Tuesday, 16 February 2016

राहु का प्रभाव

ब्रह्मांड में स्थित नव-ग्रहों में से प्रमुख सात ग्रहों (सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, तथा शनि) को छोड़कर शेष दो छाया ग्रहों (राहु-केतु) में राहु का विशेष स्थान है। हालांकि इन छाया ग्रहों का कहीं भौतिक अस्तित्व नहीं है केवल आभास मात्र है लेकिन अन्य प्रमुख ग्रहों की भांति इनका भी भूतल निवासी मानवों पर सीधा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जिसके कारण राहु नामक छाया ग्रह भी ज्योतिष जगत में अपना विशेष स्थान रखता है। राहु एवं इसकी वक्री गति: जब चंद्रमा अपनी कक्षा में दक्षिण से उत्तर को गति करता हुआ क्रांतिवृत्त को काटता है तो वह पात बिन्दु राहु तथा जब चंद्रमा अपनी कक्षा में उत्तर से दक्षिण को गति करता हुआ पुनः क्रांतिवृत्त को 180 डिग्री पर काटता है तो वह पात बिन्दु केतु कहलाता है। चंद्र कक्षा क्रान्ति-वृत्त पर 05 डिग्री झुकी हुई है अतः यह पात बिन्दु प्रत्येक बार थोड़ा पीछे की तरफ बनता है, यही वक्री गति कहलाती है। राहु का विभिन्न भावों में प्रभाव प्रथम भाव - प्रथम भाव में राहु होने से जातक रोगी, क्रोधी, दुखी, दुव्र्यसनी, शत्रुनाशक, अल्प-संतति, मस्तिष्क रोगी, स्वार्थी तथा सेवक वृत्ति वाला होता है। लग्न में राहु हो तो घर में सर्प अवश्य आते हंै। राहु लग्न में हो तो वह जातक अपनी बात मनवाने वाला होता है, माईक हाथ में ले ले तो छोड़ता नहीं है। द्वितीय भाव - द्वितीय भाव में राहु होने से जातक स्वाभिमानी प्रकृति, परिजनों एवं मित्रों के लिए सदैव चिंतित, कुटुंब-नाशक, अल्प-संतति, मिथ्याभाषी, कृपण, शत्रुहंता तथा परिश्रम के पश्चात् ही धन प्रदान करने वाला होता है। तृतीय भाव - तृतीय भाव के राहु से जातक विवेकी, बलिष्ठ, विद्वान, व्यवसायी भाइयों के लिए हानिकारक होता है, नीच का राहु सदैव निर्धनता देता है। स्वगृही राहु सभी सुखों की प्राप्ति कराता है तथा जातक स्त्री, पुत्र, संबंधी तथा मित्रों से युक्त रहता है। चन्द्र राहु तृतीय भाव में हो तो सर्प-दंश अवश्य होता है। शऩि$राहु हों तो उनके द्वारा भी हानि आती है। तृतीय भाव में राहु/केतु होने से भाई-बहनों में मन-मुटाव रहता है। तृतीय भाव में राहु राज बल से युक्त, यशस्वी, प्रतिष्ठित, धनी, दानी, विजयी परंतु भाइयों से वैर करवाता है। चतुर्थ भाव - चतुर्थ भाव के राहु से जातक रोगी, बंधु हीन, निम्न वर्ग के लोगों से प्रेम अधिक रखने वाला, स्वाभाव से क्रूर, अल्प-भाषी, असंतोषी, माता को कष्टकारक होता है। पंचम भाव - पंचम भाव में राहु होने से जातक का कोई कार्य पूर्ण नही हो पाता, आर्थिक स्थिति असंतोषजनक रहने के कारण सदैव चिंतित, भाग्यवान, कर्मठ, कुलनाशक, पत्नी सदैव रोगी रहती है। राहु पंचम में सर्प-शाप दर्शाता है। अतः सर्प पूजा श्रेष्ठ होती है। पंचम में राहु/ केतु विवाहेत्तर संबंध देता है। छठा भाव - छठे भाव में राहु होने से जातक के शत्रु स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं, धन, पुत्र एवं सभी सुखों की प्राप्ति, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक, आपसी विवाद में न्यायालय में सफलता, बलवान, धैर्यवान, दीर्घायु, अनिष्टकारक, शत्रुहंता होता है। सप्तम भाव - सप्तम भाव में राहु होने से जातक अघिक खर्चीला, व्यवसाय में असफल, अधिक श्रम से कार्य में सफलता, चतुर, लोभी, वातरोगी, दुष्कर्म प्रवृत्त, एकाधिक विवाह वाला होता है। राहु सप्तम में तथा सप्तमेश शुक्र के साथ हो तो शादी देता है। सप्तम में राहु हो तथा सप्तमेश द्वादश भाव में हो तो 32 वर्ष की उम्र में शादी होती है। अष्टम भाव - अष्टम भाव के राहु से जातक रोगी के साथ-साथ पाप कर्म वाला होता है। असाध्य रोगों की उत्पत्ति (कैंसर, दमा, पथरी, बवासीर, एक्जीमा आदि) होती है। जातक कठोर, परिश्रमी, बुद्धिमान, कामी, गुप्त रोगी होता है। राहु अष्टम में तंत्र-विद्या व ज्योतिष के लिए अच्छा होता है। अष्टमस्थ राहु की दशा महाकष्टकारी होती है क्योंकि यह नवम (भाग्य, पिता, धर्म) का द्वादश (हानि) भाव है। राहु अष्टम में शुक्र के घर में हो तथा गुरु की दृष्टि न हो तो राहु/शुक्र की दशा में जातक को जेल जाना पड़ता है। यदि अष्टमेश अथवा अन्य पापी ग्रह के साथ राहु/केतु अष्टम में हो तो मृत्यु अथवा मृत्यु-तुल्य कष्ट होता है। मेष राशि का अष्टमस्थ राहु आर्थिक दृष्टि के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होता है। अष्टम भाव में राहु, केतु की स्वराशि में धार्मिक दिशा देता है। नवम भाव - नवम भाव के राहु से जातक धार्मिक प्रवृत्ति वाला, निन्दित कार्य करने वाला, अच्छे कार्यों में बाधा से धन-हीन होता है, शत्रु उत्पन्न करना तथा उनसे भयभीत करवाना भी राहु का कार्य है। जातक सद्गुणी, परिश्रमी लेकिन भाग्यरहित होता है। दशम भाव - दशम भाव में राहु होने से जातक व्यवसाय एवं नौकरी में सफल, कामी प्रवृत्ति, दूसरे की धन-संपत्ति हड़पने वाला, इच्छा अपूर्ण, पारिवारिक व्यक्तियों से तनाव तथा अस्वस्थ रहना, व्यसनी, शौकीन, सुंदरियों पर आसक्त, नीच कर्म प्रवृत्त होता है। एकादश भाव - एकादश भाव के राहु से जातक व्यवसायी, नास्तिक एवं कलहकारी, मंदमति, परिश्रमी, अनिष्ट-नाशक, सतर्क होता है। द्वादश भाव = द्वादश भाव के राहु से जातक धर्म-कर्म वाला, शत्रुओं से भयभीत, दुःखी, विघ्न-ग्रस्त, खर्चीला, प्रवासी, स्त्रीहीन, मंदमति, विवेकहीन, दुर्जनों की संगति वाला होता है। राहु सम्बंधी विशिष्ट बातें - - राहु चंडाल जाति का ग्रह है। - राहु शानिवत फल देता है। - राहु बहिर्मुखी तथा केतु अंतर्मुखी ग्रह होता है। - राहु का मुख दक्षिण की ओर है। - राहु रहस्यमयी विद्याओं का कारक ग्रह है। - राहु की दशा में उच्चाटन क्रिया होती है। - राहु संदेह, संशय आदि देता है। - राहु संध्या समय में बली होता है। - राहु यश, मान, तथा राज-वैभव का कारक ग्रह है। - राहु के नक्षत्र आद्र्रा, स्वाति तथा शतभिषा हैं। - राहु से म्लेच्छ, मुसलमान व विदेशी आदि का विचार किया जाता है। - राहु दशम भाव में बली होता है तथा तृतीय भाव में अतिश्रेष्ठ होता है। - राहु की गति हमेशा वक्र है तथा यह एक राशि मंे लगभग १८ माह रहता है। - राहु की उच्च स्थिति वृषभ (२), स्वराशि कुंभ (११) तथा मूल त्रिकोण राशि मिथुन (३) है। कालिदास। - मंगल, शनि तथा शुक्र इसके मित्र राशि, सिंह, कर्क शत्रु राशि हैं। १, ८,११,६,२,४ राशि में, दशम भाव में राहु बलवान होता है। - राहु हमेशा अपनी दशा में शादी देता है। - राहु, शुक्र, पंचमेश व नवमेश अपनी दशा में शादी देते हैं। - शुक्र/राहु की दशा में जातक अनेक संबंध बनाता है। - शुक्र व राहु का त्रिकोण संबंध प्रेम विवाह का योग देता है। - राहु व शुक्र पंचमेश व नवमेश होने पर अपनी दशा में शादी देते हैं। - 95ः स्थिति में राहु शादी देता है, यदि वह सप्तम से भी संबंधित हो (राहु = ब्याहू)। - वृषभ (2) का राहु एक पुत्र अवश्य देता है। - पंचमेश नीच का 6, 8, 12 में हो तो जातक के पुत्र नहीं होता है (पुत्र-हीन योग), यदि पंचम में राहु हो तो सर्प-दोष के कारण पुत्र का अभाव रहता है । - राहु/केतु तकनीकी शिक्षा देते हैं। - राहु की दशा में जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करने में प्रायः असमर्थ रहता है। - शनि-राहु अथवा चंद्र-मंगल की युति वाले जातक शराब पीते हैं। - राहु़ चंद्र एक साथ होने से जातक को अकेलापन अच्छा लगता है। - चंद्ऱ राहु अथवा चन्द्ऱ केतु कहीं भी हों जातक को अनचाहा भय (डर) देते हैं। - मंगल उच्च का (10) राहु के साथ हो तो जातक क्रोधवाला व युवा दिखने वाला होता है। - सूर्य से द्वितीय भाव में राहु की स्थिति सूर्य के अनिष्ट प्रभाव को नष्ट करती है । - शनि व मंगल का राहु/केतु पर गोचर होने से उस भाव की हानि होती है। - राहु 3,6,11 (3 = कामनाओं पर विजय, 6 = रोगों पर नियंत्रण परन्तु शत्रु होंगे, 11 = धन का आगमन) में अच्छा होता है। - राहु तथा मंगल इत्थसाल अथवा युति में हो तो गुर्दे, पथरी, अपेंडिक्स आदि का आॅपरेशन होता है। - छठे में मंगल, सप्तम में राहु तथा अष्टम में शनि हो तो पति के लिए लखपति बनने तथा पत्नी के लिए पतिनाशक माना जाता है। - अष्टम में राहु हो तो उसकी दशा महा कष्टकारी होती है यह नवम (भाग्य-पिता-धर्म) का द्वादश भाव (हानि) है। - राहु गोचर में जन्म-राशि पर मानसिक परेशानियां पैदा करता है - विरोधी षड्यंत्र करते हैं। - राहु से अष्टम भाव में स्थित सूर्य भी कालसर्प योग जैसा परिणाम देता है। - जन्म राशि से १,३,६,९,१० तथा ११ भाव में राहु होने से पुत्रों की प्राप्ति, धन की वृद्धि तथा न्यायालय के कार्य में विजय होती है। जन्म राशि से २,४,५,७,८ तथा १२ भाव में राहु होने पर आपसी कलह, आर्थिक स्थिति कमजोर होना तथा अचानक शोक समाचारों की प्राप्ति होती है। - राहु स्वभावतः मानव को कष्ट देने वाला है। चेचक, नासूर, भूत-प्रेत बाधा, पिशाच बाधा, अरुचि, कैद, कोढ़ राहु के रोग हैं। अनिद्रा, उदर-रोग, मानसिक रोग, पागलपन आदि रोग भी राहु के कारण होते हैं। - राहु सूर्य से अधिक बलशाली, गहरे नीले रंग का तथा सर्पाकार होता है। राहु छत्र से सुशोभित है तथा इसके चारों ओर शक्तियाँ आराधना करती रहती हैं। - जातक के आध्यात्मिक विकास के लिए राहु पिछले जन्म के राहु जनित कष्टों को (देवता समान) नष्ट करता रहता है। राहु दैत्य, राक्षस, यक्ष या विषधर है। धड़ नाग या सर्प की पूंछ की भांति है। - राहु मनुष्य को जड़ता तथा अज्ञान में डुबो देता है परंतु उसमें संतोष नहीं दिलाता है। यही मानव के लिए धार्मिक संघर्ष का कारण तथा मुक्ति का द्वार बनता है। - राहु में सूर्य तथा चंद्र के शुभत्व को नष्ट करने की शक्ति है। राहु मानव के अंदर जड़ वृत्तियों का नाश करता है, जिससे उसे पूर्व जन्म के कर्मों से मुक्ति मिल सके। - राहु तामसिक ग्रह के साथ-साथ क्रूर पापी पृथकतावादी ग्रह है। जिन राशियों पर इसका प्रभाव होता है यही जातक की मानसिक प्रवृत्ति दूषित कर देता है। - राहु बलि होने पर व्यवसाय - गांजा, अफीम, भांग, रबर का व्यापार, लाॅटरी, कमीशन एजेंट, सर्कस की नौकरी, प्रचार विभाग की नौकरी, नगरपालिका, जिला परिषद्, विधान सभा, लोक सभा आदि क्षेत्रों मंे लाभ होता है। राहु संबंधी उपाय - राहु (बहिर्मुखी) की अन्तर्दशा में तीर्थ-यात्रा, सत्संग, भजन आदि अवश्य करना चाहिए। राहु की महादशा में पक्षियों को ज्वार खिलाना चाहिए तथा प्रत्येक शनिवार को अपने ऊपर से एक नारियल उतारकर दरिया/ सागर में बहाना चाहिए। - राहु रत्न गोमेद बुधवार या शनिवार की मध्य रात्रि को आद्र्रा नक्षत्र में चांदी/सोने की अंगूठी मे धारण करना चाहिए, सफेद चंदन की माला धारण करंे। बुध व शनि को भूरे कुत्ते को मोतीचूर के लड्डू तथा भूरी गाय को गुड़, चना, घास आदि खिलाना चाहिए। राहु हेतु गेहूं, रत्न, अश्व, नीले वस्त्र, कंबल, तिल, तेल, लोहा, अभ्रक, सरसों, काले पुष्प, नारियल, कोयला, खोटे सिक्के, चाबी वाले खिलौने आद्र्रा, स्वाति, शतभिषा नक्षत्र मंे दान करना चाहिए - संतानहीन मानव, एक आँख से काणे, चेचक के दाग वाले, मकान की छत, अचानक काम आने वाले का संबंध राहु से होता है।

