हमारे आस-पास के सभी लोगों की पसंद-नापसंद एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। आमतौर पर अन्य लोगों के स्वभाव को जानने, समझने की जिज्ञासा सभी में रहती हैं। हम जानना चाहते हैं कि हमारे आस-पास के रहने वाले लोगों का व्यवहार कैसा है? उनकी सोच क्या है? किसी भी व्यक्ति की तर्जनी उंगली देखकर भी मालूम किया जा सकता है कि उसकी नेतृत्व क्षमता कैसी है? हस्तरेखा ज्योतिष में हाथों की रेखाओं के साथ ही हथेली और उंगलियों की बनावट का असर व्यक्ति के स्वभाव पर पड़ता है? यहां जानिए तर्जनी उंगली यानी इंडेक्स फिंगर को देखकर कैसे किसी व्यक्ति का स्वभाव मालूम किया जा सकता है?तर्जिनी उंगली का परिचयहमारी हथेली में अंगूठे से पहली उंगली यानी इंडेक्स फिंगर को ही तर्जनी उंगली कहा जाता है। इस उंगली के नीचे गुरु पर्वत स्थित होता है। इसी वजह से इसे गुरु की उंगली भी कहते हैं। सामान्यत: इस उंगली के आधार पर व्यक्ति की नेतृत्व क्षमता यानी व्यक्ति किसी टीम का नेतृत्व कर सकता है या नहीं और व्यक्ति की महत्वकांक्षा पर विचार किया जाता है।* यदि किसी व्यक्ति के हाथों में इंडेक्स फिंगर ;तर्जनी उंगली मीडिल फिंगर, मध्यमा उंगली के बराबर हो यानी सामान्य से थोड़ी लंबी हो तो वह व्यक्ति अन्य लोगों पर राज या हुकुमत करने वाला होता है। ऐसे लोग अच्छे बॉस बनते हैं।* यदि ऐसी उंगली वाले हाथ के अन्य लक्षण भी अच्छे हो तो वह व्यक्ति हजारों लोगों पर राज करने वाला होता है। ये लोग थोड़े घमंडी स्वभाव के होते हैं।* यदि हथेली में इंडेक्स फिंगर मीडिल फिंगर से अधिक लंबी हो तो व्यक्ति अत्यधिक घमंड करने वाला होता है। ऐसे लोग खुद को अधिक श्रेष्ठ समझते हैं और इनका स्वभाव तानाशाही करने वाला होता है।* यदि किसी व्यक्ति के हाथों में तर्जनी उंगली की लंबाई सामान्य लंबाई से छोटी है तो इंसान महत्वकांक्षी नहीं होता है। ऐसे लोगों में किसी कार्य को करने के लिए कोई उत्साह नहीं रहता।* यदि इंडेक्स फिंगर, तर्जनी उंगली रिंग फिंगर, अनामिका उंगली से बड़ी हो तो व्यक्ति अति महत्वकांक्षी होता है। ऐसे लोग कभी-कभी अति उत्साह में कार्य बिगाड़ भी लेते हैंए जिससे इन्हें धन हानि का भी सामना करना पड़ता है।* यदि किसी व्यक्ति की हथेली में रिंग फिंगर और इंडेक्स फिंगर दोनों एक समान हैं तो व्यक्ति अधिक पैसा और मान.सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखता है। यदि इंडेक्स फिंगर रिंग फिंगर से थोड़ी छोटी हो तो व्यक्ति हर परिस्थिति में संतुष्ट रहने वाला होता है।* सामन्यत: हमारी उंगलियों पर तीन भाग होते हैं। इन तीनों भागों के आधार पर भी व्यक्ति के स्वभाव की बातें मालूम की जा सकती हैं। यदि तर्जनी उंगली का पहला भाग ;नाखून के पीछे वाला हिस्सा, अन्य दो भागों से बड़ा हो तो व्यक्ति की नेतृत्व क्षमता काफी अच्छी होती है। ये लोग हर काम को कुशलता से करते हैं।* जिन लोगों की तर्जनी उंगली का पहला भाग अन्य दोनों भागों से छोटा होता है वे लोग स्वयं को दूसरों से कमजोर समझते हैं। इन लोगों में हीन भावना हो सकती है।* हथेली में तर्जनी उंगली का बीच वाला भाग अन्य दोनों भागों से अधिक बड़ा दिखाई देता है तो व्यक्ति अहंकारी होता है। ऐसे लोग किसी भी काम को पूरी दक्षता के साथ पूर्ण करते हैं। इन लोगों का घर.परिवार और समाज में विशेष स्थान होता है। इसके विपरीत यदि किसी व्यक्ति की हथेली में यह भाग अन्य दोनों भागों से छोटा होता है तो व्यक्ति किसी भी कार्य को कुशलता के साथ पूर्ण नहीं कर पाता है।* जिन लोगों की उंगली का तीसरा और अंतिम भाग अन्य दोनों भागों से अधिक बड़ा होता हैए वे लोग शारीरिक रूप से अधिक बलशाली होता है। ऐसे लोग अपना बल दिखाने का मौका तलाशते रहते हैं। सामन्यत: ये लोग ऐसे काम करना अधिक पसंद करते हैं, जहां उन्हें शारीरिक बल दिखाने का अवसर प्राप्त होता है।* यदि किसी व्यक्ति की हथेली में मध्यमा और तर्जनी उंगली के बीच अधिक अंतर दिखाई देता है तो व्यक्ति के हाथ में गुरु ग्रह की प्रधानता हो जाती है। ऐसी हथेली वाले लोग अच्छी बौद्धिक क्षमता वाले और धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं। ये लोग अपने कार्यों पर विश्वास करते हैं और भाग्य को भी कर्मों के आधार पर बदलने की क्षमता रखते हैं।जिन लोगों की हथेली में तर्जनी और मध्यमा उंगली के बीच अधिक अंतर हो और अनामिका एवं सबसे छोटी उंगली के बीच भी अंतर हो तो व्यक्ति व्यापार में लाभ कमाने वाला होता है। इस स्थिति में मध्यमा और अनामिका उंगली के बीच ज्यादा अंतर नहीं दिखाई देना चाहिए अन्यथा यह फल बदल सकता है।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
''स्व अश्रितम रक्षणम करोति, इति माया संत-महात्मा कहते हैं ये सब माया का बंधन है। सब संसार माया के वशीभूत है। आखिर ये माया है क्या। हिन्दू धर्म के ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु को मायाधिपति कहा गया है। अर्थात वे माया के स्वामी माने जाते हैं।जब द्वापर युग में भगवान विष्णु ने कंस के संहार और पापियों का नाश करने के लिए पृथ्वी पर कृष्ण के रूप में अवतार लिया तब उन्होंने अपने अनन्य भक्त नारद को माया की महिमा बताई जो इस प्रकार है- नारदजी और भगवान कृष्ण में वार्तालाप चल रही थी। नारदजी ने पूछा- भगवन आप मायाधिपति कहलाते हैं। बताइए आखिर ये माया है क्या? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- नारद आज मैं तुम्हारे सामने माया के रहस्य का वर्णन करूंगा। चलो महल से बाहर निकलकर तुम्हें बताता हूं।भगवान कृष्ण और नारदजी महल से आगे चलने लगे, तभी भगवान ने नारदजी से कहा- मुनि नारद, मुझे बहुत तीव्र प्यास लगी है, क्या आप सामने वाले कुएं से जल भरकर ले आएंगे।नारदजी ने कहा- अवश्य प्रभु। नारदजी जल लेने के लिए कुएं के समीप गए। तभी उनकी दृष्टि वहां जल भर रही एक सुंदर स्त्री पर पड़ी। नारद उसके रूप को देखकर उस पर मोहित हो गए। जब वह स्त्री जल भरकर जाने लगी तब नारदजी भी उनके पीछे चल दिए।वह स्त्री गांव के एक घर में गई। नारदजी घर में जाने लगे, तभी एक वृद्ध ने उन्हें रोका और पूछा- आप कौन हैं। नारदजी ने कहा- मैं भगवान विष्णु का परम भक्त नारद हूं। नारदजी ने उस वृद्ध से पूछा- आप कौन हैं और स्त्री आपकी क्या लगती है? वृद्ध ने कहा- मैं इस गांव का सरपंच हूं और यह मेरी इकलौती पुत्री है। नारदजी ने कहा- क्या आप अपनी पुत्री का विवाह मुझसे करेंगे? वृद्ध ने कहा- ठीक है, लेकिन मेरी एक शर्त है। नारदजी ने पूछा- कौनसी शर्त? वृद्ध ने कहा- मेरी लड़की से विवाह करने के बाद तुम्हें मेरे पास रहना पड़ेगा और गांव का सरपंच बनना पड़ेगा।नारदजी ने कहा- ठीक है।विवाह हो गया। नारदजी गांव के सरपंच बन गए। नारदजी खुशी से अपना जीवन व्यतीत करने लगे। उनके यहां पुत्र का जन्म हुआ। फिर एक पुत्री का जन्म हुआ। नारदजी सोचने लगे कितना खुशहाल जीवन है।एक दिन अचानक गांव में भयंकर बाढ़ आई। सारा गांव जलमग्न हो गया। नारदजी ने सोचा कि इस गांव से बाहर निकलना चाहिए। उन्होंने एक युक्ति निकाली। लकड़ी के दरवाजे पर अपने पूरे परिवार को बिठा लिया और पानी पर तैरने लगे। अचानक उनकी पुत्री बाढ़ के पानी में गिर गई, उसे बचाने की कोशिश करते, इतने में पुत्र गिर गया। पुत्र का विलाप कर ही रहे थे कि पत्नी भी पानी में गिर गई।नारदजी दुखी हो गए और रोने लगे... तभी भगवान कृष्ण ने उन्हें जगाया- नारद उठो, तुम्हें मैंने कुएं से पानी लेने के लिए भेजा था ना।नारदजी ने कहा- प्रभु, मैं समझ गया क्या होती है माया!........
