Wednesday 28 October 2015

टॉनॅनसिल रोग: ज्योतिष्य तथ्य

टॉनॅनसिलाइटिसः खान-पान में सावधानी का अभाव टॉनसिलाइटिस एक बाल रोग है, जो बच्चों को बचपन में ही अपने शिकंजे में जकड़ लेता है। इस का मुखय कारण गलत खान-पान होता है। अगर बड़े होने पर भी खान-पान गलत रहें, तो बड़े हो कर भी यह रोग हो सकता है। जो बालक बचपन में अपने खान-पान का ध्यान न रखते हुए खट्टी, तली और मसालेदार चीजों का उपयोग करते हैं, उन्हें टॉनसिलाइटिस रोग हो जाता है। हर व्यक्ति के गले में दो नरम मांस के लिज़लिजे टुकड़े होते हैं, जो श्लेष्मल झिल्ली से जुड़े होते हैं। इनके द्वारा लसिका का भ्रमण होता है, जो रक्तधारा से जीवाणुओं और गंदगी को दूर करने में मदद करता है। गले का टॉनसिल वाला भाग जब जीवाणु, या विषाणु के कारण दूषित हो जाता है, तो उसे टॉनसिलाइटिस कहते हैं। इसमें ग्रसनी लसिका के ढांचे में सूजन आ जाती है। साथ ही लसिका ग्रंथि और उसके आसपास का क्षेत्र भी सूज कर लाल हो जाता है। टॉनसिल एक तरह का पहरेदार है, जो मुंह और नाक द्वारा शरीर के अंदर जाने वाले नुकसानदायक पदार्थों से बचाता है। जब शरीर के अंदर कोई गलत चीज जाती है, तो यह पहरेदार सारा नुकसान अपने ऊपर ले लेता है; अर्थात् टॉनसिल सूज जाता है। टॉनसिल की इस सूजी अवस्था को टॉनसिलाइटिस कहते हैं। टॉनसिलाइटिस हो जाने पर अक्सर डॉक्टर शल्य क्रिया द्वारा टॉनसिल बाहर निकाल देते हैं, जो गलत है। आधुनिक अनुसंधानों से मालूम हुआ है कि टॉनसिल को निकाल देने से व्यक्ति के शरीर में रोगनिरोधक शक्ति समाप्त हो जाती है। अनचाही वस्तु शरीर में प्रवेश कर शरीर को नुकसान पहुंचा कर बाद में कई प्रकार की समस्याएं खड़ी कर सकती हैं, जैसे संदूषण हमारे शरीर में घुस जाता है तथा आराम से हृदय, जोड़ों, या गुर्दे, गॉलब्लैडर में बैठ जाता है, तथा शरीर के उन भागों को धीरे-धीरे कमजोर कर देता है, ठीक वैसे ही जैसे जंग लोहे को खा जाता है। टॉनसिल एक अंतःस्रावी ग्रंथि है, जो अवतु ग्रंथि की विरोधी है। अतः जब टॉनसिल को निकाल दिया जाता है, तो थायराइड बहुत बढ़ जाता है। क्योंकि थायराइड पियूष ग्रंथि का विरोधी हैं, इसलिए पियूष ग्रंथि का कार्य बिगड़ जाता है। अतः कई बार बढ़ते बच्चों की याददाश्त बिगड़ जाती है। टॉनसिल के किसी भी मरीज को ठीक करने का अर्थ है, उसके शरीर में इस प्रकार की प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न करना, जिससे वह शरीर के हानिकारक सूक्ष्म जीवों से लड़ सके। जब शरीर की प्रतिरक्षा पद्धति भंग होती है, तब जीवाणु हमारे शरीर के अंदर प्रविष्ट होते हैं, जो पहले टॉनसिल और बाद में पूरे शरीर को हानि पहुंचाते हैं। ज्योतिषीय दृष्टिकोण : ज्योतिषीय दृष्टिकोण से जन्मकुंडली में तृतीय भाव से गले का विचार किया जाता है। तृतीय भाव का कारक ग्रह मंगल है। मंगल को ग्रह मंत्रिमंडल में सेनापति माना गया है और सेनापति का कार्य सुरक्षा करना है। टॉनसिल भी एक तरह का सुरक्षा प्रहरी है, जो हमें नुकसान पहुंचाने वाले विषाणुओं से बचाता है। इसलिए टॉनसिल का कारक ग्रह मंगल है। कुंडली में तृतीय भाव, मंगल, तृतीयेश और लग्नेश जब दूषित प्रभावों में रहते हैं, तो टॉनसिल रोग, या गले से संबंधित रोग होता है। विभिन्न लग्नों में टॉनसिल रोग : मेष लग्न : बुध तृतीय भाव में, शनि षष्ठ भाव में, या लग्न में हो और राहु की दृष्टि लग्न, या तृतीय भाव पर हो और लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में हो, तो टॉनसिल रोग होता है। वृष लग्न : तृतीयेश चंद्र षष्ठ भाव में हो, लग्नेश शुक्र धनु, या मीन राशि में रहे, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है। मिथुन लग्न : मंगल तृतीय भाव में हो, तृतीयेश षष्ठ भाव में लग्नेश से युक्त हो, लग्नेश अस्त हो और तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट, या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है। कर्क लग्न : तृतीयेश बुध षष्ठ भाव में, मंगल-शनि से युक्त, केंद्र में हो, लग्नेश चंद्र अपनी नीच राशि में राहु, या केतु से दृष्ट हो, तृतीय भाव पर षष्ठेश की दृष्टि हो, तो टॉनसिल से बच्चों को समस्या रहती है। सिंह लग्न : मंगल अष्टम भाव में, तृतीयेश षष्ठ भाव में शनि से युक्त हो और बुध तृतीय भाव में राहु से युक्त, या दृष्ट हो, तो गले संबंधी रोग होता है। कन्या लग्न : मंगल अष्टम भाव में और राहु तृतीय भाव में हों, तृतीय भाव पर गुरु की दृष्टि हो, लग्नेश बुध त्रिक भावों में अस्त हो, तो टॉनसिल जैसे गले से संबंधित रोग होते हैं। तुला लग्न : गुरु अष्टम भाव, या दशम भाव में हो, चंद्र गुरु से त्रिक स्थानों में हो, बुध तृतीय भाव में मंगल से युक्त हो और लग्नेश शुक्र अस्त हो और राहु-केतु से दृष्ट हो, तो ऐसे रोग होते हैं। वृश्चिक लग्न : बुध तृतीय भाव में हो और लग्नेश मंगल षष्ठ, या अष्टम भाव में राहु या केतु से दृष्ट हो, चंद्र शनि से युक्त, या दृष्ट हो, तो टॉनसिल जैसे रोगों का जन्म होता है। धनु लग्न : शुक्र लग्न में हो और शनि से युक्त हो, मंगल तृतीय भाव में बुध से युक्त हो और राहु, या केतु से दृष्ट हो, लग्नेश षष्ठ भाव में हो, तो टॉनसिल रोग होता है। मकर लग्न : गुरु लग्न में हो, मंगल राहु, या केतु से दृष्ट, या युक्त हो और अष्टम भाव में स्थित हो, तृतीयेश पर लग्नेश की दृष्टि हो, तो टॉनसिलाइटिस रोग होता है। कुंभ लग्न : गुरु तृतीय भाव में, मंगल द्वादश भाव में राहु या केतु से युक्त, या दृष्ट हो, तृतीय भाव पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो टॉनसिल जैसे रोग की उत्पत्ति होती है। मीन लग्न : शुक्र षष्ठ भाव और गुरु अष्टम भाव में, बुध तृतीय भाव में, मंगल चतुर्थ, या सप्तम में हो, लेकिन सूर्य से अस्त हो, तो टॉनसिल होने की संभावना होती है। उपर्युक्त सभी योग चलित कुंडली पर आधारित हैं। रोग की उत्पत्ति संबंधित ग्रह दशा-अंतर्दशा और गोचर ग्रह के प्रतिकूल रहने से होता है। जब तक दशा-अंतर्दशा प्रतिकूल रहेंगे, शरीर में रोग रहेगा। उसके बाद ठीक हो जाएगा। लेकिन ठीक अवस्था में भी पाचन संस्थान में कुछ व्याधि रहेगी। वृष लग्न में तृतीयेश चंद्र षष्ठ भाव में हो, लग्नेश शुक्र धनु, या मीन राशि में रहे, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है।

उपवास:एक प्राकृतिक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा एक ऐसी प्रणाली है जिसमें प्राकृतिक रूप से उपचार किया जाता है। इसमें बाहरी दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता। जब हम प्राकृतिक रूप छोड़ आप्रकृतिक रूप से जीवन शैली अपनाते हैं तो शरीर में कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं जिससे हम रोगी हो जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा हम इन्हीं दोषों को शरीर से बाहर कर रोगी को निेरोगी बनाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में कई प्रकार के उपचार किये जाते हैं जिनमें एक उपचार ‘‘उपवास’ है अर्थात् भोजन त्याग कर रोग का उपचार। उपवास के द्वारा हम तरह-तरह के रोगों को दूर कर सकते हैं। वैसे भी यह सत्य है कि जब हमारा पेट खराब हो जाता है या हमें कभी ज्वर आदि होता है तो हमारी भूख समाप्त हो जाती है अर्थात प्रकृति रोग को दूर करने के लिए हमें उपवास करने का निर्देश देती है। पर हम हैं कि इस निर्देश को समझते ही नहीं और भूख को पुनः खोलने के लिए तरह-तरह की बाहरी दवाओं का प्रयोग करने लगते हैं। पर वास्तविकता विपरीत है। दवा थोड़ी देर के लिए तो काम करती है लेकिन जैसे ही दवा का असर समाप्त हो जाता है रोग फिर वहीं का वहीं आ जाता है। यही स्थिति खतरे का ऐलान करती है। ऐसे खतरे से बचने के लिए सब से उत्तम उपचार व उपाय ‘उपवास’ है। वास्तव में रोग जो बाहरी रूप से हमें परेशान करता लगता है वहीं भीतरी रूप से हमें रोग मुक्त करने का काम कर रहा होता है। रोग के द्वारा प्रकृति हमारे शरीर में बनने वाले विजातीय तत्वों को बाहर निकालने का काम कर रही होती है। प्रकृति नियमों का विरोध नहीं करती, हम ही लापरवाही कर प्रकृति की चेतावनी की ओर ध्यान नहीं देते और रोग होने पर भी खाते-पीते रहते हैं जिसका प्रभाव उल्टा होता है भोजन पच नहीं पाता और उल्टी या जी मिचलाने लगता है। ऐसिडिटी हो जाती है। इसलिए रोग की हालत में जहां तक हो सके भोजन छोड़ देना चाहिए इससे किसी को कोई हानि नहीं होती। रोग की स्थिति में पशु-पक्षी भी खाना छोड़ देते हैं और जल्द ही निरोगी हो जाते हैं ऐसा देखा गया है। उपवास कैसे करें: उपवास में भोजन छोड़ने को कहा जाता है लेकिन पानी पीना छोड़ने के लिए नहीं। इसलिए उपवास करने वाले व्यक्ति को हर एक घंटे बाद एक गिलास पानी अवश्य पीना चाहिए। यदि पानी में नींबू निचोड़ कर दिया जाय तो यह बहुत लाभकारी है। उपवास का कार्य: उपवास में शरीर के भीतर का मल पचने लगता है। भीतर की अग्नि उसको भस्म करने लगती है और रोगी नई ऊर्जा प्राप्त करने लगता है मोटे व्यक्ति के लिए तो उपवास विशेष लाभकारी है क्योंकि चर्बी भीतर की अग्नि में जलने लगती है और मोटापा कम होने लगता है। शारीरिक ऊर्जा पेशियों, रक्त, जिगर के विजातीय द्रव्यों को भी जला देती है। शारीरिक ताप उपवास के कारण शांत रहता है। उपवास की अवधि: उपवास की अवधि रोगी की शारीरिक, मानसिक शक्ति और रोग पर निर्भर करती है। वैसे उपवास कम से कम दो-तीन दिन या एक सप्ताह और अधिक से अधिक दो माह तक किया जा सकता है। कमजोर शरीर वाले रोगियों को दो-तीन दिन से एक सप्ताह तक के उपवास में रहने को कहा जाता है और भारी या शक्तिशाली शरीर वाले व्यक्ति को दो माह तक के उपवास के लिए प्रेरित किया जाता है। इसी प्रकार नए रोग में उपवास की अवधि तीन दिन से एक सप्ताह और पुराने रोगों में लंबे समय के उपवास की सलाह दी जाती है। इसलिए चिकित्सक को रोगी की शारीरिक और मानसिक क्षमता की डाॅक्टरी जांच करवा उपचार के लिए प्रेरित करना चाहिए। उपवास कैसे तोड़ें: उपवास तोड़ने में निम्न बातों को अपनाना चाहिए। अनार, सेब, अंगूर आदि मौसमी फलों के रस का सेवन कर उपवास तोड़ना चाहिए। रोटी-दाल सब्जी आदि ठोस पदार्थ न खाएं। - फलों का रस अवधि प्रक्रिया के हिसाब से लेना चाहिए जैसे यदि उपवास एक माह का है तो उपवास के बाद एक सप्ताह तक फलों का रस पिएं। - फलों के रस के बाद उबली हुई बिना मसाले की सब्जियां लेनी चाहिए। - सब्जियों के लगभग एक सप्ताह बाद रोटी-चावल आदि लेना चाहिए। - प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन न करें। - प्रातः काल हल्का फुल्का नाश्ता लेना चाहिए। - दोपहर का भोजन हल्का और एक से दो के बीच लेना चाहिए। - रात्रि में शाम सात से आठ बजे तक हल्का भोजन करना चाहिए। खाने के बाद कम से कम सौ कदम सैर करनी चाहिए। रात्रि भोजन के कम से कम दो घंटे बाद सोना चाहिए। उपवास के लाभ: - शरीर की अतिरिक्त चर्बी जल कर समाप्त होती है जिससे मोटापा कम होता है और मोटापा नहीं होता। - कायाकल्प होकर व्यक्ति के शरीर को नवीनता मिलती है। - शरीर के अतिरिक्त गर्मी शांत होती है और रोगों का नाश होता है। - शरीर में रोग विरोधी ताकत बढ़ती है। - मांसपेशियों, मस्तिष्क, जननेन्द्रिय आदि को अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त होती है। - विचारों में भी शुद्धता आती है। स्मरण शक्ति की बढ़ोत्तरी होती है। - शरीर में स्फूर्ति आने लगती है। - कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। उपवास में सावधानियां: - उपवास करना जितना सरल लगता है उतना ही हानिकारक भी हो सकता है इसलिए निम्न सावधानियांे का ध्यान रखना चाहिए। - उपवास करने से पहले उपवास के विषय में पूरी जानकारी हासिल करनी चाहिए। किसी प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ से पूरी जानकारी लें या किसी विशेषज्ञ की देखरेख में उपवास करें। - उपवास रखने से पहले अपने आप को सही तरीके से तैयार करें- यदि उपवास एक या दो माह के लिए करना है तो उपवास की अवधि को धीरे-धीरे बढ़ाएं अर्थात् खाना धीरे-धीरे छोड़ें। शुरू में जितना खाना आप प्रतिदिन खाते हैं उसे धीरे-धीरे प्रतिदिन कम करते जायें और पूर्ण उपवास में आएं। - उपवास से पहले अपने शरीर की डाॅक्टरी जांच करवाएं। जैसे ब्लड प्रेशर, ब्लड शूगर, आदि अन्यथा उपवास हानिकारक हो सकता है। - यदि उपवास रखने पर शरीर में कमजोरी महसूस हो तो उपवास तोड़कर नींबू संतरे का रस लेना चाहिए। - उपवास की अवधि में स्वप्न, ध्यान, मुंह साफ करना आदि के कार्य नित्य नियम से करते रहना चाहिए। दांतों की सफाई, जीभ की सफाई नित्य करते रहना चाहिए। -उपवास की अवधि में प्रातः काल सौर अवश्य करें। ताजी खुली हवा में सैर करने से लाभ होता है। - उपवास अवधि में शरीर के कई प्रकार के विजातीय उपद्रव शुरू हो जाते हैं जैसे नींद न आना, कमजोरी महसूस होना, हल्की हरकत हो जाना, सिर दर्द होना व जलन आदि। पर इससे घबराना नहीं चाहिए क्योंकि यह अपने आप ही ठीक हो जाते हैं। ऐसे में एनिमा काफी लाभकारी होता है।

