Wednesday 18 November 2015

अचानक धनी बनने के योग

लोग अचानक धनी बनने का ख्वाब पाल लेते हैं। उनमें बिना अधिक श्रम किए समृद्ध होने की लालसा इतनी प्रबल होती है कि वे सट्टा, लाटरी, कमोडिटी या फिर शेयर मार्केट की ओर झुक जाते हैं। इसमें से अधिकांश के साथ हालत ये तक हो जाती है कि वे अपनी पूरी जमा-पूंजी, चल-अचल संपत्ति बेच-बाच कर सारा धन अपनी इच्छा पूर्ति के लिए लगा देते हैं। और ज्यादातर मामलों में परिणाम मनोनुकूल नहींं मिल पाता है। अधिकांश इस शौक के पीछे बर्बाद तक हो जाते हैं वहीं कुछ ऐसे भी कमजोर दिल वाले होते हैं, जिनको आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता सूझता नहींं है। कुछ उन चुनिंदा लोगों को भारी लाभ भी लेते पाया, जिन्होंने शेयर, सट्टा, लाटरी अथवा कमोडिटी आदि अनिश्चित धन लाभ संयोगों में ज्योतिषीय फलादेश के अनुसार निवेश का साहस किया। किंतु जिन्होंने पूर्णतया अपने ज्ञान, अनुभव के आधार ऐसा जोखिम उठा लिया, किस्मत उनके साथ नहींं रही परिणामत: उन्हें भारी हानि से रूबरू होना पड़ा। हमें उन ज्योतिषीय कारणों को जरूर जानना चाहिए, जिससे एक अनाड़ी और नौसिखिया इंसान भी अगर शेयर मार्केट आदि जैसे अस्थिर व अनिश्चित संभावना वाले माध्यमों से लाभ कमाने उतरता है तो उसे भारी लाभ मिल जाता है, जबकि एक पूर्ण प्रशिक्षित एनालिस्ट की राय भी फेल साबित हो जाती है। वस्तुत: हमें एक बात भली-भांति जाननी चाहिए कि सट्टा, लाटरी, अथवा शेयर मार्केट से लाभ-हानि केवल बाजार के अनुसार नहींं चलता वरन इसका अधिक संबंध व्यक्ति विशेष की किस्मत से है। यदि किसी जातक की कुण्डली में धनेश-एकादशेश, लग्नेश, चतुर्थेश, पंचमेश, भाग्येश यानि नवमेश की स्थिति मजबूत हो, तो वह जीवन भर ऐसे अप्रत्याशित लाभ की प्रत्याशा अवश्य कर सकता है। ध्यान रहे कि लग्नेश, धनेश, एकादशेश नवमेश, दशमेश अथवा चतुर्थेश व पंचमेश की दशा-अंतरदशा चल रही हो, संबंधित स्वामियों की स्थिति मजबूत हो, ग्रह उच्च के हों, गोचर की सिचुएशन अच्छी हो, साढ़ेसाती या ढैया की स्थिति न हो, क्रूर व पापी ग्रहों का संयोग न उपस्थित हो या फिर चंद्रमा बली हो तो ऐसी कुण्डली वाला जातक सट्टा-लाटरी-शेयर मार्केट आदि में बहुत धन अर्जित करने में सफल रहता है। इसके अलावा सट्टा–लाटरी-शेयर आदि में लाभ कमाने की अच्छी अनुकूल परिस्थिति तब बनती है जबकि जातक की जन्म कुण्डली में अष्टम भाव बेहद मजबूत हो। इस दशा में एक और बात काबिल-ए-गौर है कि ऐसा मजबूत अष्टम भाव वाला जातक विरासती संपत्ति का भी दावेदार बनता है। हमारी कोशिश ये होगी कि अगले कुछ आलेखों में हम इस विषय को कुछ अधिक गहराई से उठाएं ताकि जो जातक ऐसे अनिश्चित लाभ की संभावना वाले क्षेत्रों से धनार्जन करना चाहते हैं, उन्हें इसका वास्तविक फायदा मिल सके।
Pt.P.S.Tripathi
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Tuesday 17 November 2015

बुध महादशा में अंतर्दशा का फल



बुध-यदि जन्मकुंडली में बुध कारक हो, उच्च राशि, स्वराशि, मित्रक्षेत्री और अपने वर्ग में बलवान हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करता है । जातक इस काल में निरोगी और स्वच्छ देहधारी बना रहता है, बुद्धि का विकास और उच्च शिक्षा की प्राप्ति होती है । परीक्षार्थी थोड़े श्रम से ही परीक्षा में उच्चतम अंक लेकर उत्तीर्ण होते हैं । गणित एवं विज्ञान के विद्यार्थी विशेषत: लाभान्वित होते हैं । जातक का चतुर्दिक व्यवसाय फैलता है, विशिष्ट ज्ञान, परिजनों से मिलन व प्रत्येक कार्य में सफलता तथा सत्ता में सम्मान मिलता है। अकारक, नीव, अस्त व वक्री बुध की अन्तर्दशा में विद्यार्थियों को विशेषत: अशुभ फल मिलते हैं, विविध व्याधिया पीडित करती हैं, स्वजनों से विरोध, किए गए कार्यों में असफलता तथा वातशूल से शारीरिक पीडा मिलती है । कोर्ट-क्चहरी में केसों के निपटान में धन व्यय होता है।
केतु-यदि केतु शुभ राशि का व शुभ ग्रहों से युक्त हो तो अपनी अन्तर्दशा आने पर जातक को अल्प धन का लाभ, अल्प विद्या, कीर्ति क्या चौपायों से लाभ दिलाता है। जातक भ्रातृवर्ग से स्नेह रखता है और उनको सहयोग भी देता है, तीर्थ स्थानों में प्रभुदर्शन के अवसर जाते है। अशुभ केतु की अन्तर्दशा में जातक की चित्तवृत्ति अस्थिर होकर मन में मलिनता आ जाती है । विद्यार्थी वर्ग अथक श्रम करने पर भी परीक्षा उतीर्ण करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । बन्धु-बांधवों से कलह होती है, मुकदमों में हार तथा शत्रु प्रबल होकर कष्टदायक होते हैं । अग्नि, विष, शस्त्रादि से कष्ट, समाज में निरादर, उदर पीडा, हैजा, चेचक और मन्दाग्नि रोग से पीडा निलती है ।
शुक्र-यदि शुक्र लग्न, केन्द्र, त्रिकोण व आय स्थान में होकर उव्यदि बल से युक्त हो तो शुक्र की अन्तर्दव्रग़ जाने पर जातक विदृप्नर्थी हो तो साधारण श्रम करने पर ही परीक्षा में उत्तम अंकों से उतीर्ण होता है । जातक विद्यानुरागी हो तो ख्याति अर्जित करता है । धर्म-पराया होकर कथा-कीर्तन में भाग लेकर पुण्य संचय कर लेता है, इष्टसिछि, भूमिलाभ एव घनाजिंत कर लेता है । शुभ और मंगल कार्य होते हैं, जातक शासन-सत्ता में प्रतिष्ठा पाकर विद्धत् समाज में पुरस्कार प्राप्त करता है। अनेक उच्च वाहनों का स्वामी, अतिथि, दीन, सेवक तथा स्त्रियों को पूजता है । अशुभ शुक की अन्तर्दशा से कामावेग बढ़ जाता है, मलिन जनों की संगति समाज में बदनामी का कारण बनती है। यदि अशुभ शुक दशानाथ से अष्टम हो तो
स्त्री का मरण अथवा मरणतुल्य कष्ट, अष्टमेश हो तो स्वय को मृत्युतुल्य कष्ट अथवा दुर्घटना भय, बिग्ररोवेदना, प्रमेह, सर्दी-जुकाम आदि रोग होते है।
सूर्य-यदि सूर्य कारक, वर्ग में वली, केन्द्र या त्रिक्रोण में स्थित एव शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो इसकी अन्तर्दशश्वा में जात्तक के व्यवसाय में वृद्धि होती है, पैतृक सम्पति की प्राप्ति होती है, थोडे प्रयत्न से इष्टसिद्धि होती है, स्वर्ण, रजत क्या रत्नाभूषाग के व्यवसाय से लाभ मिलता है, राजकीय कर्मचारियों को पद व वेत्तनवृछि, स्थान परिवर्तन करना पड़ता है, पली के कारण मन से उडेत्रा उत्पन्न होता है। यर में मान्हों१क कार्य होते हैं, तीर्थाटन और सत्कथा श्रवना क्या विद्वानों, साधुओं का सत्संग प्राप्त होता है । अशुभ सूर्य की अन्तर्दशा में जातक में क्रोधावेग बढ़ जाता है, जिसके कारण इंष्यएँ, द्वेष की उत्पति होती है । चोर, अग्नि व शस्त्र से पीडा मिलती है, देह में पित्ताथिक्य के कारण अनेक रोग हो जाते हैं।
चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा पूर्ण वली, उच्च राशि आदि से शुभ ग्रहों से युक्त व दृष्ट और कारक हो तो अपनी अन्तर्दशा में शुभ फल ही प्रदान करता है । इस दशा में जातक की प्रवृत्ति पढने-लिखने और ज्ञान-प्ररित में रहती है । प्राकृतिक सौन्दर्य का रसिया, कल्पनालोक में विचरण करने वाला, कता-कविता अथवा काव्य की रचना करने वाला क्या इनके द्वारा धनार्जन करने जाता होता है। अशुभ चन्द्रमा की अनादेज्ञा में जातक से कामवासना बढ़ जाती है, विद्यार्थीगण खेल-तमाशे में समय नष्ट करने के कारण असफल हो जाते है, स्वियों को गर्भपात का भय बढ जाता है, प्रेम-प्रसंनंगें में असफलता क्या अपयश जिता है । जल में डूबने का भय क्या किसी पशु द्वारा आघात सिलने की अश्चाशंका रहती है। दाद, छाजन, श्वेत कुष्ठ, स्वास रोग, धातु रोग, बजता, जुकाम आदि रोग पीडा पहुंचाते है।
मंगल-बलवान, कारक एव शुभ पाल की अन्तर्दशब्ब के समय जो जातक सेना, पुलिस अथवा कृषि कर्न से लगे हो, वे विशेष लाभान्वित होते है। सैनिकों को पद में वृद्धि, सेन्य सेवा पदक आदि की प्राणि होती है । नवीन गुह, भूति, पशुधन में वृद्धि, कृषि कार्यों में लाभ, न्यायालय से चल रहे को में विजय मिलती है। पुत्रोत्पत्ति से हर्ष, बान्धवों से स्नेह तथा साहसिक कार्यों से समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती है। अशुभ मंगल की अन्तर्दशा में जातक की बुद्धि अधर्मरत्त हो जाती है । अधिक भोजन विशेषत्त: निरामिष भोजन करने से रुचि, जादू-टोना करने में स्वय को अधिकारी विद्वान समझ हानि, हिंसक कयों के प्रति रुझान हो जाता है । व्यर्थ तर्क-वितर्क अथवा वितण्डावाद में सफलता मिलती है। कामावेग इतना बढ़ जाता है कि जातक छोटे-छोटे
बच्ची और पशुओं तक को अपनी वासनापूर्ति के लिए प्रयुक्त कर लेता है । इस दशा में प्राय निराशा, कलह और अपयश ही मिलता है।
राहु-यदि राहु शुभ अवस्था में हो तो इसकी अन्तक्शा आने पर जातक परम मुख काभ प्राप्त कर लेता है । राजनीति में प्रवेश कर चुनाव जीतता है, मन्दी जेसे पद को सुशोभित करता है तथा शासन-सता में आदरणीय बन जाता है। उतम विद्या प्राप्त डोर्ता  अनेक प्रतिष्ठित जनों से मेल-मिलाप बढता है, मित्र वर्ग एव अशिजनों से द्रव्यलाभ होता है, उद्योग-व्यापारादि की वृद्धि तथा नौकरी से उन्नति मिलती है, राजकीय सम्मान तथा पारितोषिक प्राप्त होता है। अशुभ राहु की अन्तर्दशा में जातक को किसी भी कार्य में सफलता नहीं निलती । पत्नी, सन्तान एव इष्टधित्गे से व्यर्थ कलह एव इनके द्वारा चित को परिताप पहुंचता है। पदवृद्धि में अनावश्यक विलय, अधिकारी वर्ग की अप्रसन्नता, कार्य-व्यवसाय में शिथिलता एव हानि होती है । देह में वातवृछि के कारण पित्त, उदर शूल, अणडकोष वृद्धि व यया आदि रोग होते हैं।
बृहस्पति-बलवान और शुभ बृहस्पति की अनाईज्ञा व्यतीत होने पर जातक की बुद्धि सात्विक तथा धर्म-कर्म में उसकी आस्था बढ़ जाती है। यल-याग, पूज़ज्वा-पाठ, स्वाध्याय, गो-अतियि-बाह्ममृगृ की सेवा में मन रमता है । उच्च एव उतम विद्या की प्राप्ति होती है । गोगा, बिज्ञान एव कानून के विद्यार्थी विशेष सफल होते है। किसी शुभ कार्य के कारण लोचन-समाज में अपमान बढता है। लाटरी, रेस, सट्टे आदि से अनायास घन प्राप्त होता है। जातक का जीवन ऐश्वर्यमय बीतता है। अशुभ वृहस्पति की अन्तर्दशब्ब जाने पर जातक के मन में विकलता बनी रहती है, पली से मनोमातिन्य बढ़ता है क्या बियोग होता है। इष्ट-प्रित्रों से व्यर्थ का विवाद तथा उच्चाथिकक्चरियों के कोप का भाजन होना पड़ता है। यदि बृहस्पति मारकेश से सम्बरिघत हो तो मृत्युसम कष्ट एव कामता, पीलिया, स्वरभंग आदि से देह को पीडा हिलती है।
शनि-यदि चुघ महादशा में शुभ और बलवान शनि की अन्तर्दशा चल रही हैं तो जातक का चित किसी भी अवस्था में मलिन अथवा अवसादग्रस्त नहीं हो पाता जातक संदेय धर्म-कर्म में लीन तथा व्रतोद्यापन करता रहता है । दीन-रानियों की सहायत करने में प्रसन्नता का अनुभव करता है। चिक्खि। के क्षेत्र में विशेष प्रगति होती है उद्योग-धनी में अच्छा लाभ मिलता है । निम्न कोटि के लोग लाभकारी रहते हैं । लोहा कोयले, पीतल आदि घातुओँ के व्यवसाय में अच्छा लाभ मिलता है। अशुभ शनि की अन्तर्दशा में जातक उदास और निराश हो जाता है । विद्योपार्ज में उसका पन नहीं लगता, सन्तान घर से भाग जाती है, इसके कारण मन को सता पहुंचता है । धर्म-कर्म की हानि, देह में वेदना, मन में विकलता तथा एकान्तवास की इन्द्र
बलवती होती है । जातक का मन रोने को करता है, अनेक यातनाएं सहते-सहते स्वभमृ में रुक्षता और उग्रता आ जाती है, मोहभंग हो जाता है ।

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शनि महादशा में अंतर्दशा का फल

