, 9 भावों में बराबर-बराबर संख्या में ग्रह हो तो व्यक्ति को कारावास होती है। 2. यदि कारकांश लग्न से चैथे भाव में, शुक्र और चंद्र हो, कोई उच्च का ग्रह हो, राहु और शनि हो तो जातक आलीशान मकान का स्वामी होता है। 3. कारकांश लग्न से नवम भाव में शुभ ग्रह हो या उसकी दृष्टि हो तो जातक अपने गुरूओं व बड़ों का आदर करने वाला, गुणवान व सत्यप्रिय होता है। (यहां दृष्टि जैमिनी वाली होनी चाहिये, पराशरीय नहीं)। 4. कारकांश लग्न से पांचवें भाव में गुरु हो तो भाषा का जानकार, केतु हो तो जातक गणितज्ञ होता है। 5. कारकांश लग्न से सप्तम में शनि हो तो पत्नी उम्र में बड़ी होती है, मंगल हो तो विकलांग तथा राहु हो तो तलाकशुदा अथवा विधवा हो सकती है। 6. कारकांश लग्न से दशम में बुध हो या बुध की दृष्टि हो तो जातक प्रसिद्धिवान होता है। 7. कारकांश लग्न पर सूर्य और शुक्र की दृष्टि हो तो जातक सरकारी सेवा में होता है। 8. कारकांश लग्न से पंचम भाव में गुरु व चंद्र हो तो जातक ग्रंथों की रचना करता है। 9. कारकांश लग्न में केतु हो और उस पर शुक्र की दृष्टि हो तो जातक धर्मगुरु होता है। तंत्र-मंत्र की साधना करता है। 10. यदि कारकांश लग्न के द्वितीय भाव में केतु हो तो वाणी लडखड़ाती है (हकलाना, तुतलापन आदि) 11. कारकांश लग्न से केतु अष्टम में हो तो पैतृक संपत्ति नहीं मिलती है। कारकांश लग्न पर आधारित हमारे शोध द्वारा फलकथन: हमने अपने अनुभवों में कारकांश लग्न से कुछ अन्य तत्व भी पाये हैं आशा है हमारे पाठक इन पर अपनी-अपनी बुद्धि अनुसार प्रकाश डालेंगे व शोध करेंगे। 1.कारकांश लग्न की राशि दशा हमेशा कष्ट प्रदान करती है। 2.कारकांश लग्न में केतु हो तो जातक विधवा स्त्री से विवाह करता है तथा व्यापारी होता है। 3.कारकांश लग्न में बुध हो तो जातक मूर्ति बनाने का कार्य सिखता है परंतु करता नहीं। 4.कारकांश लग्न में किसी भी भाव में सूर्य राहु की युति हो तो जातक सर्प भय से डरता रहता है तथा सांपों से खुद को डसा हुआ मानता है। 5.कारकांश लग्न से शनि केन्द्र में हो तो जातक प्रसिद्धि पाता है। 6.कारकांश लग्न से पंचम भाव पर शुक्र और गुरु की जैमिनी दृष्टि शास्त्रीय कला का ज्ञान अवश्य दिलाती है। 7.कारकांश लग्न का द्वितीय व ग्यारहवां भाव शुभ हो, बली हो तो जातक धनवान होता है। 8.कारकांश लग्न से बारहवां भाव बली हो तो जातक कमाता नहीं है।