हस्तरेखा और मोटापा व अन्य रोग

हस्तरेखा और मोटापा व अन्य रोग आज के मशीनी युग में जन मानस की दिनचर्या भी एक मशीन के समान होकर रह गई है। हर व्यक्ति दन रात काम ही काम में लगा रहता है। समयाभाव के कारण वह प्रकृति प्रदत्त उपहारों जैसे स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, सूर्य की किरणों का सूर्य उदय के समय मिलने वाला प्रकाश और उष्णता, शुद्ध विटामिनों आदि के लाभ से वंचित रह जाते हैं। स्वच्छ वायु के बदले हम एअरकंडिशनर में रहना पसंद करते हैं, रात देर से सोते हैं और सुबह तब उठते हैं जब सूर्य की किरणें तीव्र होकर अपनी उपयोगिता कम कर चुकी होती हैं। शुद्ध जल के बदले हम कोला और नशीले पेय पदार्थों का सेवन करने लगे हैं। शुद्ध और ताजे फलों तथा सब्जियों का स्थान जंक फूड और फास्ट फूड ने ले लिया है। यही कारण है कि आज मोटापे और डायबिटीज की शिकायत आम हो चली है। हम पूर्ण रूप से प्रकृति के विरुद्ध चल रहे हैं और हमारा शारीरिक स्वास्थ्य और सौंदर्य अपने सौद्गठव को छोड़कर बढ़ती हुई चर्बी के कारण प्रतिकूल होता जा रहा है। साथ ही तनावपूर्ण मशीनी जिंदगी के कारण हम डाइबिटीज तथा इस जैसे अन्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। इन दुष्परिणामों पर जब हमारा ध्यान जाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और हम इन्हें ढोने को लाचार हो जाते हैं। इन बीमारियों से मुक्ति और बचाव में अन्य चिकित्साओं की भांति हमारे हाथ की रेखाएं भी सहायक हो सकती हैं, क्योंकि ये रेखाएं हमारी द्राारीरिक संरचना का आइना हैं। हम किंचित ध्यान देकर इन रेखाओं के विश्लेद्गाण से हो चुकी और होने वाली बीमारियों की स्थिति का पता लगाकर उनसे मुक्ति और बचाव का उपाय कर सकते हैं। यहां मोटापे, डायबिटीज तथा कुछ अन्य आम रोगों के लक्षणों को दर्शाने वाली रेखाओं तथा अन्य चिह्नों का विशलेद्गाण प्रस्तुत है, जिसे पढ़कर एक आम पाठक भी लाभ उठा सकता है। यदि मस्तिष्क रेखा चंद्र क्षेत्र पर जाए, हाथ नरम हो, राहु और शनि दबे हुए हों, तो यह लक्षण डाइबिटीज का सूचक है। यदि भाग्य रेखा मोटी से पतली हो और उसे राहु रेखाएं काट रही हों तो यह मोटापे व डाइबिटीज दोनों का लक्षण है। यदि मंगल क्षेत्र पर बहुत अधिक कट फट हो, मस्तिष्क रेखा द्विभाजित हो और उसमें द्वीप हो, तो यह शुगर का लक्षण है। आयु देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि किस उम्र में यह लक्षण अपना प्रभाव दिखा रहा है। जीवन रेखा खंडित व अधूरी हो और उसमें द्वीप हो, भाग्य रेखा जीवन रेखा के पास हो और दोनों रेखाओं को मोटी-मोटी रेखाएं काट रही हों, तो व्यक्ति को न शुगर के साथ-साथ अन्य कई रोग होने की संभावना भी रहती है। हाथ सखत हो, अंगूठा व उंगलियां आगे की तरफ झुकी हों तथा शनि, मंगल और राहु दबे हों, तो व्यक्ति को डाइबिटीज के अतिरिक्त पेट से जुड़े रोग भी हो सकते हैं। हाथ मुलायम और गद्देदार हो, भाग्य रेखा एक से अधिक हों और आगे जाकर सभी पतली हो रही हों, तो यह मोटापे का लक्षण है। ऐसे व्यक्ति की उम्र बढ़ने के साथ-साथ मोटापा भी बढ़ता चला जाता है। हाथ मांसल न हो और उसमें गड्ढा बनता हो, तो व्यक्ति को डाइबिटीज होने की संभावना रहती है। इस प्रकार हस्त रेखाओं के अध्ययन-विश्लेद्गाण से हम मोटापे व डाइबिटीज के अतिरिक्त अन्य बीमारियों का पता लगाकर उसके अनुरूप उपायों के द्वारा निजात पा सकते हैं, परंतु इसके लिए आवच्च्यक है कि यह विश्लेद्गाण किसी योग्य और अनुभवी हस्तरेखाविद से कराया जाए।

रत्नों से रोग ज्ञान

रत्नों को धारण करके हम अपनी कार्यक्षमता, गतिविधि, क्रिया-प्रतिक्रिया, सोच में निश्चित रूप से परिवर्तन कर सकते हैं। प्राचीन ग्रंथों में माणिक्य, मोती, मूंगा आदि नवरत्नों के धारण करने के लाभ व इनको धारण करने की विधि की विस्तारपूर्वक चर्चा पाई जाती है, इसी के साथ-साथ ज्योतिष शास्त्र में विभिन्न धातुओं के साथ रत्नों को पहनने की चर्चा की गई है। आधुनिक विज्ञान ने भी यह माना है कि विभिन्न धातुओं के साथ रत्न पहनने से इनके गुणों में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हो जाती है जो कि शरीर के लिये लाभदायक उत्प्रेरक का कार्य करती है। रत्नों की उपयोगिता हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी वर्णित है, तभी तो पुराने समय के राजा-महाराजा, रानी-महारानी, साधारण प्रजा अपने लिये लाभदायक रत्न धारण किये हुये परिलक्षित होते हैं। राजा लोग युद्ध पर जाते समय विशेष प्रकार के रत्न धातुओं में जड़वाकर जाते थे और विजय प्राप्त करते थे। व्यापारी वर्ग व्यापार प्रारंभ करने से पूर्व विशेष रत्न जड़ित यंत्र आदि की स्थापना व्यापार स्थल पर कर व्यापार प्रारंभ करते थे। रत्न पहनना तभी कारगर होता है जब इनको निर्धारित प्रक्रिया, मुहूर्त आदि के अनुसार धारण किया जाय, रत्नों के धारण करने के महत्व का वर्णन गीता रामायण आदि में भी आया है। यदि रत्न पूर्ण शास्त्रोक्त विधि तथा ज्योतिष विज्ञान में बताये गये नियमों एवं निर्देशों के साथ पहना जाता है तो शुभ फल एवं यदि नियमों एवं निर्देशों का पालन न करते हुये धारण किया गया होगा तो अशुभ फल प्राप्त होगा। ऐसा अनुभव किया गया है कि रत्न तीन से सात दिन में अपना प्रभाव दिखाने लगते हैं। आज तक हुये अनुसंधानों एवं प्रमाणों से सिद्ध हुआ है कि कुछ विशिष्ट रत्नों को धारण करने से रोगों का भी शमन होता है। कुछ विशिष्ट रोगांे में रत्न धारण करने का विधान इस प्रकार है: एड्स जन्मांग में जब शुक्र और मंगल की युति वृष या वृश्चिक राशि में हो और इनपर शनि या राहु की दृष्टि हो या लग्न में मंगल या शनि स्थित हो और चंद्रमा की दृष्टि हो तो एड्स रोग होने की संभावना रहती है। इस रोग से बचाव हेतु फिरोजा, मूनस्टोन पुखराज, नीलम आदि पहना जाता है। गठिया मिथुन, तुला तथा कुंभ राशि के लोग इस रोग से अधिक परेशान होते हैं। इसी के साथ-साथ गुरु लग्न में तथा शनि सातवें भाव में होंगे तो गठिया रोग होने की संभावना बनती है। वृष, सिंह, कन्या, मकर, मीन राशियों में यदि शनि राहु की युति और इन पर मंगल की सीधी दृष्टि होगी तो निश्चित ही गठिया होने की संभावना बनी रहेगी। बलहीन सूर्य भी इस रोग का कारण हो सकता है। इस रोग से बचाव हेतु सोने या तांबे में गोमेद तथा पुखराज धारण कराया जाता है। हृदय रोग जन्मांग में सूर्य या चंद्र पर राहु, मंगल, शनि की दृष्टि हो तो 40-45 वर्ष की आयु में हृदय रोग होने की संभावना कही जाती है। राहु मंगल का संबंध अशुभ सूर्य से होने पर भी हृदय रोग हो सकता है। कर्क या मकर राशि में पाप ग्रह स्थित हो तो हृदय रोग हो सकता है। इस रोग से बचाव हेतु मूंगा व पुखराज धारण करवाया जाता है। यदि किन्हीं कारणों से लाभ प्राप्त नहीं होता है तो पन्ना, मोती धारण कराया जाता है। एनीमिया जन्मांग में जब सूर्य और शनि पीड़ित हो तो पेट की खराबी से यह रोग होता है। यदि त्रिकोण भाव ग्रहरहित हो तो भी यह रोग हो सकता है। गुरु सिंह राशि में मंगल से षष्ठ, अष्टम या द्वादश होने पर भी यह रोग हो सकता है। इस रोग से छुटकारे हेतु मूंगा तथा पुखराज पहनाया जाता है। ब्लड कैंसर मंगल पर शनि तथा राहु-केतु की दृष्टि होने पर यह रोग हो सकता है। नीच सूर्य भी इसका कारक होता है। इस रोग से बचाव हेतु मूंगा, माणिक्य, लहसुनिया, गोमेद धारण कराया जाता है। सफेद दाग वृष राशि में चंद्र, मंगल, शनि का संबंध इस रोग का कारक होता है। चंद्रमा लग्न में, मंगल द्वितीय में, सूर्य सप्तम में तथा शनि द्वादश भाव में हो तो सफेद दाग हो सकते हैं। चंद्रमा तथा शुक्र का योग किसी भी जलराशि में होने पर भी रोगकारक होता है। बुध शत्रु राशि में अस्त हो, शुक्र नीच राशि में वक्री हो तो भी यह रोग हो सकता है। इस रोग से बचाव हेतु हीरा, फिरोजा, मोती धारण करवाया जाता है। गंजापन सूर्य लग्न, तुला या मेष राशि में स्थित होकर शनि पर दृष्टिपात करता हो तो यह रोग हो सकता है। गंजेपन से बचाव हेतु माणिक्य और पुखराज संयुक्त करके पहनाया जाता है। कैंसर चंद्रमा किसी भी राशि का होकर छठे, आठवें, बारहवें भाव में हो और इस पर तीन पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो निश्चित ही इस रोग का कारक माना गया है। छठे भाव में स्थिर राशि का मंगल भी इसका कारक हो सकता है। गुरु और शनि कर्क या मकर राशि में हांे, केतु, मंगल या चंद्रमा या राहु या शनि कहीं भी एक साथ बैठे हों तो यह रोग हो सकता है। इस कठिन रोग को समाप्त करने हेतु बीच की अंगुली में सोने या तांबे में माणिक्य या अनामिका में नीलम धारण करवाया जाता है। यदि कैंसर का आॅप्रेशन हो चुका हो तो उसके बाद होने वाले कष्ट से छुटकारा हेतु पुखराज और मूंगा धारण कराया जाता है। उपरोक्त कथन एवं विवेचन से सिद्ध होता है कि आज के युग में भी रत्न धारण करने का प्रामाणिक आधार है। समाज के प्रत्येक मनुष्य यह मानते हैं कि रत्न धारण करने से उनकी भाग्य उन्नति, रोग से छुटकारा, मानसिक शांति, गृह क्लेश से मुक्ति, रोजगार आदि में रत्न धारण करने से लाभ हुआ है।
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Tuesday 27 October 2015

