Monday 13 April 2015

वात रोग


वात रोग 80 प्रकार के होते हैं जो हमारे शरीर के अस्थि व नस के समस्या को उत्पन्न करते हैं तथा ये उम्र जनित होते हैं. उम्र के साथ-साथ हमारा शरीर कमजोर होते जाता है, साथ ही हमारी अस्थियां एवं उनके जोड़ भी कमजोर पड़ते रहते हैं। हड्डी के मध्य में पाया जाने वाला तरल व चिकना पदार्थ (जो कि हड्डियों को घिसने से बचाता है) कम होने लगता है और ऐसे में हड्डियां आपस में घिसने लगती हैं, जिससे जोड़ों में दर्द होता है।
आम धारणा के अनुसार वात रोग को वादी रोग भी कहते हैं। वात रोग में शरीर में अकडऩ / सुबह उठने में दर्द का अनुभव / जोड़ों में दर्द / ठंडी व बदली में दर्द होता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, हमारे शरीर में कमजोरी आने लगती है और हड्डियाँ कमजोर हो जाती है, जो वात रोग को बढ़ाता है। अत: इसके बचाव हेतु हमें सतर्क रहने की जरुरत है, जैसे परहेज करना, खान-पान में ध्यान देना, मालिस व सेकाई करना। आयुर्वेद में वात रोग का प्रमुख रूप से उल्लेख किया जाता है।
शनि, मंगल एवं राहु यदि जन्मांग तथा दशम कुंडली में दो-एक के क्रम में किसी भाव में षष्ठेश या अष्टमेश से सम्बन्ध बनायें, और त्रिषडायेश में से कोई भी एक लग्नेश से बलवान हो, तो जटिल वात रोग होता है। राहु से कफ-वात, शनि से पित्तवात एवं मंगल से आमवात होता है। इसे ही आचार्य शुक्रवल्लभ एवं आचार्य रत्नाकर ने भी अपनी टीकाओं में थोड़े अंतर से लिखा है। किन्तु निगन्ध भट्ट एवं ऋषि उदच्यु पाद ने लिखा है कि यदि किसी भी तरह ये तीनो जन्मांग एवं त्रिशांश में किसी भी भाव में सम्बन्ध बनाते हैं तो वह वातव्याधि असाध्य होता है। अर्थात उसकी चिकित्सा नहींं है। ईश प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। उदाच्यु पाद का कथन अब तक के अनुभव में सत्य प्रमाणित हुआ है।
आचार्य ऋतुसेन ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है- यदि लग्न चर राशि हो (मेष, कर्क, तुला एवं मकर) हो तथा मंगल जन्मांग में 1, 2, 3, 12 भावों में या त्रिशांश में 8, 9,10,11 भावों में हो तो संधिवात (जोड़ो का दर्द) होता है। यदि स्थिर (वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ) राशि का लग्न है तथा उपरोक्त स्थानों में मंगल है तो माँसपेशियों का दर्द, एवं यदि लग्न द्विस्वभाव राशि (मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन) का हो तो रक्त-पित्त-वात (कुष्ठ आदि) रोग होता है। इसी प्रकार यदि शनि उपरोक्त प्रकार से जन्मांग में 4, 5, 6एवं 7 भाव में तथा त्रिशांश में 12, 1, 2, एवं 3 भावों में हो तो उपर्युक्त रोग होते हंै। तथा यदि राहु उपरोक्त चर, स्थिर एवं द्विस्वभाव के प्रकार से जन्मांग में 8, 9, 10 एवं 11 भाव में तथा त्रिशांश में 4, 5, 6एवं 7 भाव में हो तो उपर्युक्त रोग होते है। किन्तु यदि किसी भी तरह इनकी युति अर्थात राहु के साथ शनि या मंगल की युति उपर्युक्त स्थानों में हो जाती है तो रोग असाध्य हो जाता है।
अस्तु, वात, पित्त एवं कफ के कारण मूलत: राहु, शनि एवं मंगल है। इन ग्रहों की शांति के लिए यहां बताये गये ज्योतिषीय उपायों के साथ-साथ आयुर्वेदिक औषधियों का भी उपयोग करना चाहिए। जैसे रास्ना, गोखरू, चित्रकमूल, हरसिंगार, सुरजान, अशगंध, चव्य, इन्द्रजव, पाठा, वायविडंग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारंगी मूल, मूर्वा, वच एवं गिलोय ये सब वनस्पतियां है।
