Friday 8 July 2016

कब होगी मकान सुख की प्राप्ति: ज्योतिष्य विश्लेषण

इंसान की प्रथम जरुरत रोटी, कपड़ा व मकान की प्राप्ती करना होता हैं। आज के समय में रोटी कपड़ा सभी को असानी से प्राप्त हो जाता हैं। परन्तु मकान का सुख सभी को प्राप्त नही हो पाता। जनसंख्या का विस्फोटक विस्तार स्थान की कमी उत्पन्न करता हैं। ऐसे समय में कई लोगों को ऐडी-चौटी का जोर लगाने पर भी मकान सुख नही मिल पाता। जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव से मकान के सुख के बारें में जाना जाता हैं। मंगल भूमि पुत्र होने के कारण मकान व जमीन का कारक हैं। शुक्र और शनि भी मकान का सुख देने वाले ग्रह हैं। किन स्थितियों में ग्रह मकान सुख देते हैं आइये इससे विस्तार से समझें...
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति की कुंडली देखकर यह बताया जा सकता है कि उसके पास स्वयं का घर होगा या नहीं या फिर वह कितने मकानों का मालिक होगा। मनुष्य जीवन में एक ड्रीम हॉउस / स्वप्न महल / सुंदर सा एक बंगला बने न्यारा, ऐसी प्राय: सभी की इच्छा रहती है। कुछ भाग्यवानों को यह सुख कम आयु में ही प्राप्त हो जाता है। तो कुछेक लोग पूरी जिंदगी किरायेदार होकर ही व्यतीत कर देते है। पूर्व जन्म के शुभाशुभ कर्मो के अनुसार ही भवन सुख की प्राप्ति होती है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार भवन सुख हेतु कुण्डली मे चतुर्थ भाव व चतुर्थेश का महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी भवन पर ग्रहों का भी शुभाशुभ प्रभाव अवश्य पड़ता है। लाल किताब के अनुसार वास्तु संबंधी दोषों के निवारण के बारे में इस लेख में उल्लेख है। लाल किताब में वास्तु अर्थात भवन या मकान का कारण ग्रह शनि है। किसी की जन्मकुंडली में शनि उच्च का हो तो उसे भवन सुख मिलता है। इसके विपरीत शनि, नीच, अस्त या क्षीण शत्रु ग्रहों से युक्त हो तो जातक को मकान सुख से वंचित रखता है।
किसी भी जन्मकुंडली में भारतीय ज्योतिषानुसार चतुर्थ स्थान मकान कारक माना गया ह।ै लेिकन लाल किताब में मकान का कारक द्वितीय स्थान या दूसरे घर को माना गया है। सातवें भाव से भी भवन के सुख-दुख का विचार किया जाता है। जिस तरह किसी भी जन्मकुंडली में ग्रहों की स्थिति दर्शाई जाती है, उसी तरह लाल किताब में भी किसी भी मकान में किस स्थान पर किस ग्रह से संबंधित वस्तु रखने या न रखने से क्या प्रभाव होता है। इसके संकेत दिये गये हैं। लाल किताबनुसार मकान में वस्तुएं निम्न ग्रहों अनुसार रखनी चाहिए। उपरोक्तानुसार ग्रह से संबंधित वस्तुएं, जहां ग्रह की स्थिति दर्शाई गई है उसी स्थान या दिशा में रखने से भवन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। ठीक इसके विपरीत रखने पर खराब प्रभाव मकान पर पड़ेगा। मनुष्य पर ग्रहों का शुभाशुभ प्रभाव पड़ता है और लाल किताब में ग्रहों को जजों की संज्ञा दी गयी है। इसमें भी शनि को मुख्य न्यायाधीश माना गया है अत: शनि का भावानुसार शुभाशुभ फल प्रथम बतलाए जा रहे हैं। किसी भी व्यक्ति द्वारा जब स्वयं का मकान बनाया जाता है तो मकान बनाने के प्रारंभिक 3 से 18वर्षों के दौरान शनि का उस भवन पर शुभाशुभ प्रभाव पड़ता है, जिससे व्यक्ति का जीवन भी प्रभावित होता है।
* लाल किताब के अनुसार जन्मकुंडली में यदि शनि पहले घर में हो और सातवां व दसवां घर खाली हो तो शुभ फलों की प्राप्ति होती है। वरना वह लोगों का ऋणी हो जाता है और उसे नुकसान होता है।
* यदि शनि दूसरे स्थान में हो तो व्यक्ति मकान का निर्माण मध्य में न रोकें। ऐसा करने से सुखी रहेगा वरना उप परिणाम भुगतने होंगे।
* यदि शनि तीसरे घर में हो तो व्यक्ति मकान बना लेने के बाद तीन कुश्रे पाले। ऐसा करने से व्यक्ति सुखी रहेगा वरना दुख भोगने होंगे।
* यदि शनि चैथे घर में हो तो व्यक्ति किराए के मकान में रह ले, वही अच्छा है। क्योंकि निजी मकान बनवाने से सास, माँ, मामा, दादी आदि को कष्ट उठाने होंगे।
* यदि शनि पांचवे घर में हो और व्यक्ति निजी मकान बनवाए तो संतान को पीड़ा रहेगी। इसके विपरीत यदि संतान द्वारा निर्मित मकान में रहे तो ठीक होगा। व्यक्ति स्वयं का मकान यदि बनवाए तो 48की उम्र पार करके ही बनवाए। मकान बनवाने से पहले खुदाई के समय या उससे पहले काले भैंसे को खूब खिला-पिलाकर पूजन करके छोड़ दें इसे अशुभ फल नष्ट हो जाएगा।
* यदि शनि छठे घर में हो तो व्यक्ति 36से 39 की उम्र होने पर ही मकान बनावाए अन्यथा बेटी की ससुराल में परेशानी उत्पन्न जो जाएगी।
* यदि शनि सातवें घर में हो तो व्यक्ति मकान बनवाने पर सुखी रहता है तथा वह एक के बाद एक मकान बनाता है या बना हुआ ही खरीदता रहता है। ऐसा तभी होता है जब शनि शुभ हो। वरना अपना भी मकान बेचना पड़ता है। लेकिन मकान के बिकने तक अर्थात सौदा होने के बाद खरीदने वाला आकर रहने लगे, उससे पूर्व तक यदि वह उस मकान की देहली को पूजे तो फिर से मकान बना लेता है।
* यदि शनि आठवें घर में हो, व्यक्ति मकान बनाने लगे तो उसे कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह कष्ट में रहता है। लेकिन राहु-केतु यदि शुभ हों तो अच्छे फल भी मिलते हैं।
* यदि शनि नवें घर में हो तो व्यक्ति नया मकान बनाना तब प्रारंभ करे जब घर में कोई स्त्री गर्भ से हो। ऐसा व्यक्ति मकान निर्माण में अपना पैसा लगाएगा तो पिता की मौत देखेगा। इसका हल है कि अपना पैसा ऋण चुकाने में उपयोग करें। मकान एक या दो ही बनाएं।
* यदि शनि दसवें घर में हो और व्यक्ति अपना मकान बनाकर रहे तो उसे सुख प्राप्त नहीं होता। अपने मकान में जाते ही वह दरिद्र हो जाता है। इससे अच्छा यही है कि वह किराए के मकान में रहे।
* यदि शनि ग्यारहवें घर में हो तो व्यक्ति बुढ़ापे में मकान बनवाता है।
* यदि शनि बारहवें घर में हो तो व्यक्ति को आयताकार मकान बनवाना शुभ रहेगा। मकान बनवाते समय अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अत: धीरे-धीरे बनवाने में ही फायदा है, लेकिन बनवाता रहे। निर्माण कार्य रोके नहीं।
जातक तत्व के अनुसार ‘‘गृह ग्राम चतुष्टपद मित्र क्षेत्रो।’’ अर्थात भवन सुख हेतु चतुर्थ भाव, चतुर्थेश की कुण्डली में शुभ एवं बलवान होकर स्थित होना जातक को उत्तम भवन सुख की प्राप्ति करवाता है तो निर्बल होकर स्थित होना लाख चाहने पर भी उचित भवन की व्यवस्था नहीं करवा पाता। चतुर्थ भाव में चतुर्थेश होना व लग्न में लग्नेश होने से या दोनों में परस्पर व्यत्यय हाने से एवं शुभ ग्रहो के पूर्ण दृष्टि प्रभाव का होना भी जातक को उत्तम भवन सुख की प्राप्ति करवाता है। मकान/भवन सुख प्राप्ति के कुछ ज्योतिषिय योग -
1. लग्नेश से युक्त होकर चतुर्थेश सर्वोच्च या स्वक्षेत्र में हो तो भवन सुख उत्तम होता है।
2. तृतीय स्थान में यदि बुध हो तथा चतुर्थेश का नंवाश बलवान हो, तो जातक विशाल परकोट से युक्त भवन स्वामी होता है।
3. नवमेश केन्द्र में हो, चतुर्थेश सर्वोच्च राशि में या स्वक्षेत्री हो, चतुर्थ भाव में भी स्थित ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो जातक को आधुनिक साज-सज्जा से युक्त भवन की प्राप्ति होगी
4. चतुर्थेश व दशमेश, चन्द्र व शनि से युति करके स्थित हो तो अक्समात ही भव्य बंगले की प्राप्ति होती है।
5. कारकांश लग्न में यदि चतुर्थ स्थान में राहु व शनि हो या चन्द्र व शुक्र हो तो भव्य महल की प्राप्ति होनी है।
6. कारकांश लग्न में चतुर्थ में उच्चराशिगत ग्रह हो या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में स्थित हो तो जातक विशाल महल का सुख भोगता है।
7. यदि कारकांश कुण्डली में चतुर्थ में मंगल व केतु हो तो भी पक्के मकान का सुख मिलता है।
8. यदि चतुर्थेश पारवतांश में हो, चन्द्रमा गोपुरांश में हो, तथा बृहस्पति उसे देखता हो तो जातक को बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय सुखों जैसे घरो की प्राप्ति होती है।
9. यदि चतुर्थेश व लग्नेश दोनों चतुर्थ में हो तो अक्समात ही उत्तम भवन सुख प्राप्त होता है।
10. भवन सुखकारक ग्रहो की दशान्तर्दशा में शुभ गोचर आने पर सुख प्राप्त होता है।
11. चतुर्थ स्थान, चतुर्थेश व चतुर्थ कारक, तीनों चर राशि में शुभ होकर स्थित हों या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में हो या लग्नेश, चतुर्थेश व द्वितीयेश तीनो केन्द्र त्रिकोण में, शुभ राशि में हों, तो अनेक मकानों का सुख प्राप्त होता है। यदि भवन कारक भाव-चतुर्थ में निर्बल ग्रह हो, तो जातक को भवन का सुख नही मिल पाता। इन कारकों पर जितना पाप प्रभाव बढ़ता जाएगा या कारक ग्रह निर्बल होते जाएंगे उतना ही भवन सुख कमजोर रहेगा। पूर्णयता निर्बल या नीच होने पर आसमान तले भी जीवन गुजारना पड़ सकता है। किसी स्थिति में जातक को भवन का सुख कमजोर रहता है, या नहीं मिल पाता इसके कुछ प्रमुख ज्योतिषीय योगों की और ध्यान आकृष्ट करें तो पाते हैं कि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश का रहना प्रमुख है।