नजर दोष प्रभाव व् ज्योतिष्य निदान

प्रायः सभी धर्मग्रंथों में ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि का उल्लेख है। कुछ ग्रंथों में इन्हें बुरी आत्मा कहा गया है तो कुछ अन्य में भूत-प्रेत और जिन्न। ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार गुरु पितृदोष, शनि यमदोष, चंद्र व शुक्र जल देवी दोष, राहु सर्प व प्रेत दोष, मंगल शाकिनी दोष, सूर्य देव दोष एवं बुध कुल देवता दोष का कारक होता है। राहु, शनि व केतु ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह हैं। जब किसी व्यक्ति के लग्न (शरीर), गुरु (ज्ञान), त्रिकोण (धर्म भाव) तथा द्विस्वभाव राशियों पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, तो उस पर ऊपरी हवा की संभावना होती है। लक्षण नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति का शरीर कंपकंपाता रहता है। वह अक्सर ज्वर, मिरगी आदि से ग्रस्त रहता है। कब और किन स्थितियों में डालती हैं ऊपरी हवाएं किसी व्यक्ति पर अपना प्रभाव? जब कोई व्यक्ति दूध पीकर या कोई सफेद मिठाई खाकर किसी चैराहे पर जाता है, तब ऊपरी हवाएं उस पर अपना प्रभाव डालती हैं। गंदी जगहों पर इन हवाओं का वास होता है, इसीलिए ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों को ये हवाएं अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन हवाओं का प्रभाव रजस्वला स्त्रियों पर भी पड़ता है। कुएं, बावड़ी आदि पर भी इनका वास होता है। विवाह व अन्य मांगलिक कार्यों के अवसर पर ये हवाएं सक्रिय होती हैं। इसके अतिरिक्त रात और दिन के 12 बजे दरवाजे की चैखट पर इनका प्रभाव होता है। दूध व सफेद मिठाई चंद्र के द्योतक हैं। चैराहा राहु का द्योतक है। चंद्र राहु का शत्रु है। अतः जब कोई व्यक्ति उक्त चीजों का सेवन कर चैराहे पर जाता है, तो उस पर ऊपरी हवाओं के प्रभाव की संभावना रहती है। कोई स्त्री जब रजस्वला होती है, तब उसका चंद्र व मंगल दोनों दुर्बल हो जाते हैं। ये दोनों राहु व शनि के शत्रु हैं। रजस्वलावस्था में स्त्री अशुद्ध होती है और अशुद्धता राहु की द्योतक है। ऐसे में उस स्त्री पर ऊपरी हवाओं के प्रकोप की संभावना रहती है। कुएं एवं बावड़ी का अर्थ होता है जल स्थान और चंद्र जल स्थान का कारक है। चंद्र राहु का शत्रु है, इसीलिए ऐसे स्थानों पर ऊपरी हवाओं का प्रभाव होता है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली के किसी भाव विशेष पर सूर्य, गुरु, चंद्र व मंगल का प्रभाव होता है, तब उसके घर विवाह व मांगलिक कार्य के अवसर आते हैं। ये सभी ग्रह शनि व राहु के शत्रु हैं, अतः मांगलिक अवसरों पर ऊपरी हवाएं व्यक्ति को परेशान कर सकती हैं। दिन व रात के 12 बजे सूर्य व चंद्र अपने पूर्ण बल की अवस्था में होते हैं। शनि व राहु इनके शत्रु हैं, अतः इन्हें प्रभावित करते हैं। दरवाजे की चैखट राहु की द्योतक है। अतः जब राहु क्षेत्र में चंद्र या सूर्य को बल मिलता है, तो ऊपरी हवा सक्रिय होने की संभावना प्रबल होती है। मनुष्य की दायीं आंख पर सूर्य का और बायीं पर चंद्र का नियंत्रण होता है। इसलिए ऊपरी हवाओं का प्रभाव सबसे पहले आंखों पर ही पड़ता है। यहां ऊपरी हवाओं से संबद्ध ग्रहों, भावों आदि का विश्लेषण प्रस्तुत है। राहु-केतु: जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, शनिवत राहु ऊपरी हवाओं का कारक है। यह प्रेत बाधा का सबसे प्रमुख कारक है। इस ग्रह का प्रभाव जब भी मन, शरीर, ज्ञान, धर्म, आत्मा आदि के भावों पर होता है, तो ऊपरी हवाएं सक्रिय होती हैं। शनि: इसे भी राहु के समान माना गया है। यह भी उक्त भावों से संबंध बनाकर भूत-प्रेत पीड़ा देता है। चंद्र: मन पर जब पाप ग्रहों राहु और शनि का दूषित प्रभाव होता है और अशुभ भाव स्थित चंद्र बलहीन होता है, तब व्यक्ति भूत-प्रेत पीड़ा से ग्रस्त होता है।गुरु: गुरु सात्विक ग्रह है। शनि, राहु या केतु से संबंध होने पर यह दुर्बल हो जाता है। इसकी दुर्बल स्थिति में ऊपरी हवाएं जातक पर अपना प्रभाव डालती हैं। लग्न: यह जातक के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है। इसका संबंध ऊपरी हवाओं के कारक राहु, शनि या केतु से हो या इस पर मंगल का पाप प्रभाव प्रबल हो, तो व्यक्ति के ऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना बनती है। पंचम: पंचम भाव से पूर्व जन्म के संचित कर्मों का विचार किया जाता है। इस भाव पर जब ऊपरी हवाओं के कारक पाप ग्रहों का प्रभाव पड़ता है, तो इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों में कमी है। अच्छे कर्म अल्प हों, तो प्रेत बाधा योग बनता है। अष्टम: इस भाव को गूढ़ विद्याओं व आयु तथा मृत्यु का भाव भी कहते हैं। इसमें चंद्र और पापग्रह या ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह का संबंध प्रेत बाधा को जन्म देता है। नवम: यह धर्म भाव है। पूर्व जन्म में पुण्य कर्मों में कमी रही हो, तो यह भाव दुर्बल होता है। राशियां: जन्म कुंडली में द्विस्वभाव राशियों मिथुन, कन्या और मीन पर वायु तत्व ग्रहों का प्रभाव हो, तो प्रे्रत बाधा होती है। वार: शनिवार, मंगलवार, रविवार को प्रेत बाधा की संभावनाएं प्रबल होती हैं। तिथि: रिक्ता तिथि एवं अमावस्या प्रेत बाधा को जन्म देती है। नक्षत्र: वायु संज्ञक नक्षत्र प्रेत बाधा के कारक होते हैं। योग: विष्कुम्भ, व्याघात, ऐंद्र, व्यतिपात, शूल आदि योग प्रेत बाधा को जन्म देते हैं। करण: विष्टि, किस्तुघ्न और नाग करणों के कारण व्यक्ति प्रेत बाधा से ग्रस्त होता है। दशाएं: मुख्यतः शनि, राहु, अष्टमेश व राहु तथा केतु से पूर्णतः प्रभावित ग्रहों की दशांतर्दशा में व्यक्ति के भूत-प्रेत बाधाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। युति किसी स्त्री के सप्तम भाव में शनि, मंगल और राहु या केतु की युति हो, तो उसके पिशाच पीड़ा से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। गुरु नीच राशि अथवा नीच राशि के नवांश में हो, या राहु से युत हो और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो जातक की चांडाल प्रवृत्ति होती है। पंचम भाव में शनि का संबंध बने तो व्यक्ति प्रेत एवं क्षुद्र देवियों की भक्ति करता है। ऊपरी हवाओं के कुछ अन्य मुख्य ज्योतिषीय योग यदि लग्न, पंचम, षष्ठ, अष्टम या नवम भाव पर राहु, केतु, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र आदि का प्रभाव हो, तो जातक के ऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। यदि उक्त ग्रहों का परस्पर संबंध हो, तो जातक प्रेत आदि से पीड़ित हो सकता है। यदि पंचम भाव में सूर्य और शनि की युति हो, सप्तम में क्षीण चंद्र हो तथा द्वादश में गुरु हो, तो इस स्थिति में भी व्यक्ति प्रेत बाधा का शिकार होता है।