ग्लोकोमा : नेत्र रोग ज्योतिष्य दृष्टिकोण तथ्य

आंखे प्रकृति की ओर से मिला हुआ वह हसीन उपहार है, जिसकी सहायता से न सिर्फ सारी दुनिया को देख सकते हैं, बल्कि सभी प्रकार के अपने कार्यों को आसानी से पूरा कर सकते हैं। इसलिए आंखों की नियमित देखभाल आवश्यक है; अन्यथा आंखों की ज्योतिसमाप्त हो सकती है। ग्लोकोमा आंखों के भयंकर रोगों में से एक है, जिसमें प्रारंभिकअवस्था में पूर्णतया ध्यान न देने पर आंखों की रोशनी समाप्त हो जाती है। ग्लोकोमा क्या है? : आंखों में कॉर्निया और लेंस के बीच पानी जैसा एक द्रवपाया जाता है, जिसे जलरस कहतेहैं। इस द्रव का कार्य नेत्र गोलक केअंदर नियमित रूप से एक प्राकृतिक दबाव बनाए रखना है, ताकि नेत्र कीस्वाभाविक गोलाई बनी रहे। इसके अलावा इसका दूसरा कार्य आंखों के ऊतकों, लेंस और कॉर्निया आदि कोपोषक तत्व प्रदान करना भी है। प्रकृतिने ही इसके निर्माण, नियंत्रण औरनिकास की अपनी व्यवस्था कर रखी है। लेकिन जब किसी कारणवश इसकेनिर्माण और निकास का संतुलन बिगड़जाता है, तो आंखों के भीतर इस द्रवका दबाव सामान्य से अधिक बढ़नेलगता है। इससे दृष्टि नाड़ी परअनावश्यक और अनपेक्षित दबाव पड़ने लगता है। वास्तव में आंखों के इसी आंतरिक दबाव के बढ़ने की अवस्था को ही ग्लोकोमा कहते हैं।यदि यह अनपेक्षित दबाव लगातार बना रहा, तो इससे 'ऑप्टिक नर्व' की संवेदनशीलता समाप्त होने लगती है,जिसके परिणामस्वरूप आंखों की ज्योतिभी नष्ट होने लगती है। यदि रोग का प्रारंभिक अवस्था में उपचार न हो, तो'ऑप्टिक नर्व' पूरी तरह निष्क्रिय हो जाती है और आंखों की ज्योति स्थायीरूप से समाप्त हो जाती है।आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों नेग्लोकोमा की दो किस्में बतायी हैं।सादा ग्लोकोमा और तीव्र वेदना वालाग्लोकोमा। सादे ग्लोकोमा में द्रवनिकास नलियों का कोण संकुचितनहीं होता, बल्कि निकास नलियां हीसंकरी हो जाती हैं। यह अक्सर अधेड़ावस्था और स्त्रियों में अधिकहोता है। इसमें आंखों के भीतरी दबावमें एकाएक वृद्धि नहीं होती। इसलिएइसका उपचार भी सरलता से नहीं होपाता। इसमें पढ़ने-लिखने, या अन्यबारीक कार्य करने में परेशानी होनेलगती है। आंखों में कभी-कभी तनावऔर सामयिक सिर दर्द के लक्षण भीउभर सकते हैं। ऐसी स्थिति मेंलापरवाही न करें और तुरंत जांचऔर उपचार करवाएं।तीव्र वेदनायुक्त ग्लोकोमा : इस अवस्थामें निकास नलियों का कोण संकुचितहो जाता है। इस कारण निकासनलियों के संकुचित न रहने की स्थितिमें भी अवरुद्ध कोण की वजह से द्रवकी निकासी में बाधा पड़ जाती है,क्योंकि इसमें द्रव निकास नलियों का कोण प्राकृतिक रूप से ही थोड़ासंकुचित रहता है। इसका यह रूप26 वर्ष के बाद ही उभर कर सामनेआता है।सादा ग्लोकोमा एकाएक हमला करताहै। इसकी शुरुआत दौरे के रूप मेंहोती है। आंखों में एकाएक तनाव बढ़जाने से तेज दर्द होता है, मानों कोईआंखों को बाहर की ओर निकाल रहाहो। आंखें तीव्र रूप से सूज जाती हैं।दृष्टि का धूमिल पड़ जाना, सिर में भयंकर दर्द एवं उल्टी होना आदिइसके लक्षण हो सकते हैं। इसे 'एक्यूटकंजेस्टिव' ग्लोकोमा के नाम से भीजाना जाता है।सावधानियां : जैसे-जैसे आयु बढ़तीहै, शरीर में कई प्रकार के विकारउत्पन्न होने लगते हैं। नस नाड़ियोंमें कमजोरी आती है। इसलिए बढ़तीउम्र के इस दौर में पहुंचने के बाद सेआंखों की नियमित जांच करवाते रहनाआवश्यक है। इससे आंखों के आंतरिकदबाव में आये परिवर्तन समय पर ध्यानमें आ जाते हैं, जिससे ग्लोकोमा के शिकार होने से बचा जा सकता है।यदि पहले किसी को परिवार मेंग्लोकोमा हुआ है, उसे तो समय पर अवश्य ही जांच करवानी चाहिए।मधुमेह के रोगियों में ग्लोकोमा होनेकी संभावना सामान्य से आठ गुणाअधिक होती है। अतः मधुमेह के रोगीको इसका ध्यान करना चाहिए।मोतिया बिंद के रोगियों में अक्सर यहधारणा रहती है कि मोतियों के अधिकपकने पर शल्य क्रिया करवाना अच्छा रहता है। लेकिन यह धारणा गलतहै। इससे ग्लोकोमा हो जाता है।अत्यधिक मानसिक श्रम, उत्तेजना,क्रोध, रात्रि जागरण, मादक द्रव्यों कासेवन आदि से बचना चाहिए औरआंखों के स्वास्थ्य हेतु जो आवश्यकसामान्य नियम हैं, उनका पालन प्रारंभसे करना भी लाभदायक सिद्ध होताहै।याद रहे, ग्लोकोमा से नष्ट हुई रोशनीपुनः वापस नहीं आ सकती। अतःऐसा कोई भी लक्षण उभरे, तो अपनेचिकित्सक से संपर्क करें और उनकीसलाह मानें।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण से ग्लोकोमाःग्लोकोमा आंखों का रोग है, जिसमें आंखों की रोशनी समाप्त हो जाती है। इसका कारण नेत्र गोलक के अंदर के जलरस (द्रव) के दबाव का सामान्यसे अधिक होना है। ज्योतिष में आंखोंकी रोशनी के कारक सूर्य और चंद्र हैं। काल पुरुष की कुंडली में द्वितीयभाव और द्वादश भाव क्रमशः दायीं और बायीं आंखों के स्थान हैं। किसी भी कारण अगर सूर्य-चंद्र, द्वितीय और द्वादश भाव दुष्प्रभावों में आ जाएं और लग्न, या लग्नेश भी दुष्प्रभाव में रहे,तो जातक को ग्लोकोमा जैसा आंखोंका रोग हो सकता है। रोग संबंधितग्रह की दशा-अंतर्दशा और प्रतिकूलगोचर के कारण उत्पन्न होता है।
विभिन्न लग्नों में ग्लोकोमा : मेष लग्न : लग्नेश तृतीय भाव मेंसूर्य से अस्त हो, बुध द्वितीय भाव मेंहो, राहु केतु से युक्त, या दृष्ट हो,सूर्य और चंद्र दोनों पर शनि की पूर्णदृष्टि हो, तो ग्लोकोमा होता है। वृष लग्न : सूर्य द्वितीय भाव में लग्नेशसे युक्त और लग्नेश अस्त हो, गुरुचतुर्थ, या दशम भाव में चंद्र से युक्तहो, तो ग्लोकोमा जैसा आंखों का रोगहोता है। मिथुन लग्न : लग्नेश बुध सूर्य सेअस्त हो कर अष्टम भाव में हो, मंगलद्वितीय, या द्वादश भाव में पूर्ण दृष्टिसे देखे, या बैठे और चंद्र शनि सेयुक्त हो तथा उसपर मंगल की दृष्टिहो, तो ग्लोकोमा होता है। कर्क लग्न : लग्नेश चंद्र सूर्य से पूर्णअस्त हो कर षष्ठ, या अष्टम भाव मेंहो और बुध सप्तम भाव में हो, राहुऔर शनि लग्न, या लग्नेश को पूर्णदृष्टि से देखते हों, तो आंखों कीरोशनी ग्लोकोमा के कारण समाप्त होजाती है। सिंह लग्न : सूर्य षष्ठ भाव में शनिसे युक्त हो, चंद्र लग्न में राहु से युक्तहो, बुध सप्तम भाव में अस्त न हो,मंगल त्रिक भावों में रहे, तो ग्लोकोमारोग होता है। कन्या लग्न : चंद्र-मंगल द्वितीय भावमें हों और केतु से दृष्ट हों, शुक्र औरबुध सूर्य से अस्त हो कर त्रिक भावोंमें हों और गुरु से दृष्ट हों, तो आंखोंसे संबंधित रोग उत्पन्न होते हैं। तुला लग्न : लग्नेश शुक्र सूर्य सेअस्त हो और द्वितीय, या द्वादश भावमें हो, गुरु द्वितीयेश मंगल से युक्त होकर द्वितीय भाव पर दृष्टि रखे, राहुषष्ठ भाव में अकेला हो, तो ग्लोकोमाजैसा रोग होता है।   वृश्चिक लग्न : लग्नेश त्रिक भावोमें हो कर राहु, या शनि से युक्त, यादृष्ट हो, चंद्र बुध से युक्त हो और राहुकेतु से दृष्ट हो, तो ग्लोकोमा रोगहोता है। धनु लग्न : लग्नेश गुरु अष्टम भावमें हो और चंद्र द्वितीय, या द्वादश भावमें राहु, या केतु से दृष्ट हो, शुक्र औरबुध लग्न में हों, सूर्य द्वितीय भाव मेंहो, तो ग्लोकोमा होता है। मकर लग्न : गुरु लग्न में हो, लग्नेश त्रिक भावों में सूर्य से अस्त हो, चंद्रभी अस्त हो, मंगल द्वितीय, या द्वादशभाव को देखता हो, केतु द्वितीय, याद्वादश भाव में हो, तो ग्लोकोमा होताहै। कुंभ लग्न : शनि सूर्य से अस्त होकर द्वितीय भाव में हो, बुध लग्न मेंअस्त न हो, चंद्र राहु से युक्त हो करत्रिक भावों में हो, तो ग्लोकोमा होनेकी संभावना बढ़ जाती है। मीन लग्न : लग्नेश वृष, या तुला राशि में अस्त हो, बुध द्वितीय, यासप्तम भाव में अस्त न हो, द्वितीयेशशुक्र से युक्त हो कर षष्ठ भाव में, राहुया केतु द्वितीय और द्वादश भाव परदृष्टि रखे, तो ग्लोकोमा होता है।उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारितहैं। संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा औरगोचर के प्रतिकूल होने पर ही रोगहोता है।
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शनि की महादशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा का फल

यदि शनि की महादशा में शनि की अंतदंशा हो तो यह अशुभ परिणाम देने वाली मानी जाती है । इसके कारण धनहानि, पदावनति, राजदंड एवं अपयश आदि की संभावना रहती है । स्वास्थ्य खराब, घर में कलह, पत्नी से अनबन तथा प्रियजन आदि का वियोग संभव है । किन्तु उच्च या स्वगृही शनि होने पर मुकदमे र्म विजय, सम्मान-प्राप्ति तथा विदेश यात्रा के अवसर प्राप्त होते हैं । यदि शनि की महादशा में बुध की अंतर्दषा आ जाती है तो बहुत शुभ एवं सौभाग्यदायिनी समझी जाती है । उसके प्रभाव से धन- धान्य की वृद्धि, समाज में प्रतिष्ठा हैं जनता में सम्मान, स्वास्थ्य-लाभ तथा परिवारिक सुख को प्राप्ति होती है । बुध के नीचस्थ होने की स्थिति में अथवा अशुभ ग्रहों के मध्य में होने की स्थिति में उपयुक्त फल प्रतिकूल रहेगा । शनि की महादशा में केतु को अंतर्दशा अशुभ मानी जाती है। इसके प्रभाव से धन वाहन एवं सम्मान की हानि, पारिवारिक कलह, भाई से विरोध, स्त्री पक्ष तथा समाज में अप्रतिष्ठा और अपयश आदि मिलने की आशंका रहती है । यदि केतु अन्य ग्रहों के मध्य में हो या शुक्र अन्य ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो उपर्युक्त प्रभाव अनुकूल हो जाता है । शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा सामान्य फल देने वाली होती है । यदि ऐसा शनि उच्च का, स्वगृही अथवा मूलत्रिक्रोषास्थ हो तो शुभ फल प्रदान करता है । इसके प्रभाव से धन प्राप्ति के अवसर आते हैं और उच्च पद की प्राप्ति होती है । राजसम्मान, समाज में प्रतिष्ठा, व्यापार में उन्नति तथा घर में उल्लास का वातावरण बन जाता है । यदि शुक्र बारहवें घर में हो तो विदेश यात्रा का उत्साह होता है और पर्याप्त धन मिलता है । किंतु आठवें घर में स्थित शुक्र प्रतिकूल प्रभाव देने वाला हो जाता है, जो परेशानी का कारण बनता है । शनि की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा का आना शुभ सूचक होता है । इसके प्रभाव से व्यापार विस्तार में सफलता मिलती है | यदि जातक नौकरी पर हो तो अच्छे वेतनमान पर उसकी पद-वृद्धि होती है । समाज में प्रतिष्ठा और सुयश आदि के साथ जनसंपर्क बढ़ने लगता है । किंतु अशुभ ग्रहों से दृष्ट सूर्य प्रतिकूल परिणाम देने वाला हो जाता है। यदि सूर्य षष्ठ या अष्टम भावस्थ हो तो जातक को उदर संबंधी कोई रोग हो सकता है ।शनि की महादशा में चंद्रमा की अंतर्दशा अच्छी नहीं मानी जाती । इसके प्रभाव से शरीर में कोई रोग हो जाता है | यह रोग उदर से संबंधित हो सकता है । स्वास्थ्य की खराबी के साथ-साथ मानसिक विकार की उत्पत्ति भी संभव है । यदि चंद्रमा शुभ स्थान पर हो तो अनुकूल फल देने वाला होता है । शनि की महादशा में मंगल की अंतर्दशा बहुत शुभ होती है । इससे व्यापार में उन्नति, अधिक लाभ, नौकरी में वेतन-वृद्धि, घर-वहान आदि की प्राप्ति, उद्योग आदि में उत्पादन-वृद्धि, मुकदमे में जीत तथा राज्य द्वारा लाभ होता है। किंतु अशुभ, नीच या वक्री मंगल बहुत हानिकारक होता है । उससे शारीरिक मानसिक पीडा होती है । शत्रु प्रबल होकर षडूयंत्र रचने लगते हैं 1
शनि की महादशा में राहु की अंतर्दशा अशुभ मानी गई है। इसके कारण स्वास्थ्य नष्ट होता है तथा व्यय अधिक बढ़ जाता है, इसलिए मानसिक आशांति उत्पन्न होती है । इससे व्यापार में हानि तथा नौकरी में अवनति भी संभव है । व्यर्थ यात्रा का प्रसंग भी आ जाता है । र्कितु राहु के शुभ स्थान पर होने अथवा शुभ ग्रह द्वारा देखे जाने की स्थिति में अनुकूल प्रभाव पड़ता है । उपरोक्त स्थिति धनागम में उत्पन्न बाधाएं दूर होती हैं और व्यय घट जाता है । शनि की महादशा में गुरु की अंतर्दशा शुभ होती है । ऐसे में धन-संतान लाभ एवं विवाह या पुत्रोत्पत्ति आदि मंगल कार्य चलते रहते हैं । यदि गुरु स्वगृही या उच्च का हो तो अधिक शुभ होता है । उसके कारण समी कार्य पूर्ण होते । विवेक जाग्रत होकर धर्मकार्य, दानधर्म एवं तीर्थाटन आदि के अवसर प्राप्त होते है |किंतु अस्त, वक्री या पापग्रस्त गुरु प्रतिकूल प्रभाव वाला हो जाता है ।
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मंगल का राशिगत स्वरुप