इसके अतिरिक्त भवन/मकान प्राप्ति के कुछ ज्योतिषिय योग...
* कारकांश कुण्डली में चतुर्थ स्थान में बृहस्पति हो तो लकड़ी से बने घर की प्राप्ति होती है। यदि सूर्य हो तो घास फूस से बने मकान की प्राप्ति होती है। चतुर्थेश, लग्नेश व द्वितीयेश पर पापग्रहों का प्रभाव अधिक होने पर जातक को अपने भवन का नाश देखना पडता है।
* चतुर्थेश अधिष्ठित नवांशेष षष्ठ भाव में हो तो जातक को भवन सुख नही मिलता। चतुर्थेश व चतुर्थ कारक यदि त्रिक भावो में स्थित हो तो जातक को भवन सुख की प्राप्ति नही होती। शनि यदि चतुर्थ भाव मे स्थित हो तो जातक को परदेश में ऐसे भवन की प्राप्ति होगी, जो टुटा-फूटा एवं जीर्ण-शीर्ण पुराना हो।
* द्वितीय, चतुर्थ, दशम व द्वादश का स्वामी, पापग्रहो के साथ त्रिक स्थान में हो, तो भवन का नाश होता है।
* चतुर्थ भावस्थ पापग्रह की दशा में भवन की हानि होती है। भवन सुख हेतु कुण्डली में इसके अतिरिक्त नवम, दशम, एकादश, पंचम भावो भाव का बल भी परखना चाहिए। क्योकि इन भावो के बली होने पर जातक को अनायाश ही भवन की प्राप्ति होते देखी गई है। इन भावों में स्थित ग्रह, यदि शुभ होकर बली हो व भावेश भी बली होकर स्थित हो तो निश्चयात्मक रूप से उत्तम भवन सुख मिलता है। भवन सुख हेतु बाधक ग्रह का वैदिक उपाय करने पर भवन सुख अवश्य मिलता हैं।
कुछ योग जिनसे आप जान सकते हैं कि आपके भाग्य में कितने मकान हैं-
1- जन्म कुण्डली के चौथे भाव में या चौथे भाव का स्वामी चर राशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) में हो और चौथे भाव का स्वामी शुभ ग्रहों से युत हो तो ऐसा व्यक्ति अनेक भवनों में रहता है और उसे अनेक भवन बदलने पड़ते हैं। यदि चर की जगह स्थिर राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) हो तो व्यक्ति के पास स्थाई भवन होते हैं।
2. जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) बली हो तथा लग्न का स्वामी, चौथे भाव का स्वामी, दूसरे भाव का स्वामी इन तीनों में से जितने ग्रह केंद्र-त्रिकोण (1, 4, 5, 7, 10) भाव में हो उतने भवन होते हैं।
3. जन्मकुण्डली में नौंवे भाव का स्वामी दूसरे भाव में और दूसरे भाव का स्वामी नौवें भाव में स्थित हो अर्थात परिवर्तन योग हो तो ऐसे व्यक्ति का भाग्योदय बारहवें वर्ष में होता है और 32 वें वर्ष के उपरांत उसे वाहन, भवन और नौकर का सुख मिलता है।
भूमि/भवनसुख दायक प्रयोग:
1. यदि आपको लगता है कि आपके पास ही घर क्यों नहीं है? आपके पास ही संपत्ति क्यों नहीं है? क्या इतनी बड़ी दुनिया में आपको थोड़ी सी जगह मिलेगी भी या नहीं, तो परेशान मत होइए केवल कूर्म स्वरुप विष्णु जी की पूजा कीजिये, विष्णु जी की प्रतिमा के सामने कूर्म की प्रतिमा रखें या कागज पर बना कर स्थापित करें। इस कछुए के नीचे नौ बार नौ का अंक लिख दें। भगवान् को पीले फल व पीले वस्त्र चढ़ाएं, तुलसी दल कूर्म पर रखें और पुष्प अर्पित कर भगवान् की आरती करें। आरती के बाद प्रसाद बांटे व कूर्म को ले जा कर किसी अलमारी आदि में छुपा कर रख लें। इस प्रयोग से भूमि संपत्ति भवन के योग रहित जातक को भी इनका सुख प्राप्त होता है
२. सोते समय अपने सिरहाने तांबे के पात्र में जल भरें और उस जल में एक चुटकी रोली एवं एक छोटी डली गुड की रखें। सुबह उठकर उस जल को पीपल के वृक्ष में डाल दें। यह उपाय करने से भवन बाधा समाप्त हो जाएगी
३. शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार को आप सांध्यकाल में निकट के किसी भी हनुमान मन्दिर में चमेली के तेल का दीपक और गुग्गुल की धूप के साथ आठ सौ ग्राम साबूत चने एवं सवा सौ ग्राम गुड का नैवेद्य अर्पित कर श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें। इसके पश्चात् हनुमानजी के बायें पैर के सिन्दूर से स्वयं का तिलक करें। नैवेद्य के चने और गुड में से थोडा-थोडा एक स्थान पर निकालकर बाकी को बांट दें। निकाली हुई सामग्री के साथ सवा किलो तथा सवा किलो गुड मिलाकर, चने बन्दरों को खिला दें और गुड गाय को खिला दें। इसके पश्चात् नित्य श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें।
योग निष्कर्ष:
घर का सुख देखने के लिए मुख्यत: चतुर्थ स्थान को देखा जाता है। फिर गुरु, शुक्रऔर चंद्र के बलाबल का विचार प्रमुखता से किया जाता है। जब-जब मूल राशि स्वामी या चंद्रमा से गुरु, शुक्र या चतुर्थ स्थान के स्वामी का शुभ योग होता है, तब घर खरीदने, नवनिर्माण या मूल्यवान घरेलू वस्तुएँ खरीदने का योग बनता है। व्यक्ति के जीवन पुरुषार्थ, पराक्रम एवं अस्तित्व की पहचान उसका निजी मकान है। महंगाई और आबादी के अनुरूप हर व्यक्ति को मकान मिले यह संभव नहीं है। आधी से ज्यादा दुनिया किराये के मकानों मेंं रहती है। कुछ किरायेदार, जबरदस्ती मकान मालिक बने बैठे हैं। कुछ लोगों को मकान हर दृष्टि से फलदायी है। कोई टूटे-फूटे मकानों मेंं रहता है तो कोई आलिशान बंगले का स्वामी है। सुख-दुख जीवन के अनेक पहलुओं पर मकान एक परमावश्यकता बन गई है।
जन्मपत्री मेंं भूमि का कारक ग्रह मंगल है। जन्मपत्री का चौथा भाव भूमि व मकान से संबंधित है। चतुर्थेश उच्च का, मूलत्रिकोण, स्वग्रही, उच्चाभिलाषी, मित्रक्षेत्री शुभ ग्रहों से युत हो या शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो अवश्य ही मकान सुख मिलेगा।
साथ ही मंगल की स्थिति का सुदृढ़ होना भी आवश्यक है। मकान सुख के लिये मंगल और चतुर्थ भाव का ही अध्ययन पर्याप्त नहीं है। भवन सुख के लिये लग्न व लग्नेश का बल होना भी अनिवार्य है। इसके साथ ही दशमेंश, नवमेंश और लाभेश का सहयोग होना भी जरूरी है।
1. स्वअर्जित भवन सुख (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- लग्नेश चतुर्थ स्थान मेंं हो चतुर्थेश लग्न मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्म लेने वाला जातक पराक्रम व पुरुषार्थ से स्वयं का मकान बनाता है।
2. उत्तम ग्रह योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश किसी शुभ ग्रह के साथ युति करे, केंद्र-त्रिकोण (1, 4, 7, 9, 10) मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति को अपनी मेहनत से कमाये रुपये का मकान प्राप्त होता है। मकान से सभी प्रकार की सुख सुविधायें होती है।
3. अकस्मात घर प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और लग्नेश दोनों चतुर्थ भाव मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- अचानक घर की प्राप्ति होती है। यह घर दूसरों का बनाया होता है।
4. एक से अधिक मकानों का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ स्थान पर चतुर्थेश दोनों चर राशियों मेंं (1, 4, 7, 10) हो। चतुर्थ भाव के स्वामी पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो एक से अधिक मकान प्राप्ति के योग बनते हैं।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति के अलग-अलग जगहों पर मकान होते हैं। वह मकान बदलता रहता है।
5. वाहन, मकान व नौकर सुख योग (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- नवमेंश, दूसरे भाव मेंं और द्वितीयेश नवम भाव मेंं परस्पर स्थान परिवर्तन करें तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्मेंं जातक का भाग्योदय 12वें वर्ष मेंं होता है। 32वें वर्ष के बाद जातक को वाहन, मकान और नौकर-चाकर का सुख मिलता है।
6. बड़े बंगले का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव मेंं यदि चंद्र और शुक्र हो अथवा चतुर्थ भाव मेंं कोई उच्च राशिगत ग्रह हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।
7. बिना प्रयत्न प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- लग्नेश व सप्तमेंश लग्न मेंं हो तथा चतुर्थ भाव पर गुरु, शुक्र या चंद्रमा का प्रभाव हो।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा, जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।
8. बिना प्रयत्न ग्रह प्राप्ति का दूसरा योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव का स्वामी उच्च, मूल त्रिकोण या स्वग्रही हो तथा नवमेंश केंद्र मेंं हो तो ये योग बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को बिना प्रयत्न के घर मिल जाता है।
9. ग्रहनाश योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश के नवमांश का स्वामी 12वें चला गया हो तो, यह दोष बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को अपनी स्वयं की संपत्ति व घर से वंचित होना पड़ता है।
10. उत्तम कोठी योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और दशमेंश एक साथ केंद्र त्रिकोण मेंं हो तो उत्तम व श्रेष्ठ घर प्राप्त होता है।
परिणाम- कोठी, बड़ा मकान व संपत्ति प्राप्ति होती है।

