Monday 15 June 2015

कथा महाभारत

महाभारत के लिए चित्र परिणाम
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि अपने 12 वर्ष के वनबास के चलते जंगलों में घूम रहे हैं और अर्जुन अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करने इन्द्रलोक गये हुये हैं। वहां रहकर अर्जुन ने निवातकवच नामक राक्षस का वध कर दिया और अपने भाईयों के पास वापस पृथ्वी को लौट गये। इसके बाद एक दिन कुटि में द्रोपदी को अकेली पाकर जयद्रथ जो कि दुर्योधन की बहन दु:शाला का भाई था, ने काम-वासना से पीडि़त होकर पकड़कर जबरदस्ती अपनी रथ में बिठा लिया, पीछ पांडव भी आगए और उसे उसकी धूर्तता के लिए मार-मार कर अधमरा कर दिया। कुछ दिन पश्चात पाण्डवों का अज्ञातवास प्रारंत हो गया इसलिए वो अपनी पहचान बदलकर मत्स्य नरेश विराट के महल में काम करने लगे। अब आगे...
कीचक वध तथा कौरवो की पराजय
पाण्डवों को मत्स्य नरेश विराट की राजधानी में निवास करते हुये दस माह व्यतीत हो गये। सहसा एक दिन राजा विराट का साला कीचक अपनी बहन सुदेष्णा से भेंट करने आया। जब उसकी दृष्टि सैरन्ध्री (द्रौपदी) पर पड़ी तो वह काम-पीडि़त हो उठा तथा सैरन्ध्री से एकान्त में मिलने के अवसर की ताक में रहने लगा। द्रौपदी भी उसकी कामुक दृष्टि को भाँप गई। द्रौपदी ने महाराज विराट एवं महारानी सुदेष्णा से कहा भी कि कीचक मुझ पर कुदृष्टि रखता है, मेरे पाँच गन्धर्व पति हैं, एक न एक दिन वे कीचक का वध देंगे। किन्तु उन दोनों ने द्रौपदी की बात की कोई परवाह न की। लाचार होकर एक दिन द्रौपदी ने भीमसेन को कीचक की कुदृष्टि तथा कुविचार के विषय में बता दिया। द्रौपदी के वचन सुनकर भीमसेन बोले, ''हे द्रौपदी! तुम उस दुष्ट कीचक को अर्धरात्रि में नृत्यशाला मिलने का संदेश दे दो। नृत्यशाला में तुम्हारे स्थान पर मैं जाकर उसका वध कर दूँगा। सैरन्ध्री ने बल्लभ (भीमसेन) की योजना के अनुसार कीचक को रात्रि में नृत्यशाला में मिलने का संकेत दे दिया। द्रौपदी के इस संकेत से प्रसन्न कीचक जब रात्रि को नृत्यशाला में पहुँचा तो वहाँ पर भीमसेन द्रौपदी की एक साड़ी से अपना शरीर और मुँह ढँक कर वहाँ लेटे हुये थे। उन्हें सैरन्ध्री समझकर कमोत्तेजित कीचक बोला, ''हे प्रियतमे! मेरा सर्वस्व तुम पर न्यौछावर है। अब तुम उठो और मेरे साथ रमण करो। कीचक के वचन सुनते ही भीमसेन उछल कर उठ खड़े हुये और बोले, ''रे पापी! तू सैरन्ध्री नहीं अपनी मृत्यु के समक्ष खड़ा है। ले अब परस्त्री पर कुदृष्टि डालने का फल चख।इतना कहकर भीमसेन ने कीचक को लात और घूँसों से मारना आरम्भ कर दिया। जिस प्रकार प्रचण्ड आँधी वृक्षों को झकझोर डालती है उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्के मार-मार कर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे।
अनेक बार उसे घुमा-घुमा कर पृथ्वी पर पटकने के बाद अपनी भुजाओं से उसके गरदन को मरोड़कर उसे पशु की मौत मार डाला। इस प्रकार कीचक का वध कर देने के बाद भीमसेन ने उसके सभी अंगों को तोड़-मरोड़ कर उसे माँस का एक लोंदा बना दिया और द्रौपदी से बोले, ''पांचाली! आकर देखो, मैंने इस काम के कीड़े की क्या दुर्गति कर दी है। उसकी उस दुर्गति को देखकर द्रौपदी को अत्यन्त सन्तोष प्राप्त हुआ। फिर बल्लभ और सैरन्ध्री चुपचाप अपने-अपने स्थानों में जाकर सो गये। प्रात:काल जब कीचक के वध का समाचार सबको मिला तो महारानी सुदेष्णा, राजा विराट, कीचक के अन्य भाई आदि विलाप करने लगे। जब कीचक के शव को अन्त्येष्टि के लिये ले जाया जाने लगा तो द्रौपदी ने राजा विराट से से कहा, ''इसे मुझ पर कुदृष्टि रखने का फल मिल गया, अवश्य ही मेरे गन्धर्व पतियों ने इसकी यह दुर्दशा की है। द्रौपदी के वचन सुन कर कीचक के भाइयों ने क्रोधित होकर कहा, ''हमारे अत्यन्त बलवान भाई की मृत्यु इसी सैरन्ध्री के कारण हुई है अत: इसे भी कीचक की चिता के साथ जला देना चाहिये। इतना कहकर उन्होंने द्रौपदी को जबरदस्ती कीचक की अर्थी के साथ बाँध के और श्मशान की ओर