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
यजुर्वेद तथा भगवदगीता के अनुसार हमारा व्यवहार, विचार, भोजन और जीवनषैली तीन चीजों पर आधारित होती है वह है सत्व, तमस और राजस। सात्विक विचारों वाला व्यक्ति निष्चित स्वभाव का होता है जोकि उसे सृजनषील बनाता है वहीं राजसी विचारों वाला व्यक्ति महत्वाकांक्षी होता है जोकि स्वभाव में लालच भी देता है तथा तामसी व्यवहार वाला व्यक्ति नाकारात्मक विचारों वाला होने पर गलत कार्यो की ओर अग्रसर हो सकता है। मानव व्यवहार मूल रूप से राजसी और तामसी प्रवृत्ति का होता है, जिसके कारण जीवन में नाकारात्मक उर्जा बढ़ती है, जिससे साकारात्मक बनाने हेतु पुराणों में व्रत तथा उपवास पर जोर दिया गया है। ज्योतिषीय मान्यता है कि व्यक्ति की कुंडली में जो ग्रह प्रतिकूल होता है, उसके अनुसार व्यक्ति में उस क्षेत्र या स्थान से संबंधित नाकारात्तमता दिखाई देती है। जीवन में नाकारात्मक स्थिति को दूर करने तथा जीवन में साकारात्मक तथा सफलता प्राप्ति हेतु मानव जीवन में व्रत की उपयोगिता वैदिक काल से जारी है। जिसका आधार होता है कि उपवास पॉच ज्ञानेंद्रियों और पॉच कर्मेद्रिंयों पर नियंत्रण करता है। अनुशासित बनाने तथा मन को आध्यामिक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करने हेतु उपवास तथा मंत्र जीवन में साकारात्मक दिषा देता है। उपवास जीवन में मानसिक शुद्धिकरण के अलावा शारीरिक शुद्धि हेतु भी सहायक होता है चूॅकि उपवास के दौरान अनुष्ठान करने की परंपरा भी है अत: अनुष्ठान के दौरान किया जाना वाला जाप, ध्यान, सत्संग, दान शारीरिक शुद्धता के लिए भी कार्य करती है। भोग लगाने वाले पदार्थ जैसे फल, मेवा, दूध, धी आदि का सेवन भी सात्विक गुणों को बढ़ता है।नक्षत्र संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ है ''न क्षरति न सरति इति नक्षत्र: अर्थात् न हिलने वाला न चलने वाला, जो स्थिर हों, ग्रहों एवं नक्षत्रों में यहीं प्रमुख भेद है कि ग्रह तो भ्रमणशील हैं किंतु नक्षत्र स्थिर। भारतीय ज्योतिष में राशि-पथ एक स्थिर नक्षत्र से प्रारंभ होता है इसलिए नक्षत्रवृत कहलाता है। राशिपथ एक अंडाकार वृत जैसा है जो कि 360 डिग्री का है। इन 360 अंशों को 12 समान भागों में बांटा गया है और प्रत्येक 30 डिग्री के एक भाग को राशि कहा गया है। इन 12 राशियों के नाम हैं मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ तथा मीन तथा इन्हीं 360 डिग्री को 27 समान भागों में बांटा गया है एवं प्रत्येक 13.20 समान भागों को नक्षत्र कहा गया है। इन 27 नक्षत्रों को भी प्रत्येक 4 बराबर भागों में 3.20 के समान भागों में बांटा गया है इस प्रकार एक राशि में सवा दो नक्षत्र आते हैं। अर्थात् एक राशि में सवा दो नक्षत्र का समावेश होता है। इन 27 नक्षत्रों के नाम हैं क्रमश: अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आष्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती। जन्म के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है वहीं व्यक्ति के जन्मनक्षत्र कहलाता है।सरल शब्दों में उसे जन्मतारा भी कहा जाता है। यह जन्मनक्षत्र व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र जा सकता है।में नक्षत्र के अनुसार ही जातक का नाम, नाड़ी, योनि, गोत्र एवं गण आदि की विवेचना की जाती है। भारतीय ज्योतिष में इन्हीं नक्षत्रों के आधार पर मूहुर्त गणना का विधान है। अत: व्यक्ति के दैनिक जीवन में भी शुभ और अशुभ दिन का निर्धारण इन्हीं नक्षत्रों के आधार पर किया जा सकता है इसका वर्गीकरण जन्म नक्षत्र से प्रारंभ कर 27 नक्षत्रों को तीन-तीन के बराबर भाग में रखकर कुल 9 समूहों में विभाजित किया जाता है। इस प्रकार 9 समूहों के नक्षत्रों के आधार पर एक सारणी का निर्माण कर शुभ तथा अशुभ का विश्लेषण किया जा सकता है जिसमें 1. जन्मतारा 2. संपततारा 3. विपततारा 4. क्षेमतारा 5. प्रत्यरीतारा 6. साधकतारा 7. वधतारा 8. मैत्रतारा 9. अतिमैत्रतारा. अत: जब जन्मतारा का क्रम आता है तो व्यक्ति को कुछ कामों में शुभ तथा कुछ कार्यों में अशुभ फल की प्राप्ति हेाती है। वहीं तीसरातारा विपततारा, पांचवा प्रत्यरीतारा सांतवा वध तारा का क्रम आता है तो व्यक्ति को अशुभ फल की प्राप्ति होती है। आठंवा तथा नवां तारा का क्रम अतिशुभ फल देने वाला होता है। इस प्रकार व्यक्ति का दिन शुभ होगा या अशुभ इसकी जानकारी उस तारासमूह के आधार पर व्यक्तिविशेष के जन्मतारा के आधार पर किया जा सकता है।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
रायपुर से बिलासपुर राजमार्ग पर 85 किलोमीटर दूर है ग्राम ताला। यहां अनूठी और अद्भुत मूर्तियां मिली है, जिसमें शैव संस्कृति के 2 मंदिर देवरानी-जेठानी के नाम से विख्यात है। यहां ढाई मीटर ऊंची और 1 मीटर चौड़ी जीव-जंतुओं की मुखातियों से बने अंग-प्रत्यंगों वाली प्रतिमा मिली है, जिसे रूद्र शिव का नाम दिया गया है। महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा भारतीय कला में अपने ढंग की एकमात्र ज्ञात प्रतिमा है। कुछ विद्वान धारित बारह राशियों के आकार पर इसका नाम कालपुरूष भी मानते हैं। महाकाल रूद्रशिव की प्रतिमा भारी भरकम है। 