Saturday 29 August 2015

वृद्धवस्था में रोग ज्योतिष उपचार



55वें वर्ष की आयु के बाद मनुष्य का शरीर कमजोर होने लगता है तथा कई प्रकार की बीमारियों से वह ग्रस्त हो जाता है। आर्थिक और शरीर से कमजोर होने के साथ ही संतान एवं परिवार का व्यवहार उपेक्षापूर्ण हो जाता है। क्या ज्योतिष में इसका कोई समाधान है? आइए जानते हैं:कौन से ग्रहों से कौन सा रोग होता है? एवं इसका उपचार क्या है?बुढ़ापा आने के प्रथम लक्षण की शुरुआत सर के बाल सफेद होना होता है। सर के बाल सफेद होना शुरु होते हि मानना चाहिए कि शरीर कमजोर पडऩे लगा है। उसके बाद पैरों और घुटनों में दर्द तथा फिर दांतों का ढीला होना। भुख कम होना, कब्ज होना यह सब कमजोरी के प्रथम लक्षण है। इन सभी की वजह ग्रहों की दुर्बलता भी होती है। सूर्य यदि लग्न द्वितीय द्वादश भाव में स्थित होता है तो जातक के बाल जल्दी झड़ जाते हैं तथा आंखें कमजोर होकर चश्मा चढ़ जाता है। वृद्धावस्था में आंखें अत्यधिक कमजोर हो जाती है तथा आंखों के रोग मोतियाबिंद आदि होते हैं। बाल भी जल्दी झड़ जाते हैं। सूर्य के उपचार के लिए उसको जल चढ़ाना एवं सूर्य को कभी देखना नहीं चाहिए। पूर्णिमा के चंद्रमा को ज्यादा देर देखनें से आंखों के रोगों में आराम मिलता है। इसी क्रिया से मानसिक तनाव, सरदर्द, भुलने की आदत आदि रोगो ंसे भी आराम मिलता है। मंगल की दुर्बलता से रक्त विकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। यदि मंगल पष्ठम, सप्तम, अष्टम होतो पैरों और घुटनों में खिंचाव, साइटिका, नस कमजोरी पेशाब में जलन एवं रुकावट जैसे रोग उत्पन्न होते हैं। 35 वर्ष की आयु में इनमें तीव्रता आ जाती है तथा धीरे-धीरे यह उग्र रूप धारण कर लेते हैं। यही मंगल यदि चतुर्थ या दशम स्थान में हो तो किडनी, अंपेडिक्स, कमर दर्द, पेट का आपेरशन जैसे रोग का कारक होता है। मंगल के उपचार हेतु लाल रंग के खाद्य पदार्थ जैसे टमाटर, सेवफल, अनार का खाने में प्रयोग करें। नियमित रूप से। लाल रंग के वस्त्र एवं गाड़ी का रंग भी लाल रखें। शराब, मांस, गरिष्ठ पदार्थों का सेवन न करें। सहिजन का सेवन (सुजना की फली) भी लाभ देता है।राहु यदि सप्तम स्थित होता है तो गुप्त रोग, पाईल्स, भगंदर जैसे रोग होते हैं। यह बड़े कष्टदायी होते हैं। राहु के उपचार हेतु किसी गरीब को कंबल का दान करें। शनिवार को उड़द की दाल से बना हुआ, तला हुआ पदार्थ ही खाएं (दही बड़े आदि)।बुध, शुक्र, शनि भी कई रोग के जन्मदाता होते हैं। जैसे लकवा, हृदयाघात, उच्च एवं निम्न रक्तचाप परंतु इन ग्रहों पर नियंत्रण करें तो बीमारियों से आसानी से बचा जा सकता है।

वास्तु अनुसार बनाए अपने सपनों का घर

घर की साज सज्जा बाहरी हो या अंदर की वह हमारी बुद्धि मन और शरीर को जरूर प्रभावित करती है। घर में यदि वस्तुएं वास्तु अनुसार सुसज्जित न हो तो वास्तु और ग्रह रश्मियों की विषमा के कारण घर में क्लेश, अशांति का जन्म होता है। घर के बाहर की साज-सज्जा बाहरी लोगों को एवं आंतरिक शृंगार हमारे अंत: करण को सौंदर्य प्रदान करता है। जिससे सुख-शांति सौम्यता प्राप्त होती है।भवन निर्माण के समय ध्यान रखें। भवन के अंदर के कमरों का ढलान उत्तर दिशा की तरफ न हो। ऐसा हो जाने भवन स्वामी हमेशा ऋणी रहता है। ईशान कोण की तरफ नाली न रखें। इससे खर्च बढ़ता है।शौचालय: शौचालय का निर्माण पूर्वोत्तर ईशान कोण में न करें। इससे सदा दरिद्रता बनी रहती है। शौचालय का निर्माण वायव्य दिशा में हो तो बेहतर होता है।कमरों में ज्यादा छिद्रों का ना होना आपको स्वस्थ और शांतिपूर्वक रखेगा।घरों में रंगों का संयोजनघर में अत्यधिक सफेद एवं काले रंग का प्रयोग नहीं करें। काला रंग राहु के प्रभाव को बढ़ाता है एवं अत्यधिक सफेद रंग विलासिता बढ़ाता है।- किचन में लाल रंग।- बेडरुम मे हल्का नीला।- शौचालय और उसके बाहर गहरा नीला।- पूजा घर में नारंगी।- ड्राइंग रूम में क्रिम रंग का इस्तेमाल करें।
अटैच बाथरुमअटैच बाथरुम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कमरे के बायी और उसका निर्माण नहीं हो तथा उसका एक्जास्ट बाहर की ओर हो।
फर्श कैसा होफर्श पर भगवान या उनके चित्र नहीं बनाना चाहिए। इसके अलावा पशु, पक्षी, वीणा आदि भी नहीं बनाना चाहिए। ऐसा करने पर मानसिक विकार, धन-हानि की संभावना रहती है।सात, आठ दल वाले कमल के पुष्प का चिन्ह आदि का फर्श का निर्माण करने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं। फर्श ऊंचा नीचा न हो इससे विरोध बढ़ता तथा विकास रुक जाता है।कमरों का निर्माण कैसा होकमरों का निर्माण में नाप महत्वपूर्ण होते हैं। उनमें आमने-सामने की दिवारें आकार में बिल्कुल एक जैसी हों उनमें विषमता न हो। कमरों का निर्माण भी सम आकार में ही करें। 20-10, 16-10, 10-10, 20-16 आदि विषमता में करें जैसे 19-16, 18-11 आदि।शयन कक्ष में शयन की क्या स्थितिशयन कक्ष में सोने की व्यवस्था कुछ इस तरह हो कि सिर दक्षिण मे एवं पावं उत्तर में हो।यदि यह संभव न हो सिरहाना पश्चिम में और पूर्व दिशा में हो तो बेहतर होता है। रोशनी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि आंखों पर जो न पड़े। बेड रुम के दरवाजे के पास पलंग स्थापित न करें। इससे कार्य में विफलता पैदा होती है।
फर्नीचर: घर में फर्नीचर बनवाने के लिए बहेड़ा, पीपल, वटवृक्ष, पाकर, कैथ, करंज, गुलर आदि लकडिय़ों का प्रयोग न करें। ऐसा करने पर सुख का नाश होता है। पलंग के सिरहाने पर अशुभ आकृति न हो इसका ध्यान रखें जैसे सिंह, गिद्द, बाज या अन्य हिंसक पशु ऐसा होने पर वह मानसिक विकार उत्पन्न करती है। जो कलह का कारण होता है।फर्नीचर में शीशम, महूआ, अर्जुन, बबूल, खैर, नागकेशर वृक्ष की लकड़ी का में ले सकते हैं।
टीवी कहां रखेंघर के आग्नेय कोण में ही टीवी रखें। इसी प्रकार अलमारी दक्षिणमुखी नहीं होनी चाहिए। गद्दा, तकिया, पलंग, पर्दे आदि का वास्तु अनुरूप हो तो जीवन में सदा सुख का अनुभव करेंगे।

