Friday, 2 October 2015

देश में भ्रष्टाचार का मकड़ा जाल और उसके ज्योतिषीय पहलू

भारतीय परिदृश्य में भ्रष्टाचार को देखा जाये तो हम सबसे पहले यहाँ की दशा और दिशा को समझने का प्रयास करेंगे। भ्रष्टाचार का अर्थ- किसी व्यक्ति या समाज द्वारा अपने भाग्य या पुरुषार्थ से ज्यादा पाने की चाह। स्वार्थ में लिप्त होकर कोई भी किया गया गलत कार्य भ्रष्टाचार होता है। भ्रष्टाचार का दायरा विशाल है। भ्रष्टाचार के कई रूप हैं- रिश्वत, कमीशन लेना, काला बाजारी, मुनाफाखोरी, मिलावट, कर्तव्य से भागना, चोर-अपराधियों को सहयोग करना, अतिरिक्त गलत कार्य में रुचि लेना आदि सभी अनुचित कार्यों को भ्रष्टाचार कहा जायेगा। धन संपदा का उपार्जन एवं संचय चिर काल से मानव मात्र के लिये जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रसंग बना रहा है परन्तु आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में यह अधिकांश व्यक्तियों के जीवन का एकमात्र अभीष्ट बन कर रह गया है। विगत कुछ दशकों से आर्थिक सम्पन्नता को ही जीवन में सफलता का एकमात्र मापदंड मान लेने का चलन व भारतीय सामाजिक संरचना में उपभोक्तावादी संस्कृति को सर्वोपरि और सर्वमान्य बनता जा रहा है। समाज में विलासितापूर्ण जीवन शैली का महिमामंडन जन साधारण के शब्दकोष से संतोष, परिश्रम, कर्तव्य, निष्ठा और ईमानदारी जैसे शब्दों को मिटा देती हैं। धनोपार्जन की क्षमता से अधिक व्यय की परिस्थितियों में अधिकांश व्यक्ति अपनी नैतिकता को दांव पर लगा देते हैं। निर्विवाद रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण कम प्रयास में ज्यादा की चाह और अपनी क्षमता, भाग्य और पुरुषार्थ की तुलना में जल्दी साधन संपन्न बनना और धन लोलुपता है। हमारे शास्त्र में जहा मान्य था की साई इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाय पर अब उससे उलट भूख समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। इसमें कोई संदेह नहीं कि नैतिक, वैचारिक, आत्मिक और चारित्रिक पवित्रता, भ्रष्टाचार के रक्तबीज का नाश करने में सक्षम होगी और एक सार्थक सामाजिक परिवेश का सृजन करेगी। किन्तु इसका समाप्त हो पाना कठिन है क्यूंकि भारत की कुंडली में लग्न का राहू उच्च स्तर पर चारित्रिक पवित्रता का निर्माण नहीं करेगा और इस प्रकार सुचिता बना पाना मुश्किल है।
भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति-
दुर्भाग्य से भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वैसे देखा जाए तो सारे विश्व में भ्रष्टाचारी राक्षस का आतंक फैला हुआ है। भारत के सारे क्षेत्र प्रशासनिक से लेकर शैक्षिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का राज है। इसे ज्योतिष से देखा जाये तो लग्नस्थ राहू चारित्रिक पवित्रता का अभाव, भाग्येश और दशमेश शनि तीसरे स्थान में सूर्य के साथ होने से भाग्य और पुरुषार्थ की कमी और तृतीयेश चंद्रमा तीसरे स्थान में होकर एकाग्रता में भारी कमी कर रहा है। जिसके कारण आज तक भ्रष्टाचार की स्थिति में कोई बहुत परिवर्तन नहीं आ सका। आज जब मै ये लिख रहा हु तब की स्थिति में वृश्चिक लग्न में भाग्येश और दशमेश शनि सप्तम स्थान में होने से पार्टनर का पूरा प्रभाव भाग्य एवम पुरुषार्थ पर है और तृतीयेश चंद्रमा अपने स्थान से बारहवे होने से स्वभाव में सुचिता की कमी है।
राजनीतिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
आज कल सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार राजनैतिक क्षेत्र में हो रहा है। मंत्रियों को अमीर एवं धनी व्यक्तियों से धन लेकर अपराधियों को देना पड़ता है। ताकि वे चुनाव जीत जाएँ। फलस्वरूप चुनाव जीतने के बाद और व्यक्तियों की स्वार्थ पूर्ण शर्त पूरी हो जाती है। किसी देश या व्यक्ति की कुंडली में राहु तथा सूर्य, गुरू इत्यादि का प्रभावी होना भी राजनीति का कारक माना जाता है। चूकि राहु को नीतिकारक ग्रह का दर्जा प्राप्त है वहीं सूर्य को राज्यकारक, शनि को जनता का हितैषी और मंगल नेतृत्व का गुण प्रदाय करता है। इसलिए इन ग्रहों का अनुकूल होना राजनीति में नैतिक, वैचारिक, आत्मिक और चारित्रिक पवित्रता का धोतक है किन्तु भारत की कुंडली में सरे गृह विपरीत कारक होने से राजनीति से भ्रष्टाचार समाप्त कर पाना कठिन होगा। इस समय जब ग्रहों ही स्थिति बहुत अनुकूल नहीं है तो ये कहना अतिशयोक्ति होगा।
शैक्षिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
शैक्षिक क्षेत्र भी भ्रष्टाचार से बचा नहीं है। अध्यापक के पास जो छात्र ट्यूशन लेते हैं, उन्हें परीक्षा में ज्यादा नंबर मिल जाते हैं, जबकि जो छात्र पढऩे में अच्छा हो, उसे कम अंक मिलते हैं। नौकरी और डिग्रियों के लिए भी रिश्वत लेकर दी जाती है। किसी भी कुंडली में दूसरा तथा पांचवा स्थान शिक्षा का होता है। भारत की स्थिति में दूसरे तथा पांचवे का स्वामी बुध, सूर्य-शनि से आक्रांत होकर तीसरे स्थान में है, जिसके कारण बुध का व्यवहार शिक्षा के प्रति उदासीन ही रहा है। चूंकि शनि दशम भाव एवं सूर्य चतुर्थ भाव का कारक है अत: कभी सत्ता तो कभी सम्पन्नता शैक्षणिक क्षेत्र में गुणवत्ता लाने में बाधक बनती रही है।
चिकित्सा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
पैसे वाले आदमी एवं अमीर व्यक्तियों का इलाज पहले किया जाता है, लेकिन गरीब व्यक्ति का चाहे जितनी बड़ी उसकी बीमारी हो, उसकी अवहेलना की जाती है। दवाइयों में मिलावट की जाती है, जो रोगी के लिए बहुत खतरनाक होता है। ज्योतिषीय नजरिये से यदि हम चिकित्सा को देखें तो छटवा स्थान रोग का स्थान है। भारत की कुंडली में रोगेश शुक्र तीसरे स्थान हैं। सूर्य-शनि से आक्रांत होकर तीसरे स्थान में है, जिसके कारण चिकित्सा में चिकित्सकों के उपर प्रशासन एवं सत्ता का दबाव चिकित्सा हित में भ्रष्टाचार को समाप्त करने में असफल है।
धार्मिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
धार्मिक क्षेत्र भी भ्रष्टाचार से बचा नहीं है। हर किसी को मंदिर जाने से पहले पैसे लेकर जाना पड़ता है, पुजारी की साधन दक्षिणा के लिए। धार्मिकता वर्तमान में चंद लालची लोगों के कारण पाखण्ड बनकर रह गया है जिसका मुख्य ज्योतिषीय कारण है धार्मिक प्रवृत्ति का नवम तथा द्वादश स्थान से देखा जाता है। भारत की कुंडली में नवम, शनि, सूर्य तथा शुक्र के साथ बैठ कर धर्म को भोग से लिप्त कर रहा है वहीं सूर्य के साथ होकर धर्म की सुचिता समाप्त कर रहा है। इसी प्रकार द्वादश स्थान पर शनि की दृष्टि धर्म से नैतिकता समाप्त कर भ्रष्ट आचार अध्यारोपित कर रहा है।
व्यापार के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-
खाद्य पदार्थों से लेकर प्रत्येक चीज में मिलावट हो रही है, किसी में ईंट तो किसी में रेत मिला हुआ होता है। सीमेंट में भी ज्यादा रेत मिलाकर कमजोर गगनचुंबी इमारतें बनाई जाती हैं। सभी प्रकार से कार्यालय में भी रिश्वत से ही काम होता है। कार्यव्यापार तथा अवसर को दशम तथा एकादश स्थान से देखने पर दशम भाव का कारक शनि एवं एकादश भाव का कारक गुरू दोनों अपने स्थान से छटवे, आठवे हो जाने के कारण व्यापारिक क्षेत्र में अनैतिक लाभ की चाहत को बढ़ावा देने वाला साबित हो रहा है।
भ्रष्टाचार वृद्धि के कारण-
समाज में भ्रष्टाचार वृद्धि के कारण तो अनेक हैं, उनमें से कुछ मुख्य कारण हैं-
धन को सम्मान- आजकल अमीर आदमियों का ही समाज में सम्मान है। सच्चरित्र व्यक्तियों की कोई इज्जत नहीं करता, क्योंकि उसके पास धन नहीं होता है। इसलिए सच्चरित्र व्यक्ति भी भ्रष्टाचार अपनाने लगा है।
धन कमाने की तृष्णा- धन की तृष्णा में जलता हुआ आदमी बाहरी साज-सज्जा के लिए, भोग विलास के लिए पैसा कमाना चाहता है और इसके लिए सबसे लघुतम साधन है, भ्रष्टाचार। आदमी इतना स्वार्थी हो गया है कि वह भ्रष्टाचार फैलाकर दुनिया भर की सम्पत्ति अपने पेट में, मुँह में, घर में भर लेना चाहता है।
भ्रष्टाचार का समाधान-
समाज से भ्रष्टाचार को दूर करने का सबसे सरल साधन है-
1.जन चेतना: बच्चों को विद्यालय, घर एवं गुरुजनों से अच्छे संस्कार मिलने चाहिए, जिससे कि वह भ्रष्टाचार और सदाचार में अंतर समझ सकें और आगे चलकर सदाचार को अपनायें।
2. सरकारी अधिकारियों के विवेकाधिकार को सीमित करने से भी भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है।
3. अगर ऊँचे पद के अधिकारी भ्रष्टाचार नहीं करेंगे तो छोटा कर्मचारी भी नहीं करेगा।
4. जन आंदोलन से भी भ्रष्टाचार को दूर किया जा सकता है।
5. सरकार भी भारत देश में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए जन आंदोलन से जागृत होकर जनलोकपाल बिल पर अमल कर रही है, जिससे की देश से भ्रष्टाचार कम हो जाए।
6. सरकारी अधिकारी या मंत्रियों के खिलाफ अगर कोई भी मामला दर्ज होता है, तो तीन माह के अंदर उन्हें अपने आपको सच्चा प्रमाणित करना पड़ेगा, नहीं तो उन्हें दंड दिया जायेगा।
७. पुलिस, आर.टी.आई. कानून से भी सरकार भ्रष्टाचार को कम करने में सफल हो सकेगी।
इन सभी समाधानों के अलावा सबसे अच्छा एवं सक्रिय समाधान यह है कि अगर राजा एवं प्रजा दोनों सचेत हो जाएँ तथा सच्चे सदाचार को अपना लें, तो भ्रष्टाचार का नामो निशान मिट जायेगा। जनता एवं सरकार दोनों को जागृत होना पड़ेगा। कहा जाता है- यथा राजा तथा प्रजा, इस तरह समाज से भ्रष्टाचार दूर हो कर सदाचार पनप सकता है।
भ्रष्टाचार के ज्योतिषीय समाधान:
भारत की कुंडली में चतुर्थ भाव अर्थात समाज, सूर्य है, जोकि अग्रणी होकर यदि भ्रष्टाचार समाप्त करे तो ही इसका अंत हो सकता है। इसके लिए जरूरी है कि समाज में लोगों को संयुक्त होकर सूर्य को प्रबल बनाने के लिए सामूहिक रूप भ्रष्टाचार का विरोध करने एवं भ्रष्ट आचरण का सामूहिक बहिस्कार करने के साथ यज्ञ एवं हवन करना चाहिए। सामूहिक रूप से आदित्य-हृदय स्त्रोत का पाठ करने से समाज में सुचिता आयेगी और इस तरह की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। इसी प्रकार भारत की कुंडली में लग्रस्थ राहु कुडली मारकर बैठा है, उसके लिए सभी को आगे बढ़कर भौतिकता से परे देशहित एवं समाजकल्याण के लिए सोचना होगा।
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पार्वती का स्वर्ण-महल

