Saturday 24 October 2015

शरद पूर्णिमा

अश्विनी मास को शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को "शाद पूर्णिमा' कहते हैं । इसे रास पूर्णिमा कमला पूर्णिमा, कौमुदी उत्सव, कुमार उत्सव, शरदोत्सव और चंद्रक्रोत्सव आदि के नाम से भी जाना जाता है । इसी दिन ब्रजमंडल में गोपियों ने भगवती कात्यायिनी की अर्चना करके कृष्णा के सानिध्य की प्राप्ति का वरदान पाया था । तत्पश्चात भगवान कृष्णा ने यमुना के तट पर गोपियों के साथ महारास किया था । "
भगवती कात्यायिनी नवदुर्गा की छटा स्वरूप हैं । महर्षि कात्यायन ने आदि शक्ति की उपासना करके उनसे यह प्रार्थना की थी कि दुखी प्राणियों की रक्षा के लिए वे उन्ही के घर में अवतरित हों । महर्षि कात्यायन की कन्या के रूप में अवतरित होने के कारण इनका नाम कात्यायिनी पड़ा । सिंह इनकी सवारी है, उनके हाथ उज्जवल चंद्रहास से सुशोभित हैं । दुर्गा ने कन्याओं की मनोकामना की पूर्ति के लिए ही कात्यायिनी रूप धारण किया था। इन्हें ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री माना गया है ।रास पूर्णिमा का यह पर्व शरद ऋतु के आगमन का सूचक है, इसके साथ ही शरद ऋतु आरंभ हो जाती है । शरद पूर्णिमा की रात को लक्ष्मी का पूजन और जागरण किया जाता है । ऐसी मान्यता है कि इस रात लक्ष्मी भूलोक पर विचरण करती हैं और जाग्रत मनुष्य को धन-धान्य से संपन्न बनाती हैं । लक्ष्मी के आठ रूप हैं-धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, ऐश्वर्य अथवा राज्यलक्ष्मी, वैभव लक्ष्मी, राजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, कमला लक्ष्मी एवं विजयलक्ष्मी । पुराणों के अनुसार मंथन से उत्पन्न लक्ष्मी ने क्षीर सागर में शेषनाग यर विश्राम करने वाले श्रीहरि का ही वरण किया, जो इस बात का प्रतीक है कि जो व्यक्ति साहसपूर्वक समस्त बाधाओं का सामना करते हुए, पूर्णनिष्ठा से कर्तव्यपरायण होकर अपने कार्यों का संपादन करता है, लक्ष्मी रूपी वैभव उसी का वरण करता है । क्षीर सागर इस विश्व का प्रतीक है ।शेष-शय्या इस जगत में स्थित बाधाओं का प्रतीक है । भगवान विष्णु उस कर्तव्यपरायण लक्ष्यधारी व्यक्तित्व के प्रतीक हैं जो जगत की समस्त बाधाओं एवं चिंताओं का धैर्यपूर्वक सामना करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है ।जाग्रत एवं चेतन व्यक्ति को ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । प्रमादी, आलसी, मूर्ख, निर्चुद्धि, कृपण, कायर व्यक्ति कभी भी लक्ष्मी का कृपापात्र नहीं हो सकता ।
भारतीय ज्योतिषशास्त्र की मान्यता के अनुसार पूरे वर्ष में चन्द्रमा केवल शरद पूर्णिमा की रात को ही अपनी सोलह कलाओं से पूर्ण होता है । इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के अधिक निकट होता है । इसीलिए इस रात को चंद्रमा अपेक्षाकृत अधिक बड़ा दिखाई देता है । वर्षा ऋतु के चौमासों के बादल छंटने पर इस रात्रि में पूर्ण चन्द्र की छटा अधिक धवल एवं प्रदीप्त प्रतीत होती है । चांदनी रात में विचरण करने से संतप्त मन क्रो शांति मिलती है । इसीलिए हमारे मनोविज्ञानी चिकित्साशास्त्रियों ने इस रात्रि के खुले प्रांगण में नाच, गान रास से भरपूर सामूहिक उत्सव के आयोजन की व्यवस्था की है । हम दुख की पीड़ा को भले ही अकेले झेलें, किंतु आनंद के क्षण सबके साथ बांटते हैं । उत्सव जब सामाजिक अथवा सामूहिक हो तो उसका आनंद और भी अधिक बढ़ जाता है। महापुरुषों में चंद्र की सुन्दरता एवं शीतलता दोनों ही गुण विद्यमान होते हैं । राम और कृष्णा को इसीलिए उनके भक्त प्रेम से रामचंद्र और कृष्ण चंद्र कहते है । चंद्र के आकर्षण से ही समुद्र में ज्वर भाटा आता है । प्रेमीजनों का हदय पूर्णिमा की कांति से आलोड़ित होता है, इसीलिए पूर्णिमा की रात में प्रेमी युगलों द्वारा नौका विहार की परंपरा पाई जाती है । ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की चान्दनी में औषधीय गुण भी विधमान रहते हैं । इसलिए इस रात खुले बरतन में खीर भरकर चांदनी में रखी जाती है । प्रात:काल इसी खीर को प्रसाद के रूप में घर के सभी प्राणी खाते हैं । इस रात चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाकर देखने से नेत्र ज्योति भी बढती है । निरोगी रहने के लिए ही आकाश के मध्य में स्थित होने पर इस पूर्ण चन्द्रमा को पूजने की परंपरा है ।
Pt.P.S.Tripathi
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