Friday 8 July 2016

संकल्प शक्ति से बदले मन का भाव

मन को वश में करना अत्यंत कठिन है और यदि मन तीसरे स्थान के स्वामी बुध या चन्द्रमा होकर प्रतिकूल स्तिथि में हो तो यह और भी मुश्किल हो जाता है | मन को वश में करने के लिए चन्द्रमा अथवा बुध की शांति करने के साथ संकल्प शक्ति को बढ़ाने के लिए आज्ञा चक्र अथवा मस्तक के तीसरे भाव में स्थित चन्द्रमा पर ध्यान लगाकर ऐसा किया जा सकता है |
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:।।
...और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच मेंं स्थित करके तथा नासिका मेंं विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।
इस सूत्र मेंं कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र मेंं, काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र मेंं काम-क्रोध से मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
इतना जानना पर्याप्त नहींं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म मेंं प्रवेश मिल जाएगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? विधि क्या है?
कृष्ण ने कहीं तीन बातें। एक, दोनों आंखों के ऊपर भू-मध्य मेंं, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करें। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले, इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य मेंं, श्वास हो जाए सम, जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है। इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहींं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पडऩा बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहींं है। इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमेंं जोड़ती हैं।
सात इंद्रियां हैं। साधारणत: पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणत: उनकी बात नहींं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है। जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहींं था। कुछ, जिन्हें समझ मेंं और गहरी बात आई थी, उन्होंने छ: इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों मेंं विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं।
हमारे कान मेंं दो इंद्रियां हैं, एक नहींं। कान सुनता भी है, और कान मेंं वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान मेंं छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब सडक़ पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण से नहींं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान मेंं दो इंद्रियों का निवास है।
छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था, वह है अंत:करण, हृदय। साधारणत: हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने मेंं एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहींं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है।
प्राचीन ग्रंथों में सात इंद्रियों का जिक्र है। ये सात इंद्रियां हमेंं बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमेंं से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है।
जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमेंं से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र मेंं कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य मेंं, माथे के बीच मेंं ध्यान को केंद्रित कर।
माथे के बीच मेंं जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, उसका नाम है, आज्ञा-चक्र। वह संकल्प का और इच्छाशक्ति का केंद्र है। जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन मेंं संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा-चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन-धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह ध्यान कर सकता है।
इस चक्र पर ध्यान करने से क्या होगा? एक बात और खयाल मेंं ले लें, तो समझ मेंं आ सकेगी। आपके घर मेंं आग लग गई हो। अभी कोई खबर देने आ जाए कि घर मेंं आग लग गई। आप भागेंगे। रास्ते पर कोई नमस्कार करेगा, आपकी आंख बराबर देखेगी, फिर भी, फिर भी आप नहींं देख पाएंगे। और कल वह आदमी मिलेगा और कहेगा कि कल क्या हो गया था, बदहवास भागे जाते थे? नमस्कार की, उत्तर भी न दिया! आप कहेंगे, मुझे कुछ होश नहींं। मैं देख नहींं पाया। वह आदमी कहेगा, आंख आपकी बिलकुल मुझे देख रही थी। मैं बिलकुल आंख के सामने था। आप कहेंगे, जरूर आप आंख के सामने रहे होंगे। लेकिन मेरा ध्यान आंख पर नहींं था। शरीर की भी वही इंद्रिय काम करती है, जिस पर ध्यान हो, नहींं तो काम नहींं करती। शरीर की इंद्रियों को भी सक्रिय करना हो, तो ध्यान से ही सक्रिय होती हैं वे, अन्यथा सक्रिय नहींं होतीं। आंख तभी देखती है, जब भीतर ध्यान आंख से जुड़ता है, अटेंशन आंख से जुड़ती है। कान तभी सुनते हैं, जब ध्यान कान से जुड़ता है। शरीर की इंद्रियां भी ध्यान के बिना चेतना तक खबर नहींं पहुंचा पातीं। ठीक ऐसे ही भीतर के जो सात चक्र हैं, वे भी तभी सक्रिय होते हैं, जब ध्यान उनसे जुड़ता है।
संकल्प का चक्र है आज्ञा। अर्जुन से वे कह रहे हैं, तू उस पर ध्यान कर। कर्मयोगी के लिए वही उचित है। कर्म का चक्र है वह, विराट ऊर्जा का, उस पर तू ध्यान कर। लेकिन ध्यान तभी घटित होगा, जब बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास सम स्थिति मेंं हों।
आपको खयाल मेंं नहींं होगा कि सम स्थिति कब होती है। आपको पता होता है कि श्वास भीतर गई, तो आपको पता होता है। श्वास बाहर गई, तो आपको पता होता है। लेकिन एक क्षण ऐसा आता है, जब श्वास भीतर होती है, बाहर नहींं जा रही, एक रुका हुआ क्षण। एक क्षण ऐसा भी होता है, जब श्वास बाहर चली गई और अभी भीतर नहींं आ रही, एक छोटा-सा अंतराल। उस अंतराल मेंं चेतना बिलकुल ठहरी हुई होती है। उसी अंतराल मेंं अगर ध्यान ठीक से किया गया, तो आज्ञा-चक्र शुरू हो जाता है, सक्रिय हो जाता है।
और जब ऊर्जा आज्ञा-चक्र को सक्रिय कर दे, तो आज्ञा-चक्र की हालत वैसी हो जाती है, जैसे कभी आपने सूर्यमुखी के फूल देखे हों सुबह, सूरज नहींं निकला, लटके रहते हैं जमीन की तरफ, उदास, मुर्झाए हुए, पंखुडिय़ां बंद, जमीन की तरफ लटके हुए। फिर सूर्य निकला और सूर्यमुखी का फूल उठना शुरू हुआ, खिलना शुरू हुआ, पंखुडिय़ां फैलने लगीं, मुस्कुराहट छा गई, नृत्य फूल पर आ गया। रौनक, ताजगी। फूल जैसे जिंदा हो गया, उठकर खड़ा हो गया।
जिस चक्र पर ध्यान नहींं है, वह चक्र उलटे फूल की तरह मुर्झाया हुआ पड़ा रहता है। जैसे ही ध्यान आता है, जैसे सूर्य ने फूल पर चमत्कार किया हो, ऐसे ही ध्यान की किरणें चक्र के फूल को ऊपर उठा देती हैं। और एक बार किसी चक्र का फूल ऊपर उठ जाए, तो आपके जीवन मेंं एक नई इंद्रिय सक्रिय हो गई। आपने भीतर की दुनिया से संबंध जोडऩा शुरू कर दिया।
अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने मेंं आसानी होगी। जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही, जैसा कि क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा-चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहींं होगा कि आज्ञा-चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहींं है, वह किसी चीज को अपने मेंं समा सकता है, हमला नहींं कर सकता, जैसे कि स्त्रियां। स्त्री का पूरा बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है। उसे गर्भ ग्रहण करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने मेंं समाकर और बड़ी करनी है। इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो यह एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहींं होगी और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान-रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमेंं पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी।
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था है ध्यान करने के लिए। अर्जुन के लिए इसलिए कृष्ण ने यह सूत्र को कहा।
और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती है, न बाहर, न भीतर, बीच मेंं ठहरी होती है। न तो आप ले रहे होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहींं होती, ठहरी होती है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत मेंं होते हैं, जैसी हालत मेंं मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत मेंं जन्म के समय होते हैं।
अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच मेंं न्यूट्रल गियर है, जहां सम है, जहां न भीतर, न बाहर, न अस्तित्व है जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण मेंं आपका रूपांतरण होता है।
इसलिए कृष्ण दो बातों पर जोर देते हैं, श्वास हो सम अर्जुन, और ध्यान तेरा भू-मध्य पर, आज्ञा-चक्र पर हो, तो फूल ऊपर उठ जाएगा, चक्र खुल जाएगा। और जैसे ही वह चक्र खुलेगा, वैसे ही तू अचानक पाएगा कि वह सारी शक्ति जो पहले काम बनती थी, क्रोध बनती थी, वह सारी की सारी शक्ति आज्ञा-चक्र पी गया। वह सारी शक्ति संकल्प बन गई।
इसलिए ध्यान रखें, अगर आप बहुत क्रोधी हैं या बहुत कामी हैं, तो एक लिहाज से दुर्भाग्य है, लेकिन एक लिहाज से सौभाग्य भी है। क्योंकि इस जगत मेंं जो बहुत कामी हैं और बहुत क्रोधी हैं, वे ही बड़े संकल्पवान हो सकते हैं। दुर्भाग्य है कि काम और क्रोध आपको परेशान करेंगे। सौभाग्य है कि अगर आप ध्यान कर लें, तो आपके पास जितना संकल्प होगा, उतना उन लोगों के पास नहींं होगा, जिनके पास न काम है, न क्रोध है।
इसलिए इस जगत मेंं जिन लोगों ने बहुत महान शक्ति पाई, वे वे ही लोग हैं, जो बहुत कामी थे। यह बहुत हैरानी की बात है। इस जगत मेंं जो लोग बहुत महान ऊर्जा को उपलब्ध हुए, वे वे ही लोग हैं, जो अतिकामी थे। साधारण रूप से कामी नहींं थे, बहुत कामी थे। लेकिन जब शक्ति बदली, तो यही बड़ी शक्ति जो काम मेंं प्रकट होती थी, संकल्प बन गई।
अर्जुन अगर रूपांतरित हो जाए, तो जैसा महाक्षत्रिय है वह बाहर के जगत मेंं, ऐसा ही भीतर के जगत मेंं महावीर हो जाएगा। इतनी ही ऊर्जा जो क्रोध और काम मेंं बहती है, संकल्प को मिल जाए, तो संकल्प महान होगा।
इस जगत मेंं वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं, इस जगत मेंं अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति पास मेंं है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ मेंं है। काम-क्रोध बिलकुल न हो, तो बहुत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पास मेंं नहींं है, रूपांतरित क्या होगा!
इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे वह आपके खयाल मेंं आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी। यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा। शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग मेंं उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल मेंं आ सकता है।

