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Wednesday 17 June 2015

कोई अपना जब दूर होने लगे तो दिखायें अपनी कुंडली



अगर आपका कोई भी रिश्ता चाहे वैवाहिक हो या दोस्ती का, टूटने की कगार पर आ गया है और आप इस उलझन में हैं कि अपने साथी या दोस्त या हमदर्द से अलग हों या नहीं, और यह भी जानते हैं कि ऐसा करना आपके लिए आसान नहीं होगा और ना ही आपके साथी के लिए। क्योंकि आपको जिंदगी को फिर से नए सिरे से शुरू करना होगा। जिसका मतलब होगा, हर चीज में बदलाव। इसलिए अपने रिश्ते को तोडऩे से बेहतर है कि उसे कम से कम एक मौका दें। व्यवहारिक रूप से अपने आपसी मतभेदों को प्यार और समझदारी से सुलझाने की कोशिश करें। रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं इन्हें प्यार, सामंजस्य और समझदारी से निभाने की जरुरत होती है। इसके निभाने हेतु जहांआपसी समझदारी की आवश्यकता होती है वहीं कुंडली के ग्रहों की आपस में मेलापक ज्ञात कर जिन ग्रहों के कारण आपसी तनाव की स्थिति निर्मित हो रही हो, उन ग्रहों की शांति कराना चाहिए। किसी भी व्यक्ति की कुंडली में अगर सप्तम भाव या भावेश अपने स्थान से षड़ाषटक या द्वि-द्वादश बनाये तो ऐसे में आपस में मतभेद उभरने के कारण बनते हैं। ऐसी ग्रह स्थिति में विशेषकर इस प्रकार की ग्रह-दशाओं के समय आपसी मतभेद उभरकर आते हैं। अत: अगर रिश्तों में कटुआ आ जाए तो ग्रह दशाओं का आकलन कराया जाकर शांति कराने से आपसी मतभेद मिटाकर, रिश्तों को बेहतर किया जा सकता है।

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जून माह मे मेष राशि का हाल


यह माह आपके लिए मिश्रित फल देने वाला रह सकता है. आपके कुटुम्ब तथा परिवार में मतभेद बने रह सकते हैं. कार्यक्षेत्र पर आपको अनुकूल फलों की प्राप्ति हो सकती है. आपको उन्नति के उचित अवसर मिल सकते हैं.
कैरियर: कैरियर के नजरिए से यह माह अनुकूल रहने की संभावना बनती है. माह मध्य तक आपकी तरक्की और उन्नति के योग अच्छे बनते हैं. इसलिए आप जितने प्रयास और भाग-दौड़ कर सकते हैं वह इस दौरान कर लें. आप यदि बिजनेस करते हैं तब आपको अपने काम के लिए अत्यधिक भागना पड़ सकता है.
विद्या: विद्यार्थियों के लिए यह माह मिश्रित रहेगा क्योंकि आपके रूटिन हाउस में चंद्रमा होने से आपके अंदर पढने की इच्छाशक्ति नहीं होने से कम पढ़ाई करेगें.
स्वास्थ: आपको आँख से संबंधित रोग परेशान कर सकते हैं इसलिए आप नेत्रों के प्रति सजग रहें और समय पर चिकित्सक की सलाह लेते रहें. आपको दाँत से जुड़े दर्द भी सता सकते हैं.
परिवार: पारीवारिक मुद्दों के लिए यह माह कुछ तनाव भरा रह सकता है क्योकि आपके कुटुम्ब भाव में सूर्य का गोचर हो रहा है और दूसरे भाव में मंगल तथा बुध साथ में स्थित है तब आपकी अपनी जुबान बहुत कड़वी हो सकती है. आप छोटी यात्राओं पर जाने का कार्यक्रम बना सकते हैं.
उपाय: आप इस माह प्रतिदिन उगते हुए सूर्य को अध्र्य दें. जल देते समय ú घृणि सूर्याय नम: का मंत्र बोलें.



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लाल किताब एवं संतान योग



कुण्डली का पांचवा घर संतान भाव के रूप में विशेष रूप से जाना जाता है. ज्योतिषशास्त्री इसी भाव से संतान कैसी होगी, एवं माता पिता से उनका किस प्रकार का सम्बन्ध होगा इसका आंकलन करते हैं. इस भाव में स्थित ग्रहों को देखकर व्यक्ति स्वयं भी काफी कुछ जान सकता है जैसे:
पांचवें घर में सूर्य:
लाल किताब के नियमानुसार पांचवें घर में सूर्य का नेक प्रभाव होने से संतान जब गर्भ में आती है तभी से व्यक्ति को शुभ फल प्राप्त होना शुरू हो जाता है. इनकी संतान जन्म से ही भाग्यवान होती है. यह अपने बच्चों पर जितना खर्च करते हैं उन्हें उतना ही शुभ परिणाम प्राप्त होता है. इस भाव में सूर्य अगर मंदा या कमजोर होता है तो माता पिता को बच्चों से सुख नहीं मिल पाता है. वैचारिक मतभेद के कारण बच्चे माता पिता के साथ नहीं रह पाते हैं.
पांचवें घर में चन्द्रमा:
चन्द्रमा पंचवें घर में संतान का पूर्ण सुख देता है. संतान की शिक्षा अच्छी होती है. व्यक्ति अपने बच्चों के भविष्य के प्रति जागरूक होता है. व्यक्ति जितना उदार और जनसेवी होता है बच्चों का भविष्य उतना ही उत्तम होता है. इस भाव का चन्द्रमा अगर मंदा हो तो संतान के विषय मे मंदा फल देता है. लाल किताब का उपाय है कि बरसात का जल बोतल में भरकर घर में रखने से चन्द्र संतान के विषय में अशुभ फल नहीं देता है.
पांचवें घर में मंगल:
लाल किताब के अनुसार मंगल अगर खाना संख्या पांच में है तो संतान मंगल के समान पराक्रमी और साहसी होगी. संतान के जन्म के साथ व्यक्ति का पराक्रम और प्रभाव बढ़ता है. शत्रु का भय इन्हें नहीं सताता है. इस खाने में मंगल अगर मंदा है तो व्यक्ति को अपनी चारपायी या पलंग के सभी पायों में तांबे की कील ठोकनी चाहिए. इस उपाय से संतान सम्बन्धी मंगल का दोष दूर होता है.
पांचवें घर में बुध:
बुध का पांचवें घर में होना इस बात का संकेत है कि संतान बुद्धिमान और गुणी होगी. संतान की शिक्षा अच्छी होगी. अगर व्यक्ति चांदी धारण करता है तो यह संतान के लिए लाभप्रद होता है. संतान के हित में पंचम भाव में बुध वाले व्यक्ति को अकारण विवादों में नहीं उलझना चाहिए अन्यथा संतान से मतभेद होता है.
पांचवें घर में गुरू:
पंचम भाव में गुरू शुभ होने से संतान के सम्बन्ध में शुभ परिणाम प्राप्त होता है. संतान के जन्म के पश्चात व्यक्ति का भाग्य बली होता है और दिनानुदिन कामयाबी मिलती है. संतान बुद्धिमान और नेक होती है. अगर गुरू मंदा हो तो संतान के विषय में शुभ फल प्राप्त नहीं होता है. मंदे गुरू वाले व्यक्ति को गुरू का उपाय करना चाहिए.
पांचवें घर में शुक्र:
पांचवें घर में शुक्र का प्रभाव शुभ होने से संतान के विषय में शुभ फल प्राप्त होता है. इनके घर संतान का जन्म होते ही धन का आगमन तेजी से होता है. व्यक्ति अगर सद्चरित्र होता है तो उसकी संतान पसिद्ध होती है. अगर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व और चरित्र का ध्यान नहीं रखता है तो संतान के जन्म के पश्चात कई प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना होता है. शुक्र अगर इस भाव में मंदा हो तो दूध से स्नान करना चाहिए.
पांचवें घर में शनि:
शनि पांचवें घर में होने से संतान सुख प्राप्त होता है. शनि के प्रभाव से संतान जीवन में अपनी मेहनत और लगन से उन्नति करती है. इनकी संतान स्वयं काफी धन सम्पत्ति अर्जित करती है. अगर शनि इस खाने में मंदा होता है तो कन्या संतान की ओर से व्यक्ति को परेशानी होती है. इस भाव में शनि की शुभता के लिए व्यक्ति को मंदिर में बादाम चढ़ाने चाहिए और उसमें से 5-7 बादाम वापस घर में लाकर रखने चाहिए.
पांचवें घर में राहु:
खाना नम्बर पांच में राहु होने से संतान सुख विलम्ब से प्राप्त होता है. अगर रहु शुभ स्थिति में हो तो पुत्र सुख की संभावना प्रबल रहती है. मंदा राहु पुत्र संतान को कष्ट देता है. लाल किताब के अनुसार मंदा राहु होने पर व्यक्ति को संतान के जन्म के समय उत्सव नहीं मनाना चाहिए. अगर संतान सुख में बाधा आ रही हो तो व्यक्ति को अपनी पत्नी से दुबारा शादी करनी चाहिए.
पांचवें घर में केतु:
केतु भी राहु के समान अशुभ ग्रह है लेकिन पंचम भाव में इसकी उपस्थिति शुभ हो तो संतान के जन्म के साथ ही व्यक्ति को आकस्मिक लाभ मिलना शुरू हो जाता है. यदि केतु इस खाने में मंदा हो तो व्यक्ति को मसूर की दाल का दान करना चाहिए. इस उपाय से संतान के विषय में केतु का मंदा प्रभाव कम होता है.


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जन्मजन्मांतरण की भारतीय अवधारणा



