Friday 30 October 2015

करवाचौथ का व्रत

करवाचौथ का व्रत
करवाचौथ का त्योहार हिन्दू धर्म में विवाहित स्त्रियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। सभी विवाहित स्त्रियां इस दिन अपने पति की लंबी आयु, सुखी जीवन और भाग्योदय के लिए व्रत करती हैं। कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला यह करक चतुर्थी व्रत अखंड सौभाग्य की कामना के लिए स्त्रियां करती हैं। करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है। सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है।
करवाचौथ पूजन-विधि:
सम्पूर्ण सामग्री को एक दिन पहले ही एकत्रित कर लें। व्रत वाले दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान कर स्वच्छ कपड़े पहन लें तथा शृंगार भी कर लें। इस अवसर पर करवा की पूजा-आराधना कर उसके साथ शिव-पार्वती की पूजा का विधान है क्योंकि माता पार्वती ने कठिन तपस्या करके शिवजी को प्राप्त कर अखंड सौभाग्य प्राप्त किया था इसलिए शिव-पार्वती की पूजा की जाती है। करवा चौथ के दिन चंद्रमा की पूजा का धार्मिक और ज्योतिष दोनों ही दृष्टि से महत्व है। व्रत के दिन प्रात: स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोल कर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें-
मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री
प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।
करवाचौथ का व्रत पूरे दिन बिना कुछ खाए-पिए किया जाता है। दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें, इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। आठ पूरियों की अठावरी, हलवा और पक्के पकवान बनाएं। उसके बाद पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेश जी बनाकर बिठाएं। ध्यान रहे गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का शृंगार करें। उसके बाद जल से भरा हुआ लोटा रखें।
बायना देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवे में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें तथा उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बना लें, अब गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परम्परानुसार पूजा करें तथा पति की दीर्घायु की कामना करें।
शाम को 'नम: शिवाय शर्वाण्य सौभाग्यं संतति शुभाम। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥ कहते हुए, करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवाचौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासू जी के पैर छू कर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्ध्य दें। इसके बाद छलनी से पति का दर्शन कर आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर अपने व्रत को संपन्न करें।
करवा चौथ की कथा:
इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं जिनमें एक बहन और सात भाइयों की कथा बहुत प्रसिद्ध है। बहुत समय पहले की बात है एक लड़की के सात भाई थे। उसकी शादी एक राजा से हो गई। शादी के बाद पहले करवाचौथ पर वह अपने मायके आ गई। उसने करवाचौथ का व्रत रखा लेकिन पहला करवाचौथ होने की वजह से वह भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी और बड़ी बेसब्री से चांद निकलने की प्रतीक्षा कर रही थी।
उसके सातों भाई उसकी यह हालत देख कर परेशान हो गए। उन्होंने बहन का व्रत समाप्त कराने के लिए पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी। बहन के व्रत समाप्त करते ही उसके पति की तबीयत खराब होने लगी। खबर सुन कर वह अपने ससुराल चली तो रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती जी के साथ मिले। पार्वती जी ने उसे बताया कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है क्योंकि उसने नकली चांद को देखकर व्रत समाप्त कर लिया था। यह सुनकर बहन ने अपने भाइयों की करनी के लिए क्षमा मांगी। पार्वती जी ने कहा कि तुम्हारा पति फिर से जीवित हो जाएगा लेकिन इसके लिए तुम्हें करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से करना होगा। इसके बाद माता पार्वती ने करवा चौथ के व्रत की पूरी विधि बताई और उसी के अनुसार बहन ने फिर से व्रत किया और अपने पति को वापस प्राप्त कर लिया।
महाभारत से संबंधित अन्य पौराणिक कथा के अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं। दूसरी ओर बाकी पांडवों पर कई प्रकार के संकट आन पड़ते हैं। द्रौपदी भगवान श्रीकृष्ण से उपाय पूछती हैं। वह कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवाचौथ का व्रत करें तो इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है। द्रौपदी विधि विधान सहित करवाचौथ का व्रत रखती है जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं।
चंद्रमा की पूजा का महत्व:
छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार जो चंद्रमा में पुरुष रूपी ब्रह्मा की उपासना करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। उसे लंबी और पूर्ण आयु की प्राप्ति होती है। व्रत का समापन चंद्रमा को अर्ध्य देकर किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से महिलाएं अखंड सौभाग्यवती होती हैं,और उनका पति दीर्घायु होता है। इस व्रत को पालन करने वाली पत्नी अपने पति के प्रति मर्यादा से,विनम्रता से,समर्पण के भाव से रहे और पति भी अपने समस्त कर्तव्य एवं धर्म का पालन सुचारु रुप से पालन करें, तो ऐसे दंपत्ति के जीवन में सभी सुख-समृद्धि हमेशा बनी रहती है।

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कर्कोटक कालसर्प दोष

राहु केतु की आकृति सर्प के रूप में मानी गयी है. कालसर्प दोष के निर्माण में इन दोनों ग्रहों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है. कर्कोटक कालसर्प दोष यह कालसर्प दोष का आठवां प्रकार है. कर्कोटक नाग का नाम भी धार्मिक पुस्तकों एवं कथाओं में कई स्थानों पर आया है. नल-दम्यंती की कथा एवं जनमेजय के नाग यज्ञ के संदर्भ में भी इस सर्प का जिक्र मिलता है. कर्कोटक कालसर्प भी तक्षक कालसर्प के समान काफी कष्टकारी माना जाता है.
कुण्डली में कर्कोटक कालसर्प दोष
जन्मपत्री में आठवां भाव जिसे मृत्यु, अपयश, दुर्घटना, साजिश का घर कहा जाता है उसमें राहु बैठा हो तथा द्वितीय भाव जिसे धन एवं कुटुम्ब स्थान कहा जाता है उसमें केतु विराजमान हो और सू्र्य से शनि तक शेष सातों ग्रह एक ही दिशा में एक गोलर्द्ध में राहु केतु के बीच बैठे हों तब जन्म कुण्डली में कर्कोटक कालसर्प दोष माना जाता है.
कर्कोटक कालसर्प दोष का प्रभाव
कर्कोटक कालसर्प दोष होने पर पारिवारिक सम्बन्धों में काफी असर पड़ता है. इस दोष से प्रभावित व्यक्ति का अपने कुटुम्बों एवं सगे-सम्बन्धियों से मतभेद रहता है. इनमें आपसी सामंजस्य की कमी रहती है. इन कारणों से जरूरत के वक्त परिवार के सदस्य सहयोग के लिए आगे नहीं आते हैं. इस तरह की परेशानी से बचने के लिए व्यक्ति को संयम और धैर्य से काम लेने की जरूरत होती है. क्रोध पर काबू रखना भी आवश्यक होता है.
व्यय के रास्ते अचानक ही बनते रहते हैं जिससे बचत में कमी आती है. पैतृक सम्पत्ति के सुख से व्यक्ति वंचित रह सकता है अथवा पैतृक सम्पत्ति मिलने पर भी उसे सुख की अनुभूति नही होती है. व्यक्ति की आजीविका में समय-समय पर मुश्किलें आती हैं जिनके कारण नुकसान सहना पड़ता है. आठवें घर में बैठा राहु व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी चिंताएं देता है. दुर्घटना की संभावना भी बनी रहती है. अगर व्यक्ति सजग एवं सावधान नहीं रहे तो अपने आस-पास में हो रहे साजिश के कारण उसे कठिन हालातों से भी गुजरना पड़ता है.
कर्कोटक कालसर्प दोष उपाय
कर्कोटक नाग के विषय में उल्लेख मिलता है कि यह भगवान शिव के बड़े भक्त हैं. शिव जी तपस्या करते हुए इन्हेंनों शिव की अनुकम्पा प्राप्त की है. उज्जैन में एक शिव मंदिर है जो कर्कोटेश्वर के नाम से जाना जाता है. मान्यता है कि इसी मंदिर में कर्कोटक को शिव की कृपा मिली थी. इस मंदिर में शिव जी पूजा अर्चना करने से कर्कोटेश्वर कालसर्प का दोष दूर होता है. पंचमी, चतुर्दशी एवं रविवार के दिन यहां दर्शन पूजा करना अति उत्तम माना जाता है. इस दिन यहां पूजा करने से सभी प्रकार की सर्प पीड़ा से मुक्ति मिलती है.
जो लोग यहां दर्शन के लिए नहीं जा सकते हैं वह पंचाक्षरी मंत्र से शिव की पूजा करें और दूध व जल से उनका अभिषेक करें तो कर्कोटक कालसर्प दोष के अशुभ फल से बचाव होता है. इस दोष की शांति के लिए नागपंचमी एवं शिवरात्रि के दिन शिव की पूजा अधिक फलदायी होती है. पंचमी तिथि में सवा किलो जौ बहते जल में प्रवाहित करने से भी कर्कोटक कालसर्प दोष शांत होता है.

कुंडली में कर्क लग्न में मंगल का प्रभाव

कर्क लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
लग्न (प्रथम भाव) में बैठे मंगल के प्रभाव से जातक के शारीरिक सौंदर्य एवं स्वास्थ्य में कमी रहती है । विद्या, संतान, राज्य एवं पिता के सुख में भी असंतोष बना रहता है । यहाँ से मंगल चौथी मित्र दृष्टि से चतुर्थ भाव को देखता है, अत: जातक को माता, भूमि तथा मकानादि का सुख तो मिलता है, किन्तु स्त्री की तरफ से मानसिक संतोष नहीं मिलता । व्यवसाय में थोड़ी कठिनाइयों के बाद सफलता मिलती है, मगर दैनिक जीवन में छोटी-मोटी कठिनाइयां आती रहती हैं । द्वितीय भाव में अपने मित्र सूर्य की सिंह राशि पर मंगल के स्थित होने से जातक को धन और परिवार का पर्याप्त सुख मिलता है । समाज से सम्मान पाता है । संतान एवं विद्या की शक्ति प्राप्त होने पर भी अनेक परेशानियों का अनुभव होता है । आयु तथा धर्म की वृद्धि होती है । तृतीय भाव में मंगल की उपस्थिति से जातक का पराक्रम बढ़ता है तथा भाई-बहनों का सुख प्राप्त होता है । विद्या एवं संतान की शक्ति भी मिलती है । जातक अपने बुद्धि-बल से भाग्यशाली होता है तथा धर्म व यश प्राप्त करता है । पिता से सहयोग मिलता है, इसलिए नौकरी-व्यापार में सफल होता है । शत्रुपक्ष में प्रभाव एवं विजय की प्राप्ति होती है । चतुर्थ भाव में मंगल के प्रभाव से जातक को माता, भूमि तथा भवनादि का स्नाप्त होता है । साथ ही उसे विद्या, बुद्धि और संतान के पक्ष में भी सफलता है । स्त्री एवं व्यवसाय के क्षेत्र में उन्नति तथा सुख का योग बनता है । धन- लाभ होता है । जातक सुखी, धनी और सफल जीवन व्यतीत करता है । पंचम भाव के होने पर जातक के मान-सम्मान एवं प्रभाव में वृद्धि होती है । लाभ प्राप्ति के लिए मानसिक परिश्रम अधिक करना पड़ता है । व्यय अधिक रहता है । बाहरी स्थानों के संपर्क से यश, धन तथा सफलता की प्राप्ति होती है । कर्क लग्न के अंतर्गत जन्मकुंडली के षष्ठ भाव में मंगल के होने पर जातक अपने शत्रुओं पर विजय पाता है । वह विद्या और बुद्धि का धनी होता है । संतान-सुख प्राप्त करता है । बुद्धियोग द्वारा भाग्य तथा धर्म की उन्नति होती है । शारीरिक सौंदर्य,स्वास्थ्य सुख एवं शांति में कुछ कमी बनी रहती है । सप्तम भाव में मंगल का प्रभाव होने से जातक को कईं सुंदर स्त्रियों का संयोग प्राप्त होता है । साथ ही उनसे कुछ मतभेद भी होता रहता है  व्यावसायिक सफलता मिलती है और सम्मान भी । स्वास्थ्य में कमी तथा घरेलूसुख में असंतोष रहता है । जातक की शक्ति प्रबल रहती है । उसकी वाणी अति प्रभावशाली होती है । अष्टम भाव में मंगल के प्रभाव से जातक को आयु,पिता, राज्य, नौकरी या व्यवसाय विद्या,बुद्धि तथा संतान के पक्ष में कुछ हानि उठानी पड़ती है, किन्तु धन भाव में मंगल के होने से जातक के भाग्य की बृद्धि होती है। परिश्रम द्वारा उसकी उन्नति संभव होती है । वह अति विशिष्ट व प्रभावशाली व्यक्ति होता है । सप्तम भाव में मंगल के होने पर जातक को कठिनाइयों के साथ भी एवं व्यवसाय से खुस-सफलता की प्राप्ति होती है । पिता से कुछ मतभेद रहते हैं । उसका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक होता है तथा वह बहुत सौभाग्यशाली होता है । उसे जीवन में सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं । यदि जन्मकुंडली के अष्टम भाव में मंगल हो तो जातक दीर्घायु होता है, किन्तु भाग्य का धनी नहीं होता । धर्म में भी उसकी कोई विशेष आस्था नहीं होती । वह जो भी कार्य करता है, उसमें खूब आमदनी होती है । परिवारिक सुख मिलता है । ऐसा जातक यशस्वी होता है । नवम भाव में मंगल के होने से जातक बड़ा भाग्यवान होता है । उसमें बहुत अधिक व्यय करने की आदत नहीं होती । उसे किसी चीज की कमी नहीं रहती । उन्नति के प्रति वह पूर्ण आशावान होता है । यहीं आशा उसे उच्च शिखर तक ले जाती है । यदि दशम आव में मंगल हो तो जातक निराशावादी नहीं होता, क्योंकि वह पूर्णतया आशावादी होता है । व्यवसाय के क्षेत्र में वह उन्नति, सफलता, सम्मान और लाभ-सभी कुछ प्राप्त करता है । जातक मधुरभाषी, धैर्यवान,विनम्र तथा सज्जन होता है । यदि एकादश भाव में मंगल स्थित हो तो जातक की आमदनी में वृद्धि होती है । मकानादि की प्राप्ति होती है । आजीविका साधन में कोई कमी नहीं रहती । परिवार का पूर्ण सुख मिलता है । रोगों और बेकार के झंझटों में उसे विजय मिलती है । जातक अत्यंत प्रभावशाली, शत्रुजयी, धनी तथा ननिहाल का भी सुख प्राप्त करने वाला होता है । द्वादश (व्यय ) भाव में अपने मित्र चंद्रमा को कर्क राशि पर स्थित नीच के मंगल जातक को खर्च के मामले में परेशानी उठानी पड़ती है । बाहरी संबधित से भी कष्ट होता है । भाग्य उसका साथ नहीं देता, फिर भी नौकरी या कारोबार से उसे लाभ होता है । धर्म में उसकी आस्था न के बराबर होती है ।

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दीपक जलने से सकारात्मक ऊर्जा का विकास

अपनी एक किरण से अन्धकार को चीरता हुआ प्रकाश फैलाने वाला दीपक प्रतिदिन जलता है और जलाया जाता है। त्याग की प्रतिमूर्ति दीपक को लगभग हर घर में पूजन व अर्चन के दौरान प्रज्जवलित किया जाता है।
भगवान गणेश की कृपा पाने के लिए तीन बत्तियों वाला दीपक जलानें से मनोकामनायें पूर्ण होती है। यदि आप मां लक्ष्मी की आराधना करते हैं और चाहते हैं कि उनकी कृपा आप पर बरसे तो उसके लिए आपको सातमुखी दीपक जलायें। यदि आपका सूर्य ग्रह कमजोर है तो उसे बलवान करने के लिए, आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ करें और साथ में सरसों के तेल का दीपक जलायें। आर्थिक लाभ पाने के लिए आपको नियमित रूप से शुद्ध देशी गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए। शत्रुओं व विरोधियों के दमन हेतु भैरव जी के समक्ष सरसों के तेल का दीपक जलाने से लाभ होगा। शनि की साढ़ेसाती व ढैय्या से पीड़ित लोग शनि मन्दिर में शनि स्त्रोत का पाठ करें और सरसों के तेल का दीपक जलायें। पति की आयु व अरोग्यता के लिए महुये के तेल का दीपक जलाने से अल्पायु योग भी नष्ट हो जाता है। शिक्षा में सफलता पाने के लिए सरस्वती जी की आराधना करें और दो मुखी घी वाला दीपक जलाने से अनुकूल परिणाम आते हैं। मां दुर्गा या काली जी प्रसन्नता के लिए एक मुखी दीपक गाय के घी में जलाना चाहिए। भोले बाबा की कृपा बरसती रहे इसके लिए आठ या बारह मुखी पीली सरसों के तेल वाला दीपक जलाना चाहिए। भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए सोलह बत्तियों वाला गाय के घी का दीपक जलाना लाभप्रद होता है। हनुमान जी की प्रसन्नता के लिए तिल के तेल आठ बत्तियों वाला दीपक जलाना अत्यन्त लाभकारी रहता है। पूजा की थाली या आरती के समय एक साथ कई प्रकार के दीपक जलाये जा सकते हैं। संकल्प लेकर किया गये अनुष्ठान या साधना में अखण्ड ज्योति जलाने का प्रावधान है।