मादक पदार्थों के सेवन से परेशान...क्या करे जाने ज्योतिष्य द्वारा

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जातक की कुंडली से यह पता चल जाता है की वह मादक पदार्थो का सेवन करता है या नहीं। इससे उसे ठीक करने में भी मदद मिलती है। अच्छी दशा आने पर वह खुद अपना इलाज कराता है और जीवन में सफल रहता है। खाने-पीने वाली वस्तुओं का सम्बन्ध चन्द्रमा से है और राहू के नक्षत्र- आद्रा, स्वाती, शतभिषा में दोनों की उपस्थिति, दूसरे भाव के स्वामी की नीच राशी में मौजूदगी और खुद राहू का साथ बैठना जातक द्वारा मादक पदार्थो के सेवन का स्पष्ट संकेत कराता है। अपनी नीच राशी वृश्चिक में चन्द्रमा अक्सर जातक को मादक पदार्थो का सेवन कराता है। क्रूर गृह शनि, राहू पीडि़त बुध और क्षीण चन्द्रमा इसमें इजाफा करते है।
कलियुग में राहु का प्रभाव बहुत है अगर राहु अच्छा हुआ तो जातक आर.एस. या आई.पी.एस., कलेक्टर राजनैता बनता है। इसकी शक्ति असीम है। सामान्य रूप से राहु के द्वारा मुद्रण कार्य फोटोग्राफी नीले रंग की वस्तुएं, चर्बी, हड्डी जनित रोगों से पीडि़त करता है। राहु के प्रभाव से जातक आलसी तथा मानसिक रूप से सदैव दु:खी रहता है। यह सभी ग्रहों में बलवान माना जाता है तथा वृष और तुला लग्न में यह योगकारक रहता है।
ग्रहों से निकलने वाली विभिन्न किरणों के विविध प्रभाव के कारण प्राणी के स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर में अनेक भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होते रहते है। इनमें कुछ प्रभाव क्षणिक होते है। जो ग्रहों के अपने कक्ष्या में निरंतर संचरण के कारण बनते मिटते रहते है। किन्तु कुछ ग्रह अपना स्थाई प्रभाव छोड़ देते है। जैसे रोग व्याधि आदि ग्रह नक्षत्रो के संचरण के अनुरूप आते है। तथा समाप्त हो जाते है। प्राय: इनका सदा ही स्थाई कुप्रभाव देखने में नहीं आया है। किन्तु चोट-चपेट एवं दुर्घटना आदि में अँग भंग या विकलांगता स्थाई हो जाते है।
ऐसे ग्रहों में मंगल, राहू, केतु एवं शनि के अतिरिक्त सूर्य भी गणना में आता है। राहू अन्तरंग रोग या धीमा ज़हर या मदिरापान आदि व्यसन देता है। मंगल शस्त्राघात या ह्त्या आदि देता है। केतु गर्भाशय, आँत, एवं गुदा संबंधी रोग देता है। शनि मानसिक संताप, बौद्धिक ह्रास, रक्त-क्षय, राज्यक्षमा आदि देता है। सूर्य कुष्ट, नेत्र रोग एवं प्रजनन संबंधी रोग देता है। वैसे तों अशुभ स्थान पर बैठने से गुरु राजकीय दंड, अपमान, कलंक, कारावास आदि देता है। किन्तु यह अशुभ स्थिति में ही संभव है।
हालाँकि वृश्चिक पर वृहस्पति की द्रष्टि इसमे कुछ कमी करती है और जातक बदनाम होने से बच जाता है। जिस जातक की कुंडली में एक या दो ग्रह नीच राशी में होते है और चन्द्रमा पीडि़त होकर शत्रु ग्रह में दूषित होता है उसमे मादक पदार्थो के सेवन की इच्छा प्रबल होती है। द्वितीय भाव जिसे भोजन, कुटुंब, वाणी आदि का भाव भी कहा जाता है, के स्वामी की स्थति से भी उसके द्वारा मादक पदार्थो के सेवन का ब्यौरा मिल जाता है। कलयुग में राहू शनि मंगल व् क्षीण चन्द्रमा ग्रहों की मानसिक चिन्ताओ को उजागर करने में आगे रहते है। शुक्र की अपनी नीच राशी कन्या में मौजूदगी मादक पदार्थो के सेवन का प्रमुख कारण बनती है। नीच गृह लोगो को नशा कराते है, जिससे जातक अपने साथ ही साथ अपने परिवार को भी अपमानित कराता है।
मेष, सिंह, कुम्भ एवं वृश्चिक लग्न वालो के लिये यदि राहू छठे, आठवें या बारहवें बैठे तों व्यक्ति निश्चित रूप से मदिरा सेवी होता है। वृषभ, कर्क, तुला एवं मकर लग्न वालो की कुंडली में यदि मंगल पांचवें स्थित हो तों यौन रोग या अल्प मृत्यु या नपुंसकता होती है। किन्तु इन्ही लग्नो में यदि मंगल सातवें बैठा हो तों वह व्यभिचारी या परस्त्रीगामी होता है। किसी भी लग्न में यदि केंद्र में राहू-मंगल युति बनती है तों पूरा परिवार ही इस व्यक्ति के कारण धन एवं यश की हानि भुगतता है। नित्य नए उपद्रव खड़े होते है। किसी भी लग्न में यदि मंगल एवं शनि केंद्र में हो तों वह व्यक्ति हो सकता है धनाधिप हो, किन्तु राजकीय दंड एवं सामाजिक बहिष्कार का भागी होता है। किन्तु यदि दशम भाव में मंगल उच्च का होकर शनि के साथ हो तों वह व्यक्ति बलपूर्वक समाज या शासन में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करता है। ऐसा व्यक्ति जघन्य हत्यारा भी हो सकता है यदि लग्न में सूर्य हो।
किसी भी लग्न में यदि शनि एवं राहू केंद्र में हो तों वह भयंकर गुदा, भगंदर, अर्बुद एवं कर्कट रोग से युक्त होगा। और ऐसी अवस्था में यदि किसी भी केंद्र में मेष राशि का राहू-शनि योग हो तों वह व्यक्ति असाध्य रक्त रोग से युक्त होता है। आज का एड्स रोग इसी ग्रह युति का परिणाम है। देश विदेश के 47 एड्स रोगियों के सर्वेक्षण से यह तथ्य पुष्ट हुआ है।
जन्म के समय यदि चन्द्र-मंगल सप्तम एवं सूर्य राहू अष्टम में हो तों वह शिशु विद्रूप- अर्थात लकवा या पक्षाघात से ग्रस्त हो जाता है। यदि चन्द्र मंगल लग्न तथा सूर्य-राहू अष्टम में हो तों बालक विक्षिप्त होता है। यदि सूर्य-शनि-मंगल-राहु किस के जन्म नक्षत्र में एकत्र हो जाय तों उस व्यक्ति की रक्षा भगवान कैसे करेगें यह वही जाने।
* यदि सिंह, वृश्चिक, कुम्भ या मेष राशि में सातवें सूर्य-मंगल युति हो तों विवाह की कोई संभावना नहीं बनती है।
* राहू के साथ चन्द्र दूसरे और पांचवे घर में होने जातक सट्टा खेलने का बड़ा शोकिन होता है। राहू के साथ बुध कही भी हो किसी भी भाव में हो, सट्टा,लोटरी, जुहा, आदि एबो की तरफ जातक का धयान जायगा।यदि बुध अस्त हो तो जातक जुए में लूट जाता है।राहू के साथ मंगल हो तो यक्ति मारधाड़ में विश्वास रखता है। और आतिशबाजी का शोकिन हो जाता है। राहू के साथ गुरु होने पैर राहू ठीक हो जाता है। और शंनी के साथ होने पर राहू बहूत खऱाब हो जाता है। और इनकी दशा, महादशा में सबकुछ चोपट हो जाता है। अत राहू से पीडि़त जातको के लिए राहू का जाप करवाना चाहिए।जो जातक पागल हो गया हो उसे चन्दन की माला पहनाये। तथा राहू के बीज मंत्र का जप गोमेद या सफ़ेद चन्दन की माला से करे भूरे रंग के कुते को बूंदी के लड्डू बुधवार या शनिवार को खिलाये।इसके साथ ही बंदरो को चना, गुड, और भूरे रंग की गाय को चारा खिलाये। जब राहू लग्न में हो या गोचर में नीच का होकर अशुभ फल दे रहा हो यो ऐसे जातको को अपने वजन के बराबर जो का तुलादान शनिवार या पूर्णिमा को करना चाहिए।
* लग्न में नीच का वृहस्पति जातक को अफीम का शौकीन बनता है। द्वादश भाव के स्वामी का शत्रु या नीच राशी में होना जातक को नशेडी बनता है। कमजोर लग्न भी मित्र ग्रहों से सहयोग न मिलाने से नशे की तरफ बदता है लग्न पर पाप ग्रहों की द्रष्टि भी मादक पदार्थो का सेवन करती है। पेट, जीभ और स्नायु केन्द्रों पर बुध का अधिकार होता है। बुध को मिश्रित रस भी पसंद है। शुक्र का वीर्य, काफ, जल, नेत्र और कमंगो पर अधिकार है। अत: इन दोनों के द्वितीय भाव से सम्बंधित होने से पीडि़त होने से और द्रष्टि होने से जातक द्वारा मादक पदार्थो का सेवन करने और नहीं करने का पता चलता है। मंगल, शनि, राहू और क्षीण चन्द्रमा की द्रष्टि उत्तेजना बढाती है। जो जातक को नशेडी बनने पर मजबूर कर देती है।
* राहु धरातल वाला ग्रह नहीं होने से छाया ग्रह कहा जाता है। लेकिन राहू की प्रतिष्ठा अन्य ग्रहों की भांति ही है। शनि की भांति लोग राहु से भी भयभीत रहते है। दक्षिण भारत में तो लोग राहुकाल में कोई भी कार्य नहीं करते है। राहू को अन्धकार युक्त ग्रह कहा गया है राहू के नक्षत्र आद्रा,स्वाति, और सात्भिसा है। राहु को कन्या राशी का अधिपत्य प्राप्त है। कुछ ज्योतिषी राहु को मिथुन राशी में उच्च का एवं धनु राशी में नीच का मानते है। राहू का वर्ण नीलमेघ के समान है। सरीर में इसे पेट और पिंडलियों में स्थान मिला है गोमेद इसकी मणि, पूर्णिमा इसका दिन, व अभ्रक इसकी धातु है। राहू रोग कारक ग्रह है। काला जादू, हिप्नोटीज्म में रूचि यही ग्रह देता है। अचानक घटने वाली घटनायो के योग राहू के कारण ही होते है।
* कुंडली में पंचम भाव के स्वामी पर नीच या पीडि़त शनि, राहू की द्रष्टि मादक पदार्थो का सेवन कराती है। सूर्य की नीच राशी तुला में ये स्पष्ट लिखा है की जातक शराब बनाने और बचने वाला होता है। कर्क राशी में मंगल नीच का होता है। अत: वह चंचल मन वाला और जुआ खेलने में विशेष रूचि रखता है। बुध की नीच राशी मीन है। यह जातक को चिंतित रखता है और उस की स्मरण शक्ति भी खऱाब होती है। कन्या में शुक्र पीडि़त होकर मद्यपान की और ले जाता है। शनि मेष में नीच होता है। वह जातक से जालसाजी, फरेब करने के साथ ही नशा भी करता है। राहू वृश्चिक में नीच का होता है, वह जातक को शराब के आलावा कोकीन, अफीम, हिरोइन आदि का भी टेस्ट कराना चाहता है।