प्रेम विवाह के बाद प्रेम गायब -जाने क्या है इसके ज्योतिषीय कारण

सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे प्राचीन काल में गंर्धव विवाह के रूप में मान्यता प्राप्त थी। आज के आधुनिक काल में इसे ही प्रेम विवाह का रूप माना जा सकता है। इस विवाह में वर-वधु की पारस्परिक सहमति के अतिरिक्त किसी की आज्ञा अपेक्षित नहीं होती। पुराणों में वणिर्त पुरूष और प्रकृति के प्रेम के साथ आज के युग में प्रचलित प्रेम विवाह देश और काल के निरंतर परिवर्तनशील परिस्थितियों में प्रेम और उससे उत्पन्न विवाह का स्वरूप सतत रूपांतरित होता रहा है किंतु एक सच्चाई है कि सामाजिकता का हवाला दिया जाकर विरोध के बावजूद आज भी यह परंपरा अपारंपरिक तौर पर मौजूद है। अत: इसका ज्योतिषीय कारण देखा जाना उचित प्रतीत होता है। जन्मांग में प्रेम विवाह संबंधी संभावनाओं का विष्लेषण करते समय सर्वप्रथम पंचमभाव पर दृष्टि डालनी चाहिए। पंचम भाव से किसी जातक के संकल्प-शक्ति, इच्छा, मैत्री, साहस, भावना ओर योजना-सामथ्र्य आदि का ज्ञान होता है। सप्तम भाव से विवाह, दाम्पत्य सुख, सहभागिता, संयोग आदि का विचार किया जाता है। अत: प्रेम विवाह हेतु पंचम एवं सप्तम स्थान के संयोग सूत्र अनिवार्य हैं। सप्ताधिपति एवं पंचमाधिपति की युति, दोनों में पारस्परिक संबंध या दृष्टि संबंध हेाना चाहिए। प्रेम विवाह समान जाति, भिन्न जाति अथवा भिन्न धर्म में होगा इसका विचार करने हेतु नवम भाव पर विचार किया जाना चाहिए। स्फुट रूप से एकादश और द्वितीय स्थान भी विचारणीय है, क्योंकि एकादश स्थान इच्छापूर्ति और द्वितीय भाव पारिवारिक सुख संतोष के अस्तित्व को प्रकट करता है। चंद्रमा मन का कारक ग्रह है। प्रेम विवाह हेतु चंद्रमा की स्थिति प्रबलता, ग्रहयुति आदि का भी प्रभाव पड़ता है। जिनके जीवन में इस प्रकार के प्रभाव से विवाह में रूकावट या कष्ट हों उन्हें शिव-पावर्ती की पूजा सोमवार का व्रत करते हुए करना चाहिए तथा शंकर मंत्र का जाप करने से बाधा दूर होती है।
सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे पुरातन काल में गंर्धव विवाह और आधुनिक काल में प्रेमविवाह का नाम दिया जाता है। जब भी कोई अपनी पसंद रखता तब वह प्रेम करता है। जब प्रेम होता है तो विवाह भी तमाम विरोध के बावजूद करता है किंतु कुछ समय के बाद ही आपस में ही मतभेद दिखाई देते हैं। ज्योतिषीय रूप देखा जाए तो प्रेम करने हेतु लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम, दसम या द्वादश स्थान में शनि अथवा गुरू, शुक्र, चंद्रमा, राहु या सप्तमेश अथवा द्वादशेश शनि से आक्रांत हो तो ऐसे लोगों को प्यार जरूर होता है। चूॅकि शनि स्वायत्तशासी बनाता है अत: प्रेम के बाद स्वयं की स्वेछा से कार्य करने के कारण अपने प्यार से ही पंगा भी कर लेते हैं। अत: जो ग्रह प्यार का कारक है वहीं ग्रह प्यार में पंगा भी देता है। अत: अगर किसी के प्यार में पंगा हो जाए तो उसे तत्काल शनि की शांति कराना चाहिए। इसके साथ शनि के मंत्रों का जाप, काली चीजों का दान एवं व्रत करना चाहिए। इससे प्यार हो और वह प्यार निभ भी जाए।

अचानक संपत्ति नष्ट और मृत्यु होना....ज्योतिषीय योग

अगर जन्मकुंडली में लग्नेश शुक्र वक्री होकर क्रूर ग्रह सूर्य के साथ युति बनता है तो और क्रूर ग्रह मंगल जो कि तुला लग्न के लिए अशुभ ग्रह है, उससे पूर्ण दृष्ट तो, उसके प्रभाव से स्वभाव में अधिक रिस्क लेने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। स्वराशिगत सूर्य लाभ भाव में होने से यह उच्च महत्वाकांक्षी विचारों वाले व्यक्ति होते है। चतुर्थेश शनि ग्रह तीव्र गति वाले ग्रह चंद्र की राशि में स्थित होने से यह संकेत देते है कि वे व्यक्ति तीव्र वेग से चलने वाले वाहन आदि का शौक रखते है। चतुर्थ स्थान का कारक ग्रह, चंद्रमा, आकाश तत्व ग्रह की राशि पर स्थित होने से तथा आकाश तत्व ग्रह बृहस्पति की चतुर्थेश वायुतत्व ग्रह शनि पर पूर्ण दृष्टि होने से उनके पास आकाश में विचरण करने वाले वायुयान की निजी सुख-सुविधा प्राप्त होती है। संपत्ति के स्वामी चतुर्थेश शनि की दसवें स्थान से अपने घर पर पूर्ण दृष्टि है। शनि योगकारक है तथा केंद्र में स्थित होने से इसके प्रभाव से उन्हें सुंदर आलीशान घर भी बनवाते है लेकिन षष्ठेश शत्रु घर के स्वामी बृहस्पति की चतुर्थेश शनि पर दृष्टि होने से विरोधी शत्रुओं के षड्यंत्र के द्वारा भी उनकी संपत्ति नष्ट हो जाती है।
लग्नेश, अष्टमेश, लग्न भाव, अष्टम भाव की स्थिति पर विचार करें, तो लग्नेश ग्रह शुक्र जो कि तुला लग्न के लिए अष्टमेश भी है, वह क्रूर ग्रह सूर्य की युति में और क्रूर ग्रह प्रबल मारकेश मंगल से दृष्ट है। अगर लग्न पर किसी भी शुभ एवं पाप ग्रहों की दृष्टि नहीं है। वह तटस्थ है अर्थात् न अधिक शुभ और न ही अधिक अशुभ है। दूसरी ओर अष्टम जो कि मृत्यु का भाव है, वह मारकेश मंगल तथा अशुभ ग्रह केतु से ग्रसित होने के कारण अत्यंत पापपीडि़त होते है, जिसके कारण इस जातक की मध्य आयु में अचानक आघात होने से मृत्यु हुई। अन्य रीति से भी आयु का अवलोकन करें, तो अष्टम भाव से अष्टम तृतीय भाव भी आयु स्थान है। वह भी मारकेश मंगल से पूर्ण दृष्ट है एवं आयु कारक शनि भी अकारक ग्रह षष्ठेश बृहस्पति से दृष्ट है तथा चंद्रमा भी अशुभ भाव में मारकेश मंगल से दृष्ट है। इन सभी अशुभ ग्रह योगों के कारण यह जातक लंबी आयु का सुख प्राप्त नहीं कर सका। जब इनकी मृत्यु हुई उस समय चंद्र में शनि की अंतर्दशा तथा बृहस्पति की प्रत्यंतर्दशा में मंगल की सूक्ष्म दशा चल रही थी तथा गोचर में मंगल लग्नेश शुक्र के ऊपर से गोचर कर रहा था, दशानाथ चंद्रमा भी अष्टम से अष्टम स्थान में स्थित है तथा अंतर्दशानाथ शनि भी राहु से दृष्ट है एवं प्रत्यंतर्दशानाथ बृहस्पति भी अशुभ भाव छठे में है तथा उसी भाव का भावेश भी है। सूक्ष्म प्रत्यंतर्दशा का स्वामी मंगल भी प्रबल मारकेश होकर मृत्यु भाव में स्थित है, यह इनके लिए मारक सिद्ध हुआ।