एक बार की बात है, देवी पार्वती का मन खोह और कंदराओं में रहते हुए ऊब गया। दो नन्हें बच्चे और तरह तरह की असुविधाएँ। उन्होंने भगवान शंकर से अपना कष्ट बताया और अनुरोध किया कि अन्य देवताओं की तरह अपने लिये भी एक छोटा सा महल बनवा लेना चाहिये।
शंकर जी को उनकी बात जम गई। ब्रह्मांड के सबसे योग्य वास्तुकार विश्वकर्मा महाराज को बुलाया गया। पहले मानचित्र तैयार हुआ फिर शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन के बाद तेज गति से काम शुरू हो गया। महल आखिर शंकर पार्वती का था कोई मामूली तो होना नहीं था। विशालकाय महल जैसे एक पूरी नगरी, जैसे कला की अनुपम कृति, जैसे पृथ्वी पर स्वर्ग। निर्माता भी मामूली कहाँ थे! विश्वकर्मा ने पूरी शक्ति लगा दी थी अपनी कल्पना को आकार देने में। उनके साथ थे समस्त स्वर्ण राशि के स्वामी कुबेर ! बची खुची कमी उन्होंने शिव की इस भव्य निवास-स्थली को सोने से मढ़कर पूरी कर दी।
तीनों लोकों में जयजयकार होने लगी। एक ऐसी अनुपम नगरी का निर्माण हुआ था जो पृथ्वी पर इससे पहले कहीं नहीं थी। गणेश और कार्तिकेय के आनंद की सीमा नहीं थी। पार्वती फूली नहीं समा रही थीं, बस एक ही चिंता थी कि इस अपूर्व महल में गृहप्रवेश की पूजा का काम किसे सौंपा जाय। वह ब्राह्मण भी तो उसी स्तर का होना चाहिये जिस स्तर का महल है। उन्होंने भगवान शंकर से राय ली। बहुत सोच विचार कर भगवान शंकर ने एक नाम सुझाया- रावण।
समस्त विश्व में ज्ञान, बुद्धि, विवेक और अध्ययन से जिसने तहलका मचाया हुआ था, जो तीनो लोकों में आने जाने की शक्ति रखता था, जिसने निरंतर तपस्या से अनेक देवताओं को प्रसन्न कर लिया और जिसकी कीर्ति दसों दिशाओं में स्वस्ति फैला रही थी, ऐसा रावण गृहप्रवेश की पूजा के लिये, श्रीलंका से, कैलाश पर्वत पर बने इस महल में आमंत्रित किया गया। रावण ने आना सहर्ष स्वीकार किया और सही समय पर सभी कल्याणकारी शुभ शकुनों और शुभंकर वस्तुओं के साथ वह गृहप्रवेश के हवन के लिये उपस्थित हुआ।
गृहप्रवेश की पूजा अलौकिक थी। तीनो लोकों के श्रेष्ठ स्त्री पुरुष अपने सर्वश्रेष्ठ वैभव के साथ उपस्थित थे। वैदिक ऋचाओं के घोष से हवा गूँज रही थी, आचमन से उड़ी जल की बूँदें वातावरण को निर्मल कर रही थीं। पवित्र होम अग्नि से उठी लपटों में बची खुची कलुषता भस्म हो रही थी। इस अद्वितीय अनुष्ठान के संपन्न होने पर अतिथियों को भोजन करा प्रसन्नता से गदगद माता पार्वती ने ब्राह्मण रावण से दक्षिणा माँगने को कहा।
''आप मेरी ही नहीं समस्त विश्व की माता है माँ गौरा, आपसे दक्षिणा कैसी? रावण विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन गया।
''नहीं विप्रवर, दक्षिणा के बिना तो कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता और आपके आने से तो समस्त उत्सव की शोभा ही अनिर्वचनीय हो उठी है, आप अपनी इच्छा से कुछ भी माँग लें, भगवान शिव आपको अवश्य प्रसन्न करेंगे। पार्वती ने आग्रह से कहा।
''आपको कष्ट नहीं देना चाहता माता, मैंने बिना माँगे ही बहुत कुछ पा लिया है। आपके दर्शन से बढ़कर और क्या चाहिये मुझे? रावण ने और भी विनम्रता से कहा।
''यह आपका बड़प्पन है लंकापति, लेकिन अनुष्ठान माँग लें, हम आपका पूरा मान रखेंगे। पार्वती ने पुन: अनुरोध किया। की पूर्ति के लिये दक्षिणा आवश्यक है आप इच्छानुसार जो भी चाहें माँग लें, हम आपका पूरा मान रखेंगे।पार्वती ने पुन: अनुरोध किया।
''संकोच होता है देवि। रावण ने आँखें झुकाकर कहा।
''संकोच छोड़कर यज्ञ की पूर्ति के विषय में सोचें विप्रवर। पार्वती ने नीति को याद दिलाया।
जरा रुककर रावण ने कहा, ''यदि सचमुच आप मेरी पूजा से प्रसन्न हैं, यदि सचमुच आप मुझे संतुष्ट करना चाहती हैं और यदि सचमुच भगवान शिव सबकुछ दक्षिणा में देने की सामर्थ्य रखते हैं तो आप यह सोने की नगरी मुझे दे दें।
पार्वती एक पल को भौंचक रह गईं! लेकिन पास ही शांति से बैठे भगवान शंकर ने अविचलित स्थिर वाणी में कहा- तथास्तु। रावण की खुशी का ठिकाना न रहा। भगवान शिव के अनुरोध पर विश्वकर्मा ने यह नगर कैलाश पर्वत से उठाकर श्रीलंका में स्थापित कर दिया।
तबसे ही रावण की लंका सोने की कहलाई और वह दैवी गुणों से नीचे गिरते हुए सांसारिक लिप्सा में डूबता चला गया। पार्वती के मन में फिर किसी महल की इच्छा का उदय नहीं हुआ। इस दान से इतना पुण्य एकत्रित हुआ कि उन्हें और उनकी संतान को गुफा कंदराओं में कभी कोई कष्ट नहीं हुआ।
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भारत के संबंध में चांडाल योग की विवेचना

इन खगोलीय घटनाओं के संदर्भ में भारत की कुंडली की विवेचना की जाए तो यह योग भारत का वृषभ लग्न होने से नवम भाव में घटित हो रहा है।
गुरु स्वयं नवम भाव का कारक माना जाता है, उसके निर्बल होने के कई प्रभाव सामने आ सकते हैं। धर्मस्थानों की क्षति, दुर्घटनाएँ संभावित हैं। लोगों की धार्मिक आस्था लडख़ड़ाएगी। लग्न पर दोनों ग्रहों की दृष्टि मतिभ्रम की स्थिति उत्पन्न करेगी। इससे सत्तापक्ष द्वारा गलत निर्णय लेकर जनता का विश्वास खो देने की पूर्ण आशंका रहेगी। पराक्रम पर इनकी दृष्टि महँगाई, मंदी जैसे मुद्दों पर विराम नहीं लगने देगी।
साथ ही असामाजिक तत्वों की गतिविधियाँ भी बढ़ेंगी। सरकार की नीति टालमटोल वाली रह सकती है, जिसका फल कोई भारी नुकसान के रूप में मिल सकता है। बुद्धि और संतान भाव पर इनकी दृष्टि बुद्धिजीवी वर्ग में शासकों के प्रति गहरे असंतोष को जन्म देगी। राज्यों में असंतोष फैलने, उपद्रव भड़कने की आशंका रहेगी। सत्ता में भारी परिवर्तन के भी आसार रहेंगे।
दशा-महादशा पर विचार करें तो वर्तमान में भारत शुक्र की महादशा में केतु के अंतर से गुजर रहा है। सप्तम में केतु कुछ विशेष फलदायी नहीं है। अत: गोचर का प्रभाव हावी रहने का पूर्ण अंदेशा है। अत: जागरूकता तथा सजगता रखना अच्छा होगा। सत्तापक्ष व अधिकारियों को अपने कर्तव्य निभाना चाहिए तथा सुरक्षा व्यवस्थाओं को सजग रखना चाहिए।
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क्या है चांडाल योग?

चांडाल शब्द का अर्थ होता है क्रूर कर्म करनेवाला, नीच कर्म करनेवाला। इस चांडाल शब्द पर से ज्योतिष-शास्त्र में एक योग है, जिसे गुरु चांडाल योग या विप्र योग कहा जाता है। राहू और केतु दोनों छाया ग्रह है। पुराणों में यह राक्षस है। राहू और केतु के लिए बड़े सर्प या अजगर की कल्पना करने में आती है। राहू सर्प का मस्तक है तो केतु सर्प की पूंछ। ज्योतिषशास्त्र में राहू -केतु दोनों पाप ग्रह है। अत: यह दोनों ग्रह जिस भाव में या जिस ग्रह के साथ हो उस भाव या उस ग्रह संबंधी अनिष्ठ फल दर्शाता है। यह दोनों ग्रह चांडाल जाति के हैं। इसलिए गुरु के साथ इनकी युति गुरु-चांडाल या विप्र (गुरु)-चांडाल योग कहा जाता है।
राहू-केतु जिस तरह गुरु के साथ चांडाल योग बनाते है इसी तरह अन्य ग्रहों के साथ चांडाल योग बनाते है जो निम्न प्रकार के है।
1) रवि-चांडाल योग : सूर्य के साथ राहू या केतु हो तो इसे रवि चांडाल योग कहते है। इस युति को सूर्य ग्रहण योग भी कहा जाता है। इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक गुस्सेवाला और जिद्दी होता है। उसे शारीरिक कष्ठ भी भुगतना पड़ता है। पिता के साथ मतभेद रहता है और संबंध अच्छे नहीं होते। पिता की तबीयत भी अच्छी नहीं रहती।
2) चन्द्र-चांडाल योग : चन्द्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे चन्द्र चांडाल योग कहते है। इस युति को चन्द्र ग्रहण योग भी कहा जाता है। इस योग में जन्म लेनेवाला शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नहीं भोग पाता। माता संबंधी भी अशुभ फल मिलता है। नास्तिक होने की भी संभावना होती है।
3) भौम-चांडाल योग : मंगल के साथ राहू या केतु हो तो इसे भौम चांडाल योग कहते है। इस युति को अंगारक योग भी कहा जाता है। इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक क्रोधी, जल्दबाज, निर्दय और गुनाखोर होता है। स्वार्थी स्वभाव, धीरज न रखनेवाला होता है। आत्महत्या या अकस्मात् की संभावना भी होती है।
4) बुध-चांडाल योग : बुध के साथ राहू या केतु हो तो इसे बुध चांडाल योग कहते है। बुद्धि और चातुर्य के ग्रह के साथ राहू-केतु होने से बुध के कारत्व को हानी पहुचती है। और जातक अधर्मी। धोखेबाज और चोरवृति वाला होता है।
5) गुरु-चांडाल योग : गुरु के साथ राहू या केतु हो तो इसे गुरु चांडाल योग कहते है।ऐसा जातक नास्तिक, धर्मं में श्रद्धा न रखनेवाला और नहीं करने जेसे कार्य करनेवाला होता है।
6) भृगु-चांडाल योग : शुक्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे भृगु चांडाल योग कहते है। इस योग में जन्म लेनेवाले जातक का जातीय चारित्र शंकास्पद होता है। वैवाहिक जीवन में भी काफी परेशानिया रहती है। विधुर या विधवा होने की सम्भावना भी होती है।
7) शनि-चांडाल योग : शनि के साथ राहू या केतु हो तो इसे शनि चांडाल योग कहते है। इस युति को श्रापित योग भी कहा जाता है। यह चांडाल योग भौम चांडाल योग जेसा ही अशुभ फल देता है। जातक झगढ़ाखोर, स्वार्थी और मुर्ख होता है। ऐसे जातक की वाणी और व्यव्हार में विवेक नहीं होता। यह योग अकस्मात् मृत्यु की तरफ भी इशारा करता है।
राहू-केतु के साथ जो ग्रह है उनके भावाधिपत्य और उन पर अन्य ग्रहों की युति-इष्ठ या परिवर्तन के संबंधों से फलकथन में बदलाव आना संभव है। ज्योतिषीय निवारणों के द्वारा उक्त दोषों को दूर किया जा सकता है।
चांडाल योग के दुष्प्रभाव के कारण जातक का चरित्र भ्रष्ट हो सकता है तथा ऐसा जातक अनैतिक अथवा अवैध कार्यों में संलग्न हो सकता है। इस दोष के निर्माण में बृहस्पति को गुरु कहा गया है तथा राहु और केतु को चांडाल माना गया है और गुरु का इन चांडाल माने जाने वाले ग्रहों में से किसी भी ग्रह के साथ स्थिति अथवा दृष्टि के कारण संबंध स्थापित होने से कुंडली में गुरु चांडाल योग का बनना माना जाता है।किसी कुंडली में राहु का गुरु के साथ संबंध जातक को बहुत अधिक भौतिकवादी बना देता है जिसके चलते ऐसा जातक अपनी प्रत्येक इच्छा को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है जिसके लिए ऐसा जातक अधिकतर अनैतिक अथवा अवैध कार्यों का चुनाव कर लेता है। सामान्यत: यह योग अच्छा नहीं माना जाता। जिस भाव में फलीभूत होता है, उस भाव के शुभ फलों की कमी करता है। यदि मूल जन्म कुंडली में गुरु लग्न, पंचम, सप्तम, नवम या दशम भाव का स्वामी होकर चांडाल योग बनाता हो तो ऐसे व्यक्तियों को जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है। जीवन में कई बार गलत निर्णयों से नुकसान उठाना पड़ता है। पद-प्रतिष्ठा को भी धक्का लगने की आशंका रहती है।
वास्तव में गुरु ज्ञान का ग्रह है, बुद्धि का दाता है। जब यह नीच का हो जाता है तो ज्ञान में कमी लाता है। बुद्धि को क्षीण बना देता है। राहु छाया ग्रह है जो भ्रम, संदेह, शक, चालबाजी का कारक है। नीच का गुरु अपनी शुभता को खो देता है। उस पर राहु की युति इसे और भी निर्बल बनाती है। राहु मकर राशि में मित्र का ही माना जाता है (शनिवत राहु) अत: यह बुद्धि भ्रष्ट करता है। निरंतर भ्रम-संदेह की स्थिति बनाए रखता है तथा गलत निर्णयों की ओर अग्रसर करता है।दिसंबर को देवगुरु बृहस्पति ने अपनी नीच राशि में प्रवेश किया है। वहाँ पहले से बैठे राहु ने इस युति से चांडाल योग को जन्म दिया है।
यदि मूल कुंडली या गोचर कुंडली इस योग के प्रभाव में हो तो निम्न उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं-
* योग्य गुरु की शरण में जाएँ, उसकी सेवा करें और आशीर्वाद प्राप्त करें। स्वयं हल्दी और केसर का टीका लगाएँ।
* निर्धन विद्यार्थियों को अध्ययन में सहायता करें।
* निर्णय लेते समय बड़ों की राय लें।
* वाणी पर नियंत्रण रखें। व्यवहार में सामाजिकता लाएँ।
* खुलकर हँसे, प्रसन्न रहें।
* गणेशजी और देवी सरस्वती की उपासना और मंत्र जाप करें।
* बरगद के वृक्ष में कच्चा दूध डालें, केले का पूजन करें, गाय की सेवा करें।
* राहु का जप-दान करें।
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कुंभ परंपरा