स्वप्न और उनके फल

आधुनिक विज्ञानियों ने स्वप्न विषयक जिन तथ्यों का पता लगाया, उनमें से अधिकांश ऋषियों के निष्कर्षों से मेल खाते पाए गए हैं। बृहदारण्यक में जाग्रत एवं सुषुप्त अवस्था के समान मानव के मन की तीसरी अवस्था स्वप्न अवस्था मानी गई हैं। जिस प्रकार मनुष्य के संस्कार उसे जाग्रतावस्था में आत्मिक संतोष और प्रसन्नता प्रदान करते हैं, उसी प्रकार जो भी स्वप्न आएंगे वे उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं के प्रतिबिंब ही होंगे।
जागते हुए जो दिवा स्वप्न हम देखते हैं वे मात्र कल्पनाएं ही होती हैं पर सुषुप्तावस्था में जो कल्पनाएं की जाती हैं उन्हें स्वप्न कहते हैं। निरर्थक, असंगत स्वप्न उथली नींद में ही आते हैं जो उद्विग्न करने वाले होते हैं। वस्तुतः मनुष्य निरंतर जागता नहीं रह सकता। यदि किसी को सोने ही न दिया जाए तो वह मर जाएगा। मनुष्य अपने जीवन का एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत करता है और निद्रा का अधिकांश भाग स्वप्नों से आच्छादित रहता है।
भारतीय शास्त्रादि स्वप्न को दृश्य और अदृश्य के बीच का द्वार अर्थात संधि द्वार मानते हैं। मनुष्य इस संधि स्थल से इस लोक को भी देख सकता है और उस परलोक को भी। इस लोक को संधि स्थान व स्वप्न स्थान कहते हैं।
स्वप्नों का संबंध मन व आत्मा से होता है तो इनका संबंध चंद्र और सूर्य की युति से लगाते हैं। गोविंद राज विरचित रामायण भूषण के स्वप्नाध्याय का वचन है कि जो स्त्री या पुरुष स्वप्न में अपने दोनों हाथों से
सूर्यमंडल अथवा चंद्र मंडल को छू लेता है, उसे विशाल राज्य की प्राप्ति होती है। अतः स्पष्टतया किसी भी व्यक्ति को शुभ समय की सूचना देने वाले स्वप्नों से यह पूर्वानुमान किया जा सकता है। चंद्र की स्थिति व दशाएं शुभ होने पर एवं सूर्य की स्थिति व दशाएं आदि कारक होने पर शुभ स्वप्न दिखाई पड़ेंगे अन्यथा अशुभ। प्रत्यक्ष रूप में देखा जाए तो स्वप्न का आने या न आने का कारण सूर्य व चंद्र ग्रह ही होते हैं क्योंकि सूर्य का संबंध आत्मा से और चंद्र का संबंध मनुष्य के मन से होता है।
दुःखद या दुःस्वप्नों के आने का कारण हमारा मोह और पापी मन ही है। यही बात अथर्ववेद में भी आती है।
‘यस्त्वा स्वप्नेन तमसा मोहयित्वा निपद्यते’
अर्थात मनुष्य को अपने अज्ञान और पापी मन के कारण ही विपत्तिसूचक दुःस्वप्न आते रहते हैं। इनके निराकरण का उपाय बतलाते हुए ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि यदि स्वप्नावस्था में हमें बुरे भाव आते हों तो ऐसे दुःस्वप्नों को पाप-ताप, मोह-अज्ञान एवं विपत्ति जन्य जानकर उनके निराकरण के लिए ब्रह्म की उपासना शुरू कर देनी चाहिए ताकि हमारी दुर्भावनाएं, दुर्जनाएं, दुष्प्रवृत्तियां शांत हो जाएं जिससे मन में सद्प्रवृत्तियों, सदाचरणों, सद्गुणों की अभिवृद्धि हो और शुभ स्वप्न दिखाई देने लगे और आत्मा की अनुभूति होने लगे। वाल्मीकि रामायण के प्रसंगों से स्पष्ट है कि पापी ग्रह मंगल, शनि, राहु तथा केतु की दशा अंतर्दशा तथा गोचर से अशुभ स्थानों में होने पर बुरे स्वप्न दिखाई देते हैं जो जीवन में आने वाली दुरवस्था का मनुष्य को बोध कराते हैं। साथ ही शुभ ग्रहों की दशा अंतर्दशा में शुभ ग्रहों के शुभ स्थान पर गोचर में अच्छे स्वप्न दिखाई देते हैं। आकाश में ऊपर उठना उन्नति तथा अभ्युदय का द्योतक है जबकि ऊपर से नीचे गिरना अवनति व कष्ट का परिचायक है।
बुरे स्वप्न आना तभी संभव है जब लग्न को, चतुर्थ एवं पंचम भाव को प्रभावित करता हुआ ग्रहण योग (राहु+चंद्र, केतु+सूर्य, राहु+सूर्य, केतु+चंद्र) और चांडाल योग (गुरु व राहु की युति) वाली ग्रह स्थिति निर्मित हो या इसी के समकक्ष दशाओं गोचरीय ग्रहों का दुर्योग बन जाए। इसके विपरीत लग्न, चतुर्थ/पंचम भाव को प्रभावित करते हुए शुभ ग्रहों के संयोग के समय अच्छे स्वप्न आने की कल्पना की जा सकती है।
जब हमें कोई अच्छे सुखद स्वप्न दिखाई देते हैं, तो हमारा मन पुलकित हो जाता है, हमें सुख की अनुभूति होने लगती और हम प्रसन्न हो जाते हैं। परंतु जब हमें बुरे स्वप्न दिखते हैं तो मन घबरा जाता है, हमें एक अदृश्य भय सताने लगता है और हम दुखी हो जाते हैं। विद्वानों के अनुभवों से हमें यह बात ज्ञात होती है कि इस तरह के बुरे, डरावने स्वप्न दिखाई देने पर यदि नींद खुल जाए तो हमें पुनः सो जाना चाहिए।
स्वप्नों के स्वरूप
फलित ज्योतिष में स्वप्नों को विश्लेषणों के आधार पर सात भागों में बांटा जाता है- दृष्ट स्वप्न, शृत स्वप्न, अनुभूत स्वप्न, प्रार्थित स्वप्न, सुम्मोहन या हिप्नेगोगिया स्वप्न, भाविक स्वप्न और काल्पनिक स्वप्न।
दृष्ट स्वप्न
दिन प्रतिदिन के क्रिया कलापों को सोते समय स्वप्न रूप में देखे जाने वाले सपनों को दृष्ट स्वप्न कहा जाता है। ये सपने कार्य क्षेत्र में अत्यधिक दबाव और किसी वस्तु या कार्य में अत्यधिक लिप्तता के कारण या मन के चिंताग्रस्त होने पर दिखाई देते हैं। इसलिए इनका कोई फल नहीं होता। कभी सोने से पूर्व किसी प्रकरण पर विचार विमर्श किया गया हो और किसी बात ने मन को प्रभावित या उद्वलित किया हो, तो भी मनुष्य सपनों के संसार में विचरण करता है।
शृत स्वप्न
भयावह फिल्म देखकर या उपन्यास पढ़कर सपनों में भयभीत होने वालों की संख्या कम नहीं है। इन सपनों को शृत स्वप्न कहा जाता है। ये सपने भी वाह्य कारणों से दिखाई देने के कारण निष्फल होते हैं।
अनुभूत स्वप्न
जाग्रत अवस्था में कोई बात कभी मन को छू जाए या किसी विशेष घटना का मन पर प्रभाव पड़ा हो और उस घटना की स्वप्न रूप में पुनरावृत्ति हो जाए, तो ऐसा स्वप्न अनुभूत सपनों की श्रेणी में आता है। इनका भी कोई फल नहीं होता।
प्रार्थित स्वप्न
जाग्रत अवस्था में देवी देवता से की गई प्रार्थना, उनके सम्मुख की गई पूजा-अर्चना या इच्छा सपने में दिखाई दे, तो ऐसा स्वप्न प्रार्थित स्वप्न कहा जाता है। इन सपनों का भी कोई फल नहीं होता।
काल्पनिक स्वप्न
जाग्रत अवस्था में की गई कल्पना सपने में साकार हो सकती है किंतु यथार्थ जीवन में नहीं और इस प्रकार के सपनों की गणना भी फलहीन सपनों में की जाती है।
सम्मोहन या हिप्नेगोगिया स्वप्न
मनुष्य रोगों से पीड़ित होने पर, वात, पित्त या कफ बिगड़ने पर जो स्वप्न देखता है, वे भी निष्फल ही होते हैं। नींद की वह अवस्था, जिसे मेडिकल साइंस की भाषा में हिप्नेगोगिया और भारतीय भाषा में सम्मोहन कहा जाता है। इसमें व्यक्ति न तो पूरी तरह से सोया रहता है और न पूरी तरह से जागा। इसमें देखे गए सपने भी निष्फल होते हैं।
इस तरह ऊपर वर्णित सभी छः प्रकार के सपने निष्फल होते हैं। ये सभी असंयमित जीवन जीने वालों के सपने हैं। विश्व में 99.9 प्रतिशत लोग असंयमित जीवन ही अधिक जीते हैं। यही कारण है कि ये लोग स्वप्न की भाषा नहीं समझकर स्वप्न विज्ञान की, स्वप्न ज्योतिष की खिल्लियां उड़ाते रहते हैं। स्वप्न के बारे में इनकी धारणाएं नकारात्मक सोच वाली ही होती हैं।
भाविक स्वप्न
जो स्वप्न कभी देखे न गए हों, कभी सुने न गए हों, अजीबोगरीब हों, जो भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास कराएं, वे भाविक स्वप्न ही फलदायी होते हैं। पाप रहित मंत्र साधना द्वारा देखे गए स्वप्न भी घटनाओं का पूर्वाभास कराते हैं। मानव का प्रयोजन इसी प्रकार के स्वप्नों से है। जन्मकालीन या गोचरीय कालसर्प योग वाली ग्रह स्थिति अर्थात राहु-केतु के मुख में सभी ग्रहों के समा जाने वाली स्थिति के निर्मित हो जाने पर भगवान शंकर के कंठहार पंचमी तिथि के देवता स्वप्न में आकर मनुष्यों के दिल को दहला देते हैं। ऐसा सपना देखकर मनुष्य का मन मस्तिष्क विचलित हो उठता है। अरिष्टप्रद सूर्य, चंद्र, राहु और केतु के मंत्र जप व स्तोत्र पाठ से तथा, दान, शांति कर्म के उपायों को अपनाकर व्यक्ति दुखद स्वप्नों के अनिष्टों से बचने में समर्थ हो सकता है।
नौ ग्रहों की दशा अंतर्दशा में देखे जाने वाले स्वप्न
स्वप्न के आधार पर फल कथन करने में ज्योतिषियों को आसानी होती है। अगर जातक की राहु, केतु या शनि की महादशा या अंतर्दशा चल रही हो और जन्मकुंडली में वे नीच स्थिति में हों, तो उसे हमेशा डरावने स्वप्न आते हैं जैसे बार-बार सर्प दिखाई देना राहु केतु से बनने वाले कालसर्प योग के द्योतक होते हैं। यदि राहु, केतु व शनि की महादशा या अंतर्दशा हो और वे जन्मकुंडली में स्वराशि या उच्च की राशि में बैठे हों, तो जातक को शुभ स्वप्न आते हैं जैसे जर्मनी के फ्रेडरिक कैक्यूल को राहु से संबंधित सांप का वर्तुल आकार में घूमकर स्वर्ण की अंगूठी जैसे आकार का बनकर अपने-आपको काटते हुए दिखाई देना। इसी भांति सिलाई मशीन के आविष्कारक इलिहास होव को शनि की महादशा अंतर्दशा व कुंडली में उनकी उच्च स्थिति होने के कारण उसके सिर में राक्षस के दूतों द्वारा भाला भोंकने की स्वप्न की घटना जिसके फलस्वरूप उसने सिलाई मशीन का आविष्कार किया। उसी प्रकार यदि सूर्य या मंगल की महादशा या अंतर्दशा चल रही हो और वे नीचस्थ हों, तो आग एवं चोट लगने के स्वप्न दिखाई देते हैं। यदि उपर्युक्त महादशा व अंतर्दशा चल रही हो और जातक की जन्मकुंडली में सूर्य और मंगल उच्च या स्वराशि में हो, तो अशुभ स्वप्न नहीं बल्कि शुभ स्वप्न दिखाई देंगे जैसे राजकार्य में जय, मांगलिक कार्य संपन्न होना आदि। यदि चंद्र और गुरु की महादशा अंतर्दशा हो और वे नीचस्थ हों तो कफ, पेट आदि से संबंधित रोग होते हैं। इसके विपरीत यदि चंद और गुरु उच्चस्थ हों, तो महादशा अंतर्दशा में राजगद्दी प्राप्त होने के स्वप्न दिखाई देंगे। वहीं यदि शुक्र की उच्च स्थिति हो, तो सुख, ऐशो आराम, धन लक्ष्मी आदि से संबंधित और नीचस्थ हो, तो अनेक बीमारियों के स्वप्न दिखाई देते हैं।
नीचस्थ सूर्य की दशा/परिस्थिति या गोचरीय दशा आने पर रेतीले मरुस्थलों की सैर, मरुस्थलों का जहाज ऊंट, गर्म हवाओं के थपेड़े खाता हुआ बेतहासा मजनूं की तरह भागता मनुष्य, सूर्य का सारथी, उष्ण कटिबंधों के दृश्य, सूखा, फटती हुई जमीन, घर-मकान की दीवारों की दरारें, भूख प्यास से व्याकुल पागलों की तरह भटकते लोग, खौलता हुआ झरना, तपेदिक के मरीज, मृगतृष्णा का जल, मौत का सन्नाटा, तपे हुए लोहे के सिक्के लुटाती हुई अलक्ष्मी, सिर पर सेहरे की जगह कफन, ओले की जगह टपकते अंगारे, चांदनी बिखराता सूर्य, तपता हुआ चंद्रमा, हंसता हुआ सियार, चूहे की भांति दुबका हुआ शेर, आकाश में पक्षियों की तरह उड़ता हुआ प्राणी, रोता हुआ मुर्दा आदि दिखाई देने की संभावना रहती है।
इसी तरह के स्वप्न गोचर में वृष राशि में प्रवेश करते हुए सूर्य की दशा में अथवा उसकी दशांतर्दशा में आ सकते हंै। काला बाबा की राशि मकर या कंुभ में सूर्य के प्रवेश की दशा में पर्वतारोहण करते मगरमच्छ, दिन में देखते उल्लू, चलने हुए गरुड़, दीपावली की रात्रि में चमकता हुआ शरद पूर्णिमा के चंद्रमा, निशीथ काल में खिलती हुई कुमुदिनी, चंद्रोदय होते ही खिलते हुए कमल से निकलते हुए भौंरे, पर्वत से पानी निकालती हुई पनिहारिन, दिन में उदित होते चंद्रमा, रात्रि में धूप, बीहड़ घने काले अंधियारे जंगल में नाचते सफेद मोर, काले हंस, गुलाबी रंग की भैंस आदि के समान स्वप्न आ सकते है जिनका फल सदैव अशुभ ही होता है।
चंद्र के दशा परिवर्तन से स्वप्नावस्था में शरीर में नाड़ी की गति मध्यम पड़ जाती है, खून का प्रवाह शिथिल हो जाता है, इंद्रियों की गति मंद हो जाती है और कफ का प्रकोप बढ़ जाता है।
