Tuesday, 3 November 2015

ह्रदय रेखा का प्रभाव

हथेली पर मौजूद हर रेखा अपने आपमें एक प्रकार के जीवन शक्ति प्रवाह की परिचायक होती है, तथा यही रेखायें व्यक्ति के जीवन की सूक्ष्मतर स्थितियों का संकेत करती हैं। इन्ही रेखाओं के दोषी होने पर व्यक्ति के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट और अटूट रेखाएँ व्यक्ति के जीवन के सफलता को प्रमाणित करती हैं। हस्त रेखाएँ पूरे जीवन की व्याख्या कर देती हैं। हथेली की प्रत्येक रेखा व्यक्ति के किसी न किसी घटना को स्पष्ट करती है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि घटनाओं की निश्चित् तिथियाँ नहीं बतायी जा सकती पर स्थान, नाम आदि बताना सम्भव है। गहन अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर घटित घटनाओं को ठीक पास में लाया जा सकता है। अधिक अभ्यास हो जाने के बाद आप घटना के लिए जो तिथि निर्णय करेंगे तो आम तौर पर उस तिथि पर वह घटना घटेगी, यह परिश्रम अध्ययन और फलादेश की प्रमाणिक युक्ति है। यह भी ध्यान रखना होता है कि मस्तिष्क के गुणों, दोषों के अनुसार रेखाये परिवर्तित होती रहती हैं।
हृदय रेखा 16 प्रकार की मानी गई हैः- जगती , राजपददात्री , कुमारी , गान्धारी , सेनानित्वप्रदा , दरिद्रकारी , धृती , वासवी , चम्पकमाला , वैश्वदेवी , त्रिपदी , महाराजकरी , रमणी , चपलवदना , कुग्रहणी आदि। कभी-कभी हथेली पर बहुत अधिक और कभी-2 बिल्कुल कम रेखाएँ देखने में आती हैं। जीवन रेखा एक ऐसी रेखा है जो प्रत्येक मनुष्य के हथेली में होती है, अन्य रेखाओं की अनुपस्थिति में दूसरी छोटी रेखाओं द्वारा पूर्ण की जाती है। प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कुछ गौण और कुछ मुख्य रेखायें होती हैं। ये रेखायें मनुष्य के चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने वाली होती हैं। अतः इनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति भी हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कुछ गौण और कुछ मुख्य रेखायें होती हैं। ये रेखायें मनुष्य के चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने वाली होती है। अतः इनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति भी हो सकती है।
मुख्यतः रेखायें चार प्रकार की होती हैं।
 1. गहरी रेखा- यह रेखा पतली होने के साथ-2 गहरी (मोटी) भी होती है।
2. ढलुआ रेखा- यह रेखा शुरु में मोटी होती है तथा ज्यों-जयों आगे बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों पतली होती जाती है।
3. पतली रेखा- वह रेखा शुरु से आखिर तक एक आकार (पतली) में होती है।
4. मोटी रेखा- यह रेखा चैड़ायी लिये होती है और पूर्णतः स्पष्ट होती है।
मनुष्य के हाथ में गहरी, स्पष्ट और सरल रक्त वर्ण की, हृदय रेखा व्यक्ति को मानवीय गुणों से सम्पन्न करती है। दाहिने हाथ की हृदय रेखा जितनी ज्यादा साफ और गहराई लिये होगी व्यक्ति उतना ही अधिक सरस, न्यायप्रिय तथा परोपकारी माना जाता है। किन्तु हृदय रेखा यदि कटी, टूटी या अस्पष्ट होगी, तो व्यक्ति देखने में, चाहे जितना सज्जन क्यों न हो वह दिल से पापी और कलुषित होगा। ऐसा व्यक्ति असभ्य, बद्चलन चरित्रहीन विवेकशून्य आदि अवगुणों वाला होगा। ऐसे व्यक्तियों का आसानी से यकीन करना अपने आप को धोका देने के बराबर है। इसका हृदय से सीधा सम्बन्ध माना गया है। जो कि जीवन का प्राथमिक अंग है, जहां से संचालन का नियन्त्रण होता है। निर्दोष और सबल हृदय रेखा स्वस्थ्य हृदय की परिचायक है। करीब एक सौ हाथों में एकाध हथेली ही ऐसी होती है जिसमें हृदय रेखा का अभाव होता है। हथेली में इस रेखा की अनुपस्थिति व्यक्ति के अमानवीय प्रवृत्तियों को स्पष्ट करती है। यह रेखा व्यक्ति को दुर्गुण एवं गुण दोनों प्रदान करती है। प्राचीन हस्तरेखा ग्रन्थों के अनुसार हृदय रेखा तीन स्थानों से शुरु होती है। 1. शनि और गुरु पर्वत के मध्य से 2. गुरु पर्वत के केन्द्र से 3. शनि पर्वत के केन्द्र से।
1.अ. शनि गुरु के मध्य से- ऐसे व्यक्ति व्यवहार कुशल और स्नेही होते हैं। इनका प्रेम जीवन की प्राथमिकता पूर्ति के बाद शुरु होता है।
1.ब. गुरु पर्वत के केन्द्र से- यह हृदय रेखा मनुष्य के प्रणव सम्बन्धों और स्नेह को आदर्शवादी आधार प्रदान करती है। ऐसे व्यक्ति विषम परिस्थिति एवं आपत्ति काल में भी सम्बन्धों का निर्वाह करने में सफल होते हैं।
1.स. शनि पर्वत से- यह हृदय रेखा स्वार्थ भावना उत्पन्न करती है तथा ऐसे लोग वासना के प्रति यकीन रखते हैं। ऐसी भावना रखते हैं कि जिसमें अपना स्वार्थ झलकता हो और प्रेम वासना अधिक पायी जाती है, इसलिए प्रेम सम्बन्धों में स्वार्थी होते हैं।
2.अ. मस्तिष्क रेखा के निकट से आरम्भ होने वाली हृदय रेखा असाधारण रूप से दीर्घ हो तो ईष्र्या की भावना उत्पन्न करती है तथा प्रेम सम्बन्धों में ये असफल होते हैं।
2.ब. अधिक दीर्घ हृदयरेखा भावनात्मक प्रवृत्ति को उत्पन्न करने वाली होती है, तथा छोटी हृदय रेखा अच्छी मानी गयी है।
2.स. हृदय रेखा जिस पर्वत को छूती हुई या स्पर्श करती हुई आगे की ओर जाती है या वहीं झुक जाती है, तो ऐसी हालत में पर्वत विशेष का गुण हृदय में अधिक पाया जाता है।
3.अ. यदि हृदय रेखा मस्तिष्क रेखा में पूरी तरह शामिल हो जाय, तो उस आयु में हृदय की स्वतंत्र ईकाई नष्ट हो जाती है और हृदय मस्तिष्क को प्रभावित करता है।
3.ब. जब कई सूक्ष्म रेखायें नीचे से चलकर हृदय रेखा पर धावा बोल दें तो व्यक्ति प्रेम का जाल इधर उधर फेंकता फिरता है। निरन्तर किसी को प्रेम न करके वे व्यभिचारी बन जाते हैं।
3.स. यदि हृदय रेखा चैड़ी और श्रृंखला युक्त हो तथा शनि क्षेत्र से शुरु हो तो वह स्त्री या पुरुष विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित नहीं होता तथा एक दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखता है।
4.अ. हृदय रेखा लाल और चमकीले रंग की होने पर व्यक्ति को हिंसात्मक वासना (बलात्कार) पूर्ति के लिए उत्सुक करती है।
4.ब. यदि बृहस्पति क्षेत्र से दोमुंही हृदय रेखा आती है तो व्यक्ति प्रेम के क्षेत्र में उत्साही, इमानदार और सच्चे दिल का स्वामी होता है।
4.स. हृदय रेखा शाखाहीन और पतली होने से व्यक्ति रुखे स्वभाव का होता है तथा उसके प्रेम में गरिमा नहीं होती।
5.अ. यदि हृदय रेखा है पर बाद में फीकी पड़ जाय तो प्रेम में भीषण निराशा का सामना होता है। जिस कारण वह हृदय हीन और प्रेम विमुख हो जाता है।
5.ब. हृदय रेखा पर क्रास या नक्षत्र का निशान होने से हृदय गति प्रभावित होती है।
5.स. हृदय रेखा बुध पर्वत के नीचे से निकल कर शनि पर्वत के नीचे तक जाते-जाते समाप्त हो जाये, तो ऐसा व्यक्ति प्रेम के मामले में धोकेबाज होता है।
5.द. बुध पर्वत के नीचे से निकलकर गुरु पर्वत के नीचे तक आती हुई प्रतीत हो तो ऐसा व्यक्ति प्रेम के मामले में धैर्यवान होता है तथा पत्नी को महत्त्व देता है और ईश्वर से डरने वाला तथा विशुद्ध प्रेम का पुजारी होता है।

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त्रिभुज और वर्गाकार रेखा

तीनों ओर से परस्पर मिली हुई रेखाएँ त्रिभुज कहलाती हैं, गहरी रेखाओं से निर्मित त्रिभुज शुभ फलदायी होता है। वैसे तो त्रिभुज बहुत कम हाथों में पाये जाते हैं। यह जितना ज्यादा बड़ा होगा, उतना श्रेष्ठ एवं फलदायी माना जाता हैं। जिस व्यक्ति के हाथ के मध्य में त्रिभुज होगा। वह सद्गुणी, सच्चरित्र वाला, भाग्यवान, क्रियाशील, ईश्वर में आस्था रखने वाला और उन्नतिशील होता है। ऐसा व्यक्ति शान्त एवं मधुरभाषी, तथा धीर-गम्भीर होता है। त्रिभुज जितना बड़ा होगा, व्यक्ति उतना ही विशाल हृदय तथा कठिनाईपूर्वक सफलता प्राप्त करने वाला व्यक्ति होता है तथा आत्मविश्वास कम होता है। यदि बड़े त्रिभुज में एक ओर छोटा त्रिभुज बन जाये तो वह अवश्य ही उच्च पद को प्राप्त करता है। मंगल क्षेत्र पर निर्दोश त्रिभुज होने से व्यक्ति धैर्यवान, रणकुशल तथा वीरता के लिए राष्ट्रीय पुरष्कारों से सम्मानित होता है, युद्ध में वह अपूर्व वीरता दिखलाता है। मुसीबत में भी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति सेना का कोई बड़ा आफीसर हो सकता है। किन्तु दूषित त्रिभुज होगा तो व्यक्ति निर्दयी और कायर होगा। बुध क्षेत्र पर त्रिभुज होने से सफल वैज्ञानिक या अच्छा व्यापारी होता है। उसका व्यापार देश-विदेश में फैला होता है तथा ये दूसरे की कमजोरी समझने में माहिर होते हैं। गुरु क्षेत्र में त्रिभुज होने से व्यक्ति चतुर, कार्य में दक्ष, कुशाग्र बुद्धि वाला एवं सदैव उन्नति की आकांक्षा वाला होता है। ऐसे व्यक्ति धूर्त एवं सफल कूटनीति वाले भी होते हैं। लोगों को अपने प्रभाव में रखने की कला इनमें खूब होती है त्रिभुज में दोष होने पर व्यक्ति घमण्डी, बातूनी तथा स्वयं की तारीफ करने वाला होता है। शुक्र क्षेत्र में निर्दोश त्रिभुज होने से व्यक्ति का आंशिक मिजाज, सरल तथा सौम्य स्वभाव का स्वामी होता है। ऐसे व्यक्ति ललित कला, संगीत, नृत्य आदि में रुचि रखने वाले होते हैं। दूषित त्रिभुज होने से व्यक्ति को कामान्ध बनाता है। अगर स्त्री के हाथ में ऐसा त्रिभुज होगा, तो वह परपुरुष गामिनी होती है। शनि क्षेत्र पर निर्दोष त्रिभुज होने से व्यक्ति तंत्र-मंत्र साधना में दक्ष एवं गुप्त विद्या तथा वशीकरण का ज्ञाता होता है। दोषपूर्ण त्रिभुज होने पर व्यक्ति को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का ठग एवं धूर्त बनाता है। हृदय रेखा पर
यह चिह्न होने से लेखन कार्य में ख्याति प्राप्त होती है। भाग्य रेखा पर होने से भाग्योन्नति में बाधाएं आती हैं। चन्द्र रेखा पर होने से विदेश यात्रायें होती हैं। विवाह रेखा पर होने से विवाह में बाधा होती है। आयु रेखा पर होने से दीर्घायु मिलती है।
वर्ग
चार भुजाओं से घिरे हुए क्षेत्र को वर्ग कहते हैं। कुछ लोगों के मत से इसे समकोण भी कहा जाता है। जब एक सुविकसित वर्ग से होकर भाग्य रेखा निकल रही हो तो व्यक्ति के भौतिक जीवन में यह संकट का द्योतक है। जिसका सम्बन्ध आर्थिक दुर्घटना या हानि से है। परन्तु वर्ग को पार करके आगे बढ़ती हुई भाग्य रेखा खतरा नहीं उत्पन्न करती। जब वर्ग रेखा से बाहर हो तथा स्पर्श मात्र हो एवं शनि पर्वत के नीचे हो तो यह दुर्घटना से रक्षा का सूचक है। जब मस्तिष्क रेखा सुनिर्मित वर्ग से निकलती है तो यह स्वयं मस्तिष्क की शक्ति और सुरक्षा का चिह्न माना जाता है। जब वर्ग मस्तिष्क रेखा के ऊपर उठ रहा हो और शनि के नीचे हो तो सिर में किसी प्रकार के खतरे का सूचक है। हृदय रेखा किसी वर्ग में प्रवेश करने से प्रेम के कारण भारी संकट का सामना करना पड़ता है। जब जीवन रेखा वर्ग में से गुजरती हो तो यह इस बात का सूचक है कि उस आयु पर व्यक्ति की दुर्घटना होगी, परन्तु मृत्यु से रक्षा होगी। शुक्र पर्वत पर होने से काम संवेगों के कारण संकट से रक्षा होती है, ऐसी स्थिति में व्यक्ति काम वासना के कारण अनेक तरह के खतरे में पड़ता है, लेकिन हमेशा बच निकलता है। वर्ग जीवन रेखा के बाहर हो तथा मंगल क्षेत्र से आकर जीवन रेखा को छू रहा हो, तो इस स्थान पर वर्ग के होने से कारावास या भिन्न प्रकार का रहन सहन होता है। जब वर्ग किसी भी पर्वत पर होता है तो उस पर्वत के गुणों के कारण होने वाले किसी भी अतिरेक से रक्षा का सूचक होता है। गुरु पर होने से व्यक्ति की आकांक्षा से उसे रक्षा प्रदान करता है। शनि पर होने से खतरों से रक्षा करता है। सूर्य पर होने से प्रसिद्धि की इच्छा को बढ़ाता है। चन्द्र पर होने से अधिक कल्पना एवं अन्य रेखा के दुष्प्रभाव से बचाव होता है। मंगल पर होने से शत्रुओं से होने वाले खतरों से बचाता है। बुध पर होने से उद्विग्नता एवं चंचल वृत्ति से बचाता है।
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अंगूठे का प्रकार