कुंभ पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है।
खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को ''कुम्भ स्नान-योग कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।
कुम्भ शब्द की मीमांसा:
''कुम्भ शब्द की मीमांसा पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, एक चित्त और एक मन से की गई है। इन द्वादश इन्द्रियों पर विजय पाने से ही ''घट कुम्भ अर्थात् शरीर का कल्याण होता है। विवेक एवं अविवेक देवासुर संग्राम को जन्म देता है। इनके पूर्ण नियन्त्रण से ही घट में अमृत का प्रादुर्भाव होता है। महाभारत के इस श्लोक से देव-दानव युद्ध तथा अमृत एवं गंगाजल के सामंजस्य को प्रतिष्ठित किया गया है-
यथा सुरानां अमृतं प्रवीलां जलं स्वधा।
सुधा यथा च नागानां तथा गंगा जलं नृणाम्।
अथर्ववेद के अनुसार ब्रह्मा ने मनुष्य को ऐहिक की आमुष्मिक सुख देने वाले कुम्भ को प्रदान किया। ये कुम्भ पर्व हरिद्वारादि स्थलों पर प्रतिष्ठित हुए। पृथ्वी को ऐश्वर्य सम्पन्न बनाने वाले ऋषियों का कुम्भ से तात्पर्य है पुरूषार्थ-चतुष्टय अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्ति कराना। कुम्भ पर्व के अवसर पर पतित पावनी भगवती भागीरथी (गंगा) के जल में स्नान करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ, एक लाख भूमि की परिक्रमा करने से जो पुण्य-फल प्राप्त होता है, वह एक बार ही कुम्भ-स्नान करने से प्राप्त होता है-
अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च।
लक्षप्रदक्षिणा भूमे: कुम्भस्नानेन तत् फलम्।।
प्राचीन परम्परा:
कुम्भ महापर्व भारत के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में मनाये जाने की बहुत ही प्राचीन परम्परा है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक ये चार प्रमुख तीर्थ स्थल हैं, जहाँ कुम्भ महापर्व मनाये जाने का पौराणिक माहात्म्य है। हरिद्वार और प्रयाग में छ: वर्ष में अर्द्धकुम्भ और बारह वर्ष में कुम्भ महापर्व मनाने की परम्परा है। यह महापर्व चारों तीर्थ स्थलों में भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न तिथियों के आगमन होने पर मनाये जाते हैं। प्रयाग में कुम्भ का महापर्व माघ के महीने में मनाये जाने की परम्परा है। यहाँ जब सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि के हों और बृहस्पति मेष अथवा वृष राशि में स्थित हों, तो कुम्भ महापर्व का योग बनता है-
मेष राशि गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।
अमावस्या तदा योग: कुम्भाख्य तीर्थनायके।।
मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च वृहस्पतौ।
कुम्भ योगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यति दुलभ:।।
इसी प्रकार हरिद्वार में मेष राशि में सूर्य और कुम्भ में बृहस्पति हों तो सर्वोत्तम कुम्भ महापर्व का योग होता है-
हरिद्वार-पद्मिनीनायके मेषे कुम्भं राशि गतो गुरु:। गंगाद्वारे भवेद्योग: कुम्भं नामा तदोत्तमा:।।
हरिद्वार के कुम्भ में जब कुम्भ राशि का बृहस्पति हो और मेष में सूर्य संक्रान्ति हो तो यह स्थिति मेष संक्रान्ति अर्थात 13-14 अप्रैल को पड़ती है। यह कुम्भ का महापर्व होता है। इसकी समाप्ति 14 मई तक होती है, जब सूर्य मेष राशि का परित्याग करता है। यही कुम्भ उज्जैन में सिंह के सूर्य, सिंह के बृहस्पति तथा मेष के सूर्य और सिंह के बृहस्पति होने पर कुम्भ पर्व का संयोग बनाता है-
सिंह राशि गते सूर्ये सिंह राशौ वृहस्पतौ।
गोदावर्यां भवेत् कुम्भो जायते खलु मुक्तिद:।
मेष राशि गते सूर्ये सिंह राशौ वृहस्पतौ।
उज्जयिन्यां भवत् कुम्भो सदामुक्तिप्रदायक:।।
घटे सूरि: शशीसूर्य कुहां दामोदरे यदा।
धरायां च तदा कुम्भो जायते खलु मुक्तिद:।।
नासिक में बृहस्पति सूर्य तथा चन्द्र कर्क में हों तो गोदावरी नदी के तट नासिक में कुम्भ पर्व लगता है-
ऋग्वेद में उल्लेख:
उपर्युक्त चार तीर्थ स्थलों में कुम्भ पर्व मनाये जाने की मूल प्रेरणा अथर्ववेद की चतुर: कुम्भाश्चतुर्णा ददामि में इस प्रकार के उल्लेख से मिलती है। इसके अतिरिक्त कुम्भ का उल्लेख ऋग्वेद में भी प्राप्त होता है-
जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव सरोजपुरो अरदन्न सिन्धून। विभेद गिरिं नव मित्र कुम्भ भागतन्द्रो अकृणुता स्व युग्मि:।।
प्लाशिव्र्यक्त: शतधार उत्यन्ते दुहे च कुम्भी स्वधा पितृभ्य:। पूर्णो कुम्भोधिकाल आहितस्तं वै, पश्यामो बहुधा नु संनत:।।
स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यड्ड: काल समाहु परमे व्योमन। चतुर: कुम्भां चतुर्णा ददामि।।
चतुर: कुम्भाञचतुर्धा पूर्णाउदकेन
दध्या एतास्त्वा धारा उपयत्तु सर्वा:। स्वर्गे लोके मधूमतं पिन्वमाना उपत्वातिष्ठतु पुण्यकरिणो: समत्ता:।।
इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि भारत में कुम्भ जैसे पर्व को मनाने की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। धीरे-धीरे इसके माहात्म्य को पौराणिक परम्परा के अनुसार विस्तारपूर्वक निर्धारित तीर्थस्थलों पर मनाया जाने लगा।
सृष्टि का प्रतीक:
भारतीय संस्कृति में कुम्भ सृष्टि का प्रतीक माना गया है, जैसे कुम्हकार पंच तत्वों से कुम्भ की रचना करता है, उसी प्रकार ब्रह्मा भी पंच तत्वों से इस सृष्टि की सर्जना करते हैं। कुम्भ के विषय में कहा गया है-
कलशस्य मुखे विष्णु: कण्ठे रुदो समाहित:।
मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीप वसुंधरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदो सामवेदो अथर्वव:।।
अंगै:ष्च संहिता: सर्वे कलशे तु समाश्रिता:।।
उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है कि कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा, मध्य में मातृगण, अन्तवस्था में समस्त सागर, पृथ्वी में निहित सप्तद्वीप तथा चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरुप विद्यमान है। इस श्लोक के मध्य में मातृगणों के विद्यमान होने का उल्लेख है। मातृकाएँ सोलह होती हैं। चन्द्रमा की भी षोडश कलाएँ होती है। कुम्भ भगवान विष्णु का पर्याय भी कहा गया है। कुम्भ शब्द चुरादि गणीय कुभि आच्छादने धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है- ''आच्छादन या ''आवृत्त करना। परमात्मा अपने ऐश्वर्य से समस्त विश्व को आवृत्त किये रहता है। इसीलिए वह कुम्भ है। इसे कंमु कान्तै धातु से जोडऩे पर अमृत प्राप्ति की कामना का बोध होता है। कुम्भ को पेट, गर्भाशय, ब्रह्मा, विष्णु की संज्ञा से अभिहित किया गया है। लोक में कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्व के सूर्य, चन्द्रमा तथा बृहस्पति तीन ग्रह कारक कहे गये हैं। सूर्य आत्मा है, चन्द्रमा मन है और बृहस्पति ज्ञान है। आत्मा अजर, अमर, नित्य और शान्त है, मन चंचल, ज्ञान मुक्ति कारक है। आत्मा में मन का लय होना, बुद्वि का स्थिर होना, नित्य मुक्ति का हेतु हैं। ज्ञान की स्थिरता तभी सम्भव है, जब बुद्वि स्थिर हो। दैवी बुद्वि का कारक गुरु है। बृहस्पति का स्थिर राशियों वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ में होना ही बुद्वि का स्थैर्य है। चन्द्रमा का सूर्य से युक्त होना अथवा अस्त होना ही मन पर आत्मा का वर्चस्व है। आत्मा एवं मन का संयुक्त होना स्वकल्याण के पथ पर अग्रसर होना है। कुम्भ, अर्द्धकुम्भ को शरीर, पेट, समुद्र, पृथ्वी, सूर्य, विष्णु के पर्यायों से सम्बद्ध किया गया है। समुद्र, नदी, कूप आदि सभी कुम्भ के प्रतीत हैं। वायु के आवरण से आकाश, प्रकाश से समस्त लोकों को आवृत्त करने के कारण सूर्य नाना प्रकार की कोशिकाओं से तथा स्नायुतंत्रों से आवृत होता है, इसीलिए कुम्भ है। कुम्भ इच्छा है, कामवासना रूप को आवृत करने के कारण काम ब्रह्म है, चराचर को धारण करने, उसमें प्रविष्ट होने के कारण विष्णु स्वयं कुम्भ हैं।
प्रचलित कथाएँ:
कुम्भ पर्व वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। इसकी मान्यता के सन्दर्भ में तीन कथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
1. महर्षि दुर्वासा की कथा
2. कद्रू-विनता की कथा
3. समुद्र मंथन की कथा
प्रथम कथा:
प्रथम कथा देवराज इन्द्र से सम्बन्धित है, जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्यमाला का अपमान हुआ। इन्द्र ने उस माला को अपने हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे पैरों तले कुचल दिया। दुर्वासा ऋषि ने इसके परिणामस्वरुप भयंकर शाप दिया जिसके कारण संसार में दुर्भिक्ष पड़ गया। अनावृष्टि और दुर्भिक्ष से प्रजा में त्राहि-त्राहि मच गई। तत्पश्चात नारायण ने समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी को प्रकट किया। उनकी कृपा से वृष्टि हुई और कृषकों का कष्ट दूर हुआ। अमृत पान से वंचित असुरों ने कुम्भ को नागलोक में छिपा दिया। गरुड़ ने वहाँ से उसका उद्धार किया और उसे क्षीरसागर तक पहुँचने से पूर्व जिन स्थानों पर कलश को रखा, वे ही स्थल ''कुम्भ पर्व के तीर्थस्थल बन गये।
द्वितीय कथा:
इस कथा के अनुसार महर्षि कश्यप की दो पत्नियों कद्रू और विनता के मध्य सूर्य के अश्वों का वर्ण काला है या सफेद, इस विवाद को लेकर यह शर्त रखी गई की जो हारेगी वह दासी बनकर रहेगी। इस शर्त के परिणामस्वरुप विनता के हार जाने के कारण उसे दासी बन कर रहना पड़ा। उस दासीत्व से तभी मुक्ति मिल सकती थी, जब नागलोक में छिपाये गये कुम्भ को कश्यप मुनि की पत्नी कद्रू के पास लाया जाय। उस अमृत कलश को लाने हेतु और अपनी माँ को दासीत्व से मुक्त कराने के लिये पक्षीराज गरुड़ ने संकल्प किया। नागलोक से वासुकि से संरक्षित उस अमृत-कलश को जब गरुड़ उत्तराखंड से गंधमादन पर्वत पर कश्यप मुनि के पास ले जा रहे थे तो वासुकि द्वारा इन्द्र को सूचित किया गया और उन्होंने चार बार आक्रमण किया। इन्द्र के द्वारा चार जगहों पर रोके जाने के कारण जो अमृत-कलश की बूँदे वहाँ पर छलकीं उसके कारण वहाँ कुम्भ पर्व की परम्परा प्रारम्भ हुई। गरुड़ ने उस अमृत-कुम्भ के अन्तत: अपनी माँ के दासीत्व से मुक्त कराने के लिये कश्यप मुनि के पास तक पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न किया और सफल हुए।
तृतीय कथा:
तृतीय कथानुसार देवासुर संग्राम में चैदह रत्नों में अमृत-कलश निकलने पर धन्वन्तरि द्वारा देवताओं को देने, विष्णु द्वारा मोहिनी रुप धारण करके देवताओं को अमृत पान कराने, राहु द्वारा अमृत पान करने, इन्द्र-पुत्र जयन्त द्वारा अमृत-कुम्भ छीनकर भागने, जैसी कथाओं से सम्बद्ध है। उसकी रक्षा का भार सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति और शनि को सौंपा गया था। जयन्त द्वारा ले जाये जाते हुए उस अमृत-कुम्भ को चार स्थलों पर रखने और उन-उन स्थलों पर अमृत की बूँदे गिरने के कारण कुम्भपर्व मनाये जाने की परम्परा प्रारम्भ हुई। अमृत-कुम्भ की उक्त कथाओं में यही तीसरी कथा ही सबसे प्रमुख मानी गई है।
पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।
चतु:स्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले।।
विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे।
सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम्।।
शास्त्रीय मान्यताओं द्वारा अभिप्राय:
भारतीय संस्कृति में धार्मिक आस्था और विश्वास का सर्वोत्तम पर्व कुम्भ मेला, महापर्व के रुप में न केवल भारत भूमि अपितु समूचे विश्व में सुविख्यात माना जाता है। यही एक ऐसा महापर्व है, जिसमें भारत के कुम्भ प्रधान पवित्र तीर्थस्थलों में पूरे विश्व से श्रद्धालु भक्त पधारकर यहाँ पर एक साथ पूरे देश की समन्वित संस्कृति, विश्व बन्धुत्व की सद्भावना और जन सामान्य की अपार आस्था का अवलोकन करते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार कुम्भ के अनेक अभिप्राय प्रतिपादित किये गये हैं-
शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर तात्पर्य:
शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर कुम्भ से अभिप्राय है- ''कुं भूमिं कुत्सितं वा उम्भति पूरयत, कुम्भ का अर्थ है घड़ा, जलपात्र या करवा। कुभि पूरणे धातु से निष्पन्न कुम्भ शब्द का तात्पर्य- ''कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत् पिपासादि द्वन्द्वजातम् निर्वंतयति इति कुम्भ:, अर्थात जो अमृतमय जल से पूर्ण करता है, जो क्षुत् पिपासादि अनेक द्वन्द्वों से निवृत्त करता है, उसे कुम्भ कहते हैं। यह पर्व मनुष्य की सांसारिक बाधाओं को दूर करता हुआ, उसके जीवन-घट को ज्ञानामृत से परिपूर्ण कर देता है। इसीलिये इसे कुम्भ नाम से अभिहित किया गया है। कुम्भ- ''कुत्सितं उम्भयति दूरयति जगाद्धितायेति कुम्भ: जगत् कल्याण के लिए दुष्प्रवृत्तियों को ज्ञानामृत द्वारा दूर करने वाला यह पर्व कुम्भ कहलाता है। कुं- ''पृथ्वीम् भागयति दीपयति तेजोवर्द्धनेनेति कुम्भ:, समस्त पृथ्वी को अपने प्रभाव से प्रकाशित करने वाले पर्व को कुम्भ कहा जाता है।
ज्योतिश शास्त्र में अर्थ:
ज्योतिश शास्त्र में ''कुम्भ शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। पहला तो ग्यारहवीं राशि को ''कुम्भ नाम से जाना जाता है और दूसरा चन्द्रमा को सूर्य के साथ एक ही राशि में स्थित होने पर ''कुम्भ या ''घट कहा गया है। ''सिद्धान्त शिरोमणि नामक ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने चन्द्रमा को घट रूप में अभिहीत किया है-
तरणि किरण संगादेवपीयूषपिण्डो,
दिनकर दिशि चन्द्रश्चन्द्रिकाभिश्चकास्ति।
तदितरदिशि बालाकुन्तलश्यामलश्री,
घट इव निज मूर्तिच्छाययेवातपस्थ:।।
उपर्युक्त में चन्द्रमा को अमृत पिण्ड के रूप में अभिहित किया गया है। जब चन्द्रमा रूपी अमृत पिण्ड सूर्य के सामने की दिशा अर्थात सूर्य से सातवें घर में स्थित होता है, तब वह ज्योतिष्मान होता हुआ किरणों से उद्भासित होता है, किन्तु जब वह सूर्य के साथ स्थित हो जाता है तो ज्योतिरहित काले घट के रूप मे दृष्टिगत होता है। अमृत पिण्ड की यह घटवत स्थिति ही बृहस्पति के शुभ प्रभावों से प्रभावित होकर कुम्भ पर्व का योग उपस्थित करती है। स्मृति ग्रन्थों में भी कहा गया है-
सूर्येन्दुगरूसंयोगस्तद्राराशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो अतिनान्यथा।।
इसका तात्पर्य यह है कि राशि में सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति के स्थित होने पर यह अमृत-कुम्भ रूपी चन्द्र पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक जैसे कुम्भ प्रधान तीर्थस्थलों में अपने शुभ प्रभाव रूपी अमृत की वृष्टि करता है। उसी की पिपासा में उक्त स्थलों पर दिक्-दिगन्त से साधु, सन्त, महात्मा, भक्त और श्रद्वालु जन एकत्रित होकर पुण्य अर्जित करने हेतु इस महापर्व का संकीर्तन करते हैं।
अन्य पौराणिक तथ्य:
* हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कुम्भ से छलकी हुई बूँदों के कारण कुम्भ जैसे महापर्व को मनाये जाने की परम्परा का उल्लेख मिलता है।
तस्यत्कुम्भात्समुत्क्षिप्त सुधाबिन्दुर्महीतले।
यत्रयत्रात्यतत्तत्र कुम्भपर्व प्रकल्पितम्।।
* अमृत-कुम्भ की रक्षा में संलग्न चन्द्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया, सूर्य ने घड़े को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीनने से और शनि ने कहीं जयन्त अकेले ही सम्पूर्ण अमृत पान न कर ले। इस तरह से उस कुम्भ की रक्षा की।
चन्द्र: प्रस्रवणाद् रक्षा सूर्योविस्फोटना दधौ।
दैत्येभ्यष्च गुरु रक्षा सौरि देवेन्द्रजात् भयात्।।
* हरिद्वार में कुम्भ राशि का बृहस्पति हो, और मेष में सूर्य संक्रान्ति हो तो यह कुम्भ का महापर्व माना जाता है-
कुम्भ राशि गते जीवे यद्विदने मेषगो रवि:।
हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्ति वर्जनम्।।
* शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार विद्वानों का मत है कि सनातन, सनक, सनन्दन और सनत्कुमार जैसे महागणों की मण्डली बारह वर्षों के बाद हरिद्वार आदि तीर्थों में पधारा करती है, जिसके दर्शन हेतु साधु, सन्त, महात्मा और श्रद्धालु सामान्य भक्तजन भी उपस्थित होने लगे। योग साधना करने वाले योगियों की अवधि भी बारह वर्षों की बतायी गयी है। इन्हीं वर्षों के फलस्वरुप कुम्भ जैसे पर्व का समागम होता है-
देवानां द्वादशैर्भिमत्र्यैद्वादशवत्सरै:।
जायन्ते कुम्भ पर्वाणि तथा द्वादश संख्यया।।
* गंगाजी का नाम लेने मात्र से ही समस्त पापों का विनाश हो जाता है। दर्शन करने पर कल्याण होता है, स्नान और जलपान करने पर मनुष्य की सात पीढिय़ों का उद्धार हो जाता है-
न गंगा सदृशं तीर्थं न देव: केशवात्पर:।
ब्राह्यणेभ्य: परं नास्ति एवमाह पितामह:।।
यत्र गंगा महाराज स देशस्तत् तपोवनम्।
सिद्धिक्षेत्रं तज्ज्ञेय: गंगातीर समाश्रिम्।।
* आध्यात्मिक दृष्टि से कुम्भ महापर्व का महत्व ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त विस्तृत है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान का, सूर्य को आत्मा का और चन्द्रमा को मन का प्रतीक माना गया है। मन, आत्मा तथा ज्ञान इन तीनों की अनुकूल स्थिति वस्तुत: लौकिक और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से महत्व रखती है। चार स्थलों पर लगने वाले कुम्भ की तिथि इन विशिष्ट ग्रहों सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति विशेष होने पर ही सम्भव होती है।
* सिंहस्थ उज्जैन, मध्य प्रदेश का महान स्नान पर्व है। यह बारह वर्षों के अंतराल से मनाया जाता है। जब बृहस्पति ग्रह सिंह राशि पर स्थित रहता है, तब यह पर्व मनाया जाता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियाँ चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्त्वपूर्ण माने गए हैं।