मंगल की दशा अथवा गोचर में परिवर्तन होने से मनुष्य को चोट-चपेट, दुर्घटना, अग्नि-कांड, शव-दाह, खून-खराबे, मृत्यु-दंड, यान-दुर्घटना, युद्ध के तांडव, उल्कापात, गर्भपात, पक्की इमारतों का भरभराकर गिर जाना, ज्वालामुखी पर्वत और उनके खौलते हुए एवं छलछलाने लावे के दृश्य स्वप्न में दिखलाई देते हैं। मित्र लड़ने को उद्यत दिखाई देता है।
बुध की अंतर्दशा में सुंदर उपवन, हरे-भरे खेत, खंजन पक्षी, तोता विद्या प्राप्त करते बटुक, वृक्षों की ठंडी शीतल छांव में विश्राम करते बटोही, परीक्षा के डर से भयभीत होते बच्चे, छड़ी दिखाता शिक्षार्थी, परीक्षा में पास हो जाने पर हंसते मुस्कराते विद्यार्थी, सुंदरियों को वस्त्र लुटाता बजाज, बंध्या और पुत्र, मुनीमी करता सेठ, गीत सुनता बधिर, वक्ता बना गूंगा, बगुला भगत, सज्जन बना बातुल, बादशाही करता फकीर, शिष्ट तथा सुसंस्कृत बना गंवार, सुंदर हरे भरे ताजे फलों की डलिया, आदि नाना प्रकार के स्वप्न आते हैं। बुध की दशा में पोथी प्रदान करती हुई सरस्वती जी यदि स्वप्न में दर्शन दें, तो जातक वाणी की अधिष्ठात्री देवी वागीश्वरी की अनुपम कृपा का पात्र जातक बन जाता है।
गुरु की दशाओं में भी जलीय दृश्य कफ प्रकृति जातकों को स्वप्न में दिखलाई दे सकते हैं। गुरु की एक राशि मीन है जो जल तत्व वाली राशि है। उदर शूल, उदर व्रण, पाचन संस्थान संबंधी रोग, कफ जनित व्याधियों, वेदाध्ययन, वेद-पाठ, वेद-पुराण- उपनिषदों आदि के दर्शन, धर्म प्रवचन, संत-समागम, तीर्थ -यात्रा, गंगा-स्नान आदि से संबंधित विविध शुभाशुभ स्वप्न गुरु की अंतर्दशा में दिखाई दे सकते हैं। राज्याभिषेक संबंधी आनंदातिरेक देने वाले स्वप्न भी गुरु की दशा में दिखाई दे सकते हैं।
राहु, केतु या शनि की महादशा, अंतर्दशा या गोचर में इनकी अरिष्टकारक दशा चल रही हो, तो जातकों को बेहद भयानक स्वप्न दिखाई दे सकते हैं। राहु के अत्यधिक अशुभ होने पर स्वप्न ही नहीं, यथार्थ में भी बिजली का करंट लग जाया करता है। डरावने स्वप्नों का वेग गहरी निद्रा में डूबे हुए व्यक्ति को एकदम चैंका देता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि डरावने स्वप्न देखता हुआ व्यक्ति उससे त्राण पा लेने को उठकर भाग जाना चाहता है परंतु स्वप्न के भारी दबाव के कारण वह बिस्तर से उठ भी नहीं पाता। आयुर्वेद के मुताबिक वात, पित्त, कफ ये शरीर के तीन दोष हैं।
वात प्रधान लोगों को स्वप्न में पर लग जाते हैं। वे नील गगन में स्वप्न में उड़ने का आनंद प्राप्त करते हैं।
पित्त प्रकृति के लोग स्वप्न में सारे जगत को जगमग ज्योति के रूप में निहारने लगते हैं। वे चांद, सितारे, उल्का और सूरज की रज को प्राप्त कर लेना चाहते हैं। उन्हें चांद-सूरज, तारा गण सप्तर्षि आदि अपना बना लेना चाहते हैं। वे गगन को देखकर मगन हो जाते हैं।
कफ प्रकृति वाले कूप, तड़ाग, बावलियों, नहरों, नदियों नालों झरनों, फव्वारों जलस्रोतों को स्वप्न में देखकर स्वयं जल का देवता वरुण बन जाना चाहते हैं। वे चांदनी रात में नौका-विहार करने लग जाते हैं। कोई स्वप्न में स्वयं को जलतरंग बजाता हुआ देखता है, कोई जलधर ही बन जाता है, कोई जल प्रपात देखता है तो कोई जल प्रलय। उन्हें जल से जन्म लेने वाला जलज स्वप्न में दिखाई देने लगता है। जल में कभी वे जलपरी का जलवा देखते हैं, कभी जलजहाज को जल डमरूमध्य में, तो कभी अपने को गोता लगाता हुआ देखते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि शुभाशुभ स्वप्न विभिन्न ग्रह स्थितियों में तब आते हैं जब ग्रहों की महादशाओं की अंतर्दशाओं में नीच, उच्च, स्वगृही, मित्र गृही, शत्रुगृही होते हैं। कोई भी ग्रह नीच, व शत्रुग्रही हो, तो जातक का बुरे व अशुभ स्वप्न आते हैं और यदि वह उच्च, स्वगृही व मित्र राशि में हो, तो अच्छे व शुभ, उसके मनोनुकूल, स्वप्न आते हैं।
परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर उस परिवार के सदस्यों को दुःस्वप्न दिखाई देते हैं। याद भी रहते हैं जिससे वे विचलित दिखाई देते है।
धन लाभ कराने वाले स्वप्न
कुछ स्वप्न व्यक्ति को धन लाभ कराने वाले होते हैं। हाथी, घोड़े, बैल, सिंह की सवारी, शत्रुओं के विनाश, वृक्ष तथा किसी दूसरे के घर पर चढे़ होने दही, छत्र, फूल, चंवर, अन्न, वस्त्र, दीपक, तांबूल, सूर्य, चंद्रमा, देवपूजा, वीणा, अस्त आदि के सपने धन लाभ कराने वाले होते हैं। कमल और कनेर के फूल देखना, कनेर के नीचे स्वयं को पुस्तक पढ़ते हुए देखना, नाखून एवं रोमरहित शरीर देखना, चिड़ियों के पैर पकड़कर उड़ते हुए देखना, आदि धन लक्ष्मी की प्राप्ति व जमीन में गड़े हुए धन मिलने के सूचक हैं।
मृत्यु सूचक स्वप्न
कुछ स्वप्न स्वयं के लिए अनिष्ट फलदायक होते हैं। स्वप्न में झूला झूलना, गीत गाना, खेलना, हंसना, नदी में पानी के अंदर चले जाना, सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों व नक्षत्रों को गिरते हुए देखना, विवाह, गृह प्रवेश आदि उत्सव देखना, भूमि लाभ, दाढ़ी, मूंछ, बाल बनवाना, घी, लाख देखना, मुर्गा, बिलाव, गीदड़, नेवला, बिच्छू, मक्खी, शरीर पर तेल मलकर नंगे बदन भैंसे, गधे, ऊंट, काले बैल या काले घोड़े पर सवार होकर दक्षिण दिशा की यात्रादि करना आदि मृत्यु सूचक हैं।
कुछ अनुभूत स्वप्न
एक महिला का पुत्र बहुत बुरी स्थिति में दिल्ली के एक अस्पताल में दाखिल था। महिला स्वयं बीमारी के कारण बिस्तर से लगी थीं। उसे एक रात स्वप्न में दिखाई दिया कि उसके गले की मोती की माला टूट गई है। मोती बिखर गए हैं। नींद खुली तो उसने देखा कि माला टूटी हुई थी। बहुत ढूंढने पर भी मोती पूरे नहीं मिले। ठीक उसी समय अस्पताल में उसके युवा पुत्र ने अपने प्राण त्याग दिए थे।
जालंधर के एक व्यक्ति की पत्नी की छाती के कैंसर का ओपरेशन हो रहा था। उसे स्वप्न में दिखाई दिया कि कुछ लोग उन्हें मारने को दौडे़ चले आ रहे हैं। वह भाग रहा और लोग पीछा कर रहे हैं।
अचानक वह अस्पताल के निकट फ्लाई-ओवर पर चढ़ जाता है। स्वयं फिर वह अपने घर (जालंधर) के पास पहुंचा हुआ पाता है। वे लोग अब भी उसका पीछा कर रहे हैं। आस-पास के लोग उन्हें बचाने की कोशिश करते हैं और वह खुद भाग कर घर में छुपने की कोशिश करता है और नींद टूट जाती है। फिर उसने एक अच्छे दैवज्ञ से सलाह ली। स्वप्न का फल यही समझा गया कि उसकी पत्नी स्वस्थ हो जाएगी। यह बात अप्रैल 1980 की है। उसकी पत्नी आज भी जीवित और स्वस्थ है। लेकिन उस व्यक्ति का अचानक हृदय गति रुक जाने से जनवरी 1989 में देहांत हो गया।
इस तरह स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में आने वाली दुर्घटनाओं, उन्नति और शुभ समय के आगमन से संबंधित स्वप्न कई बार सच्चे साबित हो जाते हैं।
स्वप्न फल विचार
जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में कोई असाधारण परिस्थिति होती है, स्वप्न आते हैं। कुछ विशिष्ट स्वप्न याद भी रहते हैं। ब्रह्म मुहूर्त के स्वप्न अक्सर सच भी होते हैं। रात के प्रथम, द्वि तीय अथवा तृतीय प्रहर में दिखने वाले स्वप्न लंबे समय के बाद सच होते हुए पाए जाते हैं।
स्वप्नों के विषय में कुछ प्रतीकों को हमारी लोक संस्कृति में मान्यता प्राप्त है, जो इस प्रकार हैं।
किसी की मृत्यु देखना -उसकी लंबी आयु होना।
सीढ़ी चढ़ना - उन्नति
आकाश में उड़ना - उन्नति
सर्प अथवा जल देखना - धन की प्राप्ति
बीमार व्यक्ति द्वारा काला सर्प देखना - मृत्यु
सिर मुंडा देखना - मृत्यु
स्वप्न में भोजन करना - बीमारी
दायां बाजू कटा देखना - बड़े भाई की मृत्यु
बायां बाजू कटा देखना - छोटे भाई की मृत्यु
पहाड़ से नीचे गिरना - अवनति
स्वयं को पर्वतों पर चढ़ता देखना- सफलता, विद्यार्थी का स्वयं को फेल होते देखना - सफलता, कमल के पत्तों पर खीर खाते हुए देखना - राजा के समान सुख, अतिथि आता दिखाई देना - अचानक विपत्ति, अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देना - कष्ट या मानहानि, स्वयं को मृत देखना - आयु वृद्धि, आत्म हत्या करना - दीर्धायु, उल्लू दिखाई देना रोग व शोक, आग जलाकर उसे पकड़ता हुआ देखना - अनावश्यक व्यय, ओपरेशन होता दिखाई देना - किसी बीमारी का सूचक, इमारत बनती दिखाई देना - धन लाभ व तरक्की, खुद को कैंची चलाता देखना। व्यर्थ के वाद विवाद व लड़ाई झगड़ा, कौआ बोलता दिखाई देना - किसी बीमारी या बुरे समाचार का सूचक, इमारत बनती दिखाई देना - धन लाभ व तरक्की, कबूतर दिखाई देना - शुभ समाचार का सूचक, काला नाग दिखाई देना - राजकीय सम्मान, कोढ़ी दिखाई देना- रोग सूचक, कोयला देखना- झगड़ा, श्मशान या कब्रिस्तान देखना - प्रतिष्ठा में वृद्धि, गोबर देखना- पशुधन लाभ, ग्रहण देखना - रोग व चिंता, गोली चलता देखना- मनोकामना पूर्ति, गरीबी देखना -सुख समृद्धि, गर्भपात देखना - गंभीर रोग, शुक्र तारा देखना - शीध्र विवाह, स्वयं रोटी बनाना - रोग, स्वयं को नंगा देखना - मान प्रतिष्ठा की हानि, कष्ट, देव दर्शन या देव स्थान दर्शन- लाभदायी, राजदरबार देखना - मृत्यु सूचक, दवाइयां देखना - उत्तम स्वास्थ्य, किसी दम्पति का तलाक - गृह कलह, ताज महल देखना पति - पत्नी के संबंध विच्छेद, नाई से हजामत बनवाना - अशुभ, पति पत्नी का मिलन - दाम्पत्य सुख, सूखी लकड़ियां देखना - मृत्यु सूचक, किसी कैदी या अपराधी को देखना - अशुभ प्यार, भंडारा कराते देखना - धन लाभ, सगाई देखना - अशुभ, सूखा वृक्ष/ठूठ दिखाई देना - अशुभ प्यार, तोता या तितली दिखाई देना - लाभप्रद।
इसी प्रकार स्वप्न में दांत टूटना - दुख, झंझट, दरवाजा देखना - बड़े व्यक्ति से मित्रता, दरवाजा बंद देखना - परेशानियां, दलदल देखना - व्यर्थ की चिंता में वृद्धि, सुपारी देखना - रोग मुक्ति, धुआं देखना - हानि एवं विवाद, रस्सी देखना - यात्रा, रूई देखना - स्वस्थ होना, खेती देखना - लापरवाह या संतान प्राप्ति, भूकंप देखना - संतान कष्ट, दुख, सीढ़ी देखना - सुख संपत्ति में वृद्धि, सुराही देखना - बुरी संगत, चश्मा लगाना - विद्वत्ता में वृद्धि, खाई देखना - धन एवं प्रसिद्धि की प्राप्ति, कैंची देखना - गृह कलह, कुत्ता देखना - उत्तम मित्र की प्राप्ति कलम देखना - महान पुरुष के दर्शन, टोपी देखना - दुख से मुक्ति, उन्नति, धनुष खींचना - लाभप्रद यात्रा, कीचड़ में फंसना - कष्ट, व्यय, गाय या बैल देखना- मोटे से लाभ, दुबले से प्रसिद्धि, घास का मैदान देखना - धन की वृद्धि, घोड़ा देखना - संकट से बचाव, घोड़े पर सवार होना - पदोन्नति, लोहा देखना - किसी धनी से लाभ, लोमड़ी देखना - किसी संबंधी से धोखा, मोती देखना - कन्या की प्राप्ति, मुर्दे का पुकारना - विपत्ति एवं दुख, मुर्दे से बात करना - मुराद पूरी होने का संकेत, बाजार देखना - दरिद्रता से मुक्ति, बड़ी दीवार देखना - सम्मान की प्राप्ति, दीवार में कील ठोकना - किसी वृद्ध से लाभ, दातुन करना - पाप का प्रायश्चित व सुख की प्राप्ति, खूंटा देखना - धर्म में रुचि, धरती पर बिस्तर लगाना - दीर्घायु की प्राप्ति, सुख में वृद्धि, उंचे स्थान पर चढ़ना - पदोन्नति व प्रसिद्धि, बिल्ली देखना -चोर या शत्रु भय, बिल्ली या बंदर का काटना - रोग व अर्थ संकट, नदी का जल पीना - राज्य लाभ व परिश्रम, सफेद पुष्प देखना - दुख से मुक्ति, लाल फूल देखना - पुत्र सुख, भाग्योदय, पत्थर देखना - विपत्ति, मित्र का शत्रुवत व्यवहार, तलवार देखना - युद्ध में विजय, तालाब या पोखरे में स्नान करना - संन्यास की प्राप्ति, सिंहासन देखना - अतीव सुख की प्राप्ति, जंगल देखना - दुख से मुक्ति व विजय की प्राप्ति, अर्थी देखना - रोग से मुक्ति व आयु में वृद्धि, जहाज देखना - परेशानी दूर होना या व्यय होना, चांदी देखना - धन व अहंकार में वृद्धि, झरना देखना