(क) गदा के आकार का अंगूठा। (ख) लचीला अंगूठा (पिछे मुड़ने वाला) (ग) कठोर अंगूठा। (घ) दूसरा भाग बीच से पतला। (ड़) वर्गाकार अंगूठा। (च) नुकीला अंगूठा। (छ) छोटा अंगूठा।
सीधा अंगूठा
ऐसे व्यक्ति अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले होते हैं, अर्थात भावुकतावश उल्टा-सीधा बोल देने वाले और ’’क्षणे रुष्टः क्षणे तुष्टः’’, यानी क्षण में क्रोध आना क्षण भर बाद प्रसन्न मुद्रा में बात करना इनकी प्रमुख विशेषता होती है। ये ’’प्राण जाय पर वचन न जाइ’’ सिद्धांत को मानने वाले, रूढि़वादी परंपराओं से जुड़े, बुजुर्गो से डरने वाले होते हैं। अतः पे्रम विवाह में यदि लड़की इन्हें साहस दिलाये, तो ये, हनुमान की
तरह, अपनी शक्ति से पूर्ण समर्थ हो कर, घर से अलग हो कर भी, हर स्थिति का सामना कर लेते हैं। इसलिए ये लोग मनचाही लड़की प्राप्त कर लेते हैं। स्वयं डरपोक, भीरु, कायर, एवं स्वार्थी प्रकृति के होते हैं। इन्हें मितव्ययी या कंजूस भी कहा जा सकता है। किन्तु मौका आने पर, भावुकतावश, अपना सर्वस्व दान कर देते हैं। केवल इनके सामने वाले को प्रभावित करने की कला आनी चाहिए, तो फिर ये उसपर तन-मन-धन से न्योछावर हो जाते हैं। लेकिन लोकप्रियता इन्हें कम मिल पाती है। इनके हर कार्य के पूर्ण होने में काफी विलंब होता है। शरीर में गर्मी अधिक होने से ये जातक बहुत कर्मठ होते हैं।
दुर्भाग्य से इन्हें दांपत्य जीवन का सुख और न ही कर्म के अनुसार पूर्ण फल ही मिल पाता है। ऐसे लोग अपने कार्य को गुप्त रखना पसंद करते हैं।अपयश इन्हें जल्दी मिलता है। कंजूसी और स्वार्थीपन, प्रचार से बचने की भावना, असामाजिकता, व्यवहार कु’ालता की कमी, अत्यधिक औपचारिकता निभाने की प्रवृत्ति, मौन, गंभीर व्यक्तित्व, दयालुता का अभाव इन्हें लोकप्रियता देने में बाधक होते हैं। नियमितता, ईमानदारी, सत्यवादिता इनकी प्रमुख वि’ोषताएं होती हैं। इस कारण इन्हें अधिक कष्ट उठाने पड़ते है। सीधे अंगूठे वाले बहुत जल्दी ही किसी से प्रभावित हो जाते हैं। कट्टरपंथी, अतिभाग्यवादिता, रूढि़वादिता के कारण ज्योतिष, तंत्र,मंत्र, देवी,देवताओं के प्रति इनकी आस्था अधिक होती है। भूत-पे्रत में भी ये वि’वास करते हैं। इनकी इस कमजोरी का लाभ उठा कर अन्य इनके संचित धन से फायदा उठाते हैं। इनको सही समय पर पैसों का लाभ नहीं मिलता, या बहुत कम मिलता है। अतः इन्हें झुकने वाले अंगूठे के जातकों से ही लेन-देन करनी चाहिए, अन्यथा इन्हें हानि होती है, स्त्री पक्ष से भी इन्हें हानि होती है।
पीछे की ओर झुका अंगूठा:
व्यापार में साझेदारी या भागीदारी उन्हीं लोगों से आजीवन निभ पाती है, जिनके अंगूठे एक समान न हों। एक समान अंगूठा वाले, प्रभुसत्ता जमाने की प्रकृति के कारण, एक दूसरे पर अधिकार जमाने के कारण बिगाड़ कर लेते हैं। स्वयं का पत्नी के प्रति अधिक आकर्षण नहीं होता। 20 वर्ष से 29 वर्ष की आयु में श्रेष्ठतर समय, 40 से 49 के बीच श्रेष्ठतम समय, फिर यदि दीर्घायु होती है, तो 80 से 89 में भी अच्छा यश देने वाले कार्य होते हैं। किंतु लंबी बीमारी, जैसे तपेदिक, कैंसर आदि “यंकर रोग इन्हें बुढ़ापे में धर दबोचते हैं। संतान सुख भी इन्हें कम मिल पाता है। इन्हें आयुर्वेदिक, प्राकृतिक योग, चिकित्सा, होम्योपैथिक, प्राणायाम आदि के द्वारा की गयी चिकित्सा शीघ्र लाभ करती हैं। प्रवाल या मोती भी इन्हें शीघ्र लाभ पहुंचाती हैं। ये पानी के विशेष शौकीन होते हैं। ये दिन में एक से अधिक बार नहाते हैं। इन्हें अधिक पसीना आता है (गर्मी के दिनों में) और लू लग जाती है (गर्मी की तासीर होने से) डाक्टरी दवा आदि का इन पर उल्टा असर हो जाता है, जिससे इनको गर्मी करने वाली वस्तुओं से बच कर रहना चाहिए। इन्हें अनायास कहीं से पैसा नहीं मिलता है। इन्हें अपने नाम से कभी भी लाॅटरी नहीं लेनी चाहिए। “गवान इन्हें केवल मेहनत का ही देता है। इन लोगों की इच्छा’ाक्ति बलवती होती है,
किंतु बिना गुणों के दूसरे व्यक्तियों से ये परिचित नहीं हो पाते । इनमें मिलनसारिता का अभाव रहता है। ये व्यक्ति स्वयं गहरे रंग के वस्त्र पहनना पसंद करते हैं, जबकि पत्नी हल्के रंग के वस्त्रों की शौकीन होती है।
लम्बा अंगूठा
लम्बा अंगूठा होने से व्यक्ति में सुदृढ़ इच्छा शक्ति और विकसित चरित्र पाया जाता है। साधारणतया अंगूठे की लम्बाई तर्जनी के आधार से कुछ ऊँचा होता है, इससे ज्यादा या कम स्थिति में छोटा-बड़ा अंगूठा माना जाता है। लम्बे अंगूठे वाले लोग व्यापार में लाभ कमाते हैं तथा आवश्यक जीवन दर्शन को मानने वाले होते हैं। अगर यह पीछे की ओर झुका हुआ होता है तो व्यक्ति प्रतिभावान और सफल होता है तथा हर परिस्थित में अपने आप को अनुकूल बना लेता है। यदि यही अंगूठा ऊपर की ओर नुकीला और पतला होता है तो व्याक्ति में स्नायुविक असन्तुलन पाया जाता है।
छोटा अंगूठा
छोटा अंगूठा बीच में पतला और पोर मोटा तथा निचला भाग भी मोटा होगा तो अपराधी वर्ग का व्यक्ति कहा जायेगा ये अंगूठे प्रायः गदे की तरह गोल, मांसल और सकरे नाखून वाले अंगूठे होते हैं जो कि कातिलों और अपराधियों में अधिक पाये जाते हैं, इनकी इच्छा शक्ति अविकसित स्वभाव अस्थिर तथा खूंखार होता है। इन्हें अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता तथा इन्हें हमेशा खून की पिपासा प्रताडि़त करती है।
वर्गाकार मोटा अंगूठा
ऐसे लोग नशे के आदी होते हैं घर में अधिक खर्च करने वाले एवं अन्याय होने पर चिल्ला-चिल्लाकर न्याय मांगते हैं। वर्गाकार अंगूठे के स्वामी सफल व्यक्ति माने जाते हैं, अपने व्यवहार, के द्वारा सफलता प्राप्त करते हैं। अगर यही अंगूठा पुष्ट होगा तो स्वास्थ्य अच्छा होता है तथा स्फूर्ति खूब होती है।
विचित्र आकृति का अंगूठा
विचित्र आकृति का अंगूठा अपराधी वर्ग के लोगों का होता है ये हथियारों के भयानक उपयोग से भी नहीं घबराते और बिना सोचे समझे भयावह कार्य कर बैठते हैं। इनका स्वभाव अस्थिर और खूंखार होता है।
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अँगुलियों में दुरी का महत्व

तर्जनी अनामिका दोनों ही अगर मध्यमा की ओर झुकी हों, तो व्यक्ति किसी भी बात को गुप्त रखने में असमर्थ होता है। ऐसे व्यक्ति साहसी होते हैं, सतर्कता भी इनमें होती है, परन्तु किसी पर विश्वास नहीं करते। अंगुलियां सीधी हों और गाँठ रहित हों, तर्जनी और मध्यमा तथा अनामिका और कनिष्ठा की दूरी का समान अन्तर होने पर व्यक्ति प्रत्येक के साथ व्यवहार कुशल होते हुए भी ज्यादा सतर्क नहीं रहता और न ही किसी पर शंका करता है। समाज में हर प्रकार के मनुष्यों के साथ सूझ-बूझ से कार्य करने कीं क्षमता रखता है। तर्जनी और मध्यमा की दूरी अनुपात से ज्यादा होने पर व्यक्ति की विचारधारा स्वतन्त्र होती है और जीवनयापन के लिए उनका मार्ग भिन्न होता है। इन्हें नेता भी कहा जा सकता है। यही दूरी कम होने पर विचारों में संकीर्णता आ जाती है, और स्वतन्त्रता भी कम हो जाती है। यदि अनामिका और मध्यमा के बीच का अन्तर अधिक हो तो परिस्थितियों की आजादी होती है। ये किसी ऋतु के दास नहीं होते, इन्हें पैसों की परवाह नहीं होती, समाज में ये समाज सुधारक नाम से जाने जाते हैं। अनामिका और मध्यमा की लम्बाई बराबर होने पर नये उद्योग धन्धे करके अनेक तरह का खतरा मोल ले सकते हैं। कभी-कभी इन्हें फायदा भी होता है, जुआ खेलना और अपनी जीत पर खुश होना इनका पहला काम होता है। छोटी अंगुलियों वालों के स्वभाव में शीघ्रता या जल्दबाजी होती है। ये दिखावे की परवाह न करके समस्याओं का तत्काल निर्णय कर डालते हैं। बातचीत में इन्हे मुंहफट भी कहा जा सकता है। छोटी-छोटी बातों पर ये ध्यान नहीं देते हैं। अंगुलियाँ बेडौल हों एवं छोटी हों तो ऐसे व्यक्ति प्रायः स्वार्थी एवं क्रूर कहे जाते हैं। अंगुलियाँ अगर तनी हुई हों, उनमें लोच न हो अन्दर की ओर मुड़ी
हो या संकुचित हों, तो व्यक्ति कम बोलने वाला तथा कम मेल-जोल रखने वाला, कायर और अधिक सावधानी बरतने वाले होते हैं। अगर अंगुलियाँ धनुष के समान पीछे मुड़ने वाली हों तो व्यक्ति का स्वभाव आर्कषक और सौम्य होगा। उसमें मित्रता का गुण पाया जाता है। इन्हें सामान्य ज्ञान की जिज्ञासा होती है तथा समाज में हृदयस्पर्शी होते है। अंगुलियाँ टेढ़ी -मेढ़ी एवं बेडौल सी होंगी, तो व्यक्ति धोकेबाज गलत रास्ते का अनुयायी विकृत मस्तिष्क का स्वामी एवं निन्दक होता है। अच्छे हाथ पर इस प्रकार की अंगुलियाँ कम ही पायी जाती है। अंगुलियों के पोर पर अंदर की ओर मांश की गद्दी हो तो वह व्यक्ति अत्यन्त सवंदेनशील ओर व्यवहारकुशल होगा तथा हर क्षेत्र में सहयोग मिलता है। अंगुलियाँ अगर मूल स्थान पर मोटी हों तो व्यक्ति खाने-पीने का शौकीन और आरामतलबी होता है तथा वेहद शौकीन होता है। मूल स्थान पर पतली अंगुलियों का स्वामी स्वतः के स्वार्थ में लापरवाह होता है, खान-पान, रहन-सहन में सावधानी रखता है तथा मनपसंद वस्तुओं का प्रयोग करता है। अनामिका और तर्जनी की समान लम्बाई हो तो व्यक्ति में अपनी कला के द्वारा धन और यश कमाने की महत्वाकांक्षा होती है। वह चाहता है कि विश्व भर में विख्यात हो जाये। हथेली की लम्बाई से अधिक लम्बी
अंगुलियां होगी, तो उसे लम्बी अंगुलियों की संज्ञा दी जाती है। अनामिका और कनिष्ठा की समान लम्बाई हो तो व्यक्ति बोलचाल और भाषण कला में कुशल होता है। अनामिका और मध्यमा की समान लम्बाई हो तो ऐसे व्यक्ति जुआड़ी होते हैं साथ ही जीवन के साथ खिलवाड़ कर जाते हैं, ऐसे व्यक्तियों की अलग ही दुनिया होगी, तथा ये व्यक्ति जुए में लाभ कमाते हैं एवं पैसों के सौदे में हमेशा जीत होती है। तर्जनी बहुत ज्यादा लम्बी हो तो ऐसे व्यक्ति किसी के कहने सुनने में नहीं होते ऐसे व्यक्ति शूरबरी भी कहे जा सकते हैं या शासक कहे जा सकते हैं। अनामिका का लम्बा होना काम तत्व को प्रदर्शित करता है। कनिष्ठा का काम भी अनामिका की भांति ही है वह उत्तेजनाओं को दमन न करके उसका परिशमन कर लेती है और वे अपनी शक्ति व्यापार, काम-काज और बौद्धिक कार्यों में खर्च करते हैं। कनिष्ठा यदि मुड़ी हुई हो तो व्यक्ति धूर्त और चालाक होता है यह अंगुली व्यक्ति के गुणों का मूल्यांकन करने वाली होती है। चारो अंगुलियों का इकट्ठी करने पर उसमें बारीक छेद नजर आता है, इसमें तर्जनी की ओर से तीन छिद्र होते हैं। पहला छिद्र विचार स्वतंत्र को स्पष्ट करता है, दूसरा लापरवाही को, तीसरा महत्वाकांक्षा को ।