शनि-यदि शनि उच्च राशि, स्वराशि, शुभक्षेत्री एव शुभ यहीं से युक्त और दुष्ट हो तो अपनी महादशा और अन्तर्दशा में राजयोगकारक बनता है। वर्गोंत्तपी हो तो जातक को जीवनपर्यन्त सुख और वैभव से हीन नहीं होने देता । हर प्रकार के वाहन,उच्च कोटि के आवास तथा अनेक दास-दासियां सेवा को उपलब्ध रहती है । ग्रामसभा,पालिका आदि का सदस्य बनकर प्रधान पद पा लेता है। खालों, पशुओं, तेल, कोयला, लोहा और वैज्ञानिक उपकरणों के व्यवसाय से लाभ मिलता है। अशुभ शनि की अंतर्दशा चल रही हो तो हर कार्य से विफलता मिलती है और कार्य-व्यवसाय में हानि होती है । बन्धु-बान्धवों से बैर बढता है, स्त्री-पुत्र और मृत्यु द्वारा कष्ट मिलता है । जातक में ईष्यों और द्वेष की भावना बढ जाती है, नीच जनों की संगति से लोकोपवाद, एकान्तवास करने की इच्छा बलवती हो जाती है। दशा का आदिकाल जहां अति कष्टदायक होता है वहीं दशा के अन्त में कुछ सुखानुमूति भी होती है।
बुध-शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहयुफ्त बुध की अन्तर्दशा चले तो जातक निर्मल मति और धर्मशील हो जाता है । साधु-सन्यासियों और विद्वानो का सत्संग होता है । नौकरी में ही पद और वेतन में वृद्धि होती है । स्वास्थ्य अधिकार ठीक ही रहता है, लेकिन यदा-कदा कफ आदि से पीडा हो ही जाती है । आप्तजनों और बन्धुवर्ग का सहयोग मिलता है । रसीले व स्निग्ध पदार्थ भोजन के लिए मिलते हैं । विवेक, वृद्धि व कौशल से शत्रुओं का पराभव होता है। प्राय: शनि की अशुभ दशा से पीडित जातक सुख और शान्ति का अनुभव करते हैं ।यदि बुध अशुभ प्रभावी हो तो अपनी अंतर्दशा में जातक को शत्रु से भयभीत तथा अज्ञात पीडा से विकल रखता है । जातक इतना उद्विग्न हो जाता है कि उसे सुस्वादु भोजन और रमणीक स्थान तथा प्रेममय वातावस्पा भी रुचिकर नहीं लगता।
केतु-यदि केतु शुभ ग्रह से युक्त या दुष्ट होकर योगकाकरक ग्रह से सम्बन्ध करता हो तो शनि महादशा में अपनी अन्तर्दशा आने पर जातक को लेशमात्र ही शुभ फल देता है। जातक का कार्य-व्यवसाय शिथिल पड जाता है तथा किए गए श्रम का पारिश्रमिक बहुत थोडा मिलता है । नौकरी से पद एवं वेतनवृद्धि में विघ्न जाते है, नीव जनों का संग करता है, भोजन की व्यवस्था दूसरों पर निर्भर रहती है । अनेक रोग घेर लेते है और पूर्चार्जित धन चिकित्सा पर व्यय हो जाता है। वायु रोग, सर्वाग शूल, जिगर-तिल्ली, कुक्षिपीड़ा एवं मन्दाग्नि रोग से देहपीड़ा मिलती है। जातक पूर्व में मिले बुध अन्तर्दशा के शुभ फलों को याद करता है। निर्बल केतु की अन्तर्दशा से कुछ शुभ फल अवश्य अनुभव में आते है ।
शुक्र-शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहयुक्त व दृष्ट एव केन्द्र व त्रिकोण में स्थित शुक्र की अंतर्दशा हो तो जातक के व्यवसाय में वृद्धि होती है तथा प्रचुर धन कमाता है। नौकरी में हो तो पदवृस्जि होती है। कलाकार, नाटककार, अपनी कला के माध्यम से धन और मान अजित कर लेते है। उच्चधिकारियों का प्रिय बन उनके ह्रदय में अपना स्थान बना लेता है, किसी नवविवाहिता से प्रेम-प्रसंग बन सकता है, ग्राम-समाज में अवस्था एव स्थिति के अनुरूप आदर-सत्कार प्राप्त होता है। अशुभ शुक की अन्तर्दशा में जातक से कामवासना अत्यधिक बढ़ जाती है, पस्त्रीगमन, वेश्यागमन, रेस, सट्टा, लाटरी आदि में संचित धन व्यय कर दरिद्र हो जाता है । खाने के भी लाले पड़ जाते है । यहा तक कि अपनी क्षुघापूर्ति के लिए भिक्षा का सहारा लेता है ।
सूर्य-शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, षडवलयुक्त सूर्य की अंतर्दशा चले तो जातक वैभवपूर्ण जीवनयापन के साधन जुटा लेता है । धन-धान्य की वृद्धि और वाहन, वस्त्रालंकार तथा पशुधन प्राप्त होता है। भाषाविद इस दशाकाल में निश्चित रूप में मान-सम्मान एव धनार्जन कर लेते है । शनि और सूर्य परस्पर नैसर्गिक शत्रु हैं, इसलिए अशुभ सूर्य की दशा में जातक को घोर कष्ट सहन करने होते हैं । कठिन परिश्रम करने वाले विद्यार्थी कठिनता से उत्तीर्ण होने योग्य अंक प्राप्त कर पाते हैं, अन्यथा अनुत्तीर्ण ही होना पड़ता है। व्यर्थ में लोगों से झगडा होता है, पिता से अनबन और पैतृक सम्पत्ति से वंचित होने से मन सन्तप्त होता है । काला ज्वर एवं मन्दाग्नि रोग से पीडा मिलती है ।
चन्द्रमा-शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहों विशेषत: बृहस्पति से दुष्ट या बृहस्पति से केद्रस्थ बली चन्द्रमा की अंतर्दशा चलती है तो जातक को आरोग्य लाभ मिलता ,है सौभाग्य में वृद्धि होती है। प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण हो उच्च पद या लेता है, माता का विशेष और पिता का स्वल्प सुख मिलता है । स्त्री और स्थान का सुख मिलता है एव इनके कारण यश में वृद्धि होती है । सन्तानोत्पत्ति का उत्सव धूमधाम से मनाकर लाभ अर्जित करता है। अशुभ और क्षीण चन्द्रमा की दशा में स्त्री-पुत्र से कलह होती है, बन्धुबर्ग एव इष्ट-मित्रों से अनबन, वासनाजनित कर्मों के कारण लोकोपवाद एव सम्मान की हानि होती है। मानव को अपना जीवन भार लगने लगता है । कुसंगति के कारण शुकक्षय, मधुमेह, स्वप्नदोष, वात के कारण गर्दन में जकडन से पीडा तथा शीत ज्वर आदि व्याधिया देह को कृशकाय बना देती हैं ।
मंगल-यदि मंगल कारक, उच्चादि बल एवं शुभ ग्रह से युक्त एव दृष्ट हो तो अपनी अन्तर्दशा के आरम्भ में शुभ फल देता है । सैन्य और पुलिसकर्मी इस दशाकाल में लाभान्वित होते है । पदोन्नति मिलती है, घोषित संशोधित वेतन का पिछला पैसा मिल जाता है । कृषि कार्य, भ्रातृवर्ग से ताभ जिता है। नए-नए उद्योग लगाकर व्यापार में वृद्धि कर लेता है। बुद्धि भ्रममय और क्रोघावेगपूर्ण हो जाती है और किए गए कार्यो में सफलता सन्देहास्पद रहती है। जब पाल अशुभ, नीव या अस्त हो तो मन में विकलता बनी रहती है, कार्य-व्यवसाय में अवनति, राज-सम्मान से अपमान और निरादर होता है । लोगों से व्यर्थ में झगड़ा-टंटे होते है, न्यायालय में चल रहे केसों में हार होती है, पदोन्नति होते-होते रुक जाती है। रक्तविकार, रक्तचाप और भगंदर आदि से पीडा क्या विद्युत व विमान दुर्घटना में चोट लगती है। कोई-न-कोई रोग-व्याधि जातक को घेरे रहती है।
राहु-यदि शनि की महादशा में राहु की उपदशा चल रही हो तो मिश्रित फल प्राप्त होते है । जातक को आकस्मिक रूप से धन लाभ होता है । सट्टा, लाटरी, घूतकीड़ा से लाभ होता है । देव-बाह्मण के प्रति जातक थोड़ी श्रद्धा रखता है तथा दान-धर्म की राह पर चलता है |अशुभ राहु की अन्तर्दशा में अनेक कष्ट झेलने पड़ते है। कार्य-व्यवसाय समाप्तप्राय हो जाता है, वात वेदना से सर्वाग शूल होता है और जातक ऐसे जीवन की अपेक्षा मृत्यु को अच्छा समझता है। मन की व्यथा के कारण इधर-उधर भटकता है कुपथ्य के कारण मन्दाग्नि और अपच जैसे रोग हो जाते हैं, जो अनेक व्याधियों के जनक बन जातक को सराय देते है। सारांश यह है कि इस दशा में जातक एक दृष्ट से छुटकारा नहीं पाता कि दूसरा प्रारम्भ हो जाता है।
बृहस्पति-शुभ बृहस्पति की अंतर्दशा आने पर जातक राहु की अंतर्दशा के दुखों को विस्मृत कर सुख की सास लेता है। जातक की वृति धार्मिक और सत्कर्मो की ओर तथा, बुद्धि सात्विक बनती है। वह तन्त्र सरीखे गूढ़ विषय का ज्ञान प्राप्त करता है अथवा उसके प्रति आकर्षित होता है। पुत्राथी को पुत्र, धनार्थी को धन व ज्ञानार्थी को ज्ञान प्राप्त हो जाता है। घर में अनेक मंगल कार्य सम्पन्न होते है । जातक सत्कर्मी होकर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। पापी, बलहीन, अशुभ प्रमापी बृहस्पति की अन्तर्दशा में सन्तानबाधा, पत्नी से वियोग, स्थानभ्रष्टता, पदभ्रष्टता आदि फल मिलते हैं । किसी प्रियजन की मृत्यु के समाचार से मन को सन्ताप, कर्म हानि, विदेशवास तथा कोढ़ और चमड़ी के रोगों से देहपीड़ा मिलती है ।
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बृहस्पति महादशा में अंतर्दशा का फल

बृहस्पति-यदि बृहस्पति उच्च राशि, स्वराशि आदि में केन्द्र या त्रिकोनास्थ होकर शुभ ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो अपनी महादशा में अपनी अन्तर्दशा के समय जातक को अतीव शुभ पाल देता है । जातक में धर्म के प्रति रूचि, वेद-वेदान्त का अध्ययन, अच्छे और धर्म सम्बन्धी साहित्य की रचना, ब्राहम्ण तथा अतिथि की सेवा, राजकीय मान-सम्मान, उच्चधिकारियों की कृपा, पद में विशेष वृद्धि, प्रत्येक कार्य में सफलता, पुत्रोत्सव व विवाहोत्सव तथा अन्य मांगलिक कार्य, गौ-पशुधन से वृद्धि तथा किए कार्यों में सफलता मिलती है। यदि बृहस्पति नीच राशि, अस्त, दुष्ट स्थानाधिपति एवं पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो जातक की मति मारी जाती है, स्व्कर्मों से धन-मान-प्रतिष्ठा को समाप्त कर लेता है । पत्नी से कलह, पुत्र से सन्ताप तथा देहपीड़ा मिलती है । से धन-मान मिलता है । विलासिता की सभी सामग्री उपलब्ध रहती है । विवाहोत्सव एवं श्वसुर पक्ष से भारी दहेज मिलता है ।कामवासना प्रबल हो जाती है तथा अनेक स्त्रियों से रमण की इच्छा बनती है ।
शनि-यदिं शनि कुण्डली में कारक हो, उच्चादि राशि का, बलवान तथा शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो बृहस्पति की महादशा में अपना अंतर आने पर जातक को स्वास्थ्य सूख एवं शत्रुओं के पराभव से हर्षित करता है । वाहन सूख निलता है। (भले ही वाहन उसका निजी हो अथवा कोई दूसरा अपना वाहन उसकी सेवा में भेज दे है) |पश्चिम दिशा के लोगों से लाभ मिलता है तथा जातक पश्चिमी देशों की यात्रा करता है । धन-धान्य में वृद्धि होती है, कामसुख की इच्छा न के बराबर रहने से पत्नी से कलह बनती है ।
यदि शनि नीच, अस्त, वक्री और पाप प्रभावी हो तो जातक दुष्ट प्रकृति का, व्यभिचारी, वेश्यागमन करने वाला, सुरासेचीं और अभक्ष्य-भक्षी होता है । कार्य-व्यवसाय चौपट हो जाता है | अर्श, मन्दाग्नि व वात रोग घेर लेते है ।
बुघ-यदि बुध पापरहित, बलवान एवं शुभ स्थानस्थ हो तो बृहस्पति महादशा और अपनी अन्तर्दशा में जातक को शनि अन्तर्दशा में मिले कष्टों से छुटकारा दिला देता है और जातक सुख रहता है । धर्माचंरण में लीन जातक कथा-कीर्तन आदि में भाग लेता है, कार्य-व्यवसाय को बढाता है । यदि बुध चन्द्रमा के साथ और मंगल से दुष्ट हो तो उपरोक्त फलों में कभी आ जाती है । शुत्रु उग्र होकर सन्तप्त करते हैं, अन्यथा शासन-सत्ता में मान, आदर, बैश्य समाज से लाभ मिलता है | यदि बुध निचादी राशि का, आरोही और अशुभ प्रभाव में हो तो सट्टा, रेस, जुआ अष्ट व्यसनों से जाले, मित्र वर्ग से धोखा, व्यवसाय से हानि, पशुओं से भय, मस्तिष्क रोग, त्रिदोष जनित रोग, मन्दाग्नि, नाक और स्वास नलिका में शोथ से पीडा मिलती है । इस दशा में कभी-कभी का पशुवाहान सुख व् दूसरी जाती के लोगों से लाभ मिलता है ।
केतु-यदि बृहस्पति महादशा में शुभ केतु की उपदशा चले तो जातक को दूसरे लोगों से सुख और धन मिलता है। विशेषत: मृतक संस्कार के पश्चात ब्रह्म भोज द्वारा अथवा श्राद्धकर्म द्वारा भोजन मिलता है । जातक के प्रवृत्ति नीचकर्मा हो जाती है, मन में अस्थिरता आ जाने के कारण कोई भी कार्य ठीक से और समय पर नहीं हो पाता | यदि केतु अशुभ प्रभाव में हो तो अपने अन्तर्दशा काल में जातक को राज्यदण्ड का भागी, पितृडेषी, इष्ट-पित्रों को धोखा देने वाला, स्वकर्मो से सप्पत्ति को समाप्त करने वाला, शत्रु और चोर-लुटेरों से पीडा पाने वाला वना देता है ( वायुगोला, उदर शूल, अण्डकोष वृद्धि, ह्रदय दोर्बल्य आदि रोग हो जाते हैं और जातक पथभ्रष्ट होकर यहाँ-वहां विचरण करता है|
शुक्र-यदि शुक्र अपने वर्ग में बलवान, शुभ ग्रहों तथा भाग्येश,कर्मेश व लाभेश से युक्त हो तो अपनी अन्तर्दशा में अति उच्च वाहन की प्राप्ति कराता है | राज्यतुल्य वैभव और अधिकार की प्राप्ति होती है । राजनीती में हो तो मंत्री पद प्राप्त होता है । कलापूर्ण कृत्यों में रुचि बढती है | कविता, काव्य, नाटक आदि के पुस्तकों को रचने वाला होता है | अशुभ शुक्र की अन्तर्दशा में पत्नी से कलह और विछोह, श्वसुर पक्ष से हानि की आशंका, शत्रु पक्ष से बैर-भाव में वृद्धि एवं गुप्त आघात का भय, विद्धत् समाज में अनादर, वेश्यागमन आदि फल मिलते है । घातुक्षीणता, नजला, जुकाम, प्रमेह आदि रोग और गलत औषधि प्रयोग से अपमृत्यु का भय बनता है ।
सूर्य-सूर्य उच्चादि राशि मे, वर्ग बलि, शुभ प्रभावी हो तो अपनी अन्तर्दशा में जातक को राज्यसम्मान और वैभव की प्राप्ति कराता है । उच्च वाहन और पद में वृद्धि अथवा वेतन वृद्धि निश्चित रूप में होती है। किए गए कयों का फल तत्काल मिलता है ।उच्चधिकारियों, सांसदों, मंत्रिओं से मेलजोल बढ़ता है तथा इनसे लाभ प्राप्त होता है । पुलिसकर्मी इस दशा में विशेष लाभान्वित होते हैं । पैतृक सप्पत्ति मिलती है, उत्साह में वृद्धि, शत्रुओँ का पराभव होता है । राज-समाज में आदर मिलता है । अशुभ सूर्य की अन्तर्दशा में मन में उद्विग्नता बनती है, कार्य-व्यवसाय में हानि, राज-दण्ड का भय, किए गए कार्यों में असफलता मिलने से हीन भावना बढ़ती है। नेत्रपीड़ा, देह में गरमी से जलन, शिरोवेदना तथा रजोगुण बढ जाता है|
चन्द्रमा-जब शुभ, पूर्ण और बलवान चन्द्रमा की अन्तर्दशा का समय बृहस्पति महादशा से व्यतीत हो तो जातक की वृत्ति अत्यन्त सात्विक हो जाती है, धर्म-कर्म मेँ आस्था रखता है, दीन-दुखियों की सहायता करता है तथा दान देता है । अनेक कलापूर्ण कार्य करता है, ललित कला के माध्यम से धन औंर माल-सामान अर्जित कर लेता है । यह समय जातक को भावनाप्रवणा बनाता है । फलत: साहसिक कयों में जातक सफल नहीं होता, स्वप्न में अधिक अनुराग रखता है और प्राकृतिक सौंदर्य की अनिता अवलोकन और कविता लिखने में समय व्यतीत करता है ।अशुभ चन्द्रमा की अन्तर्दशा में अविवाहित जातक परस्त्रीगमन कर शुक्रक्षय, प्रमेह और स्वप्नदोष जैसे रोग पाल लेते हैं । यती-सती भी इस अवस्था में अपने ऊपर संयम नहीं रख पाते, देह में आलस्य की वृद्धि हो जाती है, मानसिक चिन्ताएं प्रताड़ित करती हैं तथा सर्दी जुकाम, अतिसार, जलगण्ड जैसे रोग हो जाते हैं ।
मंगल-बलवान और शुभ मंगल की अन्तर्दशा में जातक में रजोगुण की प्रधानता रहती है। वह परम साहसी हो जाता है । साहस-भरे कार्यों में स्वनीति और विवेक से सफलता प्राप्त करता है । सैन्य और पुलिसकर्मी तथा वैज्ञानिक इस काल में विशेष उन्नति करते है । परीक्षार्थियों की येन-केन-मरिण ही सफलता निलती है । जातक जनाधार बना लेता है तथा राजनीति में किसी की भी विजय को सुनिश्चित बना सकता है । वाद-विवाद से सफलता मिलती है, उष्ण और चटपटे पदार्थ खाने की रुचि बढती है, भूमि व वाहन का लाभ मिलता है ।
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Sunday 15 November 2015