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Monday, 15 February 2016

षट्कर्म साधन

एक मित्र को विदेष में सरकार से कुछ समस्या हो गई। वहां का सरकारी कर्मचारी उनके पक्ष में हो जाए उनके लिए दिल्ली में बगुलामुखी अनुश्ठान करवाया। जैसे ही अनुश्ठान पूर्ण हुआ, वह कर्मचारी मित्र के पक्ष में बोलने लगा और कुछ ही दिनों में समस्या पूर्ण रूप से हल हो गई। एक और मित्र के रिष्तेदार को गंभीर स्वास्थ्य समस्या हो गई, उनके लिए महामृत्युंजय अनुश्ठान कराया और उनका असाध्य रोग छूमंतर हो गया। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हैं जबकि अनुश्ठान का फल आश्चर्यजनक रूप में प्राप्त हुआ है। भारतीय वेद शास्त्रों में अनेक प्रकार के अनुष्ठान आदि बताए गए हैं, किसी को अपनी ओर आकर्शित करने से लेकर उसे स्तंभित करने या उसे अपने पक्ष में कर लेने तक। सभी मंत्र-तंत्र-यंत्र में षट्कर्मों की साधना बताई गई है।
यथा-
1.शांति कर्म- मंगल प्रदायक, कल्याणकारी कोई भी कार्य जैसे - शरीर व मन के रोगों की शांति, क्लेश की शांति, उपद्रवों की समाप्ति, ग्रह-बाधा के कुप्रभावों की समाप्ति, आपत्ति व कष्ट निवारण, पाप विमोचन, ऋद्धि, सिद्धि या सुख-शांति के उपाय व दरिद्रता निवारण इत्यादि की साधना को शांति कर्म कहते हैं।
2.मोहन,आकर्षण,वाशिकर्ण- किसी को अपनी तरफ मोहित कर लेना मोहन कर्म है। किसी को आकृष्ट कर अनुकूल बनाकर अपना काम करवा लेना आकर्षण कहा गया है। किसी को शुभ या अशुभ कार्य करने के लिए प्रयोजन पूर्वक वशीभूत कर देना वशीकरण है।
3.स्तंभन कर्म-किसी की चाल-ढाल को बंद कर देना। सजीव या निर्जीव को जहां का तहां रोक देना, बंधन में डाल देना, निष्क्रिय या स्थिर कर देना, शत्रु के अस्त्र-शस्त्र को रोक देना, अग्नि के तेज को रोक देना, विरोधी की जीभ, मुख आदि को रोक देना इत्यादि स्तम्भन कर्म कहलाता है।
4.उच्चाटन कर्म- किसी के मन में शंका पैदा कर भयभीत या भ्रमित बनाकर भगा देना या स्थानांतरित कर देना उच्चाटन होता है। साध्य व्यक्ति मारा-मारा फिरता है। पागल की तरह हो जाता है। घर-स्थान छोड़कर भाग जाता है।
5.विद्वेषण कर्म-किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति से अलग करना, किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच कलह-क्लेश उत्पन्न करवाकर एक दूसरे का शत्रु बना देना विद्वेषण कर्म कहलाता है।
6.मारण कर्म- किसी का प्राण हरण कर उसका जीवन समाप्त कर देना या करवा देना। मरण तुल्य कष्ट देना मारण कर्म कहलाता है।
प्रथम तिन कर्म समान्यत: अपने कष्ट निवारण हेतु किए जाते हैं। इनमें दूसरे के प्रति कोई विद्वेषण की भावना नहीं होती। लेकिन आखिरी तीन कर्म विद्वेषण की भावना से ही किए जाते हैं अतः उनका प्रयोग सर्वदा वर्जित ही है। उपरोक्त सभी साधनाएं अनुष्ठान रूप में किसी ब्राह्मण द्वारा कराई जानी चाहिए। इन प्रयोगों में आवष्यक है कि अनुश्ठान करने वाला ब्राह्मण सदाचारी रहे। जातक के प्रति उसकी सद्भावना हो। सभी साधनाएं निश्चित मात्रा में (प्रायः सवा लाख) मंत्र जप द्वारा उनके यंत्रों को प्रतिष्ठित कर की जाती है। तदुपरांत हवन, मार्जन व तर्पण कर अनुष्ठान पूर्ण किया जाता है। प्रतिष्ठित यंत्र को कार्य पूर्ण होने तक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है। कार्य सिद्ध होने के बाद यंत्र को विसर्जित कर दिया जाता है।
विभिन्न कार्यों के लिए कौन सा मन्त्र एवं यंत्र उपयोग में लाना चाहिए
कार्य का आरम्भ करने हेतु- ऊँ गं गणपतये नमः।। यंत्र - गणेश यंत्र
सम्पूर्ण विद्याओं की प्राप्ति हेतु- विद्याः समस्तास्तव देवि ! भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः।। यंत्र - सरस्वती यंत्र
रोग नाश के लिए महामृत्युंजय मन्त्र: सर्वबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः।। यंत्र - बाधामुक्ति यंत्र ऊँ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।। यंत्र - महामृत्युंजय यंत्र ऊँ
आराध्य रोग नाश हेतु -हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः ऊँ तत्सवितुर्वरेण्यं त्रयम्बकं यजामहे भर्गो देवस्य धीमहि सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। धियो यो नः प्रचोदयात् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।। ऊँ स्वः भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। यंत्र - महामृत्युंजय यंत्र
पाप नाश/पितरों की शांति हेतु गायत्री मन्त्र - ऊँ भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।। यंत्र - गायत्री यंत्र
बंगलामुखी मन्त्र- ऊँ हिम् बगुलामुखी सर्वदुष्टानां वाचम् मुखं पदम् स्तम्भय जीह्नाम् कीलय बुद्धिम् विनाशय हिम् ऊँ स्वाहा। यंत्र - बगलामुखी यंत्र
विशेष कष्ट निवारण हेतु दुर्गा मंत्र- ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं दुं उत्तिष्ठ पुरुषि किं स्वपिशि भयं मे समुपस्थितम्। यदि शक्यं अशक्यं वा तन्ये भगवति शमय स्वाहा।। यंत्र - वन दुर्गा यंत्र
रक्षा पाने के लिए: शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टा स्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च।। यंत्र - राम रक्षा यंत्र
समस्या निदान हेतु- शरणागतदीनार्तंपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि, नारायणि नमोस्तु ते।। यंत्र - दुर्गा बीसा यंत्र
भय निवारण हेतु -सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि ! दुर्गे देवि नमोस्तु ते।। यंत्र - काली यंत्र
बटुक भैरव मन्त्र: ऊँ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं। यंत्र - बटुक भैरव यंत्र
आकर्षण के लिए- ऊँ क्लीं ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।। यंत्र - आकर्षण यंत्र
वशीकरण के लिए- महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्। ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।। यंत्र - वशीकरण यंत्र
कालसर्प शांति हेतु- ऊँ क्रौं नमो अस्तु सर्पेभ्यो कालसर्प शांति कुरु-कुरु स्वाहा। यंत्र - कालसर्प यंत्र
शनि दोष निवारण हेतु- नीला जन समाभासं रविपुत्रां यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।। यंत्र - शनि यंत्र
धन प्राप्ति के लिए- श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्म्यै नमः।। यंत्र - श्रीयंत्र:
वर प्राप्ति के लिए- कात्यायनि महाभाये महायोगिन्य धीश्वरि! नन्दगोपसुतं देवं पतिं मे कुरु ते नमः।। यंत्र - कात्यायनि यंत्र
मनोवांछित पत्नी प्राप्ति हेतु- पत्नीं मनोरमां देहि, मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्।। यंत्र - मातंगी यंत्र
पुत्र प्राप्ति हेतु- ऊँ देवकीसुतगोविंद वासुदेवजगत्पते। देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः।। यंत्र - संतान गोपाल यंत्र
हनुमान यंत्र- ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः। आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा।। यंत्र - हनुमान यंत्र, काली यंत्र विद्वान का परामर्श लेकर मंत्र चयन कर विधिवत रूप से अनुष्ठान करवाना चाहिए। निष्ठापूर्वक कर्म करने पर फल अवश्य प्राप्त होगा।

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Sunday, 14 February 2016

तंत्र क्या है ?????