यदि लग्न पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि हो, लग्न निर्बल हो, लग्नेश पाप स्थान में हो अथवा राहु या केतु से युत हो, तो जातक जादू-टोने से पीड़ित होता है। लग्न में राहु के साथ चंद्र हो तथा त्रिकोण में मंगल, शनि अथवा कोई अन्य क्रूर ग्रह हो, तो जातक भूत-प्रेत आदि से पीड़ित होता है। यदि षष्ठेश लग्न में हो, लग्न निर्बल हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो, तो जातक जादू-टोने से पीड़ित होता है। यदि लग्न पर किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तो जादू-टोने से पीड़ित होने की संभावना प्रबल होती है। षष्ठेश के सप्तम या दशम में स्थित होने पर भी जातक जादू-टोने से पीड़ित हो सकता है।यदि लग्न में राहु, पंचम में शनि तथा अष्टम में गुरु हो, तो जातक प्रेत शाप से पीड़ित होता है। ऊपरी हवाओं के प्रभाव से मुक्ति के सरल उपाय ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु शास्त्रों में अनेक उपाय बताए गए हैं। अथर्ववेद में इस हेतु कई मंत्रों व स्तुतियों का उल्लेख है। आयुर्वेद में भी इन हवाओं से मुक्ति के उपायों का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहां कुछ प्रमुख सरल एवं प्रभावशाली उपायों का विवरण प्रस्तुत है। ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु हनुमान चालीसा का पाठ और गायत्री का जप तथा हवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अग्नि तथा लाल मिर्ची जलानी चाहिए। रोज सूर्यास्त के समय एक साफ-सुथरे बर्तन में गाय का आधा किलो कच्चा दूध लेकर उसमें शुद्ध शहद की नौ बूंदें मिला लें। फिर स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर मकान की छत से नीचे तक प्रत्येक कमरे, जीने, गैलरी आदि में उस दूध के छींटे देते हुए द्वार तक आएं और बचे हुए दूध को मुख्य द्वार के बाहर गिरा दें। क्रिया के दौरान इष्टदेव का स्मरण करते रहें। यह क्रिया इक्कीस दिन तक नियमित रूप से करें, घर पर प्रभावी ऊपरी हवाएं दूर हो जाएंगी। रविवार को बांह पर काले धतूरे की जड़ बांधें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी। लहसुन के रस में हींग घोलकर आंख में डालने या सुंघाने से पीड़ित व्यक्ति को ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिल जाती है।ऊपरी बाधाओं से मुक्ति हेतु निम्नोक्त मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। ‘‘¬ नमो भगवते रुद्राय नमः कोशेश्वस्य नमो ज्योति पंतगाय नमो रुद्राय नमः सिद्धि स्वाहा।’’घर के मुख्य द्वार के समीप श्वेतार्क का पौधा लगाएं, घर ऊपरी हवाओं से मुक्त रहेगा। उपले या लकड़ी के कोयले जलाकर उसमें धूनी की विशिष्ट वस्तुएं डालें और उससे उत्पन्न होने वाला धुआं पीड़ित व्यक्ति को सुंघाएं। यह क्रिया किसी ऐसे व्यक्ति से करवाएं जो अनुभवी हो और जिसमें पर्याप्त आत्मबल हो। प्रातः काल बीज मंत्र ‘क्लीं’ का उच्चारण करते हुए काली मिर्च के नौ दाने सिर पर से घुमाकर दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें, ऊपरी बला दूर हो जाएगी। रविवार को स्नानादि से निवृत्त होकर काले कपड़े की छोटी थैली में तुलसी के आठ पत्ते आठ काली मिर्च और सहदेई की जड़ बांधकर गले में धारण करें, नजर दोष बाधा से मुक्ति मिलेगी। निम्नोक्त मंत्र का 108 बार जप करके सरसों का तेल अभिमंत्रित कर लें और उससे पीड़ित व्यक्ति के शरीर पर मालिश करें, व्यकित पीड़ामुक्त हो जाएगा। मंत्र: ¬ नमो काली कपाला देहि देहि स्वाहा। ऊपरी हवाओं के शक्तिषाली होने की स्थिति में शाबर मंत्रों का जप एवं प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के पूर्व इन मंत्रों का दीपावली की रात को अथवा होलिका दहन की रात को जलती हुई होली के सामने या फिर श्मषान में 108 बार जप कर इन्हें सिद्ध कर लेना चाहिए। यहां यह उल्लेख कर देना आवष्यक है कि इन्हें सिद्ध करने के इच्छुक साधकों में पर्याप्त आत्मबल होना चाहिए, अन्यथा हानि हो सकती है। निम्न मंत्र से थोड़ा-सा जीरा 7 बार अभिमंत्रित कर रोगी के शरीर से स्पर्श कराएं और उसे अग्नि में डाल दें। रोगी को इस स्थिति में बैठाना चाहिए कि उसका धूंआ उसके मुख के सामने आये। इस प्रयोग से भूत-प्रेत बाधा की निवृति होती है। मंत्र: जीरा जीरा महाजीरा जिरिया चलाय। जिरिया की शक्ति से फलानी चलि जाय।। जीये तो रमटले मोहे तो मशान टले। हमरे जीरा मंत्र से अमुख अंग भूत चले।। जाय हुक्म पाडुआ पीर की दोहाई।। एक मुट्ठी धूल को निम्नोक्त मंत्र से 3 बार अभिमंत्रित करें और नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति पर फेंकें, व्यक्ति को दोष से मुक्ति मिलेगी। मंत्र: तह कुठठ इलाही का बान। कूडूम की पत्ती चिरावन। भाग भाग अमुक अंक से भूत। मारुं धुलावन कृष्ण वरपूत। आज्ञा कामरु कामाख्या। हारि दासीचण्डदोहाई। थोड़ी सी हल्दी को 3 बार निम्नलिखित मंत्र से अभिमंत्रित करके अग्नि में इस तरह छोड़ें कि उसका धुआं रोगी के मुख की ओर जाए। इसे हल्दी बाण मंत्र कहते हैं। हल्दी गीरी बाण बाण को लिया हाथ उठाय। हल्दी बाण से नीलगिरी पहाड़ थहराय।। यह सब देख बोलत बीर हनुमान। डाइन योगिनी भूत प्रेत मुंड काटौ तान।। आज्ञा कामरु कामाक्षा माई। आज्ञा हाड़ि की चंडी की दोहाई।। जौ, तिल, सफेद सरसों, गेहूं, चावल, मूंग, चना, कुष, शमी, आम्र, डुंबरक पत्ते और अषोक, धतूरे, दूर्वा, आक व ओगां की जड़ को मिला लें और उसमें दूध, घी, मधु और गोमूत्र मिलाकर मिश्रण तैयार कर लें। फिर संध्या काल में हवन करें और निम्न मंत्रों का 108 बार जप कर इस मिश्रण से 108 आहुतियां दें। मंत्र: नमः भवे भास्कराय आस्माक अमुक सर्व ग्रहणं पीड़ा नाशनं कुरु-कुरु स्वाहा।

