Tuesday 29 March 2016

तंत्रों मन्त्रों का इतिहास और महत्व

तंत्र वेदों में नहीं है, फिर भी उसके प्रभाव एवं प्रामाणिकता को नकारा नहीं जा सकता। हाथों में लगाई जाने वाली मेहंदी, आंगन द्वारों पर चित्रित की जाने वाली अल्पना, बालक के संध्या काल पैदा होने पर लगाए जाने वाले स्वास्तिक और डलिया की आकृति, दीपावली और अन्य त्योहारों पर सजाई गई रंगोली आदि तंत्र के प्रतीक हैं। शिव जी स्वयं तंत्र के देवता हैं। तंत्र की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाला तंत्र शास्त्र का प्रत्येक ग्रंथ शिव के उपदेश से ही प्रारंभ होता है। अतः कहा जा सकता है कि तंत्र शास्त्र को मानव तक पहुंचाने वाले स्वयं शिव ही हैं। इसीलिए वह तांत्रिकों के आदि देव हैं। समस्त भौतिक विस्तार और आध्यात्मिक अनंत तंत्र का विषय है। वाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के नौ लाख श्लोकों में एक लाख श्लोक भारत में हैं। तंत्र साहित्य विस्मृति, विनाश और उपेक्षा का शिकार होता आ रहा है। तंत्र शास्त्र के अनेक गं्रथ नष्ट हो चुके हैं किसी ग्रंथ में तंत्र ग्रंथ के उल्लेख व उद्धरण से ही पता चलता है कि अमुक तंत्र ग्रंथ भी था। मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। आज प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 199 तंत्र ग्रंथ हैं। जिनमें अधिकांश अनुपलब्ध हैं। वाराही तंत्र का यह विवरण कि भारत में एक लाख तंत्र श्लोक हैं नौ लाख श्लोकों की संख्या से असत्य इसलिए नहीं होता कि मूलतः उन एक लाख श्लोकों का ही विस्तार उन नौ लाख श्लोकों में है। तंत्र का विस्तार ईसा पूर्व से तेरहवीं शताब्दी तक बड़े प्रभावशाली रूप में भारत, चीन, तिब्बत, थाईदेश, मंगोलिया, कंबोज आदि देशों में रहा। तंत्र को तिब्बती भाषा में ऋगयुद कहा जाता है। समस्त ऋगयुद 78 भागों में है जिनमें 2640 स्वतंत्र ग्रंथ हैं। इनमें कई ग्रंथ भारतीय तंत्र ग्रंथों का अनुवाद हंै और कई तिब्बती तपस्वियों द्वारा रचित हंै। बुद्ध के अवतार के बाद बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ तंत्रों को एक नया क्षेत्र मिला अर्थात तंत्र का लक्ष्य अब दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होने लगा। तत्वतः भारतीय तंत्र के मूल तत्व ही बौद्ध साधना का अंग बने प्रारांतर में यत्किंचित परिवर्तन हो गया। इस दृष्टि से बुद्ध स्वयं तांत्रिक थे। नौवीं से ग्यारहवीं सदी तक बौद्ध-तंत्रों का ही चीनी और तिब्बती भाषा में अनुवाद होता रहा। इन तंत्र ग्रंथों में गुह्य क्रियाकांड, उपदेश, स्तोत्र, कवच, मंत्र और पूजा विधि का वर्णन किया गया है। भारतीय तंत्र शिवोक्त हैं और बौद्ध तंत्र बुद्धोक्त। भूटान में अतीश का नाम बहुत प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार वह बंगाली थे। ग्यारहवीं शताब्दी में उन्होंने तिब्बत और भूटान जैसे देशों में तंत्र का प्रचार किया। असल में गौड़ और बंग देश ही तंत्र का केंद्र थे। गुजराती में लिखे ‘‘आगम प्रकाश’’ में उल्लेख है कि अहमदाबाद, पावागढ़, पाटन और डवोई नगरों में देवी मंदिरों का निर्माण एवं प्राण प्रतिष्ठा बंगालियों द्वारा की गई। राजस्थान में कई देवी मंदिर हैं जिनमें बंगाली ही पूजक हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में आदिशक्ति की उपासना गौरी, गायत्री और लक्ष्मी के रूप में की जाती है। लक्ष्मी और गौरी, क्रमशः विष्णु और शिव की अर्धांगिनी होने के कारण पूज्य हैं। स्वतंत्र शक्ति के रूप में केवल वेदमाता गायत्री का रूप ही पूज्य है। वैष्णव संप्रदाय की साधना विधि में भी कर्मकांड है, पर वह तांत्रिक विधि जैसी नहीं है। गंभीरता से देखने पर सारे संप्रदायों और वादों का समाहार तंत्र की पूर्व पीठिका में ही हो जाता है। यहां तक कि योग जैसा विषय भी तंत्र का अंग बन जाता है। तांत्रिक विधि से आत्म साधन करने वाले को ज्ञान भी चाहिए, कर्म भी चाहिए और भक्ति भी। योग इन सबसे जुड़ा हुआ है। शंकर के पूर्ववर्ती बौद्ध भी तंत्र के प्रभाव में आ चुके थे। बुद्ध की घुंघराले बालों वाली प्रतिमा विशुद्ध रूप से तांत्रिक परिकल्पना है। बालों की घुंडियां सहस्रार के अगणित दलों की प्रतीक हैं। नाथ संप्रदाय में सिद्धि पद प्राप्त करने वालों में इतनी उत्कट शक्ति आ जाती थी कि जागतिक भावनाएं और संसार के पदार्थ उन्हें नहीं छू पाते थे। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ और नागार्जुन की अलौकिक सिद्धियों से संसार परिचत है। इन सिद्धों ने तंत्र से रहस्य लेकर अपनी साधना विधि निश्चित की और मंत्र विद्या में सरल एवं सुगम प्रयोग किया। आज जिन्हें प्राकृत या साबर मंत्र कहते हैं, वे इसी नाथ संप्रदाय की देन हैं। उन मंत्रों में संस्कृत शब्द नहीं है। बोलचाल के और किंचित रूप में रहस्यपूर्ण शब्दों से निर्मित ये मंत्र पूरा काम करते हैं। असल में इन शाबर मंत्रों में वज्रयान की वज्रडाकिनी अथवा वज्रतारा आदि से भी निकृष्ट कोटि के तामसिक देवों की प्रार्थना की जाती है, उनकी आन पर ही काम होता है। मुसलमानों के धर्मग्रंथ कुरान के अनुसार झाड़फूंक और मंत्रोपासना निषिद्ध है अर्थात अल्लाह से दुआ मांगने के सिवा किसी मंत्र का रूप कुरान की आयत नहीं है और न उसे सिद्ध करने की आज्ञा है। फिर भी साबर मंत्रों में मुहम्मद पीर की आन ली जाती है। विस्मिल्लाह के नाम की आन के साथ कुरान की आयत या साबरी विधि से शब्द-संयोजन कर के मंत्र की रचना कर ली जाती है। नाथ संप्रदाय भी तंत्र मार्ग की ही एक शाखा रहा है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि तंत्र वैदिक मार्ग नहीं है। इसलिए इसका आधार वेद में ढूंढना युक्तिसंगत नहीं। यक्षिणी साधना शिव उवाच: श्री शंकर जी कहते हैं कि अब मैं आगे यक्षिणियों के साधन प्रयोग का भली प्रकार वर्णन करता हूं जिसके सिद्ध हो जाने पर मनुष्यों की संपूर्ण कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। सर्वेषां यक्षिणीनां तु ध्यान कुर्यात्समाहितः। भगिनी मातृ, पुत्री स्त्री रूप तुल्य यथोप्सितम्।। 1।। भावार्थ: खूब सावधानी के साथ यक्षिणियों की साधना करनी चाहिए। यक्षिणी को इच्छानुसार बहन, माता, पुत्री या स्त्री के समान मान कर उनके रूपों का सावधानी से ध्यान करना चाहिए क्योंकि असावधानी होने पर सिद्धि प्राप्ति में बाधा पड़ जाती है। भोज्य निरामिषे चान्नं वज्र्य ताम्बूल भक्षणम्। उपविश्याजिनादौ च प्रातः स्नानत्वा न कंस्पृशत्।। 2।। भावार्थ: यक्षिणियों की सिद्धि करने में निरामिष (मांस रहित) भोजन करना चाहिए। पान आदि का भक्षण छोड़ दें, प्रातः काल स्नान कर मृगछाला पर बैठें, किसी का स्पर्श न करें।। नित्य कृत्या च कृत्वा तु स्नाने निर्जने जपेत। या प्रत्यक्षरा याति यक्षिणा वांछतध््राुवांः ।। 3 ।। भावार्थ: अपने नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान करके एकांत स्थान में बैठ कर जप करना चाहिए। जप तब तक करते रहें जब तक कि मनवांछित फल को देने वाली यक्षिणी प्रत्यक्ष रूप से न आ जाए। महा यक्षिणी साधना मंत्र: ¬ क्लीं ह्रीं ¬ ओं श्री महा यक्षिणी सवैश्यर्य प्रदायिन्यै नमः। मंत्र के तीन हजार बेल के वृक्ष पर बैठकर एक महीने तक जप प्रति दिन करें। आलस्य को बिलकुल त्याग दें। जहां पर जप करना हो वहां पर मांस, मदिरा तथा बलिदान पहले ही से रख लंे। अनेक रूप धारण करने वाली यक्षिणी आ जाए तो उसे देख कर डरें नहीं और जप करते रहें। जिस समय यक्षिणी बलिदान वगैरह लेकर वरदान देने को उद्यत हो उस समय जो इच्छा अपने दिल में आवे, वह वरदान स्वरूप उस से मांग लंे। यदि यक्षिणी पूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाए तो सब कुछ दे सकती है। यदि कोई इस प्रयोग को स्वयं न कर सके तो ब्राह्मण से भी करा सकता है या किसी ब्राह्मण की सहायता से इस प्रयोग की साधना कर सकता है। इस दौरान तीन कन्याओं को प्रतिदिन पवित्र खीर का भोजन कराकर तृप्त करें। यक्षिणियों द्वारा जो कुछ प्राप्त हो, उसे शुभ कार्य में खर्च करें क्योंकि अशुभ कार्यों में खर्च करने से सिद्धि भंग हो जाती है। धनदा यक्षिणी साधना मंत्र: अर्थदायी यक्षिणी च धनं प्राप्नोति मानवः।। ¬ ऐं ह्रीं श्रीधनं धनं कुरु कुरु फट् स्वाहा। इस मंत्र के 10000 जप करें। भावार्थ: यह यक्षिणी साधना पीपल के वृक्ष के नीचे एकाग्रचित्त होकर करनी चाहिए। इससे मनुष्य को धन की प्राप्ति होती है। पीपल वृक्ष के नीचे सावधानी से एकाग्रचित्त होकर निम्नलिखित मंत्र का जप करें। इससे अपुत्र को पुत्र की प्राप्ति होती है। शिवजी कहते हैं कि हमारा यह कथन मिथ्या नहीं है। मंत्र: ¬ ह्रीं ह्रीं ह्रीं पुत्रा कुरु-कुरु स्वाहा। इस मंत्र का 1000 बार जप कर सिद्धि कर लें। चण्डिका यक्षिणी प्रयोग मंत्र:¬ चण्डिके हंसः क्रीं क्रीं क्रीं क्लीं स्वाहा। विधि: इस मंत्र का जप शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक रात के समय करना चाहिए। जप चंद्रमा के उदय होने से लेकर अस्त तक करते रहें। इस मंत्र की संख्या प्रतिपदा से पूर्णिमा तक नौ लाख है। इसके करने से देवी प्रसन्न होकर अमृत देती है जिसके पान से मनुष्य अमर हो जाता है। हंसि यक्षिणी प्रयोग मंत्र: ¬ हंसि हंसि क्लीं स्वाहा विधि: पवित्रतापूर्वक नगर के भीतर प्रवेश कर के इस मंत्र के एक लाख जप करें। तत्पश्चात् दशम भाग को कमल की पत्तियों तथा घी के साथ मिलाकर हवन करें। ऐसा करने से देवी एक प्रकार का ऐसा अंजन देती है, जिसे नेत्र में लगाने से पृथ्वी में गड़ा धन दिखाई देने लगता है। उसे निर्विघ्न खोद कर निकाल सकते हैं। मदनी यक्षिणी प्रयोग मंत्र: मदने बिडम्बिनी अनंग संग सन्देहि देहि क्लीं क्रीं स्वाहा। विधि: एकाग्रचित्त होकर शुद्धतापूर्वक इस मंत्र का एक लाख बार जप करें। और दूध, घी, चमेली के फल मिलाकर अग्नि में एक हजार आहुति दें। ऐसा करने से यह यक्षिणी एक प्रकार का गुटका देती है जिसे मुख में रखने से मनुष्य अदृश्य हो जाता है। कर्ण पिशाचिनी यक्षिणी प्रयोग: मंत्र: ¬ क्रीं समान शक्ति भगवती कर्ण पिशाचनी चंद्र शेपनी वद-वद स्वाहा। विधि: सबसे पहले इस मंत्र को 10000 बार जप लें। तत्पश्चात ग्वार पाठे के गुच्छे को अपनी हथेलियों पर मल कर शयन करें तो रात के समय देवी सब शुभाशुभ फल कह देगी। चिचि पिशाचिनी यक्षिणी प्रयोग: मंत्र: ¬ क्री ह्रीं चिचि पिशाचिनी स्वाहा। विधि: गोरोचन, केसर और दूध को मिलाकर नीले रंग के भोज पत्र पर अष्टदल कमल बनाएं। तत्पश्चात हरेक दल पर माया बीज लिख कर सिर पर धारण करें। फिर मंत्र का जप पहले सात दिन तक यथासंख्यक करें। शुद्धतापूर्वक जप करने से यह देवी स्वप्न में तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) का हाल कह जाएगी। काल कर्णिक साधना मंत्र: ह्रीं क्रीं कालकर्णिके कुरु-कुरु ठः ठः स्वाहा। विधि पहले इस मंत्र का एक लाख बार जप करें और ढाक मंदार की लकड़ी, घी, शहद का हवन करें। ऐसा करने से काल कर्णिका प्रसन्न होकर अनेक प्रकार का धन तथा ऐश्वर्य देती है। अप्सरा साधना साधना विधि: यह साधना 51 दिनों की है। किसी भी पूर्णमासी की रात्रि से यह साधना प्रारंभ की जा सकती है। घर के किसी कोने में सफेद आसन बिछा कर उत्तर की ओर मुंह कर के बैठ जाएं। सामने घी का अखंड दीपक प्रज्वलित करें और स्वयं पानी में गुलाब जल या गुलाब का थोड़ इत्र डाल कर स्नान कर स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण कर आसन पर बैठ जाएं और सामने श्री अप्सरा यंत्र रखें और अप्सरा सौंदर्य माला से मंत्र जप करें मंत्र: ¬ श्रीं क्लीं अप्सरा प्रत्यक्ष श्रीं ऐं फट्।। मंत्र जप समाप्ति के बाद उसी स्थान पर सो जाएं। इन 51 दिनों में न तो किसी से बात करें और न ही उस कमरे से बाहर जाएं। केवल शौचादि क्रिया करने के लिए बाहर जा सकते हैं। सातवें दिन घुंघरुओं की मधुर आवाज सुनाई देती है। मगर साधक को चाहिए कि वह अविचलित भाव से मंत्र जप करता रहे। इक्कीसवें दिन बिलकुल ऐसा लगे जैसे अपूर्व सी सुगंध फैल गई है। इसके बाद नित्य ऐसी सुगंध का आभास होगा। 36वें दिन लगेगा कि कोई अद्वितीय सुंदरी आसन के पास बैठ गई है। मगर साधक अविचलित न हो और मंत्र जप करता रहे। 47 वें दिन परीक्षा आरंभ होगी और लगेगा कि वह सुंदरी सशरीर साधक की गोद में बैठ गई है। साधक को विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। 51 वें दिन वह अपूर्व शृंगार कर साधक से सट कर बैठ जाएगी और पूछेगी कि मेरे लिए क्या आज्ञा है। तब साधक कहे कि मेरी पत्नी बन कर प्रेमिका की तरह प्रसन्न करो। तब वह सिद्ध हो जाएगी और जीवन भर सुख, द्रव्य, वैभव व काम प्रदान करती रहेगी। यह साधना एक बार करने से सिद्ध हो जाती है। बार-बार नहीं करनी पड़ती। साधना में तीन बातें आवश्यक हैं:साधना काल में 51 दिन तक किसी से कुछ न बोलें। साधना के बाद अप्सरा सिद्ध हो जाने पर परस्त्रीगमन न करें। अपसरा तंत्र सिद्ध होने पर उस के साथ रमण करें और जो भी चाहें प्राप्त करें परंतु द्रव्य का दुरुपयोग न करें।

कर्मकांड में संस्कारों का महत्व

भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान है। किसी वस्तु के रूप को बदल देना या उसे नया रूप देना ही संस्कार कहलाता है। भारत में मनुष्य के लिए संस्कारों का महत्व है। भारतवर्ष ऋषि-मुनियों, देवी-देवताओं की पवित्र भूमि मानी जाती है। इसी भूमि को ईश्वर ने अवतार के लिए चुना है। हमारी श्रेष्ठता हमारे संस्कारों के कारण है। भारतीय संस्कृति संस्कारों में निहित है। संस्कार ही भारतीय संस्कृति की पहचान है। इसकी आधारशिला हमारे ऋषियों ने रखी थी। भारतीय जीवन मूल्यों में 16 संस्कारों का समावेश किया गया है। गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु के पश्चात अन्त्येष्टि संस्कार हमारी संस्कृति की विशेषता को दर्शाता है। जीवन संस्कारों की वेदी पर चढ़कर निखरता है। भारतीय संस्कृति के संस्कार युक्त होने के कारण इसे विश्व की आदि संस्कृति के रूप में जाना जाता है। संस्कृति के रूप में केवल भारतीय संस्कृति है, विश्व की अन्य जीवन पद्धतियाँ सभ्यता कहलाती है। पशु से मानव बनाने का सामथ्र्य केवल भारतीय संस्कृति में ही है। अपनी संस्कृति की इसी श्रेष्ठता को स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो के विश्व सर्वधर्म सम्मेलन में प्रदर्शित कर विश्व को चमत्कृत कर दिया था। संस्कार का आध्यात्मिक दृष्टि से जितना महत्व है उतना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रहस्य को समझाया जाता है इसलिए संस्कार मनुष्य के जीवन चक्र को व्यवस्थित करके शरीर, मन, बुद्धि का विकास, सद्गुणों का आधान अन्तःकरण की शुद्धि तथा सर्वांगीण उन्नति प्रदान करता है। संस्कार शब्द का सामान्य अर्थ है, पूर्ण करना, पुनः निर्माण करना, संशोधन करना इत्यादि। अर्थात दोषों को दूर करके गुणों को बढ़ाने के लिए जिस क्रियाविधि अथवा पद्धति का उपयोग किया जाता है, वह संस्कार हैं। आचार्य चरक ने कहा है कि- ‘संस्कारों हि गुणान्तराधानमुच्यते’ अर्थात दोषों को नष्ट और गुणों का संवर्धन करके नए गुणों को विकसित करना ही संस्कार है। निर्गुण और सगुण बनाना, विकृतियों व अशुद्धियों का निवारण करना और मूल्यवान गुणों का सींचन करना ही संस्कार कार्य है। जैसे सोना, चांदी, तांबा आदि धातुएं खदान से निकाले जाने के तुरन्त बाद उपयोग में नहीं आती। आग में तपाकर यानि कि संस्कार कर सुंदर मूर्ति या गहना बनाने पर वही धातु अति मूल्यवान बन जाती है। जब ये संस्कार मनुष्य में प्रयुक्त होते हैं तब मनुष्य गुणवान बन जाता है।