अंक ज्योतिष के अनुसार नवम्बर माह

21 अक्तूबर से वृश्चिक राशि प्रारम्भ हो जाती है, लेकिन सात दिन तक पूर्व राशि तुला के साथ इसका संधि-काल चलता है, अत 28 अक्तूबर तक यह पूर्ण प्रभाव में नहीं आ पाती|
उसके वाद 20 नवम्बर तक इसका पूर्ण प्रभाव रहता है । फिर आगामी धनु के साथ संधि-काल प्रारम्भ हो जाने के कारण सात दिन तक इसके प्रभाव में उत्तरोतर कमी जाती है।
वृश्चिक जल-त्रिकोण की दूसरी राशि है और इसका स्वामी मंगल (सौग्य) है । इस अवधि में अर्थात् 21 अक्तूबर से 20-28 नवम्बर तक जन्मे व्यक्ति या तो बहुत अच्छे होते हैं या
बहुत बुरे। लगभग इक्कीस वर्ष की आयु तक वे अत्यंत पवित्र ह्रदय और धर्मात्मा होते है |
लेकिन यदि उनकी काम-भावना जाग उठे तो प्राय वे इसकी उलटी दिशा में मुड़ जाते है फिर भी, कुछ अत्यंत उदात्त मनुष्य इस राशि में पैदा हुए हैं । लेकिन सभी अत्यंत भावुक होते है जो उनकी प्रकृति के सभी रूपों की विशेषता है | इस अवधि में पैदा हुए लोगों में असाधारण आकर्षण-शक्ति होती है। वे उत्तम डाक्टर-सर्जन, कष्टहर्ता, उपदेशक और वक्ता बनते हैं। सार्वजनिक जीवन में श्रोताओं पर उनका भारी प्रभाव पड़ता है जिन्हें वे अपनी इच्छानुसार किसी दिशा में मोड़ सकते है । उनका भाषा पर अधिकार होता है, बोलने और लिखने दोनों में, और अपनी वर्णन-शैली में अत्यंत नाटकीय होते हैं । उनकी सबसे वही कमजोरी यही है कि जिसके सम्पर्क में जाते हैं, उसी हैं । फलस्वरूप उन्हें प्राय दूसरों के दोषों के लिए भुगतना होता है ।
यदि वे इस राशि के उच्च धरातल वाले हों तो मानवीय, अत्यंत उदार और होते हैं । संकट काल और आपात स्थिति में शांत और दुढ़-संक्लपी रहते है तथा उन पर पूरा भरोसा किया जा सकता है । व्यापार, राजनीति, साहित्य या जिस ओर भी दिमाग लगायें विचारों में अत्यंत भौतिक होते हैं तथा आम तौर से सफल रहते हैं ।वे भाग्य की विचित्र प्रतिकूलता के भी शिकार होते हैं। प्राय: गलत कहानियों फैलाकर उन्हें बदनाम किया जाता है।शरीर के बजाय वे मन से अधिक लड़ने वाले होते हैं । यदि युद्ध के लिए विवश हो ही जाएं तो अच्छे संगठनकर्ता बनते हैं, लेकिन आम तौर से वे रक्तपात से घृणा करते हैं । कूटनीतिज्ञ या वार्ताकार के रूप में वे उत्तम कार्य करते है । दूसरे लोगों के झगडे निपटाने या शत्रुओं को एक स्थान पर लाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती हैं। वे बिच्छु की तरह डंक भी मार सकते हैं लेकिन थोडा-सा भी दुख प्रकट कर देने पर आम तौर से उनका क्रोध उतर जाता है और वे तत्काल अपने शत्रुओ को क्षमा कर देते हैं । लेकिन अच्छे गुणों की प्रधानता हो या बुरे गुणों की, उनमें दुहरा जीवन जीने की प्रवृत्ति होती हैं…एक दुनिया को दिखाने के लिए, दूसरा अपने लिए। निचले या अधिक भौतिक धरातल पर यह प्रवृत्ति अधिक विकसित होती है । ऐसी दशा में वे एक सुखी पारिवारिक जीवन बिताते भी देखे गए है और एक दूसरी गृहस्थी को भी पालते पाए गए हैं । उच्च धरातल पर यह प्रवृत्ति मानसिक जीवन को अधिक प्रभावित करती है । आम तौर से वे दो धंधे अपनाते हैं और दोनों में सफल होते हैं । देर-सवेर, वे गुप्त विद्याओं में दिलचस्पी लेने लगते हैं । वे शीघ्र अंतर्ज्ञान की शक्ति पा लेते हैं । और प्राय लेखक, चित्रकार, कवि या संगीतज्ञ के रूप में नाम कमाते हैं । वे स्वाभाविक, दार्शनिक और प्रकृति के अध्येता होते हैं । दूसरों के चरित्र को बहुत अच्छी तरह से देख पढ सकते हैं। जो उन्हें मानते हैं, वे आम तौर से प्यार और सराहना करते हैं । लेकिन शायद ही कुछ लोग कभी-न-कभी बदनामी या घोटालों के शिकार होने से बच पाते हों |इस अवधि में पैदा हुए व्यक्तियों की आय के आमतौर से दो साधन होते हैं । प्रारम्भिक वर्षों में उन्हें काफी परेशानियों और कठिनाइयों का सामना करना होता हैं। प्राय एकांतवास भी करना होता है । लेकिन ऐसी परीक्षाओं में उनकी इच्छा शक्ति और महत्वाकांक्षा बढ़ती ही तथा देर सवेर सफलता और यश मिलते हैं ।
जिस धंधे या व्यवसाय में लगे होते हैं, उसी में कठोर परिश्रम करते हैं । कोई कोर कसर नहीं छोडते । उनकी इच्छाशक्ति और संकल्प उन्हें काम करते रहने को प्रेरित करते रहते हैं । उनकी खोज की अच्छी योग्यता होती है और अपने काम में उपाय-कुशल होते हैं । वे अच्छे सस्कारी कर्मचारी बनते हैं । विशेषकर उन्हें कूटनीतिक स्थितियों से निपटने और गुप्त मिशन पूरे करने का वरदान मिला होता हैं। वे प्राय: सफल जासूस और अपराधों का पता लगाने वाले पुलिस अधिकारी बनते हैं ।
वे अच्छे वैज्ञानिक, रसायनशास्वी या जाँच पड़ताली बनते हैं, विशेषकर द्रवों के लिए उनमें अक्सर खतरनाक उद्यमों में लगने की प्रवृति रहती है, जैसे गुप्त खजाने, छिपी खानों की खोज, रहस्यपूर्ण तथा जान-जोखिम के अन्य काम | उच्च धरातल वाले गुप्त विद्याओं तथा मनोविश्लेषण में गहरी दिलचस्पी लेते हैं | निचले स्तर वाले गुंडों और पुत संस्थाओ से सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं । उच्च स्तर वाले प्राय: उच्च कूल में विवाह करते हैं। उन्हें विवाह से लाभ होता है । यदि नहीं होता तो भी कम-से-कमऐसा जीवन साथी चुनते हैं जो उच्च बौद्धिक स्तर वाला होता है अथवा नाम कमा चुका होता है ।
स्वास्थ्य
वृश्चिक में जन्मे लोग बचपन में प्राय नाजुक होते हैं और औसत से अधिक बाल-रोगों के शिकार होते हैं । उनकी बीमारियों आम तौर से वही आंतों और मलमूत्र मार्ग से सम्बन्धित होती हैं । वे भगन्दर, पित्ताशय में सूजन, कामांगो के संकट और ग्रंथियों की परेशानी से पीडित हो सकते हैं । जीवन में वे शायद ही किसी दुर्घटना से या हाथों में स्थायी चोट से बच पाते हों । फैफडों के ऊपरी भाग और स्वास नलिका कमजोर होते हैं । वृश्चिक में जन्मे सभी लोग अपने इक्कीसवें वर्ष के बाद बीमारी से असाधारण प्रतिरोध का परिचय देते हैं।
आर्थिक दशा
इन लोगों को भाग्य के असाधारण उतार-चढ़ाव का अनुभव करना पड़ता है । उनमें दूसरों पर अधिक भरोसा करने और अधिक आशावादी होने की प्रवृत्ति होती है । वे आसानी से ऐसी योजनाओं में फंस जाते हैं जिनका तोल ठोस आधार नहीं होता । वे अति उदार और फिजूल खर्च भी करते हैं । सहायता की पुकार होने पर, विशेषकर विपरीत लिंगी से वे अपने आपको रोक नहीं पाते । पैसा उनकी जेब में काटता है । अपनी मानसिक योग्यताओं से वे पैसा कमा तो सकते हैं लेकिन शायद ही जोड़कर रख पाते हैं ।परिस्थितियों अनुकूल होने पर वे खूब यात्राएँ करते हैं और नई परिस्थितियों और वातावरण के अनुकूल शीघ्र अपने को ढाल लेते हैं।
विवाह, सम्बन्ध, साझेदरियां आदि
इन लोगों के सबसे अधिक सौहार्दपूर्ण सम्बन्थ अपनी निजी राशि वृश्चिक (29 अक्तूबर से 20 नवम्बर), जल-त्रिकोण की अन्य राशियों मीन (49 फरवरी से 20 मार्च) तथा कर्क (21 जून से 20 जुलाई), इनके पीछे के संधिकाल में जसे व्यक्तियों के साथ रहेंगे । वे अपनी राशि से सातवीं वृष (21 अप्रैल से 20-27 मई) के दौरान जन्मे लोगों से भी काफी प्रभावित होते है ।
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राहु की अंतर्दशा का फल