2.54 मीटर ऊंची और 1 मीटर चौड़ी प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग, अलग-अलग जीव-जंतुओं की मुखाकृतियों से बने हैं, इस कारण प्रतिमा में रौद्र भाव साफ नजर आता है। प्रतिमा संपादस्थानक मुद्रा में है। इस महाकाय प्रतिमा के रूपांकन में गिरगिट, मछली, केकड़ा, मयूर, कछुआ, सिंह और मानव मुखों की मौलिक रूपाति का अद्भूत संयोजन है। मूर्ति के सिर पर मंडलाकार चक्रों में लिपटे 2 नाग पगड़ी के समान नजर आते हैं। नाग नीचे की ओर मुंह किए हुए गिरगिट से बनी है। गिरगिट के पिछले 2 पैरों ने भौहों का आकार लिया है। अगले 2 पैरों ने नासिका रंध्र की गोलाई बनाई है। गिरगिट का सिर नाक का अगला हिस्सा है। बड़े आकार के मेंढक के खुले मुख से नेत्रपटल और बड़े अण्डे से गोलक बने हैं। छोटे आकार की मछलियों से मुछें और निचला होंठ बना है। कान की जगह बैठे हुए मयूर स्थापित हैं। कंधा मगर के मुंह से बना है। भुजाएं हाथी के सूंड के समान हैं, हाथों की उंगलियों सांप के मुंह के आकार की है, दोनों वक्ष और उदर पर मानव मुखातियां बनी है। कछुए के पिछले हिस्से कटी और मुंह से शिश्न बना है। उससे जुड़े अगले दोनों पैरों से अण्डकोष बने हैं और उन पर घंटी के समान लटकते जोंक बनी है। दोनों जंघाओं पर हाथ जोड़े विद्याधर और कमर के दोनों हिस्से में एक-एक गंधर्व की मुखाति बनी है। दोनों घुटनों पर सिंह की मुखाति है, मोटे-मोटे पैर हाथी के अगले पैर के समान है। प्रतिमा के दोनों कंधों के ऊपर 2 महानाग रक्षक की तरह फन फैलाए नजर आते हैं। प्रतिमा के दाएं हाथ में मोटे दंड का खंडित भाग बचा हुआ है। प्रतिमा के आभूषणों में हार, वक्षबंध, कंकण और कटिबंध नाग के कण्डलित भाग से अलंकृत है। सामान्य रूप से इस प्रतिमा में शैव मत, तंत्र और योग के सिद्धांतों का प्रभाव और समन्वय दिखाई पड़ता है।ताला गांव पुरातत्व महत्व के देवरानी-जेठानी मंदिरों के कारण विख्यात है। ये मंदिर 1986में ही अनावृत्त किए गए। एक विशाल परिसर में स्थित ये मंदिर आज खंडहर अवस्था में है। किंतु 5वीं-6वीं शताब्दी के आसपास बने यह मंदिर पुरातत्व महत्व तथा यहां से प्राप्त अनोखी मूर्तियों के कारण दर्शनीय बन गए। लाल पत्थर से बना जेठानी मंदिर शैव संप्रदाय के उपासकों का साधनापीठ माना जाता है। दक्षिणाभिमुख मंदिर की स्थापत्य शैली कुछ विशिष्ट है। मंदिर के तल विन्यास में अर्धमंडप एवं गर्भगृह का धरातल उतरोत्तर ऊंचा होता गया है। दीवारों तथा स्तंभों पर अनोखी भाव-भंगिमा वाली मूर्तियों का अंकन देखने को मिलता है। देवरानी मंदिर भी प्राचीन शिव मंदिर है। इसके द्वार तथा शाखाओं पर बनी मूर्तियों में लक्ष्मी, उमा, महेश्वर, शिव-पार्वती, कीर्तिमुख मिथुन दंपती आदि का खूबसूरत अंकन है।मंदिरों की खोज के साथ ही इस क्षेत्र से कई अनोखी मूर्तियां, शिलाखंड, लघुफलक, बाण फलक, मृणमयी वस्तुएं एवं सिक्के मिले थे। यहां से प्राप्त एक अजीब मूर्ति तो पर्यटकों ही नहींं, पुरातत्वप्रेमियों के लिए भी कौतूहल का विषय है। मूर्ति को देख यह कह पाना कठिन है कि यह किस देवता या देवपुरुष की मूर्ति होगी। इस प्रतिमा में एक शरीर पर दस मुख हैं। एक मुख तो यथास्थान है। दो मुख वक्ष स्थल पर बने हैं, एक मुख पेट पर, दो मुख जांघों पर, दो मुख घुटनों पर तथा दो मुख पृष्ठ भाग में बने हैं। इस अद्भुत मूर्ति में विचित्र कल्पना तथा कलात्मकता का संगम नजर आता है। मूर्ति में पशु पक्षियों का चित्रण भी किया गया है।पर्यटन हेतु सड़क पेयजल एवं छाया दार स्थलों का निर्माण, आसपास के स्थल पर आकर्षक उद्यान, फव्वारे, समीप ही बहने वाली मनियारी नदी पर एनीकट बनाकर पानी को रोकने और उसमें नौकायन की सुविधा उपलब्ध कराई गई है। सिंचाई विभाग, उद्यान तथा मनियारी नदी के दोनों ओर 150-150 मीटर घाट निर्माण किये गये हैं। यहां आसपास के मंदिरों के जीर्णोद्वार के कार्य किये गये हैं। ताला पहुंच मार्ग के दोनों ओर वृक्षारोपण कर आपके सफर को और भी सुंदर और भव्य बनाया गया है।मदकुद्वीप:ताला से कुछ दूरी पर प्रसिध्द ऐतिहासिक स्थल मदकुद्वीप स्थित है, जहां प्रतिवर्ष मसीही मेला का आयोजन किया जाता है। द्वीप तीन ओर से शिवनाथ नदी और मनियारी नदी के संगम से घिरा हुआ है। वन विभाग द्वारा द्वीप में स्थित प्राचीनतम शिव मंदिर का जीर्णोद्वार कराया गया है। विश्राम गृह का निर्माण तथा हरियाली के लिए वृक्षारोपण किये गये है। द्वीप के चारों ओर मदकुद्वीप पीचिंग कर नदी के कटाव को रोका गया। द्वीप के समीप शिवनाथ नदी पर एनीकट है। साथ ही नदी के दोनों ओर 50-50 मीटर तक घाट निर्माण किया गया है। इस द्वीप का इतिहास भी गौरवशाली रहा है।वर्तमान प्रचलित नाम 'मदकू संस्कृत के मण्डुक्य से मिश्रित अपभ्रंश नाम है। इसके पीछे की कथा यह है कि शिवनाथ की धाराओं से आवृत्त इस स्थान की सुरम्यता और रमणीयता मांडुक्य ऋषि को बांधे रखने में समर्थ सिद्ध हुई और इसी तपश्चर्या स्थली में निवास करते हुए ''मांडुक्योपनिषद जैसे धार्मिक ग्रंथ की रचना हुई। शिव का धूमेश्वर नाम की ऐतिहासिकता इस अंचल में विभिन्न अंचल के प्राचीन मंदिरों के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंगों से होती है अर्थात पुरातात्विक दृष्टि से दसवीं शताब्दी ईंसवी सन में यह लोकमान्य शैव क्षेत्र था। दसवीं शताब्दी से स्थापित तीर्थ क्षेत्र के रुप में इसकी सत्ता यथावत बनी हुई है। खुदाई में 11वीं शताब्दी के कलचुरी कालीन मंदिरों की श्रृंखला मिली है। अब हमारी मान्यता है कि मण्डूक ऋषि ने यहीं पर आकर अपना आश्रम बनाया था और मांडूकोपनिषद की रचना की थी। यह स्थल इसलिए पवित्र है कि चारों तरफ शिवनाथ नदी से घिरा हुआ है और यहीं पर आकर शिवनाथ नदी दक्षिण से आकर उत्तर-पूर्व की ओर कोण बनाते हुए ईशान कोण में बहने लगती है।हिन्दु धर्म में एवं हमारे प्राचीन वास्तु शास्त्र के हिसाब से ईशान कोण में बहने वाली नदी सबसे पवित्र मानी जाती है। हिन्दु धर्म में ऐसे ही स्थान पर मन्दिरों, बड़े नगरों एवं राजधानियों की स्थापना की जाती थी। यहाँ आकर शिवनाथ नदी भी ईशान कोण में बहती है। इसलिए पुरातन काल से ही धार्मिक स्थल होने के कारण यहां पूजा पाठ एवं विशाल यज्ञ होते थे। शंकराचार्य ने पंचायतन मंदिर की प्रथा प्रारंभ की। उन्होंने पांचो सम्प्रदायों के उपासक देवताओं के पाँच लिंगो को एक ही पृष्ठभूमि पर स्थापित किया, जिसे स्मार्त लिंग कहते हैं। जिससे पांचों सम्प्रदाय के लोग एक ही स्थान पर आकर पूजा कर लें। भारत में मद्कुद्वीप ही एक मात्र ऐसा स्थान है जहाँ 13 स्मार्त लिंग मिले हैं। यहाँ दो युगल मंदिर भी मिले हैं। पहला मंदिर स्थानीय लोगों को मिला था और दूसरा मंदिर अभी खुदाई में मिला है। एक ही प्लेटफ़ार्म पर जब दो मंदिर होते हैं उन्हे युगल मंदिर कहते हैं। ये दोनो मंदिर शिव जी के हैं, योनी पीठ वाले। इस स्थान का महत्व इसलिए है कि एक छोटे से द्वीप में एक ही स्थान पर द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं 13 स्मार्त लिंग मिले हैं जो एक ही पंक्ति में स्थापित हैं। यहाँ गणेश जी, लक्ष्मीनारायण, राजपुरुषों एवं एक उमामहेश्वर की मूर्ति भी मिली हैं। जिन-जिन राजाओं ने यहां मंदिर बनवाए उन्होंने अपनी-अपनी मूर्ति भी यहाँ लगा दी है। ये मुर्तियाँ लाल बलुवा पत्थर की बनी हैं जो शिवनाथ नदी में ही मिलते हैं। इन पत्थरों पर सुन्दर बेल-बूटे एवं मुर्तियां उत्कीर्ण की गयी है। यह सम्पुर्ण संरचना जमीन से मात्र डेढ़ मीटर गहराई पर ही प्राप्त हो गयीं।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