छत्तीसगढ़ में अद्भुत शिव रूद्र प्रतिमा वाला पर्यटन स्थल -ताला

रायपुर से बिलासपुर राजमार्ग पर 85 किलोमीटर दूर है ग्राम ताला। यहां अनूठी और अद्भुत मूर्तियां मिली है, जिसमें शैव संस्कृति के 2 मंदिर देवरानी-जेठानी के नाम से विख्यात है। यहां ढाई मीटर ऊंची और 1 मीटर चौड़ी जीव-जंतुओं की मुखातियों से बने अंग-प्रत्यंगों वाली प्रतिमा मिली है, जिसे रूद्र शिव का नाम दिया गया है। महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा भारतीय कला में अपने ढंग की एकमात्र ज्ञात प्रतिमा है। कुछ विद्वान धारित बारह राशियों के आकार पर इसका नाम कालपुरूष भी मानते हैं। महाकाल रूद्रशिव की प्रतिमा भारी भरकम है। 2.54 मीटर ऊंची और 1 मीटर चौडी प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग अलग-अलग जीव-जंतुओं की मुखाकृतियों से बने हैं, इस कारण प्रतिमा में रौद्र भाव साफ नजर आता है। प्रतिमा संपादस्थानक मुद्रा में है। इस महाकाय प्रतिमा के रूपांकन में गिरगिट, मछली, केकड़ा, मयूर, कछुआ, सिंह और मानव मुखों की मौलिक रूपाति का अद्भूत संयोजन है। मूर्ति के सिर पर मंडलाकार चक्रों में लिपटे 2 नाग पगडी के समान नजर आते हैं। नाक नीचे की ओर मुंह किए हुए गिरगिट से बनी है। गिरगिट के पिछले 2 पैरों ने भौहों का आकार लिया है। अगले 2 पैरों ने नासिका रंध्र की गोलाई बनाई है। गिरगिट का सिर नाक का अगला हिस्सा है। बडे आकार के मेंढक के खुले मुख से नेत्रपटल और बडे अण्डे से गोलक बने हैं। छोटे आकार की मछलियों से मुछें और निचला होंठ बना है। कान की जगह बैठे हुए मयूर स्थापित हैं। कंधा मगर के मुंह से बना है। भुजाएं हाथी के सूंड के समान हैं, हाथों की उंगलियों सांप के मुंह के आकार की है, दोनों वक्ष और उदर पर मानव मुखातियां बनी है। कछुए के पिछले हिस्से कटी और मुंह से शिश्न बना है। उससे जुडे अगले दोनों पैरों से अण्डकोष बने हैं और उन पर घंटी के समान लटकते जोंक बनी है। दोनों जंघाओं पर हाथ जोडे विद्याधर और कमर के दोनों हिस्से में एक-एक गंधर्व की मुखाति बनी है। दोनों घुटनों पर सिंह की मुखाति है, मोटे-मोटे पैर हाथी के अगले पैर के समान है। प्रतिमा के दोनों कंधों के ऊपर 2 महानाग रक्षक की तरह फन फैलाए नजर आते हैं। प्रतिमा के दाएं हाथ में मोटे दंड का खंडित भाग बचा हुआ है। प्रतिमा के आभूषणों में हार, वक्षबंध, कंकण और कटिबंध नाग के कण्डलित भाग से अलंकृत है। सामान्य रूप से इस प्रतिमा में शैव मत, तंत्र और योग के सिद्धांतों का प्रभाव और समन्वय दिखाई पडता है। ताला गांव पुरातत्व महत्व के देवरानी-जेठानी मंदिरों के कारण विख्यात है। ये मंदिर 1986 में ही अनावृत्त किए गए। एक विशाल परिसर में स्थित ये मंदिर आज खंडहर अवस्था में है। किंतु 5वीं-6वीं शताब्दी के आसपास बने यह मंदिर पुरातत्व महत्व तथा यहां से प्राप्त अनोखी मूर्तियों के कारण दर्शनीय बन गए। लाल पत्थर से बना जेठानी मंदिर शैव संप्रदाय के उपासकों का साधनापीठ माना जाता है। दक्षिणाभिमुख मंदिर की स्थापत्य शैली कुछ विशिष्ट है। मंदिर के तल विन्यास में अर्धमंडप एवं गर्भगृह का धरातल उतरोत्तर ऊंचा होता गया है। दीवारों तथा स्तंभों पर अनोखी भाव-भंगिमा वाली मूर्तियों का अंकन देखने को मिलता है। देवरानी मंदिर भी प्राचीन शिव मंदिर है। इसके द्वार तथा शाखाओं पर बनी मूर्तियों में लक्ष्मी, उमा, महेश्वर, शिव-पार्वती, कीर्तिमुख मिथुन दंपती आदि का खूबसूरत अंकन है।
मंदिरों की खोज के साथ ही इस क्षेत्र से कई अनोखी मूर्तियां, शिलाखंड, लघुफलक, बाण फलक, मृणमयी वस्तुएं एवं सिक्के मिले थे। यहां से प्राप्त एक अजीब मूर्ति तो पर्यटकों ही नहीं, पुरातत्वप्रेमियों के लिए भी कौतूहल का विषय है। मूर्ति को देख यह कह पाना कठिन है कि यह किस देवता या देवपुरुष की मूर्ति होगी। इस प्रतिमा में एक शरीर पर दस मुख हैं। एक मुख तो यथास्थान है। दो मुख वक्ष स्थल पर बने हैं, एक मुख पेट पर, दो मुख जांघों पर, दो मुख घुटनों पर तथा दो मुख पृष्ठ भाग में बने हैं। इस अद्भुत मूर्ति में विचित्र कल्पना तथा कलात्मकता का संगम नज़र आता है। मूर्ति में पशु पक्षियों का चित्रण भी किया गया है।
पर्यटन हेतु सड़क पेयजल एवं छाया दार स्थलों का निर्माण, आसपास के स्थल पर आकर्षक उद्यान, फव्वारे, समीप ही बहने वाली मनियारी नदी पर एनीकट बनाकर पानी को रोकने और उसमें नौकायन की सुविधा उपलब्ध कराई गई है। सिंचाई विभाग उद्यान तथा मनियारी नदी के दोनों ओर 150-150 मीटर घाट निर्माण किये गये है तथा मनियारी नदी पर ताला एनीकट बनाया गया। आसपास के मंदिरों के जीर्णोद्वार के कार्य किये गये है। ताला पहुंच मार्ग के दोनों ओर वृक्षारोपण कर हरियाली लाने का प्रयास किया गया है।
मदकुद्वीप:
ताला से कुछ दूरी पर प्रसिध्द ऐतिहासिक स्थल मदकुद्वीप स्थित है। जहां प्रतिवर्ष मसीही मेला का आयोजन किया जाता है। द्वीप तीन ओर से शिवनाथ नदी और मनियारी नदी के संगम से घिरा हुआ है। वन विभाग द्वारा द्वीप में स्थित प्राचीनतम शिव मंदिर का जीर्णोद्वार कराया गया है। विश्राम गृह का निर्माण तथा हरियाली के लिए वृक्षारोपण किये गये है। द्वीप के चारों ओर मदकुद्वीप पीचिंग कर नदी के कटाव को रोका गया। द्वीप के समीप शिवनाथ नदी पर एनीकट है। साथ ही नदी के दोनों ओर 50-50 मीटर तक घाट निर्माण किया गया है। मदकू द्वीप का इतिहास गौरवशाली रहा है। वर्तमान प्रचलित नाम मदकू संस्कृत के मण्डुक्य से मिश्रित अपभ्रंश नाम है। शिवनाथ की धाराओं से आवृत्त इस स्थान की सुरम्यता और रमणीयता मांडुक्य ॠषि को बांधे रखने में समर्थ सिद्ध हुई और इसी तपश्चर्या स्थली में निवास करते हुए मांडुक्योपनिषद जैसे धार्मिक ग्रंथ की रचना हुई। शिव का धूमेश्वर नाम से ऐतिहासिकता इस अंचल में विभिन्न अंचल के प्राचीन मंदिरों के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंगों से होती है अर्थात पुरातात्विक दृष्टि से दसवीं शताब्दी ईंसवी सन में यह लोकमान्य शैव क्षेत्र था। दसवीं शताब्दी से स्थापित तीर्थ क्षेत्र के रुप में इसकी सत्ता यथावत बनी हुई है। खुदाई में 11 वीं शताब्दी के कलचुरी कालीन मंदिरों की श्रृंखला मिली है। अब हमारी मान्यता है कि मण्डूक ॠषि ने यहीं पर आकर अपना आश्रम बनाया था और मांडूकोपनिषद की रचना की थी। यह स्थल इसलिए पवित्र है कि चारों तरफ़ शिवनाथ नदी से घिरा हुआ है और यही पर आकर शिवनाथ नदी दक्षिण से आकर उत्तर-पूर्व की ओर कोण बनाते हुए ईशान कोण में बहने लगती है।
हिन्दु धर्म में एवं हमारे प्राचीन वास्तु शास्त्र के हिसाब से ईशान कोण में बहने वाली नदी सबसे पवित्र मानी जाती है। हिन्दु धर्म में ऐसे ही स्थान पर मन्दिरो, बड़े नगरों एवं राजधानियों की स्थापना की जाती है। यहाँ आकर शिवनाथ नदी भी ईशान कोण में बहती है। इसलिए पुरातन काल से ही धार्मिक स्थल होने के कारण यहां पूजा पाठ एवं विशाल यज्ञ होते थे। शंकराचार्य ने पंचायतन मंदिर की प्रथा प्रारंभ की। उन्होने पांचो सम्प्रदायों के उपासक देवताओं के पाँच लिंगो को एक ही प्लेट्फ़ार्म पर स्थापित किया। जिसे स्मार्त लिंग कहते हैं। जिससे पांचों सम्प्रदाय के लोग एक ही स्थान पर आकर पूजा कर लें। भारत में मद्कुद्वीप ही एक मात्र ऐसा स्थान है जहाँ 13 स्मार्त लिंग मिले हैं। यहाँ दो युगल मंदिर भी मिले हैं। पहला मंदिर स्थानीय नागरिकों को मिला था जिसे बना दिया गया और दुसरा मंदिर अभी की खुदाई में मिला है। एक ही प्लेटफ़ार्म पर जब दो मंदिर होते हैं उन्हे युगल मंदिर कहते हैं। ये दोनो मंदिर शिव जी हैं योनी पीठ वाले। इस स्थान का महत्व इसलिए है कि एक छोटे से द्वीप में एक ही स्थान पर द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं 13 स्मार्त लिंग मिले हैं जो एक ही पंक्ति में स्थापित हैं। यहाँ गणेश जी, लक्ष्मीनारायण, राजपुरुषों एवं एक उमामहेश्वर की मूर्ति भी मिली हैं। जिन-जिन राजाओं ने यहां मंदिर बनवाए उन्होने अपनी-अपनी मूर्ति भी यहाँ लगा दी है। ये मुर्तियाँ लाल बलुवा पत्थर की बनी हैं जो शिवनाथ नदी में ही मिलते हैं। इन पत्थरों पर सुन्दर बेल बूटे एवं मुर्तियां उत्कीर्ण की गयी है। यह सम्पुर्ण संरचना जमीन से मात्र डेढ मीटर गहराई पर ही प्राप्त हो गयी।
ेकबीरपंथियों का तीर्थ दामाखेड़ा:
रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर सिमगा से 10 किमी दूर स्थित दामाखेड़ा कबीरपंथियों के तीर्थ के रूप में विख्यात है। इस पंथ के मानने वालों का यह छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ा आस्था का केंद्र माना जाता है। यहां कबीर मठ की स्थापना 100 साल पहले पंथ के 12वें गुरु उग्रनाम साहब ने की थी। यहां के समाधि मंदिर में कबीर की जीवनी बड़े ही मन मोहक और कलात्मक ढंग से दीवारों पर नक्काशी कर उकेरा गया है। दामाखेड़ा में हर साल माघ शुक्ल दशमी से माघ पूर्णिमा तक संत समागम समारोह आयोजित किया जाता है। यहां दशहरा पर्व भी बड़े ही उल्लास के साथ मनाने की परंपरा है, क्योंकि इसी दिन दामाखेड़ा में वंश की स्थापना हुई थी।
प्रसिध्द स्थल सोमनाथ:
धार्मिक एवं प्राक्रितिक सौर्दंय से परिपुर्ण छत्तीसगढ का गौरव बढाता है शिवनाथ नदी के तट स्थित सोमनाथ। यह रायपुर -बिलासपुर मार्ग पर स्थित ग्राम सांकरा से पश्चिम दिशा मे आठ कि.मी. की दुरी पर स्थित है। यह छत्तीसगढ का प्रसिध्द धार्मिक स्थल है। लाखों श्रध्दालु भगवान शिव का दर्शन करने यहां माघ मास के महिने मे आते है। यहां की प्राक्रितिक सौर्दंयता के कारण दुर दुर से लोग यहां पिकनिक मनाने आते हैं। धरसींवा से आगे सिमगा से 10 किमी की दूरी पर पहले बायीं ओर खारून नदी और शिवनाथ नदी का संगम सोमनाथ तीर्थ स्थल जाने का रास्ता है। प्रमुख मार्ग से 3 किमी की दूरी पर खारून नदी के तट पर लखना ग्राम है और लखना से एक किमी दूर सोमनाथ का तीर्थ स्थल है। सोमनाथ में खारून नदी एवं शिवनाथ नदी के संगम पर सोमनाथ महादेव का मन्दिर ऊँचे टीले पर स्थित है। गोलाकार शिवलिंग 3 फीट ऊँचा है। प्राक्रितिक सौन्दर्य से परिपुर्ण शिवनाथ नदी के तट पर यह भगवान शंकर का बसेरा है जहां प्रतिवर्ष माघ पुर्णिमा को मेला लगता है जिसमे हजारों श्रध्दालु शिव जी का दर्शन करने यहां पहुचंते है।
मंदिर में शिव परिवार पार्वती देवी, गणेश जी, कार्तिकेय एवं नन्दी की प्रतिमायें स्थापित हैं। इसी मन्दिर में उत्खनन के समय सोमनाथ महादेव शिवलिंग के ही प्रतिरूप शिवलिंग प्रतिमा मिली थी, जिसे निषाद समाज द्वारा निर्मित मन्दिर में स्थापित किया गया है। उस शिव लिगं की खासियत यह है की वह अभी भी भुमि मे गडा हुआ है और धीरे -धीरे बडा होता जा रहा है। संगम के मध्य एक मंदिर है, जहाँ शिवलिंग व हनुमान की मूर्तियाँ हैं। सोमनाथ तीर्थ स्थल छत्तीसगढ़ का एक मनोहारी पर्यटन स्थल है।
दामाखेडा जाने के लिये मार्ग:
थल मार्ग: रायपुर से बिलासपुर की ओर रायपुर से साठ कि.मी.
वायु मार्ग: निकटतम विमान स्थल माना (रायपुर )
मदकू द्वीप जाने के लिये मार्ग:
रायपुर से हावड़ा मुंबई रेलमार्ग पर 64 किलो मीटर के फ़ासले पर भाटापारा नगर प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। यहाँ से कड़ार-कोतमी गांव होते हुए मदकू द्वीप लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर है। रायपुर-बिलासपुर राजमार्ग के 76 वें माईल स्टोन पर स्थित बैतलपुर से यह दुरी 4 किलोमीटर है। रेल और सड़क मार्ग दोनो से इस स्थान पर पहुंचा जा सकता है।
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हथेली में विवाह रेखा