डेंगू का कारण व उपाय: ज्योतिष्य तथ्य

डेंगू नामक बीमारी एंडीज मच्छरों के काटने से होती है। इस रोग में भयानक सिरदर्द के साथ तेज बुखार आता है और शरीर में लाल रंग के चकत्ते पड़ते है, नाक से खून का रिसाव होता है, भूख नहीं लगती है और उल्टियाॅ आना आदि लक्षण प्रतीत होते है। जैसे-जैसे यह बीमारी रोगी पर हावी होती है वैसे-वैसे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और प्लेटलेटस की संख्या निरंतर कम होने लगती है। प्लेटलेटस में लाल रक्त कणिकायें और प्लाजमा शामिल होता है। प्लेटलेटस का अहम कार्य हमारे शरीर में मौजूद हर्मोन और प्रटोन को उपलब्ध कराना होता है। रक्त को नुकसान होने की स्थिति में कोलाजन नामक द्रव्य निकलता है जिससे मिलकर प्लेटलेटस एक अस्थाई दीवार का निर्माण करते है एंव रक्त को और अधिक क्षति होने से रोकते है। बुखार आने पर कैसे पता करें कि डेंगू है या साधारण बुखार प्लेटलेटस की संख्या सामान्य से नीचे आने पर रक्तस्नय की आशंका बढ़ती है। धीरे-2 एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि रोगी की मृत्यु भी हो सकती है। इस बीमारी का भारतीय ज्योतिष में दो ग्रहों सूर्य व मंगल से सम्बंध देखा जा सकता है। ये दोनों ग्रह जब गोचर में नीच या पाप ग्रहों से दृष्ट हो या भाव सन्धि में फॅस जाते है तो इन ग्रहों से प्रभावित लोगों पर यह बीमारी विशेष प्रभाव डालती है। प्लेटलेटस में दो चीजे होती है लाल रक्त कणिकायें और प्लाजमा। लाल रक्त कणिकाओं का सम्बंध मंगल ग्रह से होता है और प्लाजमा का सम्बंध सूर्य ग्रह से होता है। सूर्य का प्रभाव रवि का अमल आत्मा, चेतना शक्ति एंव ह्रदय पर रहता है। सूर्य ही सूर्यमाला का आधार है। जोड़ो में दर्द, ऊर्जा निर्माण, श्वेत रक्त कणिकायें, गर्मी की बीमारियाॅ, हर प्रकार का ज्वर, सिर के अन्दरूनी हिस्से, भूख न लगना आदि सूर्य के अधिकार क्षेत्र में आते है। मंगल का प्रभाव इस ग्रह का विशेष प्रभाव चेहरे पर होता है। रक्त का कारक होने के कारण रक्त से सम्बंधित होने वाली बीमारियाॅ मंगल के अधिकार क्षेत्र में ही आती है। जैसे-नाक से ब्लड बहना, चिकन पाक्स, रक्त चाप आदि। मंगल की राशि वृश्चिक है अर्थात विच्छू। विच्छू जहर का प्रतीक है। यानि शरीर में जहर फैलाना ये सभी कार्य मंगल के क्षेत्र में आते है।
किन जातकों पर डेंगू का विशेष आक्रमण होता है- जिन लोगों की जन्म पत्रिका में सूर्य तुला राशि में होकर छठें, आठवें, बारहवें भाव बैठा हो एंव मंगल की दृष्टि हो। पत्रिका में मंगल कर्क राशि में होकर सप्तम, अष्टम, द्वादश में हो तथा साथ में सूर्य से पीड़ित या दृष्ट हो। पत्री में सूर्य वृश्चिक राशि में हो और नवमांश में सूर्य अपनी नीच राशि में हो तथा मंगल की चतुर्थ दृष्टि पड़ रही हो। जिन जातकों की कुण्डली में वृश्चिक राशि भाव सन्धि में पड़ी हो तथा सूर्य द्वादश भाव में तुला राशि में बैठा हो। मंगल कृतिका नक्षत्र में हो और मंगल की ही दशा चल रही हो। ऐसे लोगों को यह बीमारी विशेष कष्ट देती है।
उपाय- गायत्री मंत्र, आदित्य ह्रदय स्त्रोत, सुन्दर काण्ड व बजरंग बाण आदि में से किसी एक का विधि-विधान से पाठ करें। अधिकमास की वजह से बढ़ता है डेंगू जैसी बीमारियों का प्रकोप- भारतीय ज्योतिष में बारह चन्द्रमासों का एक वर्ष होता है किन्तु चन्द्र वर्ष और सूर्य वर्ष में लगभग 11 दिनों का अन्तर होता है। चन्द्रमा लगभग 354 दिनों में पृथ्वी की परिक्रमा पूरी कर लेता है और जबकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगभग 365 दिन में पूरी कर लेती है। इस प्रकार दोनों में लगभग 11 दिनों का अन्तर होता है। इस अन्तर को पूरा करने के लिए ज्योतिष में अधिकमास का निर्माण किया गया है। प्रत्येक तीन वर्ष बाद अधिक मास पड़ता है। जिस वर्ष में अधिकमास होता है उस वर्ष महामारी, रोग व प्राकृतिक आपदायें समाज को बुरी तरह प्रभावित करती है। इस वर्ष 17 जून से 16 जुलाई तक अधिकमास था। जिस कारण डेंगू जैसी जानलेवा बीमारी ने कोहराम मचा रखा है। कब समाप्त होगा डेंगू का कहर? डेंगू की बीमारी में सूर्य और मंगल अहम रोल है, इसलिए इन दोनों ग्रहों की स्थितियों का आकलन करना जरूरी है। वर्तमान में सूर्य अपनी नीच की राशि तुला में संक्रमण कर रहा है। यानि सूर्य की पवार इस समय न्यून है। 17 नवम्बर से सूर्य मंगल की राशि वृश्चिक में गोचर करना प्रारम्भ कर देगा। 03 नवम्बर को मंगल कन्या राशि में प्रवेश करेगा। अर्थात 17 नवम्बर से डेंगू का दुष्प्रभाव निष्क्रिय हो जायेगा।

कुंडली में मिथुन लग्न में मंगल का प्रभाव

मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
लग्न (प्रथम भाव) में स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को शारीरिक श्रम द्वारा धन का यथेष्ट लाभ होता है तथा शत्रु पर विजय प्राप्त होती है । माता एवं सुख के पक्ष में कुछ असंतोषयुबत्त लाभ होता है । स्त्री की तरफ से रोग तथा परेशानी होती हैं । परिश्रम द्वारा व्यवसाय से लाभ होता है । यदि जातक नौकरी में है तो उसकी उन्नति संभव होगी । आयु में वृद्धि तथा पुरातत्व का लाभ होगा । ऐसा जातक क्रोधी,परिश्रमी, झगड़ालू और लाभ कमाने वाला होता है । द्वितीय स्थान में अपने मित्र चंद्रमा की कर्क राशि पर नीच का मंगल स्थित होने से जातक को धन एवं कुंटुम्ब के संबंध में हानि उठानी पड़ती है । शत्रुओं द्वारा उत्पन्न किए गए झगडों से भी हानि होती है । गलत कार्यों ( सट्टे-लॉटरी) द्वारा धन-हानि होती है। संतानपक्ष से कुछ कष्ट होता है तथा विद्या- बुद्धि के क्षेत्र में गुप्त युक्तियों द्धारा लाभ होता है । जातक धन-प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम करता है । उसकी सच्ची श्रद्धा नहीं होती । यदि तृतीय भाव में मंगल की उपस्थिति हो तो जातक के पराक्रम की वृद्धि होती है । शत्रु पर विजय मिलती है ।जातक उससे लाभ भी उठाता है । भाग्य का सामान्य लाभ होता है । पिता तथा राज्य की ओर से धन,सम्मान,यश एवं प्रभाव की वृद्धि होती है| जातक अपने परिश्रम द्वारा धनोपार्जन के क्षेत्र में भारी सफलता प्राप्त करता है ।चतुर्थ भाव में मंगल के स्थित होने पर जातक को जमीन-जायदाद का कुछ परेशानियों के साथ लाभ मिलता है । यश की प्राप्ति होती है, आमदनी अच्छी होती है और उन्नति के मार्ग प्रशस्त होते हैं । यदि पंचम भाव में मंगल की स्थिति हो तो जातक को संतानपक्ष से सामान्य वैमनस्य के साथ लाभ होता है । विद्या-बुद्धि की प्राप्ति होती है, आयु की वृद्धि और पुरातत्व का लाभ होता है । दैनिक जीवन प्रभावपूर्ण रहता है । जातक को पेट-संबंधी रोग बने रहते हैं । वह परिश्रम के बल पर धनी तथा सुखी होता है । षष्ठ भाव में मंगल का प्रभाव होने से जातक शत्रुपक्ष पर अत्यंत प्रभाव रखता है । कठिन परिश्रम द्वारा अपनी आय में वृद्धि करता है । भाग्य एवं धर्म के प्रति कुछ कमी और असंतोष रहता है ।यदि सप्तम भाव में मंगल उपस्थित हो तो जातक व्यावसायिक क्षेत्र में सफलता पाता है । उसकी स्त्री कुछ रोगिणी रहती है | उसे पिता द्वारा धन की प्राप्ति और समाज की और से मान-सम्मान मिलता है । शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है, किन्तु धन-संग्रह में कमी रहती है | कुटुम्ब के कारण क्लेश मिलता है । अष्टम ( आयु एवं पुरातत्व ) भाव में शनि की मकर राशि में स्थित उच्च के मंगल से जातक की आयु में वृद्धि होती है, परिश्रम द्वारा धन-लाभ होता है तथा विदेश प्रवास से धन का बहुत ही अधिक लाभ होता है । जीवन निर्वाह के लिए एकमुश्त आमदनी का योग है| भाईं-बहनों की तरफ से कुछ क्लेश रहता है ।नवम त्रिक्रोण ( भाग्य एवं धर्म ) में कुंभ राशि पर स्थित मंगल से जातक की भाग्योंन्न्ती परिश्रम और कुछ कठिनाइयों के बाद होती है । उसे धर्म का पालन बड़ी अनिच्छा के साथ करना पड़ता है । व्यय अधिक रहता है, मगर बाहरी स्थानों से लाभ प्राप्त होता है । भाई-बहनों का पूर्ण सुख मिलता है । जातक जमीन-जायदाद वाला होता है । दशम भाव में गुरु की मीन राशि पर स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को स्वयं के परिश्रम से धन और यश की प्राप्ति होती है । बैरियों पर विशेष प्रभाव बना रहता है । शरीर स्वस्थ एवं शक्तिशाली रहता है । कभी-कभी छोटे-मोटे रोगों का सामना भी करना पड़ जाता है । भूमि आदि के सुख में कुछ परेशानियों के साथ सफलता मिलती है । जीवन भर आमदनी अच्छी रहती है| एकादश भाव में मंगल के प्रभाव से जातक को धन का लाभ पर्याप्त तथा स्थायी रूप से प्राप्त होता है, किन्तु मंगल के शत्रु स्थानाधिपति होने के कारण कभी-कभी कुछ कठिनाइयों उठानी पड़ती हैं । परिवार की और से भी कष्ट मिलता है । पुत्र लाभ होता है । यदि समझदारी से काम न, लिया जाए तो आगे चलकर पुत्र-क्लेश का योग बन जाता है | जातक विद्या का धनी होता है । द्वादश भाव में वृष राशि पर मंगल के प्रभाव से जातक का व्यय अधिक रहता है तथा पराक्रम की वृद्धि होती है । शत्रुपक्ष से हानि और लाभ दोनों ही मिलते हैं । स्त्री की तरफ से कुछ परेशानी बनी रहती है । ऐसा जातक गुप्त रोग से पीडित हो सकता है ।
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Wednesday 28 October 2015

कुंडली में मेष लग्न में मंगल का प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर मंगल ग्रह का प्रभाव ज़न्मकालीन स्थिति एवं दैनिक गोचर गति के अनुसार पड़ता है । जातक के जन्म-समय के मंगल की स्थिति जन्मकुंडली में दी गई होती है ।
मेष लग्न
मेष लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव
प्रथम (लग्न) भाव में बैठे मंगल के प्रभाव से जातक का शरीर पुष्ट होता है । उसमें आत्मबल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । उसे माता के सुख, घर, मकान आदि के संबंध तथा व्यवसाय एवं पत्नी के मामले में कुछ परेशानियां उठानी पड़ सकती हैं । यदि जन्मकुंडली के द्वितीय ( धन) भाव में मंगल की स्थिति हो तो जातक को धन संचय में कमी तथा शरीर-स्थानों में कष्टों का सामना करना पड़ता है । विद्या-प्राप्ति के मार्ग में कठिनाइयों एबं संतानपक्ष में भी कुछ कष्ठों का सामना उसे करना पड़ेगा । भाग्य में रुकावटें आएंगी । यदि तृतीय (भ्राता) भाव में अपने मित्र बुध की राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक बहुत हिम्मत वाला तथा पराक्रमी होता है । शत्रुओं पर उसका दबदबा रहता है । पिता का सुख मिलता है और राज्य की ओर से सम्मान की प्राप्ति होती है । यदि चतुर्थ (माता-सुख तथा भूमि) भाव में मंगल नीच का होकर अपने मित्र चंद्रमा की राशि में बैठा हो तो जातक की माता के सुख में कमी होती है । साथ ही भूमि, मकान एवं घरेलू सुखों में भी कमी आती है । स्त्री और व्यवसाय के संबंध में क्लेश उठाने पड़ सकते हैं । आर्थिक स्थिति सुधारने में उसे परिश्रम करना पड़ता है । यदि जन्मकुंडली के पंचम त्रिकोण एवं विद्या के स्थान में अपने मित्र सूर्य की सिंह राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक को विद्या, बुद्धि तथा संतानपक्ष में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । वह दीर्घायु होगा तथा उसे पुरातत्व का लाभ मिलेगा । व्यय की अधिकता रहेगी, किन्तु फिर भी आजीविका के साधन प्राप्त होते रहेंगे । यदि जन्मकुंडली के षष्ठ भाव एवं रोग स्थान में मंगल कन्या राशि में स्थित हो तो जातक अपने शत्रुओं पर प्रभाव बनाए रखने में सफल होगा । वह बहुत निडर और साहसी बना रहेगा । भाग्य के क्षेत्र में उसके समक्ष कुछ कठिनाइयां उत्पन्न होंगी । स्वाभिमान एवं प्रभाव प्रबल बना रहेगा । स्वास्थ्य अच्छा तथा व्यय अधिक होगा । यदि सप्तम केंद्र एवं स्त्री भवन में मंगल की स्थिति हो तो जातक को स्त्री-पक्ष से कुछ कष्ट रहेगा तथा व्यवसाय में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । पिता और राज्य द्वारा उन्नति के साधन तथा यश की प्राप्ति होगी। शरीर स्वस्थ रहेगा । जातक यशस्वी व प्रभावशाली बना रहेगा । धन एवं कुटुम्ब की वृद्धि के लिए अधिक प्रयत्न करने पर भी अल्प सफलता ही प्राप्त होगी । यदि अष्टम (मृत्यु) भाव में मंगल स्वक्षेत्री होकर बैठा हो तो जातक की आयु में वृद्धि होगी तथा पुरातत्व का लाभ होगा । शरीर की सुन्दरता में कमी रहेगी और आय के क्षेत्र में कठिनाइयों के बाद सफलता मिलेगी । परिवार की ओर से थोडा असंतोष रहेगा,भाई-बहनों के सुख में कमी रहेगी तथा पराक्रम अधिक होगा । यदि नवम त्रिकोण एवं भाग्य (धर्म) स्थान में मंगल का प्रभाव हो तो जातक का भाग्य अच्छा बना रहेगा, किन्तु असंतोष के साथ-साथ व्यय भी अधिक होगा । माता के सुख, भूमि एवं मकान आदि के संबंध में भी कमी बनी रहेगी । यदि दशम भाव (राज्य और पिता के भवन) में मंगल अपने शत्रु शनि की मकर राशि पर उच्च का होकर स्थित हो तो जातक अपने पिता से वैमनस्य रखता हुआ भी उस स्थान तथा व्यवसाय की उन्नति करेगा । उसे राज्य द्वारा सम्मान की प्राप्ति और प्रभाव में वृद्धि होगी । माता एवं भूमि के सुख में कमी रहेगी । विद्या, बुद्धि व संतान के क्षेत्र में सफलता प्राप्त होगी । एकादश (लाभ) स्थान में सममित्र शनि की कुंभ राशि पर स्थित मंगल के से जातक को आय के साधनों में सफलता प्राप्त होती रहेगी, किन्तु कभी-कभी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ सकता है । परिवार की तरफ से असंतोष रहेगा । संतान तथा विद्या के क्षेत्र में भी कमी रहेगी । शत्रुपक्ष में उसका विशेष प्रभाव से जातक अधिक व्यय करने वाला, बाहरी स्थानों में भ्रमण करने वाला तथा शारीरिक सौंदर्य में कुछ कमी पाने वाला रहेगा । शत्रुपक्ष कुछ प्रबल रहेगा | व्यवसाय के क्षेत्र में परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है । उसे विशेष परिश्रम के बाद ही सफलता मिलेगी, जो जीवन पर्यन्त साथ देगी ।
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सूर्य किरण से सकारात्मक ऊर्जा का विकास