वात रोग 80 प्रकार के होते हैं जो हमारे शरीर के अस्थि व नस के समस्या को उत्पन्न करते हैं तथा ये उम्र जनित होते हैं. उम्र के साथ-साथ हमारा शरीर कमजोर होते जाता है, साथ ही हमारी अस्थियां एवं उनके जोड़ भी कमजोर पड़ते रहते हैं। हड्डी के मध्य में पाया जाने वाला तरल व चिकना पदार्थ (जो कि हड्डियों को घिसने से बचाता है) कम होने लगता है और ऐसे में हड्डियां आपस में घिसने लगती हैं, जिससे जोड़ों में दर्द होता है।आम धारणा के अनुसार वात रोग को वादी रोग भी कहते हैं। वात रोग में शरीर में अकडऩ / सुबह उठने में दर्द का अनुभव / जोड़ों में दर्द / ठंडी व बदली में दर्द होता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, हमारे शरीर में कमजोरी आने लगती है और हड्डियाँ कमजोर हो जाती है, जो वात रोग को बढ़ाता है। अत: इसके बचाव हेतु हमें सतर्क रहने की जरुरत है, जैसे परहेज करना, खान-पान में ध्यान देना, मालिस व सेकाई करना। आयुर्वेद में वात रोग का प्रमुख रूप से उल्लेख किया जाता है।शनि, मंगल एवं राहु यदि जन्मांग तथा दशम कुंडली में दो-एक के क्रम में किसी भाव में षष्ठेश या अष्टमेश से सम्बन्ध बनायें, और त्रिषडायेश में से कोई भी एक लग्नेश से बलवान हो, तो जटिल वात रोग होता है। राहु से कफ-वात, शनि से पित्तवात एवं मंगल से आमवात होता है। इसे ही आचार्य शुक्रवल्लभ एवं आचार्य रत्नाकर ने भी अपनी टीकाओं में थोड़े अंतर से लिखा है। किन्तु निगन्ध भट्ट एवं ऋषि उदच्यु पाद ने लिखा है कि यदि किसी भी तरह ये तीनो जन्मांग एवं त्रिशांश में किसी भी भाव में सम्बन्ध बनाते हैं तो वह वातव्याधि असाध्य होता है। अर्थात उसकी चिकित्सा नहींं है। ईश प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। उदाच्यु पाद का कथन अब तक के अनुभव में सत्य प्रमाणित हुआ है।आचार्य ऋतुसेन ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है- यदि लग्न चर राशि हो (मेष, कर्क, तुला एवं मकर) हो तथा मंगल जन्मांग में 1, 2, 3, 12 भावों में या त्रिशांश में 8, 9,10,11 भावों में हो तो संधिवात (जोड़ो का दर्द) होता है। यदि स्थिर (वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ) राशि का लग्न है तथा उपरोक्त स्थानों में मंगल है तो माँसपेशियों का दर्द, एवं यदि लग्न द्विस्वभाव राशि (मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन) का हो तो रक्त-पित्त-वात (कुष्ठ आदि) रोग होता है। इसी प्रकार यदि शनि उपरोक्त प्रकार से जन्मांग में 4, 5, 6एवं 7 भाव में तथा त्रिशांश में 12, 1, 2, एवं 3 भावों में हो तो उपर्युक्त रोग होते हंै। तथा यदि राहु उपरोक्त चर, स्थिर एवं द्विस्वभाव के प्रकार से जन्मांग में 8, 9, 10 एवं 11 भाव में तथा त्रिशांश में 4, 5, 6एवं 7 भाव में हो तो उपर्युक्त रोग होते है। किन्तु यदि किसी भी तरह इनकी युति अर्थात राहु के साथ शनि या मंगल की युति उपर्युक्त स्थानों में हो जाती है तो रोग असाध्य हो जाता है।अस्तु, वात, पित्त एवं कफ के कारण मूलत: राहु, शनि एवं मंगल है। इन ग्रहों की शांति के लिए यहां बताये गये ज्योतिषीय उपायों के साथ-साथ आयुर्वेदिक औषधियों का भी उपयोग करना चाहिए। जैसे रास्ना, गोखरू, चित्रकमूल, हरसिंगार, सुरजान, अशगंध, चव्य, इन्द्रजव, पाठा, वायविडंग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारंगी मूल, मूर्वा, वच एवं गिलोय ये सब वनस्पतियां है।वात रोग का अर्थ है वायु वाले रोग। जो लोग बिना कुछ अच्छा खाये पिये फूलते चले जाते है, शरीर में वायु कुपित हो जाती है, उठना बैठना दूभर हो जाता है। शनि यह रोग देकर जातक को एक जगह पटक देता है, यह रोग लगातार सट्टा, जुआ, लाटरी, घुड़दौड और अन्य तुरंत पैसा बनाने वाले कामों को करने वाले लोगों मे अधिक देखा जाता है। किसी भी इस तरह के काम करते वक्त व्यक्ति लम्बी सांस खींचता है, उस लम्बी सांस के अन्दर जो हारने या जीतने की चाहत रखने पर ठंडी वायु होती है, वह शरीर के अन्दर ही रुक जाती है, और अंगों के अन्दर भरती रहती है। अनीतिक काम करने वालों और अनाचार काम करने वालों के प्रति भी इस तरह के लक्षण देखे गये हैं।गठिया रोग शनि की ही देन है। शीलन भरे स्थानों का निवास, चोरी और डकैती आदि करने वाले लोग अधिकतर इसी तरह का स्थान चुनते है, चिन्ताओं के कारण एकान्त बन्द जगह पर पड़े रहना, अनैतिक रूप से संभोग करना, कृत्रिम रूप से हवा में अपने वीर्य को स्खलित करना, हस्त मैथुन, गुदा मैथुन, कृत्रिम साधनों से उंगली और लकड़ी, प्लास्टिक, आदि से यौनि को लगातार खुजलाते रहना, शरीर में जितने भी जोड़ हैं, रज या वीर्य स्खलित होने के समय वे भयंकर रूप से उत्तेजित हो जाते हैं। और हवा को अपने अन्दर सोख कर जोड़ों के अन्दर मैद नामक तत्व को खत्म कर देते हैं, हड्डी के अन्दर जो सबल तत्व होता है, जिसे शरीर का तेज भी कहते हैं, धीरे-धीरे खत्म हो जाता है, और जातक के जोड़ों के अन्दर सूजन पैदा होने के बाद जातक को उठने बैठने और रोज के कामों को करने में भयंकर परेशानी उठानी पड़ती है। इस रोग को देकर शनि जातक को अपने द्वारा किये गये अधिक वासना के दुष्परिणामों की सजा को भुगतवाता है।रोग शान्ति के उपाय:ग्रहों की विंशोत्तरी दशा तथा गोचर स्थिति से वर्तमान या भविष्य में होने वाले रोग का पूर्वानुमान लगा कर पीड़ाकारक ग्रह या ग्रहों का दान, जप, होम व रत्न धारण करने से रोग टल सकता है या उसकी तीव्रता कम की जा सकती है। ग्रह उपचार से चिकित्सक की औषधि के शुभ प्रभाव में भी वृद्धि हो जाती है। कुंडली के अनुसार औषधि का दान तथा रोगी की निस्वार्थ सेवा करने से व्यक्ति को रोग पीड़ा प्रदान नहींं करते। दीर्घ कालिक एवं असाध्य रोगों की शान्ति के लिए रुद्र सूक्त का पाठ, श्री महा-मृत्युंजय का जप, तुला दान, छाया दान, रुद्राभिषेक, पुरूष सूक्त का जप तथा विष्णु सहस्र-नाम का जप लाभकारी सिद्ध होता है। कर्म विपाक सहिंता के अनुसार प्रायश्चित करने पर भी असाध्य रोगों की शान्ति होती है। ज्योतिष शास्त्र में रोगों के दुष्प्रभावों से बचने के लिए दान आदि बताए गए हैं।