मेष राशि
यदि मंगल मेष राशि में हो तो जातक सत्य बोलने वाला, राजा से भूमि, धन, सम्मान पाने वाला, तेजस्वी, साहसी, शूरवीर, नेता अथवा शल्य-चिकित्सक, शीघ्र आवेश ( अथवा रोष) में आ जाने वाला, प्रगल्भ, सावधान, अपने कुल में अधिक प्रसिद्ध, समाज में प्रतिष्ठित, समाज सुधारक या गाम प्रधान होता है । वह बड़ा ही निर्भीक, निडर, आशावान, जिज्ञासु अनुभवी, अनवरत श्रमशील तथा खतरों में आंखें बंद करके बैठने वाला होता है । पुलिस या सेना में किसी उच्चपद पर आसीन हो जाने पर उसे कभी पराभव, पराजय और शैथिल्य का मुंह नहीं देखना पड़ता । वह सदैव विजयी होता है ।
वृष राशि
वृष राशिस्थ मंगल में जन्म लेने वाला जातक स्वभाव से उग्र, कठोर, जादूगरी एवं तांत्रिक क्रियाओं में रुचि रखने वाला, विवेकहीन,द्वेषी, प्रवासी, अल्प सुख पाने वाला, शत्रुओं से पीडित, पापी, लडाकू प्रवृति का, वंचक, कपटी, वाचाल, कल्पनाओं में खोया रहने वाला तथा स्त्री के वशीभूत रहता है । वह चरित्रहीन भी होता है और दूसरे की स्त्रियों पर आसक्ति रखता है । उसे धनवान पत्मी मिलती है । वह हर समय छैला बना रहता है । श्रृंगार और सज्जा में लगा रहता है । सुंदर चेहरा-मोहरा बनाकर चलता है । देखने में सीधा दिखाई देता है, किन्तु इसके विपरीत वह कठोर और क्रूर हदय का होता है ।
मिथुन राशि
मिथुन राशिस्थ मंगल में जन्म लेने वाले जातक बहुत कलाओं को जानने कला, अपने जनों से कलह करने वाला, अपने स्थान से दूसरे स्थान में वास करने वाला और पुत्रादि से सुखी होता है । जातक एक श्रेष्ठ शिल्पकार, कार्यदक्ष,जनहितैषी,गायनादि विद्या में निपुण, कृपण, बुद्धिमान, शोधक, वक्ता, शीघ्र निर्णय देने वाला, विधिवेत्ता, कुशल व्यापारी, निडर और अपनी चिकनी-चुपडी बातों से दूसरों का धन हड़पने वाला होता है ।
कर्क राशि
यदि मंगल कर्क राशि में हो तो जातक दुस्साहसी, चौर्य कर्म करने वाला, सुखाभिलाषी, दीनसेवक, कृषक, रोगी, दुष्ट,वाचाल, मुखर, बकवादी, हथेली पर सरसों जमाने वाला, झूठा, दुराग्रही तथा पापात्मा होता है । वह कहता बहुत और करता कम है । ऐसा जातक अपने मन के भावों को व्यक्त करने में अयोग्य और असमर्थ रहता है । उसका पारिवारिक जीवन अनसुलझा होता है, अर्थात्-समसयाओं का अखाड़ा बना रहता है । उस पर शत्रु हावी रहते हैं एवं पग-पग पर हानि पहुंचाते हैं । वह माता तथा गृहस्थी के सुख से अछूता रहता है । सब उससे असहयोग करते हैं । इस कारण वह आजन्म असंतोषपूर्ण जीवन यापन करता है ।
सिंह राशि
यदि मंगल सिह राशि में हो तो जातक शूरवीर, सदाचारी, परोपकारी, कार्य-निपुण और स्नेहशील होता है । उसे सदा धन का अभाव रहता है तथा वह अभाव में ही जीवन-यापन करता है । जातक काननचारी होता है । क्लेश विग्रह और चिता में निमग्न रहता है । स्त्री एवं पुत्र का सुख उसे अल्प ही मिल पता है ।जातक गणितशास्त्र का विशेषज्ञ, गूढ़ विद्या का ज्ञाता तथा अनेक शत्रु वाल होंन्ना है । जातक कुशलदायी, अत्यंत परिश्रमी, स्वतंत्र विचारों वाला, मननशील, विचारक, उद्दण्डी, उग्र प्रकृति वाला तथा अल्प संतान वाला होता है । ऐसा व्यक्ति विश्वसनीय और उदार भी होता है । उसकी आशापूर्ण नहीं होती । समाज में उसकी उपेक्षा होती है । वह निराश प्रेमी बनकर रह जाता है । पत्नी और बच्चे उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते बल्कि विरोध करते हैं और प्रतिकूल आचरण एवं व्यवहार करते हैं । इस कारण वह उपहास और परिहास का पात्र बनकर रह जाता है ।
कन्या राशि
यदि मंगल कन्या राशि में हो तो जातक शिल्पकार, लोकमान्य, पापभीरु, सुखी एवं व्यवहार कुशल होता है । उसके पुत्र तो अनेक होते हैं, किन्तु मित्र कोई नहीं होता । यदि होता भी है तो घातक, ढोंगी, उग और वंचक होता है । उसे संगीतविद्या का अनुराग होता है । वह रात…दिन उसी में रत रहता है । जातक के हृदय में शौर्य और साहस अति प्रबल रूप में भरा रहता है । वह युद्धविद्या में भी कुशल होता है । नविन योजनाओं से शत्रु को परास्त करता है । कठिन वातावरण में भी साहस और दिलेरी से काम लेता है । पीछे हट जाना तो जैसे जानता ही नहीं । देश की रक्षा हेतु प्राणों की बलि देने से भी नहीं चूकता । दुराग्रही भी अधिक होता है । जो व्यक्ति उसके साथ उपकार करता है या बुरे वक्त में उसके काम आता है, वह उसे कभी नहीं भूलता । उपकार का बदला उपकार से ही देना चाहता है और देता भी है । वह उचित समय आने को प्रतीक्षा करत्ता है ।
तुला राशि
यदि जातक का जन्म तुला राशि में हो और उसमें मंगल का निवास हो तो वह प्रवासी होगा अर्थात् घर या जन्मभूमि में जीवन-यापन नहीं करेगा) । दूसरों का धन प्राप्त करने का यत्न करता रहेगा | ऐसा व्यक्ति वहुत बोलने वाला होता है |उसके मन में काम-वासना धधकती रहती है । वह परस्त्री से प्रेम करता है । मित्रों से अनबन रखता है । इतना नीरस और हलका होता है कि मैत्री का निर्वाह नहीं कर पाता । वह मायावी, प्रवंचक और कुचक्री होता है । मन का कठोर होता है । कीमती और स्वच्छ वस्त्र धारण करता है ।
वृश्चिक राशि
यदि जन्मांग चक्र में मंगल वृश्चिक राशि में हो तो जातक पातकी, दुष्ट, शठ, दुराचारी, पापी, नेता, व्यापारी, चोरी करने में दक्ष तथा चोरों का मुखिया होता है । उसका स्वभाव भी मधुर और विनम्र नहीं होता, बल्कि. क्रूर एवं कठोर होता है । जातक कूटनीति से कार्य करने वाला, चालाक और स्वार्थी होता है । उसका मन कमी स्थिर नहीं रहता, बुद्धि सास्विक नहीं होती ।ऐसा जातक दंत चिकित्सक अथवा औषधि विक्रेता होता है । व्यवहार में कच्चा और अनाड़ी नहीं होता, कुशल खिलाडी होता है |
धनु राशि
यदि मंगल धनु राशि में हो तो जातक मक्कार, कपटी,मिथ्यावादी, निर्दयी,कठोर,दुष्ट, कदाचारी और पराधीन होता है । उसके बहुत से षात्रु होते हैं । उसे पुत्रपक्ष से कोई सुख नहीं मिलता। जातक राज्यसत्ता के निकट रहने वाला होता है । वह किसी से नहीं डरता एवं स्पष्ट वक्ता होता है । उनसे लाभ उठाने की योजनाएं बनाता रहता है तथा स्वयं भी राजनीति का पंडित बन जाता है । यदि मंगल धनु राशि में हो तो जातक दाता, बहुत धनी, कुल में श्रेष्ट, कलाओं में कुशल तथा सुंदर व हितकारिणी स्त्री का पति होता है । जातक विग्रह, उत्पात, संघर्ष और विवाद, को व्यर्थ ही अपना लेता है, जिसके कारण उसे भूख एवं विनोद नहीं मिलता । वह हर समय चिंतन-मनन में डूबा रहता है तथा उचित समाधान न होने से परेशान रहता है । पैतृक धन से मौज उड़ाता है । एक स्त्री (या केवल पत्नी) से उसकी वासना नहीं बुझती । वह अवसरवादी होता है । स्वयं परिश्रम करके अधिक धन नहीं संचय कर पाता है ।
मकर राशि
यदि मंगल मकर राशि में हो तो जातक ख्याति प्राप्त करने वाला, पराक्रमी, सफल नेता, धन- धान्य, यश, वैभव और संपन्नता से भरपूर होता है । छोटी-मोटी बातें उसके मस्तिष्क में नहीं घूमती । वह रहता धरती के ऊपर है, किन्तु उसकी कल्पनाएं आकाश को चूमती हैं । वह असंभव कार्यों के स्वप्न देखता है तथा एक तरह से स्वप्नों की दुनिया में ही जीता है ।ऐसै जातक के कई पुत्र होते हैं । वह एक राजा के समान प्रभावशाली बनना चाहता है, किन्तु बन नहीं पाता । उसकी बुद्धि और प्रतिभा अति प्रखर एवं उपजाऊ होती है । वह सामाजिक लाभ उठाने कला, स्वभाव का उग्र, शूरवीर,शास्त्र कला में प्रवीण और षड्यंत्रों की रचना करने में पारंगत एवं निपुण होता है ।
कुंभ राशि
कुंभ राशिस्थ मंगल का जातक घर में कलह करने वाला, दीन, पराक्रम और धन में रहित. बुद्धिहीन तथा शत्रु से पीडित होता है ।जातक आचार-भ्रष्ट होता है, टेढा-मेढा चलता है तथा वासना के पीछे सब कुछ भूल जाता है । मत्सरवृति इतनी अधिक होती है कि वह दूसरे की उन्नति और प्रगति देखकर इर्षा करने लगता है । सट्टे का चस्का इतना अजीब होता है कि वह उसमें अपनी अपरिमित पूंजी झोक देता है । लेकिन कोई बड़ी रकम कभी उसके हाथ नहीं आती और आशा में ही वह मिट जाता है ।
मीन राशि
यदि मंगल मीन राशि में हो तो जातक अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त होता है । रोग उसका पीछा नहीं छोड़ते । वह प्रवासी बन जाता है तथा परदेशों का भ्रमण करता फिरता है । तंत्रविद्या का चस्का उसे चक्कर में डाल देता है । वह इस विद्या से लाभ उठाना चाहता है, पर उसके स्वप्न चूर-चूर हो जाते हैं । उसके इस कृत्य से परिवारजन चिढ़ जाते हैं, उसकी निंदा और भत्सर्ना करते हैं । जातक का मन चंचल एवं प्रपंची हो जाता है । उसे न तो समाज का भय रहता है और न ही वह ईश्वर से डरता है । किसी के समझाने से नहीं समझता तथा नास्तिक बन जाता है । वह दुराग्रही बनकर आत्म-सम्मान भी नष्ट कर देता है । वह पाखंड और अनाचार को महत्व देता है । वह बकवादी हो जाता है, किसी की सुनना पसंद नहीं करता और वाचाल बनकर अपना लिब कुछ नष्ट कर लेता है । वह हर समय अज्ञात बहता है ।
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Monday 26 October 2015

गृह प्रवेश से पहले वास्तु शांति क्यूँ ??????