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Monday 28 March 2016

देश के प्राचीनतम शनि धाम

शनि धामों में अनेक शनितीर्थ क्षेत्र ऐसे हैं, जिनका पौराणिक ग्रंथों में जिक्र है और कई तीर्थ क्षेत्र ऐसे हैं जिनका पौराणिक कथाओं में जिक्र तो नहीं है, किंतु वे अपनी महिमा के कारण लाखों भक्तों की श्रद्धा का केंद्र बने हुए हैं। शनि के 8 अंक की प्रधानता के कारण ही 8 तीर्थ क्षेत्र शनि तीर्थों के अंतर्गत आते हैं। मोक्ष की प्राप्ति की कामना से लोग इन आठों तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा करते है। धामों का जिक्र जहां आता है, वहां पर ढाई धाम शनिदेव जी के लिए बड़े ही श्रेष्ठ माने जाते हैं। जब भी किसी पर शनि की महादशा, शनि की साढ़ेसाती या शनि की ढैया आती है, तब वह शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए और शनि दशा को शुभफलकारी बनाने के लिए शनि धामों की यात्रा करता है। शनि धाम के अंतर्गत तीन क्षेत्र आते हैं। दो क्षेत्रों को पूरा धाम और एक क्षेत्र को आधा धाम माना जाता है। शनि देव की श्रद्धा भक्ति में महाराष्ट्र क्षेत्र सबसे आगे है। महाराष्ट्र के मूल निवासियों के घरों में से 70 प्रतिशत घरों में मराठी भाषा में प्रचलित पौराणिक ‘‘शनि माहात्म्य’’ ग्रंथ (पोथी) देखी गई है, जहां पुरानी पीढ़ी से शिक्षा पाकर 50 प्रतिशत नई पीढ़ी भी दैनिक साधना में शनि पोथी का पाठ करती है। महाराष्ट्र के प्रत्येक नगर, जिले, कस्बे व गांव में शनि मंदिर स्थापित हैं। महाराष्ट्र में पुराणकालीन शनि मंदिर भी हैं और सन् 1857 ई. के बाद से राजा महाराजाओं द्वारा पौराणिक गाथाओं और प्रसंगों के अनुसार निर्मित शनि मंदिर भी जिनमें गरुड़ पर सवार शनि की मूर्तियां स्थापित हैं। हाल में पौराणिक मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ है, पर मूर्ति वैसी की वैसी ही है। महाराष्ट्र के अधिकतर क्षेत्रों में गरुड़ पर सवार शनिदेव जी की मूर्तियां स्थापित हैं। सिंहासन रथ पर सवार शनिदेव जी पूरे भारत वर्ष में प्रचलित हैं। भारत के प्रमुख धार्मिक स्थानों में रथ पर सवार शनिदेव जी (प्रसन्न मुद्रा में) कौए के साथ देखने में आते हैं। दक्षिण भारत में 80 प्रतिशत क्षेत्र में कौओं के साथ शनिदेव जी के दर्शन होते हैं। शनिदेव जी की मूर्ति के आगे, पीछे या बगल में कौआ जरूर दिखाया जाता है। कौए की सवारी वाले शनिदेव तमिलनाडु क्षेत्र में अधिक हैं। इस संबंध में एक कथा भी प्रचलित है, जो प्रेरणादायी भी है। वहां के भक्त बताते हैं कि कौओं में बहुत सारी ऐसी विशेषताएं हैं, जो इन्सानों में नहीं हैं। उसके गुणों के कारण ही शनिदेव जी का प्यार उसे मिला है। हम कौए को कभी एक रोटी डालते हैं तो वह कभी भी अकेला नहीं खाता है। कांव-कांव करके अनेक साथियों को पहले बुला लेता है। फिर मिल बैठकर सभी बांटकर उसके टुकड़े करके खाते हैं। वह कौआ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना रखता है। कहता है कि अपनी रोटी मिल बांटकर खाओ ताकि तुम्हारे परिवार के सारे लोग सुखी रह सकें और एकता में बंधे रहें। कौए को इसीलिए शनिदेव ने यह वरदान दिया कि पितृ पक्ष (श्राद्ध पक्ष) में तुम्हारा मान बढ़ेगा, लोग पितरों की शांति के लिये तुम्हें बुला बुलाकर भोजन कराएंगे। अंततः शनिदेव जी, जो पूर्व जन्म के पुण्य/पाप का फल भी लोगों को देते हैं, इस कौए के भोज के द्वारा पूर्व पापों का प्रायश्चित भी स्वीकार करते हैं। यही कारण है कि दक्षिण भारत के शनि क्षेत्रों में कौए को शनिवार को भोजन कराने की परंपरा है। फिर कौए का रंग काला होने से उसे डाला गया अन्न शनिदान के रूप में बड़ा पुण्य फल भी दे जाता है। श्री शनि क्षेत्र शिगणापुर महाराष्ट्र महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले के शिगणापुर गांव में यह शनिक्षेत्र है। यह औरंगाबाद से लगभग 100 किमी. और साईं बाबा की शिरडी से 80 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। अहमदनगर जिले से इसकी दूरी 30 कि.मी. है। तब से शनिवार हो या रविवार, प्रतिदिन हजारों की संख्या में शनि भक्त यहां आकर स्वयंभू शनिमूर्ति पर तेल का अभिषेक किया करते हैं। इस क्षेत्र के बारे में कहावत प्रचलित है- देव है देवालय नहीं घर है द्वार नहीं वृक्ष है पर छाया नहीं। 15 फुट लंबे, 15 फुट चैड़े व 5 फुट ऊंचे चबूतरे पर ‘1’ आकार की 5 फुट 8 इंच लंबी स्वयंभू प्रतिमा विराजमान है। जब भी भक्तों ने यहां मंदिर, छत व शिखर का निर्माण किया, वह दूसरी ही रात्रि को ढह गया। शनिदेव भक्तों से स्वप्न में आकर कह गए कि मैं छायानंदन हूं, मुझे छाया की जरूरत नहीं है। लोगों की मान्यता है कि यहां कोई चोरी नहीं कर सकता है। यदि कोई चोरी करता भी है तो अंधा या कोढ़ी होकर फिर वापस शनि दरबार में माफी मांगने व अमानत लौटाने आता है। शनि प्रतिमा के पास एक बड़ा वृक्ष है, उसमें छाया नहीं है। इसके संदर्भ में एक पौराणिक कथा है कि एक बार यहां पत्थर की मूर्ति बहती हुई आई। वहां पशु चराने वाले ग्वालों ने लकड़ी से उसे छेड़ा, तो जहां लकड़ी की चोटें लगीं वहां से खून बहने लगा। तब बच्चों ने अपने घर जाकर माता-पिता को यह समाचार सुनाया और उनके माता-पिता ने गांव वालों को इकट्ठा करके मूर्ति को निकालना चाहा, पर मूर्ति किसी से नहीं उठी। थककर सभी सो गए। तब वहां के प्रसिद्ध सच्चे शनि भक्त ‘उदासी महाराज’ के स्वप्न में आकर शनिदेव जी बोले- ‘‘मैं शनि हूं, कलयुग के कल्याण के लिए यहां आया हूं। इस गांव में जो भी मामा-भांजा होंगे, वे व्रत करके मुझे सच्ची श्रद्धा से उठाएंगे तो मैं उठ जाऊंगा, यहां मेरी स्थापना करो।’’ दूसरे दिन ऐसा ही हुआ, एक चबूतरा तैयार कराकर शनिमूर्ति को मामा भांजे के सहयोग से स्थापित किया गया। लोगों को उनकी श्रद्धा से फलों की प्राप्ति होने लगी, धीरे-धीरे वहां सारी सुविधाएं आने लगीं। बाजार आदि बन गए। आज शनि अमावस्या और शनि जयंती पर्व पर लाखों लोग वहां दर्शन करके अपनी शनि पीड़ा शांत करते हैं। शनि तीर्थ बिरझापुर इस शनिधाम की स्थापना अप्रैल 1995 में हुई। यहां शनिदेव के साथ राहु-केतु की एक-एक फुट वाली दो मूर्तियां भी हैं। यह स्थान दुर्ग जिले से 30 कि.मी. दूर बिरझापुर गांव में आधा एकड़ की भूमि में है। इसमें स्थापित शनि बिल्कुल शिगणापुर के शनि महाराज जी ही लगते हैं। यहां सपत्नीक शनि पूजन होता है और महिलाएं भी अकेले पूजन कर सकती हैं। आज भी प्रति शनिवार, अमावस्या और शनि जयंती पर हजारों भक्तगण यहां आते हैं। शनि धाम सिडको सन् 1999 में महाराष्ट्र में एन-2 सिडको के पास एक अभिषिक्त मूर्ति के शनि मंदिर व एक साढ़े 5 फुट की हाथी पर सवार विशाल सेनापति स्वरूप राजकुमार शनि मूर्ति का देवालय स्थापित हुआ। यहां से 10 कि. मी. की दूरी पर 4 एकड़ की भूमि में शनि आश्रम है, जिसकी स्थापना 3 सितंबर 2005 की शनैश्चरी अमावस्या को हुई। भक्तों की बढ़ती भीड़ को देखकर 6 माह के अंदर ही वहां महाराष्ट्र सरकार द्वारा शनि आश्रम तक पहुंचने वाली कच्ची सड़क को पक्की डामर सड़क का रूप दे दिया गया। बड़ा शनैश्वर धाम तमिलनाडु क्षेत्र में पांडिचेरी क्षेत्र से 120 कि. मी. की दूरी पर तिरुनल्लार ग्राम में शनि महाराज बड़ा शनैश्वर तीर्थ के रूप में राजा नल के समय से विराजमान हैं। राजा नल को जब शनि की दशा आई थी तब नल और दमयंती बिछुड़ गए थे। तब दमयंती ने अपने पति की वापसी, सलामती और उनके खोए हुए राज्य की प्राप्ति के लिए अपने पिता के सहयोग से यहां बड़े शनैश्वर जी का मंदिर बनवाया था। तिरु अर्थात् क्षेत्र, नल्लार अर्थात् राज नल का। शनिकृपा से राजा नल की वापसी हुई, उनका खोया हुआ वैभव उन्हंे मिला। इस क्षेत्र के संबंध में कई आंखों देखी प्रेरणादायी बातें प्रचलित हैं। कोकिला वन में शनि धाम दिल्ली (राजधानी) से 120 कि. मी. की दूरी पर मथुरा जिले (उ. प्र.) में मथुरा से 40 किलोमीटर की दूरी पर कोसी तहसील में कोकिलावन ग्राम में शनि महाराज भगवान श्री कृष्ण के द्वापर युग से विराजमान हैं। मुख्य कथाओं में प्रसंग है कि जब शनि देव श्रीकृष्ण भगवान के जन्मोत्सव पर उनका बाल रूप देखने गए, तब यशोदा मां ने उन्हें दर्शन नहीं करने दिए और कहा कि तुम्हारा रूप देखकर मेरा कान्हा डर जाएगा। श्रीकृष्ण भगवान झूला तोड़कर, घुटनों के बल चलकर शनिदेव के पास पहुंच गए और मन ही मन में बातें भी कीं- शनिदेव तुम कोकिलावन में पीपल के नीचे मेरा इंतजार करो, मैं उत्सव पूरा होने पर वहां पहुंचंूगा। रात्रि 12 बजे श्रीकृष्ण भगवान ने शनिदेव को दर्शन दिए और कहा कि यहां मेरे मंदिर (बांके बिहारी) के साथ तुम्हारा मंदिर भी बनेगा। जो भक्त तुम्हारे दर्शन के बाद मेरे दर्शन करेंगे, उनके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे। उज्जैन के शनिदेव जी मध्यप्रदेश उज्जैन में इंदौर मार्ग पर उज्जैन शहर से 20 किमी. की दूरी पर नवग्रह शनि मंदिर है जिसकी स्थापना शनि भक्त राजा विक्रमादित्य ने की थी। इसे शनि के ढाई धामों में पूरा एक धाम कहा जाता है। यहां शनिदेव अपने ढैया व साढ़ेसाती रूप के साथ विराजमान हैं। नस्तनपुर के शनिदेव जी महाराष्ट्र के नासिक जिले में नंदगांव तहसील से 15 कि.मी. और औरंगाबाद से 140 कि.मी. की दूरी पर शनिदेव जी का आधा धाम स्थित है, जिसका उल्लेख रामायण में मिलता है। भगवान राम ने इसकी स्थापना की थी। भगवान राम जब सूर्य उपासना कर रहे थे, बनवास के समय, जब विजय प्राप्ति की कामना कर रहे थे, तब भगवान सूर्यदेवता ने शनि मूर्ति (जो ढाई फुट की है और गरुड़ पर सवार है) रामजी के हाथों में प्रगट की थी। पौराणिक कथाओं के आधार पर तब से यहां शनिदेव जी की पूजा होती है। रामायण में जो नंदनवन था, वही आज नंदगांव कहलाता हैै। बीड़ का राक्षस भुवन श्री शनि क्षेत्र महाराष्ट्र के बीड़ जिले से 25 किमी. की दूरी पर औरंगाबाद - बीड़ हाईवे पर राक्षस भुवन गांव में सड़क से 8 कि.मी. अंदर यह श्री शनि क्षेत्र स्थित है। कहते हैं यहां जब राक्षसों का आतंक बढ़ गया था तब, अगस्त ऋषि के सहयोग से राक्षसों का संहार करने के लिए गुरु बृहस्पति देवता के साथ भगवान राम ने शनिदेव की मूर्ति की स्थापना उनके ढैया व साढ़ेसाती दोनों रूपों के साथ की थी। गंगा और गोदावरी के मध्य पीपल के विशाल पेड़ के नीचे स्थित विशाल ऊंचे चबूतरे पर गुरु बृहस्पति देवता के साथ शनिदेव जी विराजमान है । यहीं इसके स्थापना दिवस जनवरी माह की शुक्ल अष्टमी को लाखों भक्तों का मेला लगता है। ग्वालियर का शनैश्चरा तीर्थ क्षेत्र मध्यप्रदेश के ग्वालियर में ग्वालियर हवाई अड्डा रोड से 25 किमी. अंदर शनैश्चरा गांव में शनि महाराज स्थापित हैं जहां शनैश्चरी अमावस्या को लाखों पदयात्री शनि पीड़ा निवारण के लिए आते हैं। यहां की स्थापना भी भगवान राम के कर कमलों द्वारा मानी जाती है। शनि तीर्थ क्षेत्र शनि माॅडल महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले में दोडाइचा तहसील से 30 कि.मी. की दूरी पर यह शनि धाम स्थित है। कहते हैं कि इन्हीं शनिदेव जी ने विक्रमादित्य को रंक से फिर से राजा बनाया था और विक्रमादित्य के कंधे पर प्रगट हुये थे। दिल्ली में चांदनी चैक स्थित शनि मंदिर यह कांच का बड़ा सुहावना मंदिर है। इस शनि मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा शास्त्रीय विधि से हुई है। अन्य ग्रहों की मूर्तियां भी यहां स्थापित हैं। यहां शनिवार को लोग तेल का दीपक जलाते हैं। यहां सवा किलो चने का प्रसाद बांटना चाहिए। ऐसा करने से शनि के कष्टों से छुटकारा मिलता है। असोल शनि धाम यह शनि मंदिर दिल्ली स्थित महरौली में छतरपुर से 5 किलोमीटर दूर असोला गांव में स्थित है। शनि की मूर्ति अष्टधातु से बनी है। एक में शनि महाराज गिद्ध पर सवार हैं और दूसरी मूर्ति में भैंसे पर। यह शनि शक्तिपीठ आज लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। यहां हर शनिवार या शनि अमावस्या को श्रद्धालु शनि की मूर्ति पर तेल, उड़द और काला वस्त्र चढ़ाते हैं। लोगों को शनि की साढ़ेसाती के कारण मिलने वाले कष्टों का यहां निवारण होता है।