माषाश्च तैलं विमलेन्दुनीलं तिल: कुलत्था महिषी च लोहम्।कृष्णा च धेनु: प्रवदन्ति नूनं दुष्टाय दानं रविनन्दनाय॥तेलदान, तेलपान, नीलम, लौहधारण आदि उपाय बताए गए हैं, वे ही आयुर्वेद में अष्टांगहृदय में कहे गए हैं। अत: चिकित्सक यदि ज्योतिष शास्त्र का सहयोग लें तो ग्रहों के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों को आसानी से पहचान सकते हैं।मध्यमा अंगुली को तिल के तेल से भरे लोहे के पात्र में डुबोकर प्रत्येक शनिवार को निम्न शनि मंत्र का 108जप करें तो शनि के सारे दोष दूर हो जाते हैं तथा मनोकामना पूर्ण हो जाती है।शनि मंत्र : प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
यजुर्वेद तथा भगवदगीता के अनुसार हमारा व्यवहार, विचार, भोजन और जीवनशैली तीन चीजों पर आधारित होती है वह है सत्व, तमस और राजस। सात्विक विचारों वाला व्यक्ति निश्चित स्वभाव का होता है जोकि उसे सृजनशील बनाता है वहीं राजसी विचारों वाला व्यक्ति महत्वाकांक्षी होता है जोकि स्वभाव में लालच भी देता है तथा तामसी व्यवहार वाला व्यक्ति नाकारात्मक विचारों वाला होने पर गलत कार्यो की ओर अग्रसर हो सकता है। मानव व्यवहार मूल रूप से राजसी और तामसी प्रवृत्ति का होता है, जिसके कारण जीवन में नाकारात्मक उर्जा बढ़ती है, जिससे साकारात्मक बनाने हेतु पुराणों में व्रत तथा उपवास पर जोर दिया गया है। ज्योतिषीय मान्यता है कि व्यक्ति की कुंडली में जो ग्रह प्रतिकूल होता है, उसके अनुसार व्यक्ति में उस क्षेत्र या स्थान से संबंधित नकारात्मकता दिखाई देती है। जीवन में नकारात्मक स्थिति को दूर करने तथा जीवन में साकारात्मक तथा सफलता प्राप्ति हेतु मानव जीवन में व्रत की उपयोगिता वैदिक काल से जारी है। जिसका आधार होता है कि उपवास पॉच ज्ञानेंद्रियों और पांच कर्मेद्रिंयों पर नियंत्रण करता है। अनुशासित बनाने तथा मन को आध्यामिक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करने हेतु उपवास तथा मंत्र जीवन में साकारात्मक दिशा देता है। उपवास जीवन में मानसिक शुद्धिकरण के अलावा शारीरिक शुद्धि हेतु भी सहायक होता है चूंकि उपवास के दौरान अनुष्ठान करने की परंपरा भी है अत: अनुष्ठान के दौरान किया जाना वाला जाप, ध्यान, सत्संग, दान शारीरिक शुद्धता के लिए भी कार्य करती है। भोग लगाने वाले पदार्थ जैसे फल, मेवा, दूध, धी आदि का सेवन भी सात्विक गुणों को बढ़ता है।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
प्रत्येक अंक व्यक्ति का मूल स्वभाव दिखाता है। बच्चे का मूल स्वभाव जानकर ही माता-पिता उसे सही तालीम या गाइडेन्स दे सकते हैं। आइए, जानें कैसा है आपके बच्चे का स्वभाव...मूलांक 1:ये बच्चे क्रोधी, जिद्दी व अंहकारी होते हैं, ये सदा स्वंतत्र रहना चाहते हैं और इनका अपना अलग ही व्यक्तित्व होता हैं । ये बच्चे अपने किसी भी कार्य में किसी का हस्तक्षेप पसन्द नहींं करते, हर समय कोई इन्हें टोकता रहे या सुझाव देता रहे ये भी इन्हें पसन्द नहींं होता। ये लोग अच्छे प्रशासनिक अधिकारी बनते हैं। इन्हें तर्क से नहींं, प्यार से समझाएँ ।मूलांक 2:ये शांत, समझदार, भावुक व होशियार बच्चे होते हैं। पढऩे-लिखने में इन्हें खास रूचि होती है। आमतौर पर ये जिद्दी नहींं होते हैं लेकिन ये अपनी चीजों के प्रति काफी संजिदा होते हैं इसलिए इनका बर्ताव कभी-कभी अडिय़ल भी हो जाता है। इनको अपने माता-पिता का सेवा करना अच्छा लगता है। जरा सा तेज बोलना इन्हें ठेस पहुँचा सकता है। इनसे शांति व समझदारी से बात करें।मूलांक 3:ये बच्चे काफी तेज दिमाग के, समझदार और ज्ञानी होते हैं। इसी के चलते इन में अक्सर घमंड की भावना आ जाती है। लोकप्रियता एवं आकर्षण का केन्द्र बनने की इनमें गहरी चाहत होती है। जहां इन्हें ये चीजें नहींं मिलती हैं वहां जाना यह पसंद नहींं करते हैं, इसलिए इन्हें कभी इग्नोर ना करें। इन्हें समझाने के लिए आपके पास खुद पर्याप्त कारण व ज्ञान होना जरूरी है ।मूलांक 4:ये बच्चे बेपरवाह, खेलने में अव्वल और एकदम कारस्तानी होते हैं। रिस्क लेना इनका स्वभाव होता है। इन्हें अनुशासन में रखना मुश्किल लेकिन बेहद जरूरी है। ये बच्चे बहुत ही संवेदनशील होते है, इनकी भावनाओ को शीघ्र ही ठेस पहुंचती है और फिर यह अपने आपको अकेला महसूस करते है। डांट से नहींं प्यार से काम लें।मूलांक 5:ऐसे बच्चे बहूमुखी प्रतिभा के धनी होते हैं। 5 अंक साहस, उत्साह और बदलाव का प्रतीक है। ये बुद्धिमान, शांत और आशावादी होते हैं। रिसर्च के कामों में रूचि लेते हैं। इनके साथ धैर्य से व शांति से बातचीत करें।मूलांक 6:अगर आपके बच्चे का मूलांक 6है तो इस बात का ध्यान रखें की वो हमेशा झूठ बोलने से कतराएगा। इसलिए जब वह आपसे कोई बात करे तो उसकी बात हमेशा सुनें। ये बच्चे हँसमुख, शौकीन मिजाज व कला प्रेमी होते हैं। खाओ-पियो, मस्त रहो पर जीते हैं। इन्हें सही संस्कार व सही दिशा-निर्देश जरूरी है। जब इनको गुस्सा आता है तो ये किसी प्रकार का विरोध सहन नहींं करते हैं।मूलांक 7:ऐसे बच्चे जल की तरह ही चंचल और स्वतंत्र प्रवत्ती के होते हैं। ये लोग भावुक, निराशावादी, तनिक स्वार्थी मगर तीव्र बुद्धि के होते हैं। विचारों में मौलिकता के कारण ही ये बच्चे लेखक या अच्छे पत्रकार बन सकते है, पर इन्हें कड़े अनुशासन व सही मार्गदर्शन की जरूरत होती है।मूलांक 8:ये बच्चे थोड़े भावुक, अति व्यावहारिक, मेहनती व व्यापार बुद्धि वाले होते हैं। इनके जीवन में देर से गति आती है पर ये अपनी धुन के पक्के होते हैं। अनजाने में भी यह किसी के मन को तकलीफ देना नहींं चाहते हैं। इन्हें अपनी सादगी एवं सीधेपन के कारण कई बार नुकसान भी उठाना पड़ता है। इन्हें सतत सहयोग व अच्छे साथियों की जरूरत होती है इसलिए इनके उपर नजर रखें और कभी भी इन्हें डांटते समय कठोर शब्द का प्रयोग ना करें।