समस्त वर्ण, अक्षर, मातृका को ‘मंत्र’ एवं इसके संयोग-वियोग तथा साधना की क्रिया को ‘तंत्र’ कहते हैं। संस्कृत शब्दकोष के अनुसार, अति मानव शक्ति प्राप्त करने के लिए, शीघ्र ही फलीभूत होने वाली क्रिया ‘तंत्र’ कहलाती है।  तंत्र शास्त्र की उत्पत्ति कब हुई, यह कहना कठिन है। प्राचीन स्मृतियों में 14 विद्याओं का उल्लेख मिलता है, किंतु उसमें तंत्र का उल्लेख नहीं पाया गया है। इस कारण तंत्र शास्त्र को प्राचीन काल में विकसित शास्त्र नहीं माना जा सकता। पहली बार ‘नृसिंहतायनीयोपनिषद’ में तंत्र  संबंधी बातों का उल्लेख मिलता है।
तंत्र अनेक संप्रदायों में, भिन्न-भिन्न रूपों में, प्रचलित रहा। वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य, बौद्ध, जैन एवं मुस्लिम तंत्र प्रमुख हैं। 10 शैवागम, 28 रुद्रागम एवं 64 भैरवागम प्रसिद्ध हैं। तंत्र में मंत्र साधना प्रमुख है। मंत्रों के द्वारा साधना प्रक्रिया का पूर्ण रूप से दिव्य प्रतिपादन किया जाता है तथा मानव जाति को सभी प्रकार के भयों से छुटकारा दिलाने के लिए तंत्र का उपयोग किया जाता है। यंत्रों का प्रयोग भी अनेक रूपों में किया जाता है, जैसे बगलामुखी, वशीकरण, महामृत्युंजय, भैरव आदि विभिन्न प्रकार के यंत्र तंत्र सिद्धियों के लिए प्रायः उपयोग में लाये जाते हैं।
तंत्र, मंत्र एवं यंत्र तीनों ही, एक प्रकार से, एक दूसरे के पूरक हैं। तंत्र के द्वारा जो कार्य किया जाता है, वह मंत्र द्वारा, यंत्र का आधार ले कर, किया जाता है। यंत्र को प्रत्यक्ष रूप में सिद्ध कर के दूसरे को दिया जा सकता है, जबकि तंत्र, या मंत्र को प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिया जा सकता। तंत्र में अनेक मंत्र विधाएं स्वयंसिद्ध मानी गयी हैं। तंत्र शास्त्र में मंत्रों की कई जातियां पायी जाती हैं। ‘शारदातिलक’ में इसकी परिपूर्ण विवेचना पद्धति प्रस्तुत की गयी है। इसी क्रम में यह भी बताया गया है कि शाबर जैसी कुछ तंत्र सिद्धियां कलि युग में सिद्ध मानी गयी हैं तथा वे सभी के लिए उपयोगी भी हैं।
तंत्र क्रिया पूर्व काल में जादू-टोना, काम-क्रीड़ा, दुआ-ताबीज, औषधि निर्माण आदि से संबंधित थी। वर्तमान परिवेश में संकट, अड़चन, दुखों आदि से मुक्ति और प्रेम तथा धन आदि के लिए तंत्र का अधिक उपयोग किया जा रहा है।  तंत्र के आगम शास्त्र में उद्धृत लक्षणों से जो गुरु हों, उनसे विधानपूर्वक दीक्षा ग्रहण करने का प्रस्ताव भी दिया गया है। एक ओर जहां मंत्रों के खंड में नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म एवं काम्य कर्म की विवेचना है, वहीं दूसरी ओर तंत्र में मात्र नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों की ही अधिक विवेचना प्रतिपादित है। तंत्र शास्त्र में षट्कर्मों (शांति, वश्य, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण)
की व्याख्या एवं प्रयोग की भी अधिक विवेचना दी गयी है।
तंत्र शास्त्र को मुख्यतः शिवप्रणीत माना जाता है, जो 3 भागों में विभक्त है- प्रथम आगम तंत्र, द्वितीय यामल तंत्र एवं तृतीय वाराही तंत्र। इनके अंतर्गत क्रमशः सृष्टि, प्रलय एवं देवोपासना का प्रावधान है। आगम में षट्कर्म एवं 4 प्रकार के ध्यान-योगों का वर्णन पाया जाता है।  यामल तंत्र में सृष्टि तत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम सूत्र, वर्ण भेद एवं युग धर्म का वर्णन दिया गया है। इसी के अंतर्गत व्यवहार तथा अध्यात्म नियम भी प्रतिपादित हंै। वाराही तंत्र में सृष्टि, लय, मंत्र निर्णय, तीर्थ, व्यवहार, तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन है। इसी क्रम में तांत्रिकों को 7 कोटियों में विभक्त किया गया है, जो इस प्रकार हंै - देवाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार एवं कौलाचार। धर्म 4 हैं, जिनमें से 1 है शाक्त धर्म। इसी शाक्त धर्म से संबंधित बातों का प्रतिपादन तंत्र शास्त्र में अधिक पाया जाता है। धर्म गं्रथों के अनुसार शिव ने वैदिक क्रियाओं को कीलित कर रखा है। भगवती उमा के आग्रह से शिव ने कलि युग के लिए तंत्र का निर्माण किया।
जब कोई तंत्र साधक किसी अन्य जातक के लिए कोई अभिचारादि कर्म करता है, तो वह तंत्रकत्र्ता के आसपास एक विशेष प्रकार के पर्यावरण को निर्मित करता है। कुछ समय पश्चात् यह पर्यावरण शक्ति, आकाशीय ऊर्जा के माध्यम से, ऊपर की ओर उठती हुई, अपने निश्चित मार्ग में गमन करती हुई, अपने लक्ष्य तक की यात्रा तय करती है। जब यह पर्यावरण उस जातक के पास पहुंचता है, तो जातक को प्रभावित करने लगता है, जिसे सामान्य लोग टोने, टोटके, एवं चमत्कार के नाम से जानते हैं। तंत्र के अनुसार इस शास्त्र के सिद्धांत बहुत ही गुप्त रखे जाते हैं। यदि वर्तमान स्थिति को देखा जाए, तो हिंदू धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म में तंत्र साधक कहीं अधिक पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी मत में भी इस विद्या का अधिक प्रचार-प्रसार देखा जा सकता है। तंत्र विस्तार का पर्यायवाची है। तंत्र एक क्रिया की विद्या है। यह शक्ति नहीं है। तंत्र की क्रियाएं ही मानव की शक्ति में वृद्धि लाने का कार्य करती हैं।
भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से जिन्हें सिद्धियां कहते हैं, या मानते हैं, वे साधना में प्रकट होने वाली विभूतियां हैं। जब कोई साधक तंत्र साधना करता है और उसी पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, तो कालांतर में यह क्रिया साधक में ध्यानाकर्षण की वृद्धि करती है। यही आगे चल कर अनेक घटनाओं की सूचनादि प्राप्त करने में साधक की मदद करती है। तंत्र में अभिचार एवं वशीकरण, मारणादि का उपयोग अशुभ माना गया है। यदि स्वार्थवश  तंत्र का दुरुपयोग किया जाता है, तो साधक का विनाश होता है। अतः तंत्र संबंधी साधनाएं गुरु के मार्गदर्शन से करने की सलाह दी जाती है। इसका दुरुपयोग करना सदा ही वर्जित कहा गया है।

दस महाविद्या: शक्ति एवं साधन

आदि ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है जो विभिन्न शक्तियों की दाता हैं। व्यक्ति आवष्यकतानुसार शक्ति प्राप्त करने हेतु उस महाविद्या के मूल मंत्र द्वारा महाविद्या की साधना कर सकता है और अभीष्ट फल प्राप्त कर सकता है। विभिन्न महाविद्याओं की शक्तियां एवं मूल मंत्र निम्नलिखित हैं-
देवी महाकाली महाविद्या- देवी काली काम रुपिणी है। महाकाली साधना के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आंतरिक हों या बाहरी। इस साधना के द्वारा साधक उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वह शक्ति स्वरूप है, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती है। इनकी साधना को बीमारी नाश, दुष्ट आत्मा व दुष्ट ग्रह से बचने के लिए, अकाल मृत्यु के भय से बचने के लिए, वाक सिद्धि के लिए तथा कवित्व के लिए किया जाता है। मंत्र-ऊँ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहाः
देवी तारा महाविद्या- तारा को तारिणी भी कहा गया है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वर्णाभूषणों का उपहार देती है। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या है। तारा साधना को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैं, वहीं उसके अंदर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता है। इनकी साधना से वाक सिद्धि तो अतिशीघ्र प्राप्त होती है साथ ही साथ तीव्र बुद्धि रचनात्मकता, डाॅक्टर, इंजीनियर, काव्य संबंधीं गुणों का उन्मेष होता है। तारा शत्रु को जड़ से खत्म कर देती है। मंत्र-ऊँ ह्रीं स्रीं हुं फट
षोडशी त्रिपुर सुंदरी महाविद्या- जिस काम में देवता का चयन करने में कोई दिक्कत हो तो देवी त्रिपुर सुंदरी की उपासना कर सकते हैं। यह भोग और मोक्ष दोनों ही साथ-साथ प्रदान करती है। त्रिपुर सुंदरी साधना मन, बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती है, जिससे वह शक्ति जाग्रत होती है। भू, भुवः, स्वः ये तीनों लोक इसी महाशक्ति से उद्भूत हुए हैं, इसीलिए इसे त्रिपुर सुंदरी कहा जाता है। गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरुष प्राप्ति हेतु इस साधना का विशेष महत्व है। मनोवांछित कार्य-सिद्धि के लिए भी यह साधना उपयुक्त है। मंत्र-ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमःः
देवी भुवनेश्वरी महाविद्या-भुवन अर्थात् इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो ‘ह्रीं’ बीज मंत्र धारिणी हैं। वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी अधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती है। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यंत विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतद्वात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीति प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उŸाम मानी गयी है। इस महाविद्या की आराधना एवं साधना करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। मंत्र-ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं नमः
देवी छिनमस्ता महाविद्या- यह देवी शत्रु का तुरंत नाश करने वाली, वाक सिद्धि देने वाली, रोजगार में सफलता, नौकरी में पदोन्नति के लिए कोर्ट के केस से मुक्ति दिलाने में सक्षम, सरकार को आपके पक्ष में करने वाली, कुंडली-जागरण में सहायक, पति-पत्नी को तुरंत वश में करने वाली चमत्कारी देवी है। शत्रु हावी हांे, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह साधना अत्यंत प्रभावी है। इस साधना द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारंभ हो जाता है। मंत्र-श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहाः
देवी भैरवी महाविद्या-जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ वशीकरण, आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। सुंदर पति या पत्नी की प्राप्ति के लिए, प्रेम विवाह, शीघ्र विवाह, प्रेम में सफलता के लिए भैरवी देवी साधना करनी चाहिए।माता भैरवी साधना से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्ति होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्य भी पूर्ण हो जाते है। मंत्र-ऊँ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहाः
देवी धुमावती महाविद्या- हर प्रकार की दरिद्रता के नाश के लिए, तंत्र-मंत्र के लिए, जादू-टोना, बुरी नजर और भूत-प्रेत आदि समस्त भयों से मुक्ति के लिए, सभी रोगों के लिए, अभय प्राप्ति के लिए, साधना में रक्षा के लिए, जीवन में आने वाले हर प्रकार के दुःखों का निदान करने वाली देवी है। आये दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता हो या शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती हो, तो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता है, जिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। यदि किसी प्रकार की तंत्र-बाधा या प्रेत बाधा आदि हो, तो तंत्र-मंत्र-यंत्र इस साधना के प्रभाव से वह भी क्षीण हो जाती है। मंत्र-ऊँ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहाः
देवी बंगलामुखी महाविद्या- बगलामुखी महाविद्या भगवान विष्णु की संहारक शक्ति है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई साधना नहीं है। इसके प्रभाव से रुका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैं, जो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है। वाक-्शक्ति से तुरंत परिपूर्ण करने वाली, शत्रु का नाश, कोर्ट कचहरी में विजय, हर प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता के लिए, सरकारी कृपा के लिए मां बगलामुखी की साधना करें। इस विद्या का उपयोग तभी किया जाता है जब और कोई रास्ता न बचा हो। मंत्र-ऊँ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ऊँ नमः दूसरा मंत्र-ऊँ ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचंमुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय हुं फट् स्वाहा।
देवी मातंगी महाविद्या- घर गृहस्थी में आने वाले सभी विघ्नों को हरने वाली है। जिसकी शादी न हो रही हो, संतान प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति के लिए या किसी भी प्रकार की गृहस्थ जीवन की समस्या के दुख हरने के लिए देवी मातंगी की साधना उत्तम है। इनकी कृपा से स्त्रियों का सहयोग सहज ही मिलने लगता है चाहे वह स्त्री किसी भी वर्ग की क्यों न हो। जीवन में सरसता, आनंद, भोग-विलास, प्रेम, सुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी साधना अत्यंत उपयुक्त मानी जाती है। मंत्र-ऊँ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहाः
देवी कमला महाविद्या-इस संसार में जितनी भी सुदंर लड़किया हैं, सुंदर वस्तु, पुष्प आदि हैं, ये सब कमला महाविद्या का ही सौंदर्य है। हर प्रकार की साधना में रिद्धि-सिद्धि दिलाने वाली, अखंड धन धान्य प्राप्ति, ऋण का नाश और महालक्ष्मी जी की कृपा के लिए कमल पर विराजमान देवी कमला की साधना करें। प्रत्येक महाविद्या साधना अपने आप में ही अद्वितीय है। साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी साधना कर सकते हैं। एक महाविद्या की साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का द्वार खुल जाता है और वह एक-एक करके सभी साधनाओं में सफल होता हुआ पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है। मंत्र-ऊँ ह्रीं अष्ट महालक्ष्म्यै नमः। नवरात्रों में महाविद्या की उपासना शीघ्र फलदायी है। अतः इन दिनों में इच्छित महाविद्या का सवा लाख मंत्र जप व दशांश का हवन करने से इच्छित फल प्राप्त होता है।