ले जाने लगे। कंक, बल्लभ, वृहन्नला, तन्तिपाल तथा ग्रान्थिक के रूप में वहाँ उपस्थित पाण्डवों से द्रौपदी की यह दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी किन्तु अज्ञातवास के कारण वे स्वयं को प्रकट भी नहीं कर सकते थे। इसलिये भीमसेन चुपके से परकोटे को लाँघकर श्मशान की ओर दौड़ पड़े और रास्ते में कीचड़ तथा मिट्टी का सारे अंगों पर लेप कर लिया। फिर एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर कीचक के भाइयों पर टूट पड़े। उनमें से कितनों को ही भीमसेन ने मार डाला, जो शेष बचे वे अपना प्राण बचाकर भाग निकले। इसके बाद भीमसेन ने द्रौपदी को सान्त्वना देकर महल में भेज दिया और स्वयं नहा-धोकर दूसरे रास्ते से अपने स्थान में लौट आये। कीचक तथा उसके भाइयों का वध होते देखकर महाराज विराट सहित सभी लोग द्रौपदी से भयभीत रहने लगे।
कीचक के वध की सूचना आँधी की तरह फैल गई। वास्तव में कीचक बड़ा पराक्रमी था और उससे त्रिगर्त के राजा सुशर्मा तथा हस्तिनापुर के कौरव आदि डरते थे। कीचक की मृत्यु हो जाने पर राजा सुशर्मा और कौरवगण विराट नगर पर आक्रमण करने के उद्देश्य से एक विशाल सेना गठित कर लिया। कौरवों ने सुशर्मा को पहले चढ़ाई करने की सलाह दी। उनकी सलाह के अनुसार सुशर्मा ने उनकी सलाह मानकर विराट नगर पर धावा बोलकर उस राज्य की समस्त गौओं को हड़प लिया। इससे राज्य के सभी ग्वालों ने राज सभा में जाकर गुहार लगाई, ''हे महाराज! त्रिगर्त के राजा सुशर्मा हमसे सब गौओं को छीनकर अपने राज्य में लिये जा रहे हैं। आप हमारी शीघ्र रक्षा करें।उस समय सभा में विराट और कंक आदि सभी उपस्थित थे। राजा विराट ने निश्चय किया कि कंक, बल्लभ, तन्तिपाल, ग्रान्थिक तथा उनके स्वयं के नेतृत्व में सेना को युद्ध में उतारा जाये। उनकी इस योजना के अनुसार सबने मिलकर राजा सुशर्मा के ऊपर धावा बोल दिया। छद्मवेशधारी पाण्डवों के पराक्रम को देखकर सुशर्मा के सैनिक अपने-अपने प्राण लेकर भागने लगे। सुशर्मा के बहुत उत्साह दिलाने पर भी वे सैनिक वापस आकर युद्ध करने के लिये तैयार नहीं थे। अपनी सेना के पैर उखड़ते देखकर राजा सुशर्मा भी भागने लगा किन्तु पाण्डवों ने उसे घेर लिया। बल्लभ (भीमसेन) ने लात घूँसों से मार-मार कर उसकी हड्डी पसली तोड़ डाला। सुशर्मा की खूब मरम्मत करने के बाद बल्लभ ने उसे उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया। भूमि पर गिर कर वह जोर-जोर चिल्लाने लगा। भीमसेन ने उसकी एक न सुनी और उसे बाँधकर युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। सुशर्मा के द्वारा दासत्व स्वीकार करने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे छोड़ दिया। इधर दूसरी ओर से कौरवों ने विराट नगर पर हमला बोल दिया। प्रजा राजसभा में आकर रक्षा के लिये गुहार लगाने लगी किन्तु उस समय तो महाराज चारों पाण्डवों के साथ सुशर्मा से युद्ध करने चले गये थे।
महल में केवल राजकुमार उत्तर ही थे। प्रजा को रक्षा के लिये गुहार लगाते देख कर सैरन्ध्री (द्रौपदी) से रहा न गया और उन्होंने राजकुमार उत्तर को कौरवों से युद्ध करने के लिये न जाते हुये देखकर खूब फटकारा। सैरन्ध्री की फटकार सुनकर राजकुमार उत्तर ने शेखी बघारते हुये कहा, ''मैं युद्ध में जाकर कौरवों को अवश्य हरा देता किन्तु असमर्थ हूँ, क्योंकि मेरे पास कोई सारथी नहीं है। उसकी बात सुनकर सैरन्ध्री ने कहा, ''राजकुमार! वृहन्नला बहुत निपुण सारथी है और वह कुन्तीपुत्र अर्जुन का सारथी रह चुकी है। तुम उसे अपना सारथी बना कर युद्ध के लिये जाओ। अन्तत: राजकुमार उत्तर वृहन्नला को सारथी बनाकर युद्ध के लिये निकला। उस दिन पाण्डवों के अज्ञातवास का समय समाप्त हो चुका था तथा उनके प्रकट होने का समय आ चुका था। उर्वशी के शापवश मिली अर्जुन की नपुंसकता भी खत्म हो चुकी थी। अत: मार्ग में अर्जुन ने उस श्मशान के पास, जहाँ पाण्डवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छुपाये थे, रथ रोका और चुपके से अपने