संसार में कुछ वर्ग विशेष के लोग यह मानते हैं कि व्यक्ति का बार-बार जन्म नहीं होता तथा प्रत्येक व्यक्ति का केवल एक ही जन्म होता है। इस धारणा को यदि सच मान लिया जाए तो मानव जीवन से जुड़े ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त नहीं हो पाते जिनका प्राप्त होना अति आवश्यक है। उदाहरण के लिए, यदि पुनर्जन्म नहीं होता तो क्या कारण है कि संसार में कोई व्यक्ति राजा के घर जन्म लेता है जबकि वहीं कोई दूसरा व्यक्ति किसी निर्धन अथवा भिक्षु के घर जन्म लेता है। जहां कोई व्यक्ति जीवन भर भांति-भांति के सुखों का भोग करता है, वहीं कोई अन्य व्यक्ति आजीवन दुखों को ही झेलता रहता है। कोई आजीवन स्वस्थ रहता है तो कोई जन्म से ही अथवा छोटी आयु से ही विभिन्न प्रकार के रोगों से पीडि़त रहता है। किसी का ध्यान धर्म कर्म के कार्यों में बहुत लगता है जबकि किसी अन्य की रुचि केवल अर्धम तथा अनैतिकता में ही रहती है। यदि कोई पिछला जन्म नहीं होता तो क्यों विभिन्न प्रकार के व्यक्ति संसार में विभिन्न प्रकार के स्वभाव तथा भाग्य लेकर आते हैं और क्या है ऐसा विशेष जिससे किसी व्यक्ति का भाग्य निश्चित होता है।
ऐसे और ऐसे बहुत से प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हिंदु धर्म के वेद-शास्त्रों तथा महापुरुषों द्वारा समय-समय पर संसार को प्रदान किये गये मार्गदर्शन का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है जिसके अनुसार व्यक्ति के वर्तमान जीवन में होने वाली शुभ-अशुभ घटनाओं का सीधा संबंध व्यक्ति के पिछले जन्मों से जड़ा हुआ है तथा व्यक्ति के वर्तमान जीवन के अच्छे बुरे कर्मों का संबंध उसके भविष्य के जन्मों से जुड़ा हुआ है। भारत भूमि पर सदियों से ही अध्यात्म, कर्मवाद तथा ज्योतिष जैसी धारणाओं का अपना एक विशेष स्थान रहा है तथा समय-समय पर विभिन्न वर्गों के लोगों ने इनसे मार्गदर्शन भी प्राप्त किया है। इन धारणाओं में विश्वास रखने वाले लोगों के मन में यह प्रश्न समय-समय पर उठता रहता है कि आखिर क्यों किसी व्यक्ति के बार-बार जन्म होते रहते हैं और पुनर्जन्म के क्या संभव कारण हो सकते हैं या होते हैं। आईए आज इस लेख के माध्यम से यह चर्चा करते हैं कि किसी आत्मा के बार-बार जन्म लेकर भूलोक पर आने के क्या संभव कारण हो सकते हैं।
किसी भी आत्मा विशेष के बार-बार जन्म लेकर भूलोक पर आने के मुख्य दो कारण अच्छे-बुरे कर्मों का भोग और उस आत्मा विशेष द्वारा विभिन्न जन्मों में लिये गये संकल्प होते हैं। इस लेख के माध्यम से हम इन दोनों ही कारणों का बारी बारी से विश्लेषण करेंगे तथा देखेंगे कि किस प्रकार अच्छे बुरे कर्मों के फलों से बंधी तथा अपने संकल्पों से बंधी कोई आत्मा विशेष बार-बार जन्म लेती है।
अच्छे बुरे कर्मों के भोग के कारण होने वाले पुनर्जन्मों के बारे में जानने से पूर्व आईए पहले यह जान लें कि वास्तव में अच्छे या बुरे कर्म जिन्हें सुकर्म या कुकर्म भी कहा जाता है, ऐसे कर्म वास्तव में होते क्या हैं। वैसे तो अच्छे और बुरे कर्मों की परिभाषा कई बार इतनी उलझ जाती है कि बड़े से बड़े पंडितों के लिए भी ये तय कर पाना कठिन हो जाता है कि किसी समय विशेष पर किसी व्यक्ति विशेष द्वारा किया जाने वाला कोई कर्म अच्छा है या बुरा, किंतु अधिकतर मामलों में कुछ सरल दिशानिर्देशों के माध्यम से अच्छे और बुरे कर्म का निर्धारण किया जा सकता है। जन सामान्य के समझने के लिए यह आसान नियम बहुत उपयोगी है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा किये गये किसी कार्य से दूसरों का लाभ होता है तो ऐसे कर्म अच्छा कर्म है तथा यदि किसी व्यक्ति द्वारा किये गये किसी कार्य से दूसरों को हानि होती है तो ऐसा कर्म बुरा कर्म है अर्थात जिससे किसी दूसरे का भला हो, ऐसे कर्म को सुकर्म कहते हैं तथा जिससे किसी दूसरे को हानि या क्षति हो, ऐसे कर्म को दुष्कर्म कहते हैं।
अच्छे बुरे कर्मों की मूल परिभाषा समझ लेने के पश्चात आइए अब देखें कि किस तरह से बुरे और यहां तक कि अच्छे कर्म भी किसी आत्मा के बार-बार जन्म लेने का कारण बन सकते हैं। कोई भी आत्मा जब अपने किसी जन्म विशेष में विभिन्न प्रकार के बुरे कर्म करती है तो उस उन बुरे कर्मों के लिए निश्चित फल भुगतने के लिए पुन: जन्म लेकर आना पड़ता है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति ने अपने किसी जीवन में अपनी पत्नि का बहुत उत्पीडऩ किया है अथवा उसने अपने उस जन्म में अपने लाभ के लिए बहुत से व्यक्तियों को कष्ट पहुंचाये हैं या फिर उसने किसी व्यक्ति की हत्या जैसा जघन्य कर्म किया है तो इन सब बुरे कर्मों के लिए विधि के विधान में निश्चित फल भुगतने के लिए ऐसे व्यक्ति को पुन: जन्म लेकर आना पड़ेगा और अपने बुरे कर्मों के फल भुगतने पड़ेंगे। इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के बुरे कर्म होते हैं जिन्हें करने की स्थिति में किसी आत्मा विशेष को ऐसे कर्मों के फलों के भुगतने के लिए बार-बार जन्म लेने पड़ सकते हैं। यहां पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अपने किसी पिछले जन्म में किये गये बुरे कर्मों का फल भगतने के लिए एक नये जन्म में आई हुई आत्मा अधिकतर उस नये जन्म में भी कई प्रकार के बुरे कर्म कर देती है जिनके फल भुगतने के लिये उस पुन: जन्म लेकर आना पड़ता है। इस प्रकार बुरे कर्म करने का और फिर उनके फल भुगतने का यह क्रम चलता रहता है और इस क्रम के फेर में फंसी आत्मा बार-बार जन्म लेती रहती है।
बुरे कर्मों के पश्चात आईए अब देखें कि किसी व्यक्ति के द्वारा किये गए अच्छे कर्म कैसे उस व्यक्ति के पुनर्जन्म का कारण बन सकते हैं। अनेक व्यक्ति तो इस बात को सुनकर ही आश्चर्य करने लग पड़ते हैं कि अच्छे कर्म करने से भी बार-बार जन्म लेना पड़ सकता है और यदि ऐसा होता है तो क्यों। इसका कारण समझने के लिए मान लीजिए किसी व्यक्ति ने अपने किसी जन्म में किसी मंदिर में कोई बड़ी धन राशि दान में दे दी या इस मंदिर के निर्माण अथवा विस्तार के लिए अन्य कोई अच्छा कर्म कर दिया तथा साथ ही साथ यह इच्छा भी रख ली कि इस दान अथवा इस अच्छे कर्म के फलस्वरूप इसे इसका कोई इच्छित फल प्राप्त हो जैसे कि बहुत सा धन प्राप्त हो या बहुत यश प्राप्त हो या ऐसा ही कुछ और प्राप्त हो। अब इस अच्छे कर्म के बदले में मांगा गया फल, आवश्यक नहीं है कि इस व्यक्ति को इसके उसी जन्म में प्राप्त हो जाये क्योंकि ऐसा संभव है कि किन्हीं सीमितताओं के चलते अथवा किन्हीं अन्य कारणों के चलते इस व्यक्ति द्वारा मांगा गया फल उसे इस जन्म में प्राप्त न हो सकता हो। ऐसी स्थिति में ऐसे अच्छे कर्म का फल व्यक्ति के अगले जन्म तक के लिए स्थगित हो जाता है तथा ऐसे व्यक्ति को उस फल की प्राप्ति के लिए पुन: जन्म लेना पड़ता है क्योंकि इस व्यक्ति ने अपने उस अच्छे कर्म के फल की कामना की थी तथा नियति के नियम के अनुसार अब इस व्यक्ति को वह फल तो प्राप्त होना ही है फिर भले ही इस व्यक्ति को उस फल की प्राप्ति के लिए एक जन्म और भी लेना पड़े। इसी प्रकार अपने किसी जन्म विशेष में कोई भी व्यक्ति विशेष फल की इच्छा रखते हुए अनेक प्रकार के अच्छे कर्म करता है जिनमें से कुछ कर्मों के फल तो उसे उसी जीवन में प्राप्त हो जाते हैं किंतु कुछ अच्छे कर्मों के फल अगले जन्म के लिए स्थगित हो जाते हैं जिसके कारण ऐसे व्यक्ति को पुन: जन्म लेना पड़ता है और अपने अगले जन्म में भी ऐसे ही कुछ फल की ईच्छा के साथ किये गए अच्छे कर्मों के कारण ऐसे व्यक्ति को पुन: एक और जन्म लेना पड़ पड़ सकता है और इस प्रकार बार-बार जन्म लेने का यह क्रम चलता रहता है।
यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि अच्छे कर्म का फल प्राप्त करने के लिये किसी व्यक्ति को पुन: जन्म तभी लेना पड़ता है जब उस व्यक्ति ने ऐसा अच्छा कर्म करते समय फल की इच्छा की हो। यदि कोई व्यक्ति अपने किसी जन्म में अनेक ऐसे अच्छे कर्म करता है जिनके लिये ऐसा व्यक्ति फल की इच्छा नहीं रखता तो ऐसे बिना फल की इच्छा रखे किये गये अच्छे कर्म व्यक्ति के पुनर्जन्म का कारण नहीं बन सकते क्योंकि इस व्यक्ति ने तो अपने अच्छे कर्मों का फल मांगा ही नहीं अथवा चाहा ही नहीं जिसके चलते इन कर्मों के भुगतान के लिए पुनर्जन्म नहीं होता। इसी को निष्काम कर्म कहते हैं अर्थात ऐसा कर्म जो एक अच्छा कर्म है किन्तु उसे करने के समय कर्ता ने किसी भी प्रकार के फल की इच्छा नहीं की है। इसलिए किसी व्यक्ति के अच्छे कर्म उसके पुनर्जन्म का कारण केवल तभी बन सकते हैं जब इन कर्मों को करते समय ऐसे व्यक्ति ने इन कर्मों के शुभ फलों की इच्छा की हो, अन्यथा नहीं।
कुछ लोग कई बार ऐसा प्रश्न भी पूछ लेते हैं कि इस प्रकार तो यदि हम बुरा कर्म करके उसके फल की इच्छा भी न करें तो ऐसा बुरा कर्म भी निष्काम कर्म हो जाएगा और इस प्रकार हमें बुरे कर्म के फल का भुगतान करने के लिए भी पुन: जन्म नहीं लेना पड़ेगा। यह केवल एक भ्रांति ही है कि बुरा कर्म भी निष्काम हो सकता है तथा इस तथ्य को भली प्रकार से समझने के लिए सबसे पहले यह जान लें कि बुरे कर्म का फल एक ऋण की भांति होता है जबकि अच्छे कर्म का फल एक कमाई की भांति और जैसा कि हम सब जानते ही हैं की जिस व्यक्ति ने किसी से ऋण लिया हो, ऐसे ऋण को माफ कर देना ऋण लेने वाले के हाथ में नहीं होता तथा इसलिये चाह कर भी कोई ऋण लेने वाला व्यक्ति केवल अपनी इच्छा मात्र से उस ऋण से अपने आप को मुक्त करने का संकल्प लेकर ऋण मुक्त नहीं हो सकता तथा ऋण से वास्तविक मुक्ति के लिये इस व्यक्ति को यह ऋण चुकाना ही पड़ेगा। इस लिए बुरे कर्म को बिना फल की इच्छा से करने के पश्चात भी उसका फल भोगना ही पड़ता है। वहीं पर किसी अच्छे कर्म का फल हमारी कमाई होता है या हमारी जमापूंजी होता है तथा इसे ठीक उसी प्रकार अपने संकल्प से छोड़ा जा सकता है जैसे कोई भी व्यक्ति अपनी कमाई या जमापूंजी को छोड़ सकता है। बिना फल की इच्छा के किया गया शुभ कर्म ही निष्काम कर्म कहलाता है तथा सभी प्रकार के कर्मों में केवल निष्काम कर्म ही ऐसा कर्म है जो व्यक्ति के बार-बार जन्म लेने का कारण नहीं बनता। इसका कारण भी बहुत स्पष्ट ही है, आपने परिश्रम किया और आपने उस परिश्रम का फल न लेने का निश्चय किया। परिश्रम का फल लेना या न लेना परिश्रम करने वाले की इच्छा पर ही निर्भर करता है तथा संसार में प्रत्येक व्यक्ति को नि:शुल्क परिश्रम करने की स्वतंत्रता प्राप्त है किंतु संसार में किसी भी व्यक्ति को ऋण लेकर अपने आप ही उस ऋण को माफ करने की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है तथा ऐसे ही नियम अच्छे बुरे कर्मों के फलों के विधान में भी सत्य होते हैं।
इस लिये यहां इस बात को जान लेना और समझ लेना आवश्यक है कि जन्म के बाद जन्म लेने की इस यात्रा में किसी आत्मा के मोक्ष अथवा मुक्ति प्राप्त करने में जितनी बड़ी बाधा बुरे कर्म होते हैं, उतनी ही बड़ी बाधा फल की ईच्छा रखकर किये गये अर्थात सकाम अच्छे कर्म भी होते हैं क्योंकि दोनों ही स्थितियों में आपको ऐसे कर्मों के फल भुगतने के लिये पुन: जन्म लेना पड़ता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि आत्मा की मुक्ति की यात्रा में बुरे कर्म लोहे की बेडिय़ां जबकि सकाम अच्छे कर्म सोने की बेडिय़ां हैं किंतु बेड़ी तो बेड़ी ही है फिर चाहे वह लोहे की हो अथवा सोने की। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि बार-बार जन्म लेने के इस क्रम से आपको छुटकारा प्राप्त हो तथा आपको मोक्ष अथवा मुक्ति प्राप्त हो तो उसके लिये आवश्यक है कि आप बुरे कर्मों को करना बंद कर दें तथा अच्छे कर्मों को करते समय उनके फल की इच्छा को त्याग दें अर्थात ''निष्कामÓÓ अच्छे कर्म करें जिसके चलते आपको ऐसे कर्मों के फल भुगतने के लिये पुन: जन्म नहीं लेना पड़ेगा।


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छत्तीसगढ़ में राम के वनवास स्थल



