Tuesday, 14 April 2015

शनि से होते हैं कई रोग


ज्योतिष के अनुसार रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जन्म समय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष पर पापग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप दृष्टि, पापग्रहों की राशि एवं नक्षत्र में उपस्थित होना, पापग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। इन रोगकारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भाव मंजरी के अनुसार-
कालस्य मौलि: क्रिय आननं गौर्वक्षो नृयुग्मो हृदयं कुलीर: ।
का्रेडे मृगेन्दोथ कटी कुमारी अस्तिस्तुला मेहनमस्य कौर्पि:।।
इरूवास उरू मकरश्र जानु जंघे घटोन्त्यश्ररणौ प्रतीकान्।
सच्ंिन्तयेत्कालनरस्य सूतौ पुष्टान्कृशान्नु: शुभपापयोगात्।।
अर्थात मेष राशि सिर में, वृष मुंह में, मिथुन छाती में, कर्क ह्नदय में, सिंह पेट में, कन्या कमर में, तुला बस्ति में अर्थात पेड़ू में, वृश्च्कि लिंग में, धनु जांघो में, मकर घुटनों में, कुंभ पिंण्डली में तथा मीन राशि को पैरों में स्थान दिया गया है। राशियों के अनुसार ही नक्षत्रों को उन अंगों में स्थापित करने से कल्पिम मानव शरीराकृति बनती है।
इन नक्षत्रों व राशियों को आधार मानकर ही शरीर के किसी अंग विशेष में रोग या कष्ट का पूर्वानुभान किया जा सकता है। शनि तमोगुणी ग्रह क्रूर एवं दयाहीन, लम्बे नाखुन एवं रूखे-सूखे बालों वाला, अधोमुखी, मंद गति वाला एवं आलसी ग्रह है। इसका आकार दुर्बल एवं आंखे अंदर की ओर धंसी हुई है। जहां सुख का कारण बृहस्पति को मानते है। तो दु:ख का कारण शनि है। शनि एक पृथकत्ता कारक ग्रह है, पृथकत्ता कारक ग्रह होने के नाते इसकी जन्मांग में जिस राशि एवं नक्षत्र से सम्बन्ध हो, उस अंग विशेष में कार्य से पृथकत्ता अर्थात बीमारी के लक्षण प्रकट होने लगते हैंै। शनि को स्नायु एवं वात कारक ग्रह माना जाता है। नसों वा नाडियों में वात का संचरण शनि के द्वारा ही संचालित है। आयुर्वेद में भी तीन प्रकार के दोषों से रोगों की उत्पत्ति मानी गई है। ये तीन दोष वात, कफ व पित्त है। हमारे शरीर की समस्त आन्तरिक गतिविधियां वात अर्थात शनि के द्वारा ही संचालित होती है।
आयुर्वेद शास्त्रों में भी कहा गया है:-
पित्त पंगु कफ: पंगु पंगवो मल धातव:।
वायुना यत्र नीयते तत्र गच्छन्ति मेघवत्।।
अर्थात पित्त, कफ और मल व धातु सभी निष्क्रिय हैं। स्वयं ये गति नहीं कर सकते। शरीर में विद्यमान वायु ही इन्हें इधर से उधर ले जा सकती है। जिस प्रकार बादलों को वायु ले जाती है। यदि आयुर्वेद के दृष्टिकोण से भी देखा जाये तो वात ही सभी कार्य समपन्न करता है। इसी वात पर ज्योतिष शास्त्र शनि का नियंत्रण मानता है। शनि के अशुभ होने पर शरीरगत वायु का क्रम टूट जाता है। अशुभ शनि जिस राशि, नक्षत्र को पीडि़त करेगा उसी अंग में वायु का संचार अनियंत्रित हो जायेगा, जिससे परिस्थिति