आप जब भी कोई नया घर या मकान खरीदते हैं तो उसमं प्रवेश से पहले उसकी वास्तु शांति करायी जाती है। जाने अनजाने हमारे द्वारा खरीदे या बनाये गये मकान में कोई भी दोष हो तो उसे वास्तु शांति करवा के दोष को दूर किया जाता है। इसमें वास्तु देव का ही विशेष पूजन किया जाता है जिससे हमारे घर में सुख शांति बनी रहती है। वास्तु का अर्थ है मनुष्य और भगवान का रहने का स्थान। वास्तु शास्त्र प्राचीन विज्ञान है जो सृष्टि के मुख्य तत्वों का निःशुल्क लाभ प्राप्त करने में मदद करता है। ये मुख्य तत्व हैं- आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। हम प्रत्येक प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिए वास्तु शांति करवाते हैं। उसके कारण जमीन या बांध, काम में प्रकृति अथवा वातावरण में रहा हुआ वास्तु दोष दूर होता है। गृह प्रवेश के पूर्व वास्तु शांति कराना शुभ होता है। इसके लिए शुभ नक्षत्र, वार एवं तिथि इस प्रकार हैं- शुभ वार- सोमवार, बुधवार, गुरुवार व शुक्रवार शुभ हैं। शुभ तिथि- शुक्लपक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी एवं त्रयोदशी। शुभ नक्षत्र- अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, उत्ताफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, अनुराधा एवं मघा। अन्य विचार- चंद्रबल, लग्न शुद्धि एवं भद्रादि का विचार कर लेना चाहिए। क्या है वास्तु शांति की विधि स्वस्तिवाचन, गणपति स्मरण, संकल्प, श्री गणपति पूजन, कलश स्थापन और पूजन, पुनःवचन, अभिषेक, शोडेशमातेर का पूजन, वसोधेरा पूजन, औशेया मंत्रजाप, नांन्देशराद, आचार्य आदे का वरेन, योग्ने पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, अग्नि स्थापन, नवग्रह स्थापन और पूजन, वास्तु मंडल पूजन और स्थापन, गृह हवन, वास्तु देवता होम, बलिदान, पूर्णाहुति, त्रिसुत्रेवस्तेन, जलदुग्धारा और ध्वजा पताका स्थापन, गतिविधि, वास्तुपुरुष-प्रार्थना, दक्षिणासंकल्प, ब्राह्मण भोजन, उत्तर भोजन, अभिषेक, विसर्जन। उपयुक्त वास्तु शांति पूजा के हिस्सा हैं। सांकेतिक वास्तुशांतिः सांकेतिक वास्तु शांति पूजा पद्धति भी होती है, इस पद्धति में हम नोंध के अनुसार वास्तु शांति पूजा में से नजरअंदार न कर सके वैसी वास्तु शांति पूजा का अनुसरण करते हैं। ‘विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र’ विधिवत अनुष्ठान करने से सभी ग्रह, नक्षत्र, वास्तु दोषों की शांति होती है। विद्याप्राप्ति, स्वास्थ्य एवं नौकरी-व्यवसाय में खूब लाभ होता है। कोर्ट-कचहरी तथा अन्य शत्रुपीड़ा की समस्याओं में भी खूब लाभ होता है। इस अनुष्ठान को करके गर्भाधान करने पर घर में पुण्यात्माएं आती हैं। सगर्भावस्था के दौरान पति-पत्नी तथा कुटुम्बीजनों को इसका पाठ करना चाहिए। अनुष्ठान-विधि: सर्वप्रथम एक चैकी पर सफेद कपड़ा बिछाएं। उस पर थोड़े चावल रख दें। उसके ऊपर तांबे का छोटा कलश पानी भर के रखें। उसमें कमल का फूल रखें। कमल का फूल बिल्कुल ही अनुपलब्ध हो तो उसमें अडूसे का फूल रखें। कलश के समीप एक फल रखें। तत्पश्चात तांबे के कलश पर मानसिक रूप से चारों वेदों की स्थापना कर ‘विष्णुसहस्रनाम’ स्तोत्र का सात बार पाठ सम्भव हो तो प्रातः काल एक ही बैठक में करें तथा एक बार उसकी फलप्राप्ति पढ़ें। इस प्रकार सात या इक्कीस दिन तक करें। रोज फूल एवं फल बदलें और पिछले दिन वाला फूल चैबीस घंटे तक अपनी पुस्तकों, दफ्तर, तिजोरी अथवा अन्य महत्त्वपूर्ण जगहों पर रखें व बाद में जमीन में गाड़ दें। चावल के दाने रोज एक पात्र में एकत्र करें तथा अनुष्ठान के अंत में उन्हें पकाकर गाय को खिला दें या प्रसाद रूप में बांट दें। अनुष्ठान के अंतिम दिन भगवान को हलवे का भोग लगायें। यह अनुष्ठान हो सके तो शुक्ल पक्ष में शुरू करें। संकटकाल में कभी भी शुरू कर सकते हैं। स्त्रियों को यदि अनुष्ठान के बीच में मासिक धर्म आते हों तो उन दिनों में अनुष्ठान बंद करके बाद में फिर से शुरू करना चाहिए। जितने दिन अनुष्ठान हुआ था, उससे आगे के दिन गिनें। इनका ध्यान रखें अपने नए या पुराने घर में घर के खिड़की-दरवाजे इस तरह होने चाहिए कि सूरज की रोशनी अच्छी तरह से घर के अंदर आए। ड्रॉइंग रूम में फूलों का गुलदस्ता लगाएं। रसोई घर में पूजा की आलमारी या मंदिर नहीं रखना चाहिए। बेडरूम में भगवान के कैलेंडर, तस्वीरें या फिर धार्मिक आस्था से जुड़ी वस्तुएं न रखें। घर में टॉयलेट के बगल में देवस्थान नहीं होना चाहिए। दीपावली अथवा अन्य किसी शुभ मुहूर्त में अपने घर में पूजास्थल में वास्तुदोषनाशक कवच की स्थापना करें और नित्य इसकी पूजा करें। इस कवच को दोषयुक्त स्थान पर भी स्थापित करके आप वास्तुदोषों से सरलता से मुक्ति पा सकते हैं। अपने घर में ईशान कोण अथवा ब्रह्मस्थल में स्फटिक श्रीयंत्र की शुभ मुहूर्त में स्थापना करें। यह यन्त्र लक्ष्मीप्रदायक भी होता ही है, साथ ही साथ घर में स्थित वास्तुदोषों का भी निवारण करता है। प्रातःकाल के समय एक कंडे पर थोड़ी अग्नि जलाकर उस पर थोड़ी गुग्गल रखें और ऊँ नारायणाय नमः मंत्र का उच्चारण करते हुए तीन बार घी की कुछ बूँदें डालें। अब गुग्गल से जो धूम्र उत्पन्न हो, उसे अपने घर के प्रत्येक कमरे में जाने दें। इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा खत्म होगी और वातुदोषों का नाश होगा। प्रतिदिन शाम के समय घर मं कपूर जलाएं इससे घर में मौजूद नकारात्मक ऊर्जा खत्म हो जाती है। वास्तु पूजन के पश्चात् भी कभी-कभी मिट्टी में किन्हीं कारणों से कुछ दोष रह जाते हैं जिनका निवारण कराना आवश्यक है। घर के सभी प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिए मुख्य द्वार पर एक ओर केले का वृक्ष दूसरी ओर तुलसी का पौधा गमले में लगायें। दुकान की शुभता बढ़ाने के लिए प्रवेश द्वार के दोनों ओर गणपति की मूर्ति या स्टिकर लगायें। एक गणपति की दृष्टि दुकान पर पड़ेगी, दूसरे गणपति की बाहर की ओर। हल्दी को जल में घोलकर एक पान के पत्ते की सहायता से अपने सम्पूर्ण घर में छिडकाव करें। इससे घर में लक्ष्मी का वास तथा शांति भी बनी रहती है अपने घर के मन्दिर में घी का एक दीपक नियमित जलाएं तथा शंख की ध्वनि तीन बार सुबह और शाम के समय करने से नकारात्मक ऊर्जा घर से बाहर निकलती है। घर में उत्पन्न वास्तुदोष घर के मुखिया के लिए कष्टदायक होते हैं। इसके निवारण के लिये घर के मुखिया को सातमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए। यदि आपके घर का मुख्य द्वार दक्षिणमुखी है, तो यह भी मुखिया के लिये हानिकारक होता है। इसके लिये मुख्य द्वार पर श्वेतार्क गणपति की स्थापना करनी चाहिए। अपने घर के पूजा घर में देवताओं के चित्र भूलकर भी आमने-सामने नहीं रखने चाहिए इससे बड़ा दोष उत्पन्न होता है। अपने घर के ईशान कोण में स्थित पूजा-घर में अपने बहुमूल्य वस्तुएं नहीं छिपानी चाहिए। पूजाकक्ष की दीवारों का रंग सफेद, हल्का पीला अथवा हल्का नीला होना चाहिए। यदि झाड़ू से बार-बार पैर का स्पर्श होता है, तो यह धन-नाश का कारण होता है। झाड़ू के ऊपर कोई वजनदार वास्तु भी नहीं रखें। ध्यान रखें की बाहर से आने वाले व्यक्ति की दृष्टि झाड़ू पर न पड़े। अपने घर में दीवारों पर सुन्दर, हरियाली से युक्त और मन को प्रसन्न करने वाले चित्र लगाएं। इससे घर के मुखिया को होने वाली मानसिक परेशानियों से निजात मिलती है। घर के पूर्वोत्तर दिशा में पानी का कलश रखें। इससे घर में समृद्धि आती है। बेडरूम में भगवान के कैलेंडर या तस्वीरें या फिर धार्मिक आस्था से जुड़ी वस्तुएं नहीं रखनी चाहिए। बेडरूम की दीवारों पर पोस्टर या तस्वीरें नहीं लगाएं तो अच्छा है। हां अगर आपका बहुत मन है, तो प्राकृतिक सौंदर्य दर्शाने वाली तस्वीर लगाएं। इससे मन को शांति मिलती है, पति-पत्नी में झगड़े नहीं होते। वास्तु पुरूष की मूर्ति, चांदी का नाग, तांबा का वायर, मोती और पौला ये सब वस्तुएं लाल मिटटी के साथ लाल कपड़े में रखकर उसको पूर्व दिशा में रखें। लाल रेती, काजू, पौला को लाल कपड़ों में रख कर मंगलवार को पश्चिम दिशा में रखकर उसकी पूजा की जाए तो घर में शांति की वृद्धि होती है। प्रवेश की सीढ़ियों की प्रतिदिन पूजा करें, वहां कुंकुम और चावल के साथ स्वास्तिक, मिट्टी के घड़े का चित्र बनाएं। रक्षोज्ञा सूक्त जप, होम, अनुष्ठान इत्यादि भी करना चाहिए। ओम नमो भगवती वास्तु देवताय नमः। इस मंत्र का जप प्रतिदिन 108 बार और कुल 12500 जप करें और अंत में दशांश होम करें। वास्तु पुरुष की प्रार्थना करें। दक्षिण-पश्चिम दिशा अगर कट गई हो अथवा घर में अशांति हो तो पितृशांति, पिंडदान, नागबली, नारायण बलि इत्यादि करें। प्रत्येक सोमवार और अमावास्या के दिन रुद्री करें। घर में गणपति की मूर्ति या छवि रखें। प्रत्येक घर में पूजा कक्ष बहुत जरूरी है। नवग्रह शांति के बिना गृह प्रवेश मत करें। जो मकान बहुत वर्षों से रिक्त हो उसको वास्तुशांति के बाद में उपयोग में लाना चाहिए। वास्तु शांति के बाद उस घर को तीन महिने से अधिक समय तक खाली मत रखें। भंडार घर कभी भी खाली मत रखें।

हर्निया का रोग ज्योतिष्य तथ्य

पेट की मांसपेशियां कमजोर हो जाने वाली जगह से आंतें बाहर निकल आने की समस्या हर्निया कहलाती है। इस स्थिति में हर्निया की जगह एक उभार हो जाता है। मनुष्य के शरीर के अंदर कुछ अंग खोखले स्थानों में मौजूद होते हैं। इन खोखले स्थानों को बॉडी केविटी कहते हैं। दरअसल बॉडी केविटी चमड़ी की झिल्ली से ढकी होती है। जब इन केविटी की झिल्लियां कभी-कभी फट जाती हैं तो अंग का कुछ भाग बाहर निकल जाता है। इस विकृति को ही हर्निया कहा जाता है।लंबे समय तक खांसी या भारी सामान उठाने के कारण मांसपेशियों के कमजोर हो जाने की वजह से हर्निया के होने की संभावना ज्यादा होती है। हालांकि हर्निया के कोई खास लक्षण नहीं होते, लेकिन कुछ लोग में सूजन और दर्द की शिकायद हो सकती है। इस प्रकार का दर्द खड़े होने, मांसपेशियों में खिंचाव होने या कुछ भारी सामान उठाने पर बढ़ सकता है। ज्योतिष के अनुसार काल पुरुष की कुंडली में आंत का संबंध षष्ठ भाव और कन्या राशि से है। कन्या राशि का स्वामी बुध होता है और षष्ठ भाव का कारक ग्रह मंगल होता है। इसलिए षष्ठ भाव, षष्ठेश, षष्ठकारक मंगल, बुध, लग्न-लग्नेश जब दुष्प्रभावों में रहते हैं, तो आंतों से संबंधित रोग होते हैं, जिनमें हर्निया रोग भी शामिल है। शरीर में हर्निया उदर के ऊपरी भाग से ले कर उदर के निचले भाग तक कहीं भी हो सकती है। काल पुरुष की कुंडली में पंचम और सप्तम भाव भी शामिल हैं। इसलिए इन भावों के स्वामी और कारक ग्रहों का निर्बल होना उदर में उस स्थान को दर्शाते हैं, जिस भाग में हर्निया होती है। हर्निया रोग आंत के उदर की दीवार के कोटर से बाहर निकलने से होता है, जिसे आंत का उतरना भी कहते हैं। उदर की दीवार की निर्बलता के कारण आंत अपने स्थान (कोटर) से बाहर निकल कर नीचे की तरफ उतर जाती है। ऐसा उपर्युक्त भाव, राशि एवं ग्रहों के दुष्प्रभाव और निर्बलता के कारण होता है। जब इन ग्रहों की दशा-अंर्तदशा रहती है और संबंधित ग्रह का गोचर विपरीत रहता है, तो हर्निया, अर्थात 'आंत का उतरना' रोग होता है।
मेष लग्न : मंगल षष्ठ भाव में शनि से दृष्ट या युक्त हो, बुध, शुक्र सप्त भाव में हों और राहु से दृष्ट हों, सूर्य अष्टम भाव में रहे, तो हर्निया रोग नाभि के निचले भाग में होता है।
वृष लग्न : शुक्र अष्टम भाव में हो, गुरु षष्ठ भाव में केतु से युक्त हो, मंगल द्वादश भाव में हो, बुध सूर्य से अस्त हो कर पंचम भाव में हो, तो हर्निया के कारण उदर की शल्यचिकित्सा होती है।
मिथुन लग्न : बुध अष्टम भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट, गुरु षष्ठ भाव में अस्त, सूर्य सप्तम भाव में, मंगल एकादश, द्वादश या लग्न में स्थित हो, तो आंत उतरने का रोग होता है।
कर्क लग्न : बुध लग्न में, सूर्य द्वादश भाव में, चंद्र षष्ठ, या अष्टम भाव में केतु से युक्त या दृष्ट हो, मंगल अष्टम भाव में शनि के प्रभाव में हो, तो आंत उतर कर अंड कोश में घुस जाने से यह रोग होता है।
सिंह लग्न : सूर्य लग्नेश पंचम भाव में हो, बुध षष्ठ भाव में शनि से दृष्ट, या युक्त हो, शुक्र सप्तम भाव में केतु से युक्त हो, मंगल भी सप्तम भाव में शतभिषा नक्षत्र म ें हा,े ता े जातक की नाभि क े कछु नीचे हर्निया हो जाता है।
कन्या लग्न : लग्नेश और षष्ठेश दोनों सप्तम भाव में हों और मंगल एकादश भाव में, गुरु दशम, या षष्ठ भाव में, केतु षष्ठ भाव में हो, तो जातक को नाभि हर्निया होता है। नाभि के पास पेट फूला रहता है, जिसकी बाद में शल्यचिकित्सा करवानी पड़ती है।
तुला लग्न : लग्नेश सप्त भाव, या षष्ठ भाव में हो, मंगल लग्न में हो, गुरु षष्ठ भाव में बुध से युक्त हो, केतु सप्तम भाव (भरणी नक्षत्र) में हो, तो जातक को हर्निया रोग होता है, जिससे
जातक की मृत्यु भी हो सकती है।
वृश्चिक लग्न : लग्न का उदय अनुराधा नक्षत्र में हो, मंगल षष्ठ भाव में भरणी नक्षत्र में रहे और गुरु से युक्त हो, बुध लग्न में उदय रहे, शुक्र सूर्य से अस्त रहे, तो कई बार पेट में चोट लगने के कारण जातक के उदर की दीवारों में निर्बलता आ जाती है, जिससे जातक को हर्निया जैसे रोग का शिकार होना पड़ता है।
धनु लग्न : शुक्र सप्तम भाव में राहु या केतु से युक्त, या दृष्ट हो, बुध अष्टम में, शनि षष्ठ भाव में मंगल से युक्त हो, लग्नेश अष्ट भाव में सूर्य से अस्त हो, तो जातक वंक्षण हर्निया होने से तकलीफ पाता है।
मकर लग्न : गुरु लग्न में, बुध, केतु से युक्त षष्ठ भाव में, शनि अष्टम भाव में बाल अवस्था में सूर्य से अस्त हो, मंगल द्वादश भाव में हो, तो जातक को हर्निया होता है।
कुंभ लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में गुरु से युक्त हो, बुध सप्तम भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट हो, शुक्र अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हो और लग्न पर मंगल की दृष्टि होने से हर्निया रोग होने की संभावना रहती है।
मीन लग्न : शनि और शुक्र षष्ठ भाव में युति बना रहे हों और राहु-केतु के दुष्प्रभाव में हों, मंगल द्वादश या लग्न भाव में हो, बुध-चंद्र पंचम भाव में होने से हर्निया रोग होता है।
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अश्वगंधा