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Monday, 2 November 2015

पुष्य नक्षत्र

पुष्य नक्षत्र- 03 नवम्बर 2015
पुष्य नक्षत्र को भारतीय ज्योतिष के अनुसार सबसे अधिक शुभ माने जाने वाले नक्षत्रों में से एक माना जाता है तथा इस नक्षत्र के उदय होने पर अधिकतर वैदिक ज्योतिषी शुभ कार्य करने का परामर्श देते हैं। सताइस नक्षत्रों में से पुष्य को आठवां नक्षत्र माना जाता है। सताइस नक्षत्रों की इस श्रृंखला में से पुष्य नक्षत्र शनि ग्रह के आधिपत्य में आने वाला पहला नक्षत्र है। हालांकि शनि को वैदिक ज्योतिष के अनुसार अधिकतर मुसीबतों के आगमन, समस्याओं तथा दुर्भाग्य के साथ जोड़ा जाता है किन्तु इसके बिल्कुल विपरीत शनि के आधिपत्य में आने वाले इस नक्षत्र को सौभाग्य, समृद्धि तथा अन्य बहुत से शुभ पक्षों के साथ जोड़ा जाता है। पुष्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है पोषण करना अथवा पोषण करने वाला तथा इस शब्द का शाब्दिक अर्थ ही अपने आप में इस नक्षत्र के व्यवहार तथा आचरण में बहुत कुछ बता देता है। पुष्प शब्द अपने आप में सौंदर्य, शुभता तथा प्रसन्नता के साथ जोड़ा जाता है तथा इस शब्द से भी पुष्य नक्षत्र के शुभ तथा सुंदर होने के ही संकेत मिलते हैं।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार गाय के थन को पुष्य नक्षत्र का प्रतीक चिन्ह माना जाता है तथा पुष्य नक्षत्र का प्रतीक चिन्ह गाय का यह थन भी हमें पुष्य नक्षत्र के स्वभाव के बारे में बहुत कुछ बताता है। गाय को भारतवर्ष में प्राचीन तथा वैदिक काल से ही पूज्या माना जाता है तथा गाय के दूध की तुलना वैदिक संस्कृति में अमृत के साथ की जाती थी।
वैदिक ज्योतिष में बृहस्पति को पुष्य नक्षत्र के स्वामी देवता के रूप में माना जाता है। बृहस्पति को देवताओं का गुरु माना जाता है जिन्हें देवगुरु भी कहा जाता है तथा इसी कारण से बृहस्पति का एक नाम गुरु भी वैदिक ज्योतिष में प्रचलित है। गुरु का इस नक्षत्र पर प्रभाव इस नक्षत्र को गुरु के कई गुण जैसे कि दया, सदभावना, समृद्धि, धर्मपरायणता, उदारता, सदभावना तथा आशावाद प्रदान करता है। पुष्य नक्षत्र का स्वभाव बृहस्पति के स्वभाव से इतना अधिक मेल खाता है कि पोषण करने का गुण, संवेदनशीलता, भावुकता तथा ऐसे ही कुछ अन्य गुण भी प्रदान करता है जिसके चलते इस नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातकों में यह गुण भी पाए जाते हैं। बृहस्पति तथा चन्द्रमा का मिश्रित प्रभाव पुष्य नक्षत्र के जातकों को लगातार धन तथा समृद्धि प्रदान करता रहता है क्योंकि वैदिक ज्योतिष में ये दोनों ही ग्रह धन तथा समृद्दि के साथ जोड़े जाते हैं।
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पुष्य नक्षत्र में राशि अनुसार करें खरीदारी

करें राशि के अनुसार करें खरीददारी एवं रखें सावधानी -
मेष- मंगल पुष्य पर आप आज के दिन तांबे के पात्र से खरीददारी शुरू करें। आपकी राशि के अनुसार आपके लिए भूमि, भवन की खरीददारी लाभदायक रहेगी।
सावधानी - जरूरत के अनुसार धन लेकर ही चलें और खाली पेट ना रहें...
वृष- वृष राशि वालों के लिए चांदी के पात्र और मूर्तियों की खरीददारी करना आपके लिए शुभ होगा। इसके अलावा आपकी राशि के लिए अखण्ड धान के रूप में चावल की खरीददारी का भी विधान है। इससे धनलक्ष्मी का आगमन होगा।
सावधानी -लेन-देन को लेकर विवाद ना करें...चीनी का दान कर खरीदी के लिए निकलें...
मिथुन- सुखी जीवन के लिए आप कांसे की गणेश मूर्ति खरीदें और आपको अपनी राशि के अनुसार घर को सजाने के लिए हंस का जोड़ा खरीदना चाहिए। मोरपंख घर में जरूर लाएं।
सावधानी -अपने धन का अपव्यय से बचें और भ्रम से बचने के लिए गणेशमंत्र का जाप कर मूंग का दान करें....
कर्क- सोने के आभूषण या चांदी खरीदना आपके लिए अच्छा रहेगा। मंगल पुष्य पर धन प्राप्ति के लिए आप सर्वश्रेष्ठ स्फटिक श्री यंत्र खरीदें इस पर्व पर स्फटिक खरीदना आपके लिए अत्यंत शुभ और विशेष फल देने वाला रहेगा।
सावधानी -खरीदी में निकलने से पूर्व माता का आर्शीवाद प्राप्त करें तथा चंद्रमा के मंत्र का जाप करें...
सिंह- इस शुभ पर्व पर सिंह राशि वालों को पीतल की मूर्ति खरीदना लाभदायक रहेगा। तांबे का सूर्य खरीदना चाहिए। अगर आप अपनी राशि के अनुसार लक्ष्मी जी की अत्यंत प्रिय धातु स्वर्ण से बनें आभूषण खरीदें, इससे मां लक्ष्मी की विशेष कृपा होगी।
सावधानी -प्रातःकाल उठकर सूर्य को अध्र्य देकर दिन की शुरूआत करें....
कन्या- इस राशि के लोगों को कांसे के दीपक खरीदना चाहिए और आप हाथीदांत से बनी हुई वस्तुएं भी खरीद सकते हैं। आप घर में उल्लू के चित्र वाली मां लक्ष्मी जी की मूर्ति स्थापित करेंगे तो धन का प्रवाह निरंतर बढ़ता रहेगा।
सावधानी -आपको खरीदी से निकलने के पूर्व ही तय कर लें कि क्या खरीदना है साथ ही हनुमानजी के मंदिर में लाल मसूर चढ़ाकर खरीदी करें...
तुला- शुक्र की राशि होने के कारण आप अपनी राशि के अनुसार चांदी का श्री यंत्र और सिक्का खरीदें। श्रीयंत्र के साथ कुबेर व गणेश यंत्र, कनकधारा यंत्र खरीदना शुभ रहेगा।
सावधानी -घर की महिलाओं की बातें मानें साथ ही सौभाग्य सामग्री का दान करें...
वृश्चिक- इस पर्व पर आप तांबा और पंचधातु की खरीददारी करें। वृश्चिक राशि वालों को तांबे या पंचधातु से बना श्रीयंत्र और स्वस्तिक खरीदना चाहिए। पीले रंग के कपड़े जरूर खरीदें।
सावधानी -शनि के मंत्र का जाप कर खरीदी के लिए निकलें साथ ही नीबू का दान करें..
धनु- मंगल पुष्य पर्व पर आप भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी की स्वर्ण प्रतिमा खरीदें। इस मूर्ति के रूप में भगवान विष्णु लक्ष्मी आपके घर हमेशा निवास करेंगे।
सावधानी -गुरूतुल्य व्यक्ति या बड़ो का आर्शीवाद लेकर घर से निकलें साथ ही लड्डू का प्रसाद बाॅटें...
मकर- मकर राशि वाले जातक राशि के अनुसार वाहन खरीदें। घर की सजावट के सामान में परदे, कुशन आदि खरीदें। घर वालों के लिएपड़े जरूर खरीदें।
सावधानी -वाहन का उपयोग करने से पूर्व पताका चढ़ायें साथ ही मंगलमंत्र का जाप करें....
कुंभ- चांदी का सिक्का जरूर खरीदें। अपने राशि स्वामी के अनुसार आप शनि का रत्न नीलम खरीदें। फ्रिज, एसी, पलंग और शनि से संबंधित वस्तुएं भी खरीद सकते है।
सावधानी -सरसो के तेल का दान शिवमंदिर में कर दिन की शुरूआत करें साथ ही परिवार का मत प्राप्त करें...
मीन- आप अपनी राशि के अनुसार घर के साज सामान में एक्वेरियम, कालीन, बेड शीट की खरीददारी करें। चांदी का सिक्का घर में लाने से लक्ष्मी जी का वास रहेगा...
सावधानी -वस्तुओं की टूटफूट से बचने के लिए हनुमान मंदिर में दो नारीयल चढ़ाकर दिन की शुरूआत करें साथ ही गायत्रीमंत्र का जाप करें...
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पुष्य नक्षत्र में करे शुभ खरीदारी

पुष्य नक्षत्र में करें शुभ खरीदी -
3 नवंबर 2015, दिन मंगलवार
पुष्य नक्षत्र में खरीदी के मुहूर्त
(राहु काल 14:36 से 16:01 छोडकर शेष शुभ)
अभिजित मुहूर्त (विशेष शुभ) 11:24 से 12:02 तक
लाभ - 10:22 से 11:47 प्रातःकाल
अमृत - 11:47 से 13:12 दोपहर
लाभ - 07:01 से 08:36 सायंकाल
स्थिर लग्न की खरीदी का मूहुर्त -
कुंभ लग्न - 01:42 से 03:13 दोपहर
वृषभ लग्न - 06:18 से 08:14 सायंकाल
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मीन लग्न में मंगल का प्रभाव

मीन लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
यदि लग्न (प्रथम भाव) में मंगल हो तो जातक की शारीरिक शक्ति एवं सम्मान में वृद्धि होती है । साथ ही धन, कुटुम्ब, भाग्य एवं धर्म की उन्नति होती है । स्त्री का सुख-सहयोग मिलता है । कारोबारी लाभ में घरेलू सुख की उत्पत्ति होती है जिससे मानसिक संतोष मिलता है । द्वितीय भाव में मंगल हो तो जातक कटुभाषी होता है । वह चिंता और परेशानी के सागर में गोते लगाता रहता है । तृतीय भाव में मंगल हो तो जातक उन्नतिशील,धनवान तथा शक्तिशाली होता है । चतुर्थ भाव में स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को सर्व प्रकार का सुख मिलता है । उसे स्त्री भी बड़ी भाग्यवान मिलती है । ऐसा व्यक्ति भाग्यशाली होता है । यदि पंचम भाव में मंगल हो तो जातक को संतान तथा विद्यापक्ष में कमजोरी रहती है । धन एवं कुटुम्बपक्ष से चिंता बनी रहती है । वह आमदनी बढाने के लिए प्रयत्न करता है । षष्ठ भाव में मंगल हो तो जातक शत्रुपक्ष पर अपना प्रभाव है । धन की कमी रहते हुए भी उसका खर्च शान से चलता है तथा परिवार से उसे सुख मिलता है । सप्तम भाव में स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को स्त्री मिलती है, जिस कारण उसके भाग्य के द्वार खुल जाते हैं । फिर वह पीछे मुड़कर नहीं देखता । कहावत है-ऐसा व्यक्ति मिट्टी में भी हाथ डालता सोना बन जाता है । यदि अष्टम भाव में मंगल हो तो जातक की आयु में वृद्धि होती है, किन्तु धर्म एवं यश के क्षेत्र में कमी आती है । भाइयों से कुछ असंतोष रहता है । यदि नवम भाव में मंगल हो तो जातक के भाग्य की वृद्धि होती है तथा धर्म का पालन भी होता है । ऐसा व्यक्ति बड़ा भाग्यशाली, धनी, घर्मात्मा एवं यशस्वी होता है । दशम भाव में मंगल हो तो जातक पिता से बहुत सुख, राज्य से अत्यधिक सम्मान तथा व्यवसाय में बडी उन्नति करता है । उसे धन और कुंटुम्ब का श्रेष्ठ सुख प्राप्त होता है ।एकादश भाव में मंगल हो तो जातक की आमदनी में अत्यधिक वृद्धि होती है । वह बड़ा भाग्यवान होता है तथा धर्म का पालन भी करता है । द्वादश भाव में स्थित मंगल के प्रभाव से जातक बाहरी स्थानों से शक्ति प्राप्त करता है । पुत्र-कुटुम्ब के सुख में कमी रहती है । भाग्य, धर्म, यश एवं उन्नति में अनेक प्रकार की कठिनाइयां आती रहती हैं ।स्त्री से सुख तथा व्यवसाय से लाभ मिलता है ।
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कुंभ लग्न में मंगल का प्रभाव

कुंभ लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
लग्न (प्रथम भाव) में मंगल की उपस्थिति से जातक का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली होता है तथा शारीरिक सौंदर्य की प्राप्ति होती है । वह पितापक्ष से कुछ असंतोषयुक्त सहयोग प्राप्त करता है । राज्य के क्षेत्र में प्रभाव बढ़ता है तथा व्यवसाय की उन्नति होती है । द्वितीय भाव में जातक को कुछ कठिनाइयों के साथ धन एवं कुटुम्ब का सुख प्राप्त होता है । अगर तृतीय भाव में मंगल हो तो जातक के भाई-बहनों का सुख मिलता है, मगर शत्रुपक्ष से परेशानी रहती है । ऐसा जातक पुरुषार्थ है के बल पर बड़ा भाग्यवान बनता है ।
चतुर्थ भाव में मंगल के स्थित होने पर जातक खुली, धनी, यशस्वी तथा प्रभावशाली जीवन व्यतीत करता है । पंचम भाव में मंगल के होने पर जातक कानूनी को करने वाला होता है । उसे विद्या-बुद्धि की श्रेष्ठ शक्ति प्राप्त होती है । संतानपक्ष से सुख मिलता है । वह राज्य से सम्मान और व्यवसाय से लाभ पता है । षष्ठ भाव: में मंगल हो तो जातक कठिन परिश्रम द्वारा अपना भाग्य उज्जवल करता है । धर्म पालन में उसकी गहरी रुचि होती है । यदि सप्तम भाव में मंगल हो तो जातक सुंदर तथा सुशील पत्नी मिलती है । उसे पिता से विशेष सहयोग मिलता है । ऐसा जातक भाग्यवान होता है । वह सुखी जीवन व्यतीत करता है । यदि अष्टम भाव में मंगल स्थित हो तो जातक की आमदनी अच्छी रहती है । उसे भौतिक सुखों को कोई कमी नहीं रहती । नवम भाव में मंगल हो तो जातक के भाग्य की विशेष उन्नति होती है । वह जीवन में बहुत कुछ पाने की लालसा रखता है, जिसमें किसी सीमा तक सफल भी रहता है । दशम भाव में मंगल हो तो जातक के सौदर्य में कमी रहते हुए भी वह प्रभाव, स्वाभिमान एवं प्रतिष्ठा में वृद्धि करने में सफल रहता है । एकादश भाव में मंगल को तो जातक की आमदनी में विशेष वृद्धि होती है । धन-संचय भी खूब होता है तथा परिवार का सुख भी मिलता है | द्वादश भाव में मंगल हो तो निजी मातृभूमि को अपेक्षा अन्य स्थानों (विदेश) में अधिक सफलता प्राप्त करता है । उसे स्त्री द्वारा दुख मिलता है ।
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मकर लग्न में मंगल का प्रभाव