रहस्यमयी और अलौकिक निधिवन

भारत में कई ऐसी जगह है जो अपने दामन में कई रहस्यों को समेटे हुए है ऐसी ही एक जगह है वृंदावन स्थित निधि-वन, जिसके बारे में मान्यता है की यहाँ आज भी हर रात कृष्ण गोपियों संग रास रचाते है। यही कारण है की सुबह खुलने वाले निधिवन को संध्या आरती के पश्चात बंद कर दिया जाता है। उसके बाद वहां कोई नहीं रहता है, यहाँ तक की निधिवन में दिन में रहने वाले पशु-पक्षी भी संध्या होते ही निधि वन को छोडक़र चले जाते हैं।
वैसे तो शाम होते ही निधि वन बंद हो जाता है और सब लोग यहाँ से चले जाते है। लेकिन फिर भी यदि कोई छुपकर रासलीला देखने की कोशिश करता है तो पागल हो जाता है। ऐसा ही एक वाकया करीब 10 वर्ष पूर्व हुआ था जब जयपुर से आया एक कृष्ण भक्त रास लीला देखने के लिए निधिवन में छुपकर बैठ गया। जब सुबह निधि वन के गेट खुले तो वो बेहोश अवस्था में मिला, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका था। ऐसे अनेकों किस्से यहाँ के लोग बताते है। ऐसे ही एक अन्य व्यक्ति थे पागल बाबा, जिनकी समाधि भी निधि वन में बनी हुई है। उनके बारे में भी कहा जाता है की उन्होंने भी एक बार निधि वन में छुपकर रास लीला देखने की कोशिश की थी। जिससे की वो पागल ही गए थे। चुंकी वो कृष्ण के अनन्य भक्त थे इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात मंदिर कमेटी ने निधि वन में ही उनकी समाधि बनवा दी।
निधि वन के अंदर ही है ‘रंग महल’ जिसके बारे में मान्यता है की रोज रात यहाँ पर राधा और कन्हैया आते है। रंग महल में राधा और कन्हैया के लिए रखे गए चंदन की पलंग को शाम सात बजे के पहले सजा दिया जाता है। पलंग के बगल में एक लोटा पानी, राधाजी के श्रृंगार का सामान और दातुन संग पान रख दिया जाता है। सुबह पांच बजे जब ‘रंग महल’ का पट खुलता है तो बिस्तर अस्त-व्यस्त, लोटे का पानी खाली, दातुन कुची हुई और पान खाया हुआ मिलता है। रंगमहल में भक्त केवल श्रृंगार का सामान ही चढ़ाते है और प्रसाद स्वरुप उन्हें भी श्रृंगार का सामान मिलता है।
निधि वन के पेड़ भी बड़े अजीब हैं, जहाँ हर पेड़ की शाखाएं ऊपर की और बढ़ती हैं वही निधि वन के पेड़ों की शाखाएं नीचे की ओर बढ़ती है। हालात यह है की रास्ता बनाने के लिए इन पेड़ों को डंडों के सहारे रोक गया है।
निधि वन की एक अन्य खासियत यहाँ के तुलसी के पेड़ है। निधि वन में तुलसी का हर पेड़ जोड़े में है। इसके पीछे यह मान्यता है कि जब राधा संग कृष्ण वन में रास रचाते हैं तब यही जोड़ेदार पेड़ गोपियां बन जाती हैं। जैसे ही सुबह होती है तो सब फिर तुलसी के पेड़ में बदल जाती हैं। साथ ही एक अन्य मान्यता यह भी है की इस वन में लगे जोड़े की वन तुलसी की कोई भी एक डंडी नहीं ले जा सकता है। लोग बताते हैं कि जो लोग भी ले गए वो किसी न किसी आपदा का शिकार हो गए। इसलिए कोई भी इन्हें नहीं छूता।