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Saturday 16 April 2016

संस्कार और नैतिक मूल्य सिर्फ लड़कियों को ही क्यूँ ??



अब जब हर जगह भौतिक सुख साधन तो है किनती आत्म सुख तथा शांति कहीं दिखाई नहीं देती | आज आधुनिकता के दौड़ में लोग लड़का और लड़की की बात तो करते है किन्तु जब शिक्षा या संस्कार की बात आती है तो लड़कों और लड़कियों में भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देता है | महिलाओं के बारे में तो व्यापक विचार-विमर्श हुआ, वे पढ़े लिखे , आत्मनिर्भर बने, संस्कारी बने, आधुनिक चीजों को जाने, पर इस पूरी कवायाद में हम लड़कों के बारें में विचार, करना ही भूल गए | कहीं कहीं न कहीं ये बात लोगों के मन में घर कर बैठी है की आखिर लड़कों की चिंता करने की जरुरत ही क्या है ?
आज जब हम समाज पर पुरूष वर्ग विशेषकर लडक़ों की भूमिका तथा उसका समाज के सामान्य जीवनचर्या पर असर का अध्ययन करें तो सबसे पहले देंखेंगे कि हमेशा से ही प्रधान तो पुरुष ही रहा है। क्योंकि मैं एक ज्योतिषी हूँ, सब बातों में ज्योतिष का पुट देखना मेरी आदत में शामिल है। अत: इस मुद्दे पर भी जब हम ज्योतिषीय नजरिया डालें तो हम देखते हैं कि समाज में पुरुषो ंका ही बोलबाला रहा है। कालपुरूष की कुंडली में हम लग्न को पुरूष और उसके सप्तम स्थान को महिला मानें तो हम देखते हैं कि लग्न अर्थात मेष और सप्तम अर्थात तुला राशि में मेष का राशि स्वामी मंगल और तुला का राशि स्वामी शुक्र होता है। सीधा सा मतलब है कि प्राकृतिक रूप से ही पुरूष बलवान, क्रूर तथा साहसी और महिला नाजुक, सौम्य और सहनशील है। इसमें भी हम देखें कि निर्भया कांड 2012 में जब हुआ, हालांकि इससे पहले भी और आज भी इस प्रकार की दुर्घटनाएँ निरंतर जारी है। किंतु ये एक ऐसी निर्मम बात थी, जिसे सोच या याद कर सभी की रूह तक कांप जाती है। किंतु करने वालों के मन में जरा भी क्लेश नहीं और ना ही किसी के मन में जरा भी सहिष्णुता दिखाई दी। आज भी ये घटनाएँ लखनउ से लेकर दिल्ली तक रोहतक से लेकर शेखपुरा तक बदस्तूर जारी है। हम देखें कि 2012 में अष्टम में स्थित राहु से पापाक्रांत शुक्र और बुध तथा मंगल शनि से आक्रांत है, इसका सीधा सा मतलब जिद्द के साथ क्रूरता और बुद्धि का हृास। आज समाज में लगातार बढ़ रही हिंसा, दुव्र्यवहार, शोषण, लूट-पाट, भौतिकता का पागलपन जिसके पाने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। अब जब सडक़ या सुनसान जगह ही नहीं अपना स्वयं का घर या स्वयं अपने लोग ही किसी की सुरक्षा की गारंटी नहीं रह गए हैं उस समाज में क्या होगा भविष्य। आज ना ही बुजुर्ग लोग ना बच्चे और ना ही लडक़ी या महिला सुरक्षित है।
ये समाज ही नहीं अपितु प्रकृति प्रदत्त भी है। ज्योतिषीय रूप में देखें तो पुरूष अर्थात मेष लग्न का मंगल और कन्या अर्थात तुला, मतलब शुक्र, मतलब बल का अंतर प्रकृति प्रदत्त है। इसी प्रकार मेष लग्न से तीसरा स्थान बुध और तुला से तीसरा स्थान धनु मतलब बुध और बृहस्पति मतलब सोच का अंतर बुध जहां तनाव और एडिक्शन देता है। वहीं गुरू संतुलित व्यवहार प्रदान करता है। इसी प्रकार मेष से एकादश अर्थात दैनिक दिनचर्या को देखें तो शनि और तुला से एकादश स्थान सूर्य अर्थात दैनिक जीवन में भी सूर्य की गंभीरता लड़कियों को ज्यादा एकाग्र बनाता है वहीं शनि जिद्द और भटकाव देता है। इस प्रकार कुंडली के द्वादश भाव से सभी प्रकार के व्यवहारिक भावनाओं को दर्शाता है। इस लिए जब भी किसी परिवार में लडक़ो और लड़कियों को शिक्षा तथा संस्कार देने की बात हो तो उनकी प्रकृति के अनुरूप समाज तथा समय-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हमेशा ही अनुशासन एवं नियम का पालन कराने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार कुंडली के अनुसार सामाजिक रूप से पनप रहे अन्याय और अव्यवस्था को रोकने हेतु लडक़ों के जीवन में भी अनुशासन, सहिष्णुता का पालन कराने हेतु उपाय आजमाने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि यह प्रकृति का न्याय है और यह कई बार समाज में लडक़ों के अनुसार कई बार लड़कियों एवं कई लड़कियों का व्यवहार लडक़ों के व्यवहार से प्रेरित होता है किंतु यह अपवाद स्वरूप ही होता है। हम एक समूह की बात करें तो सामान्य तौर पर लडक़ो को ज्यादा अनुशासन और संस्कार के साथ संवेदना देने की जरूरत होती है। किंतु इसके विपरीत हम बंधन और संस्कार में सिर्फ लड़कियों को बांधना चाहते हैं।
अब जब हर जगह भौतिक सुख साधन तो है किंतु आत्म सुख तथा शांति कहीं दिखाई नहीं देती। आज आधुनिकता के दौर मेें लोग लडक़ा और लडक़ी की बराबरी की बात तो करते हैं किंतु जब शिक्षा या संस्कार की बात आती है तो लडक़ों और लड़कियों में भेद स्पष्ट दिखाई देता है।
आज के समाज में नारी जब घर से बाहर निकल कर घर और बाहर दोनों मोर्चों पर बखूबी अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक निभा रही है किंतु वहीं लडक़ों को, जो कि पहले बाहर की सारी जिम्मेदारी, कमाने से लेकर सामग्री क्रय करने, बच्चों को स्कूल ले जाने से लेकर फीस इत्यादि सारा काम करते थे किंतु अब ये भी सारे कार्य महिलाओं के हिस्से में आ गया है। अत: आज के परिप्रक्ष्य में महिलाओं का कार्य दायित्व दोगुना और पुरूषों का आधा ही हुआ है। परंतु अब भी महिलाओं को दोयम दर्जे का ही माना जाता है और समय-समय पर मानसिक या शारीरिक रूप से कमजोर साबित करने का कोई भी मौका पुरूष मानसिकता गंवाना नहीं चाहता। देखा जाये तो आज महिलायें पुरुषों से बराबर नहीं बल्कि कहीं आगे ही हैं, हालाँकि इसमें समाज की हर महिला को शामिल नहीं किया जा सकता, पर फिर भी पहले की तुलना में अब काफी अंतर है। महिलाओं के बारे में तो व्यापक विचार-विमर्श हुआ, वो पढ़ें लिखें, आत्मनिर्भर बने, संस्कारी बनें, आधुनिक चीजों को जानें, पर इस पूरी कवायद में हम लडक़ों के बारे में, विचार करना ही भूल गये। कहीं ना कहीं ये बात लोगों के मन में घर कर बैठी है कि आखिर लडक़ों की चिंता करने की जरूरत ही क्या हैं?
मुझे लगता है कि आज के जमाने में लडक़ों के बारे में व्यापक विचार होना जरुरी है, अगर लडक़ों की शिक्षा ऐसी ही अधूरी रही (किताबी ज्ञान तक) तो जिस तरह से समाज में अपराध बढ़ रहे हैं, वो बढ़ते ही जायेंगे। एक बेहतर समाज बनाने में लडक़ों की, पुरुषों की भूमिका अहम् होती है, वो जानना ही नहीं चाहते की गलत क्या है? अधिकारों के नाम पर मची क्रांतियों के कारण आज ये हाल है कि कोई भी किसी का अधिकार मारना, अपना अधिकार समझता है। लडक़ों को अक्सर यही कहकर माँ गलतियाँ करने पर नहीं रोकती कि लडक़ा ही तो है। प्रसिद्ध मान्यता है कि कि लडक़ों की प्रवृत्ति बैल की तरह होती हैं, अगर सही समय पर जिम्मेवारियों का हल रख दिया जाये, कर्तव्यों से बांध दिया जाये तो वो खेती में काम आते हैं और वरना वो ही बैल गलियों में घूमते हैं, लोगों को मारते हैं, चोट पहुचाते हैं।
आज भी अपराध के ज्यादातर गंभीर मामलों में पुरुष ही क्यों जिम्मेवार होते हैं और गंभीर अपराध ना सही, घर परिवार के ज्यादातर लड़ाई झगड़ों में अहम् भूमिका निभाने वाले भी ये ही होते हैं। सडक़ चलते कहीं लड़ते दिखेंगे, तो कहीं थूकते हुए, कहीं गन्दी गालियां देकर बात करते हुए, तो कहीं बेशर्मी से लड़कियों को छेड़ते हुए। लड़कियों को छेडऩा तो जैसे अधिकार ही है इनका। आखिर क्यों ऐसे लडक़ों को शिक्षित माना जाये। आजकल तो पढ़े लिखे, अच्छे परिवार के लडक़े भी उन तथाकथित बिगड़ लडक़ों की कतार में शामिल होते हैं, कभी गाड़ी चुराना, कभी शराब पीकर गाड़ी चलाना। कहीं ना कहीं लडक़ों का नैतिक पतन हुआ है और अगर ऐसा ही रहा तो हालत और बुरे होंगे। क्योंकि लड़कियों के अधिकारों के लिए लडऩे वालों ने तो जैसे लडक़ों की नकल करना शुरू कर दिया है। अगर वो शराब पियेंगे या डिस्कोथेक जा सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। इस तरह की सोच समाज को कहाँ ले जाएगी?
आज की युवा पीढ़ी जब माता-पिता या दादा-दादी बनेंगे, क्या सिखायेंगे ये अपने से छोटों को। क्या है सिखाने के लिए? बात-बात पे गालियां, रिश्तों को तार-तार करने वाले क्या दे पाएंगे ये किसी को? एक समय था कि कम उमर में शादी कर दी जाती थी, पर उसे हटाया गया, कानून बनाया गया और बाल विवाह को रोका गया। क्या फर्क पड़ा कानून बनाने से, क्यों नही रोक पाते माँ बाप। जब आजकल के माँ बाप नहीं रोक पाते तो आने वाले समय में तो जरूर रोक पाएंगे। आने वाले समय में तो यही लोग बनेगे माँ-बाप, दादा, दादी। अपने इन्ही संस्कारों के साथ। हाथ में बड़ी बड़ी डिग्रियां, बड़ी बड़ी नौकरियां, पर मनुष्यता जैसी कोई बात नहीं। पर बुराई सब करते है कि जमाना बहुत बुरा हैं, पर खुद को सुधारना कोई नहीं चाहता। कोई नहीं सोचना चाहता कि क्या करते हैं उनके बच्चे, हम उनकी निजी जिन्दगी में दखल नहीं दे सकते। ऐसा कहकर पल्ला झाडऩे वाले माँ-बाप को सोचना चाहिए कि जब उनका एक बच्चा पैदा होता है, तो वो उनका ही वंश नही बढ़ाता, समाज का भी हिस्सा होता है वो। और जो माँ बाप ये संस्कार नहीं दे पाते एक दिन उनका बच्चा खुद उनके साथ भी दुव्र्यवहार करता है। और क्यों ना करे? आपने सिखाया ही कहाँ उन्हें सही बर्ताव करना।
आज समय की मांग है कि अब लडक़ों के आचार व्यवहार पर विचार किया जाये, ताकि उनमें पनपने वाली अपराधी प्रवृत्ति कम हो सके। माँ बाप जैसे लडक़ी को अनुशासन या समय से घर आना या नियम में बंधना सिखाते हैं वैसे ही लडक़ो को संस्कार भी दें, ताकि वो लड़कियों के प्रति और अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का भाव रखना सीखें। परिवार के प्रति, समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझें। और ये समाज सच में सबके लिए रहने लायक बना रहे। लड़कियों को ये डर ना रहे कि रात हो गयी है, अकेले नहीं जाना चहिये, या सामने से आते हुए लडक़ों के समूह को देखकर सडक़ पर अकेली जाती लडक़ी ना डरे। ऐसा नहीं है कि हर लडक़ा ऐसा होता है, पर ये सच है कि एक बड़ी संख्या में लडक़े या पुरुष ऐसे होते हैं, जिस कारण आज भी लड़कियां घर से निकलते समय या घर में अकेले रहने पर भी डरती हैं। अत: जरूरी है कि लडक़ों में नैतिक जिम्मेवारी जगाई जाये, वरना कोई कानून कुछ नहीं कर सकता। इसके लिए घर एवं परिवार के साथ कॉलोनी और समाज के बीच से ही ये संस्कार निकलने चाहिए कि किसी लडक़े के जीवन में किस प्रकार का अनुशासन अपने आसपास के लोगों तथा लड़कियों के प्रति जरूरी है। ये देना ना सिर्फ अभिभावकों अपितु शिक्षक, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए भी जरूरी है। चूंकि आज हम राहु के युग में जी रहे हैं अत: सभी के जीवन में अनुशासन बहुत जरूरी है। अनुशासन हीनता के कारण पूरा समाज प्रभावित हो रहा है। अत: जीवन में न सिर्फ महिलाओं या लड़कियों के लिए अपितु इससे कहीं ज्यादा लडक़ों के जीवन में होना चाहिए जिससे सामाजिक परिवेश सुरक्षित और शांत रह सके।