मकर लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
यदि लग्न (प्रथम भाव) में मंगल हो तो जातक के शारीरिक सौंदर्य, स्वास्थ्य में वृद्धि होती है । स्त्री के सुख में कुछ कमी रहती है । जातक अपना स्वार्थ सिद्ध करने में चतुर, सुखी तथा धनी होता है । द्वितीय भाव में मंगल हो तो जातक को कुछ असंतोष के साथ कुटुम्ब एवं धन का पर्याप्त लाभ होता है । तृतीय भाव में मंगल से प्रभावाधीन जातक अपने पुरुषार्थ से अपनी बढाता है । वह हिम्मती और बहादुर होता है । उसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है । चतुर्थ भाव में मंगल के होने पर जातक की आमदनी अच्छी रहती है तथा बडी सरलता के साथ लाभ के साधन उपलब्ध होते रहते हैं । वह धनी और सुखी होता है । यदि पंचम भाव में मंगल हो तो जातक को विद्या एवं बुद्धि की शक्ति मिलती है । आयु में वृद्धि होती है तथा आय-व्यय समान रहता है । षष्ठ भाव में मंगल हो तो जातक शत्रु पर अपना विशेष प्रभाव रखता है । उसे स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है । सप्तम भाव में मंगल हो तो जातक स्त्री तथा गृहस्थी से अल्प सुख पता है । अष्टम भाव में मंगल के होने पर जातक को आयु एवं पुरातत्व की शक्ति प्राप्त होती है । भूमि-मकान आदि के सुख में कमी आती है । उसे कारोबारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है । नवम भाव में मंगल हो तो जातक के भाग्य एवं धर्म की उन्नति होती है । वह धनी, धर्मादा, संन्यासी तथा यशस्वी होता है । यदि दशम भाव में मंगल हो तो जातक को पिता की विशेष शक्ति मिलती है । राजकीय क्षेत्र में सम्मान तथा व्यवसाय के क्षेत्र में अत्यधिक सफलता प्राप्त होती है । एकादश भाव में मंगल के होने पर जातक की आमदनी में वृद्धि होती है, लेकिन यह वृद्धि कभी-कभी धातक सिद्ध होती है । द्वादश भाव में मंगल हो तो जातक को मातृभूमि का वियोग सहन करना पड़ता है । व्यय अधिक रहता है । बाहरी स्थानों के संबंध में सुख एवं लाभ की प्राप्ति होती है ।
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धनु लग्न में मंगल का प्रभाव

धनु लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की कुंडली के विभिन्न भावों मे मंगल का प्रभाव
यदि लग्न (प्रथम भाव ) में मंगल हो तो उसके प्रभाव से जातक को शारीरिक शक्ति उत्तम रहती है । वह शारीरिक श्रम तथा बुद्धि योग से बड़े-बड़े काम करता है । द्वितीय भाव में मंगल हो तो जातक को विद्या एवं संतान की शक्ति प्राप्त होती है तथा भाग्योन्नती में थोडी सफलता मिलती है । जातक का जीवन संघर्षपूर्ण रहता है । तृतीय भाव में मंगल से प्रभावाधीन जातक को व्यावसायिक क्षेत्र में न्यूनाधिक सफलता मिलती है अर्थात जातक का जीवन उतार-चढावपूर्ण तथा संषर्घमय रहता है । चतुर्थ भाव में मंगल के रहने से जातक को माता के सुख की विशेष हानि होती है । भूमि, मकान आदि का सुख भी प्राय: नहीं प्राप्त हो पाता । संतानपक्ष तथा विद्या-बुद्धि के क्षेत्र में भी कमी बनी रहती है । पत्नी की ओर से परेशानी रहती है,किन्तु आमदनी में वृद्धि होती है ।
यदि पंचम भाव में मंगल हो तो जातक का जीवन सामान्य रहता है । खर्च ज्यादा होता है, इस कारण मानसिक परेशानी बनी रहती है । षष्ठ भाव में मंगल हो तो जातक को संतान से परेशानी एवं विद्या में कमी रहती है तथा स्वास्थ्य भी खराब रहता है । मस्तिष्क में तनाव रहता है । सप्तम भाव में मंगल हो तो जातक बुद्धि का प्रयोग करके अपना खर्च चलाता है । शरीर दुर्बल रहता है । धन-संचय में उन्नति होती है और परिवार का सामान्य सुख प्राप्त होता है । अष्टम भाव में मंगल हो तो। जातक की शक्ति का हास होता है । उसके पेट में विकार रहता है । चिंता और परेशानियां उसे घेरे रहती हैं । भाइयों से उसका विरोध रहता है । यदि नवम भाव में मंगल हो तो जातक को अपने जीवन में, सभी क्षेत्रों में
सामान्य सफलता मिलती है। पारिवारिक सुख में कमी रहती है । दशम भाव में मंगल के होने से जातक के पिता के सुख की हानि होती है । उसे बुद्धि का श्रेष्ठ लाभ होता है, किन्तु विद्या एवं संतान के सुख में कुछ कठिनाई बनी रहती है । एकादश भाव में मंगल हो तो जातक को आमदनी के क्षेत्र में विशेष सफलता मिलती है । द्वादस भाव में मंगल हो तो जातक को स्त्री से कष्ट मिलता है । भाइयों से वैमनस्य रहता है, मगर बाहरी स्थानों से लाभ होता है ।
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वृश्चिक लग्न में मंगल का प्रभाव

वृश्चिक लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की कुंडली के विभिन्न भावों मे मंगल का प्रभाव
अगर लग्न (प्रथम भाव) में मंगल हो तो जातक को व्यवसाय आदि में कुछ कठिनाइयों के साथ सफलता मिलती है | उसकी शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है, किन्तु कभी-कभी बीमार भी होना पड़ता है । उसे होने वाली कोई भी बीमारी जानलेवा सिद्ध नहीं होती । प्रारंभ में स्त्री की तरफ से कुछ असंतोष रहता है, मगर बाद में सब कुछ ठीक-ठाक हो जाता है । द्वितीय भाव में मंगल के होने से जातक परिश्रम द्वारा धनोपार्जन करता है तथा परिवार का सुख कुछ कठिनाइयों के साथ मिलता है । शारीरिक सुख एवं स्वास्थ्य में कमी रहती है । संतान, विद्या और बुद्धि के क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है । यदि तृतीय भाव में मंगल हो तो जातक का पारिवारिक लोगों से कुछ वैमनस्य रहता है। वह जलने वालों पर प्रभाव बनाए रखता है । भाग्य की अपेक्षा पुरुषार्थ पर अधिक भरोसा रखता है । धर्म का यथाविधि पालन नहीं करता । व्यावसायिक रूप से वह बहुत सफल रहता है ।चतुर्थ भाव में कुंभ राशि पर स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को स्त्री से मतभेद के बावजूद सहयोग मिलता है । परिश्रम द्वारा वह सफलता, यश, सुख एवं सम्मानादि की प्राप्ति करता है । पंचम भाव स्थित मंगल से जातक को परेशानी और कठिनाइयों के साथ संतान, विद्या, नौकरी या कारोबार, सुशील पत्नी, माता-सिता का स्नेह तथा सफलता की प्राप्ति होती है । षष्ठ भाव में मंगल से प्रभावाधीन व्यक्ति का भाग्य उसका बहुत अधिक साथ नहीं देता । यही कारण है कि उसके लाभ, यश और सम्मान में कमी आती है । जीवन-यापन के लिए उसे बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ता है । सप्तम भाव में मंगल के स्थित रहने से जातक को स्त्री की और से परेशानी रहती है तथा जननेन्दिय में कुछ विकार होता है । उसके व्यक्तित्व का विकास होता है तथा शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है ।
अष्टम भाव में मंगल के रहने से जातक के शारीरिक सुख एवं आकर्षण में भी आती है । उसके पेट में विकार रहता है । किन्तु वह जो भी कार्य करता है, उसमें अच्छी आमदनी होती है । यदि नवम भाव में मंगल हो तो जातक का माता की ओर से वैमनस्य रहता है । भूति, मकान और व्यवसाय आदि के सुख में भी कमी रहती है | दशम भाव में मंगल के होने से जातक स्वस्थ, पुष्ट तथा स्वाभिमानी होता है । उसे पत्नी और पुत्र का पूर्ण सुख मिलता है । आजीविका में कोई कमी नहीं होती । एकादश भाव में मंगल से प्रभावाधीन जातक शारीरिक रोगों से पीड़ित, पारिवारिक सुख प्राप्त करने वाला, स्वाभिमानी तथा प्रभावशाली होता है । द्वादस भाव में मंगल के रहने से जातक का व्यय अधिक होता है । उसे बाहरी स्थानों से शांति तथा सम्मान की प्राप्ति होती है । उसका शरीर दुर्बल रहता है ।
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तुला लग्न में मंगल प्रभाव

तुला लग्न में जन्म लेने वाले जातकों के जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
यदि लग्न (प्रथम भाव) में मंगल स्थित हो तो जातक को शारीरिक सुख की प्राप्ति होती है । परिवार की ओर से उसे सुख, स्नेह तथा प्रतिष्ठा मिलती है । धन, नौकरी एवं व्यवसाय आदि से लाभ होता है । पत्नी से सहयोग, सुख और आनंद की प्राप्ति होती है । यदि द्वितीय भाव में जंगल हो तो जातक का अपनी स्त्री से क्लेश रहता है । धन का सुख मिलता है, मगर विद्या में कुछ कमी रह जाती है । आयु एवं भाग्य की वृद्धि होती है । धर्म का पालन स्वार्थ के लिए किया जाता है । यदि तृतीय भाव में मंगल स्थित हो तो जातक को स्त्रिपक्ष से शक्ति मिलती है । शत्रु पर विजय प्राप्त होती है तथा उन्नति के मार्ग में रुकावटें आती रहती हैं । यदि चतुर्थ भाव में मंगल हो तो जातक को माता का स्नेह, भूमि का लाभ और मकान का सुख मिलता है । स्त्री उसे सूख, सहयोग और आनंद ही नहीं देती, उसके लिए उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त करती है । आमदनी अच्छी होती है । कुल मिलाकर जातक धनी और सुखी रहता है । अगर पंचम भाव में मंगल स्थित हो तो जातक की शिक्षा बडी कठिनाइयों से पूर्ण होती है ।  स्त्री और संतान की तरफ से असंतोष रहता है । आय तथा व्यय समान रहता है ।
षष्ठ भाव में मंगल की उपस्थिति से जातक को धन की कोई कमी नहीं रहती, किन्तु बड़ी कठिनाइयों के बाद ही सफलता और उन्नति मिलती है । धन-संचय में भी कमी रहती है । किसी बड़ी जरूरत के वक्त परेशानी का सामना करना पड़ता है । सप्तम भाव में मंगल के होने पर जातक को पत्नी एक बंधन की भांति प्रतीत होती, किन्तु भोग की अच्छी शक्ति प्राप्त होती है । देनिक व्यवसाय में सफलता मिलती है । वह शरीर में गर्मी के विकार से पीडित हो सकता है । यदि अष्टम भाव में मंगल हो तो जातक को स्त्रिपक्ष से कष्ट होता है । दैनिक रोजगार में परेशानी बनी रहती है । शहर से बाहर के व्यवसाय से लाभ हो सकता है । नवम भाव में मंगल स्थित हो तो जातक की अच्छी भाग्योन्नती होती है तथा धर्म का पालन भी होता है । उसे भाग्यवती स्त्री मिलती है, अत: विवाहोपरान्त विशेष उन्नति होती है । दशम भाव में मंगल के रहने से जातक दुर्बल शरीर का मिजाज व्यक्ति होता है । स्त्री और परिवार से उसे विशेष कष्ट मिलता है । शिक्षा भी अपूर्ण रहती है । वैसे वह बुद्धि का तीव्र होता है । यदि एकादश भाव में मंगल हो तो जातक को धन का पर्याप्त लाभ होता है । स्त्री से भी सुख मिलता है । धन का संचय होता है, विद्या के कमी रहती है तथा संतान की ओर से असंतोष रहता है । जातक का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली होता है| द्वादश भाव में मंगल हो तो जातक का खर्च बहुत ज्यादा रहता है, किन्तु कुटुंब स्त्री तथा व्यवसाय से असंतोष एवं हानि के रोग उपस्थित होते हैं । बहनों का सुख मिलता है तथा पराक्रम की वृद्धि होती है । साथ ही वह शत्रुपक्ष पर प्रभावशाली बना रहता है ।

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Saturday, 31 October 2015

कुंडली में तुला लग्न में मंगल का प्रभाव

तुला लग्न में जन्म लेने वाले जातकों के जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
यदि लग्न (प्रथम भाव) में मंगल स्थित हो तो जातक को शारीरिक सुख की प्राप्ति होती है । परिवार की ओर से उसे सुख, स्नेह तथा प्रतिष्ठा मिलती है । धन,नौकरी एवं व्यवसाय आदि से लाभ होता है । पत्नी से सहयोग, सुख और आनंद की प्राप्ति होती है । यदि द्वितीय भाव में मंगल हो तो जातक का अपनी स्त्री से क्लेश रहता है । धन का सुख मिलता है, मगर विद्या में कुछ कमी रह जाती है । आयु एवं भाग्य की वृद्धि' होती है । धर्म का चालन स्वार्थ के लिए किया जाता है । यदि तृतीय भाव में मंगल स्थित हो तो जातक को स्त्रिपक्ष से शक्ति मिलती है । शत्रु पर विजय प्राप्त होती है तथा उन्नति के मार्ग में रुकावटें आती रहती हैं । यदि चतुर्थ भाव में मंगल हो तो जातक को माता का स्नेह, भूमि का लाभ और मकान का सुख मिलता है । स्त्री उसे सूख, सहयोग और आनंद ही नहीं देती, उसके लिए उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त करती है । आमदनी अच्छी होती है । कुल मिलाकर जातक धनी और सुखी रहता है । अगर पंचम भाव में मंगल स्थित हो तो जातक की शिक्षा बडी कठिनाइयों से पूर्ण होती है । स्त्री और संतान की तरफ से असंतोष रहता है । आय तथा व्यय समान रहता है । षष्ठ भाव में मंगल की उपस्थिति से जातक को धन की छाई कमी नहीं रहती, किन्तु बड़ी कठिनाइयों के बाद ही सफलता और उन्नति मिलती है । धन-संचय में भी कमी रहती है । किसी बडी जरूरत के वक्त परेशानी का सामना करना पड़ता है । सप्तम भाव में मंगल के होने पर जातक के पत्नी एक बंधन की भांति प्रतीत होती है, किन्तु भोग की अच्छी शक्ति प्राप्त होती है । देनिक व्यवसाय में सफलता मिलती है । वह शरीर में गर्मी के विकार से पीडित हो सकता है ।यदि अष्टम भाव में मंगल हो तो जातक को स्त्रीपक्ष से कष्ट होता है । दैनिक र्वसेच्चाद्रार में परेशानी बनी रहती है । शहर से बाहर के व्यवसाय से लाभ हो सकता है ।नवम भाव में मंगल स्थित हो तो जातक की अच्छी भाप्रागेन्नति होती है तथा का पालन भी होता है । उसे भाग्यवती स्त्री मिलती है, अत: विवाहोपरांत विशेष उन्नति होती है । दशम भाव में मंगल के रहने से जातक दुर्बल शरीर का मिजाज व्यक्ति होता है । स्त्री और परिवार से उसे विशेष कष्ट मिलता है । शिक्षा भी अपूर्ण रहती है । वैसे वह बुद्धि का तीव्र होता है । यदि एकादश भाव में मंगल हो तो जातक को धन का पर्याप्त लाभ होता है । धन का संचय होता है, विद्या में कमी रहती है तथा संतान की ओर से असंतोष रहता है । जातक का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली होता है द्वादश भाव में मंगल हो तो जातक का खर्च बहुत ज्यादा रहता है, किन्तु कुटुंब,स्त्री तथा व्यवसाय से असंतोष एवं हानि के रोग उपस्थित होते हैं । बहनों का सुख मिलता है तथा पराक्रम की वृद्धि होती है । साथ ही वह शत्रुपक्ष पर प्रभावशाली बना रहता है ।
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future for you astrological news awsad ka jyitish karan 31 10 2015