इश्वर प्राप्ति का मार्ग: भक्ति मार्ग



वृंदावन में एक स्थान ऐसा है, जहां ज्ञान हारा और भक्ति जीती। इस प्रसंग ने लोक मानस में यह बैठाया कि ज्ञानार्जन से अधिक ज्ञानानुभव महत्वपूर्ण होता है। बुद्धि से ज्यादा भावनाएं प्रमुख होती हैं। मस्तिष्क से अधिक दिल की बात सुननी चाहिए। इस स्थान को ज्ञान गूदड़ी कहते हैं। लोक में यह प्रसंग उद्धव-गोपी संवाद के रूप में जाना जाता है। भक्तिकालीन कवियों ने इस प्रसंग से यह स्थापित किया कि भगवान को पाने का सबसे सहज और सरल मार्ग भक्ति का है। शास्त्रों-पुराणों में यह प्रसंग नाम मात्र है। महाकवि सूरदास ने इस प्रसंग को विस्तार दिया। अनेक वर्षों बाद जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी भज गोविंद, भज गोविंद मूढ़मते, गाकर स्थापित किया कि भगवान को पाने का ज्ञानमार्ग से ज्यादा सहज भक्तिमार्ग है। बात उस समय की है जब- कृष्ण गुरु संदीपन के यहां ज्ञानार्जन के लिए गये थे तब उन्हें ब्रज की याद सताती थी। वहां उनका एक ही मित्र था उद्धव, वह सदैव ज्ञान-नीति की, निर्गुण ब्रह्म और योग की बातें करता था। श्रीकृष्ण का उद्धव से परिचय मथुरा में हुआ। उद्धव हर संदर्भ में नीतियों का सहारा लेते। परिणामस्वरूप उनसे बात करने वाला निरुर रह जाता। उनके गहन अध्ययन और विद से प्रभावित लोग उन्हें देवताओं के गुरु बृहस्पति का शिष्य मानते। पहले परिचय में ही उद्धव ने अपनी ज्ञानपूर्ण बातों से श्रीकृष्ण को प्रभावित किया। श्रीकृष्ण को यह अनुभूति थी कि उद्धव को ज्ञान का गर्व है। शंका निवारण के लिए श्रीकृष्ण ने युक्ति निकाली। एक दिन उन्होंने उद्धव से बात करते हुए कहा कि मैं मानता हूं कि ज्ञान का मार्ग सर्वोम है। ज्ञान से व्यक्ति के मोहपाश खुल जाते हैं। माया के बंधनों से उसे मुक्ति मिल जाती है। इस तरह मोह-माया उसे दुख नहीं पहुंचाते। उद्धव को अपनी बात गंभीरता से सुनते देख गंभीर लंबी सांस लेकर श्रीकृष्ण ने कहा- उद्धव जी, क्या यह संभव है कि आप ब्रज जाकर गोपियों को समझाएं। उन्हें बताएं कि दुनिया का सार ज्ञान है, पे्रम नहीं। ज्ञान से प्राप्ति होती है, भावनाओं से नहीं। ज्ञान से शांति मिलती है, जबकि प्रेम अशांत करता है। ज्ञान दुखों से ऊपर उठाता है और प्रेम दुखों में डुबोता है। ज्ञान समस्याओं का अंत है और प्रेम दुखों का आरंभ। ज्ञान और नीतियों के सहारे आप गोपियों को समझा सकते हैं कि प्रेम निरा पागलपन है। श्रीकृष्ण की बात सुनकर उद्धव के भीतर ज्ञानजन्य गर्व हिलोरें लेने लगा। उन्होंने ब्रज जाकर गोपियों को समझाने की बात मान ली। उन्होंने श्रीकृष्ण को आश्वासन दिया कि वे गोपियों को समझाकर कुछ दिन में ही लौट आएंगे। श्रीकृष्ण का संदेश लेकर उद्धव वृंदावन पहुंचे। उद्धव के आगमन का समाचार पूरे ब्रज में फैल गया। नंद बाबा के घर कुछ समय बिताने के बाद उद्धव गोपियों से मिलने पहुंचे। उद्धव ने देखा गोपियां बेहाल हैं। उद्धव को यह सब विचित्र लगा। गोपियों की दशा पर वे मन ही मन मुस्कुरा उठे। ज्ञान गर्व पीड़ित हो उन्होंने आंखें मूंद लीं। आगे बढ़ने पर उन्हें सखियां से घिरी राधा दिखीं। अपूर्व सौंदर्य, सौंदर्य से अभिभूत उद्धव ने अपने को कृष्ण सखा बताकर राधा को प्रणाम किया। उद्धव ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैं आपके लिए उनका संदेश लाया हूं। वह सोच रहे थे कि श्रीकृष्ण का संदेश सुनते ही गोपियां, मां यशोदा और नंदबाबा की तरह आनंद से भर उठेंगी। लेकिन राधा तो लगता है मद में हैं। उन्हें किसी की चिंता ही नहीं। उद्धव के अभिमान ने करवट ली। उनके मन ने कहा-अपने ज्ञान से वे कितने मूर्खों का जीवन बदल चुके हैं। फिर ये गोपियां क्या हैं? आखिर हैं तो स्त्रियां ही। प्रेम ने इनका मस्तिष्क दूषित कर दिया है। इनसे हार मानकर लौटना उचित नहीं। उद्धव ने एक बार फिर बात शुरू करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि आपको श्रीकृष्ण के पास मथुरा कोई संदेश भेजना हो तो बताइए। इस पर राधा बोल पड़ीं- उद्धव जी हमारे हृदय प्रेम से भरे हैं। इसलिए हमें किसी संदेश या संदेशवाहक की आवश्यकता नहीं। प्रेम संदेश तो हृदय सुन लेता है। हम तो नित्य अपने मनमोहन को अपना संदेश सुनाती और उनका सुनती हैं। उद्धव को लगा राधा विक्षिप्त हो चुकी हैं। इसीलिए ऐसी निरर्थक बातं कर रही हैं। उद्धव की खीझ बढ़ गई। उन्होंने कहा जितना प्रेम तुम श्रीकृष्ण से करती हो, उतना परम ब्रह्म से करतीं तो तुम्हारा कल्याण हो जाता। तुम्हें दुख नहीं भुगतना पड़ता। परम ब्रह्म निर्गुण निराकार हैं। वह अपने भक्तों के साथ सदैव रहते हैं। मानवीय प्रेम दुख देता है जबकि ईश्वरीय प्रेम आनंद। विवेक की आंखें खोलो। परम ब्रह्म सृष्टि का नियंता है। उसका निर्माता और पालक भी। आनंद ही नहीं, वह परमानंद प्रदाता है। वह स्थान पर उपस्थित है। यहां तक कि हमारे और तुम्हारे भीतर भी वह उपस्थित है। उसे पाने के लिए बस शांतचि आंख मूंदकर बैठने, ध्यान लगाने की जरूरत है। उद्धव ने गोपियों को समझाने की दृष्टि से कहा-तुम्हारा मन चंचल और सांसारिक है। माया के अधीन है, इसलिए तुम अपने को कृष्ण से अलग मान रही हो। चंचल मन शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न करता है। मन की चंचलता तनाव का कारण होती है। तन एवं मन को दुर्बल करती है। मन को एकाग्र करो। उसे निर्गुण निराकार ब्रह्म में लगाओ। इससे मनःस्थिति ठीक होगी। ऋषि मुनि इसे योग कहते हैं। योग मानसिक शांति देता है। इसी से ध्यान लगता है। योगीजन ध्यान के माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति करके परमानंद पाते हैं। मोक्ष और स्वर्ग पाते हैं। उद्धव आगे कुछ कहते तभी एक गोपी बोल पड़ी उद्ध व जी, हम समझ नहीं पा रहे हैं कि आप हमें क्या समझा रहे हैं। प्यारे श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए हम अपनी आंखें रात दिन खोले रहते हैं और तुम हमें आंख मूंदकर ध्यान लगाने की सीख दे रहे हो। हमें मानसिक शांति का पाठ पढ़ा रहे हो। उद्धव निरुर हो गये। गोपियों के आगे वह ठगे से खड़े रहे। जीवन में अब तक उनसे इस तरह की बातें किसी ने नहीं की थीं। वे सोचने लगे श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियां इस तरह बंधी हैं जैसे कांटे में मछली। गोपियों को श्रीकृष्ण के प्रेम से निकालना कठिन है। समझाने की दृष्टि से उन्होंने अंतिम प्रयास करते हुए कहा-ईश्वर की ओर मन लगाने से धन, रूप, ईश्वर और मुक्ति, तुम जो चाहोगी, तुम्हें मिल जायेगा। उद्धव आगे कुछ बोलते कि गोपियां बोल पड़ीं-उद्धव जी, हमें ना तो धन संपदा चाहिए और ना ही मुक्ति। हम स्वर्ग भी नहीं चाहते और ना ही हमें भोग विलास चाहिए। हम तो चाहते हैं कि जन्म जन्मांतर तक मनमोहन के प्रति हमारा प्रेम इसी तरह बना रहे। हम तो बार-बार जन्म लेकर भी उनके प्रेम में ही डूबना चाहते हैं। उद्धव को लगा कि गोपियों की प्रेम बयार में उनका ज्ञान तिनके की तरह उड़ रहा है। तर्क शक्ति जवाब देने लगी है। उद्धव ने सोचा- श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियां इस तरह डूबी हैं कि इन्हें संसार का ज्ञान ही नहीं रह गया। सांसारिक आचरण से यह ऊपर हो गई हैं। गोपियों के प्रेम के प्रति उद्धव के मन में आदरभाव पनप उठा। ज्ञान से बंजर हुए मस्तिष्क में प्रेम का अंकुर फूट पड़ा। ज्ञान की गूदड़ी में उन्हें प्रेम का हीरा मिल गया। उद्धव शांत हो गये। उन्हें लगा कि उन्होंने ज्ञानार्जन तो बहुत किया, लेकिन ज्ञानानुभव आज ही हुआ। उनका मन श्रद्धा से भर उठा। मस्तक वृंदावन की प्रेम भूमि पर नत हो गया। श्रद्धावनत उद्धव के हाथ राधा के पैरों पर जा टिके। राधा के पैरों पर उद्धव के हाथ देख गोपियां हतप्रभ रह गईं। गोपियां आश्चर्य से भर उठीं। उद्धव प्रेम में डूबे थे। उनका हृदय प्रेमसागर में गोते लगा रहा था। उन्हें अपनी दशा का ज्ञान नहीं रह गया। बुदबुदाते हुए उद्धव ने कहा जन्म-जन्मांतर वृंदावन में ही मेरा जन्म हो। कृष्ण के प्रति मेरा प्रेम भी गोपियों जैसा ही रहे। मानव रूप में जन्म न मिले तो भी वृंदावन के पशु-पक्षी, लता-वृक्षके रूप में जन्म लेता रहूं। मुझे मुक्ति नहीं चाहिए। राधा ने उन्हें उठाया। उद्धव की आंखों से प्रेम के अश्रु बह रहे थे। वे वंृदावन की धूल में लौट गये। ऊधौं मन ना भये दस-बीस एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस।।1।।

मत्स्य जयंती और उसका महत्व

मत्स्य जयंती चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाने का विधान है। इस दिन भगवान् नारायण ने मध्याह्नोत्तर बेला में पुष्पभद्रा तट पर मत्स्यावतार धारण कर जगत् कल्याण किया था। व्यक्ति इस पावन तिथि पर प्रातःकालीन बेला में नित्य नैमित्तिक कृत्यों को पूर्णकर भगवान् मत्स्य के व्रत के हेतु संकल्पादि कृत्यों को पूर्ण करता हुआ पुरुष सूक्त या वेदोक्त मंत्रों से मत्स्य भगवान् का षाडे शापे चार पजू न कर उनके प्राकट्य की लीला कथाओं का श्रवण व मंत्रों का जाप करता है, तो निश्चय ही उस भगवद् भक्त का जीवन आलोकित व संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त हो जाता है | भारतीय सस्ंकृति में अवतारवाद के एक विशिष्ट सिद्धांत ने समग्र मानव जाति को एक विशिष्ट जीवनशक्ति तथा आशावादिता भी प्रदान की है जिसके कारण वे विभिन्न संकटों तथा विपत्तियों को यह विश्वास रखते हुए झेल सकें कि वर्तमान विपत्ति की घड़ी कुछ ही समय के लिए है। और उपयुक्त समय पर कोई दैवी-सत्ता उत्पन्न होने वाली है, यह अटल विश्वास जन-जन में समाया हुआ है कि देश-काल की विषम परिस्थितियों में लाके कल्याणार्थ, साधु-सज्जनों और ऋषियों मुनियों के परित्राण हेतु, गौवंश रक्षार्थ तथा धर्म के समुत्थान के लिए भगवान विष्णु विभिन्न रूपों में अवतरित होते रहते हैं। भगवान् के अवतारों के स्वरूप छोटे-बड़े नहीं होते। प्रभु का प्रत्येक अवतार वंदनीय व पूजनीय है। जिस प्रकार भगवान का प्रत्येक अवतार मंगलकारी है, जन-जन का रक्षक है; ठीक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति का प्रत्येक व्रत भगवद् भक्त के कल्याण व मंगल का प्रतीक है। मत्स्य व्रत मानव को जल जंतुओं व जलतत्व से होने वाले सभी अनिष्टों को दूर करने वाला है। यह व्रत सुख, सौभाग्य, आरोग्य, प्रेम, ऐश्वर्य प्रदाता तो है ही अपितु आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक तापों से मुक्त करने वाला भी है। प्रत्येक व्रत भक्त के लिए एक कल्पवृक्ष है। इस प्रकार कल्पवृक्ष के नीचे स्थित होकर उसके जैसे भाव प्रकट होते हैं, कल्पवृक्ष की कृपा से उन भावों की पर्ण्ूाता प्राप्त हो जाती है; अथार्त् मनचाही अभिलषित वस्तु तत्क्षण प्राप्त हो जाती है, ठीक उसी प्रकार किसी भी व्रत के नियमानुसार पालन करने से भक्त की मनोवांछित इच्छायें भी पूर्ण हो जाती हैं। इस व्रत में संपूर्ण दिन निराहार रहकर मध्याह्नोत्तर समय में मत्स्य भगवान् का पूजन कर फलाहार ग्रहण कर रात्रि में जागरण व भगवत् संकीर्तन में लीन रहकर प्रातःकाल दैनिक कृत्यों का संपादन कर दान पुण्यादि, ब्राह्मण भोजनादि कराके स्वयं भी पूर्ण भोजन करें। मत्स्य भगवान के निम्न चरित्रों का पाठ व मंत्र जाप करें। विष्णु के चौबीस अवतारों में मत्स्यावतार का विशेष महत्त्व है। मत्स्यका संबंध एक प्राचीन जल प्लावन की कथा से है, जो भारतीय ही नहीं, लगभग सभी प्राचीन आर्य तथा समेटिक देशों के साहित्य (बाइबिल आदि) में प्राप्त हातेी है। संभवतः यही एक ऐसी कथा है, जो आर्य तथा समेटिक - दोनों देशों की कथा- परंपराओं में प्रायः समान है। कुछ विद्वान् इस कथा का समेटिक उद्गम मानने के पक्ष में हैं। उनका कहना है कि आर्यों ने इस कथा को बादमें आर्यते र जातिया ें से ग्रहण किया, किंतु इस धारणा का सशक्त शब्दों में खंडन हुआ है कि बैबीलोनिया तथा इजराइल में मिलने वाले विवरण भारतीय साहित्य में प्राप्य प्राचीनतम विवरण से परवर्ती हैं और दोनों देशों की कथाओं की विभिन्न प्रकृति यह सिद्ध करती है कि दोनों स्वतंत्र रूप से अपने अपने देश की तात्कालिक भौगोलिक स्थिति तथा परंपराओं के आधार पर विकसित हुई हैं। शतपथब्राह्मण में मत्त्यावतार कथा इस प्रकार है- एक दिन विवस्वान् के पुत्र वैवस्वत मनुके पास उसके सेवन आचमन करने के लिये जल लाये। जब मनुने आचमन के लिये अंजलि में जल लिया तो एक छोटा सा मत्स्य उनके हाथ में आ गया। उसने कहा- 'मेरा पोषण करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।' 'कैसे मेरी रक्षा करोगे? मनुके ऐसा पूछने पर मत्स्य बोला - ''थोड़े ही दिनों में एक भयंकर जल - प्लावन होगा, जो प्रजावर्ग को नष्ट कर देगा, उससे मैं तुम्हारी रक्षा करूगां।' मनुने पुनः उससे पूछा- 'तुम्हारी रक्षा कैसे हो सकती है?' उसने कहा - 'जब तक हम छोटे रहते हैं, तब हमारे अनेक विनाशक होते हैं - बड़ा मत्स्य ही छोटे मत्स्य को खा जाता है। अभी तुम मुझे एक घड़े में रख दो, जब उससे बढ़ जाऊं तो एक गड्ढे में रख देना और उसके बाद मुझे समुद्र में छोड़ देना, तब मेरा कोई विनाश नहीं कर सकेगा।'' मनु ने ऐसा ही किया और अंत में समुद्र में छोड़े जाने पर वह मत्स्य मनुको जल प्लावन का समय बताकर तथा उनको उस दिन एक नाव लेकर तैयार रहने का आदेश देकर जल में विलीन हो गया। जल -प्लावन होने पर मनु नाव में चढ़ गये। वह मत्स्य एक सींगवाले विशालकाय महामत्स्य के रूप में प्रकट हुआ। मनुने नाव की रस्सी उसके सीगं में बांध दी। नाव लेकर वह महामत्स्य उत्तरपर्वत (हिमालय) की ओर गया। उसने वहां नाव को एक वृक्ष से बांधने का आदेश दिया और कहा कि जल के उतरने पर नीचे आ जाना। जल-प्लावन से संपूर्ण प्रजा नष्ट हो गयी, केवल मनु बचे रहे। जल घटने पर मनु नीचे आये और उन्होंने घृत, दधि आदि से जल में ही हवन किया। एक वर्ष बाद जल से इड़ा नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। उसने मनुसे कहा-'तुम मुझसे यज्ञ करो, इससे तुम्हें धन, पशु तथा अन्य अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त होगी।' मनुने ऐसा ही किया और उसके द्वारा यह सारी प्रजा उत्पन्न की। मत्स्यावतार कथा का यही अंश सबसे प्राचीन तथा मुखय हे। मनु कथा में किसी भी देवताविशेष की कोई भूमिका नहीं है। शतपथब्राह्मण के इस आखयान को हिंदी साहित्य के कविवर प्रसाद ने अपने अद्वितीय महाकाव्य कामायनी द्व्रारा अमर कर दिया है। शतपथब्राह्मण के बाद यह कथा विविध पुराणों तथा महाभारत में प्राप्त होती है। महाभारत में स्पष्ट कहा गया है कि यह मत्स्य प्रजापति या ब्रह्मा का रूप था। ठीक भी है, प्रलयकालीन जल से मानव जाति के आदि पर्वूज मनुकी रक्षा करके सृष्टि के अंकुरों को सुरक्षित रखने का प्रयास प्रजापति के अतिरिक्त और कौन कर सकता है? और जल-प्लावन का पूर्वज्ञान, अतुलित विस्तार से विवर्धन तथा समुद्र में नौवाहन आदि अतिमानुषिक कार्य भी सवाचर््ेच दवैीशक्ति पज्र ापति के द्वारा ही सभंव हैं महाभारत में इस कथा का जो रूप है, उसके अनसु ार चीरिणी नदी के तट पर स्नान करते हुए वैवस्वत मनुके हाथों में एक छोटा-सा मत्स्य आ जाता है और दीनतापूर्वक मनु से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करता है - भगवन् ! मैं एक छोटा सा मत्स्य हूं। मुझे (अपनी जाति के) बलवान् मत्स्यों से बराबर भय बना रहता है। अतः उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि, ! आप उससे मेरी रक्षा करें। मत्स्य पुनः बोला- मैं भयके महान् समुद्र मे डूब रहा 12 आप विशषे प्रयत्न करके मुझे बचाने का कष्ट करे आपके इस उपकार के बदले मैं प्रत्युपकार करूंगा। मत्स्य की यह बात सुनकर वैवस्वत मनुको बड़ी दया आयी और उन्होंने चंद्रमा की किरणों के समान श्वेत रंगवाले उस मत्स्य को उठा लिया। तदनन्तर पानी से बाहर लाकर उसे मटके में डाल दिया। वह मत्स्य इतनी तेजी से बढ़ने लगा कि क्रमशः घट, तालाब तथा नदी आदि भी उसके लिये छोटे पड़ गये। अंत में मनुने उसे समुद्र में छोड़ दिया। वह महामत्स्य अपनी लीला से उनके वहन करने योग्य हो गया। उस समय उस मुस्कराते हएु महामत्स्यने मुिन से कहा- भगवन् हि कृता रक्षा त्वया सर्वा विशेषतः। पा्र प्तकालं तु यत् कार्य त्वया तत् श्रयू तां मम॥ अचिराद् भगवन् भौममिदं स्थावरजंगमम्। सर्वमेव महाभाग प्रलयं वै गमिष्यति॥ त्रसानां स्थावराणां च यच्चेडं्ग यच्च नेङ्गति। तस्य सव र्स्य सम्प्राप्त कालः परमदारुणः॥ भगवन् ! आपने विशेष मनोयोग के साथ सब प्रकार से मेरी रक्षा की है, अब आपके लिए जिस कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है, वह बताता हूं, सुनिये- भगवान ! यह सारा का सारा चराचर पार्थिव जगत् शीघ्र ही नष्ट होने वाला है। महाभाग ! संपूर्ण जगत् का प्रलय हो जायेगा। संपूर्ण जंगम तथा स्थावर पदार्थों में जो हिल-डुल सकते है और जो हिलने-डुलने वाले नहीं हैं, उन सबके लिये अत्यंत भयंकर समय आ पहुंचा है। यह सूचना देने के पश्चात् उस मत्स्य ने मनु से एक दृढ़ नाव बनवाने के लिये कहा और बताया कि उसमें मजबूत रस्सी लगी हो, आप संपूर्ण औषधियों एवं अन्नों के बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नाव में बैठ जाना। मैं एक सींगवाले महामत्स्य के रूप में आऊंगा आरै तम्ुहें सरुक्षित स्थान पर ले जाऊंगा। नौश्च कारयितव्या ते दृढ़ा युक्तवटारका। तत्र सप्तर्षिभिः सार्धमारुहथ्े ाा महामुने॥ आगमिष्याम्यहं श्रृंगी विज्ञेयस्तेन तापस॥ उस दिन सागर अपनी मर्यादा भंग करके पृथ्वी-मंडल को डुबाने लगा। मनुकी नाव प्रलय-जल में तैरने लगी। मनु भगवान मत्स्य का स्मरण करने लगे। स्मरण करते ही शंगृ धारी भगवान मत्स्य वहां आ पहुंचे। मनुने नाव की रस्सी उनके सींग में बांध दी और भगवान् मत्स्य नाव खींचने लगे। वे नावको हिमालय तक ले गये और उन्होंने उन ऋषियों से पर्वतशिखर में नाव की रस्सी बांधने के लिये कहा - 'अस्मिन् हिमवतः शृङ्गेः नावं बधीन्त मा चिरम्।' इसके पश्चात् भगवान् मत्स्यने अपना परिचय देते उन ऋषियों से कहा- मैं प्रजापति ब्रह्मा हूं। मुझसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। मत्स्यरूप में मैंने मनु तथा आपलोगों (सप्तर्षिगण) की रक्षा की है। क्योंकि मनु ही (इस प्रलय के उपरांत) देवता, असुर तथा मानवों की सृष्टि करगें। तपस्या के बल से मनुकी प्रतिभा अत्यंत विकसित हो जायेगी और प्रजा की सृष्टि करते समय इनकी बुद्धि मोह को प्राप्त नहीं होगी, सदा जागरूक रहेगी- अहं प्रजापतिर्ब्रह्मा मत्परं नाधिगम्यते। मत्स्यरूपेण यूयं च मयास्मान्मोक्षिता भयात्॥ मनुना च प्रजाः सर्वाः सदवे ासुरमानुषाः। स्रष्टव्याः सर्वलोकाश्च यच्चेङ्गं यच्च नेङ्गति॥ तपसा चापि तीवण््रो प्रितभास्य भविष्यति। मत्प्रसादात् प्रजासर्गे न च मोहं गमिष्याति॥ ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य क्षणभर में अदृश्य हो गये और मनुजी भी तपस्या करके सृष्टिकार्य में प्रवृत्त हो गये। मत्स्यपुराण में यह कथा संपूर्ण पुराण की आधार-भूमि है। मत्स्यरूपधारी भगवान् प्रलय-काल में मनुको जिस पुराण का उपदेश देते हैं, वही 'मत्स्यपुराण' नाम से प्रसिद्ध है। श्रीमद्भागवत में यह कथा और अधिक क्रमबद्धरूप में आयी है। कथा का प्रारंभ श्रीमद्भागवतमहापुराण के मुखय श्राते ा राजा परीक्षित्क के प्रश्न से होता है कि भगवान् विष्णुने मत्स्य-जैसे तुच्छ एवं विगर्हित प्राणी का रूप क्यों धारण किया? श्रीशुकदेवजी उत्तर दते है ंकि राजन् ! यों तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं, फिर भी गो, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म तथा अर्थ की रक्षा के लिए वे शरीर धारण किया करते हैं। गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः। रक्षामिच्छस्ं तनूर्धत्ते धर्मस्यार्थ तथैव हि॥ महाभारत में प्रजापति के मत्स्यरूप का कारण केवल मनु आदि की रक्षा है, किंतु श्रीमद्भागवतमहापुराण में हयग्रीव दैत्य से वेदों के उद्वारका महत्वपूर्ण कार्य भी इस अवतार के साथ जुड़ा है।