जुड़वाँ भाई/बहन की जन्म कुंडली में ज्योतिष्य भ्रम

यदि दो जुड़वा भाई/बहन हैं और दोनों का जन्म समय, तिथि व स्थान एक ही है तो निश्चित ही जन्मपत्री एक सी ही बनेगी तथा शक्ल, सूरत, विचार, इच्छाएं, रोग, जीवन की घटनाएं भी एक समान हो सकती हैं। परंतु फिर भी जुड़वा बच्चों के व्यक्तित्व, कर्म व जीवनधारा में काफी अंतर हो सकता है यद्यपि कि जन्मपत्री में ग्रह स्थिति एक सी ही हो। उसके कुछ कारण निम्नवत हैं:
गर्भ कुंडली:
वास्तविक जन्म गर्भ में भ्रुण प्रवेश/निषेचन के समय हो जाता है तथा यह भी तय हो जाता है कि बच्चा लडक़ा होगा या लडक़ी। जिस क्षण विशेष में गर्भ में भ्रुण स्थापित होता है वही क्षण उस बालक/बालिका के पूरे जीवन का आधार बनता है। भ्रुण समस्त ग्रहों का प्रभाव पिता व माता द्वारा स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, जो स्त्रियां पक्षबली चंद्रमा के समय में गर्भाधान करती हैं उन्हें निश्चित ही स्वस्थ, सुंदर, सफल व संस्कारवान संतान प्राप्त होती है। जुड़वा संतान की गर्भ कुंडली देखें तो उनमें अधिक अंतर होने की संभावना है क्योंकि गर्भ भ्रुण प्रवेश/ निषेचन एक ही समय में हो ऐसा संभव नहींं है। ज्योतिष नियमानुसार जन्म कुंडली से गर्भ कुंडली बनाई जा सकती है। पर यह निश्चित ही कठिन कार्य है। गर्भ कुंडली भिन्न हो जाने से जातक का व्यक्तित्व व भविष्य भिन्न रूप में विकसित होगा, यह निश्चित है। जैसे- एक राजा समान जीवन यापन कर रहा है, तो दूसरा फुटपाथ पर मजदूरी। इसका कारण गर्भ में कुछ समय मिनट अंतराल में दोनों का गर्भ स्थापित होना है जिसमें दोनों की जन्मपत्री तो एक समान आती है, लेकिन हाथ की रेखाओं में काफी अंतर पाया जाता है। अत: ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘‘हस्त रेखा शास्त्र’’ आसानी से दे सकता है। जन्मकुंडली की इस परेशानी को दक्षिण भारत के महान ज्योतिष विद्वान ‘‘कृष्णमूर्ति’’ ने नक्षत्र पर आधारित पद्धति का निर्माण कर किया, जिसे ‘‘के.पी. पद्धति’’ कहते हैं। इसके अनुसार किसी भाव का फल भावेश अर्थात उसका स्वामी न करके, वह ग्रह जिस नक्षत्र में स्थित हैं, उसका उपनक्षत्र स्वामी करेगा अर्थात् उस भाव का फल उपनक्षत्रेश के आधार पर होगा। जैसे-किसी की जन्मपत्री में तुला लग्न में दशमेश चंद्र, उच्च या स्वगृही है तो उसे किसी कंपनी/सरकारी नौकरी में उच्च पद पर या प्रतिष्ठित व्यवसाय में होना चाहिए। परंतु वास्तव में वह व्यक्ति फुटपाथ पर मजदूरी कर रहा था, तब ऐसे में उसकी जन्मपत्री का अध्ययन किया तो यह पाया कि उसका उपनक्षत्र स्वामी, जन्मपत्री में नीच राशि में स्थित था, अत: उसे वास्तव में निम्न स्तर का रोजगार मिला। ठीक इस प्रकार जुड़वा बच्चों या समकक्ष में के.पी. ने उपनक्षत्र स्वामी का निर्माण राशियों को 4-4 मिनट में बांटकर सारणी तैयार कर किया तथा जुड़वा बच्चों के फल कथन में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो बिल्कुल सटीक पाया गया। क्योंकि जुडवां बच्चों में 2-3 मिनट का ही अंतर रहता है या एक ही स्थान, समय में भी 2-3 मिनट का ही अंतर पाया जाता है। अत: के.पी. की उपनक्षत्रेश पद्धति इनपर बिल्कुल सही साबित हुई। इसके अलावा, के.पी. पद्धति में प्रश्न कुंडली के आधार पर भी इन बच्चों का भविष्य कथन ज्ञात कर सकते हैं। यह आधुनिक ज्योतिष को के.पी. की महान देन है। हस्त रेखा एवं आयुर्विज्ञान के अनुसार, हस्तरेखाओं में भिन्नता 21वें क्रोमोसोम (गुणसूत्र) के कारण होती है, अत: गर्भ स्थान में कुछ समय (मिनट) अंतराल वास्तव में गर्भाशय में शुक्राणु का अंडाणु से निषेचन से होता है। अत: किसी का भी भाग्य का निर्माण चाहे सिंगल हो या जुड़वा, वह तो गर्भ स्थापन में ही हो जाता है बाकी के नौ महीने तो बालक के भ्रुण के पूर्ण निर्माण में लगते हैं। अत: यहां पर गर्भ स्थापन में 16संस्कारों में गर्भाधान संस्कार का महत्व उपरोक्त कारण से है। के.पी. पद्धति से पूर्व ज्योतिष द्वारा जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन पूरी तरह सक्षम नहींं था। ऐसे में हस्तरेखा शास्त्र, भविष्य कथन में सहायक सिद्ध होता था। दो जातकों की हस्त रेखायें भिन्न होती हैं, जो जुडवां हो या एक ही समय और स्थान पर पैदा हुये हों। लेकिन के.पी. की नक्षत्र आधारित पद्धति ने ज्योतिष में जान डालकर हस्तरेखा की भांति सजीव बना दिया। के.पी. एवं हस्तरेखा के अलावा ‘‘प्रश्न ज्योतिष’’ द्वारा भी जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन ज्ञात कर सकते हैं। ज्योतिष में पंचम भाव, पंचमेश व कारक गुरु तीनों संतान से जुड़े हैं, ये किसी स्त्री ग्रह से युक्त/दृष्ट (प्रभावित) हो तो जुडवां संतानें होती हैं। ये योग स्त्री एवं पुरूष में न्यूनतम एक में होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में भी देखते हैं तो कई जातकों के जुडवां बच्चे पैदा होते हैं, उनमें न्यूनतम एक में यह योग अवश्य होता है। जीवनशैली/लालन पालन का महत्व: यदि जन्मकुंडली पूर्ण रूप से समान हो, जुड़वा बच्चों की लग्न, चंद्र राशि व नक्षत्र चरण समान हो फिर भी यदि बच्चों के लालन-पालन में, शिक्षा, संस्कार में भिन्नता हो तो भी बच्चे भिन्न व्यक्तित्व के हो सकते हैं। ग्रह प्रभाव की व्यापकता: यदि दोनों बच्चों का कारक ग्रह एक हो तो भी उनके जीवन में भिन्नता आ सकती है।