अयोध्या नरेश राजा दशरथ के द्वारा चौदह वर्षों के वनवास आदेश के मिलते ही, माता-पिता का चरण स्पर्श कर राजपाट छोड़कर रामचंद्र जी ने सीताजी एवं लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या से प्रस्थान किया, उस समय अयोध्या वासी उनके साथ-साथ तमसा नदी के तट तक साथ-साथ गये एवं अपने प्रिय प्रभु को तमसा नदी पर अंतिम बिदाई दी।
रामचंद्र जी तमसा नदी पार कर वाल्मीकि आश्रम पहुँचे जो गोमती नदी के तट पर स्थित है। प्रतापपुर से 20 कि.मी. राई मंदिर के पास बकुला नदी प्रवाहित होती है। वाल्मीकि ऋषि के नाम पर इस नदी का नाम बकुला पड़ा। इसके बाद नदी के तट से सिंगरौल पहुँचे, सिंगरौल का प्राचीन नाम सिंगवेद है। यहाँ नदी तट पर निषादराज से भेंट हुई। इसे निषादराज की नगरी के नाम से जाना जाता है। यह गंगा नदी के तट पर स्थित है। सीताकुण्ड के पास रामचंद्र जी गंगा जी को पार कर श्रृंगवेरपुर पहुँचे, इस श्रृंगवेरपुर का नाम अब कुरईपुर है। कुरईपुर से यमुनाजी के किनारे प्रयागराज पहुँचे। प्रयागराज से चित्रकूट पहुँचे।
चित्रकूट में राम-भरत मिलाप हुआ था। यहाँ से अत्रि आश्रम पहुँचकर दण्डक वन में प्रवेश किया। दण्डक वन की सीमा गंगा के कछार से प्रारंभ होती है। यहाँ से आगे बढऩे पर मार्ग में शरभंग ऋषि का आश्रम मिला, वहाँ कुछ समय व्यतीत कर सीता पहाड़ की तराई में बने सुतीक्ष्ण ऋषि से मिलने गये। इसके बाद वे अगस्त ऋषि के आश्रम पहुँचे। उन दिनों मुनिवर आर्यों के प्रचार-प्रसार के लिये दक्षिणापथ जाने की तैयारी में थे। मुनिवर से भेंट करने पर मुनिवर ने उन्हें गुरू मंत्र दिया और शस्त्र भेंट किए। आगे उन्होंने मार्ग में ऋषिमुनियों को विघ्न पहुँचाने वाले सारंथर राक्षस का संहार किया। इसके बाद सोनभद्र नदी के तट पहुँचे, वहाँ से जहाँ मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम है। मार्कण्डेय ऋषि से भेंट कर उन्होंने सोनभद्र एवं बनास नदी के संगम से होकर बनास नदी के मार्ग से सीधी जिला (जो उन दिनों सिद्ध भूमि के नाम से विख्यात था) एवं कोरिया जिले के मध्य सीमावर्ती मवाई नदी (भरतपुर) पहुँच कर मवाई नदी पार कर दण्डकारण्य में प्रवेश किया। मवाई नदी-बनास नदी से भरतपुर के पास बरवाही ग्राम के पास मिलती है। अत: बनास नदी से होकर मवाई नदी तक पहुँचे, मवाई नदी को भरतपुर के पास पार कर दक्षिण कोसल के दण्डकारण्य क्षेत्र,(छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़) में प्रवेश किया।
दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) में सवाई नदी के तट पर उनके चरण स्पर्श होने पर छत्तीसगढ़ की धारा पवित्र हो गयी और नदी तट पर बने प्राकृतिक गुफा मंदिर सीतामड़ी हरचौका में पहुँच कर विश्राम किया अर्थात रामचंद्र जी के वनवास काल का छत्तीसगढ़ में पहला पड़ाव भरतपुर के पास सीतामड़ी हरचौका को कहा जाता है। सीतामड़ी हरचौका में मवाई नदी के तट पर बनी प्राकृतिक गुफा को काटकर छोटे-छोटे 17 कक्ष बनाये गये हैं जिसमें द्वादश शिवलिंग अलग-अलग कक्ष में स्थापित हैं। वर्तमान में यह गुफा मंदिर नदी के तट के समतल करीब 20 फीट रेत पट जाने के कारण हो गया है। यहाँ रामचंद्र जी ने वनवास काल में पहुँचकर विश्राम किया। इस स्थान का नाम हरचौका अर्थात् हरि का चौका अर्थात् रसोई के नाम से प्रसिद्ध है। रामचंद्रजी ने यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर कुछ समय व्यतीत किया इसके बाद वे मवाई नदी से होकर रापा नदी के तट पर पहुँचे। रापा नदी और बनास कटर्राडोल (सेमरिया) के पास आपस में मिलती हैं। मवाई नदी बनास की सहायक नदी है। अत: रापा नदी के तट पर पहुँच कर सीतमड़ी थाथरा पहुँचे। नदी तट पर बनी प्राकृतिक गुफा नदी तट से करीब 20 फीट ऊँची है। वहाँ चार कक्ष वाली प्राकृतिक गुफा है। गुफा के मध्य कक्ष में शिवलिंग स्थापित है तथा दाहिने, बाएँ दोनों ओर एक-एक कक्ष है जहाँ मध्य की गुफा के सम्मुख होने के कारण दो गुफाओं के सामने से रास्ता परिक्रमा के लिये बनाया गया है। इन दोनों कक्षों में राम-सीताजी ने विश्राम किया तथा सामने की ओर अलग से कक्ष है जहाँ लक्ष्मण जी ने रक्षक के रूप में इस कक्ष में बैठकर पहरा दिया था।
यहाँ कुछ दिन व्यतीत कर वे धाधरा से कोटाडोल पहुँचे। इस स्थान में गोपद एवं बनास दोनों नदियाँ मिलती हैं। कोटडोल एक प्राचीन एवं पुरातात्विक स्थल है। कोटाडोल से होकर वे नेउर नदी के तट पर बने सीतामड़ी छतौड़ा आश्रम पहुँचे। छतौड़ा आश्रम उन दिनों संत-महात्माओं का संगम स्थली था। यहाँ पहुँच कर उनहोंने संत महात्माओं से सत्संग कर दण्डक वन के संबंध में जानकारी हासिल की। यहाँ पर भी प्राकृतिक गुफा नेउर नदी के तट पर बनी हुई है। इसे ''सिद्ध बाबा का आश्रमÓÓ के नाम से प्रसिद्धी है। बनास, नेउर एवं गोपद तीनों नदियाँ भँवरसेन ग्राम के पास मिलती हैं। छतौड़ा आश्रम से देवसील होकर रामगढ़ पहुँचे। रामगढ़ की तलहटी से होकर सोनहट पहुँचे। सोनहट की पहाडिय़ों से हसदो नदी का उद्गम होता है। अत: हसदो नदी से होकर वे अमृतधारा पहुँचे। अमृत धारा में गुफा-सुरंग है। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया तथा महर्षि विश्रवा से भेंट की। तत्पश्चात् वे जटाशंकरी गुफा पहुँचे, यहाँ पर शिवजी की पूजा अर्चना कर समय व्यतीत कर बैकुण्ठपुर पहुँचे। बैकुण्ठपुर से होकर वे पटना-देवगढ़, जहाँ पहाड़ी के तराई में बसा प्राचीन मंदिरों का समूह था। सूरजपुर तहसील के अंतर्गत रेण नदी के तट पर होने के कारण इसे अर्ध-नारीश्वर शिवलिंग कहा जाता है। अत: जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कुछ समय व्यतीत करने के बाद वे विश्रामपुर पहुँचे। रामचंद्र जी द्वारा इस स्थल में विश्राम करने के कारण इस स्थान का नाम विश्रामपुर पड़ा। इसके बाद वे अंबिकापुर पहुँचे। अंबिकापुर से महरमण्डा ऋषि के आश्रम बिल द्वार गुफा पहुँचे। यह गुफा महान नदी के तट पर स्थित है। यह भीतर से ओम आकृति में बनी हुई है। महरमण्डा ऋषि के आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर वे महान नदी के मार्ग से सारासोर पहुँचे।
सारासोर जलकुण्ड है, यहाँ महान नदी खरात एवं बड़का पर्वत को चीरती हुई पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। कहा जाता है कि पूर्व में यह दोनों पर्वत आपस मे जुड़े थे। रामवन गमन के समय राम-लक्ष्मण एवं सीता जी यहाँ आये थे तब पर्वत के उस पार यहाँ ठहरे थे। पर्वत में एक गुफा है जिसे जोगी महाराज की गुफा कहा जाता है। सारासोर-सर एवं पार अरा-असुर नामक राक्षस ने उत्पात मचाया था तब उनके संहार करने के लिये रामचंद्रजी के बाण के प्रहार से ये पर्वत अलग हो गये और उस पार जाकर उस सरा नामक राक्षस का संहार किया था। तब से इस स्थान का नाम सारासोर पड़ गया। सारासोर में दो पर्वतों के मध्य से अलग होकर उनका हिस्सा स्वागत द्वार के रूप में विद्यमान है। नीचे के हिस्से में नदी कुण्डनुमा आकृति में काफी गहरी है इसे सीताकुण्ड कहा जाता है। सीताकुण्ड में सीताजी ने स्नान किया था और कुछ समय यहाँ व्यतीत कर नदी मार्ग से पहाड़ के उस पार गये थे। आगे महान नदी ग्राम ओडगी के पास रेण नदी से संगम करती है। इस प्रकार महान नदी से रेण के तट पर पहुँचे और रेण से होकर रामगढ़ की तलहटी पर बने उदयपुर के पास सीताबेंगा- जोगीमारा गुफा में कुछ समय व्यतीत किया। सीताबेंगरा को प्राचीन नाट्यशाला कहा जाता है तथा जोगीमारा गुफा जहाँ प्रागैतिहासिक काल के चित्र अंकित हैं। रामगढ़ की इस गुफा में सीताजी के ठहरने के कारण इसका नाम सीताबेंगरा गुफा पड़ा। इसके बाद सीताबेंगरा गुफा के पार्श्व में हथफोर गुफा सुरंग है, जो रामगढ़ की पहाड़ी को आर-पार करती है। हाथी की ऊँचाई में बनी इस गुफा को हथफोर गुफा सुरंग कहा जाता है। रामचंद्रजी इस गुफा सुरंग को पार कर रामगढ़ की पहाड़ी के पीछे हिस्से में बने लक्ष्मणगढ़ पहुँचे। यहाँ पर बनी गुफा को लक्ष्मण गुफा कहा जाता है। यहाँ कुछ समय व्यतीत कर रेण नदी के तट पर महेशपुर पहुँचे। महेशपुर उन दिनों एक समृद्धशाली एवं धार्मिक केंद्र था। यहाँ उन्होंने नदी तट पर बने प्राचीन शिवमंदिर में शिवलिंग की पूजा की थी, इसी कारण से इस स्थान का नाम महेशपुर पड़ा।
महेशपुर से वापस रामगढ़ में मुनि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। यहाँ उनकी मुलाकात मुनि वशिष्ठ से हुई। मुनि वशिष्ठ से मार्गदर्शन प्राप्त कर चंदन मिट्टी गुफा पहुँचे। चन्दन मिट्टी से रेणनदी होकर अंबिकापुर से 18कि.मी. की दूरी पर नान्ह दमाली एवं बड़े दमाली गाँव हैं। इनके समीप बंदरकोट नामक स्थान है। यह अंबिकापुर से दरिमा मार्ग पर स्थित है। इस बंदरकोट का नाम दमाली कोट था। कहा जाता है कि असूर राजा दमाली बड़ा दुष्ट हो गया था और इसका अत्याचार बढ़ गया था। सरगुजा के लोक गीत में (देव दमाली बंदर कोट ताकर बेटी बांह अस मोट-राजा दमाली की अत्याचार से मुक्त कराने के लिये बंदरराज केसरी ने दमाली का वध किया) और किले पर कब्जा कर लिया तब से यह बंदरकोट कहलाने लगा। इस किले में बंदर ताल के पास प्राचीन शिवलिंग के अवशेष हैं। कहा जाता है कि यही सुमाली की तपस्या स्थली थी। यहाँ पर एक अंजनी टीला है कहा जाता है कि गौतम ऋषि की पुत्री अंजनी ने, जो हनुमान की माता जी है। इस टीले पर तपस्या की थी। इसी कारण से इस टीले का नाम अंजनी टीला पड़ा। त्रेतायुग में भगवान राम ने वन गमन के समय केसरी वन के जंगलों में अधिकांश समय व्यतीत किया था। जहाँ भगवान राम महर्षि सुतीक्ष्ण के साथ महर्षि दन्तोलि के आश्रम मैनपाट गये थे। बंदरकोट किले के ऊपर से ही बंदरों ने उन्हें अपनी किलकारी द्वारा अपने को समर्पित किया था। बंदरकोट में आज भी बंदरों का झुण्ड मिलता है।
रामचंद्र जी बंदरकोट के केसरीवन में सुतीक्ष्ण मुनि से भेंट कर मैनी नदी से होकर मैनपाट पहुँचे, जहाँ महर्षि शरभंग एवं महर्षि दंतोली से मुलाकात की। मैनपाट के मछली पाईंट के पास आज भी शरभंग ऋषि के नाम पर शरभंजा ग्राम है। मैनपाट अपने भौगोलिक आकर्षण के कारण मुनियों एवं तपस्वियों की तपोभूमि रही है। इस पवित्र स्थान में रामचंद्रजी ने वनवास काल रुक कर कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ टाईगर पाईंट भी आकर्षण का केंद्र था। टाईगर पाईंट से मैनपाट नदी निकलती है। इसके बाद वे मैनी नदी से होकर माण्ड नदी के तट पर पहुँचे। मैनी नदी काराबेल ग्राम के पास माण्ड नदी से संगम करती है। यहाँ से वे सीतापुर पहुँचे। सीतापुर में माण्डनदी के तट पर मंगरेलगढ़ पहुँचे। यहाँ नदी तट पर बसे प्राचीन मंगरेलगढ़ के अवशेष मिलते हैं। यहाँ मंगरेलगढ़ी की देवी का प्राचीन मंदिर है। मंगरेलगढ़ से होकर माण्ड नदी के तट से होकर देउरपुर पहुँचे, जिसे अब महारानीपुर कहा जाता है। महारानीपुर में प्राचीन समय में मुनि आश्रम थे। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ प्राचीन विष्णुमंदिर का भग्नावशेष एवं शिवमंदिर के अवशेष मिलते हैं।
सीतापुर में मंगरेलगढ़, देउरपुर (महारानीपुर) से होकर माण्ड नदी से पम्पापुर पहुँचे। पम्पापुर में किन्धा पर्वत है। रामायण में उल्लेखित किष्किन्धा का यह अपभ्रंश है। किन्धा पर्वत एवं उसके सामने दुण्दुभि पर्वत है। पम्पापुर में स्थित किन्धा पर्वत में राम भगवान की मुलाकात सुग्रीव से हुई थी। यहाँ के पर्वत में सुग्रीव गुफा भी है। दुण्दुभि राक्षस एवं बालि का युद्ध हुआ था। इसी कारण से इन पर्वत का नाम दुण्दुभि एवं किन्धा रखा गया है। पम्पापुर नामक ग्राम आज भी यहाँ स्थित है। पम्पापुर से आगे बढऩे बढऩे पर माण्ड नदी के तट पर पिपलीग्राम के पास रक्सगण्डा नामक स्थान है। रक्सगण्डा से ऊपर पहाड़ी से जलप्रपात गिरता है। इस प्राकृतिक स्थान का नाम रक्सगण्डा इसलिये पड़ा कि रक्स याने राक्षस, गण्डा याने ढेर अर्थात् राक्षसों का ढेर को रक्सगण्डा कहा जाता है। वनवास काल में उन्होंने इस स्थल में ऋषि-मुनियों के यज्ञ-हवन में विघ्न डालने वाले उत्पाती राक्षसों का वध कर ढेर लगा दिया था। इसी कारण से इस स्थान का नाम रक्सगण्डा रखा गया है। रक्सगण्डा से माण्ड नदी होकर पत्थलगाँव में 12 किमी. की दूरी पर माण्ड नदी के तट पर बने किलकिला आश्रम पहुँचे। किलकिला में प्राचीन शिवमंदिर है। यहाँ के आश्रम में कुछ समय व्यतीत किया। किलकिला में आज भी मंदिरों का समूह मिलता है तथा किलकिला का नाम रामायण में उल्लेखित हुआ है।