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Friday, 30 October 2015

करवाचौथ का व्रत

करवाचौथ का व्रत
करवाचौथ का त्योहार हिन्दू धर्म में विवाहित स्त्रियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। सभी विवाहित स्त्रियां इस दिन अपने पति की लंबी आयु, सुखी जीवन और भाग्योदय के लिए व्रत करती हैं। कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला यह करक चतुर्थी व्रत अखंड सौभाग्य की कामना के लिए स्त्रियां करती हैं। करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है। सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है।
करवाचौथ पूजन-विधि:
सम्पूर्ण सामग्री को एक दिन पहले ही एकत्रित कर लें। व्रत वाले दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान कर स्वच्छ कपड़े पहन लें तथा शृंगार भी कर लें। इस अवसर पर करवा की पूजा-आराधना कर उसके साथ शिव-पार्वती की पूजा का विधान है क्योंकि माता पार्वती ने कठिन तपस्या करके शिवजी को प्राप्त कर अखंड सौभाग्य प्राप्त किया था इसलिए शिव-पार्वती की पूजा की जाती है। करवा चौथ के दिन चंद्रमा की पूजा का धार्मिक और ज्योतिष दोनों ही दृष्टि से महत्व है। व्रत के दिन प्रात: स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोल कर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें-
मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री
प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।
करवाचौथ का व्रत पूरे दिन बिना कुछ खाए-पिए किया जाता है। दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें, इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। आठ पूरियों की अठावरी, हलवा और पक्के पकवान बनाएं। उसके बाद पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेश जी बनाकर बिठाएं। ध्यान रहे गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का शृंगार करें। उसके बाद जल से भरा हुआ लोटा रखें।
बायना देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवे में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें तथा उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बना लें, अब गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परम्परानुसार पूजा करें तथा पति की दीर्घायु की कामना करें।
शाम को 'नम: शिवाय शर्वाण्य सौभाग्यं संतति शुभाम। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥ कहते हुए, करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवाचौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासू जी के पैर छू कर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्ध्य दें। इसके बाद छलनी से पति का दर्शन कर आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर अपने व्रत को संपन्न करें।
करवा चौथ की कथा:
इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं जिनमें एक बहन और सात भाइयों की कथा बहुत प्रसिद्ध है। बहुत समय पहले की बात है एक लड़की के सात भाई थे। उसकी शादी एक राजा से हो गई। शादी के बाद पहले करवाचौथ पर वह अपने मायके आ गई। उसने करवाचौथ का व्रत रखा लेकिन पहला करवाचौथ होने की वजह से वह भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी और बड़ी बेसब्री से चांद निकलने की प्रतीक्षा कर रही थी।
उसके सातों भाई उसकी यह हालत देख कर परेशान हो गए। उन्होंने बहन का व्रत समाप्त कराने के लिए पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी। बहन के व्रत समाप्त करते ही उसके पति की तबीयत खराब होने लगी। खबर सुन कर वह अपने ससुराल चली तो रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती जी के साथ मिले। पार्वती जी ने उसे बताया कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है क्योंकि उसने नकली चांद को देखकर व्रत समाप्त कर लिया था। यह सुनकर बहन ने अपने भाइयों की करनी के लिए क्षमा मांगी। पार्वती जी ने कहा कि तुम्हारा पति फिर से जीवित हो जाएगा लेकिन इसके लिए तुम्हें करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से करना होगा। इसके बाद माता पार्वती ने करवा चौथ के व्रत की पूरी विधि बताई और उसी के अनुसार बहन ने फिर से व्रत किया और अपने पति को वापस प्राप्त कर लिया।
महाभारत से संबंधित अन्य पौराणिक कथा के अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं। दूसरी ओर बाकी पांडवों पर कई प्रकार के संकट आन पड़ते हैं। द्रौपदी भगवान श्रीकृष्ण से उपाय पूछती हैं। वह कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवाचौथ का व्रत करें तो इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है। द्रौपदी विधि विधान सहित करवाचौथ का व्रत रखती है जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं।
चंद्रमा की पूजा का महत्व:
छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार जो चंद्रमा में पुरुष रूपी ब्रह्मा की उपासना करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। उसे लंबी और पूर्ण आयु की प्राप्ति होती है। व्रत का समापन चंद्रमा को अर्ध्य देकर किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से महिलाएं अखंड सौभाग्यवती होती हैं,और उनका पति दीर्घायु होता है। इस व्रत को पालन करने वाली पत्नी अपने पति के प्रति मर्यादा से,विनम्रता से,समर्पण के भाव से रहे और पति भी अपने समस्त कर्तव्य एवं धर्म का पालन सुचारु रुप से पालन करें, तो ऐसे दंपत्ति के जीवन में सभी सुख-समृद्धि हमेशा बनी रहती है।

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कर्कोटक कालसर्प दोष

राहु केतु की आकृति सर्प के रूप में मानी गयी है. कालसर्प दोष के निर्माण में इन दोनों ग्रहों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है. कर्कोटक कालसर्प दोष यह कालसर्प दोष का आठवां प्रकार है. कर्कोटक नाग का नाम भी धार्मिक पुस्तकों एवं कथाओं में कई स्थानों पर आया है. नल-दम्यंती की कथा एवं जनमेजय के नाग यज्ञ के संदर्भ में भी इस सर्प का जिक्र मिलता है. कर्कोटक कालसर्प भी तक्षक कालसर्प के समान काफी कष्टकारी माना जाता है.
कुण्डली में कर्कोटक कालसर्प दोष
जन्मपत्री में आठवां भाव जिसे मृत्यु, अपयश, दुर्घटना, साजिश का घर कहा जाता है उसमें राहु बैठा हो तथा द्वितीय भाव जिसे धन एवं कुटुम्ब स्थान कहा जाता है उसमें केतु विराजमान हो और सू्र्य से शनि तक शेष सातों ग्रह एक ही दिशा में एक गोलर्द्ध में राहु केतु के बीच बैठे हों तब जन्म कुण्डली में कर्कोटक कालसर्प दोष माना जाता है.
कर्कोटक कालसर्प दोष का प्रभाव
कर्कोटक कालसर्प दोष होने पर पारिवारिक सम्बन्धों में काफी असर पड़ता है. इस दोष से प्रभावित व्यक्ति का अपने कुटुम्बों एवं सगे-सम्बन्धियों से मतभेद रहता है. इनमें आपसी सामंजस्य की कमी रहती है. इन कारणों से जरूरत के वक्त परिवार के सदस्य सहयोग के लिए आगे नहीं आते हैं. इस तरह की परेशानी से बचने के लिए व्यक्ति को संयम और धैर्य से काम लेने की जरूरत होती है. क्रोध पर काबू रखना भी आवश्यक होता है.
व्यय के रास्ते अचानक ही बनते रहते हैं जिससे बचत में कमी आती है. पैतृक सम्पत्ति के सुख से व्यक्ति वंचित रह सकता है अथवा पैतृक सम्पत्ति मिलने पर भी उसे सुख की अनुभूति नही होती है. व्यक्ति की आजीविका में समय-समय पर मुश्किलें आती हैं जिनके कारण नुकसान सहना पड़ता है. आठवें घर में बैठा राहु व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी चिंताएं देता है. दुर्घटना की संभावना भी बनी रहती है. अगर व्यक्ति सजग एवं सावधान नहीं रहे तो अपने आस-पास में हो रहे साजिश के कारण उसे कठिन हालातों से भी गुजरना पड़ता है.
कर्कोटक कालसर्प दोष उपाय
कर्कोटक नाग के विषय में उल्लेख मिलता है कि यह भगवान शिव के बड़े भक्त हैं. शिव जी तपस्या करते हुए इन्हेंनों शिव की अनुकम्पा प्राप्त की है. उज्जैन में एक शिव मंदिर है जो कर्कोटेश्वर के नाम से जाना जाता है. मान्यता है कि इसी मंदिर में कर्कोटक को शिव की कृपा मिली थी. इस मंदिर में शिव जी पूजा अर्चना करने से कर्कोटेश्वर कालसर्प का दोष दूर होता है. पंचमी, चतुर्दशी एवं रविवार के दिन यहां दर्शन पूजा करना अति उत्तम माना जाता है. इस दिन यहां पूजा करने से सभी प्रकार की सर्प पीड़ा से मुक्ति मिलती है.
जो लोग यहां दर्शन के लिए नहीं जा सकते हैं वह पंचाक्षरी मंत्र से शिव की पूजा करें और दूध व जल से उनका अभिषेक करें तो कर्कोटक कालसर्प दोष के अशुभ फल से बचाव होता है. इस दोष की शांति के लिए नागपंचमी एवं शिवरात्रि के दिन शिव की पूजा अधिक फलदायी होती है. पंचमी तिथि में सवा किलो जौ बहते जल में प्रवाहित करने से भी कर्कोटक कालसर्प दोष शांत होता है.

कुंडली में कर्क लग्न में मंगल का प्रभाव

कर्क लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
लग्न (प्रथम भाव) में बैठे मंगल के प्रभाव से जातक के शारीरिक सौंदर्य एवं स्वास्थ्य में कमी रहती है । विद्या, संतान, राज्य एवं पिता के सुख में भी असंतोष बना रहता है । यहाँ से मंगल चौथी मित्र दृष्टि से चतुर्थ भाव को देखता है, अत: जातक को माता, भूमि तथा मकानादि का सुख तो मिलता है, किन्तु स्त्री की तरफ से मानसिक संतोष नहीं मिलता । व्यवसाय में थोड़ी कठिनाइयों के बाद सफलता मिलती है, मगर दैनिक जीवन में छोटी-मोटी कठिनाइयां आती रहती हैं । द्वितीय भाव में अपने मित्र सूर्य की सिंह राशि पर मंगल के स्थित होने से जातक को धन और परिवार का पर्याप्त सुख मिलता है । समाज से सम्मान पाता है । संतान एवं विद्या की शक्ति प्राप्त होने पर भी अनेक परेशानियों का अनुभव होता है । आयु तथा धर्म की वृद्धि होती है । तृतीय भाव में मंगल की उपस्थिति से जातक का पराक्रम बढ़ता है तथा भाई-बहनों का सुख प्राप्त होता है । विद्या एवं संतान की शक्ति भी मिलती है । जातक अपने बुद्धि-बल से भाग्यशाली होता है तथा धर्म व यश प्राप्त करता है । पिता से सहयोग मिलता है, इसलिए नौकरी-व्यापार में सफल होता है । शत्रुपक्ष में प्रभाव एवं विजय की प्राप्ति होती है । चतुर्थ भाव में मंगल के प्रभाव से जातक को माता, भूमि तथा भवनादि का स्नाप्त होता है । साथ ही उसे विद्या, बुद्धि और संतान के पक्ष में भी सफलता है । स्त्री एवं व्यवसाय के क्षेत्र में उन्नति तथा सुख का योग बनता है । धन- लाभ होता है । जातक सुखी, धनी और सफल जीवन व्यतीत करता है । पंचम भाव के होने पर जातक के मान-सम्मान एवं प्रभाव में वृद्धि होती है । लाभ प्राप्ति के लिए मानसिक परिश्रम अधिक करना पड़ता है । व्यय अधिक रहता है । बाहरी स्थानों के संपर्क से यश, धन तथा सफलता की प्राप्ति होती है । कर्क लग्न के अंतर्गत जन्मकुंडली के षष्ठ भाव में मंगल के होने पर जातक अपने शत्रुओं पर विजय पाता है । वह विद्या और बुद्धि का धनी होता है । संतान-सुख प्राप्त करता है । बुद्धियोग द्वारा भाग्य तथा धर्म की उन्नति होती है । शारीरिक सौंदर्य,स्वास्थ्य सुख एवं शांति में कुछ कमी बनी रहती है । सप्तम भाव में मंगल का प्रभाव होने से जातक को कईं सुंदर स्त्रियों का संयोग प्राप्त होता है । साथ ही उनसे कुछ मतभेद भी होता रहता है  व्यावसायिक सफलता मिलती है और सम्मान भी । स्वास्थ्य में कमी तथा घरेलूसुख में असंतोष रहता है । जातक की शक्ति प्रबल रहती है । उसकी वाणी अति प्रभावशाली होती है । अष्टम भाव में मंगल के प्रभाव से जातक को आयु,पिता, राज्य, नौकरी या व्यवसाय विद्या,बुद्धि तथा संतान के पक्ष में कुछ हानि उठानी पड़ती है, किन्तु धन भाव में मंगल के होने से जातक के भाग्य की बृद्धि होती है। परिश्रम द्वारा उसकी उन्नति संभव होती है । वह अति विशिष्ट व प्रभावशाली व्यक्ति होता है । सप्तम भाव में मंगल के होने पर जातक को कठिनाइयों के साथ भी एवं व्यवसाय से खुस-सफलता की प्राप्ति होती है । पिता से कुछ मतभेद रहते हैं । उसका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक होता है तथा वह बहुत सौभाग्यशाली होता है । उसे जीवन में सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं । यदि जन्मकुंडली के अष्टम भाव में मंगल हो तो जातक दीर्घायु होता है, किन्तु भाग्य का धनी नहीं होता । धर्म में भी उसकी कोई विशेष आस्था नहीं होती । वह जो भी कार्य करता है, उसमें खूब आमदनी होती है । परिवारिक सुख मिलता है । ऐसा जातक यशस्वी होता है । नवम भाव में मंगल के होने से जातक बड़ा भाग्यवान होता है । उसमें बहुत अधिक व्यय करने की आदत नहीं होती । उसे किसी चीज की कमी नहीं रहती । उन्नति के प्रति वह पूर्ण आशावान होता है । यहीं आशा उसे उच्च शिखर तक ले जाती है । यदि दशम आव में मंगल हो तो जातक निराशावादी नहीं होता, क्योंकि वह पूर्णतया आशावादी होता है । व्यवसाय के क्षेत्र में वह उन्नति, सफलता, सम्मान और लाभ-सभी कुछ प्राप्त करता है । जातक मधुरभाषी, धैर्यवान,विनम्र तथा सज्जन होता है । यदि एकादश भाव में मंगल स्थित हो तो जातक की आमदनी में वृद्धि होती है । मकानादि की प्राप्ति होती है । आजीविका साधन में कोई कमी नहीं रहती । परिवार का पूर्ण सुख मिलता है । रोगों और बेकार के झंझटों में उसे विजय मिलती है । जातक अत्यंत प्रभावशाली, शत्रुजयी, धनी तथा ननिहाल का भी सुख प्राप्त करने वाला होता है । द्वादश (व्यय ) भाव में अपने मित्र चंद्रमा को कर्क राशि पर स्थित नीच के मंगल जातक को खर्च के मामले में परेशानी उठानी पड़ती है । बाहरी संबधित से भी कष्ट होता है । भाग्य उसका साथ नहीं देता, फिर भी नौकरी या कारोबार से उसे लाभ होता है । धर्म में उसकी आस्था न के बराबर होती है ।

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दीपक जलने से सकारात्मक ऊर्जा का विकास