मूलांक 9:9 का अंक सबसे श्रेष्ठ अंक है। ऐसे बच्चे ऊर्जावान, शैतान व तीव्र बुद्धि के होते हैं पर एकदम विद्रोही। माता-पिता से अधिक बनती नहींं है। प्रशासन में कुशल होते हैं। इनकी ऊर्जा को सही दिशा देना व इन्हें समझना बहुत जरूरी होता है।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक है तो रिश्ते भी होंगे ही। वैसे तो प्रेम एक ऐसी भावना है जो मनुष्य तो मनुष्य, मूक पशुओं तक से रिश्ता जोड़ देती है। रिश्ते भी कई प्रकार के होते हैं। इनमें सबसे बड़ा रिश्ता है परिवार का, जो आपको कई-कई रिश्तों में बांध देता है।एक बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो वह किसी को मां, किसी को पिता, किसी को भाई, बहन, चाचा, मामा, दादा-दादी या नाना-नानी बनाता है। कुछ रिश्ते केवल कामकाजी होते हैं, और कुछ ऐसे कि जिनका कोई नाम नहींं होता पर वे नामधारी रिश्तों से ज्यादा पक्के होते हैं। कुछ रिश्ते हमें जन्म से मिलते हैं और कुछ हम बनाते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा अहम होता है पति-पत्नी का रिश्ता, जो कहा जाता है कि सात जन्मों का होता है। कुछ रिश्ते मुंहबोले भी होते हैं। कुछ रिश्ते केवल विश्वास से बनते हैं, और जैसे ही विश्वास टूटा, रिश्ते भी बिखर जाते हैं। कुल मिलाकर रिश्ते, एक ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं जिसमें हम में से हर एक कभी न कभी उलझता ही है। हर तरह के रिश्तों में कभी न कभी दरार आ ही जाती है। इस बात से कोई फर्क नहींं पड़ता कि आपका संबंध कितना अंतरंग और मजबूत है। आमतौर पर अलग-अलग विचार और एक दूसरे से अलग-अलग अपेक्षाओं के कारण रिश्तों में खटास पैदा हो जाती है। रिश्तों के शुरुआती दौर में ही यह पनपने लगती है और समय के साथ-साथ रिश्ते में दरारें दिखने लगती हैं। यह महत्वपूर्ण नहींं कि रिश्तों में खटास पैदा होने के बाद बातचीत की शुरुआत कौन करता है। महत्वपूर्ण यह है कि आप एक स्वस्थ बातचीत के जरिए मामले को किस तरह सुलझा सकते हैं। ज्योतिष में मान्य बारह राशियों के आधार पर जन्मकुंडली में बारह भावों की रचना की गई है। प्रत्येक भाव मनुष्य जीवन के विभिन्न रिश्तों को दर्शाता है।1. प्रथम भाव: यह लग्न भी कहलाता है। इस स्थान से व्यक्ति के स्वयं का शरीर, यश-अपयश, पूर्वज, सुख-दुख, आत्मविश्वास, अहंकार, मानसिकता आदि को जाना जाता है। इस भाव से व्यक्ति का अपने रिश्तों के प्रति समर्पण तथा जुड़ाव देखा जाता है।2. द्वितीय भाव: इसे धन भाव भी कहते हैं। इससे व्यक्ति के परिवार के सभी लोगों से रिश्ता तथा उस रिश्ते का सुख के बारे में जाना जाता है।3. तृतीय भाव: इसे पराक्रम का सहज भाव भी कहते हैं। इससे जातक के छोटे भाई-बहन, नौकर-चाकर, पड़ोसियों आदि से रिश्तों का विचार किया जाता है।4. चतुर्थ स्थान: इसे मातृ स्थान भी कहते हैं। इससे मातृसुख, मित्र आदि का विचार किया जाता है।5. पंचम भाव: इसे सुत-भाव भी कहते हैं। इससे संतति, बच्चों से मिलने वाला सुख, प्रेम संबंध का विचार किया जाता है।6. छठा भाव: इसे शत्रु या रोग स्थान भी कहते हैं। इससे जातक के शत्रु, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर आदि का विचार किया जाता है।7. सातवाँ भाव: विवाह सौख्य, जीवनसाथी का स्वभाव, पार्टनर से रिश्ता आदि का ज्ञान इस भाव से होता है।8. आठवाँ भाव: इस भाव को मृत्यु स्थान कहते हैं। इससे आयु निर्धारण, और जातक के जीवन में आने वाले दुख का पता चलता है।9. नवाँ भाव: इसे भाग्य स्थान कहते हैं। यह भाव गुरु, भाई की पत्नी, दूसरा विवाह आदि के बारे में बताता है।10. दसवाँ भाव: इसे कर्म स्थान कहते हैं। इससे बॉस, सामाजिक सम्मान, पितृ सुख, सासू माँ आदि के बारे में पता चलता है।11. ग्यारहवाँ भाव: इसे लाभ भाव कहते हैं। इससे मित्र, बहू-जँवाई के बारे में जाना जाता है।12. बारहवाँ भाव: इसे व्यय स्थान भी कहते हैं। इससे चाचा, पिता के रिश्ते और गुप्त शत्रु का विचार किया जाता है।रिश्तों का लाभ प्राप्त करने के लिए सूर्य का लग्न, चौथे, साँतवे या दसवें घर में होना जरूरी है। यदि वह मेष अथवा मकर राशि का भी हो तो सोने पे सुहागे का काम करता है। सिंह राशि का पाँचवें घर होना जरूरी है। चन्द्रमा, धरती व सूर्य की राशि का व धनु राशि का हो तो अधिक तन्मयता से सफऱ के किसी भी मुकाम पर, छोटी से छोटी मुलाकात, आत्मिक रिश्ते बना सकती है। और ये रिश्ते वो सब दिला सकती है जिसकी कल्पना भी साधारण रूप में नहींं कर सकते हैं।किंतु अगर किसी रिश्ते में कटुता आ गई हो या रिश्ता टूटने की कगार पर आ गया है तब सामान्य प्रयास करने के साथ ज्योतिषीय विश£ेषण भी किया जाना आवश्यक है जिसमें बैठकर शांत मन से सोचें कि आपके बीच ऐसा क्या हुआ था जो ऐसी स्थिति पैदा हो गई है। अपने आपसी मतभेदों को प्यार और समझदारी से सुलझाने की कोशिश करें। और इरादा करें कि उन्हें फिर नहींं दोहराएंगे। आपकी अपने उस रिश्तें से आपको क्या अपेक्षाएं हैं और यह भी जानने का प्रयास करें कि आपसे सामने वाले को क्या परेशानी आ रही है। बहस में ना उलझें और विवाद को सुलझाने का प्रयास करते हुए अपनी गलतियों पर माफी मांगने में ना हिचकें।अपने रिश्तों को अगर बचाना है तो दोनों का खुल कर बात करना बहुत जरूरी है। इस तरह दोनों को बेहतर तरीके से सोचने का मौका मिलेगा। इस बातचीत के दौरान अपने अतीत को ना कुरेदें और ना ही उसे दोहराएं। अगर आप उसे दोहराएंगे तो इससे आप दोनों ही आहत होंगे। पहले किसने क्या किया, इस बहस में ना उलझें। याद रखें, आप बात बनाने के लिए बैठे हैं बिगाडऩे के लिए नहींं। आपको अपने रिश्तों को नीचा नहींं दिखाना है। आपको उन बातों का पता लगाना है जिनसे आपके संबंधों में दरार आई है। इस बात पर आरोप-प्रत्यारोप ना करने लग जाएं। जब संबंधों में दरार आ जाती है तो उस रिश्ते के लिए भावनाएं या तो खतम हो जाती है या फिर बुरी भावनाएं आती है। ऐसे में अगर आप रिश्ता संभालने में असमर्थ हैं तो बेवजह रिश्ते को ना ढोएं। रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं, इन्हें प्यार, सामंजस्य और समझदारी से निभाने की जरुरत होती है।