Monday 13 April 2015

चारों वेदों के चार ऐसे सत्य जो जीवन बदल सकते हैं


आत्म-निर्माण के मूलभूत चार दार्शनिक सिद्धान्तों पर हर दिन बहुत गंभीरता के साथ बहुत देर तक मनन-चिन्तन करना चाहिए। जब भी समय मिले चार तथ्यों को चार वेदों का सार तत्त्व मानकर समझना और हृदयंगम करना चाहिए। यह तथ्य जितनी गहराई तक अन्त:करण मेंं प्रवेश कर सकेंगे, प्रतिष्ठित हो सकेंगे, उसी अनुपात से आत्म-निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बनता चला जायेगा।
प्रथम सत्य-
आत्म-दर्शन का प्रथम तथ्य है आत्मा को परमात्मा का परम पवित्र अंश मानना और शरीर एवं मन को उससे सर्वथा भिन्न मात्र वाहन अथवा औजार भर समझना, शरीर और आत्मा के स्वार्थों का स्पष्ट वर्गीकरण करना। काया के लिए उससे सम्बन्धित पदार्थों एवं शक्तियों के लिए हम किस सीमा तक क्या करते हैं, इसकी लक्ष्मण रेखा निर्धारित करना और आत्मा के स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी क्षमताओं का एक बड़ा अंश बचाना, उसे आत्मकल्याण के प्रयोजनों मेंं लगाना।
दूसरा सत्य-
दूसरा आध्यात्मिक तथ्य है मानव जीवन को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार मानना। इसे लोकमंगल के लिए दी हुई परम पवित्र अमानत स्वीकार करना। स्पष्ट है कि प्राणिमात्र को ईश्वर की संतान मानना। निष्पक्ष न्यायकारी पिता समान रूप से ही अपने सब बालकों को अनुदान देता है। मनुष्य को इतनी सुविधा साधन और विलासिता का साधन देकर वह पक्षपाती और अन्यायी नहीं बन सकता। जो मिला वह खजांची के पास रहने वाली बैंक अमानत की तरह है।
संसार को सुखी समुन्नत बनाने के लिए ही मनुष्य को विभिन्न सुविधाएं मिली हैं। उनमेंं से निर्वाह के लिए न्यूनतम भाग अपने लिये रखकर शेष को लोकमंगल के लिए ईश्वर के इस सुरम्य उद्यान को अधिक सुरम्य सुविकसित बनाने के लिए खर्च किया जाना चाहिए।
तीसरा सत्य-
तीसरा सत्य है अपूर्णता को पूर्णता तक पहुँचाने का जीवन लक्ष्य प्राप्त करना। दोष-दुर्गुणों का निराकरण करते चलने और गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता बढ़ाते चलने से ही ईश्वर और जीव के बीच की खाई पट सकती है। इन्हीं दो कदमों को साहस और श्रद्धा के साथ अनवरत रूप से उठाते रहने पर जीवन लक्ष्य तक पहुंचना संभव हो सकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की नीति अपनाकर ही आत्मा को परमात्मा बनने और नर को नारायण स्तर तक पहुंचने का अवसर मिल सकता है। स्वर्ग, मुक्ति, आत्मदर्शन, ईश्वरप्राप्ति आदि इसी अपूर्णता के निराकरण का काम है।
चौथा महासत्य-
चतुर्थ महासत्य है इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वर की साकार प्रतिमा मानना। श्रम सीकरों और श्रद्धा सद्भावना के अमृत जल से उसका अभिषेक करने की तप साधना करना। दूसरों के दु:ख बंटाने और अपने सुख बांटने की सहृदयता विकसित करना। आत्मीयता का अधिकाधिक विस्तार करना। अपनेपन को शरीर परिवार तक सीमित न रहने देकर उसे विश्व सम्पदा मानना और अपने कर्तव्यों को छोटे दायरे मेंं थोड़े लोगों तक सीमित न रखकर अधिकाधिक व्यापक बनाना।
यह चार सत्य चार, तथ्य ही समस्त अध्यात्म विज्ञान के साधना विधान के केन्द्रबिन्दु हैं। चार वेदों का सार तत्व यहीं है। इन्हीं महासत्यों को हृदयंगम करने और उन्हें व्यवहार मेंं उतारने से परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। जीवनोद्देश्य पूर्ण होता है। इन महासत्यों को जितनी श्रद्धा और जागरुकता के साथ अपनाया जाएगा आत्मनिर्माण उतना ही सरल और सफल होता चला जायेगा।

Pt.P.S Tripathi
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