आय तो है पर बचत नहीं...

आज के भौतिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की एक ही मनोकामना होती है की उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ रहें तथा जीवन में हर संभव सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती रहे। किसी व्यक्ति के पास कितनी धन संपत्ति होगी तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा आय का योग तथा नियमित साधन कितना तथा कैसा होगा इसकी पूरी जानकारी उस व्यक्ति की कुंडली से जाना जा सकता है। कुंडली में दूसरे स्थान से धन की स्थिति के संबंध में जानकारी मिलती है इस स्थान को धनभाव या मंगलभाव भी कहा जाता है अत: इस स्थान का स्वामी अगर अनुकूल स्थिति में है या इस भाव में शुभ ग्रह हो तो धन तथा मंगल जीवन में बनी रहती है तथा जीवनपर्यन्त धन तथा संपत्ति बनी रहती है। चतुर्थ स्थान को सुखेश कहा जाता है इस स्थान से सुख तथा घरेलू सुविधा की जानकारी प्राप्त होती है अत: चतुर्थेश या चतुर्थभाव उत्तम स्थिति में हो तो घरेलू सुख तथा सुविधा, खान-पान तथा रहन-सहन उच्च स्तर का होता है तथा घरेलू सुख प्राप्ति निरंतर बनी रहती है। पंचमभाव से धन की पैतृक स्थिति देखी जाती है अत: पंचमेश या पंचमभाव उच्च या अनुकूल होतो संपत्ति सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी होती है।
अधिकतर देखने में आता है कि लोगों के आय में बाधा बनी रहती है, या फिर आय तो रही है, बचत नहीं हो पाती जिससे आय किसी काम का नहीं हो पाता। आय भाव एकादश भाव को कहते हैं व एकादश भाव में बैठे ग्रह को एकादशेश कहते हैं। धन भाव द्वितीय भाव को कहते हैं। आय हो लेकिन बचत न हो तब भी थोड़ी परेशानी रहती है। जितनी परेशानी आय न होने पर रहती है उतनी बचत न होने पर नहीं रहती।
जब आय भाव एकादश का स्वामी अष्टम भाव में हो तो आय के मामलों में बाधा का कारण बनता है। ऐसी स्थिती में एकादश भाव को बलवान किया जाए तो आय के क्षेत्र में बाधा दूर होती है।
षष्ट भाव का स्वामी अष्टम में हो तो कर्ज बढ़ता है व कर्ज जल्दी चूकता नहीं। ऐसी स्थिति किसी की पत्रिका में हो तो उन्हें कर्ज नहीं लेना चाहिए। लग्नेश षष्ट भाव में हो तो ऐसा जातक कर्ज लेता है। और यदि षष्टेश अष्टम में हो तो फिर कर्ज नहीं चूकता। और किसी कारण से कर्ज लेना पड़ जाए तो लग्न के स्वामी के रत्न को धारण करना चाहिए।

आक में है अनेकों गुण

भारत के लगभग सभी प्रांतों में पाया जाने वाला आक अनेक गुणों से भरपूर है। गरम और शुष्क स्थानों पर यह विशेष रूप से पाया जाता है। अक्सर इसे नदी-नालों की पटरियों तथा रेलवे लाइन के किनारे-किनारे उगा देखा जा सकता है। यह बहुतायत में पाया जाता है, क्योंकि पशु इसे नुकसान नहीं पहुंचाते।
आक एक झाड़ीनुमा पौधा है जिसकी ऊंचाई 5 से 8फीट होती है। इसके फूल जामनी-लाल बाहर से रूपहले होते हैं। आक के सभी अंग मोम जैसी सफेद परत से ढंके रहते हैं। इसके सभी अंगों से सफेद दूध जैसा तरल पदार्थ निकलता है। जिसे आक का दूध कहते हैं। आक प्राय: दो प्रकार का होता है लाल तथा सफेद। लाल आक आसानी से सब जगह पाया जाता है। यों तो यह पौधा वर्ष भर फलता-फूलता है। परन्तु सर्दियों के मौसम में यह विशेष रूप से बढ़ता है।
चोट-मोच, जोड़ों की सूजन (शोथ) में आक के दूध में नमक मिलाकर लगाना चाहिए। आक के दूध को हल्दी और तिल के साथ उबालकर मालिश करने से आयवात, त्वचा रोग, दाद, छाजन आदि ठीक होता है। आक की छाल के प्रयोग से पाचन संस्थान मजबूत होता है। अतिसार और आव होने की स्थिति में भी आक की छाल लाभदायक सिद्ध होती है। इससे रोगी को वमन की आशंका भी कम होती है। मरोड़ के दस्त होने पर आक के जड़ की छाल 200 ग्राम, जीरा तथा जवाखार 100-100 ग्राम और अफीम 50 ग्राम सबको महीन चूर्ण करके पानी के साथ गीला करके छोटी-छोटी गोलियां बना लें। रोगी को एक-एक गोली दिन में तीन बार दें इससे तुरन्त लाभ होगा।
त्वचीय रोगों के इलाज में आक विशेष रूप से उपयोगी होता है। लगभग सभी त्वचा रोगों में आक की छाल को पानी में घिसकर प्रभावित भाग पर लगाया जाता है। यदि त्वचा पर खुजली अधिक हो तो छाल को नीम के तेल में घिसकर लगाया जा सकता है। श्वेत कुष्ठ में भी इसके प्रयोग से फायदा मिलता है। आक के सूखे पत्तों का चूर्ण श्वेत कुष्ठ प्रभावित स्थानों पर लगाने से तुरन्त लाभ मिलता है। इस चूर्ण को किसी तेल या मलहम में मिलाकर भी लगाया जा सकता है।
आक के पत्तों का चूर्ण लगाने से पुराने से पुराना घाव भी ठीक हो जाता है। कांटा, फांस आदि चुभने पर आक के पत्ते में तेल चुपड़कर उसे गर्म करके बांधते हैं। जीर्ण ज्वर के इलाज के लिए आक को कुचलकर लगभग बारह घंटे गर्म पानी में भिगो दे, इसके बाद इसे खूब रगड़-रगड़ कर कपड़े से छान कर इसका सेवन करें इससे शीघ्र फायदा पहुंचता है। मलेरिया के बुखार में इसकी छाल पान से खिलाते हैं। किसी गुम चोट पर मोच के इलाज के लिए आक के पत्ते को सरसों के तेल में पकाकर उससे मालिश करनी चाहिए।
कान और कनपटी में गांठ निकलने एवं सूजन होने पर आक के पत्ते पर चिकनाई लगाकर हल्का गर्म करके बांधते हैं। कान में दर्द हो तो आक के सूखे पत्ते पर घी लगाकर, आग पर सेंककर उसका रस निकालकर ठंडा कर कान में एक बूंद डालें।
खांसी होने पर आक के फूलों को राब में उबालकर सेवन करने से आराम पहुंचता है। दमे के उपचार के लिए तो आक एक रामबाण औषधि है। आक के पीले पड़े पत्ते लेकर चूना तथा नमक बराबर मात्रा में लेकर, पानी में घोलकर उसके पत्तों पर लेप करें। इन पत्तों को धूप में सुखाकर मिट्टी की हांड़ी में बंद करके उपलों की आग में रखकर भस्म बना लें। इस भस्म की दो-दो ग्राम मात्रा का दिन में दो बार सेवन करने से दमे में आश्चर्यजनक लाभ होता है। इस दवा के सेवन के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि रोगी दही तथा खटाई का सेवन नहीं करे।
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व्यक्ति का मनोबल