पारिवारिक कलह: ज्योतिष कारण व निवारण

ज्योतिष में सप्तम भाव अपने साथी का भाव माना गया है- वह जीवन साथी हो या व्यापार में साझेदार। सप्तम भावेश लग्नेश का सर्वदा शत्रु होता है। जैसे मेष, लग्न के लिए लग्नेश हुआ मंगल एवं सप्तमेश हुआ शुक्र और दोनों में आपस में शत्रुता है। शायद हमारे ऋषि मुनियों को यह ज्ञात था कि साथ में कार्य करने वालों में मतभेद होता ही है, इसलिए उन्होंने इस प्रकार के ज्योतिष योगों का निर्माण किया।
यदि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव से बंधा हुआ है। इसके विपरीत चलने में उसे कष्ट होता है। साथ ही दूसरे को भी वह अपने स्वभाव के समानांतर चलाने की कोशिश करता है। यह प्रकृति का एक नियम है। लेकिन दो व्यक्तियों के स्वभाव आपस में कितने भिन्न हैं यह ज्योतिष द्वारा दोनों के लग्नों एवं राशियों के माध्यम से ज्ञात किया जा सकता है। इससे संबद्ध कुछ तथ्य इस प्रकार हैं:
* यदि लग्न एक दूसरे के 3-11 हो तो आपसी सामजस्य उत्तम रहता है। एक लग्न दूसरे को मित्र मानता है तो दूसरा पहले को अपना पराक्रम अर्थात कष्ट का साथी। जैसे मेष लग्न के लिए मिथुन लग्न उसका पराक्रम का साथ है एवं कुंभ लग्न उसका मित्र।
* लग्नों में 4-10 का संबंध भी उत्तम रहता है, लेकिन व्यापारिक में साझेदारी यह संबंध अति उत्तम पाया गया है। जिसका लग्न दशम भाव में हो, वह कर्मशील रहता है और जिसका चौथे में हो, वह आर्थिक व मानसिक सहायता द्वारा अपना योगदान देता है। जैसे मेष व कर्क लग्नों की साझेदारी में कर्क लग्न मेष के चैथे भाव में पड़ता है, अत: मेष लग्न के जातक के लिए कर्क लग्न का जातक आर्थिक व मानसिक सहायता प्रदान करेगा और कर्क लग्न के लिए मेष लग्न वाला जातक कर्म द्वारा अपने कार्यभार संभालेगा।
* नवम-पंचम संबंध भी शुभ फल प्रदान करता है। लेकिन जिस जातक का लग्न दूसरे के नवम का सूचक होता है, वह अपने साथी के लिए सर्वदा भाग्य का सूचक रहता है एवं साथी को हर प्रकार का सुख पहुंचाता है। इसके विपरीत पंचम कारक जातक अपने साथी के लिए पिता जैसा व्यवहार तो रखता है, लेकिन साथी से सर्वदा लेने की भावना भी रखता है। इस प्रकार मेष लग्न के लिए सिंह लग्न शुभ होते हुए भी लाभ की स्थिति में रहता है जबकि मेष लग्न सिंह से नवम होने के कारण उसके लिए सर्वदा लाभकारी रहता है।
* द्विद्र्वादश संबंध सर्वदा अशुभ माना गया है, लेकिन इसमें भी दूसरे भाव में पडऩे वाला लग्न शुभदायक रहता है एवं द्वादश में पडऩे वाला अशुभ जैसे मेष के लिए वृष शुभ एवं मीन अशुभ।
* षडाष्टक संबंध अधिकांशत: कलह का कारण बनते हैं।
* समसप्तक संबंध अर्थात् एक लग्न या सप्तम लग्न एक साधारण संबंध की ओर ही संकेत करता है। इस स्थिति में एक जातक दूसरे जातक को अति महत्वपूर्ण एवं अभिन्न साथी समझता है, लेकिन साथ रहने पर किसी न किसी कारणवश वैमनस्यता उत्पन्न हो जाती है। उपर्युक्त सभी फल राशि के अनुसार भी घटित होते हैं।
* गुण मिलान में उपर्युक्त फलों की भकूट दोष के द्वारा जाना जाता है। उपर्युक्त तथ्यों का पिता-पुत्र, भाई-बहन, पति-पत्नी एवं नौकर-मालिक के संबंधों को जानने में भी उपयोग किया जा सकता है।
* कुंडली मिलान में अष्टकूट मिलान एवं मंगल दोष मिलान को प्राथमिकता दी गई है। अष्टकूट गुण मिलान में वर्ण एवं वश्य मिलान कार्यशैली को दर्शाता है। तारा से उनके भाग्य की वृद्धि में आपसी संबंध का पता चलता है। योनि-मिलान से उनके शारीरिक संबंधों की जानकारी मिलती है। ग्रह मैत्री स्वभाव में सहिष्णुता को दर्शाता है। गण मैत्री से उनका व्यवहार, भकूट से आपसी संबंध एवं नाड़ी से उनके स्वास्थ्य और संतान के बारे में जाना जाता है।
* उपर्युक्त अष्ट गुणों में केवल ग्रह मैत्री एवं भकूट ही ऐसे दो गुण हैं जो आपसी संबंध को दर्शाते हैं।
* अन्य गुण जीवन की अन्य भौतिकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं। मंगल दोष मिलान भी उनके अन्य संबंधों के बारे में संकेत न देकर वैवाहिक जीवन का संकेत देता है। अत: परिवार में यदि सभी सदस्यों का आपस में द्विद्र्वादश या षडाष्टक संबंध न हो तो पारिवारिक कलह की संभावनाएं कम रहती हैं।
* पुरुष वर्ग पांच मुखी रुद्राक्षों की माला में एक मुखी, आठ मुखी व पंद्रह मुखी रुद्राक्ष डालकर धारण करें। इस माला पर प्रतिदिन प्रात: ? नम: शिवाय मंत्र का जप करें।
* पत्नी मांग भरें, लाल बिंदी लगाएं और चूडिय़ां धारण करें। घर में विघ्नहर्ता श्री गणेश यंत्र स्थापित करें। स्फटिक श्रीयंत्र की प्राण प्रतिष्ठा कर स्थापित करें।
* ú नम: शिवशक्तिस्वरूपाय मम गृहे शांति कुरु कुरु स्वाहा मंत्र का जप करें।
* पति-पत्नी बीच कलह को दूर करने के लिए गौरी शंकर रुद्राक्ष धारण करना उत्तम फलदायक होता है।
* पानी से भरे चांदी के लोटे या गिलास में चंद्रमणि डालकर वह पानी परिवार के जिस सदस्य को क्रोध अधिक आता हो उसे पिलाएं।
* वास्तु दोष को दूर करने के लिए एक कलश में पानी भरकर उसे नारियल से ढककर ईशान कोण में स्थापित करें और उसका जल प्रतिदिन बदलते रहें।
* तात्पर्य यह कि परिवार में कलह की संभावना हमेशा रहती है। इसके कई कारण हो सकते हैं, किंतु यदि आस्था और निष्ठापूर्वक इनके निवारण के उपाय किए जाएं तो कलह से मुक्ति अवश्य मिल सकती है।

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Thursday 7 July 2016

भ्रष्टाचार के अंत के बाद ही आयेंगे अच्छे दिन......

आज देश के सामने कई प्रकार की समस्यायें हैं जिनके साथ हम रोजाना जूझ भी रहे हैं व उनके साथ जी भी रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या कौन सी है इसको लेकर समाज में अलग-अलग प्रकार के लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं। अनुभव ऐसा है कि जो जिस समय जिस समस्या से प्रभावित होता है उसके लिए वह उतनी ही बड़ी समस्या बन जाती हैं।
पर मेरे विचार से सबसे बड़ी समस्या वह है जिसे लोग समस्या मानना बन्द कर कर चुकें हैं और उसे अपने जीवन का एक हिस्सा मान कर जीने लगे हैं। और वह है भ्रष्टाचार। इस प्रकार देखा जाय तो भ्रष्टाचार आज देश की सबसे बड़ी समस्या बन गई है जिसे आज आम आदमी सहज ही स्वीकार कर ले रहा है। लेकिन अगर सोचा जाए तो देश में जो भी विकास के कार्य होने है या हुये हैं, केवल भ्रष्टाचार के कारण अच्छे या गुणवत्ता के साथ नहीं हो पाए, जिससे देश साल दर साल पीछे होता गया। अब समाज में इसे गलत नहीं समझा जाता बल्कि जो विरोध करता है उसे बेवकूफ या आदर्शवादी कह कर उसका मजाक बनाया जाता है। कुछ माह पूर्व तक समाज में सभी स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार आम चर्चा का विषय भी नहीं था। लोगों ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था- कि यह तो होगा ही या ये सब तो आवश्यक है।
भ्रष्टाचार का यह महारोग अभी पनपा है ऐसा नहीं है, मुगलों के समय में भी भ्रष्टाचार था पर वह आटे में नमक की तरह था। अंग्रेज तो भारत को लूटने ही आये थे इसलिये येन-केन-प्रकरेण अंग्रेजों ने तो हमें लूटा ही। पर आजादी के बाद आये प्रजातन्त्र में यह रूकना चाहिये था पर हुआ उल्टा देश मे पैदा हुये काले अंग्रेजों ने ही हमें लूटा ही नहीं बल्कि देश के भविष्य को भी गर्त में डाल दिया। भ्रष्टाचार की नाली दिन ब दिन चौड़ी होती गई और अब इसने महासागर का रूप ले लिया। कारण देश में प्रजातन्त्र तो आया पर प्रजा की सुनने वाला कोई तन्त्र नहीं बना। अगर देश का राजनैतिक नेतृत्व भ्रष्ट नहीं होता तो प्रजा भी ईमानदार बनी रहती। इन्हीं राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के कारण पारदर्शी तन्त्र को बनने नहीं दिया, उल्टे जनता को भी ईमानदार नहीं रहने दिया।
आज हमारे भारत देश में समस्यायों का अम्बार लगा हुआ है, वर्षो की गुलामी ने हमारे दिल और दिमाग पर गहरा असर डाला है। जो हो चुका उसे हम बदल तो नहीं सकते पर क्या उससे सबक लेकर सुधार नहीं कर सकते? क्या वाकई हमारे देश में काबलियत की कमी हो गयी है या फिर हमे समस्याओ में रहने की आदत ही पड़ गयी है और हम सुधार करना ही नहीं चाहत? या फिर हमने मान लिया है की अब इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं हो सकता और हमे इनकी आदत डाल लेनी ही होगी? यह बड़ा प्रश्न है।