राहु-जन्मकुंडली में राहु उच्च राशि, मित्रक्षेत्री और शुभ ग्रहों से युक्त हो तो राहु शुभ ग्रहों की अपेक्षा अतीव शुभ फल प्रदाता होता है। शुभ राहु की दशा-अन्तर्दशा से जातक आकस्मिक रूप से उन्नति के शिखर पर पहुच जाता है । बुद्धिमता और विद्वता आती है, अधिकार मिलते हैं । राजनीति में प्रवेश करता है, क्रोध एव उत्साह में वृद्धि, कार्य व्यवसाय का फैलाव एव अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । वृषभ,मिथुन, कर्क व वृश्चिक राशि में राहु होने पर भी शुभ फ़ल निलते हैं । अशुभ राहु की दशा में जातक को अग्नि, विष, साप आदि से भय रहता है जातक अभक्ष्य-भक्षी बनता है, मित्र वर्ग से धोखा मिलता है, स्थानच्युति, धननाश, परिवार को कष्ट और वात रोग तथा मन्दाग्नि से पीडित होता है ।
बृहस्पति-राहु शुभ हो और इसकी महादशा में शुभ और बलवान बृहस्पति की अन्तर्दशा चल रही हो तो जातक की चित्तवृति सात्विक और बुद्धि प्रखर हो जाती है,उच्चधिकारियों से प्रीति, स्वास्थ्य सुख, पद में उन्नति मिलती है । कार्य-व्यवसाय में प्रचुर लाभ मिलता है, दर्शन शास्त्र पढने में रुचि बनती है, जातक दार्शनिक विचारधारापूर्ण लेखन कर मान-सम्मान पाता है, तन्त्र-मन्त्र जैसे गूढ़ विषय का पण्डित बन समाज को दिशा-निर्देश करता है | जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलाएं बढती हैं, वैसे ही इस दशा से जातक के यश, धन-धान्य और कीर्ति की बढ़ोतरी होती है । अशुभ बृहस्पति की दशा में ज्येष्ठ भ्राता का नाश, राजकीय दण्ड मिलने की सम्भावना रहती है, गैसट्रिक ट्रबल, हृदय रोग, मन्दाग्नि आदि से पीडा और धनहानि होती है ।
शनि-शुभ राहु की दशा में शुभ व बलवान शनि की अन्तर्दशा व्यतीत हो तो जातक को काले पशुधन व काली वस्तुओं के व्यापार से लाभ, पशुवाहन की प्राप्ति होती है । समाज में और अपने वर्ग में सम्मान मिलता है । पश्चिम दिशा और ग्लेच्छ वर्ग विशेष लाभदायक रहता है | जातक राजनीतिक कार्यों में पदु होता है तथा ग्रामसभा व पालिक का अध्यक्ष बनता है । अशुभ शनि की अन्तर्दशा में जातक अस्थिर मति, किसी अज्ञात पीडा से विकल, मलिन वस्त्र धारण कर इधर-उधर भटकता है | किसी परिजन की मृत्यु से मन को सन्ताप पहुंचता है 1 जातक आत्महनन करने की कुचेष्टा करता है । सर्प-विष, शाश्त्रघात का भय तथा गठिया, वात रोग से शूल, उदर व्याधि, अर्श, भगन्दर आदि रोग हो जाते हैं ।
बुध-शुभ राहु की महादशा में उच्च या शुभ प्रभावी बुध की महादशा चले तो जातक उत्तम विद्या प्राप्त कर लेता है । प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता मिलती है । जातक की चित्तवृत्ति स्थिर और बुद्धि सात्विक हो जाती है । अपने मित्रों, परिजनों से सहानुभूति बढ़ती है, आय के कई स्तोत्र बनते है, जिसके कारण आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है ।उच्च राशि का बुध हो तो राजकीय सेवा में उच्च पद मिलता है । लेखन तथा उच्चवगाय लोगों से धनलाभ होता है। अशुभ बुध की अन्तर्दशा में जातक घोर कष्ट पाता है, प्रत्येक कार्य में विफलता मिलती है, नौकरी से न उन्नति होती है, न अवनति । राजकोष का भागी होना पड़ता है । अश्लील साहित्य के रचना से अपयश मिलता है । जातक असत्य भाषण करता है, देव-गुरू का निन्दक, दुष्टबुद्धि, अपने कुकृत्यों से भाग्य हानि कर लेता है। चर्म रोग, वातरोग, फोड़ा-फुन्सी इत्यादि से पीडा होती है ।
केतु-राहु के महादशा में केतु की अन्तर्दशा का समय अशुभ ही होता है । कुछ एक शुभ फल जो मिलते भी हैं, वे गौण हो जाते हैं । जातक की बुद्धि अष्ट हो जाती है । नीच जनों की संगति कर दुष्कर्म करने को प्रवृति होती है । आजीविका का साधन नैतिक-अनैतिक कैसा भी हो सकता है । जातक पूर्वार्जित धन को मदिरापान, वेश्यागमन और जुआ आदि व्यसनों में पाकर समाप्त कर देता है । समाज में अपना सामान खो देता है । घर में कलह या वातावरण बना रहता है । उदरपूर्ति के लिए भटकना पड़ता है, निर्धनता और रोगों के कारण मार्ग में और विदेश में कष्ट भोगने पड़ते हैं । स्वजनों से विछोह हो जाता है । यदि केतु लग्न के स्वामी से युक्त या दुष्ट हो तो धनलाभ होता है, पशुधन की वृद्धि होती है । वृश्चिक राशि का केतु केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो तो शुभ फल देता है ।
शुक्र-शुक्र कारक ग्रह हो, बलवान और शुभ प्रभाव में हो तो राहु महादशा में जब शुक्र का अन्तर होता है तो जातक को अनेक भोपोपभोग प्राप्त होते है । जातक का मन चंचल और सात्विक दोनो ही प्रकार का बन जाता है । जहा वह विलासिता का जीवन जीने की चाह रखता है, वहीं धार्मिक ग्रन्धों का श्रवण, अध्ययन, स्वाध्याय तथा पूजा-अचंना भी करता है । कामवासना प्रबल होती है, लेकिन अपनी पत्नी तक ही सीमित रहता है | विलासिता की वस्तुओं का संग्रह करता है, खेल-तमाशे आदि को भी चाव से देखता है । अशुभ शुक्र के दशाकाल में जातक के सुख का नाश हो जाता है । स्वजनों से विरोध बनता है, सन्तान से सन्ताप पहुंचता है । पास-पड़ोस वालों से लडाई-झगडा, जिगर-तिल्ली में शोध, धातुक्षय, मदाग्नी आदि रोग हो जाते हैं । शुक्र अष्टमेश हो तो मृत्युसम कष्ट मिलता है ।
सूर्य-राहु भी शुभ हो तथा सूर्य उच्च राशि, मूल त्रिकोण व स्वराशि का तथा बलवान शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो इनकी दशा-अन्तर्दशा में जातक का कार्य-व्यवसाय बड़े क्षेत्र से फैलता है । राजकृपा से स्वल्प सूख, धन-धान्य में वृद्धि होती है । जातक राजनीति के क्षेत्र में मान पाता है तथा कई सभाओं का प्रधान या मुखिया बनता है । पैतृक सप्पत्ति मिलती है । दान-धर्म के प्रति भी रुचि रखता है, भले ही दिखावे के लिए करे । अशुभ सूर्य की दशा में जातक के रुधिर में उष्णता बढ़ जाती है, क्रोध अधिक आता है, अकारण किसी से भी झगड़ने की इच्छा होती है, पिता को कष्ट मिलता है, व्यापार में हानि, नौकरी में उच्चधिकारियों के कास्या अवनति, शिरोवेदना, नेत्रपीड़ा, वात रोग, गठिया,सर्वाग शूल, अर्श और रक्तातिसार जेसे रोग देह को पीडा देते हैं ।
चन्द्रमा-राहु शुभ राशि का शुभ प्रभावी होकर तृतीय, षष्ठ, एकादश, नवम व दशम में हो क्या चन्द्रमा पूर्ण बली, शुभ ग्रह युक्त व दुष्ट हो तो राहु की महादशा में जब चंद्रमा की अन्तर्दशा चलती है तो जातक ललित वला के क्षेत्र में उन्नति करता है क्या राज्यस्तरीय सम्मान पाता है । बुद्धि स्थिर व विचार घार्मिक होते है । श्वेत खाद्य पदार्थों को विशेष रूप से प्राप्त कर लेता है-जैसे दूध, दही, खोया आदि । आप्तज़नों के अम्भीवरेंद से सुखमय जीवन व्यतीत करता है । अशुभ और क्षीणबली चन्द्रमा की दशामें जातक वात्त के कुपित हो जाने से मानसिक एव शारीरिक कष्ट जाग है । भूत-पिशाच आदि से मन से भय उत्पन्न होता है । वायुजनित रोग एवं शीत ज्वर से पीड़। निलती है । देह में जल का संचय अधिक होने से मोटापा आता है।
मंगल-जब मंगल उच्च या स्वगृही होकर केन्द्र, त्रिकोण, लाभस्थान में शुभ ग्रहों से युक्त या दुष्ट होकर स्थित हो तो राहु महादशा अपनी अनास्था में बन्धुव्रर्ग का उत्यान क्या जातक को उनसे लाभ दिलवाती है । जातक परम उत्साही होकर शत्रु का मानमर्दन ऐसे ही कर देता है…जैसे बाज कबूतरों के झुण्ड का। दोनों ग्रहों में एक शुभ और एक अशुभ हो तो नाना प्रकार की अधि-व्याधि अज्ञान करती हैं, कार्य में विफलता क्या स्मृति का नाश हो जाता है। दोनों ही अशुभ स्थिति में हों तो बन्धुवर्ग का नाश, पुत्र सुख से कभी, छोर, सर्प, अग्नि का भय, दुर्घटना से देहपीडा व समाज से तिरस्कार पाता है। उदरपूर्ति के ताले पढ़ जाते हैं, भीख मांगने की नौबत आ जाती है, जीवन भार लगने लगता है, आत्मघात की इच्छा होती है । मंगल अष्टमेश से सम्बरिघत हो तो मृत्यु अथवा मृत्युसम कष्ट मिलता है ।
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अनुपम वरदान है आपकी वाणी, इस शक्ति का करें सदुपयोग जाने ज्योतिषीय कारण -

प्राणीजगत में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो अपने अंतस के विचारो एवं भावों को शब्दों के माध्यम से प्रकट कर सकता है। मानव के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में यह क्षमता नहीं होती। मानव की उन्नति में शब्दों का बहुत महत्व है परंतु जो शक्ति जितना उपयोगी एवं कल्याणकारी होती है, दुरूपयोग करने पर वह उतना ही दुखप्रद एवं हानिकारक हो जाती है। शब्दों का गलत प्रयोग करने, समय-कुसमय का ध्यान ना रखने एवं परिस्थिति के अनुरूप कम या ज्यादा बोलने का हुनर ना हो तो व्यवहार खराब हो सकता है, मानसिक शांति भंग हो सकती है या दुख मिल सकता है। इस संबंध में कबीर की सीख है -‘बोल तो अमोल है, जो कोई बोले जान। हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आन।। अतः शब्द से अपने व्यवहार, रिष्तों एवं संस्कार को प्रदर्षित करने के लिए अपने ग्रहों को परखकर अपने व्यक्तित्व को निखारा जा सकता है, इसके लिए किसी भी जातक की कुंडली का दूसरा स्थान उसकी वाणी का स्थान होता है, जिसका कालपुरूष की कुंडली में ग्रहस्वामी शुक्र है, जो मीठे बोल के लिए लिया गया है। किंतु प्रत्येक जातक की कुंडली में उसके दूसरे स्थान का स्वामी अलग हो सकता है अतः यदि आपकी कुंडली में दूसरा स्थान दूषित हो अथवा पाप ग्रहों से आक्रांत हो तो आपके बोल दुष्मन पैदा कर सकते हैं वहीं यदि अनुकूल हो तो बोल ही प्रसिद्ध बनाते हैं। अतः दूसरे स्थान के ग्रह को अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए शुक्र की शांति हेतु सुहाग की सामग्री का दान, दुर्गा कवच का पाठ तथा कुंवारी कन्याओं को भोज कराना चाहिए।
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कुंडली अनुसार अपना दृष्टिकोण बदले और रहे सुखी -

अधिक संपन्न एबं समृद्ध लोगों की सुख-सुविधाओं पर दृष्टि केन्दित करने एबं उनसे अपनी तुलना करने वाले लोग कभी सुखी-संतुष्ट नहीं हो सकते, उन्हें सदैव अभाव का अनुभव खटकता रहेगा। दूसरों की संपन्नता, पद-प्रतिष्ठा एवं भौतिक उपलब्धियों से अपनी स्थिति की बराबर तुलना करते रहने से अपने में हीन भावना आती है और अपनी समझ, शक्ति एवं योग्यता पर अविश्वास होने लगता है। हमें अपने को दूसरों से अधिक समझदार एवं योग्य तो नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि इससे अहंकार बढने लगता है, परंतु हम उस दिशा में आगे बढने के लिए प्रयास करते है। परंतु हमें यह भी समझना चाहिए कि किसी दिशा में हम चाहे कितना हो संपन्न क्यों न हो जाये, हमें अपने से अधिक संपन्न और समृद्ध लोग दिखाई पडेगे हम दुखी रहेंगे और हमें अभाव का अनुभव होता रहेगा। इसलिए हमेँ अपनी दृष्टि बदलनी होगी और अपनी समझ, प्राप्ति और योग्यतानुसार श्रम करते हुए संतोष करना होगा । यदि हमेँ अपनी समझ, शक्ति और योग्यता का संपूर्ण उपयोग करने हेतु अपनी कुंडली के अनुसार समझ बढ़ाने के लिए अपने तीसरे एवं पंचम स्थान के ग्रहों को अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए। इसी प्रकार अपनी शक्ति और योग्यता के लिए लग्न, तीसरे, पंचम, दसम एवं एकादष स्थान के ग्रहों को अनुकूल करने हेतु मंत्रजाप, दान तथा रत्नधारण करना चाहिए। जीवन में अपने प्रारब्ध के अनुरूप प्राप्ति हेतु अपने पित्रों का आर्षीवाद तथा अनुकूलता प्राप्ति हेतु पितृषांति कराना चाहिए। सूक्ष्म जीवों की सेवा करनी चाहिए इसके साथ अपने अनुकूल ग्रहों का रत्न धारण करने से जीवन में साकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर सुख प्राप्त कर सकते हैं।
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ग्रहों को अनुकूल कर समाज में अपनी छवि बनायें -

जन्म से न कोई मनुष्य अच्छा होता है न बुरा, किन्तु उसका व्यवहार एवं कर्म ही उसे अच्छा-बुरा बनाते हैं। किसी की विशिष्टता तथा उसके सरल-विनम्र व्यवहार ही उस व्यक्ति को समाज या लोगो के बीच अच्छा या बुरा बनाती है। हम दूसरों के समान धनी, विद्वान, प्रतिष्ठित भले न बन पायें, किन्तु अपने कर्मों को एवं व्यवहार को सुधार कर अपनापन तथा प्रतिष्ठा पा सकते हैं। समाज में आपको लोगों के बीच आपकी छवि जैसी बनेगी उसका कारण आपकी कुंडली में देखा जा सकता है। यदि किसी की कुंडली में लग्न में राहु या लग्नेष राहु से आक्रांत होकर कहीं भी बैठा हो तो लोग आपको लापरवाह तथा झूठा समझ सकते हैं उसी प्रकार यदि लग्नेष या तृतीयेष सूर्य मंगल जैसे ग्रह हों और छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो गुस्सैल की छवि बनती है और लोग आपके बचना चाहते हैं। यदि द्वितीय या तृतीय भाव में गुरू हो या इस भाव का कारक गुरू होकर पंचम या भाग्य स्थान में हो तो लोगो का आपके प्रति आदर होता है। इसी प्रकार यदि आपको अपने व्यवहार के किसी पक्ष को उभारना हो तो अपने ग्रहो की स्थिति का पता लगाकर उन ग्रहों की शांति, मंत्रजाप तथा ग्रहदान कर अपने व्यवहार को दुनिया के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं।

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कुंडली से जाने - अप्प दीपो भव -

यह सच है कि मनुष्य को एक दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है किंतु मनुष्य का सबसे बड़ा संबल उसका आत्मविष्वास ही होता है। निष्चित ही बच्चे को माता-पिता गुरू का संरक्षण एवं सहयोग आवष्यक है किंतु चलने के अभ्यास हेतु। चलना तथा गिरना तो बच्चे के विकास का अभिन्न अंग है। केवल माता-पिता, गुरू के सहयोग से आत्मविष्वास जागृत करें तथा स्वयं अपना दीपक बने और अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी तथा आत्मविष्वास पैदा कर अपना, अपनो तथा समाज के हित में कार्य करें अर्थात् अप्प दीपो भव अथवा अपना दीपक स्वयं बनें। क्यो किसी जातक के इसकी क्षमता है अथवा कम क्षमता को विकसित कैसें करें कि आत्मविष्वास तथा आत्मनिर्णय का विस्तार हो सके इसके लिए किसी भी जातक की कुंडली में लग्न, दूसरे, तीसरे तथा एकादष स्थान के ग्रहों तथा इन स्थानों पर मौजूद ग्रहों का आकलन करने से ज्ञात होता है अगर किसी जातक की कुंडली में लग्न या तीसरा स्थान स्वयं विपरीत हो जाए अथवा इस स्थान पर क्रूर ग्रह हो तो ऐसे जातक के जीवन में आत्मविष्वास तथा आत्मसंयम की कमी के कारण जीवन में सफलता दूर रहती है इसी प्रकार एकादष स्थान का स्वामी क्रूर ग्रहों से पापक्रांत हो अथवा छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो ऐसे लोग अनियमित दिनचर्या के कारण अपनी योग्यता का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते अर्थात् स्वयं अपने जीवन में प्रकाष का समय तथा आवष्यकतानुसार उपयोग नहीं कर पाते जिसके कारण परेषान रहते हैं। इन सभी स्थितियों से बचने के लिए जीवन में आत्मसंयम तथा अनुषासन के साथ ग्रह शांति करनी चाहिए। बाल्य अवस्था में मंगल के मंत्रजाप तथा बड़ो का आदर तथा युवा अवस्था में शनि के मंत्रों का जाप, दान तथा अनुषाासन रखना चाहिए।
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आदर प्राप्ति हेतु करें अहं का त्याग-जाने अहंकार का ज्योतिषीय कारण -