यहाँ से वे माण्ड नदी से होकर धर्मजयगढ़ पहुँचे। यहाँ नदी तट पर प्राचीन देवी का मंदिर है जो अंबे टिकरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ से माण्ड नदी से होकर चंद्रपुर पहुँचे। चंद्रपुर माण्ड और महानदी का संगम है। इसी संगम तट पर चंद्रहासिनी देवी का मंदिर बना है, तथा मंदिर के पीछे के भाग में नदी तट पर प्राचीन किले का द्वार है। इसी द्वार के दाहिनी ओर प्राचीन शिवमंदिर का भग्नावशेष है। रामचंद्रजी यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर यहीं से वे माण्डनदी को छो?कर महानदी के तट से शिवरीनारायण पहुँचे, जहाँ पर जोक, शिवनाथ एवं महानदी का संगम है। शिवरीनारायण में मतंग ऋषि का आश्रम था। मतंग ऋषि की शबर कन्या शबरी के गुरू थे। शबरी छत्तीसगढ़ की शबर कन्या थी, जो मतंग ऋषि के गुरूकुल की आचार्या थी। इन्होंने रामचंद्र जी को वनवास काल में यहाँ पहुँचने पर अपने जूठे बेर खिलाये थे। अत: शबरी-नारायण के नाम से इस स्थान का नाम शबरीनारायण पड़ा जो आज शिवरीनारायण के नाम से प्रसिद्ध है। श्री राम इन्हीं संतों से मिलने यहाँ आये थे। यहाँ पर नदी संगम में शबरीनारायण का प्राचीन मंदिर है।
शिवरीनारायण में कुछ समय व्यतीत कर वे वहाँ से तीन कि.मी. दूर खरौद पहुँचे, खरौद को खरदूषण की राजधानी कहा जाता है। खरौद में प्राचीन शिवमंदिर है, जो लक्ष्मणेश्वर शिवमंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस शिवलिंग में लगभग एक लाख छिद्र हैं। यहाँ राम-लक्ष्मण दोनों ने शिवलिंग की पूजा की थी। यहाँ से जाँजगीर पहुँचे। जाँजगीर को कलचुरी शासक जाजल्य देव ने बसायी थी। यहाँ पर राम का प्राचीन मंदिर है। इसके बाद वे महानदी से मल्हार पहुँचे। मल्हार को दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त था। यहाँ मंदिरों के प्राचीन अवशेष में मानस कोसलीय लिखा हुआ सिक्का मिला है, जिससे इस स्थान का नाम कोसल होने की पुष्टि करता है। मल्हार से महानदी से धमनी पहुँचे। धमनी में प्राचीन शिवमंदिर है। धमनी होकर बलौदाबाजार तहसील में पलारी पहुँचे। पलारी में बालसमुंद जलाशय के किनारे प्राचीन ईंटों से निर्मित शिवमंदिर है। पलारी से महानदी मार्ग से नारायणपुर पहुँचे, नारायणपुर में प्राचीन शिवमंदिर है। नारायणपुर से कसडोल होकर तुरतुरिया पहुँचे। बालुकिनी पर्वत के समीप बसा तुरतुरिया को वाल्मीकि आश्रम कहा जाता है।
वाल्मीकि आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर मुनिवर से मुलाकात कर उनसे मार्गदर्शन लेकर महानदी के तट पर बसे प्राचीन नगर सिरपुर पहुँचे। सिरपुर में राममंदिर एवं लक्ष्मणमंदिर तथा गंधेश्वर शिवमंदिर स्थिापित हैं। सिरपुर से आरंग पहुँचे। महानदी तट पर बसा आरंग में कौशल्या कुण्ड है। कहा जाता है कि कोसल नरेश भानुमंत की पुत्री का विवाह अयोध्या के राजकुमार दशरथ से हुआ था। विवाह बाद राजकुमारी का नाम कोसल से होने के कारण कौशल्या रखा गया। जैसा कि कैकय देश से कैकयी। इस प्रकार विवाह के बाद स्त्री का नाम बदलने की परंपरा की रामायणकालीन जानकारी मिलती है। आरंग माता कौशल्या की जन्मस्थली थी। अत: रामचंद्र जी ने वनवास काल में अपने ननिहाल में जाना पसंद किया था और यहाँ अधिकांश समय व्यतीत किया था । यही कारण है कि महाभारत कालीन मोरध्वज की राजधानी होने के बाद किसी अन्य राजा ने अपनी राजधानी इसे नहीं बनाया था, क्योंकि राम की जननी की जन्म स्थली होने के कारण यह एक पवित्र स्थान माना जाता है। आरंग से लगे हुए मंदिरहसौद क्षेत्र में कौशिल्या मंदिर भी है आरंग में प्राचीन बागेश्वर शिव मंदिर है। यहाँ उनके दर्शन किये फिर आरंग से महानदी तट से होते हुए फिंगेश्वर पहुँचे। फिंगेश्वर-राजिम मार्ग पर प्राचीन माण्डव्य आश्रम में श्री राम ऋषि से भेंट कर चंपारण्य होकर कमलक्षेत्र राजिम पहुँचे। राजिम में लोमस ऋषि के आश्रम गये, वहाँ रुक कर उनसे मार्गदर्शन लेकर कुलेश्वर महादेव की पूजा अर्चना की। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ पर सीता वाटिका भी है। इसके बाद उन्होंने पंचकोशी तीर्थ की यात्रा की, जिसमें पटेश्वर, चम्पकेश्वर, कोपेश्वर, बम्हनेश्वर एवं फणिकेश्वर शिव की पूजा की। राजिम राजीवलोचन मंदिर आज भी राजिम तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ एक सुरंग में मंदिर प्राचीन राजिम आश्रम में बना हुआ है, जहाँ प्राचीन शिवलिंग स्थापित है।
इनके दर्शन कर वे महानदी से रूद्री पहुँचे। रूद्रेश्वर शिव का प्राचीन मंदिर रूद्री में स्थित है। पाण्डुका के पास अतरमरा ग्राम में एक आश्रम है, जिसे अत्रि ऋषि का आश्रम कहते हैं। यहाँ से होकर वे रूद्री गये। रूद्री से गंगरेल होकर दुधावा होकर देवखूँट पहुँचे। नगरी स्थित देवखूँट में मंदिरों का समूह था जिसमें शिवमंदिर एवं विष्णुमंदिर रहे होंगे, जो बाँध के डूबान में आने के कारण जलमग्न हो गए। देवखूँट में कंक ऋषि का आश्रम था। यहाँ से वे सिहावा पहुँचे। सिहावा में श्रृंगि ऋषि का आश्रम है। वाल्मीकि रामायण में कोसल के राजा भानुमंत का उल्लेख आता है। भानुमंत की पुत्री कौशल्या से राजा दशरथ का विवाह हुआ था। इसके बाद अयोध्या में पुत्रयेष्ठि यज्ञ हुआ था, जिसमें यज्ञ करने के लिये सिहावा से श्रृंगी ऋषि को अयोध्या बुलाया गया था। यज्ञ के फलस्वरूप कौशल्या की पुण्य कोख से भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। राजा दशरथ की पुत्री राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री बनी, जिसका नाम शांता था। शांता भगवान राम की बहन थी, जिसका विवाह श्रृंगी ऋषि से हुआ था। सिहावा में श्रृंगी ऋषि के आश्रम के आगे के पर्वत में शांता गुफा है। यही कारण है कि रामचंद्र ने बहन-बहनोई का संबंध सिहावा में होने के कारण अपने वनवास का अधिक समय इसी स्थान में बिताया था तथा यह स्थान उन दिनों जनस्थान के नाम से जाना जाता था।
सिहावा में सप्त ऋषियों के आश्रम विभिन्न पहाडिय़ों में बने हुये हैं। उनमें मुचकुंद आश्रम, अगस्त्य आश्रम, अंगिरा आश्रम, श्रृंगि ऋषि, कंकर ऋषि आश्रम, शरभंग ऋषि आश्रम एवं गौतम ऋषि आश्रम आदि ऋषियों के आश्रम में जाकर उनसे भेंट कर सिहावा में ठहर कर वनवास काल में कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा महानदी का उद्गम स्थल है। राम कथाओं में यह वर्णन मिलता है कि भगवान राम इस जनस्थान में काफी समय तक निवासरत थे। सिहावा की भौगोलिक स्थिति, ऋषि मुनियों के आश्रम, आवागमन की सुविधा आदि कारणों से यह प्रमाणित होता है। दूर-दूर तक फैली पर्वत श्रेणियों में निवासरत अनेक ऋषि-मुनियों और गुरूकुल में अध्यापन करने वाले शिक्षार्थियों का यह सिहावा क्षेत्र ही जनस्थान है। जहाँ राम साधु-सन्यासियों एवं मनीषियों से सत्संग करते रहे। सीतानदी सिहावा के दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है, जिसके पार्श्व में सीता नदी अभ्यारण बना हुआ है। इसके समीप ही वाल्मीकि आश्रम है। यहाँ पर कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा में आगे राम का वन मार्ग कंक ऋषि के आश्रम की ओर से काँकेर पहुँचता है। कंक ऋषि के कारण यह स्थान कंक से काँकेर कहलाया। काँकेर में जोगी गुफा, कंक ऋषि का आश्रम एवं रामनाथ महादेव मंदिर दर्शन कर दूध नदी के मार्ग से केशकाल पर्वत की तराई से होकर धनोरा पहुँचे।
गढ़ धनोरा प्राचीनकाल में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केंद्र था। पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में 6वीं शती ईस्वी का प्राचीन विष्णु मंदिर मिला है, तथा अन्य मंदिरों के भग्नावशेष भी मिले हैं। धनौरा से आगे नारायणपुर पहुँचे। नारायणपुर में अपने नाम के अनुरूप विष्णु का प्राचीन मंदिर है। नारायणपुर के पास राकसहाड़ा नामक स्थान, ''राकस-हाड़ा याने राक्षस की हड्डियाँ कहा जाता है वनवास काल के समय श्रीराम एवं लक्ष्मण जी ने ऋषि-मुनियों की तपोभूमि में विघ्न पहुँचाने वाले राक्षसों का भारी संख्या में विनाश किया था और उनकी हड्डियों के ढेर से पहाड़ बना दिया था। यह स्थान आज भी रकसहाड़ा के नाम से विख्यात है। वहीं पर रक्शाडोंगरी नामक स्थान भी है। इसके बाद नारायणपुर से छोटे डोंगर पहुँचे छोटे डोंगर में प्राचीन शिव मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। छोटे डोंगर से होकर प्राचीन काल में बाणासुर की राजधानी बारसूर पहुँचे। बारसूर एक सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र है। यहाँ प्रसिद्ध चंद्रादितेश्वर मंदिर, मामा-भांजा मंदिर, बत्तीसा मंदिर तथा विश्व प्रसिद्ध गणेश प्रतिमा स्थापित है। बारसूर से चित्रकोट पहुँचे। चित्रकोट जलप्रपात जो इंद्रावती पर बना हुआ है, यह रामवनगमन के समय राम-सीता की यह रमणीय स्थली रही। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया था। यह राम-सीता की लीला स्थली भी कही जाती है। सीता एवं रामचंद्र के नाम पर एक गुफा भी है।
कहा जाता है कि भगवान राम से चित्रकोट में हिमगिरी पर्वत से भगवान शिव एवं पार्वती मिलने आये थे। चित्रकोट होकर नारायणपाल जो इंद्रावती नदी के तट पर बसी प्राचीन नगरी है। यहाँ विष्णु एवं भद्रकाली मंदिर हैं। नारायणपाल से दण्डकारण्य के प्रमुख केंद्र जगदलपुर से होकर गीदम पहुँचे। गीदम के संबंध में किवदंती है कि यह क्षेत्र गिद्धराज जटायु की नगरी थी। गिद्धराज राजा दशरथ के प्रिय मित्र थे। अनेक युद्धों में दोनों ने साथ-साथ युद्ध किया था। अत: रामवनगमन के समय गिद्धराज से मिलने गये थे। गिद्धराज के नाम से इस स्थान का गीदम होने की पुष्टि होती है। रामकथा में उल्लेख मिलता है कि रामचंद्र जी के पर्णकुटी में जाने के पूर्व उनकी भेंट गिद्धराज से हुई थी।
गीदम से वे शंखनी एवं डंकनी नदी के तट पर बसा दंतेवाड़ा पहुँचे जहाँ पर आदि शक्तिपीठ माँ दंतेश्वरी का प्रसिद्ध मंदिर है। दंतेवाड़ा से काँगेर नदी के तट पर बसे तीरथगढ़ पहुँचे। तीरथगढ़ में सीता नहानी है। यहाँ पर राम-सीता जी की लीला एवं शिवपूजा की कथा प्रसिद्ध है। तीरथगढ़ एक दर्शनीय जलप्रपात है। इस मनोरम स्थल में कुछ समय व्यतीत करने के बाद कोटूमसर पहुँचे, जिसे कोटि महेश्वर भी कहा जाता है। कोटूमसर का गुफा अत्यधिक सुंदर एवं मनमोहक है। कहा जाता है कि यहाँ वनवास काल के समय उन्होंने भगवान शिव की पूजा की थी। यहाँ प्राकृतिक अनेक शिवलिंग मिलते हैं। कुटुमसर से सुकमा होकर रामारम पहुँचे। यह स्थान रामवनगमन मार्ग में होने के कारण पवित्र स्थान माना जाता है। यहाँ रामनवमी के समय का मेला पूरे अंचल में प्रसिद्ध है। रामाराम चिट्मिट्टिन मंदिर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि राम वन गमन के समय यहाँ भू-देवी (धरती देवी) की पूजा की थी। यहाँ की पहाड़ी में राम के पद चिन्ह मिलने की किवदंती है। रामारम से कोंटा पहुँचे। कोंटा से आठ कि.मी. उत्तर में शबरी नदी बहती है। इसी के तट पर बसा छोटा सा ग्राम इंजरम है। इंजरम में प्राचीन शिवमंदिर रहा होगा। उसके भग्नावशेष आज भी भूमि में दबे पड़े हुये हैं। कहा जाता है कि भगवान राम ने यहाँ शिवलिंग की पूजा की थी।
शबरी नदी से होकर गोदावरी एवं शबरी के तट पर बसे, कोंटा से 40 कि.मी. दूर आंध्रप्रदेश के तटवर्ती क्षेत्र कोनावरम् पहुँचे। यहाँ पर शबरी नदी एवं गोदावरी का संगम है। इस संगम स्थल के पास सीताराम स्वामी देव स्थानम है। कहा जाता है कि पर्णकुटी जाने के लिए कोंटा से शबरी नदी के तट से यहाँ राम-सीता वनवास काल में पहुँचे थे। इसके बाद गोदावरी नदी के तट पर बसे भद्रचलम पहुँचे। जहाँ पर्णकुटी (पर्णशाला) है। कहा जाता है कि दण्डकारण्य के भद्राचलम में स्थित पर्णकुटीर रामवनगमन का अंतिम पड़ाव एवं दक्षिणापथ का आरंभ था। पर्णकुटीर आज भी दर्शनीय है। भद्राचलम (आंध्रप्रदेश) में गोदावरी नदी के तट पर बना प्राचीन राम मंदिर (राम देव स्थानम) आज भी दर्शनीय है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर्णशाला (पर्णकुटीर) होने के कारण त्रेतायुग में इस स्थान का विशेष महत्व था। इसी पर्णशाला से सीताजी का हरण हुआ था। इस पर्णकुटीर में लक्ष्मण रेखा बनी हुयी है। इस स्थान के आगे का हिस्सा भारत का दक्षिणी क्षेत्र अर्थात् द्रविणों का क्षेत्र कहा जाता है। इस प्रकार छत्तीसगढ़ की पावन धरा में वनवासकाल में सीताजी एवं लक्ष्मण जी के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम रामचंद्रजी का आगमन हुआ। इनके चरण स्पर्श से छत्तीसगढ़ की भूमि पवित्र एवं कोटि-कोटि धन्य हो गयी।
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Tuesday 16 June 2015