अपनी एक किरण से अन्धकार को चीरता हुआ प्रकाश फैलाने वाला दीपक प्रतिदिन जलता है और जलाया जाता है। त्याग की प्रतिमूर्ति दीपक को लगभग हर घर में पूजन व अर्चन के दौरान प्रज्जवलित किया जाता है।
भगवान गणेश की कृपा पाने के लिए तीन बत्तियों वाला दीपक जलानें से मनोकामनायें पूर्ण होती है। यदि आप मां लक्ष्मी की आराधना करते हैं और चाहते हैं कि उनकी कृपा आप पर बरसे तो उसके लिए आपको सातमुखी दीपक जलायें। यदि आपका सूर्य ग्रह कमजोर है तो उसे बलवान करने के लिए, आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ करें और साथ में सरसों के तेल का दीपक जलायें। आर्थिक लाभ पाने के लिए आपको नियमित रूप से शुद्ध देशी गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए। शत्रुओं व विरोधियों के दमन हेतु भैरव जी के समक्ष सरसों के तेल का दीपक जलाने से लाभ होगा। शनि की साढ़ेसाती व ढैय्या से पीड़ित लोग शनि मन्दिर में शनि स्त्रोत का पाठ करें और सरसों के तेल का दीपक जलायें। पति की आयु व अरोग्यता के लिए महुये के तेल का दीपक जलाने से अल्पायु योग भी नष्ट हो जाता है। शिक्षा में सफलता पाने के लिए सरस्वती जी की आराधना करें और दो मुखी घी वाला दीपक जलाने से अनुकूल परिणाम आते हैं। मां दुर्गा या काली जी प्रसन्नता के लिए एक मुखी दीपक गाय के घी में जलाना चाहिए। भोले बाबा की कृपा बरसती रहे इसके लिए आठ या बारह मुखी पीली सरसों के तेल वाला दीपक जलाना चाहिए। भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए सोलह बत्तियों वाला गाय के घी का दीपक जलाना लाभप्रद होता है। हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए तिल के तेल आठ बत्तियों वाला दीपक जलाना अत्यन्त लाभकारी रहता है। पूजा की थाली या आरती के समय एक साथ कई प्रकार के दीपक जलाये जा सकते हैं। संकल्प लेकर किया गये अनुष्ठान या साधना में अखण्ड ज्योति जलाने का प्रावधान है।

डेंगू का कारण व उपाय: ज्योतिष्य तथ्य

डेंगू नामक बीमारी एंडीज मच्छरों के काटने से होती है। इस रोग में भयानक सिरदर्द के साथ तेज बुखार आता है और शरीर में लाल रंग के चकत्ते पड़ते है, नाक से खून का रिसाव होता है, भूख नहीं लगती है और उल्टियाॅ आना आदि लक्षण प्रतीत होते है। जैसे-जैसे यह बीमारी रोगी पर हावी होती है वैसे-वैसे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और प्लेटलेटस की संख्या निरंतर कम होने लगती है। प्लेटलेटस में लाल रक्त कणिकायें और प्लाजमा शामिल होता है। प्लेटलेटस का अहम कार्य हमारे शरीर में मौजूद हर्मोन और प्रटोन को उपलब्ध कराना होता है। रक्त को नुकसान होने की स्थिति में कोलाजन नामक द्रव्य निकलता है जिससे मिलकर प्लेटलेटस एक अस्थाई दीवार का निर्माण करते है एंव रक्त को और अधिक क्षति होने से रोकते है। बुखार आने पर कैसे पता करें कि डेंगू है या साधारण बुखार प्लेटलेटस की संख्या सामान्य से नीचे आने पर रक्तस्नय की आशंका बढ़ती है। धीरे-2 एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि रोगी की मृत्यु भी हो सकती है। इस बीमारी का भारतीय ज्योतिष में दो ग्रहों सूर्य व मंगल से सम्बंध देखा जा सकता है। ये दोनों ग्रह जब गोचर में नीच या पाप ग्रहों से दृष्ट हो या भाव सन्धि में फॅस जाते है तो इन ग्रहों से प्रभावित लोगों पर यह बीमारी विशेष प्रभाव डालती है। प्लेटलेटस में दो चीजे होती है लाल रक्त कणिकायें और प्लाजमा। लाल रक्त कणिकाओं का सम्बंध मंगल ग्रह से होता है और प्लाजमा का सम्बंध सूर्य ग्रह से होता है। सूर्य का प्रभाव रवि का अमल आत्मा, चेतना शक्ति एंव ह्रदय पर रहता है। सूर्य ही सूर्यमाला का आधार है। जोड़ो में दर्द, ऊर्जा निर्माण, श्वेत रक्त कणिकायें, गर्मी की बीमारियाॅ, हर प्रकार का ज्वर, सिर के अन्दरूनी हिस्से, भूख न लगना आदि सूर्य के अधिकार क्षेत्र में आते है। मंगल का प्रभाव इस ग्रह का विशेष प्रभाव चेहरे पर होता है। रक्त का कारक होने के कारण रक्त से सम्बंधित होने वाली बीमारियाॅ मंगल के अधिकार क्षेत्र में ही आती है। जैसे-नाक से ब्लड बहना, चिकन पाक्स, रक्त चाप आदि। मंगल की राशि वृश्चिक है अर्थात विच्छू। विच्छू जहर का प्रतीक है। यानि शरीर में जहर फैलाना ये सभी कार्य मंगल के क्षेत्र में आते है।
किन जातकों पर डेंगू का विशेष आक्रमण होता है- जिन लोगों की जन्म पत्रिका में सूर्य तुला राशि में होकर छठें, आठवें, बारहवें भाव बैठा हो एंव मंगल की दृष्टि हो। पत्रिका में मंगल कर्क राशि में होकर सप्तम, अष्टम, द्वादश में हो तथा साथ में सूर्य से पीड़ित या दृष्ट हो। पत्री में सूर्य वृश्चिक राशि में हो और नवमांश में सूर्य अपनी नीच राशि में हो तथा मंगल की चतुर्थ दृष्टि पड़ रही हो। जिन जातकों की कुण्डली में वृश्चिक राशि भाव सन्धि में पड़ी हो तथा सूर्य द्वादश भाव में तुला राशि में बैठा हो। मंगल कृतिका नक्षत्र में हो और मंगल की ही दशा चल रही हो। ऐसे लोगों को यह बीमारी विशेष कष्ट देती है।
उपाय- गायत्री मंत्र, आदित्य ह्रदय स्त्रोत, सुन्दर काण्ड व बजरंग बाण आदि में से किसी एक का विधि-विधान से पाठ करें। अधिकमास की वजह से बढ़ता है डेंगू जैसी बीमारियों का प्रकोप- भारतीय ज्योतिष में बारह चन्द्रमासों का एक वर्ष होता है किन्तु चन्द्र वर्ष और सूर्य वर्ष में लगभग 11 दिनों का अन्तर होता है। चन्द्रमा लगभग 354 दिनों में पृथ्वी की परिक्रमा पूरी कर लेता है और जबकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगभग 365 दिन में पूरी कर लेती है। इस प्रकार दोनों में लगभग 11 दिनों का अन्तर होता है। इस अन्तर को पूरा करने के लिए ज्योतिष में अधिकमास का निर्माण किया गया है। प्रत्येक तीन वर्ष बाद अधिक मास पड़ता है। जिस वर्ष में अधिकमास होता है उस वर्ष महामारी, रोग व प्राकृतिक आपदायें समाज को बुरी तरह प्रभावित करती है। इस वर्ष 17 जून से 16 जुलाई तक अधिकमास था। जिस कारण डेंगू जैसी जानलेवा बीमारी ने कोहराम मचा रखा है। कब समाप्त होगा डेंगू का कहर? डेंगू की बीमारी में सूर्य और मंगल अहम रोल है, इसलिए इन दोनों ग्रहों की स्थितियों का आकलन करना जरूरी है। वर्तमान में सूर्य अपनी नीच की राशि तुला में संक्रमण कर रहा है। यानि सूर्य की पवार इस समय न्यून है। 17 नवम्बर से सूर्य मंगल की राशि वृश्चिक में गोचर करना प्रारम्भ कर देगा। 03 नवम्बर को मंगल कन्या राशि में प्रवेश करेगा। अर्थात 17 नवम्बर से डेंगू का दुष्प्रभाव निष्क्रिय हो जायेगा।

कुंडली में मिथुन लग्न में मंगल का प्रभाव

मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
लग्न (प्रथम भाव) में स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को शारीरिक श्रम द्वारा धन का यथेष्ट लाभ होता है तथा शत्रु पर विजय प्राप्त होती है । माता एवं सुख के पक्ष में कुछ असंतोषयुबत्त लाभ होता है । स्त्री की तरफ से रोग तथा परेशानी होती हैं । परिश्रम द्वारा व्यवसाय से लाभ होता है । यदि जातक नौकरी में है तो उसकी उन्नति संभव होगी । आयु में वृद्धि तथा पुरातत्व का लाभ होगा । ऐसा जातक क्रोधी,परिश्रमी, झगड़ालू और लाभ कमाने वाला होता है । द्वितीय स्थान में अपने मित्र चंद्रमा की कर्क राशि पर नीच का मंगल स्थित होने से जातक को धन एवं कुंटुम्ब के संबंध में हानि उठानी पड़ती है । शत्रुओं द्वारा उत्पन्न किए गए झगडों से भी हानि होती है । गलत कार्यों ( सट्टे-लॉटरी) द्वारा धन-हानि होती है। संतानपक्ष से कुछ कष्ट होता है तथा विद्या- बुद्धि के क्षेत्र में गुप्त युक्तियों द्धारा लाभ होता है । जातक धन-प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम करता है । उसकी सच्ची श्रद्धा नहीं होती । यदि तृतीय भाव में मंगल की उपस्थिति हो तो जातक के पराक्रम की वृद्धि होती है । शत्रु पर विजय मिलती है ।जातक उससे लाभ भी उठाता है । भाग्य का सामान्य लाभ होता है । पिता तथा राज्य की ओर से धन,सम्मान,यश एवं प्रभाव की वृद्धि होती है| जातक अपने परिश्रम द्वारा धनोपार्जन के क्षेत्र में भारी सफलता प्राप्त करता है ।चतुर्थ भाव में मंगल के स्थित होने पर जातक को जमीन-जायदाद का कुछ परेशानियों के साथ लाभ मिलता है । यश की प्राप्ति होती है, आमदनी अच्छी होती है और उन्नति के मार्ग प्रशस्त होते हैं । यदि पंचम भाव में मंगल की स्थिति हो तो जातक को संतानपक्ष से सामान्य वैमनस्य के साथ लाभ होता है । विद्या-बुद्धि की प्राप्ति होती है, आयु की वृद्धि और पुरातत्व का लाभ होता है । दैनिक जीवन प्रभावपूर्ण रहता है । जातक को पेट-संबंधी रोग बने रहते हैं । वह परिश्रम के बल पर धनी तथा सुखी होता है । षष्ठ भाव में मंगल का प्रभाव होने से जातक शत्रुपक्ष पर अत्यंत प्रभाव रखता है । कठिन परिश्रम द्वारा अपनी आय में वृद्धि करता है । भाग्य एवं धर्म के प्रति कुछ कमी और असंतोष रहता है ।यदि सप्तम भाव में मंगल उपस्थित हो तो जातक व्यावसायिक क्षेत्र में सफलता पाता है । उसकी स्त्री कुछ रोगिणी रहती है | उसे पिता द्वारा धन की प्राप्ति और समाज की और से मान-सम्मान मिलता है । शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है, किन्तु धन-संग्रह में कमी रहती है | कुटुम्ब के कारण क्लेश मिलता है । अष्टम ( आयु एवं पुरातत्व ) भाव में शनि की मकर राशि में स्थित उच्च के मंगल से जातक की आयु में वृद्धि होती है, परिश्रम द्वारा धन-लाभ होता है तथा विदेश प्रवास से धन का बहुत ही अधिक लाभ होता है । जीवन निर्वाह के लिए एकमुश्त आमदनी का योग है| भाईं-बहनों की तरफ से कुछ क्लेश रहता है ।नवम त्रिक्रोण ( भाग्य एवं धर्म ) में कुंभ राशि पर स्थित मंगल से जातक की भाग्योंन्न्ती परिश्रम और कुछ कठिनाइयों के बाद होती है । उसे धर्म का पालन बड़ी अनिच्छा के साथ करना पड़ता है । व्यय अधिक रहता है, मगर बाहरी स्थानों से लाभ प्राप्त होता है । भाई-बहनों का पूर्ण सुख मिलता है । जातक जमीन-जायदाद वाला होता है । दशम भाव में गुरु की मीन राशि पर स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को स्वयं के परिश्रम से धन और यश की प्राप्ति होती है । बैरियों पर विशेष प्रभाव बना रहता है । शरीर स्वस्थ एवं शक्तिशाली रहता है । कभी-कभी छोटे-मोटे रोगों का सामना भी करना पड़ जाता है । भूमि आदि के सुख में कुछ परेशानियों के साथ सफलता मिलती है । जीवन भर आमदनी अच्छी रहती है| एकादश भाव में मंगल के प्रभाव से जातक को धन का लाभ पर्याप्त तथा स्थायी रूप से प्राप्त होता है, किन्तु मंगल के शत्रु स्थानाधिपति होने के कारण कभी-कभी कुछ कठिनाइयों उठानी पड़ती हैं । परिवार की और से भी कष्ट मिलता है । पुत्र लाभ होता है । यदि समझदारी से काम न, लिया जाए तो आगे चलकर पुत्र-क्लेश का योग बन जाता है | जातक विद्या का धनी होता है । द्वादश भाव में वृष राशि पर मंगल के प्रभाव से जातक का व्यय अधिक रहता है तथा पराक्रम की वृद्धि होती है । शत्रुपक्ष से हानि और लाभ दोनों ही मिलते हैं । स्त्री की तरफ से कुछ परेशानी बनी रहती है । ऐसा जातक गुप्त रोग से पीडित हो सकता है ।
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Wednesday, 28 October 2015