अश्वगंधा, कहने को तो एक जंगली पौधा है किंतु औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे आयुर्वेद में विशेष महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है अश्व अर्थात् घोड़ा, गंध अर्थात् बू अर्थात् घोड़े जैसी गंध। अश्व गंधा के कच्चे मूल से अश्व के समान गंध आती है इसलिए इसका नाम अश्वगंधा रखा गया। इसे असगंध बराहकर्णी, आसंघ आदि नामों से भी जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे बिटर चेरी कहते हैं। विश्व में विदानिया कुल के पौधे स्पेन, मोरक्को, जोर्डन, मिश्र, अफ्रीका, पाकिस्तान, भारत तथा श्रीलंका, में प्राकृतिक रूप में पाये जाते है। भारत में इसकी खेती 1500 मीटर की ऊँचाई तक के सभी क्षेत्रों में की जा रही है। भारत के पश्चिमोत्तर भाग राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, उ.प्र. एंव हिमाचल प्रदेश आदि प्रदेशों में अश्वगंधा की खेती की जा रही है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में अश्वगंधा की खेती बड़े स्तर पर की जा रही है। इन्हीं क्षेत्रों से पूरे देश में अश्वगंधा की माँग को पूरा किया जा रहा है।इसका झाड़ीदार क्षुप लगभग 2 से 4 फुट बहुशाखा युक्त होता है। पत्ते सफेद रोमयुक्त अखंडित अंडाकार होते हैं। फूल पीला हरापन लिए चिलम के आकार के होते हैं एवं शरद ऋतु में निकलते हैं। फल गोलाकार रसभरी के फलों के समान होेते हैं। फल के अंदर कटेरी के बीजों के समान पीत-श्वेत असंख्य बीज होते हैं। इसका मूल ही प्रयुक्त होता है, जिसे जाड़े में निकालकर छाया में सूखाकर सूखे स्थान पर रखा जाता है। बरसात में इसके बीज बोए जाते हैं।जड़ी-बूटियों की दुकान या पंसारी की दुकान से मिलने वाले शुष्क जड़ छोटे-बड़े टुकड़ों के रूप में मिलती है। यह प्रायः खेती किए हुए पौधे की जड़ होती है। जंगली पौधे की अपेक्षा इनमें स्टार्च आदि अधिक होता है। आंतरिक प्रयोग के लिए खेती वाले पौधे की जड़ तथा लेप आदि जंगली पौधे की जड़ से ठीक रहती है। अश्वगंधा एक बलवर्धक रसायन है। इसके इस सामथ्र्य के चिर पुरातन से लेकर अब तक सभी चिकित्सकों ने सराहना की है। आचार्य चरक ने असगंध को उत्कृष्ट बल्य माना है। सुश्रुत के अनुसार यह औषधि किसी भी प्रकार की दुर्बलता कृशता में गुणकारी है। पुष्टि-बलवर्धन की इससे श्रेष्ठ औषधि आयुर्वेद के विद्वान कोई और नहीं मानते। चक्रदत्त के अनुसार अश्वगंधा का चूर्ण 15 दिन दूध, घृत अथवा तेल या जल से लेने पर बालक का शरीर पुष्ट होता है। अश्वगंधा की प्रशंसा में विद्वानों का मत है कि जिस तरह वर्षा होने पर सुखी जमीन भी हरी हो जाती है और फसलों की पुष्टि होती है वैसे ही इसके सेवन से कमजोर, मुरझाये शरीर भी पुष्ट हो जाते हैं। यही नहीं सर्द ऋतु में कोई वृद्ध इसका एक माह भी सेवन करता है, तो इसके लिए बहुत फायदेमंद होता है। यह औषधि मूलतः कफ-वात शामक, बलवर्धक रसायन है। अश्वगंधा को सभी प्रकार के जीर्ण रोगों, क्षय शोथ आदि के लिए श्रेष्ठ द्रव्य माना गया है। यह शरीर धातुओं की वृद्धि करती है एवं मांस मज्जा का शोधन करती है। मेधावर्द्धक तथा मस्तिष्क के लिए तनाव शामक भी। मूर्छा, अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, शोध विकार, श्वास रोग, शुक्र दौर्बल्य, कुष्ठ सभी में समान रूप से लाभकारी है। यह एक प्रकार के कामोत्तेजक की भूमिका निभाती है परंतु इसका कोई अवांछनीय प्रभाव शरीर पर नहीं देखा गया है। यह ज़रा नाशक है। एजिंग को यह रोकती है व आयु बढ़ाती है। एक शोध से पता चला है कि अश्वगंधा की जड़ में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जिसमें कैंसर के ट्यूमर की वृद्धि को रोकने की पर्याप्त क्षमता होती है। इस जड के जलीय एवं अल्कोहलिक फाॅर्मूला का शरीर पर कम विषैला प्रभाव पड़ता है एवं उसमंे ट्यूमर विरोधी गुण प्रबल रूप से पाए जाते हैं। ऐसी प्रबल संभावना है कि अश्वगंधा कैंसर से छुटकारा दिलाने में बहुत सहायक है। यदि अश्वगंधा का सेवन लगातार एक वर्ष तक नियमित रूप से किया जाए तो शरीर से सारे विकार बाहर निकल जाते हैं। समग्र शोधन होकर दुर्बलता दूर हो जाती है व जीवन शक्ति बढ़ती है। सर्दी में इसका सेवन विशेष लाभकारी है। यूनानी में अश्वगंधा को वहमनेवरों के नाम से लाना जाता है। हब्ब असगंध इसका प्रसिद्ध योग है। इसका गुण बाजीकरण, बलवर्धन, शुक्र, वीर्य पुष्टिकर है। महिलाओं को प्रसवोपरांत देने से बल प्रदान करता है।अश्वगंधा शरीर में सात्मीकरन लाकर जीवनी शक्ति बढ़ाने तथा शक्ति देेने वाले कायाकल्प के लिए चिर प्रचलित रसायन है। यह शरीर के सारे संस्थानों पर क्रियाशील माना गया है।
विभिन्न रोगों में अश्वगंधा का उपयोग आयुर्वेद में विस्तृत उल्लेख प्राप्त है। उष्ण वीर्य एवं मधुर विपाक वाला यह पौधा वात, कफ शामक तथा नाड़ी बल्य, दीपन, बृहण एवं श्रेष्ठ वाजीकरण होता है।
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पद्मनाथ द्वादषी पूजन - स्वास्थ्य और आरोग्य की प्राप्ति -

आष्विनी शुक्ल मास भगवान विष्णु की पूजा तथा व्रत का मास माना जाता है इसकी द्वादषी में की गई पूजन, व्रत तथा दान बहुत फलदायी होता है। शास्त्रों में विष्णु की नाभी से उत्पन्न कमल को पद्मनाभ कहा गया। जिसमें तप दान से सभी कल्याण करने वाला बताया गया है। आष्विनी शुक्ल मास के हर दिन में किए गए तप का अपना अलग ही महत्व होता है। आष्विनी शुक्ल मास में मनवांछित फल प्राप्ति हेतु पद्मनाथ द्वादषी पूजन का बहुत महत्व है। इसमें ब्रम्ह मूहुर्त में तिल का तेल शरीर में मलकर स्नान करने के उपरांत विष्णु पूजन करने का विधान है। इसके लिए विष्णु स्त्रोत के श्लोकों से पूजा और अभिषेक करें। जिसमें फूल, फल, चावल, दूध, शक्कर चढ़ाकर आरती करने के उपरांत दान करें तथा भजन कीर्तन करें। भगवान विष्णु की प्रतिमा को क्षीर से स्नान कराकर कर दान देने के उपरांत बिना नमक का आहार ग्रहण करें। इससे शारीरिक व्याधि दूर होकर स्वास्थ्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है। इस व्रत में विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करना विषेष हितकर होता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान जागृतवस्था में आने हेतु अंगडाई लेते हैं। जिससे पद्मासीन ब्रम्ह ओंकार की ध्वनि करते हैं। उक्त ध्वनि से जगत का कल्याण हेाता है। अतः इस दिन की गई पूजा से भगवान सीधे प्रसन्न होते हैं अतः सभी कष्टों की निवृत्ति होकर सुख की प्राप्ति होती है।
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सर्वपित्र -श्राद्ध की अमावस्या -


भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आष्विन मास की अमावस्या तक का समय अपने पितरों तथा पूर्वजो को पूजन, याद करने तथा उनकी मुक्ति हेतु दान करने का होता है। इस माह में किए गए दान एवं पुण्य जीवन में सुख तथा समृद्धिदायी होती है साथ ही कष्टों को दूर करने वाली होती है। आष्विन मास के अमावस्या को पितृपक्ष का अंतिम दिन माना जाता है। पूरे 15 दिवस चलने वाले इस पितरतर्पण का विसर्जन आष्विन मास की अमावस्या को किये जाने का विधान है। इस दिन किए गए सभी दान एवं श्राद्ध पितरों की मुक्ति का माना जाता है। जिस भी व्यक्ति की मृत्यु अमावसा के दिन होती हैं उनका श्राद्ध इसी दिन किया जाता है। इस दिन किसी भी तिथि में मृत्यु पाने वाले व्यक्ति का श्राद्ध किया जा सकता है। अगर कोई व्यक्ति श्राद्ध के 15 दिन नियमो का पालन नहीं कर सकता अथवा परिजन की मृत्यु तिथी भूल गया हो या कारणवश उस तिथी के दिन श्राद्ध न कर पाया हो तो वो इस दिन श्राद्ध की विधि कर सकता हैं इसे पितृ अमावस श्राद्ध कहा जाता हैं। इस दिन ब्राम्हणों को भोजन तथा दान देकर तृप्त करने से पितरों की मुक्ति होना माना जाता है। इस दिन प्रातःकाल नदी के स्नान से निवृत्त होने के उपरांत सभी प्रकार के भोज एवं दानसामग्री लेकर संकल्प के साथ दान करने के उपरांत सायंकाल द्वार पर दीपक जलाकर एक दोनें में पूरी, खीर आदि पकवान रख दिए जाते हैं, जिसमें खाद्य सामग्री पितरों की रास्ते की भूख मिटाने तथा दीपक उनके रास्ते को प्रज्जवलित करने हेतु रखा जाता है। इस प्रकार पितरों को विदा करने से जीवन में ग्रहदोष की निवृत्ति होकर परिवार सुखी होता है।

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दोस्ती में सिर्फ धोखा-जाने अपनी कुंडली से -

क्यों किसी को जान से प्यारें दोस्त मिलते हैं तो किसी को दोस्ती में सिर्फ धोखा-जाने अपनी कुंडली से -
इस दुनिया में आते ही हमें कई रिश्ते मिल जाते हैं। उन रिश्तों को बनाने में हमारा कोई योगदान नहीं होता, हमारे जिम्मे सिर्फ जिम्मेदारी होती है, उन रिश्तों को खाद पानी देने की, उन्हें निभाने और निभाते चले जाने की। लेकिन, दोस्ती एकदम अलहदा रिश्ता है। इसे हम खुद बनाते हैं, बाकी रिश्तों की तरह इस रिश्ते के लिए किसी तरह की औपचारिकता की जरुरत नहीं होती, सिर्फ प्यार और भरोसे की जरुरत होती है। कई बार दोस्तो के लिए सभी कुछ करने के बाद भी कोई साथ नहीं देता तो किसी को बिना कीमत चुकायें ही सभी का सहयोग मिल जाता है। इसका कारण हम ज्योतिषीय गणना द्वारा भली-भांति जान सकते हैं। किसी भी कुंडली में अगर सप्तम स्थान या सप्तमेष क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत होकर छठवे आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए अथवा सप्तम स्थान पर राहु जैसे क्रूर ग्रह बैठ जाए तो दोस्तो से धोखा मिल सकता है। अतः किसी विद्धान आचार्य से अपनी कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर संबंधित ग्रह की शांति, मंत्रजाप तथा ग्रह की वस्तुओं का दान करना चाहिए।
 