प्रेम प्रसंग और शादी से जुड़ी बातें जानने के लिए हथेली की विवाह रेखा का अध्ययन मुख्य रूप से किया जाता है।
कहां होती है विवाह रेखा
हमारी हथेली में थोड़े-थोड़े समय में कई रेखाएं बदलती रहती हैं। जबकि कुछ खास रेखाएं ऐसी हैं, जिनमें ज्यादा बदलाव नहीं होते हैं। इन महत्वपूर्ण रेखाओं में जीवन रेखा, भाग्य रेखा, हृदय रेखा, मणिबंध, सूर्य रेखा, विवाह रेखा शामिल है। हस्तरेखा ज्योतिष के अनुसार, विवाह रेखा से किसी भी व्यक्ति के प्रेम प्रसंग और वैवाहिक जीवन पर विचार किया जाता है। विवाह रेखा सबसे छोटी उंगली (लिटिल फिंगर) के नीचे वाले भाग पर आड़ी स्थिति में होती है। छोटी उंगली के नीचे वाले भाग को बुध पर्वत कहा जाता है। विवाह रेखा एक या एक से अधिक भी हो सकती है।
यहां जानिए विवाह रेखा से जुड़ी खास बातें...
1. यदि किसी व्यक्ति के हाथ में विवाह रेखा और हृदय रेखा के बीच की दूरी बहुत ही कम है तो ऐसे लोगों का विवाह कम उम्र में होने की संभावनाएं होती हैं। आमतौर पर विवाह रेखा और हृदय रेखा के बीच की दूरी ही व्यक्ति के विवाह की उम्र बताती है। इन दोनों रेखाओं के बीच जितनी अधिक दूरी होगी विवाह उतने ही अधिक समय बाद होता है। ऐसी संभावनाएं काफी अधिक रहती हैं।
2. यदि किसी व्यक्ति के दोनों हाथों में विवाह रेखा की शुरुआत में दो शाखाएं हों तो उस व्यक्ति की शादी टूटने का डर रहता है।
3. यदि किसी स्त्री के हाथ में विवाह रेखा की शुरुआत में द्वीप का चिह्न हो तो ऐसी स्त्री की शादी किसी धोखे से होने की संभावनाएं रहती हैं। साथ ही, यह निशान जीवन साथी के खराब स्वास्थ्य की ओर भी इशारा करता है।
4. यदि किसी व्यक्ति के हाथ में विवाह रेखा बहुत अधिक नीचे की ओर झुकी हुई दिखाई दे रही है और वह हृदय रेखा को काटते हुए नीचे की ओर चले जाए तो यह शुभ लक्षण नहीं माना जाता है। ऐसी रेखा वाले व्यक्ति के जीवन साथी की मृत्यु उसकी मौजूदगी में ही हो सकती है।
5. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में विवाह रेखा लम्बी और सूर्य पर्वत तक जाने वाली है तो यह संपन्न और समृद्ध जीवन साथी का प्रतीक है।
6. यदि बुध पर्वत से आई हुई कोई रेखा विवाह रेखा को काट दे तो व्यक्ति का वैवाहिक जीवन परेशानियों भरा होता है।
10. यदि दाएं हाथ में दो विवाह रेखा हैं और बाएं हाथ में एक विवाह रेखा है तो ऐसे लोगों की पत्नी अधिक ध्यान रखने वाली नहीं होती है।
11. दोनों हाथों में विवाह रेखा समान लंबाई की और शुभ लक्षणों वाली है तो ऐसे लोगों का वैवाहिक जीवन सुखी होता है। इन लोगों का अपने जीवन साथी से काफी अच्छा तालमेल होता है।
12. यदि किसी व्यक्ति के हाथ में विवाह रेखा ऊपर की ओर मुड़ जाए और छोटी उंगली तक पहुंच जाए तो ऐसे व्यक्ति के विवाह में काफी परेशानियां आती हैं। आमतौर पर ऐसी विवाह रेखा वाले इंसान का विवाह होना बहुत मुश्किल होता है यानी इन लोगों के अविवाहित रहने की संभावनाएं काफी अधिक होती हैं।
13. यदि विवाह रेखा के अंत में त्रिशूल के समान चिह्न दिखाई दे रहा है तो व्यक्ति अपने जीवनसाथी से बहुत अधिक प्रेम करने वाला होता है। कुछ वर्षों के बाद ऐसा व्यक्ति जीवनसाथी के प्रति उदासीन भी हो जाता है।
14. यदि विवाह रेखा को कोई खड़ी रेखाएं काट रही हैं तो यह विवाह में देरी और बाधाओं का संकेत है।
15. ऊपर की ओर मुड़ी हुई विवाह रेखा शुभ नहीं मानी जाती है। यदि ये रेखा थोड़ी-सी ऊपर की ओर मुड़ गई है तो व्यक्ति का विवाह होने में बहुत परेशानियां आती हैं और विवाह हो भी जाता है तो वैवाहिक जीवन सुखी नहीं कहा जा सकता है।
16. हथेली में एक से अधिक विवाह रेखाएं प्रेम-प्रसंग की संख्या की ओर इशारा करती हैं। साथ ही, यह रेखा यह भी बताती है कि आपका वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा। यदि विवाह रेखा नीचे की ओर बहुत अधिक झुकी हुई हों तो वैवाहिक जीवन में परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
17. यदि किसी व्यक्ति के हाथ में विवाह रेखा पर क्रॉस का निशान है तो हस्तरेखा ज्योतिष के अनुसार, ऐसे लोगों का जीवन साथी जल्दी गुजर सकता है।
18. यदि विवाह रेखा पर किसी वर्ग के समान चिह्न दिखाई दे रहा है तो यह जीवन साथी के खराब स्वास्थ्य का संकेत देता है।
19. यदि विवाह रेखा के प्रारंभ में किसी द्वीप के समान चिह्न है तो जीवन साथी का कोई अनैतिक संबंध हो सकता है। द्वीप का चिह्न अंत में हो तो यह जीवन साथी के स्वास्थ्य के लिए बुरा संकेत है।
20. यदि किसी व्यक्ति की हथेली में विवाह रेखा के प्रारंभ में तिल है तो यह जीवन साथी के बुरे स्वास्थ्य की ओर इशारा करता है। यदि यह तिल अधिक गहरा हो तो यह जीवन साथी के जीवन के लिए खतरे की ओर इशारा करता है।
ध्यान रखें यहां बताई गई बातें सिर्फ विवाह रेखा के आधार पर बताई गई हैं। अन्य रेखाओं के प्रभाव से विवाह रेखा का फलादेश बदल भी सकता है। दोनों हाथों की सभी रेखाओं और हाथों की बनावट की गहनता से अध्ययन करने पर सटीक जानकारी मिल सकती है।

हाथ की हथेली से जाने डाक्टर बनने के योग

हस्तरेखा अध्ययन ज्योतिष की कई विद्याओं में से एक है। हाथों की रेखाओं से किसी भी व्यक्ति का स्वभाव मालूम हो सकता है। व्यक्ति के भूत, भविष्य और वर्तमान की जानकारी मिल सकती है। करियर से जुड़ी बातें भी हस्तरेखा से मालूम हो जाती है। यहां जानिए हथेली के कुछ विशेष योग जो बताते हैं कि व्यक्ति डॉक्टर या वैद्य बनेगा या नहीं...
1. जिस व्यक्ति के हाथ के मंगल व बुध पर्वत उच्च हों, उंगलियां लंबी, आगे से गोल, पतली या चपटी हो, साथ ही सभी उंगलियों का दूसरा भाग भरा हुआ दिखाई दे रहा हो और बुध पर्वत पर तीन-चार खड़ी रेखाएं हों, हथेली मजबूत हो, सूर्य रेखा तथा मस्तिष्क रेखा भी गहरी हो तो व्यक्ति वैद्य या डाॅक्टर बनता है।
2. जिस व्यक्ति के हाथ में चंद्र पर्वत उच्च और मोटा हो तथा सूर्य रेखा स्पष्ट, शुभ हो तो व्यक्ति नाड़ी विशेषज्ञ होता है।
3. जिस व्यक्ति के हाथ में सूर्य रेखा श्रेष्ठ हो, बुध पर्वत उच्च हो और उस पर छोटी-छोटी तीन खड़ी रेखाएं हों, उंगलियां लंबी हों, उंगलियों का प्रथम भाग भी भरा हुआ हो, हृदय रेखा, मस्तिष्क रेेखा भी श्रेष्ठ हो, चंद्र और शुक्र पर्वत समान हो तो व्यक्ति किसी विशेष रोग का विशेषज्ञ होता है।
4. जिस व्यक्ति के हाथ का मध्य भाग भरा हुआ हो, उंगलियों का आगे वाला भाग मोटा हो तथा सूर्य रेखा भी श्रेष्ठ हो तो व्यक्ति पशु चिकित्सक बनता है।
5. जिस स्त्री का हाथ गोल, पतला, चपटा हो और हाथ मजबूत हो, साथ ही बुध पर्वत पर खड़ी रेखाएं हों, चंद्र-शुक्र पर्वत भी श्रेष्ठ हो तो वह स्त्री नर्स बनती है।
6. जिस व्यक्ति के हाथ में बुध पर्वत पर छोटी-छोटी खड़ी रेखाएं होती हैं, मंगल पर्वत श्रेष्ठ होता है और उस पर दो खड़ी रेखाएं हों तो व्यक्ति रसायन शास्त्र का जानकार होता है।