पृथ्वी के प्र्राणियों के लिए सूर्य का बहुत ज्यादा महत्व है। समस्त धरा पर निवास कर रहे प्राणि जगत हेतु सूर्य जीवन प्रदाता है। सूर्य वह पिंड या ग्रह है जिससे हमें ऊर्जा प्राप्त होती है। सूर्य से प्राप्त ऊर्जा ही है जो इस संसार को चलायमान बनाए हुए है। सूर्य को भगवान विष्णु के बाद इस प्राणि जगत का पालक माना गया है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को सभी ग्रहों का राजा माना गया है। इसे सौर मंडल का प्रमुख ग्रह कहा गया है। सूर्य इतना विशालकाय और ऊर्जावान ग्रह है जिससे हमारी पृथ्वी ऊर्जावान और ऊष्मावान होती है। ज्योतिष में सूर्य को कुछ कार्यों के कारक की संज्ञा दी गई है जैसे, औषधि और पारिवारिक संबंधों में पिता का कारक सूर्य है। शरीर में हड्डी का कारक सूर्य है। स्वाध्याय, ऊर्जा, चिकित्सक और अधिकारी वर्ग, समस्त प्रशासनिक विचार, सरकारी तंत्र, दायां नेत्र, दिन, सिर, पेट, मस्तिष्क, हृदय, रक्त चाप, ज्वर, पित्तज रोग, क्षय रोग आदि सूर्य के अधीन हैं। सूर्य को विज्ञान माना गया है क्योंकि यह ऊर्जा, ऊष्मा, प्रकाश, औषधि का कारक है।ज्योतिष शास्त्र पूर्ण रूपेण वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। इसे विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। सूर्य के क्षेत्र को विस्तार से विद्वानों ने समझा है। सूर्य की गति के फलस्वरूप ही दिन रात बनते हैं। सूर्य पूर्व दिशा से उदित होकर पश्चिम में अस्त हो जाता है। सूर्य में औषधीय गुण पाया जाता है। वास्तु शास्त्र का गहन अध्ययन किया जाए तो वास्तु में नियम है कि ईशान कोण में पूजा कक्ष बनाया जाए और नैर्ऋत्य कोण में ज्यादा से ज्यादा भारी निर्माण किया जाए अर्थात बड़ी-बड़ी दीवारें हों, ऊंचाई अधिक हो, खिड़की दरवाजे न बनाए जाएं। इसके सिद्धांत के तह में जाएं तो मालूम पड़ेगा कि यह तथ्य कितना व्यावहारिक और स्वास्थ्य कारक है। प्राचीन काल में सुबह शौच आदि कार्यों हेतु घर से दूर जाया जाता था। वह भी अंधेरे में और जब वापस लौटते थे तब तक सूर्योदय हो जाता था और सूर्य से निकलने वाली किरणें, जिनमें विटामिन की प्रचुर मात्रा पाई जाती है, प्राप्त होती थीं। मेडिकल साइंस बच्चों में होने वाले सूखा रोग पर कोई दवा नहीं बना पाया है। इसका एक मात्र इलाज है कि बच्चे को कपड़े उतार कर लाल तेल से मालिश कर उगते सूर्य की किरणों में बिठा दिया जाए। सूर्य की किरणों में प्रातः कालीन विटामिन डी और प्रोटीन युक्त ऊष्मा प्राप्त होती है। इसीलिए पूजा कक्ष ईशान में बनाया जाता है ताकि लोगों को ज्यादा से ज्यादा सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा का लाभ हो, और लोग स्वस्थ रहें। ईशान में ज्यादा खुलापन होना चाहिए। रसोई घर दक्षिणी पूर्वी कोण पर बनाया जाए ताकि सूर्य की ऊर्जावान किरणें हमारे भोज्य पदार्थों को कीड़ों, जंतुओं और बैक्टीरिया से मुक्त रखें। संध्याकालीन सूर्य से इन्फ्रारेड किरणें निकलती हैं जो एक्सरे निकालने में प्रयोग की जाती हैं। यह मानव शरीर हेतु हानिकारक किरणें हैं। सूर्य अस्त पश्चिम में होता है। नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम का भाग) में ऊंचा निर्माण, मोटी दीवारें, बड़े-बड़े पेड़ होने की वजह से सूर्य की हानिकारक किरणें हमारे पास नहीं आतीं। संध्या काल में आरती करने के पीछे भी यही उद्देश्य है कि आप सूर्य अस्त की दिशा से दूर पूर्वी क्षेत्र में रहें ताकि सूर्य की हानिकारक किरणें आप को आघात न पहुंचा सकें। इस तरह सूर्य रोगों से हमारी रक्षा करता है। सूर्य से प्राप्त किरणों से हमें बल प्राप्त होता है। प्राणबल सूर्य से ही प्राप्त होता है। जब वर्षा ऋतु में 2-3 दिनों तक सूर्य बादलों में छुपा रहता है तब हम सुस्ती, थकान, भारीपन महसूस करते हैं, कुछ कार्य करने की इच्छा नहीं होती। यह सब क्या है, यह सूर्य का ही तो कमाल है कि वह उदय हो कर हमें अपनी ऊर्जा प्रदान करता है। सुबह जल्दी उठकर सैर करने की सलाह डाक्टरों द्वारा दी जाती है। यह सब सूर्य की खासियत ही है कि देर से उठने वालों की अपेक्षा जल्दी उठकर सैर आदि पर जाने वाले ज्यादा स्फूर्तिवान और स्वस्थ महसूस करते हैं। अतः सूर्य हमारे लिए सिर्फ दिन लाने वाला ही नहीं अपितु जीवनदायक और रोगों से मुक्त रखने वाला ऊर्जा देने वाला और रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता विकसित करने वाला ग्रह है।

माइग्रेन रोग: ज्योतिष्य तथ्य

मानव जीवन पर वर्तमान जीवनशैली से रोग प्रतिरोधक क्षमताओं का विकास अवरुद्ध हो रहा है, जिससे कई बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है और कुछ रोगों का समूल समाप्त होना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है। वैज्ञानिकों, चिकित्सकों के अथक शोध, अनुसंधान के बावजूद भी उन रोगों का निदान निकालना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि ज्यादातर चिकित्सा पद्धति में जो दवाएं बनती हैं उनके कुछ न कुछ अलग असर होते हैं जिनका हमारे शरीर पर बुरा असर पड़ता है। माईग्रेन पेन अर्थात् आधा शीशी का दर्द हमारे सिर में होने वाला असहनीय पीड़ाकारक दर्द है। ये आधे सिर में होने वाला ऐसा पीड़ा कारक दर्द है जो हर उम्र के लोगों को हो जाता है और जीवन पर्यंत लाईलाज रहता है। हमारा खान-पान भी इसमें अहम् भूमिका अदा करता है। आवश्यकता से अधिक, असमय मांसाहार, रात्रि भोजन नहीं करने से हम तकरीबन 200 प्रकार की विभिन्न बीमारियों से बचे रह सकते हैं। हमारा पाचन तंत्र दुरुस्त हो तो हम काफी हद तक स्वस्थ रह सकते हैं। किंतु माइग्रेन के ज्योतिष कारण भी होते हैं यदि किसी की जन्मकुंडली देखें तो उसके स्वास्थ्य की स्थिति क्या है, इसकी जानकारी ज्योतिष मेंं बहुत पहले ही जानी जा सकती है। प्राचीन समय मेंं प्रसिद्ध रोग विज्ञानी हिप्पोक्रेट्स सबसे पहले व्यक्ति की जन्मसंबंधी तालिका का अध्ययन करता था और फिर उपचार संबंधी कोई निर्णय लेता था! कोई व्यक्ति किस रोग से पीडि़त होता है, यह इस पर निर्भर करता है कि उसके भाव या राशि का संबंध जन्म कुंडली मेंं कौन से अनिष्टकर ग्रह से किस रूप मेंं है। ऐसा इसलिए है कि प्रत्येक राशि एक या एकाधिक शारीरिक अंगों से जुड़ी होती है। इसके साथ ही प्रत्येक ग्रह वायु, अग्नि, जल या आर्द्र प्रकृति वाला कोई एक प्रभुत्वकारी गुण लिए हुए होता है। आयुर्वेद मेंं इसे वात-पित्त-कफ के रूप मेंं बताया गया है। इस तरह राशि चक्र मेंं अंकित शारीरिक अंग और प्रभुत्वकारी ग्रह की विशेषता के मेंल से यह तय होता है कि किस व्यक्ति को कौन-सी बीमारी होगी। सिर, मस्तिष्क एवं आंखों, विशेष रूप से सर का अगला हिस्सा, आंखों से नीचे और सर के पीछे वाले हिस्से से लेकर खोपड़ी के आधार तक का हिस्सा मेष राशि द्वारा नियंत्रित होता है। यह मंगल को प्रतिबिंबित करता है जो दिमाग मेंं अग्निमय ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य, चंद्रमा या मेष का कोई अन्य उदीयमान ग्रह जिस व्यक्ति के साथ जुड़ा होगा उसके सरदर्द की संभावना अन्य लोगों की तुलना मेंं अधिक होगी।यदि सूर्य पहले, दूसरे या बारहवें घर मेंं विघ्नपूर्ण है या मंगल बहुत कमजोर है या नीच के चंद्रमा के साथ दाहक स्थिति मेंं है तब ऐसे लोग अधकपारी सरदर्द (माइग्रेन) से पीडि़त होंगे। साथ ही यदि अनिष्टकर सूर्य या मंगल छठे घर मेंं बैठा है (व्यक्ति की जन्म कुंडली मेंं रोगों का द्योतक) तो व्यक्ति सरदर्द का शिकार होगा।जन्मपत्री की कमजोरी और/या जन्मपत्री मेंं उच्च स्थान पर बैठे अनिष्टकर देव के कारण एक रोगकारी परिस्थिति निर्मित होती है। इससे सरदर्द की संभावना बनती है। मजबूत सूर्य और मंगल, जो कि क्रमश: प्राण क्षमता और ऊर्जा के प्रतीक हैं, सुरक्षात्मक कवच प्रदान करते हैं।
इस तरह माइग्रेन को दूर करने के चिकित्सकीय उपाय के साथ ज्योतिषीय उपाय सबसे बेहद प्रभावी उपायों मेंं से एक यह है कि सुबह उठकर सूर्य की ओर देखकर कम से कम 42 दिनों तक 3, 11, 21, 51 या 108बार ओम सूर्याय: नम: या ओम आदित्याय नम: या गायत्री मंत्र का जाप करें या सूर्य नमस्कार करें। धन्वंतरि होम और मंगल होम का आयोजन करने से भी प्रभावी तौर पर अनिष्टकर ग्रहों के प्रभाव दूर हो जाते हैं और इस प्रकार सरदर्द आपसे मीलों दूर चला जाता है। मंगलवार को सूर्योदय के समय किसी चौराहे पर जाएं और एक टुकड़ा गुड़ को दांत से दो भागों मेंं बांट कर दो अलग-अलग दिशाओं मेंं फेंक दें। 5 सप्ताह लगातार यह क्रिया करें, माईग्रेन मेंं लाभ होगा।रविवार के दिन 325 ग्राम दूध अपने सिरहाने रख कर सोएं। सोमवार को सुबह उठकर दूध को पीपल के पेड़ पर चढ़ा दें, 5 रविवार यह क्रिया करें, निश्चित लाभ होगा। माइग्रेन (आधे सिर मेंं दर्द) रोग का इलाज करने के लिए प्रतिदिन ध्यान, शवासन, योगनिद्रा, प्राणायाम या फिर योगासन क्रिया करनी चाहिए। इसके फलस्वरूप यह रोग कुछ ही दिनों मेंं ठीक हो जाता है।
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उदर रोग: ज्योतिष्य तथ्य

उदर शरीर का वह भाग या अंग है जहां से सभी रोगों की उत्पत्ति होती है। अक्सर लोग खाने-पीने का ध्यान नहीं रखते, परिणाम यह होता है कि पाचन प्रणाली गड़बड़ा जाती है जिससे मंदाग्नि, अफारा, कब्ज, जी मिचलाना, उल्टियां, पेचिश, अतिसार आदि कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते जाते हैं जो भविष्य में किसी बड़े रोग का कारण भी बन सकते हैं। यदि सावधानी पूर्वक संतुलित आहार लिया जाये तो पाचन प्रणाली सुचारू रूप से कार्य करेगी और हम स्वस्थ रहेंगे। उदर में पाचन प्रणाली का काय भोजन चबाने से प्रारंभ होता है। जब हम भोजन चबाते हैं तो हमारे मुंह में लार ग्रंथियों से लार निकलकर हमारे भोजन में मिल जाती है और कार्बोहाइड्रेट्स को ग्लूकोज में बदल देती है। ग्रास नली के रास्ते भोजन अमाशय में चला जाता है। अमाशय की झिल्ली में पेप्सिन और रैनेट नामक दो रस उत्पन्न होते हैं जो भोजन के साथ मिलकर उसे शीघ्र पचाने में सहायता करते हैं। इसके पश्चात भोजन छोटी आंत के आखिर में चला जाता है। यहां भोजन के आवश्यक तत्व रक्त में मिल जाते हैं तथा भोजन का शेष भाग बड़ी आंत में चला जाता है, जहां से मूत्राशय और मलाशय द्वारा मल के रूप में शरीर से बाहर हो जाता है। ज्योतिषीय दृष्टिकोण: ज्योतिष के अनुसार रोग की उत्पत्ति का कारण ग्रह नक्षत्रों की खगोलीय चाल है। जितने दिन तक ग्रह-नक्षत्रों का गोचर प्रतिकूल रहेगा व्यक्ति उतने दिन तक रोगी रहेगा उसके उपरांत मुक्त हो जाएगा। जन्मकुंडली अनुसार ग्रह स्थिति व्यक्ति को होने वाले रोगों का संकेत देती है। ग्रह गोचर और महादशा के अनुसार रोग की उत्पत्ति का समय और अवधि का अनुमान लगाया जाता है। उदर रोगों के ज्योतिषीय कारण जन्मकुंडली में सबसे अधिक महत्वपूर्ण लग्न होता है और यदि लग्न अस्वस्थ है, कमजोर है तो व्यक्ति रोगी होता है। लग्न के स्वस्थ होने का अभिप्राय लग्नेश की कुंडली में स्थिति और लग्न में बैठे ग्रहों पर निर्भर करता है। लग्नेश यदि शत्रु, अकारक से दृष्ट या युक्त हो तो कमजोर हो जाता है। इसी प्रकार यदि लग्न शत्रु या अकारक ग्रह से दृष्ट या युक्त हो तो भी लग्न कमजोर हो जाता है। काल पुरूष की कुंडली में द्वितीय भाव जिह्ना के स्वाद का है। पंचम भाव उदर के ऊपरी भाग पाचन, अमाशय, पित्ताशय, अग्नाशय और यकृत का है। षष्ठ भाव उदर की आंतों का है। उदर रोग में लग्न के अतिरिक्त द्वितीय, पंचम और षष्ठ भाव और इनके स्वामियों की स्थिति पर विचार किया जाता है। विभिन्न लग्नों में उदर रोग मेष लग्न: मंगल षष्ठ या अष्टम भाव में बुध से दृष्ट हो, सूर्य शनि से दृष्ट या युक्त हो, शुक्र लग्न में हो तो जातक को उदर रोग से परेशानी होती रहती है। वृष लग्न: गुरु लग्न, पंचम या षष्ठ भाव में स्थित हो और राहु या केतु ये युक्त हो, लग्नेश शुक्र अस्त होकर द्वितीय या पंचम भाव में हो। मिथुन लग्न: लग्नेश बुध अस्त होकर पंचम, षष्ठ या अष्टम भाव में हो, मंगल लग्न, द्वितीय या पंचम भाव में स्थित हो या दृष्टि दे तो जातक को उदर से संबंधित परेशानी होती है। कर्क लग्न: चंद्र, बुध दोनों षष्ठ भाव में हों, सूर्य पंचम भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को उदर रोग होता है। सिंह लग्न: गुरु पंचम भाव में वक्री शनि से दृष्ट हो, लग्नेश राहु/केतु से युक्त या दृष्ट हो, मंगल से पंचम या षष्ठ हो तो जातक को उदर रोग होता है। कन्या लग्न: मंगल द्वि तीय या षष्ठ भाव में हो, बुध अस्त होकर मंगल के प्रभाव में हो, गुरु की पंचम भाव में स्थिति या दृष्टि हो तो जातक को उदर रोग होता है। तुला लग्न: पंचम या षष्ठ भाव गुरु से दृष्ट या युक्त हो, शुक्र अस्त और वक्री हो कर कुंडली में किसी भी भाव में हो तो जातक को उदर रोग होता है। वृश्चिक लग्न: बुध लग्न में, द्वितीय भाव में, पंचम भाव, षष्ठ भाव में स्थित हो और अस्त न हो, लग्नेश मंगल राहु-केतु युक्त या दृष्ट हो तो जातक को उदर रोग होता है। धनु लग्न: शुक्र, राहु/केतु से युक्त होकर पंचम या षष्ठ भाव में हो, गुरु अस्त हो और शनि की दृष्टि हो तो जातक को उदर रोग होता है। मकर लग्न: गुरु द्वितीय भाव या षष्ठ भाव में वक्री हो और राहु/केतु से दृष्ट या युक्त हो तो जातक को उदर रोग देता है। कुंभ लग्न: शनि अस्त हो, गुरु लग्न में पंचम भाव में, मंगल षष्ठ भाव में राहु/केतु से युक्त हो तो उदर रोग होता है। मीन: शुक्र षष्ठ भाव में, शनि द्वितीय या पंचम भाव में, चंद्र अस्त या राहु केतु से युक्त हो तो जातक को उदर से संबंधित रोग होता है। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण: आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग का कारण तीन विकार हैं अर्थात् वात, पित्त, कफ का असंतुलित हो जाना। उदर रोग में भी इन विकारों पर विचार किया जाता है। वात विकार की वृद्धि से अग्नि विषम होते हैं, पित्त की वृद्धि होने से अग्नि तेज होती है; कफ वृद्धि से अग्नि मंद होती है जिससे पाचन प्रणाली प्रभावित होकर उदर रोग उत्पन्न करती है। यदि समय रहते विकार का उपचार कर लिया जाए तो रोग से बचा जा सकता है।

