Tuesday 29 November 2016

विवाह के समय पर राशियों का प्रभाव

राशियों का वर्गीकरन अनेक प्रकार से किया गया है, राशियों के तत्व भी अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल होते है, जो विवाह का समय तथा जीवनसाथी के स्वभाव व मानसिकता से परिचित कराने से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । विवाह के समय के निर्धारण में भी राशियों का अग्रांक्ति वाश्किरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, 1 शुभ फल प्रदायक राशिया - कर्क, वृश्चिक, मीन 2 अर्ध फल प्रदायक राशिया - वृषभ, तुला, कूम्भ 3 अर्ध राशिया तो मेष, 4 बांधव राशिया - मिथुन, सिंह, कन्या विवाह का समय निर्धारण करने में इन ग्रहों राशियों के वर्गीकरण का ध्यान में रखकर विचार करना चाहिए । यदि बंध्या राशियों में ग्रह होगे तो विवाह के सम्पत्र होने में अवरोध उत्पत्र काँपे । सर्वप्रथम लग्न, लग्नेश, सप्तमेश, सूर्य, चन्द्र, मंब्बाल, बृहस्पति, गुप्त, लग्नस्थ ग्रह, लग्नेश का नक्षत्राधिपति, सप्तमेश का नक्षवाधिपति तथा सप्तमस्थ ग्रहों की राशि और नक्षत्र पर सतर्कतापूर्वक विचार करना चाहिए, कि विवाह का योग है अथवा नहीं । यदि पापाकान्त राहु पुरुष या सहिता के ज़न्मग्रेग में नवम भाव में हो तो भी विवाह मै अवरोध उत्पन्न करता है । सप्तमस्थ शनि भी विवाह से अप्रत्याविरत विलम्ब उत्पन्न करता है । उपसंकित सूत्रों के आधार पर विवाह हेतु सर्वाधिक सशक्त समय का अनुमान सुगमता से लगाया जा सकता है । महादशा एव अन्तर्दशा का निश्चय हो जाने के पश्चात गोचर के ग्रहों का आश्रय लेना चाहिए । गोबर का वृहस्पति जब लग्न या चन्द्रमा पर से प्रण को या वहीं से सप्तम अथवा त्रिक्रोण स्थान से भ्रमण बने, तो विवाह निश्चित होता है । शनि भी विवाह में मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है । शनि ग्रह द्वारा विवाह प्रतिबन्धक योग भी निर्मित होते है । अत: शनि के गोबर भ्रमणश्वा की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए । सप्तम भाव पर शनि का प्रभाव, यदि सकारात्मक है, तो विवाह राशि विशेष में गोबर के शनि के भ्रमणाकात्त में सम्पन्न होता है । यह ध्यान रखना चाहिए कि गोचर के शनि का सप्तमभाव पर प्रभाव, गोचर के वृहस्पति का परम, नवम, लग्न या सप्तम भाव पर प्रभाव के साथ अन्तर्दशश्वा में समान अन्तराल में ही विवाह तय होता है । उस समान समय के माग को एक स्थान पर पृथक लिख कर उसी अन्तराल में जिन ग्रहों की प्रत्यन्तर्दशा हो उस पर सतर्कतापूर्वक विचार करना चाहिए । किस माह में विवाह होगा इसका निर्णय करना किंचित् जटिल प्रक्रिया है, परन्तु इसे ज्ञात कर सकना संभव अवश्य है । विवाह का साल जानने हेतु कतिपय नवांश सूत्रों, गोचर तथा प्रत्यन्तर्दइग़ का उपयोग करना चाहिए । प्रथम चरण : विवाह की संभावना है अथवा नहीं कन्या या युवक का विवाह होगा अथवा नहीँ, इस तथ्य का भलीभाँति विचार कस्ता चाहिए । विवाह प्रतिबन्थक योग से शीर्षाविन्त अध्याय में अनेक ऐसे सूत्र प्रतिपादित किये गये है, जो विवाह की सभावना को दशति हैं 1 बंध्या राशियों अथवा नवांश सादे में संस्थित सप्तमेश, द्वितीयेश एव जन्य ग्रहों की स्थिति, शुक्र पर चन्द्रमा अथवा तूर्य का प्रभाव, सूर्य तथा चन्द्रमा का शनि से संबंध, शनि और मंज्जाल का विनिमय टुष्टिसम्बन्ध्र तथा समान अंष्टगें पर सांप, मंगल और चुप का सम्बन्ध, शनि और चन्द्रमा में विनिमय सम्बन्ध आदि अनेक ऐसे सूत्रों का उल्लेख तथा उदाहरण, इस अध्याय में प्रस्तुत किये गये है । यदि विवाह योग विद्यमान नहीं है, तो विवाह समय की गणना करना निरर्थक है । यदि जन्मग्रेम में विवाह प्रतिबन्धक रोग, अनुपस्थित है, तो विवाह में बिलम्ब से सम्बद्ध कतिपय योगों पर सतर्कता पूर्वक विचार करना चाहिए 1 विलम्बित विवाह-अभिनव अभिज्ञान नामक अध्याय में, विवाह में विलम्ब की स्थिति यया विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की गई है, जिसे इस अध्याय में प्रतिपादित सूत्रों त्तचा उदाहरण के अध्ययन द्वारा भलीभाँति समझा जा सकता है । विवाह समय संज्ञान' हेतु सर्वप्रथम यह ज्ञान अनिवार्य है कि विवाह होगा अथवा नहीं और यदि विवाह में विलम्ब का योज्जा है, तो सामान्य रूप से विलम्ब की सम्भावना है, अथवा अत्यधिक दिलम्ब का योग है । यह अनुमान और आकलन इस विषय के अध्ययन, अनुभव और अनुसंधान पर ही आधारित है ।
द्वितीय चरण : सर्वप्रथम महादशा का अनुमान लगाया जाना चाहिए, कि किस महादशा में विवाह होगा 1 विवाह हेतु संभावित महादशा का उल्लेख उपरोक्त आधार पर ही क्रिया जाना चाहिए । महादशा के अनुमान के उपरान्त अन्तर्दशा पर विचार करना चाहिए, कि क्रिस अन्तर्दशा में विवाह होगा ।
तृतीय चरण : अन्तर्दशब्द विवाह के सम्पादन हेतु उपयुक्त अन्तदंशऱ पर विचार करते समय अग्राकित विशिष्ट तथ्यों का ध्यान अवश्य रखना वाहिए । 1 सप्तम या द्वितीय भाव से सम्बन्धित ग्रहों की अन्तदंशा में विवाह होता है, यह तो सर्वविदित है । 2 लग्न से चतुर्थ तथा सप्तम से चतुर्थ भाव अन्तर्दशा से विवाह होने की सबल सम्भावना होती है । अर्थात् चतुर्थ व दशम भाव भी समान रूप से विचारणीय है । चतुर्थ भाव, परिवार के सुख तथा माधुर्य से सम्बन्धित होता है, घिवाहोपरान्त पति और पली जिस प्रेप के घरौंदे का निर्माण करते है, वह चतुर्थ भाव द्वारा ही विचारणीय है । मन मे, जीवन मे, विचारों मेँ, जीवन साथी के पति सम्बन्धों की आत्मीयता से सम्बद्ध, जो भावना अंकुरित और विकसित होती है, उसका आधिपत्य कम हो जाता है!

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