वात रोग का अर्थ है वायु वाले रोग। जो लोग बिना कुछ अच्छा खाये पिये फूलते चले जाते है, शरीर में वायु कुपित हो जाती है, उठना बैठना दूभर हो जाता है। शनि यह रोग देकर जातक को एक जगह पटक देता है, यह रोग लगातार सट्टा, जुआ, लाटरी, घुड़दौड और अन्य तुरंत पैसा बनाने वाले कामों को करने वाले लोगों मे अधिक देखा जाता है। किसी भी इस तरह के काम करते वक्त व्यक्ति लम्बी सांस खींचता है, उस लम्बी सांस के अन्दर जो हारने या जीतने की चाहत रखने पर ठंडी वायु होती है, वह शरीर के अन्दर ही रुक जाती है, और अंगों के अन्दर भरती रहती है। अनीतिक काम करने वालों और अनाचार काम करने वालों के प्रति भी इस तरह के लक्षण देखे गये हैं।
गठिया रोग शनि की ही देन है। शीलन भरे स्थानों का निवास, चोरी और डकैती आदि करने वाले लोग अधिकतर इसी तरह का स्थान चुनते है, चिन्ताओं के कारण एकान्त बन्द जगह पर पड़े रहना, अनैतिक रूप से संभोग करना, कृत्रिम रूप से हवा में अपने वीर्य को स्खलित करना, हस्त मैथुन, गुदा मैथुन, कृत्रिम साधनों से उंगली और लकड़ी, प्लास्टिक, आदि से यौनि को लगातार खुजलाते रहना, शरीर में जितने भी जोड़ हैं, रज या वीर्य स्खलित होने के समय वे भयंकर रूप से उत्तेजित हो जाते हैं। और हवा को अपने अन्दर सोख कर जोड़ों के अन्दर मैद नामक तत्व को खत्म कर देते हैं, हड्डी के अन्दर जो सबल तत्व होता है, जिसे शरीर का तेज भी कहते हैं, धीरे-धीरे खत्म हो जाता है, और जातक के जोड़ों के अन्दर सूजन पैदा होने के बाद जातक को उठने बैठने और रोज के कामों को करने में भयंकर परेशानी उठानी पड़ती है। इस रोग को देकर शनि जातक को अपने द्वारा किये गये अधिक वासना के दुष्परिणामों की सजा को भुगतवाता है।
रोग शान्ति के उपाय:
ग्रहों की विंशोत्तरी दशा तथा गोचर स्थिति से वर्तमान या भविष्य में होने वाले रोग का पूर्वानुमान लगा कर पीड़ाकारक ग्रह या ग्रहों का दान, जप, होम व रत्न धारण करने से रोग टल सकता है या उसकी तीव्रता कम की जा सकती है। ग्रह उपचार से चिकित्सक की औषधि के शुभ प्रभाव में भी वृद्धि हो जाती है। कुंडली के अनुसार औषधि का दान तथा रोगी की निस्वार्थ सेवा करने से व्यक्ति को रोग पीड़ा प्रदान नहींं करते। दीर्घ कालिक एवं असाध्य रोगों की शान्ति के लिए रुद्र सूक्त का पाठ, श्री महा-मृत्युंजय का जप, तुला दान, छाया दान, रुद्राभिषेक, पुरूष सूक्त का जप तथा विष्णु सहस्र-नाम का जप लाभकारी सिद्ध होता है। कर्म विपाक सहिंता के अनुसार प्रायश्चित करने पर भी असाध्य रोगों की शान्ति होती है। ज्योतिष शास्त्र में रोगों के दुष्प्रभावों से बचने के लिए दान आदि बताए गए हैं।
माषाश्च तैलं विमलेन्दुनीलं तिल: कुलत्था महिषी च लोहम्।
कृष्णा च धेनु: प्रवदन्ति नूनं दुष्टाय दानं रविनन्दनाय॥
तेलदान, तेलपान, नीलम, लौहधारण आदि उपाय बताए गए हैं, वे ही आयुर्वेद में अष्टांगहृदय में कहे गए हैं। अत: चिकित्सक यदि ज्योतिष शास्त्र का सहयोग लें तो ग्रहों के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों को आसानी से पहचान सकते हैं।
मध्यमा अंगुली को तिल के तेल से भरे लोहे के पात्र में डुबोकर प्रत्येक शनिवार को निम्न शनि मंत्र का 108जप करें तो शनि के सारे दोष दूर हो जाते हैं तथा मनोकामना पूर्ण हो जाती है।
शनि मंत्र : प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।

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