प्रातः हर मनुष्य में अपने को बड़ा मानने की प्रवृत्ति सहज ही होती है और यह प्रवृत्ति बुरी भी नहीं है। किंतु अकसर अहं स्वयं को सही और दूसरो को गलत साबित करता है। आत्मसम्मान और स्वाभिमान के बीच बारीक रेखा होती है जिसमें अहंकार का कब समावेष होता है पता भी नहीं चलता। कोई कितना भी योग्य हो यदि वह अपनी योग्यता का स्वयं मूल्यांकन करता है तो आदर का पात्र नहीं बन पाता अतः बड़ा बनकर आदर का पात्र बनने हेतु अहंकार का त्याग जरूरी है। अहंकार का अतिरेक किसी जातक की कुंडली से देखा जा सकता है। यदि किसी जातक के लग्न, तीसरे, एकादष स्थान का स्वामी होकर सूर्य, शनि जैसे ग्रह छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाएं तो ऐसे जातक अहंकार के कारण रिष्तों में दूरी बना लेते हैं वहीं अगर इन स्थानों का स्वामी होकर गुरू जैसे ग्रह हों तो बड़प्पन कायम होता है। अतः यदि लोगों का आपके प्रति सच्चा आदर ना दिखाई दे और आदर का पात्र होते हुए भी आदर प्राप्त न कर पा रहें हो तो कुंडली का आकलन कराकर पता लगा लें कि कहीं जीवन में अहंकार का भाव प्रगाढ़ तो नहीं हो रहा। अथवा सूर्य की उपासना, अध्र्य देकर तथा सूक्ष्म जीवों के साथ असमर्थ की मदद कर अपने जीवन से अहंकार को कम कर जीवन में आदर तथा सम्मान प्राप्त किया जा सकता है।
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Saturday 14 November 2015

स्थिरप्रज्ञ बनें और पायें सफलता -

कुछ लोगों का स्वाभाव होता है कि वे जल्दी-जल्दी अपना काम बदलते रहते हैं। एक काम को ठीक से किये बिना असफलता के डर से कार्य बदल देते हैं या उस कार्य को छोड़कर दूसरे काम में ध्यान देने लगते हैं। काम को अच्छे से किए बिना बदलने से स्थायी सफलता मिलने तथा विष्वास प्राप्त करने में भी अवरोध आता है। अतः अपनी रूचि और योग्यतानुसार किसी एक लक्ष्य तथा दिषा का चुनाव कर उस कार्य को तत्परतापूर्वक स्थायी रूप से करने से सफलता निष्चित ही प्राप्त होगी। यदि किसी के जीवन में स्थिरप्रज्ञ होना हो तो उसे अपनी कुंडली का अध्ययन कराया जाना चाहिए और अस्थिरता को रोकने के लिए कुंडली के तीसरे एवं एकादष स्थान का अध्ययन कर देखना चाहिए कि कहीं तीसरे स्थान का स्वामी कमजोर है तो कमजोर मानसिकता के कारण आत्मविष्वास की कमी के चलते स्थिरता में बाधक होता है वहीं यदि एकादष स्थान का स्वामी विपरीत हो तो दैनिक-दैनिंदन कार्य में स्थिरता केा कम कर देता है। इसी प्रकार यदि दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्य स्थान में राहु हो या इन स्थानों का स्वामी राहु से पापाक्रांत हो जाए तो भी जीवन में स्थाईत्व की कमी हो सकती है। अतः अगर अस्थाईत्व प्रकृति ही सफलता में बाधक हो तो तीसरे, एकादष एवं राहु की शांति कराना, मंत्र का जाप करना तथा सूक्ष्म जीवों की सेवा करना चाहिए, जिससे स्थिरप्रज्ञ बन जा सकता है और जीवन में स्थाई सफलता प्राप्त की जा सकती है।

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अनिष्ट की आंशका दूरने हेतु करें रवि योग में रवि की पूजा

 ज्योतिष के अनुसार अगर कोई भी कार्य शुभ योग-संयोग देखकर किया जाए तो सफलता निश्चित रूप से मिलती है। शुभ कार्य संपन्न करने या मंगल कार्य को बिना किसी बाधा के करने के लिए के लिए सिद्धि योग एवं शुभ मुहुर्त देख कर ही किए जाने चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस तरह हिमालय का हिम सूर्य के उगने पर गल जाता है और सैकडों हाथियों के समूहों को अकेला सिंह भगा देता है, उसी तरह से रवि योग भी सभी अशुभ योगों को भगा देता है, अर्थात इस योग में सभी शुभ कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण होते हैं। रवि-योग को सूर्य का अभीष्ट प्राप्त होने के कारण प्रभावशाली योग माना जाता है। सूर्य की पवित्र ऊर्जा से भरपूर होने से इस योग में किया गया कार्य अनिष्ट की आंशका को नष्ट करके शुभ फल प्रदान करता है। यह संयोग खरीदी एवं कोई भी शुभ कार्य की शुरुआत के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त माने जाते हैं। आज किए जाने वाले शुभ कार्य विशेष फलदायी होंगे क्योंकि आज सर्वार्थसिद्ध योग भी है। अतः रवियोग के संयोग में बाजार से खरीदी स्थायित्व प्रदान करने वाली होगी अतः स्थाथी संपत्ति क्रय हेतु सूर्य की पूजा के साथ किए गए कार्य आज शुभ फलदायी है।

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मंगल की महादशा में अंतर्दशा का फल

मंगल-यदि मंगल उच्च राशि, स्वक्षेत्री, शुभ यहीं से दुष्ट होकर केन्द्र, त्रिकोण, आय और सहज भावस्थ हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभा-शुभ फल प्रदान करता है। बलवान मंगल, बली आयेश या धनेश से सम्बन्ध करता हो तो जातक इसकी दशा में राज्यानुग्रह प्राप्त कर लेता है । सेना अथवा अर्द्धसैनिक बल में नौकरी मिल जाती है, कमाण्डर जैसे पद प्राप्त होते हैं, सैन्य या पुलिस पदक मिलता है, व्यवसायी हो तो व्यवसाय खूब चमकता है क्या लश्मी की कूपा बनी रहती है। व्यक्ति परमोत्साही, पर क्रूरकमाँ बन जाता है, खून में गरमी बढ जाती है।अशुभ मंगल एव अशुभ स्थानस्थ मंगल की दशा में, व्यक्ति को क्रोध अधिक आ जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है, निम्न पदों पर नौकरी करनी पड़ती है, इष्टजनों से कलह, व्यवसायियों का ग्राहकों से झगडा, रक्तचाप, रक्तविकार, शिरोवेदना, नेत्र रोग, खुजली, देह में चकते जैसे रोग व अन्य व्याधिया हो जाती है क्या इनकी चिकित्सा कराने में धन व्यय होता है। व्यवसाय स्थिर हो जाता है।
राहु-मंगल और राहु दोनों ही नैसर्गिक पापी ग्रह है। मंगल की महादशा में राहु की अन्तर्दशा में शुभाशुभ, अर्थात मिश्रित फल मिलते है। शुभ मंगल की महादशा में शुभ राहु का अंतर चल रहा हो तो जातक मकान, भूमि, धन, माल आकस्मिक रूप से पा लेता है, शत्रुओँ का मनमर्दन कर विशेष बाहुबल का परिचय देता है। कृषि में लाभ, वाद-विवाद में विजय मिलती है। प्रवास अधिक करने पड़ते हैं, दुर्घटना का भय रहता है । अशुभ राहु के दशाकाल में जातक मन में बहम, अपने-परायों से झगडा,व्यर्थ के लाछन और अपवाद, शत्रुआँ से कष्ट, स्थानान्तरण, उदर शूल, वायुबिकार, मन्दाग्नि, रक्तक्षय, श्यास-कास से पीडित रहता है, बनते कार्यों में विघ्न आते हैं और प्रत्येक कार्य में असफलता मिलती है ।
बृहस्पति-शुभ मंगल की दशा में यदि शुभ और बलवान ब्रिहस्पती की अन्तर्दशा चले तो जातक की सल्कीर्ति फैलती है, कई अच्छे ग्रन्धों का निर्माण होता है, अकर्मण्य को कर्म मिलता है, पूर्वार्जित सम्पत्ति मिलती है, नौकरी में पदवृद्धि, वेतनवृछि होती है, सत्कर्म, परोपकार, तीर्थाटन में रुचि बढती है, आरोग्यता वनी रहती है, कार्य-व्यवसाय में वृद्धि होती है । पुत्रोत्सव से मन में हर्ष, सन्तान के कारण यश मिलता है तथा समाज में मान-सम्मान बहता है। अशुभ और निर्बल बृहस्पति की अन्तर्दशा चल रही हो तो पदावनति, राजम, सन्तान से कष्ट, स्वी सुख में कमी, इष्ट-मित्रों से अनबन, कार्य-व्यवसाय में हानि, ज्वर, कर्ण पीडा, कफ-पित्तादि रोगों से पीडा तथा अपवृत्यु की आशंका बढ़ जाती है।
शनि-मंगल महादशा में राहु अन्तर्दशा के जैसे मिश्रित मंगल शनि अन्तर्दशा के भी मिलते है। बलवान शनि शुभ अवस्था आदि में हो तो अपनी अन्तर्दशा से जातक को स्लेछ वर्ग से लाभ, स्वग्राम में व अपने समाज में यश-प्रतिष्ठा, घन-घान्य की वृद्धि, काले पशुधन से लाभ एव ग्रामसभा का सदस्य आदि जैसे पाल प्रदान करता है। किसी पराक्रमपूर्ण कार्य के लिए स्वल्प पारितोषिक मिलता है । यदि पापी और अशुभ स्थानस्थ शनि हो तो जातक इस दशाकाल में अस्थिर-धि, एक कार्य को छोड़कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने वाला, स्वजनों का नाश देखने वाला, चोर-लुटेरों-शत्रुओँ व शस्त्राघात से पीडित होने वाला, पुत्र सुख से हीन, अपकीर्ति पाने वाला होता है । नौबत यहा तक आ पहुंचती है कि जातक सभी ओर से निराश होकर ईंश्वरभक्ति करता है अथवा आत्महनन करने की चेष्टा कर कारागृह की शोभा बढा देता है ।
बुध-बली बुध शुभ होकर केन्द्र, त्रिकोण या आय स्थान में हो तथा मंगल में बुध का अन्तर चल रहा हो तो जातक स्थिर मति, पश्चिम से कार्य करने वाला होता है । उसके यहा संख्या, कीर्तन, प्रवचन आदि होते रहते है ।वैश्य वर्ग से लाभ मिलता है। सेना में पदृवृद्धि, विद्या-विनोद, बहुमूल्य सम्पत्ति का स्वामित्व प्राप्त होता है। कन्या रत्न उत्पत्ति के उपलक्ष्य से उत्सव मनाता है। निर्बल और अशुभ बुध की अन्तर्दशा हो तो जातक की अपकीर्ति फैलती है, कठिन श्रम का फल शून्य मिलता है, लेखन कार्य से अपयश, कार्य-व्यवसाय में हानि, दुष्टजनों से मनस्ताप, ग्रहक्लह से मानसिक वेदना मिलती है । अनुभव से ऐसा आता है कि जिन्हें दशा के प्रारम्भ में हानि होती है, उन्हें दशा के अन्त में लाभ मिल जाता है और जिन्हें दशा के अन्त में हानि रहती है, उन्हें दशा के प्रारम्भ में लाभ मिलता है ।
केतु-शुभ केतु की अन्तर्दशा में जातक को सुख और शान्ति मिलती है, पद व उत्साह में वृद्धि और साकार होता है। अशुभ केतु की दशा में जातक के मन में भय, पाप कर्म में रुचि, निराशा, इष्टजनों को कष्ट, नीव तीनों की संगति से अपयश, शत्रुओ से पराजय, व्यर्थ में इधर-उधर भटकना, बिजली, बादल से अपपृत्यु, अग्नि भय, आवास का नाश, राज्यदण्ड जिने की आशंका बनती है । उदर शूल, पेड़ शूल, पत्यरी, कार्बक्ल, नासूर, भगन्दर जैसे दुष्ट रोग पीडित करते है । केतु अन्तर्दशा विशेष कष्टदायक होती है
शुक्र-ज़ब मंगल की महादशा में शुभ और बलवान शुक्र की अंतर्दशा व्यतीत हो रही हो तो जातक के मन में चंचलता, कामावेग में वृद्धि, चित्त में ईष्यएँ व द्वेष भर जाते हैं ।परीक्षार्थी येन-केन-प्रकारेण उतीर्ण हो जाते हैं, पुत्र उत्पत्ति का हर्ष, श्वसुर पक्ष से दान-दहेज मिलता है, सुन्दर स्त्रियों से प्रेमालाप एव उपहारों की प्राप्ति होती है । राज्य कृपा से भूमि की प्राप्ति, नाटक, संगीत, सिनेमा, नाच-गाने में रुचि बढती है । पापी और अशुभ क्षेत्री शुक्र की अन्तर्दशा से जातक विदेश गंमन करता है,|
सूर्य-मंगल की महादशा में जब उच्च, स्वक्षेत्री, शुभ ग्रह युक्त या दृष्ट सूर्य की अन्तर्दशा चलती है तो व्यक्ति राज्य से विशेष लाभ प्राप्त करता है । नौकर हो तो आनरेरी पद से वृद्धि, अग्रिम वेतन वृद्धि होती है । उच्चधिकांरेयों का कृपापात्र बनता है । सेना व पुलिस सेवा के कर्मचारी इस दशा में विशेष लाभान्वित होते है। युद्ध व वादविवाद में विजय मिलती है। दूर-दराज के जंगलों, पहाडों मेँ निवास होता है। पापक्षेत्री, पापप्रभाबी, निर्बल सूर्य की दशा हो तो जातक गुरु-ब्राहम्ण से द्वेष करता है, माता-पिता को कष्ट मिलता है, मन को परिताप पहुँचता है, धनहानि व पशुओ का नाश होता है। विष्य-वासना बढ़ती है और जातक समलैंगिक संसर्ग करता है।
चन्द्रमा-शुभ पाल की महादशा में जब शुभ और बली चन्द्रमा की अन्तर्दशा चलती है तो जातक का मन शान्त, लेकिन देह में आलस्य बढ़ जाता है। जातक अधिक सोता है, दूध, खोये के पदार्थ खाने को मिलते हैं, प्रवास अधिक होते हैं, प्राकृतिक दृश्यों की छटा के अवलोकन की विशेष रुचि बनती है, श्वेत वस्तुओं व घातुओँ के व्यवसाय से विशेष लाभ मिलता है। बाग-बगीचे लगवाने पर धन व्यय, विवाहोत्सव एव मांगलिक कार्य सप्पन्न होते है। इष्ट-मित्रों से बहुमूल्य उपहार मिलते है। अशुभ और पाप प्रभावी चन्द्रमा की अन्तर्दशा से जातक को नजला, जुकाम, स्वप्नदोष, जिगर-तिल्ली में शोथ,| जातक अविवाहित और पराई रित्रयों से रमण करता है, मन में उद्धिग्नत्ता बनी रहती है, कल्पनालोक से विचरण कर अमूल्य समय को नष्ट करता है। यदि चन्द्रमा मारकेश से सम्बन्थ करता हो तो अपमृत्यु का भय बनता है।
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चन्द्रमा की महादशा में अंतर्दशा फल

चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा कारक होकर उच्च राशि का, स्वराशि का, शुभ ग्रहों से युक्त और दुष्ट हो तो अपनी दशा-अंतर्दशा में जातक को पशुधन से, विशेषत: दूध देने वाले पशुओं से लाभान्वित कराता है। इस दशा में जातक यशोभागी होकर अपनी कीर्ति को अक्षुष्ण बना लेता है, कन्या-रत्न की प्राप्ति या कन्या के विवाह जैसा उत्सव और मंगल कार्य संपन्न होता है। मायन-वादन आदि ललित कलाओं में जातक की रुचि बाती है, स्वास्थ्य सुख, घन-घान्य की वृद्धि होती है। आप्तजनों द्वारा कल्याण होता है तथा राज्यस्तरीय सम्मान मिलता है । यदि चन्द्रमा नीच राशि का, पाप ग्रहों से युक्त अथवा प्राण योग में हो तथा त्रिक स्थानस्थ हो तो अपनी दशज्जा-अन्तर्दशा में जातक को देह में आलस्य, माता को कष्ट, चित्त में भ्रम और भय, परस्वीरमण से अपयश तथा प्रत्येक कार्य में विफलता जैसे कुफल देता है । जल में डूबने की आशंका रहती है, शीत ज्वर, नजला जुकाम अथवा थातुव्रिकार जैसी पीड़ाएं भोगनी पड़ती है।
मंगल-यदि मंगल कारक होकर उच्च राशि, स्वराशि, मित्र राशि अथवा शुभ प्रभाव से युक्त हो तो चन्द्रमा की महादशा में अपनी दशाभुक्ति में जातक को परमोत्साही बना देता है 1 यदि जातक सेना या पुलिस में हो तो उसे उच्च पद मिलता है, इष्ट-मित्रों से लाभ मिलता है, कवि-व्यवसाय की उन्नति होती है । जातक क्रूर कर्मों से विशेष ख्याति अर्जित करता है । शत्रुओं को समूल नष्ट करने में सक्षम ही जाता है । यदि अशुभ क्षेत्री अथवा नीच राशि का मंगल हो तो अपने दशाकाल में अवस्था-भेद से अनेक अशुभ फल प्रदान करता है। धनधान्य व पैतृक सप्पत्ति का नाश हो जाता है, बलात्कार के केस से कारावास होता है, क्रोधावेग बढ़ जाता है । माता पिता व इष्ट मित्रों से वैचारिक वैमनस्य बाता है, दुर्घटना के योग बनते है, रक्तविकार, रक्तचाप, रक्तार्श, रक्तपित्त, बिजली से झटका लगने से देह कृशता, नकसीर फूटना जैसी व्याधियों की चिकिंत्सा पर धन का व्यय होता है।
राहु-चन्द्रमा की महादशा में राहु की अन्तर्दशा शुभ फलदायक नहीं रहती । हा, दशा के प्रारम्भ में कुछ शुभ फल अवश्य प्राप्त होते हैं । यदि राहु किसी कारक ग्रह से युक्त हो तो कार्य-सिद्धि होती है, जातक तीर्थाटन करता है क्या किसी उच्चवर्गीय व्यक्ति से उसे लाभ भी मिलता है। इस दशाकाल में जातक पश्चिम दिशा में यात्रा करने पर विशेष लाभान्वित होता है। अशुभ राहु की अंतर्दशा में जातक की बुद्धि मलिन हो जाती है, विद्यार्थी हो तो परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है और उत्तीर्ण भी हो तो तृतीय श्रेणी ही प्राप्त होती है, कार्य-व्यवसाय की हानि होती है, शत्रु पीडित करते हैं, परिजनों को कष्ट मिलता है । जातक अनेक आधि-व्याधियों और जीर्ण ज्वर, काला ज्वर, प्लेग, मन्दाग्नि व जिगर सम्बन्धी रोगों से घिर जाता है। इस दशाकाल में जातक को जो कष्ट न हों, वहीँ कम हैं ।
बृहस्पति- यदि बृहस्पति उच्च राशि का, स्वराशि का व शुभ प्रभाव से युक्त होकर चन्द्रमा से केन्द्र, वित्ति, द्वितीय व जाय स्थानगत हो तो चन्द्रमा की महादशा में बृहस्पति की अन्तर्दशा के समय जातक के ज्ञान में वृद्धि क्या घर्माघर्म के विवेचन में उसकी बुद्धि सक्षम हो जाती है । उसके मन में उपकार करने की भावना, दानशीलता व धर्मशीलता आदि का आयुदय होता है । स्वाध्याय और यज्ञादि कर्म करने की प्रवृति और मग्रेगलिक कयों में व्यय होता है । अविवाहित जातक का विवाहोत्सव या विवाहित को पुत्रोत्सव का हर्ष, उत्तम स्वास्थ्य, नौकरी में पद-वृद्धि, किए गए प्रयत्नों से सफलता और किसी मनोमिलाषित वस्तु की प्राप्ति होती है । यदि बृहस्पति नीच राशि का, शत्रु क्षेत्री, पाप प्रभावी और त्रिकस्थ हो तो इस दशाकाल में कार्य-व्यवसाय में हानि, मानसिक व्यथा, गृह-कलह, पुत्र-कलह, कष्ट, विदेश गमन, पदच्युति और धनहानिं होती है । जातक की जठराग्नि मन्द पड़ जाने से उसे वायु संबन्धी और यकृत रोग भी हो जाते है।
शनि-जब चन्द्रमा की महादशा में शनि की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही हो.| तथा चन्द्रमा से केन्द्र, त्रिक्रोण, धन या आय स्थान में स्थित शनि उच्च राशि का, स्वराशि का या पाप प्रभाव से रहित व बली हो तो जातक को गुप्त धन की प्राप्ति होती है तथा उसे कृषि कार्यों, भूमि के कय-विक्रय, लोहा, तेल, कोयला व पत्थर के व्यवसाय से अच्छा लाभ मिलता है । निम्न वर्ग के लोरा प्राय लाभकारी रहते हैं । यदि शनि निचली, नीव राशि का व पाप प्रभावी होकर छठे, आठवें अथवा बारहवे भाव में हो तो जातक अस्थिर मति हो जाता है। तर्क, प्रतियोगिता आदि में असफल, इष्टजनों से अनबन, कामवासना की प्रबलता, नीच स्त्री से प्रेमालाप के कारण उसके अपयश, वातव्याधि, मन्दाग्नि, गैस्ट्रीक ट्रबल, उदरशूल व गठिया आदि रोगों से पीडित होने की आशंका बनती है ।
बुध-यदि चन्द्रमा की महादशा में बुध की अंतर्दशा चल रही हो और कुण्डली में बुध पूर्ण बली, शुभ ग्रहों से युक्त और दृष्ट होकर केन्द्र, त्रिकोण आदि शुभ स्थानगत हो तो जातक निर्मल और सात्विक बुद्धि का, पठन-पाठन में रुचि रखने वाला, कार्य-व्यवसाय में धन-मान अर्जित करने वाला, आप्तज़नों से सत्कार पाने वाला, विधत समाज में पूजित, ग्रन्थ लेखक, कन्या सन्तति का सुख पाने वाला व अनेक वाहनो का स्वामी होता है, लेकिन इच्छानुकूल फल प्राप्ति उसे फिर भी नहीं होती, अर्थात इतने पर भी उसके मन में तृष्णा बनी रहती है। यदि बुध नीच राशि का, नीच नवांश का व अशुभ ग्रहों से पुनीत या दुष्ट हो तथा अशुभ भाव में स्थित हो तो अपने दशाकाल के प्रारम्भ में शत्रु से पीडा, पुत्र से वैमनस्य, स्त्री सुख में कमी, पशुधन का नाश, कवि-व्यवसाय में हानि देता है तथा अन्त में त्वचा के रोगों से देह कृशता, ज्वर तथा किसी लांछन में कारावास आदि जैसे फ़ल प्रदान करता है ।
केतु-चन्द्रमा की महादशा से केतु की अन्तर्दशा भी विशेष शुभ नहीं रहती, लेकिन यदि केतु शुभ क्षेत्री क्या शुभ ग्रहों से युक्त व दृष्ट हो तो दशा के प्रारम्भ में अशुभ और मध्य में शुभ फल प्रदान करता है। अत्यन्त मामूली धनलाभ, देहसूख, देवाराधन में रुचि तथा अन्त में धन-हानि और कष्ट होता है। अशुभ केतु के दशाफल में जातक द्वारा किए गए प्रयत्नों से असफलता, नीच कर्मो में प्रवृति, परिजनों से कलह, धर्म-विरुद्ध आचरण से अपकीर्ति, पैतृक सम्पत्ति का नाश, माता की मृत्यु, पानी में डूबने की आशंका प्राय
केतु का दशाकाल सुखद न होकर पीड़ायुक्त ही व्यतीत होता है।
शुक्र-यदि चन्द्रमा की महादशा में शुभ एव बली शुक्र का अंतर व्यतीत हो रहा हो तो जातक की बृद्धि सात्विक होती है, पुत्रोत्सव होता है तथा इस उपलक्ष्य में ससुराल से प्रचुर मात्रा में दहेज मिलता है अथवा किसी अन्य व्यक्ति से उसे धन-प्राप्ति होती है क्या सुकोमल एव सुन्दर रित्रयों का संग ह्रदय में प्रसन्नता भर देता है । जातक को वाहन, वस्त्रालंकार, राज्य और समाज में प्रतिष्ठा, उच्च पद की प्राप्ति और भाग्य में वृद्धि होती है । यदि चन्द्रमा क्षीण तथा शुक्र पाप प्रभावी और अशुभ स्थानगत हो तो इससे विपरीत फल मिलते हैं । विषय-वासना की अधिकता, लांछन, बदनामी, देह दुख, रोग, पीडा, वाद-विवाद में पराजय, स्त्री सुख का नाश, मधुमेह, सूजाक आदि रोग और मन को सन्ताप निलता है।
सूर्य-बलवान और शुभ सूर्य की अन्तर्दशा जब चन्द्रमा की महादशा में चलती है तो राज्य कर्मचारियों को पदवृद्धि, वेतनघृछि अथवा अन्य प्रकार से लाभ मिलता है। इस समय जातक का शत्रुपक्ष निर्जल, वाद-विवाद में जय, उत्तम स्वास्थ्य, राजा के समान वैभव, ऐश्वर्य तथा स्वर्गोपम सुखों की प्राप्ति, स्त्री व पुत्र-सूख में वृद्धि तथा परिजनों से लाभ मिलता है। यदि चन्द्रमा क्षीणावट्यश का और सूर्य नीच, पाप प्रभाव में अथवा अशुभ स्थानगत हो तो इस दशा में किसी विधवा स्त्री के द्वारा अपमान, दूसरों की उन्नति से ईष्यों द्वेष, पिता की मृत्यु अथवा संक्रामक रोगी होते की सम्भावना, पित्तज्वर, आमातिसार, सदीं-जुकाम आदि रोगों से देहपीड़ा, मन में व्यर्थ की विकलता, चोर व अग्नि से सम्पत्ति की हानि आदि फल मिलते है।
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सूर्य की महादशा में अंतर्दशा का फल