हस्तरेखा में चतुष्कोण

हथेली में किसी भी रेखा के साथ या किसी भी पर्वत (शुक्र पर्वत को छोड़कर) पर चतुष्कोण बनता है तो उस रेखा या पर्वत के शुभ फल बढ़ जाते हैं। साथ ही, इस निशान से टूटी रेखाओं के दोष भी कम हो सकते हैं। हथेली में चतुष्कोण भाग्य का साथ दिलाने वाला निशान माना जाता है। हथेली में शुक्र पर्वत पर चतुष्कोण से विपरीत फल मिल सकते हैं। शुक्र पर्वत पर चतुष्कोण अच्छा नहीं माना गया है।
चतुष्कोण की आकृति
चतुष्कोण चार भुजाओं वाली एक चौकोर आकृति होती है। चार रेखाओं से बनने वाली ये आकृति असमान, अलग-अलग लंबाई व चौड़ाई वाली हो सकती है। हथेली में रेखाएं और निशान बनते-बिगड़ते रहते हैं। अत: जब हथेली के शुभ स्थानों पर चतुष्कोण बनता है तो व्यक्ति को भाग्य की ओर से ज्यादा लाभ मिलने लगते हैं।
हथेली पर चतुष्कोण की उपस्थिति का फल
यदि हथेली की कोई रेखा सही स्थिति में है और उस पर चतुष्कोण है तो यह उस रेखा से प्राप्त होने वाले शुभ परिणामों को अधिक बढ़ा देता है। यदि रेखा टूटी हुई है तो यह उसके बुरे प्रभावों को कम करने वाला होता है। साथ ही, उस रेखा से होने वाले दुष्परिणामों को बदल भी सकता है।
जीवन रेखा पर चतुष्कोण का फल
लंबी जीवन रेखा पर चतुष्कोण हो तो ये स्थिति उम्र को बढ़ाने वाली मानी गई है। यदि जीवन रेखा टूट रही हो और उस पर चतुष्कोण बन जाए तो यह शारीरिक परेशानियों को कम कर सकता है।
हथेली पर नीले, काले या लाल बिंदु के पास चतुष्कोण
यदि हथेली पर कहीं नीले, काले या लाल बिंदु का निशान हो और यदि उसके पास कहीं चतुष्कोण बन रहा हो तो दुर्घटनाओं से शरीर की सुरक्षा की ओर इशारा करता है।
विवाह रेखा पर चतुष्कोण
हथेली में विवाह रेखा सबसे छोटी उंगली के नीचे बुध पर्वत पर स्थित होती है। यदि विवाह रेखा सीधी न हो और नीचे की ओर झुक रही हो या आकार में गोल हो रही हो तो यह स्थिति जीवनसाथी के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं मानी गई है। विवाह रेखा में ये दोष हो और उस पर चतुष्कोण बन जाए तो जीवनसाथी के जीवन से जुड़ी परेशानियों में राहत प्रदान करता है।
भाग्य रेखा पर चतुष्कोण
हथेली में भाग्य रेखा टूटी हो तो कार्यों में रुकावटें आती हैं। ऐसे में भाग्य रेखा के आस-पास ही चतुष्कोण बन जाए तो समस्याएं आती हैं, लेकिन वह सफलता भी मिल जाती है
मंगल ​पर्वत पर चतुष्कोण
मंगल पर्वत हथेली में दो जगह होता है। एक तो जीवन रेखा के ठीक नीचे अंगूठे के पास वाले स्थान पर होता है। दूसरा हृदय रेखा के ठीक नीचे मस्तिष्क रेखा के पास वाले स्थान पर होता है। मंगल पर्वत की दबी हुई स्थिति साहस की कमी करती है। मंगल पर्वत पर चतुष्कोण होने से साहस की कमी होने पर भी असफल होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। शत्रुओं पर भी विजय प्राप्त होती है।
शनि पर्वत पर चतुष्कोण
शनि पर्वत अशुभ स्थिति में हो तो कुछ कार्यों से स्वयं का ही अहित हो सकता है। शनि पर्वत मध्यमा उंगली के नीचे होता है। इस पर चतुष्कोण होने से बुरी संगत दूर होती है। ऐसे चतुष्कोण से व्यक्ति समाज के कल्याण के लिए कार्य करने लगता है।
मस्तिष्क रेखा पर चतुष्कोण
मस्तिष्क रेखा अधिक लंबी हो तो मानसिक रूप से असंतोष उत्पन्न हो सकता है। यह स्थिति निराशा भी बढ़ा सकती है। यदि इस रेखा पर चतुष्कोण बन जाए तो व्यक्ति निराशा से बाहर आ सकता है। साथ ही, मानसिक रूप से संतुष्टि भी मिलती है।
हृदय रेखा पर चतुष्कोण
हृदय रेखा पर चतुष्कोण होने से व्यक्ति में मनोबल अधिक होता है। साथ ही, हृदय रेखा की अशुभ स्थिति से हृदय संबंधी रोग हो सकते हैं। अशुभ हृदय रेखा पर ये निशान हो तो रोगों से बचाव होता है।
शुक्र पर्वत पर शुभ नहीं होता है चतुष्कोण
हथेली में शुक्र पर्वत पर चतुष्कोण शुभ परिणाम नहीं देता है। शुक्र पर्वत पर चतुष्कोण के होने से किसी भी प्रकार की सजा या जुर्माना भरने की संभावनाएं बन सकती हैं।

सहनशीलता

एक विद्धान थे, जो कई वेदों के ज्ञाता था तथा बच्चों को ज्ञान भी दिया करते थे। वह लोगों की समस्याएं सुनकर उनका समाधान भी बताया करते थे। वह बड़े नेक और सच्चे थे, इसलिए उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। हर समाज का व्यक्ति उनका सम्मान करता था। वह किसी से कभी नाराज नहीं होते थे, लेकिन जिसका सम्मान जितना अधिक होता है, उसके विरोधियों को वह उतना ही खलने लगता है। विरोधी खेमे में भी यह चर्चा आम थी। विरोधी गुट के आचार्य ने सोचा- देखता हूं, उसे कैसे उसे गुस्सा नहीं आता। मैं आज यह भ्रम तोड़ कर रहूंगा।
यह कह कर वह अपने घर आए और भेष बदल कर विद्धान की कुटिया में जा पहुंचे। वहां बहुत लोग पहले से ही बैठे थे। उन्होंने पास जाकर अभिवादन किया और बैठ गए। कुछ देर बाद उन्होंने कहा, मुझे कुछ जानना है। आपकी इजाजत हो तो पूछूं विद्धान ने कहा, क्या जानना चाहते हो? अगर रब ने चाहा तो तुम्हें जवाब जरूर मिलेगा। आचार्य ने पूछा- मल का स्वाद कैसा होता है? यह अटपटा सवाल सुनकर सभी हैरान रह गए। विद्धान बोले, मल का स्वाद शायद कुछ-कुछ मीठा होता है। उसने पूछा, आपको कैसे पता, मीठा होता है या कड़वा। क्या आपने चख कर देखा है? आचार्य का सवाल सुनकर वहां बैठे लोग आगबबूला हो गए कि इसकी हिम्मत कैसे हुई यह कहने की? लेकिन विद्धान ने सभी को शांत किया और बोले- मैंने मीठा इसलिए कहा कि अक्सर देखा जाता है कि उस पर मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं और वे आम तौर पर मीठे पर ही बैठती हैं। यह सुनकर आचार्य नतमस्तक हो गए और अपना परिचय देते हुए बोले, आपकी सहनशीलता वंदनीय है। आपके बारे में जैसा सुना, वैसा ही पाया।
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शनि और रोग का सम्बन्ध, प्रभाव एवं निवारण के उपाय —