जांजगीर-चांपा का विष्णु मंदिर जहाँ पत्थरशिल्प बोलते हैं

जिला जांजगीर-चांपा छत्तीसगढ़ के केंद्र में स्थित है और इसलिए यह छत्तीसगढ़ के दिल के रूप में माना जाता है। यह जिला मई 1998 को स्थापित किया गया था। जिला जांजगीर-चांपा के जिला मुख्यालय जांजगीर कलचुरी राजवंश के महाराजा जाँजवाल्य देव का शहर है। जांजगीर-चांपा जिले राज्य छत्तीसगढ़ में खाद्यान्नों का एक प्रमुख उत्पादक है। जांजगीर जिले के विष्णु मंदिर इस जिले के सुनहरे अतीत को दर्शाता है। विष्णु मंदिर वैष्णव समुदाय का एक प्राचीन कलात्मक नमूना है।
जाज्वल्य देव की नगरी जांजगीर में लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित विष्णुमंदिर, जो कि इस समय ‘‘नकटा’’ मंदिर के रूप मेें जाना जाता है, यहां पत्थरशिल्प बोलते हैं। मंदिर में जड़े पत्थर शिल्प में पुरातनकालीन परंपरा को दर्शाया गया है। यह मंदिर कल्चुरी काल की मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है, जिसे 12 वीं शताब्दी में निर्माण की मान्यता है।
जांजगीर-चांपा जिले की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का देश के इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिले के प्राचीन मंदिरों में कला के वे नमूने हैं, जहां कोई लिपिबद्ध इतिहास न कहकर साक्षात् स्वरूप के दर्शन होते हैं। सर्वाधिक प्राचीन होने का श्रेय किसे है, यह तो क्रमश: परिवर्तित सत्य है, किन्तु इतिहास के झरोखों में जाज्वल्य देव द्वारा निर्मित विष्णु मंदिर प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण 12 वीं शताब्दी में होना बताया जाता है। विष्णु मंदिर कचहरी चौक से आधा किलोमीटर की दूरी पर जांजगीर की पुरानी बस्ती के समीप है। यह मंदिर कल्चुरी कालीन मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है। लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित इस मंदिर की दीवारें भगवान विष्णु के अनेकों रूपों के अलावा अन्य देवताओं कुबेर, सूर्यदेव, ऋषि मुनियों, देवगणिकाओं की मूर्तियों से सुसज्जित किन्तु खंडित है। विष्णु मंदिर के पास ही कल्चुरी काल का एक शिव मंदिर भी है। मंदिर का अधिष्ठान पांच बंधनों में विभक्त है। नीचे के बंधन सादे किन्तु उपरी बंधनों में रत्न पुष्प अलंकरण है। अधिष्ठान के पश्च में गजधर दो भागों में विभक्त है। अंतराल और गर्भगृह के भद्ररथों पर देव कोष्ठ हैं। कर्णरथों पर दिपाल एवं अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी गई है।
विष्णु मंदिर के अधूरा होने के कारण यहां के मूल निवासी इसे ‘नकटा मंदिर’ भी कहते हैं। मंदिर के आसपास सैकड़ों प्राचीनकालीन मूर्तियां धूल खाती पड़ी हुई है, जबकि कई मूर्तियों को पुरानी बस्ती के लोगों ने अपने घरों में रख लिया है। विष्णु मंदिर के बगल में ही विशाल भीमा तालाब है। सैकड़ों एकड़ क्षेत्रफल में फैल भीमा तालाब को भीम ने बनाया था, ऐसी मान्यता है। शहर के प्रबुद्ध लोग कहते है कि विष्णु मंदिर आज संरक्षण की आवश्यकता है और साथ ही इसमें छुपे अप्रतिम इतिहास को भी प्रचारित करने की आवश्यकता है।
कैसे पहुंचें:
जिला जांजगीर-चांपा राजधानी रायपुर से महज १६० कि.मी. दूर है एवं ट्रेन तथा बस दोनों माध्यम से पहुंचा जा सकता है। जांजगीर-चांपा के लिए ट्रेन अथवा बस दोनों में ३ से ४ घण्टे का समय लगता है।

जहाँ मुर्दों के साथ खेली जाती है होली

होली पर्व रंगों का त्यौहार है जिसे भारत के हर कोने में अलग अलग तरीके से मनाया जाता है। भारत के अलग अलग हिस्सों में होली के दस दिन पहले से लेकर दस दिन बाद तक अलग जगहों पर अलग अलग रस्मोरिवाज के साथ होली मनाई जाती है । उसी अनोखी होली का एक रिवाज आपको वाराणसी में देखने को मिल जायेगी जहां पर कुछ साधु मुर्दों के साथ होली खेलते हैं और जलती चिताओं के बीच श्मशान में होली खेलते हैं। कैसे शुरू हुई यह परम्परा आईये विस्तार से जानें।
एक प्राचीन मान्यता है जिसके अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन शिवजी जिनका बाबा विश्वनाथ भी कहते हैं, माता पार्वती का गौना कराकर वापस कैलाश लौट रहे थे। दूसरे दिन जब वो औघड़ होकर श्मशान में जलती चिताओं के बीच भस्म की होली खेले। तब से इस परम्परा को औघड़ साधू और सन्यासी निभाते हैं। इस परम्परा में साधू डमरू बजाते हुए झूमते हुये नाचते हैं जिनके साथ कई और लोग भी शामिल हो जाते हैं और हर-हर महादेव बोलते हुये एक दूसरे को चिताओं का राख लगाते हैं।
इस परंपरा की शुरूआत में रंगभरी एकादशी के दिन सुबह जल्दी मणिकर्णिका घाट पर साधू जमा हो जाते हैं जहां पर डमरुओं की गूंज के साथ बाबा मसान नाथ की आरती शुरू होती है जिसमें विधिपूर्वक बाबा मशान नाथ को गुलाल और रंग लगाया जाता है। आरती होने के बाद साधुओं की टाली चिताओं की ओर रुख करती है, और श्मशान के राख से होली खेलते हैं। यहां पर ऐसी मान्यता है कि यहां पर बाबा लोगों को मुक्ति का तारक मन्त्र देते हैँ जिससे प्राण त्यागने वाला व्यक्ति शिवत्व की प्राप्ति कर लेता है।

देश,काल और पात्र के अनुसार आराध्य देवी-देवता का चयन

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्ट: शरणं त्वां प्रपन्नवान।।
प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पऽपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य न:।।
तुम पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।
महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ‘‘तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।’’ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ‘‘जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहींं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।’’ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ‘‘यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहींं दी? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश हैं।
योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ‘‘वैष्णव जन को’’ तथा ‘‘रघुपति राघव राजा राम’’ गाते थे। चंबल के डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है?
यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अत: वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।