कुंडली में मेष लग्न में मंगल का प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर मंगल ग्रह का प्रभाव ज़न्मकालीन स्थिति एवं दैनिक गोचर गति के अनुसार पड़ता है । जातक के जन्म-समय के मंगल की स्थिति जन्मकुंडली में दी गई होती है ।
मेष लग्न
मेष लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
प्रथम (लग्न) भाव में बैठे मंगल के प्रभाव से जातक का शरीर पुष्ट होता है । उसमें आत्मबल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । उसे माता के सुख, घर, मकान आदि के संबंध तथा व्यवसाय एवं पत्नी के मामले में कुछ परेशानियां उठानी पड़ सकती हैं । यदि जन्मकुंडली के द्वितीय ( धन) भाव में मंगल की स्थिति हो तो जातक को धन संचय में कमी तथा शरीर-स्थानों में कष्टों का सामना करना पड़ता है । विद्या-प्राप्ति के मार्ग में कठिनाइयों एबं संतानपक्ष में भी कुछ कष्ठों का सामना उसे करना पड़ेगा । भाग्य में रुकावटें आएंगी । यदि तृतीय (भ्राता) भाव में अपने मित्र बुध की राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक बहुत हिम्मत वाला तथा पराक्रमी होता है । शत्रुओं पर उसका दबदबा रहता है । पिता का सुख मिलता है और राज्य की ओर से सम्मान की प्राप्ति होती है । यदि चतुर्थ (माता-सुख तथा भूमि) भाव में मंगल नीच का होकर अपने मित्र चंद्रमा की राशि में बैठा हो तो जातक की माता के सुख में कमी होती है । साथ ही भूमि, मकान एवं घरेलू सुखों में भी कमी आती है । स्त्री और व्यवसाय के संबंध में क्लेश उठाने पड़ सकते हैं । आर्थिक स्थिति सुधारने में उसे परिश्रम करना पड़ता है । यदि जन्मकुंडली के पंचम त्रिकोण एवं विद्या के स्थान में अपने मित्र सूर्य की सिंह राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक को विद्या, बुद्धि तथा संतानपक्ष में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । वह दीर्घायु होगा तथा उसे पुरातत्व का लाभ मिलेगा । व्यय की अधिकता रहेगी, किन्तु फिर भी आजीविका के साधन प्राप्त होते रहेंगे । यदि जन्मकुंडली के षष्ठ भाव एवं रोग स्थान में मंगल कन्या राशि में स्थित हो तो जातक अपने शत्रुओं पर प्रभाव बनाए रखने में सफल होगा । वह बहुत निडर और साहसी बना रहेगा । भाग्य के क्षेत्र में उसके समक्ष कुछ कठिनाइयां उत्पन्न होंगी । स्वाभिमान एवं प्रभाव प्रबल बना रहेगा । स्वास्थ्य अच्छा तथा व्यय अधिक होगा । यदि सप्तम केंद्र एवं स्त्री भवन में मंगल की स्थिति हो तो जातक को स्त्री-पक्ष से कुछ कष्ट रहेगा तथा व्यवसाय में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । पिता और राज्य द्वारा उन्नति के साधन तथा यश की प्राप्ति होगी। शरीर स्वस्थ रहेगा । जातक यशस्वी व प्रभावशाली बना रहेगा । धन एवं कुटुम्ब की वृद्धि के लिए अधिक प्रयत्न करने पर भी अल्प सफलता ही प्राप्त होगी । यदि अष्टम (मृत्यु) भाव में मंगल स्वक्षेत्री होकर बैठा हो तो जातक की आयु में वृद्धि होगी तथा पुरातत्व का लाभ होगा । शरीर की सुन्दरता में कमी रहेगी और आय के क्षेत्र में कठिनाइयों के बाद सफलता मिलेगी । परिवार की ओर से थोडा असंतोष रहेगा,भाई-बहनों के सुख में कमी रहेगी तथा पराक्रम अधिक होगा । यदि नवम त्रिकोण एवं भाग्य (धर्म) स्थान में मंगल का प्रभाव हो तो जातक का भाग्य अच्छा बना रहेगा, किन्तु असंतोष के साथ-साथ व्यय भी अधिक होगा । माता के सुख, भूमि एवं मकान आदि के संबंध में भी कमी बनी रहेगी । यदि दशम भाव (राज्य और पिता के भवन) में मंगल अपने शत्रु शनि की मकर राशि पर उच्च का होकर स्थित हो तो जातक अपने पिता से वैमनस्य रखता हुआ भी उस स्थान तथा व्यवसाय की उन्नति करेगा । उसे राज्य द्वारा सम्मान की प्राप्ति और प्रभाव में वृद्धि होगी । माता एवं भूमि के सुख में कमी रहेगी । विद्या, बुद्धि व संतान के क्षेत्र में सफलता प्राप्त होगी । एकादश (लाभ) स्थान में सममित्र शनि की कुंभ राशि पर स्थित मंगल के से जातक को आय के साधनों में सफलता प्राप्त होती रहेगी, किन्तु कभी-कभी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ सकता है । परिवार की तरफ से असंतोष रहेगा । संतान तथा विद्या के क्षेत्र में भी कमी रहेगी । शत्रुपक्ष में उसका विशेष प्रभाव से जातक अधिक व्यय करने वाला, बाहरी स्थानों में भ्रमण करने वाला तथा शारीरिक सौंदर्य में कुछ कमी पाने वाला रहेगा । शत्रुपक्ष कुछ प्रबल रहेगा | व्यवसाय के क्षेत्र में परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है । उसे विशेष परिश्रम के बाद ही सफलता मिलेगी, जो जीवन पर्यन्त साथ देगी ।
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सूर्य किरण से सकारात्मक ऊर्जा का विकास

पृथ्वी के प्र्राणियों के लिए सूर्य का बहुत ज्यादा महत्व है। समस्त धरा पर निवास कर रहे प्राणि जगत हेतु सूर्य जीवन प्रदाता है। सूर्य वह पिंड या ग्रह है जिससे हमें ऊर्जा प्राप्त होती है। सूर्य से प्राप्त ऊर्जा ही है जो इस संसार को चलायमान बनाए हुए है। सूर्य को भगवान विष्णु के बाद इस प्राणि जगत का पालक माना गया है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को सभी ग्रहों का राजा माना गया है। इसे सौर मंडल का प्रमुख ग्रह कहा गया है। सूर्य इतना विशालकाय और ऊर्जावान ग्रह है जिससे हमारी पृथ्वी ऊर्जावान और ऊष्मावान होती है। ज्योतिष में सूर्य को कुछ कार्यों के कारक की संज्ञा दी गई है जैसे, औषधि और पारिवारिक संबंधों में पिता का कारक सूर्य है। शरीर में हड्डी का कारक सूर्य है। स्वाध्याय, ऊर्जा, चिकित्सक और अधिकारी वर्ग, समस्त प्रशासनिक विचार, सरकारी तंत्र, दायां नेत्र, दिन, सिर, पेट, मस्तिष्क, हृदय, रक्त चाप, ज्वर, पित्तज रोग, क्षय रोग आदि सूर्य के अधीन हैं। सूर्य को विज्ञान माना गया है क्योंकि यह ऊर्जा, ऊष्मा, प्रकाश, औषधि का कारक है।ज्योतिष शास्त्र पूर्ण रूपेण वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। इसे विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। सूर्य के क्षेत्र को विस्तार से विद्वानों ने समझा है। सूर्य की गति के फलस्वरूप ही दिन रात बनते हैं। सूर्य पूर्व दिशा से उदित होकर पश्चिम में अस्त हो जाता है। सूर्य में औषधीय गुण पाया जाता है। वास्तु शास्त्र का गहन अध्ययन किया जाए तो वास्तु में नियम है कि ईशान कोण में पूजा कक्ष बनाया जाए और नैर्ऋत्य कोण में ज्यादा से ज्यादा भारी निर्माण किया जाए अर्थात बड़ी-बड़ी दीवारें हों, ऊंचाई अधिक हो, खिड़की दरवाजे न बनाए जाएं। इसके सिद्धांत के तह में जाएं तो मालूम पड़ेगा कि यह तथ्य कितना व्यावहारिक और स्वास्थ्य कारक है। प्राचीन काल में सुबह शौच आदि कार्यों हेतु घर से दूर जाया जाता था। वह भी अंधेरे में और जब वापस लौटते थे तब तक सूर्योदय हो जाता था और सूर्य से निकलने वाली किरणें, जिनमें विटामिन की प्रचुर मात्रा पाई जाती है, प्राप्त होती थीं। मेडिकल साइंस बच्चों में होने वाले सूखा रोग पर कोई दवा नहीं बना पाया है। इसका एक मात्र इलाज है कि बच्चे को कपड़े उतार कर लाल तेल से मालिश कर उगते सूर्य की किरणों में बिठा दिया जाए। सूर्य की किरणों में प्रातः कालीन विटामिन डी और प्रोटीन युक्त ऊष्मा प्राप्त होती है। इसीलिए पूजा कक्ष ईशान में बनाया जाता है ताकि लोगों को ज्यादा से ज्यादा सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा का लाभ हो, और लोग स्वस्थ रहें। ईशान में ज्यादा खुलापन होना चाहिए। रसोई घर दक्षिणी पूर्वी कोण पर बनाया जाए ताकि सूर्य की ऊर्जावान किरणें हमारे भोज्य पदार्थों को कीड़ों, जंतुओं और बैक्टीरिया से मुक्त रखें। संध्याकालीन सूर्य से इन्फ्रारेड किरणें निकलती हैं जो एक्सरे निकालने में प्रयोग की जाती हैं। यह मानव शरीर हेतु हानिकारक किरणें हैं। सूर्य अस्त पश्चिम में होता है। नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम का भाग) में ऊंचा निर्माण, मोटी दीवारें, बड़े-बड़े पेड़ होने की वजह से सूर्य की हानिकारक किरणें हमारे पास नहीं आतीं। संध्या काल में आरती करने के पीछे भी यही उद्देश्य है कि आप सूर्य अस्त की दिशा से दूर पूर्वी क्षेत्र में रहें ताकि सूर्य की हानिकारक किरणें आप को आघात न पहुंचा सकें। इस तरह सूर्य रोगों से हमारी रक्षा करता है। सूर्य से प्राप्त किरणों से हमें बल प्राप्त होता है। प्राणबल सूर्य से ही प्राप्त होता है। जब वर्षा ऋतु में 2-3 दिनों तक सूर्य बादलों में छुपा रहता है तब हम सुस्ती, थकान, भारीपन महसूस करते हैं, कुछ कार्य करने की इच्छा नहीं होती। यह सब क्या है, यह सूर्य का ही तो कमाल है कि वह उदय हो कर हमें अपनी ऊर्जा प्रदान करता है। सुबह जल्दी उठकर सैर करने की सलाह डाक्टरों द्वारा दी जाती है। यह सब सूर्य की खासियत ही है कि देर से उठने वालों की अपेक्षा जल्दी उठकर सैर आदि पर जाने वाले ज्यादा स्फूर्तिवान और स्वस्थ महसूस करते हैं। अतः सूर्य हमारे लिए सिर्फ दिन लाने वाला ही नहीं अपितु जीवनदायक और रोगों से मुक्त रखने वाला ऊर्जा देने वाला और रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता विकसित करने वाला ग्रह है।

माइग्रेन रोग: ज्योतिष्य तथ्य

मानव जीवन पर वर्तमान जीवनशैली से रोग प्रतिरोधक क्षमताओं का विकास अवरुद्ध हो रहा है, जिससे कई बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है और कुछ रोगों का समूल समाप्त होना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है। वैज्ञानिकों, चिकित्सकों के अथक शोध, अनुसंधान के बावजूद भी उन रोगों का निदान निकालना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि ज्यादातर चिकित्सा पद्धति में जो दवाएं बनती हैं उनके कुछ न कुछ अलग असर होते हैं जिनका हमारे शरीर पर बुरा असर पड़ता है। माईग्रेन पेन अर्थात् आधा शीशी का दर्द हमारे सिर में होने वाला असहनीय पीड़ाकारक दर्द है। ये आधे सिर में होने वाला ऐसा पीड़ा कारक दर्द है जो हर उम्र के लोगों को हो जाता है और जीवन पर्यंत लाईलाज रहता है। हमारा खान-पान भी इसमें अहम् भूमिका अदा करता है। आवश्यकता से अधिक, असमय मांसाहार, रात्रि भोजन नहीं करने से हम तकरीबन 200 प्रकार की विभिन्न बीमारियों से बचे रह सकते हैं। हमारा पाचन तंत्र दुरुस्त हो तो हम काफी हद तक स्वस्थ रह सकते हैं। किंतु माइग्रेन के ज्योतिष कारण भी होते हैं यदि किसी की जन्मकुंडली देखें तो उसके स्वास्थ्य की स्थिति क्या है, इसकी जानकारी ज्योतिष मेंं बहुत पहले ही जानी जा सकती है। प्राचीन समय मेंं प्रसिद्ध रोग विज्ञानी हिप्पोक्रेट्स सबसे पहले व्यक्ति की जन्मसंबंधी तालिका का अध्ययन करता था और फिर उपचार संबंधी कोई निर्णय लेता था! कोई व्यक्ति किस रोग से पीडि़त होता है, यह इस पर निर्भर करता है कि उसके भाव या राशि का संबंध जन्म कुंडली मेंं कौन से अनिष्टकर ग्रह से किस रूप मेंं है। ऐसा इसलिए है कि प्रत्येक राशि एक या एकाधिक शारीरिक अंगों से जुड़ी होती है। इसके साथ ही प्रत्येक ग्रह वायु, अग्नि, जल या आर्द्र प्रकृति वाला कोई एक प्रभुत्वकारी गुण लिए हुए होता है। आयुर्वेद मेंं इसे वात-पित्त-कफ के रूप मेंं बताया गया है। इस तरह राशि चक्र मेंं अंकित शारीरिक अंग और प्रभुत्वकारी ग्रह की विशेषता के मेंल से यह तय होता है कि किस व्यक्ति को कौन-सी बीमारी होगी। सिर, मस्तिष्क एवं आंखों, विशेष रूप से सर का अगला हिस्सा, आंखों से नीचे और सर के पीछे वाले हिस्से से लेकर खोपड़ी के आधार तक का हिस्सा मेष राशि द्वारा नियंत्रित होता है। यह मंगल को प्रतिबिंबित करता है जो दिमाग मेंं अग्निमय ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य, चंद्रमा या मेष का कोई अन्य उदीयमान ग्रह जिस व्यक्ति के साथ जुड़ा होगा उसके सरदर्द की संभावना अन्य लोगों की तुलना मेंं अधिक होगी।यदि सूर्य पहले, दूसरे या बारहवें घर मेंं विघ्नपूर्ण है या मंगल बहुत कमजोर है या नीच के चंद्रमा के साथ दाहक स्थिति मेंं है तब ऐसे लोग अधकपारी सरदर्द (माइग्रेन) से पीडि़त होंगे। साथ ही यदि अनिष्टकर सूर्य या मंगल छठे घर मेंं बैठा है (व्यक्ति की जन्म कुंडली मेंं रोगों का द्योतक) तो व्यक्ति सरदर्द का शिकार होगा।जन्मपत्री की कमजोरी और/या जन्मपत्री मेंं उच्च स्थान पर बैठे अनिष्टकर देव के कारण एक रोगकारी परिस्थिति निर्मित होती है। इससे सरदर्द की संभावना बनती है। मजबूत सूर्य और मंगल, जो कि क्रमश: प्राण क्षमता और ऊर्जा के प्रतीक हैं, सुरक्षात्मक कवच प्रदान करते हैं।
इस तरह माइग्रेन को दूर करने के चिकित्सकीय उपाय के साथ ज्योतिषीय उपाय सबसे बेहद प्रभावी उपायों मेंं से एक यह है कि सुबह उठकर सूर्य की ओर देखकर कम से कम 42 दिनों तक 3, 11, 21, 51 या 108बार ओम सूर्याय: नम: या ओम आदित्याय नम: या गायत्री मंत्र का जाप करें या सूर्य नमस्कार करें। धन्वंतरि होम और मंगल होम का आयोजन करने से भी प्रभावी तौर पर अनिष्टकर ग्रहों के प्रभाव दूर हो जाते हैं और इस प्रकार सरदर्द आपसे मीलों दूर चला जाता है। मंगलवार को सूर्योदय के समय किसी चौराहे पर जाएं और एक टुकड़ा गुड़ को दांत से दो भागों मेंं बांट कर दो अलग-अलग दिशाओं मेंं फेंक दें। 5 सप्ताह लगातार यह क्रिया करें, माईग्रेन मेंं लाभ होगा।रविवार के दिन 325 ग्राम दूध अपने सिरहाने रख कर सोएं। सोमवार को सुबह उठकर दूध को पीपल के पेड़ पर चढ़ा दें, 5 रविवार यह क्रिया करें, निश्चित लाभ होगा। माइग्रेन (आधे सिर मेंं दर्द) रोग का इलाज करने के लिए प्रतिदिन ध्यान, शवासन, योगनिद्रा, प्राणायाम या फिर योगासन क्रिया करनी चाहिए। इसके फलस्वरूप यह रोग कुछ ही दिनों मेंं ठीक हो जाता है।
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उदर रोग: ज्योतिष्य तथ्य