केरल का प्राचीन मंदिर: गुरुवायुर

अपनी अनूठी भौगोलिक विद्गोषताओं के कारण यह प्रदेश एशिया का एक सर्वाधिक मनोरम पर्यटन स्थल है जहां दुनिया भर के सैलानी सैर के लिए आते रहते हैं। अपनी प्राकृतिक संपदाओं के लिए दुनिया भर में मशहूर केरल मंदिरों का प्रांत भी है। प्रांत के विभिन्न भागों के मंदिरों की अपनी-अपनी कथाएं हैं, अपना-अपना आध्यात्मिक महत्व है और अपना-अपना इतिहास है। गुरुवायुर का मंदिर भी एक ऐसा ही मंदिर है, जिसकी अपनी एक विद्गोष ऐतिहासिक और आध्यात्मिक पहचान है। केरल स्थित मंदिरों में सबसे ज्यादा श्रद्धालु इसी मंदिर के दर्शन को आते हैं। विशेष पर्वों के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की लंबी कतार होती है। मंदिर में स्थापित प्रतिमा एक बहुमूल्य शिला को तराश कर बनाई गई है। अति पावन यह प्रतिमा मूर्तिकला का एक बेजोड़ नमूना है। मंदिर के गर्भगृह की दीवारों पर हृदयाकर्षक भित्तिचित्र उत्कीर्णित हैं। कहते हैं कि वैकुंठ में विष्णु ने इस मूर्ति की पूजा की और फिर इसे ब्रह्मा को सौंप दिया। निःसंतान राजा सुतपस और उनकी पत्नी ने संतान हेतु भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या की। दोनों के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने यह मूर्ति उन्हें दी और इसकी पूजा नियमित रूप से करने को कहा। दोनों की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया कि वह स्वयं उनके तीन पुनर्जन्मों में उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। राजा सुतपस और उनकी पत्नी को अगले तीन जन्मों में पुत्र की प्राप्ति हुई जिनका नाम क्रमशः पृश्निगर्भ, वामन और कृष्ण था। भगवान कृष्ण ने इस प्रतिमा को द्वारका में स्थापित कर इसकी पूजा की। कहते हैं, एक बार द्वारका में एक भयंकर बाढ़ आई, जिसमें यह मूर्ति बह चली, किंतु गुरु ने अपने परम शिष्य वायु की सहायता से इसे बचा लिया। फिर दोनों ने इसकी स्थापना के उपयुक्त स्थान की खोज में पूरी पृथ्वी की यात्रा की और अंत में पलक्कड के रास्ते केरल पहुंचे जहां उनकी भेंट परशुराम से हुई, जो स्वयं उसी मूर्ति की खोज में द्वारका जा रहे थे। परशुराम गुरु और वायु को कमल के मोहक फूलों से भरी झील के पास एक अति हरे-भरे स्थान पर ले गए जहां उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए। भगवान शिव और देवी पार्वती ने उनका स्वागत किया और कहा कि मूर्ति की स्थापना का यही सर्वाधिक उपयुक्त स्थल है। शिव ने गुरु और वायु को मूर्ति की प्रतिष्ठा और अभिषेक करने को कहा और वरदान दिया कि मूर्ति की स्थापना गुरु और वायु के हाथों होने के कारण यह स्थान गुरुवायुर के नाम से प्रसिद्ध होगा। फिर शिव और पार्वती मम्मियुर के दूसरे किनारे चले गए। सृष्टि निर्माता विश्वकर्मा ने इस मंदिर का निर्माण इस प्रकार किया कि विषुव के दिन सूर्य की पहली किरणें सीधी भगवान के चरणों पर पड़ें। मूर्ति की स्थापना सौर मास कुंभ अर्थात फाल्गुन (फरवरी-मार्च) में हुई। कथा यह भी है कि भगवान कृष्ण के स्वर्गारोहण के समय उनके भक्त उद्धव उनसे विरह को लेकर बहुत दुखी हुए। तब भगवान ने उन्हें यह प्रतिमा दी और देवगुरु बृहस्पति को उसे किसी उपयुक्त स्थान पर स्थापित करने का भार सौंपा। उद्धव यह सोचकर दुखों के सागर में डूबे थे कि कलियुग में जब भगवान नहीं होंगे, तब संसार पर दुर्भाग्य छा जाएगा। भगवान ने उन्हें शांत किया और कहा कि वह स्वयं इस प्रतिमा में प्रविष्ट होंगे और अपनी शरण में आने वाले श्रद्धालुओं को वरदान देकर दुखों से उबारेंगे। इसीलिए यहां दर्शन को आए श्रद्धालुओं की कामना पूरी होती है। गुरुवायुर का यह मंदिर केरल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पावन स्थलों में से एक है। इसे पृथ्वी पर भगवान विष्णु का वैकुंठ और दक्षिण का द्वारका भी कहा जाता है। मंदिर में स्थापित भगवान श्री कृष्ण की दिव्य मूर्ति अति मोहक है, जिनके तेजोमय चार हाथों में से एक में पांचजन्य, दूसरे में गदा, तीसरे में चक्र और चौथे में पद्म है। कृष्ण को यहां कन्नन, उन्निकन्नन (बाल कृष्ण), उन्निकृष्णन, बालकृष्णन, गुरुवायुरप्पन आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान महाविष्णु स्थापित हैं। उनकी पूजा आदि शंकराचार्य निर्देशित पूजा विधि के अनुसार की जाती है। मंदिर में वैदिक परंपरा का पालन पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ किया जाता है। इस दिव्य स्थल के उत्तरी पार्श्व में कलकल करते ताल में जल के नीचे आसन जमाकर देवों के देव महादेव ने भगवान महाविष्णु की आराधना की थी। यह ताल रुद्र तीर्थम के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में यह ताल 3 किलोमीटर दूर मम्मियुर और तामरयुर तक फैला हुआ था और अपने मनोहारी कमल फूलों के कारण प्रसिद्ध था। गुरुवायुर में भगवान की पूजा के बाद मम्मियुर शिव की पूजा आराधना आवश्यक है। इसके बिना गुरुवायुर की पूजा आराधना अधूरी मानी जाती है। नारद पुराण में उल्लेख है कि गुरुवायुरप्पन की शरण में आकर कुष्ठग्रस्त जनमेजय इस रोग से मुक्त हो गए। पांडवों ने अपना राज परीक्षित को सौंप दिया और वन चले गए और अपना शेष जीवन वहीं बिताया। परीक्षित को एक साधु ने शाप दिया था कि उनकी मृत्यु नागराज तक्षक के डसने से होगी और ऐसा ही हुआ। इससे क्रुद्ध होकर परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने तक्षक सहित समस्त सर्प जाति के नाश के लिए यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि में कोटि-कोटि नागों की आहुति दी गई, किंतु तक्षक के मारे जाने के पूर्व ही आस्तिक नामक एक ब्राह्मण ने यज्ञ को रोक दिया। कोटि-कोटि नागों की बलि देने के कारण जनमेजय को कुष्ठ हो गया जिससे मुक्ति के सारे प्रयासों के विफल हो जाने के कारण वह निराश हो गए। तब अत्रि के पुत्र मुनि आत्रेय ने उन्हें गुरुवायुर के भगवान कृष्ण की शरण में जाने को कहा। जनमेजय शीघ्र ही प्रस्थान कर गए और गुरुवायुर पहुंचकर दस महीने तक भगवान की आराधना की। दसवें महीने की आराधना पूरी होने पर वह पूरी तरह स्वस्थ होकर घर लौटे। मंदिर के ठीक सामने 24 फुट लंबा एक विशाल प्रकाश स्तंभ है, जिसमें बेसमेंट समेत तेरह चक्र लगे हैं। मंदिर के भीतर पीतल के चार दीपस्तंभ भी हैं। उत्तरी भाग के दीपस्तंभ को गजराज केशवन ने तोड़ डाला था। पूर्वी मीनार 33 फुट और पश्चिमी 27 फुट ऊंची है। बाहरी भाग में लगभग 34 मीटर ऊंचा सोने का पानी चढ़ा एक ध्वजस्तंभ है। यहां तेरह दीपों का एक 7 मीटर ऊंचा दीपस्तंभ भी है, जिसके प्रज्वलित होने पर एक अद्भुत मनोहारी दृश्य उपस्थित हो जाता है। गुरुवायुर का यह पवित्र मंदिर अपने उत्सवों के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर में 24 एकादशियों में से एक शुक्ल पक्ष की वृश्चिक एकादशी का अपना विशेष महत्व है। नवमी और दशमी को भी यहां उत्सव मनाया जाता है। एकादशी विलक्कु का उत्सव भी अपने आप में एक अनूठा उत्सव होता है। गुरुवायुर का चेंबैई संगीत उत्सव दक्षिण भारत का प्रसिद्ध उत्सव है। देश भर के संगीतज्ञ इस भव्य उत्सव में भाग लेते हैं, जहां दर्शकों की अपार भीड़ होती है। वडक्कुन्नाथ मंदिर में मनाया जाने वाला पूरम उत्सव भी एक प्रसिद्ध उत्सव है। इस अवसर पर आसमान रात भर पटाखों से गुंजायमान रहता है। शिवरात्रि का पर्व भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। दर्द्गानीय स्थल मंदिर से 40 किलो मीटर दूर एक पुराना किला है, जिसका नाम पुन्नतुर कोट्ट है। यह हाथियों का एक अभयारण्य है, जिसमें 40 से अधिक हाथी हैं। यह दुनिया भर में हाथियों के विद्गाालतम अभयारण्यों में से एक है। मंदिर से तीन किलो मीटर की दूरी पर अति सुहावना समुद्र तट चवक्कड़ है। यहां मैसूर के सुलतान हैदर अली के सिपहसालार हरिद्रॉस कुट्टी का मकबरा है। चवक्कड़ से एक किलो मीटर दूर पलयुर में संत थॉमस द्वारा स्थापित एक प्राचीन चर्च भी है। गुरुवायुर में दर्शन के इच्छुक श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। दर्शन के कुछ खास नियम हैं। कुछ समय पहले तक महिला श्रद्धालुओं का चूड़ीदार सलवार पहनकर प्रवेश करना वर्जित था, लेकिन न्यायालय के आदेश से अब यह प्रतिबंध हटा दिया गया है। फिर भी, अधिकतर स्त्रियां साड़ियों में ही आती हैं। केरल के त्रिचुर जिले के इस छोटे से शहर की सुंदरता देखते ही बनती है। मंदिर में स्थापित अधिष्ठाता भगवान श्री कृष्ण की झलक मात्र से ही सारे पाप धुल जाते हैं। पवित्र तुलसी की माला धारण किए भगवान तेजोमय दिखाई देते हैं जिनके दर्शन से अतीव आनंद की अनुभूति होती है। कब जाएं? अक्तूबर से अप्रैल के बीच का समय गुरुवायुर की यात्रा के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय है।

भगवती तारापीठ :केसपा

रत्नगर्भा धरती भारतवर्ष में समय-समय पर ऐसे महात्माओं का अवतरण हुआ है जिन्होंने विश्व बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत होकर न सिर्फ भारतीय आदर्शां का पूरी ईमानदारी से अनुपालन व संरक्षण किया वरन् जनकल्याणार्थ कितने ही देव स्थलों की स्थापना भी की। ऐसे ही एक ऋषि हं ‘महर्षि कश्यप’, जिन्हें भारतीय विधि के ज्ञाता सूत्र ऋषियों में स्थान दिया गया है और जिनका आश्रम प्राचीन मगध प्रदेश के केंद्रीय भाग में अवस्थित कश्यपपुरी (आज का केसपा या कश्यपा) में विराजमान था। धर्म साहित्य के अष्टायन अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि लोक पितामह व्रसा जी के छः मानसपुत्रों में प्रथम मरीचि से उत्पन्न संतान कश्यप थे जिनका विवाह दक्ष प्रजापति की सभी तेरह कन्याओं के साथ हुआ था। इनके गोत्र कश्यप कहलाए जिन्हें भारतीय गोत्र में उत्तम स्थान प्राप्त है। तभी तो यह माना जाता है कि वृक्ष, पशु, पक्षी और सभी मानव जाति कश्यपगोत्री हैं। आज पूरे देश में निवासरत् कश्यपगोत्री के सर्व-उपस्थिति का ही प्रभाव है कि जहां कभी भी जिन्हें अपना गोत्र नहीं अता-पता हो, उन्हें कश्यपगोत्री मान लिया जाता है। ऐसे सप्तर्षि मंडल के एक तारे का नाम भी कश्यप है तो वैशेशिक दर्शन के प्रव महर्षि कणद को भी अन्य नामों के साथ कश्यप नाम से जाना जाता है। ज्ञातव्य है कि सनातन धर्म के ज्ञाता अधिष्ठाता कश्यप ऋषि के नाम पर ही कश्मीर प्रदेश का नामकरण हुआ जो उनका प्राच्यकालीन लीला क्षेत्र रहा है। तदुपरांत गुरु आदेश से इन्होंने मथुरा प्रदेश में साधना की और वहीं ‘सप्तर्षि टीला’ पर ध्यान-क्रम में उन्हें इस स्थल का बोध हुआ जो दोनों तरफ से मोरहर नदी की धारा के मध्य वनाच्छादित उच्च भूमि था। सम्पूर्ण मगधांचल में दुर्ग निर्माण कला और भवन स्थापत्य के लिए प्रख्यात टिकारी से लगभग 11 कि.मी. की ओर अवस्थित केसपा गांव के बाहरी छोर पर विराजमान माता जी के तीर्थ के पास ही कश्यप मुनि जी के आश्रम का उल्लेख मिलता है जो दुतलीय था। नीचे के तल में जो जमीन से अंदर था, नीचे साधना कक्ष और ऊपर निवास कक्ष था। ज्ञात होता है कि ‘कश्यप संहिता’ की रचना कश्यप मुनि ने यहीं की जिसकी उपयोगिता आयुर्वेद जगत् में आज चर्चित है। जिस प्रकार गंगा भगीरथ और गोदावरी गौतम ऋषि की कृपा से इस धरती पर आईं। ठीक उसी प्रकार सरस्वती को इस धराधाम पर लाने का श्रेय कश्यप मुनि को जाता है और इसकी प्रत्यक्ष स्थिति संप देश भर में सात स्थानों पर है। बोधगया के सन्निकट इसी सरस्वती तीर्थ के ठीक सामने निरंजना और मोरहन नदी का संगम होता है जिसके साथ गुप्त सरस्वती के संगमोपरांत फल्गु उद्गमित हुआ है। इस स्थल पर कश्यप ऋषि द्वारा स्थापित अष्टादश शिव और देश के सप्त सरस्वती में एक माई विशाल के मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। गया से जुड़े महाकाव्य कालीन उद्धरण में कश्यप के जिस आश्रम का वर्णन विवेचन है यह कश्यप ऋषि का ही आश्रम है जिसकी मान्यता बौद्ध काल में भी बनी रही। तथागत के समय में उनके एक प्रिय शिष्य का नाम ‘महाकश्यप’ मिलता है जो तंत्र साधना में निष्णात था। ऐसा विवरण मिलता है कि आगे चलकर भद्रवर्गीयों को दीक्षा देने के बाद अग्निहोत्री-कश्यप बंधु तीन वर्ग में विभक्त हो गये जिनमें दो-दो सौ जटिलों का नायक क्रमशः ‘नदी कश्यप’ तथा ‘गया कश्यप’ बना जबकि तीनों में सबमें बड़े ‘उरुबेल कश्यप’ पांच सौ जटिलों के नायक बने। आज यहां महर्षि कश्यप के आश्रम का कुछ ही भाग द्रष्टव्य है शेष काल के गाल में समाहित होता चला जा रहा है। संपूर्ण देश में देवी तारा जी का प्राचीनतम् तीर्थ के रूप में ख्यात मां के इस स्थान में माता जी की साढ़े छः फीट की अनूठी मूर्ति काले पत्थरों की बनी है जो पालकाल की श्रेष्ठ प्रस्तुति है। इसके अलावा मंदिर के अंदर व बाहर गणेश, भैरव, सूर्य, उमाशंकर, लक्ष्मी-विष्णु, बुद्ध, हारिती, लकुलिश व दुर्गा के उत्कृष्ट मूर्ति विग्रह देखे जा सकते हैं। भू-तल से करीब 12 फीट ऊंचे चबूतरे पर मां के मंदिर के ठीक पहले बाहरी भाग में एक त्रिकोणीय हवन कुंड है जिसकी सबसे बड़ी खासियत है कि यह कभी भरता ही नहीं और तो और देवी आराधना का श्रेष्ठ काल नवरात्र में भी नौ दिन तक नित्य धूप-हुमाद जलने पर भी हवन कुंड की स्थिति ज्यों का त्यों बनी रहना इस क्षेत्र में चर्चा का विषय है। इस हवन कुंड को आधुनिक काल में प्रज्ज्वलित करने का श्रेय पं. देवन मिश्र को जाता है जो टिकारी राजघराने के सम्मानित सदस्य व राजविदूषक थे। जिस प्रकार माता काली की कृपा से रामकृष्ण जी महान साधक इस; माता शारदा भवानी मैहर की कृपा से आल्हा-ऊदल महान योद्धा बने; माता उच्चैठ भवानी, मधुबनी की कृपा से विद्यापति मैथिल कोकिल हुए। हरसिद्धि देवी उज्जैन की कृपा-दृष्टि से ही देवन मिश्र विद्वान-प्रवर व विदूषक हुए। यह उन्हीं की अटूट मातृ साधना का प्रतिफल है कि प्रत्येक नवरात्र मं प्रथमा तिथि से अष्टमी तक यहां महिलाओं का गर्भगृह में प्रवेश वर्जित रहा करता है। विवरण है कि मातृ आराधना वे अंदर बंद रहकर करते और इस बीच में उन्हें बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं रहता। कितने ही लौकिक-अलौकिक कथा-कहानी मातृ स्थल तारा तीर्थ से संबंध है जिसे संपूर्ण मगध की पुरातन पंच देवियों में एक स्वीकारा जाता है। पूरे गांव के निरीक्षण से स्पष्ट होता है कि पालकाल में यह स्थल मूत्र्ति निर्माण का उत्कृष्ट केंद्र था। यहां गांव में एक गृहस्वामी के घर के बाहर व खेत के साथ-साथ मंदिर के बाहर भी मूर् शिल्पों का समृद्ध संसार देखा जा सकता है। गया जी के बाहरी क्षेत्र द्वादश देवी तीर्थ में प्रथम स्थान पर गण्य माता जी के इस स्थान की रौनकता नव श्रंगार के बाद खूब बढ़ी है इसमें ग्रामीण, भक्त व स्थानीय पुजारी का सहयोग सराहनीय है। प्रचार-प्रसार में कमी व जानकारी का अभाव होने से देवी तीर्थ केसपा को आजतक वह स्थान नहीं मिल सका है जिसका वह प्राचीन काल से ही हकदार है जबकि मनौति पूरन केंद्र के रूप में केसपा की ख्याति न सिर्फ जिला व बिहार प्रदेश वरन् संपूर्ण देश में है। अकोला (महाराष्ट्र) की स्वयंभू भगवती श्री बाला जी छत्रपति शिवा जी का पल-प्रतिपल मार्ग दर्शन कराती थींयही कारण है कि केसपा तीर्थ के पूजन में पहले कश्यप ऋषि का नाम जरूर लिया जाता है। अस्तु देश के विशालतम मूर्ति शिल्प युक्त देवी तीर्थ में केसपा का सुनाम है जहां की महिमामयी मां तारा प्रत्येक को मुंह मांगा वरदान देकर जीवन पथ को सुवासित करती हैं।