विनाश काले विपरीत बुद्धि
महाभारत के वन पर्व का प्रसंग है | जुए में हारने के बाद पांडव वन में चले गए | एक दिन ध्रितराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और दुखी होकर कहा की तुम सबका भला सोचते हो, इसलिए कुछ ऐसा बताओ की कौरवों और पांडवों दोनों का हित हो | विदुर बोले की किसी भी राज्य का स्थायित्व धर्म पर होता है | आप धर्म के अनुसार काम करें पांडवों को उनका राज्य लौटा दीजिये और दुर्योधन को काबू कीजिये |
राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है की वह अपने धन से संतुष्ट रहे और दूसरों के धन का लालच ना करें | यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो कौरव कुल का नाश निश्चित है क्योंकि गुस्से से भरे भीम और अर्जुन लौटने पर किसी को जिन्दा नहीं छोड़ेंगे | विदुर की यह बात ध्रितराष्ट्र के सीने में काँटों की तरह चुभ गई, और उसने कहा तुम केवल पांडवों का भला चाहते हो इसलिए यहाँ से चले जाओ | असल में उस समय ध्रितराष्ट्र केवल कौरवों के हित के बारे में ही सोच रहे थे क्योंकि वे सब उनके सगे बेटे थे | ध्रितराष्ट्र ने विदुर की बात नहीं मानी और जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध हुआ और कौरवों का समूल नाश हो गया | इसलिए कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि |

भगवान से मिलने की ललक

भगवत प्राप्ति के लिए चाहिए भगवान से मिलने की ललक और उसे पाने की रीति है- भक्ति जिसका अर्थ है भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। भगवत प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढि़ए। भगवान से मिलने की ललक भगवद् प्राप्ति का एक अंग होती है। भगवत प्राप्ति अर्थात् भगवान या ईश्वर को पाने की रीति, भक्ति मानी गई है। भक्ति का अर्थ है भगवदोपासना अर्थात् भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। इस असत संसार में लोगों के लिये सुख-शांति प्राप्ति का सरल सुगम पथ केवल ईश्वरोपासना ही है। अपने इष्ट देवता का सुमिरन, चिंतन, पूजन, भजन, कीर्तन, ध्यान, आराधना को उपासना कहा जाता है। अधिकांश रूप में देखा सुना गया है कि संसार में जितने भी महान पुरुष हुये हैं, वे सभी भगवद् भक्त हुये हैं यानी वे सभी ईश्वरोपासक थे। परमहंस श्रीरामकृष्ण जी का कहना है कि ‘‘ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।’’ महामना मदनमोहन जी मालवीय ने लिखा है कि ‘‘धट-घट व्यापक उस परमात्मा की विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिये।’’ स्वामी विवेकानंद ने इस बात का प्रचार किया ‘‘नाना रूपों में जो तुम्हारे सामने है, उसको छोडक़र अन्यत्र कहां ईश्वर को खोज रहे हो। जो जीवन से प्रेम करता है वही मनुष्य ‘मनुष्य’ है और वही मनुष्य ईश्वर की सेवा करता है।’’ ‘‘बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाडि़ कोथा खूंजिछ ईश्वर। जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविदे ईश्वर॥’’
उपासना शब्द के स्मृति, पुराणादि में तथा महापुरुषों की वाणी में अनेक अर्थ पाये जाते हैं। सार रूप में भगवत-प्राप्ति के निमित्त उपासना का अर्थ पूजा भक्ति है। श्री मद्भागवत के अनुसार भगवद्-प्राप्ति के लिये ईश्वर को पूर्ण भक्ति से प्रसन्न कर लेना उपासना कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के या यूं कहें कि स्मृतियों व पुराणों के प्रमाण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उपासना काल में भगवान उपासकों को दर्शन अवश्य देते हैं।
मक्का, मदीना, द्वारका, बद्री और केदार।
प्रेम बिना सब झूठ हैं, कहें ‘मलूक’ विचार॥
उपासना की सिद्धि के लिये भगवान के प्रति भक्ति अत्यधिक प्रेम के साथ होनी आवश्यक है। ऐसी ममता, ऐसा अनुराग या प्रेम भगवान के प्रति हो कि अपनी सब ममता हर जगह से निकालकर परम पिता परमात्मा प्रभु के पादारविंदो में ही केंद्रित हो जाये, अनुरक्त हो जाये। रामचरित मानस में भी यही बात कही गई है।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सबकै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बांध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसे।
लोभी हृदय बसइ धनु जैसे॥
उपर्युक्त चौपाईयां विभीषण शरणागति के प्रसंग में सुंदर कांड के दोहे क्रमांक 47 से 48के मध्यसे अवतरित हैं। भगवान राम और विभीषण के मध्य बातचीत का अंश हैं ये चौपाईयां। और भी कहा गया है- तुलसी दास की रामायण में-
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा।
किए जोग तप ग्यान विरागा॥
भक्त शिरोमणि संत मीराबाई के शब्दों में भी इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान प्रेम के द्वारा प्राप्त होते हैं (पद है - माई री मैं तो लियो गोविन्द मोल। कोई कहै घर में, कोई कहै बन में, राधा के संग किलोल॥ मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आवत प्रेम के मोल॥
भगवद् प्राप्ति के निमित्त बिना प्रेम के यदि चंचल मन को जबरन ईश्वर में लगाया जायेगा तो मन वहां अधिक देर टिक नहींं पायेगा। चंचल मन को प्रभु के चरणों में लगाने के लिये दो प्रमुख उपाय हैं : (1) अभ्यास व (2) वैराग्य। अभ्यास के द्वारा मन को भगवान से प्रेम करने की आदत पड़ जाती है और भगवान में मन टिकने लगता है। वैराग्य से चित्त-विभ्रम की निवृत्ति होने लगती है। संसार से विरक्ति और भगवान से अनुरक्ति उत्पन्न होती है। होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ-चरण अनुरागा॥ सदैव, सर्वत्र यानि सब जगह भगवद्दर्शन करने की ललक अपने को परम दैन्य, अयोग्य एवं सबका सेवक समझना यह परमोच्च कोटि की उपासना है। ऐसा करने से भगवान प्रसन्न होकर भक्त आराधक, उपासक या जातक को सदा सर्वत्र सभी सुख-दुखादि परिस्थितियों में अपना दर्शन कराने लगते हैं। ईश्वर और प्रेम को रसखान कवि ने एक वस्तु के दो रूप माना है-
प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।
एक होय द्वै यों लसैं, ज्यों सूरज अरू धूप॥
विभिन्न उपासकों, भगवत प्रेमियों और भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथायें धर्म-साहित्य में पडऩें को हमें प्राप्त होती हैं और तत्संबंधी कथा वार्ताओं को लोग जानते भी हैं। उनमें से एक मुस्लिम महिला ताज का नाम भी आता है जिसे भगवद् प्रेम ने इस्लाम की राह से मोडक़र नंदनंदन की दीवानी, कृष्ण पंथ की फकीरनी बना दिया। मुगलानी ताज के हृदय के भक्ति भाव, कृष्ण प्राप्ति की झलक उसके इस कवित्त से स्वत: स्पष्ट हो जाती है।
सूनाक दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं। देव पूजा ठानी और नमाज भी भुलानी तजे कमला कुरान, सारे गुननि गहूंगी मैं॥ सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार तेरे नेह दाध में निदाघ ज्यों दहूंगी मैं। नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै। हौं तों मुगलानी हिंदुवानी है रहूंगी मैं॥
इस कवित्त रूपी प्याले में भगवत प्राप्ति विषयक मुगलानी ताज की प्रेम भक्ति की ही मदिरा लबालब भरी हुई है। सार यह है कि श्रद्धा भक्ति और प्रेम के द्वारा भगवत प्राप्ति हो सकती है। किसी भगवत रसिक भक्त की हृदय की धारणा इस तरह से है-
नहिं हिंदु, नहिं तुरक हम, नहींं जैनी, अंगरेज।
सुमन संवारत रहत नित, कुंज बिहारी सेज॥
ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है। मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ तुलसी दास जी की इन अनुभूति की पुष्टि मीराबाई ने भी की यह कहकर कि भगवान प्रेम से प्राप्त होते हैं।