क्या आपका बच्चा गलत दोस्ती में पड़ गया है ???



बढ़ते बच्चों की चिंता का एक कारण उनके गलत संगत में पड़कर कैरियर बर्बाद करने के साथ व्यसन या गलत आदतों का विकास होना भी है। दिखावे या शौक से शुरू हुई यह आदत व्यसन या लत की सीमा तक चला जाता है। इसका ज्योतिष कारण व्यक्ति के कुंडली से जाना जाता है। किसी व्यक्ति का तृतीयेश अगर छठवे, आठवें या द्वादश स्थान पर होने से व्यक्ति कमजोर मानसिकता का होता है, जिसके कारण उसका अकेलापन उसे दोस्ती की ओर अग्रेषित करता है। कई बार यह दोस्ती गलत संगत में पड़कर गलत आदतों का शिकार बनता है उसके अलावा लक्ष्य हेतु प्रयास में कमी या असफलता से डिप्रेशन आने की संभावना बनती है। अगर यह डिपे्रशन ज्यादा हो जाये तथा उसके अष्टम या द्वादश भाव में सौम्य ग्रह राहु से पापाक्रांत हो तो उस ग्रह दशाओं के अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा में शुरू हुई व्यसन की आदत लत बन जाती है। लगातार व्यसन मन:स्थिति को और कमजोर करता है अत: यह व्यसन समाप्त होने की संभावना कम होती है। अत: व्यसन से बाहर आने के लिए मनोबल बढ़ाने के साथ राहु की शांति तथा मंगल का व्रत मंगल स्तोत्र का पाठ करना जीवन में व्यसन मुक्ति के साथ सफलता का कारक होता है।
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बार-बार कर्म का बदलाव और आय में बाधा का ज्योतिष उपाय


आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहे तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी व्यक्ति के पास कितनी धन संपत्ति होगी तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा आय का योग तथा नियमित साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है।
कुंडली में दूसरे स्थान से धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अत: इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेश कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अत: चतुर्थेश या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है।
पंचमभाव से धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अत: पंचमेश या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है। दूसरे भाव या भावेश के साथ कर्मभाव या लाभभाव तथा भावेश के साथ मैत्री संबंध होने से जीवन में धन की स्थिति तथा अवसर निरंतर अच्छी बनी रहती है।
जन्म कुंडली के अलावा नवांश में भी इन्हीं भाव तथा भावेश की स्थिति अनुकूल होना भी आवष्यक होता है। अत: जीवन में इन पांचों भाव एवं भावेश के उत्तम स्थिति तथा मैत्री संबंध बनने से व्यक्ति के जीवन में अस्थिर या अस्थिर संपत्ति की निरंतरता तथा साधन बने रहते हैं। इन सभी स्थानों के स्वामियों में से जो भाव या भावेश प्रबल होता है, धन के निरंतर आवक का साधन भी उसी से निर्धारित होता है।
अत: जीवन में धन तथा सुख समृद्धि निरंतर बनी रहे इसके लिए इन स्थानों के भाव या भावेश को प्रबल करने, उनके विपरीत असर को कम करने का उपाय कर जीवन में सुख तथा धन की स्थिति को बेहतर किया जा सकता है।
आर्थिक स्थिति को लगातार बेहतर बनाने के लिए प्रत्येक जातक को निरंतर एवं तीव्र पुण्यों की आवश्यकता पड़ती है, जिसके लिए जीव सेवा करनी चाहिए। अपनी हैसियत के अनुसार सूक्ष्म जीवों के लिए आहार निकालना चाहिए। अपने ईश्वर का नाम जप करना चाहिए।


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आहार-व्यवहार और ज्योतिष



* प्रतिपदा को कूष्मांड (कुम्हड़ा, पेठा) न खायें, क्योंकि यह धन का नाश करने वाला है।
* द्विताया को बृहती (छोटा बैंगन या कटेहरी) खाना निषिद्ध है।
* तृतिया को परवल खाने से शत्रुओं की वृद्धि होती है।
* चतुर्थी को मूली खाने से धन का नाश होता है।
* पंचमी को बेल खाने से कलंक लगता है।
* षष्ठी को नीम की पत्ती, फल या दातुन मुँह में डालने से नीच योनियों की प्राप्ति होती है।
* सप्तमी को ताड़ का फल खाने से रोग होते हैं तथा शरीर का नाश होता है।
* अष्टमी को नारियल का फल खाने से बुद्धि का नाश होता है।
* नवमी को लौकी गोमांस के समान त्याज्य है।
* एकादशी को शिम्बी (सेम) खाने से, द्वादशी को पूतिका (पोई) खाने से अथवा त्रयोदशी को बैंगन खाने से पुत्र का नाश होता है।
* अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि, रविवार, श्राद्ध और व्रत के दिन स्त्री-सहवास, तिल का तेल, लाल रंग का साग व काँसे के पात्र में भोजन करना निषिद्ध है।
* रविवार के दिन अदरक भी नहीं खाना चाहिए।
* कार्तिक मास में बैंगन और माघ मास में मूली का त्याग कर देना चाहिए।
* सूर्यास्त के बाद कोई भी तिलयुक्त पदार्थ नहीं खाना चाहिए।
* लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले को रात में दही और सत्तू नहीं खाना चाहिए। यह नरक की प्राप्ति कराने वाला है।
* बायें हाथ से लाया गया अथवा परोसा गया अन्न, बासी भात, शराब मिला हुआ, जूठा और घरवालों को न देकर अपने लिए बचाया हुआ अन्न खाने योग्य नहीं है।
* जो लड़ाई-झगड़ा करते हुए तैयार किया गया हो, जिसको किसी ने लाँघ दिया हो, जिस पर रजस्वला स्त्री की दृष्टि पड़ गयी हो, जिसमें बाल या कीड़े पड़ गये हों, जिस पर कुत्ते की दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न राक्षसों या प्रेतों का भाग है।
* गाय, भैंस और बकरी के दूध के सिवाय अन्य पशुओं के दूध का त्याग करना चाहिए। इनके भी बयाने के बाद दस दिन तक का दूध काम में नहीं लेना चाहिए।
* ब्राह्मणों को भैंस का दूध, घी और मक्खन नहीं खाना चाहिए।
* लक्ष्मी चाहने वाला मनुष्य भोजन और दूध को बिना ढके नहीं छोड़े।
* जूठे हाथ से मस्तक का स्पर्श न करे क्योंकि समस्त प्राण मस्तक के अधीन हैं।
* बैठना, भोजन करना, सोना, गुरुजनों का अभिवादन करना और (अन्य श्रेष्ठ पुरुषों को) प्रणाम करना, ये सब कार्य जूते पहन कर न करें।
* जो मैले वस्त्र धारण करता है, दाँतों को स्वच्छ नहीं रखता, अधिक भोजन करता है, कठोर वचन बोलता है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सोता है, वह यदि साक्षात् भगवान विष्णु भी हो उसे भी लक्ष्मी छोड़ देती है।
* अग्निशाला, गौशाला, देवता और ब्राह्मण के समीप तथा जप, स्वाध्याय और भोजन व जल ग्रहण करते समय जूते उतार देने चाहिए।
* सोना, जागना, लेटना, बैठना, खड़े रहना, घूमना, दौडऩा, कूदना, लाँघना, तैरना, विवाद करना, हँसना, बोलना, मैथुन और व्यायाम, इन्हें अधिक मात्रा में नहीं करना चाहिए।
* दोनों संध्या, जप, भोजन, दंतधावन, पितृकार्य, देवकार्य, मल-मूत्र का त्याग, गुरु के समीप, दान तथा यज्ञ, इन अवसरों पर जो मौन रहता है, वह स्वर्ग में जाता है।
* गर्भहत्या करने वाले के देखे हुए, रजस्वला स्त्री से छुए हुए, पक्षी से खाये हुए और कुत्ते से छुए हुए अन्न को नहीं खाना चाहिए।

कैसे मिलेगी नर्क-यातनाओं से मुक्ति



नरक क्या है? यह कहां होता है? नरक वह स्थान है जहां पापियों की आत्मा दंड भोगने के लिए भेजी जाती है। दंड के बाद कर्मानुसार उनका दूसरी योनियों में जन्म होता है। स्वर्ग धरती के ऊपर है तो नरक धरती के नीचे। सभी नरक धरती के नीचे यानी पाताल भूमि में हैं। इसे अधोलोक भी कहते हैं। अधोलोक यानी नीचे का लोक है। ऊध्र्व लोक का अर्थ ऊपर का लोक अर्थात् स्वर्ग। मध्य लोक में हमारा ब्रह्मांड है। कुछ लोग इसे कल्पना मानते हैं तो कुछ लोग सत्य। लेकिन जो जानते हैं वे इसे सत्य ही मानते हैं, क्योंकि मति से ही गति तय होती है।