Sakat Yog:Astrological aspects

As we know Moon is the fastest planet of the zodiac and completes its circle in about 27 plus days. By virtue of its movement Moon forms various yogas which have both qualities good and bad. Our findings suggest that Moon forms the maximum negative yogas in a single round that is why so much misery exists on this planet. Had Moon been forming positive rajayogas then the picture.
Invariably all the powerful rajayogas are distributed among the benefic planets. Jupiter being the benevolent planet among all the planetary hierarchy rules the roost in forming a wonderful rajayoga in a chart. The Moon is not only the fastest moving planet of the zodiac but it acts as a catalyst to form or distort rajayogas by its mere presence or placement. The second fastest planet is Mercury who also gets involved in making or destroying the destinies of people who take birth on this earth.
Rajayoga or yoga or yog is a Sanskrit word originated from the root yugm meaning when two different entities join hands that creates a yog. Since in astrology two or more heavenly bodies come across each other and form some kind of connection they give rise to a rajayoga which we study in astrology.
According to the seers of yore barring luminaries other five planets are capable of creating extremely powerful rajayogas known as “panch mahapurush” rajayogas. We have omitted Rahu and Ketu because they do not belong to planet category and are known as sub-planets. Panch Mahapurush yogas are formed by independent planets in a particular placement without the need or support of any other planet. Panch Mahapurush yogas need special treatment which we shall discuss some other time.
The Moon, Mercury and Jupiter are considered
Remembered the most important planets of astrology but are subject to vulnerability with a little affliction or placement. The trouble with Mercury is that it cannot be away from the Sun by more than 28 degrees therefore subject to combustion like a seasonal flu. There are many other factors which can take the wind out of Mercury if they are together with it or aspecting. An afflicted Mercury troubles the subject from all possible angles i.e. intellectual, social, financial, spiritual, relationship, health etc.
According to planetary hierarchy Jupiter is considered the Guru of devtas. Even the demon (rakshasa) or evil planets bow down to Jupiter because of his great knowledge and sacrificing qualities. The importance of Guru comes into existence only when a king, commander, disciple or follower is there. When king or follower stops following guru then guru has no influence on them. May be content and powerful in itself but it cannot influence others. There are many instances in mythology and history when the greatest of gurus has been sidelined by negative forces. The same way; when Guru or Jupiter is not well aligned with the planet with whom it is forming a rajayoga then that rajayoga has no or little value.
Gajkesari rajayoga is a very common rajayoga which is formed when Moon and Jupiter are together, square or in opposition with each other. Moon in its sojourn of the zodiac in 27 days must be forming gajkesari rajayoga for minimum 10 different days. According to this calculation about 40 % of people born on this earth will find gajkesari rajayoga in their chart. According to different texts on the subject a one single gajkesari rajayoga is capable of making the person king of the earth. It implies that the real powerful gajkesari rajayoga seldom forms in a chart.
Sakat yog means a combination of trouble or problems form when Jupiter and Moon are second-twelfth from each other or six-eighth to each other. According to this definition two houses should be involved but in reality four houses are involved when this sakat yog is formed. Moon could be either side of Jupiter from 1st to 7th house giving rise to a sakat (negative) yog.

कुंडली में कारक,अकारक और मारक ग्रह

ग्रहों को नैसर्गिक ग्रह विचार रूप से शुभ और अशुभ श्रेणी में विभाजित किया गया है। बृहस्पति, शुक्र, पक्षबली चंद्रमा और शुभ प्रभावी बुध शुभ ग्रह माने गये हैं और शनि, मंगल, राहु व केतु अशुभ माने गये हैं। सूर्य ग्रहों का राजा है और उसे क्रूर ग्रह की संज्ञा दी गई है। बुध, चंद्रमा, शुक्र और बृहस्पति क्रमशः उत्तरोत्तर शुभकारी हैं, जबकि सूर्य, मंगल, शनि और राहु अधिकाधिक अशुभ फलदायी हैं। कुंडली के द्वादश भावों में षष्ठ, अष्टम और द्वादश भाव अशुभ (त्रिक) भाव हैं, जिनमें अष्टम भाव सबसे अशुभ है। षष्ठ से षष्ठ - एकादश भाव, तथा अष्टम से अष्टम तृतीय भाव, कुछ कम अशुभ माने गये हैं। अष्टम से द्वादश सप्तम भाव और तृतीय से द्वादश - द्वितीय भाव को मारक भाव और भावेशों को मारकेश कहे हैं। केंद्र के स्वामी निष्फल होते हैं परंतु त्रिकोणेश सदैव शुभ होते हैं। नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्र के साथ ही 3, 6 या 11 भाव का स्वामी होकर अशुभ फलदायी होते हैं। ऐसी स्थिति में अशुभ ग्रह सामान्य फल देते हैं। अधिकांश शुभ बलवान ग्रहों की 1, 2, 4, 5, 7, 9 और 10 भाव में स्थिति जातक को भाग्यशाली बनाते हैं। 2 और 12 भाव में स्थित ग्रह अपनी दूसरी राशि का फल देते हैं। शुभ ग्रह वक्री होकर अधिक शुभ और अशुभ ग्रह अधिक बुरा फल देते हैं राहु व केतु यदि किसी भाव में अकेले हों तो उस भावेश का फल देते हैं। परंतु वह केंद्र या त्रिकोण भाव में स्थित होकर त्रिकोण या केंद्र के स्वामी से युति करें तो योगकारक जैसा शुभ फल देते हैं। लग्न कुंडली में उच्च ग्रह शुभ फल देते हैं, और नवांश कुंडली में भी उसी राशि में होने पर ‘वर्गोत्तम’ होकर उत्तम फल देते हैं। बली ग्रह शुभ भाव में स्थित होकर अधिक शुभ फल देते हैं। पक्षबलहीन चंद्रमा मंगल की राशियों, विशेषकर वृश्चिक राशि में (नीच होकर) अधिक पापी हो जाता है। चंद्रमा के पक्षबली होने पर उसकी अशुभता में कमी आती है। स्थानबल हीन ग्रह और पक्षबल हीन चंद्रमा अच्छा फल नहीं देते। कारक ग्रह: ‘कारक’ ग्रह के निर्धारण की विभिन्न विधियां इस प्रकार हैं: 1. महर्षि पाराशर तथा अन्य आचार्यों ने द्वादश भावों के कारक ग्रह इस प्रकार बताए हैं। प्रथम भाव- सूर्य, द्वितीय भाव-बृहस्पति, तृतीय भाव- मंगल, चतुर्थ भाव - चंद्रमा व बुध, पंचम भाव- बृहस्पति, षष्ठ भाव- मंगल व शनि, सप्तम भाव - शुक्र, अष्टम भाव- शनि, नवम भाव - बृहस्पति व सूर्य, दशम भाव- सूर्य, बुध, बृहस्पति व शनि, एकादश भाव- बृहस्पति और द्वादश भाव- शनि। 2. स्थिर कारक: सूर्य- पिता का, चंद्रमा-माता का, बृहस्पति-गुरु व ज्ञान का, शुक्र पत्नी व सुख का, बुध-विद्या का, मंगल भाई का, शनि नौकर का और राहु म्लेच्छ का स्थिर कारक है। 3. जैमिनी चर कारक: यह ग्रहों के अंशों पर निर्भर करता है। सर्वाधिक अंश वाले ग्रह को ‘आत्म कारक’, उससे कम अंश वाले ग्रह को ‘अमात्य कारक’, उससे कम अंश वाले को ‘भ्रातृ कारक’, उससे कम अंश वाले को ‘पुत्र कारक’ और सबसे कम अंश वाले ग्रह को ‘दारा कारक’ या पत्नी कारक’ की संज्ञा दी जाती है। ‘आत्म’ और ‘अमात्य’ कारक जातक का भला करते हैं। राहु/केतु कोई कारक नहीं होते। यदि लग्नेश ही आत्म कारक हो तो उसकी दशा बहुत शुभकारी होती है। ‘आत्म’ कारक ग्रह यदि अष्टमेश भी हो तो उसके शुभ फल में कमी आती है। 4. योगकारक: प्रत्येक ग्रह केंद्र (1, 4, 7, 10 भाव) का स्वामी होकर निष्फल होता है, परंतु त्रिकोण (1,5,9 भाव) का स्वामी सदैव शुभ फल देता है। एक ही ग्रह केंद्र और त्रिकोण का एक साथ स्वामी होने पर ‘योगकारक’ (अति शुभ फलदायी) बन जाता है। जैसे सिंह राशि के लिए मंगल, और तुला लग्न के लिए शनि ग्रह। लग्नेश केंद्र और त्रिकोण दोनों का स्वामी होने से सदैव योगकारक की तरह शुभफलदायी होता है। लग्नेश को 6, 8, 12 भाव के स्वामित्व का दोष नहीं लगता। 5. परस्पर कारक: जब ग्रह अपनी उच्च, मूलत्रिकोण या स्वराशि के होकर केंद्र में स्थित होते हैं तो ‘परस्पर कारक’ (सहायक) होते हैं। दशम भाव में स्थित ग्रह अन्य कारकों से अधिक फलदायी होता है। कुछ आचार्य पंचम भाव में बलवान शुभ ग्रह को भी ‘कारक’ की संज्ञा देते हैं। ‘मारक ग्रह’ ज्येतिष ग्रंथों के अनुसार निम्न ग्रह पीड़ित होने पर अधिक हानिकारक (मारक) बन जाते हैं:- 1. अष्टमेश 2. अष्टम भाव पर दृष्टिपात करने वाले ग्रह। 3. अष्टम भाव स्थित ग्रह 4. द्वितीयेश और सप्तमेश 5. द्वितीय और सप्तम भाव स्थित ग्रह 6. द्वादशेश 7. 22वें द्रेष्काॅण का स्वामी 8. गुलिका स्थित भाव का स्वामी 9. ‘गुलिका’ से युक्त ग्रह। 10. षष्ठेश, व षष्ठ भाव में स्थित पापी ग्रह आदि। ‘कारक’ व ‘मारक’ फलादेश 1. एक बली ‘कारक’ ग्रह अपनी भाव स्थिति, स्वामित्व भाव और दृष्ट भाव को शुभता प्रदान करता है। 2. केंद्र (1, 4, 7, 10) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा पूर्ण शुभ फल देती है। पनफर (2, 5, 8, 11) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा मध्यम फल’ और अपोक्लिम (3, 6, 9, 12) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा साधारण फल देती है। यह फलादेश ग्रह की दशा-भुक्ति में जातक को प्राप्त होता है। 3. पापकत्र्तरी योग में तथा पाप दृष्ट ‘कारक’ के शुभ फल में कमी आती है। 4. वक्री ‘कारक’ शुभ ग्रह अधिक शुभ फलदायी होता है। 5. किसी भाव का ‘कारक’ यदि उसी भाव में स्थित हो तो उस भाव संबंधी फल में कमी या कठिनाई देता है। यह स्थिति ‘कारको भाव नाशाय’ के नाम से प्रसिद्ध है। 6. एक ‘कारक’ ग्रह की दशा में अन्य ‘कारक’ की भुक्ति उत्तम फलदायी होती है। 7. ‘कारक’ ग्रह की दशा में संबंधित ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति निम्न फल देती है। 8. यदि ‘कारक’ और ‘मारक’ ग्रहों में दृष्टि आदि का संबंध न हो तो ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति कष्टकारी होती है। 9. एक ‘मारक’ ग्रह की दशा में अन्य ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति अत्यंत अशुभ फल देती है। 10. जब किसी भाव का ‘कारक’ उस भाव से 1, 5, 9 भाव में गोचर करता है और बलवान (स्वक्षेत्री या उच्च) होता है तो उस भाव का उत्तम फल व्यक्ति को मिलता है। 11. गोचर में भावेश और भाव ‘कारक’ की युति, दृष्टि आदि संबंध होने पर उस भाव संबंधी शुभ फल प्राप्त होता है। एक साथ ‘कारक’ और ‘मारक’ फलादेश दर्शाती कुंडली प्रस्तुत ह श्री लाल बहादुर शास्त्री, पूर्व प्रधानमंत्री जन्म समय राहु दशा बाकी- 10 वर्ष 7 मास 19 दिन। लग्नेश बृहस्पति पंचम भाव और मित्र राशि में स्थित होकर ‘कारक है। उसकी लग्न भाव और नवम भाव स्थित दशमेश बुध व पंचमेश मंगल पर दृष्टि है। नवमेश सूर्य और दशमेश बुध का राशि विनिमय ‘राजयोग’ का निर्माण करते हैं। बुध की दशा में उन्हें राजयोग का फल अन्य भुक्तियों में मिला और बुध-गुरु की दशा-भुक्ति में वे प्रधानमंत्री बने। बुध सप्तमेश (मारक) भी है। बुध की दशा में द्वितीय भाव स्थित द्वि तीयेश (मारक) शनि की भुक्ति ने प्रबल मारकेश का फल दिया। उनकी ताशकंत में अचानक हृदयाघात से मृत्यु हो गई थी।