हथियार ले लिये। जब उनका रथ युद्धभूमि में पहुँचा तो कौरवों की विशाल सेना और भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, दुर्योधन आदि पराक्रमी योद्धाओं को देखकर राजकुमार उत्तर अत्यन्त घबरा गया और बोला, ''वृहन्नला! तुम रथ वापस ले चलो। मैं इन योद्धाओं से मुकाबला नहीं कर सकता। वृहन्नला ने कहा, ''हे राजकुमार! किसी भी क्षत्रियपुत्र के लिये युद्ध में पीठ दिखाने से तो अच्छा है कि वह युद्ध में वीरगति प्राप्त कर ले। उठाओ अपने अस्त्र-शस्त्र और करो युद्ध। किन्तु राजकुमार उत्तर पर वृहन्नला के वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह रथ से कूद कर भागने लगा। इस पर अर्जुन (वृहन्नला) ने लपक कर उसे पकड़ लिया और कहा, ''राजकुमार! भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। मेरे होते हुये तुम्हारा कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आज मैं तुम्हारे समक्ष स्वयं को प्रकट कर रहा हूँ, मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूँ, और कंक युधिष्ठिर, बल्लभ भीमसेन, तन्तिपाल नकुल तथा ग्रान्थिक सहदेव हैं। अब मैं इनसे युद्ध करूँगा, तुम अब इस रथ की बागडोर संभालो।यह वचन सुनकर राजकुमार उत्तर ने गद्गद् होकर अर्जुन के पैर पकड़ लिया।
अर्जुन के देवदत्त शंख की ध्वनि रणभूमि में गूँज उठी। उस विशिष्ट ध्वनि को सुनकर दुर्योधन भीष्म से बोला, ''पितामह! यह तो अर्जुन के देवदत्त शंख की ध्वनि है, अभी तो पाण्डवों का अज्ञातवास समाप्त नहीं हुआ है। अर्जुन ने स्वयं को प्रकट कर दिया इसलिये अब पाण्डवों को पुन: बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा। दुर्योधन के वचन सुनकर भीष्म पितामह ने कहा, ''दुर्योधन! कदाचित तुम्हें ज्ञात नहीं है कि पाण्डव काल की गति जानने वाले हैं, बिना अवधि पूरी किये अर्जुन कभी सामने नहीं आ सकता। मैंने भी गणना कर लिया है कि पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि पूर्ण हो चुकी है। दुर्योधन एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुये बोला, ''अब जब अर्जुन का आना निश्चित हो चुका है तो पितामह! हमें शीघ्र ही व्यूह रचना कर लेना चाहिये। इस पर भीष्म ने कहा, ''वत्स! तुम एक तिहाई सेना लेकर गौओं के साथ विदा हो जाओ। शेष सेना को साथ लेकर हम लोग यहाँ पर अर्जुन से युद्ध करेंगे। भीष्म पितामह के परामर्श के अनुसार दुर्योधन गौओं को लेकर एक तिहाई सेना के साथ हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। यह देखकर कि दुर्योधन रणभूमि से लौटकर जा रहा है अर्जुन ने अपना रथ दुर्योधन के पीछे दौड़ा दिया और भागते हुये दुर्योधन को मार्ग में ही घेरकर अपने असंख्य बाणों से उसे व्याकुल कर दिया। अर्जुन के बाणों से दुर्योधन के सैनिकों के पैर उखड़ गये और वे पीठ दिखा कर भाग गये। सारी गौएँ भी रम्भाती हुईं विराट नगर की और भाग निकलीं। दुर्योधन को अर्जुन के बाणों से घिरा देखकर कर्ण, द्रोण, भीष्म आदि सभी वीर उसकी रक्षा के लिय दौड़ पड़े। कर्ण को सामने देख कर अर्जुन के क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने कर्ण पर इतने बाण बरसाये कि उसके रथ, घोड़े, सारथी सभी नष्ट भ्रष्ट हो गये और कर्ण भी मैदान छोड़ कर भाग गया। कर्ण के चले जाने पर भीष्म और द्रोण एक साथ अर्जुन पर बाण छोडऩे लगे किन्तु अर्जुन अपने बाणों से बीच में ही उनके बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर देते थे। अन्तत: अर्जुन के बाणों से व्याकुल होकर सारे कौरव मैदान छोड़ कर भाग गये। कौरवों के इस प्रकार भाग जाने पर अर्जुन भी विजयशंख बजाते हुये विराट नगर लौट आये।
पाण्डवों का राज्य लौटाने का आग्रह और दोनों पक्षो की कृष्ण से सहायता की माँग