कई बार रिश्तों में आप कितना भी प्यार या सामंजस्य रखने के बाद भी रिश्तों में कटुता दिखाई देती है वहीं कई रिश्ते, औपचारिक होकर भी सुख देते हैं, इसका ज्योतिषीय कारक है कि जब किसी भी रिश्तें का भाव या भावेश अपने उच्च स्थान या मित्र राशि अथवा शुभ हो तो वह रिश्ता आपके लिए लाभकारी तथा सुखदायी होता है। वहीं पर कुछ रिश्तें अगर विपरीत कारक बैठें हों या नीच अथवा शत्रु भाव में हो जायें तो वे रिश्तें दुख तथा हानि का कारण बनते हैं। अत: अगर आपके लाख कोशिशें के बाद भी कोई रिश्ता आपके लिए शुभ ना हो रहा हो तो ज्योतिषीय विश£ेशण कर उन रिश्तों के लिए उचित ज्योतिषीय निदान करने के उपरांत अपने रिश्तो को नया रूप देना चाहिए। जैसे कि कभी पड़ोसियों से रिश्ता बिना कारण खराब हो रहा हो तो अपनी कुंडली में देखें कि तृतीयेश की स्थिति कैसी है और उसकी दशा अथवा अंतरदशा तो नहीं चल रही है। अगर उस भाव या भावेश की स्थिति खराब हो अथवा छठे, आठवे या बारहवे बैठा हो तथा गोचर में ग्रहों की दशा या अंतरदशा चल रही हो तो उन ग्रहों की शांति कराने से उस रिश्तें में मजबूती लाई जा सकती है। इस प्रकार कुंडली के बारह भावों में से जिस भाव की स्थिति खराब हो उसे ग्रहों की शांति, ग्रह मंत्रों का जाप अथवा ग्रहों के वस्तुओं के दान से उस स्थान से जुड़े रिश्तों को बेहतर किया जा सकता है।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
''देवोत्थान-एकादशी के दिन मनाया जाने वाला तुलसी-विवाह, विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है। देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का अह्वान। कार्तिक, शुक्ल पक्ष, एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव मनाया जाता है। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक, शुक्ल पक्ष, नवमी की तिथि ठीक है, परन्तु कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। आयोजन बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसे हिन्दू रीति-रिवाज से सामान्य वर-वधु का विवाह किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि ''देवशयनी-एकादशी के दिन से सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु विश्रामावस्था अर्थात अपने शयनकक्ष में चले जाते हैं। इसी दिन से शादी-ब्याह, व्रतबंध, गृह प्रवेश जैसे मांगलिक कार्यों पर विराम लग जाता है। ''देवउठनी-एकादशी की तिथि से भगवान के जागने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी और समस्त मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाएगी।धार्मिक मान्यता:मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। इस विवाह में शालिग्राम- वर और तुलसी- कन्या की भूमिका में होती है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे को यानी लड़की को लाल चुनरी-ओढऩी ओढ़ाई जाती है। तुलसी-विवाह में सोलह शृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखे जाते हैं। शालिग्राम को दोनों हाथों में लेकर तुलसी के सात चक्कर लगाने चाहिए और इस तरह से धूम-धाम से शालिग्राम और तुलसी का विवाह करना चाहिए। विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ भी कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है। समस्त विधि, विधान पूर्वक गाजे-बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है, विवाह के स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है।विधि-विधान से तुलसी पूजन एवं तुलसी विवाह करने से भगवत् कृपा द्वारा घर में सुख-शांति, समृद्धि का वास होता है। हिन्दुओं के संस्कार अनुसार सभी शुभ-मांगलिक कार्यों में तुलसीदल अनिवार्य माना गया है।तुलसी घर-आँगन के वातावरण को सुखमय तथा स्वास्थ्यवर्धक बनाती है इसलिए प्रतिदिन तुलसी में जल देना तथा उसकी पूजा करना आरोग्यदायक है। कार्तिक माह में सुबह स्नान आदि से निवृत होकर तांबे के बर्तन में जल भरकर तुलसी को जल देना चाहिए तथा संध्या समय में तुलसी जी के चरणों में शुद्ध देसी घी का दीपक अवश्य जलाना चाहिए। तत्पश्चात श्रद्धा एवं सामथ्र्य अनुसार धूप, सिंदूर, चंदन लगाकर नैवेध तथा पुष्प अर्पित कर घर में सुख, शांति का वरदान मां तुलसी एवं विष्णु भगवान से मांगना चाहिए। केवल कार्तिक माह में ही नहींं बल्कि प्रतिदिन तुलसी को देवी रूप में हर घर में पूजा जाना चाहिए। इसकी नियमित पूजा से व्यक्ति के पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि मिलती है।तुलसी पूजन की सामान्य सामग्री:तुलसी पूजा के लिए गन्ना (ईख), विवाह मंडप की सामग्री, सुहागन स्त्री की संपूर्ण सामग्री, घी, दीपक, धूप, सिंदूर, चंदन, नैवद्य और पुष्प आदि।तुलसी पूजन का श्रेष्ठ मुहूर्त:शाम 7.50 से 9.20 तक शुभ चौघडिय़ा में तुलसी पूजन करें।तुलसी के आठ नाम:धर्मशास्त्रों के अनुसार तुलसी के आठ नाम बताए गए हैं- वृंदा, वृंदावनि, विश्व पूजिता, विश्व पावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी और कृष्ण जीवनी।तुलसी विवाह की पूजन विधि:तुलसीजी के विवाह हेतु मां तुलसी के पौधे के गमले को गेरु से सजाना चाहिए, गमले के चारों ओर ईख (गन्ने) का मंडप बनाकर गमले के ऊपर ओढऩी या सुहाग की प्रतीक चुनरी ओढ़ाई जाती है। उसके बाद गमले को साड़ी में लपेटकर तुलसीजी को चूड़ी पहनाकर उनका श्रृंगार किया जाता है।पूजन:श्री गणेश जी की वन्दना के साथ प्रारम्भ करके सभी देवी-देवताओं का तथा श्री शालिग्रामजी का विधिवत पूजन करना चाहिए। पूजन करते समय तुलसी मंत्र (तुलस्यै नम:) का जप करें। इसके बाद एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें। भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा करें। आरती के पश्चात विवाहोत्सव पूर्ण किया जाता है। विवाह में जो सभी रीति-रिवाज होते हैं उसी तरह तुलसी विवाह के सभी कार्य किए जाते हैं। विवाह से संबंधित मंगल गीत भी गाए जाते हैं। तुलसी पूजा करने के कई विधान, शास्त्रों में वर्णित हैं, उनमें से गृहस्थों के लिए ''तुलसी-नामाष्टक का पाठ करने का विधान है। तुलसी विवाह के समय एवं कार्तिक मास में प्रतिदिन तुलसी नामाष्टक का पाठ विशेष लाभदायक रहता है।