कब होगी मकान सुख की प्राप्ति: ज्योतिष्य विश्लेषण

इंसान की प्रथम जरुरत रोटी, कपड़ा व मकान की प्राप्ती करना होता हैं। आज के समय में रोटी कपड़ा सभी को असानी से प्राप्त हो जाता हैं। परन्तु मकान का सुख सभी को प्राप्त नही हो पाता। जनसंख्या का विस्फोटक विस्तार स्थान की कमी उत्पन्न करता हैं। ऐसे समय में कई लोगों को ऐडी-चौटी का जोर लगाने पर भी मकान सुख नही मिल पाता। जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव से मकान के सुख के बारें में जाना जाता हैं। मंगल भूमि पुत्र होने के कारण मकान व जमीन का कारक हैं। शुक्र और शनि भी मकान का सुख देने वाले ग्रह हैं। किन स्थितियों में ग्रह मकान सुख देते हैं आइये इससे विस्तार से समझें...
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति की कुंडली देखकर यह बताया जा सकता है कि उसके पास स्वयं का घर होगा या नहीं या फिर वह कितने मकानों का मालिक होगा। मनुष्य जीवन में एक ड्रीम हॉउस / स्वप्न महल / सुंदर सा एक बंगला बने न्यारा, ऐसी प्राय: सभी की इच्छा रहती है। कुछ भाग्यवानों को यह सुख कम आयु में ही प्राप्त हो जाता है। तो कुछेक लोग पूरी जिंदगी किरायेदार होकर ही व्यतीत कर देते है। पूर्व जन्म के शुभाशुभ कर्मो के अनुसार ही भवन सुख की प्राप्ति होती है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार भवन सुख हेतु कुण्डली मे चतुर्थ भाव व चतुर्थेश का महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी भवन पर ग्रहों का भी शुभाशुभ प्रभाव अवश्य पड़ता है। लाल किताब के अनुसार वास्तु संबंधी दोषों के निवारण के बारे में इस लेख में उल्लेख है। लाल किताब में वास्तु अर्थात भवन या मकान का कारण ग्रह शनि है। किसी की जन्मकुंडली में शनि उच्च का हो तो उसे भवन सुख मिलता है। इसके विपरीत शनि, नीच, अस्त या क्षीण शत्रु ग्रहों से युक्त हो तो जातक को मकान सुख से वंचित रखता है।
किसी भी जन्मकुंडली में भारतीय ज्योतिषानुसार चतुर्थ स्थान मकान कारक माना गया ह।ै लेिकन लाल किताब में मकान का कारक द्वितीय स्थान या दूसरे घर को माना गया है। सातवें भाव से भी भवन के सुख-दुख का विचार किया जाता है। जिस तरह किसी भी जन्मकुंडली में ग्रहों की स्थिति दर्शाई जाती है, उसी तरह लाल किताब में भी किसी भी मकान में किस स्थान पर किस ग्रह से संबंधित वस्तु रखने या न रखने से क्या प्रभाव होता है। इसके संकेत दिये गये हैं। लाल किताबनुसार मकान में वस्तुएं निम्न ग्रहों अनुसार रखनी चाहिए। उपरोक्तानुसार ग्रह से संबंधित वस्तुएं, जहां ग्रह की स्थिति दर्शाई गई है उसी स्थान या दिशा में रखने से भवन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। ठीक इसके विपरीत रखने पर खराब प्रभाव मकान पर पड़ेगा। मनुष्य पर ग्रहों का शुभाशुभ प्रभाव पड़ता है और लाल किताब में ग्रहों को जजों की संज्ञा दी गयी है। इसमें भी शनि को मुख्य न्यायाधीश माना गया है अत: शनि का भावानुसार शुभाशुभ फल प्रथम बतलाए जा रहे हैं। किसी भी व्यक्ति द्वारा जब स्वयं का मकान बनाया जाता है तो मकान बनाने के प्रारंभिक 3 से 18वर्षों के दौरान शनि का उस भवन पर शुभाशुभ प्रभाव पड़ता है, जिससे व्यक्ति का जीवन भी प्रभावित होता है।
* लाल किताब के अनुसार जन्मकुंडली में यदि शनि पहले घर में हो और सातवां व दसवां घर खाली हो तो शुभ फलों की प्राप्ति होती है। वरना वह लोगों का ऋणी हो जाता है और उसे नुकसान होता है।
* यदि शनि दूसरे स्थान में हो तो व्यक्ति मकान का निर्माण मध्य में न रोकें। ऐसा करने से सुखी रहेगा वरना उप परिणाम भुगतने होंगे।
* यदि शनि तीसरे घर में हो तो व्यक्ति मकान बना लेने के बाद तीन कुश्रे पाले। ऐसा करने से व्यक्ति सुखी रहेगा वरना दुख भोगने होंगे।
* यदि शनि चैथे घर में हो तो व्यक्ति किराए के मकान में रह ले, वही अच्छा है। क्योंकि निजी मकान बनवाने से सास, माँ, मामा, दादी आदि को कष्ट उठाने होंगे।
* यदि शनि पांचवे घर में हो और व्यक्ति निजी मकान बनवाए तो संतान को पीड़ा रहेगी। इसके विपरीत यदि संतान द्वारा निर्मित मकान में रहे तो ठीक होगा। व्यक्ति स्वयं का मकान यदि बनवाए तो 48की उम्र पार करके ही बनवाए। मकान बनवाने से पहले खुदाई के समय या उससे पहले काले भैंसे को खूब खिला-पिलाकर पूजन करके छोड़ दें इसे अशुभ फल नष्ट हो जाएगा।
* यदि शनि छठे घर में हो तो व्यक्ति 36से 39 की उम्र होने पर ही मकान बनावाए अन्यथा बेटी की ससुराल में परेशानी उत्पन्न जो जाएगी।
* यदि शनि सातवें घर में हो तो व्यक्ति मकान बनवाने पर सुखी रहता है तथा वह एक के बाद एक मकान बनाता है या बना हुआ ही खरीदता रहता है। ऐसा तभी होता है जब शनि शुभ हो। वरना अपना भी मकान बेचना पड़ता है। लेकिन मकान के बिकने तक अर्थात सौदा होने के बाद खरीदने वाला आकर रहने लगे, उससे पूर्व तक यदि वह उस मकान की देहली को पूजे तो फिर से मकान बना लेता है।
* यदि शनि आठवें घर में हो, व्यक्ति मकान बनाने लगे तो उसे कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह कष्ट में रहता है। लेकिन राहु-केतु यदि शुभ हों तो अच्छे फल भी मिलते हैं।
* यदि शनि नवें घर में हो तो व्यक्ति नया मकान बनाना तब प्रारंभ करे जब घर में कोई स्त्री गर्भ से हो। ऐसा व्यक्ति मकान निर्माण में अपना पैसा लगाएगा तो पिता की मौत देखेगा। इसका हल है कि अपना पैसा ऋण चुकाने में उपयोग करें। मकान एक या दो ही बनाएं।
* यदि शनि दसवें घर में हो और व्यक्ति अपना मकान बनाकर रहे तो उसे सुख प्राप्त नहीं होता। अपने मकान में जाते ही वह दरिद्र हो जाता है। इससे अच्छा यही है कि वह किराए के मकान में रहे।
* यदि शनि ग्यारहवें घर में हो तो व्यक्ति बुढ़ापे में मकान बनवाता है।
* यदि शनि बारहवें घर में हो तो व्यक्ति को आयताकार मकान बनवाना शुभ रहेगा। मकान बनवाते समय अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अत: धीरे-धीरे बनवाने में ही फायदा है, लेकिन बनवाता रहे। निर्माण कार्य रोके नहीं।
जातक तत्व के अनुसार ‘‘गृह ग्राम चतुष्टपद मित्र क्षेत्रो।’’ अर्थात भवन सुख हेतु चतुर्थ भाव, चतुर्थेश की कुण्डली में शुभ एवं बलवान होकर स्थित होना जातक को उत्तम भवन सुख की प्राप्ति करवाता है तो निर्बल होकर स्थित होना लाख चाहने पर भी उचित भवन की व्यवस्था नहीं करवा पाता। चतुर्थ भाव में चतुर्थेश होना व लग्न में लग्नेश होने से या दोनों में परस्पर व्यत्यय हाने से एवं शुभ ग्रहो के पूर्ण दृष्टि प्रभाव का होना भी जातक को उत्तम भवन सुख की प्राप्ति करवाता है। मकान/भवन सुख प्राप्ति के कुछ ज्योतिषिय योग -
1. लग्नेश से युक्त होकर चतुर्थेश सर्वोच्च या स्वक्षेत्र में हो तो भवन सुख उत्तम होता है।
2. तृतीय स्थान में यदि बुध हो तथा चतुर्थेश का नंवाश बलवान हो, तो जातक विशाल परकोट से युक्त भवन स्वामी होता है।
3. नवमेश केन्द्र में हो, चतुर्थेश सर्वोच्च राशि में या स्वक्षेत्री हो, चतुर्थ भाव में भी स्थित ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो जातक को आधुनिक साज-सज्जा से युक्त भवन की प्राप्ति होगी
4. चतुर्थेश व दशमेश, चन्द्र व शनि से युति करके स्थित हो तो अक्समात ही भव्य बंगले की प्राप्ति होती है।
5. कारकांश लग्न में यदि चतुर्थ स्थान में राहु व शनि हो या चन्द्र व शुक्र हो तो भव्य महल की प्राप्ति होनी है।
6. कारकांश लग्न में चतुर्थ में उच्चराशिगत ग्रह हो या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में स्थित हो तो जातक विशाल महल का सुख भोगता है।
7. यदि कारकांश कुण्डली में चतुर्थ में मंगल व केतु हो तो भी पक्के मकान का सुख मिलता है।
8. यदि चतुर्थेश पारवतांश में हो, चन्द्रमा गोपुरांश में हो, तथा बृहस्पति उसे देखता हो तो जातक को बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय सुखों जैसे घरो की प्राप्ति होती है।
9. यदि चतुर्थेश व लग्नेश दोनों चतुर्थ में हो तो अक्समात ही उत्तम भवन सुख प्राप्त होता है।
10. भवन सुखकारक ग्रहो की दशान्तर्दशा में शुभ गोचर आने पर सुख प्राप्त होता है।
11. चतुर्थ स्थान, चतुर्थेश व चतुर्थ कारक, तीनों चर राशि में शुभ होकर स्थित हों या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में हो या लग्नेश, चतुर्थेश व द्वितीयेश तीनो केन्द्र त्रिकोण में, शुभ राशि में हों, तो अनेक मकानों का सुख प्राप्त होता है। यदि भवन कारक भाव-चतुर्थ में निर्बल ग्रह हो, तो जातक को भवन का सुख नही मिल पाता। इन कारकों पर जितना पाप प्रभाव बढ़ता जाएगा या कारक ग्रह निर्बल होते जाएंगे उतना ही भवन सुख कमजोर रहेगा। पूर्णयता निर्बल या नीच होने पर आसमान तले भी जीवन गुजारना पड़ सकता है। किसी स्थिति में जातक को भवन का सुख कमजोर रहता है, या नहीं मिल पाता इसके कुछ प्रमुख ज्योतिषीय योगों की और ध्यान आकृष्ट करें तो पाते हैं कि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश का रहना प्रमुख है।
इसके अतिरिक्त भवन/मकान प्राप्ति के कुछ ज्योतिषिय योग...
* कारकांश कुण्डली में चतुर्थ स्थान में बृहस्पति हो तो लकड़ी से बने घर की प्राप्ति होती है। यदि सूर्य हो तो घास फूस से बने मकान की प्राप्ति होती है। चतुर्थेश, लग्नेश व द्वितीयेश पर पापग्रहों का प्रभाव अधिक होने पर जातक को अपने भवन का नाश देखना पडता है।
* चतुर्थेश अधिष्ठित नवांशेष षष्ठ भाव में हो तो जातक को भवन सुख नही मिलता। चतुर्थेश व चतुर्थ कारक यदि त्रिक भावो में स्थित हो तो जातक को भवन सुख की प्राप्ति नही होती। शनि यदि चतुर्थ भाव मे स्थित हो तो जातक को परदेश में ऐसे भवन की प्राप्ति होगी, जो टुटा-फूटा एवं जीर्ण-शीर्ण पुराना हो।
* द्वितीय, चतुर्थ, दशम व द्वादश का स्वामी, पापग्रहो के साथ त्रिक स्थान में हो, तो भवन का नाश होता है।
* चतुर्थ भावस्थ पापग्रह की दशा में भवन की हानि होती है। भवन सुख हेतु कुण्डली में इसके अतिरिक्त नवम, दशम, एकादश, पंचम भावो भाव का बल भी परखना चाहिए। क्योकि इन भावो के बली होने पर जातक को अनायाश ही भवन की प्राप्ति होते देखी गई है। इन भावों में स्थित ग्रह, यदि शुभ होकर बली हो व भावेश भी बली होकर स्थित हो तो निश्चयात्मक रूप से उत्तम भवन सुख मिलता है। भवन सुख हेतु बाधक ग्रह का वैदिक उपाय करने पर भवन सुख अवश्य मिलता हैं।
कुछ योग जिनसे आप जान सकते हैं कि आपके भाग्य में कितने मकान हैं-
1- जन्म कुण्डली के चौथे भाव में या चौथे भाव का स्वामी चर राशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) में हो और चौथे भाव का स्वामी शुभ ग्रहों से युत हो तो ऐसा व्यक्ति अनेक भवनों में रहता है और उसे अनेक भवन बदलने पड़ते हैं। यदि चर की जगह स्थिर राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) हो तो व्यक्ति के पास स्थाई भवन होते हैं।
2. जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) बली हो तथा लग्न का स्वामी, चौथे भाव का स्वामी, दूसरे भाव का स्वामी इन तीनों में से जितने ग्रह केंद्र-त्रिकोण (1, 4, 5, 7, 10) भाव में हो उतने भवन होते हैं।
3. जन्मकुण्डली में नौंवे भाव का स्वामी दूसरे भाव में और दूसरे भाव का स्वामी नौवें भाव में स्थित हो अर्थात परिवर्तन योग हो तो ऐसे व्यक्ति का भाग्योदय बारहवें वर्ष में होता है और 32 वें वर्ष के उपरांत उसे वाहन, भवन और नौकर का सुख मिलता है।
भूमि/भवनसुख दायक प्रयोग:
1. यदि आपको लगता है कि आपके पास ही घर क्यों नहीं है? आपके पास ही संपत्ति क्यों नहीं है? क्या इतनी बड़ी दुनिया में आपको थोड़ी सी जगह मिलेगी भी या नहीं, तो परेशान मत होइए केवल कूर्म स्वरुप विष्णु जी की पूजा कीजिये, विष्णु जी की प्रतिमा के सामने कूर्म की प्रतिमा रखें या कागज पर बना कर स्थापित करें। इस कछुए के नीचे नौ बार नौ का अंक लिख दें। भगवान् को पीले फल व पीले वस्त्र चढ़ाएं, तुलसी दल कूर्म पर रखें और पुष्प अर्पित कर भगवान् की आरती करें। आरती के बाद प्रसाद बांटे व कूर्म को ले जा कर किसी अलमारी आदि में छुपा कर रख लें। इस प्रयोग से भूमि संपत्ति भवन के योग रहित जातक को भी इनका सुख प्राप्त होता है
२. सोते समय अपने सिरहाने तांबे के पात्र में जल भरें और उस जल में एक चुटकी रोली एवं एक छोटी डली गुड की रखें। सुबह उठकर उस जल को पीपल के वृक्ष में डाल दें। यह उपाय करने से भवन बाधा समाप्त हो जाएगी
३. शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार को आप सांध्यकाल में निकट के किसी भी हनुमान मन्दिर में चमेली के तेल का दीपक और गुग्गुल की धूप के साथ आठ सौ ग्राम साबूत चने एवं सवा सौ ग्राम गुड का नैवेद्य अर्पित कर श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें। इसके पश्चात् हनुमानजी के बायें पैर के सिन्दूर से स्वयं का तिलक करें। नैवेद्य के चने और गुड में से थोडा-थोडा एक स्थान पर निकालकर बाकी को बांट दें। निकाली हुई सामग्री के साथ सवा किलो तथा सवा किलो गुड मिलाकर, चने बन्दरों को खिला दें और गुड गाय को खिला दें। इसके पश्चात् नित्य श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें।
योग निष्कर्ष:
घर का सुख देखने के लिए मुख्यत: चतुर्थ स्थान को देखा जाता है। फिर गुरु, शुक्रऔर चंद्र के बलाबल का विचार प्रमुखता से किया जाता है। जब-जब मूल राशि स्वामी या चंद्रमा से गुरु, शुक्र या चतुर्थ स्थान के स्वामी का शुभ योग होता है, तब घर खरीदने, नवनिर्माण या मूल्यवान घरेलू वस्तुएँ खरीदने का योग बनता है। व्यक्ति के जीवन पुरुषार्थ, पराक्रम एवं अस्तित्व की पहचान उसका निजी मकान है। महंगाई और आबादी के अनुरूप हर व्यक्ति को मकान मिले यह संभव नहीं है। आधी से ज्यादा दुनिया किराये के मकानों मेंं रहती है। कुछ किरायेदार, जबरदस्ती मकान मालिक बने बैठे हैं। कुछ लोगों को मकान हर दृष्टि से फलदायी है। कोई टूटे-फूटे मकानों मेंं रहता है तो कोई आलिशान बंगले का स्वामी है। सुख-दुख जीवन के अनेक पहलुओं पर मकान एक परमावश्यकता बन गई है।
जन्मपत्री मेंं भूमि का कारक ग्रह मंगल है। जन्मपत्री का चौथा भाव भूमि व मकान से संबंधित है। चतुर्थेश उच्च का, मूलत्रिकोण, स्वग्रही, उच्चाभिलाषी, मित्रक्षेत्री शुभ ग्रहों से युत हो या शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो अवश्य ही मकान सुख मिलेगा।
साथ ही मंगल की स्थिति का सुदृढ़ होना भी आवश्यक है। मकान सुख के लिये मंगल और चतुर्थ भाव का ही अध्ययन पर्याप्त नहीं है। भवन सुख के लिये लग्न व लग्नेश का बल होना भी अनिवार्य है। इसके साथ ही दशमेंश, नवमेंश और लाभेश का सहयोग होना भी जरूरी है।
1. स्वअर्जित भवन सुख (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- लग्नेश चतुर्थ स्थान मेंं हो चतुर्थेश लग्न मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्म लेने वाला जातक पराक्रम व पुरुषार्थ से स्वयं का मकान बनाता है।
2. उत्तम ग्रह योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश किसी शुभ ग्रह के साथ युति करे, केंद्र-त्रिकोण (1, 4, 7, 9, 10) मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति को अपनी मेहनत से कमाये रुपये का मकान प्राप्त होता है। मकान से सभी प्रकार की सुख सुविधायें होती है।
3. अकस्मात घर प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और लग्नेश दोनों चतुर्थ भाव मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- अचानक घर की प्राप्ति होती है। यह घर दूसरों का बनाया होता है।
4. एक से अधिक मकानों का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ स्थान पर चतुर्थेश दोनों चर राशियों मेंं (1, 4, 7, 10) हो। चतुर्थ भाव के स्वामी पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो एक से अधिक मकान प्राप्ति के योग बनते हैं।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति के अलग-अलग जगहों पर मकान होते हैं। वह मकान बदलता रहता है।
5. वाहन, मकान व नौकर सुख योग (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- नवमेंश, दूसरे भाव मेंं और द्वितीयेश नवम भाव मेंं परस्पर स्थान परिवर्तन करें तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्मेंं जातक का भाग्योदय 12वें वर्ष मेंं होता है। 32वें वर्ष के बाद जातक को वाहन, मकान और नौकर-चाकर का सुख मिलता है।
6. बड़े बंगले का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव मेंं यदि चंद्र और शुक्र हो अथवा चतुर्थ भाव मेंं कोई उच्च राशिगत ग्रह हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।
7. बिना प्रयत्न प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- लग्नेश व सप्तमेंश लग्न मेंं हो तथा चतुर्थ भाव पर गुरु, शुक्र या चंद्रमा का प्रभाव हो।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा, जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।
8. बिना प्रयत्न ग्रह प्राप्ति का दूसरा योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव का स्वामी उच्च, मूल त्रिकोण या स्वग्रही हो तथा नवमेंश केंद्र मेंं हो तो ये योग बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को बिना प्रयत्न के घर मिल जाता है।
9. ग्रहनाश योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश के नवमांश का स्वामी 12वें चला गया हो तो, यह दोष बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को अपनी स्वयं की संपत्ति व घर से वंचित होना पड़ता है।
10. उत्तम कोठी योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और दशमेंश एक साथ केंद्र त्रिकोण मेंं हो तो उत्तम व श्रेष्ठ घर प्राप्त होता है।
परिणाम- कोठी, बड़ा मकान व संपत्ति प्राप्ति होती है।

