अ) भक्तिमार्ग के आलम्बन सगुण ब्रह्म के स्थान पर ज्ञानमार्ग के आलम्बन निर्गुण ब्रह्म के प्रति प्रेम।
(आ) निर्गुण ब्रह्म में गुणों का आरोपण।
(इ) मुक्ति की अद्वैत दशा में भी द्वंद्वात्मक भक्ति की कल्पना।
(ई) निष्क्रिय, निस्पंद एवं निर्गुण ब्रह्म में क्रियाशीलता तथा गुणवत्ता की विद्यमानता।
(उ) जीवात्मा को अंश मानकर भी उसको ब्रह्म घोषित करने की प्रवृत्ति । आत्मा एवं परमात्मा की अभेदता।
(ऊ) जगत को मिथ्या मानकर भी उसे लीलामय की रसमयी लीला मानने की दृष्टि।
(ए) मिथ्यात्ववाद में विश्वास करते हुए भी आनन्दवाद एवं सर्वचिन्मयवाद में आस्था।
(ऐ) जगन्मिथ्यात्व का प्रतिपादन करके भी उसके सत्यत्व की पुष्टि।
(ओ) योग एवं भक्ति में समन्वय।
(औ) ज्ञान, भक्ति एवं योग तीनों की स्वीकृति।
अंत में इस लेख का समापन इन श्ाब्दों के साथ करना चाहूँगा कि समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम भाव, मैत्री भाव तथा समभाव होना ही संतों की साधना का मार्ग है।
Pt.P.S.Tripathi
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