अनुसार अनेक रोग जन्म ले सकते है। इसका आभास स्पष्ट है कि जीव-जन्तु जल के बिना तो कुछ काल तक जीवित रह सकते है, लेकिन बिना वायु के कुछ मिनट भी नहीं रहा जा सकता है। नैसर्गिक कुण्डली में शनि को दशम व एकादश भावों का प्रतिनिधि माना गया है। इन भावों का पीडि़त होना घुटने के रोग, समस्त जोड़ों के रोग, हड्डी, मांसपेशियों के रोग, चर्म रोग, श्वेत कुष्ठ, अपस्मार, पिंडली में दर्द, दायें पैर, बायें कान व हाथ में रोग, स्नायु निर्बलता, हृदय रोग व पागलपन देता है। रोगनिवृति भी एकादश के प्रभाव में है, उदरस्थ वायु में समायोजन से शनि, पेट मज्जा को जहां शुभ होकर मजबूत बनाता है वहीं अशुभ होने पर इसमें निर्बलता लाता है। फलस्वरूप जातक की पाचन शक्ति में अनियमितता के कारण भोजन का सही पाचन नहीं हो पाता, जो रस, धातु, मांस, अस्थि को कमजोर करता है। समस्त रोगों की जड़ पेट है। पाचन शक्ति मजबूत होकर प्याज-रोटी खाने वालो भी सुडौल दिखता है वहीं पंचमेवा खाने वाला बिना पाचन शक्ति के थका-हारा हुआ मरीज लगता है। मुख्य तौर पर शनि को वायु विकार का कारक मानते है जिससे अंग वक्रता, पक्षाघात, सांस लेने में परेशानी होती है। शनि का लौह धातु पर अधिकार है। शरीर में लौह तत्व की कमी होने पर एनीमिया, पीलिया रोग भी हो जाता है। अपने पृथकता कारक प्रभाव से शनि, अंग विशेष को घात-प्रतिघात द्वारा पृथक् कर देता है। इस प्रकार अचानक दुर्घटना से फ्रेक्चर होना भी शनि का कार्य हो सकता है। यदि इसे अन्य ग्रहों का भी थोड़ा प्रत्यक्ष सहयोग मिल जाये तो यह शरीर में कई रोगों को जन्म दे सकता है। जहां सभी ग्रह बलवान होने पर शुभ फलदायक माने जाते है, वहीं शनि दु:ख का कारक होने से इसके विषय में विपरित फल माना है-
आत्मादयो गगनगैं बलिभिर्बलक्तरा:।
दुर्बलैर्दुर्बला: ज्ञेया विपरीत शनै: फलम्।।
अर्थात कुण्डली में शनि की स्थिति अधिक विचारणीय है। इसका अशुभ होकर किसी भाव में उपस्थित होने उस भाव एवं राशि सम्बधित अंग में दु:ख अर्थात रोग उत्पन्न करेगा। गोचर में भी शनि एक राशि में सर्वाधिक समय तक रहता है जिससे उस अंग-विशेष की कार्यशीलता में परिवर्तन आना रोग को न्यौता देना है। कुछ विशेष योगों में शनि भिन्न-भिन्न रोग देता है। आइये जानकारी प्राप्त करें:
सर्वाधिक पीड़ादायक वातरोग:
* छठा भाव रोग भाव है। जब इस भाव या भावेश से शनि का सम्बन्ध बनता है तो वात रोग होता है।
* लग्नस्थ बृहस्पति पर सप्तमस्थ शनि की दृष्टि वातरोग कारक है।
* त्रिकोण भावों में या सप्तम में मंगल हो व शनि सप्त्म में हो तो गठिया होता है।
* शनि क्षीण चंद्र से द्वादश भाव में युति करे तो आथ्र्रराइटिस होता है।
* छठे भाव में शनि पैरों में कष्ट देता है।
* शनि की राहु मंगल से युति एवं सूर्य छठे भाव में हो तो पैरों में विकल होता है।
* छठे या आठवें भाव में शनि, सुर्य चन्द्र से युति करें तो हाथों में वात विकार के कारण दर्द होता है।