सूर्य-यदि कुण्डली में सूर्य कारक हो, उच्च राशि का हो तथा पाप प्रभाव से रहित हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल देता है । जातक के धन-घान्य की वृद्धि होती है, उसे पदोन्नति का अवसर निर्माता है । राज्यस्तरीय सामान प्राप्त होता है, अपने समाज में मान-प्रतिष्ठा बढती है । जातक के सभी कार्य अनायास ही हो जाते हैं । अकारक एव पाप प्रभावी सूर्य की अन्तर्दशा में जातक के शरीर में गर्मी बढ जाती है, कोडा-मुरी, चकत्ते, खाज जैसे रोग उसे पीडित करते हैं। जातक के मन में अशान्ति उत्पन्न होती है तथा उसके चित को परिताप पहुंचता है । आय की अपेक्षा व्यय बढा-चढा रहता है, फलत: आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है। पदावनति, स्थानान्तरण, अधिकारियों से विरोध जैसी आपत्तियां जाती है तथा व्यर्थ भटकना पड़ता है ।
चन्द्रमा-यदि कुण्डली में चन्द्रमा उच्च राशि का, स्वगृही, मित्रक्षेत्री, शुभ प्रभाव में होकर सूर्य का मित्र हो तथा सूर्य से केन्द्र, धन अथवा साय स्थान में स्थित हो तो शुभ फल प्रदान करता है । चन्द्रमा की शुभ दशा में जातक धन-घान्य में वृद्धि कर लेता है तथा नौकरी करता हो तो पदोन्नति होती है। उसे स्त्री एव सन्तति सुख मिलता है, विरोधी गुटों से सन्धि होती है । मित्र वर्ग, विशेषता स्त्री मित्रों से लाभ रहता है । ऐसे समय में जातक में भावावेग बढ़ जाता है क्या वह कल्पना में विवरण करता है तथा कविता, सिनेमा एव प्राकृतिक दृश्यों आदि का अवलोकन करने में विशेष रुचि लेता है। यदि चन्द्रमा क्षीणावस्था में, पाप प्रभाव से, सूर्य से छठे या आठवें स्थित हो तो अशुभ फल ही मिलते है। जातक में कामवासना बढ जाती है, प्रेम-प्रसंगों से अपयश मिलता है, धन हानि तथा लोगों में व्यर्थ की तकरार होती है । कई प्रकार के रोग जैसे जलोदर, आमातिसार, नजला, जुकाम आदि उसे घेर लेते है।
मंगल-यदि कुण्डली में मंगल उच्च राशि का होकर शुभ प्रभाव में तथा दशानाथ से व शुभ लग्न से शुभस्थानगत हो तो जातक इसकी दशा में भूमि एव कृषि-कार्यों से लाभ प्राप्त कर लेता है । जातक को नवीन गृह की प्राप्ति होती है। यदि मंगल लाभ अथवा भाग्य भाव के अधिपति से युक्त हो तो जातक को विशेष रूप से वाहन, मकान एव धन का लाभ होता है। यदि जातक सेना में हो तो उसे उच्च पद प्राप्त होता है अथवा उसकी पदोन्नति होती है ।यदि मंगल अशुभ अवस्था में होकर त्रिक स्थान में स्थित हो तो जातक को सेना, पुलिस व चोर लुटेरों से भय रहता है, मित्रों-परिजनों से व्यर्थ के झगडे होते हैं, धन व भूमि का नाश तथा अर्श, रक्तपित्त, नेत्रपीड़ा, रक्तचाप एव मन्दाग्नि जैसे रोग हो जाते हैं । जातक का चित्त दुर्बल हो जाता है तथा विफलता एव घबराहट बढ़ जाती है ।
राहु-राहु चूँकि सूर्य का प्रबल शत्रु है, अत: सूर्य महादशा में राहु की अंतर्दशा कोई विशेष फल प्रदान नहीं कर पाती। यदि राहु शुभ ग्रह व राशि में होकर सूर्य से केन्द्र, द्वितीय अथवा एकादश भाव में हो तो दशा के प्रारम्भ में कुछ अशुभ फ़ल एव अन्त में कुछ अच्छे फल प्रदान करता है । जातक निरोग बना रहता है । भाग्य में अचानक वृद्धि, पुत्रोत्सव, घर में मंगल कार्य, प्रवास पर जाने से लाभ एव पदोन्नति क्या स्थानान्तरण जैसे माल देता है। यदि पाप प्रभाव में स्थित राहु सूर्य से त्रिक स्थान में गया हो तो जातक को राजकीय दण्ड की आशंका बनती है । आप्तजनों से पीड़ा, कारावास, अकाल मृत्यु, सर्पदंश का भय, धन, मन, भूमि और द्रव्य का नाश होता है । इस दशाकाल में जातक सुख की एक सास तक नहीं ले पाता।
बृहस्पति-सूर्य की महादशा में उच्च, स्वक्षेत्री, पित्रक्षेत्री या शुभ प्रभावी बृहस्पति की अंतर्दशा चले तो जातक को अनेक शुभ पाल मिलते है । जातक अविवाहित हो तो सर्वगुण सम्पन्न जीवन-साथी मिलता है, उच्च शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षा में सफलता, धन व मान-सम्मान की प्राणि, राज्यकूपा, पदोन्नति, देवाराधन में रुचि, ब्राह्मण, अथिति, साधु-सन्यासी की सेवा करने की प्रवृत्ति बनती है । शत्रु परास्त होते हैं, परिवार में महोत्सव क्या आप्तजनों से लाभ रहता है।यदि बृहस्पति नीव का, पाप मध्यत्व मेँ, पापी ग्रहों से दृष्ट अथवा युक्त होकर सूर्य के त्रिक स्थान में स्थित हो तो अपनी अंतर्दशा में जातक को स्त्री व सन्तान-पीडा, देह-पीडा तथा मन में भय उत्पन्न करता है । जातक पाप कर्मो में लगा रह कर अपना सर्वनाश कर
लेता है क्या पित्तज्यर, पीलिया, कामला, अस्थि-पीडा और क्षयरोग से पीडित होता है ।
शनि-राहु की भाँती शनि भी सूर्य का शत्रु ग्रह है। इस दशाकाल में जातक को बहुत कुछ राहु जैसे ही फल मिलते हैं, लेकिन जातक पापकर्मा नहीं बनता । शनि अपने अन्तर्दशा काल में जातक को स्वल्प यन-धान्य की प्राप्ति कराता है तथा उसके शत्रु नष्ट होते हैं । यदि शनि उच्च अथवा स्वक्षेत्री होकर केन्द्र, द्वितीय, तृतीय या जाय स्थान में हो तो जातक का कल्याण होता है, निम्न वर्ग के तीनों से उसे लाभ रहता है, न्यायालय में लम्बित केसों में उसे विजय निलती है, लेकिन यदि अशुभ शनि सूर्य से त्रिक स्थान में गया हो तो जातक की बुद्धि अमित हो जाती है, पिता-पुत्र में वैमनस्य बढ़ जाता है, शत्रुओ की प्रबलता के कारण चित्त को परिताप पहुंचला है, अधिकार हानि व पदावनति होकर कवि-व्यवसाय चौपट हो जाता है । वृत्ति का हास एवं शारीरिक-शक्ति क्षीण हो जाती है, आत्मघात करने की इच्छा होती है, जन्मस्थान को त्यागना पड़ता है, वायुरोग प्रबल हो जाते हैं, जेसे स्वास, अफारा, दांत व कान में पीडा, दाद, छाजन आदि रोग पीडित करते हैं
बुध-बुध एक ऐसा ग्रह है जो सूर्य के साथ रहकर भी अस्त फल नहीं देता । यदि बुध परमोच्च, स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री, शुभ ग्रहों से प्रभावित और सूर्य से न्निक स्थान में न हो तो जातक राश्यकूपा पा जाता है। उसे स्वी-पुत्रादि का पूर्ण सुख मिलता है तथा वाहन व वस्वाभूषणों की प्राप्ति होती है। यदि बुध भाग्य स्थान में भाग्येश से 'युक्त हो तो जातक की भाग्यवृद्धि करता है, यदि लाभ स्थान में हो तो व्यवसाय में प्रबल वृद्धि होकर धनार्जन होता है । यदि कर्म स्थान में कर्मेश से युक्त हो तो सत्कर्पो में रुचि, मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि व पदोन्नति होती है । जातक संपूर्ण सुख पा लेता है। अशुभ बुध छठे या जाओं स्थित हो तो जातक मन से अज्ञान रहता है, प्रवास अधिक करने होते हैं तथा धन-हानि होती है और स्वास्थ्य क्षीणा हो जाता है । कार्य-व्यवसाय ठप्प हो जाता है, इष्ट-मित्रों से सन्ताप पहुंचता है । जातक को विशु, चर्प रोग, दाद, खुजली, फीड़ा-फुन्सी जूती-ताप, स्नायुदोबंल्य, जिगर-तिल्ली या अजीर्ण आदि जैसे रोग घेर लेते है तथा जातक अपने धन का एक बड़। भाग दवा-दारू पर व्यय करने को बाध्य हो जाता है।
केतु-यदि सूर्य महादशा में केतु की अंतर्दशा चल रही हो तो थोडे शुभ फलों को भी जातक भूल जाता है, क्योंकि प्राय इस दशा में अशुभ फल ही अधिक मिलते है । देह-पीडा व स्वजनों से विछोह हो जाता है । शत्रु वर्ग प्रबल हो जाता है, पदावनति होती है, स्थानान्तरण ऐसी जगह होता है जहां जातक कष्ट ही कष्ट झेलता है । दशा के प्रारम्भ काल में थोडे शुभ फल निलते हैं, अल्प धन की प्राप्ति, देह-सुख एव स्त्री-सुख मिलता है, शुभ कर्मों में भी रुचि रहती है, लेकिन सूर्य से त्रिक स्थान में स्थित केतु की दशा में धन व स्वास्थ्य की हानि होती है, मनस्ताप मिलता है, परिजनों से झगडे होते हैं, दुष्ट संगति में रहने से राज्यदण्ड मिलता है, दुर्घटना में हड्डी टूटने का भय बढ जाता है तथा पदावनति होती है।
शुक्र--यदि शुक्र उच्च राशि, स्वराशि व नित्य राशि का हो तथा शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट हो तथा सूर्य से दुस्थान में स्थित न हो तो सूर्य महादशा में शुक्र की अंतर्दशा अतीव शुभ फलों के देने वाली होती है । विवाहोत्सव, पुत्रोत्सव आदि अनेक मंगल कार्य स्थान होते है । राज्य सरीखे वैभव की प्राप्ति होती है । पशुधन, रत्न, आमूषण,मिष्ठान्न भोजन एव विविध वस्त्रालंकार मिलते है । नौकर-चाकर, वाहन व मकान का पूर्ण सुख मिलता है तथा मान-सन्मान में वृद्धि होती है। यदि शुक्र नीच राशि का व पाप प्रभावी होकर सूर्य से त्रिक स्थान से हो तो मानसिक कलह, पत्नी-सुख में कमी, सन्तति-कष्ट व विवाह में अवरोध उत्पन्न होते हैं, स्वजनों से वैमनस्य बढ़ता हे, शिरोवेदना, ज्वरातिसार, शूल, प्रमेह, स्वप्नदोष व शुक्रदोष जैसी व्याधिया होती हैं ।
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Friday 13 November 2015

शनि की महादशा का फल

शुक्र नैसर्गिक शुभ ग्रह होकर भी काम और सुख का कारक माना जाता है। यदि जातक की कुण्डली में शुक्र कारक होकर उच्च राशि, मूल त्रिकोण राशि, स्वराशि या मित्र राशि का होकर केन्द्र अथवा त्रिक्रोण में स्थित हो तो अपनी दशा में सदैव,कामसुख, भोग एवं ऐश्वर्य प्रदान करता है। यदि जातक के बाल्यकाल में शुक्र महादशा प्रारम्भ हो तो जातक सात्विक एव निर्मल बुद्धि वाला होता है, पढने-लिखने में उसका चित्त रमता और वह बिना किसी विशेष प्रयत्न के ही परीक्षाएं पास कर लेता है। इस दशाकाल में जातक की रुचि श्रृंगार की ओर स्वाभाविक रूप से रहती है, वह अपने स्वय के रख-रखाव को अधिक महत्व देता है तथा सुगन्धित वस्तुओं एव वस्त्राभूषण पर धन व्यय करता है। ऐसे समय में जातक के चित्त में चंचलता वनी रहती है । चलचित्र, नाटक, नाच, गाने आदि देखने-सुनने में उसे विशेष आनन्द का अनुभव होता है । प्रेम कहानी, उपन्यास एव प्रेमरस प्रधान कविताए पढने में उसका मन लगता है । यदि जातक लेखक हो तो ऐसी ही रचनाएं रचता भी है । अभिनय क्षेत्र में रुचि लेकर उच्च स्थान प्राप्त करता है । युवकों के लिए यह दशा मिले-जुले फल प्रदान करती है । यदि जातक चन्द्र को छोडकर अन्य ग्रहों से प्रभावित हो तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर वकील या जज बन जाता है अथवा स्वतन्त्र कारोबार करता है । लेखक अथवा सम्पादक भी बन जाता है । समीक्षक हो तो समालोचना में व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग नहीं करता, अपितु मधुर कटाक्ष ही करता है ।शिल्प कलाओं, ललित कलाओं और काव्य-सृजन से धन और मान अर्जित कर लेता है । नए-नए लोगों से उसकी मित्रता होती है तथा उनके द्वारा उसे आनन्ददायक पदार्थों के उपहार मिलते हैं । सुघड़ और सुन्दर स्त्रियों से रमण करने के अवसर प्राप्त होते है । उत्कृष्ट वाहन व् सुन्दर आवास उपलब्ध रहता है तथा आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनती है ।देश-विदेश में अपना व्यवसाय फैलाकर जातक अटूट लक्ष्मी का स्वामी बनता है । इस दशा में जातक सुन्दर भवनों का निर्माण करता है उधान, बाग़-बगीचे बनवाता है । उसके घर में मांगलिक कार्य होते है,कन्या रत्न की उत्पति पर उत्सव मनाता है और विवाहोत्सव पर अत्यधिक व्यय करता है । यदि जातक राजनीति में हो तो उसे मंत्री पद मिलता है, विश्व की प्रत्येक विलासिता की वस्तु उसे सहज ही सुलभ हो जाती है ।इस दशाकाल में कामवासना प्रबल हो जाती है और जातक घार्मिक कृत्यों को अधिक महत्व नहीं देता । उसकी आय के कई स्रोत होते है तो वह व्यय भी खुले हाथो करता है | यदि कुण्डली में शुक्र अकारक होकर नीच राशि या शत्रु राशि का हो अथवा पाप मध्यत्व में हो या पापी ग्रहों से दुष्ट या युक्त हो तो उपरोक्त सभी फलों का विरोधाभास होता है ।जातक दूसरों का उपकार करके भी घृणा का पात्र बनता है । उसकी कामवासना इतनी बढ़ जाती है कि वह अपनी वासनापूर्ति के लिए नैतिक-अनैतिक सभी तरीके अपनाने पर बाध्य हो जाता है । अपने वर्ग और समाज में बदनाम होता है । भ्रष्ट स्त्रियों के सम्पर्क में जाकर अपना धन गंवाता है । साथ ही स्वास्थ्य को भी क्षीणा कर लेता है तथा मधुमेह,स्वप्नदोष एव अन्य इन्दियजनित। यदि शुक उच्च राशि का होकर सप्तमस्थ हो, लेकिन नवांश में नीच का हो गया हो तो अपनी दशा में घनहानि, भाग्यहीनता,बन्धु-बांधवों से बैर,स्त्री से वियोग तथा कलह आदि प्रदान करता है । षष्ठ भाव से पापी शुक्र जातक को अनेक रोगों से पीडित करता है । जातक को प्रमेह, मूत्रकृच्छ, आतशक, सूजाक,पामा जैसे रोग घेर लेते हैं और इनकी चिकित्सा पर उसे भारी व्यय करना पड़ता है । स्त्री का स्वास्थ्य क्षीण हो जाता है अथवा पत्नी से वियोग हो जाता है । आयु स्थान में होकर भी अशुभ शुक्र के फल अशुभ ही होते हैं । व्यय स्थानगदा शुक्र की दशा में जातक प्रवास अधिक करता है उसकी स्थानच्युती होती है, पत्नी से वियोग, शय्या सूख में कमी एवं धनहानि जैसे अशुभ फल अनुभव में आते हैं।
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बृहस्पति की महादशा का फल