प्रेम विवाह के बाद प्रेम गायब -जाने क्या है इसके ज्योतिषीय कारण

सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे प्राचीन काल में गंर्धव विवाह के रूप में मान्यता प्राप्त थी। आज के आधुनिक काल में इसे ही प्रेम विवाह का रूप माना जा सकता है। इस विवाह में वर-वधु की पारस्परिक सहमति के अतिरिक्त किसी की आज्ञा अपेक्षित नहीं होती। पुराणों में वणिर्त पुरूष और प्रकृति के प्रेम के साथ आज के युग में प्रचलित प्रेम विवाह देश और काल के निरंतर परिवर्तनशील परिस्थितियों में प्रेम और उससे उत्पन्न विवाह का स्वरूप सतत रूपांतरित होता रहा है किंतु एक सच्चाई है कि सामाजिकता का हवाला दिया जाकर विरोध के बावजूद आज भी यह परंपरा अपारंपरिक तौर पर मौजूद है। अत: इसका ज्योतिषीय कारण देखा जाना उचित प्रतीत होता है। जन्मांग में प्रेम विवाह संबंधी संभावनाओं का विष्लेषण करते समय सर्वप्रथम पंचमभाव पर दृष्टि डालनी चाहिए। पंचम भाव से किसी जातक के संकल्प-शक्ति, इच्छा, मैत्री, साहस, भावना ओर योजना-सामथ्र्य आदि का ज्ञान होता है। सप्तम भाव से विवाह, दाम्पत्य सुख, सहभागिता, संयोग आदि का विचार किया जाता है। अत: प्रेम विवाह हेतु पंचम एवं सप्तम स्थान के संयोग सूत्र अनिवार्य हैं। सप्ताधिपति एवं पंचमाधिपति की युति, दोनों में पारस्परिक संबंध या दृष्टि संबंध हेाना चाहिए। प्रेम विवाह समान जाति, भिन्न जाति अथवा भिन्न धर्म में होगा इसका विचार करने हेतु नवम भाव पर विचार किया जाना चाहिए। स्फुट रूप से एकादश और द्वितीय स्थान भी विचारणीय है, क्योंकि एकादश स्थान इच्छापूर्ति और द्वितीय भाव पारिवारिक सुख संतोष के अस्तित्व को प्रकट करता है। चंद्रमा मन का कारक ग्रह है। प्रेम विवाह हेतु चंद्रमा की स्थिति प्रबलता, ग्रहयुति आदि का भी प्रभाव पड़ता है। जिनके जीवन में इस प्रकार के प्रभाव से विवाह में रूकावट या कष्ट हों उन्हें शिव-पावर्ती की पूजा सोमवार का व्रत करते हुए करना चाहिए तथा शंकर मंत्र का जाप करने से बाधा दूर होती है।
सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे पुरातन काल में गंर्धव विवाह और आधुनिक काल में प्रेमविवाह का नाम दिया जाता है। जब भी कोई अपनी पसंद रखता तब वह प्रेम करता है। जब प्रेम होता है तो विवाह भी तमाम विरोध के बावजूद करता है किंतु कुछ समय के बाद ही आपस में ही मतभेद दिखाई देते हैं। ज्योतिषीय रूप देखा जाए तो प्रेम करने हेतु लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम, दसम या द्वादश स्थान में शनि अथवा गुरू, शुक्र, चंद्रमा, राहु या सप्तमेश अथवा द्वादशेश शनि से आक्रांत हो तो ऐसे लोगों को प्यार जरूर होता है। चूॅकि शनि स्वायत्तशासी बनाता है अत: प्रेम के बाद स्वयं की स्वेछा से कार्य करने के कारण अपने प्यार से ही पंगा भी कर लेते हैं। अत: जो ग्रह प्यार का कारक है वहीं ग्रह प्यार में पंगा भी देता है। अत: अगर किसी के प्यार में पंगा हो जाए तो उसे तत्काल शनि की शांति कराना चाहिए। इसके साथ शनि के मंत्रों का जाप, काली चीजों का दान एवं व्रत करना चाहिए। इससे प्यार हो और वह प्यार निभ भी जाए।