* शनि लग्नस्थ शुक्र पर दृष्टि करें तो नितम्ब में कष्ट होता है।
* द्वादश स्थान में मंगल शनि की युति वात रोग कारक है।
* षष्ठेश व अष्टमेश की लग्न में शनि से युति वात रोग कारक है।
* चंद्र एवं शनि की युति हो एवं शुभ ग्रहों की दृष्टि नहीं हों तो जातक को पैरों में कष्ट होता हैं।
उदर रोग:
उदर विकार उत्पत्र करने में भी शनि एक महत्वपुर्ण भूमिका निभाता है। सूर्य एवं चन्द्र को बदहजमी का कारक मानते हैं, जब सूर्य या चंद्र पर शनि का प्रभाव हो, चंद्र व बृहस्पति को यकृत का कारक भी माना जाता है। इस पर शनि का प्रभाव यकृत को कमजोर एवं निष्क्रिय प्रभावी बनाता है। बुध पर शनि के दुष्प्रभाव से आंतों में खराबी उत्पत्र होती है। वर्तमान में एक कष्ट कारक रोग 'एपेण्डीसाइटिस भी बृहस्पति पर शनि के अशुभ प्रभाव से देखा गया है। शुक्र को धातु एवं गुप्तांगों का प्रतिनिधि माना जाता है। जब शुक्र, शनि द्वारा पीडि़त हो तो जातक को धातु सम्बंधी कष्ट होता है। जब शुक्र पेट का कारक होकर स्थित होगा तो पेट की धातुओं का क्षय शनि के प्रभाव से होगा। शनिकृत कुछ विशेष उदर रोग योग:-
* कर्क, वृश्चिक, कुंभ नवांश में शनिचंद्र से योग करें तो यकृत विकार के कारण पेट में गुल्म रोग होता है।
* द्वितीय भाव में शनि होने पर संग्रहणी रोग होता हैं। इस रोग में उदरस्थ वायु के अनियंत्रित होने से भोजन बिना पचे ही शरीर से बाहर मल के रुप में निकल जाता है।
* सप्तम में शनि मंगल से युति करे एवं लग्रस्थ राहु, बुध पर दृष्टि करे तब अतिसार रोग होता है।
* मीन या मेष लग्र में शनि तृतीय स्थान में होने पर उदर में दर्द होता है।
* सिंह राशि में शनि चंद्र की युति या षष्ठ या द्वादश स्थान में शनि, मंगल से युति करे या अष्टम में शनि व लग्र में चंद्र हो या मकर या कुंभ लग्रस्थ शनि पर पापग्रहों की दृष्टि हो, उदर रोग कारक होता है।
* कुंभ लग्र में शनि चंद्र के साथ युति करे या षष्ठेश एवं चंद्र लग्रेश पर शनि का प्रभाव या पंचम स्थान में शनि की चंद्र से युति हो तो प्लीहा रोग होता है।
कुष्ठ रोग:
ज्योतिष शास्त्रों में कुष्ट रोग के कुछ योग दिये हुये हैं। इस प्रकार के योग कई कुण्डलियों में होते भी हैं लेकिन उसको इस योग से कोई पीड़ा नहीं हुई। साधारणतया इस स्थिति में शनि की कारक ग्रहों पर युति का प्रभाव एवं कारक ग्रहों के बलाबल पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है। इन ग्रहों के कुछ शुभ प्रभाव से कुष्ठ तो नहीं होगा लेकिन वात के सूक्ष्म प्रभाव के कारण दाग, दाद, छाजन, फोड़े-फुंसी व एक्जीमा का प्रकोप समझना चाहिए। ये योग निम्न है-
* शनि की मंगल व सूर्य से युति से कुष्ठ होता है।
* लग्न में शनि षष्ठेश से युति करे तो कफ विकार जनित कुष्ठ होता है।
* सिंह व कन्या लग्न में, शनि सूर्य की युति लग्न में हो तो रक्त कुष्ठ होता है।