कौन जाता है नरक:
ज्ञानी से ज्ञानी, आस्तिक से आस्तिक, नास्तिक से नास्तिक और बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति को भी नरक का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि ज्ञान, विचार आदि से तय नहीं होता है कि आप अच्छे हैं या बुरे। आपकी अच्छाई आपके नैतिक बल में छिपी होती है। आपकी अच्छाई यम और नियम का पालन करने में निहित है। अच्छे लोगों में ही होश का स्तर बढ़ता है और वे देवताओं की नजर में श्रेष्ठ बन जाते हैं। लाखों लोगों के सामने अच्छे होने से भी अच्छा है स्वयं के सामने अच्छा बनना।
धर्म, देवता और पितरों का अपमान करने वाले, पापी, मूर्छित और अधोगामी गति के व्यक्ति नरकों में जाते हैं। पापी आत्मा जीते जी तो नरक झेलती ही है, मरने के बाद भी उसके पाप अनुसार उसे अलग-अलग नरक में कुछ काल तक रहना पड़ता है। निरंतर क्रोध में रहना, कलह करना, सदा दूसरों को धोखा देने का सोचते रहना, शराब पीना, मांस भक्षण करना, दूसरों की स्वतंत्रता का हनन करना और पाप करने के बारे में सोचते रहने से व्यक्ति का चित्त खराब होकर नीचे के लोक में गति करने लगता है और मरने के बाद वह स्वत: ही नरक में गिर जाता है। वहां उसका सामना यम से होता है। पुराणों में ''गरुड़ पुराणÓÓ का नाम किसने नहीं सुना? पुराणों में नरक, नरकासुर और नरक चतुर्दशी, नरक पूर्णिमा का वर्णन मिलता है। नरकस्था अथवा नरक नदी वैतरणी को कहते हैं। नरक चतुर्दशी के दिन तेल से मालिश कर स्नान करना चाहिए। इसी तिथि को यम का तर्पण किया जाता है, जो पिता के रहते हुए भी किया जा सकता है।
नरक का स्थान:
महाभारत में राजा परीक्षित इस संबंध में शुकदेवजी से प्रश्न पूछते हैं तो वे कहते हैं कि राजन! ये नरक त्रिलोक के भीतर ही है तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित है। उस लोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान यम हैं, वे अपने सेवकों के सहित रहते हैं। तथा भगवान की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहां लाए हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दंड देते हैं।
श्रीमद्भागवत और मनुस्मृति के अनुसार नरकों के नाम:
(1)तामिस्त्र,  (2)अंधसिस्त्र, (3)रौवर, (4)महारौवर, (5)कुम्भीपाक, (6)कालसूत्र, (7)आसिपंवन, (8)सकूरमुख, (9)अंधकूप, (10)मिभोजन, (11)संदेश, (12)तप्तसूर्मि, (13)वज्रकंटकशल्मली, (14)वैतरणी, (15)पुयोद, (16)प्राणारोध, (17)विशसन, (18)लालभक्ष, (19)सारमेयादन, (20)अवीचि और (21)अय:पान।
इसके अलावा (22) क्षरकर्दम, (23)रक्षोगणभोजन, (24)शूलप्रोत, (25)दंदशूक, (26)अवनिरोधन, (27)पर्यावर्तन और (28)सूचीमुख। ये सात (22 से 28) मिलाकर कुल 28तरह के नरक माने गए हैं जो सभी धरती पर ही बताए जाते हैं।
इनके अलावा वायु पुराण और विष्णु पुराण में भी कई नरककुंडों के नाम लिखे हैं- वसाकुंड, तप्तकुंड, सर्पकुंड और चक्रकुंड आदि। इन नरककुंडों की संख्या 86है। इनमें से सात नरक पृथ्वी के नीचे हैं और बाकी लोक के परे माने गए हैं। उनके नाम हैं- रौरव, शीतस्तप, कालसूत्र, अप्रतिष्ठ, अवीचि, लोकपृष्ठ और अविधेय हैं। इन सभी नरकों में कर्मों के हिसाब से मनुष्य को मृत्यु के उपरांत भेजा जाता है।


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जहां जाने से... लोग बन जाते हैं पत्थर


भारत चमत्कारों और आस्था का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक कई चमत्कारिक मंदिर, दरगाह, गांव, साधु-संत, तांत्रिक और रहस्यमय गुफाएं मिल जाएंगी। अब इसे आप चमत्कार कहें या अंधविश्वास, लेकिन माना जाता है कि एक गांव ऐसा भी है जहां जाकर लोग हमेशा-हमेशा के लिए पत्थर बन जाते हैं। कोई कहता है कि इस गांव पर किसी भूत का साया है तो कोई कहता है कि इस शहर पर एक साधु के शाप का असर है, यहां के सभी लोग उसके शाप के चलते पत्थर बन गए थे और यही वजह है कि आज भी उस शाप के डर के चलते लोग वहां नहीं जाते हैं। लोगों में अब वहम बैठ गया है।

राजस्थान में बाड़मेर के पास स्थित है किराडु गांव। आखिर क्या सच है किराडु गांव का? क्यों आज भी लोग इस गांव में जाने से डरते हैं और क्यों शाम होते ही यह शहर भूतों का स्थान बन जाता है।
कहते हैं कि यहां के मंदिरों के खंडहरों में रात में कदम रखते ही लोग हमेशा-हमेशा के लिए पत्थर बन जाते हैं। यह कोई शाप है, जादू है, चमत्कार है या भूतों की हरकत- कोई नहीं जानता। हालांकि किसी ने यह जानने की हिम्मत भी नहीं की कि क्या सच में यहां रात रुकने पर वह पत्थर बन जाएगा? कौन ऐसी रिस्क ले सकता है? तभी तो आज तक इसका रहस्य बरकरार है। कैसे जान पाएगा कोई कि अगर ऐसा होता है तो इसके पीछे कारण क्या है?
मान्यता है कि इस शहर पर एक साधु का शाप लगा हुआ है। यह लगभग 900 साल पहले की बात है, जबकि यहां परमारों का शासन था। तब इस शहर में एक सिद्ध संत ने डेरा डाला। कुछ दिन रहने के बाद जब वे संत तीर्थ भ्रमण पर निकले तो उन्होंने अपने साथियों को स्थानीय लोगों के सहारे छोड़ दिया कि आप इनको भोजन-पानी देना और इनकी सुरक्षा करना।
संत के जाने के बाद उनके सारे शिष्य बीमार पड़ गए और बस एक कुम्हारिन को छोड़कर अन्य किसी भी व्यक्ति ने उनकी सहायता नहीं की। बहुत दिनों के बाद जब संत पुन: उस शहर में लौटे तो उन्होंने देखा कि उनके सभी शिष्य भूख से तड़प रहे हैं और वे बहुत ही बीमार अवस्था में हैं। यह सब देखकर संत को बहुत क्रोध आया।
उस सिद्ध संत ने कहा कि जिस स्थान पर साधुओं के प्रति दयाभाव ही नहीं है, तो अन्य के साथ क्या दयाभाव होगा? ऐसे स्थान पर मानव जाति को नहीं रहना चाहिए। उन्होंने क्रोध में अपने कमंडल से जल निकाला और हाथ में लेकर कहा कि जो जहां जैसा है, शाम होते ही पत्थर बन जाएगा। उन्होंने संपूर्ण नगरवासियों को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया।
फिर उन्होंने जिस कुम्हारिन ने उनके शिष्यों की सेवा की थी, उसे बुलाया और कहा कि तू शाम होने से पहले इस शहर को छोड़ देना और जाते वक्त पीछे मुड़कर मत देखना। कुम्हारिन शाम होते ही वह शहर छोड़कर चलने लगी लेकिन जिज्ञासावश उसने पीछे मुड़कर देख लिया तो कुछ दूर चलकर वह भी पत्थर बन गई। इस शाप के चलते पूरा गांव आज पत्थर का बना हुआ है। जो जैसा काम कर रहा था, वह तुरंत ही पत्थर का बन गया।
इस शाप के कारण ही आस-पास के गांव के लोगों में दहशत फैल गई जिसके चलते आज भी लोगों में यह मान्यता है कि जो भी इस शहर में शाम को कदम रखेगा या रुकेगा, वह भी पत्थर का बन जाएगा।
किराडु के मंदिरों का निर्माण किसने कराया इस बारे में कोई तथ्य मौजूद नहीं है। यहां पर पर विक्रम शताब्दी 12 के तीन शिलालेख उपलब्ध हैं। पहला शिलालेख विक्रम संवत 1209, माघ वदी 14 तदनुसार 24 जनवरी 1153 का है। दूसरा विक्रम संवत 1218, ईस्वी 1161 का है जिसमें परमार सिंधुराज से लेकर सोमेश्वर तक की वंशावली दी गई है और तीसरा यह विक्रम संवत 1235 का है। इतिहासकारों का मत है कि किराडु के मंदिरों का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था तथा इनका निर्माण परमार वंश के राजा दुलशालराज और उनके वंशजों ने किया था। यहां मुख्यत: पांच मंदिर है जिसमें से केवल विष्णु मंदिर और सोमेश्वर मंदिर ही ठीक हालत में है। बाकी तीन मंदिर खंडहरों में बदल चुके हैं।
खजुराहो के मंदिरों की शैली में बने इन मंदिरों की भव्यता देखते ही बनती है। हालांकि आज यह पूरा क्षेत्र विराने में बदल गया है लेकिन यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। इन मंदिरों को क्यों बनाया गया और इसके पीछे इनका इतिहास क्या रहा है इस सब पर शोध अभी जारी है लेकिन मान्यताओं के हिसाब से ये तो एक शापित गांव है।



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Monday 15 June 2015

वास्तुशास्त्र के वैज्ञानिक सापेक्ष



मनुष्य को वास्तु शास्त्र के एक सौ पचास नियम बहुत ही बारीकी से अध्ययन कर के अपनाने चाहिएं, क्योंकि भूखंड की स्थिति एवं कोण की स्थिति जानने के बाद वास्तु शास्त्र के सभी पहलुओं का सूचारु रूप से अध्ययन कर के ही भवन निर्माण,औद्योगिक भवन, व्यापारिक संस्थान आदि की स्थापना करें। तभी लाभ मिलेगा।