ज्योतिष के अनुसार रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जनम समाय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष पर पापग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप दृष्टि,पापग्रहों की राशि एवं नक्षत्र में उपस्थित होना, पापग्रह अििध्ष्ठत राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। इन रोगकारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अंगो का प्रतिनिधित्व करते है।
भाव मंजरी के अनुसार-
कालस्य मौलि: क्रिय आननं गौर्वक्षो नृयुग्मो हृदयं कुलीर: ।
का्रेडे मृगेन्दोथ कटी कुमारी अस्तिस्तुला मेहनमस्य कौर्पि:।।
इरूवास उरू मकरश्र जानु जंघे घटोन्त्यश्ररणौ
प्रतीकान्।
सच्ंिन्तयेत्कालनरस्य सूतौ पुष्टान्कृशान्नु:
शुभपापयोगात्।
अर्थात मेष राशि सिर में, वृष मुंह में , मिथुन छाती में, कर्क ह्नदय में, सिंह पेट में, कन्या कमर में, तुला बस्ति में अर्थात पेडू में, वृश्च्कि लिंग में , धनु जांघो में, मकर घुटनों में, कुंभ पिंण्डली में तथा मीन राशि को पैरो में स्थान दिया गया है। राशियों के अनुसार ही नक्षत्रों को उन अंगो में स्थापित करने से कल्पिम मानव शरीराकृति बनती है।
इन नक्षत्रों व राशियों को आधार मानकर ही शरीर के किसी अंग विशेष में रोग या कष्ट का पूर्वानुभान किया जा सकता है। शनि तमोगुणी ग्रह क्रूी एवं दयाहीन, लम्बे नाखुन एवं रूखे-सूखे बालों वाला, अधोमुखी, मंद गति वाला एवं आलसी ग्रह है। इसका आकार दुर्बल एवं आंखे अंदर की ओर धंसी हुई है। जहां सुख का कारण बृहस्पति को मानते है। तो दु:ख का कारण शनि है। शनि एक पृथकत्ता कारक ग्रह है पृथकत्ता कारक ग्रह होने के नाते इसकी जन्मांग में जिस राशि एवं नक्षत्र से सम्बन्ध हो, उस अंग विशेष में कार्य से पृथकत्ता अर्थात बीमारी के लक्षण प्रकट होने लगते हैंै। शनि को स्नायु एवं वात कारक ग्रह माना जाता है। नसों वा नाडियों में वात का संचरण शनि के द्वारा ही संचालित है। आयुर्वेद में भी तीन प्रकार के दोषों से रोगों की उत्पत्ति मानी गई है। ये तीन दोष वात, कफ व पित्त है। हमारे शरीर की समस्त आन्तरिक गतिविधियां वात अर्थात शनि के द्वारा ही संचालित होती है।
आयुर्वेद शास्त्रों में भी कहा गया है:-
पित्त पंगु कफ: पंगु पंगवो मल धातव:।
वायुना यत्र नीयते तत्र गच्छन्ति मेघवत्।।
अर्थात पित्त, कफ और मल व धातु सभी निष्क्रिय हैं। स्वयं ये गति नहीं कर सकते । शरीर में विद्यमान वायु ही इन्हें इधर से उधर ले जा सकती है। जिस प्रकार बादलों को वायु ले जाती है। यदि आयुर्वेद के दृष्टिकोण से भी देखा जाये तो वात ही सभी कार्य समपन्न करता है। इसी वात पर ज्योतिष शास्त्र शनि का नियंत्रण मानता है। शनि के अशुभ होने पर शरीरगत वायु का क्रम टूट जाता है। अशुभ शनि जिस राशि, नक्षत्र को पीडित करेगा उसी अंग में वायु का संचार अनियंत्रित हो जायेगा, जिससे परिस्थिति अनुसार अनेक रोग जन्म ले सकते है। इसका आभास स्पष्ट है कि जीव-जन्तु जल के बिना तो कुछ काल तक जीवित रह सकते है, लेकिन बीना वायु के कुछ मिनट भी नहीं रहा जा सकता है। नैसर्गिक कुण्डली में शनि को दशम व एकादश भावों का प्रतिनिधि माना गया है। इन भावो का पीडित होना घुटने के रोग, समस्त जोडों के रोग, हड्डी, मांसपेशियों के रोग, चर्च रोग, श्वेत कुष्ठ, अपस्मार, पिंडली में दर्द, दाये पैर, बाये कान व हाथ में रोग, स्नायु निर्बलता, हृदय रोग व पागलपन देता है। रोगनिवृति भी एकादश के प्रभाव में है उदरस्थ वायु में समायोजन से शनि पेट मज्जा को जहां शुभ होकर मजबुत बनाता है वहीं अशुभ होने पर इसमें निर्बलता लाता है। फलस्वरूप जातक की पाचन शक्ति में अनियमितता के कारण भोजन का सहीं पाचन नहीं है जो रस, धातु, मांस, अस्थि को कमजोर करता है। समस्त रोगों की जड पेट है। पाचन शक्ति मजबुत होकर प्याज-रोटी खाने वालो भी सुडौल दिखता है वहीं पंचमेवा खाने वाला बिना पाचन शक्ति के थका-हारा हुआ मरीज लगता है। मुख्य तौर पर शनि को वायु विकार का कारक मानते है जिससे अंग वक्रता, पक्षाघात, सांस लेने में परेशानी होती है। शनि का लौह धातु पर अधिकार है। शरीर में लौह तत्व की कमी होने पर एनीमिया, पीलिया रोग भी हो जाता है। अपने पृथकत्ता कारक प्रभाव से शनि अंग विशेष को घात-प्रतिघात द्वारा पृथक् कर देता है। इस प्रकार अचानक दुर्घटना से फे्रकच्र होना भी शनि का कार्य हो सकता है। यदि इसे अन्य ग्रहो का भी थोडा प्रत्यक्ष सहयोग मिल जाये तो यह शरीर में कई रोगों को जन्म दे सकता है। जहां सभी ग्रह बलवान होने पर शुभ फलदायक माने जाते है, वहीं शनि दु:ख का कारक होने से इसके विषय में विपरित फल माना है कि-
आत्मादयो गगनगैं बलिभिर्बलक्तरा:।
दुर्बलैर्दुर्बला: ज्ञेया विपरीत शनै: फलम्।।
अर्थात कुण्डली में शनि की स्थिति अधिक विचारणीय है। इसका अशुभ होकर किसी भाव में उपस्थित होने उस भाव एवं राशि सम्बधित अंग में दु:ख अर्थात रोग उत्पन्न करेगा। गोचर में भी शनि एक राशि में सर्वाधिक समय तक रहता है जिससे उस अंग-विशेष की कार्यशीलता में परिवर्तन आना रोग को न्यौता देना है। कुछ विशेष योगों में शनि भिन्न-भिन्न रोग देता है।
आइये जानकारी प्राप्त करें।
सर्वाधिक पीडादायक वातरोग
1 छठा भाव रोग भाव है। जब इस भाव या भावेश से शनि का सम्बन्ध बनता है तो वात रोग होता है।
2 लग्नस्थ बृहस्पति पर सप्तमस्थ शनि की दृष्टि वातरोग कारक है।
3 त्रिकोण भावों में या सप्तम में मंगल हो व शनि सप्त्म में हो तो गठिया होता है।
4 शनि क्षीण चंद्र से द्वादश भाव में युति करें तो आथ्र्रराइटिस होता है।
5 छठे भाव में शनि पैरों में कष्ट देता है।
6 शनि की राहु मंगल से युति एवं सुर्य छठे भाव में हो तो पैरों में विकल होता है।
7 छठे या आठवें भाव में शनि, सुर्य चन्द्र से युति करें तो हाथों में वात विकार के कारण दर्द होता है।
8 शनि लग्नस्थ शुक्र पर दृष्टि करें तो नितम्ब में कष्ट होता है।
9 द्वादश स्थान में मंगल शनि की युति वात रोग कारक है।
10 षष्ठेश व अष्टमेश की लग्न में शनि से युति वात रोग कारक है।
11 चंद्र एवं शनि की युति हो एवं शुभ ग्रहों की दृष्टि नहीं हों तो जातक को पैरों में कष्ट होता हैं।
उदर रोग:
उदर विकार उत्पत्र करने में भी शनि एक महत्वपुर्ण भुमिका निभाता हैं। सूर्य एवं चन्द्र को बदहजमी का कारक मानते हैं, जब सूर्य या चंद्र पर शनि का प्रभाव हो, चंद्र व बृहस्पति को यकृत का कारक भी माना जाता है। इस पर शनि का प्रभाव यकृत को कमजोर एवं निष्क्रिय प्रभावी बनाता हैं। बुध पर शनि के दुष्प्रभाव से आंतों में खराबी उत्पत्र होती हैं। वर्तमान में एक कष्ट कारक रोग एपेण्डीसाइटिस भी बृहस्पति पर शनि के अशुभ प्रभाव से देखा गया है। शुक्र को धातु एवं गुप्तांगों का प्रतिनिधि माना जाता हैं। जब शुक्र शनि द्वारा पीडि़त हो तो जातक को धातु सम्बंधी कष्ट होता है। जब शुक्र पेट का कारक होकर स्थित होगा तो पेट की धातुओं का क्षय शनि के प्रभाव से होगा। शनिकृत कुछ विशेष उदर रोग योग:-
1 कर्क, वृश्चिक, कुंभ नवांश में शनिचंद्र से योग करें तो यकृत विकार के कारण पेट में गुल्म रोग होता है।
2 द्वितीय भाव में शनि होने पर संग्रहणी रोग होता हैं। इस रोग में उदरस्थ वायु के अनियंत्रित होने से भोजन बिना पचे ही शरीर से बाहर मल के रुप में निकल जाता हैं।
3 सप्तम में शनि मंगल से युति करे एवं लग्रस्थ राहू बुध पर दृष्टि करे तब अतिसार रोग होता है।