अश्वत्थ व्रत एवं महत्व

उसके मन में श्रद्धा भाव का संचार होता है और श्रद्धा से ही सत्यस्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति होती है। व्रतेनदीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ ऐसा ही एक व्रत है अश्वत्थ व्रत। शास्त्रों में इस व्रत की महिमा का विशद वर्णन मिलता है। वैसे तो, हिंदू संस्कृति का प्रत्येक व्रत मानव जीवन का कल्याण करने वाला तथा इहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों का प्रदाता है, परंतु इनमें अश्वत्थ व्रत की अपनी विशेष महिमा है। यहां उसी महिमामय अश्वत्थ व्रत के विधान व लाभ का वर्णन प्रस्तुत है। श्रद्धालु जन अन्य व्रतों की भांति इस व्रत का पालन कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अश्वत्थ पीपल के वृक्ष का ही एक नाम है। पंचदेव वृक्षों में अश्वत्थ का स्थान सर्वोपरि है। ब्रह्मांड पुराण में ब्रह्मा जी ने अश्वत्थ व्रत-पूजा की महिमा का बखान नारद जी से किया है। कथा है कि एक बार देवर्षि नारद जी नामसंकीर्तन करते हुए त्रिभुवन में विचरण कर रहे थे। घूमते-घूमते वह भूमंडल में एक आश्रम में पहुंचे। वहां ऋषियों ने उनका स्वागत किया। कुशलोपरांत नारद जी ने ब्रह्मा द्वारा बताई गई अश्वत्थ-व्रत की महिमा उन ऋषियों को सुनाई और कहा कि अश्वत्थ साक्षात् विष्णु रूप है, इसीलिए इसे विष्णु द्रुम भी कहा जाता है। अश्वत्थ वृक्ष के मूल में ब्रह्मा का, मध्य में विष्णु का और अग्र भाग में शिवजी का निवास होता है- मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णु रूपिणे। अग्रतः शिवरूपाय अश्वत्थाय नमो नमः॥ वृक्ष की शाखाओं में, दक्षिण दिशा की ओर शूलपाणि महादेव, पश्चिम की ओर निर्गुण विष्णु, उत्तर की ओर ब्रह्मदेव और पूर्व दिशा की ओर इंद्रादि देव रहते हैं। इसके अतिरिक्त शाखाओं पर अन्य देवों का भी वास है- 'वसुरुद्रादित्यदेवाः शाखासु निवसंति हि।' इस वृक्ष पर गो, ब्राह्मण, वेद, यज्ञ, नदी तथा सागर आदि प्रतिष्ठित रहते हैं। इसका मूल 'अ' काररूप, शाखाएं 'उ' काररूप और फल-पुष्प 'म' काररूप हैं। इस प्रकार यह अश्वत्थ वृक्ष ^¬* काररूप है। इसका मुख आग्नेय दिशा की ओर है। इसे कल्पवृक्ष भी कहा गया है। अश्वत्थ व्रत विधान : अश्वत्थ सेवा का प्रारंभ आषाढ़, पौष और चैत्र मास में, गुरु और शुक्र के अस्त होने पर तथा जिस दिन चंद्र बल न हो उस दिन न करें। इसके सिवा शुभ दिन देखकर स्नानादि से निवृत्त होकर सेवा का आरंभ करें। सेवा करने के पश्चात दिन भर उपवास करें। द्यूतकर्म न करें, क्रोध न करें, असत्य भाषण न करें, वाणी पर संयम रखें और वाद न करें। प्रातःकाल मौन होकर सचैल स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण करें। वृक्ष के नीचे गोमय से जमीन को पवित्र करें और उस पर स्वस्तिक, शंख और पद्म की प्रतिमा बनाएं। साथ ही गंगा और यमुना के जल से पूर्ण दो कलश रखें और उनकी पवित्र भावना से पूजा करें। विधिपूर्वक पुण्याहवाचन करके पूजा का संकल्प करें। फिर वृक्ष की प्रदक्षिणा करके उसके नीचे बैठकर पूजा करें। पहले वृक्ष में सात बार जल चढ़ाएं। पुरुष सूक्त के पाठ के साथ षोडशोपचार पूजन करें। अष्टभुज विष्णु, जिनके हाथों में शंख, पद्म, चक्र, धनुष, बाण, गदा, खड्ग और ढाल आयुध हों, का स्मरण करें। पीतांबरधारी विष्णु का लक्ष्मी जी के साथ ध्यान करें। साथ ही त्रिमूर्ति का ध्यान करें। फिर शिव-पार्वती जी का पूजन करें। वृक्ष को वस्त्र या सूत पहनाएं और उसकी प्रदक्षिणा करें। प्रदक्षिणा के समय पुरुष सूक्त अथवा विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। अश्वत्थ सेवा की फलश्रुति : अश्वत्थ की परिक्रमा करने से जहां पापों, व्याधियों और भय से मुक्ति मिलती है, वहीं ग्रह दोष दूर होते हैं। निःसंतान को संतान की प्राप्ति होती है। सेवा करने वाले की अपमृत्यु नहीं होती। प्रबल वैधव्य योग वाली कन्या को अश्वत्थ व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसका अनुष्ठान करने से वैधव्य योग से रक्षा होती है। हिंदू धर्म में पिप्पल-विवाह का भी विधान है। अश्वत्थ की परिक्रमा करने से शनि पीड़ा से मुक्ति मिलती है। जिस कुल में अश्वत्थ सेवा की जाती है, उसे उत्तम लोक में स्थान मिलता है। अश्वत्थ वृक्ष के नीचे यज्ञ करने पर महायज्ञ का फल मिलता है। अश्वत्थ व्रत या सेवा करते समय ब्रह्मचर्य का पालन और विष्णुसहस्रनाम, पुरुषसूक्त तथा अश्वत्थ स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। भोजन में हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। श्री गुरु चरित्र ग्रंथ में आखयान है कि श्री गुरु नृसिंह सरस्वती ने गंगावती नामक एक निपूती स्त्री को, जिसकी अवस्था साठ साल की थी, यह व्रत तथा पूजा करने को कहा था। उसने ऐसा ही किया, जिसके फलस्वरूप उसे वृद्धावस्था में पुत्र और कन्या की प्राप्ति हुई। बृहद्देवताकार महर्षि शौनक ने अश्वत्थोपनयन नामक व्रत की महिमा बताते हुए कहा है कि पुरुष को पीपल का वृक्ष लगाकर उसे आठ वर्षों तक निरंतर जल दान करना चाहिए। इस प्रकार उसका पुत्र की तरह पालन-पोषण करते रहें। फिर उसका उपनयन-संस्कार कर उसकी पूजा करें। ऐसा करने से अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। पीपल का वृक्ष लगाने से व्यक्ति की वंशपरंपरा कभी समाप्त नहीं होती। साथ ही ऐश्वर्य एवं दीर्घायु की प्राप्ति होती है और उसके पितृगण को नरक से मुक्ति मिलती है। अश्वत्थ वृक्ष की पूजा करने से सभी देवता पूजित हो जाते हैं। 'अश्वत्थः पूजिते यत्र पूजिताः सर्वदेवताः॥' (अश्वत्थ स्तोत्र) 'अश्वत्थः सर्व वृक्षाणाम्' अर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। गीता के महागायक भगवान श्रीकृष्ण की यह उक्ति पीपल के महत्व को रेखांकित करती है। पीपल वनस्पति जगतमें सर्वश्रेष्ठ है। इसी कारण स्वयं भगवान ने इसे अपनी विभूति बताया है और इसके देवत्व और दिव्यत्व की उद्घोषणा की है। निःसंदेह पीपल देव वृक्ष है, जिसके सात्विक प्रभाव से अंतश्चेतना पुलकित होती है। पीपल सदा से ही भारतीय जनजीवन में विशेष रूप से पूजनीय रहा है। अश्वत्थ स्तोत्र में पीपल की प्रार्थना के लिए निम्न मंत्र दिया गया है- अश्वत्थ सुमहाभाग सुभग प्रियदर्शन। इष्टकामांश्च मे देहि शत्रुभयस्तु पराभवम्॥ आयुः प्रजां धनं धान्यं सौभाग्यं सर्वसंपदम्। देहि देव महावृक्ष त्वामहं शरणं गतः॥ ऊपर वर्णित मंत्र का सविधि जप करने से शत्रुओं का नाश होता है और सौभाग्य, संपदा, धन और जन की प्राप्ति होती है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार पीपल की समिधा से हवन करने से बृहस्पति की प्रतिकूलता से उत्पन्न होने वाले अशुभ फल प्रभावहीन हो जाते हैं। यही कारण है कि यज्ञ में पीपल की समिधा को अति उपयोगी और महत्वपूर्ण माना जाता है। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। कई असाध्य व्याधियों के उपचार में पीपल के विभिन्न अंग-उपांगों का प्रयोग किया जात है। पीपल से बने औषध का सेवन करने से जीवन से निराश रोगी भी स्वस्थ हो जाते हैं। सुप्रसिद्ध गं्रथ व्रत राज में अश्वत्थोपासना प्रकरण में पीपल की महिमा का वर्णन करते हुए अथर्वण ऋषि ने पिप्पलाद मुनि से कहा है कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचार से पीड़ित देवगण जब भगवान विष्णु की शरण में गए और उनसे अपने कष्टों से मुक्ति का उपाय पूछा, तो प्रभु ने कहा- ''मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्षतः विराजमान हूं। आप सबको सभी प्रकार से इस वृक्ष की अर्चना और अभ्यर्थना करनी चाहिए।'' पीपल की सेवा और सुरक्षा करने वालों के पितृगण नरक से छूटकर सद्गति को प्राप्त करते हैं। शास्त्रों के अनुसार पीपल का वृक्ष लगाने से अक्षय पुण्य का लाभ होता है। पीपल लगाने एवं उसका पालन-पोषण करने वालों को इस लोक में सुख-सौभाग्य तथा मरणोपरांत श्रीहरि की निकटता प्राप्त होती है। साथ ही उन्हें यमलोक की दारुण यातना नहीं भोगनी पड़ती। शास्त्रों में कहा गया है कि पीपल को बिना किसी प्रयोजन के काटना अपने पितरों को काटने के समान महापाप है। ऐसा करने से वंश की हानि होती है। नित्य पीपल की तीन वार परिक्रमा करके उसके मूल में जल चढ़ाने से दुःख, दुर्भाग्य एवं दरिद्रता से मुक्ति मिलती है। इस देव वृक्ष के दर्शन, नमन और श्रद्धा पूर्वक प्रतिदिन पूजन करने से सुख-समृद्धि की पा्र प्ति हाते ी है आरै व्यक्ति दीर्घायु होते है। शनिवार को पीपल का स्पर्श, पूजन और सात परिक्रमा करने के उपरांत सरसों के तेल के दीपक का दान करने से शनि के कोप का शीघ्र शमन होता है। शनि देव का स्तवन 'पिप्पलाश्रयसंस्थिताय नमः' मंत्र द्वारा किया जाता है। इससे शनिदेव का पीपल के आश्रय में रहने का तथ्य स्वतः प्रमाणित होता है। शनिवासरीय अमावस्या को पीपल के पूजन का विशेष महत्व है। इस दिन के विशेष ग्रहयोग में पीपल के वृक्ष का सविधि पूजन एवं सात परिक्रमा करने के पश्चात् पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके काले तिल से युक्त सरसों के तेल का दीपक जलाकर छायादान करने से शनि पीड़ा से मुक्ति मिलती है। अनुराधा नक्षत्रयुक्ता शनिवासरीय अमावस्या को इस वृक्ष का विधिवत पूजन करने से शनि ग्रह के प्रकोप से मुक्ति मिलती है। वहीं, इस अमावस्या को श्राद्ध करने से पितृ दोष से भी मुक्ति मिलती है। अमावस्यांत श्रावण मास में शनिवार को पीपल के नीचे स्थित हनुमान जी की अर्चना करने से बड़े-से-बड़ा संकट दूर हो जाता है। ध्यातव्य है कि पीपल को ब्रह्म स्थान भी माना जाता है। इतना ही नहीं, पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने में पीपल के वृक्ष का योगदान अति महत्वपूर्ण है। यह वृक्ष अन्य वृक्षों की तुलना में वातावरण में ऑक्सीजन की अधिक-से-अधिक मात्रा में अभिवृद्धि करता है। यह प्रदूषित वायु को स्वच्छ करता है और आस-पास के वातावरण में सात्विकता की वृद्धि भी करता है। इसके संसर्ग में आते ही तन-मन स्वतः हर्षित और पुलकित हो जाता है। यही कारण है कि इस वृक्ष के नीचे ध्यान एवं मंत्र जप का विशेष महत्व है। श्रीमद् भागवत महापुराण के अनुसार द्वापर युग में परमधाम जाने के पूर्व योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस दिव्य एवं पवित्रतम वृक्ष के नीचे ही बैठकर ध्यानावस्थित हुए थे। उपनिषदों में उल्लेख है कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड अश्वत्थ वृक्ष रूप है, जो सदा से है। इसका मूल पुरुषोत्तम ऊपर स्थित है और इसकी शाखाएं नीचे की ओर हैं। 'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः॥' 'ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।' कलियुग में भगवान गौतम बुद्ध को संबोधि की महाप्राप्ति बोध गया में पीपल के वृक्ष के नीचे ही हुई थी। इस कारण इस वृक्ष को बोधि वृक्ष भी कहा जाता है। पीपल का धार्मिक महत्व के साथ-साथ आयुर्वेदिक महत्व सर्वविदित है। यह वृक्ष स्थूल वातावरण के साथ ही सूक्ष्म वातावरा को भी प्रभावित करता है। इसका यह प्रभाव मात्र शरीर और मन तक ही सीमित नहीं है, वरन् यह हमारे भावजगत को भी आंदोलित करता है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक प्रयोग और अनुसंधान भी हो रहे हैं। पीपल की इन समस्त विशेषताओं को ध्यान में रखकर ही हमारे ऋषि-मुनियों ने इसकी बहुमुखी उपयोगिता पर बल दिया है। सर्वपापनाशक यह वृक्षराज अपने उपासक की मनोकामना पूर्ण करता है। पीपल के इन दिव्य गुणों से ही उसे पृथ्वी पर कल्प वृक्ष का स्थान मिला है।

शत्रुओं को परास्त करने का व्रत : भगवती भ्रामरी देवी व्रत

भगवती भ्रामरी देवी व्रत एक बड़ा ही दिव्य व शत्रुओं का पराभव करने वाला उत्कृष्ट व्रत है। इस व्रत को वर्ष में आने वाली चार नवरात्रियों में से किन्हीं भी नवरात्रियों में किया जा सकता है। भगवती भ्रामरी देवी व्रत में मां दुर्गा की उपासना की तरह ही पूजन किया जाता है। गणेश गौरी कलश व नवग्रहादि देवताओं का पूजन भी पूर्व में ही संपन्न करें। भगवती भ्रामरी देवी का यह स्वरूप अन्तर्जगत (काम-क्रोध, लोभ, मोहादि) एवं बाह्य जगत् के संपूर्ण शत्रुओं का दमन करने में पूर्णतया सक्षम है। भगवती का यह स्वरूप जीव के जीवन के चारों पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) को प्राप्त कराने वाला है। सिंह वाहिनी मां दुर्गा ने शत्रुओं का पराभव करने के लिए ही अपनी इच्छानुसार 'भ्रामरी' नाम से यह लीला विग्रह धारण किया है, जो जगत् कल्याणकारी है। जो प्राणी नव दिनों तक नियम-संयम से इस व्रत का भाव सहित पालन करता है, वह निश्चय ही सुखी व समृद्धि से युक्त हो जाता है। इन नव दिनों में क्रमशः दुर्गा सप्तशती, देवी भागवत का पाठ तथा नवार्ण मंत्र या 'ह्रीं' मंत्र का श्रद्धानुसार जप व इसी मंत्र से यज्ञ भी करते रहें। यथाशक्ति एक वर्ष से ऊपर व नव वर्ष तक की कन्याओं को क्रमानुसार प्रतिदिन मिष्ठान्नादि भोजन कराते रहें। भ्रामरी देवी के प्राकट्य की कथा इस प्रकार है। भगवती भ्रामरी देवी की लीला-कथा पूर्व समय की बात है, अरुण नामका एक पराक्रमी दैत्य था। देवताओं से द्वेष रखने वाला वह दानव पाताल में रहता था। उसके मन में देवताओं को जीतने की इच्छा उत्पन्न हो गयी, अतः वह हिमालय पर जाकर ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगा। कठिन नियमों का पालन करते हुए उसे हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से प्रचंड अग्नि की ज्वालाएं निकलने लगीं, जिससे देवलोक के देवता भी घबरा उठे। वे समझ ही न सके कि यह अकस्मात् क्या हो गया। सभी देवता ब्रह्माजी के पास गये और सारा वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी गायत्री देवी को साथ लेकर हंस पर बैठे और उस स्थान पर गये जहां अरुण दानव तप में स्थित था। उसकी गायत्री-उपासना बड़ी तीव्र थी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने के लिये कहा। देवी गायत्री तथा ब्रह्माजी का आकाशमंडल में दर्शन करके अरुण दानव अत्यंत प्रसन्न हो गया। वह वहीं भूमि पर गिरकर दंडवत् प्रणाम करने लगा। उसने अनेक प्रकार से स्तुति की और अमर होने का वर मांगा। परंतु ब्रह्माजी ने कहा - 'वत्स ! संसार में जन्म लेने वाला अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा, अतः तुम कोई दूसरा वर मांगो।' तब अरुण बोला - 'प्रभो ! यदि ऐसी बात है तो मुझे यह वर देने की कृपा करें कि -'मैं न युद्ध में मरूं, न किसी अस्त्र-शस्त्र से मरूं, न किसी भी स्त्री या पुरुष से ही मेरी मृत्यु हो और दो पैर तथा चार पैरों वाला कोई भी प्राणी मुझे न मार सके। साथ ही मुझे ऐसा बल दीजिये कि मैं देवताओं पर विजय प्राप्त कर सकूं।' 'तथास्तु' कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गये और इधर अरुण दानव विलक्षण वर प्राप्तकर उन्मत्त हो गया। उसने पाताल से सभी दानवों को बुलाकर विशाल सेना तैयार कर ली और स्वर्ग लोक पर चढ़ाई कर दी। वर के प्रभाव से देवता पराजित हो गये। देवलोक पर अरुण दानव का अधिकार हो गया। वह अपनी माया से अनेक प्रकार के रूप बना लेता था। उसने तपस्या के प्रभाव से इंद्र, सूर्य, चंद्रमा, यम, अग्नि आदि देवताओं का पृथक्-पृथक रूप बना लिया और सब पर शासन करने लगा। देवता भागकर अशरणशरण आशुतोष भगवान् शंकर की शरण में गये और अपना कष्ट उन्हें निवेदित किया। उस समय भगवान् शंकर बड़े विचार में पड़ गये। वे सोचने लगे कि ब्रह्माजी से प्राप्त विचित्र वरदान से यह दानव अजेय- सा हो गया है। यह न तो युद्ध में मर सकता है, न किसी अस्त्र-शस्त्र से, न तो इसे कोई दो पैरवाला मार सकता है, न कोई चार पैरवाला। यह न स्त्री से मर सकता है और न किसी पुरुष से। वे बड़ी-चिंता में पड़ गये और उसके वध का उपाय सोचने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई -'देवताओं ! तुम लोग भगवती भुवनेश्वरी की उपासना करो, वे ही तुम लोगों का कार्य करने में समर्थ हैं। यदि दानवराज अरुण नित्य की गायत्री-उपासना तथा गायत्री-जपसे विरत हो जाय तो शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।' आकाशवाणी सुनकर सभी देवता आश्वस्त हो गये। उन्होंने देवगुरु बृहस्पतिजी को अरुण के पास भेजा ताकि वे उसकी बुद्धि को मोहित कर सकें। बृहस्पतिजी के जाने के बाद देवता भगवती भुवनेश्वरी की आराधना करने लगे। इधर भगवती भुवनेश्वरी की प्रेरणा तथा बृहस्पतिजी के उद्योग से अरुण ने गायत्री-जप करना छोड़ दिया। गायत्री-जपके परित्याग करते ही उसका शरीर निस्तेज हो गया। अपना कार्य सफल हुआ जान बृहस्पति अमरावती लौट आये और इंद्रादि देवताओं को सारा समाचार बताया। पुनः सभी देवता देवी की स्तुति करने लगे। उनकी आराधना से आदि शक्ति जगन्माता प्रसन्न हो गयीं और विलक्षण लीला-विग्रह धारण कर देवताओं के समक्ष प्रकट हो गयीं। उनके श्रीविग्रह से करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। असंखय कामदेवों से भी सुंदर उनका सौंदर्य था। उन्होंने रमणीय वस्त्राभूषणों को धारण कर रखा था और वे नाना प्रकार के भ्रमरों से युक्त पुष्पों की माला से शोभायमान थीं। वे चारों ओर से असंखय भ्रमरों से घिरी हुई थीं। भ्रमर 'ह्रीं' इस शब्द को गुनगुना रहे थे। उनकी मुट्ठी भ्रमरों से भरी हुई थी। उन देवीका दर्शन कर देवता पुनः स्तुति करते हुए कहने लगे- सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली भगवती महाविद्ये ! आपको नमस्कार है। भगवती दुर्गे ! आप ज्योतिःस्वरूपिणी एवं भक्ति से प्राप्य हैं, आपको हमारा नमस्कार है। हे नीलसरस्वती देवि ! उग्रतारा, त्रिपुरसुंदरी, पीतांबरा, भैरवी, मातंगी, शाकम्भरी, शिवा, गायत्री, सरस्वती तथा स्वाहा-स्वधा - ये सब आपके ही नाम हैं। हे दयास्वरूपिणी देवि आपने शुम्भ-निशुम्भ का दलन किया है, रक्तबीज और वृत्रासुर तथा धूम्रलोचन आदि राक्षसों को मारकर संसार को विनाश से बचाया है। हे दयामूर्ते ! धर्ममूर्ते ! आपको हमारा नमस्कार है। हे देवि ! भ्रमरों से वेष्टित होने के कारण आपने 'भ्रामरी' नाम से यह लीला-विग्रह धारण किया है। हे भ्रामरी देवि ! आपके इस लीलारूप को हम नित्य प्रणाम करते हैं। करूणामयी मां भ्रामरी देवी बोलीं - 'देवताओं ! आप सभी निर्भय हो जायं। ब्रह्माजी के वरदान की रक्षा करने के लिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। भ्रमरैर्वेष्टिता यस्याद् भ्रामरी या ततः स्मृता॥ तस्यै देव्यै नमो नित्यं नित्यमेव नमो नमः॥ इस प्रकार बार-बार प्रणाम करते हुए देवताओं ने ब्रह्माजी के वर से अजेय बने हुए अरुण दैत्य से प्राप्त पीड़ा से छुटकारा दिलाने की भ्रामरी देवी से प्रार्थना की। करूणामयी मां भ्रामरी देवी बोलीं - 'देवताओं ! आप सभी निर्भय हो जायं। ब्रह्माजी के वरदान की रक्षा करने के लिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। अरुण दानव ने वर मांगा है कि मैं न तो दो पैर वालों से मरूं और न चार पैरवालों से, मेरा यह भ्रमररूप छः पैरोंवाला है, इसलिये भ्रमर षटपद भी कहलाता है। उसने वर मांगा है कि मैं न युद्ध में मरूं और न किसी अस्त्र-शस्त्र से। इसीलिये मेरा यह भ्रमररूप उससे न तो युद्ध करेगा और न अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करेगा। साथ ही उसने मनुष्य, देवता आदि किसी से भी न मरने का वर मांगा है, मेरा यह भ्रमर रूप न तो मनुष्य है और न देवता ही। देवगणो ! इसलिये मैंने यह भ्रामरी-रूप धारण किया है। अब आप लोग मेरी लीला देखिये।' ऐसा कहकर भ्रामरी देवी ने अपने हस्तगत भ्रमरों को तथा अपने चारों ओर स्थित भ्रमरों को भी प्रेरित किया, असंखय भ्रमर 'ह्रीं -ह्रीं करते उस दिशा में चल पड़े जहां अरुण दानव स्थित था। उन भ्रमरों से त्रैलोक्य व्याप्त हो गया। आकाश, पर्वत शृंग, वृक्ष, वन जहां-तहां भ्रमर ही भ्रमर दृष्टिगोचर होने लगे। भ्रमरों के कारण सूर्य छिप गया। चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा गया। यह भ्रामरी देवी की विचित्र लीला थी। बड़े ही वेगसे उड़ने वाले उन भ्रमरों ने दैत्यों की छाती छेद डाली। वे दैत्यों के शरीर में चिपक गये और उन्हें काटने लगे। तीव्र वेदना से दैत्य छटपटाने लगे। किसी भी अस्त्र शस्त्र से भ्रमरों का निवारण करना संभव नहीं था। अरुण दैत्य ने बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह भी असमर्थ ही रहा। थोड़े ही समय में जो दैत्य जहां था, वहीं भ्रमरों के काटने से मरकर गिर पड़ा। अरुण दानव का भी यही हाल हुआ। उसके सभी अस्त्र-शस्त्र विफल रहे। देवी ने भ्रामरी-रूप धारण कर ऐसी लीला दिखायी कि ब्रह्माजी के वरदान की भी रक्षा हो गयी और अरुण दैत्य तथा उसकी समूची दानवी सेना का संहार भी हो गया।