आदि काल से हिंदू धर्म गं्रथों में चुंबकीय प्रवाहों, दिशाओं, वायु प्रभाव, गुरुत्वाकर्षण के नियमों को ध्यान में रखते हुए वास्तु शास्त्र की रचना की गयी तथा यह बताया गया कि इन नियमों के पालन से मनुष्य के जीवन में सुख-शांति आती है और धन-धान्य में भी वृद्धि होती है। वास्तु वस्तुत: पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्नि इन पांच तत्वों के समानुपातिक सम्मिश्रण का नाम है। इसके सही सम्मिश्रण से 'बायो-इलेक्ट्रिक मैग्नेटिक एनर्जी की उत्पत्ति होती है, जिससे मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य, धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। मानव शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है, क्योंकि मानव शरीर पंच तत्वों से निर्मित होता है और अंतत: पंच तत्वों में ही विलीन हो जाता है। जिन पांच तत्वों पर शरीर का समीकरण निर्मित और ध्वस्त होता है, वह निम्नानुसार है। आकाश+अग्नि+वायु+जल+पृथ्वी = देह निर्माण क्रिया या शरीर का निर्माण। और वायु-जल-अग्नि-पृथ्वी-आकाश = ध्वंस प्रक्रिया या नाश हो जाना। वास्तुशास्त्र का परिचय, आकाश, वायु, अग्नि तेज, जल, पृथ्वी से ही होता है। मस्तिष्क में आकाश, कंधों में अग्नि, नाभि में वायु, घुटनों में पृथ्वी, पादांत में जल आदि तत्वों का निवास है और आत्मा परमात्मा है, क्योंकि दोनों ही निराकार हैं। दोनों को ही महसूस किया जा सकता है। इसी लिए स्वर महाविज्ञान में प्राण वायु आत्मा मानी गयी है और यही प्राण वायु जब शरीर (देह) से निकल कर सूर्य में विलीन हो जाती है, तब शरीर निष्प्राण हो जाता है। इसी लिए सूर्य ही भूलोक में समस्त जीवों, पेड़-पौधों का जीवन आधार है अर्थात् सूर्य सभी प्राणियों के प्राणों का स्रोत है। यही सूर्य जब उदय होता है, तब संपूर्ण संसार में प्राणाग्नि का संचार आरंभ होता है, क्योंकि सूर्य की रश्मियों में सभी रोगों को नष्ट करने की शक्ति मौजूद है। सूर्य पूर्व दिशा में उगता हुआ पश्चिम में अस्त होता है। इसी लिए भवन निर्माण में का स्थान प्रमुख है। भवन निर्माण में सूर्य ऊर्जा, वायु ऊर्जा, चंद्र ऊर्जा आदि के पृथ्वी पर प्रभाव प्रमुख माने जाते हैं। यदि मनुष्य मकान को इस प्रकार से बनाए, जो प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप हो, तो प्राकृतिक प्रदूषण की समस्या काफी हद तक दूर हो सकती है, जिससे मनुष्य प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों को, भवन के माध्यम से, अपने कल्याण के लिए इस्तेमाल कर सके। पूर्व में उदित होने वाले सूर्य की किरणों का भवन के प्रत्येक भाग में प्रवेश हो सके और मनुष्य ऊर्जा को प्राप्त कर सके, क्योंकि सूर्य की प्रात:कालीन किरणों में विटामिन-डी का बहुमूल्य स्रोत होता है, जिसका प्रभाव हमारे शरीर पर रक्त के माध्यम से, सीधा पड़ता है। इसी तरह मध्याह्न के पश्चात् सूर्य की किरणें रेडियधार्मिता से ग्रस्त होने के कारण शरीर पर विपरीत (खराब) प्रभाव डालती हैं। इसीलिए भवन निर्माण करते समय भवन का 'दिशा इस प्रकार से रखा जाना चाहिए, जिससे मध्यांत सूर्य की किरणों का प्रभाव शरीर एवं मकान पर कम से कम पड़े। दक्षिण-पश्चिम भाग के अनुपात में भवन निर्माण करते समय पूर्व एवं उत्तर के अनुपात की सतह को इसलिए नीचा रखा जाता है, क्योंकि प्रात:काल के समय सूर्य की किरणों में विटामिन डी, एफ एवं विटामिन ए रहते हैं। रक्त कोशिकाओं के माध्यम से जिन्हें हमारा शरीर आवश्यकतानुसार विटामिन डी ग्रहण करता रहे। यदि पूर्व का क्षेत्र पश्चिम के क्षेत्र से नीचा होगा, अधिक दरवाजे, खिड़कियां आदि होने के कारण प्रात:कालीन सूर्य की किरणों का लाभ पूरे भवन को प्राप्त होता रहेगा। पूर्व एवं उत्तर क्षेत्र अधिक खुला होने से भवन में वायु बिना रुकावट के प्रवेश करती रहे और चुंबकीय किरणें, जो उत्तर से दक्षिण दिशा को चलती हैं, उनमें कोई रुकावट न हो और दक्षिण-पश्चिम की छोटी-छोटी खिड़कियों से धीरे-धीरे वायु निकलती रहे। इससे वायु मंडल का प्रदूषण दूर होता रहेगा। दक्षिण-पश्चिम भाग में भवन को अधिक ऊंचा का प्रमुख कारण तथा मोटी दीवार बनाने तथा सीढिय़ों आदि का भार भी दिशा में रखना, भारी मशीनरी, भारी सामान का स्टोर आदि भी बनाने का प्रमुख कारण यह है कि जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणी दिशा में करती है, तो वह एक विशेष कोणीय स्थिति में होती है। अत: इस क्षेत्र में अधिक भार रखने से संतुलन आ जाता है तथा सूर्य की गर्मी इस भाग में होने के कारण उससे इस प्रकार बचा भी जा सकता है। गर्मी में इस क्षेत्र में ठंडक तथा सर्दियों में गर्मी का अनुभव भी किया जा सकता है। दक्षिण-पश्चिम में कम और छोटी-छोटी खिड़कियां रखने का प्रमुख कारण है गर्मियों में ठंडक महसूस हो सके, क्योंकि भूखंड क्षेत्र के दक्षिण-पश्चिम में खुली हवा तापयुक्त हो कर सर्दियों में विशेष दबाव से कमरे में पहुंच कर कमरों को गर्म करती है। यह हवा रोशनदान एवं छोटी खिड़कियों से भवन में गर्मियों में कम ताप से युक्त अधिक मोलीक्यूबल दबाव के कारण भवन को ठंडा रखती है और साथ ही वातावरण को शुद्ध करने में सहायता पहुंचाती रहती है। आग्नेय (दक्षिण-पूर्वी) कोण में रसोई बनाने का प्रमुख कारण यह है कि सुबह पूर्व से सूर्य की किरणें विटामिन युक्त हो कर दक्षिण क्षेत्र की वायु के साथ प्रवेश करती हैं। क्योंकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणायन की ओर करती है, अत: आग्नेयकों की स्थिति में इस भाग को अधिक विटामिन 'एफ एवं 'डी से युक्त सूर्य की किरणें अधिक समय तक मिलती रहे, तो रसोई घर में रखे खाद्य पदार्थ शुद्ध होते रहेंगे और इसके साथ-साथ सूर्य की गर्मी से पश्चिमी दीवार की नमी के कारण विद्यमान हानिकारक कीटाणु नष्ट होते रहते हैं। उत्तरी-पूर्वी भाग ईशान कोण में आराधना स्थल या पूजा स्थल रखने का प्रमुख कारण यह है कि पूजा करते समय मनुष्य के शरीर पर अधिक वस्त्र न रहने के कारण प्रात:कालीन सूर्य की किरणों के माध्यम से शरीर में विटामिन 'डी नैसर्गिक अवस्था में प्राप्त हो जाती है और उत्तरी क्षेत्र से पृथ्वी की चुंबकीय ऊर्जा का अनुकूल प्रभाव भी पवित्र माना जाता है। अंतरिक्ष से हमें कुछ अलौकिक शक्ति मिलती रहे, इसी लिए इस क्षेत्र को अधिक खुला रखा जाता है। उत्तर-पूर्व में आने वाले पानी के स्रोत का प्रमुख आधार यह है कि पानी में प्रदूषण जल्दी लगता है और पूर्व से ही सूर्य उदय होने के कारण सूर्य की किरणें जल पर पड़ती हैं, जिसके कारण इलेक्ट्रोमेग्नेटिक सिद्धांत के द्वारा जल को सूर्य से ताप प्राप्त होता है। उसी के कारण जल शुद्ध रहता है। दक्षिण दिशा में सिर रखने का प्रमुख कारण पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का मानव पर पडऩे वाला प्रभाव ही है। जिस प्रकार चुंबकीय किरणें उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की तरफ चलती हैं, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में जो चुंबकीय क्षेत्र हैं, वह भी सिर से पैर की तरफ होता है। इसी लिए मानव के सिर को उत्तरायण एवं पैर को दक्षिणायन माना जाता है। यदि सिर को उत्तर की ओर रखें तो चुंबकीय प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि पृथ्वी के क्षेत्र का उत्तरी ध्रुव मानव के उत्तरी पोल ध्रुव से घृणा करेगा और चुंबकीय प्रभाव अस्वीकार करेगा, जिससे शरीर के रक्त संचार के लिए उचित और अनुकूल चुंबकीय क्षेत्र का लाभ नहीं मिल सकेगा, जिससे मस्तिष्क में तनाव होगा और शरीर को शांतिमय (पूर्वक) निद्रा का अनुकूल अवस्था प्राप्त नहीं होगी। सिर दक्षिण दिशा में रखने से चुंबकीय परिक्रमा पूरी होगी और पैर उत्तर की तरफ करने से दूसरी तरफ भी परिक्रमा पूरी होने के कारण चुंबकीय तरंगों के प्रभाव में रुकावट न होने से अच्छी नींद आएगी। चुंबकीय तरंगें उत्तर से दक्षिण दिशा को जाती हैं। अगर किसी भी मनुष्य से व्यापारिक चर्चा करनी हो, तो उत्तर की ओर मुंह कर के ही चर्चा करें। इसका प्रमुख कारण यह है कि उत्तरी क्षेत्र से चुंबकीय ऊर्जा प्राप्त होने के कारण मस्तिष्क की कोशिकाएं तुरंत सक्रिय होने से जो शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त होती है, उससे मस्तिष्क की कोशिकाओं के माध्यम से याददाश्त बढ़ जाती है, नैसर्गिक ऊर्जा शक्ति के साथ परामर्श करने वाली मस्तिष्क की ग्रंथियां अधिक सक्षम बन जाती हैं। इसी लिए इस दिशा में की जाने वाली व्यापारिक चर्चाएं अधिक महत्व रखती हैं। मनुष्य को चाहिए कि यदि उत्तर में मुंह कर के बैठे, तो अपने दाहिने तरफ चेक बुक आदि रखे। यदि मनुष्य मकान बनाए, तो मकान के चारों ओर खुला स्थान अवश्य रखे। खुला स्थान पूर्व एवं उत्तर दिशा में अधिक (यानी सबसे अधिक पूर्व) में, फिर उससे कम उत्तर में तथा उत्तर दिशा से भी कम दक्षिण दिशा में (और दक्षिण दिशा से भी कम) सबसे कम पश्चिम दिशा में रखे। इससे सभी दिशाओं से वायु का प्रवेश होता रहेगा। वायु का निष्कासन होने के कारण वायु मंडल शुद्ध रहता है। इससे गर्मी में भवन ठंडा एवं सर्दियों में भवन गर्म रहता है, क्योंकि वायु मंडल में अन्य गैसों के अनुपात में ऑक्सीजन की कम मात्रा होती है। यदि भवन के चारों ओर खुला स्थान है, तो मनुष्य को हमेशा आवश्यकतानुसार प्राण वायु (ऑक्सीजन) एवं चुंबकीय ऊर्जा का लाभ मिलता रहेगा। इसके अलावा वायु मंडल और ब्रह्मांड में काफी मात्रा में अदृश्य शक्तियां एवं ऐसी ऊर्जाएं हैं, जिनको हम न देख सकते हैं और न ही महसूस कर सकते हैं तथा जिनका प्रभाव दीर्घ काल में ही अनुभव होता है। इसी को प्राकृतिक ओज (औरा) कहते हैं। जीवित मनुष्य के अंदर और उसके चारों ओर हर समय एक विशेष चुंबकीय क्षेत्र होता है। इसी विशेष चुंबकीय क्षेत्र को हम 'बायोइलेक्ट्रिक चुंबकीय क्षेत्र भी कहते हैं। इसी लिए दक्षिण-पश्चिम का भाग ऊंचा तथा पूर्व-उत्तर का भाग नीचे रखने से 'बायोमैग्नेटिक फील्ड  के कारण मनुष्य के चुंबकीय क्षेत्र में कोई रुकावट नहीं आएगी। ये 'बायोइलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड वायु मंडल में वैसे तो बीस प्रकार के होते हैं, परंतु मानव शरीर के लिए चार प्रकार ही (बी. ई. एम. स.) अधिक उपयोगी माना गया है। इसीलिए वास्तु शास्त्र में इन पांच भूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं वायु- का विशेष स्थान है। मनुष्य को वास्तु शास्त्र के एक सौ पचास नियम बहुत ही बारीकी से अध्ययन कर के अपनाने चाहिएं, क्योंकि भूखंड की स्थिति एवं कोण की स्थिति जानने के बाद वास्तु शास्त्र के सभी पहलुओं का सूचारु रूप से अध्ययन कर के ही भवन निर्माण,औद्योगिक भवन, व्यापारिक संस्थान आदि की स्थापना करें। तभी लाभ मिलेगा। आवासीय तथा व्यावसायिक भवन निर्माण करते समय यदि इन पांच तत्वों को समझ कर इनका यथोचित ध्यान रखा जाए, तो ब्रह्मांड की प्रबल शक्तियों का अद्भुत उपहार हमारे समस्त जीवन को सुखी एवं संपन्न बनाने में सहायक होंगे।


