Tuesday 14 April 2015

यह संपूर्ण जगत ही अन्नमय


यह संपूर्ण जगत ही अन्नमय.....वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है, जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ और स्पर्शानुभूति) है जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता है। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार ‍खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है अन्नमय कोश का परिचय।
अन्नमय कोश : सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यह दिखाई देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय कहलाता हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है।
यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर।‍ जो आत्मा इस शरीर को ही सब कुछ मानकर भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर से बढ़कर भी कुछ है। इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है।
जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले का है। प्राणियों से पहिले का है। वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्‍ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है।
इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु।

Pt.P.S.Tripathi
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