अचानक संपत्ति नष्ट और मृत्यु होना....ज्योतिषीय योग

अगर जन्मकुंडली में लग्नेश शुक्र वक्री होकर क्रूर ग्रह सूर्य के साथ युति बनता है तो और क्रूर ग्रह मंगल जो कि तुला लग्न के लिए अशुभ ग्रह है, उससे पूर्ण दृष्ट तो, उसके प्रभाव से स्वभाव में अधिक रिस्क लेने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। स्वराशिगत सूर्य लाभ भाव में होने से यह उच्च महत्वाकांक्षी विचारों वाले व्यक्ति होते है। चतुर्थेश शनि ग्रह तीव्र गति वाले ग्रह चंद्र की राशि में स्थित होने से यह संकेत देते है कि वे व्यक्ति तीव्र वेग से चलने वाले वाहन आदि का शौक रखते है। चतुर्थ स्थान का कारक ग्रह, चंद्रमा, आकाश तत्व ग्रह की राशि पर स्थित होने से तथा आकाश तत्व ग्रह बृहस्पति की चतुर्थेश वायुतत्व ग्रह शनि पर पूर्ण दृष्टि होने से उनके पास आकाश में विचरण करने वाले वायुयान की निजी सुख-सुविधा प्राप्त होती है। संपत्ति के स्वामी चतुर्थेश शनि की दसवें स्थान से अपने घर पर पूर्ण दृष्टि है। शनि योगकारक है तथा केंद्र में स्थित होने से इसके प्रभाव से उन्हें सुंदर आलीशान घर भी बनवाते है लेकिन षष्ठेश शत्रु घर के स्वामी बृहस्पति की चतुर्थेश शनि पर दृष्टि होने से विरोधी शत्रुओं के षड्यंत्र के द्वारा भी उनकी संपत्ति नष्ट हो जाती है।
लग्नेश, अष्टमेश, लग्न भाव, अष्टम भाव की स्थिति पर विचार करें, तो लग्नेश ग्रह शुक्र जो कि तुला लग्न के लिए अष्टमेश भी है, वह क्रूर ग्रह सूर्य की युति में और क्रूर ग्रह प्रबल मारकेश मंगल से दृष्ट है। अगर लग्न पर किसी भी शुभ एवं पाप ग्रहों की दृष्टि नहीं है। वह तटस्थ है अर्थात् न अधिक शुभ और न ही अधिक अशुभ है। दूसरी ओर अष्टम जो कि मृत्यु का भाव है, वह मारकेश मंगल तथा अशुभ ग्रह केतु से ग्रसित होने के कारण अत्यंत पापपीडि़त होते है, जिसके कारण इस जातक की मध्य आयु में अचानक आघात होने से मृत्यु हुई। अन्य रीति से भी आयु का अवलोकन करें, तो अष्टम भाव से अष्टम तृतीय भाव भी आयु स्थान है। वह भी मारकेश मंगल से पूर्ण दृष्ट है एवं आयु कारक शनि भी अकारक ग्रह षष्ठेश बृहस्पति से दृष्ट है तथा चंद्रमा भी अशुभ भाव में मारकेश मंगल से दृष्ट है। इन सभी अशुभ ग्रह योगों के कारण यह जातक लंबी आयु का सुख प्राप्त नहीं कर सका। जब इनकी मृत्यु हुई उस समय चंद्र में शनि की अंतर्दशा तथा बृहस्पति की प्रत्यंतर्दशा में मंगल की सूक्ष्म दशा चल रही थी तथा गोचर में मंगल लग्नेश शुक्र के ऊपर से गोचर कर रहा था, दशानाथ चंद्रमा भी अष्टम से अष्टम स्थान में स्थित है तथा अंतर्दशानाथ शनि भी राहु से दृष्ट है एवं प्रत्यंतर्दशानाथ बृहस्पति भी अशुभ भाव छठे में है तथा उसी भाव का भावेश भी है। सूक्ष्म प्रत्यंतर्दशा का स्वामी मंगल भी प्रबल मारकेश होकर मृत्यु भाव में स्थित है, यह इनके लिए मारक सिद्ध हुआ।

पारिवारिक कलह: ज्योतिष कारण व निवारण

ज्योतिष में सप्तम भाव अपने साथी का भाव माना गया है- वह जीवन साथी हो या व्यापार में साझेदार। सप्तम भावेश लग्नेश का सर्वदा शत्रु होता है। जैसे मेष, लग्न के लिए लग्नेश हुआ मंगल एवं सप्तमेश हुआ शुक्र और दोनों में आपस में शत्रुता है। शायद हमारे ऋषि मुनियों को यह ज्ञात था कि साथ में कार्य करने वालों में मतभेद होता ही है, इसलिए उन्होंने इस प्रकार के ज्योतिष योगों का निर्माण किया।
यदि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव से बंधा हुआ है। इसके विपरीत चलने में उसे कष्ट होता है। साथ ही दूसरे को भी वह अपने स्वभाव के समानांतर चलाने की कोशिश करता है। यह प्रकृति का एक नियम है। लेकिन दो व्यक्तियों के स्वभाव आपस में कितने भिन्न हैं यह ज्योतिष द्वारा दोनों के लग्नों एवं राशियों के माध्यम से ज्ञात किया जा सकता है। इससे संबद्ध कुछ तथ्य इस प्रकार हैं:
* यदि लग्न एक दूसरे के 3-11 हो तो आपसी सामजस्य उत्तम रहता है। एक लग्न दूसरे को मित्र मानता है तो दूसरा पहले को अपना पराक्रम अर्थात कष्ट का साथी। जैसे मेष लग्न के लिए मिथुन लग्न उसका पराक्रम का साथ है एवं कुंभ लग्न उसका मित्र।
* लग्नों में 4-10 का संबंध भी उत्तम रहता है, लेकिन व्यापारिक में साझेदारी यह संबंध अति उत्तम पाया गया है। जिसका लग्न दशम भाव में हो, वह कर्मशील रहता है और जिसका चौथे में हो, वह आर्थिक व मानसिक सहायता द्वारा अपना योगदान देता है। जैसे मेष व कर्क लग्नों की साझेदारी में कर्क लग्न मेष के चैथे भाव में पड़ता है, अत: मेष लग्न के जातक के लिए कर्क लग्न का जातक आर्थिक व मानसिक सहायता प्रदान करेगा और कर्क लग्न के लिए मेष लग्न वाला जातक कर्म द्वारा अपने कार्यभार संभालेगा।
* नवम-पंचम संबंध भी शुभ फल प्रदान करता है। लेकिन जिस जातक का लग्न दूसरे के नवम का सूचक होता है, वह अपने साथी के लिए सर्वदा भाग्य का सूचक रहता है एवं साथी को हर प्रकार का सुख पहुंचाता है। इसके विपरीत पंचम कारक जातक अपने साथी के लिए पिता जैसा व्यवहार तो रखता है, लेकिन साथी से सर्वदा लेने की भावना भी रखता है। इस प्रकार मेष लग्न के लिए सिंह लग्न शुभ होते हुए भी लाभ की स्थिति में रहता है जबकि मेष लग्न सिंह से नवम होने के कारण उसके लिए सर्वदा लाभकारी रहता है।
* द्विद्र्वादश संबंध सर्वदा अशुभ माना गया है, लेकिन इसमें भी दूसरे भाव में पडऩे वाला लग्न शुभदायक रहता है एवं द्वादश में पडऩे वाला अशुभ जैसे मेष के लिए वृष शुभ एवं मीन अशुभ।
* षडाष्टक संबंध अधिकांशत: कलह का कारण बनते हैं।
* समसप्तक संबंध अर्थात् एक लग्न या सप्तम लग्न एक साधारण संबंध की ओर ही संकेत करता है। इस स्थिति में एक जातक दूसरे जातक को अति महत्वपूर्ण एवं अभिन्न साथी समझता है, लेकिन साथ रहने पर किसी न किसी कारणवश वैमनस्यता उत्पन्न हो जाती है। उपर्युक्त सभी फल राशि के अनुसार भी घटित होते हैं।
* गुण मिलान में उपर्युक्त फलों की भकूट दोष के द्वारा जाना जाता है। उपर्युक्त तथ्यों का पिता-पुत्र, भाई-बहन, पति-पत्नी एवं नौकर-मालिक के संबंधों को जानने में भी उपयोग किया जा सकता है।
* कुंडली मिलान में अष्टकूट मिलान एवं मंगल दोष मिलान को प्राथमिकता दी गई है। अष्टकूट गुण मिलान में वर्ण एवं वश्य मिलान कार्यशैली को दर्शाता है। तारा से उनके भाग्य की वृद्धि में आपसी संबंध का पता चलता है। योनि-मिलान से उनके शारीरिक संबंधों की जानकारी मिलती है। ग्रह मैत्री स्वभाव में सहिष्णुता को दर्शाता है। गण मैत्री से उनका व्यवहार, भकूट से आपसी संबंध एवं नाड़ी से उनके स्वास्थ्य और संतान के बारे में जाना जाता है।
* उपर्युक्त अष्ट गुणों में केवल ग्रह मैत्री एवं भकूट ही ऐसे दो गुण हैं जो आपसी संबंध को दर्शाते हैं।
* अन्य गुण जीवन की अन्य भौतिकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं। मंगल दोष मिलान भी उनके अन्य संबंधों के बारे में संकेत न देकर वैवाहिक जीवन का संकेत देता है। अत: परिवार में यदि सभी सदस्यों का आपस में द्विद्र्वादश या षडाष्टक संबंध न हो तो पारिवारिक कलह की संभावनाएं कम रहती हैं।
* पुरुष वर्ग पांच मुखी रुद्राक्षों की माला में एक मुखी, आठ मुखी व पंद्रह मुखी रुद्राक्ष डालकर धारण करें। इस माला पर प्रतिदिन प्रात: ? नम: शिवाय मंत्र का जप करें।
* पत्नी मांग भरें, लाल बिंदी लगाएं और चूडिय़ां धारण करें। घर में विघ्नहर्ता श्री गणेश यंत्र स्थापित करें। स्फटिक श्रीयंत्र की प्राण प्रतिष्ठा कर स्थापित करें।
* ú नम: शिवशक्तिस्वरूपाय मम गृहे शांति कुरु कुरु स्वाहा मंत्र का जप करें।
* पति-पत्नी बीच कलह को दूर करने के लिए गौरी शंकर रुद्राक्ष धारण करना उत्तम फलदायक होता है।
* पानी से भरे चांदी के लोटे या गिलास में चंद्रमणि डालकर वह पानी परिवार के जिस सदस्य को क्रोध अधिक आता हो उसे पिलाएं।
* वास्तु दोष को दूर करने के लिए एक कलश में पानी भरकर उसे नारियल से ढककर ईशान कोण में स्थापित करें और उसका जल प्रतिदिन बदलते रहें।
* तात्पर्य यह कि परिवार में कलह की संभावना हमेशा रहती है। इसके कई कारण हो सकते हैं, किंतु यदि आस्था और निष्ठापूर्वक इनके निवारण के उपाय किए जाएं तो कलह से मुक्ति अवश्य मिल सकती है।

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Thursday 7 July 2016

भ्रष्टाचार के अंत के बाद ही आयेंगे अच्छे दिन......