टॉनॅनसिल रोग: ज्योतिष्य तथ्य

टॉनॅनसिलाइटिसः खान-पान में सावधानी का अभाव टॉनसिलाइटिस एक बाल रोग है, जो बच्चों को बचपन में ही अपने शिकंजे में जकड़ लेता है। इस का मुखय कारण गलत खान-पान होता है। अगर बड़े होने पर भी खान-पान गलत रहें, तो बड़े हो कर भी यह रोग हो सकता है। जो बालक बचपन में अपने खान-पान का ध्यान न रखते हुए खट्टी, तली और मसालेदार चीजों का उपयोग करते हैं, उन्हें टॉनसिलाइटिस रोग हो जाता है। हर व्यक्ति के गले में दो नरम मांस के लिज़लिजे टुकड़े होते हैं, जो श्लेष्मल झिल्ली से जुड़े होते हैं। इनके द्वारा लसिका का भ्रमण होता है, जो रक्तधारा से जीवाणुओं और गंदगी को दूर करने में मदद करता है। गले का टॉनसिल वाला भाग जब जीवाणु, या विषाणु के कारण दूषित हो जाता है, तो उसे टॉनसिलाइटिस कहते हैं। इसमें ग्रसनी लसिका के ढांचे में सूजन आ जाती है। साथ ही लसिका ग्रंथि और उसके आसपास का क्षेत्र भी सूज कर लाल हो जाता है। टॉनसिल एक तरह का पहरेदार है, जो मुंह और नाक द्वारा शरीर के अंदर जाने वाले नुकसानदायक पदार्थों से बचाता है। जब शरीर के अंदर कोई गलत चीज जाती है, तो यह पहरेदार सारा नुकसान अपने ऊपर ले लेता है; अर्थात् टॉनसिल सूज जाता है। टॉनसिल की इस सूजी अवस्था को टॉनसिलाइटिस कहते हैं। टॉनसिलाइटिस हो जाने पर अक्सर डॉक्टर शल्य क्रिया द्वारा टॉनसिल बाहर निकाल देते हैं, जो गलत है। आधुनिक अनुसंधानों से मालूम हुआ है कि टॉनसिल को निकाल देने से व्यक्ति के शरीर में रोगनिरोधक शक्ति समाप्त हो जाती है। अनचाही वस्तु शरीर में प्रवेश कर शरीर को नुकसान पहुंचा कर बाद में कई प्रकार की समस्याएं खड़ी कर सकती हैं, जैसे संदूषण हमारे शरीर में घुस जाता है तथा आराम से हृदय, जोड़ों, या गुर्दे, गॉलब्लैडर में बैठ जाता है, तथा शरीर के उन भागों को धीरे-धीरे कमजोर कर देता है, ठीक वैसे ही जैसे जंग लोहे को खा जाता है। टॉनसिल एक अंतःस्रावी ग्रंथि है, जो अवतु ग्रंथि की विरोधी है। अतः जब टॉनसिल को निकाल दिया जाता है, तो थायराइड बहुत बढ़ जाता है। क्योंकि थायराइड पियूष ग्रंथि का विरोधी हैं, इसलिए पियूष ग्रंथि का कार्य बिगड़ जाता है। अतः कई बार बढ़ते बच्चों की याददाश्त बिगड़ जाती है। टॉनसिल के किसी भी मरीज को ठीक करने का अर्थ है, उसके शरीर में इस प्रकार की प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न करना, जिससे वह शरीर के हानिकारक सूक्ष्म जीवों से लड़ सके। जब शरीर की प्रतिरक्षा पद्धति भंग होती है, तब जीवाणु हमारे शरीर के अंदर प्रविष्ट होते हैं, जो पहले टॉनसिल और बाद में पूरे शरीर को हानि पहुंचाते हैं। ज्योतिषीय दृष्टिकोण : ज्योतिषीय दृष्टिकोण से जन्मकुंडली में तृतीय भाव से गले का विचार किया जाता है। तृतीय भाव का कारक ग्रह मंगल है। मंगल को ग्रह मंत्रिमंडल में सेनापति माना गया है और सेनापति का कार्य सुरक्षा करना है। टॉनसिल भी एक तरह का सुरक्षा प्रहरी है, जो हमें नुकसान पहुंचाने वाले विषाणुओं से बचाता है। इसलिए टॉनसिल का कारक ग्रह मंगल है। कुंडली में तृतीय भाव, मंगल, तृतीयेश और लग्नेश जब दूषित प्रभावों में रहते हैं, तो टॉनसिल रोग, या गले से संबंधित रोग होता है। विभिन्न लग्नों में टॉनसिल रोग : मेष लग्न : बुध तृतीय भाव में, शनि षष्ठ भाव में, या लग्न में हो और राहु की दृष्टि लग्न, या तृतीय भाव पर हो और लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में हो, तो टॉनसिल रोग होता है। वृष लग्न : तृतीयेश चंद्र षष्ठ भाव में हो, लग्नेश शुक्र धनु, या मीन राशि में रहे, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है। मिथुन लग्न : मंगल तृतीय भाव में हो, तृतीयेश षष्ठ भाव में लग्नेश से युक्त हो, लग्नेश अस्त हो और तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट, या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है। कर्क लग्न : तृतीयेश बुध षष्ठ भाव में, मंगल-शनि से युक्त, केंद्र में हो, लग्नेश चंद्र अपनी नीच राशि में राहु, या केतु से दृष्ट हो, तृतीय भाव पर षष्ठेश की दृष्टि हो, तो टॉनसिल से बच्चों को समस्या रहती है। सिंह लग्न : मंगल अष्टम भाव में, तृतीयेश षष्ठ भाव में शनि से युक्त हो और बुध तृतीय भाव में राहु से युक्त, या दृष्ट हो, तो गले संबंधी रोग होता है। कन्या लग्न : मंगल अष्टम भाव में और राहु तृतीय भाव में हों, तृतीय भाव पर गुरु की दृष्टि हो, लग्नेश बुध त्रिक भावों में अस्त हो, तो टॉनसिल जैसे गले से संबंधित रोग होते हैं। तुला लग्न : गुरु अष्टम भाव, या दशम भाव में हो, चंद्र गुरु से त्रिक स्थानों में हो, बुध तृतीय भाव में मंगल से युक्त हो और लग्नेश शुक्र अस्त हो और राहु-केतु से दृष्ट हो, तो ऐसे रोग होते हैं। वृश्चिक लग्न : बुध तृतीय भाव में हो और लग्नेश मंगल षष्ठ, या अष्टम भाव में राहु या केतु से दृष्ट हो, चंद्र शनि से युक्त, या दृष्ट हो, तो टॉनसिल जैसे रोगों का जन्म होता है। धनु लग्न : शुक्र लग्न में हो और शनि से युक्त हो, मंगल तृतीय भाव में बुध से युक्त हो और राहु, या केतु से दृष्ट हो, लग्नेश षष्ठ भाव में हो, तो टॉनसिल रोग होता है। मकर लग्न : गुरु लग्न में हो, मंगल राहु, या केतु से दृष्ट, या युक्त हो और अष्टम भाव में स्थित हो, तृतीयेश पर लग्नेश की दृष्टि हो, तो टॉनसिलाइटिस रोग होता है। कुंभ लग्न : गुरु तृतीय भाव में, मंगल द्वादश भाव में राहु या केतु से युक्त, या दृष्ट हो, तृतीय भाव पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो टॉनसिल जैसे रोग की उत्पत्ति होती है। मीन लग्न : शुक्र षष्ठ भाव और गुरु अष्टम भाव में, बुध तृतीय भाव में, मंगल चतुर्थ, या सप्तम में हो, लेकिन सूर्य से अस्त हो, तो टॉनसिल होने की संभावना होती है। उपर्युक्त सभी योग चलित कुंडली पर आधारित हैं। रोग की उत्पत्ति संबंधित ग्रह दशा-अंतर्दशा और गोचर ग्रह के प्रतिकूल रहने से होता है। जब तक दशा-अंतर्दशा प्रतिकूल रहेंगे, शरीर में रोग रहेगा। उसके बाद ठीक हो जाएगा। लेकिन ठीक अवस्था में भी पाचन संस्थान में कुछ व्याधि रहेगी। वृष लग्न में तृतीयेश चंद्र षष्ठ भाव में हो, लग्नेश शुक्र धनु, या मीन राशि में रहे, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीय भाव को देखता हो और मंगल राहु से दृष्ट या युक्त हो, तो टॉनसिल रोग होता है।

उपवास:एक प्राकृतिक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा एक ऐसी प्रणाली है जिसमें प्राकृतिक रूप से उपचार किया जाता है। इसमें बाहरी दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता। जब हम प्राकृतिक रूप छोड़ आप्रकृतिक रूप से जीवन शैली अपनाते हैं तो शरीर में कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं जिससे हम रोगी हो जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा हम इन्हीं दोषों को शरीर से बाहर कर रोगी को निेरोगी बनाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में कई प्रकार के उपचार किये जाते हैं जिनमें एक उपचार ‘‘उपवास’ है अर्थात् भोजन त्याग कर रोग का उपचार। उपवास के द्वारा हम तरह-तरह के रोगों को दूर कर सकते हैं। वैसे भी यह सत्य है कि जब हमारा पेट खराब हो जाता है या हमें कभी ज्वर आदि होता है तो हमारी भूख समाप्त हो जाती है अर्थात प्रकृति रोग को दूर करने के लिए हमें उपवास करने का निर्देश देती है। पर हम हैं कि इस निर्देश को समझते ही नहीं और भूख को पुनः खोलने के लिए तरह-तरह की बाहरी दवाओं का प्रयोग करने लगते हैं। पर वास्तविकता विपरीत है। दवा थोड़ी देर के लिए तो काम करती है लेकिन जैसे ही दवा का असर समाप्त हो जाता है रोग फिर वहीं का वहीं आ जाता है। यही स्थिति खतरे का ऐलान करती है। ऐसे खतरे से बचने के लिए सब से उत्तम उपचार व उपाय ‘उपवास’ है। वास्तव में रोग जो बाहरी रूप से हमें परेशान करता लगता है वहीं भीतरी रूप से हमें रोग मुक्त करने का काम कर रहा होता है। रोग के द्वारा प्रकृति हमारे शरीर में बनने वाले विजातीय तत्वों को बाहर निकालने का काम कर रही होती है। प्रकृति नियमों का विरोध नहीं करती, हम ही लापरवाही कर प्रकृति की चेतावनी की ओर ध्यान नहीं देते और रोग होने पर भी खाते-पीते रहते हैं जिसका प्रभाव उल्टा होता है भोजन पच नहीं पाता और उल्टी या जी मिचलाने लगता है। ऐसिडिटी हो जाती है। इसलिए रोग की हालत में जहां तक हो सके भोजन छोड़ देना चाहिए इससे किसी को कोई हानि नहीं होती। रोग की स्थिति में पशु-पक्षी भी खाना छोड़ देते हैं और जल्द ही निरोगी हो जाते हैं ऐसा देखा गया है। उपवास कैसे करें: उपवास में भोजन छोड़ने को कहा जाता है लेकिन पानी पीना छोड़ने के लिए नहीं। इसलिए उपवास करने वाले व्यक्ति को हर एक घंटे बाद एक गिलास पानी अवश्य पीना चाहिए। यदि पानी में नींबू निचोड़ कर दिया जाय तो यह बहुत लाभकारी है। उपवास का कार्य: उपवास में शरीर के भीतर का मल पचने लगता है। भीतर की अग्नि उसको भस्म करने लगती है और रोगी नई ऊर्जा प्राप्त करने लगता है मोटे व्यक्ति के लिए तो उपवास विशेष लाभकारी है क्योंकि चर्बी भीतर की अग्नि में जलने लगती है और मोटापा कम होने लगता है। शारीरिक ऊर्जा पेशियों, रक्त, जिगर के विजातीय द्रव्यों को भी जला देती है। शारीरिक ताप उपवास के कारण शांत रहता है। उपवास की अवधि: उपवास की अवधि रोगी की शारीरिक, मानसिक शक्ति और रोग पर निर्भर करती है। वैसे उपवास कम से कम दो-तीन दिन या एक सप्ताह और अधिक से अधिक दो माह तक किया जा सकता है। कमजोर शरीर वाले रोगियों को दो-तीन दिन से एक सप्ताह तक के उपवास में रहने को कहा जाता है और भारी या शक्तिशाली शरीर वाले व्यक्ति को दो माह तक के उपवास के लिए प्रेरित किया जाता है। इसी प्रकार नए रोग में उपवास की अवधि तीन दिन से एक सप्ताह और पुराने रोगों में लंबे समय के उपवास की सलाह दी जाती है। इसलिए चिकित्सक को रोगी की शारीरिक और मानसिक क्षमता की डाॅक्टरी जांच करवा उपचार के लिए प्रेरित करना चाहिए। उपवास कैसे तोड़ें: उपवास तोड़ने में निम्न बातों को अपनाना चाहिए। अनार, सेब, अंगूर आदि मौसमी फलों के रस का सेवन कर उपवास तोड़ना चाहिए। रोटी-दाल सब्जी आदि ठोस पदार्थ न खाएं। - फलों का रस अवधि प्रक्रिया के हिसाब से लेना चाहिए जैसे यदि उपवास एक माह का है तो उपवास के बाद एक सप्ताह तक फलों का रस पिएं। - फलों के रस के बाद उबली हुई बिना मसाले की सब्जियां लेनी चाहिए। - सब्जियों के लगभग एक सप्ताह बाद रोटी-चावल आदि लेना चाहिए। - प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन न करें। - प्रातः काल हल्का फुल्का नाश्ता लेना चाहिए। - दोपहर का भोजन हल्का और एक से दो के बीच लेना चाहिए। - रात्रि में शाम सात से आठ बजे तक हल्का भोजन करना चाहिए। खाने के बाद कम से कम सौ कदम सैर करनी चाहिए। रात्रि भोजन के कम से कम दो घंटे बाद सोना चाहिए। उपवास के लाभ: - शरीर की अतिरिक्त चर्बी जल कर समाप्त होती है जिससे मोटापा कम होता है और मोटापा नहीं होता। - कायाकल्प होकर व्यक्ति के शरीर को नवीनता मिलती है। - शरीर के अतिरिक्त गर्मी शांत होती है और रोगों का नाश होता है। - शरीर में रोग विरोधी ताकत बढ़ती है। - मांसपेशियों, मस्तिष्क, जननेन्द्रिय आदि को अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त होती है। - विचारों में भी शुद्धता आती है। स्मरण शक्ति की बढ़ोत्तरी होती है। - शरीर में स्फूर्ति आने लगती है। - कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। उपवास में सावधानियां: - उपवास करना जितना सरल लगता है उतना ही हानिकारक भी हो सकता है इसलिए निम्न सावधानियांे का ध्यान रखना चाहिए। - उपवास करने से पहले उपवास के विषय में पूरी जानकारी हासिल करनी चाहिए। किसी प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ से पूरी जानकारी लें या किसी विशेषज्ञ की देखरेख में उपवास करें। - उपवास रखने से पहले अपने आप को सही तरीके से तैयार करें- यदि उपवास एक या दो माह के लिए करना है तो उपवास की अवधि को धीरे-धीरे बढ़ाएं अर्थात् खाना धीरे-धीरे छोड़ें। शुरू में जितना खाना आप प्रतिदिन खाते हैं उसे धीरे-धीरे प्रतिदिन कम करते जायें और पूर्ण उपवास में आएं। - उपवास से पहले अपने शरीर की डाॅक्टरी जांच करवाएं। जैसे ब्लड प्रेशर, ब्लड शूगर, आदि अन्यथा उपवास हानिकारक हो सकता है। - यदि उपवास रखने पर शरीर में कमजोरी महसूस हो तो उपवास तोड़कर नींबू संतरे का रस लेना चाहिए। - उपवास की अवधि में स्वप्न, ध्यान, मुंह साफ करना आदि के कार्य नित्य नियम से करते रहना चाहिए। दांतों की सफाई, जीभ की सफाई नित्य करते रहना चाहिए। -उपवास की अवधि में प्रातः काल सौर अवश्य करें। ताजी खुली हवा में सैर करने से लाभ होता है। - उपवास अवधि में शरीर के कई प्रकार के विजातीय उपद्रव शुरू हो जाते हैं जैसे नींद न आना, कमजोरी महसूस होना, हल्की हरकत हो जाना, सिर दर्द होना व जलन आदि। पर इससे घबराना नहीं चाहिए क्योंकि यह अपने आप ही ठीक हो जाते हैं। ऐसे में एनिमा काफी लाभकारी होता है।