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कथा महाभारत

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पिछले अंक में हमने पढ़ा कि अपने 12 वर्ष के वनबास के चलते जंगलों में घूम रहे हैं और अर्जुन अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करने इन्द्रलोक गये हुये हैं। वहां रहकर अर्जुन ने निवातकवच नामक राक्षस का वध कर दिया और अपने भाईयों के पास वापस पृथ्वी को लौट गये। इसके बाद एक दिन कुटि में द्रोपदी को अकेली पाकर जयद्रथ जो कि दुर्योधन की बहन दु:शाला का भाई था, ने काम-वासना से पीडि़त होकर पकड़कर जबरदस्ती अपनी रथ में बिठा लिया, पीछ पांडव भी आगए और उसे उसकी धूर्तता के लिए मार-मार कर अधमरा कर दिया। कुछ दिन पश्चात पाण्डवों का अज्ञातवास प्रारंत हो गया इसलिए वो अपनी पहचान बदलकर मत्स्य नरेश विराट के महल में काम करने लगे। अब आगे...
कीचक वध तथा कौरवो की पराजय
पाण्डवों को मत्स्य नरेश विराट की राजधानी में निवास करते हुये दस माह व्यतीत हो गये। सहसा एक दिन राजा विराट का साला कीचक अपनी बहन सुदेष्णा से भेंट करने आया। जब उसकी दृष्टि सैरन्ध्री (द्रौपदी) पर पड़ी तो वह काम-पीडि़त हो उठा तथा सैरन्ध्री से एकान्त में मिलने के अवसर की ताक में रहने लगा। द्रौपदी भी उसकी कामुक दृष्टि को भाँप गई। द्रौपदी ने महाराज विराट एवं महारानी सुदेष्णा से कहा भी कि कीचक मुझ पर कुदृष्टि रखता है, मेरे पाँच गन्धर्व पति हैं, एक न एक दिन वे कीचक का वध देंगे। किन्तु उन दोनों ने द्रौपदी की बात की कोई परवाह न की। लाचार होकर एक दिन द्रौपदी ने भीमसेन को कीचक की कुदृष्टि तथा कुविचार के विषय में बता दिया। द्रौपदी के वचन सुनकर भीमसेन बोले, ''हे द्रौपदी! तुम उस दुष्ट कीचक को अर्धरात्रि में नृत्यशाला मिलने का संदेश दे दो। नृत्यशाला में तुम्हारे स्थान पर मैं जाकर उसका वध कर दूँगा। सैरन्ध्री ने बल्लभ (भीमसेन) की योजना के अनुसार कीचक को रात्रि में नृत्यशाला में मिलने का संकेत दे दिया। द्रौपदी के इस संकेत से प्रसन्न कीचक जब रात्रि को नृत्यशाला में पहुँचा तो वहाँ पर भीमसेन द्रौपदी की एक साड़ी से अपना शरीर और मुँह ढँक कर वहाँ लेटे हुये थे। उन्हें सैरन्ध्री समझकर कमोत्तेजित कीचक बोला, ''हे प्रियतमे! मेरा सर्वस्व तुम पर न्यौछावर है। अब तुम उठो और मेरे साथ रमण करो। कीचक के वचन सुनते ही भीमसेन उछल कर उठ खड़े हुये और बोले, ''रे पापी! तू सैरन्ध्री नहीं अपनी मृत्यु के समक्ष खड़ा है। ले अब परस्त्री पर कुदृष्टि डालने का फल चख।इतना कहकर भीमसेन ने कीचक को लात और घूँसों से मारना आरम्भ कर दिया। जिस प्रकार प्रचण्ड आँधी वृक्षों को झकझोर डालती है उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्के मार-मार कर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे।
अनेक बार उसे घुमा-घुमा कर पृथ्वी पर पटकने के बाद अपनी भुजाओं से उसके गरदन को मरोड़कर उसे पशु की मौत मार डाला। इस प्रकार कीचक का वध कर देने के बाद भीमसेन ने उसके सभी अंगों को तोड़-मरोड़ कर उसे माँस का एक लोंदा बना दिया और द्रौपदी से बोले, ''पांचाली! आकर देखो, मैंने इस काम के कीड़े की क्या दुर्गति कर दी है। उसकी उस दुर्गति को देखकर द्रौपदी को अत्यन्त सन्तोष प्राप्त हुआ। फिर बल्लभ और सैरन्ध्री चुपचाप अपने-अपने स्थानों में जाकर सो गये। प्रात:काल जब कीचक के वध का समाचार सबको मिला तो महारानी सुदेष्णा, राजा विराट, कीचक के अन्य भाई आदि विलाप करने लगे। जब कीचक के शव को अन्त्येष्टि के लिये ले जाया जाने लगा तो द्रौपदी ने राजा विराट से से कहा, ''इसे मुझ पर कुदृष्टि रखने का फल मिल गया, अवश्य ही मेरे गन्धर्व पतियों ने इसकी यह दुर्दशा की है। द्रौपदी के वचन सुन कर कीचक के भाइयों ने क्रोधित होकर कहा, ''हमारे अत्यन्त बलवान भाई की मृत्यु इसी सैरन्ध्री के कारण हुई है अत: इसे भी कीचक की चिता के साथ जला देना चाहिये। इतना कहकर उन्होंने द्रौपदी को जबरदस्ती कीचक की अर्थी के साथ बाँध के और श्मशान की ओर ले जाने लगे। कंक, बल्लभ, वृहन्नला, तन्तिपाल तथा ग्रान्थिक के रूप में वहाँ उपस्थित पाण्डवों से द्रौपदी की यह दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी किन्तु अज्ञातवास के कारण वे स्वयं को प्रकट भी नहीं कर सकते थे। इसलिये भीमसेन चुपके से परकोटे को लाँघकर श्मशान की ओर दौड़ पड़े और रास्ते में कीचड़ तथा मिट्टी का सारे अंगों पर लेप कर लिया। फिर एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर कीचक के भाइयों पर टूट पड़े। उनमें से कितनों को ही भीमसेन ने मार डाला, जो शेष बचे वे अपना प्राण बचाकर भाग निकले। इसके बाद भीमसेन ने द्रौपदी को सान्त्वना देकर महल में भेज दिया और स्वयं नहा-धोकर दूसरे रास्ते से अपने स्थान में लौट आये। कीचक तथा उसके भाइयों का वध होते देखकर महाराज विराट सहित सभी लोग द्रौपदी से भयभीत रहने लगे।
कीचक के वध की सूचना आँधी की तरह फैल गई। वास्तव में कीचक बड़ा पराक्रमी था और उससे त्रिगर्त के राजा सुशर्मा तथा हस्तिनापुर के कौरव आदि डरते थे। कीचक की मृत्यु हो जाने पर राजा सुशर्मा और कौरवगण विराट नगर पर आक्रमण करने के उद्देश्य से एक विशाल सेना गठित कर लिया। कौरवों ने सुशर्मा को पहले चढ़ाई करने की सलाह दी। उनकी सलाह के अनुसार सुशर्मा ने उनकी सलाह मानकर विराट नगर पर धावा बोलकर उस राज्य की समस्त गौओं को हड़प लिया। इससे राज्य के सभी ग्वालों ने राज सभा में जाकर गुहार लगाई, ''हे महाराज! त्रिगर्त के राजा सुशर्मा हमसे सब गौओं को छीनकर अपने राज्य में लिये जा रहे हैं। आप हमारी शीघ्र रक्षा करें।उस समय सभा में विराट और कंक आदि सभी उपस्थित थे। राजा विराट ने निश्चय किया कि कंक, बल्लभ, तन्तिपाल, ग्रान्थिक तथा उनके स्वयं के नेतृत्व में सेना को युद्ध में उतारा जाये। उनकी इस योजना के अनुसार सबने मिलकर राजा सुशर्मा के ऊपर धावा बोल दिया। छद्मवेशधारी पाण्डवों के पराक्रम को देखकर सुशर्मा के सैनिक अपने-अपने प्राण लेकर भागने लगे। सुशर्मा के बहुत उत्साह दिलाने पर भी वे सैनिक वापस आकर युद्ध करने के लिये तैयार नहीं थे। अपनी सेना के पैर उखड़ते देखकर राजा सुशर्मा भी भागने लगा किन्तु पाण्डवों ने उसे घेर लिया। बल्लभ (भीमसेन) ने लात घूँसों से मार-मार कर उसकी हड्डी पसली तोड़ डाला। सुशर्मा की खूब मरम्मत करने के बाद बल्लभ ने उसे उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया। भूमि पर गिर कर वह जोर-जोर चिल्लाने लगा। भीमसेन ने उसकी एक न सुनी और उसे बाँधकर युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। सुशर्मा के द्वारा दासत्व स्वीकार करने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे छोड़ दिया। इधर दूसरी ओर से कौरवों ने विराट नगर पर हमला बोल दिया। प्रजा राजसभा में आकर रक्षा के लिये गुहार लगाने लगी किन्तु उस समय तो महाराज चारों पाण्डवों के साथ सुशर्मा से युद्ध करने चले गये थे।
महल में केवल राजकुमार उत्तर ही थे। प्रजा को रक्षा के लिये गुहार लगाते देख कर सैरन्ध्री (द्रौपदी) से रहा न गया और उन्होंने राजकुमार उत्तर को कौरवों से युद्ध करने के लिये न जाते हुये देखकर खूब फटकारा। सैरन्ध्री की फटकार सुनकर राजकुमार उत्तर ने शेखी बघारते हुये कहा, ''मैं युद्ध में जाकर कौरवों को अवश्य हरा देता किन्तु असमर्थ हूँ, क्योंकि मेरे पास कोई सारथी नहीं है। उसकी बात सुनकर सैरन्ध्री ने कहा, ''राजकुमार! वृहन्नला बहुत निपुण सारथी है और वह कुन्तीपुत्र अर्जुन का सारथी रह चुकी है। तुम उसे अपना सारथी बना कर युद्ध के लिये जाओ। अन्तत: राजकुमार उत्तर वृहन्नला को सारथी बनाकर युद्ध के लिये निकला। उस दिन पाण्डवों के अज्ञातवास का समय समाप्त हो चुका था तथा उनके प्रकट होने का समय आ चुका था। उर्वशी के शापवश मिली अर्जुन की नपुंसकता भी खत्म हो चुकी थी। अत: मार्ग में अर्जुन ने उस श्मशान के पास, जहाँ पाण्डवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छुपाये थे, रथ रोका और चुपके से अपने हथियार ले लिये। जब उनका रथ युद्धभूमि में पहुँचा तो कौरवों की विशाल सेना और भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, दुर्योधन आदि पराक्रमी योद्धाओं को देखकर राजकुमार उत्तर अत्यन्त घबरा गया और बोला, ''वृहन्नला! तुम रथ वापस ले चलो। मैं इन योद्धाओं से मुकाबला नहीं कर सकता। वृहन्नला ने कहा, ''हे राजकुमार! किसी भी क्षत्रियपुत्र के लिये युद्ध में पीठ दिखाने से तो अच्छा है कि वह युद्ध में वीरगति प्राप्त कर ले। उठाओ अपने अस्त्र-शस्त्र और करो युद्ध। किन्तु राजकुमार उत्तर पर वृहन्नला के वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह रथ से कूद कर भागने लगा। इस पर अर्जुन (वृहन्नला) ने लपक कर उसे पकड़ लिया और कहा, ''राजकुमार! भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। मेरे होते हुये तुम्हारा कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आज मैं तुम्हारे समक्ष स्वयं को प्रकट कर रहा हूँ, मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूँ, और कंक युधिष्ठिर, बल्लभ भीमसेन, तन्तिपाल नकुल तथा ग्रान्थिक सहदेव हैं। अब मैं इनसे युद्ध करूँगा, तुम अब इस रथ की बागडोर संभालो।यह वचन सुनकर राजकुमार उत्तर ने गद्गद् होकर अर्जुन के पैर पकड़ लिया।
अर्जुन के देवदत्त शंख की ध्वनि रणभूमि में गूँज उठी। उस विशिष्ट ध्वनि को सुनकर दुर्योधन भीष्म से बोला, ''पितामह! यह तो अर्जुन के देवदत्त शंख की ध्वनि है, अभी तो पाण्डवों का अज्ञातवास समाप्त नहीं हुआ है। अर्जुन ने स्वयं को प्रकट कर दिया इसलिये अब पाण्डवों को पुन: बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा। दुर्योधन के वचन सुनकर भीष्म पितामह ने कहा, ''दुर्योधन! कदाचित तुम्हें ज्ञात नहीं है कि पाण्डव काल की गति जानने वाले हैं, बिना अवधि पूरी किये अर्जुन कभी सामने नहीं आ सकता। मैंने भी गणना कर लिया है कि पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि पूर्ण हो चुकी है। दुर्योधन एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुये बोला, ''अब जब अर्जुन का आना निश्चित हो चुका है तो पितामह! हमें शीघ्र ही व्यूह रचना कर लेना चाहिये। इस पर भीष्म ने कहा, ''वत्स! तुम एक तिहाई सेना लेकर गौओं के साथ विदा हो जाओ। शेष सेना को साथ लेकर हम लोग यहाँ पर अर्जुन से युद्ध करेंगे। भीष्म पितामह के परामर्श के अनुसार दुर्योधन गौओं को लेकर एक तिहाई सेना के साथ हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। यह देखकर कि दुर्योधन रणभूमि से लौटकर जा रहा है अर्जुन ने अपना रथ दुर्योधन के पीछे दौड़ा दिया और भागते हुये दुर्योधन को मार्ग में ही घेरकर अपने असंख्य बाणों से उसे व्याकुल कर दिया। अर्जुन के बाणों से दुर्योधन के सैनिकों के पैर उखड़ गये और वे पीठ दिखा कर भाग गये। सारी गौएँ भी रम्भाती हुईं विराट नगर की और भाग निकलीं। दुर्योधन को अर्जुन के बाणों से घिरा देखकर कर्ण, द्रोण, भीष्म आदि सभी वीर उसकी रक्षा के लिय दौड़ पड़े। कर्ण को सामने देख कर अर्जुन के क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने कर्ण पर इतने बाण बरसाये कि उसके रथ, घोड़े, सारथी सभी नष्ट भ्रष्ट हो गये और कर्ण भी मैदान छोड़ कर भाग गया। कर्ण के चले जाने पर भीष्म और द्रोण एक साथ अर्जुन पर बाण छोडऩे लगे किन्तु अर्जुन अपने बाणों से बीच में ही उनके बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर देते थे। अन्तत: अर्जुन के बाणों से व्याकुल होकर सारे कौरव मैदान छोड़ कर भाग गये। कौरवों के इस प्रकार भाग जाने पर अर्जुन भी विजयशंख बजाते हुये विराट नगर लौट आये।
पाण्डवों का राज्य लौटाने का आग्रह और दोनों पक्षो की कृष्ण से सहायता की माँग
राजा सुशर्मा तथा कौरवों को रणभूमि से भगा देने के बाद पाण्डवों ने स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रकट कर दिया। उनका असली परिचय पाकर राजा विराट को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और उन्होंने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ बड़े ही धूमधाम के साथ कर दिया। इस विवाह में श्री कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ अनेक बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी सम्मिलित हुये। अभिमन्यु के विवाह के पश्चात् पाण्डवों ने अपना राज्य वापस लौटाने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण को अपना दूत बना कर हस्तिनापुर भेजा। धृतराष्ट्र के राज सभा में यथोचित सत्कार और आसन पाने के बाद श्री कृष्ण बोले, ''हे राजन्! पाण्डवों ने यहाँ उपस्थित सभी गुरुजनों को प्रणाम भेजते हुये कहलाया है कि हमने पूर्व किये करार के अनुसार बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा कर लिया है। अब आप हमें दिये वचन के अनुसार हमारा आधा राज्य लौटा दीजिये। श्री कृष्ण के वचनों को सुन कर वहाँ उपस्थित भीष्म, विदुर, द्रोण आदि गुरुजनों तथा परशुराम, कण्व आदि महर्षिगणों ने धृतराष्ट्र को समझाया कि वे धर्म तथा न्याय के मार्ग में चलते हुये पाण्डवों को उनका राज्य तत्काल लौटा दें। किन्तु उनकी इस समझाइश को सुनकर दुर्योधन ने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा, ''ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते इस राज्य पर मेरे पिता धृतराष्ट्र का अधिकार था किन्तु उनके अन्धत्व का लाभ उठा कर चाचा पाण्डु ने राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। मैं महाराज धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र हूँ अत: इस राज्य पर मेरा और केवल मेरा अधिकार है। मैं पाण्डवों को राज्य तो क्या, सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने के लिये तैयार नहीं हूँ। यदि उन्हें अपना राज्य वापस चाहिये तो वे हमसे युद्ध करके उसे प्राप्त कर लें। उपस्थित समस्त जनों के बारम्बार समझाने के बाद भी दुर्योधन अपनी बात पर अडिग रहा और श्री कृष्ण वापस पाण्डवों के पास चले आये और दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारी होने लगी।
पाण्डवों को राज्य न देने के अपने निश्चय पर दुर्योधन के अड़ जाने के कारण दोनों पक्ष मे मध्य युद्ध निश्चित हो गया तथा दोनों ही पक्ष अपने लिये सहायता जुटाने में लग गये।
एक दिन दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिये सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा। इसके कुछ ही देर पश्चात पाण्डुतनय अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचे और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने (पैर की तरफ) बैठ गये। जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, ''भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, ''हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ। चूँकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।
दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, ''हे दुर्योधन! मेरी दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो। अत: मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा। किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा। अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिये।
अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल सेना लेने के लिये ही आया था। इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।
दुर्योधन के जाने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, ''हे पार्थ! मेरे युद्ध नहीं करने के निश्चय के बाद भी तुमने क्या सोच कर मुझे माँगा? अर्जुन ने उत्तर दिया, ''भगवन्! मेरा विश्वास है कि जहाँ आप हैं वहीं विजय है। और फिर मेरी इच्छा है कि आप मेरा सारथी बने। अर्जुन की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने उनका सारथी बनना स्वीकार कर लिया।
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