आज देश के सामने कई प्रकार की समस्यायें हैं जिनके साथ हम रोजाना जूझ भी रहे हैं व उनके साथ जी भी रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या कौन सी है इसको लेकर समाज में अलग-अलग प्रकार के लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं। अनुभव ऐसा है कि जो जिस समय जिस समस्या से प्रभावित होता है उसके लिए वह उतनी ही बड़ी समस्या बन जाती हैं।
पर मेरे विचार से सबसे बड़ी समस्या वह है जिसे लोग समस्या मानना बन्द कर कर चुकें हैं और उसे अपने जीवन का एक हिस्सा मान कर जीने लगे हैं। और वह है भ्रष्टाचार। इस प्रकार देखा जाय तो भ्रष्टाचार आज देश की सबसे बड़ी समस्या बन गई है जिसे आज आम आदमी सहज ही स्वीकार कर ले रहा है। लेकिन अगर सोचा जाए तो देश में जो भी विकास के कार्य होने है या हुये हैं, केवल भ्रष्टाचार के कारण अच्छे या गुणवत्ता के साथ नहीं हो पाए, जिससे देश साल दर साल पीछे होता गया। अब समाज में इसे गलत नहीं समझा जाता बल्कि जो विरोध करता है उसे बेवकूफ या आदर्शवादी कह कर उसका मजाक बनाया जाता है। कुछ माह पूर्व तक समाज में सभी स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार आम चर्चा का विषय भी नहीं था। लोगों ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था- कि यह तो होगा ही या ये सब तो आवश्यक है।
भ्रष्टाचार का यह महारोग अभी पनपा है ऐसा नहीं है, मुगलों के समय में भी भ्रष्टाचार था पर वह आटे में नमक की तरह था। अंग्रेज तो भारत को लूटने ही आये थे इसलिये येन-केन-प्रकरेण अंग्रेजों ने तो हमें लूटा ही। पर आजादी के बाद आये प्रजातन्त्र में यह रूकना चाहिये था पर हुआ उल्टा देश मे पैदा हुये काले अंग्रेजों ने ही हमें लूटा ही नहीं बल्कि देश के भविष्य को भी गर्त में डाल दिया। भ्रष्टाचार की नाली दिन ब दिन चौड़ी होती गई और अब इसने महासागर का रूप ले लिया। कारण देश में प्रजातन्त्र तो आया पर प्रजा की सुनने वाला कोई तन्त्र नहीं बना। अगर देश का राजनैतिक नेतृत्व भ्रष्ट नहीं होता तो प्रजा भी ईमानदार बनी रहती। इन्हीं राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के कारण पारदर्शी तन्त्र को बनने नहीं दिया, उल्टे जनता को भी ईमानदार नहीं रहने दिया।
आज हमारे भारत देश में समस्यायों का अम्बार लगा हुआ है, वर्षो की गुलामी ने हमारे दिल और दिमाग पर गहरा असर डाला है। जो हो चुका उसे हम बदल तो नहीं सकते पर क्या उससे सबक लेकर सुधार नहीं कर सकते? क्या वाकई हमारे देश में काबलियत की कमी हो गयी है या फिर हमे समस्याओ में रहने की आदत ही पड़ गयी है और हम सुधार करना ही नहीं चाहत? या फिर हमने मान लिया है की अब इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं हो सकता और हमे इनकी आदत डाल लेनी ही होगी? यह बड़ा प्रश्न है।

Sakat Yog:Astrological aspects

As we know Moon is the fastest planet of the zodiac and completes its circle in about 27 plus days. By virtue of its movement Moon forms various yogas which have both qualities good and bad. Our findings suggest that Moon forms the maximum negative yogas in a single round that is why so much misery exists on this planet. Had Moon been forming positive rajayogas then the picture.
Invariably all the powerful rajayogas are distributed among the benefic planets. Jupiter being the benevolent planet among all the planetary hierarchy rules the roost in forming a wonderful rajayoga in a chart. The Moon is not only the fastest moving planet of the zodiac but it acts as a catalyst to form or distort rajayogas by its mere presence or placement. The second fastest planet is Mercury who also gets involved in making or destroying the destinies of people who take birth on this earth.
Rajayoga or yoga or yog is a Sanskrit word originated from the root yugm meaning when two different entities join hands that creates a yog. Since in astrology two or more heavenly bodies come across each other and form some kind of connection they give rise to a rajayoga which we study in astrology.
According to the seers of yore barring luminaries other five planets are capable of creating extremely powerful rajayogas known as “panch mahapurush” rajayogas. We have omitted Rahu and Ketu because they do not belong to planet category and are known as sub-planets. Panch Mahapurush yogas are formed by independent planets in a particular placement without the need or support of any other planet. Panch Mahapurush yogas need special treatment which we shall discuss some other time.
The Moon, Mercury and Jupiter are considered
Remembered the most important planets of astrology but are subject to vulnerability with a little affliction or placement. The trouble with Mercury is that it cannot be away from the Sun by more than 28 degrees therefore subject to combustion like a seasonal flu. There are many other factors which can take the wind out of Mercury if they are together with it or aspecting. An afflicted Mercury troubles the subject from all possible angles i.e. intellectual, social, financial, spiritual, relationship, health etc.
According to planetary hierarchy Jupiter is considered the Guru of devtas. Even the demon (rakshasa) or evil planets bow down to Jupiter because of his great knowledge and sacrificing qualities. The importance of Guru comes into existence only when a king, commander, disciple or follower is there. When king or follower stops following guru then guru has no influence on them. May be content and powerful in itself but it cannot influence others. There are many instances in mythology and history when the greatest of gurus has been sidelined by negative forces. The same way; when Guru or Jupiter is not well aligned with the planet with whom it is forming a rajayoga then that rajayoga has no or little value.
Gajkesari rajayoga is a very common rajayoga which is formed when Moon and Jupiter are together, square or in opposition with each other. Moon in its sojourn of the zodiac in 27 days must be forming gajkesari rajayoga for minimum 10 different days. According to this calculation about 40 % of people born on this earth will find gajkesari rajayoga in their chart. According to different texts on the subject a one single gajkesari rajayoga is capable of making the person king of the earth. It implies that the real powerful gajkesari rajayoga seldom forms in a chart.
Sakat yog means a combination of trouble or problems form when Jupiter and Moon are second-twelfth from each other or six-eighth to each other. According to this definition two houses should be involved but in reality four houses are involved when this sakat yog is formed. Moon could be either side of Jupiter from 1st to 7th house giving rise to a sakat (negative) yog.

कुंडली में कारक,अकारक और मारक ग्रह

ग्रहों को नैसर्गिक ग्रह विचार रूप से शुभ और अशुभ श्रेणी में विभाजित किया गया है। बृहस्पति, शुक्र, पक्षबली चंद्रमा और शुभ प्रभावी बुध शुभ ग्रह माने गये हैं और शनि, मंगल, राहु व केतु अशुभ माने गये हैं। सूर्य ग्रहों का राजा है और उसे क्रूर ग्रह की संज्ञा दी गई है। बुध, चंद्रमा, शुक्र और बृहस्पति क्रमशः उत्तरोत्तर शुभकारी हैं, जबकि सूर्य, मंगल, शनि और राहु अधिकाधिक अशुभ फलदायी हैं। कुंडली के द्वादश भावों में षष्ठ, अष्टम और द्वादश भाव अशुभ (त्रिक) भाव हैं, जिनमें अष्टम भाव सबसे अशुभ है। षष्ठ से षष्ठ - एकादश भाव, तथा अष्टम से अष्टम तृतीय भाव, कुछ कम अशुभ माने गये हैं। अष्टम से द्वादश सप्तम भाव और तृतीय से द्वादश - द्वितीय भाव को मारक भाव और भावेशों को मारकेश कहे हैं। केंद्र के स्वामी निष्फल होते हैं परंतु त्रिकोणेश सदैव शुभ होते हैं। नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्र के साथ ही 3, 6 या 11 भाव का स्वामी होकर अशुभ फलदायी होते हैं। ऐसी स्थिति में अशुभ ग्रह सामान्य फल देते हैं। अधिकांश शुभ बलवान ग्रहों की 1, 2, 4, 5, 7, 9 और 10 भाव में स्थिति जातक को भाग्यशाली बनाते हैं। 2 और 12 भाव में स्थित ग्रह अपनी दूसरी राशि का फल देते हैं। शुभ ग्रह वक्री होकर अधिक शुभ और अशुभ ग्रह अधिक बुरा फल देते हैं राहु व केतु यदि किसी भाव में अकेले हों तो उस भावेश का फल देते हैं। परंतु वह केंद्र या त्रिकोण भाव में स्थित होकर त्रिकोण या केंद्र के स्वामी से युति करें तो योगकारक जैसा शुभ फल देते हैं। लग्न कुंडली में उच्च ग्रह शुभ फल देते हैं, और नवांश कुंडली में भी उसी राशि में होने पर ‘वर्गोत्तम’ होकर उत्तम फल देते हैं। बली ग्रह शुभ भाव में स्थित होकर अधिक शुभ फल देते हैं। पक्षबलहीन चंद्रमा मंगल की राशियों, विशेषकर वृश्चिक राशि में (नीच होकर) अधिक पापी हो जाता है। चंद्रमा के पक्षबली होने पर उसकी अशुभता में कमी आती है। स्थानबल हीन ग्रह और पक्षबल हीन चंद्रमा अच्छा फल नहीं देते। कारक ग्रह: ‘कारक’ ग्रह के निर्धारण की विभिन्न विधियां इस प्रकार हैं: 1. महर्षि पाराशर तथा अन्य आचार्यों ने द्वादश भावों के कारक ग्रह इस प्रकार बताए हैं। प्रथम भाव- सूर्य, द्वितीय भाव-बृहस्पति, तृतीय भाव- मंगल, चतुर्थ भाव - चंद्रमा व बुध, पंचम भाव- बृहस्पति, षष्ठ भाव- मंगल व शनि, सप्तम भाव - शुक्र, अष्टम भाव- शनि, नवम भाव - बृहस्पति व सूर्य, दशम भाव- सूर्य, बुध, बृहस्पति व शनि, एकादश भाव- बृहस्पति और द्वादश भाव- शनि। 2. स्थिर कारक: सूर्य- पिता का, चंद्रमा-माता का, बृहस्पति-गुरु व ज्ञान का, शुक्र पत्नी व सुख का, बुध-विद्या का, मंगल भाई का, शनि नौकर का और राहु म्लेच्छ का स्थिर कारक है। 3. जैमिनी चर कारक: यह ग्रहों के अंशों पर निर्भर करता है। सर्वाधिक अंश वाले ग्रह को ‘आत्म कारक’, उससे कम अंश वाले ग्रह को ‘अमात्य कारक’, उससे कम अंश वाले को ‘भ्रातृ कारक’, उससे कम अंश वाले को ‘पुत्र कारक’ और सबसे कम अंश वाले ग्रह को ‘दारा कारक’ या पत्नी कारक’ की संज्ञा दी जाती है। ‘आत्म’ और ‘अमात्य’ कारक जातक का भला करते हैं। राहु/केतु कोई कारक नहीं होते। यदि लग्नेश ही आत्म कारक हो तो उसकी दशा बहुत शुभकारी होती है। ‘आत्म’ कारक ग्रह यदि अष्टमेश भी हो तो उसके शुभ फल में कमी आती है। 4. योगकारक: प्रत्येक ग्रह केंद्र (1, 4, 7, 10 भाव) का स्वामी होकर निष्फल होता है, परंतु त्रिकोण (1,5,9 भाव) का स्वामी सदैव शुभ फल देता है। एक ही ग्रह केंद्र और त्रिकोण का एक साथ स्वामी होने पर ‘योगकारक’ (अति शुभ फलदायी) बन जाता है। जैसे सिंह राशि के लिए मंगल, और तुला लग्न के लिए शनि ग्रह। लग्नेश केंद्र और त्रिकोण दोनों का स्वामी होने से सदैव योगकारक की तरह शुभफलदायी होता है। लग्नेश को 6, 8, 12 भाव के स्वामित्व का दोष नहीं लगता। 5. परस्पर कारक: जब ग्रह अपनी उच्च, मूलत्रिकोण या स्वराशि के होकर केंद्र में स्थित होते हैं तो ‘परस्पर कारक’ (सहायक) होते हैं। दशम भाव में स्थित ग्रह अन्य कारकों से अधिक फलदायी होता है। कुछ आचार्य पंचम भाव में बलवान शुभ ग्रह को भी ‘कारक’ की संज्ञा देते हैं। ‘मारक ग्रह’ ज्येतिष ग्रंथों के अनुसार निम्न ग्रह पीड़ित होने पर अधिक हानिकारक (मारक) बन जाते हैं:- 1. अष्टमेश 2. अष्टम भाव पर दृष्टिपात करने वाले ग्रह। 3. अष्टम भाव स्थित ग्रह 4. द्वितीयेश और सप्तमेश 5. द्वितीय और सप्तम भाव स्थित ग्रह 6. द्वादशेश 7. 22वें द्रेष्काॅण का स्वामी 8. गुलिका स्थित भाव का स्वामी 9. ‘गुलिका’ से युक्त ग्रह। 10. षष्ठेश, व षष्ठ भाव में स्थित पापी ग्रह आदि। ‘कारक’ व ‘मारक’ फलादेश 1. एक बली ‘कारक’ ग्रह अपनी भाव स्थिति, स्वामित्व भाव और दृष्ट भाव को शुभता प्रदान करता है। 2. केंद्र (1, 4, 7, 10) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा पूर्ण शुभ फल देती है। पनफर (2, 5, 8, 11) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा मध्यम फल’ और अपोक्लिम (3, 6, 9, 12) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा साधारण फल देती है। यह फलादेश ग्रह की दशा-भुक्ति में जातक को प्राप्त होता है। 3. पापकत्र्तरी योग में तथा पाप दृष्ट ‘कारक’ के शुभ फल में कमी आती है। 4. वक्री ‘कारक’ शुभ ग्रह अधिक शुभ फलदायी होता है। 5. किसी भाव का ‘कारक’ यदि उसी भाव में स्थित हो तो उस भाव संबंधी फल में कमी या कठिनाई देता है। यह स्थिति ‘कारको भाव नाशाय’ के नाम से प्रसिद्ध है। 6. एक ‘कारक’ ग्रह की दशा में अन्य ‘कारक’ की भुक्ति उत्तम फलदायी होती है। 7. ‘कारक’ ग्रह की दशा में संबंधित ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति निम्न फल देती है। 8. यदि ‘कारक’ और ‘मारक’ ग्रहों में दृष्टि आदि का संबंध न हो तो ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति कष्टकारी होती है। 9. एक ‘मारक’ ग्रह की दशा में अन्य ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति अत्यंत अशुभ फल देती है। 10. जब किसी भाव का ‘कारक’ उस भाव से 1, 5, 9 भाव में गोचर करता है और बलवान (स्वक्षेत्री या उच्च) होता है तो उस भाव का उत्तम फल व्यक्ति को मिलता है। 11. गोचर में भावेश और भाव ‘कारक’ की युति, दृष्टि आदि संबंध होने पर उस भाव संबंधी शुभ फल प्राप्त होता है। एक साथ ‘कारक’ और ‘मारक’ फलादेश दर्शाती कुंडली प्रस्तुत ह श्री लाल बहादुर शास्त्री, पूर्व प्रधानमंत्री जन्म समय राहु दशा बाकी- 10 वर्ष 7 मास 19 दिन। लग्नेश बृहस्पति पंचम भाव और मित्र राशि में स्थित होकर ‘कारक है। उसकी लग्न भाव और नवम भाव स्थित दशमेश बुध व पंचमेश मंगल पर दृष्टि है। नवमेश सूर्य और दशमेश बुध का राशि विनिमय ‘राजयोग’ का निर्माण करते हैं। बुध की दशा में उन्हें राजयोग का फल अन्य भुक्तियों में मिला और बुध-गुरु की दशा-भुक्ति में वे प्रधानमंत्री बने। बुध सप्तमेश (मारक) भी है। बुध की दशा में द्वितीय भाव स्थित द्वि तीयेश (मारक) शनि की भुक्ति ने प्रबल मारकेश का फल दिया। उनकी ताशकंत में अचानक हृदयाघात से मृत्यु हो गई थी।