4 मीन या मेष लग्र में शनि तृतीय स्थान में उदर में दर्द होता है।
5 सिंह राशि में शनि चंद्र की यूति या षष्ठ या द्वादश स्थान में शनि मंगल से युति करे या अष्टम में शनि व लग्र में चंद्र हो या मकर या कुंभ लग्रस्थ शनि पर पापग्रहों की दृष्टि उदर रोग कारक है।
6 कुंभ लग्र में शनि चंद्र के साथ युति करे या षष्ठेश एवं चंद्र लग्रेश पर शनि का प्रभाव या पंचम स्थान में शनि की चंद्र से युति प्लीहा रोग कारक है।
कुष्ठ रोग:
ज्योतिष शास्त्रों में कुष्ट रोग के कुछ योग दिये हुये है। इस प्रकार के योग कई कुण्डलियों में होते भी हैं लेकिन उसको इस योग से कोई पीडा़ नही हुई। साधारणतया इस स्थिति में शनि की कारक ग्रहों पर युति का प्रभाव एवं कारक ग्रहों के बलाबल पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है। इन ग्रहों के कुछ शुभ प्रभाव से कुष्ठ तो नहीं होंगा लेकिन वात के सूक्ष्म प्रभाव के कारण दाग,दाद,छाजन, फोडे-फुंसी व एक्जीमा का प्रकोप समझना चाहिए। ये योग निम्न है-
1 शनि की मंगल व सूर्य से युति रक्त कुष्ठ होता है।
2 लग्न में शनि षष्ठेश से युति करे तो कफ विकार जनित कुष्ठ होता है।
3 सिंह व कन्या लग्न में शनि सूर्य की युति लग्न में हो तो रक्त कुष्ठ होता है।
4 शनि की मेष या वृषभ राशि में युति चन्द्र मंगल से हो तो सफेद कुष्ठ होता है।
5 शनि कर्क या मीन राशि में चन्द्र मंगल शुक्र से युति करे तो रक्त कुष्ठ होता है।
6 शनि सूर्य से युति करे तो कृष्ण कुष्ठ होता है।
7 शनि चन्द्र की नवम में युति दाद रोग कारक है।
8 जल राशिस्थ द्वितीयस्थ चन्द्र पर शनि की दृष्टि दाद रोग देती है।
हृदय रोग:
हृदय को स्वस्थ बनाये रखने हेतु सूर्य एवं चंद्र व इनकी राशियों पर शुभ प्रभाव आवश्यक है। इस दृष्टि में शुक्र हृदय को मजबूती देता हैं उच्चस्थ शुक्र वाला जातक दृढ दिलवाला होता है। जब इन सभी कारकों,भाव चतुर्थ व पंचम व इनके भावेशों पर शनि का अशुभ प्रभाव पडता हैं तो जातक हृदय विकार से ग्रसित होता हैं। हृदय विकार के प्रमुख शनिकृत ज्योतिष योग:-
1 चतुर्थ में शनि हृदय रोग कारक है। यदि बृहस्पति व चंद्र भी शनि से पीडित हो तो हृदय रोग भी तीव्र होता है।
2 मीन लग्न में शनि चतुर्थ में हो एवं सूर्य पीडित हो तो हृदय रोग होता है।
3 चतुर्थ भावस्थ शनि बृहस्पति व मंगल से युति करे तो हृदय रोग होता है।
4 षष्ठेश शनि चतुर्थ भाव में पापयुक्त हो तो हृदय रोग होता है।
शनि के कारण अन्य रोग—-
1 सूर्य व शनि किसी भी प्रकार से सम्बन्ध करें तो खांसी होती है।
2 चतुर्थेश के साथ शनि युति करे व मंगल की दृष्टि हो तो पत्थर से घात होता है।
3 मकर लग्न में शनि चतुर्थ में पापग्रहों से युति करें तो जल घात होता है।
4 मेष,वृश्चिक,कर्क या सिंह राशि में शनि शुक्र से युति हाथ-पैर कटने का योग बनाते है।
5 शनि पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो बवासीर रोग होता है।
6 लग्नस्थ शनि पर सप्तमस्थ मंगल दृष्टि कर तो बवासीर होता है।
7 सप्तम में शनि , वृश्चिक में मंगल व लग्न में सूर्य हो तो बवासीर रोग होता है।
8 शनि बारहवें भाव में हो एवं लग्नेश व मंगल सप्तम हो तो भी बवासीर रोग होता है या लग्न्ेाश या मंगल देखे तब भी बवासीर होता है।
9 मिथुन या कर्क लग्न में शनि पर राहु केतु का प्रभाव चातुर्थिक ज्वर कारक है।
10 शनि चन्द्र पर मंगल की दृष्टि हो तो पागलपन होता है।
11 छठे या आठवे भाव में शनि मंगल से युति करें तब पागलपन होता है।
12 चंद्र शनि की युति पर मंगल की दृष्टि हो तो उसे किसी पूर्व रोगी के कारण सम्पर्क क्षय होता है।
13 लग्न पर मंगल शनि की दृष्टि भी क्षयरोग कारक है।
14 छठे या द्वादश भाव में शनि मंगल से युति करें तो गण्डमाला रोग होता है।
15 लग्नस्थ शनि सूर्य पर चंद्र शुक्र की दृष्टि गुप्तांग काटने का योग बनता है।
16 शनि चंद्र से युति कर मंगल से चतुर्थ या दशम में हो तो संभोग शक्ति में कमी होती है।
17 लग्न में शनि धनु या वृषभ राशि में हो तो अल्प काम शक्ति होती है।
18 नेत्र स्थान में पापग्रह शनि से दृष्ट हो तो रोग से आंखें नष्ट होती है।
19द्वितीयेश व द्वादशेश शनि, मंगल व गुलिक से युति करें तो नेत्र रोग होता है।
20 लग्नगत सिंह राशि में सूर्य चंद्र पर शनि मंगल की दृष्टि से आंखें नष्ट होती है।
21 पंचम में शनि बृहस्पति से युति करें एवं लग्न में चंद्र हो तो धातुरोग होता है।
22 षष्ठेश त्रिक स्थानों में शनि से दृष्ट हो तो बहरापन होता है।
23 शनि से चतुर्थ में बुध व षष्ठेश त्रिक में हो तों व्यक्ति बहरा होता है।
24 शनि सूर्य चंद्र के साथ सप्तम में युति करें तो दंतरोग होता है।
25 मकर या कुंभ लग्नस्थ शनि हो तो जातक गंजा होता हैं
26 अष्टमस्थ शुक्र पर शनि राहू की दृष्टि मधुमेह रोग कारक है।
27 धनु और मकर लग्न में शनि त्रिक भावों में बृहस्पति से युति करे तो जातक गंूगा होता है।
28 लग्न में शनि सूर्य, मंगल से युति करे तो कामला/पीलिया रोग होता है अर्थात शनि का किसी भी ग्रह के साथ युति दृष्टि द्वारा सम्बन्ध बनाना जातक को उस ग्रह विशेष के कारकत्व में कमजोरी लाकर कमजोर बनाता है।
शनिकृत रोगों को दूर करने हेतु कुछ सामान्य एवं प्रभावी उपाय निम्नलिखित है-
ऽ शनि मुद्रिका शनिवार के दिन शनि मंत्र का जाप करते हुये धारण करें। काले घोडे की नाल प्राप्त कर घर के मुख्य दरवाजे परके ऊपर लगायें।
ऽ ब्ीसा यंत्र से नीलम जडकर धारण करें। शनि यंत्र को शनिवार के दिन, शनि की होरा में अष्टगंध में भोजपत्र पर बनाकर उडद के आटे से दीपक बनाकर उसमें तेल डालकर दीप प्रज्जवलित करें। फिर शनि मंत्र का जाप करते हुये यंत्र पर खेजडी के फुल पत्र अर्पित करें। तत्पश्चात इसे धारण करने से राहत मिलती हैं।
ऽ उडद के आटे की रोटी बनाकर उस पर तेल लगायें। फिर कुछ उडद के दाने उस पर रखें। अब रोगी के उपर से सात बार उसारकर उसे सुनसान स्थान में रख आयें। घर से निकालते समय व वापिस घर आते समय पीछे कदापि नही देखें एवं न ही इस अवधि में किसी से बात करें। ऐसा प्रयोग 21 दिन करने से राहत मिलती है। पूर्ण राहत न मिलने की स्थिति में इसे बढाकर 43 या 73 दिन तक बिना नागा करें। केवल पुरूष ही प्रयोग करें एवं समय एक ही रखें।
ऽ मिट्टी के नये छोटे घडे में पानी भरकर रोगी पर से सात बार उसार कर उस जल से 23 दिन खेजडी को सींचें। इस अवधि में रोगी के सिर से नख तक की नाप का काला धागा भी प्रतिदिन खेजडी पर लपेटते रहें। इससे भी जातक को चमत्कारिक ढंग से राहत मिलती हैं।
ऽ किसी बर्तन में तेल को गर्म करके उसमें गुड डालकर गुलगुले उठने के बाद उतार कर उसमें रोगी अपना मुंह देखकर किसी भिखारी को दे या उडद की बनी रोटी पर इसे रखकर भैंसे को खिला दे। शनिकृत रोग का सरलतम उपाय हैं।
ऽ एक नारियल के गोले में घी व सिंदुर भरकर उसे रोगी पर रखकर शमशान में रख आयें। पीछे नहीं देखना हैं तथा मार्ग में वार्तालाप नहीं करें। घर आकर हाथ-पैर धो लें।
ऽ शनि के तीव्रतम प्रकोप होने पर शनि मंत्र का जाप करना, सातमुखी रूद्राक्ष की अभिमंत्रित माला धारण करना एवं नित्य प्रति भोजन में से कौओं, कुत्ते व काली गाय को खिलाते रहना, यह सभी उपाय शनि कोष को कम करते हैं। इन उपायों को किसी विदृान की देख-रेख या मार्गदर्शन में करने से वांछित लाभ मिल सकता है। शमशान पर जाते समय भय नहीं रखें। तंत्रोक्त धागा पहन कर भी जानने से दुष्ट प्रवृतियां कुछ नही कर पाती हैं।