हस्तरेखा और मोटापा व अन्य रोग

हस्तरेखा और मोटापा व अन्य रोग आज के मशीनी युग में जन मानस की दिनचर्या भी एक मशीन के समान होकर रह गई है। हर व्यक्ति दन रात काम ही काम में लगा रहता है। समयाभाव के कारण वह प्रकृति प्रदत्त उपहारों जैसे स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, सूर्य की किरणों का सूर्य उदय के समय मिलने वाला प्रकाश और उष्णता, शुद्ध विटामिनों आदि के लाभ से वंचित रह जाते हैं। स्वच्छ वायु के बदले हम एअरकंडिशनर में रहना पसंद करते हैं, रात देर से सोते हैं और सुबह तब उठते हैं जब सूर्य की किरणें तीव्र होकर अपनी उपयोगिता कम कर चुकी होती हैं। शुद्ध जल के बदले हम कोला और नशीले पेय पदार्थों का सेवन करने लगे हैं। शुद्ध और ताजे फलों तथा सब्जियों का स्थान जंक फूड और फास्ट फूड ने ले लिया है। यही कारण है कि आज मोटापे और डायबिटीज की शिकायत आम हो चली है। हम पूर्ण रूप से प्रकृति के विरुद्ध चल रहे हैं और हमारा शारीरिक स्वास्थ्य और सौंदर्य अपने सौद्गठव को छोड़कर बढ़ती हुई चर्बी के कारण प्रतिकूल होता जा रहा है। साथ ही तनावपूर्ण मशीनी जिंदगी के कारण हम डाइबिटीज तथा इस जैसे अन्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। इन दुष्परिणामों पर जब हमारा ध्यान जाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और हम इन्हें ढोने को लाचार हो जाते हैं। इन बीमारियों से मुक्ति और बचाव में अन्य चिकित्साओं की भांति हमारे हाथ की रेखाएं भी सहायक हो सकती हैं, क्योंकि ये रेखाएं हमारी द्राारीरिक संरचना का आइना हैं। हम किंचित ध्यान देकर इन रेखाओं के विश्लेद्गाण से हो चुकी और होने वाली बीमारियों की स्थिति का पता लगाकर उनसे मुक्ति और बचाव का उपाय कर सकते हैं। यहां मोटापे, डायबिटीज तथा कुछ अन्य आम रोगों के लक्षणों को दर्शाने वाली रेखाओं तथा अन्य चिह्नों का विशलेद्गाण प्रस्तुत है, जिसे पढ़कर एक आम पाठक भी लाभ उठा सकता है। यदि मस्तिष्क रेखा चंद्र क्षेत्र पर जाए, हाथ नरम हो, राहु और शनि दबे हुए हों, तो यह लक्षण डाइबिटीज का सूचक है। यदि भाग्य रेखा मोटी से पतली हो और उसे राहु रेखाएं काट रही हों तो यह मोटापे व डाइबिटीज दोनों का लक्षण है। यदि मंगल क्षेत्र पर बहुत अधिक कट फट हो, मस्तिष्क रेखा द्विभाजित हो और उसमें द्वीप हो, तो यह शुगर का लक्षण है। आयु देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि किस उम्र में यह लक्षण अपना प्रभाव दिखा रहा है। जीवन रेखा खंडित व अधूरी हो और उसमें द्वीप हो, भाग्य रेखा जीवन रेखा के पास हो और दोनों रेखाओं को मोटी-मोटी रेखाएं काट रही हों, तो व्यक्ति को न शुगर के साथ-साथ अन्य कई रोग होने की संभावना भी रहती है। हाथ सखत हो, अंगूठा व उंगलियां आगे की तरफ झुकी हों तथा शनि, मंगल और राहु दबे हों, तो व्यक्ति को डाइबिटीज के अतिरिक्त पेट से जुड़े रोग भी हो सकते हैं। हाथ मुलायम और गद्देदार हो, भाग्य रेखा एक से अधिक हों और आगे जाकर सभी पतली हो रही हों, तो यह मोटापे का लक्षण है। ऐसे व्यक्ति की उम्र बढ़ने के साथ-साथ मोटापा भी बढ़ता चला जाता है। हाथ मांसल न हो और उसमें गड्ढा बनता हो, तो व्यक्ति को डाइबिटीज होने की संभावना रहती है। इस प्रकार हस्त रेखाओं के अध्ययन-विश्लेद्गाण से हम मोटापे व डाइबिटीज के अतिरिक्त अन्य बीमारियों का पता लगाकर उसके अनुरूप उपायों के द्वारा निजात पा सकते हैं, परंतु इसके लिए आवच्च्यक है कि यह विश्लेद्गाण किसी योग्य और अनुभवी हस्तरेखाविद से कराया जाए।

रत्नों से रोग ज्ञान

रत्नों को धारण करके हम अपनी कार्यक्षमता, गतिविधि, क्रिया-प्रतिक्रिया, सोच में निश्चित रूप से परिवर्तन कर सकते हैं। प्राचीन ग्रंथों में माणिक्य, मोती, मूंगा आदि नवरत्नों के धारण करने के लाभ व इनको धारण करने की विधि की विस्तारपूर्वक चर्चा पाई जाती है, इसी के साथ-साथ ज्योतिष शास्त्र में विभिन्न धातुओं के साथ रत्नों को पहनने की चर्चा की गई है। आधुनिक विज्ञान ने भी यह माना है कि विभिन्न धातुओं के साथ रत्न पहनने से इनके गुणों में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हो जाती है जो कि शरीर के लिये लाभदायक उत्प्रेरक का कार्य करती है। रत्नों की उपयोगिता हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी वर्णित है, तभी तो पुराने समय के राजा-महाराजा, रानी-महारानी, साधारण प्रजा अपने लिये लाभदायक रत्न धारण किये हुये परिलक्षित होते हैं। राजा लोग युद्ध पर जाते समय विशेष प्रकार के रत्न धातुओं में जड़वाकर जाते थे और विजय प्राप्त करते थे। व्यापारी वर्ग व्यापार प्रारंभ करने से पूर्व विशेष रत्न जड़ित यंत्र आदि की स्थापना व्यापार स्थल पर कर व्यापार प्रारंभ करते थे। रत्न पहनना तभी कारगर होता है जब इनको निर्धारित प्रक्रिया, मुहूर्त आदि के अनुसार धारण किया जाय, रत्नों के धारण करने के महत्व का वर्णन गीता रामायण आदि में भी आया है। यदि रत्न पूर्ण शास्त्रोक्त विधि तथा ज्योतिष विज्ञान में बताये गये नियमों एवं निर्देशों के साथ पहना जाता है तो शुभ फल एवं यदि नियमों एवं निर्देशों का पालन न करते हुये धारण किया गया होगा तो अशुभ फल प्राप्त होगा। ऐसा अनुभव किया गया है कि रत्न तीन से सात दिन में अपना प्रभाव दिखाने लगते हैं। आज तक हुये अनुसंधानों एवं प्रमाणों से सिद्ध हुआ है कि कुछ विशिष्ट रत्नों को धारण करने से रोगों का भी शमन होता है। कुछ विशिष्ट रोगांे में रत्न धारण करने का विधान इस प्रकार है: एड्स जन्मांग में जब शुक्र और मंगल की युति वृष या वृश्चिक राशि में हो और इनपर शनि या राहु की दृष्टि हो या लग्न में मंगल या शनि स्थित हो और चंद्रमा की दृष्टि हो तो एड्स रोग होने की संभावना रहती है। इस रोग से बचाव हेतु फिरोजा, मूनस्टोन पुखराज, नीलम आदि पहना जाता है। गठिया मिथुन, तुला तथा कुंभ राशि के लोग इस रोग से अधिक परेशान होते हैं। इसी के साथ-साथ गुरु लग्न में तथा शनि सातवें भाव में होंगे तो गठिया रोग होने की संभावना बनती है। वृष, सिंह, कन्या, मकर, मीन राशियों में यदि शनि राहु की युति और इन पर मंगल की सीधी दृष्टि होगी तो निश्चित ही गठिया होने की संभावना बनी रहेगी। बलहीन सूर्य भी इस रोग का कारण हो सकता है। इस रोग से बचाव हेतु सोने या तांबे में गोमेद तथा पुखराज धारण कराया जाता है। हृदय रोग जन्मांग में सूर्य या चंद्र पर राहु, मंगल, शनि की दृष्टि हो तो 40-45 वर्ष की आयु में हृदय रोग होने की संभावना कही जाती है। राहु मंगल का संबंध अशुभ सूर्य से होने पर भी हृदय रोग हो सकता है। कर्क या मकर राशि में पाप ग्रह स्थित हो तो हृदय रोग हो सकता है। इस रोग से बचाव हेतु मूंगा व पुखराज धारण करवाया जाता है। यदि किन्हीं कारणों से लाभ प्राप्त नहीं होता है तो पन्ना, मोती धारण कराया जाता है। एनीमिया जन्मांग में जब सूर्य और शनि पीड़ित हो तो पेट की खराबी से यह रोग होता है। यदि त्रिकोण भाव ग्रहरहित हो तो भी यह रोग हो सकता है। गुरु सिंह राशि में मंगल से षष्ठ, अष्टम या द्वादश होने पर भी यह रोग हो सकता है। इस रोग से छुटकारे हेतु मूंगा तथा पुखराज पहनाया जाता है। ब्लड कैंसर मंगल पर शनि तथा राहु-केतु की दृष्टि होने पर यह रोग हो सकता है। नीच सूर्य भी इसका कारक होता है। इस रोग से बचाव हेतु मूंगा, माणिक्य, लहसुनिया, गोमेद धारण कराया जाता है। सफेद दाग वृष राशि में चंद्र, मंगल, शनि का संबंध इस रोग का कारक होता है। चंद्रमा लग्न में, मंगल द्वितीय में, सूर्य सप्तम में तथा शनि द्वादश भाव में हो तो सफेद दाग हो सकते हैं। चंद्रमा तथा शुक्र का योग किसी भी जलराशि में होने पर भी रोगकारक होता है। बुध शत्रु राशि में अस्त हो, शुक्र नीच राशि में वक्री हो तो भी यह रोग हो सकता है। इस रोग से बचाव हेतु हीरा, फिरोजा, मोती धारण करवाया जाता है। गंजापन सूर्य लग्न, तुला या मेष राशि में स्थित होकर शनि पर दृष्टिपात करता हो तो यह रोग हो सकता है। गंजेपन से बचाव हेतु माणिक्य और पुखराज संयुक्त करके पहनाया जाता है। कैंसर चंद्रमा किसी भी राशि का होकर छठे, आठवें, बारहवें भाव में हो और इस पर तीन पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो निश्चित ही इस रोग का कारक माना गया है। छठे भाव में स्थिर राशि का मंगल भी इसका कारक हो सकता है। गुरु और शनि कर्क या मकर राशि में हांे, केतु, मंगल या चंद्रमा या राहु या शनि कहीं भी एक साथ बैठे हों तो यह रोग हो सकता है। इस कठिन रोग को समाप्त करने हेतु बीच की अंगुली में सोने या तांबे में माणिक्य या अनामिका में नीलम धारण करवाया जाता है। यदि कैंसर का आॅप्रेशन हो चुका हो तो उसके बाद होने वाले कष्ट से छुटकारा हेतु पुखराज और मूंगा धारण कराया जाता है। उपरोक्त कथन एवं विवेचन से सिद्ध होता है कि आज के युग में भी रत्न धारण करने का प्रामाणिक आधार है। समाज के प्रत्येक मनुष्य यह मानते हैं कि रत्न धारण करने से उनकी भाग्य उन्नति, रोग से छुटकारा, मानसिक शांति, गृह क्लेश से मुक्ति, रोजगार आदि में रत्न धारण करने से लाभ हुआ है।
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Tuesday 27 October 2015