महाकुम्भ का स्नान और उससे जुडी प्रचीनतम मान्यताएं



हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों में अनेक प्राचीन धार्मिक उत्सवों के प्रमाण मिलते हैं। उनमें कुंभ एवं महाकुंभ भी हैं। इस अवसर पर भव्य एवं विशाल मेला लंबे समय तक चलता है, जहां, मनोरंजन के साथ-साथ, मानव चरित्र को आवश्यक विधियों की ओर प्रवृत्त करने का मौका मिलता है। प्रत्येक तीन वर्षों के अंतराल में हरिद्वार, उज्जैन, प्रयाग और नासिक अपार जन समूह को आकृष्ट करने के लिए विश्व विख्यात हैं। महाकुंभ तथा कुंभ के लिए प्रयाग को मुख्य स्थल माना गया है। प्रयाग का शाब्दिक अर्थ है यज्ञ करने का दिव्य स्थल। हेमाद्रि ग्रंथ में कहा गया है कि सूर्य के मकर संक्रांति में संगम पर काष्ठ और अग्नि का दान सर्वश्रेष्ठ है। इसी समय, हेमाद्रि ग्रंथ एवं विष्णु धर्म के अनुसार, पितरों का श्राद्ध अति उत्तम कहा गया है। माधवीय ग्रंथ में मकर संक्रांति के पूर्व बीस घड़ी पुण्य काल माना गया है। धर्म सिंधु के अनुसार, इस स्थल के आठ दान अति उत्तम माने गये हैं। तुलसी और शालिग्राम की शिला को निकट रख कर, तिल, लोहा, सुवर्ण, कपास, लवण, सप्त धान्य, पृथ्वी, गौ, के दान श्रेष्ठ माने गये हैं। इसी प्रयाग में मुंडन एवं श्राद्ध भी श्रेष्ठ माने गये हैं। समय के निर्णय में, सिंधु के अनुसार, तीर्थ, द्रव्य, सुपात्र, ब्राह्मण की प्राप्ति होने पर समय और मुहूर्त का विचार न करें और शीघ्र ही श्राद्ध करें। पौष की पूर्णिमा से माघ की पूर्णिमा तक पितरों और देवताओं के निमित्त मूली न दें और न ही ब्राह्मण वर्ग को इसका भक्षण करना चाहिए। यह बात वैष्णामृत गौड़ निबंध में स्पष्ट रूप से कही गयी है। पद्म पुराण के अनुसार गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम स्थल ही सर्वोत्तम तीर्थ का स्थल माना गया है और यहां का पुण्य काशी से हजारों गुना ज्यादा माना गया है। इस स्थल पर ब्राह्मण आदि चारों वर्ण भीष्म के निमित्त अगर जल नहीं देते हैं, तो उनका एक वर्ष का पुण्य नष्ट हो जाता है। मकरस्थे दिवानाथे वृषशिगते गुरौ। प्रयागे कुंभयोगो वै माघमासे विधुक्षये।। यह मेला भी ग्रहों की विशेष स्थितियों से संबंधित है। इसकी तिथि निश्चित होती है और सूर्य, गुरु तथा चंद्रमा की विभिन्न स्थितियों के अनुसार यह मेला लगता है। माघमासे च यः स्नायान्नैरन्तर्येण भारत। पौंडरीक फलं तस्य दिवसे दिवसे भवेत्।। गंगा, यमुना एवं सरस्वती जैसी पावन नदियों का संगम, विशेष योगों के संबंध के कारण, बहुत ही पवित्र माना गया है। प्रयागवास करने वाले श्रद्धालुओं को इन तिथियों में विशेष पुण्य लाभ होगा। कुछ तिथियां, विशेष योग या योगों के कारण, त्रिवेणी संगम में स्नान के लिए विशेष महत्व रखती हैं। दुर्लभ स्नान विधि एवं मंत्र यत्र कुत्रापि यो माघे प्रयाग-स्मरणान्वितः। करोति मज्जनं तीर्थे स लभेद् गांगमज्जनम्।। स्नान का सर्वोत्तम काल अरुणोदय काल है। सूर्योदय से पहले पूर्वी क्षितिज में जो प्रकाश नजर आता है, उसे अरुणोदय कहते हैं। अरुणोदय काल में भी स्नान के लिए वह समय सर्वोत्कृष्ट है, जब तारे दिखाई पड़ रहे हों। इसके बाद सूर्योदय तक का काल, जब तारे छुप चुके हों, अपेक्षाकृत कुछ कम महत्व का है। सूर्योदय के बाद प्रातः काल स्नान के लिए सामान्य माना गया है। माघ स्नान विधि: हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, द्रव्य ले कर, मन को शांत रखते हुए, पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के, मन में अथवा वाणी से संकल्प करना चाहिए। संकल्प मंत्र माघमासमिमं पूर्ण स्नास्येऽहं देव माधव। तीर्थस्यास्य जले नित्यं पापनाशाय मुक्तये।। माघमासमिमं पूर्ण स्नास्येहं देव माधव। तीर्थस्यास्य जले नित्यमिति संकल्प्य चेतति। दुःख दारिद्रनाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च। प्रातः स्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशनम्।। मकरस्थे रवौ माघे गोविंदाच्युत माधव। स्नानेदानेन में देव यथोक्तफलदो भव। सवित्रे प्रसवित्रे च परं धाम जले मम। त्वत्तेजसा परिभ्रष्टं पापं यातु सहस्रधा।। आवाहन मंत्र नमस्ते रुद्ररूपाय रसानां पतये नमः। वरुणाय नमस्तेऽस्तु हरिवास नमोस्तु ते।। गंगा एवं जल के स्वामी वरुण देवता को, सफेद पुष्प ले कर, आवाहन करना चाहिए। ततपश्चात् पुष्प को गंगा में छोड़ दें। गंगा पूजन: हाथ में पुष्प, अक्षत ग्रहण कर के गंगा का पूजन करें। ओम् इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या। असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणु ह्या सुषोमया।। गंगा आज्ञा: अब तीर्थराज प्रयाग को प्रणाम करें। मां गंगा का स्मरण और वरुण देवता का नमन करें। सरस्वती एवं यमुना का स्मरण करें और हाथ जोड़ कर जल के बाहर घुटने के बल बैठ कर आज्ञा मांगें। हे मां गंगे, आपकी शरण में चरण रज पाने का मैं अभिलाषी हूं। करुणामयी मां अपने अबोध बालक (बालिका) को अपने सान्निध्य में लो। आज्ञा मंत्र: गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधिंकुरु। पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्याः सरितस्तथा। अगच्छन्तु पवित्राणि स्नानकाले सदामम।। स्नान मंत्र: नग्न शरीर स्नान न करें। साफ-सुथरे एवं शुद्ध वस्त्र धारण करके शुद्ध अवस्था में गंगा स्नान करें। सर्वप्रथम सिर से स्नान करें। सुविधा के लिए स्नान का कोई बर्तन साथ रखें। स्नान के समय साबुन, तेल, शैंपू आदि का उपयोग न करें एवं स्नान के समय मौन धारण करें। मंत्र: दुःखदारिद्रयनाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च। प्रातः स्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशनम्।। मकरस्थे रवौ माघे गोविंदाच्युत माधव। स्नाने दानेन में देव यथोक्तफलदो भव।। कत्र्तव्य: सर्वप्रथम वस्त्र धारण करें। संभव हो तो श्वेत वस्त्र धारण करें। चंदन आदि धारण करें। संगम के मिट्टी का चंदन सर्वमान्य होता है। दान पदार्थों को तैयार रखें और दान करने के लिए संकल्प करें। इंद्रियों को संयत रख कर नियमपूर्वक काम, क्रोध और लोभ से दूर रहें। किसी भी प्रकार के पाप की प्रवृत्ति से बचें। त्रिवेणी में माघ स्नान कर के प्रतिदिन निर्धनों को तिल और शक्कर (चीनी) दान करें। इस समय तिल-शक्कर के लड्डू या तिल से बने खाद्य पदार्थ भी दान करें। इस पुण्यप्रदायक अवसर पर दान की भारी महिमा है। तिल, शक्कर के अलावा निर्धनों एवं संत महात्माओं को श्रद्धापूर्वक तिलनिर्मित मिठाई, गर्म, रेशमी आदि वस्त्र, अन्न, स्वर्ण आदि का भी यथाशक्ति दान करें। गंगा स्तुति: नमः शिवायै गंगायै शिवदायै नमो नमः। नमस्ते रुद्ररूपिण्यै शांकर्यै ते नमो नमः।। नन्दायै लिंगधारिण्यै नरायण्यै नमो नमः। नमस्ते विश्वमुख्यायै रेवत्यै ते नमो नमः।। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते। निर्लेपाये दुर्गहंयत्रयै दक्षायै ते नमो नमः।। गंगेत्वं परमात्मा च शिव तुभ्यं नमः शिवे। य इदं पठति स्तोत्रं भक्त्या नित्यं नरोऽपि यः।।

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Sunday 27 March 2016

अजा एकादशी व्रत

अजा एकादशी महान पुण्यफल को देने वाली है। यह एकादशी भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष में होती है। बालक, वृद्ध, स्त्री-पुरुष एवं श्रेष्ठ मुनियों को भी इसका अनुष्ठान करना चाहिए। इस तिथि के सेवन से मनुष्य कायिक, वाचिक और मानसिक पाप से मुक्त हो जाता है। व्रत करने वाला वैष्णव पुरुष दशमी तिथि को कांस, उड़द, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु, दूसरे का अन्न, दो बार भोजन तथा मैथुन इन दस वस्तुओं का परित्याग कर दे। एकादशी को जुआ खेलना, नींद लेना, पान खाना, दातुन करना, दूसरे की निंदा करना, चुगली, चोरी, हिंसा, क्रोध तथा असत्य भाषण को त्याग दें। दैनिक कृत्यों को पूर्ण कर एकादशी व्रत का विधिवत् संकल्प लेकर नियमानुसार व्रत का पालन करें। द्वादशी को व्रत पूर्ण करें। एक समय प्रसन्न मुद्रा में धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण भगवान के श्री चरणों में प्रणाम कर पूछा - जनार्दन, नंद नंदन, गोपिका बल्लभ अखिलेश्वर भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का महात्म्य बतलाने की कृपा करें। भगवान श्रीकृष्ण बोले - राजन ! एकाग्रचित्त होकर सुनो । भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'अजा' है, वह सब पापों का नाश करने वाली बतायी गयी है। जो भगवान्‌् हृषीकेश का पूजन करके इसका व्रत करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। पूर्वकाल में हरिश्चंद्र नामक एक विखयात चक्रवर्ती राजा हुए थे, जो समस्त भूमंडल के स्वामी और सत्यप्रतिज्ञ थे। एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर उन्हें राज्य से भ्रष्ट होना पड़ा। राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को बेचा। फिर अपने को भी बेच दिया। पुण्यात्मा होते हुए भी उन्हें चांडाल की दासता करनी पड़ी। वे मुर्दों के कफन की सिलाई करते थे। इतने पर भी नृपश्रेष्ठ हरिश्चंद्र सत्य से विचलित नहीं हुए। इस प्रकार चाण्डाल की दासता करते उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। इससे राजा को बड़ी चिंता हुई। वे अत्यंत दुखी होकर सोचने लगे - 'क्या करूँ? कहां जाऊँ? कैसे मेरा उद्धार होगा?' इस प्रकार चिंता करते-करते वे शोक के समुद्र में डूब गये। राजा को आतुर जानकर कोई मुनि उनके पास आये, वे महर्षि गौतम थे। श्रेष्ठ ब्राह्मण को आया देख नृपश्रेष्ठ ने उनके चरणों में प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़ गौतम के सामने खड़े होकर अपना सारा दुःखमय समाचार कह सुनाया। राजा की बात सुनकर गौतम ने कहा - 'राजन् ! भादों के कृष्णपक्ष में अत्यंत कल्याणमयी 'अजा' नाम की एकादशी आ रही है, जो पुण्य प्रदान करने वाली है। इसका व्रत करो। इससे पाप का अंत होगा। तुम्हारे भाग्य से आज के सातवें दिन एकादशी है। उस दिन उपवास करके रात में जागरण करना।' ऐसा कहकर महर्षि गौतम अंतर्ध्यान हो गये। मुनि की बात सुनकर राजा हरिश्चंद्र ने उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया। उस व्रत के प्रभाव से राजा सारे दुखों से पार हो गये। उन्हें पत्नी का सन्निधान और पुत्र का जीवन मिल गया। आकाश में दुन्दुभियां बज उठीं। देवलोक से फूलों की वर्षा होने लगी। एकादशी के प्रभाव से राजा ने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और अंत में वे पुरजन तथा परिजनों के साथ स्वर्गलोक को प्राप्त हो गये। राजा युधिष्ठिर ! जो मनुष्य ऐसा व्रत करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में जाते हैं। इसके पढ़ने और सुनने से अश्वमेध-यज्ञ का फल मिलता है।

पद्मावती यन्त्र क्या है ?...

प्रत्येक मनुष्य सुख-दुख के चक्र से दो-चार होता है, यह सबों की नियति है। किंतु सुख के दौर हमें क्षणिक प्रतीत होते हैं तथा ये कब आते तथा कब जाते हैं, पता ही नहीं चलता। इसके उलट दुःख के दौर काफी कष्टकारक प्रतीत होते हैं तथा इसका अहसास काफी देर तक महसूस होता है। विधाता ने विभिन्न प्रकार की पीड़ा से निजात के लिए विविध उपाय करने के भी संकेत दिए जिससे कि पीडा़ को कमतर किया जा सके। साधकों ने इन विविध उपायों को परिष्कृत तथा सरलीकृत कर उसे आम जनों के सम्मुख प्रस्तुत किया जिससे कि इनका प्रयोग सहजता से करके लाभ प्राप्त किया जा सके तथा वर्तमान कष्ट एवं आसन्न संकटों से अपनी तथा अपने प्रियजनों की रक्षा की जा सके। कष्ट के भी विविध रूप एवं आयाम हैं। कोई संतान न होने के कारण दुःखी है तो कोई रोगग्रस्त होने के कारण तो कोई निर्धनता के कारण। वर्तमान आधुनिक भौतिकवादी परिवेश में हर व्यक्ति को सुख का उपभोग करने की लालसा एवं उत्कंठा होती है। हर प्रकार के सुख के उपभोग के लिए यह आवश्यक है कि पर्याप्त मात्रा में धनागमन हो किंतु सब ऐसे भाग्यशाली नहीं होते। लोगों की इन्हीं सब मनोवांछित ईच्छाओं एवं लिप्साओं की पूर्ति के लिए पद्मावती यंत्र की साधना वरदान साबित होती है, ऐसा हमारे मनीषियों से साबित कर दिखाया है। श्रद्धापूर्वक इस यंत्र की साधना एवं पूजा करने से लोगों को धन-धान्य एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है। इस यंत्र की स्थापना अपने पूजा स्थल में करके इसकी नियमित पूजा करने से मां लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं तथा हर तरह की बाधाओं, संकटों एवं व्यापार में आये प्रतिरोधों का हरण करती हैं तथा हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण करती हैं। पद्मावती यंत्र एक अंक यंत्र है तथा इसके माहात्म्य की व्याख्या तथा इसका विश्लेषण एवं चित्रण हमारे धर्मशास्त्रों में प्रमुखता के साथ किया गया है। इस यंत्र का निर्माण नौ कोष्ठकों में 1 से 9 तक के अंकों का प्रयोग करके किया जाता है। यह यंत्र देवी पद्मावती को समर्पित है। देवी पद्मावती की साधना मुख्य रूप से धन-संपत्ति की प्राप्ति करने तथा धन की देवी लक्ष्मी को आकृष्ट करने के उद्देश्य से किया जाता है। किंतु ऐसा प्रमाणित हो चुका है कि यदि किसी की नौकरी नहीं लग रही है अथवा किसी के विवाह में बाधाएं एवं अड़चन उपस्थित हो रहे हैं अथवा कोई ऋणग्रस्त अथवा रोगग्रस्त है तो उसे भी इस यंत्र की विधिवत साधना अथवा नियमित पूजा से तथा पद्मावती मंत्र के उच्चारण से अभीष्ट लाभ प्राप्त हुआ है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि एक बार पार्वती जी ने कैलाश पर्वत पर विराजमान शिवजी से पद्मावती यंत्र का विधान लोकहित की दृष्टि से पूछा तो भगवान शिव ने उन्हें विस्तार से बताया कि हे देवी ! जो कोई भी इस यंत्र की विधिवत साधना एवं पूजा करता है उसकी हर प्रकार की अभिलाषा पूर्ण होती है तथा वह इस नश्वर संसार से अपनी आयु पूर्ण करने के पश्चात पूर्ण तृप्त होकर स्वर्गलोक को जाता है। यह यंत्र हर प्रकार की ईच्छा पूर्ण करता है तथा संकटों से मुक्ति प्रदान करता है। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं: 1. इसकी साधना एवं पूजा से चतुर्वर्ग फल यानि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। 2. बंधन से मुक्ति एवं स्वामी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। 3. दरिद्रता का नाश होता है। 4. इसकी साधना एवं पूजा से साधक की हर प्रकार की कामनाएं, ईच्छाएं पूर्ण होती हैं तथा वह हर प्रकार के सुख का उपभोग कर इंद्र के समान यशस्वी होता है। 5. इस यंत्र की साधना एवं पूजा से वाणी सिद्ध हो जाती है। 6. इस यंत्र की साधना एवं पूजा से शत्रुओं का नाश होता है, चाहे शत्रु कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों। 7. इस यंत्र की साधना एवं पूजा से कोर्ट, कचहरी तथा अन्य केस एवं विवाद में विजय प्राप्त होती है। शिवजी ने आगे पार्वती जी से कहा - हे देवी ! इतना ही नहीं इसकी विधिवत एवं नियमित साधना से खोया हुआ राज्य भी वापस मिल जाता है। साधना विधि: शुभ मुहूर्त का चयन करके साधना प्रारंभ करें। स्वच्छ स्थान में, स्नानादि से निवृत्त होकर आसनादि तथा आचमन विधि संपन्न करें। लाल आसन पर लाल वस्त्र पहनकर लाल रंग की माला से जप करें। हाथ में जल लेकर संकल्प लें तथा उसमें अपने अभीष्ट कार्य का भी उल्लेख करें। इसके उपरांत निम्नलिखित मंत्र का जाप यथा संभव करें। ऊँ पद्मावती पद्मानेत्रो पद्मासने लक्ष्मीदायिनी वाछापूर्णि )(सिजय जय जय कुरू कुरू स्वाहा।।