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Saturday 24 October 2015

बच्चा झूठ बोले या बात छुपाये तो करायें भृगु कालेंद्र पूजन -

बच्चे क्यों कभी झूठ बोलने पर विवश हो जाते हैं? झूठ बोलने के प्रमुख कारण हैं कि अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करना चाहते इसी प्रकार कभी कभी इस लिए भी झूठ बोलते हैं ताकि उन्हें कमजोर या मूर्ख न समझा जाए। इसी प्रकार दंड व अपमान का भय भी झूठ बोलने पर मजबूर करता है। विभिन्न कारणों से झूठ बोला जा सकता है किंतु यह व्यवहारिक रूप से झूठ बोलने के तर्क हैं। किंतु जब किसी व्यक्ति की कुंडली देखी जाए तो उसकी कुंडली की ग्रह एवं उनकी स्थिति देखकर बताया जा सकता है कि कोई व्यक्ति झूठ बोलने का आदी होगा अथवा कोई सच का साथ देने वाला। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में शनि लग्न, तीसरे, पंचम या एकादश स्थान में राहु या क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत हो तो ऐसे व्यक्ति अनावश्यक रूप से झूठ का सहारा लेते हैं। वहीं किसी व्यक्ति का तीसरा स्थान या तीसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रहों से आक्रांत होकर छठवे आठवे या बारहवे स्थान पर हो जाए तो भी झूठ बोलने की आदत आ सकती है। इसी प्रकार अगर इन्हीं स्थानों का स्वामी शुक्र होकर विपरीत हो जाए तो लोग अपनी सामाजिक हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के संबंध में झूठ बोलते हैं। अतः यदि कोई बच्चा झूठ बोलने लगे तो उसके ग्रहों की स्थिति का आकलन कर उसकी भृगु कालेंद्र पूजन करायें साथ ही शनि या शुक्र का दान एवं शनि के मंत्रों का जाप कराकर झूठ बोलने की आदत को कम किया जा सकता है।
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भारत में भ्रष्टाचार के ज्योतिषीय कारण और निवारण

भ्रष्टाचार को सामान्य रूप में देखें तो किसी व्यक्ति या समाज द्वारा अपने भाग्य या पुरुषार्थ से ज्यादा पाने की चाह। स्वार्थ में लिप्त होकर कोई भी किया गया गलत कार्य भ्रष्टाचार होता है। भ्रष्टाचार का दायरा विशाल है। भ्रष्टाचार के कई रूप हैं- रिश्वत, कमीशन लेना, काला बाजारी, मुनाफाखोरी, मिलावट, कर्तव्य से भागना, चोर-अपराधियों को सहयोग करना, अतिरिक्त गलत कार्य में रुचि लेना आदि सभी अनुचित कार्यों को भ्रष्टाचार कहा जायेगा। दुर्भाग्य से भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वैसे देखा जाए तो सारे विश्व में भ्रष्टाचारी राक्षस का आतंक फैला हुआ है। भारत के सारे क्षेत्र प्रशासनिक से लेकर शैक्षिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का राज है।इसे ज्योतिष से देखा जाये तो लग्नस्थ राहू चारित्रिक पवित्रता का अभाव, भाग्येश और दशमेश शनि तीसरे स्थान में सूर्य के साथ होने से भाग्य और पुरुषार्थ की कमी तृतीयेश चंद्रमा अपने स्थान से बारहवे होने से स्वभाव में सुचिता की कमी है। जरूरी है कि समाज में लोगों को संयुक्त होकर सूर्य को प्रबल बनाने के लिए सामूहिक रूप भ्रष्टाचार का विरोध करने एवं भ्रष्ट आचरण का सामूहिक बहिस्कार करने के साथ यज्ञ एवं हवन करना चाहिए। सामूहिक रूप से आदित्य-हृदय स्त्रोत का पाठ करने से समाज में सुचिता आयेगी और इस तरह की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। इसी प्रकार भारत की कुंडली में लग्रस्थ राहु कुंडली मारकर बैठा है, उसके लिए सभी को आगे बढ़कर भौतिकता से परे देशहित एवं समाजकल्याण के लिए सोचना होगा।
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गया मध्याष्टमी में पिृतऋण से उऋण होने के लिए करें गया श्राद्ध -

श्राद्ध कर्म की चर्चा हो तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर, विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है की स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं दूसरा प्रमुख स्थान, गया जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम ‘फल्गु नदी’ है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। माना जाता है कि इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा। इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। आज गया मध्याष्टमी है। इस तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो मे आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से ‘गया जी’ बोला जाता है। गया में श्राद्ध करने के बाद श्राद्धकर्म की पूर्णता हो जाती है तथा पितृ को शाश्वत् संतुष्टि मिलती है। मातृ-पितृभक्त प्रातःकाल फल्गु में स्नान कर तर्पण करें. यहीं पितरों के लिए पिंडदान करें. मंदिर परिसर में 16 वेदी तीर्थ पर श्राद्ध के लिए तिल, चावल, जौ, दूध, दही व घी का उपयोग कर पिंडदान के बाद अक्षयवट में पिंडदान करके सुफल लें.
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भानुसप्तमी के श्राद्ध से पायें स्वास्थ्य

मानव जाति त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) कष्ट भोगता है उनमें मृत पूर्वजों की अतृप्ति के कारण वंशजों को जो कष्ट होता है वह आध्यात्मिक कारणों से होने वाले कष्टो में से एक है। समस्याओं से मुक्ति के अनेक उपाय करने के बावजूद भी राहत नहीं मिलती है। सामान्यतः दैनिक जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। शारीरिक रूप से कमजोर, मानसिक रूप से विक्षिप्त, विकलांग रूप में जन्म लेना इत्यादि। सप्तमी का श्राद्ध भानुसप्तमी के नाम से किया जाता है। जिसमें श्राद्धकर्म करने से सूर्यग्रहण में किए गए पुण्य के बराबर फल मिलता है और आने वाले वंष को शारीरिक कष्टो से छुटकारा मिलकर स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति का योग बनता है। किसी भी प्रकार से शारीरिक या किसी बीमारी से मृत्यु को प्राप्त पितरों के कारण शारीरिक कष्टो के कारण जीवन दुखमय होने पर दुख की निवृत्ति और उस प्रकार के शारीरिक कष्ट से रक्षा हेतु भानुसप्तमी का श्राद्ध करने का विधान वेदों में है। इस दिन दीपक, कपूर, धूप, लालपुष्प और चावल, शक्कर से सूर्य को गंगाजल का अध्र्य देते हुए सूर्य पुराण का पाठ कर दान देने से चर्मरोग पंगुपन या मूकपन से मुक्ति प्राप्त होती है।
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पितृपक्ष की पूजा से करें मानसिक शांति की प्राप्ति -

प्रत्येक मनुष्य जातक पर उसके जन्म के साथ ही तीन प्रकार के ऋण अर्थात देव ऋण, ऋषि ऋण और मातृपितृ ऋण अनिवार्य रूप से चुकाने बाध्यकारी हो जाते है। जन्म के बाद इन बाध्यकारी होने जाने वाले ऋणों से यदि प्रयास पूर्वक मुक्ति प्राप्त न की जाए तो जीवन की प्राप्तियों का अर्थ अधूरा रह जाता है। ज्योतिष के अनुसार इन दोषों से पीडि़त कुंडली शापित कुंडली कही जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने मातृपक्ष अर्थात माता के अतिरिक्त माना मामा-मामी मौसा-मौसी नाना-नानी तथा पितृ पक्ष अर्थात दादा-दादी चाचा-चाची ताऊ ताई आदि को कष्ट व दुख देता है और उनकी अवहेलना व तिरस्कार करता है।
जन्मकुण्डली में यदि चंद्र पर राहु केतु या शनि का प्रभाव होता है तो जातक मातृ ऋण से पीडित होता है। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है अतः ऐसे जातक को निरन्तर मानसिक अशांति से भी पीडि़त होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मातृ ऋण से मुक्ति के प्श्चात ही जीवन में शांति मिलनी संभव होती है और इस मातृऋण से मुक्ति के लिए पितृपक्ष में रूद्राभिषेक करने के साथ चावल एवं दूध का दान करने से मातृऋण से मुक्ति पाई जा सकती है।
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पितृपक्ष में करें नारायणबली पूजन पायें काम्य सुख -

जब अपत्य हिनता, कष्टमय जीवन और दारिद्र, शरीर के न छुटने वाले विकार भुतप्रेत, पिशाच्च बाधा, अपमृत्यू, अपघातों का सिलसिला साथ ही पुर्वजन्म में मिले पितृशाप, प्रेतशाप, मातृशाप, भ्रातृशाप, पत्निशाप, मातुलशाप आदी संकट मनुष्य के सामने निश्चल रुप में खडे हो। इन सभी संकटो से निश्चित रुप से मुक्ती पाने के लिये शास्त्रोक्त काम्य नारायण बली विधान है। इस विधान के साथ नागबली का भी विधान है। किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में जो द्रव्य संग्रह किया होता है उसकी उस पर आसक्ती रह गयी हो तो वह व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् भी उस द्रव्य का किसी को लाभ नहीं लेेने देता इसके अलावा नाग या सर्प की इस जन्म में अथवा पिछले किसी जन्म में हत्या की गयी तो उसका शाप लगता है। वात, पित्त, कफ जैसे त्रिदोष, जन्य ज्वर, शुळ, ऊद, गंडमाला, कुष्ट्कंडु, नेत्रकर्णकच्छ आदी सारे रोगो का निवारण करने के लिए एवं संतती प्राप्ति के लिए नारायणबली व नागबली का विधान करना चाहिए। ये विधान श्री क्षेत्र अमलेश्वर में करना चाहिए।
नारायण नागबलि ये दोनो विधी मानव की अपूर्ण इच्छा , कामना पूर्ण करने के उद्देश से किय जाते है इसीलिए ये दोने विधी काम्यू कहलाते है। नारायणबलि और नागबपलि ये अलग-अलग विधीयां है। नारायण बलि का उद्देश मुखत: पितृदोष निवारण करना है । और नागबलि का उद्देश सर्प/साप/नाग हत्याह का दोष निवारण करना है। केवल नारायण बलि यां नागबलि कर नहीं सकतें, इसगलिए ये दोनो विधीयां एकसाथ ही करनी पडती हैं।
नारायण नागबलि की पूजा क्यूँ???
संतती प्राप्ति के लिए
प्रेतयोनी से होने वाली पीडा दुर करने के लिए
परिवार के किसी सदस्य के दुर्मरण के कारण इहलोक छोडना पडा हो उससे होन वाली पीडा के परिहारार्थ (दुर्मरण:याने बुरी तरह से आयी मौत ।अपघा, आत्म‍हत्याद और अचानक पानी में डुब के मृत्यु होना इसे दुर्मरण कहते है)
प्रेतशाप और जारणमारण अभिचार योग के परिहारार्थ के लिऐ।
पितृदोष निवारण के लिए नारायण नागबलि कर्म करने के लिये शास्त्रों मे निर्देशित किया गया है । प्राय: यह कर्म जातक के दुर्भाग्य संबधी दोषों से मुक्ति दिलाने के लिए किये जाते है।
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वृद्धि श्राद्ध से पायें समृद्धि

हिन्दूधर्म की मान्यता अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को आर्शीवाद लेना प्रमुख कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही आज यह सुखी जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। वेदों में वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है इसीलिए आवश्यक है -श्राद्ध और साथ ही जीवन में किसी प्रकार के वृद्धिकार्य जैसेे विवाहादि संस्कार, पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश इत्यादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है, जिससे जीवन में जो समृद्धि प्राप्त होती है वह चिरस्थायी बनी रहे और निरंतर वृद्धि प्राप्त होती रहे इस हेतु वृद्धि श्राद्ध किये जाने का विधान है।
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रामायण की चौपाई से सिद्धि मन्त्र

ऋद्धि सिद्ध की प्राप्ति के लिए
साधक नाम जपहिं लय लाएं।
होहि सिद्धि अनिमादिक पाएं।।
धन सम्पत्ति की प्राप्ति हेतु
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।
सुख सम्पत्ति नानाविधि पावहिं
लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए
जिमि सरिता सागर मंहु जाही।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपत्ति बिनहि बोलाएं।
धर्मशील पहिं जहि सुभाएं।।
वर्षा की कामना की पूर्ति हेतु
सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवनदाता।।
सुख प्राप्ति के लिए
सुनहि विमुक्त बिरत अरू विबई।
लहहि भगति गति संपति नई।।
शास्त्रार्थ में विजय पाने के लिए
तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।
विद्या प्राप्ति के लिए
गुरु ग्रह गए पढ़न रघुराई।
अलपकाल विद्या सब आई।।
ज्ञान प्राप्ति के लिए
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंचरचित अति अधम शरीरा।।
प्रेम वृद्धि के लिए
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीती।।
परीक्षा में सफलता के लिए
जेहि पर कृपा करहिं जनुजानी।
कवि उर अजिर नचावहिं बानी।।
मोरि सुधारहिं सो सब भांती।
जासु कृपा नहिं कृपा अघाती।।
विपत्ति में सफलता के लिए
राजिव नयन धरैधनु सायक।
भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।।
संकट से रक्षा के लिए
जौं प्रभु दीन दयाल कहावा।
आरतिहरन बेद जसु गावा।।
जपहि नामु जन आरत भारी।
मिंटहि कुसंकट होहि सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।
विघ्न विनाश के लिए
सकल विघ्न व्यापहि नहिं तेही।
राम सुकृपा बिलोकहिं जेही।।
दरिद्रता दूर करने हेतु
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ।
कामद धन दारिद्र दवारिके।।
अकाल मृत्यु से रक्षा हेतु
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित प्रान केहि बात।।
विविध रोगों, उपद्रवों आदि से रक्षा हेतु
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम काज नहिं काहुहिं व्यापा।।
विष नाश के लिए
नाम प्रभाऊ जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।
खोई हुई वस्तु की पुनः प्राप्ति हेतु
गई बहारे गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।
महामारी, हैजा आदि से रक्षा हेतु
जय रघुवंश वन भानू।
गहन दनुज कुल दहन कूसानू।।
मस्तिष्क पीड़ा से रक्षा हेतु
हनुमान अंगद रन गाजे।
होक सुनत रजनीचर भाजे।।
शत्रु को मित्र बनाने के लिए
गरल सुधा रिपु करहि मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
शत्रुता दूर करने के लिए
वयरू न कर काहू सन कोई।
रामप्रताप विषमता खोई।।
भूत प्रेत के भय से मुक्ति के लिए
प्रनवउ पवन कुमार खल बन पावक ग्यान धुन।
जासु हृदय आगार बसहि राम सर चाप घर।।
सफल यात्रा के लिए
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
हृदय राखि कौशलपुर राजा।।
पुत्र प्राप्ति हेतु
प्रेम मगन कौशल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान।।
मनोरथ की सिद्धि हेतु
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरू नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहि त्रिसरारी।।
हनुमान भक्ति हेतु
सुमिरि पवन सुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू।।
विचार की शुद्धि हेतु
ताके जुग पद कमल मनावऊं।
जासु कृपा निरमल मति पावऊं।।
ईश्वर से क्षमा हेतु
अनुचित बहुत कहेउं अग्याता।
छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।।