ग्लोकोमा : नेत्र रोग ज्योतिष्य दृष्टिकोण तथ्य

आंखे प्रकृति की ओर से मिला हुआ वह हसीन उपहार है, जिसकी सहायता से न सिर्फ सारी दुनिया को देख सकते हैं, बल्कि सभी प्रकार के अपने कार्यों को आसानी से पूरा कर सकते हैं। इसलिए आंखों की नियमित देखभाल आवश्यक है; अन्यथा आंखों की ज्योतिसमाप्त हो सकती है। ग्लोकोमा आंखों के भयंकर रोगों में से एक है, जिसमें प्रारंभिकअवस्था में पूर्णतया ध्यान न देने पर आंखों की रोशनी समाप्त हो जाती है। ग्लोकोमा क्या है? : आंखों में कॉर्निया और लेंस के बीच पानी जैसा एक द्रवपाया जाता है, जिसे जलरस कहतेहैं। इस द्रव का कार्य नेत्र गोलक केअंदर नियमित रूप से एक प्राकृतिक दबाव बनाए रखना है, ताकि नेत्र कीस्वाभाविक गोलाई बनी रहे। इसके अलावा इसका दूसरा कार्य आंखों के ऊतकों, लेंस और कॉर्निया आदि कोपोषक तत्व प्रदान करना भी है। प्रकृतिने ही इसके निर्माण, नियंत्रण औरनिकास की अपनी व्यवस्था कर रखी है। लेकिन जब किसी कारणवश इसकेनिर्माण और निकास का संतुलन बिगड़जाता है, तो आंखों के भीतर इस द्रवका दबाव सामान्य से अधिक बढ़नेलगता है। इससे दृष्टि नाड़ी परअनावश्यक और अनपेक्षित दबाव पड़ने लगता है। वास्तव में आंखों के इसी आंतरिक दबाव के बढ़ने की अवस्था को ही ग्लोकोमा कहते हैं।यदि यह अनपेक्षित दबाव लगातार बना रहा, तो इससे 'ऑप्टिक नर्व' की संवेदनशीलता समाप्त होने लगती है,जिसके परिणामस्वरूप आंखों की ज्योतिभी नष्ट होने लगती है। यदि रोग का प्रारंभिक अवस्था में उपचार न हो, तो'ऑप्टिक नर्व' पूरी तरह निष्क्रिय हो जाती है और आंखों की ज्योति स्थायीरूप से समाप्त हो जाती है।आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों नेग्लोकोमा की दो किस्में बतायी हैं।सादा ग्लोकोमा और तीव्र वेदना वालाग्लोकोमा। सादे ग्लोकोमा में द्रवनिकास नलियों का कोण संकुचितनहीं होता, बल्कि निकास नलियां हीसंकरी हो जाती हैं। यह अक्सर अधेड़ावस्था और स्त्रियों में अधिकहोता है। इसमें आंखों के भीतरी दबावमें एकाएक वृद्धि नहीं होती। इसलिएइसका उपचार भी सरलता से नहीं होपाता। इसमें पढ़ने-लिखने, या अन्यबारीक कार्य करने में परेशानी होनेलगती है। आंखों में कभी-कभी तनावऔर सामयिक सिर दर्द के लक्षण भीउभर सकते हैं। ऐसी स्थिति मेंलापरवाही न करें और तुरंत जांचऔर उपचार करवाएं।तीव्र वेदनायुक्त ग्लोकोमा : इस अवस्थामें निकास नलियों का कोण संकुचितहो जाता है। इस कारण निकासनलियों के संकुचित न रहने की स्थितिमें भी अवरुद्ध कोण की वजह से द्रवकी निकासी में बाधा पड़ जाती है,क्योंकि इसमें द्रव निकास नलियों का कोण प्राकृतिक रूप से ही थोड़ासंकुचित रहता है। इसका यह रूप26 वर्ष के बाद ही उभर कर सामनेआता है।सादा ग्लोकोमा एकाएक हमला करताहै। इसकी शुरुआत दौरे के रूप मेंहोती है। आंखों में एकाएक तनाव बढ़जाने से तेज दर्द होता है, मानों कोईआंखों को बाहर की ओर निकाल रहाहो। आंखें तीव्र रूप से सूज जाती हैं।दृष्टि का धूमिल पड़ जाना, सिर में भयंकर दर्द एवं उल्टी होना आदिइसके लक्षण हो सकते हैं। इसे 'एक्यूटकंजेस्टिव' ग्लोकोमा के नाम से भीजाना जाता है।सावधानियां : जैसे-जैसे आयु बढ़तीहै, शरीर में कई प्रकार के विकारउत्पन्न होने लगते हैं। नस नाड़ियोंमें कमजोरी आती है। इसलिए बढ़तीउम्र के इस दौर में पहुंचने के बाद सेआंखों की नियमित जांच करवाते रहनाआवश्यक है। इससे आंखों के आंतरिकदबाव में आये परिवर्तन समय पर ध्यानमें आ जाते हैं, जिससे ग्लोकोमा के शिकार होने से बचा जा सकता है।यदि पहले किसी को परिवार मेंग्लोकोमा हुआ है, उसे तो समय पर अवश्य ही जांच करवानी चाहिए।मधुमेह के रोगियों में ग्लोकोमा होनेकी संभावना सामान्य से आठ गुणाअधिक होती है। अतः मधुमेह के रोगीको इसका ध्यान करना चाहिए।मोतिया बिंद के रोगियों में अक्सर यहधारणा रहती है कि मोतियों के अधिकपकने पर शल्य क्रिया करवाना अच्छा रहता है। लेकिन यह धारणा गलतहै। इससे ग्लोकोमा हो जाता है।अत्यधिक मानसिक श्रम, उत्तेजना,क्रोध, रात्रि जागरण, मादक द्रव्यों कासेवन आदि से बचना चाहिए औरआंखों के स्वास्थ्य हेतु जो आवश्यकसामान्य नियम हैं, उनका पालन प्रारंभसे करना भी लाभदायक सिद्ध होताहै।याद रहे, ग्लोकोमा से नष्ट हुई रोशनीपुनः वापस नहीं आ सकती। अतःऐसा कोई भी लक्षण उभरे, तो अपनेचिकित्सक से संपर्क करें और उनकीसलाह मानें।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण से ग्लोकोमाःग्लोकोमा आंखों का रोग है, जिसमें आंखों की रोशनी समाप्त हो जाती है। इसका कारण नेत्र गोलक के अंदर के जलरस (द्रव) के दबाव का सामान्यसे अधिक होना है। ज्योतिष में आंखोंकी रोशनी के कारक सूर्य और चंद्र हैं। काल पुरुष की कुंडली में द्वितीयभाव और द्वादश भाव क्रमशः दायीं और बायीं आंखों के स्थान हैं। किसी भी कारण अगर सूर्य-चंद्र, द्वितीय और द्वादश भाव दुष्प्रभावों में आ जाएं और लग्न, या लग्नेश भी दुष्प्रभाव में रहे,तो जातक को ग्लोकोमा जैसा आंखोंका रोग हो सकता है। रोग संबंधितग्रह की दशा-अंतर्दशा और प्रतिकूलगोचर के कारण उत्पन्न होता है।
विभिन्न लग्नों में ग्लोकोमा : मेष लग्न : लग्नेश तृतीय भाव मेंसूर्य से अस्त हो, बुध द्वितीय भाव मेंहो, राहु केतु से युक्त, या दृष्ट हो,सूर्य और चंद्र दोनों पर शनि की पूर्णदृष्टि हो, तो ग्लोकोमा होता है। वृष लग्न : सूर्य द्वितीय भाव में लग्नेशसे युक्त और लग्नेश अस्त हो, गुरुचतुर्थ, या दशम भाव में चंद्र से युक्तहो, तो ग्लोकोमा जैसा आंखों का रोगहोता है। मिथुन लग्न : लग्नेश बुध सूर्य सेअस्त हो कर अष्टम भाव में हो, मंगलद्वितीय, या द्वादश भाव में पूर्ण दृष्टिसे देखे, या बैठे और चंद्र शनि सेयुक्त हो तथा उसपर मंगल की दृष्टिहो, तो ग्लोकोमा होता है। कर्क लग्न : लग्नेश चंद्र सूर्य से पूर्णअस्त हो कर षष्ठ, या अष्टम भाव मेंहो और बुध सप्तम भाव में हो, राहुऔर शनि लग्न, या लग्नेश को पूर्णदृष्टि से देखते हों, तो आंखों कीरोशनी ग्लोकोमा के कारण समाप्त होजाती है। सिंह लग्न : सूर्य षष्ठ भाव में शनिसे युक्त हो, चंद्र लग्न में राहु से युक्तहो, बुध सप्तम भाव में अस्त न हो,मंगल त्रिक भावों में रहे, तो ग्लोकोमारोग होता है। कन्या लग्न : चंद्र-मंगल द्वितीय भावमें हों और केतु से दृष्ट हों, शुक्र औरबुध सूर्य से अस्त हो कर त्रिक भावोंमें हों और गुरु से दृष्ट हों, तो आंखोंसे संबंधित रोग उत्पन्न होते हैं। तुला लग्न : लग्नेश शुक्र सूर्य सेअस्त हो और द्वितीय, या द्वादश भावमें हो, गुरु द्वितीयेश मंगल से युक्त होकर द्वितीय भाव पर दृष्टि रखे, राहुषष्ठ भाव में अकेला हो, तो ग्लोकोमाजैसा रोग होता है।   वृश्चिक लग्न : लग्नेश त्रिक भावोमें हो कर राहु, या शनि से युक्त, यादृष्ट हो, चंद्र बुध से युक्त हो और राहुकेतु से दृष्ट हो, तो ग्लोकोमा रोगहोता है। धनु लग्न : लग्नेश गुरु अष्टम भावमें हो और चंद्र द्वितीय, या द्वादश भावमें राहु, या केतु से दृष्ट हो, शुक्र औरबुध लग्न में हों, सूर्य द्वितीय भाव मेंहो, तो ग्लोकोमा होता है। मकर लग्न : गुरु लग्न में हो, लग्नेश त्रिक भावों में सूर्य से अस्त हो, चंद्रभी अस्त हो, मंगल द्वितीय, या द्वादशभाव को देखता हो, केतु द्वितीय, याद्वादश भाव में हो, तो ग्लोकोमा होताहै। कुंभ लग्न : शनि सूर्य से अस्त होकर द्वितीय भाव में हो, बुध लग्न मेंअस्त न हो, चंद्र राहु से युक्त हो करत्रिक भावों में हो, तो ग्लोकोमा होनेकी संभावना बढ़ जाती है। मीन लग्न : लग्नेश वृष, या तुला राशि में अस्त हो, बुध द्वितीय, यासप्तम भाव में अस्त न हो, द्वितीयेशशुक्र से युक्त हो कर षष्ठ भाव में, राहुया केतु द्वितीय और द्वादश भाव परदृष्टि रखे, तो ग्लोकोमा होता है।उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारितहैं। संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा औरगोचर के प्रतिकूल होने पर ही रोगहोता है।
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शनि की महादशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा का फल

यदि शनि की महादशा में शनि की अंतदंशा हो तो यह अशुभ परिणाम देने वाली मानी जाती है । इसके कारण धनहानि, पदावनति, राजदंड एवं अपयश आदि की संभावना रहती है । स्वास्थ्य खराब, घर में कलह, पत्नी से अनबन तथा प्रियजन आदि का वियोग संभव है । किन्तु उच्च या स्वगृही शनि होने पर मुकदमे र्म विजय, सम्मान-प्राप्ति तथा विदेश यात्रा के अवसर प्राप्त होते हैं । यदि शनि की महादशा में बुध की अंतर्दषा आ जाती है तो बहुत शुभ एवं सौभाग्यदायिनी समझी जाती है । उसके प्रभाव से धन- धान्य की वृद्धि, समाज में प्रतिष्ठा हैं जनता में सम्मान, स्वास्थ्य-लाभ तथा परिवारिक सुख को प्राप्ति होती है । बुध के नीचस्थ होने की स्थिति में अथवा अशुभ ग्रहों के मध्य में होने की स्थिति में उपयुक्त फल प्रतिकूल रहेगा । शनि की महादशा में केतु को अंतर्दशा अशुभ मानी जाती है। इसके प्रभाव से धन वाहन एवं सम्मान की हानि, पारिवारिक कलह, भाई से विरोध, स्त्री पक्ष तथा समाज में अप्रतिष्ठा और अपयश आदि मिलने की आशंका रहती है । यदि केतु अन्य ग्रहों के मध्य में हो या शुक्र अन्य ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो उपर्युक्त प्रभाव अनुकूल हो जाता है । शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा सामान्य फल देने वाली होती है । यदि ऐसा शनि उच्च का, स्वगृही अथवा मूलत्रिक्रोषास्थ हो तो शुभ फल प्रदान करता है । इसके प्रभाव से धन प्राप्ति के अवसर आते हैं और उच्च पद की प्राप्ति होती है । राजसम्मान, समाज में प्रतिष्ठा, व्यापार में उन्नति तथा घर में उल्लास का वातावरण बन जाता है । यदि शुक्र बारहवें घर में हो तो विदेश यात्रा का उत्साह होता है और पर्याप्त धन मिलता है । किंतु आठवें घर में स्थित शुक्र प्रतिकूल प्रभाव देने वाला हो जाता है, जो परेशानी का कारण बनता है । शनि की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा का आना शुभ सूचक होता है । इसके प्रभाव से व्यापार विस्तार में सफलता मिलती है | यदि जातक नौकरी पर हो तो अच्छे वेतनमान पर उसकी पद-वृद्धि होती है । समाज में प्रतिष्ठा और सुयश आदि के साथ जनसंपर्क बढ़ने लगता है । किंतु अशुभ ग्रहों से दृष्ट सूर्य प्रतिकूल परिणाम देने वाला हो जाता है। यदि सूर्य षष्ठ या अष्टम भावस्थ हो तो जातक को उदर संबंधी कोई रोग हो सकता है ।शनि की महादशा में चंद्रमा की अंतर्दशा अच्छी नहीं मानी जाती । इसके प्रभाव से शरीर में कोई रोग हो जाता है | यह रोग उदर से संबंधित हो सकता है । स्वास्थ्य की खराबी के साथ-साथ मानसिक विकार की उत्पत्ति भी संभव है । यदि चंद्रमा शुभ स्थान पर हो तो अनुकूल फल देने वाला होता है । शनि की महादशा में मंगल की अंतर्दशा बहुत शुभ होती है । इससे व्यापार में उन्नति, अधिक लाभ, नौकरी में वेतन-वृद्धि, घर-वहान आदि की प्राप्ति, उद्योग आदि में उत्पादन-वृद्धि, मुकदमे में जीत तथा राज्य द्वारा लाभ होता है। किंतु अशुभ, नीच या वक्री मंगल बहुत हानिकारक होता है । उससे शारीरिक मानसिक पीडा होती है । शत्रु प्रबल होकर षडूयंत्र रचने लगते हैं 1
शनि की महादशा में राहु की अंतर्दशा अशुभ मानी गई है। इसके कारण स्वास्थ्य नष्ट होता है तथा व्यय अधिक बढ़ जाता है, इसलिए मानसिक आशांति उत्पन्न होती है । इससे व्यापार में हानि तथा नौकरी में अवनति भी संभव है । व्यर्थ यात्रा का प्रसंग भी आ जाता है । र्कितु राहु के शुभ स्थान पर होने अथवा शुभ ग्रह द्वारा देखे जाने की स्थिति में अनुकूल प्रभाव पड़ता है । उपरोक्त स्थिति धनागम में उत्पन्न बाधाएं दूर होती हैं और व्यय घट जाता है । शनि की महादशा में गुरु की अंतर्दशा शुभ होती है । ऐसे में धन-संतान लाभ एवं विवाह या पुत्रोत्पत्ति आदि मंगल कार्य चलते रहते हैं । यदि गुरु स्वगृही या उच्च का हो तो अधिक शुभ होता है । उसके कारण समी कार्य पूर्ण होते । विवेक जाग्रत होकर धर्मकार्य, दानधर्म एवं तीर्थाटन आदि के अवसर प्राप्त होते है |किंतु अस्त, वक्री या पापग्रस्त गुरु प्रतिकूल प्रभाव वाला हो जाता है ।
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मंगल का राशिगत स्वरुप