विषमताओं का अविष्कृत समाधान इंप्रोवाइजेशन

विषमताओं का अविष्कृत समाधान इंप्रोवाइजेशन
इंप्रोवाइजेशन अव्यवस्था, अराजकता व विपरीत परिस्थितियों का विवेकपूर्ण समाघान का तकनीक है। वास्तव में संपूर्ण जीवन एक प्रयोगशाला है तथा इंप्रोवाइजेशन मनुष्य के द्वारा विषमताओं का अविष्कृत समाधान है। भारतीय परिवेश में यह अत्यंत समीचीन संदर्भित एवं आवश्यक है क्योंकि सामान्य दैनिक चर्या में भी हम हर तरह के इंप्रोवाइजेशन का उदाहरण पेष करते हैं। कोई व्यक्ति बहुत अच्छा से अपना जीवन कम से कम सुविधाओं में निकाल लेता है वहीं कई लोग सभी प्रकार से सक्षम, सभी का सहयोग प्राप्त करने के बाद भी असफलता का सामना करने हैं जीवन के इसी सूक्ष्म इंप्रोवाइजेशन को समझने के लिए किसी जातक की कुंडली में तीसरा स्थान देखना चाहिए। अगर किसी जातक की कुंडली तीसरे स्थान का स्वामी शनि, बुध मंगल जैसे ग्रह होकर अनुकूल स्थिति में हों तो ऐसा जातक जीवन में इंप्रोवाइजेशन कर सफल हो सकता है। अतः अपने जीवन में तीसरे स्थान के ग्रहों को अनुकूल कर इंप्रोवाइजेशन करियें और सफलता तथा यष प्राप्त करिये।

ज्योतिष्य सूत्रों से जाने क्यूँ आपके व्यवसाय में उतार-चढ़ाव आते हैं

आज के व्यवसायिक क्षेत्र की स्पर्धाओं के चलते किसी जातक के व्यवसाय का महत्व घट सकता है, क्योंकि नित्य कई संस्थाएॅ इस क्षेत्र में पदार्पण करती जा रही है, जिससे समान क्षेत्र में कार्य के साथ महत्व एवं पहचान बनाये रखना पहले की तुलना में कठिन होता जा रहा है। किसी भी क्षेत्र में बहुत अच्छी स्थिति से अचानक उतार दिखाई दे तो सबसे पहले कुंडली की गणना करानी चाहिए क्योंकि कार्य हेतु ज्योतिष विष्लेषण के अनुसार वाणिज्यकारक ग्रह बुध, ज्ञानकारक ग्रह गुरू, वैभवकारक ग्रह शुक्र तथा जनताकारक ग्रह शनि का महत्वपूर्ण योगदान कुंडली में होना आवष्यक है। इसके साथ ही कुंडली का लग्न, दूसरा, तीसरा, भाग्य, कर्मभाव व लाभभाव उत्तम होना भी जरूरी होता है। इसके साथ ही अष्टमभाव में राहु या राहु से पापाक्रांत उपयुक्त केाई ग्रह होने से भविष्य में कार्य में बाधा दिखाई देती है जोकि वित्तीय अनियिमितता के कारण संभव है चूॅकि कई बार व्यवसाय का धन व्यवसाय स इतर लगाने से व्यवसायिक हानि होती है। अतः उपयुक्त योग के साथ यदि कोई विपरीत स्थिति निर्मित हो रही हो तो ऐसे में अपनी कुंडली के अनुसार बाधा निवारण का उपाय करना लाभकारी होता है। जिसमें विषेषकर पितृषांति, दीपदान एवं सूक्ष्मजीवों की सेवा करना चाहिए।
पितृशांति कराने हेतु संपर्क करें--
पं.पी.एस.त्रिपाठी
मो न.- 9893363928,9424225005
फोन न.- 0771-4050500

मन में ईष्या का होना: जाने ज्योतिषीय कारण

इन्सान की फितरत है कि वो दूसरे को अपने से अधिक अकलमंद नहीं समझता। साथ ही दूसरो की सफलता, प्रसिद्धि, सुंदरता या व्यवहार को लेकर लगातार तुलना करता रहता है, और उसके मन की यही प्रवृति दूसरों के प्रति ईष्या का कारण बनती है। उसकी ईष्या से दूसरों का तो कुछ बुरा होता, लेकिन उसकी इस ईष्या से वो मानसिक और शरीरिक रुप से परेशान जरुर होता है। इन्सान को ईष्या के कारण अपने भले बुरे का ज्ञान भी नहीं होता। व्यक्ति को हमेशा ही ईष्या से दूरे रहना चाहिए या अपने मन में ही नही आने देना चाहिए क्यो कि ईष्या हमेशा मनुष्य को दुख देती है। ईष्या के कारण को ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी भी मनोवृत्ति के लिए तीसरा स्थान होता है, ईष्या भी मन के कारण पैदा होता है अतः यदि तीसरे स्थान का स्वामी सप्तम स्थान में बैठ जाए और सप्तमेश की स्थिति अच्छी हो तो ऐसे लोग अपने प्रतिद्व्रदी की अच्छी स्थिति को लेकर उनके प्रति ईष्या रखते हैं। और यदि इसका स्वामी ग्रह शुक्र हो तथा तीसरे स्थान में राहु हो तो ऐसे लोग लगातार अपनी स्थिति के प्रति नकारात्मक और दूसरों की स्थिति को अपने से बेहतर मानते हुए परेशान रहते हैं। अतः यदि मन में ईष्या बहुत ज्यादा आ रही हो तो गणेशजी की पूजा करनी चाहिए। तिल गुड का दान करना चाहिए तथा गणपति अर्थव का पाठ करना चाहिए।

गृह कलह निवारण के कुछ ज्योतिष उपाय......