दक्षिणामूर्ति की आराधना

गुरुओं के गुरु भगवान दक्षिणामूर्ति की आराधना में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा विरचित दक्षिणामूर्ति स्तोत्र को गुरु भक्ति के स्तोत्र साहित्य में अद्वितीय स्थान प्राप्त है। गुरु कृपा की प्राप्ति हेतु इसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यह स्तोत्र ब्रह्मांड के तत्व विज्ञान ‘‘अद्वैत दर्शन’’ की व्याख्या करता है और ब्रह्मांड, आत्मा व इनके संबंधों के गुप्त रहस्यों को उजागर करता है। यदि इसे सूक्ष्मता से समझ लें और इसके अर्थ का मनन करते हुए आत्म मंथन करें तो यह सत्य को समझने व मोक्ष प्राप्ति कराने में सक्षम है। इसलिए इसे मोक्ष शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। दक्षिणामूर्ति भगवान शिव का वह रूप् हैं जिन्हें संसार के युवा गुरु के रूप् में जाना जाता है। उन्हें दक्षिणामूर्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनका मुंह दक्षिण की ओर है। दक्षिणामूर्ति शब्द का अर्थ कुशल भी होता है। इसलिए दक्षिणामूर्ति वो हैं जो कठिनतम विचारों को कुशलतम तरीके से पढ़ा सकते हैं। भगवान शिव का यह रूप सर्वश्रेष्ठ का जिक्र किया गया है उसी ज्ञान त्रको यह स्तोत्र प्रकटित करता है। इस स्तोत्र को काव्य का सर्वोत्कृष्टतम रूप भी माना गया है। श्री शंकराचार्य की समस्त कृतियों में यह कृति वास्तव में ही एक चैंधियाने वाला रंगीन रत्न है। श्री शंकराचार्य ने न केवल अपने शिष्यों को उपदेश दिए बल्कि इस बात का भी समुचित ध्यान रखा कि उनका ज्ञान उनकी कृतियों के माध्यम से भावी पीढ़ियों तक पहुंच सके। जो विद्वान साधक श्रीमदभगवद्गीता, उपनिषद, नारद भक्ति सूत्र, योग सूत्र व ध्यान की बारीकियों की जानकारी प्राप्त करके आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं वे श्रेष्ठ साधक बनकर इस स्तोत्र में उजागर किए गए गुप्त ज्ञान को समझने के लिए सुपात्र हैं क्योंकि साधना साधक को इन गुप्त रहस्यों को समझने के योग्य बनाती है। इस स्तोत्र में गहन व जटिल दर्शन का वर्णन है इसलिए इस स्तोत्र को समझने हेतु वेदांत की अच्छी समझ व आध्यात्मिक परिपक्वता परमावश्यक है। जानकारी, समझ और ज्ञान का साकार रूप है। ये योग, संगीत, बुद्धिमत्ता व शीघ्रफलदायी ध्यान के ईश्वर, ज्ञानमुद्रा को धारण करने वाले, अज्ञानता के नाशक व ज्ञानदाता हैं। हिंदु परंपरा गुरु को विशेष सम्मान देती है और इसमें दक्षिणामूर्ति को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना जाता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए अहंकार व भ्रम से निर्लिप्त होना परमावश्यक है। जब मनुष्य गुरु कृपा से अहंकार भ्रम व पूर्वजन्म संचित पापकर्मों के फल से मुक्त होता है तो उसे ज्ञान की प्राप्ति होने लगती है इसलिए ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में अहंकार व भ्रम को सबसे बड़ा अवरोध माना गया। दक्षिणामूर्ति स्तोत्र का प्रकट रूप् से उद्देश्य है श्री दक्षिणामूर्ति की उपासना और गौण उद्देश्य है किसी भी गुरु की ईश्वर के रूप में आराधना। गुरु भक्ति का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि ईश्वर की गुरु के रूप में आराधना है। शंकराचार्य के समय में भी इस स्तोत्र के गूढ़ अर्थ व रहस्य को समझना कठिन माना जाता था इसलिए इनके सर्वप्रमुख शिष्य सुरेश्वराचार्य ने इसके ऊपर मानसोल्लास नामक भाष्य लिखा। बाद में इस भाष्य के ऊपर बहुत सी भाष्य व टीकाएं लिखी गईं। कहते हैं कि गुरु बिना ज्ञान नहीं होता। इस लोकोक्ति में जिस ज्ञान का जिक्र किया गया है उसी ज्ञान को यह स्तोत्र प्रकटित करता है।इस स्तोत्र को काव्य का सर्वोत्कृष्टतम रूप भी माना गया है। श्री शंकराचार्य की समस्त कृतियों में यह कृति वास्तव में ही एक चैंधियाने वाला रंगीन रत्न है। श्री शंकराचार्य ने न केवल अपने शिष्यों को उपदेश दिए बल्कि इस बात का भी समुचित ध्यान रखा कि उनका ज्ञान उनकी कृतियों के माध्यम से भावी पीढ़ियों तक पहुंच सके। जो विद्वान साधक श्रीमदभगवद्गीता, उपनिषद, नारद भक्ति सूत्र, योग सूत्र व ध्यान की बारीकियों की जानकारी प्राप्त करके आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं वे श्रेष्ठ साधक बनकर इस स्तोत्र में उजागर किए गए गुप्त ज्ञान को समझने के लिए सुपात्र हैं क्योंकि साधना साधक को इन गुप्त रहस्यों को समझने के योग्य बनाती है। इस स्तोत्र में गहन व जटिल दर्शन का वर्णन है इसलिए इस स्तोत्र को समझने हेतु वेदांत की अच्छी समझ व आध्यात्मिक परिपक्वता परमावश्यक है।

पूजा पाठ में आरती का महत्व

पूजा-पाठ का एक महत्वपूर्ण अंग है, ‘आरतीं शास्त्रों में आरती को ‘आरक्तिका’ ‘आरर्तिका’ और ‘नीराजन’ भी कहते हैं। किसी भी प्रकार की पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, पंचोपचार-षोडशोपचार पूजा आदि के बाद आरती अंत में की जाती है। पूजा-पाठ में जो त्रुटि रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति होती है। आरती को लेकर हमारे ‘स्कंदपुराण’ में भी कहा गया है- मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् पूजनं हरेः । सर्वे संपूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे।। अर्थात् - पूजन मंत्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन आरती कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है। आरती में पहले मूलमंत्र (भगवान् या जिस देवता का जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों की ध्वनि तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुद्ध पात्र में घृत से या कपूर से विषम संख्या की अनेक बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए। ततश्च मूलमंत्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्। महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।। प्रज्वलयेत् तदर्थ च कर्पूरेण घृतेन वा। आरार्तिक शुभे पात्र विषमानेकवर्तिकम।। साधारणतः पांच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक (विषम संख्या में) बत्तियों से आरती की जाती है। कुंकुम, अगर, कपूर, चंदन, रूई और घी, धूप की एक पांच या सात बत्तियां बनाकर शंख, घंटा आदि बाजे बजाते हुए भगवान की आरती करनी चाहिए। आरती के पांच अंग होते हैं। प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चैथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करें। आरती उतारते समय सर्व-प्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमायें, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमंडल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमायें। मंदिरों में अनेकों भगवानों की आरती की जाती है, उसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने घर में भी आरती करता है, तो वह एक से अधिक भगवानों व देवी-देवता की आरती कर सकता है, परंतु सर्वप्रथम भगवान् श्री गणेश जी की आरती करें तथा अंत में भगवान श्री हरी विष्णु जी की आरती करें (अर्थात् - ओम जय जगदीश हरे) आरती रोजाना प्रातः काल तथा सायंकाल संपूर्ण परिवार के साथ करनी चाहिए। आरती से घर व आस-पास का वातावरण भी शुद्ध होता है तथा नकारात्मक ऊर्जा भी समाप्त होती है। यथार्थ में आरती पूजन के अंत में ईष्टदेवता की प्रसन्नता हेतु की जाती है। इसमें ईष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूर च प्रदीपितम्। आरार्तिक्यमहं कुर्वे पश्य मे वरदो भव।।

बारहवें भाव में शनि,राहु एवं केतु के फल

बारहवां घर खुले आकाश का, व्यय का तथा मोक्ष का भाव है। शनि बारहवें घर का शनि व्यक्ति को असाधारण बनाता है, वह नेक भी हो सकता है बद भी। इस घर के शनि वाला व्यक्ति बिना किसी खास कारण के अपने को संतुष्ट महसूस नहीं करता। शनि व्यक्तिगत विकास का सूचक है। बारहवें घर में बैठा शनि इस बात की ओर संकेत करता है कि अभी बीते पिछले जन्म में व्यक्ति अपनी जिंदगी का उद्देश्य अधूरा छोड़कर मरा है। महारानी झांसी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बारहवें घर में शनि था। दोनों उच्च मकसद के लिए लड़े। उनकी महानता इस बात में है कि उन्होंने अपनी ताकत से बड़ा मकसद चुना। वह चेलों को मठ स्थापित करके नहीं पालता, बल्कि चेले अपना खाना पीना साथ लेकर चलते हैं। उपाय शराब, गोश्त और झूठ से परहेज करें। किसी का जूठा न खाएं। अगर शनि नीच होकर अशुभ फल दे तो अपने घर के पूरब दक्षिण कोने में 12 साबुत बादाम जमीन में दबा दें। राहु काल पुरूष की कुण्डली में बारहवां घर मीन राशि का है और यह घर खुला आकाश होता है। यहां राहु केवल धुआं बन जाता है। बारहवें घर के राहु होने पर व्यक्ति कोई भ्रम पाल लेता है, ऐसे व्यक्ति को सुख चैन नहीं मिलता। लाल किताब में इस राहु को शेख चिल्ली कहा गया है। गोचर के समय ऐसा राहु दिमाग में अनेक योजनाएं बनाता है परन्तु वे सब बेकार जाती हैं। ऐसा राहु बेकार खर्च करवाता है। मंगल का होना शुभ फल देता है। बारहवें घर में राहु मंगल योग को हाथी अंकुश योग कहा जा सकता है। मंगल बृहस्पति का सहारा लेकर राहु पर नियन्त्रण कर सकता है। उपाय -अपनी आय का कुछ भाग बहन बेटी के लिए खर्च करना दौलत में बरकत लाएगा। -छोटी सी बोरी में मंगल की कारक वस्तु चीनी या सौंफ भरकर सोने वाले कमरे में रखना। -अपने घर में रसोई में बैठकर भोजन करने से मंगल प्रसन्न होता है और राहु को कोई शरारत नहीं करने देता। केतु काल पुरूष की कुंडली में बारहवें घर में बृहस्पति का चेला केतु अपने गुरू की मीन राशि में बैठा अलौकिक समाधि में लीन होता है। उसके विचार आध्यात्मिक होते हैं। वह ऐसा दरवेश हो जाता है जो अपनी नजर से नर औलाद भी देता है और धन की बरकत भी। यहां केतु के साथ गुरू होना योग और रूहानी रूचि को दिखाता है। केतु को मोक्ष का कारक माना गया है। बारहवें घर में केतु होने से विदेशों में किस्मत जागने की पूरी संभावना होती है। केतु के साथ सूर्य चंद्र मंगल न होना शुभ है। पुत्र जन्म के छठे या बारहवें साल में किस्मत जाग उठती है। पुत्रों के साथ मिलकर काम करना शुभ फल देता है। छठे घर में मंगल बैठा हो तो कुछ रुकावटें आती हैं। उपाय -किसी निःसंतान व्यक्ति की जमीन या मकान न खरीदें। -काले रंग का कुत्ता पालें। कुत्ता मर जाने पर 43 दिन के अंदर नया कुत्ता ले आएं। कुत्तों की सेवा करें। -पुत्रों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखें।

भगवत प्राप्ति का सहज साधन

भगवत प्राप्ति के लिए चाहिए भगवान से मिलने की ललक और उसे पाने की रीति है- भक्ति जिसका अर्थ है भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। भगवत प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़िए। भगवान से मिलने की ललक भगवद् प्राप्ति का एक अंग होती है। भगवत प्राप्ति अर्थात् भगवान या ईश्वर को पाने की रीति, भक्ति मानी गई है। भक्ति का अर्थ है भगवदोपासना अर्थात् भगवान की उपासना, सेवा और शरण्यता। इस असत संसार में लोगों के लिये सुख-शांति प्राप्ति का सरल सुगम पथ केवल ईश्वरोपासना ही है। अपने इष्ट देवता का सुमिरन, चिंतन, पूजन, भजन, कीर्त्तन, ध्यान, आराधना को उपासना कहा जाता है। अधिकांश रूप में देखा सुना गया है कि संसार में जितने भी महान पुरुष हुये हैं, वे सभी भगवद् भक्त हुये हैं यानी वे सभी ईश्वरोपासक थे। परमहंस श्रीरामकृष्ण जी का कहना है कि ''ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।'' महामना मदनमोहन जी मालवीय ने लिखा है कि ''धट-घट व्यापक उस परमात्मा की विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिये।'' स्वामी विवेकानंद ने इस बात का प्रचार किया ''नाना रूपों में जो तुम्हारे सामने है, उसको छोड़कर अन्यत्र कहां ईश्वर को खोज रहे हो। जो जीवन से प्रेम करता है वही मनुष्य 'मनुष्य' है और वही मनुष्य ईश्वर की सेवा करता है।'' बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खूंजिछ ईश्वर। जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविदे ईश्वर॥ उपासना शब्द के स्मृति, पुराणादि में तथा महापुरुषों की वाणी में अनेक अर्थ पाये जाते हैं। सार रूप में भगवत-प्राप्ति के निमित्त उपासना का अर्थ पूजा भक्ति है। श्री मद्भागवत के अनुसार भगवद्-प्राप्ति के लिये ईश्वर को पूर्ण भक्ति से प्रसन्न कर लेना' उपासना कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के या यूं कहें कि स्मृतियों व पुराणों के प्रमाण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उपासना काल में भगवान उपासकों को दर्शन अवश्य देते हैं। मक्का, मदीना, द्वारका, बद्री और केदार। प्रेम बिना सब झूठ हैं, कहें ''मलूक'' विचार॥ उपासना की सिद्धि के लिये भगवान के प्रति भक्ति अत्यधिक प्रेम के साथ होनी आवश्यक है। ऐसी ममता, ऐसा अनुराग या प्रेम भगवान के प्रति हो कि अपनी सब ममता हर जगह से निकालकर परम पिता परमात्मा प्रभु के पादारविंदो में ही केंद्रित हो जाये, अनुरक्त हो जाये। रामचरित मानस में भी यही बात कही गई है। जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥ सबकै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहिं बांध बरि डोरी। समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं। अस सज्जन मम उर बस कैसे। लोभी हृदय बसइ धनु जैसे॥ उपर्युक्त चौपाईयां विभीषण शरणागति के प्रसंग में सुंदर कांड के दोहे क्रमांक 47 से 48 के मध्यसे अवतरित हैं। भगवान राम और विभीषण के मध्य बातचीत का अंश हैं ये चौपाईयां। और भी कहा गया है- तुलसी दास की रामायण में- मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ भक्त शिरोमणि संत मीराबाई के शब्दों में भी इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान प्रेम के द्वारा प्राप्त होते हैं (पद है - माई री मैं तो लियो गोविन्द मोल. ....) ''कोई कहै घर में, कोई कहै बन में, राधा के संग किलोल। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आवत प्रेम के मोल॥'' भगवद् प्राप्ति के निमित्त बिना प्रेम के यदि चंचल मन को जबरन ईश्वर में लगाया जायेगा तो मन वहां अधिक देर टिक नहीं पायेगा। चंचल मन को प्रभु के चरणों में लगाने के लिये दो प्रमुख उपाय हैं : (1) अभ्यास व (2) वैराग्य। अभ्यास के द्वारा मन को भगवान से प्रेम करने की आदत पड़ जाती है और भगवान में मन टिकने लगता है। वैराग्य से चित्त-विभ्रम की निवृत्ति होने लगती है। संसार से विरक्ति और भगवान से अनुरक्ति उत्पन्न होती है। होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ-चरण अनुरागा॥ सदैव, सर्वत्र यानि सब जगह भगवद्दर्शन करने की ललक अपने को परम दैन्य, अयोग्य एवं सबका सेवक समझना यह परमोच्च कोटि की उपासना है। ऐसा करने से भगवान प्रसन्न होकर भक्त आराधक, उपासक या जातक को सदा सर्वत्र सभी सुख-दुखादि परिस्थितियों में अपना दर्शन कराने लगते हैं। ईश्वर और प्रेम को ''रसखान'' कवि ने एक वस्तु के दो रूप माना है- प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप। एक होय द्वै यों लसैं, ज्यों सूरज अरू धूप॥ विभिन्न उपासकों, भगवत प्रेमियों और भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथायें धर्म-साहित्य में पढ़नें को हमें प्राप्त होती हैं और तत्संबंधी कथा वार्ताओं को लोग जानते भी हैं। उनमें से एक मुस्लिम महिला ताज का नाम भी आता है जिसे भगवद् प्रेम ने इस्लाम की राह से मोड़कर नंदनंदन की दीवानी, कृष्ण पंथ की फकीरनी बना दिया। मुगलानी ताज के हृदय के भक्ति भाव, कृष्ण प्राप्ति की झलक उसके इस कवित्त से स्वतः स्पष्ट हो जाती है। सूनाक दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं। देव पूजा ठानी और नमाज भी भुलानी तजे कमला कुरान, सारे गुननि गहूंगी मैं। सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार तेरे नेह दाध में निदाघ ज्यों दहूंगी मैं॥ नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै। हौं तों मुगलानी हिंदुवानी है रहूंगी मैं॥ इस कवित्त रूपी प्याले में भगवत प्राप्ति विषयक मुगलानी ताज की प्रेम भक्ति की ही मदिरा लबालब भरी हुई है। सार यह है कि श्रद्धा भक्ति और प्रेम के द्वारा भगवत प्राप्ति हो सकती है। किसी भगवत रसिक भक्त की हृदय की धारणा इस तरह से है- नहिं हिंदु, नहिं तुरक हम, नहीं जैनी, अंगरेज। सुमन संवारत रहत नित, कुंज बिहारी सेज॥ ''ईश्वर के नाम और भजन के भाव अनन्त हैं, उनमें से जिस मनुष्य को जो नाम और भाव पसंद है, वह उसी से उसको पुकारता तथा उसका ध्यान करता है और उसी से ईश्वर को पाता है।'' मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा॥ तुलसी दास जी की इन अनुभूति की पुष्टि मीराबाई ने भी की यह कहकर कि भगवान प्रेम से प्राप्त होते हैं।