मेष राशि
यदि मंगल मेष राशि में हो तो जातक सत्य बोलने वाला, राजा से भूमि, धन, सम्मान पाने वाला, तेजस्वी, साहसी, शूरवीर, नेता अथवा शल्य-चिकित्सक, शीघ्र आवेश ( अथवा रोष) में आ जाने वाला, प्रगल्भ, सावधान, अपने कुल में अधिक प्रसिद्ध, समाज में प्रतिष्ठित, समाज सुधारक या गाम प्रधान होता है । वह बड़ा ही निर्भीक, निडर, आशावान, जिज्ञासु अनुभवी, अनवरत श्रमशील तथा खतरों में आंखें बंद करके बैठने वाला होता है । पुलिस या सेना में किसी उच्चपद पर आसीन हो जाने पर उसे कभी पराभव, पराजय और शैथिल्य का मुंह नहीं देखना पड़ता । वह सदैव विजयी होता है ।
वृष राशि
वृष राशिस्थ मंगल में जन्म लेने वाला जातक स्वभाव से उग्र, कठोर, जादूगरी एवं तांत्रिक क्रियाओं में रुचि रखने वाला, विवेकहीन,द्वेषी, प्रवासी, अल्प सुख पाने वाला, शत्रुओं से पीडित, पापी, लडाकू प्रवृति का, वंचक, कपटी, वाचाल, कल्पनाओं में खोया रहने वाला तथा स्त्री के वशीभूत रहता है । वह चरित्रहीन भी होता है और दूसरे की स्त्रियों पर आसक्ति रखता है । उसे धनवान पत्मी मिलती है । वह हर समय छैला बना रहता है । श्रृंगार और सज्जा में लगा रहता है । सुंदर चेहरा-मोहरा बनाकर चलता है । देखने में सीधा दिखाई देता है, किन्तु इसके विपरीत वह कठोर और क्रूर हदय का होता है ।
मिथुन राशि
मिथुन राशिस्थ मंगल में जन्म लेने वाले जातक बहुत कलाओं को जानने कला, अपने जनों से कलह करने वाला, अपने स्थान से दूसरे स्थान में वास करने वाला और पुत्रादि से सुखी होता है । जातक एक श्रेष्ठ शिल्पकार, कार्यदक्ष,जनहितैषी,गायनादि विद्या में निपुण, कृपण, बुद्धिमान, शोधक, वक्ता, शीघ्र निर्णय देने वाला, विधिवेत्ता, कुशल व्यापारी, निडर और अपनी चिकनी-चुपडी बातों से दूसरों का धन हड़पने वाला होता है ।
कर्क राशि
यदि मंगल कर्क राशि में हो तो जातक दुस्साहसी, चौर्य कर्म करने वाला, सुखाभिलाषी, दीनसेवक, कृषक, रोगी, दुष्ट,वाचाल, मुखर, बकवादी, हथेली पर सरसों जमाने वाला, झूठा, दुराग्रही तथा पापात्मा होता है । वह कहता बहुत और करता कम है । ऐसा जातक अपने मन के भावों को व्यक्त करने में अयोग्य और असमर्थ रहता है । उसका पारिवारिक जीवन अनसुलझा होता है, अर्थात्-समसयाओं का अखाड़ा बना रहता है । उस पर शत्रु हावी रहते हैं एवं पग-पग पर हानि पहुंचाते हैं । वह माता तथा गृहस्थी के सुख से अछूता रहता है । सब उससे असहयोग करते हैं । इस कारण वह आजन्म असंतोषपूर्ण जीवन यापन करता है ।
सिंह राशि
यदि मंगल सिह राशि में हो तो जातक शूरवीर, सदाचारी, परोपकारी, कार्य-निपुण और स्नेहशील होता है । उसे सदा धन का अभाव रहता है तथा वह अभाव में ही जीवन-यापन करता है । जातक काननचारी होता है । क्लेश विग्रह और चिता में निमग्न रहता है । स्त्री एवं पुत्र का सुख उसे अल्प ही मिल पता है ।जातक गणितशास्त्र का विशेषज्ञ, गूढ़ विद्या का ज्ञाता तथा अनेक शत्रु वाल होंन्ना है । जातक कुशलदायी, अत्यंत परिश्रमी, स्वतंत्र विचारों वाला, मननशील, विचारक, उद्दण्डी, उग्र प्रकृति वाला तथा अल्प संतान वाला होता है । ऐसा व्यक्ति विश्वसनीय और उदार भी होता है । उसकी आशापूर्ण नहीं होती । समाज में उसकी उपेक्षा होती है । वह निराश प्रेमी बनकर रह जाता है । पत्नी और बच्चे उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते बल्कि विरोध करते हैं और प्रतिकूल आचरण एवं व्यवहार करते हैं । इस कारण वह उपहास और परिहास का पात्र बनकर रह जाता है ।
कन्या राशि
यदि मंगल कन्या राशि में हो तो जातक शिल्पकार, लोकमान्य, पापभीरु, सुखी एवं व्यवहार कुशल होता है । उसके पुत्र तो अनेक होते हैं, किन्तु मित्र कोई नहीं होता । यदि होता भी है तो घातक, ढोंगी, उग और वंचक होता है । उसे संगीतविद्या का अनुराग होता है । वह रात…दिन उसी में रत रहता है । जातक के हृदय में शौर्य और साहस अति प्रबल रूप में भरा रहता है । वह युद्धविद्या में भी कुशल होता है । नविन योजनाओं से शत्रु को परास्त करता है । कठिन वातावरण में भी साहस और दिलेरी से काम लेता है । पीछे हट जाना तो जैसे जानता ही नहीं । देश की रक्षा हेतु प्राणों की बलि देने से भी नहीं चूकता । दुराग्रही भी अधिक होता है । जो व्यक्ति उसके साथ उपकार करता है या बुरे वक्त में उसके काम आता है, वह उसे कभी नहीं भूलता । उपकार का बदला उपकार से ही देना चाहता है और देता भी है । वह उचित समय आने को प्रतीक्षा करत्ता है ।
तुला राशि
यदि जातक का जन्म तुला राशि में हो और उसमें मंगल का निवास हो तो वह प्रवासी होगा अर्थात् घर या जन्मभूमि में जीवन-यापन नहीं करेगा) । दूसरों का धन प्राप्त करने का यत्न करता रहेगा | ऐसा व्यक्ति वहुत बोलने वाला होता है |उसके मन में काम-वासना धधकती रहती है । वह परस्त्री से प्रेम करता है । मित्रों से अनबन रखता है । इतना नीरस और हलका होता है कि मैत्री का निर्वाह नहीं कर पाता । वह मायावी, प्रवंचक और कुचक्री होता है । मन का कठोर होता है । कीमती और स्वच्छ वस्त्र धारण करता है ।
वृश्चिक राशि
यदि जन्मांग चक्र में मंगल वृश्चिक राशि में हो तो जातक पातकी, दुष्ट, शठ, दुराचारी, पापी, नेता, व्यापारी, चोरी करने में दक्ष तथा चोरों का मुखिया होता है । उसका स्वभाव भी मधुर और विनम्र नहीं होता, बल्कि. क्रूर एवं कठोर होता है । जातक कूटनीति से कार्य करने वाला, चालाक और स्वार्थी होता है । उसका मन कमी स्थिर नहीं रहता, बुद्धि सास्विक नहीं होती ।ऐसा जातक दंत चिकित्सक अथवा औषधि विक्रेता होता है । व्यवहार में कच्चा और अनाड़ी नहीं होता, कुशल खिलाडी होता है |
धनु राशि
यदि मंगल धनु राशि में हो तो जातक मक्कार, कपटी,मिथ्यावादी, निर्दयी,कठोर,दुष्ट, कदाचारी और पराधीन होता है । उसके बहुत से षात्रु होते हैं । उसे पुत्रपक्ष से कोई सुख नहीं मिलता। जातक राज्यसत्ता के निकट रहने वाला होता है । वह किसी से नहीं डरता एवं स्पष्ट वक्ता होता है । उनसे लाभ उठाने की योजनाएं बनाता रहता है तथा स्वयं भी राजनीति का पंडित बन जाता है । यदि मंगल धनु राशि में हो तो जातक दाता, बहुत धनी, कुल में श्रेष्ट, कलाओं में कुशल तथा सुंदर व हितकारिणी स्त्री का पति होता है । जातक विग्रह, उत्पात, संघर्ष और विवाद, को व्यर्थ ही अपना लेता है, जिसके कारण उसे भूख एवं विनोद नहीं मिलता । वह हर समय चिंतन-मनन में डूबा रहता है तथा उचित समाधान न होने से परेशान रहता है । पैतृक धन से मौज उड़ाता है । एक स्त्री (या केवल पत्नी) से उसकी वासना नहीं बुझती । वह अवसरवादी होता है । स्वयं परिश्रम करके अधिक धन नहीं संचय कर पाता है ।
मकर राशि
यदि मंगल मकर राशि में हो तो जातक ख्याति प्राप्त करने वाला, पराक्रमी, सफल नेता, धन- धान्य, यश, वैभव और संपन्नता से भरपूर होता है । छोटी-मोटी बातें उसके मस्तिष्क में नहीं घूमती । वह रहता धरती के ऊपर है, किन्तु उसकी कल्पनाएं आकाश को चूमती हैं । वह असंभव कार्यों के स्वप्न देखता है तथा एक तरह से स्वप्नों की दुनिया में ही जीता है ।ऐसै जातक के कई पुत्र होते हैं । वह एक राजा के समान प्रभावशाली बनना चाहता है, किन्तु बन नहीं पाता । उसकी बुद्धि और प्रतिभा अति प्रखर एवं उपजाऊ होती है । वह सामाजिक लाभ उठाने कला, स्वभाव का उग्र, शूरवीर,शास्त्र कला में प्रवीण और षड्यंत्रों की रचना करने में पारंगत एवं निपुण होता है ।
कुंभ राशि
कुंभ राशिस्थ मंगल का जातक घर में कलह करने वाला, दीन, पराक्रम और धन में रहित. बुद्धिहीन तथा शत्रु से पीडित होता है ।जातक आचार-भ्रष्ट होता है, टेढा-मेढा चलता है तथा वासना के पीछे सब कुछ भूल जाता है । मत्सरवृति इतनी अधिक होती है कि वह दूसरे की उन्नति और प्रगति देखकर इर्षा करने लगता है । सट्टे का चस्का इतना अजीब होता है कि वह उसमें अपनी अपरिमित पूंजी झोक देता है । लेकिन कोई बड़ी रकम कभी उसके हाथ नहीं आती और आशा में ही वह मिट जाता है ।
मीन राशि
यदि मंगल मीन राशि में हो तो जातक अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त होता है । रोग उसका पीछा नहीं छोड़ते । वह प्रवासी बन जाता है तथा परदेशों का भ्रमण करता फिरता है । तंत्रविद्या का चस्का उसे चक्कर में डाल देता है । वह इस विद्या से लाभ उठाना चाहता है, पर उसके स्वप्न चूर-चूर हो जाते हैं । उसके इस कृत्य से परिवारजन चिढ़ जाते हैं, उसकी निंदा और भत्सर्ना करते हैं । जातक का मन चंचल एवं प्रपंची हो जाता है । उसे न तो समाज का भय रहता है और न ही वह ईश्वर से डरता है । किसी के समझाने से नहीं समझता तथा नास्तिक बन जाता है । वह दुराग्रही बनकर आत्म-सम्मान भी नष्ट कर देता है । वह पाखंड और अनाचार को महत्व देता है । वह बकवादी हो जाता है, किसी की सुनना पसंद नहीं करता और वाचाल बनकर अपना लिब कुछ नष्ट कर लेता है । वह हर समय अज्ञात बहता है ।
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Monday 26 October 2015

गृह प्रवेश से पहले वास्तु शांति क्यूँ ??????

आप जब भी कोई नया घर या मकान खरीदते हैं तो उसमं प्रवेश से पहले उसकी वास्तु शांति करायी जाती है। जाने अनजाने हमारे द्वारा खरीदे या बनाये गये मकान में कोई भी दोष हो तो उसे वास्तु शांति करवा के दोष को दूर किया जाता है। इसमें वास्तु देव का ही विशेष पूजन किया जाता है जिससे हमारे घर में सुख शांति बनी रहती है। वास्तु का अर्थ है मनुष्य और भगवान का रहने का स्थान। वास्तु शास्त्र प्राचीन विज्ञान है जो सृष्टि के मुख्य तत्वों का निःशुल्क लाभ प्राप्त करने में मदद करता है। ये मुख्य तत्व हैं- आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। हम प्रत्येक प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिए वास्तु शांति करवाते हैं। उसके कारण जमीन या बांध, काम में प्रकृति अथवा वातावरण में रहा हुआ वास्तु दोष दूर होता है। गृह प्रवेश के पूर्व वास्तु शांति कराना शुभ होता है। इसके लिए शुभ नक्षत्र, वार एवं तिथि इस प्रकार हैं- शुभ वार- सोमवार, बुधवार, गुरुवार व शुक्रवार शुभ हैं। शुभ तिथि- शुक्लपक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी एवं त्रयोदशी। शुभ नक्षत्र- अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, उत्ताफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, अनुराधा एवं मघा। अन्य विचार- चंद्रबल, लग्न शुद्धि एवं भद्रादि का विचार कर लेना चाहिए। क्या है वास्तु शांति की विधि स्वस्तिवाचन, गणपति स्मरण, संकल्प, श्री गणपति पूजन, कलश स्थापन और पूजन, पुनःवचन, अभिषेक, शोडेशमातेर का पूजन, वसोधेरा पूजन, औशेया मंत्रजाप, नांन्देशराद, आचार्य आदे का वरेन, योग्ने पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, अग्नि स्थापन, नवग्रह स्थापन और पूजन, वास्तु मंडल पूजन और स्थापन, गृह हवन, वास्तु देवता होम, बलिदान, पूर्णाहुति, त्रिसुत्रेवस्तेन, जलदुग्धारा और ध्वजा पताका स्थापन, गतिविधि, वास्तुपुरुष-प्रार्थना, दक्षिणासंकल्प, ब्राह्मण भोजन, उत्तर भोजन, अभिषेक, विसर्जन। उपयुक्त वास्तु शांति पूजा के हिस्सा हैं। सांकेतिक वास्तुशांतिः सांकेतिक वास्तु शांति पूजा पद्धति भी होती है, इस पद्धति में हम नोंध के अनुसार वास्तु शांति पूजा में से नजरअंदार न कर सके वैसी वास्तु शांति पूजा का अनुसरण करते हैं। ‘विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र’ विधिवत अनुष्ठान करने से सभी ग्रह, नक्षत्र, वास्तु दोषों की शांति होती है। विद्याप्राप्ति, स्वास्थ्य एवं नौकरी-व्यवसाय में खूब लाभ होता है। कोर्ट-कचहरी तथा अन्य शत्रुपीड़ा की समस्याओं में भी खूब लाभ होता है। इस अनुष्ठान को करके गर्भाधान करने पर घर में पुण्यात्माएं आती हैं। सगर्भावस्था के दौरान पति-पत्नी तथा कुटुम्बीजनों को इसका पाठ करना चाहिए। अनुष्ठान-विधि: सर्वप्रथम एक चैकी पर सफेद कपड़ा बिछाएं। उस पर थोड़े चावल रख दें। उसके ऊपर तांबे का छोटा कलश पानी भर के रखें। उसमें कमल का फूल रखें। कमल का फूल बिल्कुल ही अनुपलब्ध हो तो उसमें अडूसे का फूल रखें। कलश के समीप एक फल रखें। तत्पश्चात तांबे के कलश पर मानसिक रूप से चारों वेदों की स्थापना कर ‘विष्णुसहस्रनाम’ स्तोत्र का सात बार पाठ सम्भव हो तो प्रातः काल एक ही बैठक में करें तथा एक बार उसकी फलप्राप्ति पढ़ें। इस प्रकार सात या इक्कीस दिन तक करें। रोज फूल एवं फल बदलें और पिछले दिन वाला फूल चैबीस घंटे तक अपनी पुस्तकों, दफ्तर, तिजोरी अथवा अन्य महत्त्वपूर्ण जगहों पर रखें व बाद में जमीन में गाड़ दें। चावल के दाने रोज एक पात्र में एकत्र करें तथा अनुष्ठान के अंत में उन्हें पकाकर गाय को खिला दें या प्रसाद रूप में बांट दें। अनुष्ठान के अंतिम दिन भगवान को हलवे का भोग लगायें। यह अनुष्ठान हो सके तो शुक्ल पक्ष में शुरू करें। संकटकाल में कभी भी शुरू कर सकते हैं। स्त्रियों को यदि अनुष्ठान के बीच में मासिक धर्म आते हों तो उन दिनों में अनुष्ठान बंद करके बाद में फिर से शुरू करना चाहिए। जितने दिन अनुष्ठान हुआ था, उससे आगे के दिन गिनें। इनका ध्यान रखें अपने नए या पुराने घर में घर के खिड़की-दरवाजे इस तरह होने चाहिए कि सूरज की रोशनी अच्छी तरह से घर के अंदर आए। ड्रॉइंग रूम में फूलों का गुलदस्ता लगाएं। रसोई घर में पूजा की आलमारी या मंदिर नहीं रखना चाहिए। बेडरूम में भगवान के कैलेंडर, तस्वीरें या फिर धार्मिक आस्था से जुड़ी वस्तुएं न रखें। घर में टॉयलेट के बगल में देवस्थान नहीं होना चाहिए। दीपावली अथवा अन्य किसी शुभ मुहूर्त में अपने घर में पूजास्थल में वास्तुदोषनाशक कवच की स्थापना करें और नित्य इसकी पूजा करें। इस कवच को दोषयुक्त स्थान पर भी स्थापित करके आप वास्तुदोषों से सरलता से मुक्ति पा सकते हैं। अपने घर में ईशान कोण अथवा ब्रह्मस्थल में स्फटिक श्रीयंत्र की शुभ मुहूर्त में स्थापना करें। यह यन्त्र लक्ष्मीप्रदायक भी होता ही है, साथ ही साथ घर में स्थित वास्तुदोषों का भी निवारण करता है। प्रातःकाल के समय एक कंडे पर थोड़ी अग्नि जलाकर उस पर थोड़ी गुग्गल रखें और ऊँ नारायणाय नमः मंत्र का उच्चारण करते हुए तीन बार घी की कुछ बूँदें डालें। अब गुग्गल से जो धूम्र उत्पन्न हो, उसे अपने घर के प्रत्येक कमरे में जाने दें। इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा खत्म होगी और वातुदोषों का नाश होगा। प्रतिदिन शाम के समय घर मं कपूर जलाएं इससे घर में मौजूद नकारात्मक ऊर्जा खत्म हो जाती है। वास्तु पूजन के पश्चात् भी कभी-कभी मिट्टी में किन्हीं कारणों से कुछ दोष रह जाते हैं जिनका निवारण कराना आवश्यक है। घर के सभी प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिए मुख्य द्वार पर एक ओर केले का वृक्ष दूसरी ओर तुलसी का पौधा गमले में लगायें। दुकान की शुभता बढ़ाने के लिए प्रवेश द्वार के दोनों ओर गणपति की मूर्ति या स्टिकर लगायें। एक गणपति की दृष्टि दुकान पर पड़ेगी, दूसरे गणपति की बाहर की ओर। हल्दी को जल में घोलकर एक पान के पत्ते की सहायता से अपने सम्पूर्ण घर में छिडकाव करें। इससे घर में लक्ष्मी का वास तथा शांति भी बनी रहती है अपने घर के मन्दिर में घी का एक दीपक नियमित जलाएं तथा शंख की ध्वनि तीन बार सुबह और शाम के समय करने से नकारात्मक ऊर्जा घर से बाहर निकलती है। घर में उत्पन्न वास्तुदोष घर के मुखिया के लिए कष्टदायक होते हैं। इसके निवारण के लिये घर के मुखिया को सातमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए। यदि आपके घर का मुख्य द्वार दक्षिणमुखी है, तो यह भी मुखिया के लिये हानिकारक होता है। इसके लिये मुख्य द्वार पर श्वेतार्क गणपति की स्थापना करनी चाहिए। अपने घर के पूजा घर में देवताओं के चित्र भूलकर भी आमने-सामने नहीं रखने चाहिए इससे बड़ा दोष उत्पन्न होता है। अपने घर के ईशान कोण में स्थित पूजा-घर में अपने बहुमूल्य वस्तुएं नहीं छिपानी चाहिए। पूजाकक्ष की दीवारों का रंग सफेद, हल्का पीला अथवा हल्का नीला होना चाहिए। यदि झाड़ू से बार-बार पैर का स्पर्श होता है, तो यह धन-नाश का कारण होता है। झाड़ू के ऊपर कोई वजनदार वास्तु भी नहीं रखें। ध्यान रखें की बाहर से आने वाले व्यक्ति की दृष्टि झाड़ू पर न पड़े। अपने घर में दीवारों पर सुन्दर, हरियाली से युक्त और मन को प्रसन्न करने वाले चित्र लगाएं। इससे घर के मुखिया को होने वाली मानसिक परेशानियों से निजात मिलती है। घर के पूर्वोत्तर दिशा में पानी का कलश रखें। इससे घर में समृद्धि आती है। बेडरूम में भगवान के कैलेंडर या तस्वीरें या फिर धार्मिक आस्था से जुड़ी वस्तुएं नहीं रखनी चाहिए। बेडरूम की दीवारों पर पोस्टर या तस्वीरें नहीं लगाएं तो अच्छा है। हां अगर आपका बहुत मन है, तो प्राकृतिक सौंदर्य दर्शाने वाली तस्वीर लगाएं। इससे मन को शांति मिलती है, पति-पत्नी में झगड़े नहीं होते। वास्तु पुरूष की मूर्ति, चांदी का नाग, तांबा का वायर, मोती और पौला ये सब वस्तुएं लाल मिटटी के साथ लाल कपड़े में रखकर उसको पूर्व दिशा में रखें। लाल रेती, काजू, पौला को लाल कपड़ों में रख कर मंगलवार को पश्चिम दिशा में रखकर उसकी पूजा की जाए तो घर में शांति की वृद्धि होती है। प्रवेश की सीढ़ियों की प्रतिदिन पूजा करें, वहां कुंकुम और चावल के साथ स्वास्तिक, मिट्टी के घड़े का चित्र बनाएं। रक्षोज्ञा सूक्त जप, होम, अनुष्ठान इत्यादि भी करना चाहिए। ओम नमो भगवती वास्तु देवताय नमः। इस मंत्र का जप प्रतिदिन 108 बार और कुल 12500 जप करें और अंत में दशांश होम करें। वास्तु पुरुष की प्रार्थना करें। दक्षिण-पश्चिम दिशा अगर कट गई हो अथवा घर में अशांति हो तो पितृशांति, पिंडदान, नागबली, नारायण बलि इत्यादि करें। प्रत्येक सोमवार और अमावास्या के दिन रुद्री करें। घर में गणपति की मूर्ति या छवि रखें। प्रत्येक घर में पूजा कक्ष बहुत जरूरी है। नवग्रह शांति के बिना गृह प्रवेश मत करें। जो मकान बहुत वर्षों से रिक्त हो उसको वास्तुशांति के बाद में उपयोग में लाना चाहिए। वास्तु शांति के बाद उस घर को तीन महिने से अधिक समय तक खाली मत रखें। भंडार घर कभी भी खाली मत रखें।