शरीर बल और शस्त्र बल से ऊंचा कोई बल हो सकता है तो वह मनोबल ही है। जिस प्रकार बिना पसीने का पैसा स्थाई नहीं होता, इसी प्रकार बाधाओं का मुकाबला किए बिना लक्ष्य को स्थायी रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता। परिस्थितियां जीवन को बिगाड़ती ही नहीं, बनाती भी हैं। ज्योतिष गणना अनुसार मनोबल को व्यक्ति की कुंडली में तीसरे स्थान से देखा जाता है अत: किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की पूरी परछाई उसके तीसरे स्थान अर्थात उसके मनोबल पर करता है।
समूह के सदस्यों में बहुधा कार्य करने की इच्छा पाई जाती है जो समूह आकर्षण द्वारा संसक्ति और इस विश्वास द्वारा होती है कि उनके संयुक्त प्रयास, समूह के लक्ष्य में योगदान करेंगे। इसी विश्वास और आशा की भावना को मनोबल कहा जाता है। समूह मनोबल व्यक्तियों या सदस्यों के निजी मनोबल का सयुक्त रूप है। मुख्य रूप में यह संसक्ति का प्रतिफल होता है। मनोबल समूह के प्रति उतरदायित्व की भावना है जो सामान्य समाज द्वारा खतरे में भी पड़ सकता है। मनोबल समूह की एकता, कार्य स्तर, संगठन एवं सामूहिक भावना का परिचायक है। मनोबल उच्च होने पर समूह के सदस्य समूह के प्रति, समूह के नेतृत्व के प्रति तथा समूह लक्ष्यों के प्रति धनात्मक प्रवृति रखते हैं। जब कोई अकेला व्यक्ति किसी शुभ काम में लगता है तब परिस्थितियां उसका पीछा करती हैं। वे व्यक्ति को इस प्रकार झकझोर देती हैं कि एक बार तो वह निराश हो जाता है और उसका साहस टूट जाता है। उनका प्रहार इतना निर्मम होता है कि व्यक्ति स्वयं को असहाय-सा अनुभव करता है। परिस्थितियां बाहरी हो सकती हैं और आंतरिक भी। दोनों प्रकार की परिस्थितियां व्यक्ति को इतना कायर बना देती हैं कि वह पलायन की बात सोचने लगता है। वह परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देता है और मौत तक का वरण स्वीकार कर लेता है। किंतु मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि कसौटी के ये क्षण दृढ़ मनोबल से गुजारने के होते हैं।
शरीर बल और शस्त्र बल से ऊंचा कोई बल हो सकता है तो वह मनोबल ही है। जिस प्रकार बिना पसीने का पैसा स्थाई नहीं होता, इसी प्रकार बाधाओं का मुकाबला किए बिना लक्ष्य को स्थायी रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता। परिस्थितियां जीवन को बिगाड़ती ही नहीं, बनाती भी हैं।
अत: हर परिस्थिति का हर कीमत पर मुकाबला कर लक्ष्योन्मुख बनना चाहिए। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गतिशील रहने से एक दिन सारी परिस्थितियां स्वयं समाप्त हो जाती हैं। जब तक वे अवरोधक बनकर खड़ी हैं, पीछे हटने मात्र से समस्या का समाधान नहीं मिलेगा। समग्र मनोबल और परिपूर्ण निष्ठा बटोर कर बाधाओं को निरस्त करने वाला व्यक्ति ही मंजिल तक पहुंच सकता है।
फिसलन के समय भी फिसलन न हो, विकृति के हेतु उपस्थित होने पर भी जो विकृत न हो, वही धीर है। ऐसा व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति को अपनी साधना का अंग मानकर सहन करता है। इसका परिणाम सुंदर और सुखद आता है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में उसके तीसरे स्थान का स्वामी उच्च, मित्र राशि अथवा वर्गोत्तम हो तो ऐसे जातक में गजब का मनोबल होता है। उसके विपरीत अगर इन ग्रहों का कारक नीचस्थ हो जाये, शत्रु अथवा अधिशत्रु से आक्रांत हो या पाप स्थानों पर हो या क्रूर ग्रहों के प्रभाव में हो जाये तो मनोबल को कमजोर कर देता है।
बाह्य कारकों की निर्थरकता- आशावादिता और मनोबल के धनात्मक संबंधों में बहुधा यह माना जाता है की कार्य परिस्थिति से बाहर कठिनाइयों या ऋणात्मक भाव, मनोबल को न्यून करता है। क्षेत्र अध्ययनों से प्रदर्शित होता है कि मनोबल कार्य परिस्थिति से बाहर होने की अपेक्षा, इस पर अधिक निर्भर करता है की प्रयोज्य कार्य परिस्थिति के विषय में क्या विचार रखता है। अर्थात कार्य में आने वाली कठिनाइयां, कार्य स्थिति से बाहर की कठिनाइयों की अपेक्षा मनोबल को अधिक प्रभावित करती है। मनोबल को प्रभावित करने वाले कारकों में तीसरे स्थान के ग्रह अथवा तीसरे स्थान पर उपस्थित ग्रह अथवा तीसरे स्थान में दृष्टि रखने वाले ग्रह विशेष तौर उल्लेखनीय हैं। यदि तीसरे स्थान पर गुरू हो तो ऐसा व्यक्ति सात्विक प्रवृत्ति का बुद्धिमान व्यक्ति होता है। किंतु यही ग्रह यदि राहु-मंगल जैसे क्रूर ग्रहों के साथ हो जाये तो बुद्धिमानी में कुटिलता भी आ जाती है। इस प्रकार व्यक्ति की कुंडली के तीसरे स्थान का विश£ेषण कर भाव-मनोभाव के साथ मनोबल का विश£ेषण किया जा सकता है।
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Sunday, 27 September 2015

जानिये आज 27/09/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से" अनन्त एकादशी व्रत"


जानिये आज के सवाल जवाब1 29/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


जानिये आज के सवाल जवाब 29/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


जानिये आज का राशिफल 29/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


जानिये आज का पंचांग 27/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से



Saturday, 26 September 2015

The Main five elements of Vastu Shashtra

All objects of this universe are made of five elements basically. These five basic elements are (1) Earth or Soil (2) Water (3) Fire (4) Air (5) Space ( Aakash ).
These are called “ Panch Mahabhoot “.
1. EARTH :- Earth here means composition of the surface of the earth , the soil and other minerals present in the soil. The upper part of the surface is called soil ,Stone, sand, iron, lime etc., all these are parts of soil. All these physical elements are available in limited quantity and on a particular place. This depends on the composition of surface, its form and size, trees and vegetation grown upon it etc. that whether it will be appropriate to inhabit at such a place or not . Moreover if there is a residence there , what type of construction should be there. Availability of essential building materials and their transportation also depend upon the formation of soil . Soil can be categorized on the basis of its shape , touch , taste and sound . We must take care that it suits our physique while selecting land for building and collecting building material. There are many things described in Vaastu Shastra about the size and type of land and method of “ Bhoomi Poojan “ are also explained in it .
2. WATER :- It is most essential for all creatures and is a basic element in construction. Water forms 3/4 part of body’s weight. All of us know about different forms and resources of water . The quantity of water available at present is limited and is less than the requirement. Not only for creatures and vegetation but also for house construction , water is needed in sufficient quantity. Therefore , it should be ensured before house construction , whether water will remain available or not . Usually , in most of the villages a pond is available along with ground water source , which is maintained by villagers themselves . People inhabit colonies on the banks of rivers, lakes and sea, where underground water is available in large quantity and wells can be dug up in a suitable place for colonies . Shape and size of building and life-style are designed at a place according to the availability of water and relation with land. Taking care of water also means the house is stable even during heavy rains, the
building is not harmed and flood does not cause havoc.
3. FIRE :- Fire circulates energy in the form of light and heat . The sun is the main source of light and heat for us. The movement of the earth in relation to the sun causes day and night and change in seasons . Rain and wind are also possible due to the heat of the sun. The sun provides living beings with courage, zeal and power . Most of the colonies in the world are found in temperate zones where Sun’s energy is available in sufficient quantity . Care should be taken that the building has constant supply of light , it is completely safe from fire , construction material is selected in such a way that it is fit for living comfortably in both seasons - in summer as well as in winter and it is not destroyed by lightning. Thus house construction plan is greatly affected by heat and light ( i.e. Fire ).
4. AIR :- Atmosphere ( i.e. mixture of gases like Oxygen , Nitrogen, Carbon dioxide, Ozone etc. .) exists around the earth up to 400 km height approximately. Composition of atmosphere and presence of vapours in it differ from place to place according to local situations . We cannot see air but we can feel and hear it. Air is an essential element for all living beings. It is essential to have correct supply , correct temperature and pressure, correct percentage of humidity in the air for both kinds of comforts- physical and mental for man. Therefore, the shape, size, construction and direction of buildings should be such as they have sufficient supply of air for healthy and comfortable living. No part of the building should remain without air . Foul air should not gather in the building and fresh air should come continuously . From which direction air should enter or not is also important . In our country the air blowing from the South is considered baneful and inauspicious.
5. Space :- Space is the most widely spread over of the five basic elements. The unending region of the universe in which all the heavenly bodies exist is called space ( Aakaash ). There is no place in the universe where this space does not exist. Gravitational pull of various heavenly bodies, magnetic power, different kinds of radiations and waves like ultra -violet rays, infra- red rays, light rays , cosmic rays, etc. are always present in space. Their effects can be felt in many forms, and many activities and designs ( plans ) in our life are conducted by their effects .Sound is produced in space only. If there is no space, sound waves are not possible. The form in which space permits the building will decide accordingly the form of our talking, singing and playing, weeping and other activities. The echo of our sound will go according to space. Therefore, the houses should be built in such a way and plan that these invisible forces of nature and the energies generated by them can be fully utilized and
their harmful effects can be avoided.
Human body is also made of five basic elements and similarly all the other things of the world are made of them. Therefore, the five basic elements existing inside and outside man have a constant though invisible relation which affects activities of life. In our residence or office buildings, etc., are constructed in a well- planned manner keeping in view the effects of "Panchmahabhoot”, i.e. the five basic elements - earth, water, air, space and fire- life can be full of more happiness and prosperity. The ancient Rishis and Sages had knowledge of the relation between five basic elements and their energies and their utility in needed quantity. Therefore, vaastu shastra explains such principles of house building according to which appropriate use of the effects of these five basic elements can be achieved by selecting land accordingly, as soil inhabits our body, similarly our body inhabits a building. The effects of these five basic elements have been fully taken care of in the principles laid down in Vaastu Shastra, by which a residence can be made for a comfortable life and not merely for show.

Birth of Vastu Purush

Vaastu Purush is present in each and every plot whether it is big or small. He has a fixed and peculiar body. His head remains hanging down and his body is spread all
over the length and breadth of the ground. There is an interesting story in the MATSYA PURAN in which the birth of Vaastu Purusha is narrated. By reading that story one knows why the worship of the Vaastu Purusha is necessary before beginning construction of any building. Long long ago Lord Shiva fought against the demon named ANDHAKA and killed him. While fighting with demon, Shiva was very much tired and began to sweat profusely. A man was born of the drops of Shiva’s sweat. He looked very cruel. He was very hungry. So he began to make penance to appease Lord Shiva and get a boon from him. Shiva was pleased with his penance and appeared before him. The devotee prayed to Shiva,” Oh Lord! Please permit me to eat away all the three worlds.” Shiva said,” Let it be so.” The devotee’s joy knew no bounds. He got possession on all the three worlds and first he was ready to eat the terrestrial world (Bhooloka). Then the celestial (Devatas), Brahma, Shiva and the demons (Rakshasas) also were terrified and caught hold of the devotee encircling him. Vaastu Purusha, being arrested like this, said to the Gods, “Oh, Celestial Beings! You have all caught hold of me and tied me on all the sides. How long shall I be like this, in this position hanging my head down like a prisoner? What shall I eat? Listening to those words, the celestial beings said, “Today is Bhadrapada Shukla Triteya Saturday and ‘Visakha Star’; So you lie down here on the ground changing your position once in three months, i.e. from ‘Bhadraspada’ to ‘kartik’ you lie down putting your head in the eastern direction and your feet towards the west. During the months of “Margashira”, ‘Pusham’ and ‘Magha’, you lie down towards the south looking towards the west and put your feet towards the north during the months of ‘Phalgun’, ‘Chaitra’ and ‘Vaisakh’ put your head towards the west and feet towards the east., looking towards the north; in the months of ‘Jyestha’, ‘Ashadha’ and Sravana’, put your head towards the east. North and the feet towards the south & look towards the east. Whatever side you may turn, you will have to lie down on the left side only. You will be known as ‘VAASTU PURUSHA’. You will tease the people, to your heart’s content, who construct buildings and temples, dig wells and tanks on the side towards which you see and in the direction towards which you hold your feet. You may trouble and even devour those people who construct the aforesaid buildings and temples etc. In the direction where you lay your head and back and those who lay foundation-stone without worshipping you or without satisfying you with “Homa” and the like. Then the Vaastu-Purusha was quite satisfied. Since then the worship of Vaastu-Purusha has been in vogue and it has become compulsory for those who want to construct any kind of building
Forty-five celestial beings, out of whom 32 fromwithout and 13 from within caught hold of the devotee.
The thirty two celestial beings are :-
(1) ISH (2) PARJANYA (3) JAYANT (4) INDRA (5) SURYA (6) SADYA (7) BARISHAM (8) AKASH (9) AGNI (10) PUSHNA (11) VITATHA (12) YAMA (13) KRITANTA
(14) GANDHARVA (15) BRINGAVAJA (16) MRIGA (17) PITATRA (18) DAREPALE (19) SUGRIVA (20) PUSHPADANATA (21) VARUNA (22) DATIYA (23) SESHA (24) YAKSHMA (25) ROGA (26) NAGA (27) MUKHYA (28) BHALLATA (29) SOMA (30) SAPRA(31) ADITI and (32) DITI.
All these 32 celestial beings are out of the limits of the devotee whereas the following 13 beings are within his limits :-
(1) APA (2) SAVITA (3) INDRAJYA (4) RUDRA (5)MARICHI (6) SAVITRI (7) VIVASWAN (8) VISHNU (9) MITRA (10) RUDRA (11) PRITHVIDHARA (12) APAVATSA and (13) BRAHMA.