विषमताओं का अविष्कृत समाधान इंप्रोवाइजेशन

विषमताओं का अविष्कृत समाधान इंप्रोवाइजेशन
इंप्रोवाइजेशन अव्यवस्था, अराजकता व विपरीत परिस्थितियों का विवेकपूर्ण समाघान का तकनीक है। वास्तव में संपूर्ण जीवन एक प्रयोगशाला है तथा इंप्रोवाइजेशन मनुष्य के द्वारा विषमताओं का अविष्कृत समाधान है। भारतीय परिवेश में यह अत्यंत समीचीन संदर्भित एवं आवश्यक है क्योंकि सामान्य दैनिक चर्या में भी हम हर तरह के इंप्रोवाइजेशन का उदाहरण पेष करते हैं। कोई व्यक्ति बहुत अच्छा से अपना जीवन कम से कम सुविधाओं में निकाल लेता है वहीं कई लोग सभी प्रकार से सक्षम, सभी का सहयोग प्राप्त करने के बाद भी असफलता का सामना करने हैं जीवन के इसी सूक्ष्म इंप्रोवाइजेशन को समझने के लिए किसी जातक की कुंडली में तीसरा स्थान देखना चाहिए। अगर किसी जातक की कुंडली तीसरे स्थान का स्वामी शनि, बुध मंगल जैसे ग्रह होकर अनुकूल स्थिति में हों तो ऐसा जातक जीवन में इंप्रोवाइजेशन कर सफल हो सकता है। अतः अपने जीवन में तीसरे स्थान के ग्रहों को अनुकूल कर इंप्रोवाइजेशन करियें और सफलता तथा यष प्राप्त करिये।

ज्योतिष्य सूत्रों से जाने क्यूँ आपके व्यवसाय में उतार-चढ़ाव आते हैं

आज के व्यवसायिक क्षेत्र की स्पर्धाओं के चलते किसी जातक के व्यवसाय का महत्व घट सकता है, क्योंकि नित्य कई संस्थाएॅ इस क्षेत्र में पदार्पण करती जा रही है, जिससे समान क्षेत्र में कार्य के साथ महत्व एवं पहचान बनाये रखना पहले की तुलना में कठिन होता जा रहा है। किसी भी क्षेत्र में बहुत अच्छी स्थिति से अचानक उतार दिखाई दे तो सबसे पहले कुंडली की गणना करानी चाहिए क्योंकि कार्य हेतु ज्योतिष विष्लेषण के अनुसार वाणिज्यकारक ग्रह बुध, ज्ञानकारक ग्रह गुरू, वैभवकारक ग्रह शुक्र तथा जनताकारक ग्रह शनि का महत्वपूर्ण योगदान कुंडली में होना आवष्यक है। इसके साथ ही कुंडली का लग्न, दूसरा, तीसरा, भाग्य, कर्मभाव व लाभभाव उत्तम होना भी जरूरी होता है। इसके साथ ही अष्टमभाव में राहु या राहु से पापाक्रांत उपयुक्त केाई ग्रह होने से भविष्य में कार्य में बाधा दिखाई देती है जोकि वित्तीय अनियिमितता के कारण संभव है चूॅकि कई बार व्यवसाय का धन व्यवसाय स इतर लगाने से व्यवसायिक हानि होती है। अतः उपयुक्त योग के साथ यदि कोई विपरीत स्थिति निर्मित हो रही हो तो ऐसे में अपनी कुंडली के अनुसार बाधा निवारण का उपाय करना लाभकारी होता है। जिसमें विषेषकर पितृषांति, दीपदान एवं सूक्ष्मजीवों की सेवा करना चाहिए।
पितृशांति कराने हेतु संपर्क करें--
पं.पी.एस.त्रिपाठी
मो न.- 9893363928,9424225005
फोन न.- 0771-4050500

मन में ईष्या का होना: जाने ज्योतिषीय कारण

इन्सान की फितरत है कि वो दूसरे को अपने से अधिक अकलमंद नहीं समझता। साथ ही दूसरो की सफलता, प्रसिद्धि, सुंदरता या व्यवहार को लेकर लगातार तुलना करता रहता है, और उसके मन की यही प्रवृति दूसरों के प्रति ईष्या का कारण बनती है। उसकी ईष्या से दूसरों का तो कुछ बुरा होता, लेकिन उसकी इस ईष्या से वो मानसिक और शरीरिक रुप से परेशान जरुर होता है। इन्सान को ईष्या के कारण अपने भले बुरे का ज्ञान भी नहीं होता। व्यक्ति को हमेशा ही ईष्या से दूरे रहना चाहिए या अपने मन में ही नही आने देना चाहिए क्यो कि ईष्या हमेशा मनुष्य को दुख देती है। ईष्या के कारण को ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी भी मनोवृत्ति के लिए तीसरा स्थान होता है, ईष्या भी मन के कारण पैदा होता है अतः यदि तीसरे स्थान का स्वामी सप्तम स्थान में बैठ जाए और सप्तमेश की स्थिति अच्छी हो तो ऐसे लोग अपने प्रतिद्व्रदी की अच्छी स्थिति को लेकर उनके प्रति ईष्या रखते हैं। और यदि इसका स्वामी ग्रह शुक्र हो तथा तीसरे स्थान में राहु हो तो ऐसे लोग लगातार अपनी स्थिति के प्रति नकारात्मक और दूसरों की स्थिति को अपने से बेहतर मानते हुए परेशान रहते हैं। अतः यदि मन में ईष्या बहुत ज्यादा आ रही हो तो गणेशजी की पूजा करनी चाहिए। तिल गुड का दान करना चाहिए तथा गणपति अर्थव का पाठ करना चाहिए।