राजा सुशर्मा तथा कौरवों को रणभूमि से भगा देने के बाद पाण्डवों ने स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रकट कर दिया। उनका असली परिचय पाकर राजा विराट को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और उन्होंने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ बड़े ही धूमधाम के साथ कर दिया। इस विवाह में श्री कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ अनेक बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी सम्मिलित हुये। अभिमन्यु के विवाह के पश्चात् पाण्डवों ने अपना राज्य वापस लौटाने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण को अपना दूत बना कर हस्तिनापुर भेजा। धृतराष्ट्र के राज सभा में यथोचित सत्कार और आसन पाने के बाद श्री कृष्ण बोले, ''हे राजन्! पाण्डवों ने यहाँ उपस्थित सभी गुरुजनों को प्रणाम भेजते हुये कहलाया है कि हमने पूर्व किये करार के अनुसार बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा कर लिया है। अब आप हमें दिये वचन के अनुसार हमारा आधा राज्य लौटा दीजिये। श्री कृष्ण के वचनों को सुन कर वहाँ उपस्थित भीष्म, विदुर, द्रोण आदि गुरुजनों तथा परशुराम, कण्व आदि महर्षिगणों ने धृतराष्ट्र को समझाया कि वे धर्म तथा न्याय के मार्ग में चलते हुये पाण्डवों को उनका राज्य तत्काल लौटा दें। किन्तु उनकी इस समझाइश को सुनकर दुर्योधन ने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा, ''ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते इस राज्य पर मेरे पिता धृतराष्ट्र का अधिकार था किन्तु उनके अन्धत्व का लाभ उठा कर चाचा पाण्डु ने राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। मैं महाराज धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र हूँ अत: इस राज्य पर मेरा और केवल मेरा अधिकार है। मैं पाण्डवों को राज्य तो क्या, सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने के लिये तैयार नहीं हूँ। यदि उन्हें अपना राज्य वापस चाहिये तो वे हमसे युद्ध करके उसे प्राप्त कर लें। उपस्थित समस्त जनों के बारम्बार समझाने के बाद भी दुर्योधन अपनी बात पर अडिग रहा और श्री कृष्ण वापस पाण्डवों के पास चले आये और दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारी होने लगी।
पाण्डवों को राज्य न देने के अपने निश्चय पर दुर्योधन के अड़ जाने के कारण दोनों पक्ष मे मध्य युद्ध निश्चित हो गया तथा दोनों ही पक्ष अपने लिये सहायता जुटाने में लग गये।
एक दिन दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिये सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा। इसके कुछ ही देर पश्चात पाण्डुतनय अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचे और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने (पैर की तरफ) बैठ गये। जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, ''भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, ''हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ। चूँकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।
दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, ''हे दुर्योधन! मेरी दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो। अत: मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा। किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा। अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिये।
अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल सेना लेने के लिये ही आया था। इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।
दुर्योधन के जाने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, ''हे पार्थ! मेरे युद्ध नहीं करने के निश्चय के बाद भी तुमने क्या सोच कर मुझे माँगा? अर्जुन ने उत्तर दिया, ''भगवन्! मेरा विश्वास है कि जहाँ आप हैं वहीं विजय है। और फिर मेरी इच्छा है कि आप मेरा सारथी बने। अर्जुन की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने उनका सारथी बनना स्वीकार कर लिया।
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