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घर का बगीचा वास्तु अनुसार

वास्तु ऐसा माध्यम है जिससे आप जान सकते हैं कि किस प्रकार आप अपने घर को सुखी व समृद्धशाली बना सकते हैं। नीचे वास्तु सम्मत ऐसी ही जानकारी दी गई है जो आपके लिए उपयोगी होगी-
1- ऐसे मकान जिनके सामने एक बगीचा हो, भले ही वह छोटा हो, अच्छे माने जाते हैं, जिनके दरवाजे सीधे सड़क की ओर खुलते हों क्योंकि बगीचे का क्षेत्र प्राण के वेग के लिए अनुकूल माना जाता है। घर के सामने बगीचे में ऐसा पेड़ नहीं होना चाहिए, जो घर से ऊंचा हो।
2- वास्तु नियम के अनुसार हर दो घरों के बीच खाली जगह होना चाहिए। हालांकि भीड़भाड़ वाले शहर में कतारबद्ध मकान बनाना किफायती होता है लेकिन वास्तु के नियमों के अनुसार यह नुकसानदेय होता है क्योंकि यह प्रकाश, हवा और ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के आगमन को रोकता है।
3- आमतौर पर उत्तर दिशा की ओर मुंह वाले कतारबद्ध घरों में तमाम अच्छे प्रभाव प्राप्त होते हैं जबकि दक्षिण दिशा की ओर मुंह वाले मकान बुरे प्रभावों को बुलावा देते हैं। हालांकि पूर्व और पश्चिम की ओर मुंह वाले कतारबद्ध मकान अनुकूल स्थिति में माने जाते हैं क्योंकि पश्चिम की ओर मुंह वाले मकान सामान्य ढंग के न्यूट्रल होते हैं।
4- पूर्व की ओर मुंह वाले घर लाभकारी होते हैं। कतार के आखिरी छोर वाले मकान लाभकारी हो सकते हैं यदि उनका दक्षिणी भाग किसी अन्य मकान से जुड़ा हो या पूरी तरह बंद हो। ऐसी स्थिति में जहां कतारबद्ध घर एक-दूसरे के सामने हों, वहां सीध में फाटक या दरवाजे लगाने से बचना चाहिए।
5- यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दक्षिण की ओर मुंह वाले घर यदि सही तरीके से बनाए जाएं तो लाभकारी परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। घर और वास्तु का गहरा नाता है। यही वजह है कि अपने सपनों का घर बनवाते हुए लोग आर्किटेक्ट से सुझाव लेना नहीं भूलते। कई बार वास्तु के हिसाब से चूक होने पर लोग घर में तोड़-फोड़ कराकर इसे दुरुस्त करने में हजारों-लाखों रुपये बर्बाद कर देते हैं। शायद आपको मालूम न हो, इस स्थिति में पेड़-पौधे ये नुकसान रोक सकते हैं। ज्योतिष और वास्तु में ये घर को सकारात्मक ऊर्जा से ओत-प्रोत करने वाले बताए गए हैं। बस जरूरत है थोड़ी जानकारी और प्रयास की। यदि आपके घर में वास्तु दोष है तो इसे मिटाने के लिए हरियाली का दामन थामना आपके लिए हर लिहाज से बेहतर विकल्प है।
ज्योतिष और वास्तु शास्त्र के अनुसार जीवनदायिनी प्रकृति के सहारे आशियाने को सेहत, सौंदर्य और समृद्धि से सराबोर किया जा सकता है। अगर मकान के खुले स्थान पर बगीचा लगा दें तो पूरा घर तरोताजा हवा एवं प्राकृतिक सौंदर्य से महक उठेगा। वास्तुशास्त्र के नजर से पेड़-पौधे उगाते हैं तो घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी होगा। चूंकि पेड़-पौधों जीवित होते हैं, इसलिए इनकी जीवंत ऊर्जा का सही उपयोग हमारे शरीर और चित्त को प्रसन्न रख सकता है। बस थोड़ा ध्यान रखना होगा कि पेड़-पौधे वास्तुशास्त्र के लिहाज से लगाए जाएं।
वास्तु और पौधे-
वास्तु में माना जाता है कि सकारात्मक ऊर्जा तरंगें हमेशा पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तथा पूर्वोत्तर से दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य कोण की ओर बहती है। ऐसे में ध्यान रखना चाहिए कि पूर्व एवं उत्तर की ओर हल्के, छोटे व कम घने पेड़-पौधे उगाए जाएं। ताकि घर में आने वाली सकारात्मक ऊर्जा के रास्ते में कोई अवरोध न हो।
तुलसी बेहद उपयोगी
इन दिशाओं से होकर घर में आने वाली हवा में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने के खातिर तुलसी के पौधे बेहद उपयोगी माने जाते हैं। वास्तु के लिहाज से माना जाता है कि तुलसी के पौधों से होकर आने वाली वायु में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ जाती है साथ ही ये शुद्ध व स्वास्थ्यवर्धक भी हो जाती है।
इसके अतिरिक्त इन दिशाओं में अन्य औषधीय पौधों का रोपण भी वास्तु में लाभकारी बताया गया है। घर के पूर्व, उत्तर और पूर्वोत्तर में पुदीना, लेमनग्रास, खस, धनिया, सौंफ, हल्दी, अदरक आदि की उपस्थिति भी तन-मन को ताजगी देते हुए चुस्ती-फुर्ती और आरोग्य देने वाली मानी जाती है।
मनी प्लांट और क्रिसमस ट्री
मनी प्लांट और क्रिसमस ट्री भी लोग घर में लगाते हैं। दोनों पौधे वास्तु की दृष्टि से समृद्धि कारक माने जाते हैं। शहर में कई परिवारों ने इन पौधों को अपने घरों में लगा रखा है। क्रिसमस ट्री इसाई परिवारों ने अपने घरों में तो मनी प्लांट का पौधा हर धर्म और जाति के लोगों के घरों में देखा जा सकता है।
खूबसूरत बालकनी
अपने मकान के मुख्य द्वार के आसपास, पूर्व, उत्तर और पूर्वोत्तर में बालकनी पर गुलाब, बेला, चमेली, ग्लेडियोलाई, कॉसमोस, कोचिया, जीनिया, गेंदा और सदाबहार जैसे फूलों के पौधे लगाए जा सकते हैं। अगर जगह कम हो तो स्टैंड वाले गमले में इन्हें लगाया जा सकता है।
पश्चिम या दक्षिणमुखी घर होने पर
घर पश्चिम और दक्षिणमुखी होने की दशा में उसके आगे या मुख्य द्वार की ओर बड़े-बड़े पेड़-पौधों समेत लताओं वाले पौध लगाए जा सकते हैं।
-पेड़ों को घर की दक्षिण या पश्चिम दिशा में लगाएं। पेड़ सिर्फ एक दिशा में ही न लग कर इन दोनों दिशाओं में लगे होने चाहिए।
-एक तुलसी का पौधा घर में जरूर लगाएं। इसे उत्तर, पूर्व या उत्तर-पूर्वी दिशा या फिर घर के सामने भी लगा सकते हैं।
-मुख्य द्वार पर पेड़ कभी भी न लगाएं। श्वेतार्क मुख्य द्वार पर लगाना वास्तु की दृष्टि से शुभ फलदायक होता है।
-नीम, चंदन, नींबू, आम, आवला, अनार आदि के पेड़-पौधे घर में लगाए जा सकते हैं।
-काटों वाले पौधे नहीं लगाएं। गुलाब के अलावा अन्य काटों वाले पौधे घर में नकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करते हैं।
-ध्यान रखें कि आपके आगन में लगे पेड़ों की गिनती 2, 4, 6, 8.. जैसी सम संख्या में होनी चाहिए, विषम में नहीं।
लोग अपने घरों की फुलवारी में या लॉन में छोटे-छोटे पौधे लगाया करते हैं। भवन में छोटे पौधों का अपने आप में बहुत महत्व होता है। घर में लगाए जाने वाले छोटे पौधों में कई पौधे ऐसे होते हैं जिनका औषधीय महत्व है। साथ ही उनका रसोई या सौंंदर्यवद्र्धन संबंधी महत्व भी है।
आज के समय में स्थान के अभाव में प्राय: लोग गमलों में ही पौधे लगाते हैं या लॉन तथा ड्राइंगरूम में सजाकर रख देते हैं। इन पौधों एवं लताओं की वजह से छोटे फ्लैटों में निवास करने वाले खुद को प्रकृति के नजदीक महसूस करते हैं एवं स्वच्छ हवा तथा स्वच्छ वातावरण का आनंद उठाते हैं।
तुलसी का पौधा इसी प्रकार का एक छोटा पौधा है जिसके औषधीय एवं आध्यात्मिक दोनों ही महत्व हैं। प्राय: प्रत्येक हिन्दू परिवार के घर में एक तुलसी का पौधा अवश्य होता है। इसे दिव्य पौधा माना जाता है। माना जाता है कि जिस स्थान पर तुलसी का पौधा होता है वहां भगवान विष्णु का निवास होता है। साथ ही वातावरण में रोग फैलाने वाले कीटाणुओं एवं हवा में व्याप्त विभिन्न विषाणुओं के होने की संभावना भी कम होती है। तुलसी की पत्तियों के सेवन से सर्दी, खांसी, एलर्जी आदि की बीमारियां भी नष्ट होती हैं।
वास्तुशास्त्र के अनुसार छोटे-छोटे पौधों को घर की किस दिशा में लगाया जाए ताकि उन पौधों के गुणों को हम पा सकें, इसकी विवेचना यहां की जा रही है।
1 तुलसी के पौधों को यदि घर की उत्तर-पूर्व दिशा में रखा जाए तो उस स्थान पर अचल लक्ष्मी का वास होता है अर्थात उस घर में आने वाली लक्ष्मी टिकती है।
2 घर की पूर्वी दिशा में फूलों के पौधे, हरी घास, मौसमी पौधे आदि लगाने से उस घर में भयंकर बीमारियों का प्रकोप नहीं होता।
3 पान का पौधा, चंदन, हल्दी, नींबू आदि के पौधों को भी घर में लगाया जा सकता है। इन पौधों को पश्चिम-उत्तर के कोण में रखने से घर के सदस्यों में आपसी प्रेम बढ़ता है।
4 घर के चारों कोनों को ऊर्जावान बनाने के लिए गमलों में भारी प्लांट को लगाकर भी रखा जा सकता है। दक्षिण -पश्चिम कोने में अगर कोई भारी प्लांट है तो उस घर के मुखिया को व्यर्थ की चिंताओं से मुक्ति मिलती है।
5 कैक्टस जैसे रुप के पौधे जिनमें नुकीले कांटे होते हैं उन्हें घर के अंदर लगाना वास्तुशास्त्र के अनुसार उचित नहीं।
6 पलाश, नागकेशकर, अरिष्ट, शमी आदि का पौधा घर के बगीचे में लगाना शुभ होता है। शमी का पौधा ऐसे स्थान पर लगाना चाहिए जो घर से निकलते समय दाहिनी ओर पड़ता हो।
7 घर के बगीचे में पीपल, बबूल, कटहल आदि का पौधा लगाना वास्तुशास्त्र के अनुसार ठीक नहीं। इन पौधों से युक्त घर के अंदर हमेशा अशांति का अम्बार लगा ही रहता है ।
8 फूल के पौधों में सभी फूलों, गुलाब, रात की रानी, चम्पा, जास्मीन आदि को घर के अंदर लगाया जा सकता है किन्तु लाल गेंदा और काले गुलाब को लगाने से चिंता एवं शोक की वृद्धि होती है।
9 शयनकक्ष के अंदर पौधे लगाना अच्छा नहीं माना जाता। बेल (लता) वाले पौधों को अगर शयनकक्ष के अंदर दीवार के सहारे चढ़ाकर लगाया जाता है तो इससे दाम्पत्य संबंधों में मधुरता एवं आपसी विश्वास बढ़ता है।
10 अध्ययन कक्ष के अंदर सफेद फूलों के पौधे लगाने से स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। अध्ययन कक्ष के पूर्व एवं दक्षिण के कोने में गमले को रखा जाना चाहिए।
11 रसोई घर के अंदर गमलों में पुदीना, धनिया, पालक, हरी मिर्च आदि के छोटे-छोटे पौधों को लगाया जा सकता है। वास्तुशास्त्र एवं आहार विज्ञान के अनुसार जिन रसोईघरों में ऐसे पौधे होते हैं वहां मक्खियां एवं चींटियां अधिक तंग नहीं करतीं तथा वहां पकने वाली सामग्री सदस्यों को स्वस्थ रखती है।
12 घर के अंदर कंटीले एवं वैसे पौधे जिनसे दूध निकलता हो, नहीं लगाने चाहिएं। ऐसे पौधों के लगाने से घर के अंदर वैमनस्य का भाव बढ़ता है एवं वहां हमेशा अशांति का वातावरण बना रहता है।
13 बोनसाई पौधों को घर के अंदर लगाना वास्तुशास्त्र के अनुसार उचित नहीं क्योंकि बोनसाई को प्रकृति के विरुद्ध छोटा कद प्रदान किया जाता है। जिस प्रकार बोनसाई का विस्तार संभव नहीं होता, उसी प्रकार उस घर की वृद्धि भी बौनी ही रह जाती है।
छोटे पौधों को उत्तर या पूर्व दिशा में लगाना चाहिए। इस बात का खयाल रखें कि उत्तर-पूर्व में खुला स्थान बना रहे। लम्बे वृक्षों को बगीचे/भवन के पश्चिम, दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम दिशा में लगाएं। इन्हें लगाते हुए यह खयाल रखें कि ये भवन की इमारत से पर्याप्त दूरी पर हों व सुबह 9 बजे से दोपहर 3 बजे के बीच इनकी छाया इमारत पर न पड़े।
विशाल दरख्तों जैसे पीपल, नीम आदि को भवन से पर्याप्त दूरी पर लगाना चाहिए, क्योंकि इनकी जड़ें भवन की नींव को क्षति पहुंचा सकती हैं। इस बात का भी खयाल रखें कि इन दरख्तों की छाया सुबह 9 बजे से दोपहर 3 बजे के बीच इमारत पर न पड़े।
कांटेदार पौधों को घर में कभी नहीं लगाना चाहिए क्योंकि ऐसे पौधे नकारात्मक ऊर्जा के वाहक होते हैं। खासकर कैक्टस तो बिल्कुल भी नहीं। इनकी घर में उपस्थिति अशुभ मानी जाती है। अगर आपके घर में कोई कांटेदार पौधा है भी, तो उसे तुरंत उखाड़ फेंकें।
लताओं यानी बेलनुमा पौधों को आंगन या घर की दीवार पर न फैलने दें। इन्हें बगीचे में ही लगाएं और इन्हें अपनी सहायता से आप फैलने दें, लेकिन इन्हें बढऩे के लिए घर या आंगन की दीवार का सहारा न दें। मनी प्लांट अवश्य घर के भीतर लगाया जा सकता है। जो वृक्ष सांप, मधुमक्खी, कीड़े, चीटिंयों, उल्लू आदि को आमंत्रित करते हैं, ऐसे वृक्षों को बगीचे में न लगाएं।