जीवन-रेखा का प्रभाव

 जीवन-रेखा स्पष्ट, पुष्ट, गम्भीर और दीर्ध जीवन-रेखा बल, शक्ति और स्वास्थ्य प्रदर्शित करती है । किन्तु हाथ के और भागों से जो गुण या अवगुण प्रकट होते है उनके संयोग से क्या दुष्परिणाम पैदा होते है उनका विचार करना भी आवश्यक है--
(१) जिस मनुष्य पर बृहस्पति का प्रभाव अधिक है अर्थात गुरु का क्षेत्र उन्नत और विस्मृत हो और तर्जनी अधिक लम्बी हो तथा उसकी उँगलियों के तृतीय पर्व यदि अन्य पदों की अपेक्षा पुष्ट और फूले हुए हो तो ऐसा व्यक्ति जीवन-रेखा की प्रदान की हुई बल और शक्ति का दुरुपयोग करता है और अत्यधिक भोजन (जिन परिवारों में मदिरापान प्रचलित है वहां मदिरापान) द्वारा सदैव अपनी तृप्ति करता रहता है । यदि ऐसे हाथ व हथेली में अधिक लाल वर्ण भी दिखाई दे तो समझिए कि अति भोजन और अति मदिरापान अपना काफी प्रभाव जमा चुके है ।
ऐसे हाथों में जीवन-रेखा के पुष्ट, गम्भीर और दीर्ध रहने पर भी यह भय बना रहता है कि यद्यपि शरीर और शक्ति में क्रमिक हास नहीं है किन्तु अधिक भोजन और मदिरापान के असंयम के फलस्वरूप सदैव स्वस्थ रहने वाला भी व्यक्ति रक्तचाप,आदि का सहसा शिकार हो जाता है । इन रोगों के कारण सहसा चक्कर आ जाना, बेहोशी, पक्षाघात आदि सांघातिक रोग हो जाते है ।
(२) उन्नत सूर्यक्षेत्र, सूर्य-रेखा एवं लम्बी अनामिका वाले व्यक्ति प्राणशक्ति का सदुपयोग करते है और दीर्घायु होते हैं ।
(३) जिन पर मंगल का प्रभाव अधिक हो अर्थात् मंगल के क्षेत्र उन्नत और विस्मृत हों उनकी भी वहीं प्रवृति होती है जैसी गुरु के प्रभाव वाले व्यक्तियों की होती है ।
(४) शुक्रक्षेत्र जिनका उच्च और विस्मृत है और जिनके अन्य लक्षण भी शुक का विशेष प्रभाव प्रकट करते है ऐसे व्यक्ति भी अधिक भोग-विलास द्वारा प्राणशक्ति का दुरुपयोग करते हैं और परिणाम हास ही होता है ।
(५) चन्द्र, बुध या शनि का प्रभाव जिन पर विशेष होता है उनकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत संयमित होती है ।

पतली और कम गहरी देखा
यदि जीवन-रेखा बहुत पतली और कम गहरी हो तो समझना चाहिए कि प्राणशक्ति सामान्य से कमं है । ऐसे व्यक्ति थोड़ा भी कारण उपस्थित होने पर बीमार हो जाते
हैं । ज्यादा शारीरिक कष्ट या परिश्रम भी सहन नहीं कर सकते । जीवन-रेखा किस हद तक पतली और उथली है यह निश्चय करने के लिए हाथ की और रेखाएँ भी देखनी चाहिएँ और फिर तुलनात्मक दृष्टि से निर्णय करना उचित है । यदि अन्य रेखाओं की अपेक्षा जीवन- .
रेखा गहरी है तो ऐसा व्यक्ति चिंता कम करेंगे । किन्तु यदि और रेखाओं की अपेक्षा जीवन-रेखा पतली है तो ऐसा व्यक्ति सदैव यह अनुभव करेगा कि वह बहुत परिश्रम कर रहा है और उस पर बडा जोर पड़ रहा है । उसके स्वास्थ्य बिगड़ने का डर रहता है । रेखा पर जहाँ भी कोई गडूढा, टूट या अन्य बीमारी का चिह्न हो तो अवश्य बीमारी होती है । बहुत पतली या उथली रेखा वाले व्यक्ति सदैव चिंतित-से रहते हैं । उन्हें भविष्य चिन्ता और विपक्षियों से ग्रस्त प्रतीत होता है । इसलिए जहाँ कष्ट, परिश्रम, आशंका या साहस का कार्य हो वहाँ ऐसे व्यक्तियों को कदापि नहीं चुनना चाहिए क्योंकि वे सदैव काल्पनिक आशंकाओं से ही भयभीत रहते है ।
जहाँ पतली रेखा के अवगुण है वहाँ इसका गुण भी यह है कि यदि बृहस्पति या मंगल का जिन पर विशेष प्रभाव है ऐसे व्यक्तियों के हाथ में पतली रेखा हो तो वे अत्यधिक भोजन नहीं करेगे और इस कारण बीमार नहीं होंगे । परन्तु क्षीण रेखा वाले व्यक्तियों का स्नायु-मडल प्राय: कमजोर रहता है और ये लोग सुस्त रहते हैं ।

चौडी और उथली रेखा
रेखा का चौडा होना गुण नहीं है । सकड़ी जगह में मात्रा उतनी ही होने से प्रवाह तीव्र होता है । किन्तु प्राणशक्ति जब चौड़ी रेखाओं में होकर प्रवाहित होती है तो उसकी गति मंद हो जाती है । इसलिए यदि आप देखें कि जीवन-रेखा गहरी नहीं है और चौडी है तो समक्रिए कि प्राण- शक्ति की कमी है । शरीर भी बलवान नहीं होता । ऐसे व्यक्ति तुरन्त रोग के शिकार हो जाते हैं । ऐसे व्यक्ति यदि देखने में मोटे भी हों तो समक्रिए कि उनमें बल अधिक नहीं है । रोग के कीटाणु ऐसे शरीर में शीघ्र ही अपना घर बना लेते हैं । ऐसे व्यक्तियों में आत्मविश्वास की भी कमी रहती है और वे सदैव किसी-न-किसी रोग की शिकायत करते रहते हैं । उन्हें प्राय: अपने मित्रों और सम्बन्धियों पर निर्भर रहने का अभ्यास हो जाता है और स्वयं जीवन में विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सकते । ऐसे व्यक्ति केवल ऐसा काम कर सकते हैं जो एक ही क्रम का हो और जिसमें नवीन रुफूर्ति, साहस या उत्तरदायित्व न हो । यदि ऐसे व्यक्तियों को किसी साहस और उत्तरदायित्व के काम में लगा दिया जाय तो ऐसे काम में वे अधिक दिन तक नहीं लगे रह सकते । यदि ऐसी रेखा निश्शक्त से, ढीले हाथ में हो तो ऐसा व्यक्ति बहुत ही आलसी होता है ।जिनकी ऊँगली के अग्रभाग चौड़े (आगे से फैले) होते है उनके हाथ में भी चौड़ी और उथली रेखा हो तो उनको भी यह निष्किय बना देती है और उनकी कार्य-शक्ति या क्रिया बहुत अल्प-मात्रा में रहती है । बृहस्पति, मंगल या शुक किसी भी ग्रह का प्रभाव इन मनुष्यों के ऊपर हो तो इनकी इच्छाएँ चित्त तक ही सीमित रहती है । कार्यान्वित करने की क्षमता उनमें नहीं होती । ऐसे व्यक्तियों की सन्तान भी कम ही होती हैं । चौडी और उथली रेखा
सब व्यक्तियों के हाथों में एक-सी नहीं होती । जितनी ही अधिक मात्रा में ये अवगुण हो उनके अनुरूप ही फलादेश करना चाहिए । यदि बाये हाथ की अपेक्षा दायें हाथ में रेखा अच्छी हो तो समझना चाहिए कि अब दशा सुधर रही है । किन्तु यदि दाहिने हाथ में रेखा अधिक खराब हों तो समझिये कि दशा और भी बिगड़ रहीं है ।
यदि हाथ की अन्य रेखाएँ उत्तम हों और केवल जीवन-रेखा में ही ये अवगुण हों तो समझना चाहिए कि असफलता का कारण ऐसे व्यक्ति की अस्वस्थता और निर्बलता है । शनि के क्षेत्र को भी ध्यान से देखना चाहिए । यदि यह क्षेत्र भी विस्मृत हो या शनि का प्रभाव विशेष हो तो ऐसे व्यक्ति प्राय: दुखी, गमगीन और कष्ट पाने वाले होते है और आत्महत्या तक करने की इच्छा हो जाती है ।
यदि स्त्रियों के हाथ में उपर्युक्त सब बाते हो और चन्द्रमा के क्षेत्र के नीचे के तृतीय भाग से स्त्री-रोग भी प्रकट होते हों तो उनमें उपर्युक्त निराशावाद और ऐहिक लीला समाप्त करने की
भावना और भी अधिक होती है । ऐसे हाथों में यह भी दूँढना चाहिए कि किस बीमारी के चिह्न या लक्षण है । माता-पिता को उचित है कि ऐसे लोगों का विवाह न करे ।

Effects of mercury in horoscope

First House
If weak – even medicine has no effect, children short lived. If in Capricorn sign – wicked, unbending. If in Gemini, Virgo, Libra, or Aquarius sign intelligent, good orator. If in Scorpio sign – chemist or physician. If with malefic – jaundice, ailments of bile. If exalted or in own sign – happiness from brother provided Rahu is not posited in 3rd house. If with Saturn –trouble in left eye. If in Capricorn sign – plumply body, impotent. If with lord of 6th or 8th house – defect of semen. If in Mool Trikona sign – extremely happy. If with lord of 2nd house – orator, diplomat. If with Rahu – imaginative.
Second House
Intelligent, hard worker, good orator, intellectual pursuits, agent/ advocate/ leader/ chartered accountant/ judge, intellectual, no wasteful expenditure, brave, fond of collecting many things, wealthy, long hair, progeny, honour form govt. Fortunate at the age of 25, wasteful expenditure at the age of 29, financial loss at the age of 26, sudden gain at the age of 36, sufferings at the age of 15. Logical, no patience, cannot be imprisoned even if involved in number of litigation cases provided Mercury is alone in 2nd house, enjoys all comforts, donor, devotee of father, skin disease, fond of sweets. If it is lord of 1st, 7th, 8th or 11th house – devoid of wealth, separation from family. If with malefics – wicked, uneducated, windy problems. If in Leo sign – benefic results in the main period and sub period of Mercury to the extent it is weak or afflicted with malefics. If with Venus and having aspect of benefics – successful businessman. If with Moon – weak eyes. If with Rahu – good luck, helpful, brings good luck for others. If with Jupiter – wealthy, learned, preceptor, brave.
Third house
Friendship with business class, interest in business, in company of brave people, polite, soft spoken, efficient, hard worker, fearful, palmist, writer, poet, editor, pleasure – seeker, fond of travel, few brothers, medium age, good co-borns, definitely leaves the motherland, ascetic, suffers due to son, financial gains to father at the age of 12. Depression and fearful during main/ sub – period of Rahu, understands secrets of trade,
Fourth house
Intelligent, fame, honour, highly educated, devoid of paternal wealth, comfort of conveyance, fortunate, donor, plumply body, lazy, writer, diplomats, always ahead of his colleagues, knowledge of occult subjects, enjoys all comforts.
Fifth House
Minister or adviser, devoid of happiness of progeny, possibility of son in the old age, selfish, wicked, accumulates wealth, good progress. Accountant or mathematician or lawyer, first issue is female, learns mantras, mother suffers at the age of 5 and 16, financial loss at the age of 22. Gets money buried underground,
sixth house
Opponent, expenditure on study of Yantra and Mantra, quarrelsome, lazy, priggish, leader of opposition party, sufferings equivalent to death at the age of 37, honour from government, ayurvedic doctor, pure meals, fear of enemy at the age of 21, 36 and 37, fear of arms at age of 26 and 32. Financial gains from cousins or other near relations, ailments in the navel, defeat of enemies, gastric problems, gains of spiritual knowledge from saints, expenditure in religious and auspicious work, gain from business of gems, sufferings due to deceitful servants, maternal uncles have only female issues.
seventh house
Commanding appearance, belongs to family of high status, expert in business, wealthy, writer, editor, religious, impotent, generous, helpful for spouse, spouse belongs to rich family, gets lot of dowry, extra – marital relation, relations with rich female, non – vegetarian food, jovial, intimate, very beautiful wife,
eighth house
Long life, well known figure in his own country and in foreign land, gains through business.poet, judge, and orator, lawyer, chartered accountant, religious, ascetic. Weak in studies till the age of 12, gets divine power, stomachache or pain in thighs, loss in partnership, sudden financial gains, it does not cause death even if it is malefic, does not cause much problem before death, head of family, always speaks truth, honour from government, embezzlement of other’s money. Special honour and luck at the age of 25, suffers at the age of 28, 32 and 35.
ninth house
Religious, intellectual, gets Vedic and Tantric education, brings fame to the family, adventurous, famous, shuts mouth of wicked people, devotee of father, good orator, donor, helps other, research oriented, interested in new things/ objects. During transit of Saturn in 9th house there is possibility of death of mother. Editor, writer, teacher, sons, destroyer of enemies, poet, interest in learning music,
tenth house
Gets inheritance, administrator and criminologist, has reputation for justice and fair play, talks less, intellectual, popular, enjoys reputation in society, poet, writer, devotee of parents, judge, magistrate, advocate, administrator, in government, dominating disposition, luck favours in financial matters. Financial gains at the age of 16, 27 and 29, high status in government, respected by others, enjoys all comforts, gets success in beginning itself, good memory.
eleventh house
Wealthy, prosperous, respected, long life, systematic, fame, intellectual, poet, editor, sons, destroyer of enemies, gains through government, gains in business, well educated, high status, idealistic, follows the path of truth, indigestion, interest in occult subjects, astrologer and palmist, dyspepsia, very happy in the age of 45, lucky at the age of 19, successful in business, more number of female issues, architect.
twelfth house
ntelligent but lazy, advocate, religious, knowledge of religion, affectionate with co – borns, expenditure on business, settles in foreign land, service of jail or court, association with wicked people, interested in extra – marital relations, financial loss at the age of 22, wife suffers at the age of 44 or 48, surgery of eyes after the age of 26, more than one source of income, expenditure for good cause, strong enemies are defeated, involved in religious activities, uncles happy, If weak – inauspicious results

हाथ में चन्द्र क्षेत्र

दाहिने हाथ में (नीचे की ओर) हथेली का बायाँ किनारा चन्द्र-क्षेत्र होता है है बायें हाथ में यह भाग हथेली की दाहिनी ओर वाला नीचे का भाग होता है । चन्द्र-क्षेत्र का कल्पना,
सौन्दर्यप्रियता, आदर्शवाद, काव्य, साहित्य आदि से विशेष सम्बन्ध है । यह समझ लेना चाहिये कि 'कल्पना' किसे कहते हैं । बुद्धि अत्यन्त सूक्ष्म और उच्च कोटि की होने पर भी मनुष्य कल्पना के बिना कवि नहीं हो सकता । कल्पना है "खयाली दुनिया' जिसमें हमारा दिमाग उड़ता रहता है | कल्पना के आधार पर ही कुशल चित्रकार अपनी सूझ से ऐसा दृश्य बनाता है जैसा कि न कहीं उसने
देखा हो न सुना । कल्पना के आधार पर ही हजारों वर्ष पहले हुई घटना के मामूली से पर के लेखक हजारों पृष्ठ का सुंदर और रोचक उपन्यास लिख देते है । कल्पना के आधार पर ही 'सट्टा ' करते हैं ।
जिनके हाथ में चन्द्र क्षेत्र दबा हुआ हो उनमें कल्पना, मन की विशेष रुफूर्ति, नये आविष्कार या सूझ के विचार नहीं होते । जिनके हाथ में यह उच्च हो वे काव्य, कला, कल्पना, संगीत, साहित्य आदि में सफल होते हैं । शरीर से आलसी अर्थात् एक ही जगह पड़े रहेंगे, पर उनका मन सारे संसार में घूमता रहेगा और हजारों खयाली दृश्य बना लेगा । अन्य गुणों के साथ कल्पना का होना सहायक होता है किन्तु यदि अन्य गुण न हों, केवल बुद्धिहीनता हो तो कल्पना होने से मनुष्य शेखचिल्ली की तरह खयाली मनसूबे बांधता रहता है । यदि यह भाग साधारण उच्च हो और मध्य का तृतीयांश विशेष फूला हुआ हो तो अन्तडियों की बीमारी व पाचन-शक्ति की कमी होती है । यदि ऊपर का तिहाई हिस्सा अधिक ऊँचा हो तो गठिया, पित्त, कफ आदि के रोग होते है । सारा भाग अत्युच्च हो और स्वास्थ्य के अन्य लक्षण अच्छे न हों तो चिड़चिड़ापन, दु:खी मनोवृति, पागलपन, सिर-दर्द आदि के रोग होते है । यदि यह क्षेत्र ऊँचा न हो बदिक लम्बा और सकड़ा हो तो शान्तिप्रियता, एकांतवास, ध्यान में मन लगाना, नवीन कार्य में उत्साह न होना आदि होते है ।