* शनि की मेष या वृषभ राशि में युति चन्द्र मंगल से हो तो सफेद कुष्ठ होता है।
* शनि कर्क या मीन राशि में चन्द्र मंगल शुक्र से युति करे तो रक्त कुष्ठ होता है।
* शनि सूर्य से युति करे तो कृष्ण कुष्ठ होता है।
* शनि चन्द्र की नवम में युति दाद रोग कारक है।
* जल राशिस्थ द्वितीयस्थ चन्द्र पर शनि की दृष्टि दाद रोग देती है।
हृदय रोग:
हृदय को स्वस्थ बनाये रखने हेतु सूर्य एवं चंद्र व इनकी राशियों पर शुभ प्रभाव आवश्यक है। इस दृष्टि में शुक्र हृदय को मजबूती देता है, उच्चस्थ शुक्र वाला जातक दृढ़ दिलवाला होता है। जब इन सभी कारकों, भाव चतुर्थ व पंचम व इनके भावेशों पर शनि का अशुभ प्रभाव पड़ता है तो जातक हृदय विकार से ग्रसित होता है। हृदय विकार के प्रमुख शनिकृत ज्योतिष योग:-
* चतुर्थ में शनि हृदय रोग कारक है। यदि बृहस्पति व चंद्र भी शनि से पीडि़त हों तो हृदय रोग भी तीव्र होता है।
* मीन लग्न में शनि चतुर्थ में हो एवं सूर्य पीडि़त हो तो हृदय रोग होता है।
* चतुर्थ भावस्थ शनि बृहस्पति व मंगल से युति करे तो हृदय रोग होता है।
* षष्ठेश शनि चतुर्थ भाव में पापयुक्त हो तो हृदय रोग होता है।
शनि के कारण होने वाले अन्य रोग:
* सूर्य व शनि किसी भी प्रकार से सम्बन्ध करें तो खांसी होती है।
* चतुर्थेश के साथ शनि युति करे व मंगल की दृष्टि हो तो पत्थर से घात होता है।
* मकर लग्न में शनि चतुर्थ में पापग्रहों से युति करें तो जल घात होता है।
* मेष, वृश्चिक, कर्क या सिंह राशि में शनि शुक्र से युति, हाथ-पैर कटने का योग बनाते है।
* शनि पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो बवासीर रोग होता है।
* लग्नस्थ शनि पर सप्तमस्थ मंगल दृष्टि कर तो बवासीर होता है।
* सप्तम में शनि, वृश्चिक में मंगल व लग्न में सूर्य हो तो बवासीर रोग होता है।
* शनि बारहवें भाव में हो एवं लग्नेश व मंगल सप्तम हो तो भी बवासीर रोग होता है या लग्न्ेाश या मंगल देखे तब भी बवासीर होता है।
* मिथुन या कर्क लग्न में शनि पर राहु केतु का प्रभाव चातुर्थिक ज्वर कारक है।
* शनि-चन्द्र पर मंगल की दृष्टि हो तो पागलपन होता है।
* छठे या आठवे भाव में शनि, मंगल से युति करे तब पागलपन होता है।
* चंद्र-शनि की युति पर मंगल की दृष्टि हो तो उसे किसी पूर्व रोगी के कारण सम्पर्क क्षय होता है।
* लग्न पर मंगल शनि की दृष्टि भी क्षयरोग कारक है।
* छठे या द्वादश भाव में शनि मंगल से युति करे तो गण्डमाला रोग होता है।
* लग्नस्थ शनि सूर्य पर चंद्र शुक्र की दृष्टि गुप्तांग काटने का योग बनता है।
* शनि चंद्र से युति कर मंगल से चतुर्थ या दशम में हो तो संभोग शक्ति में कमी होती है।
* लग्न में शनि, धनु या वृषभ राशि में हो तो अल्प काम शक्ति होती है।
* नेत्र स्थान में पापग्रह शनि से दृष्ट हो तो रोग से आंखें नष्ट होती है।
* द्वितीयेश व द्वादशेश शनि, मंगल से युति करे तो नेत्र रोग होता है।