शंख और उसकी उपयोगिता



शंख का पूजा में महत्व
शंखों का हिंदू धर्म संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विशेष महत्व रहा है। अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है। श्री विष्णु के चार आयुधों में शंख को भी स्थान प्राप्त है। शंख पूजन से दरिद्रता निवारण, आर्थिक उन्नति, व्यापारिक वृद्धि और भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। पूजा, यज्ञ एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर शंखनाद हमारी परंपरा में है। शंख-ध्वनि के बिना कोई पूजा संपन्न नहीं मानी जाती। मंदिरों में नियमित रूप से और घरों में पूजा-पाठ, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, कथाओं, जन्मोत्सव के अवसरों पर शंख बजाया जाता है। शंख से निकलने वाली वाली ध्वनितरंगों में हानिकारक वायरस को नष्ट करने की क्षमता होती है। शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इससे आशा, आत्मबल, शक्ति व दृढ़ता बढ़ती है व भय दूर होता है।
दक्षिणावर्ती शंख की उपयोगिता
दक्षिणावर्ती शंख से लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है- इसके बिना लक्ष्मी जी की पूजा-आराधना सफल नहीं मानी जाती। दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर गर्भवती स्त्री को सेवन कराने से संतान स्वस्थ व रोग मुक्त होती है। दक्षिणावर्ती शंख से पितृ तर्पण करने पर पितरो की शांति होती है। दक्षिणावर्ती शंख से शालिग्राम व स्फटिक श्रीयंत्र को स्नान कराने से व्यवहायिक जीवन सुखमय और लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। चंद्र ग्रह की प्रतिकूलता से होने वाले श्वास व हृदय रोगो की शांति के लिए इसकी नित्य पूजा करे | दक्षिणावर्ती शंख की स्थापना से वास्तु दोषों का निवारण होता है।
पूजा में शंख क्यूँ बजाया जाता है
समुद्र मंथन के समय मिले 14 रत्नों में से एक रत्न शंख भी है। शंख में ओम की ध्वनि प्रतिध्वनित होती है, इसलिए ओम् से ही वेद बने और वेद से ज्ञान का प्रसार हुआ। शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देव स्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा व सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है। आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मांड एवं शंख की आकृति समान है शंख के अंदर का घेरा ब्रह्मांड की कुंडली की तरह होता है। शंख में गूंजने वाला स्वर ब्रह्मांड की गूंज के समान है। ऊँ शब्द की गूंज भी शंख के द्वारा गूंजायमान ध्वनि जैसी ही होती है।
शंखों की आयुर्वेद में उपयोगिता
वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके प्रभाव से सूर्य की हानिकारक किरणें बाधित होती हैं। शंख नाद करने पर जहां तक इसकी ध्वनि जाती है, वहां तक व्याप्त बीमारियों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे मौजूद जल सुवासित और रोगाणुरहित हो जाता है। इसी लिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है। बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बांधने व उन्हें शंख-जल पिलाने से वाणी-दोष दूर होते हैं। मूक व श्वास रोगी हमेशा शंख बजाए, तो वे बोलने की शक्ति पा सकते हैं आयुर्वेद के अनुसार हकलाने वाले व्यक्ति यदि नित्य शंख-जल पिएं तो वे ठीक हो जाएंगे। शंख जल स्वास्थ्य, हड्डियों व दांतों के लिए लाभदायक है।
क्या शंख जैविक पदार्थ नहीं हैं ?
शंख समुद्र मे पायें जाने वाले एक प्रकार के घोघें का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। घोघें से इसका निर्माण होने के कारण यह एक समुद्री जैविक पदार्थ है। जैसे- नाखून और बाल मानव शरीर से ही जीवन पाते है। परंतु जैसे ही इन्हे काटकर अलग किया जाता हैं तो ये निर्जीव हो जाते है इसी प्रंकार मूगा रत्न भी एक जैंविक उत्पाद है। यह भी शंख की तरह सामुद्रिक पदार्थ है औंर जब इसे इसकी श्रृखला ं से अलग कर दिया जाता है तब यह बढ़ना बंद कर देता है। शंख भी घोघें से अलग होने पर आकार-वृद्धि करना बंद कर देते है। अतः शंख एक जैविक पदार्थ होते हुए भी अजैविक पदार्थ है।
शंख की मौलिकता की पहचान किस प्रकार की जाती है ?
शंख की मौलिकता की पहचान एक्स-रे द्वारा की जाती है। कभी-कभी शंख के दोषों को दूर करने के लिए कृत्रिम रूप से उसकी पाउडर द्वारा फिलिंग कर दी जाती है या कोने आदि बना दिये जाते हैं। शंख समुद्र की मिट्टी में दबे होते हैं इनकी मिट्टी हटाकर, इन्हें तेजाब से साफ किया जाता है जिससे इनकी वास्तविक चमक प्राप्त होती है। इसके पश्चात् इन्हें गंगाजल से शुद्ध किया जाता है। दु
दुर्लभ शंख ?
दुर्लभ शंख सामान्यतः मालदीव, अंडमान-निकोबार द्व ीपसमूह, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर से प्राप्त होते है। इनका आकार एक मिली मीटर सें लेकर 5 फीट हो सकता है व शंख एक ग्राम से कई लेकर कई किलो तक वजन मे पायें जाते है।
दुर्लभ शंखों के नाम व उपयोगिता
गणेश शंख सर्वाधिक शक्तिशाली शंख है। इस शंख को विद्या-प्राप्ति और सौभाग्य तथा पारिवारिक उन्नति के लिए श्रेष्ठ माना जाता है।्र शंख शनि दोष का निवारण करता है। यह काले रंग का बहुत ही प्रभावशाली शंख है। शनि देव का प्रकोप शांत करके उनकी कृपा-दृष्टि प्राप्त करने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण शंख है। जिन पर शनि साढ़ेसाती, शनि ढैया व शनि महादशा चल रही हो या शुरु होने वाली हो उनको यह शंख अपने साथ रखने चाहिए या इसे सरसों के तेल में डुबोकर घर के मंदिर में रखना चाहिए।: दक्षिणावर्ती शंख धन के देवता कुबेर का शंख है। इस शंख के पूजन से धन, संपत्ति व ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। मोती जैसी आभा वाला मोती शंख दुर्लभ शंख है। यह सौभाग्यवर्द्धक शंखों की श्रेणी में आता है। मोती शंख का पूजन मानसिक अशांति दूर करता है। कौड़ी शंख को संतान, संपत्ति मान-सम्मान, वैवाहिक सुख व ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है। गौमुखी शंख सफेद रंग और पीतवर्ण के विशेष रूप से पाये जाते हैं। गौमुखी शंख की उपासना से सुख, सौभाग्य, सौंदर्य व समृद्धि प्राप्ति होती है। अन्नपूर्णा शंख अपने ज्ञान के अनुरूप फल देता है। यह दिव्य व चमत्कारी शंख है। जिस घर में अन्नपूर्णा शंख स्थापित होता है वह घर अन्न-धन से परिपूर्ण और चंहुमुखी विकास की ओर अग्रसर होता है।

दक्षिणावर्ती शंख और उसके उपयोग

भारतीय संस्कृति में शंख की अपार महिमा एवं उपयोगिता बताई गई है। शंख समृद्धिदायक, दरिद्रता नाशक, आयुवर्द्धक के साथ-साथ देवी-देवताओं के पूजन के लिए, ज्योतिष और तांत्रिक साधनाओं में एवं शुभ कार्य के प्रारंभ में इसकी विशेष उपयोगिता बताई गई है। ये समुद्र में लगभग सभी जगह मुख्य रूप से पाए जाते हैं। मालदीव, श्री लंका, अंडमान निकोबार, हिंद महासागर, अरब सागर व प्रशांत महासागर में मुख्य रूप से पाए जाते हैं। मुख्यतः शंख वामवर्ती होते हैं एवं दक्षिणावर्ती शंख दस प्रतिशत से भी कम पाए जाते हैं। इसको जानने के लिए कि यह दक्षिणावर्ती है या वामवर्ती शंख के मस्तक को अपनी और व धारा मुख को बाहर की तरफ रखे और दायां भाग खुला हो तो वह दक्षिण् ाावर्ती शंख होता है तथा जिसका बायां भाग खुला हो वह वामवर्ती शंख होता है। सामन्यतः दक्षिण् ाावर्ती शंख बाएं हाथ से पकड़ने में सुविधापूर्वक आता है एवं वामवर्ती शंख को दाएं हाथ से पकड़ने में सुविधा होती है। यदि शंख को बजाना हो तो वामवर्ती शंख को दाएं हाथ में पकड़ कर ही बजा पाएंगे। दक्षिणावर्ती शंख को दांए हाथ में पकड़कर बजाने में असुविधा होती है। इसलिए बजाने वाले शंख वामवर्ती ही होते हैं। प्रकृति में पचास हजार से भी अधिक प्रकार के शंख पाए जाते हैं। कुछ खारे पानी में तो कुछ मीठे पानी में इनके आकर भी एक मिली मीटर से लेकर चालीस इंच तक होते हैं।
ये अनेकों रंगों में एवं एक ग्राम से कई किलो तक के वजन में पाएं जाते हैं। शंख भगवान विष्णु के चतुर्भज स्वरूप में हस्त का एक आभूषण हैं, महाभारत में भी भगवान कृष्ण ने पांचजन्य शंख बजाकर युद्ध की शुरुआत की थी। आयुर्वेद में शंख भस्म अनेकों प्रकार के रोगों को दूर करने के लिए प्रयोग में लाई जाती है। बौद्ध धर्म में शंख को अष्ट मंगल (शंख, श्रीवत्स, मत्स्य, पद्म छत्र कलश चक्र ध्वज) पदार्थों में से एक है। दक्षिणावर्ती शंख एक बड़े समुद्री जीव का बाहरी हिस्सा है जो कि भारत के दक्षिण में हिंद महासागर में पाया जाता है इसका जीव विज्ञान में टर्बिनेला पायरम नाम हैं शंख को बजाने से बातावरण की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। इससे आशा, आत्मबल, शक्ति व दृढ़ता बढ़ती है, तथा भय नष्ट होता है। श्रद्धा व विश्वास जागृत होता है। भाग्य और सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मांड एवं शंख की आकृति समान है। शंख के अंदर का घेरा ब्रह्मांड की कुंडली (स्पाइरल) की तरह होता है। शंख में गूंजने वाला स्वर ब्रह्मांड की गूंज के समान है, शब्द की गूंज भी शंख के द्वारा गुंजायमान ध्वनि जैसी ही होती है।
योग मंे शंख मुद्रा का भी वर्णन है शंख नांद से अनेकों प्रकार के कीटाणुओं का नाश होता है रुद्राभिषेक करते समय या किसी देवता के जलाभिषेक करते समय शंख में जल या दूध डाला जाए तो पाप नष्ट होते हें व सुख समृद्धि बढ़ती है। पुराण में शंख की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुए थी, इसके धारा मुख पर गंगा, सरस्वती, मध्य में प्रजापति एवं सिर पर सूर्य, चंद्र, वरुण का स्थान माना गया है। वराह पुराण में कहा गया है कि मंदिर के दरवाजे खुलने से पहले शंख अवश्य बजाना चाहिए शंख के बजाने से सात्विक स्पंदन (बाइवे्रशन) आती है और तामसिक व राजसिक स्पंदन (वाइवे्रशन) समाप्त हो जाती है।
शंख की मौलिकता की पहचान के लिए एक्स-रे द्वारा जांचा जाता है कभी-कभी शंख के दोषों को दूर करने के लिए शंख पाउडर द्वारा फिलिंग कर दी जाती है या कोने आदि बना दिए जाते हैं लेकिन केवल महंगे शंख ही दक्षिणावर्ती शंख होते हैं ऐसा सत्य नहीं है अनेकों किस्मों में दक्षिणावर्ती शंख पाए जाते हैं। किसी में रेखाएं होती है किसी में नहीं, बिना रेखाओं वाले शंख भी नकली नहीं होते बल्कि अन्य जाति के होते है और इनको भी दक्षिणावर्ती शंख की तरह माना व पूजा गया है।
दक्षिणावर्ती शंख और उसके उपयोग
दक्षिणवर्ती शंख से लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है इसके बिना लक्ष्मी जी की आराधना पूजा सफल नहीं मानी जाती।
दक्षिणावर्ती शंख से पितृ-तर्पण करने पर पितरों की शांति होती है।
दक्षिणावर्ती शंख में जलभर कर गर्भवती स्त्री को सेवन कराने से संतान स्वस्थ व रोग मुक्त होती है।
दक्षिणावर्ती शंख से शालिग्राम व स्फटिक श्री यंत्र को स्नान कराने से वैवाहिक जीवन सुखद व लक्ष्मी का चिर स्थायी वास होता है।
चंद्रमा ग्रह की प्रतिकूलता से होने वाले श्वास संबंधी व हृदय रोगों की शांति के लिए दक्षिणावर्ती शंख की नित्य पूजा करें।
दक्षिणावर्ती शंख की स्थापना से वास्तु दोषों का निराकरण होता है।