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कुलधरा- एक वीरान गाँव

हॉन्टेड विलेज -कुलधरा
 एक श्राप के कारण 170 सालों से हैं वीरान - रात को रहता है भूत प्रेतों का डेरा
हमारे देश भारत के कई शहर अपने दामन में कई रहस्यमयी घटनाओ को समेटे हुए है ऐसी ही एक घटना हैं राजस्थान के जैसलमेर जिले के कुलधरा गाँव कि, यह गांव पिछले 170 सालों से वीरान पड़ा हैं। कुलधरा गाँव के हजारों लोग एक ही रात में इस गांव को खाली कर के चले गए थे और जाते जाते श्राप दे गए थे कि यहाँ फिर कभी कोई नहीं बस पायेगा। तब से गाँव वीरान पड़ा हैं।
कहा जाता है कि यह गांव रूहानी ताकतों के कब्जे में हैं, कभी एक हंसता खेलता यह गांव आज एक खंडहर में तब्दील हो चुका है। टूरिस्ट प्लेस में बदल चुके कुलधरा गांव घूमने आने वालों के मुताबिक यहां रहने वाले पालीवाल ब्राह्मणों की आहट आज भी सुनाई देती है। उन्हें वहां हरपल ऐसा अनुभव होता है कि कोई आसपास चल रहा है। बाजार के चहल-पहल की आवाजें आती हैं, महिलाओं के बात करने उनकी चूडिय़ों और पायलों की आवाज हमेशा ही वहां के माहौल को भयावह बनाते हैं। प्रशासन ने इस गांव की सरहद पर एक फाटक बनवा दिया है जिसके पार दिन में तो सैलानी घूमने आते रहते हैं लेकिन रात में इस फाटक को पार करने की कोई हिम्मत नहीं करता हैं।
वैज्ञानिक तरीके से हुआ था गाँव का निर्माण - कुलधरा जैसलमेर से लगभग अठारह किलोमीटर की दूरी पर स्थिति है। पालीवाल समुदाय के इस इलाके में चौरासी गांव थे और यह उनमें से एक था। मेहनती और रईस पालीवाल ब्राम्हणों की कुलधरा शाखा ने सन 1291 में तकरीबन छह सौ घरों वाले इस गांव को बसाया था। कुलधरा गाँव पूर्ण रूप से वैज्ञानिक तौर पर बना था। ईट पत्थर से बने इस गांव की बनावट ऐसी थी कि यहां कभी गर्मी का अहसास नहीं होता था। कहते हैं कि इस कोण में घर बनाए गये थे कि हवाएं सीधे घर के भीतर होकर गुजऱती थीं। कुलधरा के ये घर रेगिस्तान में भी वातानुकूलन का अहसास देते थे। इस जगह गर्मियों में तापमान 45 डिग्री रहता हैं पर आप यदि अब भी भरी गर्मी में इन वीरान पडे मकानो में जायेंगे तो आपको शीतलता का अनुभव होगा। गांव के तमाम घर झरोखों के ज़रिए आपस में जुड़े थे इसलिए एक सिरे वाले घर से दूसरे सिरे तक अपनी बात आसानी से पहुंचाई जा सकती थी। घरों के भीतर पानी के कुंड, ताक और सीढिय़ां कमाल के हैं ।
पालीवाल ब्राम्हण होते हुए भी बहुत ही उद्यमी समुदाय था। अपनी बुद्धिमत्ता, अपने कौशल और अटूट परिश्रम के रहते पालीवालों ने धरती पर सोना उगाया था। हैरत की बात ये है कि पाली से कुलधरा आने के बाद पालीवालों ने रेगिस्तानी सरज़मीं के बीचोंबीच इस गांव को बसाते हुए खेती पर केंद्रित समाज की परिकल्पबना की थी। रेगिस्ताआन में खेती पालीवालों के समृद्धि का रहस्य था। जिप्सम की परत वाली ज़मीन को पहचानना और वहां पर बस जाना। पालीवाल अपनी वैज्ञानिक सोच, प्रयोगों और आधुनिकता की वजह से उस समय में भी इतनी तरक्की कर पाए थे।
पालीवाल समुदाय आमतौर पर खेती और मवेशी पालने पर निर्भर रहता था और बड़ी शान से जीता था। जिप्सम की परत बारिश के पानी को ज़मीन में अवशोषित होने से रोकती और इसी पानी से पालीवाल खेती करते और ऐसी वैसी नहीं बल्कि जबर्दस्त फसल पैदा करते। पालीवालों के जल-प्रबंधन की इसी तकनीक ने थार रेगिस्तान को इंसानों और मवेशियों की आबादी या तादाद के हिसाब से दुनिया का सबसे सघन रेगिस्तान बनाया। पालीवालों ने ऐसी तकनीक विकसित की थी कि बारिश का पानी रेत में गुम नहीं होता था बल्कि एक खास गहराई पर जमा हो जाता था।
 कुलधरा गाँव के खंडहर : कुलधरा के वीरान होने कि कहानी
जो गाँव इतना विकसित था तो फिर क्या वजह रही कि वो गाँव रातों रात वीरान हो गया। इसकी वजह था गाँव का अय्याश दीवान सालम सिंह जिसकी गन्दी नजऱ गाँव कि एक खूबसूरत लड़की पर पड़ गयी थी। दीवान उस लड़की के पीछे इस कदर पागल था कि बस किसी तरह से उसे पा लेना चाहता था। उसने इसके लिए ब्राह्मणों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। हद तो तब हो गई कि जब सत्ता के मद में चूर उस दीवान ने लड़की के घर संदेश भिजवाया कि यदि अगले पूर्णमासी तक उसे लड़की नहीं मिली तो वह गांव पर हमला करके लड़की को उठा ले जाएगा। गांववालों के लिए यह मुश्किल की घड़ी थी। उन्हें या तो गांव बचाना था या फिर अपनी बेटी। इस विषय पर निर्णय लेने के लिए सभी 84 गांव वाले एक मंदिर पर इक_ा हो गए और पंचायतों ने फैसला किया कि कुछ भी हो जाए अपनी लड़की उस दीवान को नहीं देंगे।
फिर क्या था, गांव वालों ने गांव खाली करने का निर्णय कर लिया और रातोंरात सभी 84 गांव आंखों से ओझल हो गए। जाते-जाते उन्होंने श्राप दिया कि आज के बाद इन घरों में कोई नहीं बस पाएगा। आज भी वहां की हालत वैसी ही है जैसी उस रात थी जब लोग इसे छोड़ कर गए थे।
पालीवाल ब्राह्मणों के श्राप का असर यहां आज भी देखा जा सकता है। जैसलमेर के स्थानीय निवासियों की मानें तो कुछ परिवारों ने इस जगह पर बसने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो सके। स्थानीय लोगों का तो यहां तक कहना है कि कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जो वहां गए जरूर लेकिन लौटकर नहीं आए। उनका क्या हुआ, वे कहां गए कोई नहीं जानता।
पर्यटक यहां इस चाह में आते हैं कि उन्हें यहां दबा हुआ सोना मिल जाए। इतिहासकारों के मुताबिक पालीवाल ब्राह्मणों ने अपनी संपत्ति जिसमें भारी मात्रा में सोना-चांदी और हीरे-जवाहरात थे, उसे जमीन के अंदर दबा रखा था। यही वजह है कि जो कोई भी यहां आता है वह जगह-जगह खुदाई करने लग जाता है। इस उम्मीद से कि शायद वह सोना उनके हाथ लग जाए। यह गांव आज भी जगह-जगह से खुदा हुआ मिलता है।
कुलधरा गाँव में एक प्राचीन मंदिर के अवशेष
मई 2013 में दिल्ली से आई भूत प्रेत व आत्माओं पर रिसर्च करने वाली पेरानार्मल सोसायटी की टीम ने कुलधरा गांव में बिताई रात। टीम ने माना कि यहां कुछ न कुछ असामान्य जरूर है। टीम के एक सदस्य ने बताया कि विजिट के दौरान रात में कई बार मैंने महसूस किया कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, जब मुड़कर देखा तो वहां कोई नहीं था। पेरानॉर्मल सोसायटी के उपाध्यक्ष अंशुल शर्मा ने बताया था कि हमारे पास एक डिवाइस है जिसका नाम गोस्ट बॉक्स है। इसके माध्यम से हम ऐसी जगहों पर रहने वाली आत्माओं से सवाल पूछते हैं। कुलधरा में भी ऐसा ही किया जहां कुछ आवाजें आई तो कहीं असामान्य रूप से आत्माओं ने अपने नाम भी बताए। शनिवार चार मई की रात्रि में जो टीम कुलधरा गई थी उनकी गाडिय़ों पर बच्चों के हाथ के निशान मिले। टीम के सदस्य जब कुलधरा गांव में घूमकर वापस लौटे तो उनकी गाडिय़ों के कांच पर बच्चों के पंजे के निशान दिखाई दिए।


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