* लग्नगत सिंह राशि में सूर्य या चंद्र पर शनि या मंगल की दृष्टि से आंखें नष्ट होती है।
* षष्ठेश त्रिक स्थानों में शनि से दृष्ट हो तो बहरापन होता है।
* शनि से चतुर्थ में बुध व षष्ठेश त्रिक में हो तो व्यक्ति बहरा होता है।
* शनि, सूर्य-चंद्र के साथ सप्तम में युति करें तो दंतरोग होता है।
* मकर या कुंभ लग्नस्थ शनि हो तो जातक गंजा होता हैं।
* अष्टमस्थ शुक्र पर शनि-राहु की दृष्टि मधुमेह रोग कारक है।
* धनु और मकर लग्न में शनि त्रिक भावों में बृहस्पति से युति करे तो जातक गंूगा होता है।
* लग्न में शनि, सूर्य-मंगल से युति करे तो पीलिया रोग होता है अर्थात शनि का किसी भी ग्रह के साथ युति दृष्टि द्वारा सम्बन्ध बनाना जातक को उस ग्रह विशेष के कारकत्व में कमजोरी लाकर बीमार बनाता है।
शनिकृत रोगों को दूर करने हेतु कुछ सामान्य एवं प्रभावी उपाय निम्नलिखित है:
* शनि मुद्रिका, शनिवार के दिन शनि मंत्र का जाप करते हुये धारण करें। काले घोड़े की नाल प्राप्त कर घर के मुख्य दरवाजे के ऊपर लगायें।
* बिसा यंत्र से नीलम जड़कर धारण करें। शनि यंत्र को शनिवार के दिन, शनि की होरा में अष्टगंध में भोजपत्र पर बनाकर, उड़द के आटे से दीपक बनाकर उसमें तेल डालकर दीप प्रज्जवलित करें। फिर शनि मंत्र का जाप करते हुये यंत्र पर शमि के फ ूल अर्पित करें। तत्पश्चात इसे धारण करने से शनिकृत बीमारियों से राहत मिलती हैं।
* उड़द के आटे की रोटी बनाकर उस पर तेल लगायें। फिर कुछ उड़द के दाने उस पर रखें। अब रोगी के उपर से सात बार उसारकर उसे सुनसान स्थान में रख आयें। घर से निकालते समय व वापिस घर आते समय पीछे कदापि नहीं देखें एवं न ही इस अवधि में किसी से बात करें। ऐसा प्रयोग 21 दिन करने से राहत मिलती है।
* मिट्टी के नये छोटे घड़े में पानी भरकर रोगी पर से सात बार उसार कर उस जल से 23 दिन शमि को सींचें। इस अवधि में रोगी के सिर से नख तक की नाप का काला धागा भी प्रतिदिन शमि पर लपेटते रहें। इससे भी जातक को चमत्कारिक ढंग से राहत मिलती हैं।
* किसी बर्तन में तेल को गर्म करके उसमें गुड़ डालकर बुलबुले उठने के बाद उतार कर उसमें रोगी अपना मुंह देखकर किसी भिखारी को दे या उड़द की बनी रोटी पर इसे रखकर कुत्ते को खिला दे। यह शनिकृत रोग का सरलतम उपाय हैं।
* एक नारियल के गोले में घी व सिंदूर भरकर उसे रोगी पर कुछ देर रखें फिर शमशान में रख आयें। पीछे नहीं देखना है तथा मार्ग में वार्तालाप नहीं करें। घर आकर हाथ-पैर धो लें।
* शनि के तीव्रतम प्रकोप होने पर शनि मंत्र का जाप करना, सातमुखी रूद्राक्ष की अभिमंत्रित माला धारण करना एवं नित्य प्रति भोजन में से कौओं, कुत्ते व काली गाय को खिलाते रहना, यह सभी उपाय शनि दोष को कम करते हैं। इन उपायों को किसी विद्वान की देख-रेख या मार्गदर्शन में करने से वांछित लाभ मिल सकता है।

Pt.P.S Tripathi
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