देव प्रतिमा निर्माण में ग्राह शिला

देवमूर्तियों का निर्माण करते समय यह ज्ञान होना अति आवश्यक है कि जिस शिला से हम देवमूर्ति का निर्माण करने जा रहे हैं वह शुभ है अथवा अशुभ तथा देवता अथवा देवी के निर्माण योग्य शिला का क्या लक्षण है? इस ज्ञान पिपासा की तृप्ति देवता मूर्ति प्रकरण का अध्ययन करने से होती है। सूत्रधार मंडन के अनुसार जाति भेद से तीन प्रकार की शिला होती हैं - 1. पुंशिला 2. स्त्रीशिला 3. नपुंसकशिला 1. पुंशिला: ‘एकवर्णा घना स्निग्धा मूलाग्रादार्जवान्विता। अजघंटारवाघोषा सा पुंशिला प्रकीर्तिता।।’ 2. स्त्रीशिला: ‘स्थूलमूला कृशाग्रा या कांस्यतालसमध्वनिः।’ 3. नपुंसकशिला: ‘कृशमूलाऽग्रस्थूला शिला षण्ढेति निःस्वना।’ सूत्रधार मंडन का यह विवेचन ‘मयमतम्’ से अत्यधिक प्रभावित है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि इस वर्णन का आधार मयमतम् ही है। मयमतम् में पुरुष जाति की शिला के लक्षण में ‘अजघण्टारव’ के स्थान पर ‘गजघण्टारव’ का प्रयोग किया गया है। घण्टारव अर्थात् हाथी की पीठ पर लटकते हुए घण्टे जैसी शब्द वाली। मयमतम् व देवतामूर्ति प्रकरण में कांसे के घण्टे जैसे आवाज वाली शिला को स्त्री जाति की शिला कहा गया है जबकि अग्निपुराण में उक्त ध्वनि वाली शिला पुरुषजाति की शिला कही गयी है। यथा - ‘कांस्यघण्टानिनादा स्यात्पुलिंगा विस्फुलिंगका’। मयमतम् में स्त्रीशिला का उल्लेख इस प्रकार है- ‘स्थूलमूला कृशाग्रा या कांस्यतालसमध्वनिः’ यहां भी स्पष्ट है कि मयमतम् और सूत्रधार मंडन के स्त्रीशिला लक्षण में आकृति एवं ध्वनि दोनों में ही समानता है। ‘मानसार अध्ययन’ में भी जाति भेद से तीनों ही प्रकार की शिलाओं का वर्णन मिलता है। आकृति भेद की दृष्टि से देखा जाये तो मानसार अध्ययन के मतानुसार भी समान आकार वाली पुंशिला तथा मूल में स्थूल तथा अग्रभाग में कृश स्त्रीशिला कहलाती है। किंतु नपुंसक शिला के विषय में कुछ मतभेद है। सूत्रधार मंडन के अनुसार तो मूल में कृश और अग्र में स्थूल शिला नपुंसक होती है जब कि मानसार अध्ययन के मत में मूल और मध्य में स्थूल तथा अग्र भाग में कृश नपुंसक शिला होती है - ‘स्थूलाग्रं च कृशं मध्यं स्थूलं नपुंसकं शिला।’ मानसार अध्ययन में समान्य लक्षण की दृष्टि से समचोरस-पुंशिला, गोल स्त्रीशिला तथा अत्यधिक गोल या बहुशाखा वाली नपुंसकशिला कही गयी है यथा - ‘चतुरस्रं पुंशिला प्रोक्तं वृत्तं स्याद् वनिताशिला। बहुधा चाग्रश्रृङ््रगं स्यान्नपुंसकं तमुदाहृतम्।। काश्यपशिल्प में भी प्रकारांतर से इसी मत की पुष्टि की गई है - चतुरस्रा च वस्वस्रा स्त्रीशिलेति प्रकीर्तिता। आयतास्रा च वृत्ता च दश- द्वादश कोणका।। पुंशिला सा शिला ख्याता सुवृत्ता सा नपुंसका। मानसार अध्ययन में रत्न के बरतन जैसी आवाज वाली पुरुषशिला कही गई है। जबकि सूत्रधारमंडन के अनुसार बकरी के गले में बंधी घंटी जैसी ध्वनि वाली पुंशिला होती है। स्त्रीशिला एवं नपुंसकशिला का ध्वनि लक्षण दोनों में समान है। मानसार अध्ययन में ध्वनि के आधार पर शिलाओं को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। ‘तालध्वनिनिनादं स्याच्छिला वल्ली प्रकीर्तिता। महिषध्वनिसंयुक्ता शिला वृक्षा प्रकीर्तिता।। पूर्वोक्तार्थ ध्वनिनादं बावना च शिला भवेद्।’ इसी प्रकार काश्यप शिल्प (अ. 49) मयमतम् (अ. 33) और अग्नि पुराण में शिला बाला, यौवना व वृद्धा के नाम से अभिहित है। जाति भेद के आधार पर ही सूत्रधार मण्डन ने शिलाओं का कार्यभेद भी किया है अर्थात् पुल्लिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग की शिला के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। सूत्रधार के अनुसार पुंशिला का कार्य इस प्रकार है: ‘लिंगानि प्रतिमामिश्रं कुर्यात् पुंशिलया बुधः।’ अर्थात् शिवलिंग एवं देवों की मूर्तियों का निर्माण पुरुष जाति की शिला से करना चाहिए। लिंग तीन प्रकार के होते हैं -निष्कल, सकल और मिश्र जैसा कि मयमतम् में कहा गया है- निष्कलं सकलं मिश्रं लिंगश्चेति त्रिधा मतम्। निष्कलं लिंगमित्युक्तं सकलं बेरमुच्यते।। मुखलिंगतया मिश्रं लिंगञ्चाकृतिसन्निभैः। बिम्बमूर्तिः शरीराभा विश्वमूर्तिस्वरूपकैः।। मयमतम् के मतानुसार त्रिविध लिंगों का निर्माण पुंशिला से करना उपयुक्त है। ‘सकलं निष्कलं मिश्रं कुर्याद् पुंशिलया सुधीः’ मंडन ने भी ‘लिंगानि’ से त्रिविध लिंड.ों की ओर ही संकेत किया है। जबकि काश्यपशिल्प में त्रिविध लिंगों का नामोल्लेख न करते हुए केवल ‘पुंशिलाभिः कृतं लिंगम्’ इतना ही कहा गया है। मंडन मतानुसार देवीमूर्ति के निर्माण में स्त्री जाति की शिला का प्रयोग किया जाना चाहिए। ‘युंजीयात् स्त्रीशिंला सम्यक् पीठिका-शक्तिमूत्र्तयः’ पीठिका का तात्पर्य गौरी पीठ से है काश्यपशिल्प में कहा गया है कि पीठार्थ स्त्रीशिला का ग्रहण श्रेष्ठ होता है। मयमतम् के अनुसार भी देवी की मूर्तियों के निर्माण हेतु स्त्री जाति की शिला ही उपयुक्त होती है। यथा- ‘युंजीयात् स्त्री शिला सम्यक् नारी बेरंच पिण्डिका।’ स्पष्टतः सूत्रधार ने भी प्रकारांत से इसी मत को पुष्ट किया है। सूत्रधार ने नपुंसक जाति की शिला की उपयोगिता का वर्णन इस प्रकार किया है- षण्ढोपलेन कत्र्तव्यं ब्रह्मकूर्मशिले तथा। प्रासादतलकुण्डादि कर्म कुर्याद् विचक्षणः।। प्रतिमा के नीचे स्थापनीय शिला पादशिला कहलाती है। इसके दो भेद है - ब्रह्मशिला और कूर्मशिला। मत्स्यपुराण में इसका विवेचन इस प्रकार है- अधः कूर्मशिला प्रोक्ता सदा ब्रह्मशिलाधिका। उपर्यवस्थिता तस्या ब्रह्मभागाधिका शिला।। अर्थात् मंदिर के गर्भगृह के खनन मुहूर्त के समय स्थापित की जाने वाली कूर्म चिन्ह युक्त शिला कूर्मशिला कहलाती है तथा इस शिला के ऊपर रखी जाने वाली शिला ब्रह्मशिला कहलाती है। अतः ब्रह्मकूर्मशिला तथा प्रसादतलकुण्डादि का निर्माण नपुंसकशिला से करना चाहिए। मयमतम् का भी यही मत है। यथा- ‘षण्ढोपलेन कत्र्तव्यं ब्रह्मकूर्मशिले तथा। नन्द्यावत्र्तशिले वापि कत्र्तव्या तेन चाऽऽत्मना।। प्रासादतलकुडयादि कर्म कुर्याद् विचक्षणः।’ यहां स्पष्ट है कि सूत्रधार मंडन और मयमतम् के मत में ही नहीं अपितु श्लोकों में भी अत्यधिक समानता है। सारांशतः पुरुष जाति की शिला से देव मूर्तियों का स्त्रीशिला से देवी की मूर्तियों का तथा नपुंसक जाति की शिला से प्रासादतलकुड्यादि का निर्माण करना चाहिए। देवमूर्तियों का निर्माण करते समय भूमि पर स्थित शिला की दिशा स्थिति पर ध्यान देना परमावश्यक होता है। अर्थात् निर्माणकाल के समय यह विचारणीय है कि शिला का अग्र भाग एवं मूल भाग किस दिशा में है। इसके आधार पर ही मूर्ति के मुख, पैर एवं अन्य अंगों का निर्माण किया जाता है। इस विषय में अधिकांश शिल्प शास्त्रकारों का मत है कि शिला का अग्र भाग पूर्व या उत्तर में तथा मूल भाग दक्षिण या पश्चिम में होता है तथा भूमि पर स्थित शिला नीचे मुख करके उल्टी सोती है। शिला के नीचे के भाग का मुख और ऊपर के भाग का शिर बनाना चाहिए। सूत्रधारमंडन के अनुसार शिला पूर्व और पश्चिम की ओर लंबी हो तो उसका पश्चिम की ओर अग्र भाग मानकर शिर बनाना चाहिए तथा यदि शिला उत्तर और दक्षिण की ओर लंबी हो तो दक्षिण की ओर शिर बनाना चाहिए। यथा- प्राक् पश्चाद्दक्षिणे सौम्ये स्थिता भूमौ तुया शिला। प्रतिमायाः शिरस्तस्याः कुर्यात् पश्चिमदक्षिणे।। मानसार अध्ययन में यह विषय विस्तृत एवं स्पष्ट रूप से उल्लिखित है यहां शिला का अग्रभाग पूर्व और उत्तर दिशा में स्वीकार किया गया है, तथा शिला की दिशा स्थिति के आधार पर अंग निर्माण का भी वर्णन है जिसके अनुसार यदि शिला का अग्र भाग पूर्व दिशा में हो तो उसका दाहिना अंग दक्षिण में तथा वामांग उत्तर दिशा की ओर बनाना चाहिए। उत्तर दिशा की ओर अग्र भाग वाली शिला का दाहिना अंग पूर्व दिशा में और बांयाँ अंग पश्चिम दिशा में होता है। शिला की कोण स्थिति के विषय में मानसार अध्ययन का मत है कि यदि शिला ईशान और नैर्ऋत्य कोण में हो तो उसका अग्र भाग ईशान कोण में एवं मूल भाग नैर्ऋत्य कोण में होता है। मानसार अध्ययन के अनुसार पुंलिंग शिला दिशा की ओर तथा नपुंसक जाति की शिला कोणे की ओर लंबी होती है। मयमतम् में भी पूर्व और उत्तर में शिला का अग्र भाग तथा दक्षिण व पश्चिम में मूल माना गया है यथा - ‘मुखमुद्धरणेऽधोंऽशमूध्र्वभागं शिरो विदुः।। शिलामूलवाक्प्रत्यगुदग्रं प्रागुदग्दिशि। अग्रमूध्र्वमधोमूलं पाषाणस्य स्थितस्य तु, नैऋत्येशानदेशाग्रा बह्व्यग्रा वह्रिवायुगा।।’ मयमतम् के अनुसार अग्र ऊध्र्वभाग और मूल अधोभाग कहलाता है। मानसार अध्ययन में अग्निकोण और वायुकोण में शिला का अग्र व मूल नहीं माना है जबकि मयमतम् में अग्निकोण में शिला का अग्रभाग और वायु कोण में मूल भाग माना गया है। काश्यपशिल्प तथा शिल्परत्न में भी पूर्व और उत्तर को शिला का अग्र भाग तथा दक्षिण व पश्चिम में मूल भाग माना है। यथा ‘प्रागग्रां चोदगग्रां वा शिला संग्राह्य देशिकः। प्रागग्रे पश्चिमं मूलमुदगग्रं तु दक्षिणे।। अधो भागं मुखं ख्यातं पृष्ठमूध्र्वगतं भवेत्।’ शिल्परत्न में उल्लखित ‘पूर्वोत्तरशिरोयुक्ता घण्टानादस्फुलिंगवत्’ इस श्लोकांश से विशेष रूप से यह विदित होता है कि शिला के अग्रभाग की ओर मूर्ति का शिर एवं मूल भाग की ओर पैर बनाने चाहिए। उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि प्रायः सभी शिल्पशास्त्रकारों ने पूर्व और उत्तर दिशा में शिला का अग्र भाग और पश्चिम व दक्षिण में मूल भाग स्वीकार किया है जब कि सूत्रधार मंडन ने पश्चिम और दक्षिण में अग्र भाग शिर बनाना उपयुक्त माना है तथा सूत्रधार ने शिला की कोण स्थिति के विषय में भी कोई मत प्रकट नहीं किया है। प्रतिमा निर्माण योग्य शुभाशुभ शिला के विषय में सूत्रधार मंडन का निम्न मत है- ‘निविडा निव्र्रणा मृद्वी सुगन्धा मधुरा शिला। सर्वार्चा लिंगपीठेषु श्रेष्ठा कान्तियुता च या।। अर्थात् दृढ़, छेद या बिंदु रहित, कोमल, सुगंध वाली मधुर तथा कांति युक्त शिला सभी जाति की प्रतिमा, शिवलिंग और पीठिका के लिए श्रेष्ठ या शुभ होती है। यहां निव्र्रणा का तात्पर्य ‘फोड़े के आकृति वाली बिंदु से रहित शिला से है’ काश्यपशिल्प में त्रिविध बिंदुओं का वर्णन है यथा- ‘कृष्णलोहनिभाकारा कृष्णभ्रमरसन्निभा। शिखिपिच्छसमाकारा त्रिविधा बिन्दुरेव हि।। अर्थात् काले लोहे के सदृश, काले भौंरे के समान और मोर के पंख तुल्य तीन प्रकार की बिंदु होती हैं। अतएव यह भी कहा जा सकता है कि लोहे, भौरे तथा मयूर पंख के समान स्वरूप वाली बिंदु से रहित शिला श्रेष्ठ होती है। सूत्रधार ने सुगंधा शिला को श्रेष्ठ बतलाया है सुगंधा अर्थात् स्वाभाविक सुगंध से युक्त न कि कृत्रिम सुगंध वाली काश्यपशिल्प में वर्णित निंदित या त्याज्य शिला का विशेष आशय स्पष्ट हुआ है। जिसके अनुसार वर्षा, धूप एवं अग्नि से उत्पन्न गंध दुर्गंध होती है न कि सुगंध अतः काश्यपशिल्प में वर्षा, धूप और अग्नि के गंध वाली तथा खारे जल से व्याप्त शिला को निंदित शिला कहा गया है। इस आधार पर वर्षा, धूप और अग्नि की गंध से रहित स्वाभाविक सुगंध वाली शिला ही श्रेष्ठ होगी। यथा - वर्षातपाग्निगंधां×च सुकीर्णा क्षारवारिणा’ मयमतम् में बाला यौवना एवं वृद्धा संज्ञक शिला के लक्षणों का विवेचन है इनमें से चिकनी, सुगंधवाली, शीतल, कोमल और तेजस्वी शिला यौवना नाम से अभिहित है तथा यही शिला सिद्धिदात्री एवं श्रेष्ठ कही गयी है। ध्यातव्य है कि देवतामूर्ति प्रकरण एवं मयमतम् दोनों में श्रेष्ठ शिला का लक्षण समान है। प्रतिष्ठासार के ‘कठिना शीतला स्निग्धा सुस्वादा दृढा तथा।’ सुगंधात्यन्ततेजस्का मनोज्ञा चोत्तमा शिला।।’ इस श्लोक से भी उक्त लक्षणों वालीशिला ही श्रेष्ठ सिद्ध होती है। वर्ण के आधार पर शुभ या ग्राह्य शिला के विषय में वास्तुविद मंडन का मत है कि कबूतर, कुमुदपुष्प, भ्रमर, उड़द, मूंग और कृष्णवर्ण वाली, पीत घी के वर्ण की तथा श्वेत कमल के समान वर्ण वाली शिला सभी देवताओं की प्रतिमा बनाने हेतु ग्राह्य होती है। वसुनंदीकृतप्रतिष्ठासार के अनुसार उपर्युक्त वर्णों के अतिरिक्त लाल, हरे, कमेड़ी तथा मंजीठ के वर्ण वाली शिला भी कल्याणकारी होती है। प्रतिष्ठासार में वर्णित है कि ब्राह्मण, क्षत्रियादि के वर्ण क्रमानुसार भिन्न-भिन्न वर्ण वाली शिला की प्रतिमा शुभ होती है यथा-‘श्वेता रक्ता पीता कृष्णा विप्रादीनां हिता सदा।’ अर्थात् ब्राह्मण वर्ण के लिए श्वेत, क्षत्रिय के लिए लाल, वैश्य के लिए पीत (पीली) और शूद्र के लिए कृष्ण वर्ण वाली प्रतिमा हितप्रद होती है। काश्यप शिल्प में भी प्रतिष्ठा सारोक्त रंगों वाली शिला ही ब्राह्मणादि के लिए उत्तम कही गयी है। यथा- ‘श्वेता रक्ता च पीता च कृष्णा चैव चतुर्विधा।’ तथा क्रमानुसार ब्राह्मणादि वर्ण की उपयोगिता के विषय में कहा गया है कि -‘श्वेता रक्ता च पीता च विप्रादीनां क्रमाद् भवेत्’ यही मत अग्निपुराण का भी है। जैसा कि कहा गया है -‘पाण्डरा ह्यरुणा पीता कृष्णा शस्ता तु वर्णिनाम्। अग्राह्यशिला के विषय में सूत्रधार ने लिखा है कि विशेष मलिन तथा सुवर्ण कांसा लोहादि धातु के समान वर्ण (रंग) के चिन्ह वाली और अन्य दूसरे प्रकार के चिन्ह वाली प्रतिमा त्याज्य है। मयमतम् के ‘रेखाबिन्दुकलंकाढ्या सा त्याज्या सर्वयत्नतः’ इस श्लोकांश से भी देवतामूर्तिप्रकरण का यह कथन पुष्ट होता है। प्रकारांतर से यही मत काश्यप शिल्प में भी उक्त है- ‘रेखाबिन्दुकलंकादिसंयुक्ता परिवर्जयेत्’ कुछ ग्रंथों में चिन्ह का परिहार भी वर्णित है इस संदर्भ में आचार्य दिनकर एवं प्रतिष्ठासार में लिखा है कि प्रतिमा के पाषाण में यदि अपने ही वर्ण के रंग की रेखा या दाग हो तो दोष नहीं होता है। अग्निपुराण के अनुसार शिला में यदि सफेद रेखा हो तो वह उत्तम होती है और अगर काली रेखा हो तो उसका नरसिंह मंत्र के हवन से परिहार हो जाता है। मानसार अध्ययन में सफेद रेखा के साथ ही सुवर्ण रंग की रेखा को भी शुभ बतलाया गया है किंतु यहां कृष्ण वर्ण युक्त रेखा या चिन्ह वाली शिला का त्याग वर्णित है। यथा - ‘सर्वेषां वर्णपाषाणे कृष्णरेखां विसर्जयेत्। श्वेतं च स्वर्णरेखां च सर्वसंपत्करं शुभम्।। यद्यपि पाषाण या काष्ठ में किसी प्रकार का चिन्ह या रेखा अशुभ होती है किंतु कुछ चिन्ह ऐसे भी हैं जो पाषाण या काष्ठ में शुभ होते हैं शिल्प रत्न में लिखा है कि नद्यावर्त, शेषनाग, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शंख, स्वस्तिक, हाथी, गौ, नंदी, इन्द्र, चंद्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिवलिंग, तोरण, हरिण, मंदिर, कमल, वज्र या शिवजटा के समान रेखा या चिन्ह शुभ होते हैं। प्रतिमा निर्माण हेतु उत्तम शिला को शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और अच्छे शकुन में प्रसन्नचित्त होकर ग्रहण करनी चाहिए।