रिश्तों की डोर बहुत नाजुक होती है, फिर चाहे वह पति-पत्नी हों, सास-बहू हों, पिता पुत्र हों या फिर भाई-भाई, इनके बीच कभी न कभी आपस में टकराव हो ही जाता है। यदि बात नोकझोंक तक सीमित रहे तो ठीक लेकिन यदि कलह का रूप लेने लगे तो पारिवारिक वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है। इस आलेख में अनेक प्रकार की समस्याओं के निदान एवं गृह कलह निवारण के अनुभूत उपाय दिए जा रहे हैं...
गृह कलह की कोई न को¬ई वजह जरूर होती है जैसे पति-पत्नी के तनाव का मुख्य कारण उनके घरवालों को लेकर उत्पन्न कलह होती है। कलह के कारण कई बार तो दाम्पत्य जीवन में तनाव इतना बढ़ जाता है कि तलाक तक की नौबत आ जाती है। इससे बचाव का एक सरल सा रास्ता यह है कि जब भी आप अपने लड़के या लड़की के गुणों का मिलान कराएं तो गुणों के साथ-साथ पत्री पर भी ध्यान दें। कई बार कलह बच्चों के जन्म को लेकर भी होता है जिसकी वजह से गृह क्लेश काफी बढ़ जाता है।
दाम्पत्य जीवन में कलह के कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं।
- लड़के या लड़की की पत्री में सप्तम भाव में शनि का होना या गोचर करना।
- किसी पाप ग्रह की सप्तम या अष्टम भाव पर दृष्टि होना या राहु, केतु अथवा सूर्य का वहां बैठना
- पति-पत्नी की एक सी दशा या शनि की साढ़े साती का चलना भी कलह एवं तलाक का एक कारण होता है।
- शुक्र की गुरु में दशा का चलना या गुरु में शुक्र की दशा का चलना भी एक कारण है। कलह को दूर करने के कुछ उपायों का वर्णन यहां किया जा रहा है।
- अगर कलह का कारण शनि ग्रह से संबंधित है तो शनि ग्रह की शांति कर सकते हैं, शनि यंत्र पर जप कर सकते हैं और शनि की वस्तुओं का दान भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त सात मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर सकते हैं। यह उपाय शनिवार को सायंकाल के समय करना ठीक होता है ।
- अगर गृह कलह राहु से संबंधित हो तो राहु यंत्र पर राहु के मंत्र का जप करें एवं 8 मुखी रुद्राक्ष धारण करें। यह सभी प्रकार के कलहों व बाधाओं से मुक्त करता है और राहु के दुष्प्रभाव का निवारण करता है। इसके लिए राहु का दान भी कर सकते हैं।
- अगर गृह क्लेश का कारण केतु ग्रह हो तो उसकी वस्तुओं का दान एवं उसके मंत्र का जप करें। केतु यंत्र पर पूजा करें। गणेश मंत्र का जप करें। 9 मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर सकते हैं।
अगर गृहस्थ जीवन में कलह किसी पराई स्त्री की वजह से हो तो ये उपाय करें।
- कई बार देखने में आता है कि न तो ग्रहों की परेशानी है, न ही पत्री में दशा एवं गोचर की स्थिति खराब है। फिर भी गृह कलह है जिसके कारण बात तलाक तक पहुंच जाती है। ऐसे में यह धारणा होती है कि किसी ने कुछ जादू टोना अर्थात तांत्रिक प्रयोग तो नहीं किया। अगर ऐसा लगे तो ये उपाय करें:
- घर में पूजा स्थान में बाधामुक्ति यंत्र स्थापित करें।
- शुक्ल पक्ष में सोमवार को उत्तर दिशा में मुख करके पति और पत्नी गौरीशंकर रुद्राक्ष धारण करें।
- शयन कक्ष में शुक्र यंत्र की स्थापना करें।
विवाह बाधा के उपाय
- बाधा मुक्ति यंत्र की स्थापना एवं रोज सुबह पूजा करें।
- शनि ग्रह के कारण विवाह में बाधा आ रही हो तो लड़के या लड़की को सातमुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।
- शनि ग्रह की वस्तुएं दान करनी चाहिए।
- शनि यंत्र पर शनिवार से शुरू करके रोज शनि के मंत्र का जप करना चाहिए।
सूर्य के कारण विवाह में बाधा आती हो तो:
- सूर्य यंत्र को अपने घर में स्थापित करके सूर्य मंत्र का जप करें। यह रविवार से शुरू करके रोज करें।
- सूर्य की वस्तुओं का दान करें। तांबे के एक लोटे में गेहूं भरकर रविवार की सुबह 6 से 8 बजे के बीच दान करें।
- रविवार को 1 मुखी रुद्राक्ष धारण करें।
राहु ग्रह के कारण विवाह बाधाः
अगर विवाह में बाधा राहु ग्रह के कारण आ रही हो तो ये उपाय करेंः
- आठमुखी रुद्राक्ष धारण करें।
- राहु यंत्र को अपने पूजा स्थान पर स्थापित करें।
- रविवार को जौ लेकर रविवार के दिन दान करें।
- किसी गरीब को पानमसाला दान करें।
- गुरुद्वारे में या किसी भी धर्मस्थल पर जूते चप्पल की सेवा करें।
अशुभ ग्रहों का उपाय कर लेना अनिवार्य होता है। खास कर पुरुषों को तो केतु के उपाय करने ही चाहिए, क्योंकि विवाह के बाद पुरुष के ग्रहों का संपूर्ण प्रभाव स्त्री पर पड़ता है।
लड़की की शादी में रुकावट आने पर
- गुरुवार को विष्णु-लक्ष्मी जी के मंदिर में जा कर विष्णु जी को कलगी (जो सेहरे के ऊपर लगी होती है) चढ़ाएं। साथ में बेसन के पांच लड्डू चढ़ाएं। शादी जल्दी हो जाएगी।
- किसी भी कारण से, योग्य वर नहीं मिल पा रहा हो, तो कन्या किसी भी गुरुवार को प्रातः नहा-धो कर पीले रंग के वस्त्र पहने। फिर बेसन के लड्डू स्वयं बनाए। लड्डुओं का आकार कुछ भी हो, परंतु उनकी गिनती 108 होनी चाहिए। फिर पीले रंग के प्लास्टिक की टोकरी में, पीले रंग का कपड़ा बिछा कर उन 108 लड्डुओं को उसमें रख दे तथा अपनी श्रद्धानुसार कुछ दक्षिणा रख दे। पास के किसी शिव मंदिर में जा कर, विवाह हेतु गुरु ग्रह की शांति और अनुकूलता के लिए संकल्प करके, सारा सामान किसी ब्राह्मण को दे दे। शिव-पार्वती से प्रार्थना कर अपने घर आ जाए।
यदि कन्या का विवाह न हो रहा हो और माता-पिता बहुत परेशान हांे, सारे प्रयास विफल हो रहे हांे तो उसे किसी शुभ मुहूर्त में निम्न मंत्रों में से किसी एक का जप करना चाहिए।
लड़के की शादी के लिए
गुरुवार को पीले रंग की चुन्नी, पीला गोटा लगा कर, विष्णु-लक्ष्मी जी को चढ़ाएं। साथ में बेसन के पांच लड्डू चढ़ाएं तो शादी में आने वाली रुकावट दूर हो जाएगी।
ग्रहों के उपाय निम्नलिखित हैं
-सूर्य के लिए गेहूं और तांबे का बर्तन दान करें।
-चंद्र के लिए चावल, दूध एवं चांदी की वस्तु का दान करें।
-मंगल के लिए साबुत मसूर या मसूर की दाल दान करें।
-बुध के लिए साबुत मूंग का दान करें।
-गुरु के लिए चने की दाल एवं सोने की वस्तु दान करें।
-शुक्र के लिए दही, घी, कपूर और मोती में से किसी एक वस्तु का दान करें।
-शनि के लिए काले साबुत उड़द एवं लोहे की वस्तु का दान करें।
-राहु के लिए सरसों एवं नीलम का दान करें।
-केतु के लिए तिल का दान करें।

क्या आपको पता है...... आपके शरीर पर विभिन्न तिलों का महत्व

तिल मानव शरीर पर उभरे काले रंग के छोटे धब्बेनुमा दाग या निषान होते हैं। तिलों के अध्ययन के द्वारा हम शरीर के विभिन्न भागों में स्थित तिलों के बारे में समझ पाते हैं। कई तिल तो शरीर में जन्मजात होते हैं लेकिन कई तिल ऐसे भी होते हैं जो कि हमारे जीवन काल में उत्पन्न होते हैं और अदृष्य भी हो जाते हैं तथा इनका रंग व आकार भी बदलता रहता है।
यह भाग्य में बदलाव का संकेत देते हैं। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार यह तिल मानव जीवन के कई रहस्यों से पर्दा उठाते हैं। मानव शरीर पर बने तिल सिर्फ सौन्दर्य की ही वस्तु नहीं होती वरन इसके द्वारा मानव व्यवहार के कई रहस्य जाने जा सकते हैं जैसे माथे पर तिल का होना मनुष्य को भाग्यवान बनाता है जबकि होठों पर तिल कामुकता को दर्षाता है। सामुद्रिक शास्त्र में तिल और मस्सों आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है ।
एक उभरे हुए तिल को मस्से के रूप में जाना जाता है। तिल स्त्री के शरीर पर बाएँ भाग में तथा पुरूष के शरीर पर दायें भाग में शुभ जाने जाते हैं। शहद जैसे भूरे, पन्ना की तरह हरे एवं लाल रंग के तिलों को काले तिलों की अपेक्षा अधिक शुभ माना जाता है। भारतीय और चीनी ज्योतिष में तिलों को जातक के भाग्य के सूचक के रूप में जाना जाता है। जातक के ऊपर ग्रहों का प्रभाव मां के गर्भ में भ्रूण के निर्माण के साथ ही आरम्भ हो जाता है। कुछ ग्रह भ्रूण पर अधिक प्रभाव डालते हैं तथा कुछ ग्रह कम प्रभाव डालते हैं। ग्रहों का ये प्रभाव तिलों के निर्माण के रूप में सामने आता है जोकि शरीर की सतह पर दिखाई देते हैं। ज्योतिष के अनुसार तिलों का महत्व उनके आकार के साथ बढ़ता जाता है ।
तिलों तथा जन्मचिह्नों का स्पष्टीकरण दो तत्वों पर निर्भर करता है- प्रथम उनका भौतिक बनावट तथा द्वितीय जातक के शरीर का वह भाग जहाँ वह स्थित होते हैं। संकेत निधि स्पष्ट रूप से यह इंगित करते हैं कि तिलों का एक निष्चित प्रभाव होता है। शरीर के विभिन्न भागों में स्थित तिल राषि चक्र को सूचित करते हैं जिसके द्वारा जातक का जीवन विषेष रूप से प्रभावित होता है। ज्योतिष में प्रत्येक राषि चक्र शरीर के विषेष भाग पर प्रभुत्व रखता है। जैसे कि मेष राषि - मस्तक, वृष राषि - चेहरा, गर्दन, गला, दायां नेत्र तथा नाक, मिथुन राषि - बाँहें, कंधे, दायां कान, पसली का ऊपरी भाग तथा दाया हाथ, कर्क राषि -छाती, स्तन, पेट, कुहनी, फेफडे़, सिंह राषि - हृदय आदि ।
मस्तक या ललाट के दायीं ओर तिल व्यक्ति को ऐष्वर्यषाली एवं भाग्यषाली बनाता है जबकि बायीं ओर तिल साधारण फल ही देते हैं। लेकिन स्त्रियों में बायीं ओर का चिह्न शुभ फल देता है।
दायीं कनपटी पर तिल षीघ्र विवाह का सूचक होता है। सुन्दर पत्नी, अचानक धन लाभ भी देता है। बायीं कनपटी का तिल अचानक विवाह के योग बनाता है साथ ही धनप्राप्ति भी देता है लेकिन वह धन शीघ्र नष्ट होने वाला होता है।
स्त्रियों के बाएँ गाल पर स्थित तिल पुत्र दायक होता है तथा बुढ़ापे में संतान सुख भी मिलता है। यदि तिल भौहों की नोक या माथे पर होता है तो स्त्री को राजपद की प्राप्ति होती है। नाक के अग्रभाग में स्थित तिल स्त्री को परम सुख की भागी बनाता है।
भौहों के मध्य रिक्त स्थान पर स्थित तिल अति शुभ होते हैं। दाहिनी भौंह पर तिल सुखमय दांपत्य जीवन का संकेत है जबकि बायीं भौंह पर तिल विपरीत फल देता है। पलकों पर तिल शुभ नहीं माने जाते तथा भविष्य में किसी कष्ट के आने का संकेत देते हैं। कनपटी पर तिल जातक को वैरागी या संन्यासी बनाते हैं। नाक के अग्रभाग पर तिल व्यक्ति को विलासी बनाता है। गाल पर तिल पुत्र प्राप्ति का सूचक है। ऊपरी होंठ पर स्थित तिल धनवान और प्रतिष्ठावान बनाता है जबकि नीचे के होंठ पर तिल जातक के कंजूस होने का संकेत देता है ।
नाक की टिप पर तिल जातक के लिए शुभ होता है। नाक के दाहिनी तरफ तिल कम प्रयत्न के साथ अधिक लाभ देता है जबकि बायीं तरफ का तिल अषुभ प्रभाव देता है। ठोड़ी पर तिल का होना भी शुभ होता है। व्यक्ति के पास हमेषा धन प्राप्ति का साधन रहता है तथा वह अभावों में नहीं रहता है। गले में स्थित तिल व्यक्ति के दीर्घायु होने का संकेत देता है तथा व्यक्ति को ऐषोआराम के साधन बड़ी सुगमता से मिलते रहते हैं ।
गले पर तिल वाला जातक आरामतलब होता है। गले के आगे के भाग में तिल वाले जातक के मित्र बहुत होते हैं जबकि गले पर पीछे तिल होना जातक के कर्मठ होने का सूचक है। गले के पीछे स्थित तिल व्यक्ति को सौभाग्यषाली बनाते हैं लेकिन कंधे और गर्दन के जोड़ पर स्थित तिल का फल शुभ नहीं होता है। कानों पर स्थित तिल विद्या व धनदायक होते हैं ।
हाथ की उंगलियों के मध्य स्थित तिल जातक को सौभाग्यषाली बनाते हैं। अंगूठे पर तिल जातक को कार्यकुषल, व्यवहार कुषल तथा न्यायप्रिय बनाता है। तर्जनी पर तिल जातक को विद्यावान, गुणवान, धनवान लेकिन शत्रु से पीड़ित बनाता है। मध्यमा पर तिल शुभ फलदायी होता है। जातक का जीवन सुखी व शांतिपूर्ण होता है। अनामिका पर तिल जातक को विद्वान, यषस्वी, धनी और पराक्रमी बनाता है जबकि कनिष्ठा पर तिल जातक को सम्पत्तिवान तो बनाता है लेकिन जीवन में शांति की कमी रहती है। हथेली के मध्य में तिल धन प्राप्त कराते हैं। बांह में कोहनी के नीचे स्थित तिल शुभ होता है। यह शत्रु नाषक होता है। परंतु कलाई पर स्थित तिल अषुभ होता है। भविष्य में जेल की सजा हो सकती है। हाथ की त्वचा पर स्थित तिल शुभफलदायी होते हैं।
हृदय पर स्थित तिल पुत्र प्राप्ति का सूचक होता है। ऐसी स्त्री सौभाग्यवती होती है। वक्षों के आस-पास स्थित तिल भी ऐसा ही फल देता है। पेट और कमर के जोड़ के पास के तिल अषुभ फलदायी होते हैं जबकि सीने पर स्थित तिल वाले जातक की मनोकामनाएं स्वयं पूर्ण हो जाती हैं। यदि तिल दोनों कंधों पर स्थित हैं तो जातक का जीवन संघर्षपूर्ण होता है। दायें कंधे पर तिल जातक की तेज बुद्धि तथा विकसित ज्ञान को इंगित करता है। कांख पर स्थित तिल धनहानि का सूचक है। कमर पर तिल शुभ फलदायी होता है।
पेट पर स्थित तिल शुभ नहीं माने जाते। यह व्यक्ति के दुर्भाग्य के सूचक हैं। ऐसे जातक भोजन के शौकीन होते हैं। लेकिन नाभि के आसपास स्थित तिल जातक को धन-समृद्धि दिलाते हैं। यदि तिल नाभि से थोड़ा नीचे है तो जातक को कभी भी धन का अभाव नहीं होता है। पीठ पर तिल जातक को महत्वाकांक्षी, भौतिकवादी प्रवृत्ति देता है। जातक रोमांटिक स्वभाव का तथा भ्रमणषील होता है। ऐसे जातक धन खूब कमाते हैं तथा खर्चा भी खूब करते हैं ।
घुटनों पर स्थित तिल शत्रुओं के नाष को सूचित करते हैं। पिंडली पर तिल शुभ नहीं माने जाते हैं। टखनों पर भी तिल शुभ फल नहीं देते हैं। कुल्हों के ऊपर स्थित तिल धन का नाष करते हैं। एड़ी में स्थित तिल भी धन तथा मान-सम्मान कम करते हैं। पैरों पर स्थित तिल वाला जातक यात्राओं का शौकीन होता है। लेकिन पैरों की उंगलियों के तिल जातक को बंधनमय जीवन देते हैं। पैर के अंगूठे का तिल व्यक्ति को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करवाता है।