अंग लक्षण एवं सामुद्रिक का परस्पर संबंध

हस्त रेखा शास्त्र, अंग लक्षण विद्या तथा सामुद्रिक क्या ये तीनों एक ही हैं? अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर क्या संबंध है? हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं? मनुष्य का हाथ एक ऐसी जन्म पत्रिका है जो कभी भी नष्ट नहींं होती तथा जिसके रचयिता स्वयं ब्रह्माजी हैं। इसलिए शास्त्रों में कहा भी गया है- ‘‘कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्॥’’ कर (हाथ) के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती तथा मूल में ब्रह्मा जी का वास है अत: प्रात: उठकर सर्वप्रथम अपनी हथेलियों का दर्शन करना चाहिए। हस्तरेखा विज्ञान तथा अंग लक्षण विज्ञान को ही सामुद्रिक भी कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि समुद्र ऋषि ही ऐसे सवर्प्रथम भारतीय ऋषि थे जिन्हांने प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध रूप से ज्योतिष विज्ञान की रचना की थी अत: उन्हीं के नाम पर हस्त रेखा विज्ञान को सामुिदक्र भी कहा जाता है। हस्तरेखा विज्ञान को सामुद्रिक क्यों कहते हैं अथवा अंग लक्षण विद्या का सामुद्रिक से क्या संबंध है। इससे संबंधित तथ्यों का उल्लेख भी वेदों और पुराणों में मिलता है।
‘अंग लक्षण विद्या’ से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से है जिसके ज्ञान के द्वारा स्त्री पुरुष के शारीरिक अंगों में विद्यमान उसके शुभाशुभ लक्षणों को देखकर ही उनके व्यक्तित्व, स्वभाव, चरित्र तथा भाग्य का सटीक और सार्थक फलादशे किया जा सके। ऐसी विलक्षण विद्या की रचना सर्व प्रथम गणेश भगवान के अग्रज भगवान कार्तिकेय ने की थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान गणेश को ‘विघ्नेश’, ‘विघ्न विनाशक’ तथा ‘एकदंत’ भी कहते हैं। उन्होंने किसके लिए विघ्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघ्नशे कहा गया अथवा गणेश जी को एकदंत क्यों कहते हैं? यदि इस प्रश्न की गहराई में जाएं तो भी हम पाएगे कि इसका मूल कारण भी ‘समुद्र शास्त्र’ ही है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में शिव जी के ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय ने अपने ‘अंग लक्षण शास्त्र’ के अनुसार पुरुषों एवं स्त्रियों के श्रेष्ठ लक्षणों की रचना की। उसी समय गणेश जी ने उनके इस कार्य में विघ्न उत्पन्न किया। इस पर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश जी का एक दातं उखाड़ लिया और उन्हें मारने के लिए उद्यत हो उठे। तब भगवान शंकर ने कार्तिकये को बीच में रोककर पूछा कि उनके क्रोध का कारण क्या है? कार्तिकेय जी ने कहा ‘‘पिताजी, मैं पुरुषों के लक्षण बनाकर स्त्रियों के लक्षण बना रहा था, उसमें गणेश ने विघ्न उत्पन्न किया, जिससे स्त्रियों के लक्षण मैं नहीं बना सका। इस कारण मुझे क्रोध आया।’’ यह सुनकर महदेव जी ने उनके क्रोध को शांत किया और मुस्कुराकर उनसे पूछा- ‘‘पुत्र, तुम पुरुष के लक्षण जानते हो, तो बताओ मुझमें पुरुषों के कौन-कौन से लक्षण विद्यमान हैं?’’ कार्तिकेय जी ने कहा ‘‘पिता जी, आपमें पुरुषों के ऐसे लक्षण विद्यमान हैं कि आप संसार में ‘कपाली’ के नाम से प्रसिद्ध होंगे।’’ पुत्र के ऐसे वचनों को सुनकर शिवजी क्रोधित हो गये और उन्होंने कार्तिकेय जी के अंग लक्षण शास्त्र को उठाकर समुद्र में फेंक दिया और स्वयं अंर्तध्यान हो गये। कुछ समय पश्चात् जब शिवजी का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने समुद्र को बुलाकर कहा कि तुम स्त्रियों के आभूषण स्वरूप विलक्षण लक्षणों की रचना करो और कार्तिकेय ने जो कुछ भी पुरुष लक्षणों के बारे में कहा है उसकी भी विस्तृत विवेचना करो।’’ समुद्र ने शिवजी की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए कहा ‘‘स्वामि, आपने जो आज्ञा मुझे दी है, वह निश्चित ही पूर्ण होगी, किंतु जो मेरे द्वारा स्त्री-पुरुष लक्षण का शास्त्र कहा जाएगा, वह मेरेे ही नाम ‘सामुिदक्र शास्त्र’ नाम से प्रसिद्ध होगा।।
किसी भी शुभ अवसर पर हिदंू धर्म में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा-अर्चना का विधान भी शायद इसीलिए बनाया गया है कि व्यक्ति के किसी भी कार्य में कोई भी विघ्न न उपस्थित हो। अत: स्पष्ट है कि अंग लक्षण विद्या से सबंंधित शास्त्र की रचना में विघ्न उत्पन्न करने के कारण ही गणेश जी को विघ्नेश कहा गया तथा भगवान कार्तिकेय के क्रोध के कारण दण्ड स्वरूप उन्हें एकदंत होना पड़ा। लक्षण शास्त्र से सबंंिधत पुराणों एक कथा यह भी है कि, भगवान शिव द्वारा क्रोध में आकर कार्तिकेय द्वारा रचित लक्षण ग्रंथ को समुद्र में फेंक देने के उपरांत व्योमकेश भगवान के सुपुत्र कार्तिकेय जी ने जब अपनी अनुपम शक्ति से क्रौंच पर्वत को विदीर्ण किया तो ब्रह्मा जी ने वर मांगने को कहा। कुमार कार्तिकेय ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा ‘‘प्रभो। स्त्रियों के विषय में जो लक्षण ग्रंथ मैंने पहले बनाया था उसे तो मेरे पिता महादेव ने क्रोध में आकर समदु्र मे फेंक दिया। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर पनु: उन्हीं लक्षणों का वर्णन करें। तब कार्तिकेय जी के आग्रह करने पर ब्रह्मा जी ने स्वयं समुद्र द्वारा कहे गये उन स्त्री-पुरुष लक्षणों को पुन: वर्णित किया। उन्होंने उसी शास्त्र के आधार पर स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन प्रकार के लक्षण बतलाए जिसके अनुसार किसी भी जातक का स्वभाव, व्यवहार तथा भाग्य निर्धारित किया जा सकता है। अत: यह पूर्ण रूपेण प्रामाणिक एवं शास्त्रोक्त भी है, कि हस्तरेखा, अंग लक्षण विद्या एवं सामुद्रिक का परस्पर गहरा एवं अटूट संबंध है। एक अच्छे ज्योतिषी को चाहिए कि वह अंग लक्षण विद्या एवं ज्योतिष का परस्पर समन्वय स्थापित करते हुए शुभ मुहर्तू में मध्याह्न के पूर्व स्त्री-पुरुष के शुभाशुभ लक्षणों एवं हस्त रेखाओं का भली प्रकार अध्ययन करने के उपरांत ही सटीक एवं सार्थक फलादेश करें।

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