नजर दोष और उसके उपाय

कहते हैं कि कृष्ण जी इतने सुंदर थे कि उन्हें अक्सर उनकी माता यशोदा जी की नजर लग जाती थी। इसलिए मां यशोदा उनके माथे पर काला टीका लगा देती थीं ताकि उन्हें नजर न लगे। नजर दोष से बचाव के लिए अक्सर घरों के बाहर एक डरावना मुखौटा लगा दिया जाता है। गाडि़यों के पीछे काले कपड़े की चोटी या जूता भी नजर से बचाव के लिए ही लटकाया जाता है। हर ट्रक के पीछे ‘बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला’ का वाक्य लिखा होना एक आम बात है। अक्सर सुनने में आता है कि किसी ने किसी दूसरे पर टोना कर दिया है, जिससे उसका कोई भी काम ठीक नहीं होता और दुर्भाग्य बार-बार आड़े आ जाता है। इसी प्रकार कभी हम महसूस करते हैं कि पूरी मेहनत के पश्चात भी हमें कार्य में सफलता नहीं मिल रही - कारण कि किसी ने हमारे व्यवसाय को बांध दिया है। बंधन के फलस्वरूप या तो व्यवसाय नहीं होता या फिर व्यवसाय होते हुए भी अंततः हानि ही हाथ आती है। यहां तक कि इस प्रकार का माहौल बन जाता है कि हमें वह व्यवसाय छोड़ना ही पड़ जाता है। कभी किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य ऐसे बिगड़ जाता है कि सभी दवाइयां निष्प्रभावी हो जाती हैं। ऐसा अक्सर किसी भूत-प्रेत या चुड़ैल की बाधा साथ लग जाने से होता है। यह बाधा किसी के द्वारा कराई गई होती है या अंजाने में राह में या हमारे किसी कर्म के कारण लग जाती है। मनुष्य को पूर्व जन्म के ऋणानुबंध या श्राप आदि भी अनेक प्रकार से कष्टदायी होते हैं जिनका उपाय करने से उनसे मुक्ति मिल सकती है। हमारे साथ कुछ अच्छा होने वाला है या बुरा इसका पूर्वानुमान स्वप्न या शकुन द्वारा लगाया जा सकता है। सीता से विवाह के लिए जब श्री राम जी की बरात प्रस्थान करती है, तो सारे शकुन स्वतः होने लगते हंै जो एक शुभ कार्य का पूर्व संदेश देते हैं।
क्षेमकरी (सफेद सिर वाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बायीं ओर सुंदर पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और हाथ में पुस्तक लिए हुए दो विद्वान् ब्राह्मण सामने आए। सभी मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक ही साथ हो गए। इसी प्रकार रावण के युद्ध हेतु प्रस्थान के समय सारे अपशकुन होने लगते हैं।
अत्यंत गर्व के कारण रावण शकुन-अशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिंघाड़ते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गिद्ध, कौए और गधे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो मृत्यु का संदेशा सुना रहे हों। प्रकृति में कुछ भी अचानक घटित नहीं होता, किसी बड़ी घटना से पूर्व शकुन-अपशकुन के रूप में अनेक घटनाएं क्रमबद्ध ढंग से घटित होती हैं। यदि इन पर गंभीरता से ध्यान कर लिया जाए, तो किसी बड़ी दुर्घटना से बचाव किया जा सकता है। कहते हैं कि नजरदोष या अन्य कोई व्याधा लग जाने पर आंख की निचली पलक भारी हो जाती है मानो वह सूज गई हो। प्रभावित व्यक्ति का कोई भी काम करने का मन नहीं करता। इससे मुक्ति के लिए अनेक प्रकार के उपाय सुझाए गए हैं, जिन्हें अपनाने से वर्णित कष्टों का निवारण हो सकता है। नजर दोष निवारक लाॅकेट धारण करें। रुद्राक्ष माला, और खासकर तेरहमुखी रुद्राक्ष माला, नजर दोष व ऊपरी बाधाओं से बचाव के लिए विशेष प्रभाशाली है। बच्चों को मोती चांद का लाॅकेट एवं नजरबंद (काले-सफेद मोती) का ब्रेसलेट या करधनी धारण कराएं। पारद लाॅकेट सभी बाधाओं को दूर करने में सक्षम है। नजर दोष निवारक यंत्र एवं नवदुर्गा यंत्र साथ रखें। पंचमुखी हनुमान का लाॅकेट धारण करें या घर में अथवा व्यवसाय स्थल पर स्थापित करें। काले हकीक की माला पर ऊँ हं हनुमते नमः मंत्र का नियमित रूप से जप करें। मोर पंख से या सरसों के तेल की बत्ती से उतारा करें। नीबू को सिर से उतारकर चार टुकड़ों में काटकर चैराहे पर चारों दिशाओं में फेंक दें। यदि कोई
नजर लगी हो या टोटका किया गया हो तो दोष दूर हो जाता है। नजर दोष से प्रभावित व्यक्ति के ऊपर चारों ओर से फिटकरी का टुकड़ा घुमाकर चूल्हे में डालने से नजर दोष समाप्त होता है। प्रवेश द्वार पर घोड़े का नाल लगाने से आगंतुकों की नजर नहीं लगती। नमक, राई और लाल मिर्च अंगारे पर डालकर रोगी के ऊपर ग्यारह बार घुमाने से नजर दोष मिटता है। सोते समय सिर के नीचे चाकू रखने से डरावने स्वप्न नहीं आते। हनुमान चालीसा का पाठ करने से भूत-प्रेत आदि व्याधाएं भाग जाती हैं। यदि ऐसा महसूस होता हो कि किसी ने आपका घर या व्यवसाय बांध दिया है, तो चार कीलें घर के अंदर चारों दिशाओं में ठोंक दें, बंधन से मुक्ति मिलेगी। वाहन दुर्घटनाग्रस्त न हो इसके लिए लाल कपड़े की थैली में आठ छुहारे बांधकर वाहन के अंदर रखें। पुष्य नक्षत्र में सहदेवी की जड़ लाकर साथ रखने से बीमारी से मुक्ति मिलती है। प्रतिदिन या फिर प्रति मंगलवार को सात साबुत हरी मिर्च और एक नीबू को धागे में बांधकर व्यवसाय स्थल पर बांध देने से कारोबार में उन्नति होती है। जब कोई ग्राहक दुकान पर आए, तो कोई एक धागा तोड़कर अपनी सीट के नीचे दबाकर रखें, ग्राहक निश्चित रूप से खरीददारी करेगा। ग्राहक चला जाए, तो धागा निकालकर फेंक दें। घर या व्यवसाय स्थल के प्रवेश द्वार पर मयूर का चित्र लगाने से नजर नहीं लगती। ‘ऊँ ऐं ह्लीं क्लीं चामुंडाय विच्चैः’ मंत्र का जप करने से सभी बाधाएं दूर होती हैं। ऊपर वर्णित सभी दोषों का प्रभाव मानसिक रूप से कमजोर व्यक्तियों पर अधिक पड़ता है। कुंडली में नीचस्थ चंद्र या राहु व शनि से ग्रस्त चंद्र होने पर व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर होता है और उस पर उक्त दोषों का प्रभाव अधिक पड़ता है। शिव व हनुमत आराधना और चंद्रमणि धारण करने से मानसिक बल प्राप्त होता है और दोषों से मुक्ति मिलती है।

एक्युप्रेशर: चिकित्सा की एक प्रभावशाली पद्दति

मानव का मस्तिष्क कम्प्यूटर के सी.पी.यू. की तरह कार्य करता है जिसे शरीर के सभी अंग अपने-अपने संदेश भेजते रहते हैं और मस्तिष्क उन्हें कार्य के निर्देश देता रहता है। जब भी शरीर के किसी भाग में दर्द होता है, तो हाथ अपने आप उस अंग को दबाने लगते हैं। यही एक्युप्रेशर है। एक्युप्रेशर की यह चिकित्सा पद्धति संसार की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति है। भारत में लगभग 6 हजार वर्ष पूर्व इसका उद्भव हुआ, आयुर्वेद में इसके उल्लेख मिलते हंै। इसे मर्म चिकित्सा के नाम से भी जाना जाता है। चीन में एक्युप्रेशर तथा एक्युपंक्चर पद्धति पांच हजार वर्ष पुरानी मानी जाती है। भारत में कान, नाक आदि का छेदन एक्युपंक्चर का ही उदाहरण है। हमारे पूर्वजों ने इसे धर्म से जोड़कर आम मनुष्य के जीवन में उतार दिया। कान छेदन अनिद्रा एवं याददाश्त को ठीक रखता है। चूडि़यां पहनने से मूत्राशय और प्रोस्टेट की बीमारी नहीं होती। पायजेब पहनने से कमर और गर्दन के दर्द से आराम मिलता है बिछुए से नाक तथा गले के रोग दूर होते हैं। सिर पर बोर पहनने से मासिक धर्म के विकार दूर होते हैं। पुरुषों में जनेऊ मूत्र संबंधी रोगों को दूर करता है। कमर में धागे से हरनिया से बचा जा सकता है। कलाई में धागा या कड़ा पहनने से रक्तचाप सामान्य होता है। एक्युप्रेशर कैसे काम करता है, इसे समझने के लिए पानी के पाइप का एक उदाहरण लेते हैं, जिसमें कुछ अवरोध हो। पाइप को यदि दबा दिया जाए, तो पानी जोर से चलने लगेगा। पाइप को छोड़ देने पर उसमें फंसा हुआ अवरोध झटके से बाहर निकल जाएगा और पानी का प्रवाह ठीक हो जाएगा। इसी प्रकार मनुष्य के शरीर में रक्त वाहिकाओं व नसों के अवरोध एक्युप्रेशर प्रक्रिया से खुल जाते हैं और रोगी के कष्ट दूर हो जाते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतिबिंब केंद्र शरीर के कई भागों पर
होते हैं। उपचार के लिए पहले यह मालूम करना होता है कि शरीर के किस हिस्से व अंग में रोग है। जिस अंग में रोग हो उससे संबंधित प्रतिबिंब केंद्र पर दबाव देकर रोग दूर किया जा सकता है। इसमें मुख्य रूप से पैर और हाथ की रिफ्लेक्सोलोजी अधिक प्रभावशाली व सुविधाजनक है। रक्त वाहिकाओं तथा स्नायु-संस्थानों के आखिरी छोर हाथों व पैरों में होते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों से संबंधित नाडि़यां हाथों व पैरों में स्थित हैं। यहां अंकित चित्र से यह सहज ही पता चल जाएगा कि कौन सा अंग हाथ व पांव में कहां स्थित है। एक्युप्रेशर के लिए आवश्यकतानुसार अनेक उपकरण उपलब्ध हैं जैसे पैरों के लिए मैट, बैठने के लिए सीट, गर्दन व कमर के लिए रोलर या मसाजर, उंगलियों के लिए रिंग आदि। लेकिन इन सभी उपकरणों से हम बिना किसी नियंत्रण के पूरे क्षेत्र पर दबाव डालते हैं। इनका विशेष लाभ प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि जहां जरूरी हो वहीं दबाव डाला जाए। इसके लिए जिम्मी का उपयोग बेहतरीन माना गया है। इस पत्रिका के साथ भी एक जिम्मी संलग्न है। जिम्मी द्वारा तलवों व हथेलियों पर उक्त दबाव डाला जा सकता है। इसके आगे के नुकीले पाॅइंट से बिंदु विशेष पर दबाव डालकर उससे संबद्ध रोग से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हथेलियों में चलाकर उनके सभी बिंदुओं पर दबाव डालने से विभिन्न रोगों से मुक्ति मिल सकती है।