हाथ में मंगल क्षेत्र

मंगल-क्षेत्र-मंगल के दो क्षेत्र होते है । एक चन्द्र-क्षेत्र और बुध क्षेत्र के बीच में और दूसरा बृहस्पति क्षेत्र के नीचे जहाँ से जीवन-रेखा प्रारम्भ होती है । यह दूसरा क्षेत्र जीवन-रेखा के अन्दर शुकक्षेत्र की समाप्ति पर होता है ।मंगल का साधारण गुण है साहस, बल, लड़ाई की शक्ति, प्रवृत्ति ग्रेरदि । ये सब गुण मंगल के प्रथम क्षेत्र से विचार करने चाहिये । जिनका यह क्षेत्र उच्च हो वे साहसी होगे, लड़ाई करेगे और द्बेगें नहीं ( यह प्राय: अनुभव-सिद्ध है कि बल-प्रयोग व साहस आदि का संसार में सदुपयोग भी होता है और दुरूपयोग भी । यदि हाथ में अन्य लक्षण अच्छे हों तो ऐसा व्यक्ति फौज में या जहाँ साहस की आवश्यकता हो ऐसे उच्च पद में सफल हो सकता है । इसके विपरीत यदि अन्य अशुभ लक्षण हों तो ऐसा व्यक्ति डाकू, लूट-मार करने वाला भी हो सकता है । यदि यह दबा हुआ हो तो मनुष्य कायर होता है । बहुत दबा हुआ होना जिस प्रकार दुर्गुण है उस प्रकार अत्यन्त ऊँचा होना भी दोषयुक्त है । वैसा होने से दुस्साहस, अत्याचार करने की प्रवृत्ति, क्रूरता आदि होती है ।
'साहस' का यदि विश्लेषण किया जावे तो दो प्रकार का होता है (१) जिसके होने से मनुष्य दूसरे पर आक्रमण करता है, ( २ ) जिसके कारण यदि कोई दूसरा आक्रमण करे तो मनुष्य बलपूर्वक अपनी रक्षा करता है । प्रथम प्रकार का साहस मंगल के प्रथम क्षेत्र से देखना चाहिए । दूसरे प्रकार का साहस अर्थात् अपनी रक्षा करने की क्षमता, धैर्य, आत्म-संयम आदि गुण मंगल के द्वितीय क्षेत्र से देखने चाहिये । मंगल-क्षेत्र उच्च होने से खून में जोश जल्दी आता है । यदि अन्य रोग चिह्न हों तो रक्तचाप-वृद्धि, चर्म-विकार, रक्त-विकार आदि रोग होते हैं । पेट में शोथ भी होता है ।

हाथों में बुध क्षेत्र

यह कनिष्ठिका उँगली के नीचे होता है । इसमें बुद्ध-ग्रह के सब गुण होते है यथा, किसी एक स्थान या कार्य से मन उकता जाना और दूसरे नवीन स्थानों पर जाना, यात्रा, या नये लोगों से सम्पर्क स्थापित करना, शीघ्र विचार कर लेने की या बोलने की शक्ति, हाजिर-जवाबी, मजाक आदि । यदि हाथ में अन्य शुभ लक्षण हों तो ये सब गुण शुभ फल देने वाले होते है । यदि अन्य अशुभ लक्षण हों और बुघ-क्षेत्र दोषयुक्त हो तो चालाकी, धोखा देना, जालसाजी आदि द्वारा मनुष्य अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करता है ।
यदि बुध क्षेत्र नीचा हो तो हिसाब-किताब, वैज्ञानिक कार्य या किसी ऐसे व्यापारिक कार्य में भी मनुष्य की तबियत नहीं लगती जिसमें हिसाब-किताब की विशेष आवश्यकता हो ।
यदि साधारण उच्च हो तो ऐसा मनुष्य सुन्दर वक्ता, व्यापारिक चतुरतामुक्त, बुद्धिमान, शीघ्र कार्य करने वाला, यात्रा-प्रेमी होता है । उसमें नवीन आविष्कारक बुद्धि भी विशेष होती है । यदि उंगलियों के अग्रभाग (१) नुकीले हो तो बहुत सुन्दर वकतृत्व-शक्ति होती है, (२) चतुष्कोणाकृति हों तो तर्क-शक्ति बलवान होती है ।(३) यदि आगे से फैली हुई हों तो उसकी जिरह या दलील बहुत प्रभावयुक्त होती है ।
जिनका बुध-क्षेत्र उच्च होता है वे हास्यप्रिय, गोष्ठी पसन्द करने वाले होते हैं । यदि बुध-क्षेत्र चिकना और रेखा-रहित हो तो ऐसे व्यक्ति जिस काम को प्रारम्भ करते हैं उसे अन्त तक पूरा करते है । यदि बुध-क्षेत्र अति उच्च हो तो मनुष्य को जितना ज्ञान होता है उससे कहीं अधिक विद्वान् होने का ढोंग करता है । ऐसे लोगों में धोखा देना या फरेब की प्रवृत्ति भी होती है । कनिष्ठिका जंगली टेढी होने से बेईमानी की पुष्टि होती है ।
यदि बुध क्षेत्र पर तीन खड़ी रेखा हों और क्षेत्र साधारण उन्नत हो तो मनुष्य कुशल डॉक्टर या वैद्य हो सकता है । यदि कनिष्टिका ऊँगली का प्रथम पर्व लम्बा और नाख़ून छोटे हों तो ऐसा व्यक्ति सफल वकील हो सकता है । यदि यह उँगली नुकीली भी हो तो ऐसा व्यक्ति सुन्दर वक्ता होता है । यदि द्वितीय पर्व लम्बा हो तो कुशल वैज्ञानिक या डॉक्टर हो सकता है । यदि तृतीय पर्व लम्बा हो तो व्यापार द्वारा विशेष धन कमा सकता है ।
बुध-क्षेत्र का स्नायु-विकार, पित्तज रोग, उदर-विकार, यकृत रोग, मन्दाग्नि आदि से विशेष सम्बन्ध है ।

जानिये आज 26/09/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से "शक की बीमारी कहीं ग्रहों की गड़बड़ी तो नहीं"


जानिये आज का सवाल जवाब2 26/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


जानिये आज का सवाल जवाब1 26/9/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


जानिये आज का सवाल जवाब 26/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


जानिये 26/09/2015 के राशिफल धनु से लेकर मीन तक


जानिये 26/09/2015 के राशिफल सिंह से वृश्चिक तक


जानिये 26/09/2015 के राशिफल मेष से कर्क तक


जानिये आज का पंचांग 26/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


Friday, 25 September 2015

बदनामी का ज्योतिष्य कारण


जानिये आज के सवाल जवाब 2 25/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से



जानिये आज के सवाल जवाब 1 29/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से



जानिये आज के सवाल जवाब 25/09/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


जानिए आज 25/09/2015 के राशिफल का हाल धनु से लेकर मीन तक


जानिए आज 25/09/2015 का राशिफल के हाल सिंह दे लेकर वृश्चिक तक


जानिए आज का राशिफल मेष से लेकर कर्क तक प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


सूर्य क्षेत्र

यह अनामिका ऊँगली के नीचे होता है । यह उन्नत होने से मनुष्य में उत्साह और सौदर्यप्रियता होती है । चाहे मनुष्य कलाकार या संगीतज्ञ न हो किन्तु काव्य-कला और संगीत में उसकी रुचि अवश्य रहती है । ये इस ग्रह-क्षेत्र के साधारण गुण है । अब निम्न, साधारण, उच्च या अति उच्च इन तीनों लक्षणों के अलग-अलग फल बताये जाते हैं…-
यदि यह क्षेत्र बिलकुल धंसा हुआ हो तो उत्साह-शक्ति कम होती है । कला, काव्य आदि की ओर मन बिलकुल नहीं जाता । न अध्ययन की ओर रुचि होती है । तमाशा देखना, खाना-पीना बस यहीं जीवन का ध्येय होता है । बुद्धि प्रखर नहीं होती ।
यदि साधारण उच्च हो तो जो गुण प्रारम्भ में बताये गये है वहीं होते है । कला, काव्य, सौन्दर्यप्रियता आदि की ओर प्रवृत्ति रहते हुए भी सृजन-शक्ति नहीं होती ।
यदि अच्छी प्रकार उच्च हो तो यश, मान, प्रतिष्ठा, धन-संग्रह आदि में सफलता होती है । सौन्दर्यप्रियता विशेष होती है, विवाह की ओर रुचि होते हुए भी या विवाह कर लेने पर भी इन्हें पूर्ण वैवाहिक सुख प्राप्त नहीं होता, क्योंकि इनका आदर्श बहुत ऊंचा होता है । ये लोग आभूषण-प्रेमी होते है । धार्मिकता की ओर भी इनकी रुचि होती है । यदि उगलियों का प्रथम पर्व लम्बा हो तो काव्य या साहित्यकर्ता या कलाकार होते है ।यदि बहुत अधिक उच्च हो तो 'अति' माना में गुण भी अवगुण हो जाते हैं । 'अहं' भाव या अभिमान बहुत बढ़ जाता है । इनमें ईष्यदें, खुशामदप्रियता आदि दुमुँग्नप्ला होते है । यदि साथ ही अंगूठे का प्रथम पर्व अधिक लम्बा और द्वितीय पर्व छोटा हो,उंगलियाँ टेढी हों तो ये दुर्गुण विशेष मात्रा में होते है ।
स्वास्थ्य की दृष्टि से नेत्र-विकार, कम दिखाई देना, हृदय-रोग आदि का सूर्य-क्षेत्र से विशेष सम्बन्ध है । यदि शीर्ष-रेखा पर सूर्य-क्षेत्र के नीचे बिन्दु-चिह्न हो तो अंधापन, यदि हृदय-रेखा द्वीपयुक्त या अन्य दोषयुक्त हो तो हृदय-रोग होता है ।

शनि क्षेत्र

यह मध्यमा उँगली के नीचे होता है । इसके स्वाभाविक गुण है एकान्तप्रियता, शांति, बुद्धिमता, दूरदर्शिता, परिश्रमशीलता किसी वस्तु का गभीरतापूर्वक अध्ययन । धार्मिक संगीत या दु:खान्त, गभीर स्वर वाले संगीत की इच्छा आदि ।
यदि किसी हाथ में शनि-क्षेत्र बिलकुल गुणरहित हो (अर्थात् न ग्रह-क्षेत्र गुणयुक्त हो, न उस पर कोई रेखा हो और न मध्यमा ऊँगली ही अच्छी,बलिष्ठ और सुन्दर हो) तो उस मनुष्य के जीवन में कोई भी महत्वयुक्त बात नहीं होती । यदि साधारण उन्नत हो तो मनुष्य विचारशील होता है । किसी खतरे के काम में नहीं जाता । ऐसे लोग प्राय: ऐसा काम करते हैं जिसमें परिश्रम अधिक हो पर निश्चित कमाई हो, रुपये में घाटा न लगे । प्राय: ऐसे व्यक्तियों की लम्बी उँगलियों हो तो प्रथम तथा द्वितीय पर्व के बीच की गाँठ निकली हुई, गठीली होती है । यदि शनि-क्षेत्र बहुत अधिक उन्नत हो तो मनुष्य पर शनि का प्रभाव अधिक होने से दुखी, विशेष चिनंतायुक्त, सदैव मृत्यु की बाबत सोचता रहता है । उसमें अविश्वास की मात्रा अधिक होती है । अन्य अशुभ लक्षण होने से आत्महत्या
की प्रवृति अधिक होती है ।
प्राय: हाथों में शनि-क्षेत्र अति उन्नत दिखाई नहीं देता । किन्तु यदि मध्यमा उंगली बहुत अधिक बडी हो (साधारणता तर्जनी या अनामिका से आधा पर्व लम्बी होती है, यदि इससे भी अधिक लम्बी हो) तो शनि के गुण उस मनुष्य में विशेष होते हैं । यदि मध्यमा विशेष बडी और बलिष्ठ हो और अन्य उगलियाँ मध्यमा उंगली की ओर झुकी हों तो भी शनि-क्षेत्र को बलवान, समझना चाहिए ।
सभी ग्रहों के प्रभाव के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि थोडी मात्रा में जो गुण होते है वहीं अधिक मात्रा में अवगुण हो जाते है । शनिक्षित्र थोडा उन्नत हो तो विचारशीलता, मितव्ययता, दूरदर्शिता आदि गुण होते है । अधिक मात्रा में उन्नत होने से मनुष्य कंजूस और लोभी हो जाता है । दूसरो के साथ रहना पसन्द नहीं करता, विवाह में रुचि नहीं होती, किसी नये कार्य में उत्साह नहीं होता । यदि हाथ में अन्य अशुभ लक्षण हो तो ऐसे व्यक्ति पाप या जुर्म करने वाले या अन्य दोषयुक्त होते है । यदि उँगलियों के प्रथम पर्व लम्बे हो तो ऐसे व्यक्ति गभीर शास्त्र-अध्ययन करने वाले, गुप्त विद्याओं के प्रेमी होते है । द्वितीय पर्व लम्बा हो तो जमीन, रसायन, लोहा या खनिज पदार्थों का व्यापार करते है । सूक्ति पर्व लम्बा हो तो दुनिया की चालाकी या नीच वृत्ति अधिक होगी ।
शनि-क्षेत्र यदि बिगडा हो तो स्वास्थ्य की दृष्टि से दांत या कान की बीमारी, वातरोग, गठिया, नसों का फूल जानता या सरुत हो जाना, हड्डी टूटना, दुर्घटना, दम घुटना या लम्बे समय तक जारी रहने वाली बीमारी होती है ।