बच्चे को सर्वगुण संपन्न करने हेतु कराएं कुंडली विश्लेषण.......

आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे इसके साथ उसमें अनुशासन तो आवश्यक है ही। यदि आप भी अपने बच्चे में एक साथ ये सारी आदतें देखना चाहते हैं तो बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें और उसे सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु उसकी कुंडली के अनुसार लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम, दसम एवं एकादश स्थान के कारक ग्रह एवं उन स्थानों पर स्थित ग्रह के अनुसार अपने बच्चे के अच्छे गुण को विकसित करने के साथ प्रतिकूल ग्रहों की शांति अथवा ज्योतिषीय उपाय लेते हुए सभी गुणों में दक्ष बनाने हेतु निरंतर अभ्यास करायें। इससे ना सिर्फ आपका बच्चा पढ़ाई में अथवा जीवन के सभी रंगों से सराबोर होगा।

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कृतध्न होना भी है असफलता का कारक - कुंडली से जाने कृतज्ञ हैं या नहीं -

भारतीय संस्कृति में व्यक्ति को तीन ऋणों उऋण होना अनिवार्य बताया गया है, ब्रम्ह, देव व पितृ ऋण। इसके लिए प्रत्येक को पंच महायज्ञों को करना अनिवार्य होता है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में यज्ञ कृतज्ञता का ही प्रतीक है। हमारे यहाॅ तैतीय कोटि देवता कहे गए हैं जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाष, वायु इत्यादि को भी देवता माना गया है। देवता अर्थात् जो देता है वहीं देवता है। इसलिए प्रकृति के वे तत्व जो हमें जीवित रखने में सहयोग देते हैं हम उसे देवता मानकर उसके प्रति कृतज्ञ होते हैं। साथ ही उपकारी के प्रति आभार का भाव रखना ही कृतज्ञ होना है। किंतु अंहकार के कारण किसी के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं आता और हम जो मिला उसके लिए थैंक्सफुल होने की अपेक्षा जो प्राप्त नहीं है उसके लिए दूसरो अथवा ईष्वर को दोष देते रहते हैं। अथवा जो मिला उसमें अपना ही कर्म मानकर किसी के प्रति कृतज्ञ ना होना भी अहंकार का प्रतीक है। अतः यदि इसे कुंडली से देखा जाए तो लग्न, तीसरा अथवा भाग्य भाव का कारक ग्रह यदि प्रतिकूल हो तो ऐसे लोग किसी के भी प्रति कृतज्ञ नहीं होते। वहीं अगर लग्न, तीसरे स्थान में सूर्य अथवा शनि जैसे ग्रह होकर विपरीत कारक हों तो ऐसे लोग अहंकार के कारण कृतध्न होते हैं। अतः यदि आपके जीवन में थैंक्स की कमी हो अथवा आपके लिए धन्यवाद शब्द महत्वपूर्ण ना हो तो कई यह आपके जीवन में सफलता में कमी का कारण भी हो सकता है क्येांकि लग्न, तीसरे अथवा भाग्यभाव यदि विपरीत हो तो सफलता प्राप्ति में कमी या देरी होती है। अतः सफलता प्राप्ति हेतु अपने जीवन में कृतज्ञता का समावेष कर जीवन में सुख-समृद्धि तथा शांति प्राप्त की जा सकती है।

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Monday 4 July 2016

उद्योग क्षेत्र की समस्याओं का निराकरण करें ज्योतिष सलाह से........

आज का उद्योग विविध समस्याओं से ग्रसित है जिनमें परिस्थितिजनक सामाजिक तथा कर्मचारी चयन की। व्यक्तिगत गुणों के आधार पर हर व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है और इस सिद्धान्त के आधार पर कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति हर कार्य को समुचित रूप से कर सकने में सक्षम नहीं होता। जहाँ उत्पादन, प्रशिक्षण, प्रेरण, नियोक्ता-कर्मचारी संबंध जैसी समस्याएँ उद्योग क्षेत्र अथवा प्रबंधकों की कार्य प्रणाली की होती है, वहीं कर्मचारियों द्वारा उत्पन की गयी समस्याएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं। कर्मचारियों की कार्य अथवा उद्योग संस्थान के प्रति मनोवृति, मनोबल, कार्य संतुष्टि, हडताल तथा तालाबंदी, औद्योगिक उथलपुथल, अनुपस्थिति तथा श्रमिक परिवर्तन आदि कुछ ऐसी ही महत्त्वपूर्ण समस्याएँ है जिनका सामना आज हर छोटे-बड़े उद्योग को करना पड़ रहा है। योग्य व्यक्तियों को चुन लेना मात्र ही अपने आपमें सब कुछ नहीं होता। उनका उचित स्थान पर नियोजन भी उतना ही आवश्यक है। हर कोटि की समस्याओं का समाधान प्रबंधक शीघ्रताशीघ्र कर लेना चाहता है क्योंकि इसी से उद्योग की भलाई तथा समृद्धि है। इन सभी प्रकार की समस्याओं को सामान्यतः समझना कठिन होता है किंतु अगर ज्योतिषीय नजरिये से देखा जाए तो सभी समस्या चाहे वह उत्पादन, कार्यप्रकृति की हो अथवा कर्मचारियों से संबंधित, सभी का ज्योतिषीय कारक जरूर होता है। अतः किसी भी उद्योग को निरंतर उन्नतिशील बनाये रखने एवं कर्मचारियों की उपयोगिता तथा कार्यप्रणाली के अनुसार चयन करने से अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए उद्योग के प्रणेता की कुंडली एवं उद्योग स्थापित करने की तिथि का ज्योतिषीय विश्लेषण कराया जाकर कमजोर ग्रहों को मजबूत करने एवं कार्यरत लोगों की कुंडली का विश्लेषण कराया जाकर उनकी उपादेयता निर्धारित करनी चाहिए।

जुलाई 2016 के शुभ मुहूर्त