रत्न और उसके धारण संबंधित जानकारी

हर मनुष्य की जन्मपत्री मे कोंई न कोई ग्रह कमजोर और कुछ ग्रह बली होते है औंर इनके अनुसार ही जातक के भाग्य में परिवर्तन आता रहता है। अशुभ ग्रहों को शुभ बनाना या शुभ ग्रहों को और अधिक शुभ बनाने की मनुष्य की सर्वदा चेष्टा रही है। इसके लिए मनुष्य अनेक उपाय करते हैं, जैसे मंत्र जाप, दान, औषधि स्नान, रत्न धारण, धातु एवं यंत्र धारण, देव दर्शन आदि। रत्न धारण एक महत्वपूर्ण एवं असरदार उपाय है। कब कौन सा रत्न कैसे धारण करें, इस विषय की चर्चा इस अंक में विस्तृत रूप से की जा रही है। सार में, किसी रत्न धारण करने के लिए निम्न सूत्रों का ध्यान रखना चाहिएः-
रत्न कौन से हैं और कैसे काम करते है- सूर्य से ले कर केतु तक नव ग्रहों के लिए नौ मूल रत्न हैं - सूर्य के लिए माणिक, चंद्र का मोती, मंगल का मूंगा, बुध का पन्ना, गुरु का पुखराज, शुक्र का हीरा, शनि का नीलम, राहु का गोमेद एवं केतु का लहसुनिया। ये रत्न इन ग्रहों से आ रही किरणों को आत्मसात करनें में सक्षम हैं एवं ग्रहों से आ रही किरणों के साथ अनुनाद ;तमेवदंदबमद्ध स्थापित कर हमारे शरीर में किरणों के प्रवाह को बढ़ाते हैं। उपरत्न सस्ते होते है एवं उनका अनुनाद रत्नों के अनुनाद के नजदीक ही होता है, लेकिन उसी बारंबारता ;तिमुनमदबलद्ध पर नहीं। अतः उपरत्न भी कुछ हद तक वही काम करते हैं, जो रत्न करते हैं। लेकिन अनुनाद ठीक से न होने के कारण इनका असर दस प्रतिशत से अधिक नहीं होता। अतः मूल रत्न ही धारण करने चाहिएं।
रत्न को कैसे परखे-रत्न को आंखों से देख कर ही जाना जा सकता है कि उसमें कोई दरार तो नहीं है। रत्न का पारदर्शी होना एवं उसमें चमक होना उसकी किस्म को दर्शाते हैं। उसका कटाव एक कोण में होना भी आवश्यक है। यदि कटाव ठीक नहीं होगा, तो रत्न रश्मियों को एकत्रित करने में सक्षम नहीं रहेगा।
क्या रत्न प्रभावशाली होगा-ग्रह कैसी राशि में स्थित है, यह निर्धारित करता है कि कौन सा उपाय फल देगा। जैसे यदि ग्रह वायु राशि में स्थित हो, तो मंत्रोच्चारण, कथा, पूजा आदि सिद्ध होंगे। ग्रह अग्नि राशि में हो, तो यज्ञ, व्रत आदि, जल राशि में दान, पानी में बहाना, औषधि स्नान आदि एवं पृथ्वी तत्व में रत्न, यंत्र, धातु धारण एवं देव दर्शन आदि। यदि जन्मपत्री में योगकारक ग्रह निर्बल हो, तो रत्न धारण, यंत्र धारण एवं मंत्र द्वारा उपचार करना चाहिए। यदि मारक ग्रह बली हो, तो उसे वस्तु बहा कर या दान से निर्बल बनाना चाहिए, अन्यथा मंत्रोच्चारण एवं देव दर्शन द्वारा कारक में परिवर्तित करना चाहिए। ऐसे में रत्न धारण करने से ग्रह का मारक तत्व और उभरेगा। यदि योगकारक ग्रह बली हो, या मारक ग्रह निर्बल हो, तो किसी उपाय की आवश्यकता नहीं है।
कौन से ग्रह का रत्न धारण करें- रत्न ग्रह को बली करने के लिए पहनाया जाता है। किसी ग्रह से संबंधित पीड़ा हरने के लिए, अन्यथा जिस ग्रह की दशा या अंर्तदशा चल रही हो, उस ग्रह का रत्न धारण करना चाहिए। लेकिन यह आवश्यक है कि वह ग्रह जातक की कुंडली में योगकारक हो, मारक न हो। अष्टमेश यदि लग्नेश न हो, तो सर्वदा त्याज्य ही है। योगकारक ग्रह यदि निर्बल हो, तो रत्न अवश्य धारण करना चाहिए।
क्या रत्न हमारे लिए शुभ है- यह जान लेना परम आवश्यक है कि रत्न हमें शुभ फल देगा, या दे रहा है। विशेष रूप से नीलम को आप परख कर ही पहनें। कई बार नग विशेष में कुछ त्रुटि होने के कारण कष्ट झेलने पड़ते हैं। नीलम में यदि कुछ लालपन हो, तो वह खूनी नीलम कहलाता है और दुर्घटना करवा सकता है। अतः रत्न को परखने के लिए अपने हाथ पर बांध लें। यदि आप स्फूर्ति महसूस करते हैं, तो रत्न ठीक है, अन्यथा दूसरा नग देख लें। यदि दो-तीन नग देखने पर भी ठीक नहीं लगता, तो वह रत्न आपको ठीक फल नहीं देगा।
कितने वजन का नाग पहने- नग का वजन शरीर के वजन एवं ग्रह की निर्बलता के अनुपात में होना चाहिए। यदि ग्रह अति क्षीण है, तो अधिक वजन का नग पहनना चाहिए। प्रायः सवाया वजन ही शुभ माना जाता है एवं पौन अशुभ। महिलाओं को सवा तीन रत्ती से सवा पांच रत्ती तक एवं पुरुषों को सवा पांच रत्ती से सवा आठ रत्ती तक के नग पहनने चाहिएं। हीरा एक अपवाद है। यह कम वजन एवं कई टुकड़ों में भी हो सकता है।
रत्न का शरीर से छूना अति आवश्यक है, से काम करता है, न कि अपवर्तन से। रत्न का कोण भी सम होना चाहिए, जो अंगुली को छूए। लाॅकट आदि में भी रत्न इसी प्रकार छूते हुए जड़वाने चाहिएं। लेकिन अंगुली रश्मियों को आत्मसात करने में अधिक सक्षम होती है। लाॅकेट में कम से कम दुगुने वजन का रत्न होने से उतना असर होगा, जितना अंगूठी में। अतः रत्न को अंगूठी में पहनना ही श्रेष्ठ है।
केवल हीरे को छोड़ कर, जो प्रतिबिंब
किस धातु में रत्न जड़वाएं-स्वर्ण रत्न के लिए उत्तम धातु है। सभी नौ ग्रहो कें लिए स्वर्ण का उपयोग शुभ है। हीरे के लिए प्लेटिनम अत्युत्तम है। नीलम तथा गोमेद के लिए अन्य धातु मिश्रित चैदह कैरट का सोना उत्तम है। मोती के लिए चांदी इस्तेमाल की जा सकती है। मूगें के लिए तांबे की बजाय तांबा मिश्रित स्वर्ण अत्युत्तम है। माणिक, पन्ना, पुखराज तथा लहसुनिया बाईस कैरट सोने मे पहनें।
रत्न किस ऊँगली में पहने- पुरुष को रत्न दाहिने हाथ में एवं स्त्री को बायें हाथ में धारण करना चाहिए। यदि व्यक्ति विशेष बायें हाथ से काम करता है, या कोई स्त्री पुरुष की भांति काम-काज करती है, तो भी स्त्री को बायें एवं पुरुष को दायंे हाथ में ही रत्न धारण करना चाहिए। छोटी अंगुली में हीरा एवं पन्ना, अनामिका में माणिक, मोती, मूंगा तथा लहसुनिया, बीच की अंगुली में नीलम तथा गोमेद एवं तर्जनी में पुखराज पहनना उत्तम है। हीरा अनामिका एवं बीच की अंगुली में पहना जा सकता है। पन्ना अनामिका में तथा लहसुनिया छोटी अंगुली में भी पहने जा सकते हैं।
रत्न कब तथा कैसे धारण करें- रत्न को धारण करने के लिए आवश्यक है कि पहली बार पहनते समय शुभ मुर्हूत हो एवं चंद्र बली हो, समय, वार एवं नक्षत्र रत्न के अनुकूल हों। ऐसे समय में रत्न को गंगा जल एवं पंचामृत में धो कर धूप, दीप दिखा कर, ग्रह के मंत्रोच्चारण सहित धारण करना चाहिए। इस प्रकार रत्न का शुभ फल अधिक होता है एवं अशुभ फल में न्यूनता आती है। माणिक रविवार, मोती सोमवार, मूंगा मंगलवार, पन्ना तथा लहसुनिया बुधवार, पुखराज गुरुवार, हीरा शुक्रवार, नीलम और गोमेद शनिवार को धारण करने चाहिएं। सभी रत्न प्रातः, नीलम सूर्यास्त से पहले एवं गोमेद सूर्यास्त के बाद धारण करना श्रेष्ठ है।
रत्न कब तक पहने- कोई भी रत्न तीन साल तक ही पूर्णतया फल देने में सक्षम है। केवल हीरा पूर्ण काल तक पूरे फल देता है। अतः आवश्यक है कि तीन वर्ष बाद हम रत्न बदल लें, या उस रत्न को उतार कर रख दें एवं कुछ साल बाद दोबारा पहनें, या रत्न किसी और को दे दें। यदि आपका वांछित कार्य हो गया हो, या दशा बदल गयी हो, तो भी रत्न उतार देना चाहिए।
माणिक, मोती, मूंगा, पुखराज के साथ नीलम तथा गोमेद नहीं पहनना चाहिए। हीरा, पन्ना और लहसुनिया के साथ अन्य कोई भी रत्न धारण करने में दोष नहीं है। लेकिन हीरे के साथ माणिक्य, मोती एवं पुखराज को परख कर ही पहनना चाहिए। आम तौर पर लोग रत्न को उतारने के लिए समय आदि पर ध्यान नहीं देते हैं। ऐसा नहंीं करना चाहिए। रत्न को उसके वार के दिन ही उतार कर रखना चाहिए। उतार कर उसे गंगा जल में धो कर सुरक्षित स्थान पर रखें एवं उसके बाद उस ग्रह की वस्तुओं का दान करें।यदि रत्न खो जाए, या चोरी हो जाए, तो समझें कि ग्रह के दोष खत्म हुए। यदि रत्न में दरार पड़ जाए, तो समझें कि ग्रह बहुत प्रभावशाली है। उसकी शांति भी करवाएं। यदि रत्न का रंग फीका पड़े, तो ग्रह का असर शांत हुआ समझें।

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Friday, 12 February 2016

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Thursday, 11 February 2016

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Wednesday, 10 February 2016

रुद्राक्ष आम के पेड़ जैसे एक पेड़ का फल है। ये पेड़ दक्षिण एशिया में मुख्यतः जावा, मलयेशिया, ताइवान, भारत एवं नेपाल में पाए जाते हैं। भारत में ये मुख्यतः असम, अरुणांचल प्रदेश एवं देहरादून में पाए जाते हंै।
रुद्राक्ष के फल से छिलका उतारकर उसके बीज को पानी मे गलाकर साफ किया जाता है। इसके बीज ही रुद्राक्ष रूप में माला आदि बनाने में उपयोग में लाए जाते हंै। इसके अंदर प्राकृतिक छिद्र होते हंै एवं संतरे की तरह फांकें बनी होती हंै जो मुख कहलाती हैं।
रुद्राक्ष की जाति के ही दूसरे फल हैं भद्रास एवं इंद्राक्ष। भद्राक्ष में मुख जनित धारियां नहीं होती हंै। इंद्राक्ष अब लुप्त हो चुका है और देखने में नहीं आता।कहा जाता है कि सती की मृत्यु पर शिवजी को बहुत दुख हुआ और उनके आंसू अनेक स्थानों पर गिरे जिससे रुद्राक्ष (रुद्र$अक्ष अर्थात शिव के आंसू) की उत्पत्ति हुई। इसीलिए जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करता है उसे सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है। चंद्रमा शिवजी के भाल पर सदा विराजमान रहता है अतः चंद्र ग्रह जनित कोई भी कष्ट हो तो रुद्राक्ष धारण से बिल्कुल दूर हो जाता है। किसी भी प्रकार की मानसिक उद्विग्नता, रोग एवं शनि के द्वारा पीडि़त चंद्र अर्थात साढ़े साती से मुक्ति में रुद्राक्ष अत्यंत उपयोगी है। शिव सर्पों को गले में माला बनाकर धारण करते हैं। अतः काल सर्प जनित कष्टों के निवारण में भी रुद्राक्ष विशेष उपयोगी होता है।
रुद्राक्ष सामान्यतया पांचमुखी पाए जाते है, लेकिन एक से चैदहमुखी रुद्राक्ष का उल्लेख शिव पुराण, पद्म पुराण आदि में मिलता है। रुद्राक्ष के मुख की पहचान उसे बीच से दो टुकड़ों में काट कर की जा सकती है। जितने मुख होते हैं उतनी ही फांकंे नजर आती हैं। हर रुद्राक्ष किसी न किसी ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। इनका विभिन्न रोगो कें उपचार मे भी विशेंष उपयोग होता है।
रुद्राक्षों में एकमुखी अति दुर्लभ है। शुद्ध एकमुखी रुद्राक्ष तो देखने में मिलता ही नहीं है। नेपाल का गोल एकमुखी रुद्राक्ष अत्यंत ही दुर्लभ है। इसके स्थान पर दक्षिण भारत में पाया जाने वाला एकमुखी काजूदाना अत्यंत ही प्रचलित है। असम में पाया जाने वाला गोल दाने का एकमुखी रुद्राक्ष भी बहुत प्रचलित है। इक्कीस मुखी से ऊपर के रुद्राक्ष अति दुर्लभ हैं। इसके अतिरिक्त अट्ठाइस मुखी तक के रुद्राक्ष भी पाए जाते हैं। मालाएं अधिकांशतः इंडोनेशिया से उपलब्ध रुद्राक्षों की बनाई जाती हैं। बड़े दानों की मालाएं छोटे दानों की मालाओं की अपेक्षा सस्ती होती हैं। साफ, स्वच्छ, सख्त, चिकने व साफ मुख दिखाई देने वाले दानों की माला काफी महंगी होती है।
रुद्राक्ष के अन्य रूपों में गौरी शंकर, गौरी गणेश, गणेश एवं त्रिजुटी आदि हैं। गौरी शंकर रुद्राक्ष में दो रुद्राक्ष प्राकृतिक रूप से जुड़े होते हैं। ये दोनों रुद्राक्ष गौरी एवं शंकर के प्रतीक हैं। इसे धारण करने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता बनी रहती है। इसी प्रकार गौरी गणेश में भी दो रुद्राक्ष जुड़े होते हैं एक बड़ा एक छोटा, मानो पार्वती की गोद में गणेश विराजमान हों। इस रुद्राक्ष को धारण करने से पुत्र संतान की प्राप्ति होती है एवं संतान के सभी प्रकार के कष्टों का निवारण होता है। गणेश रुद्राक्ष में प्राकृतिक रूप से हाथी की सूंड जैसी आकृति बनी होती है। इसे धारण करने से सभी प्रकार के अवरोध दूर होते हैं एवं दुर्घटना से बचाव होता है। त्रिजुटी रुद्राक्ष में तीन रुद्राक्ष प्राकृतिक रूप से जुड़े होते हैं। यह अति दुर्लभ रुद्राक्ष है और इसे धारण करने से सभी प्रकार के कष्टों का निवारण होता है।
रुद्राक्ष के बारे में कुछ भ्रम भी प्रचलित हैं। जैसे कि पहचान के लिए कहा जाता है कि तांबे के दो सिक्कों के बीच में यदि रुद्राक्ष को रखा जाए और वह असली हो तो धीमी गति से घूमता हुआ नजर आएगा। वास्तव में रुद्राक्ष जैसी किसी भी गोल कांटेदार वस्तु को यदि इस तरह पकड़ा जाएगा तो वह असंतुलन के कारण घूमेगी। दूसरा भ्रम यह है कि असली रुद्राक्ष पानी में डूबता है, नकली नहीं। यह बात इस तथ्य तक तो सही है कि लकड़ी का बना कृत्रिम रुद्राक्ष नहीं डूबेगा। रुद्राक्ष का बीज भारी होने के कारण डूब जाता है लेकिन यदि असली रुद्राक्ष पूरा पका नहीं हो या छिद्र में हवा भरी रह गई हो तो वह भी पानी से हल्का ही रहता है, डूबता नहीं।
अधिक मुख वाले रुद्राक्ष एवं एकमुखी रुद्राक्ष महंगे होने के कारण नकली भी बना लिए जाते हैं। प्रायः कम मुखी रुद्राक्ष में अतिरिक्त मुख की धारियां बना दी जाती हैं जिससे कम मूल्य का रुद्राक्ष अधिक मूल्य का हो जाता है। इस तथ्य की जांच करने के लिए रुद्राक्ष को बीच से काटकर फांकों की गिनती की जा सकती है। दूसरे, अनुभव द्वारा इन कृत्रिम धारियों और प्राकृतिक धारियों में अंतर किया जा सकता है। कभी-कभी दो रुद्राक्षों को जोड़कर भी एक महंगा रुद्राक्ष बना लिया जाता है। गौरी शंकर, गौरी गणेश या त्रिजुटी रुद्राक्ष अक्सर इस प्रकार बना लिए जाते हैं। इसकी जांच के लिए यदि रुद्राक्ष को पानी में उबाल दिया जाए तो नकली रुद्राक्ष के टुकड़े हो जाएंगे जबकि असली रुद्राक्ष ज्यों का त्यों रह जाएगा। कई बार नकली रुद्राक्ष को भारी करने के लिए छिद्रों में पारा या सीसा भर दिया जाता है। उबालने से यह पारा या सीसा बाहर आ जाता है और रुद्राक्ष तैरने लगता है। कई बार देखने में आता है कि रुद्राक्ष पर सर्प, गणेश, त्रिशूल आदि बने होते हैं। ये सभी आकृतियां प्राकृतिक नहीं होती हैं, इस प्रकार के रुद्राक्ष केवल नकली ही होते हैं। अतः महंगे रुद्राक्ष किसी विश्वसनीय प्रतिष्ठान से ही खरीदना उचित है।