हर्निया का रोग ज्योतिष्य तथ्य

पेट की मांसपेशियां कमजोर हो जाने वाली जगह से आंतें बाहर निकल आने की समस्या हर्निया कहलाती है। इस स्थिति में हर्निया की जगह एक उभार हो जाता है। मनुष्य के शरीर के अंदर कुछ अंग खोखले स्थानों में मौजूद होते हैं। इन खोखले स्थानों को बॉडी केविटी कहते हैं। दरअसल बॉडी केविटी चमड़ी की झिल्ली से ढकी होती है। जब इन केविटी की झिल्लियां कभी-कभी फट जाती हैं तो अंग का कुछ भाग बाहर निकल जाता है। इस विकृति को ही हर्निया कहा जाता है।लंबे समय तक खांसी या भारी सामान उठाने के कारण मांसपेशियों के कमजोर हो जाने की वजह से हर्निया के होने की संभावना ज्यादा होती है। हालांकि हर्निया के कोई खास लक्षण नहीं होते, लेकिन कुछ लोग में सूजन और दर्द की शिकायद हो सकती है। इस प्रकार का दर्द खड़े होने, मांसपेशियों में खिंचाव होने या कुछ भारी सामान उठाने पर बढ़ सकता है। ज्योतिष के अनुसार काल पुरुष की कुंडली में आंत का संबंध षष्ठ भाव और कन्या राशि से है। कन्या राशि का स्वामी बुध होता है और षष्ठ भाव का कारक ग्रह मंगल होता है। इसलिए षष्ठ भाव, षष्ठेश, षष्ठकारक मंगल, बुध, लग्न-लग्नेश जब दुष्प्रभावों में रहते हैं, तो आंतों से संबंधित रोग होते हैं, जिनमें हर्निया रोग भी शामिल है। शरीर में हर्निया उदर के ऊपरी भाग से ले कर उदर के निचले भाग तक कहीं भी हो सकती है। काल पुरुष की कुंडली में पंचम और सप्तम भाव भी शामिल हैं। इसलिए इन भावों के स्वामी और कारक ग्रहों का निर्बल होना उदर में उस स्थान को दर्शाते हैं, जिस भाग में हर्निया होती है। हर्निया रोग आंत के उदर की दीवार के कोटर से बाहर निकलने से होता है, जिसे आंत का उतरना भी कहते हैं। उदर की दीवार की निर्बलता के कारण आंत अपने स्थान (कोटर) से बाहर निकल कर नीचे की तरफ उतर जाती है। ऐसा उपर्युक्त भाव, राशि एवं ग्रहों के दुष्प्रभाव और निर्बलता के कारण होता है। जब इन ग्रहों की दशा-अंर्तदशा रहती है और संबंधित ग्रह का गोचर विपरीत रहता है, तो हर्निया, अर्थात 'आंत का उतरना' रोग होता है।
मेष लग्न : मंगल षष्ठ भाव में शनि से दृष्ट या युक्त हो, बुध, शुक्र सप्त भाव में हों और राहु से दृष्ट हों, सूर्य अष्टम भाव में रहे, तो हर्निया रोग नाभि के निचले भाग में होता है।
वृष लग्न : शुक्र अष्टम भाव में हो, गुरु षष्ठ भाव में केतु से युक्त हो, मंगल द्वादश भाव में हो, बुध सूर्य से अस्त हो कर पंचम भाव में हो, तो हर्निया के कारण उदर की शल्यचिकित्सा होती है।
मिथुन लग्न : बुध अष्टम भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट, गुरु षष्ठ भाव में अस्त, सूर्य सप्तम भाव में, मंगल एकादश, द्वादश या लग्न में स्थित हो, तो आंत उतरने का रोग होता है।
कर्क लग्न : बुध लग्न में, सूर्य द्वादश भाव में, चंद्र षष्ठ, या अष्टम भाव में केतु से युक्त या दृष्ट हो, मंगल अष्टम भाव में शनि के प्रभाव में हो, तो आंत उतर कर अंड कोश में घुस जाने से यह रोग होता है।
सिंह लग्न : सूर्य लग्नेश पंचम भाव में हो, बुध षष्ठ भाव में शनि से दृष्ट, या युक्त हो, शुक्र सप्तम भाव में केतु से युक्त हो, मंगल भी सप्तम भाव में शतभिषा नक्षत्र म ें हा,े ता े जातक की नाभि क े कछु नीचे हर्निया हो जाता है।
कन्या लग्न : लग्नेश और षष्ठेश दोनों सप्तम भाव में हों और मंगल एकादश भाव में, गुरु दशम, या षष्ठ भाव में, केतु षष्ठ भाव में हो, तो जातक को नाभि हर्निया होता है। नाभि के पास पेट फूला रहता है, जिसकी बाद में शल्यचिकित्सा करवानी पड़ती है।
तुला लग्न : लग्नेश सप्त भाव, या षष्ठ भाव में हो, मंगल लग्न में हो, गुरु षष्ठ भाव में बुध से युक्त हो, केतु सप्तम भाव (भरणी नक्षत्र) में हो, तो जातक को हर्निया रोग होता है, जिससे
जातक की मृत्यु भी हो सकती है।
वृश्चिक लग्न : लग्न का उदय अनुराधा नक्षत्र में हो, मंगल षष्ठ भाव में भरणी नक्षत्र में रहे और गुरु से युक्त हो, बुध लग्न में उदय रहे, शुक्र सूर्य से अस्त रहे, तो कई बार पेट में चोट लगने के कारण जातक के उदर की दीवारों में निर्बलता आ जाती है, जिससे जातक को हर्निया जैसे रोग का शिकार होना पड़ता है।
धनु लग्न : शुक्र सप्तम भाव में राहु या केतु से युक्त, या दृष्ट हो, बुध अष्टम में, शनि षष्ठ भाव में मंगल से युक्त हो, लग्नेश अष्ट भाव में सूर्य से अस्त हो, तो जातक वंक्षण हर्निया होने से तकलीफ पाता है।
मकर लग्न : गुरु लग्न में, बुध, केतु से युक्त षष्ठ भाव में, शनि अष्टम भाव में बाल अवस्था में सूर्य से अस्त हो, मंगल द्वादश भाव में हो, तो जातक को हर्निया होता है।
कुंभ लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में गुरु से युक्त हो, बुध सप्तम भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट हो, शुक्र अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हो और लग्न पर मंगल की दृष्टि होने से हर्निया रोग होने की संभावना रहती है।
मीन लग्न : शनि और शुक्र षष्ठ भाव में युति बना रहे हों और राहु-केतु के दुष्प्रभाव में हों, मंगल द्वादश या लग्न भाव में हो, बुध-चंद्र पंचम भाव में होने से हर्निया रोग होता है।
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अश्वगंधा

अश्वगंधा, कहने को तो एक जंगली पौधा है किंतु औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे आयुर्वेद में विशेष महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है अश्व अर्थात् घोड़ा, गंध अर्थात् बू अर्थात् घोड़े जैसी गंध। अश्व गंधा के कच्चे मूल से अश्व के समान गंध आती है इसलिए इसका नाम अश्वगंधा रखा गया। इसे असगंध बराहकर्णी, आसंघ आदि नामों से भी जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे बिटर चेरी कहते हैं। विश्व में विदानिया कुल के पौधे स्पेन, मोरक्को, जोर्डन, मिश्र, अफ्रीका, पाकिस्तान, भारत तथा श्रीलंका, में प्राकृतिक रूप में पाये जाते है। भारत में इसकी खेती 1500 मीटर की ऊँचाई तक के सभी क्षेत्रों में की जा रही है। भारत के पश्चिमोत्तर भाग राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, उ.प्र. एंव हिमाचल प्रदेश आदि प्रदेशों में अश्वगंधा की खेती की जा रही है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में अश्वगंधा की खेती बड़े स्तर पर की जा रही है। इन्हीं क्षेत्रों से पूरे देश में अश्वगंधा की माँग को पूरा किया जा रहा है।इसका झाड़ीदार क्षुप लगभग 2 से 4 फुट बहुशाखा युक्त होता है। पत्ते सफेद रोमयुक्त अखंडित अंडाकार होते हैं। फूल पीला हरापन लिए चिलम के आकार के होते हैं एवं शरद ऋतु में निकलते हैं। फल गोलाकार रसभरी के फलों के समान होेते हैं। फल के अंदर कटेरी के बीजों के समान पीत-श्वेत असंख्य बीज होते हैं। इसका मूल ही प्रयुक्त होता है, जिसे जाड़े में निकालकर छाया में सूखाकर सूखे स्थान पर रखा जाता है। बरसात में इसके बीज बोए जाते हैं।जड़ी-बूटियों की दुकान या पंसारी की दुकान से मिलने वाले शुष्क जड़ छोटे-बड़े टुकड़ों के रूप में मिलती है। यह प्रायः खेती किए हुए पौधे की जड़ होती है। जंगली पौधे की अपेक्षा इनमें स्टार्च आदि अधिक होता है। आंतरिक प्रयोग के लिए खेती वाले पौधे की जड़ तथा लेप आदि जंगली पौधे की जड़ से ठीक रहती है। अश्वगंधा एक बलवर्धक रसायन है। इसके इस सामथ्र्य के चिर पुरातन से लेकर अब तक सभी चिकित्सकों ने सराहना की है। आचार्य चरक ने असगंध को उत्कृष्ट बल्य माना है। सुश्रुत के अनुसार यह औषधि किसी भी प्रकार की दुर्बलता कृशता में गुणकारी है। पुष्टि-बलवर्धन की इससे श्रेष्ठ औषधि आयुर्वेद के विद्वान कोई और नहीं मानते। चक्रदत्त के अनुसार अश्वगंधा का चूर्ण 15 दिन दूध, घृत अथवा तेल या जल से लेने पर बालक का शरीर पुष्ट होता है। अश्वगंधा की प्रशंसा में विद्वानों का मत है कि जिस तरह वर्षा होने पर सुखी जमीन भी हरी हो जाती है और फसलों की पुष्टि होती है वैसे ही इसके सेवन से कमजोर, मुरझाये शरीर भी पुष्ट हो जाते हैं। यही नहीं सर्द ऋतु में कोई वृद्ध इसका एक माह भी सेवन करता है, तो इसके लिए बहुत फायदेमंद होता है। यह औषधि मूलतः कफ-वात शामक, बलवर्धक रसायन है। अश्वगंधा को सभी प्रकार के जीर्ण रोगों, क्षय शोथ आदि के लिए श्रेष्ठ द्रव्य माना गया है। यह शरीर धातुओं की वृद्धि करती है एवं मांस मज्जा का शोधन करती है। मेधावर्द्धक तथा मस्तिष्क के लिए तनाव शामक भी। मूर्छा, अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, शोध विकार, श्वास रोग, शुक्र दौर्बल्य, कुष्ठ सभी में समान रूप से लाभकारी है। यह एक प्रकार के कामोत्तेजक की भूमिका निभाती है परंतु इसका कोई अवांछनीय प्रभाव शरीर पर नहीं देखा गया है। यह ज़रा नाशक है। एजिंग को यह रोकती है व आयु बढ़ाती है। एक शोध से पता चला है कि अश्वगंधा की जड़ में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जिसमें कैंसर के ट्यूमर की वृद्धि को रोकने की पर्याप्त क्षमता होती है। इस जड के जलीय एवं अल्कोहलिक फाॅर्मूला का शरीर पर कम विषैला प्रभाव पड़ता है एवं उसमंे ट्यूमर विरोधी गुण प्रबल रूप से पाए जाते हैं। ऐसी प्रबल संभावना है कि अश्वगंधा कैंसर से छुटकारा दिलाने में बहुत सहायक है। यदि अश्वगंधा का सेवन लगातार एक वर्ष तक नियमित रूप से किया जाए तो शरीर से सारे विकार बाहर निकल जाते हैं। समग्र शोधन होकर दुर्बलता दूर हो जाती है व जीवन शक्ति बढ़ती है। सर्दी में इसका सेवन विशेष लाभकारी है। यूनानी में अश्वगंधा को वहमनेवरों के नाम से लाना जाता है। हब्ब असगंध इसका प्रसिद्ध योग है। इसका गुण बाजीकरण, बलवर्धन, शुक्र, वीर्य पुष्टिकर है। महिलाओं को प्रसवोपरांत देने से बल प्रदान करता है।अश्वगंधा शरीर में सात्मीकरन लाकर जीवनी शक्ति बढ़ाने तथा शक्ति देेने वाले कायाकल्प के लिए चिर प्रचलित रसायन है। यह शरीर के सारे संस्थानों पर क्रियाशील माना गया है।
विभिन्न रोगों में अश्वगंधा का उपयोग आयुर्वेद में विस्तृत उल्लेख प्राप्त है। उष्ण वीर्य एवं मधुर विपाक वाला यह पौधा वात, कफ शामक तथा नाड़ी बल्य, दीपन, बृहण एवं श्रेष्ठ वाजीकरण होता है।
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