उदर शरीर का वह भाग या अंग है जहां से सभी रोगों की उत्पत्ति होती है। अक्सर लोग खाने-पीने का ध्यान नहीं रखते, परिणाम यह होता है कि पाचन प्रणाली गड़बड़ा जाती है जिससे मंदाग्नि, अफारा, कब्ज, जी मिचलाना, उल्टियां, पेचिश, अतिसार आदि कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते जाते हैं जो भविष्य में किसी बड़े रोग का कारण भी बन सकते हैं। यदि सावधानी पूर्वक संतुलित आहार लिया जाये तो पाचन प्रणाली सुचारू रूप से कार्य करेगी और हम स्वस्थ रहेंगे। उदर में पाचन प्रणाली का काय भोजन चबाने से प्रारंभ होता है। जब हम भोजन चबाते हैं तो हमारे मुंह में लार ग्रंथियों से लार निकलकर हमारे भोजन में मिल जाती है और कार्बोहाइड्रेट्स को ग्लूकोज में बदल देती है। ग्रास नली के रास्ते भोजन अमाशय में चला जाता है। अमाशय की झिल्ली में पेप्सिन और रैनेट नामक दो रस उत्पन्न होते हैं जो भोजन के साथ मिलकर उसे शीघ्र पचाने में सहायता करते हैं। इसके पश्चात भोजन छोटी आंत के आखिर में चला जाता है। यहां भोजन के आवश्यक तत्व रक्त में मिल जाते हैं तथा भोजन का शेष भाग बड़ी आंत में चला जाता है, जहां से मूत्राशय और मलाशय द्वारा मल के रूप में शरीर से बाहर हो जाता है। ज्योतिषीय दृष्टिकोण: ज्योतिष के अनुसार रोग की उत्पत्ति का कारण ग्रह नक्षत्रों की खगोलीय चाल है। जितने दिन तक ग्रह-नक्षत्रों का गोचर प्रतिकूल रहेगा व्यक्ति उतने दिन तक रोगी रहेगा उसके उपरांत मुक्त हो जाएगा। जन्मकुंडली अनुसार ग्रह स्थिति व्यक्ति को होने वाले रोगों का संकेत देती है। ग्रह गोचर और महादशा के अनुसार रोग की उत्पत्ति का समय और अवधि का अनुमान लगाया जाता है। उदर रोगों के ज्योतिषीय कारण जन्मकुंडली में सबसे अधिक महत्वपूर्ण लग्न होता है और यदि लग्न अस्वस्थ है, कमजोर है तो व्यक्ति रोगी होता है। लग्न के स्वस्थ होने का अभिप्राय लग्नेश की कुंडली में स्थिति और लग्न में बैठे ग्रहों पर निर्भर करता है। लग्नेश यदि शत्रु, अकारक से दृष्ट या युक्त हो तो कमजोर हो जाता है। इसी प्रकार यदि लग्न शत्रु या अकारक ग्रह से दृष्ट या युक्त हो तो भी लग्न कमजोर हो जाता है। काल पुरूष की कुंडली में द्वितीय भाव जिह्ना के स्वाद का है। पंचम भाव उदर के ऊपरी भाग पाचन, अमाशय, पित्ताशय, अग्नाशय और यकृत का है। षष्ठ भाव उदर की आंतों का है। उदर रोग में लग्न के अतिरिक्त द्वितीय, पंचम और षष्ठ भाव और इनके स्वामियों की स्थिति पर विचार किया जाता है। विभिन्न लग्नों में उदर रोग मेष लग्न: मंगल षष्ठ या अष्टम भाव में बुध से दृष्ट हो, सूर्य शनि से दृष्ट या युक्त हो, शुक्र लग्न में हो तो जातक को उदर रोग से परेशानी होती रहती है। वृष लग्न: गुरु लग्न, पंचम या षष्ठ भाव में स्थित हो और राहु या केतु ये युक्त हो, लग्नेश शुक्र अस्त होकर द्वितीय या पंचम भाव में हो। मिथुन लग्न: लग्नेश बुध अस्त होकर पंचम, षष्ठ या अष्टम भाव में हो, मंगल लग्न, द्वितीय या पंचम भाव में स्थित हो या दृष्टि दे तो जातक को उदर से संबंधित परेशानी होती है। कर्क लग्न: चंद्र, बुध दोनों षष्ठ भाव में हों, सूर्य पंचम भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को उदर रोग होता है। सिंह लग्न: गुरु पंचम भाव में वक्री शनि से दृष्ट हो, लग्नेश राहु/केतु से युक्त या दृष्ट हो, मंगल से पंचम या षष्ठ हो तो जातक को उदर रोग होता है। कन्या लग्न: मंगल द्वि तीय या षष्ठ भाव में हो, बुध अस्त होकर मंगल के प्रभाव में हो, गुरु की पंचम भाव में स्थिति या दृष्टि हो तो जातक को उदर रोग होता है। तुला लग्न: पंचम या षष्ठ भाव गुरु से दृष्ट या युक्त हो, शुक्र अस्त और वक्री हो कर कुंडली में किसी भी भाव में हो तो जातक को उदर रोग होता है। वृश्चिक लग्न: बुध लग्न में, द्वितीय भाव में, पंचम भाव, षष्ठ भाव में स्थित हो और अस्त न हो, लग्नेश मंगल राहु-केतु युक्त या दृष्ट हो तो जातक को उदर रोग होता है। धनु लग्न: शुक्र, राहु/केतु से युक्त होकर पंचम या षष्ठ भाव में हो, गुरु अस्त हो और शनि की दृष्टि हो तो जातक को उदर रोग होता है। मकर लग्न: गुरु द्वितीय भाव या षष्ठ भाव में वक्री हो और राहु/केतु से दृष्ट या युक्त हो तो जातक को उदर रोग देता है। कुंभ लग्न: शनि अस्त हो, गुरु लग्न में पंचम भाव में, मंगल षष्ठ भाव में राहु/केतु से युक्त हो तो उदर रोग होता है। मीन: शुक्र षष्ठ भाव में, शनि द्वितीय या पंचम भाव में, चंद्र अस्त या राहु केतु से युक्त हो तो जातक को उदर से संबंधित रोग होता है। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण: आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग का कारण तीन विकार हैं अर्थात् वात, पित्त, कफ का असंतुलित हो जाना। उदर रोग में भी इन विकारों पर विचार किया जाता है। वात विकार की वृद्धि से अग्नि विषम होते हैं, पित्त की वृद्धि होने से अग्नि तेज होती है; कफ वृद्धि से अग्नि मंद होती है जिससे पाचन प्रणाली प्रभावित होकर उदर रोग उत्पन्न करती है। यदि समय रहते विकार का उपचार कर लिया जाए तो रोग से बचा जा सकता है।

टॉनॅनसिल रोग: ज्योतिष्य तथ्य

टॉनॅनसिलाइटिसः खान-पान में सावधानी का अभाव टॉनसिलाइटिस एक बाल रोग है, जो बच्चों को बचपन में ही अपने शिकंजे में जकड़ लेता है। इस का मुखय कारण गलत खान-पान होता है। अगर बड़े होने पर भी खान-पान गलत रहें, तो बड़े हो कर भी यह रोग हो सकता है। जो बालक बचपन में अपने खान-पान का ध्यान न रखते हुए खट्टी, तली और मसालेदार चीजों का उपयोग करते हैं, उन्हें टॉनसिलाइटिस रोग हो जाता है। हर व्यक्ति के गले में दो नरम मांस के लिज़लिजे टुकड़े होते हैं, जो श्लेष्मल झिल्ली से जुड़े होते हैं। इनके द्वारा लसिका का भ्रमण होता है, जो रक्तधारा से जीवाणुओं और गंदगी को दूर करने में मदद करता है। गले का टॉनसिल वाला भाग जब जीवाणु, या विषाणु के कारण दूषित हो जाता है, तो उसे टॉनसिलाइटिस कहते हैं। इसमें ग्रसनी लसिका के ढांचे में सूजन आ जाती है। साथ ही लसिका ग्रंथि और उसके आसपास का क्षेत्र भी सूज कर लाल हो जाता है। टॉनसिल एक तरह का पहरेदार है, जो मुंह और नाक द्वारा शरीर के अंदर जाने वाले नुकसानदायक पदार्थों से बचाता है। जब शरीर के अंदर कोई गलत चीज जाती है, तो यह पहरेदार सारा नुकसान अपने ऊपर ले लेता है; अर्थात् टॉनसिल सूज जाता है। टॉनसिल की इस सूजी अवस्था को टॉनसिलाइटिस कहते हैं। टॉनसिलाइटिस हो जाने पर अक्सर डॉक्टर शल्य क्रिया द्वारा टॉनसिल बाहर निकाल देते हैं, जो गलत है। आधुनिक अनुसंधानों से मालूम हुआ है कि टॉनसिल को निकाल देने से व्यक्ति के शरीर में रोगनिरोधक शक्ति समाप्त हो जाती है। अनचाही वस्तु शरीर में प्रवेश कर शरीर को नुकसान पहुंचा कर बाद में कई प्रकार की समस्याएं खड़ी कर सकती हैं, जैसे संदूषण हमारे शरीर में घुस जाता है तथा आराम से हृदय, जोड़ों, या गुर्दे, गॉलब्लैडर में बैठ जाता है, तथा शरीर के उन भागों को धीरे-धीरे कमजोर कर देता है, ठीक वैसे ही जैसे जंग लोहे को खा जाता है। टॉनसिल एक अंतःस्रावी ग्रंथि है, जो अवतु ग्रंथि की विरोधी है। अतः जब टॉनसिल को निकाल दिया जाता है, तो थायराइड बहुत बढ़ जाता है। क्योंकि थायराइड पियूष ग्रंथि का विरोधी हैं, इसलिए पियूष ग्रंथि का कार्य बिगड़ जाता है। अतः कई बार बढ़ते बच्चों की याददाश्त बिगड़ जाती है। टॉनसिल के किसी भी मरीज को ठीक करने का अर्थ है, उसके शरीर में इस प्रकार की प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न करना, जिससे वह शरीर के हानिकारक सूक्ष्म जीवों से लड़ सके। जब शरीर की प्रतिरक्षा पद्धति भंग होती है, तब जीवाणु हमारे शरीर के अंदर प्रविष्ट होते हैं, जो पहले टॉनसिल और बाद में पूरे शरीर को हानि पहुंचाते हैं। ज्योतिषीय दृष्टिकोण : ज्योतिषीय दृष्टिकोण से जन्मकुंडली में तृतीय भाव से गले का विचार किया जाता है। तृतीय भाव का कारक ग्रह मंगल है। मंगल को ग्रह मंत्रिमंडल में सेनापति माना गया है और सेनापति का कार्य सुरक्षा करना है। टॉनसिल भी एक तरह का सुरक्षा प्रहरी है, जो हमें नुकसान पहुंचाने वाले विषाणुओं से बचाता है। इसलिए टॉनसिल का कारक ग्रह मंगल है। कुंडली में तृतीय भाव, मंगल, तृतीयेश और लग्नेश जब दूषित प्रभावों में रहते हैं, तो टॉनसिल रोग, या गले से संबंधित रोग होता है। विभिन्न लग्नों में टॉनसिल रोग : मेष लग्न : बुध तृतीय भाव में, शनि षष्ठ भाव में, या लग्न में हो और राहु की दृष्टि लग्न, या तृतीय भाव पर हो और लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में हो, तो टॉनसिल रोग होता है। वृष लग्न : तृतीयेश चंद्र षष्ठ भाव में हो, लग्नेश शुक्र धनु, या मीन राशि में रहे, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है। मिथुन लग्न : मंगल तृतीय भाव में हो, तृतीयेश षष्ठ भाव में लग्नेश से युक्त हो, लग्नेश अस्त हो और तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट, या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है। कर्क लग्न : तृतीयेश बुध षष्ठ भाव में, मंगल-शनि से युक्त, केंद्र में हो, लग्नेश चंद्र अपनी नीच राशि में राहु, या केतु से दृष्ट हो, तृतीय भाव पर षष्ठेश की दृष्टि हो, तो टॉनसिल से बच्चों को समस्या रहती है। सिंह लग्न : मंगल अष्टम भाव में, तृतीयेश षष्ठ भाव में शनि से युक्त हो और बुध तृतीय भाव में राहु से युक्त, या दृष्ट हो, तो गले संबंधी रोग होता है। कन्या लग्न : मंगल अष्टम भाव में और राहु तृतीय भाव में हों, तृतीय भाव पर गुरु की दृष्टि हो, लग्नेश बुध त्रिक भावों में अस्त हो, तो टॉनसिल जैसे गले से संबंधित रोग होते हैं। तुला लग्न : गुरु अष्टम भाव, या दशम भाव में हो, चंद्र गुरु से त्रिक स्थानों में हो, बुध तृतीय भाव में मंगल से युक्त हो और लग्नेश शुक्र अस्त हो और राहु-केतु से दृष्ट हो, तो ऐसे रोग होते हैं। वृश्चिक लग्न : बुध तृतीय भाव में हो और लग्नेश मंगल षष्ठ, या अष्टम भाव में राहु या केतु से दृष्ट हो, चंद्र शनि से युक्त, या दृष्ट हो, तो टॉनसिल जैसे रोगों का जन्म होता है। धनु लग्न : शुक्र लग्न में हो और शनि से युक्त हो, मंगल तृतीय भाव में बुध से युक्त हो और राहु, या केतु से दृष्ट हो, लग्नेश षष्ठ भाव में हो, तो टॉनसिल रोग होता है। मकर लग्न : गुरु लग्न में हो, मंगल राहु, या केतु से दृष्ट, या युक्त हो और अष्टम भाव में स्थित हो, तृतीयेश पर लग्नेश की दृष्टि हो, तो टॉनसिलाइटिस रोग होता है। कुंभ लग्न : गुरु तृतीय भाव में, मंगल द्वादश भाव में राहु या केतु से युक्त, या दृष्ट हो, तृतीय भाव पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो टॉनसिल जैसे रोग की उत्पत्ति होती है। मीन लग्न : शुक्र षष्ठ भाव और गुरु अष्टम भाव में, बुध तृतीय भाव में, मंगल चतुर्थ, या सप्तम में हो, लेकिन सूर्य से अस्त हो, तो टॉनसिल होने की संभावना होती है। उपर्युक्त सभी योग चलित कुंडली पर आधारित हैं। रोग की उत्पत्ति संबंधित ग्रह दशा-अंतर्दशा और गोचर ग्रह के प्रतिकूल रहने से होता है। जब तक दशा-अंतर्दशा प्रतिकूल रहेंगे, शरीर में रोग रहेगा। उसके बाद ठीक हो जाएगा। लेकिन ठीक अवस्था में भी पाचन संस्थान में कुछ व्याधि रहेगी। वृष लग्न में तृतीयेश चंद्र षष्ठ भाव में हो, लग्नेश शुक्र धनु, या मीन राशि में रहे, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है।