यदि कुंडली में बृहस्पति करक हो,उच्च राशी,मूल त्रिकोण राशी,स्वर राशी या मित्र राशी में स्थित हो,शुभ ग्रह से युक्त अथवा दुष्ट हो तथा केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हो तो अपनी दशा में जातक को बहुत शुभ फल प्रदान करता है | यदि बृहस्पति नीच राशी का होकर उच्च नवांश में हो तो जातक राज्यकृपा प्राप्त करता है,पदोन्नति होती है, गुरुकृपा से विधोपार्जन होता है,देवाराधना में वित्त रमता है तथा जातक धन-कीर्ति पा लेता है बृहस्पति की शुभ दशा में जातक चुनाव में विजयी होकर ग्रामसभा का प्रधान, पालिकाप्रधान अथवा विधानसभा का सदस्य भी बन जाता है। केन्दीय मंत्रिमंडल की कृपा पाकर धन-धान्य में वृद्धि कर लेता है तथा यशोभागी होता है । दर्शन के प्रति उसकी रूचि बढती है,वेद-वेदांग का अध्ययन करने का अवसार मिलता है तथा जातक अनेक अच्छे ग्रंथो की रचना करता है, जिसके कारण देश-विदेश में उसकी ख्याति फैलती है | अनेक वरिष्ट अधिकारियों से उसके सम्पर्क बढ़ते हैं, विदेश यात्रा के योग बनते है तथा राज्याधिकार प्राप्त करने के अवसर भी मिलते हैं । जातक का बौद्धिक विकास होकर उसमें न्यायपरायाणता जाती है तथा जातक ऐसे कार्य करता है जिससे देश और समाज का कल्याण हो। वह घार्मिक कार्यों में विशेष रुचि लेता है तथा प्याऊ व घार्मिक स्थानों के निर्माण में धन का सद्व्यय करता है। कथा-कीर्तन में बढ़-चढ़कर भाग लेता है, ब्राह्मण, गुरु और साधुओं के उदर-साकार को संदेय तत्पर रहता है। बृहस्पति की शुभ दशा में जातक के घर में अनेक मंगल कार्य होते है । देह में निरोगता व् मन में प्रसन्नता बनी रहती है । पुत्रोत्सव से मन में हर्ष होता है, घर में सुख-शान्ति बनी रहती है और पत्नी का विशेष अनुग्रह प्राप्त होता है । शत्रु परास्त होते है वाद-विवाद में विजय मिलती है । परीक्षार्थी इन दिनों में सफल रहते है । प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता मिलती है क्या उच्च पद प्राप्त होता है । जातक की मन्त्रणाशक्ति का विकास होता है तथा उसकी सभी अभिलाषाएं पूर्ण हो जाती है। जातक इस दशाकाल में राज्य की ओर से उच्च सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त कर लेता है | यदि बृहस्पति उच्च राशि का हो, लेकिन नवांश में नीच का हो गया हो तो जातक घोर कष्ट भोगता है। उसका धन चोरों द्वारा हरण कर लिया जाता है, स्त्री से वियोग होता है, संतान के कारण उसे अपयश मिलता है । यदि बृहस्पति अकारक हो, नीच राशि, शत्रु राशि, अस्त, वक्री एव पाप मध्यत्व में होकर बुरे भावों में स्थित हो तथा पापी ग्रह से युक्त अथवा दुष्ट हो तो अनेकानेक अशुभ फलों का अनुभव कराता है । यदि बृहस्पति राहू से संबंध करता हो तो जातक को सर्पदंश का भय बनता है, विषपान से देह-पीड़ा भोगनी पाती है, शत्रु के द्वारा शस्त्रघात का भय भी बनता है ।यदि बृहस्पति मारक ग्रह के साथ हो तो मृत्युसम कष्ट अथवा मृत्यु भी हो सकती है, स्त्री पुत्रों द्वारा अपमानित होना पड़ता है तथा अनेक कष्ट झेलना पड़ते हैं । जातक में अधीरता आ जाती है, स्थिर मति से कोई भी कार्य न करने के कारण प्रत्येक कार्य में उसे असफलता ही मिलती है। वह ब्राह्मण, गुरु से द्वेष रखता है । अपने उच्चधिकारियों के विरोध का उसे सामना करना पड़ता है तथा जातक की पदोन्नति में बार-बार विघ्न उपस्थित होते हैं। परीक्षार्थियों को परीक्षा में कठिनता से ही सफलता मिलती है। परिजनों से मनोमालिन्य बढ़ता है, तीर्थ पर जाने का अवसर प्रथम तो मिलता ही नहीं, मिले भी तो कोई विघ्न उपस्थित होकर जाना स्थगित करा देता है । स्वयं को भी रोगों के कारण प्रताडित होना पड़ता है, सन्तान के स्वास्थ्य की चिन्ता बनती है । यदि अशुभ बृहस्पति शत्रु स्थान में हो तो जातक गुल्परोग, रक्तातिसार एवं कष्ट रोग से पीडित होता है। यदि बृहस्पति अष्टम भाव में हो तो अपनी दशा में जातक को वाहन, आवास व सन्तान की हानि कराता है । जातक को विदेशवास तक करना पड़ता है । व्यय स्थानगत होकर शय्या सुख में कमी, स्त्री की मृत्यु अथवा वियोग, राज्यदण्ड का भय, बान्धवो को कष्ट तथा विदेश यात्रा में स्वय को कष्ट जैसे फल प्रदान करता है ।
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Thursday 12 November 2015

भैया दूज की कथा

 

भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ला का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया। यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया। यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।
यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो। मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की। इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है।

भाई दूज

भाई दूज का त्योहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ़ करता है। यह त्योहार दीवाली के दो दिन बाद मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में भाई-बहन के स्नेह-प्रतीक दो त्योहार मनाये जाते हैं - एक रक्षाबंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भाई बहन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा त्योहार, 'भाई दूज' का होता है। इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती हैं। भाई दूज का त्योहार कार्तिक मास की द्वितीया को मनाया जाता है। भैया दूज को भ्रातृ द्वितीया भी कहते हैं। इस पर्व का प्रमुख लक्ष्य भाई तथा बहन के पावन संबंध व प्रेमभाव की स्थापना करना है। इस दिन बहनें बेरी पूजन भी करती हैं। इस दिन बहनें भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती हैं। इस दिन बहनें भाइयों को तेल मलकर गंगा यमुना में स्नान भी कराती हैं। यदि गंगा यमुना में नहीं नहाया जा सके तो भाई को बहन के घर नहाना चाहिए। यदि बहन अपने हाथ से भाई को जीमाए तो भाई की उम्र बढ़ती है और जीवन के कष्ट दूर होते हैं। इस दिन चाहिए कि बहनें भाइयों को चावल खिलाएं। इस दिन बहन के घर भोजन करने का विशेष महत्व है। बहन चचेरी अथवा ममेरी कोई भी हो सकती है। यदि कोई बहन न हो तो गाय, नदी आदि स्त्रीत्व पदार्थ का ध्यान करके अथवा उसके समीप बैठ कर भोजन कर लेना भी शुभ माना जाता है। इस दिन गोधन कूटने की प्रथा भी है। गोबर की मानव मूर्ति बना कर छाती पर ईंट रखकर स्त्रियां उसे मूसलों से तोड़ती हैं। स्त्रियां घर-घर जाकर चना, गूम तथा भटकैया चराव कर जिव्हा को भटकैया के कांटे से दागती भी हैं। दोपहर पर्यन्त यह सब करके बहन भाई पूजा विधान से इस पर्व को प्रसन्नता से मनाते हैं। इस दिन यमराज तथा यमुना जी के पूजन का विशेष महत्व है।

अवसाद और ग्रहों का प्रभाव -

बच्चों के कैरियर या लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में छोटी सी असावधानी कई योग्य बच्चों के तनाव तथा अवसाद से उनके कैरियर के भटकाव का कारण भी बनता है। तनाव या अवसाद की विभिन्न स्थिति को कुंडली के माध्यम से बहुत अच्छी प्रकार विष्लेषित किया जा सकता है। यदि किसी जातक का तृतीयेष बुध होकर अष्टम स्थान में हो तो जल्दी तनाव में आने का कारण बनता है वहीं किसी प्रकार से क्रूर ग्रह या राहु से आक्रांत या दृष्ट होने पर यह तनाव अवसाद में जाने का प्रमुख माध्यम बन जाता है। जब बुध की दषा या अंतरदषा चले तो ऐसे में तनाव को होना प्रभावी रूप से दिखाई देता है। ऐसे में व्यक्ति को कम नींद, आहार तथा व्यवहार में अंतर दिखाई देता है। इस प्रकार तनाव का प्रभाव उस जातक के प्रदर्षन पर भी दिखाई देता है। अतः यदि किसी भी प्रकार से तृतीयेष बुध अष्टम में हो और बुध की दषा या अंतरदषा चले तो जातक को बुध की शांति के साथ गणपति के मंत्रों का वैदिक जाप हवन तर्पणा मार्जन आदि कराकर हरी वस्तुओं के सेवन के साथ तनाव से बाहर आकर सामान्य प्रयास करने से भी अवसाद से बाहर आने में मददगार साबित होती है।
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जीवन का सर्वश्रेष्ठ वरदान प्रेम- कुंडली से जाने की आपको प्राप्त होगा या नहीं -

मानवीय शक्तियों में प्रेम को सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। प्रेम में मनुष्य का जीवन बदल देने की शक्ति होती है। प्रेम के प्रसाद से मनुष्य की निर्बलता और दरिद्रता, शक्तिमत्ता और सम्पन्नता में बदल जाती है। प्रेम पूर्ण जीवनचर्या में अशांति और असंतोष तो पास फटकने तक नहीं पाते। प्रेम मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ वरदान माना गया है। किसी व्यक्ति को प्रेम प्राप्त होगा या नहीं और यह प्रेम कितना सफल होगा जाने कुंडली के विष्लेषण से...किसी जातक की कुंडली में अगर किसी भी स्थान का स्वामी अपने स्थान छठवे आठवे या बारहवे स्थान पर हो तो उसे स्थान से संबंधित प्रेम की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि किसी वस्तु या व्यक्ति से सुख तथा आनंद की प्राप्ति ही प्रेम है। इसलिए जैसे किसी की कुंडली में दसम स्थान का स्वामी लग्न या भाग्य स्थान से अनुकूल संबंध ना बनाये तो उस व्यक्ति को अपने पिता, बाॅस, कार्य तथा अवसर की अनुकूल प्राप्तियाॅ नहीं होगी जिससे उसे सुख तथा आनंद नहीं प्राप्त होगा अतः यदि दसमेष छइवे, आठवे या बारहवे स्थान पर हो जाए या क्रूर ग्रहों से पापक्रांत हो तो उसे पिता का प्रेम प्राप्त नहीं होगा तथा कार्य का सुख भी प्राप्त नहीं होगा। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति का पंचमेष या सप्तमेष प्रतिकूल हो तो उसे पार्टनर का प्रेम प्राप्त होने में बाधा आयेगी। इस प्रकार सुख तथा आनंद की प्राप्ति ही प्रेम है और यदि इसे संपूर्ण तौर पर प्राप्त करना चाहते हैं तो अपनी कुंडली का विष्लेषण कराकर पता करें कि आपके जीवन में किस प्रकार के सुख या प्रेम की कमी है और उस प्रेम को प्राप्त करने के लिए उससे संबंधित ग्रह की शांति जिसमें ग्रह दान, मंत्रजाप तथा रत्न धारण करना चाहिए।
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Gand Mool Nakshtra

People are scared to learn that their child has been borne in Ganda Mool. They feel some kind of calamity would befall, on the family in near future if shanti pooja is not done on 27th day of the birth. Therefore those who consult an astrologer for birth horoscope would invariably go for 'shanti'. In the past when parents were not so particular about horosocpe of the newly born, would obviously not perform Ganda Mool shanti. Astrologers, on their part, would always recommend for 'Mool Shanti' even if the nakshatra charan 'phala' is found to be positive. Even when examining the horoscope of an elder person, Ganda Mool nakshatra comes to the notice of the astrologer, generally the astrologer would blame the Ganda Mool nakshatra for all the problems faced by the native and recommend for Mool shanti. Thus Ganda Mool nakshatra is treated at par with other doshas like Kaal Sarpa, Pitri, 'Dhaiyya' or 'Sadhesati' of shani, Manglik doshas etc. Ganda Mool Shanti should be performed upto 27 months or maximum 7 years age of the child, thereafter it is irrelevent. Birth Nakshatra is part of the Panchang In astrology five parameters of Panchang are applied to assess the auspiciousness or otherwise of any event. This is extensively used in forecasting of Muhurta time for any important event of life. The birth of a person is the most important happening of his life. The configuration of planets at birth time form the horoscope from which we can decipher the quality of one's entire life, the good and bad periods of life, health, longevity, educational and professional field, financial position, family relations etc. In fact astrology enables us to reply to any query raised by the native about any aspect of life. The birth time horoscope is equivalent to the seed of a plant which contains all the information about the sprouting of the seed, the size and colours of its branches, leaves, flowers, fruits, the blooming time, its utilities as a gift of nature. The five parameters of Panchang are : 1. Tithi, 2. Vaar, 3. Nakshatra, 4. Yoga, 5. Karan Thus birth nakshatra is one of the five consttituents of Panchang. It is the nakshatra of the Moon at the time of birth. Every component of the Panchang is important. There are good tithis and bad tithis. Apart from rikta tithis, chaturdashi and amavasyas are considered inauspicious in krishna paksha. Among the Vaars, Tuesday, Saturday and Sunday are not auspicious. There are ten yogas, out of 27, which are supposed to be inauspicious. Among the Karans, Vishti Karan or Bhadra is highly inauspicious while sthir karans such as Shakuni, Chatuspada, Naag and Kinstughna are also not so auspicious. Similarly among the nakshatras, six nakshatras out of twenty seven, are supposed to be inauspicious. Three of these viz. Ashwini, Magha and Mool belong to Ketu and another three viz. Ashlesha, Jyeshtha and Revati belong to planet Mercury. These six nakshatras are referred to as Ganda Mool nakshatras. In our opinion, Birth Nakshatra is the most important constitutent of the birth time panchang. Moon in astrology is as important as the ascendant. Moon's rashi is called the birth or Janma rashi of the native. Moon's nakshatra is the basis for calculating the dasha cycle of the native because the first Vimshottari dasha belongs to the lord of the Moon's nakshatra. In muhurta calculations, the Moon's rashi of the person is taken into consideration. Again for studying the impact of transiting planets, Moon's rashi is taken as the lagna and accordingly the auspicious houses of the planets are decided. In this way Moon's nakshatra is highly important factor to influence the life of the native. Gandanta time is inauspicious 'Ganda' in Sanskrit language is the 'Sandhi' time or the knot tied between two important parameters of time for connecting one to the other. As a knot, to tie two pieces of thread, is a weak spot, similarly Gandanta time is a weak link between two astrologically important factors. Brihat parashar Horashashtra has mentioned three types of Gandanta in chapter 94 under "Gandanta Lakshan." Thus according to sage Parashar, Tithi, Nakshatra and Lagna are three types of Gandanta which are inauspicious like death at the time of birth, travel or marriage like ceremonies. The two ghati of end of Revati and beginning of Ashwini, Ashlesha end and beginning of Magha, Jyeshtha end and Mool's beginning, thus Nakshatra Gandanta is of 4 ghatis between three pairs of Ganda Mool nakshatras. Half a ghati each of Meena-Mesh, Karka-Singh, Vrishchika-Dhanu, thus one ghati of these three pairs of lagnas form Lagna Gandanta. We can find from the above that lagna Gandantas also specify the same nakshatra pair as contained in Nakshatra-Gandanta. The ghati represents 24 minutes of time. We also find that all kinds of Sandhi kaal or transitional periods are considered troublesome, confusing and destructive. The concept of Gandanta is extended to Sun's sankranti (ingress into next rashi), Bhava-Sandhi, Dasha-Sandhi, Sandhya time in early morning and Sun's setting time in evening. These are supposed to be delicate and sensitive times. Any event happening at transition time can cause havoc in the life of the concerned person. We all know when one Ritu or season ends and the other begins e.g. summer-rainy, autumn-winter, winter-spring etc. the immune system is weak and is challenged by seasonal change. Ganda Mool Nakshatras The names of the six Ganda Mool nakshatras with their serial numbers are : 1 Ashwini, 27 Revati, 10 Magha, 9 Ashlesha, 19 Mool, 18 Jyeshtha While Ashwini, Magha and Mool belong to Ketu and fall at the beginning of Mesh, Simha and Dhanu rashis (all Agni tatwa rashis), Revati, Ashlesha and Jyeshtha belong to Mercury and fall at the end of Meena, Karka and Vrishchika rashis (all Jal tattwa rashis). Thus we note that the sandhi or joining point of these three pairs of nakshatras also happens to be the joining point of two mutually contradictory elements of fire and water. The birth of a child in Gandanta Mool nakshatra is very critical, either the child does not survive or if it survives then achieves special name and fame in its life but still it is very troublesome for the parents. According to Brihat Parashar Horashashtra The birth of a child in Gandanta Mool nakshatra is very critical, either the child does not survive or if it survives then achieves special name and fame in its life but still it is very troublesome for the parents.