* जो व्यक्ति तुलसी-नामाष्टक का नियमित पाठ करता है उसे अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है।तुलसी नामाष्टक:वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी, पुष्पसारा नन्दनीच तुलसी कृष्ण जीवनी।एतभामांष्टक चौव स्तोत्रं नामर्थं संयुतम, य: पठेत तां च सम्पूज सौश्रमेघ फलंलमेता।।पुराणों में वर्णित है, लक्ष्मी और तुलसी का सम्बन्ध भगवान विष्णु के साथ होने के कारण जिस घर में नियमित रूप से तुलसीजी का पूजन विधि-विधान एवं श्रद्धापूर्वक होता है, वहीं लक्ष्मी जी निवास करती हैं।तुलसी विवाह कथा:प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह सर्वजयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे। यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ। वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है, अत: तुम पत्थर के बनोगे। विष्णु बोले, हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा। बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीकात्मक विवाह है।तुलसी की पूजा से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है, धन की कोई कमी नहींं होती, इसके पीछे धार्मिक कारण है। तुलसी में हमारे सभी पापों का नाश करने की शक्ति होती है, इसकी पूजा से आत्म शांति प्राप्त होती है। तुलसी को लक्ष्मी का ही स्वरूप माना गया है। विधि-विधान से इसकी पूजा करने से महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और इनकी कृपा स्वरूप हमारे घर पर कभी धन की कमी नहींं होती। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को तुलसी-विवाह का उत्सव मनाया जाता है। इस एकादशी पर तुलसी विवाह का विधिवत पूजन करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in
हस्तरेखाओ के माध्यम से व्यक्ति के चरित्र का चित्रण भी बहुत अच्छी तरह से किया जाता है। हाथ की लकीरों को देखकर हस्तरेखा के विद्वान यह बता सकते हैं कि हाथ की वह कौन सी रेखाएँ अथवा चिन्ह हैं जिनसे व्यक्ति के गुण-अवगुण दिखाई देते हैं। आईये हम यहां देखते हैं कि ऐसी कौन सी रेखाएं है कि जिनसे यश और अपयश का योग बनता है...यश योग:* हाथ में स्थित गुरु-प्रधान व सूर्य-प्रधान व्यक्ति के कुमार्ग पर चलने की संभावना नहींं होती है. ऐसे लोग किसी भी तरह से बुरे कामों से संबंध नहींं रखते हैं. ऐसा कोई काम नहींं करते हैं जिसे करने से वह बदनामी के घेरे में आएं।* जिस व्यक्ति के नाखूनों का आकार गोल होता है, वह व्यक्ति मित्रता के सभी कर्तव्य निभाता है और ऐसे व्यक्ति को अच्छे मित्रता के लिए यश की प्राप्ति होती है।* नाखूनों में गुलाबी रंग की चमकीली आभा व्यक्ति के सहृदय को दिखाती है। ऐसा व्यक्ति अच्छे दिल वाला होता है और ऐसे व्यक्ति की पहचान खुले दिल के तौर पर होती है।* यदि किसी व्यक्ति के हाथ में हृदय रेखा और मस्तिष्क रेखा, शाखाओं से युक्त हो लेकिन उनकी शाखाएँ एक-दूसरे से टकराती ना हों, साथ ही इन दोनों मुख्य रेखाओं के बीच फासला भी अच्छा हो तब ऐसा व्यक्ति सदगुणों से भरा होता है।* हाथ की रेखाएँ पतली हों और बिना किसी दोष के स्थित हों तो ऐसा व्यक्ति सदगुणी होता है।* व्यक्ति के हाथ में मंगल रेखा पतली हो और वह जीवन रेखा से दूर हो, हाथ में गुरु मुद्रिका बनी हो या हाथ में गुरु पर्वत पर क्रॉस बना हो या गुरु पर्वत पर आड़ी, तिरछी अथवा खड़ी रेखा बनी हो तो ऐसे व्यक्ति के अंदर बहुत से गुणों का भंडार होता है, और ऐसे व्यक्ति को सभी लोग पसंद करते हैं।* यदि हाथ में सीधी तथा लंबी अंगुलियाँ हों और जब हाथ को फैलाएँ तब यह अंगुलियाँ जापानी पंखे की तरह अलग-अलग फैल जाएँ तथा इन सभी अंगुलियों का झुकाव हथेली से बाहर की ओर हो, तो व्यक्ति यश अवश्य प्राप्त करता है।अपयश योग:किसी-किसी जातक को जीवन में हमेशा अपयश का ही सामना करना पड़ता है। नीचे कुछ ऐसी रेखाओं की चर्चा की गई है जिनके योगों से व्यक्ति अपयश को प्राप्त करता है। आईये देखते हैं क्या हैं वे रेखाएं और चिह्न:* जिन व्यक्तियों के हाथ में बुध पर्वत विकसित होता है वह व्यक्ति कुछ ज्यादा ही चतुर होते हैं और ज्यादा चतुराई के कारण लोग उन्हें बुरा बोलते हैं।* जिनकी कनिष्ठिका अंगुली लंबी और मोटी होती है अथवा टेढ़ी होती है ऐसे व्यक्ति बहुत चालाक होते हैं। ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी कुमार्ग पर जा सकते हैं जिसके कारण उनके जीवन में अपयश आती है।* व्यक्ति कि हथेली में सूर्य रेखा पर धब्बे या गड्ढे हों या क्रॉस का निशान बना हो तब व्यक्ति के एक उम्र विशेष में बदनामी के योग बनते हैं। यदि इसके बाद भी सूर्य रेखा बन रही हो तब कुछ समय मानसिक परेशानी के बाद सब कुछ शांत हो जाता है।* यदि किसी के हाथ में अन्य उपरोक्त दोषों के साथ बुध रेखा लहरदार हो या बुध पर्वत पर जाल बना हो या बुध पर्वत पर स्टार जैसा निशान बना हो तब ऐसा व्यक्ति अपयश प्राप्त कर सकता है।* हाथ में तर्जनी अंगुली छोटी है और गुरु पर्वत दबा हुआ हो तब बदनामी के योग बनते हैं।* अन्य दोषों के साथ व्यक्ति का हाथ पतला भी हो तब बदनामी के योग बनते हैं।* हाथ में शनि रेखा मोटी हो या दूषित हो तब भी अपयश मिल सकता है।* यदि शनि रेखा मध्यमा अंगुली के तीसरे पोर तक प्रवेश कर जाए तब बुढ़ापे में अपयश मिलने की संभावना बनती है।* यदि किसी व्यक्ति के हाथ में दूषित मस्तिष्क रेखा हो तब भी अपयश मिलने की संभावना बनती है।* हाथ में हृदय-रेखा बनी ही ना हो या फिर हृदय रेखा छोटी हो तब भी अपमान मिलने की संभावना बनती है।* हाथ में मंगल रेखा की एक शाखा चंद्र पर्वत तक जा रही हो और व्यक्ति का हाथ गुदगुदा हो या पतला हो तब ऐसे व्यक्ति को व्यसन की आदत होती है, जिसके कारण उसे अपयश प्राप्त होता है।* यदि हाथ में मंगल रेखा की एक शाखा चंद्र पर्वत पर जा रही हो और व्यक्ति का हाथ भारी व सख्त हो तब वह अत्यधिक कामी हो सकता है, जो उसके जीवन में कई बार अपयश दिलाता है।
Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in