शरद पूर्णिमा

अश्विनी मास को शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को "शाद पूर्णिमा' कहते हैं । इसे रास पूर्णिमा कमला पूर्णिमा, कौमुदी उत्सव, कुमार उत्सव, शरदोत्सव और चंद्रक्रोत्सव आदि के नाम से भी जाना जाता है । इसी दिन ब्रजमंडल में गोपियों ने भगवती कात्यायिनी की अर्चना करके कृष्णा के सानिध्य की प्राप्ति का वरदान पाया था । तत्पश्चात भगवान कृष्णा ने यमुना के तट पर गोपियों के साथ महारास किया था । "
भगवती कात्यायिनी नवदुर्गा की छटा स्वरूप हैं । महर्षि कात्यायन ने आदि शक्ति की उपासना करके उनसे यह प्रार्थना की थी कि दुखी प्राणियों की रक्षा के लिए वे उन्ही के घर में अवतरित हों । महर्षि कात्यायन की कन्या के रूप में अवतरित होने के कारण इनका नाम कात्यायिनी पड़ा । सिंह इनकी सवारी है, उनके हाथ उज्जवल चंद्रहास से सुशोभित हैं । दुर्गा ने कन्याओं की मनोकामना की पूर्ति के लिए ही कात्यायिनी रूप धारण किया था। इन्हें ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री माना गया है ।रास पूर्णिमा का यह पर्व शरद ऋतु के आगमन का सूचक है, इसके साथ ही शरद ऋतु आरंभ हो जाती है । शरद पूर्णिमा की रात को लक्ष्मी का पूजन और जागरण किया जाता है । ऐसी मान्यता है कि इस रात लक्ष्मी भूलोक पर विचरण करती हैं और जाग्रत मनुष्य को धन-धान्य से संपन्न बनाती हैं । लक्ष्मी के आठ रूप हैं-धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, ऐश्वर्य अथवा राज्यलक्ष्मी, वैभव लक्ष्मी, राजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, कमला लक्ष्मी एवं विजयलक्ष्मी । पुराणों के अनुसार मंथन से उत्पन्न लक्ष्मी ने क्षीर सागर में शेषनाग यर विश्राम करने वाले श्रीहरि का ही वरण किया, जो इस बात का प्रतीक है कि जो व्यक्ति साहसपूर्वक समस्त बाधाओं का सामना करते हुए, पूर्णनिष्ठा से कर्तव्यपरायण होकर अपने कार्यों का संपादन करता है, लक्ष्मी रूपी वैभव उसी का वरण करता है । क्षीर सागर इस विश्व का प्रतीक है ।शेष-शय्या इस जगत में स्थित बाधाओं का प्रतीक है । भगवान विष्णु उस कर्तव्यपरायण लक्ष्यधारी व्यक्तित्व के प्रतीक हैं जो जगत की समस्त बाधाओं एवं चिंताओं का धैर्यपूर्वक सामना करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है ।जाग्रत एवं चेतन व्यक्ति को ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । प्रमादी, आलसी, मूर्ख, निर्चुद्धि, कृपण, कायर व्यक्ति कभी भी लक्ष्मी का कृपापात्र नहीं हो सकता ।
भारतीय ज्योतिषशास्त्र की मान्यता के अनुसार पूरे वर्ष में चन्द्रमा केवल शरद पूर्णिमा की रात को ही अपनी सोलह कलाओं से पूर्ण होता है । इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के अधिक निकट होता है । इसीलिए इस रात को चंद्रमा अपेक्षाकृत अधिक बड़ा दिखाई देता है । वर्षा ऋतु के चौमासों के बादल छंटने पर इस रात्रि में पूर्ण चन्द्र की छटा अधिक धवल एवं प्रदीप्त प्रतीत होती है । चांदनी रात में विचरण करने से संतप्त मन क्रो शांति मिलती है । इसीलिए हमारे मनोविज्ञानी चिकित्साशास्त्रियों ने इस रात्रि के खुले प्रांगण में नाच, गान रास से भरपूर सामूहिक उत्सव के आयोजन की व्यवस्था की है । हम दुख की पीड़ा को भले ही अकेले झेलें, किंतु आनंद के क्षण सबके साथ बांटते हैं । उत्सव जब सामाजिक अथवा सामूहिक हो तो उसका आनंद और भी अधिक बढ़ जाता है। महापुरुषों में चंद्र की सुन्दरता एवं शीतलता दोनों ही गुण विद्यमान होते हैं । राम और कृष्णा को इसीलिए उनके भक्त प्रेम से रामचंद्र और कृष्ण चंद्र कहते है । चंद्र के आकर्षण से ही समुद्र में ज्वर भाटा आता है । प्रेमीजनों का हदय पूर्णिमा की कांति से आलोड़ित होता है, इसीलिए पूर्णिमा की रात में प्रेमी युगलों द्वारा नौका विहार की परंपरा पाई जाती है । ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की चान्दनी में औषधीय गुण भी विधमान रहते हैं । इसलिए इस रात खुले बरतन में खीर भरकर चांदनी में रखी जाती है । प्रात:काल इसी खीर को प्रसाद के रूप में घर के सभी प्राणी खाते हैं । इस रात चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाकर देखने से नेत्र ज्योति भी बढती है । निरोगी रहने के लिए ही आकाश के मध्य में स्थित होने पर इस पूर्ण चन्द्रमा को पूजने की परंपरा है ।
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Wednesday 21 October 2015

आर्किटेक्चरल इंजिनीयरिंग करने के ग्रह योग

आज के शहरीकरण में हर व्यक्ति अपना एक स्वतंत्र रुप का घर चाहता है । घर बनवाने हेतु विभिन्न तरह के डिजाइन के अलग दिखने बाला घर आर्किटेक्ट के माध्यम से तैयार करवाता है। जिसके कारण ही शिक्षित व अनुभवी आर्किटेक्ट की मांग दिनों-दिन बढती जा रही है । समाज में धन और प्रतिष्ठा से जुड़कर इनकी अलग पहचान हो रही है । इसी कारण आज का नवयुवक भी आर्किटेक्ट की पढाई कर इस व्यवसाय को अपनाना चाहता हैं ।
1. भूमि कारक शनि व मंगल एवं कलात्मक कारक शुक्र का कुंडली में बली होना
आकेंटेक्ट शिक्षा के लिए कारक हैं ।
2. मंगल की राशि की लग्न या शनि की राशि की लग्न हो या शनि व मंगल में से किसी का भी लग्न पर प्रभाव हो और साथ ही शनि, मंगल, शुक्र जैसे ग्रहों का पंचम, लग्न, दशम,धन,लाभ आदि में से किन्हें से संबंध हो रहा हो, तो भी जातक को आकेंटेक्ट की शिक्षा दिलाकर आकेंटेक्ट बनाता है ।
3. यदि लग्नेश मंगल का शुक्र के साथ युति या दृष्ट संबंध हो,गुरु का संबंध केन्द्र या त्रिकोंण में भूमि कारक शनि से हो एवं बुध भी अच्छी स्थिति में हो और कर्मेश का संबंध भी यदि मंगल या शनि या शुक्र में से किसी भी रुप में बन रहा हो, तो जातक आकेंटेक्ट की पढाई कर आकेंटेक्ट का काम करता है ।
4. यदि लग्नेश के रुप में शनि पर गुरु की दृष्टि हो रही हो,भाग्येश के रुप में कारक शुक्र का संबंध कर्मेश मंगल के साथ होकर भाग्य या लाभ भाव में गुरू से दष्ट हो रहा हो एवं बुध के साथ केन्द्र में बुधादित्व योग होकर शनि और राहु जैसे ग्रहों से प्रभावित हो, तब भी जातक आकेंटेक्ट कार्य कर सकता है ।
5. यदि मंगल की राशि का लग्न होकर गुरू से दृष्ट हो, गुरु का शुक्र और शनि जैसे ग्रहों पर दृष्टि प्रभाव हो व लग्नेश मंगल का भी शुक्र पर दृष्टि संबंध हो रहा हो और शुक्र की राशि में बुधादित्य योग होकर राहु से युति या दृष्टि द्वारा प्रभावित हो रहा हो, तो भी जातक आर्केटेक्ट के कार्य में दक्ष होता है ।
6. यदि मंगल लग्नेश होकर लग्न में राहू जैसे ग्रह से प्रभावित हो, शनि व शुक्र का मंगल की राशि मेष में युति या दृष्टि संबध हो रहा हो एंवं बुधादित्व योग केन्द्र या त्रिकोंण में हो, तो जातक भी आकेंटेक्ट प्रोफेशन का कार्य करता है।
7. यदि शनि लाभ या धन भाव में हो या धन भाव में बैठकर कर्मेश शुक्र व लाभभाव को प्रभावित करें एवं भाग्येश के रुप में मंगल पचंमेश गुरु व लग्नेश सूर्य के साथ होकर केन्द्र या त्रिकोंण में राहु से युति या दृष्ट द्वारा प्रभावित हो तो भी जातक भूमि, भवन संबंधित कार्य का आर्केटेक्ट बनता है ।
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विजयादशमी

हमारी संस्कृति शौर्य और पराक्रम की आराधक है । विजयादशमी का पर्व उसी परंपरा को जीवंतता प्रदान करने वाला पर्व है । अनुभवी लोगों का कहना है कि आग, शत्रु और रोग का आभास होते ही निदान करना जरूरी है । इससे पहले कि समय पाकर ये तीनों अपना विकराल रूप धारण करें और हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाए-उन पर काबू पा लिया जाना चाहिए । विजयादशमी का पर्व असल में संकल्पबद्ध और दृढ़निश्चयी होकर बाहरी और भीतरी शत्रुओं को जड़ सहित उखाड़ फेंकने का महापर्व है ।
विजयादशमी का पर्व असत यर सत की, स्वार्थ पर परमार्थ की, दानवता पर मानवता की, बुराई पर अच्छाई की और अज्ञान पर ज्ञान की विजय का प्रतीक है । सदियों पहले श्रीराम ने नौ दिन तक भगवती शक्ति ( जगदंबा ) की आराधना करके शक्ति अर्जित की और विजयादशमी के दिन आततायी रावण पर विजय प्राप्त की थी । छत्रपति शिवाजी ने भी औरंगजेब की विशाल सेना को अपने युक्तिबल से परास्त करने के लिए आज ही के दिन का चयन किया था | विजयादशमी का महापर्व साबित करता है कि अन्यायी चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, उसका एक न एक दिन नाश अवश्य होता है । अन्यायी और दुराचारी का अंत तो बुरा ही होता है, साथ ही आने वली पीढियां भी उसके निकृष्ट कर्मों को क्षमा नहीं करतीं । श्रीराम के पावन चरित्र का स्मरण और अनुकरण कराने के लिए दशहरा के दस दिनों में देश के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन किया जाता है । काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के प्रतीक रावण, कुंभकरण और मेघनाद के पुतलों का दशहरे के दिन दहन किया जाता है । कुछ क्षेत्रों में इन पुतलों के जले हुए अवशेषों को घर ले जाने की भी परंपरा है । ऐसी मान्यता है कि इन अवशेषों को घरों में रखने से सभी विकार हमारे घरों में प्रवेश नहीं कर पाते, जो कभी रावण में थे तथा विजयादशमी के दिन जिनका दहन कर दिया गया है । विजयादशमी के दिन शमी वृक्ष की पूजा की जाती है । शमी का वृक्ष दृढ़ता और तेजस्विता का प्रतीक है । इसमें अग्नि तत्व की प्रचुरता होती है । यज्ञ आदि में प्रकट करने के लिए अरणी मंथन के उपकरण शमी की लकड़ी से ही बनाए जाते हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय जनमानस की आस्था के प्रतीक हैं । भारतीय संस्कृति में श्रीराम का महत्व इसलिए नहीं है कि श्रीराम ईश्वर हैं, बल्कि उनकी महत्ता इसलिए है क्योंकि वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं । श्रीहरि विष्णु ने श्रीराम के रूप में एक साधारण मानव का अवतार लिया और मानव को कर्तव्यपरायणता की शिक्षा दी । श्रीराम ने अपने शील, शक्ति सौंदर्य, विवेक,धर्म, परमार्थ, क्षमा, समदृष्टि, संतोष और दया जैसे सात्विक सदगुणों द्वारा तामसी प्रवृति, मोह, अभिमान, काम, क्रोध, मद,लोभ, अनीति, हिंसा, पर
द्रोह तथा पाप आदि दुर्गुणों के प्रतीक अतुल वैभव, ऐश्वर्यशील, ज्ञान व पांडित्यपूर्ण, बलशाली रावण को पराजित किया था । श्रीराम ने 34 वर्ष के वनवास काल में, अपने प्रवास में पड़ने वाले प्रत्येक ग्राम और नगर के समस्त समुदायों व जातियों को संगठन के सूत्र से जोड़ा । श्रीराम ने मानव समुदाय को विजय और सफलता के लिए अपने कार्यों से एक मंत्र दिया-'संगठन यंत्र' इसी के बल पर उन्होंने रावण के अतुलित शक्ति-संपन्न साम्राज्य को ध्वस्त किया । महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को धर्म का साक्षात स्वरूप बताया
है- रामो विग्रहवान धर्म: अर्थात संपूर्ण जगत उन्हीं में समाहित है । श्रीराम के बिना हमारी संस्कृति निष्प्राण है । श्रीराम का चरित्र मर्यादा और कर्तव्य का स्रम्मिश्रण रहा है । वे जीवन पर्यत मर्थादामय व कर्तव्यनिष्ठ रहे हैं । उनके जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता, जब श्रीराम मर्यादा और कर्तव्य से हटते दिखाई दिए हों । इसीलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए ।
श्रीराम ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मर्यादा की स्थापना की । उन्होंने पुत्र, शिष्य,भ्राता,मित्र, पति, सेनाध्यक्ष और राजा के रूप में आदर्शों की स्थापना की । उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के गले लगाया । अहिल्या, निषादराज, गुह, वानरराज सुग्रीव, ऋक्षराज़ जटायु, शबरी, विभीषण, हनुमान और अंगद-ये सभी श्रीराम के चरित्र को उजला बनाने वाले नक्षत्र बन गए ।
Pt.P.S.Tripathi
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