हाथों में गुरु या बृहस्पति-क्षेत्र

गुरु या बृहस्पति-क्षेत्र- बृहस्पति को ही गुरु कहते हैं । जिस व्यक्ति के हाथ में बृहस्पति-क्षेत्र उच्च हो उसमें महत्वाकांक्षा, अभिमान, उत्साह और हुकूमत करने की इच्छा अधिक मात्रा में होती है । यदि किसी व्यक्ति के हाथ में गुरु-क्षेत्र बहुत चपटा हो तो उसमें धार्मिक विश्वास, माता-पिता या गुरु-जनों में श्रद्धा नहीं होती । उचित मात्रा में उन्नत होने से धार्मिक विश्वास, प्रकृति-प्रेम, कुछ खुशामदप्रियता, बाहरी तड़क-भड़क या दिखावे की भावना होती है । यदि यह क्षेत्र अधिक उन्नत हो तो हृदय में अहंकार बहुत अधिक होता है । ऐसा व्यक्ति झूठी शान दिखाने के लिए अपव्यय भी बहुत करता है । दूसरी को दबाने में कुरता का उपयोग या अहं- भाव के कारण ईष्या-द्देष, स्वार्थपरता आदि अवगुण भी होते हैं । यदि गुरु-क्षेत्र अति उन्नत हो और उंगलियों के अग्रभाग (१) नुकीले हों तो अंधविश्वास विशेष होता है, (२) चतुष्कोणाकृति हों तो क्रूरता विशेष होती है । यदि उँगलियों लम्बी हों और जोड़ (उंगलियों की गांठे) निकली हुई न हो और गुरु-क्षेत्र अति उक्त हो तो ऐसे व्यक्ति बहुत आरामपसन्द, विलासी और खर्चीले होते हैं ।
यदि मनुष्य पर बृहस्पति का प्रभाव अधिक हो (जो ग्रह-क्षेत्र की उन्नति और तर्जनी की बलिष्ठता से साबित होगा) तो यह देखना चाहिए कि तर्जनी ऊँगली का कौनसा पर्व लम्बा है । यदि प्रथम पर्व बड़ा हो तो ऐसा व्यक्ति राजनीतिक, धार्मिक या बौद्धिक (पठन-पाठन, ग्रन्थ-लेखन) क्षेत्र में सफल होगा । यदि द्वितीय पर्व बड़ा और लम्बा हो तो व्यापारिक क्षेत्र में सफलता होगी । खूब धन कमाएगा । यदि तृतीय पर्व बड़ा और पुष्ट हो तो खाने-पीने का शौकीन व विलासी होगा । ऐसे व्यक्ति को अधिक खाने से मिरगी आदि रोग भी विशेष होते है ।

स्वास्थ रेखा का प्रारंभ

साधारणत: इस रेखा का प्रारम्भ चन्द्र-क्षेत्र से होना चाहिये किन्तु बहुत कम हाथों में ऐसा होता है । बहुत बार यह ( १) जीवन-रेखा से (२) या भाग्य-रेखा से या (३) करतल-मध्य से
प्रारम्भ होकर बुध-गोत्र की ओर जाती है । यदि भाग्य-रेखा और चन्द्र-क्षेत्र के बीच से यह-रेखा प्रारम्भ हो तो कोई दोष नहीं किन्तु भाग्य-रेखा या जीवन-रेखा या इन दोनों के बीच के स्थान से प्रारम्भ होना अच्छज्जा लक्षण नहीं है| यदि स्वास्थ्य-रेखा जीवन-रेखा से प्रारम्भ हो तो ऐसा जातक पूर्ण स्वस्थ नहीं रहेगा । जीवन-रेखा से प्रारम्भ होकर कोई रेखा स्वास्थ्य-रेखा से मिल जावे तो उसे अशुभ लक्षण नहीं समझना चाहिए । यदि स्वास्थ्य-रेखा गहरी हो तो स्वास्थ्य भी उत्तम रहेगा । उत्तम स्वास्थ्य रहने से अलसी स्मरण-शक्ति, बुद्धिमत्ता आदि गुपा भी होगे । यदि किसी की जीवन-रेखा पतली, शुह्नलत्कार या अन्य दोष-युक्त हो और स्वास्थ्य-रेखा उत्तम हो तो जिस प्रकार सुन्दर मंगल-रेखा जीवन-रेखा के दोष को दूर कर प्राणों को बल प्रदान करती है, उसी प्रकार सुन्दर स्वास्थ्य-रेखा होने से दोषयुक्त जीवन-रेखा के अशुभ फल कम हो जायेगे ।मस्तिष्क की कमजोरी प्राय: मंदाग्नि आदि पेट की खराबी से होती है । इस कारण शीर्ष-रेखा अच्छी भी हो किन्तु स्वास्थ्य-रेखा खराब हो तो शीर्ष-रेखा का पूर्ण शुभ फल नहीं प्राप्त होगा । सुन्दर स्वास्थ्य-रेखा होते से हृदय-रेखा के दोष भी कुछ अंशों तक दब जाते हैं । इसका कारण यह है कि हृदय और जिगर का सम्बन्ध है ।यदि तीनों रेखायें ( जीवन, शीर्ष और हृदय) सुन्दर हो और मंगल तथा स्वास्थ्य-रेखायें पी अच्छनें हों तो ऐसा जातक पूर्ण स्वस्थ रहेगा । यदि ऐसे व्यक्ति का मगल-क्षेत्र अति उन्नत हो, हाथों पर बाल हों तो उसमें तामसिक प्रकृति अधिक होने के कारण उसे कसरत, खेल-कुद आदि में अपनी शक्ति लगानी चाहि ' अन्यथा उसकी पूर्ण शक्ति उसे प्रकारों की ओर ले जावेगी ।

सूर्यरेखा

जिस प्रकार भाग्य-रेखा मणिबन्ध या चन्द्र-क्षेत्र या हथेली के मध्य से, या जीवन- रेखा से निकल कर शनि-क्षेत्र किया गुरु-क्षेत्र को जाती है उसी प्रकार सूर्य-रेखा मणिबन्ध या जीवन-रेखा से या चन्द्र किंवा भौम-क्षेत्र से या अनामिका उंगली और मणिबन्ध के बीच के किसी स्यान से निकलकर सूर्यक्षेत्र को जाती है । इसे सूर्य-रेखा कहते हैं ।
सूर्य-रेखा और भाग्य-रेखा के फलों में समानता
बहुत से हाथों में यह होती ही नहीं ; बहुत से हाथों में होती है किन्तु अस्पष्ट और छोटी । एक प्रकार से यह भाग्य-रेखा की सहायिका है । यदि भाग्य-रेखा टूटी हो और सूर्य-रेखा पुष्ट हो तो भाग्य-रेखा के दोष को कम करती है । जिस अवस्था में भाग्य-रेखा टूटी हो-उसी अवस्था में सूर्य-रेखा पुष्ट और सुन्दर हो तो निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि जातक का वह जीवन- काल-भाग्य-रेखा के टूटे रहने पर भी यश और मान से पूर्ण होगा ।भाग्य-रेखा के खण्डित होने पर, उसके पास कोई सहायिका समानान्तर-रेखा थोडी दूर तक चलकर भाग्य-रेखा के खण्डित होने के दोष को जो दूर करती है, उसकी अपेक्षा स्वतन्त्र सूर्य-रेखा का कहीं अधिक महत्व है ।सीध में मणिबन्ध से-या इस बीच में कहीं से प्रारम्भ हो और सूर्य-क्षेत्र तक न पहुंचे, बीच में कहीं रुक जावे तो भी सूर्य-क्षेत्र के बिलकुल नीचे खडी रेखा होने से तो भी यह सूर्य-रेखा ही कहलायेगी किन्तु सूर्य-क्षेत्र पर न पहुंच पाने के कारण सूर्य-क्षेत्र के सब गुण पूर्ण मात्रा में ऐसी रेखा में नहीं मिलेगे । इसका फल श्रेष्ठ है । इस रेखा से मनुष्य विद्वान्,यशस्वी, पुण्यशील होता हैं ।

भाग्य-रेखा का प्रारम्भिक स्थान

भाग्य-रेखा या तो ( १) मणिबन्ध से प्रारम्भ होती है, (२) या उससे कुछ हटकर हथेली के आरम्भ से, ( ३ ) या कुछ टेढी चन्द्र- क्षेत्र के नीचे के भाग से, (४) या शुक्रक्षेत्र से प्रारम्भ होकर टेडी हाथ के मध्य भाग में आती है और फिर ऊपर की ओर (उगलियाँ की ओर) जाती है, (५) या जीवन-रेखा के नीचे के भाग से भिडी हुई प्रारम्भ होकर शनि-क्षेत्र को जाती है । (६) या हथेली के मध्य से, (७) या केवल शनि क्षेत्र पर होती है ।
(१) यदि मणिबन्ध की तृतीय रेखा से प्रारम्भ हो तो जातक को कोई भारी शोक होगा । किन्तु यदि मणिबन्ध की प्रथम रेखा से प्रारम्भ हो तो बचपन से ही उसके कंधों पर अपना या अन्य कुटम्बी जनों का भी बोझा पड़ जायगा । यदि मनिबन्ध की प्रथम रेखा से प्रारम्भ होकर हृदय-रेखा तक आवे तो ऐसे जातक को जीवन में या तो प्रेम-सम्बन्ध के कारण जीवन-भर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है या अन्य रोग-चिह हों तो हृदय-रोग होता है । यदि मणिबन्ध से निकलकर यह सीधी मध्यमा उगली के तृतीय पर्व तक (पर्व के ऊपर) चली जाय तो ऐसे मनुष्य के भाग्य में गहरा उलट-फेर होता है । यदि हाथ के अन्य लक्षण शुभ हो तो भाग्योदय यदि अन्य लक्षण अशुभ हो तो इसके विपरीत समझना चाहिए ।
(2) यदि करतल के नीचे से प्रारम्भ हो तो जातक को स्वयं अपने उद्योग और परिश्रम से आर्थिक सफलता प्राप्त होगी ।
3) यदि चन्द्र-क्षेत्र से यह रेखा प्रारम्भ होकर शनि-क्षेत्र तक जावे तो ऐसे पुरुष का किसी रुत्री की सहायता या सहयोग से भाग्योदय होता है । बहुत बार यह भी देखा है कि ऐसे पुरुष अपनी ही पत्नी की उचित और नेक सलाह मानते है और उन्हें सफलता प्राप्त होती है । यदि किसी स्त्री के हाथ में ऐसी रेखा हो तो अच्छे कुल में विवाह के कारण उसका भाग्यन्दिय होगा । यदि वह स्त्री स्वयं नौकरी या अन्य कार्य करती है तो किसी पुरुष की सहायता से उसकी पदोन्नति होगी ।
4) यदि शुक-क्षेत्र से भाग्य-रेखा प्रारम्भ हो तो यह प्रकट करती है कि जातक का भाग्योदय होगा और उसे आर्थिक सफलता मिलेगी । इसमें उसके सगें-सरूत्रदृधी सहायक होगे ।
5) यादे जीवन-रेखा से भिड़कर प्रारम्भ हो तो जातक को अपने उद्योग से सफलता मिलती है परन्तु कुटुस्वी लोग उसे इतना योग्य बना देते है कि वह अपने पैरो पर खडा हो सके । किन्तु यदि जीवन-रेखा के पास-पास कुछ दूर तक भाग्य-रेखा रहे और उससे भिड़ी हुई न हो तो जीवन के प्राररिभक भाग में घर के लोगों का जातक पर विशेष प्रभाव रहेगा यह सूचित होता है ।
6) यदि भाग्य-रेखा हथेली के मध्य से प्रारम्भ हो तो समझना चाहिए कि जातक के जीवन का प्राररिभक भाग अच्छी स्थिति में नहीं बीता । यदि जीवन-रेखा का प्रारम्भिक भाग अस्वास्थ्य प्रकट करता हो और जिस अवस्था से भाग्य-रेखा प्रारम्भ हो रही हो उस अवस्था से जीवन-रेखा भी स्वास्थ्य प्रदर्शन कर रही हो तो समझना चाहिए कि स्वास्थ्य अच्छा न होने के कारण जीवन के शुरू में भाग्योदय नहीं हो सका । इसी प्रकार यदि जीवन-रेखा तो प्रारम्भ से ही अकली हो किन्तु शीर्ष-रेखा अच्छी न हो तो दिमागी कमजोरी या पढाई में असफलता के कारण प्रारम्भिक काल में भाग्य में रुकावट हुई । यदि जीवन-रेखा, शीर्ष-रेखा तथा हृदय-रेखा भी कोई खराबी प्रकट न करे तो हाथ के अन्य भागो को देखकर यह निश्चय करना उचित है कि किस कारण प्राररिभक अवस्था में अच्छा समय नहीं बीता । उदाहरण के लिए यदि बाये हाथ में तो काफी नीचे से भाग्य-रेखा प्रारम्भ हुई हो किन्तु दाहिने हाथ में हथेली के मध्य भाग से प्रारम्भ हुई हो तो यह अनुमान लगाना चाहिए कि जब जातक पैदा हुआ तब स्थिति ठीक थी किन्तु बाद में स्थिति बिगड़ गई । यह स्थिति क्यों बिगडी इसका कारण ढूँढना चाहिए । जीवन के प्रारम्भिक भाग में जातक का अपना उतना दोष नहीं होता है जितना परिस्थिति का प्रभाव । उदाहरण के लिए यदि शुक्रक्षेत्र पर जीवन-रेखा के समानान्तर मंगल के द्वितीय-क्षेत्र से कोई प्रभाव-रेखा आए और कुछ दूर चलने पर उसके अन्त में तारे का चिह्न हो तो यह माता या पिता, किसी के प्रभाव का अन्त हो गया अर्थात् उसकी मृत्यु हो गई, यह प्रकट करता है । ऐसे हाथ में यदि भाग्य-रेखा हथेली के मध्य से प्रारम्भ हो तो यह परिणाम निकालना चाहिए कि पिता की मृत्यु के कारण आर्थिक परिस्थिति कमजोर हो जाने से, जीवन के प्रारम्भिक भाग में रुकावट रहीं ।
(७) यदि केवल शनि-क्षेत्र पर ही भाग्य-रेखा हो तो समझना चाहिए कि जीवन का मध्य भाग बहुत कठिनता से बीता और भाग्योदय पचास वर्ष की अवस्था के बाद हुआ ।